यह सूत्र पालि साहित्य के सबसे महत्वपूर्ण और गहन उपदेशों में से एक है। यह पटिच्चसमुप्पाद और अनत्त को बहुत आवश्यक विवरण के साथ समझाता है, और दिखाता है कि किस तरह इन सिद्धांतों की साधना की जानी चाहिए। यहाँ पटिच्चसमुप्पाद को उसके बारह सामान्य कड़ियों में निदान नहीं किया गया, बल्कि कुछ कम या कुछ अधिक व्यावहारिक घटकों के साथ बताया गया है।
जैसे किसी रोग से छूटने के लिए उस रोग का सटीक निदान होना अनिवार्य है। कोई डॉक्टर जानकार और पेशेवर है या नहीं, यह उससे साबित होता है कि वह मरीज के रोग के विभिन्न कारणों और निर्भर घटकों का कितनी गहराई से निदान कर पाता है। इस सूत्र से बुद्ध की अद्वितीय विद्वता साबित होती है। वे दुःख के मूल कारण और उसके निर्भर घटकों को उसके तल की गहराई तक निदान करते हैं। और उसका व्यावहारिक पक्ष का वर्णन भी उस सीमा तक तक करते हैं, जहाँ भाषा, वर्णन और नामकरण की प्रक्रियाएँ समाप्त होने लगती है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान कुरु देश के कम्मासधम्म नामक कुरु नगर में विहार कर रहे थे। तब आयुष्मान आनन्द भगवान के पास गए और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “आश्चर्य है, भंते, अद्भुत है कि आधारपूर्ण सहउत्पत्ति [=पटिच्चसमुप्पाद] कितनी गहरी है, कितनी गहरी दिखती है, तब भी मुझे स्पष्ट दिखाई देती है।”
[भगवान ने कहा:] “ऐसा मत कहो, आनन्द। ऐसा मत कहो। गहरी है यह आधारपूर्ण सहउत्पत्ति! बहुत गहरी दिखती है! इसी धर्म का बोध न करने से, भेदन न करने से, यह जनता ‘उलझे सूत’ जैसी है, ‘धागे के गठीले गोले’ जैसी है, ‘कँटीली झाड़ी’ जैसी है, और दयनीय-लोक, दुर्गति और यातनालोक के दुष्चक्र से परे नहीं जा पाती!
आनन्द, यदि पूछा जाए, ‘क्या बुढ़ापे और मौत का कोई कारण है?’ तो कहना चाहिए, ‘हाँ।’ यदि पूछा जाए, ‘क्या कारण है बुढ़ापे और मौत का?’ तो कहना चाहिए, ‘जन्म के कारण बुढ़ापा और मौत आती हैं।’
यदि पूछा जाए, ‘क्या जन्म का कोई कारण है?’ तो कहना चाहिए, ‘हाँ।’ यदि पूछा जाए, ‘क्या कारण है जन्म होने का?’ तो कहना चाहिए, ‘भव [अस्तित्व बनाने] के कारण जन्म होता है।’
यदि पूछा जाए, ‘क्या भव का कोई कारण है?’ तो कहना चाहिए, ‘हाँ।’ यदि पूछा जाए, ‘क्या कारण है भव होने का?’ तो कहना चाहिए, ‘आसक्ति [उपादान] के कारण भव होता है।’
यदि पूछा जाए, ‘क्या आसक्ति का कोई कारण है?’ तो कहना चाहिए, ‘हाँ।’ यदि पूछा जाए, ‘क्या कारण है आसक्ति होने का?’ तो कहना चाहिए, ‘तृष्णा के कारण आसक्ति होती है।’
यदि पूछा जाए, ‘क्या तृष्णा का कोई कारण है?’ तो कहना चाहिए, ‘हाँ।’ यदि पूछा जाए, ‘क्या कारण है तृष्णा होने का?’ तो कहना चाहिए, ‘संवेदना के कारण तृष्णा होती है।’
यदि पूछा जाए, ‘क्या संवेदना का कोई कारण है?’ तो कहना चाहिए, ‘हाँ।’ यदि पूछा जाए, ‘क्या कारण है संवेदना होने का?’ तो कहना चाहिए, ‘संस्पर्श के कारण संवेदना होती है।’
यदि पूछा जाए, ‘क्या संस्पर्श का कोई कारण है?’ तो कहना चाहिए, ‘हाँ।’ यदि पूछा जाए, ‘क्या कारण है संस्पर्श होने का?’ तो कहना चाहिए, ‘नाम-रूप [यहाँ छह आयाम का उल्लेख नहीं है] के कारण संस्पर्श होता है।’
यदि पूछा जाए, ‘क्या नाम-रूप का कोई कारण है?’ तो कहना चाहिए, ‘हाँ।’ यदि पूछा जाए, ‘क्या कारण है नाम-रूप होने का?’ तो कहना चाहिए, ‘चैतन्य [विज्ञान] के कारण नाम-रूप होता है।’
यदि पूछा जाए, ‘क्या चैतन्य का कोई कारण है?’ तो कहना चाहिए, ‘हाँ।’ यदि पूछा जाए, ‘क्या कारण है चैतन्य होने का?’ तो कहना चाहिए, ‘नाम-रूप के कारण चैतन्य होता है।’
इस तरह, आनन्द, नाम-रूप के कारण चैतन्य होता है, चैतन्य के कारण नाम-रूप होता है, नाम-रूप के कारण संस्पर्श होता है, संस्पर्श के कारण संवेदना होती है, संवेदना के कारण तृष्णा होती है, तृष्णा के कारण आसक्ति होती है, आसक्ति के कारण भव होता है, भव के कारण जन्म होता है, जन्म के कारण बुढ़ापा, मौत, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा होती हैं। और इस तरह समस्त दुःखों की गठरी खुलती है।
बुढ़ापा और मौत
‘जन्म के कारण बुढ़ापा और मौत होती हैं’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि कहीं किसी का किसी भी तरह जन्म न हो — जैसे देवताओं का दैवत्व न हो, गन्धर्वों का गंधर्वत्व न हो, यक्षों का यक्षत्व न हो, भूतों का भूतत्व न हो, मनुष्यों का मनुष्यत्व न हो, चार-पैर वालो का चतुर्पादत्व न हो, पक्षियों का पक्षित्व न हो, रेंगने वालो का सृपत्व न हो, या कहीं कोई भी जीव उस अवस्था में न हो। यदि जन्म लेना किसी भी तरह से न हो। जन्म-प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाए। तब, क्या बुढ़ापा और मौत होते हुए दिखेगी?”
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, बुढ़ापे और मौत होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह जन्म!”
जन्म
‘भव के कारण जन्म होता है’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि कहीं किसी का किसी भी तरह भव [=अस्तित्व का आयाम] न हो — जैसे काम अस्तित्व, रूप अस्तित्व, अरूप अस्तित्व। यदि भव होना किसी भी तरह से न हो। भव-प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाए। तब, क्या जन्म होते हुए दिखेगा?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, जन्म होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह भव!”
भव
‘आसक्ति के कारण भव होता है’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि कहीं किसी की किसी भी तरह आसक्ति न हो — जैसे कामुक आसक्ति, दृष्टि आसक्ति, शील-व्रत आसक्ति, आत्म-धारणा आसक्ति। यदि आसक्ति होना किसी भी तरह से न हो। आसक्ति-प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाए। तब, क्या भव होते हुए दिखेगा?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, भव होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह आसक्ति!”
आसक्ति
‘तृष्णा के कारण आसक्ति होती है’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि कहीं किसी की किसी भी तरह तृष्णा न हो — जैसे रूप तृष्णा, शब्द तृष्णा, गंध तृष्णा, स्वाद तृष्णा, संस्पर्श तृष्णा, स्वभाव तृष्णा । यदि तृष्णा होना किसी भी तरह से न हो। तृष्णा-प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाए। तब, क्या आसक्ति होते हुए दिखेगी?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, आसक्ति होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह तृष्णा!”
तृष्णा
‘संवेदना के कारण तृष्णा होती है’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि कहीं किसी की किसी भी तरह संवेदना न हो — जैसे आँख संस्पर्श से होती संवेदना, कान संस्पर्श से होती संवेदना, नाक संस्पर्श से होती संवेदना, जीभ संस्पर्श से होती संवेदना, काया संस्पर्श से होती संवेदना, मन संस्पर्श से होती संवेदना । यदि संवेदना होना किसी भी तरह से न हो। संवेदना-प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाए। तब, क्या तृष्णा होते हुए दिखेगी?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, तृष्णा होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह संवेदना!”
तृष्णा पर निर्भरता
इस तरह, आनन्द, संवेदना के कारण तृष्णा होती है,
तृष्णा के कारण खोज [=परियेसना, कामुक विषयों की खोज] होती है,
खोज के कारण प्राप्ति [=लाभ] होती है,
प्राप्ति के कारण निश्चय [=विनिच्छय, कामुक निश्चय] होता है,
निश्चय के कारण चाहत और दिलचस्पी [=छन्दराग] होती है,
चाहत और दिलचस्पी के कारण चिपकाव [=अज्झोसान] होता है,
चिपकाव के कारण कंजूसी [=मच्छरिय, मन छोटा होना] होती है,
कंजूसी के कारण रक्षा [=आरक्ख] होती है,
और, रक्षा करते हुए विविध पाप अकुशल स्वभाव प्रकट होने लगते हैं — जैसे डंडा या शस्त्र उठाना, झगड़ा, बहस, या विवाद करना, आरोप-प्रत्यारोप करना, फूट डालना और झूठ बोलना।
विविध पाप अकुशल स्वभाव
‘रक्षा करते हुए विविध पाप अकुशल स्वभाव प्रकट होने लगते हैं — जैसे डंडा या शस्त्र उठाना, झगड़ा, बहस, या विवाद करना, आरोप-प्रत्यारोप करना, फूट डालना और झूठ बोलना’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि कहीं किसी की किसी भी तरह रक्षा न हो, यदि रक्षा-प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाए। तब, क्या विविध पाप अकुशल स्वभाव प्रकट होने लगते हैं — जैसे डंडा या शस्त्र उठाना, झगड़ा, बहस, या विवाद करना, आरोप-प्रत्यारोप करना, फूट डालना और झूठ बोलना दिखाई देगा?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, विविध पाप अकुशल स्वभाव प्रकट होने लगते हैं — जैसे डंडा या शस्त्र उठाना, झगड़ा, बहस, या विवाद करना, आरोप-प्रत्यारोप करना, फूट डालना और झूठ बोलने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह रक्षा!”
रक्षा
‘कंजूसी के कारण रक्षा होती है’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि कहीं किसी की किसी भी तरह कंजूसी न हो, यदि कंजूसी-प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाए। तब, क्या रक्षा होते हुए दिखेगी?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, रक्षा होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह कंजूसी!”
कंजूसी
‘चिपकाव के कारण कंजूसी होती है’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि कहीं किसी की किसी भी तरह चिपकाव न हो, यदि चिपकाव-प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाए। तब, क्या कंजूसी होते हुए दिखेगी?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, कंजूसी होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह चिपकाव!”
चिपकाव
‘चाहत और दिलचस्पी के कारण चिपकाव होता है’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि कहीं किसी की किसी भी तरह चाहत और दिलचस्पी न हो, यदि चाहत और दिलचस्पी-प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाए। तब, क्या चिपकाव होते हुए दिखेगी?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, चिपकाव होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह चाहत और दिलचस्पी!”
चाहत और दिलचस्पी
‘निश्चय के कारण चाहत और दिलचस्पी होती है’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि कहीं किसी की किसी भी तरह [कामुक] निश्चय न हो, यदि निश्चय-प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाए। तब, क्या चाहत और दिलचस्पी होते हुए दिखेगी?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, चाहत और दिलचस्पी होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह निश्चय!”
निश्चय
‘प्राप्ति के कारण निश्चय होता है’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि कहीं किसी की किसी भी तरह [कामुक] प्राप्ति न हो, यदि प्राप्ति-प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाए। तब, क्या निश्चय होते हुए दिखेगा?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, निश्चय होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह प्राप्ति!”
प्राप्ति
‘खोज के कारण प्राप्ति होती है’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि कहीं किसी की किसी भी तरह [कामुक विषयों की] खोज न हो, यदि खोज-प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाए। तब, क्या प्राप्ति होते हुए दिखेगा?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, प्राप्ति होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह खोज!”
खोज
‘तृष्णा के कारण खोज होती है’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि कहीं किसी की किसी भी तरह तृष्णा न हो, यदि तृष्णा-प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाए। तब, क्या खोज होते हुए दिखेगा?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, खोज होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह तृष्णा!”
इस तरह, आनन्द, इसी स्वभाव पर दो शृंखलाएँ [(१) तृष्णा से जन्म, बुढ़ापा और मौत; और (२) तृष्णा से विविध पाप अकुशल स्वभाव] जुड़कर एक स्थान पर एकत्र होती हैं, संवेदना पर।
संवेदना
‘संस्पर्श के कारण संवेदना होती है’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि कहीं किसी की किसी भी तरह संस्पर्श न हो न हो — जैसे आँख संस्पर्श, कान संस्पर्श, नाक संस्पर्श, जीभ संस्पर्श, काया संस्पर्श, मन संस्पर्श। यदि संस्पर्श होना किसी भी तरह से न हो। यदि संस्पर्श-प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाए। तब, क्या संवेदना होते हुए दिखेगी?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, संवेदना होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह संस्पर्श!”
संस्पर्श
‘नाम-रूप के कारण संस्पर्श होता है’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। जिस आकार, जिस लिंग, जिस लक्षण, और जिस वर्णन से नाम-काया बनते हुए दिखती है, यदि वे न हो, तो क्या [केवल] संस्पर्श नामकरण से रूप-काया बनते हुए दिखेगी?"
“नहीं, भंते।”
अथवा, जिस आकार, जिस लिंग, जिस लक्षण, और जिस वर्णन से रूप-काया बनते हुए दिखती है, यदि वे न हो, तो क्या विरोधी [=पटिघ] नामकरण से नाम-काया बनते हुए दिखेगी?"
“नहीं, भंते।”
अथवा, जिस आकार, जिस लिंग, जिस लक्षण, और जिस वर्णन से नाम-काया और रूप-काया बनते हुए दिखती हैं, यदि वे न हो, तो क्या संस्पर्श नामकरण और विरोधी नामकरण दिखाई देंगे?"
“नहीं, भंते।”
अथवा, जिस आकार, जिस लिंग, जिस लक्षण, और जिस वर्णन से नाम-रूप बनते हुए दिखता है, यदि वे न हो, तो क्या संस्पर्श होना दिखाई देगा?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, संस्पर्श होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह नाम-रूप!”
नाम-रूप
‘चैतन्य के कारण नाम-रूप होता है’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि माँ के गर्भ में चैतन्य का उतरना [=गर्भधारण] न हो, तो क्या माँ की गर्भ में नाम-रूप आकार लेगा?"
“नहीं, भंते।”
अथवा, यदि माँ की गर्भ में चैतन्य उतरने पर निकल जाए [=गर्भपात], तो क्या नाम-रूप की उत्पत्ति होगी?"
“नहीं, भंते।”
अथवा, यदि बच्चे या बच्ची का चैतन्य कट जाए, तो क्या नाम-रूप में वृद्धि, विकास या परिपक्वता होगी?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, नाम-रूप होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह चैतन्य!”
चैतन्य
‘नाम-रूप के कारण चैतन्य होता है’ — ऐसा कहा गया। इसे, कुछ इस तरह समझो। यदि चैतन्य नाम-रूप में स्थापित न हो पाए, तो क्या जन्म, बुढ़ापा, मौत और दुःख की उत्पत्ति होते हुए दिखाई देगी?"
“नहीं, भंते।”
“इस तरह, चैतन्य होने का यही कारण है, यही स्त्रोत है, यही उत्पत्ति है, यही वजह है — यह नाम-रूप!”
इस तरह, आनन्द, इस सीमा तक जन्म होता है, बुढ़ापा आता है, मौत होती है, च्युति होती है, और फिर पुनरुत्पत्ति होती है। इस [भाषा की] सीमा तक इस प्रक्रिया का नामकरण होता है, वर्णन होता है, समझा जाता है। इस सीमा तक अन्तर्ज्ञान का आयाम खिंचता है। यही, इसी सीमा तक संसार का दुष्चक्र घूमते रहता है — यह नाम-रूप के साथ चैतन्य की आपसी निर्भरता!"
“आनन्द, आत्मा का वर्णन करने वाला उसका वर्णन कैसे करता है? “रूपवान और सीमित” आत्मा का वर्णन करने वाला वर्णन करता है — ‘मेरी आत्मा रूपवान और सीमित है।’ अथवा, “रूपवान और अनन्त” आत्मा का वर्णन करने वाला उसका वर्णन करता है— ‘मेरी आत्मा रूपवान और अनन्त है।’ अथवा, “अरूप और सीमित” आत्मा का वर्णन करने वाला उसका वर्णन करता है — ‘मेरी आत्मा अरूप और सीमित है।’ अथवा, “अरूप और अनन्त” आत्मा का वर्णन करने वाला उसका वर्णन करता है — ‘मेरी आत्मा अरूप और अनन्त है।’
अब, जो भी आत्मा का वर्णन — ‘मेरी आत्मा रूपवान और सीमित है’ इस तरह करता है, वह या तो वर्तमान में रूपवान और सीमित आत्मा का वर्णन करता है, अथवा [स्वाभाविक रूप से आगे चलकर भविष्यकाल में या मरणोपरांत] रूपवान और सीमित आत्मा हो जाने का वर्णन करता है, या उसे लगता है कि ‘भले ही अब तक ऐसा न हो, किन्तु मैं वैसा बना दूँगा।’ यदि ऐसा हो तो यह कहना उचित है कि वह रूपवान और सीमित आत्मा की परिकल्पना में बेहोश है।
और, जो भी आत्मा का वर्णन — ‘मेरी आत्मा रूपवान और अनन्त है’ इस तरह करता है, वह या तो वर्तमान में रूपवान और अनन्त आत्मा का वर्णन करता है, अथवा आगे रूपवान और अनन्त आत्मा हो जाने का वर्णन करता है, या उसे लगता है कि ‘भले ही अब तक ऐसा न हो, किन्तु मैं वैसा बना दूँगा।’ यदि ऐसा हो तो यह कहना उचित है कि वह रूपवान और अनन्त आत्मा की परिकल्पना में बेहोश है।
और, जो भी आत्मा का वर्णन — ‘मेरी आत्मा अरूप और सीमित है’ इस तरह करता है, वह या तो वर्तमान में अरूप और सीमित आत्मा का वर्णन करता है, अथवा आगे अरूप और सीमित आत्मा हो जाने का वर्णन करता है, या उसे लगता है कि ‘भले ही अब तक ऐसा न हो, किन्तु मैं वैसा बना दूँगा।’ यदि ऐसा हो तो यह कहना उचित है कि वह अरूप और सीमित आत्मा की परिकल्पना में बेहोश है।
और, जो भी आत्मा का वर्णन — ‘मेरी आत्मा अरूप और अनन्त है’ इस तरह करता है, वह या तो वर्तमान में अरूप और अनन्त आत्मा का वर्णन करता है, अथवा आगे अरूप और अनन्त आत्मा हो जाने का वर्णन करता है, या उसे लगता है कि ‘भले ही अब तक ऐसा न हो, किन्तु मैं वैसा बना दूँगा।’ यदि ऐसा हो तो यह कहना उचित है कि वह अरूप और अनन्त आत्मा की परिकल्पना में बेहोश है।
इस तरह, आनन्द, आत्मा का वर्णन करने वाला वर्णन करता है।”
“आनन्द, आत्मा का वर्णन न करने वाला उसका वर्णन कैसे नहीं करता है? “रूपवान और सीमित” आत्मा का वर्णन न करने वाला वर्णन नहीं करता है कि ‘मेरी आत्मा रूपवान और सीमित है।’ अथवा, “रूपवान और अनन्त” आत्मा का वर्णन न करने वाला वर्णन नहीं करता है कि ‘मेरी आत्मा रूपवान और अनन्त है।’ अथवा, “अरूप और सीमित” आत्मा का वर्णन न करने वाला वर्णन नहीं करता है कि ‘मेरी आत्मा अरूप और सीमित है।’ अथवा, “अरूप और अनन्त” आत्मा का वर्णन न करने वाला उसका वर्णन नहीं करता है कि ‘मेरी आत्मा अरूप और अनन्त है।’
अब, जो भी आत्मा का वर्णन — ‘मेरी आत्मा रूपवान और सीमित है’ इस तरह नहीं करता है, वह या तो वर्तमान में रूपवान और सीमित आत्मा का वर्णन नहीं करता है, अथवा [स्वाभाविक रूप से आगे चलकर भविष्यकाल में या मरणोपरांत] रूपवान और सीमित आत्मा हो जाने का वर्णन नहीं करता है, या उसे नहीं लगता है कि ‘भले ही अब तक ऐसा न हो, किन्तु मैं वैसा बना दूँगा।’ यदि ऐसा हो तो यह कहना उचित है कि वह रूपवान और सीमित आत्मा की परिकल्पना में बेहोश नहीं है।
और, जो भी आत्मा का वर्णन — ‘मेरी आत्मा रूपवान और अनन्त है’ इस तरह नहीं करता है, वह या तो वर्तमान में रूपवान और अनन्त आत्मा का वर्णन नहीं करता है, अथवा आगे रूपवान और अनन्त आत्मा हो जाने का वर्णन नहीं करता है, या उसे नहीं लगता है कि ‘भले ही अब तक ऐसा न हो, किन्तु मैं वैसा बना दूँगा।’ यदि ऐसा हो तो यह कहना उचित है कि वह रूपवान और अनन्त आत्मा की परिकल्पना में बेहोश नहीं है।
और, जो भी आत्मा का वर्णन — ‘मेरी आत्मा अरूप और सीमित है’ इस तरह नहीं करता है, वह या तो वर्तमान में अरूप और सीमित आत्मा का वर्णन नहीं करता है, अथवा आगे अरूप और सीमित आत्मा हो जाने का वर्णन नहीं करता है, या उसे नहीं लगता है कि ‘भले ही अब तक ऐसा न हो, किन्तु मैं वैसा बना दूँगा।’ यदि ऐसा हो तो यह कहना उचित है कि वह अरूप और सीमित आत्मा की परिकल्पना में बेहोश नहीं है।
और, जो भी आत्मा का वर्णन — ‘मेरी आत्मा अरूप और अनन्त है’ इस तरह नहीं करता है, वह या तो वर्तमान में अरूप और अनन्त आत्मा का वर्णन नहीं करता है, अथवा आगे अरूप और अनन्त आत्मा हो जाने का वर्णन नहीं करता है, या उसे नहीं लगता है कि ‘भले ही अब तक ऐसा न हो, किन्तु मैं वैसा बना दूँगा।’ यदि ऐसा हो तो यह कहना उचित है कि वह अरूप और अनन्त आत्मा की परिकल्पना में बेहोश नहीं है।
इस तरह, आनन्द, आत्मा का वर्णन न करने वाला उसका वर्णन नहीं करता है।”
आनन्द, आत्मा को मानने वाला कैसे मानता है? संवेदना को आत्मा मानने वाला मानता है कि ‘संवेदना मेरी आत्मा है।’ या ‘संवेदना मेरी आत्मा नहीं है, बल्कि मेरी आत्मा असंवेदनशील है।’ या ‘न संवेदना मेरी आत्मा है, न ही मेरी आत्मा असंवेदनशील है, बल्कि मेरी आत्मा महसूस करती है, क्योंकि मेरी आत्मा संवेदनशील स्वभाव की है।’
अब, जो कहता हो, ‘संवेदना मेरी आत्मा है’, उसे इस तरह कहा जाना चाहिए, “मेरे मित्र, तीन तरह की संवेदना होती हैं — सुखद संवेदना, दुखद संवेदना, और न-सुखद-न दुखद संवेदना। इन तीन में से कौन-सी संवेदना को तुम अपनी आत्मा मानते हो? क्योंकि जब सुखद संवेदना महसूस होती है, तब बाकी दो संवेदनाएँ [दुखद और न-सुखद-न दुखद] महसूस नहीं होती हैं, बल्कि उस समय केवल एक सुखद संवेदना ही महसूस होती है। उसी तरह, जब दुखद संवेदना महसूस होती है, तब बाकी दो संवेदनाएँ [सुखद और न-सुखद-न दुखद] महसूस नहीं होती हैं, बल्कि उस समय केवल एक दुखद संवेदना ही महसूस होती है। और, जब न-सुखद-न दुखद संवेदना महसूस होती है, तब बाकी दो संवेदनाएँ [सुखद और दुखद] महसूस नहीं होती हैं, बल्कि उस समय केवल एक न-सुखद-न दुखद संवेदना ही महसूस होती है।”
और, सुखद संवेदना अनित्य है, रचित है, आधारपूर्ण सहउत्पन्न [=संस्पर्श पर निर्भर] है, क्षय स्वभाव है, व्यय स्वभाव है, विराग [=मिटना] स्वभाव है, निरोध स्वभाव है। उसी तरह, दुखद संवेदना अनित्य है, रचित है, आधारपूर्ण सहउत्पन्न है, क्षय स्वभाव है, व्यय स्वभाव है, विराग स्वभाव है, निरोध स्वभाव है। और, न-सुखद-न दुखद संवेदना अनित्य है, रचित है, आधारपूर्ण सहउत्पन्न है, क्षय स्वभाव है, व्यय स्वभाव है, विराग स्वभाव है, निरोध स्वभाव है।
सुखद संवेदना महसूस करते हुए उसे लगता है, ‘यह मेरी आत्मा है।’ और सुखद संवेदना का निरोध होने पर उसे लगता है, ‘मेरी आत्मा खत्म हो गयी!’ दुखद संवेदना महसूस करते हुए उसे लगता है, ‘यह मेरी आत्मा है।’ और दुखद संवेदना का निरोध होने पर उसे लगता है, ‘मेरी आत्मा खत्म हो गयी!’ न-सुखद-न दुखद संवेदना महसूस करते हुए उसे लगता है, ‘यह मेरी आत्मा है।’ और न-सुखद-न दुखद संवेदना का निरोध होने पर उसे लगता है, ‘मेरी आत्मा खत्म हो गयी!’
इसलिए, जो कहता हो, ‘संवेदना मेरी आत्मा है’, वह [दरअसल] अभी इसी लोक में अनित्य सुख-दुःख में फँसे, उदय-व्यय स्वभाव की आत्मा को मानता है। इसलिए, आनन्द, ऐसा मानना उचित नहीं है कि ‘संवेदना मेरी आत्मा है।’
अब, जो कहता हो, ‘संवेदना मेरी आत्मा नहीं है, बल्कि मेरी आत्मा असंवेदनशील है’, उसे इस तरह कहा जाना चाहिए, “मेरे मित्र, जहाँ कहीं कुछ महसूस नहीं होता, क्या वहाँ ‘मैं हूँ’ का विचार आयेगा?”
“नहीं, भंते।”
“इसलिए, आनन्द, ऐसा मानना उचित नहीं है कि ‘संवेदना मेरी आत्मा नहीं है, बल्कि मेरी आत्मा असंवेदनशील है’।
और, जो कहता हो, ‘न संवेदना मेरी आत्मा है, न ही मेरी आत्मा असंवेदनशील है, बल्कि मेरी आत्मा महसूस करती है, क्योंकि मेरी आत्मा संवेदनशील स्वभाव की है’, उसे इस तरह कहा जाना चाहिए, “मेरे मित्र, यदि संवेदना का बिना शेष बचे पूर्णतः और सर्वथा निरोध हो जाए, और संवेदना किसी भी तरह से न हो, तो क्या वहाँ ‘यह मैं हूँ’ का विचार आएगा?”
“नहीं, भंते।”
“इसलिए, आनन्द, ऐसा मानना उचित नहीं है कि ‘न संवेदना मेरी आत्मा है, न ही मेरी आत्मा असंवेदनशील है, बल्कि मेरी आत्मा महसूस करती है, क्योंकि मेरी आत्मा संवेदनशील स्वभाव की है।’
इस तरह, आनन्द, जब कोई भिक्षु संवेदना को आत्मा नहीं मानता है, या आत्मा को असंवेदनशील नहीं मानता है, या आत्मा को संवेदनशील स्वभाव की भी नहीं मानता है, तब ऐसा नहीं मानने से वह दुनिया का आधार नहीं लेता। आधार न लेने से वह उत्तेजित नहीं होता। अनुतेज्जित होकर वह भीतर परिनिवृत्त हो जाता है। उसे पता चलता है, ‘जन्म खत्म हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम पूरा हुआ, अब आगे कुछ करना नहीं है।’
ऐसे विमुक्त चित्त भिक्षु के बारे में जो कहे, ‘तथागत [का अस्तित्व] मरणोपरांत होता है’, वह उसकी दृष्टि है, जो गलत है। या ‘तथागत मरणोपरांत नहीं होता है’… या ‘तथागत मरणोपरांत [दोनों] होता भी है और नहीं भी’… या ‘तथागत मरणोपरांत न होता ही है और न नहीं भी’, वह उसकी दृष्टि है, जो गलत है। ऐसा क्यों? क्योंकि नामकरण और नामकरण-विस्तार की सीमा प्रत्यक्ष जान कर, भाषा और भाषा-विस्तार की सीमा प्रत्यक्ष जान कर, मान्यता और मान्यता-विस्तार की सीमा प्रत्यक्ष जान कर, अन्तर्ज्ञान और अन्तर्ज्ञान-आयाम की सीमा प्रत्यक्ष जान कर, संसार दुष्चक्र के घूमने की सीमा प्रत्यक्ष जान कर, भिक्षु विमुक्त होता है। ‘ऐसा भिक्षु प्रत्यक्ष जानने पर भी देखता नहीं, जानता नहीं’, ऐसी दृष्टि गलत है।”
“आनन्द, सत्व चैतन्य के सात स्थल [=स्टेशन] और दो आयाम होते हैं। कौन-से सात?
(१) ऐसे सत्व होते हैं, आनन्द, जिनकी विविध काया और विविध नजरिए होते हैं। जैसे, मानव, कुछ तरह के देवतागण, और कुछ तरह के निचले लोक। यह पहला चैतन्य स्थल है।
(२) ऐसे सत्व होते हैं, जिनकी विविध काया होती हैं, किन्तु एक-जैसा नजरिया होता है। जैसे, प्रथम-ध्यान से उपजे ब्रह्मकायिक देवतागण। यह दूसरा चैतन्य स्थल है।
(३) ऐसे सत्व होते हैं, जिनकी एक-जैसी काया और विभिन्न नजरिए होते हैं। जैसे, आभास्वर देवतागण। यह तीसरा चैतन्य स्थल है।
(४) ऐसे सत्व होते हैं, जिनकी एक-जैसी काया और एक-जैसा नजरिया होता है। जैसे, शुभ काले देवतागण। यह चौथा चैतन्य स्थल है।
(५) ऐसे सत्व होते हैं, जो रूप-नजरिया पूर्णतः लाँघ कर, विरोधी-नजरिए ओझल होने पर, विभिन्न-नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनंत है’ [देखते हुए] अनंत आकाश-आयाम में रहते हैं। यह पाँचवा चैतन्य स्थल है।
(६) ऐसे सत्व होते हैं, जो अनंत आकाश-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘चैतन्य अनंत है’ [देखते हुए] अनंत चैतन्य-आयाम में रहते हैं। यह छटवा चैतन्य स्थल है।
(७) ऐसे सत्व होते हैं, जो अनंत चैतन्य-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] सूने-आयाम में रहते हैं। यह सातवा चैतन्य स्थल है।
(दो आयाम:) असंज्ञी [=नजरिया-रहित, अबोधगम्य] सत्वों का आयाम, और दूसरा न-संज्ञा-न-असंज्ञा [=न बोधगम्य, न अबोधगम्य] आयाम ।
आनन्द, चैतन्य का पहला स्थल है, ऐसे सत्व, जिनकी विविध काया और विविध नजरिए होते हैं, जैसे, मानव, कुछ तरह के देवतागण, और कुछ तरह के निचले लोक। अब, यदि कोई भिक्षु उसे अन्तर्ज्ञान से पता करता है, उसकी उत्पत्ति अन्तर्ज्ञान से पता करता है, उसकी विलुप्ति अन्तर्ज्ञान से पता करता है, उसके आकर्षण अन्तर्ज्ञान से पता करता है, उसकी खामी [दुष्परिणाम] अन्तर्ज्ञान से पता करता है, उससे निकलने का मार्ग अन्तर्ज्ञान से पता करता है, तो क्या उचित होगा कि वह उसी में मजा लेते [पड़ा] रहे?”
“नहीं, भंते!”
और, [उसी तरह,] चैतन्य का दूसरा स्थल… तीसरा स्थल… चौथा स्थल… पाँचवा स्थल… छटवा स्थल… सातवा स्थल… असंज्ञी सत्वों का आयाम… न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम है। अब, यदि कोई भिक्षु उसे अन्तर्ज्ञान से पता करता है, उसकी उत्पत्ति अन्तर्ज्ञान से पता करता है, उसकी विलुप्ति अन्तर्ज्ञान से पता करता है, उसके आकर्षण अन्तर्ज्ञान से पता करता है, उसकी खामी अन्तर्ज्ञान से पता करता है, उससे निकलने का मार्ग अन्तर्ज्ञान से पता करता है, तो क्या उचित होगा कि वह उसी में मजा लेते [पड़ा] रहे?”
“नहीं, भंते!”
इस तरह, आनन्द, जब कोई भिक्षु चैतन्य के सात स्थल और दो आयामो की उत्पत्ति, विलुप्ति, आकर्षण, खामी, निकलने का मार्ग को यथास्वरूप अन्तर्ज्ञान से पता करता है, तो वह अनासक्त होकर विमुक्त हो जाता है। उसे, आनन्द, प्रज्ञाविमुक्त भिक्षु कहते हैं।"
“आनन्द, आठ तरह के विमोक्ष होते हैं। कौन-से आठ?
(१) रूपवान होकर रूप देखना — पहला विमोक्ष है।
(२) भीतर से अरूप नजरिया होना और बाहरी रूप देखना — दूसरा विमोक्ष है।
(३) केवल अच्छाई [या सौंदर्य] देखना — तीसरा विमोक्ष है।
(४) रूप-नजरिया पूर्णतः लाँघ कर, विरोधी-नजरिए ओझल होने पर, विभिन्न-नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनंत है’ [देखते हुए] अनंत आकाश-आयाम में प्रवेश पाकर रहना — चौथा विमोक्ष है।
(५) अनंत आकाश-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘चैतन्य अनंत है’ [देखते हुए] अनंत चैतन्य-आयाम में प्रवेश पाकर रहना — पाँचवा विमोक्ष है।
(६) अनंत चैतन्य-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] सूने-आयाम में प्रवेश पाकर रहना — छटवा विमोक्ष है।
(७) सुने-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, न-संज्ञा-न-असंज्ञा [=न बोधगम्य, न अबोधगम्य] आयाम में प्रवेश पाकर रहना — सातवा विमोक्ष है।
(८) न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, संज्ञा और संवेदना निरोध [अवस्था] में प्रवेश पाकर रहना — आठवा विमोक्ष है।
आनन्द, कोई भिक्षु इन आठ विमोक्षों को प्राप्त करता है, और जब चाहो, जहाँ चाहो, जितनी देर चाहो, सीधे क्रम में, उलटे क्रम में, सीधे-उलटे [दोनों] क्रम में, प्रवेश पाता है, और निकलता है, और जो अभी इसी जीवन में आस्रवों का क्षय होकर अनाश्रव हो, चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति को प्रत्यक्ष जान कर साक्षात्कार कर रहता है। उसे, आनन्द, दोनों तरह से विमुक्त [उभतोभागविमुत्तो] भिक्षु कहते हैं। और, इस दोनों तरह से विमुक्ति के अधिक उत्तम और उत्कृष्ठतम कुछ नहीं है।
भगवान ने ऐसा कहा। संतुष्ट हुए आयुष्मान आनन्द ने भगवान के कथन का अनुमोदन किया।
पटिच्चसमुप्पादो
९५. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा कुरूसु विहरति कम्मासधम्मं नाम [कम्मासदम्मं नाम (स्या॰)] कुरूनं निगमो। अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते! याव गम्भीरो चायं, भन्ते, पटिच्चसमुप्पादो गम्भीरावभासो च, अथ च पन मे उत्तानकुत्तानको विय खायती’’ति। ‘‘मा हेवं, आनन्द, अवच, मा हेवं, आनन्द, अवच। गम्भीरो चायं, आनन्द, पटिच्चसमुप्पादो गम्भीरावभासो च। एतस्स, आनन्द, धम्मस्स अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमयं पजा तन्ताकुलकजाता कुलगण्ठिकजाता [गुलागुण्ठिकजाता (सी॰ पी॰), गुणगण्ठिकजाता (स्या॰)] मुञ्जपब्बजभूता अपायं दुग्गतिं विनिपातं संसारं नातिवत्तति।
९६. ‘‘‘अत्थि इदप्पच्चया जरामरण’न्ति इति पुट्ठेन सता, आनन्द, अत्थीतिस्स वचनीयं। ‘किंपच्चया जरामरण’न्ति इति चे वदेय्य, ‘जातिपच्चया जरामरण’न्ति इच्चस्स वचनीयं।
‘‘‘अत्थि इदप्पच्चया जाती’ति इति पुट्ठेन सता, आनन्द, अत्थीतिस्स वचनीयं। ‘किंपच्चया जाती’ति इति चे वदेय्य, ‘भवपच्चया जाती’ति इच्चस्स वचनीयं।
‘‘‘अत्थि इदप्पच्चया भवो’ति इति पुट्ठेन सता, आनन्द, अत्थीतिस्स वचनीयं। ‘किंपच्चया भवो’ति इति चे वदेय्य, ‘उपादानपच्चया भवो’ति इच्चस्स वचनीयं।
‘‘‘अत्थि इदप्पच्चया उपादान’न्ति इति पुट्ठेन सता, आनन्द, अत्थीतिस्स वचनीयं। ‘किंपच्चया उपादान’न्ति इति चे वदेय्य, ‘तण्हापच्चया उपादान’न्ति इच्चस्स वचनीयं।
‘‘‘अत्थि इदप्पच्चया तण्हा’ति इति पुट्ठेन सता, आनन्द, अत्थीतिस्स वचनीयं। ‘किंपच्चया तण्हा’ति इति चे वदेय्य, ‘वेदनापच्चया तण्हा’ति इच्चस्स वचनीयं।
‘‘‘अत्थि इदप्पच्चया वेदना’ति इति पुट्ठेन सता, आनन्द, अत्थीतिस्स वचनीयं। ‘किंपच्चया वेदना’ति इति चे वदेय्य, ‘फस्सपच्चया वेदना’ति इच्चस्स वचनीयं।
‘‘‘अत्थि इदप्पच्चया फस्सो’ति इति पुट्ठेन सता, आनन्द, अत्थीतिस्स वचनीयं। ‘किंपच्चया फस्सो’ति इति चे वदेय्य, ‘नामरूपपच्चया फस्सो’ति इच्चस्स वचनीयं।
‘‘‘अत्थि इदप्पच्चया नामरूप’न्ति इति पुट्ठेन सता, आनन्द, अत्थीतिस्स वचनीयं। ‘किंपच्चया नामरूप’न्ति इति चे वदेय्य, ‘विञ्ञाणपच्चया नामरूप’न्ति इच्चस्स वचनीयं।
‘‘‘अत्थि इदप्पच्चया विञ्ञाण’न्ति इति पुट्ठेन सता, आनन्द, अत्थीतिस्स वचनीयं। ‘किंपच्चया विञ्ञाण’न्ति इति चे वदेय्य, ‘नामरूपपच्चया विञ्ञाण’न्ति इच्चस्स वचनीयं।
९७. ‘‘इति खो, आनन्द, नामरूपपच्चया विञ्ञाणं, विञ्ञाणपच्चया नामरूपं, नामरूपपच्चया फस्सो, फस्सपच्चया वेदना, वेदनापच्चया तण्हा, तण्हापच्चया उपादानं, उपादानपच्चया भवो, भवपच्चया जाति, जातिपच्चया जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा सम्भवन्ति। एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होति।
९८. ‘‘‘जातिपच्चया जरामरण’न्ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा जातिपच्चया जरामरणं। जाति च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सेय्यथिदं – देवानं वा देवत्ताय, गन्धब्बानं वा गन्धब्बत्ताय, यक्खानं वा यक्खत्ताय, भूतानं वा भूतत्ताय, मनुस्सानं वा मनुस्सत्ताय, चतुप्पदानं वा चतुप्पदत्ताय, पक्खीनं वा पक्खित्ताय, सरीसपानं वा सरीसपत्ताय [सिरिंसपानं सिरिंसपत्ताय (सी॰ स्या॰)], तेसं तेसञ्च हि, आनन्द, सत्तानं तदत्ताय जाति नाभविस्स। सब्बसो जातिया असति जातिनिरोधा अपि नु खो जरामरणं पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो जरामरणस्स, यदिदं जाति’’।
९९. ‘‘‘भवपच्चया जाती’ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा भवपच्चया जाति। भवो च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सेय्यथिदं – कामभवो वा रूपभवो वा अरूपभवो वा, सब्बसो भवे असति भवनिरोधा अपि नु खो जाति पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो जातिया, यदिदं भवो’’।
१००. ‘‘‘उपादानपच्चया भवो’ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा उपादानपच्चया भवो। उपादानञ्च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सेय्यथिदं – कामुपादानं वा दिट्ठुपादानं वा सीलब्बतुपादानं वा अत्तवादुपादानं वा, सब्बसो उपादाने असति उपादाननिरोधा अपि नु खो भवो पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो भवस्स, यदिदं उपादानं’’।
१०१. ‘‘‘तण्हापच्चया उपादान’न्ति इति खो पनेतं वुत्तं तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा तण्हापच्चया उपादानं। तण्हा च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सेय्यथिदं – रूपतण्हा सद्दतण्हा गन्धतण्हा रसतण्हा फोट्ठब्बतण्हा धम्मतण्हा, सब्बसो तण्हाय असति तण्हानिरोधा अपि नु खो उपादानं पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो उपादानस्स, यदिदं तण्हा’’।
१०२. ‘‘‘वेदनापच्चया तण्हा’ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा वेदनापच्चया तण्हा। वेदना च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सेय्यथिदं – चक्खुसम्फस्सजा वेदना सोतसम्फस्सजा वेदना घानसम्फस्सजा वेदना जिव्हासम्फस्सजा वेदना कायसम्फस्सजा वेदना मनोसम्फस्सजा वेदना, सब्बसो वेदनाय असति वेदनानिरोधा अपि नु खो तण्हा पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो तण्हाय, यदिदं वेदना’’।
१०३. ‘‘इति खो पनेतं, आनन्द, वेदनं पटिच्च तण्हा, तण्हं पटिच्च परियेसना, परियेसनं पटिच्च लाभो, लाभं पटिच्च विनिच्छयो, विनिच्छयं पटिच्च छन्दरागो, छन्दरागं पटिच्च अज्झोसानं, अज्झोसानं पटिच्च परिग्गहो, परिग्गहं पटिच्च मच्छरियं, मच्छरियं पटिच्च आरक्खो। आरक्खाधिकरणं दण्डादानसत्थादानकलहविग्गहविवादतुवंतुवंपेसुञ्ञमुसावादा अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्ति।
१०४. ‘‘‘आरक्खाधिकरणं [आरक्खं पटिच्च आरक्खाधिकरणं (स्या॰)] दण्डादानसत्थादानकलहविग्गहविवादतुवंतुवंपेसुञ्ञमुसावादा अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्ती’ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा आरक्खाधिकरणं दण्डादानसत्थादानकलहविग्गहविवादतुवंतुवंपेसुञ्ञमुसावादा अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्ति। आरक्खो च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो आरक्खे असति आरक्खनिरोधा अपि नु खो दण्डादानसत्थादानकलहविग्गहविवादतुवंतुवंपेसुञ्ञमुसावादा अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवेय्यु’’न्ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो दण्डादानसत्थादानकलहविग्गहविवादतुवंतुवंपेसुञ्ञमुसावादानं अनेकेसं पापकानं अकुसलानं धम्मानं सम्भवाय यदिदं आरक्खो।
१०५. ‘‘‘मच्छरियं पटिच्च आरक्खो’ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा मच्छरियं पटिच्च आरक्खो। मच्छरियञ्च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो मच्छरिये असति मच्छरियनिरोधा अपि नु खो आरक्खो पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो आरक्खस्स, यदिदं मच्छरियं’’।
१०६. ‘‘‘परिग्गहं पटिच्च मच्छरिय’न्ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा परिग्गहं पटिच्च मच्छरियं। परिग्गहो च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो परिग्गहे असति परिग्गहनिरोधा अपि नु खो मच्छरियं पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो मच्छरियस्स, यदिदं परिग्गहो’’।
१०७. ‘‘‘अज्झोसानं पटिच्च परिग्गहो’ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा अज्झोसानं पटिच्च परिग्गहो। अज्झोसानञ्च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो अज्झोसाने असति अज्झोसाननिरोधा अपि नु खो परिग्गहो पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो परिग्गहस्स – यदिदं अज्झोसानं’’।
१०८. ‘‘‘छन्दरागं पटिच्च अज्झोसान’न्ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा छन्दरागं पटिच्च अज्झोसानं। छन्दरागो च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो छन्दरागे असति छन्दरागनिरोधा अपि नु खो अज्झोसानं पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो अज्झोसानस्स, यदिदं छन्दरागो’’।
१०९. ‘‘‘विनिच्छयं पटिच्च छन्दरागो’ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा विनिच्छयं पटिच्च छन्दरागो। विनिच्छयो च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो विनिच्छये असति विनिच्छयनिरोधा अपि नु खो छन्दरागो पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो छन्दरागस्स, यदिदं विनिच्छयो’’।
११०. ‘‘‘लाभं पटिच्च विनिच्छयो’ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा लाभं पटिच्च विनिच्छयो। लाभो च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो लाभे असति लाभनिरोधा अपि नु खो विनिच्छयो पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो विनिच्छयस्स, यदिदं लाभो’’।
१११. ‘‘‘परियेसनं पटिच्च लाभो’ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा परियेसनं पटिच्च लाभो। परियेसना च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो परियेसनाय असति परियेसनानिरोधा अपि नु खो लाभो पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो लाभस्स, यदिदं परियेसना’’।
११२. ‘‘‘तण्हं पटिच्च परियेसना’ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा तण्हं पटिच्च परियेसना। तण्हा च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सेय्यथिदं – कामतण्हा भवतण्हा विभवतण्हा, सब्बसो तण्हाय असति तण्हानिरोधा अपि नु खो परियेसना पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो परियेसनाय, यदिदं तण्हा। इति खो, आनन्द, इमे द्वे धम्मा [इमे धम्मा (क॰)] द्वयेन वेदनाय एकसमोसरणा भवन्ति’’।
११३. ‘‘‘फस्सपच्चया वेदना’ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा ‘फस्सपच्चया वेदना। फस्सो च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सेय्यथिदं – चक्खुसम्फस्सो सोतसम्फस्सो घानसम्फस्सो जिव्हासम्फस्सो कायसम्फस्सो मनोसम्फस्सो, सब्बसो फस्से असति फस्सनिरोधा अपि नु खो वेदना पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो वेदनाय, यदिदं फस्सो’’।
११४. ‘‘‘नामरूपपच्चया फस्सो’ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा नामरूपपच्चया फस्सो। येहि, आनन्द, आकारेहि येहि लिङ्गेहि येहि निमित्तेहि येहि उद्देसेहि नामकायस्स पञ्ञत्ति होति, तेसु आकारेसु तेसु लिङ्गेसु तेसु निमित्तेसु तेसु उद्देसेसु असति अपि नु खो रूपकाये अधिवचनसम्फस्सो पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘येहि, आनन्द, आकारेहि येहि लिङ्गेहि येहि निमित्तेहि येहि उद्देसेहि रूपकायस्स पञ्ञत्ति होति, तेसु आकारेसु…पे॰… तेसु उद्देसेसु असति अपि नु खो नामकाये पटिघसम्फस्सो पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘येहि, आनन्द, आकारेहि…पे॰… येहि उद्देसेहि नामकायस्स च रूपकायस्स च पञ्ञत्ति होति, तेसु आकारेसु…पे॰… तेसु उद्देसेसु असति अपि नु खो अधिवचनसम्फस्सो वा पटिघसम्फस्सो वा पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘येहि, आनन्द, आकारेहि…पे॰… येहि उद्देसेहि नामरूपस्स पञ्ञत्ति होति, तेसु आकारेसु …पे॰… तेसु उद्देसेसु असति अपि नु खो फस्सो पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो फस्सस्स, यदिदं नामरूपं’’।
११५. ‘‘‘विञ्ञाणपच्चया नामरूप’न्ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा विञ्ञाणपच्चया नामरूपं। विञ्ञाणञ्च हि, आनन्द, मातुकुच्छिस्मिं न ओक्कमिस्सथ, अपि नु खो नामरूपं मातुकुच्छिस्मिं समुच्चिस्सथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘विञ्ञाणञ्च हि, आनन्द, मातुकुच्छिस्मिं ओक्कमित्वा वोक्कमिस्सथ, अपि नु खो नामरूपं इत्थत्ताय अभिनिब्बत्तिस्सथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘विञ्ञाणञ्च हि, आनन्द, दहरस्सेव सतो वोच्छिज्जिस्सथ कुमारकस्स वा कुमारिकाय वा, अपि नु खो नामरूपं वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जिस्सथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो नामरूपस्स – यदिदं विञ्ञाणं’’।
११६. ‘‘‘नामरूपपच्चया विञ्ञाण’न्ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा नामरूपपच्चया विञ्ञाणं। विञ्ञाणञ्च हि, आनन्द, नामरूपे पतिट्ठं न लभिस्सथ, अपि नु खो आयतिं जातिजरामरणं दुक्खसमुदयसम्भवो [जातिजरामरणदुक्खसमुदयसम्भवो (सी॰ स्या॰ पी॰)] पञ्ञायेथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो विञ्ञाणस्स यदिदं नामरूपं। एत्तावता खो, आनन्द, जायेथ वा जीयेथ [जिय्येथ (क॰)] वा मीयेथ [मिय्येथ (क॰)] वा चवेथ वा उपपज्जेथ वा। एत्तावता अधिवचनपथो, एत्तावता निरुत्तिपथो, एत्तावता पञ्ञत्तिपथो, एत्तावता पञ्ञावचरं, एत्तावता वट्टं वत्तति इत्थत्तं पञ्ञापनाय यदिदं नामरूपं सह विञ्ञाणेन अञ्ञमञ्ञपच्चयता पवत्तति।
अत्तपञ्ञत्ति
११७. ‘‘कित्तावता च, आनन्द, अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति? रूपिं वा हि, आनन्द, परित्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति – ‘‘रूपी मे परित्तो अत्ता’’ति। रूपिं वा हि, आनन्द, अनन्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति – ‘रूपी मे अनन्तो अत्ता’ति। अरूपिं वा हि, आनन्द, परित्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति – ‘अरूपी मे परित्तो अत्ता’ति। अरूपिं वा हि, आनन्द, अनन्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति – ‘अरूपी मे अनन्तो अत्ता’ति।
११८. ‘‘तत्रानन्द, यो सो रूपिं परित्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति। एतरहि वा सो रूपिं परित्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति, तत्थ भाविं वा सो रूपिं परित्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति, ‘अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी’ति इति वा पनस्स होति। एवं सन्तं खो, आनन्द, रूपिं [रूपी (क॰)] परित्तत्तानुदिट्ठि अनुसेतीति इच्चालं वचनाय।
‘‘तत्रानन्द, यो सो रूपिं अनन्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति। एतरहि वा सो रूपिं अनन्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति, तत्थ भाविं वा सो रूपिं अनन्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति, ‘अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी’ति इति वा पनस्स होति। एवं सन्तं खो, आनन्द, रूपिं [रूपी (क॰)] अनन्तत्तानुदिट्ठि अनुसेतीति इच्चालं वचनाय।
‘‘तत्रानन्द, यो सो अरूपिं परित्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति। एतरहि वा सो अरूपिं परित्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति, तत्थ भाविं वा सो अरूपिं परित्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति, ‘अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी’ति इति वा पनस्स होति। एवं सन्तं खो, आनन्द, अरूपिं [अरूपी (क॰)] परित्तत्तानुदिट्ठि अनुसेतीति इच्चालं वचनाय।
‘‘तत्रानन्द, यो सो अरूपिं अनन्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति। एतरहि वा सो अरूपिं अनन्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति, तत्थ भाविं वा सो अरूपिं अनन्तं अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति, ‘अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी’ति इति वा पनस्स होति। एवं सन्तं खो, आनन्द, अरूपिं [अरूपी (क॰)] अनन्तत्तानुदिट्ठि अनुसेतीति इच्चालं वचनाय। एत्तावता खो, आनन्द, अत्तानं पञ्ञपेन्तो पञ्ञपेति।
नअत्तपञ्ञत्ति
११९. ‘‘कित्तावता च, आनन्द, अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति? रूपिं वा हि, आनन्द, परित्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति – ‘रूपी मे परित्तो अत्ता’ति। रूपिं वा हि, आनन्द, अनन्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति – ‘रूपी मे अनन्तो अत्ता’ति। अरूपिं वा हि, आनन्द, परित्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति – ‘अरूपी मे परित्तो अत्ता’ति। अरूपिं वा हि, आनन्द, अनन्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति – ‘अरूपी मे अनन्तो अत्ता’ति।
१२०. ‘‘तत्रानन्द, यो सो रूपिं परित्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति। एतरहि वा सो रूपिं परित्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति, तत्थ भाविं वा सो रूपिं परित्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति, ‘अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी’ति इति वा पनस्स न होति। एवं सन्तं खो, आनन्द, रूपिं परित्तत्तानुदिट्ठि नानुसेतीति इच्चालं वचनाय।
‘‘तत्रानन्द, यो सो रूपिं अनन्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति। एतरहि वा सो रूपिं अनन्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति, तत्थ भाविं वा सो रूपिं अनन्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति, ‘अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी’ति इति वा पनस्स न होति। एवं सन्तं खो, आनन्द, रूपिं अनन्तत्तानुदिट्ठि नानुसेतीति इच्चालं वचनाय।
‘‘तत्रानन्द, यो सो अरूपिं परित्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति। एतरहि वा सो अरूपिं परित्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति, तत्थ भाविं वा सो अरूपिं परित्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति, ‘अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी’ति इति वा पनस्स न होति। एवं सन्तं खो, आनन्द, अरूपिं परित्तत्तानुदिट्ठि नानुसेतीति इच्चालं वचनाय।
‘‘तत्रानन्द, यो सो अरूपिं अनन्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति। एतरहि वा सो अरूपिं अनन्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति, तत्थ भाविं वा सो अरूपिं अनन्तं अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति, ‘अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी’ति इति वा पनस्स न होति। एवं सन्तं खो, आनन्द, अरूपिं अनन्तत्तानुदिट्ठि नानुसेतीति इच्चालं वचनाय। एत्तावता खो, आनन्द, अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञपेति।
अत्तसमनुपस्सना
१२१. ‘‘कित्तावता च, आनन्द, अत्तानं समनुपस्समानो समनुपस्सति? वेदनं वा हि, आनन्द, अत्तानं समनुपस्समानो समनुपस्सति – ‘वेदना मे अत्ता’ति। ‘न हेव खो मे वेदना अत्ता, अप्पटिसंवेदनो मे अत्ता’ति इति वा हि, आनन्द, अत्तानं समनुपस्समानो समनुपस्सति। ‘न हेव खो मे वेदना अत्ता, नोपि अप्पटिसंवेदनो मे अत्ता, अत्ता मे वेदियति, वेदनाधम्मो हि मे अत्ता’ति इति वा हि, आनन्द, अत्तानं समनुपस्समानो समनुपस्सति।
१२२. ‘‘तत्रानन्द, यो सो एवमाह – ‘वेदना मे अत्ता’ति, सो एवमस्स वचनीयो – ‘तिस्सो खो इमा, आवुसो, वेदना – सुखा वेदना दुक्खा वेदना अदुक्खमसुखा वेदना। इमासं खो त्वं तिस्सन्नं वेदनानं कतमं अत्ततो समनुपस्ससी’ति? यस्मिं, आनन्द, समये सुखं वेदनं वेदेति, नेव तस्मिं समये दुक्खं वेदनं वेदेति, न अदुक्खमसुखं वेदनं वेदेति; सुखंयेव तस्मिं समये वेदनं वेदेति। यस्मिं, आनन्द, समये दुक्खं वेदनं वेदेति, नेव तस्मिं समये सुखं वेदनं वेदेति, न अदुक्खमसुखं वेदनं वेदेति; दुक्खंयेव तस्मिं समये वेदनं वेदेति। यस्मिं, आनन्द, समये अदुक्खमसुखं वेदनं वेदेति, नेव तस्मिं समये सुखं वेदनं वेदेति, न दुक्खं वेदनं वेदेति; अदुक्खमसुखंयेव तस्मिं समये वेदनं वेदेति।
१२३. ‘‘सुखापि खो, आनन्द, वेदना अनिच्चा सङ्खता पटिच्चसमुप्पन्ना खयधम्मा वयधम्मा विरागधम्मा निरोधधम्मा। दुक्खापि खो, आनन्द, वेदना अनिच्चा सङ्खता पटिच्चसमुप्पन्ना खयधम्मा वयधम्मा विरागधम्मा निरोधधम्मा। अदुक्खमसुखापि खो, आनन्द, वेदना अनिच्चा सङ्खता पटिच्चसमुप्पन्ना खयधम्मा वयधम्मा विरागधम्मा निरोधधम्मा। तस्स सुखं वेदनं वेदियमानस्स ‘एसो मे अत्ता’ति होति। तस्सायेव सुखाय वेदनाय निरोधा ‘ब्यगा [ब्यग्गा (सी॰ क॰)] मे अत्ता’ति होति। दुक्खं वेदनं वेदियमानस्स ‘एसो मे अत्ता’ति होति। तस्सायेव दुक्खाय वेदनाय निरोधा ‘ब्यगा मे अत्ता’ति होति। अदुक्खमसुखं वेदनं वेदियमानस्स ‘एसो मे अत्ता’ति होति। तस्सायेव अदुक्खमसुखाय वेदनाय निरोधा ‘ब्यगा मे अत्ता’ति होति। इति सो दिट्ठेव धम्मे अनिच्चसुखदुक्खवोकिण्णं उप्पादवयधम्मं अत्तानं समनुपस्समानो समनुपस्सति, यो सो एवमाह – ‘वेदना मे अत्ता’ति। तस्मातिहानन्द, एतेन पेतं नक्खमति – ‘वेदना मे अत्ता’ति समनुपस्सितुं।
१२४. ‘‘तत्रानन्द, यो सो एवमाह – ‘न हेव खो मे वेदना अत्ता, अप्पटिसंवेदनो मे अत्ता’ति, सो एवमस्स वचनीयो – ‘यत्थ पनावुसो, सब्बसो वेदयितं नत्थि अपि नु खो, तत्थ ‘‘अयमहमस्मी’’ति सिया’’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एतेन पेतं नक्खमति – ‘न हेव खो मे वेदना अत्ता, अप्पटिसंवेदनो मे अत्ता’ति समनुपस्सितुं।
१२५. ‘‘तत्रानन्द, यो सो एवमाह – ‘न हेव खो मे वेदना अत्ता, नोपि अप्पटिसंवेदनो मे अत्ता, अत्ता मे वेदियति, वेदनाधम्मो हि मे अत्ता’ति। सो एवमस्स वचनीयो – वेदना च हि, आवुसो, सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं अपरिसेसा निरुज्झेय्युं। सब्बसो वेदनाय असति वेदनानिरोधा अपि नु खो तत्थ ‘अयमहमस्मी’ति सिया’’ति? ‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, एतेन पेतं नक्खमति – ‘‘न हेव खो मे वेदना अत्ता, नोपि अप्पटिसंवेदनो मे अत्ता, अत्ता मे वेदियति, वेदनाधम्मो हि मे अत्ता’ति समनुपस्सितुं।
१२६. ‘‘यतो खो, आनन्द, भिक्खु नेव वेदनं अत्तानं समनुपस्सति, नोपि अप्पटिसंवेदनं अत्तानं समनुपस्सति, नोपि ‘अत्ता मे वेदियति, वेदनाधम्मो हि मे अत्ता’ति समनुपस्सति। सो एवं न समनुपस्सन्तो न च किञ्चि लोके उपादियति, अनुपादियं न परितस्सति, अपरितस्सं [अपरितस्सनं (क॰)] पच्चत्तञ्ञेव परिनिब्बायति, ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति। एवं विमुत्तचित्तं खो, आनन्द, भिक्खुं यो एवं वदेय्य – ‘होति तथागतो परं मरणा इतिस्स [इति सा (अट्ठकथायं पाठन्तरं)] दिट्ठी’ति, तदकल्लं। ‘न होति तथागतो परं मरणा इतिस्स दिट्ठी’ति, तदकल्लं। ‘होति च न च होति तथागतो परं मरणा इतिस्स दिट्ठी’ति, तदकल्लं। ‘नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा इतिस्स दिट्ठी’ति, तदकल्लं। तं किस्स हेतु? यावता, आनन्द, अधिवचनं यावता अधिवचनपथो, यावता निरुत्ति यावता निरुत्तिपथो, यावता पञ्ञत्ति यावता पञ्ञत्तिपथो, यावता पञ्ञा यावता पञ्ञावचरं, यावता वट्टं [यावता वट्टं वट्टति (क॰ सी॰)], यावता वट्टति [यावता वट्टं वट्टति (क॰ सी॰)], तदभिञ्ञाविमुत्तो भिक्खु, तदभिञ्ञाविमुत्तं भिक्खुं ‘न जानाति न पस्सति इतिस्स दिट्ठी’ति, तदकल्लं।
सत्त विञ्ञाणट्ठिति
१२७. ‘‘सत्त खो, आनन्द [सत्त खो इमा आनन्द (क॰ सी॰ स्या॰)], विञ्ञाणट्ठितियो, द्वे आयतनानि। कतमा सत्त? सन्तानन्द, सत्ता नानत्तकाया नानत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि मनुस्सा, एकच्चे च देवा, एकच्चे च विनिपातिका। अयं पठमा विञ्ञाणट्ठिति। सन्तानन्द, सत्ता नानत्तकाया एकत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा ब्रह्मकायिका पठमाभिनिब्बत्ता। अयं दुतिया विञ्ञाणट्ठिति। सन्तानन्द, सत्ता एकत्तकाया नानत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा आभस्सरा। अयं ततिया विञ्ञाणट्ठिति। सन्तानन्द, सत्ता एकत्तकाया एकत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा सुभकिण्हा। अयं चतुत्थी विञ्ञाणट्ठिति। सन्तानन्द, सत्ता सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनूपगा। अयं पञ्चमी विञ्ञाणट्ठिति। सन्तानन्द, सत्ता सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनूपगा। अयं छट्ठी विञ्ञाणट्ठिति। सन्तानन्द, सत्ता सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनूपगा। अयं सत्तमी विञ्ञाणट्ठिति। असञ्ञसत्तायतनं नेवसञ्ञानासञ्ञायतनमेव दुतियं।
१२८. ‘‘तत्रानन्द, यायं पठमा विञ्ञाणट्ठिति नानत्तकाया नानत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि मनुस्सा, एकच्चे च देवा, एकच्चे च विनिपातिका। यो नु खो, आनन्द, तञ्च पजानाति, तस्सा च समुदयं पजानाति, तस्सा च अत्थङ्गमं पजानाति, तस्सा च अस्सादं पजानाति, तस्सा च आदीनवं पजानाति, तस्सा च निस्सरणं पजानाति, कल्लं नु तेन तदभिनन्दितु’’न्ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’…पे॰… ‘‘तत्रानन्द, यमिदं असञ्ञसत्तायतनं। यो नु खो, आनन्द, तञ्च पजानाति, तस्स च समुदयं पजानाति, तस्स च अत्थङ्गमं पजानाति, तस्स च अस्सादं पजानाति, तस्स च आदीनवं पजानाति, तस्स च निस्सरणं पजानाति, कल्लं नु तेन तदभिनन्दितु’’न्ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘तत्रानन्द, यमिदं नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं। यो नु खो, आनन्द, तञ्च पजानाति, तस्स च समुदयं पजानाति, तस्स च अत्थङ्गमं पजानाति, तस्स च अस्सादं पजानाति, तस्स च आदीनवं पजानाति, तस्स च निस्सरणं पजानाति, कल्लं नु तेन तदभिनन्दितु’’न्ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। यतो खो, आनन्द, भिक्खु इमासञ्च सत्तन्नं विञ्ञाणट्ठितीनं इमेसञ्च द्विन्नं आयतनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादा विमुत्तो होति, अयं वुच्चतानन्द, भिक्खु पञ्ञाविमुत्तो।
अट्ठ विमोक्खा
१२९. ‘‘अट्ठ खो इमे, आनन्द, विमोक्खा। कतमे अट्ठ? रूपी रूपानि पस्सति अयं पठमो विमोक्खो। अज्झत्तं अरूपसञ्ञी बहिद्धा रूपानि पस्सति, अयं दुतियो विमोक्खो। सुभन्तेव अधिमुत्तो होति, अयं ततियो विमोक्खो। सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं चतुत्थो विमोक्खो। सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं पञ्चमो विमोक्खो। सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं छट्ठो विमोक्खो। सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म ‘नेवसञ्ञानासञ्ञा’यतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं सत्तमो विमोक्खो। सब्बसो नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समतिक्कम्म सञ्ञावेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति, अयं अट्ठमो विमोक्खो। इमे खो, आनन्द, अट्ठ विमोक्खा।
१३०. ‘‘यतो खो, आनन्द, भिक्खु इमे अट्ठ विमोक्खे अनुलोमम्पि समापज्जति, पटिलोमम्पि समापज्जति, अनुलोमपटिलोमम्पि समापज्जति, यत्थिच्छकं यदिच्छकं यावतिच्छकं समापज्जतिपि वुट्ठातिपि। आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति, अयं वुच्चतानन्द, भिक्खु उभतोभागविमुत्तो। इमाय च आनन्द उभतोभागविमुत्तिया अञ्ञा उभतोभागविमुत्ति उत्तरितरा वा पणीततरा वा नत्थी’’ति। इदमवोच भगवा। अत्तमनो आयस्मा आनन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दीति।
महानिदानसुत्तं निट्ठितं दुतियं।