ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवन उद्यान में करेरी [वृक्ष] की कुटी में विहार कर रहे थे। तब भिक्षाटन से लौटकर भोजन करने के पश्चात करेरी के मंडप में बहुत से भिक्षुओं में पूर्वजन्म को लेकर धर्मचर्चा चल पड़ी — “पूर्वजन्म ऐसा होता है, पूर्वजन्म वैसा होता है।” भगवान ने अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्य श्रोतधातु से उन भिक्षुओं के बीच चल रही वार्तालाप को सुन लिया। तब भगवान अपने आसन से उठकर मंडप में गए और बिछे आसन पर बैठ गए।
भगवान ने बैठकर उन भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, अभी आप बैठकर क्या बातें कर रहे थे? क्या बात अधूरी रह गयी?”
ऐसा कहे जाने पर उन भिक्षुओं ने भगवान से कहा, “भंते, भिक्षाटन से लौटकर भोजन करने के पश्चात करेरी के मंडप में हम भिक्षुओं में पूर्वजन्म को लेकर धर्मचर्चा चल पड़ी — ‘पूर्वजन्म ऐसा होता है, पूर्वजन्म वैसा होता है।’ बस यही, भंते, हम बात कर रहे थे, जो अधूरी रह गयी।”
“भिक्षुओं, क्या तुम्हें पूर्वजन्मों के विषय पर धर्मकथा सुनने की इच्छा है?”
“यही [उचित] समय है, भगवान। यही [उचित] समय है, सुगत। भगवान पूर्वजन्म पर धर्मकथा बताएँ। भगवान की बात सुनकर भिक्षु उसे धारण करेंगे।”
“ठीक है, भिक्षुओं। ध्यान देकर गौर से सुनों, मैं बताता हूँ।”
“हाँ, भंते।” भिक्षुओं ने भगवान से कहा। तब भगवान ने कहा:
“भिक्षुओं, इक्यानबे [९१] कल्प पहले भगवान विपस्सी [=विपश्यी] अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध इस लोक में प्रकट हुए थे। एकतीस [३१] कल्प पहले भगवान सिखी [=शिखी] अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध इस लोक में प्रकट हुए थे। ठीक उसी एकतीसवे कल्प में भगवान वेस्सभू [=विश्वभू] अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध भी इस लोक में प्रकट हुए थे। इस वर्तमान भद्रकल्प [=भाग्यशाली कल्प] में भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध इस लोक में प्रकट हुए थे। इसी वर्तमान भद्रकल्प में भगवान कोणागमन अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध भी इस लोक में प्रकट हुए थे। इसी वर्तमान भद्रकल्प में भगवान कश्यप अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध भी इस लोक में प्रकट हुए थे। और भिक्षुओं, इसी वर्तमान भद्रकल्प में मैं अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध भी इस लोक में प्रकट हुआ।
भिक्षुओं, भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने क्षत्रियों में जन्म लिया था, वे क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे। भगवान सिखी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने भी क्षत्रियों में जन्म लिया था, वे भी क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे। भगवान वेस्सभू अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने भी क्षत्रियों में जन्म लिया था, वे भी क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे। भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने ब्राह्मणों में जन्म लिया था, वे ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। भगवान कोणागमन अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने भी ब्राह्मणों में जन्म लिया था, वे भी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। भगवान कश्यप अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने भी ब्राह्मणों में जन्म लिया था, वे भी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। और, भिक्षुओं, मैं अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने क्षत्रियों में जन्म लिया, मैं क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुआ।
भिक्षुओं, भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध कोण्डञ्ञ गोत्र के थे। भगवान सिखी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध भी कोण्डञ्ञ गोत्र के थे। भगवान वेस्सभू अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध भी कोण्डञ्ञ गोत्र के थे। भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध कश्यप गोत्र के थे। भगवान कोणागमन अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध भी कश्यप गोत्र के थे। भगवान कश्यप अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध भी कश्यप गोत्र के थे। और, भिक्षुओं, मैं अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध गोतम गोत्र का हूँ।
भिक्षुओं, भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की अस्सी हजार वर्ष [=८०,०००] की आयु थी। भगवान सिखी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की सत्तर हजार वर्ष की आयु थी। भगवान वेस्सभू अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की साठ हजार वर्ष की आयु थी। भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की चालीस हजार वर्ष की आयु थी। भगवान कोणागमन अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की तीस हजार वर्ष की आयु थी। भगवान कश्यप अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की बीस हजार वर्ष की आयु थी। और, भिक्षुओं, वर्तमान में मेरी आयु बहुत अल्प, सीमित और छोटी है। इस समय दीर्घायु भी सौ वर्षों से कुछ कम या कुछ अधिक जीता है।
भिक्षुओं, भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने पाटलि [= पाडर वृक्ष] के तले अभिसम्बोधि प्राप्त किया था। भगवान सिखी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने पुण्डरीक [= वृक्ष] के तले अभिसम्बोधि प्राप्त किया था। भगवान वेस्सभू अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने साल [= शाल वृक्ष] के तले अभिसम्बोधि प्राप्त किया था। भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने सिरिस [= वृक्ष] के तले अभिसम्बोधि प्राप्त किया था। भगवान कोणागमन अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने उदुम्बर [= गूलर वृक्ष] के तले अभिसम्बोधि प्राप्त किया था। भगवान कश्यप अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने निग्रोध [= बरगद, वटवृक्ष] के तले अभिसम्बोधि प्राप्त किया था। और, भिक्षुओं, मैं अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने अस्सत्थ [= पीपल वृक्ष] के तले अभिसम्बोधि प्राप्त किया।
भिक्षुओं, भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की खण्ड और तिस्स नामक शिष्यों की जोड़ी अग्र थी, भद्र [=शुभ] थी। भगवान सिखी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की अभिभू और सम्भव नामक शिष्यों की जोड़ी अग्र थी, भद्र थी। भगवान वेस्सभू अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की सोण और उत्तर नामक शिष्यों की जोड़ी अग्र थी, भद्र थी। भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की विधुर और सञ्जीव नामक शिष्यों की जोड़ी अग्र थी, भद्र थी। भगवान कोणागमन अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की भिय्योस और उत्तर नामक शिष्यों की जोड़ी अग्र थी, भद्र थी। भगवान कश्यप अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की तिस्स और भारद्वाज नामक शिष्यों की जोड़ी अग्र थी, भद्र थी। और, भिक्षुओं, मेरे पास सारिपुत्त और मोग्गलान नामक शिष्यों की जोड़ी अग्र है, भद्र है।
भिक्षुओं, भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की तीन शिष्य सभाएँ हुई — एक शिष्य सभा अड़सठ लाख [६८,००,०००] भिक्षुओं की थी, एक शिष्य सभा एक लाख [१,००,०००] भिक्षुओं की थी, और एक अस्सी हजार [८०,०००] भिक्षुओं की थी। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की कुल तीन शिष्य सभाएँ हुई, जिनमें सभी क्षीणास्रव [=आस्रव नष्ट, अरहंत] थे।
भगवान सिखी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की भी तीन शिष्य सभाएँ हुई — एक शिष्य सभा एक लाख [१,००,०००] भिक्षुओं की थी, एक अस्सी हजार [८०,०००] भिक्षुओं की थी, और एक शिष्य सभा सत्तर हजार [७०,०००] भिक्षुओं की थी। भगवान सिखी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की कुल तीन शिष्य सभाएँ हुई, जिनमें सभी क्षीणास्रव थे।
भगवान वेस्सभू अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की भी तीन शिष्य सभाएँ हुई — एक शिष्य सभा अस्सी हजार [८०,०००] भिक्षुओं की थी, एक शिष्य सभा सत्तर हजार [७०,०००] भिक्षुओं की थी, और एक साठ हजार [६०,०००] भिक्षुओं की थी । भगवान वेस्सभू अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की कुल तीन शिष्य सभाएँ हुई, जिनमें सभी क्षीणास्रव थे।
भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की एक शिष्य सभा हुई — वह शिष्य सभा चालीस हजार [४०,०००] भिक्षुओं की थी। भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की एक शिष्य सभा हुई, जिनमें सभी क्षीणास्रव थे।
भगवान कोणागमन अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की एक शिष्य सभा हुई — वह शिष्य सभा तीस हजार [३०,०००] भिक्षुओं की थी। भगवान कोणागमन अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की एक शिष्य सभा हुई, जिनमें सभी क्षीणास्रव थे।
भगवान कश्यप अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की एक शिष्य सभा हुई — वह शिष्य सभा बीस हजार [२०,०००] भिक्षुओं की थी। भगवान कश्यप अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की एक शिष्य सभा हुई, जिनमें सभी क्षीणास्रव थे।
और, भिक्षुओं, मेरी एक शिष्य सभा हुई — वह शिष्य सभा बारह सौ पचास [१२५०] भिक्षुओं की थी, जिनमें सभी क्षीणास्रव थे।
भिक्षुओं, भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के सहायक भिक्षु अशोक थे, जो अग्र-सहायक थे। भगवान सिखी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के सहायक भिक्षु खेमंकर थे, जो अग्र-सहायक थे। भगवान वेस्सभू अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के सहायक भिक्षु उपसन्त थे, जो अग्र-सहायक थे। भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के सहायक भिक्षु बुद्धिज थे, जो अग्र-सहायक थे। भगवान कोणागमन अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के सहायक भिक्षु सोत्थिज थे, जो अग्र-सहायक थे। भगवान कश्यप अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के सहायक भिक्षु सब्बमित्त थे, जो अग्र-सहायक थे। और, भिक्षुओं, मेरा सहायक भिक्षु आनन्द है, जो अग्र-सहायक है।
भिक्षुओं, भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के पिता बन्धुमान नामक राजा थे, और माता बन्धुमती देवी थी। बन्धुमान राजा की राजधानी का नाम बन्धुमती था। भगवान सिखी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के पिता अरुण नामक राजा थे, और माता प्रभावती देवी थी। अरुण राजा की राजधानी का नाम अरुणवती था। भगवान वेस्सभू अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के पिता सुप्रतित नामक राजा थे, और माता वशवर्ती देवी थी। सुप्रतित राजा की राजधानी का नाम अनोम था। भगवान ककुसन्ध अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के पिता अग्निदत्त नामक ब्राह्मण थे, और ब्राह्मणी माता विशाखा थी। उस समय खेम [=क्षेम] नामक राजा था, जिसकी राजधानी का नाम खेमवती था। भगवान कोणागमन अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के पिता यज्ञदत्त नामक ब्राह्मण थे, और ब्राह्मणी माता उत्तरा थी। उस समय सोभ नामक राजा था, जिसकी राजधानी का नाम सोभवती था। भगवान कश्यप अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के पिता ब्रह्मदत्त नामक ब्राह्मण थे, और ब्राह्मणी माता धनवती थी। उस समय किकि नामक राजा था, जिसकी राजधानी का नाम वाराणसी था। और, भिक्षुओं, इस जीवन में मेरे पिता शुद्धोधन नामक राजा है, और जन्ममाता माया देवी है। और राजधानी का नाम कपिलवस्तु है।”
भगवान ने ऐसा कहा। सुगत इतना कहकर आसन से उठे और विहार चले गए।
भगवान को जाकर अधिक समय नहीं हुआ कि भिक्षुओं में आपसी वार्तालाप होने लगा: “आश्चर्य है, मित्र, अद्भुत है, मित्र, तथागत की महाऋद्धियाँ, तथागत की महाशक्तियाँ! जो बुद्ध अतीत में हुए, जो परिनिवृत हुए, जिन्होने प्रपञ्च छिन्न किया, मार्ग समाप्त किया, चक्र घूमना रोक दिया, सभी दुःखों से परे चले गए — उनका तथागत जन्म अनुस्मरण करते है, नाम अनुस्मरण करते है, गोत्र अनुस्मरण करते है, आयु अनुस्मरण करते है, शिष्य की जोड़ी अनुस्मरण करते है, शिष्य सभा अनुस्मरण करते है — [कहते हुए:] ‘उन भगवानों का ऐसा जन्म था, ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा शील था, ऐसा धर्म था, ऐसी प्रज्ञा थी, ऐसा [चित्त-समाधि] विहार था, और तो और, उन भगवानों की ऐसी विमुक्ति थी!’”
“तो, मित्र, क्या यह इसलिए है कि तथागत ने धर्मधातु को अच्छे से समझ लिया है? क्या तथागत के द्वारा धर्मधातु को अच्छे से समझे जाने के कारण ही — जो बुद्ध अतीत में हुए, जो परिनिवृत हुए, जिन्होने प्रपञ्च छिन्न किया, मार्ग समाप्त किया, चक्र घूमना रोक दिया, सभी दुःखों से परे चले गए — उनका तथागत जन्म अनुस्मरण करते है, नाम अनुस्मरण करते है, गोत्र अनुस्मरण करते है, आयु अनुस्मरण करते है, शिष्य की जोड़ी अनुस्मरण करते है, शिष्य सभा अनुस्मरण करते है — [कहते हुए:] ‘उन भगवानों का ऐसा जन्म था, ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा शील था, ऐसा धर्म था, ऐसी प्रज्ञा थी, ऐसा [चित्त-समाधि] विहार था, और तो और, उन भगवानों की ऐसी विमुक्ति थी!’
अथवा यह देवताओं ने तथागत को बताया? इसलिए — जो बुद्ध अतीत में हुए, जो परिनिवृत हुए, जिन्होने प्रपञ्च छिन्न किया, मार्ग समाप्त किया, चक्र घूमना रोक दिया, सभी दुःखों से परे चले गए — उनका तथागत जन्म अनुस्मरण करते है, नाम अनुस्मरण करते है, गोत्र अनुस्मरण करते है, आयु अनुस्मरण करते है, शिष्य की जोड़ी अनुस्मरण करते है, शिष्य सभा अनुस्मरण करते है — [कहते हुए:] ‘उन भगवानों का ऐसा जन्म था, ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा शील था, ऐसा धर्म था, ऐसी प्रज्ञा थी, ऐसा [चित्त-समाधि] विहार था, और तो और, उन भगवानों की ऐसी विमुक्ति थी!’”
किन्तु, भिक्षुओं की यह धर्मचर्चा अधूरी रह गयी।
तब भगवान सायंकाल के समय एकांतवास से निकल कर करेरी के मंडप में गए, और जाकर बिछे आसन पर बैठ गए। भगवान ने बैठकर उन भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, अभी आप बैठकर क्या बातें कर रहे थे? क्या बात अधूरी रह गयी?”
ऐसा कहे जाने पर उन भिक्षुओं ने भगवान से [सब कुछ] कहा, “भंते, भगवान को जाकर अधिक समय नहीं हुआ कि भिक्षुओं में आपसी वार्तालाप होने लगा: “आश्चर्य है, मित्र, अद्भुत है, मित्र, तथागत की महाऋद्धियाँ, तथागत की महाशक्तियाँ!… तो, क्या यह इसलिए है कि तथागत ने धर्मधातु को अच्छे से समझ लिया है?… अथवा यह देवताओं ने तथागत को बताया?…” बस यही, भंते, हम बात कर रहे थे, जो अधूरी रह गयी।”
“भिक्षुओं, तथागत ने धर्मधातु को अच्छे से समझ लिया है। तथागत के द्वारा धर्मधातु को अच्छे से समझे जाने के कारण ही — जो बुद्ध अतीत में हुए… — उनका तथागत जन्म अनुस्मरण करते है, नाम… गोत्र… आयु… शिष्य की जोड़ी… शिष्य सभा अनुस्मरण करते है — [कहते हुए:] ‘उन भगवानों का ऐसा जन्म था, ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा शील था, ऐसा धर्म था, ऐसी प्रज्ञा थी, ऐसा [चित्त-समाधि] विहार था, और तो और, उन भगवानों की ऐसी विमुक्ति थी!’
और, [साथ ही,] यह देवताओं ने भी तथागत को बताया हैं।…
भिक्षुओं, क्या तुम्हें पूर्वजन्मों के विषय पर आगे की धर्मकथा सुनने की इच्छा है?”
“यही [उचित] समय है, भगवान। यही समय है, सुगत। भगवान पूर्वजन्म पर आगे की धर्मकथा बताएँ। भगवान की बात सुनकर भिक्षु उसे धारण करेंगे।”
“ठीक है, भिक्षुओं। ध्यान देकर गौर से सुनों, मैं बताता हूँ।”
“हाँ, भंते।” भिक्षुओं ने भगवान से कहा। तब भगवान ने कहा:
“भिक्षुओं, इक्यानबे कल्प पहले भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध इस लोक में प्रकट हुए थे। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने क्षत्रियों में जन्म लिया था, वे क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध कोण्डञ्ञ गोत्र के थे। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की अस्सी हजार वर्ष की आयु थी। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने पाडर वृक्ष के तले अभिसम्बोधि प्राप्त किया था। भिक्षुओं, भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की खण्ड और तिस्स नामक शिष्यों की जोड़ी अग्र थी, भद्र थी। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की तीन शिष्य सभाएँ हुई — एक शिष्य सभा अड़सठ लाख भिक्षुओं की थी, एक शिष्य सभा एक लाख भिक्षुओं की थी, और एक अस्सी हजार भिक्षुओं की थी। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की कुल तीन शिष्य सभाएँ हुई, जिनमें सभी क्षीणास्रव थे। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के सहायक भिक्षु अशोक थे, जो अग्र-सहायक थे। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के पिता बन्धुमान नामक राजा थे, और माता बन्धुमती देवी थी। बन्धुमान राजा की राजधानी का नाम बन्धुमती था।”
“भिक्षुओं, जब विपस्सी बोधिसत्व तुषित देवलोक से उतर कर, स्मरणशील और सचेत रहते हुए, अपनी माँ के गर्भ में अवतरित हुए। यह धर्मता [=घटना धर्म के अनुसार] होती है।
यह धर्मता ही होती है, भिक्षुओं, जब बोधिसत्व तुषित देवलोक से च्युत होकर अपनी माँ के गर्भ में अवतरित होते है। तब देवताओं की दिव्य-तेज से भी परे एक महा-तेज, असीम-तेज उत्पन्न होता है, जो देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरे इस लोक में फैल जाता है। यहाँ तक कि असीम-अंधकार, घोर-अंधकार में पड़े अन्तर-ब्रह्मांडिय स्थलों पर भी, जहाँ सर्व-शक्तिशाली सूर्य और चंद्रमा का प्रकाश तक नहीं पहुँच पाता, वहाँ भी देवताओं की दिव्य-तेज से परे एक महा-तेज, असीम-तेज फैल जाता है। और वहाँ जन्म लिए सत्व उस तेज में पहली बार एक-दूसरे को देखते हैं, तो उन्हें लगता हैं, “अरे! यहाँ अन्य सत्वों ने भी जन्म लिया हैं!”… और उस महा-तेज, असीम-तेज में ये दस हज़ार ब्रह्मांड कंपित होते हैं, प्रकंपित होते हैं, थरथराते हैं। और, देवताओं की दिव्य-तेज से भी परे एक महातेज, असीम तेज उत्पन्न होता है। यह भी धर्मता होती है।
यह धर्मता ही होती है, भिक्षुओं, जब बोधिसत्व अपनी माता के गर्भ में अवतरित हुए, तब चारों दिशाओं से चार महाराज देव उनकी रक्षा करने के लिए आएँ, [सोचते हुए:] “कहीं कोई मानवीय अथवा अमानवीय सत्व बोधिसत्व या उनकी माँ को हानि न पहुंचाएँ।” यह भी धर्मता होती है।
यह धर्मता ही होती है, भिक्षुओं, जब बोधिसत्व अपनी माँ के गर्भ में अवतरित हुए, तो बोधिसत्व की माँ स्वाभाविक रूप से सदाचारी बनी। वह जीवहत्या से विरत हुई, चुराने से विरत हुई, यौन दुराचार से विरत हुई, झूठ बोलने से विरत हुई, और शराब मद्य आदि मदहोश करने वाले नशे-पते से विरत हुई। यह भी धर्मता होती है।
यह धर्मता ही होती है, भिक्षुओं, जब बोधिसत्व अपनी माँ के गर्भ में अवतरित हुए, तो बोधिसत्व की माँ को किसी के प्रति कामुकता से लिप्त कोई विचार उत्पन्न नहीं हुआ। तथा उसका किसी भी कामुक व्यक्ति से सामना दुर्गम बना। यह भी धर्मता होती है।
यह धर्मता ही होती है, भिक्षुओं, जब बोधिसत्व अपनी माँ के गर्भ में अवतरित हुए, तो बोधिसत्व की माँ को पाँचों इंद्रियों के असीम सुख प्राप्त हुए। वह पाँचों इंद्रियों के असीम सुख में लिप्त होकर, समर्पित होकर रहती है। यह भी धर्मता होती है।
यह धर्मता ही होती है, भिक्षुओं, जब बोधिसत्व अपनी माँ के गर्भ में अवतरित हुए, तो बोधिसत्व की माँ को कोई रोग उत्पन्न नहीं हुआ। वह बिना किसी शारीरिक पीड़ा के सुख और राहत से रहती है। और, वह अपने गर्भ में बोधिसत्व को उसके समस्त अंगों और परिपूर्ण इंद्रियों के साथ देखती है। जैसे, कोई ऊँची जाति का शुभ मणि हो — अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध! और उसमें से एक नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरा धागा निकाला गया हो। उसी तरह, जब विपस्सी बोधिसत्व अपनी माँ के गर्भ में अवतरित हुए, तो बोधिसत्व की माँ को कोई रोग उत्पन्न नहीं हुआ। वह बिना किसी शारीरिक पीड़ा के सुख और राहत से रहती है। और, वह अपने गर्भ में बोधिसत्व को उसके समस्त अंगों और परिपूर्ण इंद्रियों के साथ देखती है। यह भी धर्मता होती है।
यह धर्मता ही होती है, भिक्षुओं, जब बोधिसत्व की माँ बोधिसत्व को जन्म देने के एक सप्ताह पश्चात गुजर कर तुषित लोक में उत्पन्न होती है। यह भी धर्मता होती है।
यह धर्मता ही होती है, भिक्षुओं, कि जहाँ अन्य गर्भवती स्त्रियाँ नौ या दस महीनों में संतान को जन्म देती हैं, किन्तु बोधिसत्व की माँ बोधिसत्व को ठीक दस महीनों के बाद ही जन्म देती है। यह भी धर्मता होती है।
यह धर्मता ही होती है, भिक्षुओं, कि जहाँ अन्य महिलाएँ बैठकर या लेटकर बच्चे को जन्म देती हैं, किन्तु बोधिसत्व की माँ बोधिसत्व को खड़े होकर जन्म देती है। यह भी धर्मता होती है।
यह धर्मता ही होती है, भिक्षुओं, कि जब बोधिसत्व अपनी माँ का गर्भ छोड़ते है, तो सर्वप्रथम देवता उन्हें ग्रहण करते हैं, और फिर मानव। यह भी धर्मता होती है।
यह धर्मता ही होती है, भिक्षुओं, कि जब बोधिसत्व अपनी माँ का गर्भ छोड़ते है, तो चार महाराज देवता आकर बोधिसत्व का स्वागत करते हैं, और उन्हें अपनी माँ के सामने खड़ा करते हैं, [कहते हुए:] “हे देवी, प्रसन्न हो। आप को एक महाप्रभावशाली पुत्र जन्मा है!” यह भी धर्मता होती है।
यह धर्मता ही होती है, भिक्षुओं, जब बोधिसत्व अपनी माँ के गर्भ छोड़ते है, तो उसे बेदाग, तरल पदार्थ से रहित, बलगम से रहित, रक्त से रहित, लसीका से रहित छोड़ते है — शुद्ध, अत्यंत शुद्ध! जैसे, काशी वस्त्र पर रत्न रखा जाए, तो न रत्न वस्त्र को मैला करेगा, न ही वस्त्र रत्न को। ऐसा क्यों? दोनों की शुद्धता के कारण! उसी तरह, जब बोधिसत्व अपनी माँ के गर्भ छोड़ते है, तो उसे बेदाग, तरल पदार्थ से रहित, बलगम से रहित, रक्त से रहित, लसीका से रहित छोड़ते है — शुद्ध, अत्यंत शुद्ध! यह भी धर्मता होती है।
यह धर्मता ही होती है, भिक्षुओं, जब बोधिसत्व अपनी माँ के गर्भ छोड़ते है, तो आकाश से पानी की दो धाराएं प्रकट होती हैं — एक ठंडी, और दूसरी गर्म — बोधिसत्व और उनकी माँ को नहलाने-धुलाने के लिए! यह भी धर्मता होती है।
यह धर्मता ही होती है, भिक्षुओं, जैसे ही बोधिसत्व का जन्म होता है, वे ज़मीन पर पैरों के बल स्थिर खड़े हो जाते है, और उत्तर-दिशा की ओर मुख कर के सात कदम चलते है। उनके ऊपर एक सफ़ेद छत्र नज़र आता है। और तब, वे सभी दिशाओं को निहारने के बाद एक भव्य घोषणा करते है — “मैं दुनिया में अग्र हूँ! मैं दुनिया में श्रेष्ठ हूँ! मैं दुनिया में सर्वोत्तम हूँ! यह मेरा अंतिम जन्म है, अब इसके बाद कोई जन्म नहीं होगा!” यह भी धर्मता होती है।
[पुनः] यह धर्मता ही होती है, भिक्षुओं, जब बोधिसत्व तुषित देवलोक से च्युत होकर अपनी माँ के गर्भ में अवतरित होते है। तब देवताओं की दिव्य-तेज से भी परे एक महा-तेज, असीम-तेज उत्पन्न होता है, जो देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरे इस लोक में फैल जाता है। यहाँ तक कि असीम-अंधकार, घोर-अंधकार में पड़े अन्तर-ब्रह्मांडिय स्थलों पर भी, जहाँ सर्व-शक्तिशाली सूर्य और चंद्रमा का प्रकाश तक नहीं पहुँच पाता, वहाँ भी देवताओं की दिव्य-तेज से परे एक महा-तेज, असीम-तेज फैल जाता है। और वहाँ जन्म लिए सत्व उस तेज में पहली बार एक-दूसरे को देखते हैं, तो उन्हें लगता हैं, “अरे! यहाँ अन्य सत्वों ने भी जन्म लिया हैं!”… और उस महा-तेज, असीम-तेज में ये दस हज़ार ब्रह्मांड कंपित होते हैं, प्रकंपित होते हैं, थरथराते हैं। और, देवताओं की दिव्य-तेज से भी परे एक महातेज, असीम तेज उत्पन्न होता है। यह भी धर्मता होती है।
भिक्षुओं, जब राजकुमार विपस्सी ने जन्म लिया, तो राजा बन्धुमान को सूचित किया गया, “महाराज, आपको पुत्र जन्मा है। महाराज उसे देखें।”
राजा बन्धुमान ने राजकुमार विपस्सी को देखा, और लक्षण देखने में निपुण [ज्योतिषी] ब्राह्मणों को आमंत्रित किया, “ब्राह्मण महाशय, राजकुमार के लक्षण देखिए।”
उन लक्षण देखने में निपुण ब्राह्मणों ने राजकुमार विपस्सी को देखा और राजा बन्धुमान से कहा, “प्रसन्न होएँ, महाराज। आपको महाप्रभावशाली पुत्र उत्पन्न हुआ है। आपको बड़ा लाभ हुआ, महाराज, सुलाभ हुआ, महाराज, जो आपके कुल में ऐसा पुत्र उत्पन्न हुआ है। क्योंकि, महाराज, राजकुमार बत्तीस महापुरुष लक्षणों से सम्पन्न है, जिनसे युक्त उस महापुरुष की दो ही गतियाँ होती है, तीसरी नहीं। यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है, चार दिशाओं का विजेता, दूर-दराज के इलाकों तक स्थिर शासन, और सप्त रत्नों से सम्पन्न। उसके लिए सात रत्न प्रकट होते हैं — चक्ररत्न, हाथीरत्न, अश्वरत्न, मणिरत्न, स्त्रीरत्न, गृहस्थरत्न, और सातवाँ, सलाहकाररत्न। उसे एक हजार से अधिक पुत्र होते हैं — सभी शूर, वीर, शत्रुओं की सेना की धज्जियाँ उड़ाने वाले। और वह समुद्र तक भूमि पर, बिना दण्ड और शस्त्र के, केवल धर्म से जीत कर शासन करता है। किन्तु, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है।
महाराज, यह राजकुमार कौन-से बत्तीस महापुरुष लक्षणों से सम्पन्न है, जिनसे युक्त उस महापुरुष की दो ही गतियाँ होती है, तीसरी नहीं… (१) राजकुमार के समतल पैर हैं। महाराज, यह राजकुमार के महापुरुष लक्षणों में से एक हैं। (२) राजकुमार के पैरों के तलवे में चक्र मौजूद हैं — हजार तीली के साथ, नेमी के साथ, नाभी के साथ, अपने सम्पूर्ण आकार की परिपूर्णता के साथ। (३) राजकुमार की लंबी एड़ी है।… (४) राजकुमार की लंबी उँगलियाँ हैं।… (५) राजकुमार के हाथ-पैर मृदु हैं।… (६) राजकुमार के हाथ-पैर जालीदार हैं।… (७) राजकुमार के पैर [ऊपर से] वक्राकार हैं।… (८) राजकुमार की मृग-जाँघें हैं।… (९) राजकुमार की हथेलियाँ बिना झुके सीधा खड़ा होने पर भी घुटनों को छूती हैं।… (१०) राजकुमार की पुरुष-इंद्रिय चमड़े से ढकी है।… (११) राजकुमार स्वर्ण-रंग के है, त्वचा स्वर्ण जैसी चमकती है।… (१२) राजकुमार की सूक्ष्म त्वचा है, इतनी सूक्ष्म कि उस पर मैल और धूल भी जमती नहीं है।… (१३) राजकुमार एकेकलोमो है, अर्थात, उनके एक-एक रोमछिद्र में केवल एक-एक रोम उगते हैं।… (१४) राजकुमार उद्धग्गलोमो है, अर्थात, उनके रोम खड़े होते हैं, अंजन जैसे नीले हैं, और घूमकर दायी-ओर से कुंडली (clockwise) मारते हैं।… (१५) राजकुमार की काया लंबी और अंग सीधे है।… (१६) राजकुमार सात अंगों से उभरी हुई है [=मांसल काया?]… (१७) राजकुमार की ऊपरी काया [छाती, गला इत्यादि] सिंह जैसे है।… (१८) राजकुमार के कंधे भरे हुए हैं।… (१९) राजकुमार वटवृक्ष-परिमंडल जैसे है, जितनी शरीर की ऊँचाई उतनी ही [हाथ फैलाने पर] चौड़ाई है, जितनी शरीर की चौड़ाई उतनी ही लंबाई है।… (२०) राजकुमार का धड़ बेलनाकार है।… (२१) राजकुमार की स्वाद कलिकाएँ शिराओं वाली हैं।… (२२) राजकुमार का जबड़ा सिंह के जैसा है।… (२३) राजकुमार के चालीस दाँत हैं।… (२४) राजकुमार के दाँत सम हैं।… (२५) राजकुमार के अविरल दाँत [=दाँतों के बीच गैप न होना] हैं।… (२६) राजकुमार के दाँत शुभ्र सफ़ेद हैं।… (२७) राजकुमार की जीभ लंबी है।… (२८) राजकुमार की आवाज ब्रह्मस्वर है, कोयल पक्षी की तरह।… (२९) राजकुमार की आँखें नीली हैं।… (३०) राजकुमार की पलकें गाय के जैसी हैं।… (३१) राजकुमार की भौहों के बीच श्वेत और मृदु कपास के जैसे बाल उगते हैं। और, (३२) राजकुमार का सिर पगड़ी जैसा उभरा है। महाराज, यह भी राजकुमार के महापुरुष लक्षणों में से एक हैं।
इस तरह, महाराज, राजकुमार बत्तीस महापुरुष लक्षणों से सम्पन्न है, जिनसे युक्त उस महापुरुष की दो ही गतियाँ होती है, तीसरी नहीं। यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है, चार दिशाओं का विजेता, दूर-दराज के इलाकों तक स्थिर शासन, और सप्त रत्नों से सम्पन्न। उसके लिए सात रत्न प्रकट होते हैं — चक्ररत्न, हाथीरत्न, अश्वरत्न, मणिरत्न, स्त्रीरत्न, गृहस्थरत्न, और सातवाँ, सलाहकाररत्न। उसे एक हजार से अधिक पुत्र होते हैं — सभी शूर, वीर, शत्रुओं की सेना की धज्जियाँ उड़ाने वाले। और वह समुद्र तक भूमि पर, बिना दण्ड और शस्त्र के, केवल धर्म से जीत कर शासन करता है। किन्तु, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है।”
तब भिक्षुओं, राजा बन्धुमान ने लक्षण देखने वाले उन ब्राह्मणों को वस्त्र इत्यादि से आच्छादित कर उनकी सभी इच्छाओं की पूर्ति की। और, राजकुमार विपस्सी के लिए दाईयाँ नियुक्त की। कोई दाई दूध पिलाती, तो कोई नहलाती, तो कोई गोद पकड़ती, तो कोई कमर से धरे टहलाती। जब से जन्मा, तब से विपस्सी राजकुमार के ऊपर दिन-रात श्वेतछत्र पकड़ा जाता, [सोचते हुए:] ‘कहीं ठंडी न लगे, गर्मी न लगे, घास न छूएँ, धूल न लगे, ओस कष्ट न दे।’ भिक्षुओं, विपस्सी राजकुमार पैदा होते ही बहुत लोगों का प्रिय और पसंदीदा हुआ। वह एक की गोद से दूसरे की गोद में घूमता ही रहता था।
भिक्षुओं, विपस्सी राजकुमार पैदा होते ही मीठे स्वर, प्रिय स्वर, मधुर स्वर, प्यारे स्वर वाले थे। जैसे, हिमालय पर्वत पर कोयल जाति के पक्षी मीठा स्वर, प्रिय स्वर, मधुर स्वर, प्यारे स्वर वाला होता है। उसी तरह, विपस्सी राजकुमार पैदा होते ही मीठे स्वर, प्रिय स्वर, मधुर स्वर, प्यारे स्वर वाले थे।
भिक्षुओं, विपस्सी राजकुमार पैदा होते ही पूर्व कर्म के परिणाम से दिव्यचक्षु प्रादुर्भूत हुआ, जिससे वह दिन-रात सभी दिशाओं में एक योजन तक देखता था। और विपस्सी राजकुमार पैदा होते ही बिना पलक झपकाएँ [एकटक] देखते रहता था, जैसे तैतीस देवलोक का देवता हो। “राजकुमार बिना पलक झपकाएँ [एकटक] देखता है!” कहते हुए, भिक्षुओं, विशेष तरह से देखने वाले राजकुमार को ‘विपस्सी… विपस्सी’ कहा जाने लगा।
भिक्षुओं, न्याय दरबार में विराजमान राजा बन्धुमान, विपस्सी राजकुमार को गोद में लेकर, उसे मामला समझाता था। और विपस्सी राजकुमार पिता की गोद में बैठकर, तर्क-वितर्क करते हुए, न्याय से फैसला करता था। तर्क-वितर्क करते हुए न्याय से फैसला करता है, इसलिए भी राजकुमार को ‘विपस्सी… विपस्सी’ कहा जाने लगा।
भिक्षुओं, बन्धुमान राजा ने विपस्सी राजकुमार के लिए तीन महल बनाए — एक शीतकाल के लिए, एक ग्रीष्मकाल के लिए, और एक वर्षाकाल के लिए। और, पाँच इंद्रिय सुखों का प्रबंध किया। विपस्सी राजकुमार को वर्षाकाल के चारों महीने वर्षामहल में रहते हुए गायकी-नर्तकियों द्वारा बहलाया जाता, बिना अन्य पुरुष की उपस्थिति के।
भिक्षुओं, विपस्सी राजकुमार ने कई वर्ष, कई सैकड़ों वर्ष, कई हजार वर्ष बीतने पर अपने रथ-सारथी से कहा, “प्रिय सारथी, अच्छे से अच्छे रथों को जुटाओ। हम उद्यानभूमि की सौंदर्यता देखने के लिए जाएँगे।”
“जी, महाराज!” कहते हुए सारथी ने विपस्सी राजकुमार के लिए अच्छे से अच्छे रथों को जुटाया और विपस्सी राजकुमार को सूचित किया, “महाराज, अच्छे से अच्छे रथ तैयार हैं, जब भी समय उचित समझे।”
तब विपस्सी राजकुमार एक अच्छे रथ पर चढ़कर, अच्छे से अच्छे रथों के साथ उद्यानभूमि के लिए निकला। तब, भिक्षुओं, विपस्सी राजकुमार को मार्ग में एक बूढ़ा आदमी दिखा, जिसका यौवन बीत चुका, ऊपरी शरीर टेढ़ा-मेढ़ा, झुका हुआ, बीमार, कांपते हुए लट्ठ के सहारे चल रहा था। देखकर सारथी से पूछा, “प्रिय सारथी, इस पुरुष ने क्या किया? जो इसके केश दूसरों के जैसे नहीं है, और काया भी दूसरों के जैसी नहीं है।”
“महाराज, उसे बूढ़ा कहते हैं।”
“किन्तु, प्रिय सारथी, उसे बूढ़ा क्यों कहते हैं?”
“महाराज, उसे बूढ़ा कहते हैं क्योंकि अब वह ज्यादा नहीं जीएगा।”
“प्रिय सारथी, क्या मैं भी बूढ़ा होऊँगा? बुढ़ापे से छूटा नहीं हूँ?”
“महाराज, आप, मैं, और हम सभी बूढ़े होंगे। कोई बुढ़ापे से छूटे नहीं हैं।”
“अच्छा, तो प्रिय सारथी, उद्यानभूमि रहने दो। यही से अंतःपुर लौट चलते हैं।”
“जी, महाराज।” कहते हुए, भिक्षुओं, सारथी ने विपस्सी राजकुमार को अंतःपुर ले आया। विपस्सी राजकुमार अंतःपुर में आकर दुःखी और निराश होकर चिंतन करने लगा, “धिक्कार है जन्म लेने को, जो जन्मे को बुढ़ापा सताए!”
तब बन्धुमान राजा ने सारथी को आमंत्रित किया और कहा, “प्रिय सारथी, क्या राजकुमार का मन उद्यानभूमि में रम गया? क्या राजकुमार का मन उद्यानभूमि में प्रसन्न हुआ?”
“नहीं, महाराज, राजकुमार का मन उद्यानभूमि में नहीं रमा। राजकुमार का मन उद्यानभूमि में प्रसन्न नहीं हुआ।”
“क्यों, प्रिय सारथी? राजकुमार ने उद्यानभूमि के मार्ग पर ऐसा क्या देख लिया?”
… [तब, सारथी ने पूरी घटना सुना दी।] और, तब विपस्सी राजकुमार अंतःपुर में आकर दुःखी और निराश होकर चिंतन करने लगा, “धिक्कार है जन्म लेने को, जो जन्मे को बुढ़ापा सताए!”
तब, भिक्षुओं, राजा बन्धुमान को लगा, “कहीं ऐसा न हो कि विपस्सी राजकुमार राजपाट त्याग दे। कहीं ऐसा न हो कि विपस्सी राजकुमार घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करे। कहीं ऐसा न हो कि लक्षण देखने वाले ब्राह्मणों की बात सच साबित हो।” तब राजा बन्धुमान ने विपस्सी राजकुमार के लिए और भी अधिक पाँच इंद्रिय सुखों का प्रबंध कराया, ताकि “विपस्सी राजकुमार राजपाट संभाले, विपस्सी राजकुमार घर से बेघर होकर संन्यास न ग्रहण करे, लक्षण देखने वाले ब्राह्मणों की बात मिथ्या साबित हो।” और, तब विपस्सी राजकुमार की और भी अधिक पाँच इंद्रिय सुखों से सेवा किया जाने लगा।
तब, भिक्षुओं, विपस्सी राजकुमार ने कई वर्ष, कई सैकड़ों वर्ष, कई हजार वर्ष बीतने पर अपने रथ-सारथी से कहा, “प्रिय सारथी, अच्छे से अच्छे रथों को जुटाओ। हम उद्यानभूमि की सौंदर्यता देखने के लिए जाएँगे।”
“जी, महाराज!” कहते हुए सारथी ने विपस्सी राजकुमार के लिए अच्छे से अच्छे रथों को जुटाया और विपस्सी राजकुमार को सूचित किया, “महाराज, अच्छे से अच्छे रथ तैयार हैं, जब भी समय उचित समझे।”
तब विपस्सी राजकुमार एक अच्छे रथ पर चढ़कर, अच्छे से अच्छे रथों के साथ उद्यानभूमि के लिए निकला। तब, भिक्षुओं, विपस्सी राजकुमार को मार्ग में एक बीमार आदमी देखा, गंभीर रोग से ग्रस्त, स्वयं के मलमूत्र में पड़ा हुआ, दूसरों के द्वारा उठाया जाता हुआ, दूसरों के द्वारा लिटाया जाता हुआ। देखकर सारथी से पूछा, “प्रिय सारथी, इस पुरुष ने क्या किया? जो इसके आँखें दूसरों के जैसी नहीं हैं, और आवाज भी दूसरों के जैसी नहीं है।”
“महाराज, उसे बीमार कहते हैं।”
“किन्तु, प्रिय सारथी, उसे बीमार क्यों कहते हैं?”
“महाराज, उसे बीमार कहते हैं। आशा है वह उस बीमारी से छूट जाएगा।”
“प्रिय सारथी, क्या मैं भी बीमार हो सकता हूँ? क्या मैं बीमारी से छूटा नहीं हूँ?”
“महाराज, आप, मैं, और हम सभी बीमार हो सकते हैं। कोई बीमारी से छूटे नहीं हैं।”
“अच्छा, तो प्रिय सारथी, उद्यानभूमि रहने दो। यही से अंतःपुर लौट चलते हैं।”
“जी, महाराज।” कहते हुए, भिक्षुओं, सारथी ने विपस्सी राजकुमार को अंतःपुर ले आया। विपस्सी राजकुमार अंतःपुर में आकर फिर दुःखी और निराश होकर चिंतन करने लगा, “धिक्कार है जन्म लेने को, जो जन्मे को बुढ़ापा सताए और बीमारी सताए!”
तब बन्धुमान राजा ने सारथी को आमंत्रित किया और कहा, “प्रिय सारथी, क्या राजकुमार का मन उद्यानभूमि में रम गया? क्या राजकुमार का मन उद्यानभूमि में प्रसन्न हुआ?”
“नहीं, महाराज, राजकुमार का मन उद्यानभूमि में नहीं रमा। राजकुमार का मन उद्यानभूमि में प्रसन्न नहीं हुआ।”
“क्यों, प्रिय सारथी? राजकुमार ने उद्यानभूमि के मार्ग पर ऐसा क्या देख लिया?”
… [तब, सारथी ने पूरी घटना सुना दी।] और, तब विपस्सी राजकुमार अंतःपुर में आकर दुःखी और निराश होकर चिंतन करने लगा, “धिक्कार है जन्म लेने को, जो जन्मे को बुढ़ापा सताए और बीमारी सताए!”
तब, भिक्षुओं, राजा बन्धुमान को लगा, “कहीं ऐसा न हो कि विपस्सी राजकुमार राजपाट त्याग दे। कहीं ऐसा न हो कि विपस्सी राजकुमार घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करे। कहीं ऐसा न हो कि लक्षण देखने वाले ब्राह्मणों की बात सच साबित हो।” तब राजा बन्धुमान ने विपस्सी राजकुमार के लिए और भी अधिक पाँच इंद्रिय सुखों का प्रबंध कराया, ताकि “विपस्सी राजकुमार राजपाट संभाले, विपस्सी राजकुमार घर से बेघर होकर संन्यास न ग्रहण करे, लक्षण देखने वाले ब्राह्मणों की बात मिथ्या साबित हो।” और, तब विपस्सी राजकुमार की और भी अधिक पाँच इंद्रिय सुखों से सेवा किया जाने लगा।
तब, भिक्षुओं, विपस्सी राजकुमार ने कई वर्ष, कई सैकड़ों वर्ष, कई हजार वर्ष बीतने पर अपने रथ-सारथी से कहा, “प्रिय सारथी, अच्छे से अच्छे रथों को जुटाओ। हम उद्यानभूमि की सौंदर्यता देखने के लिए जाएँगे।”
“जी, महाराज!” कहते हुए सारथी ने विपस्सी राजकुमार के लिए अच्छे से अच्छे रथों को जुटाया और विपस्सी राजकुमार को सूचित किया, “महाराज, अच्छे से अच्छे रथ तैयार हैं, जब भी समय उचित समझे।”
तब विपस्सी राजकुमार एक अच्छे रथ पर चढ़कर, अच्छे से अच्छे रथों के साथ उद्यानभूमि के लिए निकला। तब, भिक्षुओं, विपस्सी राजकुमार ने मार्ग में बहुत से एकत्र लोगों को भिन्न-भिन्न रंगों के वस्त्रों से अरथी सजाते हुए देखा। देखकर सारथी से पूछा, “प्रिय सारथी, ये सभी एकत्र लोग भिन्न-भिन्न रंगों के वस्त्रों से अरथी क्यों सजा रहे हैं?”
“महाराज, मृतक के लिए।”
“अच्छा, प्रिय सारथी, हमारे रथ को उस मृतक के पास ले जाओ।”
“जी, महाराज।” कहते हुए सारथी ने रथ को मृतक के पास ले गया। तब, भिक्षुओं, विपस्सी राजकुमार ने मृतक प्रेत को देखा। और देखकर सारथी से कहा, “किन्तु, प्रिय सारथी, उसे मृतक क्यों कहते हैं?”
“महाराज, उसे मृतक कहते हैं। क्योंकि अब उसके माता और पिता और न्याति रिश्तेदार उसे नहीं देख पाएँगे। और वह भी अपने माता और पिता और न्याति रिशतेदारों को नहीं देख पाएगा।”
“प्रिय सारथी, क्या मैं भी मृतक हो सकता हूँ? क्या मैं मौत से छूटा नहीं हूँ? क्या महाराज और महारानी और मेरे न्याति रिश्तेदार मुझे नहीं देख पाएँगे? और क्या मैं भी महाराज और महारानी और अपने न्याति रिशतेदारों को नहीं देख पाऊँगा?”
“महाराज, आप, मैं, और हम सभी की मौत होती हैं। कोई मौत से छूटे नहीं हैं। महाराज और महारानी और आपके न्याति रिश्तेदार आपको नहीं देख पाएँगे। और आप भी महाराज और महारानी और आपके न्याति रिश्तेदारों को नहीं देख पाएँगे।”
“अच्छा, तो प्रिय सारथी, उद्यानभूमि रहने दो। यही से अंतःपुर लौट चलते हैं।”
“जी, महाराज।” कहते हुए, भिक्षुओं, सारथी ने विपस्सी राजकुमार को अंतःपुर ले आया। विपस्सी राजकुमार अंतःपुर में आकर फिर दुःखी और निराश होकर चिंतन करने लगा, “धिक्कार है जन्म लेने को, जो जन्मे को बुढ़ापा सताए, बीमारी सताए, और मौत सताए!”
तब बन्धुमान राजा ने सारथी को आमंत्रित किया और कहा, “प्रिय सारथी, क्या राजकुमार का मन उद्यानभूमि में रम गया? क्या राजकुमार का मन उद्यानभूमि में प्रसन्न हुआ?”
“नहीं, महाराज, राजकुमार का मन उद्यानभूमि में नहीं रमा। राजकुमार का मन उद्यानभूमि में प्रसन्न नहीं हुआ।”
“क्यों, प्रिय सारथी? राजकुमार ने उद्यानभूमि के मार्ग पर ऐसा क्या देख लिया?”
… [तब, सारथी ने पूरी घटना सुना दी।] और, तब विपस्सी राजकुमार अंतःपुर में आकर दुःखी और निराश होकर चिंतन करने लगा, “धिक्कार है जन्म लेने को, जो जन्मे को बुढ़ापा सताए, बीमारी सताए, और मौत सताए!”
तब, भिक्षुओं, राजा बन्धुमान को लगा, “कहीं ऐसा न हो कि विपस्सी राजकुमार राजपाट त्याग दे। कहीं ऐसा न हो कि विपस्सी राजकुमार घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करे। कहीं ऐसा न हो कि लक्षण देखने वाले ब्राह्मणों की बात सच साबित हो।” तब राजा बन्धुमान ने विपस्सी राजकुमार के लिए और भी अधिक पाँच इंद्रिय सुखों का प्रबंध कराया, ताकि “विपस्सी राजकुमार राजपाट संभाले, विपस्सी राजकुमार घर से बेघर होकर संन्यास न ग्रहण करे, लक्षण देखने वाले ब्राह्मणों की बात मिथ्या साबित हो।” और, तब विपस्सी राजकुमार की और भी अधिक पाँच इंद्रिय सुखों से सेवा किया जाने लगा।
तब, भिक्षुओं, विपस्सी राजकुमार ने कई वर्ष, कई सैकड़ों वर्ष, कई हजार वर्ष बीतने पर अपने रथ-सारथी से कहा, “प्रिय सारथी, अच्छे से अच्छे रथों को जुटाओ। हम उद्यानभूमि की सौंदर्यता देखने के लिए जाएँगे।”
“जी, महाराज!” कहते हुए सारथी ने विपस्सी राजकुमार के लिए अच्छे से अच्छे रथों को जुटाया और विपस्सी राजकुमार को सूचित किया, “महाराज, अच्छे से अच्छे रथ तैयार हैं, जब भी समय उचित समझे।”
तब विपस्सी राजकुमार एक अच्छे रथ पर चढ़कर, अच्छे से अच्छे रथों के साथ उद्यानभूमि के लिए निकला। तब, भिक्षुओं, विपस्सी राजकुमार ने मार्ग में एक संन्यासी को देखा, सिर मुंडा हुआ, काषाय वस्त्र पहना हुआ। देखकर सारथी से पूछा, “प्रिय सारथी, इस पुरुष ने क्या किया? इसका सिर दूसरों के जैसा नहीं है, और वस्त्र भी दूसरों के जैसे नहीं है?”
“महाराज, उसे संन्यासी कहते हैं।”
“प्रिय सारथी, उसे संन्यासी क्यों कहते हैं?”
“महाराज, उसे संन्यासी कहते हैं, क्योंकि उसकी साधु [=भली] धर्मचर्या होती है, साधु समचर्या होती है, साधु कुशलक्रिया होती है, साधु पुण्यक्रिया होती है, सभी जीवों के प्रति साधु अहिंसा और अनुकंपा होती है।”
“उस संन्यासी का साधु हो, प्रिय सारथी, जिसकी साधु धर्मचर्या होती है, साधु समचर्या होती है, साधु कुशलक्रिया होती है, साधु पुण्यक्रिया होती है, सभी जीवों के प्रति साधु अहिंसा और अनुकंपा होती है। ठीक है, तब प्रिय सारथी, हमारे रथ को उस संन्यासी के पास ले जाओ।”
“जी, महाराज।” कहते हुए सारथी ने रथ को संन्यासी के पास ले गया। तब, विपस्सी राजकुमार ने उस संन्यासी से कहा, “प्रिय, तुमने ऐसा क्या किया? तुम्हारा सिर दूसरों के जैसा नहीं है, और वस्त्र भी दूसरों के जैसे नहीं है?”
“महाराज, मुझे संन्यासी कहते हैं।”
“किन्तु, प्रिय, तुम्हें संन्यासी क्यों कहते हैं?”
“महाराज, मुझे संन्यासी कहते हैं, क्योंकि मेरी साधु धर्मचर्या है, साधु समचर्या है, साधु कुशलक्रिया है, साधु पुण्यक्रिया है, सभी जीवों के प्रति साधु अहिंसा और अनुकंपा है।”
“तुम संन्यासी का साधु हो, जिसकी साधु धर्मचर्या है, साधु समचर्या है, साधु कुशलक्रिया है, साधु पुण्यक्रिया है, सभी जीवों के प्रति साधु अहिंसा और अनुकंपा है।”
तब विपस्सी राजकुमार ने अपने सारथी से कहा, “अच्छा, तो प्रिय सारथी, रथ को अंतःपुर ले चलो। मैं सिर-दाढ़ी मुंडवा, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित होऊँगा।”
“जी, महाराज।” कहते हुए, भिक्षुओं, सारथी ने विपस्सी राजकुमार को अंतःपुर ले आया। और, विपस्सी राजकुमार ने सिर-दाढ़ी मुंडवा, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो गया।
भिक्षुओं, बन्धुमती राजधानी के चौरासी हजार (८४,०००) जनता ने सुना कि विपस्सी राजकुमार ने सिर-दाढ़ी मुंडवा, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो गए है। तब ऐसा सुनकर उन्हें लगा, “यह धर्मविनय साधारण नहीं होगा, यह संन्यास साधारण नहीं होगा, जो विपस्सी राजकुमार ने सिर-दाढ़ी मुंडवा, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो गए है। यदि विपस्सी बोधिसत्व सिर-दाढ़ी मुंडवा, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो गया है, तो हम लोगों का क्या हैं?” तब, भिक्षुओं, वे चौरासी हजार जनता भी सिर-दाढ़ी मुंडवा, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो गए। तब विपस्सी बोधिसत्व उस चौरासी हजार की परिषद के साथ गाँव, नगर, देहात और राजधानियों में विचरण करने लगे।
तब, भिक्षुओं, विपस्सी बोधिसत्व को एकांतवास में रहते हुए चित्त में विचार आया, “यह मेरे लिए उचित नहीं है कि मैं भीड़ के साथ रहूँ। क्यों न मैं भीड़ से अलग-थलग रहकर अकेला जीऊँ?” तब विपस्सी बोधिसत्व ने कुछ समय बीतने के पश्चात भीड़ से अलग-थलग रहकर अकेले जीने लगे। चौरासी हजार एक दिशा में चले गए, जबकि विपस्सी बोधिसत्व दूसरी दिशा में गए।
तब, भिक्षुओं, विपस्सी बोधिसत्व को एकांतवास में रहते हुए चित्त में विचार आया, “उफ़! यह दुनिया कितनी मुश्किलों में फँस गई है! यह जन्म लेती है, जीर्ण होती है, मरती है, च्युत होती है, फिर पुनरुत्पन्न होती है। किन्तु, जीर्णता और मौत के इस दुःख से निकलने का मार्ग नहीं समझ पाती। उफ़! वह जीर्णता और मौत से बचने का मार्ग कब समझ पाएगी?”
तब विपस्सी बोधिसत्व को लगा, “किन्तु, क्या होने से ‘जीर्णता और मौत’ आती है? किस आवश्यक कारण से ‘जीर्णता और मौत’ होती है?” तब उचित चिंतन कर अन्तर्ज्ञान से विपस्सी बोधिसत्व को समझ आया, “जीर्णता और मौत तब होती है, जब ‘जन्म’ हो। जन्म होने के आवश्यक कारण से ही जीर्णता और मौत आती हैं।”
तब विपस्सी बोधिसत्व को लगा, “किन्तु, क्या होने से ‘जन्म’ होता है? किस आवश्यक कारण से ‘जन्म’ होता है?” तब उचित चिंतन कर अन्तर्ज्ञान से विपस्सी बोधिसत्व को समझ आया, “जन्म तब होता है, जब भव (=अस्तित्व बनाना) हो। अस्तित्व बनने के आवश्यक कारण से ही जन्म होता है।”
तब विपस्सी बोधिसत्व को लगा, “किन्तु, क्या होने से ‘अस्तित्व’ बनता है? किस आवश्यक कारण से ‘भव’ होता है?” तब उचित चिंतन कर अन्तर्ज्ञान से विपस्सी बोधिसत्व को समझ आया, “अस्तित्व तब बनता है, जब आसक्ति (=उपादान) हो। आसक्ति के आवश्यक कारण से ही अस्तित्व बनता है।”
तब विपस्सी बोधिसत्व को लगा, “किन्तु, क्या होने से… किस आवश्यक कारण से आसक्ति होती है… तृष्णा होती है… संवेदना होती है… संस्पर्श होता है… छह आयाम होते हैं… नाम-रूप होता है… चैतन्य होता है?” तब उचित चिंतन कर अन्तर्ज्ञान से विपस्सी बोधिसत्व को समझ आया, “चैतन्य तब होता है, जब नाम-रूप हो। नाम-रूप के आवश्यक कारण से ही चैतन्य होता है।”
तब विपस्सी बोधिसत्व को लगा, “चैतन्य नाम-रूप पर वापस लौटता है, उसके आगे नहीं जाता। इसी सीमा तक कोई जन्म लेता है, जीर्ण होता है, मरता है, च्युत होता है, फिर पुनरुत्पन्न होता है। बस इसी नाम-रूप के कारण चैतन्य के होने से। चैतन्य के कारण नाम-रूप होता है, और नाम-रूप के कारण छह आयाम होते हैं… संस्पर्श होता है… संवेदना होती है… तृष्णा होती है… आसक्ति होती है… अस्तित्व बनता है… जन्म होता है… जीर्णता, मौत, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा होती हैं। इस तरह, इस दु:खों की गठरी की उत्पत्ति होती है।”
“उत्पत्ति… उत्पत्ति…” ये पहले कभी न सुने धर्म के प्रति विपस्सी बोधिसत्व की आँखें खुली, उन्हें बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।
तब विपस्सी बोधिसत्व को लगा, “किन्तु, क्या होने से ‘जीर्णता और मौत’ नहीं होती है? किस आवश्यक कारण से ‘जीर्णता और मौत’ नहीं होती है?” तब उचित चिंतन कर अन्तर्ज्ञान से विपस्सी बोधिसत्व को समझ आया, “जीर्णता और मौत तब नहीं होती, जब ‘जन्म’ न हो। जन्म न होने के आवश्यक कारण से ही जीर्णता और मौत भी नहीं होती हैं।”
तब विपस्सी बोधिसत्व को लगा, “किन्तु, क्या होने से… किस आवश्यक कारण से जन्म नहीं होता… अस्तित्व नहीं बनता… आसक्ति नहीं होती… तृष्णा नहीं होती… संवेदना नहीं होती… संस्पर्श नहीं होता… छह आयाम नहीं होते… नाम-रूप नहीं होता… चैतन्य नहीं होता है? तब उचित चिंतन कर अन्तर्ज्ञान से मुझे समझ आया, “चैतन्य तब नहीं होता, जब नाम-रूप न हो। नाम-रूप न होने के आवश्यक कारण से ही चैतन्य भी नहीं होता है।”
तब विपस्सी बोधिसत्व को लगा, “मुझे बोधि-मार्ग मिल गया! नाम-रूप न होने से चैतन्य नहीं होता। और चैतन्य न होने से नाम-रूप नहीं होता। नाम-रूप न होने से छह आयाम नहीं होते… संस्पर्श नहीं होता… संवेदना नहीं होती… तृष्णा नहीं होती… आसक्ति नहीं होती… अस्तित्व नहीं बनता… जन्म नहीं होता… जीर्णता, मौत, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, निराशा इत्यादि नहीं होते हैं। इस तरह, इस दु:खों की गठरी का निरोध होता है।”
“निरोध… निरोध…” ये पहले कभी न सुने धर्म के प्रति विपस्सी बोधिसत्व की आँखें खुली, उन्हें बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।
तब, भिक्षुओं, विपस्सी बोधिसत्व कुछ समय बीतने पर पाँच आसक्ति समूह [=उपादान स्कन्ध] का उदय-व्यय होना देखते रहे —
• “ऐसा रूप है, ऐसे रूप की उत्पत्ति है, ऐसे रूप की विलुप्ति है।”
• “ऐसी संवेदना है, ऐसे संवेदना की उत्पत्ति है, ऐसे संवेदना की विलुप्ति है।”
• “ऐसा नजरिया है, ऐसे नजरिए की उत्पत्ति है, ऐसे नजरिए की विलुप्ति है।”
• “ऐसी रचना है, ऐसे रचना की उत्पत्ति है, ऐसे रचना की विलुप्ति है।”
• “ऐसा चैतन्य है, ऐसे चैतन्य की उत्पत्ति है, ऐसे चैतन्य की विलुप्ति है।”
इस तरह, पाँच आसक्ति समूह का उदय-व्यय देखते रहने से कुछ ही समय में उनका चित्त अनासक्त हो आस्रवमुक्त हुआ।
तब, भिक्षुओं, भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध को लगा, “क्यों न इस धर्म की देशना करूँ?”
किन्तु, तब उन्हें लगा, “मैंने ऐसे धर्म को प्राप्त किया है, जो गहरा, दुर्दर्शी (=मुश्किल से दिखने वाला), दुर्ज्ञेय (=मुश्किल से पता चलने वाला), शांतिमय, सर्वोत्तम, तर्क-वितर्क से प्राप्त न होने वाला, निपुण और ज्ञानियों द्वारा अनुभव करने योग्य है। किन्तु, यह जनता आसक्तियों में रमती है, आसक्तियों में रत रहती है, और आसक्तियों में ही प्रसन्न होती है। और ऐसी जनता, जो आसक्तियों में रमती हो, आसक्तियों में रत रहती हो, और आसक्तियों में ही प्रसन्न होती हो, उनके लिए यह इद-पच्चयता (=कार्य-कारण भाव) और प्रतित्य-समुत्पाद अत्यंत दुर्दर्शी होगा। और उनके लिए यह भी बहुत दुर्दर्शी होगा — सभी रचनाओं का रुक जाना, सभी अर्जित वस्तुओं का त्याग, तृष्णा का अन्त, विराग, निरोध, निर्वाण! यदि मैं उन्हें ऐसा धर्म दूँ, जो उन्हें समझ में न आएँ, तो वह मेरे लिए थकाऊ और परेशानी से भरा होगा।”
और तब अचानक, विपस्सी भगवान को पहले कभी न सुनी गयी गाथाएँ सूझ पड़ी —
जब भगवान विपस्सी ने इस तरह सोच-विचार किया, तो भगवान का चित्त अल्प उत्सुकता (=उदासीन और निष्क्रिय भाव) और धर्म न सिखाने की ओर झुक गया। और तब, कोई महाब्रह्मा ने भगवान विपस्सी के चित्त में चल रहे तर्क-वितर्क को जान लिया। उसे लगा, “नाश हो गया इस लोक का! विनाश हो गया इस लोक का! जो तथागत अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध का चित्त अल्प उत्सुकता और धर्म न सिखाने की ओर झुक गया।”
तब, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, महाब्रह्मा ब्रह्मलोक से विलुप्त हुआ और भगवान विपस्सी के समक्ष प्रकट हुआ। उस महाब्रह्मा ने बाहरी वस्त्र को एक कंधे पर कर, दाएँ घुटने को भूमि पर टिकाकर, हाथ जोड़कर भगवान विपस्सी से कहा —
“भंते, भगवान धर्म का उपदेश करें! सुगत धर्म का उपदेश करें! ऐसे सत्व हैं जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे!”
ऐसा कहे जाने के बाद, भगवान विपस्सी ने महाब्रह्मा से कहा, “ब्रह्मा! मैंने ऐसे धर्म को प्राप्त किया है, जो गहरा, दुर्दर्शी, दुर्ज्ञेय, शांतिमय, सर्वोत्तम, तर्क-वितर्क से प्राप्त न होने वाला, निपुण और ज्ञानियों द्वारा अनुभव करने योग्य है। किन्तु, यह जनता आसक्तियों में रमती है, आसक्तियों में रत रहती है, और आसक्तियों में ही प्रसन्न होती है… यदि मैं उन्हें ऐसा धर्म दूँ, जो उन्हें समझ में न आएँ, तो वह मेरे लिए थकाऊ और परेशानी से भरा होगा।…"
तब, महाब्रह्मा ने भगवान विपस्सी से दुबारा याचना की —
“भंते, भगवान धर्म का उपदेश करें! सुगत धर्म का उपदेश करें! ऐसे सत्व हैं जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे!”…
ऐसा कहे जाने के बाद, विपस्सी भगवान ने महाब्रह्मा से फिर वही कहा, “ब्रह्मा! मैंने ऐसे धर्म को प्राप्त किया है, जो गहरा, दुर्दर्शी…"
तब, महाब्रह्मा ने भगवान विपस्सी से तीसरी बार याचना की —
“भंते, भगवान धर्म का उपदेश करें! सुगत धर्म का उपदेश करें! ऐसे सत्व हैं जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे!… "
तब विपस्सी भगवान ने उस ब्रह्मा की याचना पर गौर किया। और, सत्वों के प्रति करुणा से, बुद्धचक्षु से ब्रह्मांड का अवलोकन किया। विपस्सी भगवान ने बुद्धचक्षु से ब्रह्मांड का अवलोकन करते हुए ऐसे सत्वों को देखा जिनकी आँखों में कम धूल थी, और जिनकी आँखों में अधिक धूल थी, जिनकी इंद्रियाँ तीक्ष्ण थी, और जिनकी इंद्रियाँ मन्द थी, भली वृत्ति के, और बुरी वृत्ति के, सरलता से सिखाएँ जाने वाले, और कठिनाई से सिखाएँ जाने वाले, परलोक में ख़तरा जानकर रहने वाले कुछ सत्व, और परलोक में कोई ख़तरा न जानकर रहने वाले कुछ सत्व।
जैसे किसी पुष्करणी में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो जल के भीतर जन्म लेते हैं, जल के भीतर बढ़ते हैं, जल के भीतर पनपते हैं, बिना जल से बाहर निकले। जबकि कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो जल के भीतर जन्म लेते हैं, जल के भीतर बढ़ते हैं, और ऊपर तक आकर जल की सतह को छू पाते हैं। जबकि कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो जल के भीतर जन्म लेते हैं, और जल के भीतर बढ़ते हुए सतह से ऊपर आकर, जल से अछूत रहते हैं।
उसी तरह, विपस्सी भगवान ने बुद्धचक्षु से ब्रह्मांड का अवलोकन करते हुए ऐसे सत्वों को देखा जिनकी आँखों में कम धूल थी, और जिनकी आँखों में अधिक धूल थी, जिनकी इंद्रियाँ तीक्ष्ण थी, और जिनकी इंद्रियाँ मन्द थी, भली वृत्ति के, और बुरी वृत्ति के, सरलता से सिखाएँ जाने वाले, और कठिनाई से सिखाएँ जाने वाले, परलोक में ख़तरा जानकर रहने वाले कुछ सत्व, और परलोक में कोई ख़तरा न जानकर रहने वाले कुछ सत्व।
और तब, महाब्रह्मा ने भगवान विपस्सी के चित्त में चल रहे तर्क-वितर्क को जान कर गाथाओं में कहा:
ऐसा देखकर भगवान विपस्सी ने महाब्रह्मा को गाथाओं में कहा —
जिन्हें कान हो, वे श्रद्धा प्रकट करें!
मानव को सद्गुणी उत्कृष्ट धर्म बताना।
तब महाब्रह्मा को लगा, “भगवान विपस्सी ने मेरी याचना को स्वीकार लिया है।” तब उसने विपस्सी भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर, वही अन्तर्धान हो गया।
तब भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध को लगा, “मैं पहले किसे धर्म का उपदेश करूँ? कौन है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा?”
तब भगवान विपस्सी को लगा, “यह राजा का पुत्र खण्ड और पुरोहित का पुत्र तिस्स पण्डित हैं, अनुभवी हैं, मेधावी हैं, और दीर्घकाल से आँखों में कम धूल वाले हैं। मैं पहले उन्हें धर्म का उपदेश करता हूँ। वे ही हैं, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेंगे।”
तब, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, भगवान विपस्सी बोधिवृक्ष के नीचे से विलुप्त हुए और बन्धुमती राजधानी के खेम नामक मृगवन में प्रकट हुए। वहाँ उन्होने वनरक्षक को संबोधित किया, “प्रिय वनरक्षक, बन्धुमती राजधानी जाओ और राजपुत्र खण्ड और पुरोहितपुत्र तिस्स से कहो, “श्रीमान, भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बन्धुमती राजधानी आए है, और खेम मृगवन में विहार कर रहे है। उन्हें आपका दर्शन करना है।””
“हाँ, भंते!” वनरक्षक ने विपस्सी भगवान से कहा, और बन्धुमती राजधानी जाकर राजपुत्र खण्ड और पुरोहितपुत्र तिस्स को सूचित किया, “श्रीमान, भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बन्धुमती राजधानी आए है, और खेम मृगवन में विहार कर रहे है। उन्हें आपका दर्शन करना है।”
तब, राजपुत्र खण्ड और पुरोहितपुत्र तिस्स ने अच्छे से अच्छे रथों को तैयार कराया। अच्छे रथ पर चढ़कर, अच्छे से अच्छे रथों के साथ बन्धुमती राजधानी के खेम मृगवन की ओर चल पड़े। जहाँ तक रथ से जा सके, वहाँ तक रथ से गए। फिर रथ से उतर कर पैदल भगवान विपस्सी के पास गए। जाकर उन्होने भगवान विपस्सी को अभिवादन किया और एक ओर बैठ गए।
तब, भगवान विपस्सी ने उन्हें अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान विपस्सी ने जान लिया कि उनका तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।
जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह उन को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”
तब धर्म देख चुके, धर्म पा चुके, धर्म जान चुके, धर्म में गहरे उतर चुके दोनों संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए।
तब उन्होने भगवान विपस्सी से कहा, “अतिउत्तम, भंते ! अतिउत्तम, भंते! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। हम बुद्ध की शरण जाते हैं! और धर्म की! भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”
और, राजपुत्र खण्ड और पुरोहितपुत्र तिस्स को भगवान विपस्सी की उपस्थिती में प्रवज्जा और उपसंपदा प्राप्त हुई। तब, भगवान विपस्सी ने उन दोनों को धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया। रचनाओं के दुष्परिणाम, विकृति, दूषितता, और निर्वाण के पुरस्कारों को उजागर किया। विपस्सी भगवान की धर्म कथा से निर्देशित होकर, उत्प्रेरित होकर, उत्साहित होकर, हर्षित होकर उनका चित्त अनासक्त हो, आस्रव-मुक्त हुआ।
तब बन्धुमती राजधानी की [भिन्न] चौरासी हजार जनता ने सुना, ‘भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बन्धुमती राजधानी आए है, और खेम मृगवन में विहार कर रहे है। और, राजपुत्र खण्ड और पुरोहितपुत्र तिस्स ने सिर-दाढ़ी मुंडवा, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर भगवान विपस्सी की उपस्थिती में प्रवज्यित हो गए है।’ तब ऐसा सुनकर उन्हें लगा, “यह धर्मविनय साधारण नहीं होगा, यह संन्यास साधारण नहीं होगा, जो राजपुत्र खण्ड और पुरोहितपुत्र तिस्स ने सिर-दाढ़ी मुंडवा, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो गए है। यदि राजपुत्र खण्ड और पुरोहितपुत्र तिस्स सिर-दाढ़ी मुंडवा, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो गए हैं, तो हम लोगों का क्या हैं?”
तब, बन्धुमती राजधानी की चौरासी हजार जनता खेम मृगवन की ओर चल पड़ी। वहाँ वे भगवान विपस्सी के पास गए, और जाकर उन्होने भगवान विपस्सी को अभिवादन किया और एक ओर बैठ गए।
तब, भगवान विपस्सी ने उन्हें अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान विपस्सी ने जान लिया कि उनका तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।
जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह चौरासी हजार जनता को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”
तब धर्म देख चुके, धर्म पा चुके, धर्म जान चुके, धर्म में गहरे उतर चुके, वे संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए।
तब उन्होने भगवान विपस्सी से कहा, “अतिउत्तम, भंते ! अतिउत्तम, भंते! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। हम बुद्ध की शरण जाते हैं! धर्म और भिक्षुसंघ की! भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”
और, चौरासी हजार जनता को भगवान विपस्सी की उपस्थिती में प्रवज्जा और उपसंपदा प्राप्त हुई। तब, भगवान विपस्सी ने उन्हें धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया। रचनाओं के दुष्परिणाम, विकृति, दूषितता, और निर्वाण के पुरस्कारों को उजागर किया। विपस्सी भगवान की धर्म कथा से निर्देशित होकर, उत्प्रेरित होकर, उत्साहित होकर, हर्षित होकर उनका चित्त अनासक्त हो, आस्रव-मुक्त हुआ।
तब, भिक्षुओं, पहले से प्रवज्जित चौरासी हजार प्रवज्जितों ने सुना, ‘भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बन्धुमती राजधानी आए है, और खेम मृगवन में विहार कर रहे है। और, वे धर्म देशना दे रहे हैं।’
तब, वे चौरासी हजार पूर्व प्रवज्जित बन्धुमती राजधानी के खेम मृगवन की ओर चल पड़ी। वहाँ वे भगवान विपस्सी के पास गए, और जाकर उन्होने भगवान विपस्सी को अभिवादन किया और एक ओर बैठ गए।
तब, भगवान विपस्सी ने उन्हें अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान विपस्सी ने जान लिया कि उनका तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।
जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह चौरासी हजार पूर्व प्रवज्जितों को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”
तब धर्म देख चुके, धर्म पा चुके, धर्म जान चुके, धर्म में गहरे उतर चुके, वे संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए।
तब उन्होने भगवान विपस्सी से कहा, “अतिउत्तम, भंते ! अतिउत्तम, भंते! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। हम बुद्ध की शरण जाते हैं! धर्म और भिक्षुसंघ की! भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”
और, चौरासी हजार पूर्व प्रवज्जितों को भगवान विपस्सी की उपस्थिती में पुनः प्रवज्जा और उपसंपदा प्राप्त हुई। तब, भगवान विपस्सी ने उन्हें धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया। रचनाओं के दुष्परिणाम, विकृति, दूषितता, और निर्वाण के पुरस्कारों को उजागर किया। विपस्सी भगवान की धर्म कथा से निर्देशित होकर, उत्प्रेरित होकर, उत्साहित होकर, हर्षित होकर उनका चित्त अनासक्त हो, आस्रव-मुक्त हुआ।
एक समय आया, भिक्षुओं, जब बन्धुमती राजधानी में अड़सठ लाख [६८,००,०००] का महाभिक्षुसंघ विहार करने लगा। तब एकांतवास में रहते हुए विपस्सी भगवान के चित्त में विचार आया, “बन्धुमती राजधानी में अड़सठ लाख का महाभिक्षुसंघ विहार कर रहा है। क्यों न मैं उन्हें अनुरोध करूँ ‘भ्रमणचर्या करों, भिक्षुओं, बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए! किसी एक रास्ते पर दो मत जाओ। और, ऐसा धर्म उपदेश करों, भिक्षुओं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, तथा अन्त में कल्याणकारी हो। गहरे अर्थ और विवरण के साथ, इस सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य को प्रकाशित करों! ऐसे सत्व हैं, जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे! और, छह-छह वर्षों में सभी बन्धुमती राजधानी लौट आएँ पातिमोक्ख का पठन करने के लिए।’”
तब, कोई महाब्रह्मा ने भगवान विपस्सी के चित्त में चल रहे तर्क-वितर्क को जान लिया। और जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, वह महाब्रह्मा ब्रह्मलोक से विलुप्त हुआ और भगवान विपस्सी के समक्ष प्रकट हुआ। उस महाब्रह्मा ने बाहरी वस्त्र को एक कंधे पर कर, दाएँ घुटने को भूमि पर टिकाकर, हाथ जोड़कर भगवान विपस्सी से कहा —
“ऐसा ही हो, भगवान! ऐसा ही हो, सुगत! बन्धुमती राजधानी में अड़सठ लाख का महाभिक्षुसंघ विहार कर रहा है। कृपया आप उन्हें अनुरोध करें, ‘भ्रमणचर्या करों, भिक्षुओं, बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए… और, छह-छह वर्षों में सभी बन्धुमती राजधानी लौट आएँ पातिमोक्ख का पठन करने के लिए।’” और, भगवान, मैं यह सुनिश्चित करूँगा कि छह-छह वर्षों में सभी भिक्षु पातिमोक्ख का पठन करने के लिए बन्धुमती राजधानी लौट आएँ ।”
ऐसा महाब्रह्मा ने कहा। ऐसा कहकर उसने विपस्सी भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर, वही अन्तर्धान हो गया।
तब सायंकाल के समय विपस्सी भगवान एकांतवास से निकल कर भिक्षुओं को आमंत्रित किया: [और सब कुछ बता दिया:] “मैं अनुमति देता हूँ। भ्रमणचर्या करों, भिक्षुओं, बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए! किसी एक रास्ते पर दो मत जाओ। और, ऐसा धर्म उपदेश करों, भिक्षुओं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, तथा अन्त में कल्याणकारी हो। गहरे अर्थ और विवरण के साथ, इस सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य को प्रकाशित करों! ऐसे सत्व हैं, जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे! और, छह-छह वर्षों में सभी बन्धुमती राजधानी लौट आएँ पातिमोक्ख का पठन करने के लिए।”
तब, उसी दिन अनेक भिक्षु देहातों की ओर भ्रमणचर्या पर चल पड़े। एक समय आया, भिक्षुओं, जब जम्बूद्वीप में चौरासी हजार विहार थे। एक वर्ष बीत जाने पर देवताओं ने दिव्य-उद्घोष [दिव्य आकाशवाणी?] किया: “महाशय, एक वर्ष बीता, अब पाँच वर्ष हैं।” दो वर्ष… तीन वर्ष… चार वर्ष… पाँच वर्ष… छह वर्ष बीत जाने पर देवताओं ने दिव्य-उद्घोष किया: “महाशय, छह वर्ष बीत गए। समय आ गया है। पातिमोक्ख का पठन करने के लिए सभी बन्धुमती राजधानी की ओर चले जाएँ।”
तब उसी दिन सभी भिक्षु पातिमोक्ख का पठन करने के लिए बन्धुमती राजधानी चले गए। कोई स्वयं अपनी ऋद्धिबल से गया, तो कोई देवताओं की ऋद्धिबल से। तब भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने भिक्षुसंघ के लिए इस प्रकार का पातिमोक्ख पठन किया:
निब्बानं परमं वदन्ति बुद्धा;
न हि पब्बजितो परूपघाती,
न समणो होति परं विहेठयन्तो।
कुसलस्स उपसम्पदा;
सचित्तपरियोदपनं,
एतं बुद्धानसासनं।
पातिमोक्खे च संवरो;
मत्तञ्ञुता च भत्तस्मिं,
पन्तञ्च सयनासनं;
अधिचित्ते च आयोगो,
एतं बुद्धानसासनन्’ति।
एक समय, भिक्षुओं, मैं उकट्ठा में सुभग वन के शाल राजवृक्ष के तले विहार कर रहा था। तब एकांतवास में रहते हुए मेरे चित्त में विचार आया, “ऐसा सत्व लोक मिलना सरल नहीं है, जहाँ मैंने अपने दीर्घकाल [संसरण] में जन्म न लिया हो, केवल शुद्धवास देवलोक 1 को छोड़ कर। क्यों न मैं शुद्धवास देवताओं के पास जाऊँ?”
तब, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, मैं सुभग वन के शाल राजवृक्ष के तले से विलुप्त हुआ और अविहा [=कभी पतन न होने वाले] देवताओं के समक्ष प्रकट हुआ। तब उस देव समूहों के कई हजारों देवतागण, लाखों देवतागण मेरे पास आएँ, और अभिवादन कर एक ओर खड़े हुए।
एक ओर खड़े होकर उन देवताओं ने मुझे कहा, “महाशय, इक्यानबे कल्प पहले भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध इस लोक में प्रकट हुए थे। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने क्षत्रियों में जन्म लिया था, वे क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध कोण्डञ्ञ गोत्र के थे। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की अस्सी हजार वर्ष की आयु थी। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने पाडर वृक्ष के तले अभिसम्बोधि प्राप्त किया था। भिक्षुओं, भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की खण्ड और तिस्स नामक शिष्यों की जोड़ी अग्र थी, भद्र थी। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की तीन शिष्य सभाएँ हुई — एक शिष्य सभा अड़सठ लाख भिक्षुओं की थी, एक शिष्य सभा एक लाख भिक्षुओं की थी, और एक अस्सी हजार भिक्षुओं की थी। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की कुल तीन शिष्य सभाएँ हुई, जिनमें सभी क्षीणास्रव थे। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के सहायक भिक्षु अशोक थे, जो अग्र-सहायक थे। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के पिता बन्धुमान नामक राजा थे, और माता बन्धुमती देवी थी। बन्धुमान राजा की राजधानी का नाम बन्धुमती था। भगवान विपस्सी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का अभिनिष्क्रमण [=घर त्याग] इस तरह हुआ, इस तरह प्रवज्जा [=संन्यास] हुई, इस तरह तप हुआ, इस तरह संबोधि प्राप्त हुई, और इस तरह धर्मचक्र प्रवर्तन हुआ। और उन भगवान विपस्सी का ब्रह्मचर्य धारण करने से हमारी कामुकता के प्रति काम-चाहत मिट गयी, जिसके कारण हम यहाँ उत्पन्न हुए।…”
और, तब उस देव समूहों के दूसरे कई हजारों देवतागण, लाखों देवतागण मेरे पास आएँ, और अभिवादन कर एक ओर खड़े हुए। एक ओर खड़े होकर उन देवताओं ने मुझे कहा, “महाशय, एकतीस कल्प पहले भगवान सिखी… भगवान वेस्सभू… इस वर्तमान भद्रकल्प में भगवान ककुसन्ध… भगवान कोणागमन… भगवान कश्यप… आप भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध भी इस लोक में प्रकट हुए है। आप भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने क्षत्रियों में जन्म लिया… और आप भगवान का ब्रह्मचर्य धारण करने से हमारी कामुकता के प्रति काम-चाहत मिट गयी, जिसके कारण हम यहाँ उत्पन्न हुए।”
तब मैं उन अविहा देवताओं के साथ अतप्पा [=जिन्हें कोई परेशानी नहीं, अविहा देवताओं से श्रेष्ठ] देवताओं के पास गया [वहाँ भी ऐसा संवाद हुआ]… तब मैं उन अविहा और अतप्पा देवताओं के साथ सुदस्सा [=सुंदर दिखने वाले, अतप्पा देवताओं से श्रेष्ठ] देवताओं के पास गया [वहाँ भी ऐसा संवाद हुआ]… तब मैं उन अविहा, अतप्पा, और सुदस्सा देवताओं के साथ सुदस्सी [=सुदर्शी, सुदस्सा देवताओं से श्रेष्ठ] देवताओं के पास गया [वहाँ भी ऐसा संवाद हुआ]… तब मैं उन अविहा, अतप्पा, सुदस्सा, और सुदस्सी देवताओं के साथ अकनिट्ठ [=कोई कनिष्ठ या छोटा नहीं, समस्त देवताओं से श्रेष्ठ] देवताओं के पास गया तब उस देव समूहों के दूसरे कई हजारों देवतागण, लाखों देवतागण मेरे पास आएँ, और अभिवादन कर एक ओर खड़े हुए। एक ओर खड़े होकर उन देवताओं ने मुझे कहा, “महाशय, इक्यानबे कल्प पहले भगवान विपस्सी… एकतीस कल्प पहले भगवान सिखी… भगवान वेस्सभू… इस वर्तमान भद्रकल्प में भगवान ककुसन्ध… भगवान कोणागमन… भगवान कश्यप… आप भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध भी इस लोक में प्रकट हुए है। आप भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने क्षत्रियों में जन्म लिया… और आप भगवान का ब्रह्मचर्य धारण करने से हमारी कामुकता के प्रति काम-चाहत मिट गयी, जिसके कारण हम यहाँ उत्पन्न हुए।”
इस तरह, भिक्षुओं, तथागत ने धर्मधातु को अच्छे से समझ लिया है। तथागत के द्वारा धर्मधातु को अच्छे से समझे जाने के कारण ही — जो बुद्ध अतीत में हुए… — उनका तथागत जन्म अनुस्मरण करते है, नाम… गोत्र… आयु… शिष्य की जोड़ी… शिष्य सभा अनुस्मरण करते है — [कहते हुए:] ‘उन भगवानों का ऐसा जन्म था, ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा शील था, ऐसा धर्म था, ऐसी प्रज्ञा थी, ऐसा [चित्त-समाधि] विहार था, और तो और, उन भगवानों की ऐसी विमुक्ति थी!’
और, [साथ ही,] यह देवताओं ने भी तथागत को बताया हैं।…"
भगवान ने ऐसा कहा। संतुष्ट हुए भिक्षुओं ने भगवान के कथन का अनुमोदन किया।
शुद्धवास ब्रह्मलोक में उत्पन्न होने वाला का फिर दुबारा कभी किसी निम्नलोक में पतन नहीं होता। शुद्धवास कुल पाँच ब्रह्मलोक हैं — नीचे अविहा से लेकर अतप्प, सुदस्सा, सुदस्सी और सबसे ऊपर अकनिट्ठ। ↩︎
पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तकथा
१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे करेरिकुटिकायं। अथ खो सम्बहुलानं भिक्खूनं पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तानं करेरिमण्डलमाळे सन्निसिन्नानं सन्निपतितानं पुब्बेनिवासपटिसंयुत्ता धम्मी कथा उदपादि – ‘‘इतिपि पुब्बेनिवासो, इतिपि पुब्बेनिवासो’’ति।
२. अस्सोसि खो भगवा दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय तेसं भिक्खूनं इमं कथासल्लापं। अथ खो भगवा उट्ठायासना येन करेरिमण्डलमाळो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि, निसज्ज खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘कायनुत्थ, भिक्खवे, एतरहि कथाय सन्निसिन्ना; का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता’’ति?
एवं वुत्ते ते भिक्खू भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘इध, भन्ते, अम्हाकं पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तानं करेरिमण्डलमाळे सन्निसिन्नानं सन्निपतितानं पुब्बेनिवासपटिसंयुत्ता धम्मी कथा उदपादि – ‘इतिपि पुब्बेनिवासो इतिपि पुब्बेनिवासो’ति। अयं खो नो, भन्ते, अन्तराकथा विप्पकता। अथ भगवा अनुप्पत्तो’’ति।
३. ‘‘इच्छेय्याथ नो तुम्हे, भिक्खवे, पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तं धम्मिं कथं सोतु’’न्ति? ‘‘एतस्स, भगवा, कालो; एतस्स, सुगत, कालो; यं भगवा पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तं धम्मिं कथं करेय्य, भगवतो सुत्वा [भगवतो वचनं सुत्वा (स्या॰)] भिक्खू धारेस्सन्ती’’ति। ‘‘तेन हि, भिक्खवे, सुणाथ,साधुकं मनसि करोथ, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –
४. ‘‘इतो सो, भिक्खवे, एकनवुतिकप्पे यं [एकनवुतो कप्पो (स्या॰ कं॰ पी॰)] विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि। इतो सो, भिक्खवे, एकतिंसे कप्पे [एकतिं सकप्पो (सी॰) एकतिं सो कप्पो (स्या॰ कं॰ पी॰)] यं सिखी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि। तस्मिञ्ञेव खो, भिक्खवे, एकतिंसे कप्पे वेस्सभू भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि। इमस्मिञ्ञेव [इमस्मिं (कत्थची)] खो, भिक्खवे, भद्दकप्पे ककुसन्धो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि। इमस्मिञ्ञेव खो, भिक्खवे, भद्दकप्पे कोणागमनो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि। इमस्मिञ्ञेव खो, भिक्खवे, भद्दकप्पे कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि। इमस्मिञ्ञेव खो, भिक्खवे, भद्दकप्पे अहं एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उप्पन्नो।
५. ‘‘विपस्सी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो खत्तियो जातिया अहोसि, खत्तियकुले उदपादि। सिखी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो खत्तियो जातिया अहोसि, खत्तियकुले उदपादि। वेस्सभू, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो खत्तियो जातिया अहोसि, खत्तियकुले उदपादि। ककुसन्धो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो ब्राह्मणो जातिया अहोसि, ब्राह्मणकुले उदपादि। कोणागमनो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो ब्राह्मणो जातिया अहोसि, ब्राह्मणकुले उदपादि। कस्सपो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो ब्राह्मणो जातिया अहोसि, ब्राह्मणकुले उदपादि। अहं, भिक्खवे, एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो खत्तियो जातिया अहोसिं, खत्तियकुले उप्पन्नो।
६. ‘‘विपस्सी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कोण्डञ्ञो गोत्तेन अहोसि। सिखी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कोण्डञ्ञो गोत्तेन अहोसि। वेस्सभू, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कोण्डञ्ञो गोत्तेन अहोसि। ककुसन्धो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कस्सपो गोत्तेन अहोसि। कोणागमनो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कस्सपो गोत्तेन अहोसि। कस्सपो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कस्सपो गोत्तेन अहोसि। अहं, भिक्खवे, एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो गोतमो गोत्तेन अहोसिं।
७. ‘‘विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असीतिवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि। सिखिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सत्ततिवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि। वेस्सभुस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सट्ठिवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि। ककुसन्धस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स चत्तालीसवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि। कोणागमनस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तिंसवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि। कस्सपस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स वीसतिवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि। मय्हं, भिक्खवे, एतरहि अप्पकं आयुप्पमाणं परित्तं लहुकं; यो चिरं जीवति, सो वस्ससतं अप्पं वा भिय्यो।
८. ‘‘विपस्सी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो पाटलिया मूले अभिसम्बुद्धो। सिखी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो पुण्डरीकस्स मूले अभिसम्बुद्धो। वेस्सभू, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो सालस्स मूले अभिसम्बुद्धो। ककुसन्धो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो सिरीसस्स मूले अभिसम्बुद्धो। कोणागमनो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो उदुम्बरस्स मूले अभिसम्बुद्धो। कस्सपो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो निग्रोधस्स मूले अभिसम्बुद्धो। अहं, भिक्खवे, एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो अस्सत्थस्स मूले अभिसम्बुद्धो।
९. ‘‘विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स खण्डतिस्सं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं। सिखिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अभिभूसम्भवं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं। वेस्सभुस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सोणुत्तरं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं। ककुसन्धस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स विधुरसञ्जीवं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं। कोणागमनस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स भिय्योसुत्तरं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं। कस्सपस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तिस्सभारद्वाजं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं। मय्हं, भिक्खवे, एतरहि सारिपुत्तमोग्गल्लानं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं।
१०. ‘‘विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं। एको सावकानं सन्निपातो अहोसि अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि भिक्खुसतसहस्सं, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि असीतिभिक्खुसहस्सानि। विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स इमे तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं सब्बेसंयेव खीणासवानं।
‘‘सिखिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं। एको सावकानं सन्निपातो अहोसि भिक्खुसतसहस्सं, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि असीतिभिक्खुसहस्सानि, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सत्ततिभिक्खुसहस्सानि। सिखिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स इमे तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं सब्बेसंयेव खीणासवानं।
‘‘वेस्सभुस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं। एको सावकानं सन्निपातो अहोसि असीतिभिक्खुसहस्सानि, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सत्ततिभिक्खुसहस्सानि, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सट्ठिभिक्खुसहस्सानि। वेस्सभुस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स इमे तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं सब्बेसंयेव खीणासवानं।
‘‘ककुसन्धस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एको सावकानं सन्निपातो अहोसि चत्तालीसभिक्खुसहस्सानि। ककुसन्धस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अयं एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सब्बेसंयेव खीणासवानं।
‘‘कोणागमनस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एको सावकानं सन्निपातो अहोसि तिंसभिक्खुसहस्सानि। कोणागमनस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अयं एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सब्बेसंयेव खीणासवानं।
‘‘कस्सपस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एको सावकानं सन्निपातो अहोसि वीसतिभिक्खुसहस्सानि। कस्सपस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अयं एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सब्बेसंयेव खीणासवानं।
‘‘मय्हं, भिक्खवे, एतरहि एको सावकानं सन्निपातो अहोसि अड्ढतेळसानि भिक्खुसतानि। मय्हं, भिक्खवे, अयं एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सब्बेसंयेव खीणासवानं।
११. ‘‘विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असोको नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको। सिखिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स खेमङ्करो नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको। वेस्सभुस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स उपसन्तो नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको। ककुसन्धस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स बुद्धिजो नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको। कोणागमनस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सोत्थिजो नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको। कस्सपस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सब्बमित्तो नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको। मय्हं, भिक्खवे, एतरहि आनन्दो नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको।
१२. ‘‘विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स बन्धुमा नाम राजा पिता अहोसि। बन्धुमती नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति [जनेत्ती (स्या॰)]। बन्धुमस्स रञ्ञो बन्धुमती नाम नगरं राजधानी अहोसि।
‘‘सिखिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अरुणो नाम राजा पिता अहोसि। पभावती नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति। अरुणस्स रञ्ञो अरुणवती नाम नगरं राजधानी अहोसि।
‘‘वेस्सभुस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सुप्पतितो नाम [सुप्पतीतो नाम (स्या॰)] राजा पिता अहोसि। वस्सवती नाम [यसवती नाम (स्या॰ पी॰)] देवी माता अहोसि जनेत्ति। सुप्पतितस्स रञ्ञो अनोमं नाम नगरं राजधानी अहोसि।
‘‘ककुसन्धस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अग्गिदत्तो नाम ब्राह्मणो पिता अहोसि। विसाखा नाम ब्राह्मणी माता अहोसि जनेत्ति। तेन खो पन, भिक्खवे, समयेन खेमो नाम राजा अहोसि। खेमस्स रञ्ञो खेमवती नाम नगरं राजधानी अहोसि।
‘‘कोणागमनस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स यञ्ञदत्तो नाम ब्राह्मणो पिता अहोसि। उत्तरा नाम ब्राह्मणी माता अहोसि जनेत्ति। तेन खो पन, भिक्खवे, समयेन सोभो नाम राजा अहोसि। सोभस्स रञ्ञो सोभवती नाम नगरं राजधानी अहोसि।
‘‘कस्सपस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ब्रह्मदत्तो नाम ब्राह्मणो पिता अहोसि। धनवती नाम ब्राह्मणी माता अहोसि जनेत्ति। तेन खो पन, भिक्खवे, समयेन किकी नाम [किं की नाम (स्या॰)] राजा अहोसि। किकिस्स रञ्ञो बाराणसी नाम नगरं राजधानी अहोसि।
‘‘मय्हं, भिक्खवे, एतरहि सुद्धोदनो नाम राजा पिता अहोसि। माया नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति। कपिलवत्थु नाम नगरं राजधानी अहोसी’’ति। इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो उट्ठायासना विहारं पाविसि।
१३. अथ खो तेसं भिक्खूनं अचिरपक्कन्तस्स भगवतो अयमन्तराकथा उदपादि – ‘‘अच्छरियं, आवुसो, अब्भुतं, आवुसो, तथागतस्स महिद्धिकता महानुभावता। यत्र हि नाम तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरिस्सति, नामतोपि अनुस्सरिस्सति, गोत्ततोपि अनुस्सरिस्सति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरिस्सति, सावकयुगतोपि अनुस्सरिस्सति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरिस्सति – ‘एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्ञा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी’’’ति।
‘‘किं नु खो, आवुसो, तथागतस्सेव नु खो एसा धम्मधातु सुप्पटिविद्धा, यस्सा धम्मधातुया सुप्पटिविद्धत्ता तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरति, नामतोपि अनुस्सरति, गोत्ततोपि अनुस्सरति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरति, सावकयुगतोपि अनुस्सरति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरति – ‘एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्ञा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी’ति, उदाहु देवता तथागतस्स एतमत्थं आरोचेसुं, येन तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरति, नामतोपि अनुस्सरति, गोत्ततोपि अनुस्सरति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरति, सावकयुगतोपि अनुस्सरति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरति – ‘एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्ञा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी’’’ति। अयञ्च हिदं तेसं भिक्खूनं अन्तराकथा विप्पकता होति।
१४. अथ खो भगवा सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो येन करेरिमण्डलमाळो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि। निसज्ज खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘कायनुत्थ, भिक्खवे, एतरहि कथाय सन्निसिन्ना; का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता’’ति?
एवं वुत्ते ते भिक्खू भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘इध, भन्ते, अम्हाकं अचिरपक्कन्तस्स भगवतो अयं अन्तराकथा उदपादि – ‘अच्छरियं, आवुसो, अब्भुतं, आवुसो, तथागतस्स महिद्धिकता महानुभावता, यत्र हि नाम तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरिस्सति, नामतोपि अनुस्सरिस्सति, गोत्ततोपि अनुस्सरिस्सति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरिस्सति, सावकयुगतोपि अनुस्सरिस्सति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरिस्सति – ‘‘एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्ञा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी’’ति। किं नु खो, आवुसो, तथागतस्सेव नु खो एसा धम्मधातु सुप्पटिविद्धा, यस्सा धम्मधातुया सुप्पटिविद्धत्ता तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरति, नामतोपि अनुस्सरति, गोत्ततोपि अनुस्सरति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरति, सावकयुगतोपि अनुस्सरति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरति – ‘‘एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्ञा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी’’ति। उदाहु देवता तथागतस्स एतमत्थं आरोचेसुं, येन तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरति, नामतोपि अनुस्सरति, गोत्ततोपि अनुस्सरति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरति, सावकयुगतोपि अनुस्सरति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरति – ‘एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्ञा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी’ति? अयं खो नो, भन्ते, अन्तराकथा विप्पकता, अथ भगवा अनुप्पत्तो’’ति।
१५. ‘‘तथागतस्सेवेसा, भिक्खवे, धम्मधातु सुप्पटिविद्धा, यस्सा धम्मधातुया सुप्पटिविद्धत्ता तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरति, नामतोपि अनुस्सरति, गोत्ततोपि अनुस्सरति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरति, सावकयुगतोपि अनुस्सरति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरति – ‘एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्ञा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी’ति। देवतापि तथागतस्स एतमत्थं आरोचेसुं, येन तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरति, नामतोपि अनुस्सरति, गोत्ततोपि अनुस्सरति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरति, सावकयुगतोपि अनुस्सरति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरति – ‘एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्ञा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी’ति।
‘‘इच्छेय्याथ नो तुम्हे, भिक्खवे, भिय्योसोमत्ताय पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तं धम्मिं कथं सोतु’’न्ति? ‘‘एतस्स, भगवा, कालो; एतस्स, सुगत, कालो; यं भगवा भिय्योसोमत्ताय पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तं धम्मिं कथं करेय्य, भगवतो सुत्वा भिक्खू धारेस्सन्ती’’ति। ‘‘तेन हि, भिक्खवे, सुणाथ, साधुकं मनसि करोथ, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –
१६. ‘‘इतो सो, भिक्खवे, एकनवुतिकप्पे यं विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि। विपस्सी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो खत्तियो जातिया अहोसि, खत्तियकुले उदपादि। विपस्सी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कोण्डञ्ञो गोत्तेन अहोसि। विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असीतिवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि। विपस्सी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो पाटलिया मूले अभिसम्बुद्धो। विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स खण्डतिस्सं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं। विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं। एको सावकानं सन्निपातो अहोसि अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि भिक्खुसतसहस्सं, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि असीतिभिक्खुसहस्सानि। विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स इमे तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं सब्बेसंयेव खीणासवानं। विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असोको नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको। विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स बन्धुमा नाम राजा पिता अहोसि। बन्धुमती नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति। बन्धुमस्स रञ्ञो बन्धुमती नाम नगरं राजधानी अहोसि।
बोधिसत्तधम्मता
१७. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी बोधिसत्तो तुसिता काया चवित्वा सतो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमि। अयमेत्थ धम्मता।
१८. ‘‘धम्मता, एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो तुसिता काया चवित्वा मातुकुच्छिं ओक्कमति। अथ सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय अप्पमाणो उळारो ओभासो पातुभवति अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं। यापि ता लोकन्तरिका अघा असंवुता अन्धकारा अन्धकारतिमिसा, यत्थ पिमे चन्दिमसूरिया एवंमहिद्धिका एवंमहानुभावा आभाय नानुभोन्ति, तत्थपि अप्पमाणो उळारो ओभासो पातुभवति अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं। येपि तत्थ सत्ता उपपन्ना, तेपि तेनोभासेन अञ्ञमञ्ञं सञ्जानन्ति – ‘अञ्ञेपि किर, भो, सन्ति सत्ता इधूपपन्ना’ति। अयञ्च दससहस्सी लोकधातु सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति। अप्पमाणो च उळारो ओभासो लोके पातुभवति अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं। अयमेत्थ धम्मता।
१९. ‘‘धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिं ओक्कन्तो होति, चत्तारो नं देवपुत्ता चतुद्दिसं [चातुद्दिसं (स्या॰)] रक्खाय उपगच्छन्ति – ‘मा नं बोधिसत्तं वा बोधिसत्तमातरं वा मनुस्सो वा अमनुस्सो वा कोचि वा विहेठेसी’ति। अयमेत्थ धम्मता।
२०. ‘‘धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिं ओक्कन्तो होति, पकतिया सीलवती बोधिसत्तमाता होति, विरता पाणातिपाता, विरता अदिन्नादाना, विरता कामेसुमिच्छाचारा, विरता मुसावादा, विरता सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठाना। अयमेत्थ धम्मता।
२१. ‘‘धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिं ओक्कन्तो होति, न बोधिसत्तमातु पुरिसेसु मानसं उप्पज्जति कामगुणूपसंहितं, अनतिक्कमनीया च बोधिसत्तमाता होति केनचि पुरिसेन रत्तचित्तेन। अयमेत्थ धम्मता।
२२. ‘‘धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिं ओक्कन्तो होति, लाभिनी बोधिसत्तमाता होति पञ्चन्नं कामगुणानं। सा पञ्चहि कामगुणेहि समप्पिता समङ्गीभूता परिचारेति। अयमेत्थ धम्मता।
२३. ‘‘धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिं ओक्कन्तो होति, न बोधिसत्तमातु कोचिदेव आबाधो उप्पज्जति। सुखिनी बोधिसत्तमाता होति अकिलन्तकाया, बोधिसत्तञ्च बोधिसत्तमाता तिरोकुच्छिगतं पस्सति सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रियं। सेय्यथापि, भिक्खवे, मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अट्ठंसो सुपरिकम्मकतो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो सब्बाकारसम्पन्नो। तत्रास्स [तत्रस्स (स्या॰)] सुत्तं आवुतं नीलं वा पीतं वा लोहितं वा ओदातं वा पण्डुसुत्तं वा। तमेनं चक्खुमा पुरिसो हत्थे करित्वा पच्चवेक्खेय्य – ‘अयं खो मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अट्ठंसो सुपरिकम्मकतो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो सब्बाकारसम्पन्नो। तत्रिदं सुत्तं आवुतं नीलं वा पीतं वा लोहितं वा ओदातं वा पण्डुसुत्तं वा’ति। एवमेव खो, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिं ओक्कन्तो होति, न बोधिसत्तमातु कोचिदेव आबाधो उप्पज्जति, सुखिनी बोधिसत्तमाता होति अकिलन्तकाया, बोधिसत्तञ्च बोधिसत्तमाता तिरोकुच्छिगतं पस्सति सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रियं। अयमेत्थ धम्मता।
२४. ‘‘धम्मता एसा, भिक्खवे, सत्ताहजाते बोधिसत्ते बोधिसत्तमाता कालङ्करोति तुसितं कायं उपपज्जति। अयमेत्थ धम्मता।
२५. ‘‘धम्मता एसा, भिक्खवे, यथा अञ्ञा इत्थिका नव वा दस वा मासे गब्भं कुच्छिना परिहरित्वा विजायन्ति, न हेवं बोधिसत्तं बोधिसत्तमाता विजायति। दसेव मासानि बोधिसत्तं बोधिसत्तमाता कुच्छिना परिहरित्वा विजायति। अयमेत्थ धम्मता।
२६. ‘‘धम्मता एसा, भिक्खवे, यथा अञ्ञा इत्थिका निसिन्ना वा निपन्ना वा विजायन्ति, न हेवं बोधिसत्तं बोधिसत्तमाता विजायति। ठिताव बोधिसत्तं बोधिसत्तमाता विजायति। अयमेत्थ धम्मता।
२७. ‘‘धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, देवा पठमं पटिग्गण्हन्ति, पच्छा मनुस्सा। अयमेत्थ धम्मता।
२८. ‘‘धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, अप्पत्तोव बोधिसत्तो पथविं होति, चत्तारो नं देवपुत्ता पटिग्गहेत्वा मातु पुरतो ठपेन्ति – ‘अत्तमना, देवि, होहि; महेसक्खो ते पुत्तो उप्पन्नो’ति। अयमेत्थ धम्मता।
२९. ‘‘धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, विसदोव निक्खमति अमक्खितो उदेन [उद्देन (स्या॰), उदरेन (कत्थचि)] अमक्खितो सेम्हेन अमक्खितो रुहिरेन अमक्खितो केनचि असुचिना सुद्धो [विसुद्धो (स्या॰)] विसदो। सेय्यथापि, भिक्खवे, मणिरतनं कासिके वत्थे निक्खित्तं नेव मणिरतनं कासिकं वत्थं मक्खेति, नापि कासिकं वत्थं मणिरतनं मक्खेति। तं किस्स हेतु? उभिन्नं सुद्धत्ता। एवमेव खो, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, विसदोव निक्खमति अमक्खितो, उदेन अमक्खितो सेम्हेन अमक्खितो रुहिरेन अमक्खितो केनचि असुचिना सुद्धो विसदो। अयमेत्थ धम्मता।
३०. ‘‘धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, द्वे उदकस्स धारा अन्तलिक्खा पातुभवन्ति – एका सीतस्स एका उण्हस्स येन बोधिसत्तस्स उदककिच्चं करोन्ति मातु च। अयमेत्थ धम्मता।
३१. ‘‘धम्मता एसा, भिक्खवे, सम्पतिजातो बोधिसत्तो समेहि पादेहि पतिट्ठहित्वा उत्तराभिमुखो [उत्तरेनाभिमुखो (स्या॰) उत्तरेनमुखो (क॰)] सत्तपदवीतिहारेन गच्छति सेतम्हि छत्ते अनुधारियमाने, सब्बा च दिसा अनुविलोकेति, आसभिं वाचं भासति ‘अग्गोहमस्मि लोकस्स, जेट्ठोहमस्मि लोकस्स, सेट्ठोहमस्मि लोकस्स, अयमन्तिमा जाति, नत्थिदानि पुनब्भवो’ति। अयमेत्थ धम्मता।
३२. ‘‘धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, अथ सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय अप्पमाणो उळारो ओभासो पातुभवति, अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं। यापि ता लोकन्तरिका अघा असंवुता अन्धकारा अन्धकारतिमिसा, यत्थ पिमे चन्दिमसूरिया एवंमहिद्धिका एवंमहानुभावा आभाय नानुभोन्ति, तत्थपि अप्पमाणो उळारो ओभासो पातुभवति अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं। येपि तत्थ सत्ता उपपन्ना, तेपि तेनोभासेन अञ्ञमञ्ञं सञ्जानन्ति – ‘अञ्ञेपि किर, भो, सन्ति सत्ता इधूपपन्ना’ति। अयञ्च दससहस्सी लोकधातु सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति अप्पमाणो च उळारो ओभासो लोके पातुभवति अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं। अयमेत्थ धम्मता।
द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणा
३३. ‘‘जाते खो पन, भिक्खवे, विपस्सिम्हि कुमारे बन्धुमतो रञ्ञो पटिवेदेसुं – ‘पुत्तो ते, देव [देव ते (क॰)], जातो, तं देवो पस्सतू’ति। अद्दसा खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा विपस्सिं कुमारं, दिस्वा नेमित्ते ब्राह्मणे आमन्तापेत्वा एतदवोच – ‘पस्सन्तु भोन्तो नेमित्ता ब्राह्मणा कुमार’न्ति। अद्दसंसु खो, भिक्खवे, नेमित्ता ब्राह्मणा विपस्सिं कुमारं, दिस्वा बन्धुमन्तं राजानं एतदवोचुं – ‘अत्तमनो, देव, होहि, महेसक्खो ते पुत्तो उप्पन्नो, लाभा ते, महाराज, सुलद्धं ते, महाराज, यस्स ते कुले एवरूपो पुत्तो उप्पन्नो। अयञ्हि, देव, कुमारो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि समन्नागतो, येहि समन्नागतस्स महापुरिसस्स द्वेव गतियो भवन्ति अनञ्ञा। सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो। तस्सिमानि सत्तरतनानि भवन्ति। सेय्यथिदं – चक्करतनं हत्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं परिणायकरतनमेव सत्तमं। परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना। सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसति। सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवटच्छदो।
३४. ‘कतमेहि चायं, देव, कुमारो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि समन्नागतो, येहि समन्नागतस्स महापुरिसस्स द्वेव गतियो भवन्ति अनञ्ञा। सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितापी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो। तस्सिमानि सत्तरतनानि भवन्ति। सेय्यथिदं – चक्करतनं हत्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं परिणायकरतनमेव सत्तमं। परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना। सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसति। सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवटच्छदो।
३५. ‘अयञ्हि, देव, कुमारो सुप्पतिट्ठितपादो। यं पायं, देव, कुमारो सुप्पतिट्ठितपादो। इदम्पिस्स महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति।
‘इमस्स, देव [इमस्स हि देव (?)], कुमारस्स हेट्ठा पादतलेसु चक्कानि जातानि सहस्सारानि सनेमिकानि सनाभिकानि सब्बाकारपरिपूरानि। यम्पि, इमस्स देव, कुमारस्स हेट्ठा पादतलेसु चक्कानि जातानि सहस्सारानि सनेमिकानि सनाभिकानि सब्बाकारपरिपूरानि, इदम्पिस्स महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति।
‘अयञ्हि देव, कुमारो आयतपण्ही…पे॰…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो दीघङ्गुली…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो मुदुतलुनहत्थपादो…
‘अयञ्हि, देव कुमारो जालहत्थपादो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो उस्सङ्खपादो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो एणिजङ्घो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो ठितकोव अनोनमन्तो उभोहि पाणितलेहि जण्णुकानि परिमसति [परामसति (क॰)] परिमज्जति…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो कोसोहितवत्थगुय्हो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो सुवण्णवण्णो कञ्चनसन्निभत्तचो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो सुखुमच्छवी; सुखुमत्ता छविया रजोजल्लं काये न उपलिम्पति [उपलिप्पति (स्या॰)] …
‘अयञ्हि, देव, कुमारो एकेकलोमो; एकेकानि लोमानि लोमकूपेसु जातानि…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो उद्धग्गलोमो; उद्धग्गानि लोमानि जातानि नीलानि अञ्जनवण्णानि कुण्डलावट्टानि दक्खिणावट्टकजातानि…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो ब्रह्मुजुगत्तो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो सत्तुस्सदो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो सीहपुब्बद्धकायो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो चितन्तरंसो [पितन्तरंसो (स्या॰)] …
‘अयञ्हि, देव, कुमारो निग्रोधपरिमण्डलो यावतक्वस्स कायो तावतक्वस्स ब्यामो, यावतक्वस्स ब्यामो, तावतक्वस्स कायो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो समवट्टक्खन्धो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो रसग्गसग्गी…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो सीहहनु…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो चत्तालीसदन्तो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो समदन्तो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो अविरळदन्तो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो सुसुक्कदाठो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो पहूतजिव्हो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो ब्रह्मस्सरो करवीकभाणी…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो अभिनीलनेत्तो…
‘अयञ्हि, देव, कुमारो गोपखुमो…
इमस्स, देव, कुमारस्स उण्णा भमुकन्तरे जाता ओदाता मुदुतूलसन्निभा। यम्पि इमस्स देव कुमारस्स उण्णा भमुकन्तरे जाता ओदाता मुदुतूलसन्निभा, इदम्पिमस्स महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति।
‘अयञ्हि, देव, कुमारो उण्हीससीसो। यं पायं, देव, कुमारो उण्हीससीसो, इदम्पिस्स महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति।
३६. ‘इमेहि खो अयं, देव, कुमारो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि समन्नागतो, येहि समन्नागतस्स महापुरिसस्स द्वेव गतियो भवन्ति अनञ्ञा। सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो। तस्सिमानि सत्तरतनानि भवन्ति। सेय्यथिदं – चक्करतनं हत्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं परिणायकरतनमेव सत्तमं। परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना। सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन [धम्मेन समेन (स्या॰)] अभिविजिय अज्झावसति। सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवटच्छदो’ति।
विपस्सीसमञ्ञा
३७. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा नेमित्ते ब्राह्मणे अहतेहि वत्थेहि अच्छादापेत्वा [अच्छादेत्वा (स्या॰)] सब्बकामेहि सन्तप्पेसि। अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा विपस्सिस्स कुमारस्स धातियो उपट्ठापेसि। अञ्ञा खीरं पायेन्ति, अञ्ञा न्हापेन्ति, अञ्ञा धारेन्ति, अञ्ञा अङ्केन परिहरन्ति। जातस्स खो पन, भिक्खवे, विपस्सिस्स कुमारस्स सेतच्छत्तं धारयित्थ दिवा चेव रत्तिञ्च – ‘मा नं सीतं वा उण्हं वा तिणं वा रजो वा उस्सावो वा बाधयित्था’ति। जातो खो पन, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो बहुनो जनस्स पियो अहोसि मनापो। सेय्यथापि, भिक्खवे, उप्पलं वा पदुमं वा पुण्डरीकं वा बहुनो जनस्स पियं मनापं; एवमेव खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो बहुनो जनस्स पियो अहोसि मनापो। स्वास्सुदं अङ्केनेव अङ्कं परिहरियति।
३८. ‘‘जातो खो पन, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो मञ्जुस्सरो च [कुमारो ब्रह्मस्सरो मञ्जुस्सरो च (सी॰ क॰)] अहोसि वग्गुस्सरो च मधुरस्सरो च पेमनियस्सरो च। सेय्यथापि, भिक्खवे, हिमवन्ते पब्बते करवीका नाम सकुणजाति मञ्जुस्सरा च वग्गुस्सरा च मधुरस्सरा च पेमनियस्सरा च; एवमेव खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो मञ्जुस्सरो च अहोसि वग्गुस्सरो च मधुरस्सरो च पेमनियस्सरो च।
३९. ‘‘जातस्स खो पन, भिक्खवे, विपस्सिस्स कुमारस्स कम्मविपाकजं दिब्बचक्खु पातुरहोसि येन सुदं [येन दूरं (स्या॰)] समन्ता योजनं पस्सति दिवा चेव रत्तिञ्च।
४०. ‘‘जातो खो पन, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो अनिमिसन्तो पेक्खति सेय्यथापि देवा तावतिंसा। ‘अनिमिसन्तो कुमारो पेक्खती’ति खो, भिक्खवे [अनिमिसन्तो पेक्खति, जातस्स खो पन भिक्खवे (क॰)], विपस्सिस्स कुमारस्स ‘विपस्सी विपस्सी’ त्वेव समञ्ञा उदपादि।
४१. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा अत्थकरणे [अट्ट करणे (स्या॰)] निसिन्नो विपस्सिं कुमारं अङ्के निसीदापेत्वा अत्थे अनुसासति। तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो पितुअङ्के निसिन्नो विचेय्य विचेय्य अत्थे पनायति ञायेन [अट्टे पनायति ञाणेन (स्या॰)]। विचेय्य विचेय्य कुमारो अत्थे पनायति ञायेनाति खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स कुमारस्स भिय्योसोमत्ताय ‘विपस्सी विपस्सी’ त्वेव समञ्ञा उदपादि।
४२. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा विपस्सिस्स कुमारस्स तयो पासादे कारापेसि, एकं वस्सिकं एकं हेमन्तिकं एकं गिम्हिकं; पञ्च कामगुणानि उपट्ठापेसि। तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो वस्सिके पासादे चत्तारो मासे [वस्सिके पासादे वस्सिके] निप्पुरिसेहि तूरियेहि परिचारयमानो न हेट्ठापासादं ओरोहती’’ति।
पठमभाणवारो।
जिण्णपुरिसो
४३. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो बहूनं वस्सानं बहूनं वस्ससतानं बहूनं वस्ससहस्सानं अच्चयेन सारथिं आमन्तेसि – ‘योजेहि, सम्म सारथि, भद्दानि भद्दानि यानानि उय्यानभूमिं गच्छाम सुभूमिदस्सनाया’ति। ‘एवं, देवा’ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा भद्दानि भद्दानि यानानि योजेत्वा विपस्सिस्स कुमारस्स पटिवेदेसि – ‘युत्तानि खो ते, देव, भद्दानि भद्दानि यानानि, यस्स दानि कालं मञ्ञसी’ति। अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो भद्दं भद्दं यानं [भद्रं यानं (स्या॰), भद्दं यानं (पी॰) चत्तारो मासे (सी॰ पी॰)] अभिरुहित्वा भद्देहि भद्देहि यानेहि उय्यानभूमिं निय्यासि।
४४. ‘‘अद्दसा खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो पुरिसं जिण्णं गोपानसिवङ्कं भोग्गं [भग्गं (स्या॰)] दण्डपरायनं पवेधमानं गच्छन्तं आतुरं गतयोब्बनं। दिस्वा सारथिं आमन्तेसि – ‘अयं पन, सम्म सारथि, पुरिसो किंकतो? केसापिस्स न यथा अञ्ञेसं, कायोपिस्स न यथा अञ्ञेस’न्ति। ‘एसो खो, देव, जिण्णो नामा’ति। ‘किं पनेसो, सम्म सारथि, जिण्णो नामा’ति? ‘एसो खो, देव, जिण्णो नाम। न दानि तेन चिरं जीवितब्बं भविस्सती’ति। ‘किं पन, सम्म सारथि, अहम्पि जराधम्मो, जरं अनतीतो’ति? ‘त्वञ्च, देव, मयञ्चम्ह सब्बे जराधम्मा, जरं अनतीता’ति। ‘तेन हि, सम्म सारथि, अलं दानज्ज उय्यानभूमिया। इतोव अन्तेपुरं पच्चनिय्याही’ति। ‘एवं, देवा’ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा ततोव अन्तेपुरं पच्चनिय्यासि। तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो अन्तेपुरं गतो दुक्खी दुम्मनो पज्झायति – ‘धिरत्थु किर, भो, जाति नाम, यत्र हि नाम जातस्स जरा पञ्ञायिस्सती’ति!
४५. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा सारथिं आमन्तापेत्वा एतदवोच – ‘कच्चि, सम्म सारथि, कुमारो उय्यानभूमिया अभिरमित्थ? कच्चि, सम्म सारथि, कुमारो उय्यानभूमिया अत्तमनो अहोसी’ति? ‘न खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिया अभिरमित्थ, न खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिया अत्तमनो अहोसी’ति। ‘किं पन, सम्म सारथि, अद्दस कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो’ति? ‘अद्दसा खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो पुरिसं जिण्णं गोपानसिवङ्कं भोग्गं दण्डपरायनं पवेधमानं गच्छन्तं आतुरं गतयोब्बनं। दिस्वा मं एतदवोच – ‘‘अयं पन, सम्म सारथि, पुरिसो किंकतो, केसापिस्स न यथा अञ्ञेसं, कायोपिस्स न यथा अञ्ञेस’’न्ति? ‘‘एसो खो, देव, जिण्णो नामा’’ति। ‘‘किं पनेसो, सम्म सारथि, जिण्णो नामा’’ति? ‘‘एसो खो, देव, जिण्णो नाम न दानि तेन चिरं जीवितब्बं भविस्सती’’ति। ‘‘किं पन, सम्म सारथि, अहम्पि जराधम्मो, जरं अनतीतो’’ति? ‘‘त्वञ्च, देव, मयञ्चम्ह सब्बे जराधम्मा, जरं अनतीता’’ति।
‘‘‘तेन हि, सम्म सारथि, अलं दानज्ज उय्यानभूमिया, इतोव अन्तेपुरं पच्चनिय्याही’’’ति। ‘‘एवं, देवा’’ति खो अहं, देव, विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा ततोव अन्तेपुरं पच्चनिय्यासिं। सो खो, देव, कुमारो अन्तेपुरं गतो दुक्खी दुम्मनो पज्झायति – ‘‘धिरत्थु किर भो जाति नाम, यत्र हि नाम जातस्स जरा पञ्ञायिस्सती’’’ति।
ब्याधितपुरिसो
४६. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमस्स रञ्ञो एतदहोसि –
‘मा हेव खो विपस्सी कुमारो न रज्जं कारेसि, मा हेव विपस्सी कुमारो अगारस्मा अनगारियं पब्बजि, मा हेव नेमित्तानं ब्राह्मणानं सच्चं अस्स वचन’न्ति। अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा विपस्सिस्स कुमारस्स भिय्योसोमत्ताय पञ्च कामगुणानि उपट्ठापेसि – ‘यथा विपस्सी कुमारो रज्जं करेय्य, यथा विपस्सी कुमारो न अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य, यथा नेमित्तानं ब्राह्मणानं मिच्छा अस्स वचन’न्ति।
‘‘तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति। अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो बहूनं वस्सानं…पे॰…
४७. ‘‘अद्दसा खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो पुरिसं आबाधिकं दुक्खितं बाळ्हगिलानं सके मुत्तकरीसे पलिपन्नं सेमानं [सयमानं (स्या॰ क॰)] अञ्ञेहि वुट्ठापियमानं अञ्ञेहि संवेसियमानं। दिस्वा सारथिं आमन्तेसि – ‘अयं पन, सम्म सारथि, पुरिसो किंकतो? अक्खीनिपिस्स न यथा अञ्ञेसं, सरोपिस्स [सिरोपिस्स (स्या॰)] न यथा अञ्ञेस’न्ति? ‘एसो खो, देव, ब्याधितो नामा’ति। ‘किं पनेसो, सम्म सारथि, ब्याधितो नामा’ति? ‘एसो खो, देव, ब्याधितो नाम अप्पेव नाम तम्हा आबाधा वुट्ठहेय्या’ति। ‘किं पन, सम्म सारथि, अहम्पि ब्याधिधम्मो, ब्याधिं अनतीतो’ति? ‘त्वञ्च, देव, मयञ्चम्ह सब्बे ब्याधिधम्मा, ब्याधिं अनतीता’ति। ‘तेन हि, सम्म सारथि, अलं दानज्ज उय्यानभूमिया, इतोव अन्तेपुरं पच्चनिय्याही’ति। ‘एवं देवा’ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा ततोव अन्तेपुरं पच्चनिय्यासि। तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो अन्तेपुरं गतो दुक्खी दुम्मनो पज्झायति – ‘धिरत्थु किर भो जाति नाम, यत्र हि नाम जातस्स जरा पञ्ञायिस्सति, ब्याधि पञ्ञायिस्सती’ति।
४८. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा सारथिं आमन्तापेत्वा एतदवोच – ‘कच्चि, सम्म सारथि, कुमारो उय्यानभूमिया अभिरमित्थ, कच्चि, सम्म सारथि, कुमारो उय्यानभूमिया अत्तमनो अहोसी’ति? ‘न खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिया अभिरमित्थ, न खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिया अत्तमनो अहोसी’ति। ‘किं पन, सम्म सारथि, अद्दस कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो’ति? ‘अद्दसा खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो पुरिसं आबाधिकं दुक्खितं बाळ्हगिलानं सके मुत्तकरीसे पलिपन्नं सेमानं अञ्ञेहि वुट्ठापियमानं अञ्ञेहि संवेसियमानं। दिस्वा मं एतदवोच – ‘‘अयं पन, सम्म सारथि, पुरिसो किंकतो, अक्खीनिपिस्स न यथा अञ्ञेसं, सरोपिस्स न यथा अञ्ञेस’’न्ति? ‘‘एसो खो, देव, ब्याधितो नामा’’ति। ‘‘किं पनेसो, सम्म सारथि, ब्याधितो नामा’’ति? ‘‘एसो खो, देव, ब्याधितो नाम अप्पेव नाम तम्हा आबाधा वुट्ठहेय्या’’ति। ‘‘किं पन, सम्म सारथि, अहम्पि ब्याधिधम्मो, ब्याधिं अनतीतो’’ति? ‘‘त्वञ्च, देव, मयञ्चम्ह सब्बे ब्याधिधम्मा, ब्याधिं अनतीता’’ति। ‘‘तेन हि, सम्म सारथि, अलं दानज्ज उय्यानभूमिया, इतोव अन्तेपुरं पच्चनिय्याही’’ति। ‘‘एवं, देवा’’ति खो अहं, देव, विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा ततोव अन्तेपुरं पच्चनिय्यासिं। सो खो, देव, कुमारो अन्तेपुरं गतो दुक्खी दुम्मनो पज्झायति – ‘‘‘धिरत्थु किर भो जाति नाम, यत्र हि नाम जातस्स जरा पञ्ञायिस्सति, ब्याधि पञ्ञायिस्सती’’’ति।
कालङ्कतपुरिसो
४९. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमस्स रञ्ञो एतदहोसि – ‘मा हेव खो विपस्सी कुमारो न रज्जं कारेसि, मा हेव विपस्सी कुमारो अगारस्मा अनगारियं पब्बजि, मा हेव नेमित्तानं ब्राह्मणानं सच्चं अस्स वचन’न्ति। अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा विपस्सिस्स कुमारस्स भिय्योसोमत्ताय पञ्च कामगुणानि उपट्ठापेसि – ‘यथा विपस्सी कुमारो रज्जं करेय्य, यथा विपस्सी कुमारो न अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य, यथा नेमित्तानं ब्राह्मणानं मिच्छा अस्स वचन’न्ति।
‘‘तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति। अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो बहूनं वस्सानं…पे॰…
५०. ‘‘अद्दसा खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो महाजनकायं सन्निपतितं नानारत्तानञ्च दुस्सानं विलातं कयिरमानं। दिस्वा सारथिं आमन्तेसि – ‘किं नु खो, सो, सम्म सारथि, महाजनकायो सन्निपतितो नानारत्तानञ्च दुस्सानं विलातं कयिरती’ति? ‘एसो खो, देव, कालङ्कतो नामा’ति। ‘तेन हि, सम्म सारथि, येन सो कालङ्कतो तेन रथं पेसेही’ति। ‘एवं, देवा’ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा येन सो कालङ्कतो तेन रथं पेसेसि। अद्दसा खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो पेतं कालङ्कतं, दिस्वा सारथिं आमन्तेसि – ‘किं पनायं, सम्म सारथि, कालङ्कतो नामा’ति? ‘एसो खो, देव, कालङ्कतो नाम। न दानि तं दक्खन्ति माता वा पिता वा अञ्ञे वा ञातिसालोहिता, सोपि न दक्खिस्सति मातरं वा पितरं वा अञ्ञे वा ञातिसालोहिते’ति। ‘किं पन, सम्म सारथि, अहम्पि मरणधम्मो मरणं अनतीतो; मम्पि न दक्खन्ति देवो वा देवी वा अञ्ञे वा ञातिसालोहिता; अहम्पि न दक्खिस्सामि देवं वा देविं वा अञ्ञे वा ञातिसालोहिते’ति? ‘त्वञ्च, देव, मयञ्चम्ह सब्बे मरणधम्मा मरणं अनतीता; तम्पि न दक्खन्ति देवो वा देवी वा अञ्ञे वा ञातिसालोहिता; त्वम्पि न दक्खिस्ससि देवं वा देविं वा अञ्ञे वा ञातिसालोहिते’ति। ‘तेन हि, सम्म सारथि, अलं दानज्ज उय्यानभूमिया, इतोव अन्तेपुरं पच्चनिय्याही’ति। ‘एवं, देवा’ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा ततोव अन्तेपुरं पच्चनिय्यासि। तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो अन्तेपुरं गतो दुक्खी दुम्मनो पज्झायति – ‘धिरत्थु किर, भो, जाति नाम, यत्र हि नाम जातस्स जरा पञ्ञायिस्सति, ब्याधि पञ्ञायिस्सति, मरणं पञ्ञायिस्सती’ति।
५१. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा सारथिं आमन्तापेत्वा एतदवोच – ‘कच्चि, सम्म सारथि, कुमारो उय्यानभूमिया अभिरमित्थ, कच्चि, सम्म सारथि, कुमारो उय्यानभूमिया अत्तमनो अहोसी’ति? ‘न खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिया अभिरमित्थ, न खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिया अत्तमनो अहोसी’ति। ‘किं पन, सम्म सारथि, अद्दस कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो’ति? ‘अद्दसा खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो महाजनकायं सन्निपतितं नानारत्तानञ्च दुस्सानं विलातं कयिरमानं। दिस्वा मं एतदवोच – ‘‘किं नु खो, सो, सम्म सारथि, महाजनकायो सन्निपतितो नानारत्तानञ्च दुस्सानं विलातं कयिरती’’ति? ‘‘एसो खो, देव, कालङ्कतो नामा’’ति। ‘‘तेन हि, सम्म सारथि, येन सो कालङ्कतो तेन रथं पेसेही’’ति। ‘‘एवं देवा’’ति खो अहं, देव, विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा येन सो कालङ्कतो तेन रथं पेसेसिं। अद्दसा खो, देव, कुमारो पेतं कालङ्कतं, दिस्वा मं एतदवोच – ‘‘किं पनायं, सम्म सारथि, कालङ्कतो नामा’’ति? ‘‘एसो खो, देव, कालङ्कतो नाम। न दानि तं दक्खन्ति माता वा पिता वा अञ्ञे वा ञातिसालोहिता, सोपि न दक्खिस्सति मातरं वा पितरं वा अञ्ञे वा ञातिसालोहिते’’ति। ‘‘किं पन, सम्म सारथि, अहम्पि मरणधम्मो मरणं अनतीतो; मम्पि न दक्खन्ति देवो वा देवी वा अञ्ञे वा ञातिसालोहिता; अहम्पि न दक्खिस्सामि देवं वा देविं वा अञ्ञे वा ञातिसालोहिते’’ति? ‘‘त्वञ्च, देव, मयञ्चम्ह सब्बे मरणधम्मा मरणं अनतीता; तम्पि न दक्खन्ति देवो वा देवी वा अञ्ञे वा ञातिसालोहिता, त्वम्पि न दक्खिस्ससि देवं वा देविं वा अञ्ञे वा ञातिसालोहिते’’ति। ‘‘तेन हि, सम्म सारथि, अलं दानज्ज उय्यानभूमिया, इतोव अन्तेपुरं पच्चनिय्याही’ति। ‘‘‘एवं, देवा’’ति खो अहं, देव, विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा ततोव अन्तेपुरं पच्चनिय्यासिं। सो खो, देव, कुमारो अन्तेपुरं गतो दुक्खी दुम्मनो पज्झायति – ‘‘धिरत्थु किर भो जाति नाम, यत्र हि नाम जातस्स जरा पञ्ञायिस्सति, ब्याधि पञ्ञायिस्सति, मरणं पञ्ञायिस्सती’’’ति।
पब्बजितो
५२. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमस्स रञ्ञो एतदहोसि – ‘मा हेव खो विपस्सी कुमारो न रज्जं कारेसि, मा हेव विपस्सी कुमारो अगारस्मा अनगारियं पब्बजि, मा हेव नेमित्तानं ब्राह्मणानं सच्चं अस्स वचन’न्ति। अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा विपस्सिस्स कुमारस्स भिय्योसोमत्ताय पञ्च कामगुणानि उपट्ठापेसि – ‘यथा विपस्सी कुमारो रज्जं करेय्य, यथा विपस्सी कुमारो न अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य, यथा नेमित्तानं ब्राह्मणानं मिच्छा अस्स वचन’न्ति।
‘‘तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति। अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो बहूनं वस्सानं बहूनं वस्ससतानं बहूनं वस्ससहस्सानं अच्चयेन सारथिं आमन्तेसि – ‘योजेहि, सम्म सारथि, भद्दानि भद्दानि यानानि, उय्यानभूमिं गच्छाम सुभूमिदस्सनाया’ति। ‘एवं, देवा’ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा भद्दानि भद्दानि यानानि योजेत्वा विपस्सिस्स कुमारस्स पटिवेदेसि – ‘युत्तानि खो ते, देव, भद्दानि भद्दानि यानानि, यस्स दानि कालं मञ्ञसी’ति। अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो भद्दं भद्दं यानं अभिरुहित्वा भद्देहि भद्देहि यानेहि उय्यानभूमिं निय्यासि।
५३. ‘‘अद्दसा खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो पुरिसं भण्डुं पब्बजितं कासायवसनं। दिस्वा सारथिं आमन्तेसि – ‘अयं पन, सम्म सारथि, पुरिसो किंकतो? सीसंपिस्स न यथा अञ्ञेसं, वत्थानिपिस्स न यथा अञ्ञेस’न्ति? ‘एसो खो, देव, पब्बजितो नामा’ति। ‘किं पनेसो, सम्म सारथि, पब्बजितो नामा’ति? ‘एसो खो, देव, पब्बजितो नाम साधु धम्मचरिया साधु समचरिया [सम्मचरिया (क॰)] साधु कुसलकिरिया [कुसलचरिया (स्या॰)] साधु पुञ्ञकिरिया साधु अविहिंसा साधु भूतानुकम्पा’ति। ‘साधु खो सो, सम्म सारथि, पब्बजितो नाम, साधु धम्मचरिया साधु समचरिया साधु कुसलकिरिया साधु पुञ्ञकिरिया साधु अविहिंसा साधु भूतानुकम्पा। तेन हि, सम्म सारथि, येन सो पब्बजितो तेन रथं पेसेही’ति। ‘एवं, देवा’ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा येन सो पब्बजितो तेन रथं पेसेसि। अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो तं पब्बजितं एतदवोच – ‘त्वं पन, सम्म, किंकतो, सीसम्पि ते न यथा अञ्ञेसं, वत्थानिपि ते न यथा अञ्ञेस’न्ति? ‘अहं खो, देव, पब्बजितो नामा’ति। ‘किं पन त्वं, सम्म, पब्बजितो नामा’ति? ‘अहं खो, देव, पब्बजितो नाम, साधु धम्मचरिया साधु समचरिया साधु कुसलकिरिया साधु पुञ्ञकिरिया साधु अविहिंसा साधु भूतानुकम्पा’ति। ‘साधु खो त्वं, सम्म, पब्बजितो नाम साधु धम्मचरिया साधु समचरिया साधु कुसलकिरिया साधु पुञ्ञकिरिया साधु अविहिंसा साधु भूतानुकम्पा’ति।
बोधिसत्तपब्बज्जा
५४. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो सारथिं आमन्तेसि – ‘तेन हि, सम्म सारथि, रथं आदाय इतोव अन्तेपुरं पच्चनिय्याहि। अहं पन इधेव केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामी’ति। ‘एवं, देवा’ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा रथं आदाय ततोव अन्तेपुरं पच्चनिय्यासि। विपस्सी पन कुमारो तत्थेव केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजि।
महाजनकायअनुपब्बज्जा
५५. ‘‘अस्सोसि खो, भिक्खवे, बन्धुमतिया राजधानिया महाजनकायो चतुरासीति पाणसहस्सानि – ‘विपस्सी किर कुमारो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो’ति। सुत्वान तेसं एतदहोसि – ‘न हि नून सो ओरको धम्मविनयो, न सा ओरका [ओरिका (सी॰ स्या॰)] पब्बज्जा, यत्थ विपस्सी कुमारो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो। विपस्सीपि नाम कुमारो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सति, किमङ्गं [किमङ्ग (सी॰)] पन मय’न्ति।
‘‘अथ खो, सो भिक्खवे, महाजनकायो [महाजनकायो (स्या॰)] चतुरासीति पाणसहस्सानि केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा विपस्सिं बोधिसत्तं अगारस्मा अनगारियं पब्बजितं अनुपब्बजिंसु। ताय सुदं, भिक्खवे, परिसाय परिवुतो विपस्सी बोधिसत्तो गामनिगमजनपदराजधानीसु चारिकं चरति।
५६. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि – ‘न खो मेतं [न खो पनेतं (स्या॰)] पतिरूपं योहं आकिण्णो विहरामि, यंनूनाहं एको गणम्हा वूपकट्ठो विहरेय्य’न्ति। अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी बोधिसत्तो अपरेन समयेन एको गणम्हा वूपकट्ठो विहासि, अञ्ञेनेव तानि चतुरासीति पब्बजितसहस्सानि अगमंसु, अञ्ञेन मग्गेन विपस्सी बोधिसत्तो।
बोधिसत्तअभिनिवेसो
५७. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स वासूपगतस्स रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि – ‘किच्छं वतायं लोको आपन्नो, जायति च जीयति च मीयति च [जिय्यति च मिय्यति च (क॰)] चवति च उपपज्जति च, अथ च पनिमस्स दुक्खस्स निस्सरणं नप्पजानाति जरामरणस्स, कुदास्सु नाम इमस्स दुक्खस्स निस्सरणं पञ्ञायिस्सति जरामरणस्सा’ति?
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो सति जरामरणं होति, किंपच्चया जरामरण’न्ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘जातिया खो सति जरामरणं होति, जातिपच्चया जरामरण’न्ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो सति जाति होति, किंपच्चया जाती’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘भवे खो सति जाति होति, भवपच्चया जाती’ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो सति भवो होति, किंपच्चया भवो’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘उपादाने खो सति भवो होति, उपादानपच्चया भवो’ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो सति उपादानं होति, किंपच्चया उपादान’न्ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘तण्हाय खो सति उपादानं होति, तण्हापच्चया उपादान’न्ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो सति तण्हा होति, किंपच्चया तण्हा’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘वेदनाय खो सति तण्हा होति, वेदनापच्चया तण्हा’ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो सति वेदना होति, किंपच्चया वेदना’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘फस्से खो सति वेदना होति, फस्सपच्चया वेदना’ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो सति फस्सो होति, किंपच्चया फस्सो’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘सळायतने खो सति फस्सो होति, सळायतनपच्चया फस्सो’ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो सति सळायतनं होति, किंपच्चया सळायतन’न्ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘नामरूपे खो सति सळायतनं होति, नामरूपपच्चया सळायतन’न्ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो सति नामरूपं होति, किंपच्चया नामरूप’न्ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘विञ्ञाणे खो सति नामरूपं होति, विञ्ञाणपच्चया नामरूप’न्ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो सति विञ्ञाणं होति, किंपच्चया विञ्ञाण’न्ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘नामरूपे खो सति विञ्ञाणं होति, नामरूपपच्चया विञ्ञाण’न्ति।
५८. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘पच्चुदावत्तति खो इदं विञ्ञाणं नामरूपम्हा, नापरं गच्छति। एत्तावता जायेथ वा जिय्येथ वा मिय्येथ वा चवेथ वा उपपज्जेथ वा, यदिदं नामरूपपच्चया विञ्ञाणं, विञ्ञाणपच्चया नामरूपं, नामरूपपच्चया सळायतनं, सळायतनपच्चया फस्सो, फस्सपच्चया वेदना, वेदनापच्चया तण्हा, तण्हापच्चया उपादानं, उपादानपच्चया भवो, भवपच्चया जाति, जातिपच्चया जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा सम्भवन्ति। एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होति’।
५९. ‘‘‘समुदयो समुदयो’ति खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि।
६०. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो असति जरामरणं न होति, किस्स निरोधा जरामरणनिरोधो’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘जातिया खो असति जरामरणं न होति, जातिनिरोधा जरामरणनिरोधो’ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो असति जाति न होति, किस्स निरोधा जातिनिरोधो’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘भवे खो असति जाति न होति, भवनिरोधा जातिनिरोधो’ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो असति भवो न होति, किस्स निरोधा भवनिरोधो’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘उपादाने खो असति भवो न होति, उपादाननिरोधा भवनिरोधो’ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो असति उपादानं न होति, किस्स निरोधा उपादाननिरोधो’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘तण्हाय खो असति उपादानं न होति, तण्हानिरोधा उपादाननिरोधो’ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो असति तण्हा न होति, किस्स निरोधा तण्हानिरोधो’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘वेदनाय खो असति तण्हा न होति, वेदनानिरोधा तण्हानिरोधो’ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो असति वेदना न होति, किस्स निरोधा वेदनानिरोधो’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘फस्से खो असति वेदना न होति, फस्सनिरोधा वेदनानिरोधो’ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो असति फस्सो न होति, किस्स निरोधा फस्सनिरोधो’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘सळायतने खो असति फस्सो न होति, सळायतननिरोधा फस्सनिरोधो’ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो असति सळायतनं न होति, किस्स निरोधा सळायतननिरोधो’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘नामरूपे खो असति सळायतनं न होति, नामरूपनिरोधा सळायतननिरोधो’ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो असति नामरूपं न होति, किस्स निरोधा नामरूपनिरोधो’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘विञ्ञाणे खो असति नामरूपं न होति, विञ्ञाणनिरोधा नामरूपनिरोधो’ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘किम्हि नु खो असति विञ्ञाणं न होति, किस्स निरोधा विञ्ञाणनिरोधो’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो – ‘नामरूपे खो असति विञ्ञाणं न होति, नामरूपनिरोधा विञ्ञाणनिरोधो’ति।
६१. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि – ‘अधिगतो खो म्यायं मग्गो सम्बोधाय यदिदं – नामरूपनिरोधा विञ्ञाणनिरोधो, विञ्ञाणनिरोधा नामरूपनिरोधो, नामरूपनिरोधा सळायतननिरोधो, सळायतननिरोधा फस्सनिरोधो, फस्सनिरोधा वेदनानिरोधो, वेदनानिरोधा तण्हानिरोधो, तण्हानिरोधा उपादाननिरोधो, उपादाननिरोधा भवनिरोधो, भवनिरोधा जातिनिरोधो, जातिनिरोधा जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा निरुज्झन्ति। एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स निरोधो होति’।
६२. ‘‘‘निरोधो निरोधो’ति खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि।
६३. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी बोधिसत्तो अपरेन समयेन पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु उदयब्बयानुपस्सी विहासि – ‘इति रूपं, इति रूपस्स समुदयो, इति रूपस्स अत्थङ्गमो; इति वेदना, इति वेदनाय समुदयो, इति वेदनाय अत्थङ्गमो; इति सञ्ञा, इति सञ्ञाय समुदयो, इति सञ्ञाय अत्थङ्गमो; इति सङ्खारा, इति सङ्खारानं समुदयो, इति सङ्खारानं अत्थङ्गमो; इति विञ्ञाणं, इति विञ्ञाणस्स समुदयो, इति विञ्ञाणस्स अत्थङ्गमो’ति, तस्स पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु उदयब्बयानुपस्सिनो विहरतो न चिरस्सेव अनुपादाय आसवेहि चित्तं विमुच्ची’’ति।
दुतियभाणवारो।
ब्रह्मयाचनकथा
६४. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एतदहोसि – ‘यंनूनाहं धम्मं देसेय्य’न्ति। अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एतदहोसि – ‘अधिगतो खो म्यायं धम्मो गम्भीरो दुद्दसो दुरनुबोधो सन्तो पणीतो अतक्कावचरो निपुणो पण्डितवेदनीयो। आलयरामा खो पनायं पजा आलयरता आलयसम्मुदिता। आलयरामाय खो पन पजाय आलयरताय आलयसम्मुदिताय दुद्दसं इदं ठानं यदिदं इदप्पच्चयतापटिच्चसमुप्पादो। इदम्पि खो ठानं दुद्दसं यदिदं सब्बसङ्खारसमथो सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो तण्हाक्खयो विरागो निरोधो निब्बानं। अहञ्चेव खो पन धम्मं देसेय्यं, परे च मे न आजानेय्युं; सो ममस्स किलमथो, सा ममस्स विहेसा’ति।
६५. ‘‘अपिस्सु, भिक्खवे, विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं इमा अनच्छरिया गाथायो पटिभंसु पुब्बे अस्सुतपुब्बा –
‘किच्छेन मे अधिगतं, हलं दानि पकासितुं।
रागदोसपरेतेहि, नायं धम्मो सुसम्बुधो॥
‘पटिसोतगामिं निपुणं, गम्भीरं दुद्दसं अणुं।
रागरत्ता न दक्खन्ति, तमोखन्धेन आवुटा’ति॥
‘‘इतिह, भिक्खवे, विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स पटिसञ्चिक्खतो अप्पोस्सुक्कताय चित्तं नमि, नो धम्मदेसनाय।
६६. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, अञ्ञतरस्स महाब्रह्मुनो विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्ञाय एतदहोसि – ‘नस्सति वत भो लोको, विनस्सति वत भो लोको, यत्र हि नाम विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अप्पोस्सुक्कताय चित्तं नमति [नमि (स्या॰ क॰), नमिस्सति (?)], नो धम्मदेसनाया’ति। अथ खो सो, भिक्खवे, महाब्रह्मा सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य; एवमेव ब्रह्मलोके अन्तरहितो विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स पुरतो पातुरहोसि। अथ खो सो, भिक्खवे, महाब्रह्मा एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा दक्खिणं जाणुमण्डलं पथवियं निहन्त्वा [निदहन्तो (स्या॰)] येन विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तेनञ्जलिं पणामेत्वा विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोच – ‘देसेतु, भन्ते, भगवा धम्मं, देसेतु सुगतो धम्मं, सन्ति [सन्ती (स्या॰)] सत्ता अप्परजक्खजातिका; अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अञ्ञातारो’ति।
६७. ‘‘एवं वुत्ते [अथ खो (क॰)], भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तं महाब्रह्मानं एतदवोच – ‘मय्हम्पि खो, ब्रह्मे, एतदहोसि – ‘‘यंनूनाहं धम्मं देसेय्य’’न्ति। तस्स मय्हं, ब्रह्मे, एतदहोसि – ‘‘अधिगतो खो म्यायं धम्मो गम्भीरो दुद्दसो दुरनुबोधो सन्तो पणीतो अतक्कावचरो निपुणो पण्डितवेदनीयो। आलयरामा खो पनायं पजा आलयरता आलयसम्मुदिता। आलयरामाय खो पन पजाय आलयरताय आलयसम्मुदिताय दुद्दसं इदं ठानं यदिदं इदप्पच्चयतापटिच्चसमुप्पादो। इदम्पि खो ठानं दुद्दसं यदिदं सब्बसङ्खारसमथो सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो तण्हाक्खयो विरागो निरोधो निब्बानं। अहञ्चेव खो पन धम्मं देसेय्यं, परे च मे न आजानेय्युं; सो ममस्स किलमथो, सा ममस्स विहेसा’’ति। अपिस्सु मं, ब्रह्मे, इमा अनच्छरिया गाथायो पटिभंसु पुब्बे अस्सुतपुब्बा –
‘‘किच्छेन मे अधिगतं, हलं दानि पकासितुं।
रागदोसपरेतेहि, नायं धम्मो सुसम्बुधो॥
‘‘पटिसोतगामिं निपुणं, गम्भीरं दुद्दसं अणुं।
रागरत्ता न दक्खन्ति, तमोखन्धेन आवुटा’’ति॥
‘इतिह मे, ब्रह्मे, पटिसञ्चिक्खतो अप्पोस्सुक्कताय चित्तं नमि, नो धम्मदेसनाया’ति।
६८. ‘‘दुतियम्पि खो, भिक्खवे, सो महाब्रह्मा…पे॰… ततियम्पि खो, भिक्खवे, सो महाब्रह्मा विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोच – ‘देसेतु, भन्ते, भगवा धम्मं, देसेतु सुगतो धम्मं, सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अञ्ञातारो’ति।
६९. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो ब्रह्मुनो च अज्झेसनं विदित्वा सत्तेसु च कारुञ्ञतं पटिच्च बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेसि। अद्दसा खो, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेन्तो सत्ते अप्परजक्खे महारजक्खे तिक्खिन्द्रिये मुदिन्द्रिये स्वाकारे द्वाकारे सुविञ्ञापये दुविञ्ञापये [दुविञ्ञापये भब्बे अभब्बे (स्या॰)] अप्पेकच्चे परलोकवज्जभयदस्साविने [दस्साविनो (सी॰ स्या॰ कं॰ क॰)] विहरन्ते, अप्पेकच्चे न परलोकवज्जभयदस्साविने [दस्साविनो (सी॰ स्या॰ कं॰ क॰)] विहरन्ते। सेय्यथापि नाम उप्पलिनियं वा पदुमिनियं वा पुण्डरीकिनियं वा अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि उदकानुग्गतानि अन्तो निमुग्गपोसीनि। अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि समोदकं ठितानि। अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि उदका अच्चुग्गम्म ठितानि अनुपलित्तानि उदकेन। एवमेव खो, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेन्तो अद्दस सत्ते अप्परजक्खे महारजक्खे तिक्खिन्द्रिये मुदिन्द्रिये स्वाकारे द्वाकारे सुविञ्ञापये दुविञ्ञापये अप्पेकच्चे परलोकवज्जभयदस्साविने विहरन्ते, अप्पेकच्चे न परलोकवज्जभयदस्साविने विहरन्ते।
७०. ‘‘अथ खो सो, भिक्खवे, महाब्रह्मा विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्ञाय विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं गाथाहि अज्झभासि –
‘सेले यथा पब्बतमुद्धनिट्ठितो, यथापि पस्से जनतं समन्ततो।
तथूपमं धम्ममयं सुमेध, पासादमारुय्ह समन्तचक्खु॥
‘सोकावतिण्णं [सोकावकिण्णं (स्या॰)] जनतमपेतसोको,
अवेक्खस्सु जातिजराभिभूतं।
उट्ठेहि वीर विजितसङ्गाम,
सत्थवाह अणण विचर लोके॥
देसस्सु [देसेतु (स्या॰ पी॰)] भगवा धम्मं,
अञ्ञातारो भविस्सन्ती’ति॥
७१. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तं महाब्रह्मानं गाथाय अज्झभासि –
‘अपारुता तेसं अमतस्स द्वारा,
ये सोतवन्तो पमुञ्चन्तु सद्धं।
विहिंससञ्ञी पगुणं न भासिं,
धम्मं पणीतं मनुजेसु ब्रह्मे’ति॥
‘‘अथ खो सो, भिक्खवे, महाब्रह्मा ‘कतावकासो खोम्हि विपस्सिना भगवता अरहता सम्मासम्बुद्धेन धम्मदेसनाया’ति विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेव अन्तरधायि।
अग्गसावकयुगं
७२. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एतदहोसि – ‘कस्स नु खो अहं पठमं धम्मं देसेय्यं, को इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एतदहोसि – ‘अयं खो खण्डो च राजपुत्तो तिस्सो च पुरोहितपुत्तो बन्धुमतिया राजधानिया पटिवसन्ति पण्डिता वियत्ता मेधाविनो दीघरत्तं अप्परजक्खजातिका। यंनूनाहं खण्डस्स च राजपुत्तस्स, तिस्सस्स च पुरोहितपुत्तस्स पठमं धम्मं देसेय्यं, ते इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सन्ती’ति।
७३. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य; एवमेव बोधिरुक्खमूले अन्तरहितो बन्धुमतिया राजधानिया खेमे मिगदाये पातुरहोसि। अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो दायपालं [मिगदायपालं (स्या॰)] आमन्तेसि – ‘एहि त्वं, सम्म दायपाल, बन्धुमतिं राजधानिं पविसित्वा खण्डञ्च राजपुत्तं तिस्सञ्च पुरोहितपुत्तं एवं वदेहि – विपस्सी, भन्ते, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बन्धुमतिं राजधानिं अनुप्पत्तो खेमे मिगदाये विहरति, सो तुम्हाकं दस्सनकामो’ति। ‘एवं, भन्ते’ति खो, भिक्खवे, दायपालो विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स पटिस्सुत्वा बन्धुमतिं राजधानिं पविसित्वा खण्डञ्च राजपुत्तं तिस्सञ्च पुरोहितपुत्तं एतदवोच – ‘विपस्सी, भन्ते, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बन्धुमतिं राजधानिं अनुप्पत्तो खेमे मिगदाये विहरति; सो तुम्हाकं दस्सनकामो’ति।
७४. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, खण्डो च राजपुत्तो तिस्सो च पुरोहितपुत्तो भद्दानि भद्दानि यानानि योजापेत्वा भद्दं भद्दं यानं अभिरुहित्वा भद्देहि भद्देहि यानेहि बन्धुमतिया राजधानिया निय्यिंसु। येन खेमो मिगदायो तेन पायिंसु। यावतिका यानस्स भूमि, यानेन गन्त्वा याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकाव [पदिकाव (स्या॰)] येन विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तेनुपसङ्कमिंसु। उपसङ्कमित्वा विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु।
७५. ‘‘तेसं विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो अनुपुब्बिं कथं [आनुपुब्बिकथं (सी॰ पी॰)] कथेसि, सेय्यथिदं – दानकथं सीलकथं सग्गकथं कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि। यदा ते भगवा अञ्ञासि कल्लचित्ते मुदुचित्ते विनीवरणचित्ते उदग्गचित्ते पसन्नचित्ते, अथ या बुद्धानं सामुक्कंसिका धम्मदेसना, तं पकासेसि – दुक्खं समुदयं निरोधं मग्गं। सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य, एवमेव खण्डस्स च राजपुत्तस्स तिस्सस्स च पुरोहितपुत्तस्स तस्मिंयेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – ‘यं किञ्चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्म’न्ति।
७६. ‘‘ते दिट्ठधम्मा पत्तधम्मा विदितधम्मा परियोगाळ्हधम्मा तिण्णविचिकिच्छा विगतकथंकथा वेसारज्जप्पत्ता अपरप्पच्चया सत्थुसासने विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोचुं – ‘अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते। सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य ‘‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’’ति। एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एते मयं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छाम धम्मञ्च। लभेय्याम मयं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, लभेय्याम उपसम्पद’न्ति।
७७. ‘‘अलत्थुं खो, भिक्खवे, खण्डो च राजपुत्तो, तिस्सो च पुरोहितपुत्तो विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सन्तिके पब्बज्जं अलत्थुं उपसम्पदं। ते विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि; सङ्खारानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं निब्बाने [नेक्खम्मे (स्या॰)] आनिसंसं पकासेसि। तेसं विपस्सिना भगवता अरहता सम्मासम्बुद्धेन धम्मिया कथाय सन्दस्सियमानानं समादपियमानानं समुत्तेजियमानानं सम्पहंसियमानानं नचिरस्सेव अनुपादाय आसवेहि चित्तानि विमुच्चिंसु।
महाजनकायपब्बज्जा
७८. ‘‘अस्सोसि खो, भिक्खवे, बन्धुमतिया राजधानिया महाजनकायो चतुरासीतिपाणसहस्सानि – ‘विपस्सी किर भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बन्धुमतिं राजधानिं अनुप्पत्तो खेमे मिगदाये विहरति। खण्डो च किर राजपुत्तो तिस्सो च पुरोहितपुत्तो विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सन्तिके केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता’ति। सुत्वान नेसं एतदहोसि – ‘न हि नून सो ओरको धम्मविनयो, न सा ओरका पब्बज्जा, यत्थ खण्डो च राजपुत्तो तिस्सो च पुरोहितपुत्तो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता। खण्डो च राजपुत्तो तिस्सो च पुरोहितपुत्तो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सन्ति, किमङ्गं पन मय’न्ति। अथ खो सो, भिक्खवे, महाजनकायो चतुरासीतिपाणसहस्सानि बन्धुमतिया राजधानिया निक्खमित्वा येन खेमो मिगदायो येन विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु।
७९. ‘‘तेसं विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो अनुपुब्बिं कथं कथेसि। सेय्यथिदं – दानकथं सीलकथं सग्गकथं कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि। यदा ते भगवा अञ्ञासि कल्लचित्ते मुदुचित्ते विनीवरणचित्ते उदग्गचित्ते पसन्नचित्ते, अथ या बुद्धानं सामुक्कंसिका धम्मदेसना, तं पकासेसि – दुक्खं समुदयं निरोधं मग्गं। सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य, एवमेव तेसं चतुरासीतिपाणसहस्सानं तस्मिंयेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – ‘यं किञ्चि समुदयधम्मं सब्बं तं निरोधधम्म’न्ति।
८०. ‘‘ते दिट्ठधम्मा पत्तधम्मा विदितधम्मा परियोगाळ्हधम्मा तिण्णविचिकिच्छा विगतकथंकथा वेसारज्जप्पत्ता अपरप्पच्चया सत्थुसासने विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोचुं – ‘अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते। सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य ‘‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’’ति। एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एते मयं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छाम धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च [( ) नत्थि अट्ठकथायं, पाळियं पन सब्बत्थपि दिस्सति]। लभेय्याम मयं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्जं लभेय्याम उपसम्पद’’न्ति।
८१. ‘‘अलत्थुं खो, भिक्खवे, तानि चतुरासीतिपाणसहस्सानि विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सन्तिके पब्बज्जं, अलत्थुं उपसम्पदं। ते विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि; सङ्खारानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं निब्बाने आनिसंसं पकासेसि। तेसं विपस्सिना भगवता अरहता सम्मासम्बुद्धेन धम्मिया कथाय सन्दस्सियमानानं समादपियमानानं समुत्तेजियमानानं सम्पहंसियमानानं नचिरस्सेव अनुपादाय आसवेहि चित्तानि विमुच्चिंसु।
पुरिमपब्बजितानं धम्माभिसमयो
८२. ‘‘अस्सोसुं खो, भिक्खवे, तानि पुरिमानि चतुरासीतिपब्बजितसहस्सानि – ‘विपस्सी किर भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बन्धुमतिं राजधानिं अनुप्पत्तो खेमे मिगदाये विहरति, धम्मञ्च किर देसेती’ति। अथ खो, भिक्खवे, तानि चतुरासीतिपब्बजितसहस्सानि येन बन्धुमती राजधानी येन खेमो मिगदायो येन विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु।
८३. ‘‘तेसं विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो अनुपुब्बिं कथं कथेसि। सेय्यथिदं – दानकथं सीलकथं सग्गकथं कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि। यदा ते भगवा अञ्ञासि कल्लचित्ते मुदुचित्ते विनीवरणचित्ते उदग्गचित्ते पसन्नचित्ते, अथ या बुद्धानं सामुक्कंसिका धम्मदेसना, तं पकासेसि – दुक्खं समुदयं निरोधं मग्गं। सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य, एवमेव तेसं चतुरासीतिपब्बजितसहस्सानं तस्मिंयेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – ‘यं किञ्चि समुदयधम्मं सब्बं तं निरोधधम्म’न्ति।
८४. ‘‘ते दिट्ठधम्मा पत्तधम्मा विदितधम्मा परियोगाळ्हधम्मा तिण्णविचिकिच्छा विगतकथंकथा वेसारज्जप्पत्ता अपरप्पच्चया सत्थुसासने विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोचुं – ‘अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते। सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य ‘‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’’ति। एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एते मयं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छाम धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च। लभेय्याम मयं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्जं लभेय्याम उपसम्पद’’न्ति।
८५. ‘‘अलत्थुं खो, भिक्खवे, तानि चतुरासीतिपब्बजितसहस्सानि विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सन्तिके पब्बज्जं अलत्थुं उपसम्पदं। ते विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि; सङ्खारानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं निब्बाने आनिसंसं पकासेसि। तेसं विपस्सिना भगवता अरहता सम्मासम्बुद्धेन धम्मिया कथाय सन्दस्सियमानानं समादपियमानानं समुत्तेजियमानानं सम्पहंसियमानानं नचिरस्सेव अनुपादाय आसवेहि चित्तानि विमुच्चिंसु।
चारिकाअनुजाननं
८६. ‘‘तेन खो पन, भिक्खवे, समयेन बन्धुमतिया राजधानिया महाभिक्खुसङ्घो पटिवसति अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं। अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि – ‘महा खो एतरहि भिक्खुसङ्घो बन्धुमतिया राजधानिया पटिवसति अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं, यंनूनाहं भिक्खू अनुजानेय्यं – ‘चरथ, भिक्खवे, चारिकं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं; मा एकेन द्वे अगमित्थ; देसेथ, भिक्खवे, धम्मं आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेथ। सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अञ्ञातारो। अपि च छन्नं छन्नं वस्सानं अच्चयेन बन्धुमती राजधानी उपसङ्कमितब्बा पातिमोक्खुद्देसाया’’’ति।
८७. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, अञ्ञतरो महाब्रह्मा विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्ञाय सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य। एवमेव ब्रह्मलोके अन्तरहितो विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स पुरतो पातुरहोसि। अथ खो सो, भिक्खवे, महाब्रह्मा एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा येन विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तेनञ्जलिं पणामेत्वा विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोच – ‘एवमेतं, भगवा, एवमेतं, सुगत। महा खो, भन्ते, एतरहि भिक्खुसङ्घो बन्धुमतिया राजधानिया पटिवसति अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं, अनुजानातु, भन्ते, भगवा भिक्खू – ‘‘चरथ, भिक्खवे, चारिकं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं; मा एकेन द्वे अगमित्थ; देसेथ, भिक्खवे, धम्मं आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेथ। सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अञ्ञातारो’’ति [अञ्ञातारो (स्सब्बत्थ)]। अपि च, भन्ते, मयं तथा करिस्साम यथा भिक्खू छन्नं छन्नं वस्सानं अच्चयेन बन्धुमतिं राजधानिं उपसङ्कमिस्सन्ति पातिमोक्खुद्देसाया’ति। इदमवोच, भिक्खवे, सो महाब्रह्मा, इदं वत्वा विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेव अन्तरधायि।
८८. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो भिक्खू आमन्तेसि – ‘इध मय्हं, भिक्खवे, रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि – महा खो एतरहि भिक्खुसङ्घो बन्धुमतिया राजधानिया पटिवसति अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं। यंनूनाहं भिक्खू अनुजानेय्यं – ‘चरथ, भिक्खवे, चारिकं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं; मा एकेन द्वे अगमित्थ; देसेथ, भिक्खवे, धम्मं आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेथ। सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अञ्ञातारो। अपि च, छन्नं छन्नं वस्सानं अच्चयेन बन्धुमती राजधानी उपसङ्कमितब्बा पातिमोक्खुद्देसायाति।
‘‘‘अथ खो, भिक्खवे, अञ्ञतरो महाब्रह्मा मम चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्ञाय सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य, एवमेव ब्रह्मलोके अन्तरहितो मम पुरतो पातुरहोसि। अथ खो सो, भिक्खवे, महाब्रह्मा एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा येनाहं तेनञ्जलिं पणामेत्वा मं एतदवोच – ‘‘एवमेतं, भगवा, एवमेतं, सुगत। महा खो, भन्ते, एतरहि भिक्खुसङ्घो बन्धुमतिया राजधानिया पटिवसति अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं। अनुजानातु, भन्ते, भगवा भिक्खू – ‘चरथ, भिक्खवे, चारिकं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं; मा एकेन द्वे अगमित्थ; देसेथ, भिक्खवे, धम्मं…पे॰… सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अञ्ञातारो’ति। अपि च, भन्ते, मयं तथा करिस्साम, यथा भिक्खू छन्नं छन्नं वस्सानं अच्चयेन बन्धुमतिं राजधानिं उपसङ्कमिस्सन्ति पातिमोक्खुद्देसाया’’ति। इदमवोच, भिक्खवे, सो महाब्रह्मा, इदं वत्वा मं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेव अन्तरधायि’।
‘‘‘अनुजानामि, भिक्खवे, चरथ चारिकं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं; मा एकेन द्वे अगमित्थ; देसेथ, भिक्खवे, धम्मं आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेथ। सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अञ्ञातारो। अपि च, भिक्खवे, छन्नं छन्नं वस्सानं अच्चयेन बन्धुमती राजधानी उपसङ्कमितब्बा पातिमोक्खुद्देसाया’ति। अथ खो, भिक्खवे, भिक्खू येभुय्येन एकाहेनेव जनपदचारिकं पक्कमिंसु।
८९. ‘‘तेन खो पन समयेन जम्बुदीपे चतुरासीति आवाससहस्सानि होन्ति। एकम्हि हि वस्से निक्खन्ते देवता सद्दमनुस्सावेसुं – ‘निक्खन्तं खो, मारिसा, एकं वस्सं; पञ्च दानि वस्सानि सेसानि; पञ्चन्नं वस्सानं अच्चयेन बन्धुमती राजधानी उपसङ्कमितब्बा पातिमोक्खुद्देसाया’ति। द्वीसु वस्सेसु निक्खन्तेसु… तीसु वस्सेसु निक्खन्तेसु… चतूसु वस्सेसु निक्खन्तेसु… पञ्चसु वस्सेसु निक्खन्तेसु देवता सद्दमनुस्सावेसुं – ‘निक्खन्तानि खो, मारिसा, पञ्चवस्सानि; एकं दानि वस्सं सेसं; एकस्स वस्सस्स अच्चयेन बन्धुमती राजधानी उपसङ्कमितब्बा पातिमोक्खुद्देसाया’ति। छसु वस्सेसु निक्खन्तेसु देवता सद्दमनुस्सावेसुं – ‘निक्खन्तानि खो, मारिसा, छब्बस्सानि, समयो दानि बन्धुमतिं राजधानिं उपसङ्कमितुं पातिमोक्खुद्देसाया’ति। अथ खो ते, भिक्खवे, भिक्खू अप्पेकच्चे सकेन इद्धानुभावेन अप्पेकच्चे देवतानं इद्धानुभावेन एकाहेनेव बन्धुमतिं राजधानिं उपसङ्कमिंसु पातिमोक्खुद्देसायाति [पातिमोक्खुद्देसाय (?)]।
९०. ‘‘तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो भिक्खुसङ्घे एवं पातिमोक्खं उद्दिसति –
‘खन्ती परमं तपो तितिक्खा,
निब्बानं परमं वदन्ति बुद्धा।
न हि पब्बजितो परूपघाती,
न समणो [समणो (सी॰ स्या॰ पी॰)] होति परं विहेठयन्तो॥
‘सब्बपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा।
सचित्तपरियोदपनं, एतं बुद्धानसासनं॥
‘अनूपवादो अनूपघातो [अनुपवादो अनुपघातो (पी॰ क॰)], पातिमोक्खे च संवरो।
मत्तञ्ञुता च भत्तस्मिं, पन्तञ्च सयनासनं।
अधिचित्ते च आयोगो, एतं बुद्धानसासन’न्ति॥
देवतारोचनं
९१. ‘‘एकमिदाहं, भिक्खवे, समयं उक्कट्ठायं विहरामि सुभगवने सालराजमूले। तस्स मय्हं, भिक्खवे, रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि – ‘न खो सो सत्तावासो सुलभरूपो, यो मया अनावुत्थपुब्बो [अनज्झावुट्ठपुब्बो (क॰ सी॰ क॰)] इमिना दीघेन अद्धुना अञ्ञत्र सुद्धावासेहि देवेहि। यंनूनाहं येन सुद्धावासा देवा तेनुपसङ्कमेय्य’न्ति। अथ ख्वाहं, भिक्खवे, सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य, एवमेव उक्कट्ठायं सुभगवने सालराजमूले अन्तरहितो अविहेसु देवेसु पातुरहोसिं। तस्मिं, भिक्खवे, देवनिकाये अनेकानि देवतासहस्सानि अनेकानि देवतासतसहस्सानि [अनेकानि देवतासतानि अनेकानि देवतासहस्सानि (स्या॰)] येनाहं तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठंसु। एकमन्तं ठिता खो, भिक्खवे, ता देवता मं एतदवोचुं – ‘इतो सो, मारिसा, एकनवुतिकप्पे यं विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि। विपस्सी, मारिसा, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो खत्तियो जातिया अहोसि, खत्तियकुले उदपादि। विपस्सी, मारिसा, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कोण्डञ्ञो गोत्तेन अहोसि। विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असीतिवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि। विपस्सी, मारिसा, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो पाटलिया मूले अभिसम्बुद्धो। विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स खण्डतिस्सं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं। विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं। एको सावकानं सन्निपातो अहोसि अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं। एको सावकानं सन्निपातो अहोसि भिक्खुसतसहस्सं। एको सावकानं सन्निपातो अहोसि असीतिभिक्खुसहस्सानि। विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स इमे तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं सब्बेसंयेव खीणासवानं। विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असोको नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको। विपस्सिस्स, मारिस, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स बन्धुमा नाम राजा पिता अहोसि। बन्धुमती नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति। बन्धुमस्स रञ्ञो बन्धुमती नाम नगरं राजधानी अहोसि। विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एवं अभिनिक्खमनं अहोसि एवं पब्बज्जा एवं पधानं एवं अभिसम्बोधि एवं धम्मचक्कप्पवत्तनं। ते मयं, मारिसा, विपस्सिम्हि भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा कामेसु कामच्छन्दं विराजेत्वा इधूपपन्ना’ति …पे॰…
‘‘तस्मिंयेव खो, भिक्खवे, देवनिकाये अनेकानि देवतासहस्सानि अनेकानि देवतासतसहस्सानि [अनेकानि देवतासतानि अनेकानि देवतासहस्सानि (स्या॰ एवमुपरिपि)] येनाहं तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठंसु। एकमन्तं ठिता खो, भिक्खवे, ता देवता मं एतदवोचुं – ‘इमस्मिंयेव खो, मारिसा, भद्दकप्पे भगवा एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उप्पन्नो। भगवा, मारिसा, खत्तियो जातिया खत्तियकुले उप्पन्नो। भगवा, मारिसा, गोतमो गोत्तेन। भगवतो, मारिसा, अप्पकं आयुप्पमाणं परित्तं लहुकं यो चिरं जीवति, सो वस्ससतं अप्पं वा भिय्यो। भगवा, मारिसा, अस्सत्थस्स मूले अभिसम्बुद्धो। भगवतो, मारिसा, सारिपुत्तमोग्गल्लानं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं। भगवतो, मारिसा, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि अड्ढतेळसानि भिक्खुसतानि। भगवतो, मारिसा, अयं एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सब्बेसंयेव खीणासवानं। भगवतो, मारिसा, आनन्दो नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको। भगवतो, मारिसा, सुद्धोदनो नाम राजा पिता अहोसि। माया नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति। कपिलवत्थु नाम नगरं राजधानी अहोसि। भगवतो, मारिसा, एवं अभिनिक्खमनं अहोसि एवं पब्बज्जा एवं पधानं एवं अभिसम्बोधि एवं धम्मचक्कप्पवत्तनं। ते मयं, मारिसा, भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा कामेसु कामच्छन्दं विराजेत्वा इधूपपन्ना’ति।
९२. ‘‘अथ ख्वाहं, भिक्खवे, अविहेहि देवेहि सद्धिं येन अतप्पा देवा तेनुपसङ्कमिं…पे॰… अथ ख्वाहं, भिक्खवे, अविहेहि च देवेहि अतप्पेहि च देवेहि सद्धिं येन सुदस्सा देवा तेनुपसङ्कमिं। अथ ख्वाहं, भिक्खवे, अविहेहि च देवेहि अतप्पेहि च देवेहि सुदस्सेहि च देवेहि सद्धिं येन सुदस्सी देवा तेनुपसङ्कमिं। अथ ख्वाहं, भिक्खवे, अविहेहि च देवेहि अतप्पेहि च देवेहि सुदस्सेहि च देवेहि सुदस्सीहि च देवेहि सद्धिं येन अकनिट्ठा देवा तेनुपसङ्कमिं। तस्मिं, भिक्खवे, देवनिकाये अनेकानि देवतासहस्सानि अनेकानि देवतासतसहस्सानि येनाहं तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठंसु।
‘‘एकमन्तं ठिता खो, भिक्खवे, ता देवता मं एतदवोचुं – ‘इतो सो, मारिसा, एकनवुतिकप्पे यं विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि। विपस्सी, मारिसा, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो खत्तियो जातिया अहोसि। खत्तियकुले उदपादि। विपस्सी, मारिसा, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कोण्डञ्ञो गोत्तेन अहोसि। विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असीतिवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि। विपस्सी, मारिसा, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो पाटलिया मूले अभिसम्बुद्धो। विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स खण्डतिस्सं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं। विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं। एको सावकानं सन्निपातो अहोसि अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं। एको सावकानं सन्निपातो अहोसि भिक्खुसतसहस्सं। एको सावकानं सन्निपातो अहोसि असीतिभिक्खुसहस्सानि। विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स इमे तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं सब्बेसंयेव खीणासवानं। विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असोको नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको। विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स बन्धुमा नाम राजा पिता अहोसि बन्धुमती नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति। बन्धुमस्स रञ्ञो बन्धुमती नाम नगरं राजधानी अहोसि। विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एवं अभिनिक्खमनं अहोसि एवं पब्बज्जा एवं पधानं एवं अभिसम्बोधि, एवं धम्मचक्कप्पवत्तनं। ते मयं, मारिसा, विपस्सिम्हि भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा कामेसु कामच्छन्दं विराजेत्वा इधूपपन्ना’ति। तस्मिंयेव खो, भिक्खवे, देवनिकाये अनेकानि देवतासहस्सानि अनेकानि देवतासतसहस्सानि येनाहं तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठंसु। एकमन्तं ठिता खो, भिक्खवे, ता देवता मं एतदवोचुं – ‘इतो सो, मारिसा, एकतिंसे कप्पे यं सिखी भगवा…पे॰… ते मयं, मारिसा, सिखिम्हि भगवति तस्मिञ्ञेव खो मारिसा, एकतिंसे कप्पे यं वेस्सभू भगवा…पे॰… ते मयं, मारिसा, वेस्सभुम्हि भगवति…पे॰… इमस्मिंयेव खो, मारिसा, भद्दकप्पे ककुसन्धो कोणागमनो कस्सपो भगवा…पे॰… ते मयं, मारिसा, ककुसन्धम्हि कोणागमनम्हि कस्सपम्हि भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा कामेसु कामच्छन्दं विराजेत्वा इधूपपन्ना’ति।
९३. ‘‘तस्मिंयेव खो, भिक्खवे, देवनिकाये अनेकानि देवतासहस्सानि अनेकानि देवतासतसहस्सानि येनाहं तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठंसु। एकमन्तं ठिता खो, भिक्खवे, ता देवता मं एतदवोचुं – ‘इमस्मिंयेव खो, मारिसा, भद्दकप्पे भगवा एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उप्पन्नो। भगवा, मारिसा, खत्तियो जातिया, खत्तियकुले उप्पन्नो। भगवा, मारिसा, गोतमो गोत्तेन। भगवतो, मारिसा, अप्पकं आयुप्पमाणं परित्तं लहुकं यो चिरं जीवति, सो वस्ससतं अप्पं वा भिय्यो। भगवा, मारिसा, अस्सत्थस्स मूले अभिसम्बुद्धो। भगवतो, मारिसा, सारिपुत्तमोग्गल्लानं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं। भगवतो, मारिसा, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि अड्ढतेळसानि भिक्खुसतानि। भगवतो, मारिसा, अयं एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सब्बेसंयेव खीणासवानं। भगवतो, मारिसा, आनन्दो नाम भिक्खु उपट्ठाको अग्गुपट्ठाको अहोसि। भगवतो, मारिसा, सुद्धोदनो नाम राजा पिता अहोसि। माया नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति। कपिलवत्थु नाम नगरं राजधानी अहोसि। भगवतो, मारिसा, एवं अभिनिक्खमनं अहोसि, एवं पब्बज्जा, एवं पधानं, एवं अभिसम्बोधि, एवं धम्मचक्कप्पवत्तनं। ते मयं, मारिसा, भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा कामेसु कामच्छन्दं विराजेत्वा इधूपपन्ना’ति।
९४. ‘‘इति खो, भिक्खवे, तथागतस्सेवेसा धम्मधातु सुप्पटिविद्धा, यस्सा धम्मधातुया सुप्पटिविद्धत्ता तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरति, नामतोपि अनुस्सरति, गोत्ततोपि अनुस्सरति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरति, सावकयुगतोपि अनुस्सरति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरति ‘एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं’ इतिपि। ‘एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्ञा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं’ इतिपीति।
‘‘देवतापि तथागतस्स एतमत्थं आरोचेसुं, येन तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरति, नामतोपि अनुस्सरति, गोत्ततोपि अनुस्सरति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरति, सावकयुगतोपि अनुस्सरति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरति ‘एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं’ इतिपि। ‘एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्ञा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं’ इतिपी’’ति।
इदमवोच भगवा। अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति।
महापदानसुत्तं निट्ठितं पठमं।