नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 त्रिवेदी ब्राह्मण

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ कौशल देश में घूमते हुए मनसाकट नामक कौशल ब्राह्मणों के गाँव में पहुँचे। और वहाँ भगवान मनसाकट में उत्तर की ओर अचिरवती नदी के तट पर स्थित आम्रवन में विहार करने लगे।

अब उस समय बहुत से बड़े-बड़े प्रसिद्ध और विख्यात महासंपन्न ब्राह्मण मनसाकट में रहते थे। जैसे — चङ्की ब्राह्मण, तारुक्ख ब्राह्मण, पोक्खरसाति ब्राह्मण, जाणुसोणि ब्राह्मण, तोदेय्य ब्राह्मण, और अन्य दूसरे भी बड़े-बड़े प्रसिद्ध और विख्यात महासंपन्न ब्राह्मण।

तब युवा ब्राह्मण वासेट्ठ और भारद्वाज चहलकदमी करते हुए घूम रहे थे, टहल रहे थे, जब उनकी [ब्रह्म] मार्ग-अमार्ग पर चर्चा छिड़ी। वासेट्ठ युवा-ब्राह्मण ने कहा, “जो मार्ग पोक्खरसाति ब्राह्मण ने बताया है, वही सीधा मार्ग है, इकलौता मार्ग है, जो संसार के परे जाता है, जो [उस पर] चलने वाले को ब्रह्मलोक ले जाता है।” भारद्वाज युवा-ब्राह्मण ने कहा, “जो मार्ग तारुक्ख ब्राह्मण ने बताया है, वही सीधा मार्ग है, इकलौता मार्ग है, जो संसार के परे जाता है, जो चलने वाले को ब्रह्मलोक ले जाता है।” न वासेट्ठ युवा-ब्राह्मण भारद्वाज युवा-ब्राह्मण को समझा पा रहा था, और न ही भारद्वाज युवा-ब्राह्मण वासेट्ठ युवा-ब्राह्मण को समझा पा रहा था।

तब वासेट्ठ युवा-ब्राह्मण ने भारद्वाज युवा-ब्राह्मण को सुझाव दिया, “ऐसा है, भारद्वाज, कि शाक्यपुत्र श्रमण गौतम, जो शाक्य-कुल से प्रवज्यित है, वे मनसाकट में उत्तर की ओर अचिरवती नदी के तट पर स्थित आम्रवन में विहार कर रहे है। और उन गुरु गौतम के बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ चलो, भारद्वाज जी, उस श्रमण गौतम के पास चलते हैं, और जाकर इस बारे में श्रमण गौतम को पुछते हैं। और जैसे श्रमण गौतम उत्तर देंगे, उसी तरह हम धारण करेंगे।”

“ठीक है!” भारद्वाज युवा-ब्राह्मण ने उत्तर दिया।

तब दोनों युवा ब्राह्मण वासेट्ठ और भारद्वाज भगवान के पास गए, और जाकर मैत्रीपूर्ण वार्तालाप किया। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप करने पर वे एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर वासेट्ठ युवा-ब्राह्मण ने भगवान से कहा, “गुरु गौतम, हम चहलकदमी करते हुए घूम रहे थे, टहल रहे थे, जब हमारी मार्ग-अमार्ग पर चर्चा छिड़ी। तब मैंने कहा, ‘जो मार्ग पोक्खरसाति ब्राह्मण ने बताया है, वही सीधा मार्ग है, इकलौता मार्ग है, जो संसार के परे जाता है, जो चलने वाले को ब्रह्मलोक ले जाता है।’ भारद्वाज युवा-ब्राह्मण ने कहा, ‘जो मार्ग तारुक्ख ब्राह्मण ने बताया है, वही सीधा मार्ग है, इकलौता मार्ग है, जो संसार के परे जाता है, जो चलने वाले को ब्रह्मलोक ले जाता है।’ इस तरह, गुरु गौतम, इसे लेकर हममें टकराव हुआ, विवाद हुआ, मतभेद हुआ।”

“तुम्हारा, वासेट्ठ, ऐसा कहना लगता है कि ‘जो मार्ग पोक्खरसाति ब्राह्मण ने बताया है, वही सीधा मार्ग है, इकलौता मार्ग है, जो संसार के परे जाता है, जो चलने वाले को ब्रह्मलोक ले जाता है।’ जबकि भारद्वाज युवा-ब्राह्मण का ऐसा कहना लगता है कि ‘जो मार्ग तारुक्ख ब्राह्मण ने बताया है, वही सीधा मार्ग है, इकलौता मार्ग है, जो संसार के परे जाता है, जो चलने वाले को ब्रह्मलोक ले जाता है।’ किन्तु क्या लेकर तुम्हारा टकराव हुआ, विवाद हुआ, मतभेद हुआ?”

“मार्ग-अमार्ग को लेकर, गुरु गौतम! भले ही ब्राह्मण भिन्न-भिन्न मार्ग का वर्णन करते हैं — जैसे अद्धरिय ब्राह्मण, तित्तिरिय ब्राह्मणा, छन्दोक ब्राह्मण, बव्हारिज्झ ब्राह्मण — तब भी चलने वाले को सभी मार्ग ब्रह्मलोक ले जाते हैं। जैसे, गुरु गौतम, कोई गाँव हो या नगर हो, जिसके आस-पास बहुत से भिन्न-भिन्न मार्ग हो, तब भी सभी मार्ग गाँव में आकर मिलते हैं। उसी तरह, गुरु गौतम, भले ही ब्राह्मण भिन्न-भिन्न मार्ग का वर्णन करते हैं — जैसे अद्धरिय ब्राह्मण, तित्तिरिय ब्राह्मणा, छन्दोक ब्राह्मण, बव्हारिज्झ ब्राह्मण — तब भी चलने वाले को सभी मार्ग ब्रह्मलोक ले जाते हैं।”

वासेट्ठ से बातचीत

“[ब्रह्मलोक] ले जाते हैं — कह रहे हो, वासेट्ठ?”

“ले जाते हैं — कह रहा हूँ, गुरु गौतम!”

“ले जाते हैं, कह रहे हो?”

“ले जाते हैं, कह रहा हूँ!”

“ले जाते हैं, कह रहे हो?”

“ले जाते हैं, कह रहा हूँ!”

“किन्तु, वासेट्ठ, क्या तीन-वेदी ब्राह्मणों में से किसी एक ब्राह्मण ने भी अपनी आँखों से ब्रह्मा को देखा है?”

“नहीं, गुरु गौतम!”

“किन्तु, वासेट्ठ, क्या तीन-वेदी ब्राह्मणों के किसी एक गुरु-आचार्य ने भी अपनी आँखों से ब्रह्मा को देखा है?”

“नहीं, गुरु गौतम!”

“किन्तु, वासेट्ठ, क्या तीन-वेदी ब्राह्मणों के आचार्यों-प्राचार्यों के किसी एक परगुरु-आचार्य ने भी अपनी आँखों से ब्रह्मा को देखा है?”

“नहीं, गुरु गौतम!”

“किन्तु, वासेट्ठ, क्या तीन-वेदी ब्राह्मणों के सात आचार्य-पीढ़ियों के किसी एक ने भी अपनी आँखों से ब्रह्मा को देखा है?”

“नहीं, गुरु गौतम!”

“किन्तु, वासेट्ठ, जो ब्राह्मणों के पूर्वज ऋषि मंत्र-कर्ता थे, मंत्र-प्रवक्ता थे — जैसे अष्टक, व्यमक, व्यामदेव, विश्वामित्र, यमदर्गी, अङगीरस, भारद्वाज, वासेष्ठ, कश्यप और भगू — जिनके पौराणिक मंत्रपद [=वेद], पाठ और भाष्य को इकट्ठा कर, आजकल के ब्राह्मण पाठ करते हैं, बोलते हैं, बोले जाने वाले को रटकर बोलते हैं, पाठ किए जाने वाले रटकर पाठ करते हैं, क्या उन्होने कहा था, ‘हम जानते हैं, हम देखते हैं कि ब्रह्मा यहाँ है, ब्रह्मा यह है, ब्रह्मा ऐसा है!’?”

“नहीं, गुरु गौतम!”

“जब, वासेट्ठ, तीन-वेदी ब्राह्मणों में से किसी एक ब्राह्मण ने भी अपनी आँखों से ब्रह्मा को नहीं देखा है, तीन-वेदी ब्राह्मणों के किसी एक गुरु-आचार्य ने भी अपनी आँखों से ब्रह्मा को नहीं देखा है, तीन-वेदी ब्राह्मणों के आचार्यों-प्राचार्यों के किसी एक परगुरु-आचार्य ने भी अपनी आँखों से ब्रह्मा को नहीं देखा है, तीन-वेदी ब्राह्मणों के सात आचार्य-पीढ़ियों के किसी एक ने भी अपनी आँखों से ब्रह्मा को नहीं देखा है, और जो ब्राह्मणों के पूर्वज ऋषि मंत्र-कर्ता थे, मंत्र-प्रवक्ता थे — जैसे अष्टक, व्यमक, व्यामदेव, विश्वामित्र, यमदर्गी, अङगीरस, भारद्वाज, वासेष्ठ, कश्यप और भगू — जिनके पौराणिक मंत्रपद, पाठ और भाष्य को इकट्ठा कर, आजकल के ब्राह्मण पाठ करते हैं, बोलते हैं, बोले जाने वाले को रटकर बोलते हैं, पाठ किए जाने वाले रटकर पाठ करते हैं, उन्होने ने भी नहीं कहा कि ‘हम जानते हैं, हम देखते हैं कि ब्रह्मा यहाँ है, ब्रह्मा यह है, ब्रह्मा ऐसा है!’ तब भी तीन-वेदी ब्राह्मण कहते हैं कि ‘जिसे हम जानते नहीं, जिसे हम देखते नहीं, हम उसकी ओर ले जाने वाला मार्ग बताते हैं।’ क्या लगता है, वासेट्ठ, जब ऐसा है तो क्या तीन-वेदी ब्राह्मणों का कहना निराधार नहीं है?”

“निश्चित ही, गुरु गौतम! ऐसा हो तो तीन-वेदी ब्राह्मणों का कहना निराधार ही है।”

“साधु [=बहुत अच्छा], वासेट्ठ! क्योंकि ब्राह्मण जिसे जानते नहीं हैं, जिसे देखते नहीं है, उसकी ओर ले जाने वाले मार्ग को बताएँ कि बस — ‘यही सीधा मार्ग है, इकलौता मार्ग है, जो संसार के परे जाता है, जो चलने वाले को ब्रह्मलोक ले जाता है!’ — ऐसा संभव नहीं है! जैसे, परस्पर एक-दूसरे को पकड़ी हुई अन्धों की कतार हो, जिनमे न आरंभ के अन्धे कुछ देखते हैं, न मध्य के अन्धे कुछ देखते हैं, और न ही अन्त के अन्धे कुछ देखते हैं। उसी अन्धों की कतार की तरह, वासेट्ठ, तीन-वेदी ब्राह्मण लगते हैं, जिनमे न आरंभ के ब्राह्मण कुछ देखते हैं, न मध्य के ब्राह्मण कुछ देखते हैं, और न ही अन्त के ब्राह्मण कुछ देखते हैं। तब ऐसे तीन-वेदी ब्राह्मणों की बातें हास्यास्पद होकर रह जाती हैं, नाम-मात्र के लिए होकर रह जाती हैं, खोखली होकर रह जाती हैं, तुच्छ होकर रह जाती है। क्या लगता है, वासेट्ठ? क्या तीन-वेदी ब्राह्मण भी, बहुजनों की ही तरह, ‘चाँद और सूरज’ को देखते हैं कि — ‘चाँद और सूरज’ इस दिशा से उगते हैं, इस दिशा में डूबते हैं, और क्या वे [तीन-वेदी ब्राह्मण] भी घूमते हुए उनकी प्रार्थना करते हैं, गुणगान करते हैं, पुजा करते हैं, हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं?”

“हाँ, गुरु गौतम! तीन-वेदी ब्राह्मण भी, बहुजनों की ही तरह, ‘चाँद और सूरज’ को देखते हैं कि — ‘चाँद और सूरज’ इस दिशा से उगते हैं, इस दिशा में डूबते हैं, और घूमते हुए उनकी प्रार्थना करते हैं, गुणगान करते हैं, पुजा करते हैं, हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं।”

“तो क्या लगता है, वासेट्ठ? जब तीन-वेदी ब्राह्मण भी, बहुजनों की ही तरह, ‘चाँद और सूरज’ को देखते हैं कि — ‘चाँद और सूरज’ इस दिशा से उगते हैं, इस दिशा में डूबते हैं, और घूमते हुए उनकी प्रार्थना करते हैं, गुणगान करते हैं, पुजा करते हैं, हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं — तब क्या तीन-वेदी ब्राह्मण ‘चाँद और सूरज’ की ओर ले जाने वाले मार्ग को बताते हैं कि ‘यही सीधा मार्ग है, इकलौता मार्ग है, जो मानवलोक के परे जाता है, जो चलने वाले को चाँद और सूर्य-लोक ले जाता है’?”

“नहीं, गुरु गौतम!”

“अच्छा, वासेट्ठ, जब तीन-वेदी ब्राह्मण, बहुजनों की ही तरह, ‘चाँद और सूरज’ को देखते हैं कि — ‘चाँद और सूरज’ इस दिशा से उगते हैं, इस दिशा में डूबते हैं, और घूमते हुए उनकी प्रार्थना करते हैं, गुणगान करते हैं, पुजा करते हैं, हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं — तब भी वे ‘चाँद और सूरज’ की ओर जाने वाला मार्ग नहीं बता पाते कि ‘यही सीधा मार्ग है, इकलौता मार्ग है, जो मानवलोक के परे जाता है, जो चलने वाले को चाँद और सूर्य-लोक ले जाता है!’ किन्तु जब तीन-वेदी ब्राह्मणों ने ब्रह्मा को अपनी आँखों से नहीं देखा, तीन-वेदी ब्राह्मणों के गुरु-आचार्य ने भी ब्रह्मा को अपनी आँखों से नहीं देखा, तीन-वेदी ब्राह्मणों के आचार्यों-प्राचार्यों के परगुरु-आचार्य ने भी ब्रह्मा को अपनी आँखों से नहीं देखा, तीन-वेदी ब्राह्मणों के सात आचार्य-पीढ़ियों के किसी ने भी ब्रह्मा को अपनी आँखों से नहीं देखा, और जो ब्राह्मणों के पूर्वज ऋषि मंत्र-कर्ता थे, मंत्र-प्रवक्ता थे — जैसे अष्टक, व्यमक, व्यामदेव, विश्वामित्र, यमदर्गी, अङगीरस, भारद्वाज, वासेष्ठ, कश्यप और भगू — जिनके पौराणिक मंत्रपद, पाठ और भाष्य को इकट्ठा कर, आजकल के ब्राह्मण पाठ करते हैं, बोलते हैं, बोले जाने वाले को रटकर बोलते हैं, पाठ किए जाने वाले रटकर पाठ करते हैं — उन्होने ने भी कभी नहीं कहा कि ‘हम जानते हैं, हम देखते हैं कि ‘ब्रह्मा यहाँ है, ब्रह्मा यह है, ब्रह्मा ऐसा है!’ तब भी आप तीन-वेदी ब्राह्मण कहते हैं कि ‘जिसे हम जानते नहीं, जिसे हम देखते नहीं, हम उसकी ओर ले जाने वाला मार्ग बताते हैं’ कि बस — ‘यही सीधा मार्ग है, इकलौता मार्ग है, जो संसार के परे जाता है, जो चलने वाले को ब्रह्मलोक ले जाता है!’ क्या लगता है, वासेट्ठ? जब ऐसा है तो क्या तीन-वेदी ब्राह्मणों का कहना निराधार नहीं है?”

“निश्चित ही, गुरु गौतम! ऐसा हो तो तीन-वेदी ब्राह्मणों का कहना निराधार ही है।”

“साधु, वासेट्ठ! क्योंकि ब्राह्मण जिसे जानते नहीं हैं, जिसे देखते नहीं है, उसकी ओर ले जाने वाले मार्ग को बताएँ कि बस — ‘यही सीधा मार्ग है, इकलौता मार्ग है, जो संसार के परे जाता है, जो चलने वाले को ब्रह्मलोक ले जाता है!’ — ऐसा संभव नहीं है!”

उपमाएँ

[१] “कल्पना करो, वासेट्ठ, कोई पुरुष कहे कि “जो इस देश की सबसे खूबसूरत स्त्री है, मैं उसे चाहता हूँ, उसकी कामना करता हूँ!” तब लोग उसे कहते हैं, “अच्छा, भले आदमी! देश की जिस सबसे खूबसूरत स्त्री को तुम चाहते हो, कामना करते हो, क्या तुम जानते हो कि वह क्षत्रिय है, या ब्राह्मण है, या वैश्य है, अथवा शूद्र है?” ऐसा पुछने पर वह “नहीं!” कहता है। तब लोग उसे कहते हैं, “अच्छा, भले आदमी! देश की जिस सबसे खूबसूरत स्त्री को तुम चाहते हो, कामना करते हो, क्या तुम जानते हो कि उसका नाम क्या है, गोत्र क्या है, क्या लंबी है, या नाटी है, अथवा मजले-कद की है? क्या काली है, या साँवली है, अथवा गोरी [स्वर्ण-वर्ण की] त्वचा है? किस गाँव से है, या नगर से है, अथवा शहर से है?” ऐसा पुछने पर वह “नहीं!” कहता है। तब लोग उसे कहते हैं, “अच्छा, भले आदमी! तुम जिसे चाहते हो, कामना करते हो, क्या उसे जानते भी हो? क्या उसे देखा भी है?” ऐसा पुछने पर वह “हाँ!” कहता है। तब तुम्हें क्या लगता है, वासेट्ठ? क्या ऐसा हो तो उस पुरुष का कहना निराधार है?”

“निश्चित ही, गुरु गौतम। ऐसा हो तो उस पुरुष का कहना निराधार ही है।”

“उसी तरह, वासेट्ठ, जब तीन-वेदी ब्राह्मणों ने ब्रह्मा को अपनी आँखों से नहीं देखा, तीन-वेदी ब्राह्मणों के गुरु-आचार्य ने भी ब्रह्मा को अपनी आँखों से नहीं देखा, तीन-वेदी ब्राह्मणों के आचार्यों-प्राचार्यों के परगुरु-आचार्य ने भी ब्रह्मा को अपनी आँखों से नहीं देखा, तीन-वेदी ब्राह्मणों के सात आचार्य-पीढ़ियों के किसी ने भी ब्रह्मा को अपनी आँखों से नहीं देखा, और जो ब्राह्मणों के पूर्वज ऋषि मंत्र-कर्ता थे, मंत्र-प्रवक्ता थे — जैसे अष्टक, व्यमक, व्यामदेव, विश्वामित्र, यमदर्गी, अङगीरस, भारद्वाज, वासेष्ठ, कश्यप और भगू — जिनके पौराणिक मंत्रपद, पाठ और भाष्य को इकट्ठा कर, आजकल के ब्राह्मण पाठ करते हैं, बोलते हैं, बोले जाने वाले को रटकर बोलते हैं, पाठ किए जाने वाले रटकर पाठ करते हैं — उन्होने ने भी कभी नहीं कहा कि ‘हम जानते हैं, हम देखते हैं कि ‘ब्रह्मा यहाँ है, ब्रह्मा यह है, ब्रह्मा ऐसा है!’ तब भी आप तीन-वेदी ब्राह्मण कहते हैं कि ‘जिसे हम जानते नहीं, जिसे हम देखते नहीं, हम उसकी ओर ले जाने वाला मार्ग बताते हैं’ कि बस — ‘यही सीधा मार्ग है, इकलौता मार्ग है, जो संसार के परे जाता है, जो चलने वाले को ब्रह्मलोक ले जाता है!’ क्या लगता है, वासेट्ठ? जब ऐसा है तो क्या तीन-वेदी ब्राह्मणों का कहना निराधार नहीं है?”

“निश्चित ही, गुरु गौतम! ऐसा हो तो तीन-वेदी ब्राह्मणों का कहना निराधार ही है।”

“साधु, वासेट्ठ! क्योंकि ब्राह्मण जिसे जानते नहीं हैं, जिसे देखते नहीं है, उसकी ओर ले जाने वाले मार्ग को बताएँ कि बस — ‘यही सीधा मार्ग है, इकलौता मार्ग है, जो संसार के परे जाता है, जो चलने वाले को ब्रह्मलोक ले जाता है!’ — ऐसा संभव नहीं है!

[२] कल्पना करो, वासेट्ठ, कोई पुरुष चौराहे पर सीढ़ी का निर्माण करे, जो किसी महल पर चढ़ने के लिए हो। तब लोग उसे कहते हैं, “अच्छा, भले आदमी! जिस महल पर चढ़ने के लिए तुम सीढ़ी का निर्माण कर रहे हो, क्या तुम जानते हो कि वह महल पूर्व-दिशा में है, या दक्षिण-दिशा में है, या पश्चिम-दिशा में है, अथवा उत्तर-दिशा में है? क्या वह महल ऊँचा है, या नीचा है, अथवा मजले-स्तर का है?” ऐसा पुछने पर वह “नहीं!” कहता है। तब लोग उसे कहते हैं, “अच्छा, भले आदमी! जिस महल पर चढ़ने के लिए तुम सीढ़ी का निर्माण कर रहे हो, क्या उसे जानते भी हो? क्या उसे देखा भी है?” ऐसा पुछने पर वह “हाँ!” कहता है। तब तुम्हें क्या लगता है, वासेट्ठ? क्या ऐसा हो तो उस पुरुष का कहना निराधार है?”

“निश्चित ही, गुरु गौतम। ऐसा हो तो उस पुरुष का कहना निराधार ही है।”

“उसी तरह, वासेट्ठ, जब तीन-वेदी ब्राह्मणों ने ब्रह्मा को अपनी आँखों से नहीं देखा, तीन-वेदी ब्राह्मणों के गुरु-आचार्य ने भी ब्रह्मा को अपनी आँखों से नहीं देखा, तीन-वेदी ब्राह्मणों के आचार्यों-प्राचार्यों के परगुरु-आचार्य ने भी ब्रह्मा को अपनी आँखों से नहीं देखा, तीन-वेदी ब्राह्मणों के सात आचार्य-पीढ़ियों के किसी ने भी ब्रह्मा को अपनी आँखों से नहीं देखा, और जो ब्राह्मणों के पूर्वज ऋषि मंत्र-कर्ता थे, मंत्र-प्रवक्ता थे — जैसे अष्टक, व्यमक, व्यामदेव, विश्वामित्र, यमदर्गी, अङगीरस, भारद्वाज, वासेष्ठ, कश्यप और भगू — जिनके पौराणिक मंत्रपद, पाठ और भाष्य को इकट्ठा कर, आजकल के ब्राह्मण पाठ करते हैं, बोलते हैं, बोले जाने वाले को रटकर बोलते हैं, पाठ किए जाने वाले रटकर पाठ करते हैं — उन्होने ने भी कभी नहीं कहा कि ‘हम जानते हैं, हम देखते हैं कि ‘ब्रह्मा यहाँ है, ब्रह्मा यह है, ब्रह्मा ऐसा है!’ तब भी आप तीन-वेदी ब्राह्मण कहते हैं कि ‘जिसे हम जानते नहीं, जिसे हम देखते नहीं, हम उसकी ओर ले जाने वाला मार्ग बताते हैं’ कि बस — ‘यही सीधा मार्ग है, इकलौता मार्ग है, जो संसार के परे जाता है, जो चलने वाले को ब्रह्मलोक ले जाता है!’ क्या लगता है, वासेट्ठ? जब ऐसा है तो क्या तीन-वेदी ब्राह्मणों का कहना निराधार नहीं है?”

“निश्चित ही, गुरु गौतम! ऐसा हो तो तीन-वेदी ब्राह्मणों का कहना निराधार ही है।”

“साधु, वासेट्ठ! क्योंकि ब्राह्मण जिसे जानते नहीं हैं, जिसे देखते नहीं है, उसकी ओर ले जाने वाले मार्ग को बताएँ कि बस — ‘यही सीधा मार्ग है, इकलौता मार्ग है, जो संसार के परे जाता है, जो चलने वाले को ब्रह्मलोक ले जाता है!’ — ऐसा संभव नहीं है!

[३] कल्पना करो, वासेट्ठ, कि यह अचिरवती नदी जल से पूर्ण भर जाए कि [तट पर बैठा] कौवा भी [सरलता से] पी सके। तब कोई पुरुष उसे पार करने के ध्येय से, पार जाने के लिए, लाँघने की चाह से, उत्तीर्ण करने की इच्छा से आता है। और वह इस किनारे पर खड़े होकर दूर के तट को पुकारता है, “ओ तट, इस पार चले आओ! ओ किनारे, इस पार चले आओ!” तो क्या लगता है, वासेट्ठ? क्या उस पुरुष के इस तरह पुकारने से, प्रार्थना करने से, इच्छा करने से, या गुणगान करने से, वह दूर का तट इस किनारे पर आ जाएगा?”

“नहीं, गुरु गौतम!”

“उसी तरह, वासेट्ठ, जो तीन-वेदी ब्राह्मण हैं, वे ब्राह्मण-कारक धर्म [=जिस धर्म को धारण करने से ब्राह्मण बना जाता है] को त्याग कर के चलते हैं, और अब्राह्मण-कारक धर्म [=जिससे कोई ब्राह्मण नहीं बनता] को धारण कर के चलते हैं, और तब कहते हैं, “हम इन्द्र का पुकारते हैं! सोम को पुकारते हैं! वरुण को पुकारते हैं! ईशान को पुकारते हैं! प्रजापति को पुकारते हैं! ब्रह्म को पुकारते हैं! महिद्धि को पुकारते हैं! यम को पुकारते हैं!” जब तक, वासेट्ठ, जो तीन-वेदी ब्राह्मण हैं, वे ब्राह्मण-कारक धर्म को त्याग कर के चलते रहें, और अब्राह्मण-कारक धर्म को धारण कर के चलते रहें, और [उस पुरुष की तरह] पुकारने से, प्रार्थना करने से, इच्छा करने से, या गुणगान करने से, मरणोपरान्त काया छूटने पर, ब्रह्मा के साथ उत्पन्न होंगे — ऐसा संभव नहीं है!

कल्पना करो, वासेट्ठ, कि यह अचिरवती नदी जल से पूर्ण भर जाए कि कौवा भी पी सके। तब कोई पुरुष उसे पार करने के ध्येय से, पार जाने के लिए, लाँघने की चाह से, उत्तीर्ण करने की इच्छा से आता है। किन्तु वह इसी किनारे पर खड़ा रहे, कड़ी जंजीर से हाथ पीछे बंधे हुए! तो क्या लगता हैं, वासेट्ठ? क्या तब वह पुरुष अचिरवती नदी के इस किनारे को लाँघकर दूसरे तट पर जा पाएगा?”

“नहीं, गुरु गौतम!”

“उसी तरह, वासेट्ठ, पाँच कामभोग को आर्य-विनय में ‘जंजीर’ कहते हैं, ‘बंधन’ कहते हैं। कौन-से पाँच? (१) आँख से दिखने वाला रूप — जो मनचाहा हो, सुखद लगे, मोहक हो, प्रिय लगे, लुभावना लगे, कामुकता से जुड़ा हो। (२) कान से सुनाई देने वाली आवाज़ — जो मनचाही हो, सुखद लगे, मोहक हो, प्रिय लगे, लुभावनी लगे, कामुकता से जुड़ी हो। (३) नाक से सुँघाई देने वाली गन्ध — जो मनचाही हो, सुखद लगे, मोहक हो, प्रिय लगे, लुभावनी लगे, कामुकता से जुड़ी हो। (४) जीभ से चखने वाला स्वाद — जो मनचाहा हो, सुखद लगे, मोहक हो, प्रिय लगे, लुभावना लगे, कामुकता से जुड़ा हो। (५) शरीर पर महसूस होने वाला संस्पर्श — जो मनचाहा हो, सुखद लगे, मोहक हो, प्रिय लगे, लुभावना रहे, कामुकता से जुड़ा हो। ये पाँच कामभोग को, वासेट्ठ, आर्य-विनय में ‘जंजीर’ कहते हैं, ‘बंधन’ कहते हैं। और वासेट्ठ, जो तीन-वेदी ब्राह्मण हैं, वे इसी पाँच कामभोग से लिप्त रहते हैं, बेहोश रहते हैं, आसक्त रहते हैं, दुष्परिणाम नहीं देखते, और बाहर निकलने का मार्ग नहीं समझते हैं। जब तक, वासेट्ठ, जो तीन-वेदी ब्राह्मण हैं, वे ब्राह्मण-कारक धर्म को त्याग कर के चलते रहें, और अब्राह्मण-कारक धर्म को धारण कर के चलते रहें, और पाँच कामभोग से लिप्त रहने से, बेहोश रहने से, आसक्त रहने से, दुष्परिणाम न देखने से, और बाहर निकलने का मार्ग न समझने से भी, मरणोपरान्त काया छूटने पर, ब्रह्मा के साथ उत्पन्न होंगे — ऐसा संभव नहीं है!

कल्पना करो, वासेट्ठ, कि यह अचिरवती नदी जल से पूर्ण भर जाए कि कौवा भी पी सके। तब कोई पुरुष उसे पार करने के ध्येय से, पार जाने के लिए, लाँघने की चाह से, उत्तीर्ण करने की इच्छा से आता है। किन्तु वह इसी किनारे पर, सिर से लेकर पैर तक वस्त्र लपेटकर, लेट जाता है। तो क्या लगता हैं, वासेट्ठ? क्या तब वह पुरुष अचिरवती नदी के इस किनारे को लाँघकर दूसरे तट पर जा पाएगा?”

“नहीं, गुरु गौतम!”

“उसी तरह, वासेट्ठ, पाँच अवरोध को आर्य-विनय में ‘आवरण’ कहते हैं, ‘अवरोध’ कहते हैं, ‘परदा’ कहते हैं, ‘आच्छादन’ कहते हैं। कौन-से पाँच? कामेच्छा अवरोध, दुर्भावना अवरोध, सुस्ती और तंद्रा अवरोध, बेचैनी और पश्चाताप अवरोध, और अनिश्चितता अवरोध। ये पाँच कामभोग को, वासेट्ठ, आर्य-विनय में ‘आवरण’ कहते हैं, ‘अवरोध’ कहते हैं, ‘परदा’ कहते हैं, ‘आच्छादन’ कहते हैं। और वासेट्ठ, जो तीन-वेदी ब्राह्मण हैं, वे इसी पाँच अवरोध में आवृत रहते हैं, अवरोधित रहते हैं, ढ़के रहते हैं, आच्छादित रहते हैं। जब तक, वासेट्ठ, जो तीन-वेदी ब्राह्मण हैं, वे ब्राह्मण-कारक धर्म को त्याग कर के चलते रहें, और अब्राह्मण-कारक धर्म को धारण कर के चलते रहें, और पाँच अवरोध में आवृत रहने से, अवरोधित रहने से, ढ़के रहने से, आच्छादित रहने से भी, मरणोपरान्त काया छूटने पर, ब्रह्मा के साथ उत्पन्न होंगे — ऐसा संभव नहीं है!”

संगम

“क्या लगता है, वासेट्ठ? क्या तुमने वरिष्ठ और वृद्ध आचार्य-प्राचार्य ब्राह्मणों को कहते हुए सुना है कि ब्रह्मा संग्रह-कर्ता [=भोग-विलास का बटोरू] है, अथवा असंग्रह-कर्ता [=निर्लिप्त त्यागी] है?”

“असंग्रह-कर्ता है, गुरु गौतम!”

“वैरी [शत्रुता से भरे] चित्त का है, अथवा निर्बैर चित्त का?”

“निर्बैर चित्त का, गुरु गौतम!”

“दुर्भावना-भरे चित्त का है, अथवा दुर्भावना-हिन चित्त का?”

“दुर्भावना-हिन चित्त का, गुरु गौतम!”

“दूषित चित्त का है, अथवा अदूषित चित्त का?”

“अदूषित चित्त का, गुरु गौतम!”

“वशवर्ती [=चित्त पर नियंत्रण, आत्म-प्रभुत्व] है, अथवा अवशवर्ती [=अनियंत्रित चित्त का]?”

“वशवर्ती है, गुरु गौतम!”

“अच्छा! और क्या लगता है, वासेट्ठ? क्या तीन-वेदी ब्राह्मण संग्रह-कर्ता हैं, अथवा असंग्रह-कर्ता हैं?”

“संग्रह-कर्ता [=बटोरू] हैं, गुरु गौतम!”

“वैरी चित्त के हैं, अथवा निर्बैर चित्त के?”

“वैरी चित्त के, गुरु गौतम!”

“दुर्भावना-भरे चित्त के हैं, अथवा दुर्भावना-हिन चित्त के?”

“दुर्भावना-भरे चित्त के, गुरु गौतम!”

“दूषित चित्त के हैं, अथवा अदूषित चित्त के?”

“दूषित चित्त के, गुरु गौतम!”

“वशवर्ती है, अथवा अवशवर्ती?”

“अवशवर्ती है, गुरु गौतम!”

“अच्छा, वासेट्ठ, तीन-वेदी ब्राह्मण संग्रह-कर्ता हैं, जबकि ब्रह्मा असंग्रह-कर्ता है। तब क्या संग्रह-कर्ता तीन-वेदी ब्राह्मण और असंग्रह-कर्ता ब्रह्मा का साथ आकर मिलन होगा, संगम होगा?”

“नहीं, गुरु गौतम!”

“साधु, वासेट्ठ! संग्रह-कर्ता तीन-वेदी ब्राह्मण, मरणोपरान्त काया छूटने पर, असंग्रह-कर्ता ब्रह्मा के साथ उत्पन्न होंगे — ऐसा संभव नहीं है!”

“अच्छा, वासेट्ठ, तीन-वेदी ब्राह्मण वैरी चित्त के हैं, जबकि ब्रह्मा निर्बैर चित्त का। तब क्या वैरी चित्त के तीन-वेदी ब्राह्मण और निर्बैर चित्त का ब्रह्मा का साथ आकर मिलन होगा, संगम होगा?”

“नहीं, गुरु गौतम!”

“साधु, वासेट्ठ! वैरी चित्त के तीन-वेदी ब्राह्मण, मरणोपरान्त काया छूटने पर, निर्बैर चित्त के ब्रह्मा के साथ उत्पन्न होंगे — ऐसा संभव नहीं है!”

“अच्छा, वासेट्ठ, तीन-वेदी ब्राह्मण दुर्भावना-भरे चित्त के हैं, जबकि ब्रह्मा दुर्भावना-हिन चित्त का। तब क्या दुर्भावना-भरे चित्त के तीन-वेदी ब्राह्मण और दुर्भावना-हिन चित्त का ब्रह्मा का साथ आकर मिलन होगा, संगम होगा?”

“नहीं, गुरु गौतम!”

“साधु, वासेट्ठ! दुर्भावना-भरे चित्त के तीन-वेदी ब्राह्मण, मरणोपरान्त काया छूटने पर, दुर्भावना-हिन चित्त के ब्रह्मा के साथ उत्पन्न होंगे — ऐसा संभव नहीं है!”

“अच्छा, वासेट्ठ, तीन-वेदी ब्राह्मण दूषित चित्त के हैं, जबकि ब्रह्मा अदूषित चित्त का। तब क्या दूषित चित्त के तीन-वेदी ब्राह्मण और अदूषित चित्त का ब्रह्मा का साथ आकर मिलन होगा, संगम होगा?”

“नहीं, गुरु गौतम!”

“साधु, वासेट्ठ! दूषित चित्त के तीन-वेदी ब्राह्मण, मरणोपरान्त काया छूटने पर, अदूषित चित्त के ब्रह्मा के साथ उत्पन्न होंगे — ऐसा संभव नहीं है!”

“अच्छा, वासेट्ठ, तीन-वेदी ब्राह्मण अवशवर्ती हैं, जबकि ब्रह्मा वशवर्ती है। तब क्या अवशवर्ती तीन-वेदी ब्राह्मण और वशवर्ती ब्रह्मा का साथ आकर मिलन होगा, संगम होगा?”

“नहीं, गुरु गौतम!”

“साधु, वासेट्ठ! अवशवर्ती तीन-वेदी ब्राह्मण, मरणोपरान्त काया छूटने पर, वशवर्ती ब्रह्मा के साथ उत्पन्न होंगे — ऐसा संभव नहीं है! भले ही तीन-वेदी ब्राह्मणों को लगता है, जैसे वे तैरकर सूखे तट पर आ रहे हो, किन्तु [दरअसल] वे आगे-आगे बढ़कर डूबते हैं, और डूबकर विलीन होते हैं। इसलिए ही तीन-वेदी ब्राह्मणों के तीन वेदों को ‘रेगिस्तान’ कहते हैं, ‘बंजर’ कहते हैं, ‘तबाही’ कहते हैं।”

ऐसा कहे जाने पर युवा-ब्राह्मण वासेट्ठ ने भगवान से कहा, “मैंने सुना है, गुरु गौतम, कि श्रमण गौतम ब्रह्मा के साथ उत्पन्न होने का मार्ग जानते है।”

“क्या लगता है, वासेट्ठ? यहाँ से मनसाकट गाँव पास ही है, दूर नहीं है न?”

“हाँ, गुरु गौतम! यहाँ से मनसाकट गाँव पास ही है, दूर नहीं है!”

“क्या लगता है, वासेट्ठ? जैसे मनसाकट में जन्मा और पला-बढ़ा कोई पुरुष हो। जो [टहलते हुए] मनसाकट के थोड़ा दूर ही आता है, तो कुछ यात्री उससे मनसाकट का मार्ग पुछते हैं। तो क्या वह मनसाकट में जन्मा और पला-बढ़ा पुरुष उत्तर देने में सुस्ती करेगा या हिचकिचाएगा?”

“नहीं, गुरु गौतम!”

“ऐसा क्यों?”

“क्योंकि यदि कोई पुरुष मनसाकट में ही जन्मा और पला-बढ़ा होगा, तो वह मनसाकट के सभी रास्ते अच्छे से ही जानता होगा।”

“हो सकता है, वासेट्ठ, कि मनसाकट में जन्मा और पला-बढ़ा पुरुष, तब भी उत्तर देने में सुस्ती करे या हिचकिचाए, किन्तु तथागत को ब्रह्मलोक पूछे जाने पर, या ब्रह्मलोक जाने वाला मार्ग पूछे जाने पर, तथागत न सुस्ती करते हैं, न हिचकिचाते ही हैं! मैं ब्रह्मा और ब्रह्मलोक को भली-भाँति जानता हूँ, और ब्रह्मलोक जाने वाले उस मार्ग को भी भली-भाँति जानता हूँ, जिस पर चलकर [=साधना कर] कोई ब्रह्मलोक में उत्पन्न होता है।”

जब ऐसा कहा गया, तो युवा-ब्राह्मण वासेट्ठ ने भगवान से कहा, “मैंने सुना है, गुरु गौतम, कि श्रमण गौतम ब्रह्मा के साथ उत्पन्न होने का मार्ग जानते है। अच्छा होगा, यदि गुरु गौतम हमें ब्रह्मा के साथ उत्पन्न होने का मार्ग बताएँ, और हमारी इस ब्राह्मण पीढ़ी को ऊपर उठाएँ!”

“ठीक है, वासेट्ठ! तब ध्यान देकर गौर से सुनो। मैं बताता हूँ।”

“जैसे कहें, गुरुजी।” वासेट्ठ युवा-ब्राह्मण ने उत्तर दिया।

ब्रह्मलोक के मार्ग पर प्रवचन

भगवान ने कहा, “ऐसा होता है, वासेट्ठ! यहाँ कभी इस लोक में तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट होते हैं — विद्या और आचरण से संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं।

ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत पर श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, ‘गृहस्थी बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्यता का पालन करना सरल नहीं है, जो चमचमाते शँख जैसा हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’

तब वह समय पाकर, छोटी-बड़ी धनसंपत्ति त्यागकर, छोटा-बड़ा घरपरिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित होता है।

प्रवज्यित होकर ऐसा भिक्षु शीलवान बनता है। वह पातिमोक्ष के अनुसार संयम से विनीत होकर, आर्य आचरण और जीवनशैली से संपन्न होकर रहता है। वह [धर्म-विनय] शिक्षापदों को सीख कर धारण करता है, अल्प पाप में भी ख़तरा देखता है। वह काया और वाणी के कुशल कर्मों से युक्त होता है, जीविका परिशुद्ध रखता है, और शील में समृद्ध होता है। इंद्रिय-द्वारों पर पहरा देता है, स्मरणशील और सचेत होता है, और संतुष्ट जीता है।

शील विश्लेषण

(१) निम्न शील

और, वासेट्ठ, कोई भिक्षु शील-संपन्न कैसे होता है?

• कोई भिक्षु हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी। यह उसका शील होता है।

• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं। यह भी उसका शील होता है।

• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत! यह भी उसका शील होता है।

• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं। यह भी उसका शील होता है।

• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है। यह भी उसका शील होता है।

• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे। यह भी उसका शील होता है।

• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ। यह भी उसका शील होता है।

• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…

• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…

• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…

• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…

• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…

• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…

• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…

• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।

यह भी उसका शील होता है।

(२) मध्यम शील

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश में लगे रहते हैं, जो — जड़ से उगते हो, डंठल से उगते हो, जोड़ से उगते हो, कली से उगते हो, और बीज से अंकुरित होते हो। कोई भिक्षु इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने में लगे रहते हैं, जैसे — संग्रहीत अन्न, संग्रहीत जलपान, संग्रहीत वस्त्र, संग्रहीत वाहन, संग्रहीत शय्या, संग्रहीत गन्ध, संग्रहीत माँस। कोई भिक्षु इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के अनुचित दर्शन में लगे रहते हैं, जैसे — नृत्य, गीत या वाद्यसंगीत; नाटक या कथा-लीला; ताली, झांझ या ढ़ोल बजाना; चलचित्र या रंगमंच; कलाबाजी या जादुई खेल; हाथी-लड़ाई, अश्व-लड़ाई, भैंस-लड़ाई, बैल-लड़ाई, बकरा-लड़ाई, भेळ-लड़ाई, मुर्गा-लड़ाई, बदक-लड़ाई, लाठी-खेल, मुष्टि-युद्ध, कुश्ती, युद्ध-खेल, सैन्य-भूमिका, युद्ध-चक्रव्यूह, सैन्य-समीक्षा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के अनुचित दर्शन से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों में लगे रहते हैं, जैसे — अष्टपद शतरंज, दशपद शतरंज, आकाश शतरंज, परिहारपथ, सन्निक, पासा, छड़ी का खेल, हस्तचित्र, गेंद का खेल, नली फूँकने का खेल, हल का खेल, कलाबाजी का खेल, चक्की का खेल, तराजू का खेल, रथ की दौड़, तीर चलाने का खेल, अंताक्षरी, विचार जानने का खेल, नकल इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा [=फर्नीचर] में लगे रहते हैं, जैसे — बड़ा विलासी सोफ़ा या पलंग, नक्काशीदार या खाल से सजा सोफ़ा, लंबे रोएवाला आसन, रंगीत-चित्रित आसन, सफ़ेद ऊनी कम्बल, फूलदार बिछौना, मोटी रजार्इ या गद्दा, सिह-बाघ आदि के चित्रवाला आसन, झालरदार आसन, रेशमी या कढ़ाई [एंब्रोईडरी] वाला आसन, लम्बी ऊनी कालीन, हाथी-गलीचा, अश्व-गलीचा, रथ-गलीचा, मृग या सांभर खाल का आसन, छातेदार सोफ़ा, दोनों-ओर लाल तकिये रखा सोफ़ा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण में लगे रहते हैं, जैसे — सुगंधित उबटन लगाना, तेल से शरीर मलना, सुगंधित जल से नहाना, हाथ-पैर दबवाना, दर्पण, लेप, माला, गन्ध, मुखचूर्ण [=पाउडर], काजल, हाथ में आभूषण, सिर में बाँधना, अलंकृत छड़ी, अलंकृत बोतल, छुरी, छाता, कढ़ाई वाला जूता, साफा [=पगड़ी], मुकुट या मणि, चँदर, लंबे झालरवाले सफ़ेद वस्त्र इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की व्यर्थ चर्चा में लगे रहते हैं, जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें। कोई भिक्षु इस तरह की व्यर्थ चर्चा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के वाद-विवाद में लगे रहते हैं, जैसे — “तुम इस धर्म-विनय को समझते हो? मैं इस धर्म-विनय को समझता हूँ।” “तुम इस धर्म-विनय को क्या समझोगे?” “तुम गलत अभ्यास करते हो। मैं सही अभ्यास करता हूँ।” “मैं धर्मानुसार [=सुसंगत] बताता हूँ। तुम उल्टा बताते हो।” “तुम्हें जो पहले कहना चाहिए था, उसे पश्चात कहा, और जो पश्चात कहना चाहिए, उसे पहले कहा।” “तुम्हारी दीर्घकाल सोची हुई धारणा का खण्डन हुआ।” “तुम्हारी बात कट गई।” “तुम हार गए।” “जाओ, अपनी धारणा को बचाने का प्रयास करो, या उत्तर दे सको तो दो!” कोई भिक्षु इस तरह के वाद-विवाद से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बन घूमने में लगे रहते हैं, जैसे — राजा, महामन्त्री, क्षत्रिय, ब्राह्मण, गृहस्थ [=वैश्य], या युवा। “वहाँ जाओ”, “यहाँ आओ”, “यह ले जाओ”, “यह ले आओ!" कोई भिक्षु इस तरह लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बनने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, पाखंड, झूठी प्रशंसा, इशारे, अपमानित या भयभीत करते, और लाभ से लाभ ढूँढते हैं। कोई भिक्षु इस तरह का पाखंड और बातों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

(३) ऊँचे शील

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • अंग [=काया की बनावट देखकर भविष्य/चरित्रवर्तन],

    • निमित्त [=शकुन-अपशकुन घटनाएँ बतलाना],

    • उत्पात [=वज्रपात, उल्कापात, धूमकेतु इत्यादि का अर्थ बतलाना],

    • स्वप्न [=स्वप्न का शुभ-अशुभ अर्थ बतलाना],

    • लक्षण [=बर्ताव इत्यादि का अर्थ बतलाना],

    • मूषिक-छिद्र [=चूहे द्वारा कुतरा वस्त्र देखकर अर्थ बतलाना],

    • अग्नि-हवन [=अग्नि को चढ़ावा],

    • करछी से होम-हवन, भूसी से होम, टूटे चावल से होम, चावल से होम, घी से होम, तेल से होम, घी के कुल्ले से होम, रक्त-बलिदान से होम,

    • अंगविद्या [=हस्तरेखा, पादरेखा, कपालरेखा इत्यादि देखकर भविष्यवर्तन],

    • वास्तुविद्या [=निवास में शुभ-अशुभ बतलाना],

    • क्षेत्रविद्या [=खेत-जमीन-जायदाद में शुभ-अशुभ बतलाना],

    • शिवविद्या [=श्मशान-भूमि में शुभ-अशुभ बतलाना],

    • भूतविद्या [=भूतबाधा और मुक्तिमंत्र बतलाना],

    • भुरिविद्या [=घर के सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • सर्पविद्या [=सर्पदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • विषविद्या [=विषबाधा में सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • वृश्चिकविद्या [=बिच्छूदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • मूषिकविद्या [=चूहों से सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • पक्षीविद्या [=पक्षीध्वनि का अर्थ बतलाना],

    • कौवाविद्या [=कौंवों की ध्वनि या बर्ताव का अर्थ बतलाना],

    • पक्षध्यान [=आयुसीमा या मृत्युकाल बतलाना],

    • शरपरित्राण [=बाण से सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • और मृगचक्र [=हिरण इत्यादि पशुध्वनि का अर्थ बतलाना]।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • मणि-लक्षण [मणि की विलक्षणता बतलाना],

    • वस्त्र-लक्षण [=वस्त्र पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • दण्ड-लक्षण [=छड़ी पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • शस्त्र-लक्षण [=छुरे पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • असि-लक्षण [तलवार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • बाण-लक्षण [=बाण पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • धनुष-लक्षण [=धनुष पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • आयुध-लक्षण[=शस्त्र, औज़ार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • स्त्री-लक्षण [=स्त्री के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • पुरुष-लक्षण [=पुरुष के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • कुमार-लक्षण [=लड़के के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • कुमारी-लक्षण [=लड़की के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • दास-लक्षण [=गुलाम/नौकर के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • दासी-लक्षण [=गुलाम/नौकरानी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • हस्ति-लक्षण [=हाथी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • अश्व-लक्षण [=घोड़े के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • भैस-लक्षण [=भैंस के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • वृषभ-लक्षण [=बैल के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • गाय-लक्षण [=गाय के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • अज-लक्षण [=बकरी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • मेष-लक्षण [=भेड़ के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • मुर्गा-लक्षण [=मुर्गे के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • बत्तक-लक्षण [=बदक के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • गोह-लक्षण [=गोह/छिपकली के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • कर्णिका-लक्षण [=ख़रगोश के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • कच्छप-लक्षण [=कछुए के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • और मृग-लक्षण [=मृग/हिरण के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना]।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे — राजा [युद्ध में] आगे बढ़ेगा, राजा आगे नहीं बढ़ेगा, यहाँ का राजा आगे बढ़ेगा तो बाहरी राजा पीछे हटेगा, बाहरी राजा आगे बढ़ेगा तो यहाँ का राजा पीछे हटेगा, यहाँ के राजा विजयी होगा और बाहरी राजा पराजित, बाहरी राजा विजयी होगा और यहाँ का राजा पराजित, इसका विजय उसका पराजय होगा। कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • चंद्रग्रहण होगा, सूर्यग्रहण होगा, नक्षत्रग्रहण होगा,

    • सूर्य और चंद्र पथगमन करेंगे [=अनुकूल रहेंगे],

    • सूर्य और चंद्र उप्पथगमन करेंगे [=प्रतिकूल रहेंगे],

    • नक्षत्र पथगमन करेंगे,

    • नक्षत्र उप्पथगमन करेंगे,

    • उल्कापात होगा,

    • क्षितिज उज्ज्वल होगा [=ऑरोरा?],

    • भूकंप होगा,

    • देवढ़ोल बजेंगे [बादल-गर्जना?],

    • सूर्य, चंद्र या नक्षत्रों का उदय, अस्त, मंद या तेजस्वी होंगे,

    • चंद्रग्रहण का परिणाम ऐसा होगा,

    • सूर्यग्रहण…, नक्षत्रग्रहण…, [और एक-एक कर इन सब का] परिणाम ऐसा होगा।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • प्रचुर वर्षा होगी,

    • अल्प वर्षा होगी,

    • सुभिक्ष [=भोजन भरपूर] होगा,

    • दुर्भिक्ष [=भोजन नहीं] होगा,

    • क्षेम [=राहत, सुरक्षा] होगा,

    • भय [=खतरा, चुनौतीपूर्ण काल] होगा,

    • रोग [=बीमारियाँ] होंगे,

    • आरोग्य [=चंगाई] होगा,

    • अथवा वे लेखांकन, गणना, आंकलन, कविताओं की रचना, भौतिकवादी कला [लोकायत] सिखाकर अपनी मिथ्या आजीविका कमाते हैं।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • आवाह [=दुल्हन घर लाने का] मुहूर्त बतलाना,

    • विवाह [=कन्या भेजने का] मुहूर्त बतलाना,

    • संवरण [=घूँघट या संयम करने का] मुहूर्त बतलाना,

    • विवरण [=घूँघट हटाने या संभोग का] मुहूर्त बतलाना,

    • जमा-बटोरने का मुहूर्त बतलाना,

    • निवेश-फैलाने का मुहूर्त बतलाना,

    • शुभ-वरदान देना,

    • श्राप देना,

    • गर्भ-गिराने की दवाई देना,

    • जीभ बांधने का मंत्र बतलाना,

    • जबड़ा बांधने का मंत्र बतलाना,

    • हाथ उल्टेपूल्टे मुड़ने का मंत्र बतलाना,

    • जबड़ा बंद करने का मंत्र बतलाना,

    • कान बंद करने का मंत्र बतलाना,

    • दर्पण [के भूत] से प्रश्न पुछना,

    • भूत-बाधित कन्या से प्रश्न पुछना,

    • देवता से प्रश्न पुछना,

    • सूर्य की पुजा करना,

    • महादेव की पुजा करना,

    • मुँह से अग्नि निकालना,

    • श्रीदेवी [=सौभाग्य लानेवाली देवी] का आह्वान करना।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • शान्ति-पाठ कराना,

    • इच्छापूर्ति-पाठ कराना,

    • भूतात्मा-पाठ कराना,

    • भूमि-पूजन कराना,

    • वर्ष-पाठ कराना [=नपुंसक को पौरुषत्व दिलाने के लिए],

    • वोस्स-पाठ कराना [=कामेच्छा ख़त्म कराने के लिए],

    • वास्तु-पाठ कराना [घर बनाने पूर्व],

    • वास्तु-परिकर्म कराना [=भूमि का उपयोग करने पूर्व देवताओं को बलि देना इत्यादि],

    • शुद्धजल से धुलवाना,

    • शुद्धजल से नहलाना,

    • बलि चढ़ाना,

    • वमन [=उलटी] कराना,

    • विरेचन [=जुलाब देकर] कराना,

    • ऊपर [=मुख] से विरेचन कराना,

    • नीचे से विरेचन [=दस्त] कराना,

    • शीर्ष-विरेचन कराना [=कफ निकालना?],

    • कान के लिए औषधियुक्त तेल देना,

    • आँखों की धुंधलाहट हटाने के लिए औषधि देना,

    • नाक के लिए औषधि देना,

    • मरहम देना, प्रति-मरहम देना,

    • आँखें शीतल करने की दवा देना,

    • आँख और कान की शल्यक्रिया करना,

    • शरीर की शल्यक्रिया [=छुरी से सर्जरी] करना,

    • बच्चों का वैद्य बनना,

    • जड़ीबूटी देना, जड़ीबूटी बांधना।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

इस तरह, वासेट्ठ, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। जैसे, कोई राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा हो, जिसने सभी शत्रुओं को जीत लिया हो, वह कही किसी शत्रु से खतरा नहीं देखता है। उसी तरह, वासेट्ठ, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। वह ऐसे आर्यशील-संग्रह से संपन्न होकर निष्पाप [जीने के] सुख का अनुभव करता है। इस तरह, वासेट्ठ, कोई भिक्षु शील-संपन्न होता है।

इन्द्रिय सँवर

और, वासेट्ठ, कैसे कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है?

• कोई भिक्षु, आँखों से रूप देखकर, न उसकी छाप «निमित्त» ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण [=आकर्षित करनेवाली कोई दूसरी बात]। चूँकि यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे [कोई] लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, चक्षु-इंद्रिय का बचाव करता है, चक्षु-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

• वह कान से आवाज सुनकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह श्रोत-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, श्रोत-इंद्रिय का बचाव करता है, श्रोत-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

• वह नाक से गन्ध सूँघकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह घ्राण-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, घ्राण-इंद्रिय का बचाव करता है, घ्राण-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

• वह जीभ से रस चखकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह जिव्हा-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, जिव्हा-इंद्रिय का बचाव करता है, जिव्हा-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

• वह काया से संस्पर्श महसूस कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह काय-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, काय-इंद्रिय का बचाव करता है, काय-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

• वह मन से स्वभाव जान कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह मन-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, मन-इंद्रिय का बचाव करता है, मन-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर निष्पाप सुख का अनुभव करता है। इस तरह, वासेट्ठ, कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है।

स्मरणशील और सचेत

और, वासेट्ठ, कैसे कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है? वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है। इस तरह, वासेट्ठ, कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है।

सन्तोष

और, वासेट्ठ, कैसे कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है? वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। इस तरह, वासेट्ठ, कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है।

नीवरण त्याग

इस तरह वह आर्य-शीलसंग्रह से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य-सँवर से संपन्न होकर, स्मरणशील और सचेत होकर, आर्य-संतुष्ट होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।

वह दुनिया के प्रति लालसा «अभिज्झा» हटाकर लालसाविहीन चित्त से रहता है। अपने चित्त से लालसा को साफ़ करता है। वह भीतर से दुर्भावना और द्वेष «ब्यापादपदोस» हटाकर दुर्भावनाविहीन चित्त से रहता है — समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। अपने चित्त से दुर्भावना और द्वेष को साफ़ करता है। वह भीतर से सुस्ती और तंद्रा «थिनमिद्धा» हटाकर सुस्ती और तंद्राविहीन चित्त से रहता है — उजाला देखने वाला, स्मरणशील और सचेत। अपने चित्त से सुस्ती और तंद्रा को साफ़ करता है। वह भीतर से बेचैनी और पश्चाताप «उद्धच्चकुक्कुच्च» हटाकर बिना व्याकुलता के रहता है; भीतर से शान्त चित्त। अपने चित्त से बेचैनी और पश्चाताप को साफ़ करता है। वह अनिश्चितता «विचिकिच्छा» हटाकर उलझन को लाँघता है; कुशल स्वभावों के प्रति संभ्रमता के बिना। अपने चित्त से अनिश्चितता को साफ़ करता है।

जैसे, वासेट्ठ, कल्पना करें कि कोई पुरुष ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाए, और उसका व्यवसाय यशस्वी हो जाए। तब वह पुराना ऋण चुका पाए और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाए। तब उसे लगेगा, “मैंने ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाया और मेरा व्यवसाय यशस्वी हो गया। अब मैंने पुराना ऋण चुका दिया है और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाया है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।

अब कल्पना करें, वासेट्ठ, कि कोई पुरुष बीमार पड़े — पीड़ादायक गंभीर रोग में। वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा न पाए और उसकी काया में बल न रहे। समय बीतने के साथ, वह अंततः रोग से मुक्त हो जाए। तब वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाए और उसकी काया में भी बल रहे। तब उसे लगेगा, “पहले मैं बीमार पड़ा था — पीड़ादायक गंभीर रोग में। न मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता था, न ही मेरी काया में बल रहता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः रोग से मुक्त हो गया। अब मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता हूँ और मेरी काया में बल भी रहता है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।

अब कल्पना करें, वासेट्ठ, कि कोई पुरुष कारावास में कैद हो। समय बीतने के साथ, वह अंततः कारावास से छूट जाए — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं कारावास में कैद था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः कारावास से छूट गया — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।

अब कल्पना करें, वासेट्ठ, कि कोई पुरुष गुलाम हो — पराए के अधीन हो, स्वयं के नहीं। वह जहाँ जाना चाहे, नहीं जा सके। समय बीतने के साथ, वह अंततः गुलामी से छूट जाए — स्वयं के अधीन हो, पराए के नहीं। तब वह जहाँ जाना चाहे, जा सके। तब उसे लगेगा, “पहले मैं गुलाम था — पराए के अधीन, स्वयं के नहीं। मैं जहाँ जाना चाहता था, नहीं जा सकता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः गुलामी से छूट गया — स्वयं के अधीन, पराए के नहीं। अब मैं जहाँ जाना चाहता हूँ, जा सकता हूँ।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।

अब कल्पना करें, वासेट्ठ, कि कोई पुरुष धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा हो, जहाँ भोजन अल्प हो, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, वह अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच जाए — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा था, जहाँ भोजन अल्प था, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, मैं अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच गया — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।

उसी तरह, वासेट्ठ, जब तक ये पाँच अवरोध भीतर से छूटते नहीं हैं, तब तक भिक्षु उन्हें ऋण, रोग, कारावास, गुलामी और रेगिस्तान की तरह देखता है।

किंतु जब ये पाँच अवरोध भीतर से छूट जाते हैं, तब भिक्षु उन्हें ऋणमुक्ति, आरोग्य, बन्धनमुक्ति, स्वतंत्रता और राहतस्थल की तरह देखता है।

ये पाँच अवरोध «पञ्चनीवरण» हटाकर रहने से उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित [=एकाग्र+स्थिर] हो जाता है।

ब्रह्मविहार की साधना

तब, वासेट्ठ, वह भिक्षु सद्भावना-भरे चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में। उसी तरह तीसरी-दिशा में। उसी तरह चौथी-दिशा में। उसी तरह वह ऊपर, नीचे, आड़े, तिरछे, तत्र-सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में ऐसा ‘विस्तृत, विराट, असीम, निर्बैर, निर्द्वेष, सद्भावना-भरा’ चित्त फैलाकर व्याप्त करता है।

जैसे, वासेट्ठ, कोई जोरदार शंखनाद चारों दिशाओं को सरलता से सुनायी पड़ता है। उसी तरह, कोई [जोरदार] सद्भाव चेतोविमुक्ति की साधना करे, तो उसके सीमित कर्म [=जो उसे अन्य लोक ले जाते] वहाँ बच नहीं पाते हैं, वहाँ टिक नहीं पाते हैं। और यही, वासेट्ठ, ब्रह्मा के साथ उत्पन्न होने का मार्ग है।

फिर, वासेट्ठ, वह भिक्षु करुणा-भरे चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में। उसी तरह तीसरी-दिशा में। उसी तरह चौथी-दिशा में। उसी तरह वह ऊपर, नीचे, आड़े, तिरछे, तत्र-सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में ऐसा ‘विस्तृत, विराट, असीम, निर्बैर, निर्द्वेष, करुणा-भरा’ चित्त फैलाकर व्याप्त करता है।

जैसे, वासेट्ठ, कोई जोरदार शंखनाद चारों दिशाओं को सरलता से सुनायी पड़ता है। उसी तरह, कोई करुणा चेतोविमुक्ति की साधना करे, तो उसके सीमित कर्म वहाँ बच नहीं पाते हैं, वहाँ टिक नहीं पाते हैं। और यह भी, वासेट्ठ, ब्रह्मा के साथ उत्पन्न होने का मार्ग है।

फिर, वासेट्ठ, वह भिक्षु प्रसन्नता-भरे चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में। उसी तरह तीसरी-दिशा में। उसी तरह चौथी-दिशा में। उसी तरह वह ऊपर, नीचे, आड़े, तिरछे, तत्र-सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में ऐसा ‘विस्तृत, विराट, असीम, निर्बैर, निर्द्वेष, प्रसन्नता-भरा’ चित्त फैलाकर व्याप्त करता है।

जैसे, वासेट्ठ, कोई जोरदार शंखनाद चारों दिशाओं को सरलता से सुनायी पड़ता है। उसी तरह, कोई प्रसन्नता चेतोविमुक्ति की साधना करे, तो उसके सीमित कर्म वहाँ बच नहीं पाते हैं, वहाँ टिक नहीं पाते हैं। और यह भी, वासेट्ठ, ब्रह्मा के साथ उत्पन्न होने का मार्ग है।

फिर, वासेट्ठ, वह भिक्षु तटस्थता-भरे चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में। उसी तरह तीसरी-दिशा में। उसी तरह चौथी-दिशा में। उसी तरह वह ऊपर, नीचे, आड़े, तिरछे, तत्र-सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में ऐसा ‘विस्तृत, विराट, असीम, निर्बैर, निर्द्वेष, तटस्थता-भरा’ चित्त फैलाकर व्याप्त करता है।

जैसे, वासेट्ठ, कोई जोरदार शंखनाद चारों दिशाओं को सरलता से सुनायी पड़ता है। उसी तरह, कोई तटस्थता चेतोविमुक्ति की साधना करे, तो उसके सीमित कर्म वहाँ बच नहीं पाते हैं, वहाँ टिक नहीं पाते हैं। और यह भी, वासेट्ठ, ब्रह्मा के साथ उत्पन्न होने का मार्ग है।

तो क्या लगता है, वासेट्ठ? इस तरह [साधना कर के] रहने वाला भिक्षु संग्रह-कर्ता [=बटोरू] है, अथवा असंग्रह-कर्ता?”

“असंग्रह-कर्ता है, गुरु गौतम!”

“वैरी चित्त का है, अथवा निर्बैर चित्त का?”

“निर्बैर चित्त का, गुरु गौतम!”

“दुर्भावना-भरे चित्त का है, अथवा दुर्भावना-हिन चित्त का?”

“दुर्भावना-हिन चित्त का, गुरु गौतम!”

“दूषित चित्त का है, अथवा अदूषित चित्त का?”

“अदूषित चित्त का, गुरु गौतम!”

“वशवर्ती है, अथवा अवशवर्ती?”

“वशवर्ती है, गुरु गौतम!”

“अच्छा, वासेट्ठ, ऐसा भिक्षु असंग्रह-कर्ता है, और ब्रह्मा भी असंग्रह-कर्ता है। तब क्या असंग्रह-कर्ता भिक्षु और असंग्रह-कर्ता ब्रह्मा का साथ आकर मिलन होगा, संगम होगा?”

“हाँ, गुरु गौतम!”

“साधु, वासेट्ठ! कोई असंग्रह-कर्ता भिक्षु, मरणोपरान्त काया छूटने पर, असंग्रह-कर्ता ब्रह्मा के साथ उत्पन्न हो — ऐसा संभव है!”

“अच्छा, वासेट्ठ, ऐसा भिक्षु निर्बैर चित्त का है, और ब्रह्मा भी निर्बैर चित्त का है। तब क्या निर्बैर चित्त का भिक्षु और निर्बैर चित्त का ब्रह्मा का साथ आकर मिलन होगा, संगम होगा?”

“हाँ, गुरु गौतम!”

“साधु, वासेट्ठ! कोई निर्बैर चित्त का भिक्षु, मरणोपरान्त काया छूटने पर, निर्बैर चित्त के ब्रह्मा के साथ उत्पन्न हो — ऐसा संभव है!”

“अच्छा, वासेट्ठ, ऐसा भिक्षु दुर्भावना-हिन चित्त का है, और ब्रह्मा भी दुर्भावना-हिन चित्त का है। तब क्या दुर्भावना-हिन चित्त का भिक्षु और दुर्भावना-हिन चित्त का ब्रह्मा का साथ आकर मिलन होगा, संगम होगा?”

“हाँ, गुरु गौतम!”

“साधु, वासेट्ठ! कोई दुर्भावना-हिन चित्त का भिक्षु, मरणोपरान्त काया छूटने पर, दुर्भावना-हिन चित्त के ब्रह्मा के साथ उत्पन्न हो — ऐसा संभव है!”

“अच्छा, वासेट्ठ, ऐसा भिक्षु अदूषित चित्त का है, और ब्रह्मा भी अदूषित चित्त का है। तब क्या अदूषित चित्त का भिक्षु और अदूषित चित्त का ब्रह्मा का साथ आकर मिलन होगा, संगम होगा?”

“हाँ, गुरु गौतम!”

“साधु, वासेट्ठ! कोई अदूषित चित्त का भिक्षु, मरणोपरान्त काया छूटने पर, अदूषित चित्त के ब्रह्मा के साथ उत्पन्न हो — ऐसा संभव है!”

“अच्छा, वासेट्ठ, ऐसा भिक्षु वशवर्ती है, और ब्रह्मा भी वशवर्ती है। तब क्या वशवर्ती भिक्षु और वशवर्ती ब्रह्मा का साथ आकर मिलन होगा, संगम होगा?”

“हाँ, गुरु गौतम!”

“साधु, वासेट्ठ! कोई वशवर्ती भिक्षु, मरणोपरान्त काया छूटने पर, वशवर्ती ब्रह्मा के साथ उत्पन्न हो — ऐसा संभव है!”

जब ऐसा कहा गया, तो वासेट्ठ ब्राह्मण ने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, गुरु गौतम! अतिउत्तम, गुरु गौतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह गुरु गौतम ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं गुरु गौतम की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! गुरु गौतम मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”

तेविज्ज सुत्त समाप्त।

|| शीलस्कन्ध वर्ग समाप्त ||

Pali

५१८. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि येन मनसाकटं नाम कोसलानं ब्राह्मणगामो तदवसरि। तत्र सुदं भगवा मनसाकटे विहरति उत्तरेन मनसाकटस्स अचिरवतिया नदिया तीरे अम्बवने।

५१९. तेन खो पन समयेन सम्बहुला अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता ब्राह्मणमहासाला मनसाकटे पटिवसन्ति, सेय्यथिदं – चङ्की ब्राह्मणो तारुक्खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति ब्राह्मणो जाणुसोणि ब्राह्मणो तोदेय्यो ब्राह्मणो अञ्ञे च अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता ब्राह्मणमहासाला।

५२०. अथ खो वासेट्ठभारद्वाजानं माणवानं जङ्घविहारं अनुचङ्कमन्तानं अनुविचरन्तानं मग्गामग्गे कथा उदपादि। अथ खो वासेट्ठो माणवो एवमाह – ‘‘अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताय, य्वायं अक्खातो ब्राह्मणेन पोक्खरसातिना’’ति। भारद्वाजोपि माणवो एवमाह – ‘‘अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको, निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताय, य्वायं अक्खातो ब्राह्मणेन तारुक्खेना’’ति। नेव खो असक्खि वासेट्ठो माणवो भारद्वाजं माणवं सञ्ञापेतुं, न पन असक्खि भारद्वाजो माणवोपि वासेट्ठं माणवं सञ्ञापेतुं।

५२१. अथ खो वासेट्ठो माणवो भारद्वाजं माणवं आमन्तेसि – ‘‘अयं खो, भारद्वाज, समणो गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो मनसाकटे विहरति उत्तरेन मनसाकटस्स अचिरवतिया नदिया तीरे अम्बवने। तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’’ति। आयाम, भो भारद्वाज, येन समणो गोतमो तेनुपसङ्कमिस्साम; उपसङ्कमित्वा एतमत्थं समणं गोतमं पुच्छिस्साम। यथा नो समणो गोतमो ब्याकरिस्सति, तथा नं धारेस्सामा’’ति। ‘‘एवं, भो’’ति खो भारद्वाजो माणवो वासेट्ठस्स माणवस्स पच्चस्सोसि।

मग्गामग्गकथा

५२२. अथ खो वासेट्ठभारद्वाजा माणवा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु। एकमन्तं निसिन्नो खो वासेट्ठो माणवो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘इध, भो गोतम, अम्हाकं जङ्घविहारं अनुचङ्कमन्तानं अनुविचरन्तानं मग्गामग्गे कथा उदपादि। अहं एवं वदामि – ‘अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताय, य्वायं अक्खातो ब्राह्मणेन पोक्खरसातिना’ति। भारद्वाजो माणवो एवमाह – ‘अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताय, य्वायं अक्खातो ब्राह्मणेन तारुक्खेना’ति। एत्थ, भो गोतम, अत्थेव विग्गहो, अत्थि विवादो, अत्थि नानावादो’’ति।

५२३. ‘‘इति किर, वासेट्ठ, त्वं एवं वदेसि – ‘‘अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताय, य्वायं अक्खातो ब्राह्मणेन पोक्खरसातिना’’ति। भारद्वाजो माणवो एवमाह – ‘‘अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताय, य्वायं अक्खातो ब्राह्मणेन तारुक्खेना’’ति। अथ किस्मिं पन वो, वासेट्ठ, विग्गहो, किस्मिं विवादो, किस्मिं नानावादो’’ति?

५२४. ‘‘मग्गामग्गे, भो गोतम। किञ्चापि, भो गोतम, ब्राह्मणा नानामग्गे पञ्ञपेन्ति, अद्धरिया ब्राह्मणा तित्तिरिया ब्राह्मणा छन्दोका ब्राह्मणा बव्हारिज्झा ब्राह्मणा, अथ खो सब्बानि तानि निय्यानिका निय्यन्ति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताय।

‘‘सेय्यथापि, भो गोतम, गामस्स वा निगमस्स वा अविदूरे बहूनि चेपि नानामग्गानि भवन्ति, अथ खो सब्बानि तानि गामसमोसरणानि भवन्ति; एवमेव खो, भो गोतम, किञ्चापि ब्राह्मणा नानामग्गे पञ्ञपेन्ति, अद्धरिया ब्राह्मणा तित्तिरिया ब्राह्मणा छन्दोका ब्राह्मणा बव्हारिज्झा ब्राह्मणा, अथ खो सब्बानि तानि निय्यानिका निय्यन्ति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताया’’ति।

वासेट्ठमाणवानुयोगो

५२५. ‘‘निय्यन्तीति वासेट्ठ वदेसि’’? ‘‘निय्यन्तीति, भो गोतम, वदामि’’। ‘‘निय्यन्तीति, वासेट्ठ, वदेसि’’? ‘‘निय्यन्तीति, भो गोतम, वदामि’’। ‘‘निय्यन्तीति, वासेट्ठ, वदेसि’’? ‘‘निय्यन्ती’’ति, भो गोतम, वदामि’’।

‘‘किं पन, वासेट्ठ, अत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं एकब्राह्मणोपि, येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।

‘‘किं पन, वासेट्ठ, अत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं एकाचरियोपि, येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।

‘‘किं पन, वासेट्ठ, अत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं एकाचरियपाचरियोपि, येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।

‘‘किं पन, वासेट्ठ, अत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं याव सत्तमा आचरियामहयुगा [सत्तमाचरियमहयुगा (स्या॰)] येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।

५२६. ‘‘किं पन, वासेट्ठ, येपि तेविज्जानं ब्राह्मणानं पुब्बका इसयो मन्तानं कत्तारो मन्तानं पवत्तारो, येसमिदं एतरहि तेविज्जा ब्राह्मणा पोराणं मन्तपदं गीतं पवुत्तं समिहितं [समीहितं (स्या॰)], तदनुगायन्ति, तदनुभासन्ति, भासितमनुभासन्ति, वाचितमनुवाचेन्ति, सेय्यथिदं – अट्ठको वामको वामदेवो वेस्सामित्तो यमतग्गि अङ्गीरसो भारद्वाजो वासेट्ठो कस्सपो भगु। तेपि एवमाहंसु – ‘मयमेतं जानाम, मयमेतं पस्साम, यत्थ वा ब्रह्मा, येन वा ब्रह्मा, यहिं वा ब्रह्मा’’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।

५२७. ‘‘इति किर, वासेट्ठ, नत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं एकब्राह्मणोपि, येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो। नत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं एकाचरियोपि, येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो। नत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं एकाचरियपाचरियोपि, येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो। नत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं याव सत्तमा आचरियामहयुगा येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो। येपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं पुब्बका इसयो मन्तानं कत्तारो मन्तानं पवत्तारो, येसमिदं एतरहि तेविज्जा ब्राह्मणा पोराणं मन्तपदं गीतं पवुत्तं समिहितं, तदनुगायन्ति, तदनुभासन्ति, भासितमनुभासन्ति, वाचितमनुवाचेन्ति, सेय्यथिदं – अट्ठको वामको वामदेवो वेस्सामित्तो यमतग्गि अङ्गीरसो भारद्वाजो वासेट्ठो कस्सपो भगु, तेपि न एवमाहंसु – ‘मयमेतं जानाम, मयमेतं पस्साम, यत्थ वा ब्रह्मा, येन वा ब्रह्मा, यहिं वा ब्रह्मा’ति। तेव तेविज्जा ब्राह्मणा एवमाहंसु – ‘यं न जानाम, यं न पस्साम, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेम। अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको, निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताया’’’ति।

५२८. ‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ, ननु एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भो गोतम, एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति।

‘‘साधु, वासेट्ठ, ते वत [तेव (क॰)], वासेट्ठ, तेविज्जा ब्राह्मणा यं न जानन्ति, यं न पस्सन्ति, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेस्सन्ति। ‘अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको, निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताया’ति, नेतं ठानं विज्जति।

५२९. ‘‘सेय्यथापि, वासेट्ठ, अन्धवेणि परम्परसंसत्ता पुरिमोपि न पस्सति, मज्झिमोपि न पस्सति, पच्छिमोपि न पस्सति। एवमेव खो, वासेट्ठ, अन्धवेणूपमं मञ्ञे तेविज्जानं ब्राह्मणानं भासितं, पुरिमोपि न पस्सति, मज्झिमोपि न पस्सति, पच्छिमोपि न पस्सति। तेसमिदं तेविज्जानं ब्राह्मणानं भासितं हस्सकञ्ञेव सम्पज्जति, नामकञ्ञेव सम्पज्जति, रित्तकञ्ञेव सम्पज्जति, तुच्छकञ्ञेव सम्पज्जति।

५३०. ‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ, पस्सन्ति तेविज्जा ब्राह्मणा चन्दिमसूरिये, अञ्ञे चापि बहुजना, यतो च चन्दिमसूरिया उग्गच्छन्ति, यत्थ च ओगच्छन्ति, आयाचन्ति थोमयन्ति पञ्जलिका नमस्समाना अनुपरिवत्तन्ती’’ति?

‘‘एवं, भो गोतम, पस्सन्ति तेविज्जा ब्राह्मणा चन्दिमसूरिये, अञ्ञे चापि बहुजना, यतो च चन्दिमसूरिया उग्गच्छन्ति, यत्थ च ओगच्छन्ति, आयाचन्ति थोमयन्ति पञ्जलिका नमस्समाना अनुपरिवत्तन्ती’’ति।

५३१. ‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ, यं पस्सन्ति तेविज्जा ब्राह्मणा चन्दिमसूरिये, अञ्ञे चापि बहुजना, यतो च चन्दिमसूरिया उग्गच्छन्ति, यत्थ च ओगच्छन्ति, आयाचन्ति थोमयन्ति पञ्जलिका नमस्समाना अनुपरिवत्तन्ति, पहोन्ति तेविज्जा ब्राह्मणा चन्दिमसूरियानं सहब्यताय मग्गं देसेतुं – ‘‘अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको, निय्याति तक्करस्स चन्दिमसूरियानं सहब्यताया’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।

‘‘इति किर, वासेट्ठ, यं पस्सन्ति तेविज्जा ब्राह्मणा चन्दिमसूरिये, अञ्ञे चापि बहुजना, यतो च चन्दिमसूरिया उग्गच्छन्ति, यत्थ च ओगच्छन्ति, आयाचन्ति थोमयन्ति पञ्जलिका नमस्समाना अनुपरिवत्तन्ति, तेसम्पि नप्पहोन्ति चन्दिमसूरियानं सहब्यताय मग्गं देसेतुं – ‘‘अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको, निय्याति तक्करस्स चन्दिमसूरियानं सहब्यताया’’ति।

५३२. ‘‘इति पन [किं पन (सी॰ स्या॰ पी॰)] न किर तेविज्जेहि ब्राह्मणेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो। नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं आचरियेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो। नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं आचरियपाचरियेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो। नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं याव सत्तमा [सत्तमेहि (?)] आचरियामहयुगेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो। येपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं पुब्बका इसयो मन्तानं कत्तारो मन्तानं पवत्तारो, येसमिदं एतरहि तेविज्जा ब्राह्मणा पोराणं मन्तपदं गीतं पवुत्तं समिहितं, तदनुगायन्ति, तदनुभासन्ति, भासितमनुभासन्ति, वाचितमनुवाचेन्ति, सेय्यथिदं – अट्ठको वामको वामदेवो वेस्सामित्तो यमतग्गि अङ्गीरसो भारद्वाजो वासेट्ठो कस्सपो भगु, तेपि न एवमाहंसु – ‘‘मयमेतं जानाम, मयमेतं पस्साम, यत्थ वा ब्रह्मा, येन वा ब्रह्मा, यहिं वा ब्रह्मा’’ति। तेव तेविज्जा ब्राह्मणा एवमाहंसु – ‘‘यं न जानाम, यं न पस्साम, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेम – अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताया’’ति।

५३३. ‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ, ननु एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भो गोतम, एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति।

‘‘साधु, वासेट्ठ, ते वत, वासेट्ठ, तेविज्जा ब्राह्मणा यं न जानन्ति, यं न पस्सन्ति, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेस्सन्ति – ‘‘अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको, निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताया’’ति, नेतं ठानं विज्जति।

जनपदकल्याणीउपमा

५३४. ‘‘सेय्यथापि, वासेट्ठ, पुरिसो एवं वदेय्य – ‘‘अहं या इमस्मिं जनपदे जनपदकल्याणी, तं इच्छामि, तं कामेमी’’ति। तमेनं एवं वदेय्युं – ‘‘अम्भो पुरिस, यं त्वं जनपदकल्याणिं इच्छसि कामेसि, जानासि तं जनपदकल्याणिं – खत्तियी वा ब्राह्मणी वा वेस्सी वा सुद्दी वा’’ति? इति पुट्ठो ‘‘नो’’ति वदेय्य।

‘‘तमेनं एवं वदेय्युं – ‘‘अम्भो पुरिस, यं त्वं जनपदकल्याणिं इच्छसि कामेसि, जानासि तं जनपदकल्याणिं – एवंनामा एवंगोत्ताति वा, दीघा वा रस्सा वा मज्झिमा वा काळी वा सामा वा मङ्गुरच्छवी वाति, अमुकस्मिं गामे वा निगमे वा नगरे वा’’ति? इति पुट्ठो ‘नो’ति वदेय्य। तमेनं एवं वदेय्युं – ‘‘अम्भो पुरिस, यं त्वं न जानासि न पस्ससि, तं त्वं इच्छसि कामेसी’’ति? इति पुट्ठो ‘‘आमा’’ति वदेय्य।

५३५. ‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ, ननु एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भो गोतम, एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति।

५३६. ‘‘एवमेव खो, वासेट्ठ, न किर तेविज्जेहि ब्राह्मणेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो, नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं आचरियेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो, नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं आचरियपाचरियेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो। नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं याव सत्तमा आचरियामहयुगेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो। येपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं पुब्बका इसयो मन्तानं कत्तारो मन्तानं पवत्तारो, येसमिदं एतरहि तेविज्जा ब्राह्मणा पोराणं मन्तपदं गीतं पवुत्तं समिहितं, तदनुगायन्ति, तदनुभासन्ति, भासितमनुभासन्ति, वाचितमनुवाचेन्ति, सेय्यथिदं – अट्ठको वामको वामदेवो वेस्सामित्तो यमतग्गि अङ्गीरसो भारद्वाजो वासेट्ठो कस्सपो भगु, तेपि न एवमाहंसु – ‘‘मयमेतं जानाम, मयमेतं पस्साम, यत्थ वा ब्रह्मा, येन वा ब्रह्मा, यहिं वा ब्रह्मा’’ति। तेव तेविज्जा ब्राह्मणा एवमाहंसु – ‘‘यं न जानाम, यं न पस्साम, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेम – अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताया’’ति।

५३७. ‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ, ननु एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भो गोतम, एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति।

‘‘साधु, वासेट्ठ, ते वत, वासेट्ठ, तेविज्जा ब्राह्मणा यं न जानन्ति, यं न पस्सन्ति, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेस्सन्ति – अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यतायाति नेतं ठानं विज्जति।

निस्सेणीउपमा

५३८. ‘‘सेय्यथापि, वासेट्ठ, पुरिसो चातुमहापथे निस्सेणिं करेय्य – पासादस्स आरोहणाय। तमेनं एवं वदेय्युं – ‘‘अम्भो पुरिस, यस्स त्वं [यं त्वं (स्या॰)] पासादस्स आरोहणाय निस्सेणिं करोसि, जानासि तं पासादं – पुरत्थिमाय वा दिसाय दक्खिणाय वा दिसाय पच्छिमाय वा दिसाय उत्तराय वा दिसाय उच्चो वा नीचो वा मज्झिमो वा’’ति? इति पुट्ठो ‘‘नो’’ति वदेय्य।

‘‘तमेनं एवं वदेय्युं – ‘‘अम्भो पुरिस, यं त्वं न जानासि, न पस्ससि, तस्स त्वं पासादस्स आरोहणाय निस्सेणिं करोसी’’ति? इति पुट्ठो ‘‘आमा’’ति वदेय्य।

५३९. ‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ, ननु एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भो गोतम, एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति।

५४०. ‘‘एवमेव खो, वासेट्ठ, न किर तेविज्जेहि ब्राह्मणेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो, नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं आचरियेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो, नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं आचरियपाचरियेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो, नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं याव सत्तमा आचरियामहयुगेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो। येपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं पुब्बका इसयो मन्तानं कत्तारो मन्तानं पवत्तारो, येसमिदं एतरहि तेविज्जा ब्राह्मणा पोराणं मन्तपदं गीतं पवुत्तं समिहितं, तदनुगायन्ति, तदनुभासन्ति, भासितमनुभासन्ति, वाचितमनुवाचेन्ति, सेय्यथिदं – अट्ठको वामको वामदेवो वेस्सामित्तो यमतग्गि अङ्गीरसो भारद्वाजो वासेट्ठो कस्सपो भगु, तेपि न एवमाहंसु – मयमेतं जानाम, मयमेतं पस्साम, यत्थ वा ब्रह्मा, येन वा ब्रह्मा, यहिं वा ब्रह्माति। तेव तेविज्जा ब्राह्मणा एवमाहंसु – ‘‘यं न जानाम, यं न पस्साम, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेम, अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताया’’ति।

५४१. ‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ, ननु एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भो गोतम, एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति।

‘‘साधु, वासेट्ठ। ते वत, वासेट्ठ, तेविज्जा ब्राह्मणा यं न जानन्ति, यं न पस्सन्ति, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेस्सन्ति। अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसब्यतायाति, नेतं ठानं विज्जति।

अचिरवतीनदीउपमा

५४२. ‘‘सेय्यथापि, वासेट्ठ, अयं अचिरवती नदी पूरा उदकस्स समतित्तिका काकपेय्या। अथ पुरिसो आगच्छेय्य पारत्थिको पारगवेसी पारगामी पारं तरितुकामो। सो ओरिमे तीरे ठितो पारिमं तीरं अव्हेय्य – ‘‘एहि पारापारं, एहि पारापार’’न्ति।

५४३. ‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ, अपि नु तस्स पुरिसस्स अव्हायनहेतु वा आयाचनहेतु वा पत्थनहेतु वा अभिनन्दनहेतु वा अचिरवतिया नदिया पारिमं तीरं ओरिमं तीरं आगच्छेय्या’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।

५४४. ‘‘एवमेव खो, वासेट्ठ, तेविज्जा ब्राह्मणा ये धम्मा ब्राह्मणकारका ते धम्मे पहाय वत्तमाना, ये धम्मा अब्राह्मणकारका ते धम्मे समादाय वत्तमाना एवमाहंसु – ‘‘इन्दमव्हयाम, सोममव्हयाम, वरुणमव्हयाम, ईसानमव्हयाम, पजापतिमव्हयाम, ब्रह्ममव्हयाम, महिद्धिमव्हयाम, यममव्हयामा’’ति।

‘‘ते वत, वासेट्ठ, तेविज्जा ब्राह्मणा ये धम्मा ब्राह्मणकारका ते धम्मे पहाय वत्तमाना, ये धम्मा अब्राह्मणकारका ते धम्मे समादाय वत्तमाना अव्हायनहेतु वा आयाचनहेतु वा पत्थनहेतु वा अभिनन्दनहेतु वा कायस्स भेदा परं मरणा ब्रह्मानं सहब्यूपगा भविस्सन्ती’’ति, नेतं ठानं विज्जति।

५४५. ‘‘सेय्यथापि, वासेट्ठ, अयं अचिरवती नदी पूरा उदकस्स समतित्तिका काकपेय्या। अथ पुरिसो आगच्छेय्य पारत्थिको पारगवेसी पारगामी पारं तरितुकामो। सो ओरिमे तीरे दळ्हाय अन्दुया पच्छाबाहं गाळ्हबन्धनं बद्धो।

‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ, अपि नु सो पुरिसो अचिरवतिया नदिया ओरिमा तीरा पारिमं तीरं गच्छेय्या’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।

५४६. ‘‘एवमेव खो, वासेट्ठ, पञ्चिमे कामगुणा अरियस्स विनये अन्दूतिपि वुच्चन्ति, बन्धनन्तिपि वुच्चन्ति। कतमे पञ्च? चक्खुविञ्ञेय्या रूपा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया। सोतविञ्ञेय्या सद्दा…पे॰… घानविञ्ञेय्या गन्धा… जिव्हाविञ्ञेय्या रसा… कायविञ्ञेय्या फोट्ठब्बा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया।

‘‘इमे खो, वासेट्ठ, पञ्च कामगुणा अरियस्स विनये अन्दूतिपि वुच्चन्ति, बन्धनन्तिपि वुच्चन्ति। इमे खो वासेट्ठ पञ्च कामगुणे तेविज्जा ब्राह्मणा गधिता मुच्छिता अज्झोपन्ना अनादीनवदस्साविनो अनिस्सरणपञ्ञा परिभुञ्जन्ति। ते वत, वासेट्ठ, तेविज्जा ब्राह्मणा ये धम्मा ब्राह्मणकारका, ते धम्मे पहाय वत्तमाना, ये धम्मा अब्राह्मणकारका, ते धम्मे समादाय वत्तमाना पञ्च कामगुणे गधिता मुच्छिता अज्झोपन्ना अनादीनवदस्साविनो अनिस्सरणपञ्ञा परिभुञ्जन्ता कामन्दुबन्धनबद्धा कायस्स भेदा परं मरणा ब्रह्मानं सहब्यूपगा भविस्सन्ती’’ति, नेतं ठानं विज्जति।

५४७. ‘‘सेय्यथापि, वासेट्ठ, अयं अचिरवती नदी पूरा उदकस्स समतित्तिका काकपेय्या। अथ पुरिसो आगच्छेय्य पारत्थिको पारगवेसी पारगामी पारं तरितुकामो। सो ओरिमे तीरे ससीसं पारुपित्वा निपज्जेय्य।

‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ, अपि नु सो पुरिसो अचिरवतिया नदिया ओरिमा तीरा पारिमं तीरं गच्छेय्या’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।

५४८. ‘‘एवमेव खो, वासेट्ठ, पञ्चिमे नीवरणा अरियस्स विनये आवरणातिपि वुच्चन्ति, नीवरणातिपि वुच्चन्ति, ओनाहनातिपि वुच्चन्ति, परियोनाहनातिपि वुच्चन्ति। कतमे पञ्च? कामच्छन्दनीवरणं, ब्यापादनीवरणं, थिनमिद्धनीवरणं, उद्धच्चकुक्कुच्चनीवरणं, विचिकिच्छानीवरणं। इमे खो, वासेट्ठ, पञ्च नीवरणा अरियस्स विनये आवरणातिपि वुच्चन्ति, नीवरणातिपि वुच्चन्ति, ओनाहनातिपि वुच्चन्ति, परियोनाहनातिपि वुच्चन्ति।

५४९. ‘‘इमेहि खो, वासेट्ठ, पञ्चहि नीवरणेहि तेविज्जा ब्राह्मणा आवुटा निवुटा ओनद्धा [ओफुटा (सी॰ क॰), ओफुता (स्या॰)] परियोनद्धा। ते वत, वासेट्ठ, तेविज्जा ब्राह्मणा ये धम्मा ब्राह्मणकारका ते धम्मे पहाय वत्तमाना, ये धम्मा अब्राह्मणकारका ते धम्मे समादाय वत्तमाना पञ्चहि नीवरणेहि आवुटा निवुटा ओनद्धा परियोनद्धा [परियोनद्धा, ते (स्या॰ क॰)] कायस्स भेदा परं मरणा ब्रह्मानं सहब्यूपगा भविस्सन्ती’’ति, नेतं ठानं विज्जति।

संसन्दनकथा

५५०. ‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ, किन्ति ते सुतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं, सपरिग्गहो वा ब्रह्मा अपरिग्गहो वा’’ति? ‘‘अपरिग्गहो, भो गोतम’’। ‘‘सवेरचित्तो वा अवेरचित्तो वा’’ति? ‘‘अवेरचित्तो, भो गोतम’’। ‘‘सब्यापज्जचित्तो वा अब्यापज्जचित्तो वा’’ति? ‘‘अब्यापज्जचित्तो, भो गोतम’’। ‘‘संकिलिट्ठचित्तो वा असंकिलिट्ठचित्तो वा’’ति? ‘‘असंकिलिट्ठचित्तो, भो गोतम’’। ‘‘वसवत्ती वा अवसवत्ती वा’’ति? ‘‘वसवत्ती, भो गोतम’’।

‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ, सपरिग्गहा वा तेविज्जा ब्राह्मणा अपरिग्गहा वा’’ति? ‘‘सपरिग्गहा, भो गोतम’’। ‘‘सवेरचित्ता वा अवेरचित्ता वा’’ति? ‘‘सवेरचित्ता, भो गोतम’’। ‘‘सब्यापज्जचित्ता वा अब्यापज्जचित्ता वा’’ति? ‘‘सब्यापज्जचित्ता, भो गोतम’’। ‘‘संकिलिट्ठचित्ता वा असंकिलिट्ठचित्ता वा’’ति? ‘‘संकिलिट्ठचित्ता, भो गोतम’’। ‘‘वसवत्ती वा अवसवत्ती वा’’ति? ‘‘अवसवत्ती, भो गोतम’’।

५५१. ‘‘इति किर, वासेट्ठ, सपरिग्गहा तेविज्जा ब्राह्मणा अपरिग्गहो ब्रह्मा। अपि नु खो सपरिग्गहानं तेविज्जानं ब्राह्मणानं अपरिग्गहेन ब्रह्मुना सद्धिं संसन्दति समेती’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’। ‘‘साधु, वासेट्ठ, ते वत, वासेट्ठ, सपरिग्गहा तेविज्जा ब्राह्मणा कायस्स भेदा परं मरणा अपरिग्गहस्स ब्रह्मुनो सहब्यूपगा भविस्सन्ती’’ति, नेतं ठानं विज्जति।

‘‘इति किर, वासेट्ठ, सवेरचित्ता तेविज्जा ब्राह्मणा, अवेरचित्तो ब्रह्मा…पे॰… सब्यापज्जचित्ता तेविज्जा ब्राह्मणा अब्यापज्जचित्तो ब्रह्मा… संकिलिट्ठचित्ता तेविज्जा ब्राह्मणा असंकिलिट्ठचित्तो ब्रह्मा… अवसवत्ती तेविज्जा ब्राह्मणा वसवत्ती ब्रह्मा, अपि नु खो अवसवत्तीनं तेविज्जानं ब्राह्मणानं वसवत्तिना ब्रह्मुना सद्धिं संसन्दति समेती’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’। ‘‘साधु, वासेट्ठ, ते वत, वासेट्ठ, अवसवत्ती तेविज्जा ब्राह्मणा कायस्स भेदा परं मरणा वसवत्तिस्स ब्रह्मुनो सहब्यूपगा भविस्सन्ती’’ति, नेतं ठानं विज्जति।

५५२. ‘‘इध खो पन ते, वासेट्ठ, तेविज्जा ब्राह्मणा आसीदित्वा [आदिसित्वा (क॰)] संसीदन्ति, संसीदित्वा विसारं [विसादं (सी॰ पी॰), विसत्तं (स्या॰)] पापुणन्ति, सुक्खतरं [सुक्खतरणं (क॰)] मञ्ञे तरन्ति। तस्मा इदं तेविज्जानं ब्राह्मणानं तेविज्जाइरिणन्तिपि वुच्चति, तेविज्जाविवनन्तिपि वुच्चति, तेविज्जाब्यसनन्तिपि वुच्चती’’ति।

५५३. एवं वुत्ते, वासेट्ठो माणवो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सुतं मेतं, भो गोतम, समणो गोतमो ब्रह्मानं सहब्यताय मग्गं जानाती’’ति। ‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ। आसन्ने इतो मनसाकटं, न इतो दूरे मनसाकट’’न्ति? ‘‘एवं, भो गोतम, आसन्ने इतो मनसाकटं, न इतो दूरे मनसाकट’’न्ति।

५५४. ‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ, इधस्स पुरिसो मनसाकटे जातसंवद्धो। तमेनं मनसाकटतो तावदेव अवसटं मनसाकटस्स मग्गं पुच्छेय्युं। सिया नु खो, वासेट्ठ, तस्स पुरिसस्स मनसाकटे जातसंवद्धस्स मनसाकटस्स मग्गं पुट्ठस्स दन्धायितत्तं वा वित्थायितत्तं वा’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’। ‘‘तं किस्स हेतु’’? ‘‘अमु हि, भो गोतम, पुरिसो मनसाकटे जातसंवद्धो, तस्स सब्बानेव मनसाकटस्स मग्गानि सुविदितानी’’ति।

‘‘सिया खो, वासेट्ठ, तस्स पुरिसस्स मनसाकटे जातसंवद्धस्स मनसाकटस्स मग्गं पुट्ठस्स दन्धायितत्तं वा वित्थायितत्तं वा, न त्वेव तथागतस्स ब्रह्मलोके वा ब्रह्मलोकगामिनिया वा पटिपदाय पुट्ठस्स दन्धायितत्तं वा वित्थायितत्तं वा। ब्रह्मानं चाहं, वासेट्ठ, पजानामि ब्रह्मलोकञ्च ब्रह्मलोकगामिनिञ्च पटिपदं, यथा पटिपन्नो च ब्रह्मलोकं उपपन्नो, तञ्च पजानामी’’ति।

५५५. एवं वुत्ते, वासेट्ठो माणवो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सुतं मेतं, भो गोतम, समणो गोतमो ब्रह्मानं सहब्यताय मग्गं देसेती’’ति। ‘‘साधु नो भवं गोतमो ब्रह्मानं सहब्यताय मग्गं देसेतु उल्लुम्पतु भवं गोतमो ब्राह्मणिं पज’’न्ति। ‘‘तेन हि, वासेट्ठ, सुणाहि; साधुकं मनसि करोहि; भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं भो’’ति खो वासेट्ठो माणवो भगवतो पच्चस्सोसि।

ब्रह्मलोकमग्गदेसना

५५६. भगवा एतदवोच – ‘‘इध, वासेट्ठ, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं, सम्मासम्बुद्धो…पे॰… (यथा १९०-२१२ अनुच्छेदेसु एवं वित्थारेतब्बं)। एवं खो, वासेट्ठ, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति…पे॰… तस्सिमे पञ्च नीवरणे पहीने अत्तनि समनुपस्सतो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति।

‘‘सो मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति। तथा दुतियं। तथा ततियं। तथा चतुत्थं। इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति।

‘‘सेय्यथापि, वासेट्ठ, बलवा सङ्खधमो अप्पकसिरेनेव चतुद्दिसा विञ्ञापेय्य; एवमेव खो, वासेट्ठ, एवं भाविताय मेत्ताय चेतोविमुत्तिया यं पमाणकतं कम्मं न तं तत्रावसिस्सति, न तं तत्रावतिट्ठति। अयम्पि खो, वासेट्ठ, ब्रह्मानं सहब्यताय मग्गो।

‘‘पुन चपरं, वासेट्ठ, भिक्खु करुणासहगतेन चेतसा…पे॰… मुदितासहगतेन चेतसा…पे॰… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति। तथा दुतियं। तथा ततियं। तथा चतुत्थं। इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति।

‘‘सेय्यथापि, वासेट्ठ, बलवा सङ्खधमो अप्पकसिरेनेव चतुद्दिसा विञ्ञापेय्य। एवमेव खो, वासेट्ठ, एवं भाविताय उपेक्खाय चेतोविमुत्तिया यं पमाणकतं कम्मं न तं तत्रावसिस्सति, न तं तत्रावतिट्ठति। अयं खो, वासेट्ठ, ब्रह्मानं सहब्यताय मग्गो।

५५७. ‘‘तं किं मञ्ञसि, वासेट्ठ, एवंविहारी भिक्खु सपरिग्गहो वा अपरिग्गहो वा’’ति? ‘‘अपरिग्गहो, भो गोतम’’। ‘‘सवेरचित्तो वा अवेरचित्तो वा’’ति? ‘‘अवेरचित्तो, भो गोतम’’। ‘‘सब्यापज्जचित्तो वा अब्यापज्जचित्तो वा’’ति? ‘‘अब्यापज्जचित्तो, भो गोतम’’। ‘‘संकिलिट्ठचित्तो वा असंकिलिट्ठचित्तो वा’’ति? ‘‘असंकिलिट्ठचित्तो, भो गोतम’’। ‘‘वसवत्ती वा अवसवत्ती वा’’ति? ‘‘वसवत्ती, भो गोतम’’।

‘‘इति किर, वासेट्ठ, अपरिग्गहो भिक्खु, अपरिग्गहो ब्रह्मा। अपि नु खो अपरिग्गहस्स भिक्खुनो अपरिग्गहेन ब्रह्मुना सद्धिं संसन्दति समेती’’ति? ‘‘एवं, भो गोतम’’। ‘‘साधु, वासेट्ठ, सो वत वासेट्ठ अपरिग्गहो भिक्खु कायस्स भेदा परं मरणा अपरिग्गहस्स ब्रह्मुनो सहब्यूपगो भविस्सती’’ति, ठानमेतं विज्जति।

५५८. ‘‘इति किर, वासेट्ठ, अवेरचित्तो भिक्खु, अवेरचित्तो ब्रह्मा…पे॰… अब्यापज्जचित्तो भिक्खु, अब्यापज्जचित्तो ब्रह्मा… असंकिलिट्ठचित्तो भिक्खु, असंकिलिट्ठचित्तो ब्रह्मा… वसवत्ती भिक्खु, वसवत्ती ब्रह्मा, अपि नु खो वसवत्तिस्स भिक्खुनो वसवत्तिना ब्रह्मुना सद्धिं संसन्दति समेती’’ति? ‘‘एवं, भो गोतम’’। ‘‘साधु, वासेट्ठ, सो वत, वासेट्ठ, वसवत्ती भिक्खु कायस्स भेदा परं मरणा वसवत्तिस्स ब्रह्मुनो सहब्यूपगो भविस्सतीति, ठानमेतं विज्जती’’ति।

५५९. एवं वुत्ते, वासेट्ठभारद्वाजा माणवा भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम! सेय्यथापि, भो गोतम, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’ति। एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एते मयं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छाम, धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च। उपासके नो भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेते सरणं गते’’ति।

तेविज्जसुत्तं निट्ठितं तेरसमं।

सीलक्खन्धवग्गो निट्ठितो।

तस्सुद्दानं –

ब्रह्मासामञ्ञअम्बट्ठ,

सोणकूटमहालिजालिनी।

सीहपोट्ठपादसुभो केवट्टो,

लोहिच्चतेविज्जा तेरसाति॥

सीलक्खन्धवग्गपाळि निट्ठिता।