ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ कौशल देश में घूमते हुए सालवाटिका में पहुँचे। उस समय लोहिच्च ब्राह्मण सालवाटिका में रहता था, जो एक घनी आबादी वाला इलाका था, और घास, लकड़ी, जल, और धन-धान्य से संपन्न था। कौशल के राजा प्रसेनजित ने राज-उपहार के तौर पर सालवाटिका की राजसत्ता लोहिच्च ब्राह्मण को सौंपी हुई थी।
उस समय लोहिच्च ब्राह्मण को इस तरह की पापदृष्टि [=बुरी धारणा] उत्पन्न हुई थी — “भले ही किसी श्रमण या ब्राह्मण को कुशल-धर्म प्राप्त भी हो जाए, तब भी वह कुशल-धर्म प्राप्त कर के किसी दूसरे को न बताएँ। कोई पराया भला पराए के लिए क्या ही कर सकता है! वह ऐसा ही होगा जैसे कोई पुराना बंधन तोड़कर नये दूसरे बंधन में फँसता है! बल्कि मैं तो कहता हूँ कि ऐसा करना पाप और लोभ-धर्म हुआ! क्योंकि कोई पराया भला पराए के लिए क्या ही कर सकता है!”
और उस लोहिच्च ब्राह्मण ने सुना, “यह सच है, श्रीमान! शाक्यपुत्र श्रमण गौतम, जो शाक्य-कुल से प्रवज्यित हैं, वे पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ कौशल देश में घूमते हुए सालवाटिका में पहुँचे हैं। उनके बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त! वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं। और ऐसे अर्हन्तों का दर्शन वाकई शुभ होता है।”
तब लोहिच्च ब्राह्मण ने रोसिक नामक नाई को बुलाकर कहा, “यहाँ आओ, मित्र रोसिक। श्रमण गौतम के पास जाओ, और जाकर मेरे नाम से पुछो कि उन्हें कोई दिक्कत तो नहीं, अस्वस्थ तो नहीं? वे चुस्ती, बल और राहत से तो रह रहे है? फिर कहना: “हे गौतम! कल आप भिक्षुसंघ के साथ लोहिच्च ब्राह्मण का भोजन स्वीकार करें।”
“जैसा आप कहे!” रोसिक नाई ने लोहिच्च ब्राह्मण को उत्तर देकर भगवान के पास गया, और जाकर अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर रोसिक नाई ने भगवान से कहा, “भंते, लोहिच्च ब्राह्मण पुछते है कि भगवान को कोई दिक्कत तो नहीं, अस्वस्थ तो नहीं? भगवान चुस्ती, बल और राहत से तो रह रहे है? और कहते है कि कल भगवान भिक्षुसंघ के साथ लोहिच्च ब्राह्मण का भोजन स्वीकार करें।”
भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी।
तब रोसिक नाई ने भगवान की स्वीकृति जानकर अपने आसन से उठकर, अभिवादन कर, [दाएँ ओर से] प्रदक्षिणा करते हुए लोहिच्च ब्राह्मण के पास गया। जाकर उसने लोहिच्च ब्राह्मण से कहा, “मैंने आपकी बातें भगवान से कह दिया है कि “भंते, लोहिच्च ब्राह्मण पुछते है कि भगवान को कोई दिक्कत तो नहीं, अस्वस्थ तो नहीं? भगवान चुस्ती, बल और राहत से तो रह रहे है? और कहते है कि कल भगवान भिक्षुसंघ के साथ लोहिच्च ब्राह्मण का भोजन स्वीकार करें।” और तब भगवान ने स्वीकृति दी।”
तब रात बीतने पर लोहिच्च ब्राह्मण ने अपने घर पर उत्तम खाद्य और भोजन बनाकर, रोसिक नाई से बुलाकर कहा, “यहाँ आओ, मित्र रोसिक। श्रमण गौतम के पास जाओ, और जाकर समय सूचित करो कि ‘उचित समय है, हे गौतम! भोजन तैयार है।’”
“जैसा आप कहे!” रोसिक नाई ने लोहिच्च ब्राह्मण को उत्तर देकर भगवान के पास गया, और जाकर अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर रोसिक नाई ने भगवान से कहा, “उचित समय है, हे गौतम! भोजन तैयार है।”
तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षुसंघ के साथ सालवाटिका में गए। उस समय रोसिक नाई भगवान के पीछे-पीछे चल रहा था। तब रोसिक नाई ने भगवान से कहा, “भंते, लोहिच्च ब्राह्मण को इस तरह की पापदृष्टि उत्पन्न हुई है — “भले ही किसी श्रमण या ब्राह्मण को कुशल-धर्म प्राप्त भी हो जाए, तब भी वह कुशल-धर्म प्राप्त कर के किसी दूसरे को न बताएँ। कोई पराया भला पराए के लिए क्या ही कर सकता है! वह ऐसा ही होगा जैसे कोई पुराना बंधन तोड़कर नये दूसरे बंधन में फँसता है! बल्कि मैं तो कहता हूँ कि ऐसा करना पाप और लोभ-धर्म हुआ! क्योंकि कोई पराया भला पराए के लिए क्या ही कर सकता है!” अच्छा होगा, भंते, जो भगवान लोहिच्च ब्राह्मण को ऐसी पापदृष्टि से अलग कराएँ!”
“काश, बिलकुल ऐसा ही हो, रोसिक! काश, बिलकुल ऐसा ही हो!”
तब भगवान लोहिच्च ब्राह्मण के घर गए, और जाकर बिछे आसन पर बैठ गये। तब लोहिच्च ब्राह्मण ने भगवान और भिक्षुसंघ को अपने हाथों से उत्तम खाद्य और भोजन परोस कर संतृप्त किया, संतुष्ट किया। भगवान के भोजन कर पात्र से हाथ हटाने के पश्चात, लोहिच्च ब्राह्मण ने स्वयं का आसन नीचे लगाया और एक ओर बैठ गया।
और एक ओर बैठे सोणदण्ड ब्राह्मण ने भगवान से कहा, “क्या यह सच है, लोहिच्च, कि तुम्हें इस तरह की पापदृष्टि उत्पन्न हुई है — “भले ही किसी श्रमण या ब्राह्मण को कुशल-धर्म प्राप्त भी हो जाए, तब भी वह कुशल-धर्म प्राप्त कर के किसी दूसरे को न बताएँ। कोई पराया भला पराए के लिए क्या ही कर सकता है! वह ऐसा ही होगा जैसे कोई पुराना बंधन तोड़कर नये दूसरे बंधन में फँसता है! बल्कि मैं तो कहता हूँ कि ऐसा करना पाप और लोभ-धर्म हुआ! क्योंकि कोई पराया भला पराए के लिए क्या ही कर सकता है!”
“हाँ, गुरु गौतम!”
“क्या लगता है, लोहिच्च, तुम सालवाटिका में रहकर राज करते हो?”
“हाँ, गुरु गौतम!”
“लोहिच्च, यदि कोई कहे कि ‘लोहिच्च ब्राह्मण सालवाटिका में रहकर राज करता है। उस सालवाटिका की उत्पन्न आय को लोहिच्च ब्राह्मण ने अकेले ही खाना चाहिए, किसी अन्य को नहीं देना चाहिए!’ जो ऐसा बोले, वह तुम पर उपजीविका करने वाली प्रजा का विघ्नकारक है या नहीं?”
“विघ्नकारक होगा, गुरु गौतम।”
“जो विघ्नकारक हो, वह उनका हितकर्ता होगा या अहितकर्ता?”
“अहितकर्ता होगा, गुरु गौतम।”
“अहितकर्ता का चित्त सद्भावना में स्थित होगा या शत्रुता में?”
“शत्रुता में, गुरु गौतम।”
“चित्त में शत्रुता स्थित हो, तो मिथ्यादृष्टि है या सम्यकदृष्टि?”
“मिथ्यादृष्टि है, गुरु गौतम।”
“लोहिच्च, मैं कहता हूँ कि मिथ्यादृष्टि वाले की दो गति में से कोई एक गति होती है — नर्क अथवा पशुयोनि। क्या लगता है, लोहिच्च, क्या महाराज प्रसेनजित कौशल काशी और कौशल में रहकर राज करते है?”
“हाँ, गुरु गौतम!”
“लोहिच्च, यदि कोई कहे कि ‘महाराज प्रसेनजित कौशल काशी और कौशल में रहकर राज करते है। उस काशी और कौशल की उत्पन्न आय को महाराज प्रसेनजित ने अकेले ही खाना चाहिए, किसी अन्य को नहीं देना चाहिए!’ जो ऐसा बोले, वह महाराज प्रसेनजित पर उपजीविका करने वाली प्रजा का विघ्नकारक है या नहीं?”
“विघ्नकारक होगा, गुरु गौतम।”
“जो विघ्नकारक हो, वह उनका हितकर्ता होगा या अहितकर्ता?”
“अहितकर्ता होगा, गुरु गौतम।”
“अहितकर्ता का चित्त सद्भावना में स्थित होगा या शत्रुता में?”
“शत्रुता में, गुरु गौतम।”
“चित्त में शत्रुता स्थित हो, तो मिथ्यादृष्टि है या सम्यकदृष्टि?”
“मिथ्यादृष्टि है, गुरु गौतम।”
“लोहिच्च, मैं कहता हूँ कि मिथ्यादृष्टि वाले की दो गति में से कोई एक गति होती है — नर्क अथवा पशुयोनि।
इसलिए, लोहिच्च, यदि कोई कहे कि ‘लोहिच्च ब्राह्मण सालवाटिका में रहकर राज करता है। उस सालवाटिका की उत्पन्न आय को लोहिच्च ब्राह्मण ने अकेले ही खाना चाहिए, किसी अन्य को नहीं देना चाहिए!’ — जो ऐसा बोले, वह तुम पर उपजीविका करने वाली प्रजा का विघ्नकारक होगा। जो विघ्नकारक हो, वह अहितकर्ता होगा। जो अहितकर्ता हो, उसका चित्त शत्रुता में स्थित होगा। जिसका चित्त शत्रुता में स्थित हो, उसकी मिथ्यादृष्टि होगी। और मैं कहता हूँ कि मिथ्यादृष्टि वाले की दो गति में से कोई एक गति होती है — नर्क अथवा पशुयोनि।
उसी तरह, लोहिच्च, यदि कोई कहे कि ‘भले ही किसी श्रमण या ब्राह्मण को कुशल-धर्म प्राप्त भी हो जाए, तब भी वह कुशल-धर्म प्राप्त कर के किसी दूसरे को न बताएँ। कोई पराया भला पराए के लिए क्या ही कर सकता है! वह ऐसा ही होगा जैसे कोई पुराना बंधन तोड़कर नये दूसरे बंधन में फँसता है! बल्कि मैं तो कहता हूँ कि ऐसा करना पाप और लोभ-धर्म हुआ! क्योंकि कोई पराया भला पराए के लिए क्या ही कर सकता है!’ — जो ऐसा बोले, वह ऐसे कुलपुत्रों का विघ्नकारक होगा, जो तथागत द्वारा घोषित इस धर्म-विनय में आते हैं, और ऐसी विशेष उत्कृष्ठता प्राप्त करते हैं, जैसे श्रोतापति-फल का साक्षात्कार करते हैं, सकृदागामि-फल का साक्षात्कार करते हैं, अनागामि-फल का साक्षात्कार करते हैं, अर्हंत होने का साक्षात्कार करते हैं, या जो दिव्य-अवस्थाओं पर पहुँचने के लिए दिव्य-गर्भ पकाते हैं। जो विघ्नकारक हो, वह अहितकर्ता होगा। जो अहितकर्ता हो, उसका चित्त शत्रुता में स्थित होगा। जिसका चित्त शत्रुता में स्थित हो, उसकी मिथ्यादृष्टि होगी। और मैं कहता हूँ कि मिथ्यादृष्टि वाले की दो गति में से कोई एक गति होती है — नर्क अथवा पशुयोनि।
और, लोहिच्च, यदि कोई कहे कि ‘महाराज प्रसेनजित कौशल काशी और कौशल में रहकर राज करते है। उस काशी और कौशल की उत्पन्न आय को महाराज प्रसेनजित ने अकेले ही खाना चाहिए, किसी अन्य को नहीं देना चाहिए!’ — जो ऐसा बोले, वह महाराज प्रसेनजित पर उपजीविका करने वाली प्रजा का विघ्नकारक होगा। जो विघ्नकारक हो, वह अहितकर्ता होगा। जो अहितकर्ता हो, उसका चित्त शत्रुता में स्थित होगा। जिसका चित्त शत्रुता में स्थित हो, उसकी मिथ्यादृष्टि होगी। और मैं कहता हूँ कि मिथ्यादृष्टि वाले की दो गति में से कोई एक गति होती है — नर्क अथवा पशुयोनि।
उसी तरह, लोहिच्च, यदि कोई कहे कि ‘भले ही किसी श्रमण या ब्राह्मण को कुशल-धर्म प्राप्त भी हो जाए, तब भी वह कुशल-धर्म प्राप्त कर के किसी दूसरे को न बताएँ। कोई पराया भला पराए के लिए क्या ही कर सकता है! वह ऐसा ही होगा जैसे कोई पुराना बंधन तोड़कर नये दूसरे बंधन में फँसता है! बल्कि मैं तो कहता हूँ कि ऐसा करना पाप और लोभ-धर्म हुआ! क्योंकि कोई पराया भला पराए के लिए क्या ही कर सकता है!’ — जो ऐसा बोले, वह ऐसे कुलपुत्रों का विघ्नकारक होगा, जो तथागत द्वारा घोषित इस धर्म-विनय में आते हैं, और ऐसी विशेष उत्कृष्ठता प्राप्त करते हैं, जैसे श्रोतापति-फल का साक्षात्कार करते हैं, सकृदागामि-फल का साक्षात्कार करते हैं, अनागामि-फल का साक्षात्कार करते हैं, अर्हंत होने का साक्षात्कार करते हैं, या जो दिव्य-अवस्थाओं पर पहुँचने के लिए दिव्य-गर्भ पकाते हैं। जो विघ्नकारक हो, वह अहितकर्ता होगा। जो अहितकर्ता हो, उसका चित्त शत्रुता में स्थित होगा। जिसका चित्त शत्रुता में स्थित हो, उसकी मिथ्यादृष्टि होगी। और मैं कहता हूँ कि मिथ्यादृष्टि वाले की दो गति में से कोई एक गति होती है — नर्क अथवा पशुयोनि।
तीन शास्ता [=धर्मगुरु] होते हैं, लोहिच्च, जो दुनिया से आलोचना के लायक होते हैं। और जब कोई ऐसे तीन शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना यथार्थ, सच्ची, धर्मानुसार, और निर्दोष होती है। कौन-से तीन?
एक शास्ता होता है, जो श्रमण्यता की उस मंज़िल पर नहीं पहुँचता है, जिस ध्येय से वे घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं। और, जो स्वयं श्रमण्यता की मंज़िल पर न पहुँचा हो, वह शास्ता अपने शिष्यों को सिखाता है, ‘यह तुम्हारे हित में है! यह तुम्हारे सुख में है!’ उसके शिष्य सुनना नहीं चाहते हैं, कान नहीं देते हैं, परमज्ञान के लिए दिल नहीं लगाते हैं, शास्ता के मार्गदर्शन से भटक जाते हैं। ऐसा शास्ता आलोचना के लायक होता है — ‘आयुष्मान, आप श्रमण्यता की मंज़िल पर नहीं पहुँचे है, जिस ध्येय से लोग घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं। आप स्वयं श्रमण्यता की मंज़िल पर ना पहुँच, अपने शिष्यों को सिखाते है कि ‘यह तुम्हारे हित में है! यह तुम्हारे सुख में है!’ आप के शिष्य सुनना नहीं चाहते हैं, कान नहीं देते हैं, परमज्ञान के लिए दिल नहीं लगाते हैं, आप के मार्गदर्शन से भटक जाते हैं। जैसे कोई दूर जाती [स्त्री] को मनाने के लिए पीछे पड़ता है, मुँह फेर चुकी को [जबर्दस्ती] आलिंगन देता है। मैं कहता हूँ कि ऐसा करना पाप है, लोभ-धर्म है! कोई पराया भला पराए के लिए क्या कर सकता है!’ यह, लोहिच्च, प्रथम शास्ता होता है, जो दुनिया से आलोचना के लायक होता है। और जब कोई ऐसे शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना यथार्थ, सच्ची, धर्मानुसार, और निर्दोष ही होती है।
फिर एक शास्ता होता है, जो श्रमण्यता की उस मंज़िल पर नहीं पहुँचता है, जिस ध्येय से वे घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं। और, जो स्वयं श्रमण्यता की मंज़िल पर न पहुँचा हो, वह शास्ता अपने शिष्यों को सिखाता है, ‘यह तुम्हारे हित में है! यह तुम्हारे सुख में है!’ उसके शिष्य सुनना चाहते हैं, कान देते हैं, परमज्ञान के लिए दिल लगाते हैं, शास्ता के मार्गदर्शन से भटकते नहीं हैं। ऐसा शास्ता भी आलोचना के लायक होता है — ‘आयुष्मान, आप श्रमण्यता की मंज़िल पर नहीं पहुँचे है, जिस ध्येय से लोग घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं। आप स्वयं श्रमण्यता की मंज़िल पर ना पहुँच, अपने शिष्यों को सिखाते है कि ‘यह तुम्हारे हित में है! यह तुम्हारे सुख में है!’ आपके शिष्य सुनना चाहते हैं, कान देते हैं, परमज्ञान के लिए दिल लगाते हैं, शास्ता के मार्गदर्शन से भटकते नहीं हैं। जैसे कोई अपने खेत को छोड़ दे, और पराए खेत की निराई [=साफ़-सफ़ाई] करना चाहे। मैं कहता हूँ कि ऐसा करना पाप है, लोभ-धर्म है! कोई पराया भला पराए के लिए क्या कर सकता है!’ यह, लोहिच्च, द्वितीय शास्ता होता है, जो दुनिया से आलोचना के लायक होता है। और जब कोई ऐसे शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना यथार्थ, सच्ची, धर्मानुसार, और निर्दोष ही होती है।
फिर एक शास्ता होता है, जो श्रमण्यता की उस मंज़िल पर पहुँचता है, जिस ध्येय से वे घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं। और, वह श्रमण्यता की मंज़िल पर पहुँचकर अपने शिष्यों को सिखाता है, ‘यह तुम्हारे हित में है! यह तुम्हारे सुख में है!’ किन्तु उसके शिष्य सुनना नहीं चाहते हैं, कान नहीं देते हैं, परमज्ञान के लिए दिल नहीं लगाते हैं, शास्ता के मार्गदर्शन से भटक जाते हैं। ऐसा शास्ता भी आलोचना के लायक होता है — ‘आयुष्मान, आप श्रमण्यता की उस मंज़िल पर पहुँचे है, जिस ध्येय से वे घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं। आप श्रमण्यता की मंज़िल पर पहुँचकर अपने शिष्यों को सिखाते है कि ‘यह तुम्हारे हित में है! यह तुम्हारे सुख में है!’ किन्तु आपके शिष्य सुनना नहीं चाहते हैं, कान नहीं देते हैं, परमज्ञान के लिए दिल नहीं लगाते हैं, शास्ता के मार्गदर्शन से भटक जाते हैं। जैसे कोई पुराना बंधन तोड़कर दूसरे नये बंधन में फँस जाता है। मैं कहता हूँ कि ऐसा करना पाप है, लोभ-धर्म है! कोई पराया भला पराए के लिए क्या कर सकता है!’ यह, लोहिच्च, तृतीय शास्ता होता है, जो दुनिया से आलोचना के लायक होता है। और जब कोई ऐसे शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना यथार्थ, सच्ची, धर्मानुसार, और निर्दोष ही होती है।
यही तीन शास्ता होते हैं, लोहिच्च, जो दुनिया से आलोचना के लायक होते हैं। और जब कोई ऐसे तीन शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना यथार्थ, सच्ची, धर्मानुसार, और निर्दोष होती है।
जब ऐसा कहा गया, तो लोहिच्च ब्राह्मण ने भगवान से कहा, “किन्तु, गुरु गौतम, क्या कोई शास्ता ऐसा है, जो दुनिया से आलोचना के लायक नहीं होता?”
“हाँ, लोहिच्च, ऐसा शास्ता है, जो दुनिया से आलोचना के लायक नहीं होता।”
“कौन है वह शास्ता, गुरु गौतम, जो दुनिया से आलोचना के लायक नहीं होता?”
“ऐसा होता है, लोहिच्च! यहाँ कभी इस लोक में तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट होते हैं — विद्या और आचरण से संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं।
ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत पर श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, ‘गृहस्थी बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्यता का पालन करना सरल नहीं है, जो चमचमाते शँख जैसा हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’
तब वह समय पाकर, छोटी-बड़ी धनसंपत्ति त्यागकर, छोटा-बड़ा घरपरिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित होता है।
प्रवज्यित होकर ऐसा भिक्षु शीलवान बनता है। वह पातिमोक्ष के अनुसार संयम से विनीत होकर, आर्य आचरण और जीवनशैली से संपन्न होकर रहता है। वह [धर्म-विनय] शिक्षापदों को सीख कर धारण करता है, अल्प पाप में भी ख़तरा देखता है। वह काया और वाणी के कुशल कर्मों से युक्त होता है, जीविका परिशुद्ध रखता है, और शील में समृद्ध होता है। इंद्रिय-द्वारों पर पहरा देता है, स्मरणशील और सचेत होता है, और संतुष्ट जीता है।
और, लोहिच्च, कोई भिक्षु शील-संपन्न कैसे होता है?
• कोई भिक्षु हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी। यह उसका शील होता है।
• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं। यह भी उसका शील होता है।
• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत! यह भी उसका शील होता है।
• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं। यह भी उसका शील होता है।
• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है। यह भी उसका शील होता है।
• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे। यह भी उसका शील होता है।
• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ। यह भी उसका शील होता है।
• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…
• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…
• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…
• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…
• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…
• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…
• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…
• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।
यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश में लगे रहते हैं, जो — जड़ से उगते हो, डंठल से उगते हो, जोड़ से उगते हो, कली से उगते हो, और बीज से अंकुरित होते हो। कोई भिक्षु इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने में लगे रहते हैं, जैसे — संग्रहीत अन्न, संग्रहीत जलपान, संग्रहीत वस्त्र, संग्रहीत वाहन, संग्रहीत शय्या, संग्रहीत गन्ध, संग्रहीत माँस। कोई भिक्षु इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के अनुचित दर्शन में लगे रहते हैं, जैसे — नृत्य, गीत या वाद्यसंगीत; नाटक या कथा-लीला; ताली, झांझ या ढ़ोल बजाना; चलचित्र या रंगमंच; कलाबाजी या जादुई खेल; हाथी-लड़ाई, अश्व-लड़ाई, भैंस-लड़ाई, बैल-लड़ाई, बकरा-लड़ाई, भेळ-लड़ाई, मुर्गा-लड़ाई, बदक-लड़ाई, लाठी-खेल, मुष्टि-युद्ध, कुश्ती, युद्ध-खेल, सैन्य-भूमिका, युद्ध-चक्रव्यूह, सैन्य-समीक्षा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के अनुचित दर्शन से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों में लगे रहते हैं, जैसे — अष्टपद शतरंज, दशपद शतरंज, आकाश शतरंज, परिहारपथ, सन्निक, पासा, छड़ी का खेल, हस्तचित्र, गेंद का खेल, नली फूँकने का खेल, हल का खेल, कलाबाजी का खेल, चक्की का खेल, तराजू का खेल, रथ की दौड़, तीर चलाने का खेल, अंताक्षरी, विचार जानने का खेल, नकल इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा [=फर्नीचर] में लगे रहते हैं, जैसे — बड़ा विलासी सोफ़ा या पलंग, नक्काशीदार या खाल से सजा सोफ़ा, लंबे रोएवाला आसन, रंगीत-चित्रित आसन, सफ़ेद ऊनी कम्बल, फूलदार बिछौना, मोटी रजार्इ या गद्दा, सिह-बाघ आदि के चित्रवाला आसन, झालरदार आसन, रेशमी या कढ़ाई [एंब्रोईडरी] वाला आसन, लम्बी ऊनी कालीन, हाथी-गलीचा, अश्व-गलीचा, रथ-गलीचा, मृग या सांभर खाल का आसन, छातेदार सोफ़ा, दोनों-ओर लाल तकिये रखा सोफ़ा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण में लगे रहते हैं, जैसे — सुगंधित उबटन लगाना, तेल से शरीर मलना, सुगंधित जल से नहाना, हाथ-पैर दबवाना, दर्पण, लेप, माला, गन्ध, मुखचूर्ण [=पाउडर], काजल, हाथ में आभूषण, सिर में बाँधना, अलंकृत छड़ी, अलंकृत बोतल, छुरी, छाता, कढ़ाई वाला जूता, साफा [=पगड़ी], मुकुट या मणि, चँदर, लंबे झालरवाले सफ़ेद वस्त्र इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की व्यर्थ चर्चा में लगे रहते हैं, जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें। कोई भिक्षु इस तरह की व्यर्थ चर्चा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के वाद-विवाद में लगे रहते हैं, जैसे — “तुम इस धर्म-विनय को समझते हो? मैं इस धर्म-विनय को समझता हूँ।” “तुम इस धर्म-विनय को क्या समझोगे?” “तुम गलत अभ्यास करते हो। मैं सही अभ्यास करता हूँ।” “मैं धर्मानुसार [=सुसंगत] बताता हूँ। तुम उल्टा बताते हो।” “तुम्हें जो पहले कहना चाहिए था, उसे पश्चात कहा, और जो पश्चात कहना चाहिए, उसे पहले कहा।” “तुम्हारी दीर्घकाल सोची हुई धारणा का खण्डन हुआ।” “तुम्हारी बात कट गई।” “तुम हार गए।” “जाओ, अपनी धारणा को बचाने का प्रयास करो, या उत्तर दे सको तो दो!” कोई भिक्षु इस तरह के वाद-विवाद से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बन घूमने में लगे रहते हैं, जैसे — राजा, महामन्त्री, क्षत्रिय, ब्राह्मण, गृहस्थ [=वैश्य], या युवा। “वहाँ जाओ”, “यहाँ आओ”, “यह ले जाओ”, “यह ले आओ!" कोई भिक्षु इस तरह लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बनने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, पाखंड, झूठी प्रशंसा, इशारे, अपमानित या भयभीत करते, और लाभ से लाभ ढूँढते हैं। कोई भिक्षु इस तरह का पाखंड और बातों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
अंग [=काया की बनावट देखकर भविष्य/चरित्रवर्तन],
निमित्त [=शकुन-अपशकुन घटनाएँ बतलाना],
उत्पात [=वज्रपात, उल्कापात, धूमकेतु इत्यादि का अर्थ बतलाना],
स्वप्न [=स्वप्न का शुभ-अशुभ अर्थ बतलाना],
लक्षण [=बर्ताव इत्यादि का अर्थ बतलाना],
मूषिक-छिद्र [=चूहे द्वारा कुतरा वस्त्र देखकर अर्थ बतलाना],
अग्नि-हवन [=अग्नि को चढ़ावा],
करछी से होम-हवन, भूसी से होम, टूटे चावल से होम, चावल से होम, घी से होम, तेल से होम, घी के कुल्ले से होम, रक्त-बलिदान से होम,
अंगविद्या [=हस्तरेखा, पादरेखा, कपालरेखा इत्यादि देखकर भविष्यवर्तन],
वास्तुविद्या [=निवास में शुभ-अशुभ बतलाना],
क्षेत्रविद्या [=खेत-जमीन-जायदाद में शुभ-अशुभ बतलाना],
शिवविद्या [=श्मशान-भूमि में शुभ-अशुभ बतलाना],
भूतविद्या [=भूतबाधा और मुक्तिमंत्र बतलाना],
भुरिविद्या [=घर के सुरक्षामंत्र बतलाना],
सर्पविद्या [=सर्पदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
विषविद्या [=विषबाधा में सुरक्षामंत्र बतलाना],
वृश्चिकविद्या [=बिच्छूदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
मूषिकविद्या [=चूहों से सुरक्षामंत्र बतलाना],
पक्षीविद्या [=पक्षीध्वनि का अर्थ बतलाना],
कौवाविद्या [=कौंवों की ध्वनि या बर्ताव का अर्थ बतलाना],
पक्षध्यान [=आयुसीमा या मृत्युकाल बतलाना],
शरपरित्राण [=बाण से सुरक्षामंत्र बतलाना],
और मृगचक्र [=हिरण इत्यादि पशुध्वनि का अर्थ बतलाना]।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
मणि-लक्षण [मणि की विलक्षणता बतलाना],
वस्त्र-लक्षण [=वस्त्र पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
दण्ड-लक्षण [=छड़ी पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
शस्त्र-लक्षण [=छुरे पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
असि-लक्षण [तलवार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
बाण-लक्षण [=बाण पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
धनुष-लक्षण [=धनुष पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
आयुध-लक्षण[=शस्त्र, औज़ार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
स्त्री-लक्षण [=स्त्री के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
पुरुष-लक्षण [=पुरुष के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमार-लक्षण [=लड़के के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमारी-लक्षण [=लड़की के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दास-लक्षण [=गुलाम/नौकर के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दासी-लक्षण [=गुलाम/नौकरानी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
हस्ति-लक्षण [=हाथी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अश्व-लक्षण [=घोड़े के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
भैस-लक्षण [=भैंस के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
वृषभ-लक्षण [=बैल के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गाय-लक्षण [=गाय के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अज-लक्षण [=बकरी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मेष-लक्षण [=भेड़ के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मुर्गा-लक्षण [=मुर्गे के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
बत्तक-लक्षण [=बदक के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गोह-लक्षण [=गोह/छिपकली के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कर्णिका-लक्षण [=ख़रगोश के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कच्छप-लक्षण [=कछुए के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
और मृग-लक्षण [=मृग/हिरण के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना]।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे — राजा [युद्ध में] आगे बढ़ेगा, राजा आगे नहीं बढ़ेगा, यहाँ का राजा आगे बढ़ेगा तो बाहरी राजा पीछे हटेगा, बाहरी राजा आगे बढ़ेगा तो यहाँ का राजा पीछे हटेगा, यहाँ के राजा विजयी होगा और बाहरी राजा पराजित, बाहरी राजा विजयी होगा और यहाँ का राजा पराजित, इसका विजय उसका पराजय होगा। कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
चंद्रग्रहण होगा, सूर्यग्रहण होगा, नक्षत्रग्रहण होगा,
सूर्य और चंद्र पथगमन करेंगे [=अनुकूल रहेंगे],
सूर्य और चंद्र उप्पथगमन करेंगे [=प्रतिकूल रहेंगे],
नक्षत्र पथगमन करेंगे,
नक्षत्र उप्पथगमन करेंगे,
उल्कापात होगा,
क्षितिज उज्ज्वल होगा [=ऑरोरा?],
भूकंप होगा,
देवढ़ोल बजेंगे [बादल-गर्जना?],
सूर्य, चंद्र या नक्षत्रों का उदय, अस्त, मंद या तेजस्वी होंगे,
चंद्रग्रहण का परिणाम ऐसा होगा,
सूर्यग्रहण…, नक्षत्रग्रहण…, [और एक-एक कर इन सब का] परिणाम ऐसा होगा।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
प्रचुर वर्षा होगी,
अल्प वर्षा होगी,
सुभिक्ष [=भोजन भरपूर] होगा,
दुर्भिक्ष [=भोजन नहीं] होगा,
क्षेम [=राहत, सुरक्षा] होगा,
भय [=खतरा, चुनौतीपूर्ण काल] होगा,
रोग [=बीमारियाँ] होंगे,
आरोग्य [=चंगाई] होगा,
अथवा वे लेखांकन, गणना, आंकलन, कविताओं की रचना, भौतिकवादी कला [लोकायत] सिखाकर अपनी मिथ्या आजीविका कमाते हैं।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
आवाह [=दुल्हन घर लाने का] मुहूर्त बतलाना,
विवाह [=कन्या भेजने का] मुहूर्त बतलाना,
संवरण [=घूँघट या संयम करने का] मुहूर्त बतलाना,
विवरण [=घूँघट हटाने या संभोग का] मुहूर्त बतलाना,
जमा-बटोरने का मुहूर्त बतलाना,
निवेश-फैलाने का मुहूर्त बतलाना,
शुभ-वरदान देना,
श्राप देना,
गर्भ-गिराने की दवाई देना,
जीभ बांधने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बांधने का मंत्र बतलाना,
हाथ उल्टेपूल्टे मुड़ने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बंद करने का मंत्र बतलाना,
कान बंद करने का मंत्र बतलाना,
दर्पण [के भूत] से प्रश्न पुछना,
भूत-बाधित कन्या से प्रश्न पुछना,
देवता से प्रश्न पुछना,
सूर्य की पुजा करना,
महादेव की पुजा करना,
मुँह से अग्नि निकालना,
श्रीदेवी [=सौभाग्य लानेवाली देवी] का आह्वान करना।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
शान्ति-पाठ कराना,
इच्छापूर्ति-पाठ कराना,
भूतात्मा-पाठ कराना,
भूमि-पूजन कराना,
वर्ष-पाठ कराना [=नपुंसक को पौरुषत्व दिलाने के लिए],
वोस्स-पाठ कराना [=कामेच्छा ख़त्म कराने के लिए],
वास्तु-पाठ कराना [घर बनाने पूर्व],
वास्तु-परिकर्म कराना [=भूमि का उपयोग करने पूर्व देवताओं को बलि देना इत्यादि],
शुद्धजल से धुलवाना,
शुद्धजल से नहलाना,
बलि चढ़ाना,
वमन [=उलटी] कराना,
विरेचन [=जुलाब देकर] कराना,
ऊपर [=मुख] से विरेचन कराना,
नीचे से विरेचन [=दस्त] कराना,
शीर्ष-विरेचन कराना [=कफ निकालना?],
कान के लिए औषधियुक्त तेल देना,
आँखों की धुंधलाहट हटाने के लिए औषधि देना,
नाक के लिए औषधि देना,
मरहम देना, प्रति-मरहम देना,
आँखें शीतल करने की दवा देना,
आँख और कान की शल्यक्रिया करना,
शरीर की शल्यक्रिया [=छुरी से सर्जरी] करना,
बच्चों का वैद्य बनना,
जड़ीबूटी देना, जड़ीबूटी बांधना।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
इस तरह, लोहिच्च, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। जैसे, कोई राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा हो, जिसने सभी शत्रुओं को जीत लिया हो, वह कही किसी शत्रु से खतरा नहीं देखता है। उसी तरह, लोहिच्च, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। वह ऐसे आर्यशील-संग्रह से संपन्न होकर निष्पाप [जीने के] सुख का अनुभव करता है। इस तरह, लोहिच्च, कोई भिक्षु शील-संपन्न होता है।
इन्द्रिय सँवर
और, लोहिच्च, कैसे कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है?
• कोई भिक्षु, आँखों से रूप देखकर, न उसकी छाप «निमित्त» ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण [=आकर्षित करनेवाली कोई दूसरी बात]। चूँकि यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे [कोई] लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, चक्षु-इंद्रिय का बचाव करता है, चक्षु-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह कान से आवाज सुनकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह श्रोत-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, श्रोत-इंद्रिय का बचाव करता है, श्रोत-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह नाक से गन्ध सूँघकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह घ्राण-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, घ्राण-इंद्रिय का बचाव करता है, घ्राण-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह जीभ से रस चखकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह जिव्हा-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, जिव्हा-इंद्रिय का बचाव करता है, जिव्हा-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह काया से संस्पर्श महसूस कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह काय-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, काय-इंद्रिय का बचाव करता है, काय-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह मन से स्वभाव जान कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह मन-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, मन-इंद्रिय का बचाव करता है, मन-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर निष्पाप सुख का अनुभव करता है। इस तरह, लोहिच्च, कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है।
स्मरणशील और सचेत
और, लोहिच्च, कैसे कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है? वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है। इस तरह, लोहिच्च, कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है।
सन्तोष
और, लोहिच्च, कैसे कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है? वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। इस तरह, लोहिच्च, कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है।
नीवरण त्याग
इस तरह वह आर्य-शीलसंग्रह से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य-सँवर से संपन्न होकर, स्मरणशील और सचेत होकर, आर्य-संतुष्ट होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।
वह दुनिया के प्रति लालसा «अभिज्झा» हटाकर लालसाविहीन चित्त से रहता है। अपने चित्त से लालसा को साफ़ करता है। वह भीतर से दुर्भावना और द्वेष «ब्यापादपदोस» हटाकर दुर्भावनाविहीन चित्त से रहता है — समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। अपने चित्त से दुर्भावना और द्वेष को साफ़ करता है। वह भीतर से सुस्ती और तंद्रा «थिनमिद्धा» हटाकर सुस्ती और तंद्राविहीन चित्त से रहता है — उजाला देखने वाला, स्मरणशील और सचेत। अपने चित्त से सुस्ती और तंद्रा को साफ़ करता है। वह भीतर से बेचैनी और पश्चाताप «उद्धच्चकुक्कुच्च» हटाकर बिना व्याकुलता के रहता है; भीतर से शान्त चित्त। अपने चित्त से बेचैनी और पश्चाताप को साफ़ करता है। वह अनिश्चितता «विचिकिच्छा» हटाकर उलझन को लाँघता है; कुशल स्वभावों के प्रति संभ्रमता के बिना। अपने चित्त से अनिश्चितता को साफ़ करता है।
जैसे, लोहिच्च, कल्पना करें कि कोई पुरुष ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाए, और उसका व्यवसाय यशस्वी हो जाए। तब वह पुराना ऋण चुका पाए और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाए। तब उसे लगेगा, “मैंने ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाया और मेरा व्यवसाय यशस्वी हो गया। अब मैंने पुराना ऋण चुका दिया है और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाया है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, लोहिच्च, कि कोई पुरुष बीमार पड़े — पीड़ादायक गंभीर रोग में। वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा न पाए और उसकी काया में बल न रहे। समय बीतने के साथ, वह अंततः रोग से मुक्त हो जाए। तब वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाए और उसकी काया में भी बल रहे। तब उसे लगेगा, “पहले मैं बीमार पड़ा था — पीड़ादायक गंभीर रोग में। न मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता था, न ही मेरी काया में बल रहता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः रोग से मुक्त हो गया। अब मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता हूँ और मेरी काया में बल भी रहता है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, लोहिच्च, कि कोई पुरुष कारावास में कैद हो। समय बीतने के साथ, वह अंततः कारावास से छूट जाए — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं कारावास में कैद था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः कारावास से छूट गया — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, लोहिच्च, कि कोई पुरुष गुलाम हो — पराए के अधीन हो, स्वयं के नहीं। वह जहाँ जाना चाहे, नहीं जा सके। समय बीतने के साथ, वह अंततः गुलामी से छूट जाए — स्वयं के अधीन हो, पराए के नहीं। तब वह जहाँ जाना चाहे, जा सके। तब उसे लगेगा, “पहले मैं गुलाम था — पराए के अधीन, स्वयं के नहीं। मैं जहाँ जाना चाहता था, नहीं जा सकता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः गुलामी से छूट गया — स्वयं के अधीन, पराए के नहीं। अब मैं जहाँ जाना चाहता हूँ, जा सकता हूँ।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, लोहिच्च, कि कोई पुरुष धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा हो, जहाँ भोजन अल्प हो, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, वह अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच जाए — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा था, जहाँ भोजन अल्प था, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, मैं अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच गया — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
उसी तरह, लोहिच्च, जब तक ये पाँच अवरोध भीतर से छूटते नहीं हैं, तब तक भिक्षु उन्हें ऋण, रोग, कारावास, गुलामी और रेगिस्तान की तरह देखता है।
किंतु जब ये पाँच अवरोध भीतर से छूट जाते हैं, तब भिक्षु उन्हें ऋणमुक्ति, आरोग्य, बन्धनमुक्ति, स्वतंत्रता और राहतस्थल की तरह देखता है।
ये पाँच अवरोध «पञ्चनीवरण» हटाकर रहने से उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित [=एकाग्र+स्थिर] हो जाता है।
प्रथम-ध्यान
वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, लोहिच्च, कोई निपुण स्नान करानेवाला [या आटा गूँथनेवाला] हो, जो काँस की थाली में स्नानचूर्ण [या आटा] रखे, और उसमें पानी छिड़क-छिड़ककर उसे इस तरह गूँथे कि चूर्णपिंड पूर्णतः जलव्याप्त हो जाए, किंतु चुए न। उसी तरह वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, लोहिच्च, जो शास्ता के शिष्य ऐसी विशेष उत्कृष्ठता प्राप्त करते हो, वह दुनिया से आलोचना के लायक नहीं होता। और जब कोई ऐसे शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना मिथ्यापूर्ण, असत्य, धर्म के विपरीत, और दोषपूर्ण होती है।
द्वितीय-ध्यान
तब आगे, लोहिच्च, भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, लोहिच्च, किसी गहरी झील में भीतर से जलस्त्रोत निकलता हो। जिसके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा से कोई [भीतर आता] अंतप्रवाह न हो, और समय-समय पर देवता वर्षा न कराए। तब उस झील को केवल भीतर गहराई से निकलता शीतल जलस्त्रोत फूटकर उसे शीतल जल से सींच देगा, भिगो देगा, फैल जाएगा, पूर्णतः व्याप्त करेगा। और उस संपूर्ण झील को कोई भी हिस्सा उस शीतल जलस्त्रोत के जल से अव्याप्त नहीं रह जाएगा। उसी तरह वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, लोहिच्च, जो शास्ता के शिष्य ऐसी विशेष उत्कृष्ठता प्राप्त करते हो, वह दुनिया से आलोचना के लायक नहीं होता। और जब कोई ऐसे शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना मिथ्यापूर्ण, असत्य, धर्म के विपरीत, और दोषपूर्ण होती है।
तृतीय-ध्यान
तब आगे, लोहिच्च, भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, लोहिच्च, किसी पुष्करणी [=कमलपुष्प के तालाब] में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो बिना बाहर निकले, जल के भीतर ही जन्म लेते हैं, जल के भीतर ही बढ़ते हैं, जल के भीतर ही डूबे रहते हैं, जल के भीतर ही पनपते रहते हैं। वे सिरे से जड़ तक शीतल जल से ही सींचे जाते हैं, भिगोए जाते हैं, फैलाए जाते हैं, पूर्णतः व्याप्त किए जाते हैं। और उन कमलपुष्पों का कोई भी हिस्सा उस शीतल जल से अव्याप्त नहीं रह जाता। उसी तरह वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, लोहिच्च, जो शास्ता के शिष्य ऐसी विशेष उत्कृष्ठता प्राप्त करते हो, वह दुनिया से आलोचना के लायक नहीं होता। और जब कोई ऐसे शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना मिथ्यापूर्ण, असत्य, धर्म के विपरीत, और दोषपूर्ण होती है।
चतुर्थ-ध्यान
तब आगे, लोहिच्च, भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, लोहिच्च, कोई पुरुष सिर से पैर तक शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र ओढ़कर बैठ जाए, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र से अव्याप्त न रह जाए। उसी तरह वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए। और, लोहिच्च, जो शास्ता के शिष्य ऐसी विशेष उत्कृष्ठता प्राप्त करते हो, वह दुनिया से आलोचना के लायक नहीं होता। और जब कोई ऐसे शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना मिथ्यापूर्ण, असत्य, धर्म के विपरीत, और दोषपूर्ण होती है।
विपश्यना ज्ञान
“आगे, लोहिच्च, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य «विञ्ञाण» इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’
जैसे, लोहिच्च, कोई ऊँची जाति का शुभ मणि हो — अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध। और उसमें से एक नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया हो। अच्छी-आँखों वाला कोई पुरुष उसे अपने हाथ में लेकर देखे तो उसे लगे, ‘यह कोई ऊँची जाति का शुभ मणि है — जो अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध है। और उसमें से यह नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’ और, लोहिच्च, जो शास्ता के शिष्य ऐसी विशेष उत्कृष्ठता प्राप्त करते हो, वह दुनिया से आलोचना के लायक नहीं होता। और जब कोई ऐसे शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना मिथ्यापूर्ण, असत्य, धर्म के विपरीत, और दोषपूर्ण होती है।
मनोमय-ऋद्धि ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं।
जैसे, लोहिच्च, कोई पुरुष मूँज से सरकंडा निकाले। उसे लगेगा, ‘यह मूँज है, और वह सरकंडा। मूँज एक वस्तु है, और सरकंडा दूसरी वस्तु। किंतु मूँज से सरकंडा निकाला गया है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष म्यान से तलवार निकाले। उसे लगेगा, ‘यह म्यान है, और वह तलवार। म्यान एक वस्तु है, और तलवार दूसरी वस्तु। किंतु म्यान से तलवार निकाली गई है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष पिटारे से साँप निकाले। उसे लगेगा, ‘यह साँप है, और वह पिटारा। साँप एक वस्तु है, और पिटारा दूसरी वस्तु। किंतु पिटारे से साँप निकाला गया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं। और, लोहिच्च, जो शास्ता के शिष्य ऐसी विशेष उत्कृष्ठता प्राप्त करते हो, वह दुनिया से आलोचना के लायक नहीं होता। और जब कोई ऐसे शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना मिथ्यापूर्ण, असत्य, धर्म के विपरीत, और दोषपूर्ण होती है।
विविध ऋद्धियाँ ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है।
जैसे, लोहिच्च, कोई निपुण कुम्हार भली तैयार मिट्टी से जो बर्तन चाहे, गढ़ लेता है। जैसे कोई निपुण दंतकार भले तैयार हस्तिदंत से जो कलाकृति चाहे, रच लेता है। जैसे कोई निपुण सुनार अच्छे तैयार स्वर्ण से जो आभूषण चाहे, रच लेता है। उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है। और, लोहिच्च, जो शास्ता के शिष्य ऐसी विशेष उत्कृष्ठता प्राप्त करते हो, वह दुनिया से आलोचना के लायक नहीं होता। और जब कोई ऐसे शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना मिथ्यापूर्ण, असत्य, धर्म के विपरीत, और दोषपूर्ण होती है।
दिव्यश्रोत ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो।
जैसे, लोहिच्च, रास्ते से यात्रा करता कोई पुरुष नगाड़ा, ढोल, शंख, मंजीरे की आवाज़ सुनता है, तो उसे लगता है, ‘यह नगाड़े की आवाज़ है। वह ढोल की आवाज़ है। यह शंखनाद है। और वह मंजीरे की आवाज़ है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो। और, लोहिच्च, जो शास्ता के शिष्य ऐसी विशेष उत्कृष्ठता प्राप्त करते हो, वह दुनिया से आलोचना के लायक नहीं होता। और जब कोई ऐसे शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना मिथ्यापूर्ण, असत्य, धर्म के विपरीत, और दोषपूर्ण होती है।
परचित्त ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’
जैसे, लोहिच्च, साज-शृंगार में लगी युवती अथवा युवक, अपना चेहरा चमकीले दर्पण या स्वच्छ जलपात्र में देखें। तब धब्बा हो, तो पता चलता है ‘धब्बा है।’ धब्बा न हो, तो पता चलता है ‘धब्बा नही है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’ और, लोहिच्च, जो शास्ता के शिष्य ऐसी विशेष उत्कृष्ठता प्राप्त करते हो, वह दुनिया से आलोचना के लायक नहीं होता। और जब कोई ऐसे शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना मिथ्यापूर्ण, असत्य, धर्म के विपरीत, और दोषपूर्ण होती है।
पूर्वजन्म अनुस्मरण ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।
जैसे, लोहिच्च, कोई पुरुष अपने गाँव से किसी दूसरे गाँव में जाए। फिर दूसरे गाँव से किसी तीसरे गाँव में। और फिर तीसरे गाँव से वह अपने गाँव लौट आए। तब उसे लगेगा, “मैं अपने गाँव से इस दूसरे गाँव गया। वहाँ मैं ऐसे खड़ा हुआ, ऐसे बैठा, ऐसे बात किया, ऐसे चुप रहा। फ़िर उस दूसरे गाँव से मैं उस तीसरे गाँव गया। वहाँ वैसे खड़ा हुआ, वैसे बैठा, वैसे बात किया, वैसे चुप रहा। तब उस तीसरे गाँव से मैं अपने गाँव लौट आया।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त, कई कल्पों का लोक-विवर्त, कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है। और, लोहिच्च, जो शास्ता के शिष्य ऐसी विशेष उत्कृष्ठता प्राप्त करते हो, वह दुनिया से आलोचना के लायक नहीं होता। और जब कोई ऐसे शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना मिथ्यापूर्ण, असत्य, धर्म के विपरीत, और दोषपूर्ण होती है।
दिव्यचक्षु ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने «चुतूपपात ञाण» की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।
जैसे, लोहिच्च, किसी चौराहे के मध्य एक इमारत हो। उसके ऊपर खड़ा कोई तेज आँखों वाला पुरुष नीचे देखें, तो उसे लोग घर में घुसते, घर से निकलते, रास्ते पर चलते, चौराहे पर बैठे हुए दिखेंगे। तब उसे लगेगा, “वहाँ कुछ लोग घर में घुस रहे हैं। वहाँ कुछ लोग निकल रहे हैं। वहाँ कुछ लोग रास्ते पर चल रहे हैं। यहाँ कुछ लोग चौराहे पर बैठे हुए हैं।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। और, लोहिच्च, जो शास्ता के शिष्य ऐसी विशेष उत्कृष्ठता प्राप्त करते हो, वह दुनिया से आलोचना के लायक नहीं होता। और जब कोई ऐसे शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना मिथ्यापूर्ण, असत्य, धर्म के विपरीत, और दोषपूर्ण होती है।
आस्रवक्षय ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
जैसे, लोहिच्च, किसी पहाड़ के ऊपर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल सरोवर [=झील] हो। उसके तट पर खड़ा, कोई तेज आँखों वाला पुरुष, उसमें देखें तो उसे सीप, घोघा और बजरी दिखेंगे, जलजंतु और मछलियों का झुंड तैरता हुआ या खड़ा दिखेगा। तब उसे लगेगा, ‘यह सरोवर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल है। यहाँ सीप, घोघा और बजरी हैं। जलजंतु और मछलियों का झुंड तैर रहा या खड़ा है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’ और, लोहिच्च, जो शास्ता के शिष्य ऐसी विशेष उत्कृष्ठता प्राप्त करते हो, वह दुनिया से आलोचना के लायक नहीं होता। और जब कोई ऐसे शास्ता की आलोचना करता है, तो वह आलोचना मिथ्यापूर्ण, असत्य, धर्म के विपरीत, और दोषपूर्ण होती है।”
जब ऐसा कहा गया, तो लोहिच्च ब्राह्मण ने भगवान से कहा, “गुरु गौतम, जैसे कोई पुरुष किसी नर्क में गिरते पुरुष को केश से पकड़, उठाकर मजबूत थल पर रख दे। उसी तरह गुरु गौतम ने मुझे नर्क में गिरते हुए देखकर, मुझे केश से पकड़, उठाकर मजबूत थल पर रख दिया! अतिउत्तम, गुरु गौतम! अतिउत्तम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह गुरु गौतम ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं गुरु गौतम की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! गुरु गौतम मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
लोहिच्चब्राह्मणवत्थु
५०१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि येन सालवतिका तदवसरि। तेन खो पन समयेन लोहिच्चो ब्राह्मणो सालवतिकं अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधञ्ञं राजभोग्गं रञ्ञा पसेनदिना कोसलेन दिन्नं राजदायं, ब्रह्मदेय्यं।
५०२. तेन खो पन समयेन लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं होति – ‘‘इध समणो वा ब्राह्मणो वा कुसलं धम्मं अधिगच्छेय्य, कुसलं धम्मं अधिगन्त्वा न परस्स आरोचेय्य, किञ्हि परो परस्स करिस्सति। सेय्यथापि नाम पुराणं बन्धनं छिन्दित्वा अञ्ञं नवं बन्धनं करेय्य, एवंसम्पदमिदं पापकं लोभधम्मं वदामि, किञ्हि परो परस्स करिस्सती’’ति।
५०३. अस्सोसि खो लोहिच्चो ब्राह्मणो – ‘‘समणो खलु, भो, गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि सालवतिकं अनुप्पत्तो। तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’। सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति। सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति। साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होती’’ति।
५०४. अथ खो लोहिच्चो ब्राह्मणो रोसिकं [भेसिकं (सी॰ पी॰)] न्हापितं आमन्तेसि – ‘‘एहि त्वं, सम्म रोसिके, येन समणो गोतमो तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा मम वचनेन समणं गोतमं अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छ – लोहिच्चो, भो गोतम, ब्राह्मणो भवन्तं गोतमं अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छती’’ति। एवञ्च वदेहि – ‘‘अधिवासेतु किर भवं गोतमो लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’’ति।
५०५. ‘‘एवं, भो’’ति [एवं भन्तेति (सी॰ पी॰)] खो रोसिका न्हापितो लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो रोसिका न्हापितो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘लोहिच्चो, भन्ते, ब्राह्मणो भगवन्तं अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छति; एवञ्च वदेति – अधिवासेतु किर, भन्ते, भगवा लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’’ति। अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन।
५०६. अथ खो रोसिका न्हापितो भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन लोहिच्चो ब्राह्मणो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा लोहिच्चं ब्राह्मणं एतदवोच – ‘‘अवोचुम्हा खो मयं भोतो [मयं भन्ते तव (सी॰ पी॰)] वचनेन तं भगवन्तं – ‘लोहिच्चो, भन्ते, ब्राह्मणो भगवन्तं अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छति; एवञ्च वदेति – अधिवासेतु किर, भन्ते, भगवा लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’ति। अधिवुत्थञ्च पन तेन भगवता’’ति।
५०७. अथ खो लोहिच्चो ब्राह्मणो तस्सा रत्तिया अच्चयेन सके निवेसने पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा रोसिकं न्हापितं आमन्तेसि – ‘‘एहि त्वं, सम्म रोसिके, येन समणो गोतमो तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा समणस्स गोतमस्स कालं आरोचेहि – कालो भो, गोतम, निट्ठितं भत्त’’न्ति। ‘‘एवं, भो’’ति खो रोसिका न्हापितो लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो रोसिका न्हापितो भगवतो कालं आरोचेसि – ‘‘कालो, भन्ते, निट्ठितं भत्त’’न्ति।
५०८. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घेन येन सालवतिका तेनुपसङ्कमि। तेन खो पन समयेन रोसिका न्हापितो भगवन्तं पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धो होति। अथ खो रोसिका न्हापितो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘लोहिच्चस्स, भन्ते, ब्राह्मणस्स एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं – ‘इध समणो वा ब्राह्मणो वा कुसलं धम्मं अधिगच्छेय्य, कुसलं धम्मं अधिगन्त्वा न परस्स आरोचेय्य – किञ्हि परो परस्स करिस्सति। सेय्यथापि नाम पुराणं बन्धनं छिन्दित्वा अञ्ञं नवं बन्धनं करेय्य, एवं सम्पदमिदं पापकं लोभधम्मं वदामि – किञ्हि परो परस्स करिस्सती’ति। साधु, भन्ते, भगवा लोहिच्चं ब्राह्मणं एतस्मा पापका दिट्ठिगता विवेचेतू’’ति। ‘‘अप्पेव नाम सिया रोसिके, अप्पेव नाम सिया रोसिके’’ति।
अथ खो भगवा येन लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि। अथ खो लोहिच्चो ब्राह्मणो बुद्धप्पमुखं भिक्खुसङ्घं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि।
लोहिच्चब्राह्मणानुयोगो
५०९. अथ खो लोहिच्चो ब्राह्मणो भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो लोहिच्चं ब्राह्मणं भगवा एतदवोच – ‘‘सच्चं किर ते, लोहिच्च, एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं – ‘इध समणो वा ब्राह्मणो वा कुसलं धम्मं अधिगच्छेय्य, कुसलं धम्मं अधिगन्त्वा न परस्स आरोचेय्य – किञ्हि परो परस्स करिस्सति। सेय्यथापि नाम पुराणं बन्धनं छिन्दित्वा अञ्ञं नवं बन्धनं करेय्य, एवं सम्पदमिदं पापकं लोभधम्मं वदामि, किञ्हि परो परस्स करिस्सती’’’ ति? ‘‘एवं, भो गोतम’’। ‘‘तं किं मञ्ञसि लोहिच्च ननु त्वं सालवतिकं अज्झावससी’’ति? ‘‘एवं, भो गोतम’’। ‘‘यो नु खो, लोहिच्च, एवं वदेय्य – ‘लोहिच्चो ब्राह्मणो सालवतिकं अज्झावसति। या सालवतिकाय समुदयसञ्जाति लोहिच्चोव तं ब्राह्मणो एकको परिभुञ्जेय्य, न अञ्ञेसं ददेय्या’ति। एवं वादी सो ये तं उपजीवन्ति, तेसं अन्तरायकरो वा होति, नो वा’’ति?
‘‘अन्तरायकरो, भो गोतम’’। ‘‘अन्तरायकरो समानो हितानुकम्पी वा तेसं होति अहितानुकम्पी वा’’ति? ‘‘अहितानुकम्पी, भो गोतम’’। ‘‘अहितानुकम्पिस्स मेत्तं वा तेसु चित्तं पच्चुपट्ठितं होति सपत्तकं वा’’ति? ‘‘सपत्तकं, भो गोतम’’। ‘‘सपत्तके चित्ते पच्चुपट्ठिते मिच्छादिट्ठि वा होति सम्मादिट्ठि वा’’ति? ‘‘मिच्छादिट्ठि, भो गोतम’’। ‘‘मिच्छादिट्ठिस्स खो अहं, लोहिच्च, द्विन्नं गतीनं अञ्ञतरं गतिं वदामि – निरयं वा तिरच्छानयोनिं वा’’।
५१०. ‘‘तं किं मञ्ञसि, लोहिच्च, ननु राजा पसेनदि कोसलो कासिकोसलं अज्झावसती’’ति? ‘‘एवं, भो गोतम’’। ‘‘यो नु खो, लोहिच्च, एवं वदेय्य – ‘राजा पसेनदि कोसलो कासिकोसलं अज्झावसति; या कासिकोसले समुदयसञ्जाति, राजाव तं पसेनदि कोसलो एकको परिभुञ्जेय्य, न अञ्ञेसं ददेय्या’ति। एवं वादी सो ये राजानं पसेनदिं कोसलं उपजीवन्ति तुम्हे चेव अञ्ञे च, तेसं अन्तरायकरो वा होति, नो वा’’ति?
‘‘अन्तरायकरो, भो गोतम’’। ‘‘अन्तरायकरो समानो हितानुकम्पी वा तेसं होति अहितानुकम्पी वा’’ति? ‘‘अहितानुकम्पी, भो गोतम’’। ‘‘अहितानुकम्पिस्स मेत्तं वा तेसु चित्तं पच्चुपट्ठितं होति सपत्तकं वा’’ति? ‘‘सपत्तकं, भो गोतम’’। ‘‘सपत्तके चित्ते पच्चुपट्ठिते मिच्छादिट्ठि वा होति सम्मादिट्ठि वा’’ति? ‘‘मिच्छादिट्ठि, भो गोतम’’। ‘‘मिच्छादिट्ठिस्स खो अहं, लोहिच्च, द्विन्नं गतीनं अञ्ञतरं गतिं वदामि – निरयं वा तिरच्छानयोनिं वा’’।
५११. ‘‘इति किर, लोहिच्च, यो एवं वदेय्य – ‘‘लोहिच्चो ब्राह्मणो सालवतिकं अज्झावसति; या सालवतिकाय समुदयसञ्जाति, लोहिच्चोव तं ब्राह्मणो एकको परिभुञ्जेय्य, न अञ्ञेसं ददेय्या’’ति। एवंवादी सो ये तं उपजीवन्ति, तेसं अन्तरायकरो होति। अन्तरायकरो समानो अहितानुकम्पी होति, अहितानुकम्पिस्स सपत्तकं चित्तं पच्चुपट्ठितं होति, सपत्तके चित्ते पच्चुपट्ठिते मिच्छादिट्ठि होति। एवमेव खो, लोहिच्च, यो एवं वदेय्य – ‘‘इध समणो वा ब्राह्मणो वा कुसलं धम्मं अधिगच्छेय्य, कुसलं धम्मं अधिगन्त्वा न परस्स आरोचेय्य, किञ्हि परो परस्स करिस्सति। सेय्यथापि नाम पुराणं बन्धनं छिन्दित्वा अञ्ञं नवं बन्धनं करेय्य…पे॰… करिस्सती’’ति। एवंवादी सो ये ते कुलपुत्ता तथागतप्पवेदितं धम्मविनयं आगम्म एवरूपं उळारं विसेसं अधिगच्छन्ति, सोतापत्तिफलम्पि सच्छिकरोन्ति, सकदागामिफलम्पि सच्छिकरोन्ति, अनागामिफलम्पि सच्छिकरोन्ति, अरहत्तम्पि सच्छिकरोन्ति, ये चिमे दिब्बा गब्भा परिपाचेन्ति दिब्बानं भवानं अभिनिब्बत्तिया, तेसं अन्तरायकरो होति, अन्तरायकरो समानो अहितानुकम्पी होति, अहितानुकम्पिस्स सपत्तकं चित्तं पच्चुपट्ठितं होति, सपत्तके चित्ते पच्चुपट्ठिते मिच्छादिट्ठि होति। मिच्छादिट्ठिस्स खो अहं, लोहिच्च, द्विन्नं गतीनं अञ्ञतरं गतिं वदामि – निरयं वा तिरच्छानयोनिं वा।
५१२. ‘‘इति किर, लोहिच्च, यो एवं वदेय्य – ‘‘राजा पसेनदि कोसलो कासिकोसलं अज्झावसति; या कासिकोसले समुदयसञ्जाति, राजाव तं पसेनदि कोसलो एकको परिभुञ्जेय्य, न अञ्ञेसं ददेय्या’’ति। एवंवादी सो ये राजानं पसेनदिं कोसलं उपजीवन्ति तुम्हे चेव अञ्ञे च, तेसं अन्तरायकरो होति। अन्तरायकरो समानो अहितानुकम्पी होति, अहितानुकम्पिस्स सपत्तकं चित्तं पच्चुपट्ठितं होति, सपत्तके चित्ते पच्चुपट्ठिते मिच्छादिट्ठि होति। एवमेव खो, लोहिच्च, यो एवं वदेय्य – ‘‘इध समणो वा ब्राह्मणो वा कुसलं धम्मं अधिगच्छेय्य, कुसलं धम्मं अधिगन्त्वा न परस्स आरोचेय्य, किञ्हि परो परस्स करिस्सति। सेय्यथापि नाम…पे॰… किञ्हि परो परस्स करिस्सती’’ति, एवं वादी सो ये ते कुलपुत्ता तथागतप्पवेदितं धम्मविनयं आगम्म एवरूपं उळारं विसेसं अधिगच्छन्ति, सोतापत्तिफलम्पि सच्छिकरोन्ति, सकदागामिफलम्पि सच्छिकरोन्ति, अनागामिफलम्पि सच्छिकरोन्ति, अरहत्तम्पि सच्छिकरोन्ति। ये चिमे दिब्बा गब्भा परिपाचेन्ति दिब्बानं भवानं अभिनिब्बत्तिया, तेसं अन्तरायकरो होति, अन्तरायकरो समानो अहितानुकम्पी होति, अहितानुकम्पिस्स सपत्तकं चित्तं पच्चुपट्ठितं होति, सपत्तके चित्ते पच्चुपट्ठिते मिच्छादिट्ठि होति। मिच्छादिट्ठिस्स खो अहं, लोहिच्च, द्विन्नं गतीनं अञ्ञतरं गतिं वदामि – निरयं वा तिरच्छानयोनिं वा।
तयो चोदनारहा
५१३. ‘‘तयो खोमे, लोहिच्च, सत्थारो, ये लोके चोदनारहा; यो च पनेवरूपे सत्थारो चोदेति, सा चोदना भूता तच्छा धम्मिका अनवज्जा। कतमे तयो? इध, लोहिच्च, एकच्चो सत्था यस्सत्थाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति, स्वास्स सामञ्ञत्थो अननुप्पत्तो होति। सो तं सामञ्ञत्थं अननुपापुणित्वा सावकानं धम्मं देसेति – ‘‘इदं वो हिताय इदं वो सुखाया’’ति। तस्स सावका न सुस्सूसन्ति, न सोतं ओदहन्ति, न अञ्ञा चित्तं उपट्ठपेन्ति, वोक्कम्म च सत्थुसासना वत्तन्ति। सो एवमस्स चोदेतब्बो – ‘‘आयस्मा खो यस्सत्थाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो, सो ते सामञ्ञत्थो अननुप्पत्तो, तं त्वं सामञ्ञत्थं अननुपापुणित्वा सावकानं धम्मं देसेसि – ‘इदं वो हिताय इदं वो सुखाया’ति। तस्स ते सावका न सुस्सूसन्ति, न सोतं ओदहन्ति, न अञ्ञा चित्तं उपट्ठपेन्ति, वोक्कम्म च सत्थुसासना वत्तन्ति। सेय्यथापि नाम ओसक्कन्तिया वा उस्सक्केय्य, परम्मुखिं वा आलिङ्गेय्य, एवं सम्पदमिदं पापकं लोभधम्मं वदामि – किञ्हि परो परस्स करिस्सती’’ति। अयं खो, लोहिच्च, पठमो सत्था, यो लोके चोदनारहो; यो च पनेवरूपं सत्थारं चोदेति, सा चोदना भूता तच्छा धम्मिका अनवज्जा।
५१४. ‘‘पुन चपरं, लोहिच्च, इधेकच्चो सत्था यस्सत्थाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति, स्वास्स सामञ्ञत्थो अननुप्पत्तो होति। सो तं सामञ्ञत्थं अननुपापुणित्वा सावकानं धम्मं देसेति – ‘‘इदं वो हिताय, इदं वो सुखाया’’ति। तस्स सावका सुस्सूसन्ति, सोतं ओदहन्ति, अञ्ञा चित्तं उपट्ठपेन्ति, न च वोक्कम्म सत्थुसासना वत्तन्ति। सो एवमस्स चोदेतब्बो – ‘‘आयस्मा खो यस्सत्थाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो, सो ते सामञ्ञत्थो अननुप्पत्तो। तं त्वं सामञ्ञत्थं अननुपापुणित्वा सावकानं धम्मं देसेसि – ‘इदं वो हिताय इदं वो सुखाया’ति। तस्स ते सावका सुस्सूसन्ति, सोतं ओदहन्ति, अञ्ञा चित्तं उपट्ठपेन्ति, न च वोक्कम्म सत्थुसासना वत्तन्ति। सेय्यथापि नाम सकं खेत्तं ओहाय परं खेत्तं निद्दायितब्बं मञ्ञेय्य, एवं सम्पदमिदं पापकं लोभधम्मं वदामि – किञ्हि परो परस्स करिस्सती’’ति। अयं खो, लोहिच्च, दुतियो सत्था, यो, लोके चोदनारहो; यो च पनेवरूपं सत्थारं चोदेति, सा चोदना भूता तच्छा धम्मिका अनवज्जा।
५१५. ‘‘पुन चपरं, लोहिच्च, इधेकच्चो सत्था यस्सत्थाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति, स्वास्स सामञ्ञत्थो अनुप्पत्तो होति। सो तं सामञ्ञत्थं अनुपापुणित्वा सावकानं धम्मं देसेति – ‘‘इदं वो हिताय इदं वो सुखाया’’ति। तस्स सावका न सुस्सूसन्ति, न सोतं ओदहन्ति, न अञ्ञा चित्तं उपट्ठपेन्ति, वोक्कम्म च सत्थुसासना वत्तन्ति। सो एवमस्स चोदेतब्बो – ‘‘आयस्मा खो यस्सत्थाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो, सो ते सामञ्ञत्थो अनुप्पत्तो। तं त्वं सामञ्ञत्थं अनुपापुणित्वा सावकानं धम्मं देसेसि – ‘इदं वो हिताय इदं वो सुखाया’ति। तस्स ते सावका न सुस्सूसन्ति, न सोतं ओदहन्ति, न अञ्ञा चित्तं उपट्ठपेन्ति, वोक्कम्म च सत्थुसासना वत्तन्ति। सेय्यथापि नाम पुराणं बन्धनं छिन्दित्वा अञ्ञं नवं बन्धनं करेय्य, एवं सम्पदमिदं पापकं लोभधम्मं वदामि, किञ्हि परो परस्स करिस्सती’’ति। अयं खो, लोहिच्च, ततियो सत्था, यो लोके चोदनारहो; यो च पनेवरूपं सत्थारं चोदेति, सा चोदना भूता तच्छा धम्मिका अनवज्जा। इमे खो, लोहिच्च, तयो सत्थारो, ये लोके चोदनारहा, यो च पनेवरूपे सत्थारो चोदेति, सा चोदना भूता तच्छा धम्मिका अनवज्जाति।
नचोदनारहसत्थु
५१६. एवं वुत्ते, लोहिच्चो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अत्थि पन, भो गोतम, कोचि सत्था, यो लोके नचोदनारहो’’ति? ‘‘अत्थि खो, लोहिच्च, सत्था, यो लोके नचोदनारहो’’ति। ‘‘कतमो पन सो, भो गोतम, सत्था, यो लोके नचोदनारहो’’ति?
‘‘इध, लोहिच्च, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं, सम्मासम्बुद्धो…पे॰… (यथा १९०-२१२ अनुच्छेदेसु एवं वित्थारेतब्बं)। एवं खो, लोहिच्च, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति…पे॰… पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति… यस्मिं खो, लोहिच्च, सत्थरि सावको एवरूपं उळारं विसेसं अधिगच्छति, अयम्पि खो, लोहिच्च, सत्था, यो लोके नचोदनारहो। यो च पनेवरूपं सत्थारं चोदेति, सा चोदना अभूता अतच्छा अधम्मिका सावज्जा…पे॰… दुतियं झानं…पे॰… ततियं झानं…पे॰… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति। यस्मिं खो, लोहिच्च, सत्थरि सावको एवरूपं उळारं विसेसं अधिगच्छति, अयम्पि खो, लोहिच्च, सत्था, यो लोके नचोदनारहो, यो च पनेवरूपं सत्थारं चोदेति, सा चोदना अभूता अतच्छा अधम्मिका सावज्जा… ञाणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति…पे॰… यस्मिं खो, लोहिच्च, सत्थरि सावको एवरूपं उळारं विसेसं अधिगच्छति, अयम्पि खो, लोहिच्च, सत्था, यो लोके नचोदनारहो, यो च पनेवरूपं सत्थारं चोदेति, सा चोदना अभूता अतच्छा अधम्मिका सावज्जा… नापरं इत्थत्तायाति पजानाति। यस्मिं खो, लोहिच्च, सत्थरि सावको एवरूपं उळारं विसेसं अधिगच्छति, अयम्पि खो, लोहिच्च, सत्था, यो लोके नचोदनारहो, यो च पनेवरूपं सत्थारं चोदेति, सा चोदना अभूता अतच्छा अधम्मिका सावज्जा’’ति।
५१७. एवं वुत्ते, लोहिच्चो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सेय्यथापि, भो गोतम, पुरिसो पुरिसं नरकपपातं पतन्तं केसेसु गहेत्वा उद्धरित्वा थले पतिट्ठपेय्य, एवमेवाहं भोता गोतमेन नरकपपातं पपतन्तो उद्धरित्वा थले पतिट्ठापितो। अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम, सेय्यथापि, भो गोतम, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य, ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’ति। एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च। उपासकं मं भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति।
लोहिच्चसुत्तं निट्ठितं द्वादसमं।