नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

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ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह में गृद्धकूट पर्वत पर विहार कर रहे थे। उस समय मगधराज अजातशत्रु वैदेहीपुत्र वज्जीयों पर आक्रमण करना चाहता था। वह कहता, “मैं इन महा-बलशाली महा-प्रभावशाली वज्जियों को खत्म कर दूँगा, विनाश कर दूँगा, तबाह कर दूँगा।”

तब मगधराज अजातशत्रु ने मगध के मुख्यमंत्री वर्षकार ब्राह्मण से कहा, “ब्राह्मण, भगवान के पास जाओ, और जाकर मेरे नाम से भगवान के चरणों में सिर रखकर वंदन करो। और हालचाल पुछना कि उनका स्वास्थ्य ठीक है, चुस्त है, बलपूर्वक है, सुख से है। और फिर कहना, ‘भंते, मगध का राजा अजातशत्रु वज्जियों पर आक्रमण करना चाहता है। वह कहता है, ‘मैं इन महा-बलशाली महा-प्रभावशाली वज्जियों को खत्म कर दूँगा, विनाश कर दूँगा, तबाह कर दूँगा।’ फिर भगवान जैसा बोले, उसे अच्छे से आकर मुझे बताना। क्योंकि तथागत कभी कुछ व्यर्थ नहीं कहते।”

१. वर्षकार ब्राह्मण

“ठीक है, महाशय!” वर्षकार ब्राह्मण ने उत्तर दिया और अच्छे-अच्छे रथों को तैयार कर, सबसे अच्छे रथ पर चढ़कर, अच्छे-अच्छे रथों के साथ राजगृह से निकला और गृद्धकूट पर्वत की ओर चल पड़ा। जहाँ तक रथ जा सकता था वहाँ तक रथ से गया। फिर रथ से उतर कर पैदल भगवान के पास गया, और जाकर भगवान से हालचाल लिया। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप करने पर वह एक ओर बैठ गया, और भगवान से कहा:

“भंते, मगध का राजा अजातशत्रु वैदेहीपुत्र भगवान के चरणों में सिर रखकर वंदन करता है। और हालचाल पुछता है कि आप का स्वास्थ्य ठीक है, चुस्त है, बलपूर्वक है, सुख से है? और, भंते, मगध का राजा अजातशत्रु वज्जियों पर आक्रमण करना चाहता है। वह कहता है, ‘मैं इन महा-बलशाली महा-प्रभावशाली वज्जियों को खत्म कर दूँगा, विनाश कर दूँगा, तबाह कर दूँगा।’”

२. अपरिहानिय धर्म

उस समय आयुष्मान आनन्द भगवान के पीछे खड़े रह कर भगवान के लिए पंखा झल रहे थे। भगवान ने आयुष्मान आनन्द को संबोधित किया:

(१) “क्या तुमने सुना है, आनन्द, कि वज्जी लोग अक्सर आपस में [सहमति बनाने के लिए] मिलते हैं, बार-बार मिलते हैं?”

“हाँ, भंते, मैंने सुना है कि वज्जी लोग अक्सर आपस में मिलते हैं, बार-बार मिलते हैं।”

“आनन्द, जब तक वज्जी लोग आपस में अक्सर मिलते रहेंगे, बार-बार मिलते रहेंगे, तब तक वज्जियों की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(२) और, आनन्द, क्या तुमने सुना है कि वज्जी लोग एकता के साथ मिलते हैं, एकता के साथ निकलते हैं, एकता के साथ वज्जी-कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं?”

“हाँ, भंते, मैंने सुना है कि वज्जी लोग एकता के साथ मिलते हैं, एकता के साथ निकलते हैं, एकता के साथ वज्जी-कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं।”

“आनन्द, जब तक वज्जी लोग एकता के साथ मिलते रहेंगे, एकता के साथ निकलते रहेंगे, एकता के साथ वज्जी-कर्तव्यों का निर्वहन करते रहेंगे, तक तक वज्जियों की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(३) और, आनन्द, क्या तुमने सुना है कि वज्जी लोग नए नियम [=कानून] नहीं बनाते हैं, पुराने नियमों को निरस्त नहीं करते हैं, बल्कि पुराने वज्जीधर्म के अनुसार ही चलते हैं?”

“हाँ, भंते, मैंने सुना है कि वज्जी लोग नए नियम नहीं बनाते हैं, पुराने नियमों को निरस्त नहीं करते हैं, बल्कि पुराने वज्जीधर्म के अनुसार ही चलते हैं।”

“आनन्द, जब तक वज्जी लोग नए नियम नहीं बनाते रहेंगे, पुराने नियमों को निरस्त नहीं करते रहेंगे, बल्कि पुराने वज्जीधर्म के अनुसार ही चलते रहेंगे, तक तक वज्जियों की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(४) और, आनन्द, क्या तुमने सुना है कि वज्जी लोग वृद्ध वज्जियों का आदर करते हैं, सत्कार करते हैं, उन्हें मानते हैं, पूजते हैं, उन्हें सुनने-योग्य समझते हैं?”

“हाँ, भंते, मैंने सुना है कि वज्जी लोग वृद्ध वज्जियों का आदर करते हैं, सत्कार करते हैं, उन्हें मानते हैं, पूजते हैं, उन्हें सुनने-योग्य समझते हैं।”

“आनन्द, जब तक वज्जी लोग वृद्ध वज्जियों का आदर करते रहेंगे, सत्कार करते रहेंगे, उन्हें मानते रहेंगे, पूजते रहेंगे, उन्हें सुनने-योग्य समझते रहेंगे, तब तक वज्जियों की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(५) और, आनन्द, क्या तुमने सुना है कि वज्जी लोग कुल [=परिवार की] स्त्रियॉं को, कुल कुमारियों को नहीं उठवाते हैं, उनका बलात्कार नहीं करते हैं?”

“हाँ, भंते, मैंने सुना है कि वज्जी लोग कुल स्त्रियॉं को, कुल कुमारियों को उठवाते नहीं हैं, उनका बलात्कार नहीं करते हैं।”

“आनन्द, जब तक वज्जी लोग कुल स्त्रियॉं को, कुल कुमारियों को उठवाते नहीं रहेंगे, उनका बलात्कार नहीं करते रहेंगे, तब तक वज्जियों की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(६) और, आनन्द, क्या तुमने सुना है कि वज्जी लोग [नगर के] भीतर और बाहर के वज्जी-चैत्यों का आदर करते हैं, सत्कार करते हैं, उन्हें मानते हैं, पूजते हैं, पहले से दिया जाता दान, पहले से धर्मानुसार दी जाती बलि को नजरंदाज नहीं करते हैं।”

“हाँ, भंते, मैंने सुना है कि वज्जी लोग भीतर और बाहर के वज्जी-चैत्यों का आदर करते हैं, सत्कार करते हैं, उन्हें मानते हैं, पूजते हैं, पहले से दिया जाता दान, पहले से धर्मानुसार दी जाती बलि को नजरंदाज नहीं करते हैं।”

“आनन्द, जब तक वज्जी लोग भीतर और बाहर के वज्जी-चैत्यों का आदर करते रहेंगे, सत्कार करते रहेंगे, उन्हें मानते रहेंगे, पूजते रहेंगे, पहले से दिया जाता दान, पहले से धर्मानुसार दी जाती बलि को नजरंदाज नहीं करते रहेंगे, तब तक वज्जियों की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(६) और, आनन्द, क्या तुमने सुना है कि वज्जी लोग अरहंतों की धर्मानुसार अच्छी तरह से रक्षण करते हैं, आश्रय देते हैं, सुरक्षा देते हैं, ताकि भविष्य में ज्यादा अरहंत राज्य में आएँ, और आ चुके अरहंत सुख से रहें।”

“हाँ, भंते, मैंने सुना है कि वज्जी लोग अरहंतों की धर्मानुसार अच्छी तरह से रक्षण करते हैं, आश्रय देते हैं, सुरक्षा देते हैं, ताकि भविष्य में ज्यादा अरहंत राज्य में आएँ, और आ चुके अरहंत सुख से रहें।”

“आनन्द, जब तक वज्जी लोग अरहंतों की धर्मानुसार अच्छी तरह से रक्षण करते रहेंगे, आश्रय देते रहेंगे, सुरक्षा देते रहेंगे, ताकि भविष्य में ज्यादा अरहंत राज्य में आएँ, और आ चुके अरहंत सुख से रहें, तब तक वज्जियों की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।”

तब भगवान ने मगध के मुख्यमंत्री वर्षकार ब्राह्मण को संबोधित किया, “ब्राह्मण, मैं एक समय वैशाली के सारन्दद चैत्य में रह रहा था। वहाँ मैंने वज्जियों को ये सात अपरिहानिय धर्म की देशना की थी। और, जब तक, ब्राह्मण, ये सात अपरिहानिय धर्म वज्जियों में बने रहेंगे, जब तक ये सात अपरिहानिय धर्म वज्जियों में पालन होते दिखायी देंगे, तब तक वज्जियों की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।”

“गोतम महाशय, यदि वज्जी लोग इनमें से एक भी अपरिहानिय धर्म का पालन करें, तो वज्जियों की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं। सात अपरिहानिय धर्म का कहना ही क्या! मगधराज अजातशत्रु युद्ध में वज्जियों को पराजित नहीं कर सकता, बजाय रिश्वत [=दाम] देकर या फूट डालकर [=भेद]। ठीक है, तब गौतम महाशय, हम जाते है। हमें बहुत काम हैं।”

“जो समय उचित समझो, ब्राह्मण।”

तब मगध के मुख्यमंत्री वर्षकार ब्राह्मण ने भगवान की बात का अभिनंदन कर, अनुमोदन कर आसन से उठकर चला गया।

३. भिक्षु अपरिहानिय धर्म

वर्षाकार ब्राह्मण के जाने के थोड़ी देर पश्चात, भगवान ने आयुष्मान आनन्द से कहा, “जाओ, आनन्द, जितने भिक्षुओं ने राजगृह के समीप निश्रय लिया हैं, उन सभी को सभागृह में एकत्रित करो।”

“हाँ, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया और जितने भिक्षुओं ने राजगृह के समीप निश्रय लिया था, उन सभी को सभागृह में एकत्रित किया और भगवान के पास गए। भगवान को अभिवादन कर एक ओर खड़े हुए, और भगवान से कहा, “भंते, भिक्षुसंघ एकत्रित हो चुका है। भंते, भगवान, जो समय उचित समझे।”

संघ के प्रति

तब भगवान आसन से उठकर सभागृह में गए और बिछे आसन पर बैठ गए। बैठकर भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं, सात अपरिहानिय धर्म का उपदेश देता हूँ। ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।

“हाँ, भंते!” भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया।

भगवान ने कहा:

(१) भिक्षुओं, जब तक भिक्षु आपस में अक्सर मिलते रहेंगे, बार-बार मिलते रहेंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(२) जब तक भिक्षु एकता के साथ मिलते रहेंगे, एकता के साथ निकलते रहेंगे, एकता के साथ भिक्षु-कर्तव्यों का निर्वहन करते रहेंगे, तक तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(३) जब तक भिक्षु नए नियम नहीं बनाते रहेंगे, पुराने नियमों को निरस्त नहीं करते रहेंगे, बल्कि बताएँ शिक्षापदों के अनुसार ही चलते रहेंगे, तक तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(४) जब तक भिक्षु थेर [=वरिष्ठ] भिक्षुओं का, दीर्घकालीन और चिरकाल से प्रवज्यित भिक्षुओं का, संघ-पिता और संघ-परिनायक [=मार्गदर्शक] भिक्षुओं का आदर करते रहेंगे, सत्कार करते रहेंगे, उन्हें मानते रहेंगे, पूजते रहेंगे, उन्हें सुनने-योग्य समझते रहेंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(५) जब तक भिक्षु उत्पन्न हुई पुनर्भव [दुबारा अस्तित्व] की तृष्णा के वशीभूत नहीं चले जाते, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(६) जब तक भिक्षु अरण्य-निवास की अपेक्षा रखते हैं, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(७) जब तक प्रत्येक भिक्षु यह स्मृति बनाए रखता है कि “आने वाले सदाचारी सब्रह्मचारी आएँ, और आ चुके सदाचारी सब्रह्मचारी सुख से रहें”, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

भिक्षुओं, जब तक ये सात अपरिहानिय धर्म भिक्षुओं में बने रहेंगे, जब तक ये सात अपरिहानिय धर्म भिक्षुओं में पालन होते दिखायी देंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

व्यर्थता के प्रति

अब, भिक्षुओं, अगले सात अपरिहानिय धर्म का उपदेश देता हूँ। ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।

“हाँ, भंते!” भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया।

भगवान ने कहा:

(१) भिक्षुओं, जब तक भिक्षु कार्य [निर्माण-कार्य या दूसरे कामकाज] में रस नहीं लेंगे, कार्य में लिप्त नहीं रहेंगे, कार्य में लीन होकर समर्पित नहीं रहेंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(२) जब तक भिक्षु व्यर्थ बातचीत में रस नहीं लेंगे, व्यर्थ बातचीत में लिप्त नहीं रहेंगे, व्यर्थ बातचीत में लीन होकर समर्पित नहीं रहेंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(३) जब तक भिक्षु नींद में रस नहीं लेंगे, नींद में लिप्त नहीं रहेंगे, नींद में लीन होकर समर्पित नहीं रहेंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(४) जब तक भिक्षु समूह [=लोगों में उलझे रहने] में रस नहीं लेंगे, समूह में लिप्त नहीं रहेंगे, समूह में लीन होकर समर्पित नहीं रहेंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(५) जब तक भिक्षु दुष्ट और पापी इच्छाओं के वशीभूत नहीं चले जाते, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(६) जब तक भिक्षुओं के पापी मित्र, पापी सहायक, पापी सहचारी नहीं होते, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(७) जब तक भिक्षु किसी तुच्छ विशेष-अवस्था को प्राप्त कर बीच में नहीं रुकेंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

भिक्षुओं, जब तक ये सात अपरिहानिय धर्म भिक्षुओं में बने रहेंगे, जब तक ये सात अपरिहानिय धर्म भिक्षुओं में पालन होते दिखायी देंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

आध्यात्मिक इंद्रिय

अब, भिक्षुओं, अगले सात अपरिहानिय धर्म का उपदेश देता हूँ। ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।

“हाँ, भंते!” भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया।

भगवान ने कहा:

भिक्षुओं, जब तक भिक्षुओं में श्रद्धा… लज्जा… तत्परता… बहुत धर्म सुनना… ऊर्जावान बने रहना…स्थापित स्मरणशीलता… और अन्तर्ज्ञान होगा, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

भिक्षुओं, जब तक ये सात अपरिहानिय धर्म भिक्षुओं में बने रहेंगे, जब तक ये सात अपरिहानिय धर्म भिक्षुओं में पालन होते दिखायी देंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

संबोधि अंग

अब, भिक्षुओं, अगले सात अपरिहानिय धर्म का उपदेश देता हूँ। ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।

“हाँ, भंते!” भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया।

भगवान ने कहा:

भिक्षुओं, जब तक भिक्षुओं में स्मरणशीलता [=स्मृति] संबोधि अंग… स्वभाव की जाँच [=धम्मविचय] संबोधि अंग… ऊर्जा[=वीरिय] संबोधि अंग… प्रफुल्लता [=प्रीति] संबोधि अंग… प्रशान्ति [=पस्सद्धि] संबोधि अंग… समाधि संबोधि अंग… और तटस्थता [=उपेक्षा] संबोधि अंग होगा, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

भिक्षुओं, जब तक ये सात अपरिहानिय धर्म भिक्षुओं में बने रहेंगे, जब तक ये सात अपरिहानिय धर्म भिक्षुओं में पालन होते दिखायी देंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

देखने का नजरिया

अब, भिक्षुओं, अगले सात अपरिहानिय धर्म का उपदेश देता हूँ। ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।

“हाँ, भंते!” भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया।

भगवान ने कहा:

भिक्षुओं, जब तक भिक्षुओं में अनित्य नजरिया… अनात्म नजरिया… अशुभ नजरिया [=सुंदर नहीं देखना]… आदीनव नजरिया [=खामियाँ तलाशना]… प्रहाण नजरिया [=त्याग का अवसर तलाशना]… विराग नजरिया [=आसक्तियों में दिलचस्पी गँवाना]… निरोध नजरिया [=रोकने और खत्म करने का अवसर तलाशना] बना रहेगा, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

भिक्षुओं, जब तक ये सात अपरिहानिय धर्म भिक्षुओं में बने रहेंगे, जब तक ये सात अपरिहानिय धर्म भिक्षुओं में पालन होते दिखायी देंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

ब्रह्मविहार

अब, भिक्षुओं, अगले छह अपरिहानिय धर्म का उपदेश देता हूँ। ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।

“हाँ, भंते!” भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया।

भगवान ने कहा:

(१) भिक्षुओं, जब तक भिक्षु अपने सब्रह्मचारियों के लिए लगातार सद्भावपूर्ण [=मेत्ता] शारीरिक कर्म करते रहेंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(२) जब तक भिक्षु अपने सब्रह्मचारियों के लिए लगातार सद्भावपूर्ण वाणी कर्म करते रहेंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(३) जब तक भिक्षु अपने सब्रह्मचारियों के लिए लगातार सद्भावपूर्ण मनो कर्म करते रहेंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(४) जब तक भिक्षु धार्मिक धर्मानुसार प्राप्त दान वस्तुओं का, भले ही वह भिक्षापात्र का भोजन ही क्यों न हो, बिना बाँटे भोग नहीं करेंगे, बल्कि उन्हें शीलवान सब्रह्मचारियों के साथ समान-रूप से बाँटकर भोग करते रहेंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(५) जब तक भिक्षु अपने सब्रह्मचारियों के साथ मिलकर, उनके समक्ष और उनके पीठ पीछे भी, ऐसे शील से संपन्न होकर विहार करते रहेंगे, जो अखंडित रहें, अछिद्रित रहें, बेदाग रहें, बेधब्बा रहें, निष्कलंक रहें, विद्वानों द्वारा प्रशंसित हो, छुटकारा दिलाते हो, और समाधि की ओर बढ़ाते हो, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

(६) जब तक भिक्षु अपने सब्रह्मचारियों के साथ मिलकर, उनके समक्ष और उनके पीठ पीछे भी, ऐसी दृष्टि से संपन्न होकर विहार करते रहेंगे, जो आर्य हो, [संसार से] बाहर ले जाती हो, उसके धारक के दुःखों का सम्यक अन्त कराती हो, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

भिक्षुओं, जब तक ये छह अपरिहानिय धर्म भिक्षुओं में बने रहेंगे, जब तक ये छह अपरिहानिय धर्म भिक्षुओं में पालन होते दिखायी देंगे, तब तक भिक्षुओं की वृद्धि ही होगी, हानि नहीं।

और, भगवान ने राजगृह के गृद्धकूट पर्वत पर विहार करते हुए भिक्षुओं को अक्सर धर्म उपदेश दिया, “ऐसा शील होता है, ऐसी समाधि होती है, ऐसा अन्तर्ज्ञान होता है। शील से विकसित [पोषित] समाधि का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। समाधि से विकसित अन्तर्ज्ञान का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। अन्तर्ज्ञान से विकसित चित्त सही तरह आस्रव-मुक्त होता है, ये कामुक आस्रव, भव आस्रव, अविद्या आस्रव।”

भगवान राजगृह में जितना रुकना चाहते थे, उतना रुके, और फिर आयुष्मान आनन्द से कहा, “चलो, आनन्द, अम्बलट्ठिका जाते हैं।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान विशाल भिक्षुसंघ के साथ अम्बलट्ठिका पहुँचे, और वहाँ के राजसी [अतिथि] आवास में विहार करने लगे। वहाँ अम्बलट्ठिका के राजसी आवास में रहते हुए भी, भगवान ने भिक्षुओं को अक्सर इस तरह का धर्म उपदेश दिया, “ऐसा शील होता है, ऐसी समाधि होती है, ऐसा अन्तर्ज्ञान होता है। शील से विकसित [पोषित] समाधि का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। समाधि से विकसित अन्तर्ज्ञान का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। अन्तर्ज्ञान से विकसित चित्त सही तरह आस्रव-मुक्त होता है, ये कामुक आस्रव, भव आस्रव, अविद्या आस्रव।”

भगवान अम्बलट्ठिका में जितना रुकना चाहते थे, उतना रुके, और फिर आयुष्मान आनन्द से कहा, “चलो, आनन्द, नालन्दा जाते हैं।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान विशाल भिक्षुसंघ के साथ नालन्दा पहुँचे, और वहाँ के पावारिक आम्रवन में विहार करने लगे।

४. सारिपुत्त का सिंहनाद

तब आयुष्मान सारिपुत्त भगवान के पास गए, और जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान सारिपुत्त ने भगवान से कहा, “भंते, मुझे भगवान पर विश्वास है कि संबोधि को लेकर भगवान के प्रत्यक्ष ज्ञान के आगे न कभी कोई अन्य श्रमण या ब्राह्मण भगवान से श्रेष्ठ हुआ था, न है, और न कभी होगा।”

“बहुत ऊँची और बड़ी बात कह रहे हो, सारिपुत्त। तुमने सिंह के जैसे एक निश्चित और निर्णायक गर्जना की है कि — ‘भंते, मुझे भगवान पर विश्वास है कि संबोधि को लेकर भगवान के प्रत्यक्ष ज्ञान के आगे न कोई अन्य श्रमण या ब्राह्मण भगवान से श्रेष्ठ हुआ था, न है, और न ही होगा।’ उनके बारे में क्या, सारिपुत्त, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध अतीत में हुए? क्या तुमने उन भगवानों के चित्त को अपने चित्त से परख लिया कि ‘उन भगवानों का ऐसा शील था, ऐसा धर्म था, ऐसा अन्तर्ज्ञान था, ऐसा [चित्त] विहार था, ऐसी विमुक्ति थी?”

“नहीं, भंते।”

“और उनके बारे में क्या, सारिपुत्त, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध भविष्य में होंगे? क्या तुमने उन भगवानों के चित्त को अपने चित्त से परख लिया कि ‘उन भगवानों का ऐसा शील रहेगा, ऐसा धर्म रहेगा, ऐसा अन्तर्ज्ञान रहेगा, ऐसा [चित्त] विहार रहेगा, ऐसी विमुक्ति रहेगी?”

“नहीं, भंते।”

“और मेरे बारे में क्या, सारिपुत्त, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध अब वर्तमान में हूँ? क्या तुमने मेरे चित्त को अपने चित्त से परख लिया कि ‘यह भगवान का ऐसा शील है, ऐसा धर्म है, ऐसा अन्तर्ज्ञान है, ऐसा [चित्त] विहार है, ऐसी विमुक्ति है?”

“नहीं, भंते।”

“तब, सारिपुत्त, जब तुम्हें अतीत, भविष्य और वर्तमान के किसी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का परचित्त ज्ञान नहीं है, तब भला कैसे तुमने इतनी ऊँची और बड़ी बात कह दी। क्यों तुमने सिंह के जैसे एक निश्चित और निर्णायक गर्जना कर दी कि — ‘भंते, मुझे भगवान पर विश्वास है कि संबोधि को लेकर भगवान के प्रत्यक्ष ज्ञान के आगे न कोई अन्य श्रमण या ब्राह्मण भगवान से श्रेष्ठ हुआ था, न है, और न ही होगा।’”

“भंते, मुझे अतीत, भविष्य और वर्तमान के किसी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का परचित्त ज्ञान नहीं है। किन्तु मैं धर्म की निरंतरता जानता हूँ। जैसे, भंते, किसी राजा का सीमांत गढ़ होता है, दृढ़ प्राचीर [=गढ़ के सुरक्षार्थ चारों-ओर से घिरी मोटी दीवार, जिस पर सैनिक खड़े होकर पहरा देते हैं], दृढ़ तोरण [=मेहराब या आर्कनुमा संरचना] से घिरा हुआ, जिसका एक मात्र द्वार हो। वहाँ एक द्वारपाल पण्डित, सक्षम और मेधावी [=अक्लमंद] हो, जो अजनबियों को बाहर रख, परिचितों को प्रवेश देता हो। उसे गढ़ के संपूर्ण घेराव-मार्ग पर चलते हुए कोई छेद या दरार न दिखे, जिसमें से कोई बिल्ली भी घुस सके। तब उसे लगता है, “जितने बड़े प्राणी गढ़ में प्रवेश करते या निकलते हैं, सब इस द्वार से ही प्रवेश करते और निकलते हैं।”

उसी तरह, भंते, मैं धर्म की निरंतरता जानता हूँ — “जितने भी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध अतीत, भविष्य और वर्तमान में होते हैं, वे सभी भगवान पाँच अवरोध [=नीवरण] का त्याग करते हैं जो चित्त मटमैला कर अन्तर्ज्ञान को दुर्बल करते हैं, वे अपने चित्त को चार स्मरणशीलता की स्थापना [=सतिपट्ठान] में सुप्रतिष्ठित करते हैं, सात संबोधि अंगों को यथास्वरूप [=जैसे किया जाता है, वैसे] विकसित करते हैं, और सर्वोपरि सम्यक-सम्बोधि को जागृत करते हैं।

और, भंते, आप भगवान ने, जो अभी वर्तमान में अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं, पाँच अवरोध का त्याग किया है जो चित्त मटमैला कर अन्तर्ज्ञान को दुर्बल करते हैं, चित्त को चार स्मरणशीलता की स्थापना में सुप्रतिष्ठित किया है, सात संबोधि अंगों को यथास्वरूप विकसित किया है, और सर्वोपरि सम्यक-सम्बोधि को जागृत किया है।”

और, वहाँ नालन्दा के पावारिक आम्रवन में रहते हुए भी, भगवान ने भिक्षुओं को अक्सर इस तरह का धर्म उपदेश दिया, “ऐसा शील होता है, ऐसी समाधि होती है, ऐसा अन्तर्ज्ञान होता है। शील से विकसित समाधि का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। समाधि से विकसित अन्तर्ज्ञान का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। अन्तर्ज्ञान से विकसित चित्त सही तरह आस्रव-मुक्त होता है, ये कामुक आस्रव, भव आस्रव, अविद्या आस्रव।”

५. दुष्शीलता में खामी

भगवान नालन्दा में जितना रुकना चाहते थे, उतना रुके, और फिर आयुष्मान आनन्द से कहा, “चलो, आनन्द, पाटलि गाँव 1 जाते हैं।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान विशाल भिक्षुसंघ के साथ पाटलिग्राम पहुँचे। पाटलिग्राम के उपासकों ने सुना, “कहते हैं कि भगवान पाटलिग्राम पहुँचे हैं।” तब पाटलिग्राम के उपासक भगवान के पास गए और अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर पाटलिग्राम के उपासकों ने भगवान से कहा, “भंते, कृपा कर भगवान अतिथि-निवास स्वीकार करें।”

भगवान ने मौन स्वीकृति दी। भगवान की स्वीकृति जान कर पाटलिग्राम के उपासक अपने आसन से उठे और भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर, अतिथि-निवास गए। वहाँ जाकर उन्होने सभी जगह गलीचा बिछाया, आसन लगाया, जल का मटका स्थापित किया, और तेल प्रदीप रख कर भगवान के पास लौटें। भगवान को अभिवादन करने पर एक-ओर खड़े हो पाटलिग्राम के उपासकों ने भगवान से कहा, “भंते, अतिथि-निवास में सभी गलीचे बिछा दिए गए हैं, आसन लगा दिए गए हैं, जल का मटका स्थापित हो चुका है, तेल प्रदीप भी रख दिया गया है। भंते, भगवान जो समय उचित समझें।”

तब भगवान ने सायंकाल में चीवर ओढ़ा, और पात्र और चीवर लेकर भिक्षुसंघ के साथ अतिथि-निवास गए। वहाँ जाकर भगवान ने पैर धोकर अतिथि-निवास में प्रवेश किया, और मध्य-स्तंभ पर पीठ टिका कर पूर्व-दिशा की ओर मुख करते हुए बैठ गए। तब भिक्षुसंघ ने पैर धोकर अतिथि-निवास में प्रवेश किया, और भगवान के पीठ के पीछे पश्चिमी दीवार से सटकर पूर्व-दिशा की ओर मुख करते हुए बैठ गए। तब पाटलिग्राम के उपासकों ने पैर धोकर अतिथि-निवास में प्रवेश किया, और पूर्वी दीवार से सटकर पश्चिम-दिशा की ओर मुख करते हुए भगवान के सम्मुख बैठ गए।

तब भगवान ने पाटलिग्राम के उपासकों को संबोधित किया, “गृहस्थों, किसी नैतिक रूप से दिवालिया दुष्शील को पाँच नुकसान होते हैं। कौन-सी पाँच?

(१) नैतिक रूप से दिवालिया दुष्शील मदहोश होने के कारण बहुत संपत्ति बर्बाद करता है। यह नैतिक रूप से दिवालिया दुष्शील को पहला नुकसान होता है।

(२) नैतिक रूप से दिवालिया दुष्शील की बदनामी होती है। यह नैतिक रूप से दिवालिया दुष्शील को दूसरा नुकसान होता है।

(३) नैतिक रूप से दिवालिया दुष्शील किसी भी परिषद में जाए, चाहे वह क्षत्रियों की परिषद हो, या ब्राह्मणों की, या [वैश्य] गृहस्थों की, या श्रमणों [=साधु-संन्यासियों की] की, वह बिना आत्मविश्वास के [=सहमा हुआ-सा] और शर्मिंदा होकर जाता है। यह नैतिक रूप से दिवालिया दुष्शील को तीसरा नुकसान होता है।

(४) नैतिक रूप से दिवालिया दुष्शील की मौत बेसुध अवस्था में होती है। यह नैतिक रूप से दिवालिया दुष्शील को पहला नुकसान होता है।

(५) नैतिक रूप से दिवालिया दुष्शील मरणोपरांत काया छूटने पर पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजता है। यह नैतिक रूप से दिवालिया दुष्शील को पाँचवा नुकसान होता है।

गृहस्थों, नैतिक रूप से दिवालिया दुष्शील को ये पाँच नुकसान होते हैं।

६. शीलवान के पुरस्कार

जबकि नैतिक रूप से धनी शीलवान को ये पाँच पुरस्कार मिलते हैं। कौन-से पाँच?

(१) नैतिक रूप से धनी शीलवान मदहोश न होने के कारण बहुत संपत्ति इकट्ठी करता है। यह नैतिक रूप से धनी शीलवान को पहला पुरस्कार मिलता है।

(२) नैतिक रूप से धनी शीलवान की कल्याण किर्ति फैलती है। यह नैतिक रूप से धनी शीलवान को दूसरा पुरस्कार मिलता है।

(३) नैतिक रूप से धनी शीलवान किसी भी परिषद में जाए, चाहे वह क्षत्रियों की परिषद हो, या ब्राह्मणों की, या गृहस्थों की, या श्रमणों की, वह आत्मविश्वास के साथ निर्भीक होकर जाता है। यह नैतिक रूप से धनी शीलवान को तीसरा पुरस्कार मिलता है।

(४) नैतिक रूप से धनी शीलवान की मौत बेसुध अवस्था में नहीं होती है। यह नैतिक रूप से धनी शीलवान को चौथा पुरस्कार मिलता है।

(५) नैतिक रूप से धनी शीलवान मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति पाकर स्वर्ग में उपजता है। यह नैतिक रूप से धनी शीलवान को पाँचवा पुरस्कार मिलता है।

और, ये पाँच पुरस्कार, गृहस्थों, नैतिक रूप से धनी शीलवान को ही मिलते हैं।

भगवान ने पाटलिग्राम के उपासकों को देर रात तक धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया। और, अनुमति दी, “बहुत रात हो चुकी है, गृहस्थों। जो समय उचित समझों।”

“ठीक है, भंते।” पाटलिग्राम के उपासकों ने उत्तर दिया और आसन से उठकर भगवान को अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर चले गए। पाटलिग्राम के उपासकों के जाने के कुछ देर बाद भगवान ने शून्यागार [=खाली कमरे] में प्रवेश किया।

७. पाटलिपुत्र नगर

उस समय मगध के मुख्यमंत्री सुनिध और वर्षकार पाटलिग्राम गाँव में गढ़ बना रहे थे, ताकि [भविष्य में आक्रमण होने पर] वज्जियों को बाहर रखा जाएँ। और, उस समय हजारों देवता पाटलिग्राम में जगह ग्रहण कर रहे थे। जिस जगह पर महाप्रभावशाली देवता जगह ग्रहण कर रहे थे, उस जगह पर महाप्रभावशाली राजा या राजमंत्री को अपना राजनिवास बनाने का मन हो रहा था। जिस जगह पर मध्यम प्रभावशाली देवता जगह ग्रहण कर रहे थे, उस जगह पर मध्यम प्रभावशाली राजा या राजमंत्री को अपना राजनिवास बनाने का मन हो रहा था। और, जिस जगह पर कम प्रभावशाली देवता जगह ग्रहण कर रहे थे, उस जगह पर कम प्रभावशाली राजा या राजमंत्री को अपना राजनिवास बनाने का मन हो रहा था।

भगवान ने अपने विशुद्ध हो चुके मनुष्योत्तर दिव्यचक्षु से हजारों देवताओं को पाटलिग्राम में जगह ग्रहण करते हुए देखा। तब भगवान ने रात बीतने पर भोर होते ही आयुष्मान आनन्द को संबोधित किया, “आनन्द, पाटलिग्राम गाँव में गढ़ कौन बना रहे हैं?”

“भंते, मगध के मुख्यमंत्री सुनिध और वर्षकार पाटलिग्राम में गढ़ बना रहे हैं, ताकि वज्जियों को बाहर रखा जाएँ।”

“जिस तरह, आनन्द, मगध के मुख्यमंत्री सुनिध और वर्षकार वज्जियों को बाहर रखने के लिए पाटलिग्राम में गढ़ बना रहे हैं, ऐसा लगता है मानो उन्होने तैतीस देवताओं के साथ साक्षात विचार-विमर्श किया हो। मैंने अपने विशुद्ध हो चुके मनुष्योत्तर दिव्यचक्षु से हजारों देवताओं को पाटलिग्राम में जगह ग्रहण करते हुए देखा। जिस जगह पर महाप्रभावशाली देवता जगह ग्रहण कर रहे हैं, उस जगह पर महाप्रभावशाली राजा या राजमंत्री को अपना राजनिवास बनाने का मन हो रहा हैं। जिस जगह पर मध्यम प्रभावशाली देवता जगह ग्रहण कर रहे हैं, उस जगह पर मध्यम प्रभावशाली राजा या राजमंत्री को अपना राजनिवास बनाने का मन हो रहा हैं। और, जिस जगह पर कम प्रभावशाली देवता जगह ग्रहण कर रहे हैं, उस जगह पर कम प्रभावशाली राजा या राजमंत्री को अपना राजनिवास बनाने का मन हो रहा हैं।

जहाँ तक [सभ्य] आर्यों का प्रभुत्व है, आनन्द, जहाँ तक व्यापार मार्ग फैला है, वहाँ तक यह नगर अग्र होगा, पाटलिपुत्र पूटभेदन [=जहाँ बीज फूटकर अंकुरित होते हैं] कहलाएगा। किन्तु, आनन्द, इस पाटलिपुत्र पर तीन खतरे मंडराएँगे — आगजनी, बाढ़, और [राजनीतिक] फूट पड़ना। 2

तब, मगध के मुख्यमंत्री सुनिध और वर्षकार भगवान के पास गए, और जाकर भगवान से मैत्रीपूर्ण वार्तालाप किया। और, एक ओर खड़े होकर उन्होने भगवान से कहा, “कृपा कर गुरु गौतम आज का भोजन भिक्षुसंघ के साथ हमारे द्वारा स्वीकार करें।”

भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी। तब भगवान से स्वीकृति जान कर, मगध के मुख्यमंत्री सुनिध और वर्षकार अपने निवास-स्थान गए और जाकर उत्तम खाद्य और भोजन बनाकर भगवान से आकर विनंती की, “उचित समय है, हे गौतम! भोजन तैयार है।”

तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षुसंघ के साथ मगध के मुख्यमंत्री सुनिध और वर्षकार के निवास-स्थान गए, और जाकर बिछे आसन पर बैठ गये। तब मगध के मुख्यमंत्री सुनिध और वर्षकार ने भगवान और भिक्षुसंघ को अपने हाथों से उत्तम खाद्य और भोजन परोस कर संतृप्त किया, संतुष्ट किया। भगवान के भोजन कर पात्र से हाथ हटाने के पश्चात, मगध के मुख्यमंत्री सुनिध और वर्षकार ने स्वयं का आसन नीचे लगाया और एक ओर बैठ गए।

तब भगवान ने एक ओर बैठे मगध के मुख्यमंत्री सुनिध और वर्षकार का गाथाओं से अनुमोदन किया:

यस्मिं पदेसे कप्पेति,
वासं पण्डितजातियो;
सीलवन्तेत्थ भोजेत्वा,
सञ्ञते ब्रह्मचारयो।
या तत्थ देवता आसुं,
तासं दक्खिणमादिसे;

जिस भी प्रदेश में पण्डित,
अपना निवास बनाते हो,
भोजन कराएँ शीलवानों को,
संयमित ब्रह्मचारियों को।
तब वहाँ के देवताओं को,
दक्षिणा समर्पित कराएँ वो।

ता पूजिता पूजयन्ति,
मानिता मानयन्ति नं।
ततो नं अनुकम्पन्ति,
माता पुत्तंव ओरसं;
देवतानुकम्पितो पोसो,
सदा भद्रानि पस्सती”ति।

देवता पूजित होकर, [उसे] पूजते हैं,
सम्मानित होकर, सम्मान करते हैं।
तब उस पर वे, अनुकंपा करते हैं,
जैसे माँ कोई, पुत्र-प्रति करती हो।
यूँ देवताओं से अनुकंपित होकर,
वह सदा सौभाग्य देखता है।

तब भगवान, मगध के मुख्यमंत्री सुनिध और वर्षकार का गाथाओं से अनुमोदन कर, अपने आसन से उठकर चले गए। तब उस समय मगध के मुख्यमंत्री सुनिध और वर्षकार भगवान के पीछे-पीछे चलने लगे, सोचते हुए, “श्रमण गौतम जिस [नगर] द्वार से निकलेंगे, उसका नाम गौतम-द्वार रखा जाएगा। और जिस तट [=घाट] से गंगा नदी को पार करेंगे, उस तट का नाम गौतम-तीर्थ रखा जाएगा।”

तब भगवान जिस द्वार से निकले, उसका नाम ‘गौतम-द्वार’ रखा गया। तब, भगवान गंगा नदी के पास आए। उस समय [बाढ़ सदृश्य] गंगा नदी इतनी जलव्याप्त थी कि [तट पर] बैठा कौवा भी गंगा-जल पी सके। [और वहाँ कोलाहल मचा था।] इस तट से दूर तट पर पहुँचने के लिए कई लोग जहाज ढूँढ रहे थे, कई लोग अपनी नौका ढूँढ रहे थे, और कई लोग बेड़ा बांध रहे थे।

तब, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, भगवान इस तट से विलुप्त हुए और दूर तट पर विशाल भिक्षुसंघ के साथ प्रकट हुए।

[और, उस तट पर भी कोलाहल मचा था।] इस तट से दूर तट पर पहुँचने के लिए कई लोग अपना जहाज ढूँढ रहे थे, कई लोग अपनी नौका ढूँढ रहे थे, और कई लोग बेड़ा बांध रहे थे। तब भगवान उसका [आध्यात्मिक] अर्थ जानकर बोल पड़े —

“ये तरन्ति अण्णवं सरं,
सेतुं कत्वान विसज्ज पल्ललानि;
कुल्लञ्हि जनो बन्धति,
तिण्णा मेधाविनो जना”ति।

"झागनुमा बाढ़ को करता पार
दलदल से परे, सेतु बनाकर,
लोग बेड़ा ही कसते रहते हैं,
मेधावी पार हो जाते हैं।



८. आर्यसत्य चर्चा

तब भगवान ने आयुष्मान आनन्द से कहा, “चलो, आनन्द, कोटिग्राम जाते हैं।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान विशाल भिक्षुसंघ के साथ कोटिग्राम पहुँचे। वहाँ भगवान ने कोटिग्राम में विहार किया। तब भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया:

“भिक्षुओं, चार आर्यसत्यों का बोध न करने से, समझ न पाने से, तुम और मैं दीर्घकाल तक जन्म-जन्मांतरों में [संसरण करते हुए] भटकते रहे हैं। कौन-से चार?

दुःख आर्यसत्य का बोध न करने से, समझ न पाने से, तुम और मैं दीर्घकाल तक जन्म-जन्मांतरों में भटकते रहे हैं। दुःख उत्पत्ति आर्यसत्य… दुःख निरोध आर्यसत्य… दुःख निरोधकर्ता मार्ग का बोध न करने से, समझ न पाने से, तुम और मैं दीर्घकाल तक जन्म-जन्मांतरों में भटकते रहे हैं।

[किन्तु, अब] इस दुःख आर्यसत्य का बोध हो गया है, समझ गया है… इस दुःख उत्पत्ति आर्यसत्य… इस दुःख निरोध आर्यसत्य… इस दुःख निरोधकर्ता मार्ग का बोध हो गया है, समझ गया है, भव-तृष्णा कट गयी है, भव नलिका क्षीण हुई, अब पुनर्भव नहीं होगा।”

भगवान ने ऐसा कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा,

“चतुन्नं अरियसच्चानं,
यथाभूतं अदस्सना;
संसितं दीघमद्धानं,
तासु तास्वेव जातिसु।

चार आर्यसत्यों को
यथास्वरूप न देख पाने से
भटकते रहे हम दीर्घकाल
इस और उस जन्म में।

तानि एतानि दिट्ठानि,
भवनेत्ति समूहता;
उच्छिन्नं मूलं दुक्खस्स,
नत्थि दानि पुनब्भवो”ति।

किन्तु अब ये दिख गए,
भव की नलिका हट गयी ,
दुःख की जड़ उखड़ गयी,
पुनर्भव अब नहीं होगा।

और, वहाँ कोटिग्राम में रहते हुए, भगवान ने भिक्षुओं को अक्सर इस तरह का धर्म उपदेश दिया, “ऐसा शील होता है, ऐसी समाधि होती है, ऐसा अन्तर्ज्ञान होता है। शील से विकसित समाधि का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। समाधि से विकसित अन्तर्ज्ञान का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। अन्तर्ज्ञान से विकसित चित्त सही तरह आस्रव-मुक्त होता है, ये कामुक आस्रव, भव आस्रव, अविद्या आस्रव।”

९. नातिका में मृत्यु

भगवान कोटिग्राम में जितना रुकना चाहते थे, उतना रुके, और फिर आयुष्मान आनन्द से कहा, “चलो, आनन्द, नातिका जाते हैं।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान विशाल भिक्षुसंघ के साथ नातिका पहुँचे। वहाँ भगवान नातिका में ईंट से बने गृह 3 में विहार किया।

तब आयुष्मान आनन्द भगवान के पास गए और अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “भंते, साळ्हा नाम का एक भिक्षु नातिका में गुजर गया। उसकी गति क्या हुई, भावी जन्म कहाँ हुआ? नन्दा नाम की एक भिक्षुणी भी… सुदत्त नाम का उपासक भी… सुजाता नाम की उपासिका भी… कुक्कुट नाम का उपासक भी नातिका में गुजर गया। उसकी गति क्या हुई, भावी जन्म कहाँ हुआ? और, भंते, काळिम्ब नाम का उपासक… निकट नाम का उपासक… कटिस्सह नाम का उपासक… तुट्ठ नाम का उपासक… संतुट्ठ नाम का उपासक… भद्द नाम का उपासक… सुभद्द नाम का उपासक भी नातिका में गुजर गया। उसकी गति क्या हुई, भावी जन्म कहाँ हुआ?”

“आनन्द, साळ्हा भिक्षु ने आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार किया है। नन्दा भिक्षुणी निचले पाँच संयोजन तोड़कर स्वप्रकट [=ओपपातिक] हुई है, जो वही [शुद्धवास ब्रह्मलोक में] परिनिर्वाण प्राप्त करेगी, अब इस लोक में नहीं लौटेगी। सुदत्त उपासक तीन संयोजन तोड़कर, राग-द्वेष-मोह को दुर्बल कर, सकृदागामी बना है, जो इस लोक में दुबारा लौटकर अपने दुःखों का अन्त करेगा। सुजाता उपासिका तीन संयोजन तोड़कर श्रोतापन्न बनी है, अ-पतन स्वभाव की, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर। कुक्कुट उपासक निचले पाँच संयोजन तोड़कर स्वप्रकट हुआ है, वही परिनिर्वाण प्राप्त करेगा, अब इस लोक में नहीं लौटेगा। और, काळिम्ब उपासक… निकट उपासक… कटिस्सह उपासक… तुट्ठ उपासक… संतुट्ठ उपासक… भद्द उपासक… सुभद्द उपासक भी निचले पाँच संयोजन तोड़कर स्वप्रकट हुआ है, वही परिनिर्वाण प्राप्त करेगा, अब इस लोक में नहीं लौटेगा।

और, आनन्द, नातिका में गुजर चुके नब्बे से अधिक उपासक तीन संयोजन तोड़कर, राग-द्वेष-मोह को दुर्बल कर, सकृदागामी बने हैं, जो इस लोक में दुबारा लौटकर अपने दुःखों का अन्त करेंगे। और, नातिका में गुजर चुके पाँच सौ से अधिक उपासक तीन संयोजन तोड़कर श्रोतापन्न बने हैं, अ-पतन स्वभाव के, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर!”

१०. धर्म दर्पण

“आनन्द, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि कोई मानव बनने पर गुजर जाते हैं। किन्तु यदि प्रत्येक मौत पर तुम तथागत के पास आकर पुछने लगो तो तथागत को परेशानी होगी। इसलिए, आनन्द, मैं तुम्हें ‘धर्म दर्पण’ नाम का धर्म-उपदेश देता हूँ, जिससे संपन्न होकर आर्यश्रावक चाहे तो स्वयं के लिए घोषित कर सकता है कि ‘मेरे लिए नर्क समाप्त हुए, पशुयोनि खत्म हुई, प्रेत-अवस्था का अन्त हुआ, नीचे यातनालोक, दुर्गति और पतन होना रुक गया, मैं श्रोतापन्न हूँ, अ-पतन स्वभाव का, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर।’

और क्या है यह ‘धर्म दर्पण’ का धर्म उपदेश, जिससे संपन्न होकर आर्यश्रावक चाहे तो स्वयं के लिए घोषित कर सकता है कि ‘मेरे लिए नर्क समाप्त हुए, पशुयोनि खत्म हुई, प्रेत-अवस्था का अन्त हुआ, नीचे यातनालोक, दुर्गति और पतन होना रुक गया, मैं श्रोतापन्न हूँ, अ-पतन स्वभाव का, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर?’

• आनन्द, जब कोई आर्यश्रावक बुद्ध पर अटूट आस्था से संपन्न हो कि “वाकई भगवान ही अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या और आचरण से संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!”

• धर्म पर अटूट आस्था से संपन्न हो कि “वाकई भगवान का धर्म — स्पष्ट बताया है, तुरंत दिखता है, सर्वकालिक है, आजमाने योग्य है, प्रासंगिक है, समझदार द्वारा स्वानुभूति योग्य!”

• संघ पर अटूट आस्था से संपन्न हो कि “वाकई भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है, सीधे मार्ग पर चलता है, व्यवस्थित मार्ग पर चलता है, उचित मार्ग पर चलता है। चार जोड़ी में, आठ तरह के आर्यजन — यही भगवान का श्रावकसंघ है — उपहार देने योग्य, अतिथि बनाने योग्य, दक्षिणा देने योग्य, प्रणाम करने योग्य, दुनिया के लिए सर्वोपरि पुण्यक्षेत्र!”

• और, वह आर्यपसंद शील से संपन्न हो — जो अखंडित रहें, अछिद्रित रहें, बेदाग रहें, बेधब्बा रहें, निष्कलंक रहें, विद्वानों द्वारा प्रशंसित हो, छुटकारा दिलाते हो, और समाधि की ओर बढ़ाते हो।

यही है, आनन्द, धर्म दर्पण का धर्म उपदेश, जिससे संपन्न होकर आर्यश्रावक चाहे तो स्वयं के लिए घोषित कर सकता है कि ‘मेरे लिए नर्क समाप्त हुए, पशुयोनि खत्म हुई, प्रेत-अवस्था का अन्त हुआ, नीचे यातनालोक, दुर्गति और पतन होना रुक गया, मैं श्रोतापन्न हूँ, अ-पतन स्वभाव का, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर!’”

और, वहाँ नातिका में रहते हुए, भगवान ने भिक्षुओं को अक्सर इस तरह का धर्म उपदेश दिया, “ऐसा शील होता है, ऐसी समाधि होती है, ऐसा अन्तर्ज्ञान होता है। शील से विकसित समाधि का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। समाधि से विकसित अन्तर्ज्ञान का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। अन्तर्ज्ञान से विकसित चित्त सही तरह आस्रव-मुक्त होता है, ये कामुक आस्रव, भव आस्रव, अविद्या आस्रव।”

भगवान कोटिग्राम में जितना रुकना चाहते थे, उतना रुके, और फिर आयुष्मान आनन्द से कहा, “चलो, आनन्द, वैशाली जाते हैं।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान विशाल भिक्षुसंघ के साथ वैशाली पहुँचे। वहाँ भगवान वैशाली में आम्रपाली के वन में विहार किया।

वहाँ भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं, भिक्षु स्मरणशील और सचेत रहे। यह हमारा [=सभी बुद्धों का] तुम्हारे लिए संदेश है।

और, भिक्षुओं, कैसे भिक्षु स्मरणशील होता है?

वह काया को [मात्र] काया देखते हुए रहता है — तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाते हुए। संवेदना को [मात्र] संवेदना… चित्त को [मात्र] चित्त… स्वभाव को [मात्र] स्वभाव देखते हुए रहता है — तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाते हुए। इस तरह, भिक्षुओं, भिक्षु स्मरणशील होता है।

और, भिक्षु सचेत कैसे होता है?

कोई भिक्षु आगे बढ़ते या लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते या नज़र हटाते हुए सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते या पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, या मौन रहते हुए सचेत होता है। इस तरह, भिक्षुओं, भिक्षु सचेत होता है।

स्मरणशील और सचेत रहो, भिक्षुओं। यह हमारा तुम्हारे लिए संदेश है।”

११. आम्रपाली गणिका

आम्रपाली गणिका 4 ने सुना कि “भगवान वैशाली में आकर मेरे आम्रवन में विहार कर रहे हैं।” तब आम्रपाली गणिका ने अच्छे अच्छे रथ तैयार कराएँ और सबसे अच्छे रथ पर सवार होकर, अच्छे-अच्छे रथों को साथ लेकर, वैशाली में अपने आम्रवन की ओर चल पड़ी। जहाँ तक रथ जाने की भूमि थी, वहाँ तक रथ से गयी, और फिर रथ से उतर कर पैदल भगवान के पास गयी। उसने भगवान को अभिवादन किया और एक ओर बैठ गयी।

एक ओर बैठी आम्रपाली गणिका को भगवान ने धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया। तब भगवान की धर्म-चर्चा से निर्देशित होकर, उत्प्रेरित होकर, उत्साहित होकर, हर्षित होकर, आम्रपाली गणिका ने भगवान से कहा, “भंते, कृपा कर भगवान कल का भोजन भिक्षुसंघ के साथ मेरे द्वारा स्वीकार करें।”

भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी। तब आम्रपाली गणिका ने भगवान की स्वीकृति जान कर अपने आसन से उठी, और भगवान को अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर चली गयी।

वैशाली के लिच्छवियों ने सुना कि “भगवान वैशाली में आकर आम्रपाली के वन में विहार कर रहे हैं।” तब लिच्छवियों ने अच्छे अच्छे रथ तैयार कराएँ और सबसे अच्छे रथ पर सवार होकर, अच्छे-अच्छे रथों को साथ लेकर, वैशाली से चल पड़े। उनमें से कुछ लिच्छवि नीले थे, नीले वर्ण के, नीले वस्त्र पहने, नीले अलंकारों से आभूषित। उनमें से कुछ लिच्छवि पीले थे, पीले वर्ण के, पीले वस्त्र पहने, पीले अलंकारों से आभूषित। उनमें से कुछ लिच्छवि लाल थे, लाल वर्ण के, लाल वस्त्र पहने, लाल अलंकारों से आभूषित। और, उनमें से कुछ लिच्छवि सफ़ेद थे, सफ़ेद वर्ण के, सफ़ेद वस्त्र पहने, सफ़ेद अलंकारों से आभूषित।

तब [नटखट आत्म-विश्वास से चूर] आम्रपाली गणिका ने जवान-जवान लिच्छवि युवकों के [रथों से अपने रथों के] अक्ष [=धुरा] से अक्ष, चक्के से चक्का, जुए से जुआ भिड़ा दिया। उन लिच्छवियों ने आम्रपाली गणिका से कहा, “ये क्या कर रही हो, बदमाश आम्रपाली? जवान-जवान लिच्छवि युवकों के अक्ष से अक्ष, चक्के से चक्का, जुए से जुआ भिड़ा दिया!”

“क्योंकि, आर्यपुत्रों, मैंने भगवान को भिक्षुसंघ के साथ कल भोजन के लिए आमंत्रित किया है।”

“वह भोजन [का मौका] हमें दो, नटखट आम्रपाली, एक लाख [स्वर्ण मुद्रा] में।”

“भले ही आर्यपुत्र मुझे पूरी वैशाली आय के साथ सौंप दें, तब भी मैं वह भोजन आप को नहीं दूँगी।”

तब लिच्छवियों ने अपनी उँगलियाँ चटकाते हुए कहा, “अम्मा ने हमें हरा दिया, श्रीमान! अम्मा ने हमें हरा दिया!”

और, फिर लिच्छवि आम्रपाली के वन की ओर अग्रसर हुए। भगवान ने उन लिच्छवियों को दूर से आते हुए देखा। और, देखकर भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं, जिस भी भिक्षु ने तैतीस देवताओं को कभी न देखा हो, वे इस लिच्छवि-परिषद को गौर से देखें। इस लिच्छवि-परिषद का अवलोकन करें। इस लिच्छवि-परिषद को तैतीस देवताओं की तरह ही मानें।”

वे लिच्छवि जहाँ तक रथ जाने की भूमि थी, वहाँ तक रथ से गए, और फिर रथ से उतर कर पैदल भगवान के पास गए, और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए।

एक ओर बैठे लिच्छवियों को भगवान ने धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया। तब भगवान की धर्म-चर्चा से निर्देशित होकर, उत्प्रेरित होकर, उत्साहित होकर, हर्षित होकर, लिच्छवियों ने भगवान से कहा, “भंते, कृपा कर भगवान कल का भोजन भिक्षुसंघ के साथ हमारे द्वारा स्वीकार करें।”

भगवान ने उन लिच्छवियों से कहा, “लिच्छवियों, मैंने कल का भोजन आम्रपाली गणिका के द्वारा स्वीकार कर लिया है।”

तब लिच्छवियों ने अपनी उँगलियाँ चटकाते हुए फिर कहा, “अम्मा ने हमें हरा दिया, श्रीमान! अम्मा ने हमें हरा दिया!”

तब लिच्छवियों ने भगवान की बात का अभिनंदन और अनुमोदन किया, अपने आसन से उठे, और भगवान को अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर चले गए।

रात बीतने पर आम्रपाली गणिका ने अपने उद्यान में उत्तम खाद्य और भोजन बनाकर भगवान से आकर विनंती की, “उचित समय है, भंते! भोजन तैयार है।”

तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षुसंघ के साथ आम्रपाली गणिका के निवास-स्थान गए, और जाकर बिछे आसन पर बैठ गये। तब आम्रपाली गणिका ने बुद्ध प्रमुख भिक्षुसंघ को अपने हाथों से उत्तम खाद्य और भोजन परोस कर संतृप्त किया, संतुष्ट किया। भगवान के भोजन कर पात्र से हाथ हटाने के पश्चात, आम्रपाली गणिका ने स्वयं का आसन नीचे लगाया और एक ओर बैठ गयी। एक ओर बैठकर आम्रपाली गणिका ने भगवान से कहा, “भंते, मैं इस उद्यान को बुद्धप्रमुख भिक्षुसंघ को देती हूँ!”

भगवान ने उद्यान का स्वीकार किया।

और तब, भगवान ने आम्रपाली गणिका को धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया, और फिर अपने आसन से उठकर चले गए।

और, वहाँ वैशाली में रहते हुए भी, भगवान ने भिक्षुओं को अक्सर इस तरह का धर्म उपदेश दिया, “ऐसा शील होता है, ऐसी समाधि होती है, ऐसा अन्तर्ज्ञान होता है। शील से विकसित समाधि का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। समाधि से विकसित अन्तर्ज्ञान का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। अन्तर्ज्ञान से विकसित चित्त सही तरह आस्रव-मुक्त होता है, ये कामुक आस्रव, भव आस्रव, अविद्या आस्रव।”

१२. वेळुव गाँव में वर्षावास

भगवान आम्रपाली के वन में जितना रुकना चाहते थे, उतना रुके, और फिर आयुष्मान आनन्द से कहा, “चलो, आनन्द, वेळुव गाँव जाते हैं।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान विशाल भिक्षुसंघ के साथ वेळुवग्राम पहुँचे। वहाँ भगवान ने वेळुवग्राम में विहार किया।

वहाँ भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं, अपने मित्रों, परिचितों, और भोज सहचारियों के साथ वैशाली के आसपास ही वर्षावास लो। मैं इसी वेळुवग्राम में वर्षावास करूँगा।”

“ठीक है, भंते।” भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया और अपने मित्रों, परिचितों, और भोज सहचारियों के साथ वैशाली के आसपास ही वर्षावास प्रारंभ किया। भगवान ने वेळुवग्राम में वर्षावास प्रारंभ किया।

भगवान के वर्षावास लेने पर उन्हे भयंकर बीमारी उत्पन्न हुई, प्राणघातक और कटु पीड़ाओं के साथ। किन्तु भगवान ने स्मरणशील और सचेत रहते हुए सह लिया, बिना किसी परेशानी के। तब भगवान को लगा, “यह मेरे लिए उचित नहीं होगा कि मैं अपने सेवकों और भिक्षुसंघ को बिना सूचित किए परिनिर्वाण लूँ। क्यों न मैं इस आबाधा को अपनी ऊर्जा [वीर्य, मनोबल] से दबा दूँ, और जीवन-संस्कार [=प्राण-धारा] का अधिष्ठान करते हुए विहार करूँ!” तब भगवान ने उस आबाधा को अपनी ऊर्जा से दबा दिया, और जीवन-संस्कार का अधिष्ठान करते हुए विहार करने लगे। तब भगवान की आबाधा खत्म हुई।

तब भगवान उस बीमारी से उठकर, बीमारी छूटे ज्यादा समय नहीं हुआ, जब वे अपने विहार से बाहर आए, और बिछे आसन पर बैठ गए। तब आयुष्मान आनन्द भगवान के पास गए, भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “कितनी अच्छी दिख रही है, भंते, भगवान को मिली राहत! कितना अच्छा दिख रहा है, भंते, भगवान का सुखरूप! भगवान की बीमारी से, भंते, मुझे मेरा ही शरीर बेहोश जैसे लग रहा था, दिशाएँ समझ नहीं आ रही थी, धर्म धुँधला पड़ गया था। तब, भंते, मुझे इसी विचार से सांत्वना मिली कि “भगवान तब तक परिनिर्वाण नहीं लेंगे, जब तक भिक्षुसंघ के [भविष्य के] बारे में कुछ घोषित नहीं कर लेंगे।”

“आनन्द, भिक्षुसंघ मुझसे क्या चाहता है? मैंने धर्म तो दिया है, बिना अंदर-बाहर का भेद किए। 5 धर्म को लेकर तथागत की आचार्य मुट्ठी [बंद] नहीं है। 6 जिस किसी को लगता हो, “मैं भिक्षुसंघ का नेतृत्व करूँगा,” या “भिक्षुसंघ मेरे लिए हैं”, वह भिक्षुसंघ के बारे में कुछ घोषित करे। किन्तु, तथागत को ऐसा नहीं लगता है कि “मैं भिक्षुसंघ का नेतृत्व करूँगा,” या “भिक्षुसंघ मेरे लिए हैं।” तब भला क्यों तथागत भिक्षुसंघ के बारे में कुछ घोषित करेंगे?

आनन्द, मैं जीर्ण हो चुका हूँ — वृद्ध, बूढ़ा, पकी उम्र, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त! मेरी उम्र अस्सी वर्ष है। जैसे पुरानी जर्जर गाड़ी को वेणु-छाल से बांधकर चलाना पड़ता है, उसी तरह तथागत की काया को मानो वेणु-छाल से ही बांधकर चलाना पड़ता है। जब तथागत किसी [समाधि] निमित्त पर ध्यान न देने से, किसी-किसी संवेदना के रुक जाने से, अनिमित्त चेतोसमाधि में प्रवेश पाकर रहते है, केवल तभी तथागत की काया राहत से होती है।

इसलिए, आनन्द, स्वयं अपना द्वीप [या दीपक] बनो! स्वयं अपनी शरण बनो! अन्य शरण न हो! धर्म को अपना द्वीप बनाओं! धर्म को अपनी शरण बनाओ! अन्य शरण न हो! और, आनन्द, कैसे कोई भिक्षु स्वयं अपना द्वीप बने, स्वयं अपनी शरण बने, अन्य शरण न हो, धर्म को अपना द्वीप बनाए, धर्म को अपनी शरण बनाए, अन्य शरण न हो?

आनन्द, कोई भिक्षु काया को [मात्र] काया देखते हुए रहता है — तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाते हुए। संवेदना को [मात्र] संवेदना… चित्त को [मात्र] चित्त… स्वभाव को [मात्र] स्वभाव देखते हुए रहता है — तत्पर सचेत व स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाते हुए। इस तरह, आनन्द, कोई भिक्षु स्वयं अपना द्वीप बनता है, स्वयं अपनी शरण बनता है, अन्य शरण नहीं बनाता, धर्म को अपना द्वीप बनाता है, धर्म को अपनी शरण बनाता है, अन्य शरण नहीं बनाता है।

जो अब या मेरे गुजरने के बाद स्वयं अपना द्वीप बनता है, स्वयं अपनी शरण बनता है, अन्य शरण नहीं बनाता, धर्म को अपना द्वीप बनाता है, धर्म को अपनी शरण बनाता है, अन्य शरण नहीं बनाता है, वही मेरे सर्वोत्तम शिक्षार्थी [“सेक्ख”] भिक्षुओं में श्रेष्ठ होंगे!”

१३. संकेत कथा

तब भगवान सुबह होने पर चीवर ओढ़, पात्र और चीवर लेकर, वैशाली में भिक्षाटन के लिए गए। तब वैशाली में भोजन कर भिक्षाटन से लौटने के पश्चात आयुष्मान आनन्द को संबोधित किया, “आनन्द, अपना आसन लो, हम दिन बिताने के लिए चापाल चैत्य जाएँगे।”

“ठीक है, भंते!” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर देकर अपना आसन लिया और भगवान के पीछे-पीछे चल पड़े। तब भगवान चापाल चैत्य के पास गए और अपना आसन बिछाकर बैठ गए। आयुष्मान आनन्द ने भगवान को अभिवादन किया और एक ओर बैठ गए। तब एक ओर बैठे हुए आयुष्मान आनन्द से भगवान ने कहा, “रमणीय है, आनन्द, वैशाली! रमणीय है उदेन चैत्य! रमणीय है गोतमक चैत्य! रमणीय है सत्तम्ब चैत्य! रमणीय है बहुपुत्त चैत्य! रमणीय है सारन्ददं चैत्य! रमणीय है चापाल चैत्य!

जिस किसी ने, आनन्द, चार ऋद्धिपद को विकसित किया हो, बहुत अभ्यास किया हो, अपना यान बनाया हो, अपना आधार बनाया हो, पीछे पड़ा हो, मजबूत किया हो, भलीभाँति अमल में लाया हो, वह चाहे तो कल्प तक, या शेष बचे कल्प तक, बना रह सकता है। तथागत ने, आनन्द, चार ऋद्धिपद को विकसित किया है, बहुत अभ्यास किया है, अपना यान बनाया है, अपना आधार बनाया है, पीछे पड़ मजबूत किया है, भलीभाँति अमल में लाया है। तथागत चाहे तो कल्प तक, या शेष बचे कल्प तक, बने रह सकते है।”

किन्तु आयुष्मान आनन्द भगवान ने दिया इतने स्पष्ट संकेत, इतने सीधा इशारे का अर्थ नहीं समझ सके। और भगवान की याचना नहीं की, “भगवान कल्प तक बने रहे, भंते, सुगत कल्प तक बने रहे — बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए!” मानो मार ने उनके चित्त को वशीभूत किया हो।

तब भगवान ने दूसरी बार कहा… और तब तीसरी बार कहा, “रमणीय है, आनन्द, वैशाली! रमणीय है उदेन चैत्य! रमणीय है गोतमक चैत्य! रमणीय है सत्तम्ब चैत्य! रमणीय है बहुपुत्त चैत्य! रमणीय है सारन्ददं चैत्य! रमणीय है चापाल चैत्य! जिस किसी ने, आनन्द, चार ऋद्धिपद को विकसित किया हो, बहुत अभ्यास किया हो, अपना यान बनाया हो, अपना आधार बनाया हो, पीछे पड़ा हो, मजबूत किया हो, भलीभाँति अमल में लाया हो, वह चाहे तो कल्प तक, या शेष बचे कल्प तक, बना रह सकता है। तथागत ने, आनन्द, चार ऋद्धिपद को विकसित किया है, बहुत अभ्यास किया है, अपना यान बनाया है, अपना आधार बनाया है, पीछे पड़ मजबूत किया है, भलीभाँति अमल में लाया है। तथागत चाहे तो कल्प तक, या शेष बचे कल्प तक, बने रह सकते है।”

किन्तु तब भी आयुष्मान आनन्द भगवान ने दिया इतने स्पष्ट संकेत, इतने सीधा इशारे का अर्थ नहीं समझ सके। और भगवान की याचना नहीं की, “भगवान कल्प तक बने रहे, भंते, सुगत कल्प तक बने रहे — बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए!” मानो मार ने उनके चित्त को वशीभूत किया हो।

तब भगवान ने आयुष्मान आनन्द से कहा, “जाओ, आनन्द। जो समय उचित समझो।”

“ठीक है, भंते!” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया और आसन से उठकर भगवान को अभिवादन किया, और प्रदक्षिणा कर पास ही किसी वृक्ष के नीचे बैठ गए।

१४. मार की याचना

तब, आयुष्मान आनन्द के जाते ही पापी मार भगवान के पास गया और एक ओर खड़ा हो गया। एक ओर खड़े होकर पापी मार ने भगवान से कहा, “भगवान अभी परिनिर्वाण ले, भंते, सुगत अभी परिनिर्वाण ले! भगवान के परिनिर्वाण का यही उचित समय है! भंते, भगवान ने ऐसा कहा था, “पापी, मैं तब तक परिनिर्वाण नहीं लूँगा, जब तक भिक्षु श्रावक — सक्षम, अभ्यस्त, निपुण, बहुत धर्म सुने, धर्म-धारक, धर्मानुसार धर्म पर चलने वाले, उचित मार्ग पर चलने वाले, धर्म के पीछे-पीछे चलने वाले नहीं हो जाते। और, जब तक वे आचार्यों से सीखकर धर्म को — घोषित करने वाले, सिखाने वाले, समझाने वाले, स्थापित करने वाले, विवरण करने वाले, स्पष्ट करने वाले, सीधा करने वाले नहीं हो जाते; और, जब तक वे परायी [मिथ्या] धारणा के उत्पन्न होने पर, धर्म के अनुसार उसका भलीभाँति खंडन कर, खुलासे के साथ धर्म का उपदेश करने वाले नहीं हो जाते हैं।” 7

किन्तु, भंते, अब भगवान के भिक्षु श्रावक — सक्षम, अभ्यस्त, निपुण, बहुत धर्म सुने, धर्म-धारक, धर्मानुसार धर्म पर चलने वाले, उचित मार्ग पर चलने वाले, धर्म के पीछे-पीछे चलने वाले हैं। और, वे आचार्यों से सीखकर धर्म को — घोषित करने वाले, सिखाने वाले, समझाने वाले, स्थापित करने वाले, विवरण करने वाले, स्पष्ट करने वाले, सीधा करने वाले हैं; और, वे परायी धारणा के उत्पन्न होने पर, धर्म के अनुसार उसका भलीभाँति खंडन कर, खुलासे के साथ धर्म का उपदेश करने वाले हैं। इसलिए, भंते, भगवान अभी परिनिर्वाण ले! सुगत अभी परिनिर्वाण ले! भगवान के परिनिर्वाण का यही उचित समय है!

और, भंते, भगवान ने ऐसा भी कहा था कि “पापी, मैं तब तक परिनिर्वाण नहीं लूँगा, जब तक भिक्षुणी श्राविका… उपासक श्रावक… उपासिका श्राविका — सक्षम, अभ्यस्त, निपुण, बहुत धर्म सुने, धर्म-धारक, धर्मानुसार धर्म पर चलने वाले, उचित मार्ग पर चलने वाले, धर्म के पीछे-पीछे चलने वाले नहीं हो जाते। और, जब तक वे आचार्यों से सीखकर धर्म को — घोषित करने वाले, सिखाने वाले, समझाने वाले, स्थापित करने वाले, विवरण करने वाले, स्पष्ट करने वाले, सीधा करने वाले नहीं हो जाते; और, जब तक वे परायी धारणा के उत्पन्न होने पर, धर्म के अनुसार उसका भलीभाँति खंडन कर, खुलासे के साथ धर्म का उपदेश करने वाले नहीं हो जाते हैं।”

किन्तु, भंते, अब भगवान के भिक्षुणी श्राविका… उपासक श्रावक… उपासिका श्राविका — सक्षम, अभ्यस्त, निपुण, बहुत धर्म सुने, धर्म-धारक, धर्मानुसार धर्म पर चलने वाले, उचित मार्ग पर चलने वाले, धर्म के पीछे-पीछे चलने वाले हैं। और, वे आचार्यों से सीखकर धर्म को — घोषित करने वाले, सिखाने वाले, समझाने वाले, स्थापित करने वाले, विवरण करने वाले, स्पष्ट करने वाले, सीधा करने वाले हैं; और, वे परायी धारणा के उत्पन्न होने पर, धर्म के अनुसार उसका भलीभाँति खंडन कर, खुलासे के साथ धर्म का उपदेश करने वाले हैं। इसलिए, भंते, भगवान अभी परिनिर्वाण ले! सुगत अभी परिनिर्वाण ले! भगवान के परिनिर्वाण का यही उचित समय है!

और, भंते, भगवान ने ऐसा भी कहा था कि “पापी, मैं तब तक परिनिर्वाण नहीं लूँगा, जब तक मेरा ब्रह्मचर्य मार्ग — शक्तिशाली, समृद्ध, विस्तृत, बहुत लोगों में प्रचार और प्रसार, देव और मानवों में सु-प्रकाशित नहीं हो जाता।”

किन्तु, भंते, अब भगवान का ब्रह्मचर्य मार्ग — शक्तिशाली, समृद्ध, विस्तृत, बहुत लोगों में प्रचार और प्रसार, देव और मानवों में सु-प्रकाशित हो चुका है। इसलिए, भंते, भगवान अभी परिनिर्वाण ले! सुगत अभी परिनिर्वाण ले! भगवान के परिनिर्वाण का यही उचित समय है!”

ऐसा कहे जाने पर भगवान ने पापी मार से कहा, “निश्चिंत रहो, पापी। जल्द ही तथागत का परिनिर्वाण होगा। आज से तीन महीने बाद तथागत परिनिर्वाण लेंगे।” 8

१५. आयु-संस्कार का त्याग

तब, भगवान ने चापाल चैत्य में, स्मरणशील और सचेत रहते हुए, आयु-संस्कार [=प्राण-ऊर्जा की रचना] त्याग दिया। भगवान के आयु-संस्कार त्यागते ही महाभूकंप हुआ — भीषण और रोमांचकारी, और देव-नगाड़े [=बिजली?] से आकाश फट पड़ा!

तब, उस समय भगवान अर्थ जानते हुए उदान बोल पड़े:

तुलमतुलञ्च सम्भवं,
भवसङ्खारमवस्सजि मुनि;
अज्झत्तरतो समाहितो,
अभिन्दि कवचमिवत्तसम्भवन्”ति।

अतुलनीय की तुलना से बने हुए,
भव-संस्कार को मुनि ने त्याग दिया।
भीतर आनंदित, समाहित होकर,
अपने अस्तित्व-कवच को तोड़ दिया।

१६. महाभूकंप के कारण

तब आयुष्मान आनन्द को लगा, “आश्चर्य है, श्रीमान, अद्भुत है! ऐसा महाभूकंप हुआ! इतना बड़ा महाभूकंप हुआ! भीषण! रोमांचकारी! देव-नगाड़े से आकाश फट पड़ा! क्या कारण, क्या परिस्थिति में इतना बड़ा महाभूकंप प्रकट हुआ?”

तब आयुष्मान आनन्द भगवान के पास गए और अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “आश्चर्य है, श्रीमान, अद्भुत है! ऐसा महाभूकंप हुआ! इतना बड़ा महाभूकंप हुआ! भीषण! रोमांचकारी! देव-नगाड़े से आकाश फट पड़ा! क्या कारण, क्या परिस्थिति में इतना बड़ा महाभूकंप प्रकट हुआ?”

“आठ कारण [=हेतु] होते हैं, आनन्द, आठ परिस्थिति [=पच्चय] होती हैं इतने बड़े महाभूकंप प्रकट होने के। कौन-से आठ?

(१) आनन्द, यह विराट पृथ्वी जल के ऊपर स्थापित है। जल वायु पर स्थापित है। और वायु आकाश पर स्थापित है। ऐसा होता है, आनन्द, कि कभी महा वायु बहने लगती है। महा वायु जल को कंपित करती है। और उस जल के कंपन से पृथ्वी कंपित होती है। यह पहला कारण, पहली परिस्थिति है, इतने बड़े महाभूकंप के प्रकट होने का।

(२) फिर ऐसा होता है, आनन्द, कुछ श्रमण और ब्राह्मण ऋद्धिमानी होते हैं, चित्त पर वश प्राप्त किए, अथवा कुछ देवता महाबलशाली महाप्रभावशाली होते हैं, जो पृथ्वी-संज्ञा को सीमित रूप में विकसित करते हैं और जल-संज्ञा को असीम तरह से। वे इस पृथ्वी को कंपित करते हैं, प्रकंपित करते हैं, हिलाते हैं, डुलाते हैं। यह दूसरा कारण, दूसरी परिस्थिति है, इतने बड़े महाभूकंप के प्रकट होने का।

(३) फिर ऐसा होता है, आनन्द, कभी बोधिसत्व तुषित-काया से च्युत होकर, स्मरणशील और सचेत, अपनी माता के गर्भ में प्रवेश करते हैं। तब यह पृथ्वी कंपित होती है, प्रकंपित होती है, हिलती है, डुलती है। यह तीसरा कारण, तीसरी परिस्थिति है, इतने बड़े महाभूकंप के प्रकट होने का।

(४) फिर ऐसा होता है, आनन्द, कभी बोधिसत्व अपनी माता के गर्भ से स्मरणशील और सचेत होकर बाहर निकलते हैं। तब यह पृथ्वी कंपित होती है, प्रकंपित होती है, हिलती है, डुलती है। यह चौथा कारण, चौथी परिस्थिति है, इतने बड़े महाभूकंप के प्रकट होने का।

(५) फिर ऐसा होता है, आनन्द, कभी तथागत सर्वोत्तर सम्यक-सम्बोधि को जागृत होते हैं। तब यह पृथ्वी कंपित होती है, प्रकंपित होती है, हिलती है, डुलती है। यह पाँचवा कारण, पाँचवी परिस्थिति है, इतने बड़े महाभूकंप के प्रकट होने का।

(६) फिर ऐसा होता है, आनन्द, कभी तथागत सर्वोत्तर धर्मचक्र प्रवर्तित करते हैं। तब यह पृथ्वी कंपित होती है, प्रकंपित होती है, हिलती है, डुलती है। यह छठा कारण, छठी परिस्थिति है, इतने बड़े महाभूकंप के प्रकट होने का।

(७) फिर ऐसा होता है, आनन्द, कभी तथागत स्मरणशील और सचेत होकर आयु-संस्कार त्यागते हैं। तब यह पृथ्वी कंपित होती है, प्रकंपित होती है, हिलती है, डुलती है। यह सातवा कारण, सातवी परिस्थिति है, इतने बड़े महाभूकंप के प्रकट होने का।

(८) और फिर ऐसा होता है, आनन्द, कभी तथागत बिना अवशेष रहे [=अनुपादिसेस] निर्वाण-धातु में परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं। तब यह पृथ्वी कंपित होती है, प्रकंपित होती है, हिलती है, डुलती है। यह आठवा कारण, आठवी परिस्थिति है, इतने बड़े महाभूकंप के प्रकट होने का।

आनन्द, यही आठ कारण, आठ परिस्थिति होती हैं इतने बड़े महाभूकंप प्रकट होने के।”

१७. आठ परिषद

“आनन्द, आठ परिषद [=दरबार या गुटसभा] होती हैं। कौन-सी आठ? क्षत्रिय परिषद, ब्राह्मण परिषद, गृहपति [=वैश्य] परिषद, श्रमण परिषद, चार महाराज [देवता] परिषद, तैतीस [देवता] परिषद, मार परिषद, और ब्रह्म परिषद।

आनन्द, मुझे ऐसे सैकड़ों क्षत्रिय-परिषदों में जाना याद है, जहाँ मैं उनके साथ बैठा, वार्तालाप किया, चर्चा में हिस्सा भी लिया। जैसे उनका रंगरूप था, वैसा ही रंगरूप मैंने अपना बनाया। जैसे उनकी आवाज थी, वैसी ही आवाज मैंने अपनी बनायी। मैंने उन्हें धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित भी किया। जब मैं बोल रहा था, तो उन्हें पता नहीं चल रहा था कि ‘यह बोलने वाला कौन है, देवता है या मानव?’ और, उन्हें धर्म-चर्चा से निर्देशित, उत्प्रेरित, उत्साहित, और हर्षित करने पर मैं विलुप्त [=गायब] हुआ। जब मैं विलुप्त हुआ, तब भी उन्हें पता नहीं चल रहा था कि ‘यह विलुप्त होने वाला कौन था, देवता था या मानव?’

और, आनन्द, मुझे ऐसे सैकड़ों ब्राह्मण-परिषद में जाना याद है… गृहपति-परिषद में जाना याद है… श्रमण-परिषद में जाना याद है… चार महाराज-परिषद में जाना याद है… तैतीस-परिषद में जाना याद है… मार-परिषद में जाना याद है… ब्रह्म-परिषद में जाना याद है, जहाँ मैं उनके साथ बैठा, वार्तालाप किया, चर्चा में हिस्सा भी लिया। जैसे उनका रंगरूप था, वैसा ही रंगरूप मैंने अपना बनाया। जैसे उनकी आवाज थी, वैसी ही आवाज मैंने अपनी बनायी। मैंने उन्हें धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित भी किया। जब मैं बोल रहा था, तो उन्हें पता नहीं चल रहा था कि ‘यह बोलने वाला कौन है, देवता है या मानव?’ और, उन्हें धर्म-चर्चा से निर्देशित, उत्प्रेरित, उत्साहित, और हर्षित करने पर मैं विलुप्त हुआ। जब मैं विलुप्त हुआ, तब भी उन्हें पता नहीं चल रहा था कि ‘यह विलुप्त होने वाला कौन था, देवता था या मानव?’

आनन्द, ये आठ परिषदें होती हैं।”

१८. प्रभुत्व के आठ आयाम

“आनन्द, प्रभत्व के आठ आयाम होते हैं। कौन-से आठ?

(१) भीतर से रूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सीमित, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का पहला आयाम है।

(२) भीतर से रूप-नजरिया एक होकर, बाहरी असीम, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का दूसरा आयाम है।

(३) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सीमित, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का तीसरा आयाम है।

(४) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी असीम, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का चौथा आयाम है।

(५) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी नीले, नीले वर्ण वाले, नीले लक्षणों वाले, नीली आभा [=चमक] वाले रूप देखता है। जैसे, सन [=अलसी] का फूल होता है — नीला, नीले वर्ण वाला, नीले लक्षणों वाला, नीली आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, नीला, नीले वर्ण वाला, नीले लक्षणों वाला, नीली आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी नीले, नीले वर्ण वाले, नीले लक्षणों वाले, नीली आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का पाँचवा आयाम है।

(६) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी पीले, पीले वर्ण वाले, पीले लक्षणों वाले, पीली आभा वाले रूप देखता है। जैसे, कर्णिकार का फूल होता है — पीला, पीले वर्ण वाला, पीले लक्षणों वाला, पीली आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, पीला, पीले वर्ण वाला, पीले लक्षणों वाला, पीली आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी पीले, पीले वर्ण वाले, पीले लक्षणों वाले, पीली आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का छठा आयाम है।

(७) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी लाल, लाल वर्ण वाले, लाल लक्षणों वाले, लाल आभा वाले रूप देखता है। जैसे, बंधुजीवक [=अड़हल?] का फूल होता है — लाल, लाल वर्ण वाला, लाल लक्षणों वाला, लाल आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, लाल, लाल वर्ण वाला, लाल लक्षणों वाला, लाल आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी लाल, लाल वर्ण वाले, लाल लक्षणों वाले, लाल आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का सातवा आयाम है।

(८) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाले, सफ़ेद लक्षणों वाले, सफ़ेद आभा वाले रूप देखता है। जैसे, शुक्र तारा [ग्रह] होता है — सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाला, सफ़ेद लक्षणों वाला, सफ़ेद आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाला, सफ़ेद लक्षणों वाला, सफ़ेद आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाले, सफ़ेद लक्षणों वाले, सफ़ेद आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का आठवा आयाम है।

आनन्द, ये प्रभुत्व का आठ आयाम हैं।

१९. आठ विमोक्ष

आनन्द, आठ तरह के विमोक्ष होते हैं। कौन-से आठ?

(१) रूपवान होकर रूप देखना — पहला विमोक्ष है।

(२) भीतर से अरूप नजरिया होना और बाहरी रूप देखना — दूसरा विमोक्ष है।

(३) केवल अच्छाई [या सौंदर्य] देखना — तीसरा विमोक्ष है।

(४) रूप-नजरिया पूर्णतः लाँघ कर, विरोधी-नजरिए ओझल होने पर, विभिन्न-नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनंत है’ [देखते हुए] अनंत आकाश-आयाम में प्रवेश पाकर रहना — चौथा विमोक्ष है।

(५) अनंत आकाश-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘चैतन्य अनंत है’ [देखते हुए] अनंत चैतन्य-आयाम में प्रवेश पाकर रहना — पाँचवा विमोक्ष है।

(६) अनंत चैतन्य-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] सूने-आयाम में प्रवेश पाकर रहना — छटवा विमोक्ष है।

(७) सुने-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, न-संज्ञा-न-असंज्ञा [=न बोधगम्य, न अबोधगम्य] आयाम में प्रवेश पाकर रहना — सातवा विमोक्ष है।

(८) न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, संज्ञा और संवेदना निरोध [अवस्था] में प्रवेश पाकर रहना — आठवा विमोक्ष है।

एक समय, आनन्द, मैं उरुवेला में नेरञ्जरा नदी के किनारे अजपाल वटवृक्ष के नीचे बस अभी बुद्धत्व प्राप्त किया था। तब पापी मार मेरे पास आया और एक ओर खड़ा हो गया। एक ओर खड़े होकर पापी मार ने मुझसे कहा, “भगवान अभी परिनिर्वाण ले, भंते, सुगत अभी परिनिर्वाण ले! भगवान के परिनिर्वाण का यही उचित समय है!”

ऐसा कहे जाने पर मैंने पापी मार से कहा, “पापी, मैं तब तक परिनिर्वाण नहीं लूँगा, जब तक भिक्षु श्रावक… भिक्षुणी श्राविका… उपासक श्रावक… उपासिका श्राविका — सक्षम, अभ्यस्त, निपुण, बहुत धर्म सुने, धर्म-धारक, धर्मानुसार धर्म पर चलने वाले, उचित मार्ग पर चलने वाले, धर्म के पीछे-पीछे चलने वाले नहीं हो जाते। और, जब तक वे आचार्यों से सीखकर धर्म को — घोषित करने वाले, सिखाने वाले, समझाने वाले, स्थापित करने वाले, विवरण करने वाले, स्पष्ट करने वाले, सीधा करने वाले नहीं हो जाते; और, जब तक वे परायी [मिथ्या] धारणा के उत्पन्न होने पर, धर्म के अनुसार उसका भलीभाँति खंडन कर, खुलासे के साथ धर्म का उपदेश करने वाले नहीं हो जाते हैं।

और, पापी, मैं तब तक परिनिर्वाण नहीं लूँगा, जब तक मेरा ब्रह्मचर्य मार्ग — शक्तिशाली, समृद्ध, विस्तृत, बहुत लोगों में प्रचार और प्रसार, देव और मानवों में सु-प्रकाशित नहीं हो जाता।”

और, आनन्द, आज चापाल चैत्य में पापी मार दुबारा मेरे पास आया और एक ओर खड़ा हो गया। एक ओर खड़े होकर पापी मार ने मुझसे कहा, “भगवान अभी परिनिर्वाण ले, भंते, सुगत अभी परिनिर्वाण ले! भगवान के परिनिर्वाण का यही उचित समय है! भंते, भगवान ने ऐसा कहा था, “पापी, मैं तब तक परिनिर्वाण नहीं लूँगा… किन्तु, भंते, अब भगवान का ब्रह्मचर्य मार्ग — शक्तिशाली, समृद्ध, विस्तृत, बहुत लोगों में प्रचार और प्रसार, देव और मानवों में सु-प्रकाशित हो चुका है। इसलिए, भंते, भगवान अभी परिनिर्वाण ले! सुगत अभी परिनिर्वाण ले! भगवान के परिनिर्वाण का यही उचित समय है!”

ऐसा कहे जाने पर मैंने पापी मार से कहा, “निश्चिंत रहो, पापी। जल्द ही तथागत का परिनिर्वाण होगा। आज से तीन महीने बाद तथागत परिनिर्वाण लेंगे।” और तब, मैंने आज चापाल चैत्य में, स्मरणशील और सचेत रहते हुए, आयु-संस्कार त्याग दिया।”

२०. आनन्द की याचना

ऐसा कहे जाने पर आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “भंते, भगवान कल्प तक बने रहे! सुगत कल्प तक बने रहे — बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए!”

“पर्याप्त हुआ, आनन्द! तथागत से याचना मत करो। तथागत से याचना का यह गलत समय है।”

दूसरी बार, आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “भंते, भगवान कल्प तक बने रहे! सुगत कल्प तक बने रहे — बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए!”

“पर्याप्त हुआ, आनन्द! तथागत से याचना मत करो। तथागत से याचना का यह गलत समय है।”

तीसरी बार, आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “भंते, भगवान कल्प तक बने रहे! सुगत कल्प तक बने रहे — बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए!”

“आनन्द, क्या तुम्हें तथागत की बोधि पर श्रद्धा है?”

“हाँ, भंते।”

“तब क्यों तथागत को तीसरी बार भी परेशान करते हो?”

“भंते, मैंने भगवान के सम्मुख सुना है, ग्रहण किया है कि ‘जिस किसी ने, आनन्द, चार ऋद्धिपद को विकसित किया हो, बहुत अभ्यास किया हो, अपना यान बनाया हो, अपना आधार बनाया हो, पीछे पड़ा हो, मजबूत किया हो, भलीभाँति अमल में लाया हो, वह चाहे तो कल्प तक, या शेष बचे कल्प तक, बना रह सकता है। तथागत ने चार ऋद्धिपद को विकसित किया है, बहुत अभ्यास किया है, अपना यान बनाया है, अपना आधार बनाया है, पीछे पड़ मजबूत किया है, भलीभाँति अमल में लाया है। तथागत चाहे तो कल्प तक, या शेष बचे कल्प तक, बने रह सकते है।’”

“आनन्द, क्या तुम्हें श्रद्धा है?”

“हाँ, भंते।”

“तब, आनन्द, ये तुम्हारा ही दुष्कृत्य है, तुम्हारा ही अपराध है। क्योंकि जब तथागत ने इतने स्पष्ट संकेत दिए, इतने सीधे इशारे किए, किन्तु तुमने तथागत से याचना नहीं की कि “भगवान कल्प तक बने रहे! सुगत कल्प तक बने रहे! बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए!” यदि, आनन्द, तुमने तथागत से याचना की होती, तो तथागत उसे दो बार अस्वीकार करते, किन्तु तीसरी बार स्वीकार कर लेते। इसलिए, आनन्द, ये तुम्हारा ही दुष्कृत्य है, तुम्हारा ही अपराध है।

एक समय, आनन्द, मैं राजगृह के गृद्धकूट पर्वत पर विहार कर रहा था। वहाँ भी मैंने तुम्हें संबोधित किया था, “रमणीय है, आनन्द, राजगृह! रमणीय है गृद्धकूट पर्वत! जिस किसी ने, आनन्द, चार ऋद्धिपद को विकसित किया हो, बहुत अभ्यास किया हो, अपना यान बनाया हो, अपना आधार बनाया हो, पीछे पड़ा हो, मजबूत किया हो, भलीभाँति अमल में लाया हो, वह चाहे तो कल्प तक, या शेष बचे कल्प तक, बना रह सकता है। तथागत ने, आनन्द, चार ऋद्धिपद को विकसित किया है, बहुत अभ्यास किया है, अपना यान बनाया है, अपना आधार बनाया है, पीछे पड़ मजबूत किया है, भलीभाँति अमल में लाया है। तथागत चाहे तो कल्प तक, या शेष बचे कल्प तक, बने रह सकते है।”

किन्तु वहाँ भी, आनन्द, तुम तथागत ने दिया इतने स्पष्ट संकेत, इतने सीधा इशारे का अर्थ नहीं समझ सके। और तथागत से याचना नहीं की, “भगवान कल्प तक बने रहे! सुगत कल्प तक बने रहे! बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए!” यदि, आनन्द, तुमने तथागत से याचना की होती, तो तथागत उसे दो बार अस्वीकार करते, किन्तु तीसरी बार स्वीकार कर लेते। इसलिए, आनन्द, ये तुम्हारा ही दुष्कृत्य है, तुम्हारा ही अपराध है।

फिर एक समय, आनन्द, मैं राजगृह के गौतम वटवृक्ष के नीचे विहार कर रहा था। वहाँ भी मैंने तुम्हें संबोधित किया था, “रमणीय है, आनन्द, राजगृह! रमणीय है गौतम वटवृक्ष! जिस किसी ने, आनन्द, चार ऋद्धिपद को विकसित किया हो… तथागत चाहे तो कल्प तक, या शेष बचे कल्प तक, बने रह सकते है… किन्तु वहाँ भी, आनन्द… और तुमने तथागत से याचना नहीं की… इसलिए, आनन्द, ये तुम्हारा ही दुष्कृत्य है, तुम्हारा ही अपराध है।

फिर एक समय, आनन्द, मैं राजगृह के चोर प्रपात पर… फिर एक समय राजगृह के वेभार ढलान पर सप्तपर्णी गुफा में… फिर एक समय राजगृह के ऋषिगिल ढलान पर काली शिला [=चट्टान] पर… फिर एक समय राजगृह के शीतवन में सर्प-फन के पर्वत-ढलान पर… फिर एक समय राजगृह के तपोडा [=ऊष्ण झरना] उद्यान में… फिर एक समय राजगृह के वेणुवन के कलन्दकनिवाप [=गिलहरियों की आहार भूमि] में… फिर एक समय राजगृह के जीवक के आम्रवन में… फिर एक समय राजगृह के मद्दकुच्छि मृगवन में विहार कर रहा था। वहाँ भी मैंने तुम्हें संबोधित किया था, “रमणीय है, आनन्द, राजगृह! रमणीय है चोर प्रपात… सप्तपर्णी गुफा… [इत्यादि]… मद्दकुच्छि मृगवन! जिस किसी ने, आनन्द, चार ऋद्धिपद को विकसित किया हो… जिस किसी ने, आनन्द, चार ऋद्धिपद को विकसित किया हो… तथागत चाहे तो कल्प तक, या शेष बचे कल्प तक, बने रह सकते है… किन्तु वहाँ भी, आनन्द… और तुमने तथागत से याचना नहीं की… इसलिए, आनन्द, ये तुम्हारा ही दुष्कृत्य है, तुम्हारा ही अपराध है।

फिर एक समय, आनन्द, मैं वैशाली के उदेन चैत्य में… फिर एक समय मैं वैशाली के गोतम चैत्य में… फिर एक समय मैं वैशाली के सत्तम्ब चैत्य में… फिर एक समय मैं वैशाली के बहुपुत्त चैत्य में… फिर एक समय मैं वैशाली के सारन्दद चैत्य में… फिर एक समय मैं वैशाली के चापाल चैत्य में 9 विहार कर रहा था। वहाँ भी मैंने तुम्हें संबोधित किया था, “रमणीय है, आनन्द, वैशाली! रमणीय है उदेन चैत्य!… रमणीय है गोतमक चैत्य!… [इत्यादि]… रमणीय है चापाल चैत्य! जिस किसी ने, आनन्द, चार ऋद्धिपद को विकसित किया हो… तथागत चाहे तो कल्प तक, या शेष बचे कल्प तक, बने रह सकते है… किन्तु वहाँ भी, आनन्द… और तुमने तथागत से याचना नहीं की… इसलिए, आनन्द, ये तुम्हारा ही दुष्कृत्य है, तुम्हारा ही अपराध है।

किन्तु, आनन्द, क्या मैंने आगाह करते हुए नहीं बताया कि “अन्ततः हमें सभी प्रिय और मनचाहे लोगों से अलग होना होता है, उनके बिना होना होता है, उनके अलावा होना होता है? यह कैसे हो सकता है कि जो जन्मा हो, अस्तित्व में आया हो, संस्कृत [=रचित] हो, विघटन स्वभाव का हो, उसका विघटन न हो?” ऐसा नहीं हो सकता। और, आनन्द, तथागत ने इस आयु-संस्कार को छोड़ दिया है, वमन [=उलटी] किया है, मुक्त किया है, त्याग दिया है, समर्पण किया है, जाने दिया है। और तब, निश्चित तौर पर कहा है कि “जल्द ही तथागत का परिनिर्वाण होगा। आज से तीन महीने बाद तथागत परिनिर्वाण लेंगे।” तथागत, केवल जीवित रहने के लिए, थूक को पुनः ग्रहण करे 10, ऐसा नहीं हो सकता।

चलो, आनन्द, महावन के कूटागार मंडप में जाते हैं।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान आयुष्मान आनन्द के साथ महावन के कूटागार मंडप में गए, और जाकर आयुष्मान आनन्द से कहा, “जाओ, आनन्द, वैशाली के आसपास निश्रय लेकर विहार करते सभी भिक्षुओं को बैठक मंडप में एकत्र करो।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया, और जाकर वैशाली के आसपास निश्रय लेकर विहार करते सभी भिक्षुओं को बैठक मंडप में एकत्रित किया। और फिर भगवान के पास आकर, अभिवादन कर, एक ओर खड़े हुए। एक ओर खड़े होकर आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “भंते, भिक्षुसंघ एकत्रित हुआ है। भगवान जो समय उचित समझे।”

तब भगवान बैठक मंडप में गए और जाकर बिछे आसन पर बैठ गए। बैठकर भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं, मैंने जो धर्म तुम्हें प्रत्यक्ष-ज्ञान से बताए हैं, उसे भली प्रकार सीखना, धारण करना, विकसित करना, बार-बार कर के बढ़ाना, ताकि ये ब्रह्मचर्य मार्ग चिरस्थायी बना रहे — बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए! कौन-से धर्म?

वे हैं, चार स्मृति-प्रस्थान, चार सम्यक-प्रधान, चार ऋद्धिपद, पाँच इंद्रिय, पाँच बल, सात बोधि-अंग, और आर्य अष्टांगिक मार्ग। [=३७ बोधिपक्खिय धम्म] ये धर्म मैंने तुम्हें प्रत्यक्ष-ज्ञान से बताए हैं, जिसे भली प्रकार सीखना, धारण करना, विकसित करना, बार-बार कर के बढ़ाना, ताकि ये ब्रह्मचर्य मार्ग चिरस्थायी बना रहे — बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए!”

तब भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “अतः, भिक्षुओं, मैं तुम्हें प्रबोधित करता हूँ, ‘रचनाओं का धर्म है व्यय होना। सतर्क रहकर [धर्म कार्य] समापन करो! जल्द ही तथागत का परिनिर्वाण होगा। आज से तीन महीने बाद तथागत परिनिर्वाण लेंगे।”

ऐसा भगवान ने कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा:

“उम्र मेरी पक गयी,
जीवन मेरा सीमित है।
जाऊँगा मैं छोड़ कर,
मैंने अपनी शरण बनायी है।

सतर्क रहना, और स्मरणशील,
सु-शील होना, भिक्षुओं।
संकल्पों को सु-समाहित कर,
चित्त की सु-रक्षा करना!

जो भी इस धर्म-विनय में,
सतर्क होकर जीता है,
वह जन्म, संसरण त्यागकर
दुःख का अन्त करता है।”

२१. हाथी की नजर

तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र और चीवर लेकर, भिक्षाटन के लिए वैशाली में प्रवेश किया। वैशाली में भिक्षाटन कर भोजन करने के पश्चात वैशाली की ओर पलटकर हाथी की नजर से देखा, और आयुष्मान आनन्द को संबोधित किया, “तथागत के द्वारा वैशाली का यह अंतिम दर्शन है, आनन्द। चलो, भण्डग्राम [=बर्तनों का गाँव] में जाते हैं।”

“ठीक है, भंते!” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान बड़े भिक्षुसंघ के साथ भण्डग्राम पहुँचे, और वहाँ भगवान ने विहार किया। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं, चार धर्मों का बोध न करने से, समझ न पाने से, तुम और मैं दीर्घकाल तक जन्म-जन्मांतरों में भटकते रहे हैं। कौन-से चार?

आर्य शील का बोध न करने से, समझ न पाने से, तुम और मैं दीर्घकाल तक जन्म-जन्मांतरों में भटकते रहे हैं। आर्य समाधि… आर्य अन्तर्ज्ञान… आर्य विमुक्ति का बोध न करने से, समझ न पाने से, तुम और मैं दीर्घकाल तक जन्म-जन्मांतरों में भटकते रहे हैं।

[किन्तु, अब] इस आर्य शील का बोध हो गया है, समझ गया है… इस आर्य समाधि… इस आर्य अन्तर्ज्ञान… इस आर्य विमुक्ति का बोध हो गया है, समझ गया है, भव-तृष्णा कट गयी है, भव नलिका क्षीण हुई, अब पुनर्भव नहीं होगा।”

भगवान ने ऐसा कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा,

“सीलं समाधि पञ्ञा च,
विमुत्ति च अनुत्तरा;
अनुबुद्धा इमे धम्मा,
गोतमेन यसस्सिना।

शील, समाधि, अन्तर्ज्ञान,
और विमुक्ति सर्वोत्तर,
बोध हुआ इन धर्मों का,
कीर्तिमान गौतम को।

इति बुद्धो अभिञ्ञाय,
धम्ममक्खासि भिक्खुनं;
दुक्खस्सन्तकरो सत्था,
चक्खुमा परिनिब्बुतो”ति।

प्रत्यक्ष-ज्ञान लेकर बुद्ध ने
भिक्षुओं को धर्म दिखा दिया
अन्त दुःखों का शास्ता ने किया,
चक्षुमान परिनिवृत हुआ।

और, वहाँ भण्डग्राम में रहते हुए भी भगवान ने भिक्षुओं को अक्सर इस तरह का धर्म उपदेश दिया, “ऐसा शील होता है, ऐसी समाधि होती है, ऐसा अन्तर्ज्ञान होता है। शील से विकसित समाधि का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। समाधि से विकसित अन्तर्ज्ञान का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। अन्तर्ज्ञान से विकसित चित्त सही तरह आस्रव-मुक्त होता है, ये कामुक आस्रव, भव आस्रव, अविद्या आस्रव।”

२२. चार महा-कसौटी

भगवान भण्डग्राम में जितना रुकना चाहते थे, उतना रुके, और फिर आयुष्मान आनन्द से कहा, “चलो, आनन्द, हाथीग्राम जाते हैं… आमग्राम जाते हैं… जम्बुग्राम जाते हैं… भोगनगर जाते हैं।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान विशाल भिक्षुसंघ के साथ भोगनगर पहुँचे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं, चार महाकसौटि [=महापदेस] देता हूँ। ध्यान देकर गौर से सुनों, मैं बताता हूँ।”

“ठीक है, भंते।” भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा:

(१) “यदि, भिक्षुओं, कोई भिक्षु कहे — ‘मित्रों, मैंने भगवान के मुख से यह सुना है, भगवान के सम्मुख ग्रहण किया है, ऐसा-ऐसा धर्म, ऐसा-ऐसा विनय, ऐसी-ऐसी शास्ता की सूचना है।’ तब, भिक्षुओं, उसके कहे को न स्वीकार करें, न ही दुत्कार। बल्कि उसके शब्दों और वाक्यों को, बिना स्वीकारे, बिना दुत्कारे, अच्छे से याद रख, धर्मसूत्रों से मिलाकर देखें और विनय-नियमों से जाँचकर देखें। यदि वे सूत्रों के अनुकूल न हो, या विनय के अनुसार न दिखे, तो निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि — ‘यह भगवान के वचन नहीं हैं। इस भिक्षु ने ठीक से ग्रहण नहीं किया है।’ और, तब उसका अस्वीकार करें! किन्तु, यदि वे सूत्रों के अनुकूल हो, और विनय के अनुसार दिखे, तो निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि — ‘यह भगवान के वचन हैं। इस भिक्षु ने अच्छे से ग्रहण किया है।’ इस पहली महा-कसौटी को धारण करों, भिक्षुओं।

(२) “फिर, भिक्षुओं, यदि कोई भिक्षु कहे — ‘अमुक-अमुक विहार में स्थविर और संघनायक [=अग्रणी भिक्षुगण] विहार करते हैं। मैंने उस संघ के मुख से यह सुना है, उनके सम्मुख ग्रहण किया है…

(३) फिर, भिक्षुओं, यदि कोई भिक्षु कहे — अमुक-अमुक विहार में बहुत से स्थविर भिक्षुगण विहार करते हैं, जो बहुश्रुत [=बहुत धर्म सुने या पढ़ें], आगतागम [=सुत्तपिटक के मूल-निकायों में पारंगत], धर्मधर [=धर्म को जीवन में धारण करने वाले], विनयधर [भिक्षु विनय के अनुसार जीवन व्यतीत करने वाले], मातिकाधर [=धर्म-विनय की दार्शनिक रूपरेखा को धारण करने वाले] हैं। मैंने उन स्थविरों के मुख से यह सुना है, उनके सम्मुख ग्रहण किया है…

(४) फिर, भिक्षुओं, यदि कोई भिक्षु कहे — अमुक-अमुक विहार में एक स्थविर भिक्षु विहार करता है, जो बहुश्रुत, आगतागम, धर्मधर, विनयधर, मातिकाधर है। मैंने उस स्थविर के मुख से यह सुना है, उसके सम्मुख ग्रहण किया है, ऐसा-ऐसा धर्म, ऐसा-ऐसा विनय, ऐसी-ऐसी शास्ता की सूचना है।’ तब, भिक्षुओं, उसके कहे को न स्वीकार करें, न ही दुत्कार। बल्कि उसके शब्दों और वाक्यों को, बिना स्वीकारे, बिना दुत्कारे, अच्छे से याद रख, धर्मसूत्रों से मिलाकर देखें और विनय-नियमों से जाँचकर देखें। यदि वे सूत्रों के अनुकूल न हो, या विनय के अनुसार न दिखे, तो निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि — ‘यह भगवान के वचन नहीं हैं। उस स्थविर भिक्षु ने ठीक से ग्रहण नहीं किया है।’ और, तब उसका अस्वीकार करें! किन्तु, यदि वे सूत्रों के अनुकूल हो, और विनय के अनुसार दिखे, तो निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि — ‘यह भगवान के वचन हैं। उस स्थविर भिक्षु ने अच्छे से ग्रहण किया है।’ इस चौथी महा-कसौटी को धारण करों, भिक्षुओं।

और, भिक्षुओं, इन चारों महाकसौटियों को धारण करों।

और, वहाँ भोगनगर में रहते हुए भी भगवान ने भिक्षुओं को अक्सर इस तरह का धर्म उपदेश दिया, “ऐसा शील होता है, ऐसी समाधि होती है, ऐसा अन्तर्ज्ञान होता है। शील से विकसित समाधि का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। समाधि से विकसित अन्तर्ज्ञान का बड़ा फल, बड़ा इनाम होता है। अन्तर्ज्ञान से विकसित चित्त सही तरह आस्रव-मुक्त होता है, ये कामुक आस्रव, भव आस्रव, अविद्या आस्रव।”

२३. कुम्हारपुत्र चुन्द

भगवान भोगनगर में जितना रुकना चाहते थे, उतना रुके, और फिर आयुष्मान आनन्द से कहा, “चलो, आनन्द, पावा जाते हैं।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान विशाल भिक्षुसंघ के साथ पावा पहुँचे। वहाँ भगवान ने कुम्हारपुत्र चुन्द के आम्रवन में विहार किया। कुम्हारपुत्र चुन्द ने सुना कि “भगवान पावा में आकर मेरे आम्रवन में विहार कर रहे हैं।” तब कुम्हारपुत्र चुन्द भगवान के पास गया और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे कुम्हारपुत्र चुन्द को भगवान ने धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया। तब भगवान की धर्म-चर्चा से निर्देशित होकर, उत्प्रेरित होकर, उत्साहित होकर, हर्षित होकर, कुम्हारपुत्र चुन्द ने भगवान से कहा, “भंते, कृपा कर भगवान कल का भोजन भिक्षुसंघ के साथ मेरे द्वारा स्वीकार करें।”

भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी। तब कुम्हारपुत्र चुन्द ने भगवान की स्वीकृति जान कर अपने आसन से उठा, और भगवान को अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर चला गया।

रात बीतने पर कुम्हारपुत्र चुन्द ने अपने निवास में उत्तम खाद्य और भोजन बनाकर, और बहुत-सा सूकरमद्दव 11 बनाकर, भगवान से आकर विनंती की, “उचित समय है, भंते! भोजन तैयार है।”

तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र और चीवर लेकर, भिक्षुसंघ के साथ कुम्हारपुत्र चुन्द के निवास-स्थान गए, और जाकर बिछे आसन पर बैठ गये। एक और बैठकर भगवान ने कुम्हारपुत्र चुन्द को संबोधित किया, “चुन्द, तुमने जो सूकरमद्दव बनाया है, उसे मुझे परोस दो। और जो दूसरा खाद्य और भोजन बनाया है, उसे भिक्षुसंघ को परोस दो।”

“ठीक है, भंते।” कुम्हारपुत्र चुन्द ने भगवान को उत्तर दिया। तब, उसने जो सूकरमद्दव बनाया था, उसे भगवान को परोसा, और जो दूसरा खाद्य और भोजन बनाया था, उसे भिक्षुसंघ को परोस दिया। तब भगवान ने कुम्हारपुत्र चुन्द को संबोधित किया, “चुन्द, जो सूकरमद्दव बच गया हो, उसे जाकर गड्ढे में दफना दो। मैं तथागत के अलावा इस लोक के देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव में किसी को नहीं देखता हूँ, जिसके लिए इस भोजन को ग्रहण करने पर सम्यक परिणाम होगा।”

“ठीक है, भंते।” कुम्हारपुत्र चुन्द ने भगवान को उत्तर दिया, और जो सूकरमद्दव बच गया था, उसे जाकर गड्ढे में दफना कर भगवान के पास आया, और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। तब, एक ओर बैठे कुम्हारपुत्र चुन्द को भगवान ने धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया, और फिर अपने आसन से उठकर चले गए।

तब, भगवान को कुम्हारपुत्र चुन्द के द्वारा दिया भोजन ग्रहण करने पर भयंकर बीमारी उत्पन्न हुई, रक्तपूर्ण दस्त, प्राणघातक और कटु पीड़ाओं के साथ। किन्तु भगवान ने स्मरणशील और सचेत रहते हुए सह लिया, बिना किसी परेशानी के। तब भगवान ने आयुष्मान आनन्द को संबोधित किया, “चलो, आनन्द, कुसिनारा जाते हैं।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया।

12

भोजन चुन्द कुम्हार का
ग्रहण करने पर, मैंने सुना,
धैर्यवान को छुई आबाधा,
प्राणघातक, कटु पीड़ाएँ।

सूकरमद्दव को खाकर,
शास्ता को गंभीर ब्याधि हुई।
भगवान दस्त करने पर बोले,
कुसिनारा नगर जाएँगे।

२४. पानी लाना

तब भगवान मार्ग से उतर कर किसी वृक्ष के नीचे गए, और आयुष्मान आनन्द को संबोधित किया, “आनन्द, मेरी संघाटि को चौपेती [=चार बार मोड़कर] बिछाओ। मैं थक गया हूँ, आनन्द, बैठूँगा।”

“हाँ, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया, और संघाटि को चौपेती बिछा दिया। भगवान बिछे आसन पर बैठ गए। बैठकर भगवान ने आयुष्मान आनन्द से कहा, “मेरे लिए पानी ले आओ, आनन्द। मुझे प्यास लगी है। मैं पानी पीऊँगा।”

ऐसा कहे जाने पर आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “भंते, अभी यहाँ से पाँच-सौ बैलगाड़ीयाँ गुजरी हैं। उनके चक्कों से छिछला जल हिल गया है, और मटमैला होकर बह रहा है। ककुध नदी दूर नहीं है, भंते, जिसका जल साफ, मीठा और शीतल है, और तट भी स्वच्छ, अच्छे से बने और रमणीय है। वहाँ भगवान पानी पी सकते हैं और अपने अंगों को शीतल कर सकते हैं।”

दूसरी बार भगवान ने आयुष्मान आनन्द से कहा, “मेरे लिए पानी ले आओ, आनन्द। मुझे प्यास लगी है। मैं पानी पीऊँगा।”

दूसरी बार आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “भंते, अभी यहाँ से पाँच-सौ बैलगाड़ीयाँ गुजरी हैं। उनके चक्कों से छिछला जल हिल गया है, और मटमैला होकर बह रहा है। ककुध नदी दूर नहीं है, भंते, जिसका जल साफ, मीठा और शीतल है, और तट भी स्वच्छ, अच्छे से बने और रमणीय है। वहाँ भगवान पानी पी सकते हैं और अपने अंगों को शीतल कर सकते हैं।”

तीसरी बार भगवान ने आयुष्मान आनन्द से कहा, “मेरे लिए पानी ले आओ, आनन्द। मुझे प्यास लगी है। मैं पानी पीऊँगा।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया और पात्र लेकर नदी के पास गए। उस समय नदी का छिछला जल चक्कों से हिल गया था, और मटमैला होकर बह रहा था। आयुष्मान आनन्द के आते ही स्वच्छ, उजला और निर्मल होकर बहने लगा। आयुष्मान आनन्द को लगा, “आश्चर्य है, श्रीमान! अद्भुत है तथागत का महाप्रताप, महाप्रभाव! नदी का छिछला जल चक्कों से हिल गया था, और मटमैला होकर बह रहा था। किन्तु मेरे आते ही स्वच्छ, उजला और निर्मल होकर बहने लगा।” पात्र में पानी लेकर भगवान के पास आए और भगवान से कहा, “आश्चर्य है, भंते! अद्भुत है तथागत का महाप्रताप, महाप्रभाव! नदी का छिछला जल चक्कों से हिल गया था, और मटमैला होकर बह रहा था। किन्तु मेरे आते ही स्वच्छ, उजला और निर्मल होकर बहने लगा! पानी पिये, भगवान! पानी पिये, सुगत!”

तब भगवान ने पानी पिया।

२५. पुक्कुस मल्लपुत्र

उस समय पुक्कुस मल्लपुत्र, जो आळार कालाम [=बोधिसत्व के प्रथम गुरु] का शिष्य था, कुसिनारा से पावा की ओर, मार्ग से जा रहा था। उसने भगवान को किसी वृक्ष के तले बैठे हुए देखा। देखकर, वह भगवान के पास आया और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर पुक्कुस मल्लपुत्र ने भगवान ने कहा:

“आश्चर्य है, भंते! अद्भुत है, भंते, जो प्रवज्जित [=संन्यासी] ऐसी शान्त-अवस्था में रहते हैं। एक बार, भंते, आळार कालाम मार्ग से जाते हुए मार्ग से उतर कर पास ही किसी वृक्ष के नीचे दिन का [ध्यान] विहार करने के लिए बैठे। तब, भंते, पाँच-सौ बैलगाड़ीयाँ आळार कालाम के बगल से गुजरी। उसके पीछे-पीछे कोई पुरुष चला आ रहा था, जो आळार कालाम के पास गया और कहा, “भंते, क्या आप ने पाँच-सौ बैलगाड़ियों को बगल से गुजरते हुए देखा?”

“नहीं, मित्र, मैंने नहीं देखा।”

“किन्तु, क्या आप ने आवाज सुना?”

“नहीं, मित्र, मैंने नहीं सुना।”

“भंते, क्या आप सो रहे थे?”

“नहीं, मित्र, मैं सो नहीं रहा था।”

“भंते, क्या आप होश में ही थे?”

“हाँ, मित्र!”

“तो भंते, आप ने होश में रहकर जागते हुए पाँच-सौ बैलगाड़ियों को बगल से गुजरते हुए नहीं देखा, और आवाज भी नहीं सुना? आख़िर क्यों, भंते? आप की संघाटि पर भी धूल जम गयी है।”

“हाँ, मित्र!”

“तब भंते, उस पुरुष को लगा, “आश्चर्य है, श्रीमान! अद्भुत है! संन्यासी ऐसी शान्त-अवस्था में रहते हैं, जो होश में रहकर जागते हुए भी पाँच-सौ बैलगाड़ियों को बगल से गुजरते हुए नहीं देखते हैं, और आवाज भी नहीं सुनते हैं!”

तब उसने आळार कालाम पर गहरी आस्था प्रकट की और चला गया।”

[भगवान:] “क्या लगता है तुम्हें, पुक्कुस, क्या अधिक कठिन, अधिक चुनौतीपूर्ण है — होश में रहकर जागते हुए पाँच-सौ बैलगाड़ियों को बगल से गुजरते हुए नहीं देखना और आवाज नहीं सुनना, अथवा होश में रहकर जागते हुए देवताओं के द्वारा भारी वर्षा कराने के बीच बादलों का गरजना, बिजली का चमकना, और वज्रपात फट पड़ते हुए भी नहीं देखना और आवाज नहीं सुनना?”

“पाँच-सौ, छह-सौ, सात-सौ, आठ-सौ, नौ-सौ, हजार, या एक लाख बैलगाड़ियाँ भी क्या ही कर लेगी, भंते? इससे निश्चित ही कई अधिक कठिन, कई अधिक चुनौतीपूर्ण है — होश में रहकर जागते हुए देवताओं के द्वारा भारी वर्षा कराने के बीच बादलों का गरजना, बिजली का चमकना, और वज्रपात फट पड़ते हुए भी नहीं देखना और आवाज तक नहीं सुनना!”

“एक समय, पुक्कुस, मैं आतुमा [गाँव] में भूसे की कुटी में विहार कर रहा था। तब उस समय देवताओं के द्वारा भारी वर्षा कराने के बीच बादल गरजे, बिजलियाँ चमकी और वज्रपात फटकर गिर पड़ी। और मेरे भूसे के कुटी के बगल में ही दो किसान भाई अपने चार बैलों के साथ मारे गए। तब, पुक्कुस, आतुमा से बड़ी भीड़ उमड़ पड़ी, जहाँ वे दोनों किसान भाई अपने चार बैलों के साथ मारे गए थे। तब, पुक्कुस, मैं अपने भूसे की कुटी से निकला और द्वार के आगे ही खुले में चक्रमण [=पैदल चलते हुए ध्यान] करने लगा। तब, पुक्कुस, कोई पुरुष भीड़ छोड़ कर मेरे पास आया, और अभिवादन कर एक ओर खड़ा हुआ। एक ओर खड़े उस पुरुष से मैंने पूछा, “मित्र, ये बड़ी भीड़ क्यों उमड़ पड़ी?”

“अभी, भंते, देवताओं के द्वारा भारी वर्षा कराने के बीच बादल गरजे, बिजलियाँ चमकी और वज्रपात फटकर गिर पड़ी। और, दो किसान भाई अपने चार बैलों के साथ मारे गए। इसलिए ये बड़ी भीड़ उमड़ पड़ी है। किन्तु, भंते, तब आप कहाँ थे?”

“मैं तो यही था, मित्र।”

“किन्तु, भंते, आपने नहीं देखा?”

“नहीं, मित्र। मैंने नहीं देखा।”

“किन्तु, भंते, आपने सुना तक नहीं?”

“नहीं, मित्र। मैंने सुना तक नहीं।”

“भंते, क्या आप सो रहे थे?”

“नहीं, मित्र, मैं सो नहीं रहा था।”

“किन्तु, भंते, क्या आप होश में ही थे?”

“हाँ, मित्र!”

“तो भंते, आप ने होश में रहकर जागते हुए देवताओं के द्वारा भारी वर्षा कराने के बीच बादलों का गरजना, बिजली का चमकना, और वज्रपात फट पड़ते हुए देखा नहीं, और आवाज सुना तक नहीं?”

“हाँ, मित्र!”

तब, पुक्कुस, उस पुरुष को लगा, “आश्चर्य है, श्रीमान! अद्भुत है! संन्यासी ऐसी शान्त-अवस्था में रहते हैं, जो होश में रहकर जागते हुए भी देवताओं के द्वारा भारी वर्षा कराने के बीच बादलों का गरजना, बिजली का चमकना, और वज्रपात फट पड़ते हुए देखते नहीं हैं, और आवाज भी नहीं सुनते हैं!”

तब, पुक्कुस, उस पुरुष ने मेरे प्रति गहरी आस्था प्रकट की, अभिवादन किया, और प्रदक्षिणा कर चला गया।”

जब ऐसा कहा गया, तब पुक्कुस मल्लपुत्र ने भगवान से कहा, “भंते, जो भी मेरी आळार कालाम के प्रति आस्था थी, मानो, पवन के बड़े झोके में बह गयी, मानो, नदी के तेज प्रवाह में बह गयी! अतिउत्तम, भंते! अतिउत्तम, भंते! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। भंते, मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”

तब पुक्कुस मल्लपुत्र ने किसी पुरुष को संबोधित किया, “जाओ, भाई, स्वर्ण रंग के वस्त्रों की पहनने योग्य जोड़ी ले आओ।”

“हाँ, भंते।” उस पुरुष ने पुक्कुस मल्लपुत्र को उत्तर दिया और स्वर्ण रंग के वस्त्रों की पहनने योग्य जोड़ी ले आया। तब पुक्कुस मल्लपुत्र ने उस स्वर्ण रंग के वस्त्रों की पहनने योग्य जोड़ी को भगवान के आगे प्रस्तुत किया, “भंते, इस स्वर्ण रंग के वस्त्रों की पहनने योग्य जोड़ी को भगवान स्वीकार कर मुझ पर अनुकंपा करे।”

“ठीक है, पुक्कुस। एक मुझे पहनाओ, और एक आनन्द को।”

“ठीक है, भंते।” पुक्कुस मल्लपुत्र ने भगवान को उत्तर दिया, और स्वर्ण रंग के एक वस्त्र भगवान को ओढ़ा दिया, और एक आयुष्मान आनन्द को।

तब, भगवान ने पुक्कुस मल्लपुत्र को धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया। भगवान की धर्म-चर्चा से निर्देशित होकर, उत्प्रेरित होकर, उत्साहित होकर, हर्षित होकर, पुक्कुस मल्लपुत्र अपने आसन से उठा, और भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर चला गया।

पुक्कुस मल्लपुत्र के जाने के थोड़ी देर बाद, आयुष्मान आनन्द ने उस स्वर्ण रंग के वस्त्र को भगवान की काया पर टिकाई। भगवान की काया पर टिकाने पर, मानो उस वस्त्र ने अपनी चमक खो दी। तब आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “आश्चर्य है, भंते, अद्भुत है! इतना परिशुद्ध है तथागत की त्वचा का वर्ण, इतना उजालेदार है! स्वर्ण रंग के वस्त्र को भगवान की काया पर टिकाने पर, मानो उसने अपनी चमक खो दी।”

“ऐसा ही होता है, आनन्द! ऐसा ही होता है! दो समय होते हैं, जब तथागत की काया परिशुद्ध, और त्वचा का वर्ण उजालेदार होता है। कौन-से दो?

जिस रात तथागत सर्वोत्तर सम्यक-सम्बोधि का बोध करते हैं, और जिस रात निर्वाण-धातु में बिना अवशेष बचे परिनिवृत्त होते हैं। ये दो समय होते हैं, आनन्द, जब तथागत की काया परिशुद्ध और त्वचा का वर्ण उजालेदार होता है।

आज रात की अंतिम पहर पर, आनन्द, कुसिनारा के उपवन में मल्लों के शालवन में जुड़वा शाल-वृक्षों के बीच तथागत परिनिवृत होंगे। आओ, आनन्द, ककुध नदी चलें।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया।

12

स्वर्णिम वस्त्रों की जोड़ी
पुक्कुस ने प्रस्तुत की।
उसे ओढ़ कर शास्ता का
हेम-वर्ण चमकने लगा।

तब भगवान बड़े भिक्षुसंघ के साथ ककुध नदी के पास गए, उसमें उतर कर नहाया, पानी पिया, और फिर निकल कर आम्रवन के पास गए। वहाँ पहुँच कर आयुष्मान चुन्दक को संबोधित किया, “चुन्दक, मेरी संघाटि को चौपेती बिछाओ। मैं थक गया हूँ, चुन्दक, लेटुंगा।”

“हाँ, भंते।” आयुष्मान चुन्दक ने भगवान को उत्तर दिया, और संघाटि को चौपेती बिछा दिया। तब भगवान दायी करवट लेकर सिंह-शैय्या में लेट गए, पैर पर पैर रखकर, स्मरणशील और सचेत होकर, उठने [के समय] को निश्चित करते हुए।

किन्तु, आयुष्मान चुन्दक वहीं भगवान के आगे बैठ गया।

12

ककुध नदी पर जाकर बुद्ध
स्वच्छ, उजले और निर्मल जल में
थके हुए शास्ता उतर गए।
जो लोक में अप्रतिम, तथागत, है।

नहाकर और जल पीकर शास्ता निकले,
भिक्षुगण के आगे, उनके बीच में
भगवान, जिन्होने धर्मचक्र घुमाया।
महाऋषि आम्रवन में गए।

चुन्दक नामक भिक्षु से कहा,
"चौपेती बिछाओ, मैं लेटुंगा।"
विकसित [=बुद्ध] ने चुन्द से कहा,
जिसने चौपेती बिछा दी।
थके हुए शास्ता लेट गए,
चुन्द उनके आगे बैठा।

तब, भगवान ने आयुष्मान आनन्द को संबोधित किया, “ऐसा संभव है, आनन्द, कि कोई चुन्द कुम्हारपुत्र में पश्चाताप उत्पन्न कराएँ, “मित्र चुन्द, तुम्हारा लाभ नहीं हुआ, बल्कि तुम्हारा दुष्कृत्य हुआ, जो तथागत ने अंतिम भोजन तुमसे ग्रहण कर परिनिर्वाण प्राप्त किया। तब, आनन्द, तुम चुन्द कुम्हारपुत्र का पश्चाताप इस तरह हटाना, “मित्र चुन्द, तुम्हारा लाभ हुआ, तुम्हारा सुकृत्य ही हुआ, जो तथागत ने अंतिम भोजन तुमसे ग्रहण कर परिनिर्वाण प्राप्त किया। मित्र चुन्द, मैंने यह भगवान के मुख से सुना है, उनके सामने ग्रहण किया है कि इन दो भिक्षाओं का समान फल, समान परिणाम है, और जो किसी भी अन्य भिक्षाओं की तुलना में महा-फलदायी हैं, महा-पुरस्कारी हैं। कौन-से दो? जिस भिक्षा को खाकर तथागत सर्वोत्तर सम्यक-सम्बोधि का बोध करते है, और जिस भिक्षा को खाकर तथागत निर्वाण-धातु में बिना अवशेष रहे परिनिवृत होते है। इन दो भिक्षाओं का समान फल, समान परिणाम है, और जो किसी भी अन्य भिक्षाओं की तुलना में महा-फलदायी हैं, महा-पुरस्कारी हैं।

आयुष्मान चुन्द कुम्हारपुत्र ने आयु बढ़ाने वाला कर्म जमा किया है। आयुष्मान चुन्द कुम्हारपुत्र ने वर्ण [=सौंदर्य] बढ़ाने वाला कर्म जमा किया है। आयुष्मान चुन्द कुम्हारपुत्र ने सुख और राहत बढ़ाने वाला कर्म जमा किया है। आयुष्मान चुन्द कुम्हारपुत्र ने यश [=प्रभाव] बढ़ाने वाला कर्म जमा किया है। आयुष्मान चुन्द कुम्हारपुत्र ने स्वर्ग की ओर बढ़ाने वाला कर्म जमा किया है। आयुष्मान चुन्द कुम्हारपुत्र ने प्रभुत्व बढ़ाने वाला कर्म जमा किया है।” इस तरह बताकर, आनन्द, चुन्द कुम्हारपुत्र का पश्चाताप हटाना।”

तब, उस समय भगवान अर्थ जानते हुए उदान बोल पड़े:

“ददतो पुञ्ञं पवड्ढति,
संयमतो वेरं न चीयति;
कुसलो च जहाति पापकं,
रागदोसमोहक्खया सनिब्बुतो”ति।

दायक का पुण्य बढ़ते जाए,
संयमी का बैर जमा न हो।
कुशल पाप करना त्यागे,
राग-द्वेष-मोह का अन्त कर निवृत हो।


२६. जुड़वा शालवृक्ष

तब भगवान ने आयुष्मान आनन्द को संबोधित किया, “आओ, आनन्द, हिरण्यवती नदी के अगले छोर पर, कुसिनारा उपवन में मल्लों के शालवान के पास जाएँगे।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। और भगवान बड़े भिक्षुसंघ के साथ हिरण्यवती नदी के अगले छोर पर, कुसिनारा उपवन में मल्लों के शालवान के पास गए, और वहाँ जाकर आयुष्मान आनन्द को संबोधित किया, “यहाँ, आनन्द, जुड़वा शालवृक्षों के बीच, उत्तर-दिशा की ओर सिरहाना रख, मेरे लिए खाट डाल दो। मैं थक गया हूँ, लेटुंगा!”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया। और, जुड़वा शालवृक्षों के बीच, उत्तर-दिशा की ओर सिरहाना रख, भगवान के लिए खाट लगा दी। तब भगवान दायी करवट लेकर सिंह-शैय्या में लेट गए, पैर पर पैर रखकर, स्मरणशील और सचेत।

उस समय जुड़वा शालवृक्षों में बे-मौसम पुष्प खिल गए, और तथागत के शरीर पर गिरने, बरसने और बिखरने लगे, तथागत को पूजते हुए। और, दिव्य मन्दार पुष्प आकाश से गिरने लगा, और तथागत के शरीर पर गिरने, बरसने और बिखरने लगे, तथागत को पूजते हुए। और, दिव्य चन्दन का चूर्ण आकाश से गिरने लगा, और तथागत के शरीर पर गिरने, बरसने और बिखरने लगा, तथागत को पूजते हुए। और, दिव्य तुरही [=trumpet] आकाश में बजने लगी, तथागत को पूजते हुए। और, दिव्य संगीत आकाश में चलने लगा, तथागत को पूजते हुए।

तब भगवान ने आयुष्मान आनन्द को संबोधित किया, “आनन्द, इस जुड़वा शालवृक्षों में बे-मौसम पुष्प खिल गए हैं, और तथागत के शरीर पर गिरने, बरसने और बिखरने लगे हैं, तथागत को पूजते हुए। और, दिव्य मन्दार पुष्प आकाश से गिरने लगा हैं, और तथागत के शरीर पर गिरने, बरसने और बिखरने लगा हैं, तथागत को पूजते हुए। और, दिव्य चन्दन का चूर्ण आकाश से गिरने लगा हैं, और तथागत के शरीर पर गिरने, बरसने और बिखरने लगा हैं, तथागत को पूजते हुए। और, दिव्य तुरही आकाश में बजने लगी है, तथागत को पूजते हुए। और, दिव्य संगीत आकाश में चलने लगा है, तथागत को पूजते हुए। किन्तु, आनन्द, केवल इतने से तथागत का आदर, सत्कार, मानना, पूजना और सम्मान करना नहीं होता। बल्कि जो भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक और उपासिका धर्मानुसार धर्म पर चलते हैं, उचित मार्ग पर चलते हैं, धर्म के पीछे-पीछे चलते हैं, वे तथागत का परम आदर, परम सत्कार, परम मानना, परम पूजना और परम सम्मान करते हैं। इसलिए, आनन्द, तुम्हें धर्मानुसार धर्म पर चलना चाहिए, उचित मार्ग पर चलना चाहिए, धर्म के पीछे-पीछे चलते रहना चाहिए। इस तरह, आनन्द, सीखना चाहिए।”

२७. उपवाण थेर

उस समय आयुष्मान उपवाण भगवान के सामने खड़े थे, भगवान को पंखा झलते हुए। तब भगवान ने आयुष्मान उपवाण को हटाया, “हट जाओ, भिक्षु, मेरे सामने खड़े मत हो।”

तब आयुष्मान आनन्द को लगा, “यह आयुष्मान उपवाण दीर्घकाल से भगवान का करीबी सेवक बनकर रहा है, समीप रहा है। किन्तु, भगवान अपने अंतिम काल में उसे दूर हटा रहे है, [कहते हुए,] “हट जाओ, भिक्षु, मेरे सामने खड़े मत हो।” आखिर क्या कारण, क्या परिस्थिति से भगवान आयुष्मान उपवाण को दूर हटा रहे है?”

तब आयुष्मान आनन्द मे भगवान से कहा, “भंते, यह आयुष्मान उपवाण दीर्घकाल से भगवान का करीबी सेवक बनकर रहा है, समीप रहा है। किन्तु, भगवान अपने अंतिम काल में उसे दूर हटा रहे है, [कहते हुए,] “हट जाओ, भिक्षु, मेरे सामने खड़े मत हो।” आखिर क्या कारण, क्या परिस्थिति से भगवान आयुष्मान उपवाण को दूर हटा रहे है?”

“आनन्द, यहाँ दस लोकधातु के अधिकांश देवतागण तथागत के दर्शन के लिए एकत्र हुए हैं। कुसिनारा उपवन के मल्लों के शालवन में सभी दिशाओं में बारह योजन तक बाल की नोक टिकाने की भी जगह नहीं है, जहाँ महासक्षम देवताओं की भारी भीड़ न उमड़ी हो। वे देवता परेशान हैं, आनन्द, [कहते हुए,] “हम तथागत का दर्शन लेने के लिए इतने दूर से आए हैं। कभी-कभार ही होता है, जब तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध लोक में प्रकट होते हैं। आज ही रात के अंतिम पहर में तथागत का परिनिर्वाण होगा। और, यह महासक्षम भिक्षु भगवान के सामने खड़ा हो गया, उन्हें ढाँकते हुए। हमें तथागत के अंतिम काल में भी दर्शन लाभ नहीं होगा।””

“भंते, भगवान किस तरह के देवताओं पर ध्यान दे रहे हैं?”

“कुछ देवता हैं, आनन्द, जो आकाश को पृथ्वी-नजरिए से देखते हैं, [अर्थात, आकाश में पैदल चलने वाले], वे बिखरे बालों में कृंदन [=मातम करते हुए रोना] कर रहे हैं, बाहें उठा-उठाकर कृंदन कर रहे हैं। कट चुके की तरह गिर रहे हैं, लोट-पोट रहे हैं, [कहते हुए,] “भगवान बहुत ही जल्दी परिनिवृत हो जाएँगे! सुगत बहुत ही जल्दी परिनिवृत हो जाएँगे! बहुत ही जल्दी दुनिया से आँखें विलुप्त हो जाएगी!” और, कुछ देवता हैं, आनन्द, जो पृथ्वी को पृथ्वी-नजरिए से देखते हैं, [अर्थात, भूमि पर पैदल चलने वाले], वे भी बिखरे बालों में कृंदन कर रहे हैं, बाहें उठा-उठाकर कृंदन कर रहे हैं। कट चुके की तरह गिर रहे हैं, लोट-पोट रहे हैं, “भगवान बहुत ही जल्दी परिनिवृत हो जाएँगे! सुगत बहुत ही जल्दी परिनिवृत हो जाएँगे! बहुत ही जल्दी दुनिया से आँखें विलुप्त हो जाएगी!” किन्तु, कुछ देवता वीतरागी हैं, जो स्मरणशील और सचेत हो स्वीकार कर रहे हैं, “रचनाएँ अनित्य हैं। कैसे [परिणाम] भिन्न मिलेगा?”

२८. चार संवेग स्थल

“पहले, भंते, सभी दिशाओं से वर्षावास समापन कर भिक्षुगण तथागत का दर्शन लेने के लिए आते थे। तब हमें प्रेरणादायी भिक्षुओं का दर्शन लाभ होता था, सेवा-सुश्रुषा करने का लाभ प्राप्त होता था। किन्तु, अब भगवान के चले जाने पर, भंते, हमें न प्रेरणादायी भिक्षुओं का दर्शन लाभ होगा, न ही सेवा-सुश्रुषा करने का लाभ प्राप्त होगा।”

“चार स्थल हैं, आनन्द, श्रद्धालु कुलपुत्र के लिए दर्शनीय और संवेग जगाने योग्य। कौन-से चार?

‘यहाँ [लुम्बिनी में] तथागत का जन्म हुआ!’ [सोचते हुए], आनन्द, श्रद्धालु कुलपुत्र के लिए दर्शनीय और संवेग जगाने योग्य स्थल है। ‘यहाँ [बोधगया में] तथागत ने अनुत्तर सम्यक-सम्बोधि का बोध किया!’ श्रद्धालु कुलपुत्र के लिए दर्शनीय और संवेग जगाने योग्य स्थल है। ‘यहाँ [सारनाथ में] तथागत ने धर्मचक्र प्रवर्तन किया!’ श्रद्धालु कुलपुत्र के लिए दर्शनीय और संवेग जगाने योग्य स्थल है। ‘यहाँ [कुशीनगर में] तथागत निर्वाण-धातु में बिना अवशेष रहे परिनिवृत हुए!’ श्रद्धालु कुलपुत्र के लिए दर्शनीय और संवेग जगाने योग्य स्थल है। ये चार स्थल, आनन्द, श्रद्धालु कुलपुत्र के लिए दर्शनीय और संवेग जगाने योग्य हैं।

और, आनन्द, श्रद्धालु भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक, और उपासिकाएँ [कहते हुए] आएँगे — ‘यहाँ तथागत का जन्म हुआ!’, ‘यहाँ तथागत ने अनुत्तर सम्यक-सम्बोधि का बोध किया!’, ‘तथागत ने धर्मचक्र प्रवर्तन किया!’, और ‘यहाँ तथागत निर्वाण-धातु में बिना अवशेष रहे परिनिवृत हुए!’ और, आनन्द, जो भी लोग इन चैत्य-यात्राओं में भ्रमण करते हुए प्रसन्न [=आस्थापूर्ण] चित्त से मरेंगे, वे सभी मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्गलोक में उपजेंगे।”

२९. आनन्द के प्रश्न

“भंते, स्त्रियॉं के साथ कैसे चलें?” 13

“बिना देखें, आनन्द।”

“जब देखना पड़े, भगवान, तब कैसे चलना चाहिए?”

“बिना बातचीत किए, आनन्द।”

“जब बातचीत करना पड़े, भगवान, तब कैसे चलना चाहिए?”

“स्मरणशीलता स्थापित कर के, आनन्द।”

“भंते, तथागत के [पार्थिव] शरीर के साथ क्या करेंगे?”

“आनन्द, तुम्हें तथागत की शरीर पुजा [=दाह-क्रिया] की परवाह नहीं करनी है। तुम्हें अपने मूल-लक्ष्य के लिए प्रयत्नशील और समर्पित रहना है। तुम्हें सतर्क रह कर, अपने मूल-लक्ष्य के प्रति तत्पर और संकल्पबद्ध होकर विहार करना है। आनन्द, कई क्षत्रिय पंडित, ब्राह्मण पंडित, और गृहपति पंडित तथागत पर अटूट आस्था रखते हैं। वे ही तथागत की शरीर पुजा करेंगे।”

“किन्तु, भंते, तथागत के शरीर के साथ क्या किया जाता हैं?”

“जैसे, आनन्द, चक्रवर्ती सम्राट के शरीर के साथ किया जाता हैं, वही तथागत के शरीर के साथ किया जाता हैं।”

“किन्तु, भंते, चक्रवर्ती सम्राट के शरीर के साथ क्या किया जाता हैं?”

“आनन्द, चक्रवर्ती सम्राट के [पार्थिव] शरीर को नए वस्त्र से लपेटते हैं। नए वस्त्र से लपेटने पर धुनी गयी कपास [=रुई] से लपेटते हैं। धुनी गयी कपास से लपेटने पर फिर नए वस्त्र से लपेटते हैं। इस तरह, पाँच-सौ बार जोड़ियों में लपेटकर, चक्रवर्ती सम्राट के शरीर को तेल के भरे लोह-द्रोण में रखते हैं और दूसरे लोह-द्रोण से ढँक देते हैं। फिर, सब तरह के गन्धों [=सुगंधित काष्ट] की चिता बनाकर चक्रवर्ती सम्राट के शरीर को अग्नि देते हैं। तब, किसी बड़े चौराहे पर चक्रवर्ती सम्राट का स्तूप बनाते हैं। इस तरह चक्रवर्ती सम्राट के शरीर के साथ किया जाता हैं।

और, जिस तरह चक्रवर्ती सम्राट के शरीर के साथ किया जाता हैं, उसी तरह तथागत के शरीर के साथ किया जाना चाहिए। और, फिर किसी बड़े चौराहे पर तथागत का स्तूप बनाना चाहिए। और, आनन्द, जो भी वहाँ माला, गन्ध, या [चन्दन] चूर्ण अर्पित करे, अभिवादन करे, चित्त में आस्था जागृत करें, वह उनके दीर्घकालीन हित और सुख के लिए होगा।”

३०. स्तूप बनाने के लायक व्यक्ति

“आनन्द, चार तरह के व्यक्ति स्तूप बनाने के लायक हैं। कौन-से चार?

(१) तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध स्तूप बनाने के लायक है। (२) प्रत्येकबुद्ध स्तूप बनाने के लायक है। (३) तथागत के श्रावक स्तूप बनाने के लायक हैं। (४) चक्रवर्ती सम्राट स्तूप बनाने के लायक है।

क्यों तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध स्तूप बनाने के लायक है? ‘यह भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का स्तूप है,’ [कहते हुए,] आनन्द, बहुजनों के चित्त में आस्था प्रकट होगी। और चित्त में आस्था प्रकट होने पर, मरणोपरांत काया छूटने पर, वे सद्गति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न होंगे। इस कारण से तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध स्तूप बनाने के लायक है।

और, क्यों प्रत्येकबुद्ध स्तूप बनाने के लायक है? ‘यह भगवान प्रत्येकबुद्ध का स्तूप है,’ [कहते हुए,] आनन्द, बहुजनों के चित्त में आस्था प्रकट होगी। और चित्त में आस्था प्रकट होने पर, मरणोपरांत काया छूटने पर, वे सद्गति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न होंगे। इस कारण से प्रत्येकबुद्ध स्तूप बनाने के लायक है।

और, क्यों तथागत के श्रावक स्तूप बनाने के लायक हैं? ‘यह भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के श्रावक का स्तूप है,’ [कहते हुए,] आनन्द, बहुजनों के चित्त में आस्था प्रकट होगी। और चित्त में आस्था प्रकट होने पर, मरणोपरांत काया छूटने पर, वे सद्गति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न होंगे। इस कारण से तथागत के श्रावक स्तूप बनाने के लायक हैं।

और, क्यों चक्रवर्ती सम्राट स्तूप बनाने के लायक है? ‘यह उस धार्मिक धर्मराजा का स्तूप है,’ [कहते हुए,] आनन्द, बहुजनों के चित्त में आस्था प्रकट होगी। और चित्त में आस्था प्रकट होने पर, मरणोपरांत काया छूटने पर, वे सद्गति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न होंगे। इस कारण से चक्रवर्ती सम्राट स्तूप बनाने के लायक है।

इस तरह, आनन्द, ये चार तरह के व्यक्ति स्तूप बनाने के लायक हैं।”

३१. आनन्द के आश्चर्यजनक गुण

तब आयुष्मान आनन्द ने विहार में प्रवेश किया, और द्वार की चौखट के सहारे खड़े होकर रोने लगे, “हाय, मैं अब भी शिक्षार्थी [“सेक्ख”] ही हूँ, जिसके लिए [काम] करना बचा है! और मेरे शास्ता का परिनिर्वाण होने जा रहा है, जिनकी मेरे पर इतनी अनुकंपा [=कृपा] है!”

तब भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं, आनन्द कहा है?”

“ऐसा है, भंते, कि आयुष्मान आनन्द विहार में प्रवेश कर द्वार की चौखट के सहारे खड़े होकर रो रहे है, [कहते हुए,] “हाय, मैं अब भी शिक्षार्थी ही हूँ, जिसके लिए अब भी करना बचा है! और मेरे शास्ता का परिनिर्वाण होने जा रहा है, जिनकी मेरे पर इतनी अनुकंपा है!”

तब भगवान ने किसी भिक्षु को संबोधित किया, “जाओ, भिक्षु, मेरे नाम से आनन्द को बुलाओ, ‘मित्र आनन्द, शास्ता तुम्हें बुला रहे है।’”

“ठीक है, भंते।” उस भिक्षु ने भगवान को उत्तर दिया, और आयुष्मान आनन्द के पास गया और कहा, ‘मित्र आनन्द, शास्ता तुम्हें बुला रहे है।’

“ठीक है, मित्र!” आयुष्मान आनन्द ने उस भिक्षु को उत्तर दिया, और फिर भगवान के पास गए। जाकर भगवान को अभिवादन किया और एक ओर खड़े हुए। एक ओर खड़े आयुष्मान आनन्द को भगवान ने कहा:

“बहुत हुआ, आनन्द, शोक मत करो, विलाप मत करो। आनन्द, क्या मैंने आगाह करते हुए नहीं बताया कि ‘अन्ततः हमें सभी प्रिय और मनचाहे लोगों से अलग होना होता है, उनके बिना होना होता है, उनके अलावा होना होता है। यह कैसे हो सकता है कि जो जन्मा हो, अस्तित्व में आया हो, रचित हो, विघटन स्वभाव का हो, उसका विघटन न हो, चाहे तथागत का शरीर ही क्यों न हो?’ ऐसा नहीं हो सकता। दीर्घकाल तक, आनन्द, तुमने सद्भावपूर्ण [=“मेत्ता”] कायिक कर्म से तथागत की हितकारी, सुखकारी, लगातार एक-जैसे, और असीम देखभाल की है, सद्भावपूर्ण वाणी कर्म से तथागत की हितकारी, सुखकारी, लगातार एक-जैसे, और असीम देखभाल की है, सद्भावपूर्ण मनो कर्म से तथागत की हितकारी, सुखकारी, लगातार एक-जैसे, और असीम देखभाल की है। तुमने, आनन्द, पुण्य किया है। तुम समर्पित भाव से प्रयत्नशील होने पर शीघ्र ही अनास्रव हो जाओगे।”

तब भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं, अतीतकाल में जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हुए, उन भगवानों के परम सेवक वैसे ही थे, जैसे मेरे लिए आनन्द है। भविष्यकाल में जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध होंगे, उन भगवानों के परम सेवक वैसे ही होंगे, जैसे मेरे लिए आनन्द है। आनन्द पंडित है, भिक्षुओं। आनन्द मेधावी [=तेज बुद्धि का] है। वह जानता है कि तथागत के दर्शन के लिए आए भिक्षुओं का ये समय उचित है, भिक्षुणीओं का ये समय उचित है, उपासकों का ये समय उचित है, उपासिकाओं का ये समय उचित है, राजाओं, राजमहामंत्रियों, परधार्मिकों, परधार्मिक श्रावकों का ये समय उचित हैं।

भिक्षुओं, आनन्द में चार आश्चर्यजनक और अद्भुत धर्म मौजूद हैं। कौन-से चार? यदि ऐसा हो कि भिक्षु-परिषद आनन्द के दर्शनार्थ जाएँ, तो वे उसके दर्शन से प्रसन्न होते हैं। यदि आनन्द धर्म बताने लगे, तो वे उसकी बातों से प्रसन्न होते हैं। और, भिक्षुओं, भिक्षु-परिषद के तृप्त होने पूर्व ही आनन्द मौन हो जाता है। यदि ऐसा हो कि भिक्षुणी-परिषद… उपासक-परिषद… उपासिका-परिषद आनन्द के दर्शनार्थ जाएँ, तो वे उसके दर्शन से प्रसन्न होते हैं। यदि आनन्द धर्म बताने लगे, तो वे उसकी बातों से प्रसन्न होते हैं। और, उस परिषद के तृप्त होने पूर्व ही आनन्द मौन हो जाता है। भिक्षुओं, आनन्द में ये चार आश्चर्यजनक और अद्भुत धर्म मौजूद हैं।

और, भिक्षुओं, चक्रवर्ती सम्राट में चार आश्चर्यजनक और अद्भुत धर्म मौजूद होते हैं। कौन-से चार? यदि ऐसा हो कि क्षत्रिय-परिषद चक्रवर्ती सम्राट के दर्शनार्थ जाएँ, तो वे उसके दर्शन से प्रसन्न होते हैं। यदि चक्रवर्ती सम्राट बोलने लगे, तो वे उसकी बातों से प्रसन्न होते हैं। और क्षत्रिय-परिषद के तृप्त होने पूर्व ही चक्रवर्ती सम्राट मौन हो जाता है। यदि ऐसा हो कि ब्राह्मण-परिषद… गृहस्थ-परिषद… श्रमण-परिषद चक्रवर्ती सम्राट के दर्शनार्थ जाएँ, तो वे उसके दर्शन से प्रसन्न होते हैं। यदि चक्रवर्ती सम्राट बोलने लगे, तो वे उसकी बातों से प्रसन्न होते हैं। और उस परिषद के तृप्त होने पूर्व ही चक्रवर्ती सम्राट मौन हो जाता है।

उसी तरह, आनन्द में चार आश्चर्यजनक और अद्भुत धर्म मौजूद हैं। यदि ऐसा हो कि भिक्षु-परिषद… भिक्षुणी-परिषद… उपासक-परिषद… उपासिका-परिषद आनन्द के दर्शनार्थ जाएँ, तो वे उसके दर्शन से प्रसन्न होते हैं। यदि आनन्द धर्म बताने लगे, तो वे उसकी बातों से प्रसन्न होते हैं। और, उस परिषद के तृप्त होने पूर्व ही आनन्द मौन हो जाता है। इस तरह, भिक्षुओं, आनन्द में ये चार आश्चर्यजनक और अद्भुत धर्म मौजूद हैं।”

३२. महासुदर्शन सूत्र की देशना

जब ऐसा कहा गया, तो आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “भंते, भगवान ऐसे शूद्र नगर में, ऐसे जंगली नगर में, ऐसे शाखा नगर में परिनिवृत न हो। बल्कि दूसरे महानगर हैं, भंते, जैसे चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कौशांबी, वाराणसी; वहाँ भगवान परिनिवृत हो। वहाँ बहुत से महासंपत्तिशाली क्षत्रिय हैं, महासंपत्तिशाली ब्राह्मण हैं, महासंपत्तिशाली गृहस्थ [=वैश्य] हैं, जिनकी तथागत पर अटूट आस्था हैं। वे तथागत के [पार्थिव] शरीर की पुजा [अन्तक्रिया] करेंगे।”

“ऐसा मत कहो, आनन्द। ऐसा मत कहो कि यह शूद्र नगर है, जंगली नगर है, शाखा नगर है। बहुत पहले, आनन्द, महासुदर्शन नामक राजा हुआ था, जो चक्रवर्ती, धार्मिक, धर्मराजा,


  1. भगवान के समय पाटलि छोटा-सा एक गाँव था। इस सूत्र में भगवान इस गाँव के बड़े होने की भविष्यवाणी करते हैं। आगे चलकर यही गाँव सम्राट अशोक की राजधानी ‘पाटलिपुत्र’ बनी। और, आधुनिक भारत में बिहार की राजधानी ‘पटना’। ↩︎

  2. आश्चर्य है कि पुरातात्विक सबूत मिलते हैं कि सम्राट अशोक का राजमहल, जो अधिकांशतः लकड़ी से बना था, उसके जले अंश मिले हैं, जो बताते हैं कि पहले उनके राजमहल को जलाया गया होगा, और तत्पश्चात वह बाढ़ में डूबकर दब गया। भगवान की दुर्लभ भविष्यवाणी सच हुई। पुष्यमित्र सुंग ने जिस तरह मौर्य वंश का खात्मा किया, उस इतिहास से साफ होता है तीनों ही खतरों ने पाटलिपुत्र का प्रभाव समाप्त कर दिया। ↩︎

  3. भगवान बुद्ध के समय के पहले सिंधु घाटी सभ्यता में लगभग सभी घर, नालियाँ, रास्ते, और सम्पूर्ण नगर ईंटों से बने होते थे, जिसके अवशेष पुरातत्व खोज करते हुए प्राप्त हुए हैं। किन्तु, उसके पश्चात भगवान बुद्ध के समय लगभग सभी घर लकड़ी से ही बनने के उल्लेख मिलते हैं। यही एकमात्र सूत्र है, जिसमें ईंट से बने घर का उल्लेख हुआ है। हालाँकि विनयपिटक में ईंट बनाने की चर्चा हुई है। ↩︎

  4. कहते हैं कि आम्रपाली वैशाली की अत्यंत रूपवान गणिका थी, अर्थात, वेश्या। उसके ग्राहक जम्बूद्वीप के सबसे धनी लोग और राजा होते थे। उसके संबंध मगधराज सेनिय बिम्बिसार के साथ थे, जो श्रोतापन्न था, और जिससे उसे पुत्ररत्न भी प्राप्त हुआ था। अंततः आम्रपाली भिक्षुणी बनी और अरहंत बनी, जिसकी थेरीगाथा [१३:१] बहुत प्रसिद्ध और प्रेरणादायक है। ↩︎

  5. अर्थात, भगवान बुद्ध के धर्म में कोई गूढ़ता या रहस्यता नहीं है। उन्होने अपनी कोई शिक्षा छिपाकर नहीं रखी। उन्होने अपने किसी विशेष धर्म को केवल अपने निकटतम शिष्यों या सत्वों तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि अपनी प्रत्येक शिक्षा को सार्वजनिक किया। बुद्ध के सादगी-भरे इस वक्तव्य से यह भी पता चलता है कि जो संप्रदाय छिपी बुद्धवाणी का दावा करता है, जैसे नागों को दिए गए विशेष बोधिसत्व सूत्र, जो और किसी को नहीं दिये, वे सच नहीं है। ↩︎

  6. भगवान ने परिनिर्वाण तक किसी आवश्यक धर्म को अव्यक्त या छिपाकर नहीं रखा। बल्कि जो धर्म बताना आवश्यक था, वह हर समय लगातार ४५ वर्षों तक बताते ही रहें। अर्थात, जैसे कुछ गुरु अपने अंतिम दिन तक अपने शिष्यों से कुछ-न-कुछ विशेष धर्म छिपाकर रखते हैं, ताकि उनसे सेवा पाते रहे। किन्तु, ऐसा कृत्य तथागत नहीं करते हैं। ↩︎

  7. संबोधि प्राप्त करने के पश्चात, भगवान के जीवन की प्रमुख घटनाएँ देवताओं के याचनाओं से घटती हैं। धर्मचक्र प्रवर्तन करने से लेकर तो धर्म-विनय की अनेक घटनाएँ, यहाँ तक कि भगवान अपना परिनिर्वाण का निश्चय भी ब्रह्मा, देवता, मार और मानवों के आग्रहपूर्वक याचनाओं से ही स्वीकार करते हैं। यहाँ पापी मार भगवान के शब्दों को दोहरा कर भगवान को याद दिलाने का प्रयत्न कर रहा है। भगवान ने मार के साथ ऐसा वार्तालाप कब किया, इसके बारे में पालि त्रिपिटक में कहीं कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु, संस्कृत भाषा में उपलब्ध सर्वास्तिवाद पिटक में चतुस्परिसत सूत्र में इस घटना का उल्लेख मिलता है, जो भगवान के संबोधि प्राप्त करने के तुरंत बाद बोधगया में घटी। ↩︎

  8. भगवान बुद्ध ने वेळुवग्राम में अपना अंतिम वर्षावास किया। यही से वे भिक्षाटन के लिए वैशाली जाते थे। और इस घटना में भोजन करने के पश्चात चापाल चैत्य में ध्यान करने के लिए जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह घटना उनके वर्षावास के दौरान घटी हो, अर्थात, जुलाई से अक्तूबर के बीच। क्योंकि इसके आगे उल्लेख मिलता है कि वर्षावास समाप्त होने पर भगवान ने भिक्षुसंघ से बैठक की, और तब जाकर वैशाली से चल दिये। यदि यह घटना वाकई जुलाई से अक्तूबर से बीच की है, तब भगवान का परिनिर्वाण तीन महीने पश्चात अक्तूबर से दिसंबर के बीच हुआ होगा। लेकिन बौद्ध परंपरा के अनुसार यह घटना वैशाख (=मई) पुर्णिमा में मनायी जाती है, जो ऐतिहासिक रूप से शायद सही न हो। ↩︎

  9. इस तरह, भगवान बुद्ध ने आयुष्मान आनन्द को भिन्न-भिन्न स्थलों पर कम-से-कम पंधरा बार स्पष्ट संकेत दिए, सीधे इशारे किए। किन्तु, आश्चर्य हैं कि हर बार आयुष्मान आनन्द को नहीं समझ आया। ↩︎

  10. थूक या वमन को पुनः ग्रहण करना, पालि में ‘पच्चावमिस्सती’ की क्रिया कहलाती है। उदाहरण के तौर पर, कुत्ते और दूसरे पशु वमन [उल्टी] करने के बाद उस वमन को पुनः ग्रहण करते हैं। जो सभ्य और आर्य लोगों के लिए एक घिनौनी प्रक्रिया है। ↩︎

  11. सूकरमद्दव भगवान के द्वारा खाया गया अंतिम और जानलेवा भोज बना। सूकर का सीधा अर्थ है, सूअर। किन्तु, ‘सूकर’ एक मशरूम और बंबू की टहनी का भी नाम हैं, जो भारत के उत्तरी इलाकों के साथ चीन में भी इसी नाम से पायी जाती हैं। तो, भगवान ने अपना अंतिम भोज क्या ग्रहण किया, यह आज निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता। किन्तु, अट्ठकथा कहती है कि प्राचीन महा-अट्ठकथा के अनुसार इसका अर्थ सूअर का मुलायम माँस है। मुझे भी व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि शायद इसका सरल अर्थ होगा — सूअर के जिस विशेष माँस को अधिक पकाकर नरम और स्वादिष्ट बनाया जाता है। क्योंकि आज भी इसी तरह का भोज भारत के उत्तरी, और उत्तर-पूर्वी प्रदेशों के साथ-साथ, दुनिया के अनेक देशों में चाव से खाया जाता है। किन्तु सूअर के माँस को ‘मद्दव’ या अत्याधिक मुलायम और लजीज बनाने के लिए, उसे कुछ घंटों तक ढँक कर रखा जाता है, जिससे कारण उसमें जीव-रासायनिक क्रिया होती है और जीवाणुओं [=बैक्टीरिया] की मात्रा बढ़ जाती है। इसलिए इसे खाकर अनेक लोग आज भी बीमार पड़ते हैं। उसे ग्रहण करने के बाद भगवान को भी रक्त वाली दस्त होने लगी। कई बीमारियों में इसे खाना वर्जित है। ↩︎

  12. इस तरह सूत्र कथा में गद्य को पद्य में मिलाकर पुनः प्रस्तुत करने की कला को पालि में ‘चम्पू’ कहते हैं। इस तरह की गाथाएँ प्राचीन पालि साहित्य में न के बराबर मिलती हैं। अट्ठकथा कहती है कि प्राचीन मूलसूत्र में ऐसी चम्पु गाथाएँ बहुत पश्चात स्थविर भिक्षुओं के द्वारा मिला दी गयी। त्रिपिटक में केवल कुणाल जातक (जातक ५: ४१६ - ४५६) और उदान ८:५ में ही इस तरह का चम्पू उपयोग हुआ है। मेरा व्यक्तिगत मत है कि ये चम्पु गाथाएँ सूत्र में कुछ भी विशेष और मूल्यवान नहीं जोड़ती हैं, और अटपटी-सी लगती है, जिन्हें नजरंदाज करने से कोई नुकसान नहीं होगा। ↩︎ ↩︎ ↩︎

  13. आयुष्मान आनन्द के ये स्त्री-प्रश्न अचानक, बिना पृष्ठभूमि के प्रकट होते हैं, और बिना संदर्भ के, कोई स्पष्टीकरण न देकर खत्म भी हो जाते हैं। इससे मुझे व्यक्तिगत तौर पर शंका उत्पन्न होती है। आयुष्मान आनन्द का ऐसा व्यक्तिमत्व नहीं था कि वे स्त्रियॉं पर इस तरह के प्रश्न करेंगे। और, उन्हें धर्म-विनय इतना पर्याप्त पता ही था कि उन्हें इस तरह के नौसिखिये प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक नहीं लगता। हालांकि, भगवान ने मज्झिमनिकाय १५२ में ‘इंद्रिय-संवर’ का अर्थ “नहीं देखना” निकालने का उपहास किया है। इसलिए, अट्ठकथा इन प्रश्नों को जबरन विशेष परिस्थिति पर लागू कराते हुए कहती हैं कि “भिक्षु ने स्त्री की ओर तब नहीं देखना चाहिए, जब स्त्री अकेले उसके दरवाजे पर खड़ी हो।” तो, क्या इस विशेष परिस्थिति के अलावा उन्हें देखा जा सकता हैं? इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर भगवान का लंबा स्पष्टीकरण आवश्यक था। मेरे अलावा कुछ त्रिपिटक पंडित भी मानते हैं कि ये तीन स्त्री-प्रश्न स्थविरों के द्वारा पश्चात डाले गए होंगे, ताकि युवा-भिक्षु भगवान का अंतिम निर्देश सुनकर हमेशा सतर्क रहें। ↩︎

Pali

१३१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति गिज्झकूटे पब्बते। तेन खो पन समयेन राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो वज्जी अभियातुकामो होति। सो एवमाह – ‘‘अहं हिमे वज्जी एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे उच्छेच्छामि [उच्छेज्जामि (स्या॰ पी॰), उच्छिज्जामि (क॰)] वज्जी, विनासेस्सामि वज्जी, अनयब्यसनं आपादेस्सामि वज्जी’’ति [आपादेस्सामि वज्जीति (सब्बत्थ) अ॰ नि॰ ७.२२ पस्सितब्बं]।

१३२. अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो वस्सकारं ब्राह्मणं मगधमहामत्तं आमन्तेसि – ‘‘एहि त्वं, ब्राह्मण, येन भगवा तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा मम वचनेन भगवतो पादे सिरसा वन्दाहि, अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छ – ‘राजा, भन्ते, मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवतो पादे सिरसा वन्दति, अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छती’ति। एवञ्च वदेहि – ‘राजा, भन्ते, मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो वज्जी अभियातुकामो। सो एवमाह – ‘‘अहं हिमे वज्जी एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे उच्छेच्छामि वज्जी, विनासेस्सामि वज्जी, अनयब्यसनं आपादेस्सामी’’’ति। यथा ते भगवा ब्याकरोति, तं साधुकं उग्गहेत्वा मम आरोचेय्यासि। न हि तथागता वितथं भणन्ती’’ति।

वस्सकारब्राह्मणो

१३३. ‘‘एवं, भो’’ति खो वस्सकारो ब्राह्मणो मगधमहामत्तो रञ्ञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स पटिस्सुत्वा भद्दानि भद्दानि यानानि योजेत्वा भद्दं भद्दं यानं अभिरुहित्वा भद्देहि भद्देहि यानेहि राजगहम्हा निय्यासि, येन गिज्झकूटो पब्बतो तेन पायासि। यावतिका यानस्स भूमि, यानेन गन्त्वा, याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकोव येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो वस्सकारो ब्राह्मणो मगधमहामत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘राजा, भो गोतम, मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भोतो गोतमस्स पादे सिरसा वन्दति, अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छति। राजा [एवञ्च वदेति राजा (क॰)], भो गोतम, मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो वज्जी अभियातुकामो। सो एवमाह – ‘अहं हिमे वज्जी एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे उच्छेच्छामि वज्जी, विनासेस्सामि वज्जी, अनयब्यसनं आपादेस्सामी’’’ति।

राजअपरिहानियधम्मा

१३४. तेन खो पन समयेन आयस्मा आनन्दो भगवतो पिट्ठितो ठितो होति भगवन्तं बीजयमानो [वीजयमानो (सी॰), वीजियमानो (स्या॰)]। अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘किन्ति ते, आनन्द, सुतं, ‘वज्जी अभिण्हं सन्निपाता सन्निपातबहुला’ति? ‘‘सुतं मेतं, भन्ते – ‘वज्जी अभिण्हं सन्निपाता सन्निपातबहुला’’ति। ‘‘यावकीवञ्च, आनन्द, वज्जी अभिण्हं सन्निपाता सन्निपातबहुला भविस्सन्ति, वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘किन्ति ते, आनन्द, सुतं, ‘वज्जी समग्गा सन्निपतन्ति, समग्गा वुट्ठहन्ति, समग्गा वज्जिकरणीयानि करोन्ती’ति? ‘‘सुतं मेतं, भन्ते – ‘वज्जी समग्गा सन्निपतन्ति, समग्गा वुट्ठहन्ति, समग्गा वज्जिकरणीयानि करोन्ती’’ति। ‘‘यावकीवञ्च, आनन्द, वज्जी समग्गा सन्निपतिस्सन्ति, समग्गा वुट्ठहिस्सन्ति, समग्गा वज्जिकरणीयानि करिस्सन्ति, वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘किन्ति ते, आनन्द, सुतं, ‘वज्जी अपञ्ञत्तं न पञ्ञपेन्ति, पञ्ञत्तं न समुच्छिन्दन्ति, यथापञ्ञत्ते पोराणे वज्जिधम्मे समादाय वत्तन्ती’’’ति? ‘‘सुतं मेतं, भन्ते – ‘वज्जी अपञ्ञत्तं न पञ्ञपेन्ति, पञ्ञत्तं न समुच्छिन्दन्ति, यथापञ्ञत्ते पोराणे वज्जिधम्मे समादाय वत्तन्ती’’’ति। ‘‘यावकीवञ्च, आनन्द, ‘‘वज्जी अपञ्ञत्तं न पञ्ञपेस्सन्ति, पञ्ञत्तं न समुच्छिन्दिस्सन्ति, यथापञ्ञत्ते पोराणे वज्जिधम्मे समादाय वत्तिस्सन्ति, वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘किन्ति ते, आनन्द, सुतं, ‘वज्जी ये ते वज्जीनं वज्जिमहल्लका, ते सक्करोन्ति गरुं करोन्ति [गरुकरोन्ति (सी॰ स्या॰ पी॰)] मानेन्ति पूजेन्ति, तेसञ्च सोतब्बं मञ्ञन्ती’’’ति? ‘‘सुतं मेतं, भन्ते – ‘वज्जी ये ते वज्जीनं वज्जिमहल्लका, ते सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, तेसञ्च सोतब्बं मञ्ञन्ती’’’ति। ‘‘यावकीवञ्च, आनन्द, वज्जी ये ते वज्जीनं वज्जिमहल्लका, ते सक्करिस्सन्ति गरुं करिस्सन्ति मानेस्सन्ति पूजेस्सन्ति, तेसञ्च सोतब्बं मञ्ञिस्सन्ति, वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘किन्ति ते, आनन्द, सुतं, ‘वज्जी या ता कुलित्थियो कुलकुमारियो, ता न ओक्कस्स पसय्ह वासेन्ती’’’ति? ‘‘सुतं मेतं, भन्ते – ‘वज्जी या ता कुलित्थियो कुलकुमारियो ता न ओक्कस्स पसय्ह वासेन्ती’’’ति। ‘‘यावकीवञ्च, आनन्द, वज्जी या ता कुलित्थियो कुलकुमारियो, ता न ओक्कस्स पसय्ह वासेस्सन्ति, वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘किन्ति ते, आनन्द, सुतं, ‘वज्जी यानि तानि

वज्जीनं वज्जिचेतियानि अब्भन्तरानि चेव बाहिरानि च, तानि सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, तेसञ्च दिन्नपुब्बं कतपुब्बं धम्मिकं बलिं नो परिहापेन्ती’’’ति? ‘‘सुतं मेतं, भन्ते – ‘वज्जी यानि तानि वज्जीनं वज्जिचेतियानि अब्भन्तरानि चेव बाहिरानि च, तानि सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति तेसञ्च दिन्नपुब्बं कतपुब्बं धम्मिकं बलिं नो परिहापेन्ती’’’ति। ‘‘यावकीवञ्च, आनन्द, वज्जी यानि तानि वज्जीनं वज्जिचेतियानि अब्भन्तरानि चेव बाहिरानि च, तानि सक्करिस्सन्ति गरुं करिस्सन्ति मानेस्सन्ति पूजेस्सन्ति, तेसञ्च दिन्नपुब्बं कतपुब्बं धम्मिकं बलिं नो परिहापेस्सन्ति, वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘किन्ति ते, आनन्द, सुतं, ‘वज्जीनं अरहन्तेसु धम्मिका रक्खावरणगुत्ति सुसंविहिता, किन्ति अनागता च अरहन्तो विजितं आगच्छेय्युं, आगता च अरहन्तो विजिते फासु विहरेय्यु’’’न्ति? ‘‘सुतं मेतं, भन्ते ‘वज्जीनं अरहन्तेसु धम्मिका रक्खावरणगुत्ति सुसंविहिता किन्ति अनागता च अरहन्तो विजितं आगच्छेय्युं, आगता च अरहन्तो विजिते फासु विहरेय्यु’’’न्ति। ‘‘यावकीवञ्च, आनन्द, वज्जीनं अरहन्तेसु धम्मिका रक्खावरणगुत्ति सुसंविहिता भविस्सति, किन्ति अनागता च अरहन्तो विजितं आगच्छेय्युं, आगता च अरहन्तो विजिते फासु विहरेय्युन्ति। वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्खा, नो परिहानी’’ति।

१३५. अथ खो भगवा वस्सकारं ब्राह्मणं मगधमहामत्तं आमन्तेसि – ‘‘एकमिदाहं, ब्राह्मण, समयं वेसालियं विहरामि सारन्ददे [सानन्दरे (क॰)] चेतिये। तत्राहं वज्जीनं इमे सत्त अपरिहानिये धम्मे देसेसिं। यावकीवञ्च, ब्राह्मण, इमे सत्त अपरिहानिया धम्मा वज्जीसु ठस्सन्ति, इमेसु च सत्तसु अपरिहानियेसु धम्मेसु वज्जी सन्दिस्सिस्सन्ति, वुद्धियेव, ब्राह्मण, वज्जीनं पाटिकङ्खा, नो परिहानी’’ति।

एवं वुत्ते, वस्सकारो ब्राह्मणो मगधमहामत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘एकमेकेनपि, भो गोतम, अपरिहानियेन धम्मेन समन्नागतानं वज्जीनं वुद्धियेव पाटिकङ्खा, नो परिहानि। को पन वादो सत्तहि अपरिहानियेहि धम्मेहि। अकरणीयाव [अकरणीया च (स्या॰ क॰)], भो गोतम, वज्जी [वज्जीनं (क॰)] रञ्ञा मागधेन अजातसत्तुना वेदेहिपुत्तेन यदिदं युद्धस्स, अञ्ञत्र उपलापनाय अञ्ञत्र मिथुभेदा। हन्द च दानि मयं, भो गोतम, गच्छाम, बहुकिच्चा मयं बहुकरणीया’’ति। ‘‘यस्सदानि त्वं, ब्राह्मण, कालं मञ्ञसी’’ति। अथ खो वस्सकारो ब्राह्मणो मगधमहामत्तो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना पक्कामि।

भिक्खुअपरिहानियधम्मा

१३६. अथ खो भगवा अचिरपक्कन्ते वस्सकारे ब्राह्मणे मगधमहामत्ते आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘गच्छ त्वं, आनन्द, यावतिका भिक्खू राजगहं उपनिस्साय विहरन्ति, ते सब्बे उपट्ठानसालायं सन्निपातेही’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा यावतिका भिक्खू राजगहं उपनिस्साय विहरन्ति, ते सब्बे उपट्ठानसालायं सन्निपातेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सन्निपतितो, भन्ते, भिक्खुसङ्घो, यस्सदानि, भन्ते, भगवा कालं मञ्ञती’’ति।

अथ खो भगवा उट्ठायासना येन उपट्ठानसाला तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि। निसज्ज खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘सत्त वो, भिक्खवे, अपरिहानिये धम्मे देसेस्सामि, तं सुणाथ, साधुकं मनसिकरोथ, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू अभिण्हं सन्निपाता सन्निपातबहुला भविस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू समग्गा सन्निपतिस्सन्ति, समग्गा वुट्ठहिस्सन्ति, समग्गा सङ्घकरणीयानि करिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू अपञ्ञत्तं न पञ्ञपेस्सन्ति, पञ्ञत्तं न समुच्छिन्दिस्सन्ति, यथापञ्ञत्तेसु सिक्खापदेसु समादाय वत्तिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू ये ते भिक्खू थेरा रत्तञ्ञू चिरपब्बजिता सङ्घपितरो सङ्घपरिणायका, ते सक्करिस्सन्ति गरुं करिस्सन्ति मानेस्सन्ति पूजेस्सन्ति, तेसञ्च सोतब्बं मञ्ञिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू उप्पन्नाय तण्हाय पोनोब्भविकाय न वसं गच्छिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू आरञ्ञकेसु सेनासनेसु सापेक्खा भविस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू पच्चत्तञ्ञेव सतिं उपट्ठपेस्सन्ति – ‘किन्ति अनागता च पेसला सब्रह्मचारी आगच्छेय्युं, आगता च पेसला सब्रह्मचारी फासु [फासुं (सी॰ स्या॰ पी॰)] विहरेय्यु’न्ति। वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, इमे सत्त अपरिहानिया धम्मा भिक्खूसु ठस्सन्ति, इमेसु च सत्तसु अपरिहानियेसु धम्मेसु भिक्खू सन्दिस्सिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

१३७. ‘‘अपरेपि वो, भिक्खवे, सत्त अपरिहानिये धम्मे देसेस्सामि, तं सुणाथ, साधुकं मनसिकरोथ, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू न कम्मारामा भविस्सन्ति न कम्मरता न कम्मारामतमनुयुत्ता, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू न भस्सारामा भविस्सन्ति न भस्सरता न भस्सारामतमनुयुत्ता, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू न निद्दारामा भविस्सन्ति न निद्दारता न निद्दारामतमनुयुत्ता, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू न सङ्गणिकारामा भविस्सन्ति न सङ्गणिकरता न सङ्गणिकारामतमनुयुत्ता, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू न पापिच्छा भविस्सन्ति न पापिकानं इच्छानं वसं गता, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू न पापमित्ता भविस्सन्ति न पापसहाया न पापसम्पवङ्का, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू न ओरमत्तकेन विसेसाधिगमेन अन्तरावोसानं आपज्जिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, इमे सत्त अपरिहानिया धम्मा भिक्खूसु ठस्सन्ति, इमेसु च सत्तसु अपरिहानियेसु धम्मेसु भिक्खू सन्दिस्सिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

१३८. ‘‘अपरेपि वो, भिक्खवे, सत्त अपरिहानिये धम्मे देसेस्सामि…पे॰… ‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू सद्धा भविस्सन्ति…पे॰… हिरिमना भविस्सन्ति… ओत्तप्पी भविस्सन्ति… बहुस्सुता भविस्सन्ति… आरद्धवीरिया भविस्सन्ति… उपट्ठितस्सती भविस्सन्ति… पञ्ञवन्तो भविस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि। यावकीवञ्च, भिक्खवे, इमे सत्त अपरिहानिया धम्मा भिक्खूसु ठस्सन्ति, इमेसु च सत्तसु अपरिहानियेसु धम्मेसु भिक्खू सन्दिस्सिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

१३९. ‘‘अपरेपि वो, भिक्खवे, सत्त अपरिहानिये धम्मे देसेस्सामि, तं सुणाथ, साधुकं मनसिकरोथ, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खु सतिसम्बोज्झङ्गं भावेस्सन्ति…पे॰… धम्मविचयसम्बोज्झङ्गं भावेस्सन्ति… वीरियसम्बोज्झङ्गं भावेस्सन्ति… पीतिसम्बोज्झङ्गं भावेस्सन्ति… पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गं भावेस्सन्ति… समाधिसम्बोज्झङ्गं भावेस्सन्ति… उपेक्खासम्बोज्झङ्गं भावेस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, इमे सत्त अपरिहानिया धम्मा भिक्खूसु ठस्सन्ति, इमेसु च सत्तसु अपरिहानियेसु धम्मेसु भिक्खू सन्दिस्सिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा नो परिहानि।

१४०. ‘‘अपरेपि वो, भिक्खवे, सत्त अपरिहानिये धम्मे देसेस्सामि, तं सुणाथ, साधुकं मनसिकरोथ, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू अनिच्चसञ्ञं भावेस्सन्ति…पे॰… अनत्तसञ्ञं भावेस्सन्ति… असुभसञ्ञं भावेस्सन्ति… आदीनवसञ्ञं भावेस्सन्ति… पहानसञ्ञं भावेस्सन्ति… विरागसञ्ञं भावेस्सन्ति… निरोधसञ्ञं भावेस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, इमे सत्त अपरिहानिया धम्मा भिक्खूसु ठस्सन्ति, इमेसु च सत्तसु अपरिहानियेसु धम्मेसु भिक्खू सन्दिस्सिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

१४१. ‘‘छ, वो भिक्खवे, अपरिहानिये धम्मे देसेस्सामि, तं सुणाथ, साधुकं मनसिकरोथ, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू मेत्तं कायकम्मं पच्चुपट्ठापेस्सन्ति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू मेत्तं वचीकम्मं पच्चुपट्ठापेस्सन्ति …पे॰… मेत्तं मनोकम्मं पच्चुपट्ठापेस्सन्ति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू, ये ते लाभा धम्मिका धम्मलद्धा अन्तमसो पत्तपरियापन्नमत्तम्पि तथारूपेहि लाभेहि अप्पटिविभत्तभोगी भविस्सन्ति सीलवन्तेहि सब्रह्मचारीहि साधारणभोगी, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू यानि कानि सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि अकम्मासानि भुजिस्सानि विञ्ञूपसत्थानि [विञ्ञुप्पसत्थानि (सी॰)] अपरामट्ठानि समाधिसंवत्तनिकानि तथारूपेसु सीलेसु सीलसामञ्ञगता विहरिस्सन्ति सब्रह्मचारीहि आवि चेव रहो च, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू यायं दिट्ठि अरिया निय्यानिका, निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय, तथारूपाय दिट्ठिया दिट्ठिसामञ्ञगता विहरिस्सन्ति सब्रह्मचारीहि आवि चेव रहो च, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।

‘‘यावकीवञ्च, भिक्खवे, इमे छ अपरिहानिया धम्मा भिक्खूसु ठस्सन्ति, इमेसु च छसु अपरिहानियेसु धम्मेसु भिक्खू सन्दिस्सिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानी’’ति।

१४२. तत्र सुदं भगवा राजगहे विहरन्तो गिज्झकूटे पब्बते एतदेव बहुलं भिक्खूनं धम्मिं कथं करोति – ‘‘इति सीलं, इति समाधि, इति पञ्ञा। सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो। समाधिपरिभाविता पञ्ञा महप्फला होति महानिसंसा। पञ्ञापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं – कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा’’ति।

१४३. अथ खो भगवा राजगहे यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘आयामानन्द, येन अम्बलट्ठिका तेनुपसङ्कमिस्सामा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि। अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं येन अम्बलट्ठिका तदवसरि। तत्र सुदं भगवा अम्बलट्ठिकायं विहरति राजागारके। तत्रापि सुदं भगवा अम्बलट्ठिकायं विहरन्तो राजागारके एतदेव बहुलं भिक्खूनं धम्मिं कथं करोति – ‘‘इति सीलं इति समाधि इति पञ्ञा। सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो। समाधिपरिभाविता पञ्ञा महप्फला होति महानिसंसा। पञ्ञापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं – कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा’’ति।

१४४. अथ खो भगवा अम्बलट्ठिकायं यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘आयामानन्द, येन नाळन्दा तेनुपसङ्कमिस्सामा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि। अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं येन नाळन्दा तदवसरि, तत्र सुदं भगवा नाळन्दायं विहरति पावारिकम्बवने।

सारिपुत्तसीहनादो

१४५. अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा सारिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘एवं पसन्नो अहं, भन्ते, भगवति; न चाहु न च भविस्सति न चेतरहि विज्जति अञ्ञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभिञ्ञतरो यदिदं सम्बोधिय’’न्ति। ‘‘उळारा खो ते अयं, सारिपुत्त, आसभी वाचा [आसभिवाचा (स्या॰)] भासिता, एकंसो गहितो, सीहनादो नदितो – ‘एवंपसन्नो अहं, भन्ते, भगवति; न चाहु न च भविस्सति न चेतरहि विज्जति अञ्ञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभिञ्ञतरो यदिदं सम्बोधिय’न्ति।

‘‘किं ते [किं नु (स्या॰ पी॰ क॰)], सारिपुत्त, ये ते अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो चेतसा चेतो परिच्च विदिता – ‘एवंसीला ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंधम्मा एवंपञ्ञा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी’’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’।

‘‘किं पन ते [किं पन (स्या॰ पी॰ क॰)], सारिपुत्त, ये ते भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो चेतसा चेतो परिच्च विदिता – ‘एवंसीला ते भगवन्तो भविस्सन्ति इतिपि, एवंधम्मा एवंपञ्ञा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो भविस्सन्ति इतिपी’’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’।

‘‘किं पन ते, सारिपुत्त, अहं एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो चेतसा चेतो परिच्च विदितो – ‘‘एवंसीलो भगवा इतिपि, एवंधम्मो एवंपञ्ञो एवंविहारी एवंविमुत्तो भगवा इतिपी’’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’।

‘‘एत्थ च हि ते, सारिपुत्त, अतीतानागतपच्चुप्पन्नेसु अरहन्तेसु सम्मासम्बुद्धेसु चेतोपरियञाणं [चेतोपरिञ्ञायञाणं (स्या॰), चेतसा चेतोपरियायञाणं (क॰)] नत्थि। अथ किञ्चरहि ते अयं, सारिपुत्त, उळारा आसभी वाचा भासिता, एकंसो गहितो, सीहनादो नदितो – ‘एवंपसन्नो अहं, भन्ते, भगवति; न चाहु न च भविस्सति न चेतरहि विज्जति अञ्ञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभिञ्ञतरो यदिदं सम्बोधिय’’’न्ति?

१४६. ‘‘न खो मे, भन्ते, अतीतानागतपच्चुप्पन्नेसु अरहन्तेसु सम्मासम्बुद्धेसु चेतोपरियञाणं अत्थि, अपि च मे धम्मन्वयो विदितो। सेय्यथापि, भन्ते, रञ्ञो पच्चन्तिमं नगरं दळ्हुद्धापं दळ्हपाकारतोरणं एकद्वारं, तत्रस्स दोवारिको पण्डितो वियत्तो मेधावी अञ्ञातानं निवारेता ञातानं पवेसेता। सो तस्स नगरस्स समन्ता अनुपरियायपथं [अनुचरियायपथं (स्या॰)] अनुक्कममानो न पस्सेय्य पाकारसन्धिं वा पाकारविवरं वा, अन्तमसो बिळारनिक्खमनमत्तम्पि। तस्स एवमस्स [न पस्सेय्य तस्स एवमस्स (स्या॰)] – ‘ये खो केचि ओळारिका पाणा इमं नगरं पविसन्ति वा निक्खमन्ति वा, सब्बे ते इमिनाव द्वारेन पविसन्ति वा निक्खमन्ति वा’ति। एवमेव खो मे, भन्ते, धम्मन्वयो विदितो – ‘ये ते, भन्ते, अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे चतूसु सतिपट्ठानेसु सुपतिट्ठितचित्ता सत्तबोज्झङ्गे यथाभूतं भावेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झिंसु। येपि ते, भन्ते, भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे चतूसु सतिपट्ठानेसु सुपतिट्ठितचित्ता सत्त बोज्झङ्गे यथाभूतं भावेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झिस्सन्ति। भगवापि, भन्ते, एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे चतूसु सतिपट्ठानेसु सुपतिट्ठितचित्तो सत्त बोज्झङ्गे यथाभूतं भावेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो’’’ति।

१४७. तत्रपि सुदं भगवा नाळन्दायं विहरन्तो पावारिकम्बवने एतदेव बहुलं भिक्खूनं धम्मिं कथं करोति – ‘‘इति सीलं, इति समाधि, इति पञ्ञा। सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो। समाधिपरिभाविता पञ्ञा महप्फला होति महानिसंसा। पञ्ञापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं – कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा’’ति।

दुस्सीलआदीनवा

१४८. अथ खो भगवा नाळन्दायं यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘आयामानन्द, येन पाटलिगामो तेनुपसङ्कमिस्सामा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि। अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं येन पाटलिगामो तदवसरि। अस्सोसुं खो पाटलिगामिका उपासका – ‘‘भगवा किर पाटलिगामं अनुप्पत्तो’’ति। अथ खो पाटलिगामिका उपासका येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु। एकमन्तं निसिन्ना खो पाटलिगामिका उपासका भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘अधिवासेतु नो, भन्ते, भगवा आवसथागार’’न्ति। अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन। अथ खो पाटलिगामिका उपासका भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन आवसथागारं तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा सब्बसन्थरिं [सब्बसन्थरितं सत्थतं (स्या॰), सब्बसन्थरिं सन्थतं (क॰)] आवसथागारं सन्थरित्वा आसनानि पञ्ञपेत्वा उदकमणिकं पतिट्ठापेत्वा तेलपदीपं आरोपेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठंसु। एकमन्तं ठिता खो पाटलिगामिका उपासका भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘सब्बसन्थरिसन्थतं [सब्बसन्थरिं सन्थतं (सी॰ स्या॰ पी॰ क॰)], भन्ते, आवसथागारं, आसनानि पञ्ञत्तानि, उदकमणिको पतिट्ठापितो, तेलपदीपो आरोपितो; यस्सदानि, भन्ते, भगवा कालं मञ्ञती’’ति। अथ खो भगवा सायन्हसमयं [इदं पदं विनयमहावग्ग न दिस्सति]। निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घेन येन आवसथागारं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पादे पक्खालेत्वा आवसथागारं पविसित्वा मज्झिमं थम्भं निस्साय पुरत्थाभिमुखो [पुरत्थिमाभिमुखो (क॰)] निसीदि। भिक्खुसङ्घोपि खो पादे पक्खालेत्वा आवसथागारं पविसित्वा पच्छिमं भित्तिं निस्साय पुरत्थाभिमुखो निसीदि भगवन्तमेव पुरक्खत्वा। पाटलिगामिकापि खो उपासका पादे पक्खालेत्वा आवसथागारं पविसित्वा पुरत्थिमं भित्तिं निस्साय पच्छिमाभिमुखा निसीदिंसु भगवन्तमेव पुरक्खत्वा।

१४९. अथ खो भगवा पाटलिगामिके उपासके आमन्तेसि – ‘‘पञ्चिमे, गहपतयो, आदीनवा दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया। कतमे पञ्च? इध, गहपतयो, दुस्सीलो सीलविपन्नो पमादाधिकरणं महतिं भोगजानिं निगच्छति। अयं पठमो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया।

‘‘पुन चपरं, गहपतयो, दुस्सीलस्स सीलविपन्नस्स पापको कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छति। अयं दुतियो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया।

‘‘पुन चपरं, गहपतयो, दुस्सीलो सीलविपन्नो यञ्ञदेव परिसं उपसङ्कमति – यदि खत्तियपरिसं यदि ब्राह्मणपरिसं यदि गहपतिपरिसं यदि समणपरिसं – अविसारदो उपसङ्कमति मङ्कुभूतो। अयं ततियो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया।

‘‘पुन चपरं, गहपतयो, दुस्सीलो सीलविपन्नो सम्मूळ्हो कालङ्करोति। अयं चतुत्थो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया।

‘‘पुन चपरं, गहपतयो, दुस्सीलो सीलविपन्नो कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जति। अयं पञ्चमो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया। इमे खो, गहपतयो, पञ्च आदीनवा दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया।

सीलवन्त्तआनिसंसा

१५०. ‘‘पञ्चिमे, गहपतयो, आनिसंसा सीलवतो सीलसम्पदाय। कतमे पञ्च? इध, गहपतयो, सीलवा सीलसम्पन्नो अप्पमादाधिकरणं महन्तं भोगक्खन्धं अधिगच्छति। अयं पठमो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय।

‘‘पुन चपरं, गहपतयो, सीलवतो सीलसम्पन्नस्स कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छति। अयं दुतियो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय।

‘‘पुन चपरं, गहपतयो, सीलवा सीलसम्पन्नो यञ्ञदेव परिसं उपसङ्कमति – यदि खत्तियपरिसं यदि ब्राह्मणपरिसं यदि गहपतिपरिसं यदि समणपरिसं विसारदो उपसङ्कमति अमङ्कुभूतो। अयं ततियो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय।

‘‘पुन चपरं, गहपतयो, सीलवा सीलसम्पन्नो असम्मूळ्हो कालङ्करोति। अयं चतुत्थो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय।

‘‘पुन चपरं, गहपतयो, सीलवा सीलसम्पन्नो कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जति। अयं पञ्चमो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय। इमे खो, गहपतयो, पञ्च आनिसंसा सीलवतो सीलसम्पदाया’’ति।

१५१. अथ खो भगवा पाटलिगामिके उपासके बहुदेव रत्तिं धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उय्योजेसि – ‘‘अभिक्कन्ता खो, गहपतयो, रत्ति, यस्सदानि तुम्हे कालं मञ्ञथा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो पाटलिगामिका उपासका भगवतो पटिस्सुत्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कमिंसु। अथ खो भगवा अचिरपक्कन्तेसु पाटलिगामिकेसु उपासकेसु सुञ्ञागारं पाविसि।

पाटलिपुत्तनगरमापनं

१५२. तेन खो पन समयेन सुनिधवस्सकारा [सुनीधवस्सकारा (स्या॰ क॰)] मगधमहामत्ता पाटलिगामे नगरं मापेन्ति वज्जीनं पटिबाहाय। तेन समयेन सम्बहुला देवतायो सहस्सेव [सहस्सस्सेव (सी॰ पी॰ क॰), सहस्ससेव (टीकायं पाठन्तरं), सहस्ससहस्सेव (उदानट्ठकथा)] पाटलिगामे वत्थूनि परिग्गण्हन्ति। यस्मिं पदेसे महेसक्खा देवता वत्थूनि परिग्गण्हन्ति, महेसक्खानं तत्थ रञ्ञं राजमहामत्तानं चित्तानि नमन्ति निवेसनानि मापेतुं। यस्मिं पदेसे मज्झिमा देवता वत्थूनि परिग्गण्हन्ति, मज्झिमानं तत्थ रञ्ञं राजमहामत्तानं चित्तानि नमन्ति निवेसनानि मापेतुं। यस्मिं पदेसे नीचा देवता वत्थूनि परिग्गण्हन्ति, नीचानं तत्थ रञ्ञं राजमहामत्तानं चित्तानि नमन्ति निवेसनानि मापेतुं। अद्दसा खो भगवा दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन ता देवतायो सहस्सेव पाटलिगामे वत्थूनि परिग्गण्हन्तियो। अथ खो भगवा रत्तिया पच्चूससमयं पच्चुट्ठाय आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘के नु खो [को नु खो (सी॰ स्या॰ पी॰ क॰)], आनन्द, पाटलिगामे नगरं मापेन्ती’’ति [मापेतीति (सी॰ स्या॰ पी॰ क॰)]? ‘‘सुनिधवस्सकारा, भन्ते, मगधमहामत्ता पाटलिगामे नगरं मापेन्ति वज्जीनं पटिबाहाया’’ति। ‘‘सेय्यथापि, आनन्द, देवेहि तावतिंसेहि सद्धिं मन्तेत्वा, एवमेव खो, आनन्द, सुनिधवस्सकारा मगधमहामत्ता पाटलिगामे नगरं मापेन्ति वज्जीनं पटिबाहाय। इधाहं, आनन्द, अद्दसं दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सम्बहुला देवतायो सहस्सेव पाटलिगामे वत्थूनि परिग्गण्हन्तियो। यस्मिं, आनन्द, पदेसे महेसक्खा देवता वत्थूनि परिग्गण्हन्ति, महेसक्खानं तत्थ रञ्ञं राजमहामत्तानं चित्तानि नमन्ति निवेसनानि मापेतुं। यस्मिं पदेसे मज्झिमा देवता वत्थूनि परिग्गण्हन्ति, मज्झिमानं तत्थ रञ्ञं राजमहामत्तानं चित्तानि नमन्ति निवेसनानि मापेतुं। यस्मिं पदेसे नीचा देवता वत्थूनि परिग्गण्हन्ति, नीचानं तत्थ रञ्ञं राजमहामत्तानं चित्तानि नमन्ति निवेसनानि मापेतुं। यावता, आनन्द, अरियं आयतनं यावता वणिप्पथो इदं अग्गनगरं भविस्सति पाटलिपुत्तं पुटभेदनं। पाटलिपुत्तस्स खो, आनन्द, तयो अन्तराया भविस्सन्ति – अग्गितो वा उदकतो वा मिथुभेदा वा’’ति।

१५३. अथ खो सुनिधवस्सकारा मगधमहामत्ता येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्ठंसु, एकमन्तं ठिता खो सुनिधवस्सकारा मगधमहामत्ता भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘अधिवासेतु नो भवं गोतमो अज्जतनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’’ति। अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन। अथ खो सुनिधवस्सकारा मगधमहामत्ता भगवतो अधिवासनं विदित्वा येन सको आवसथो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा सके आवसथे पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा भगवतो कालं आरोचापेसुं – ‘‘कालो, भो गोतम, निट्ठितं भत्त’’न्ति।

अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घेन येन सुनिधवस्सकारानं मगधमहामत्तानं आवसथो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि। अथ खो सुनिधवस्सकारा मगधमहामत्ता बुद्धप्पमुखं भिक्खुसङ्घं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसुं सम्पवारेसुं। अथ खो सुनिधवस्सकारा मगधमहामत्ता भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु। एकमन्तं निसिन्ने खो सुनिधवस्सकारे मगधमहामत्ते भगवा इमाहि गाथाहि अनुमोदि –

‘‘यस्मिं पदेसे कप्पेति, वासं पण्डितजातियो।

सीलवन्तेत्थ भोजेत्वा, सञ्ञते ब्रह्मचारयो [ब्रह्मचारिनो (स्या॰)]॥

‘‘या तत्थ देवता आसुं, तासं दक्खिणमादिसे।

ता पूजिता पूजयन्ति [पूजिता पूजयन्ति नं (क॰)], मानिता मानयन्ति नं॥

‘‘ततो नं अनुकम्पन्ति, माता पुत्तंव ओरसं।

देवतानुकम्पितो पोसो, सदा भद्रानि पस्सती’’ति॥

अथ खो भगवा सुनिधवस्सकारे मगधमहामत्ते इमाहि गाथाहि अनुमोदित्वा उट्ठायासना पक्कामि।

१५४. तेन खो पन समयेन सुनिधवस्सकारा मगधमहामत्ता भगवन्तं पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धा होन्ति – ‘‘येनज्ज समणो गोतमो द्वारेन निक्खमिस्सति, तं गोतमद्वारं नाम भविस्सति। येन तित्थेन गङ्गं नदिं तरिस्सति, तं गोतमतित्थं नाम भविस्सती’’ति। अथ खो भगवा येन द्वारेन निक्खमि, तं गोतमद्वारं नाम अहोसि। अथ खो भगवा येन गङ्गा नदी तेनुपसङ्कमि। तेन खो पन समयेन गङ्गा नदी पूरा होति समतित्तिका काकपेय्या। अप्पेकच्चे मनुस्सा नावं परियेसन्ति, अप्पेकच्चे उळुम्पं परियेसन्ति, अप्पेकच्चे कुल्लं बन्धन्ति अपारा [पारा (सी॰ स्या॰ क॰), ओरा (वि॰ महावग्ग)], पारं गन्तुकामा। अथ खो भगवा – सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य, एवमेव – गङ्गाय नदिया ओरिमतीरे अन्तरहितो पारिमतीरे पच्चुट्ठासि सद्धिं भिक्खुसङ्घेन। अद्दसा खो भगवा ते मनुस्से अप्पेकच्चे नावं परियेसन्ते अप्पेकच्चे उळुम्पं परियेसन्ते अप्पेकच्चे कुल्लं बन्धन्ते अपारा पारं गन्तुकामे। अथ खो भगवा एतमत्थं विदित्वा तायं वेलायं इमं उदानं उदानेसि –

‘‘ये तरन्ति अण्णवं सरं, सेतुं कत्वान विसज्ज पल्ललानि।

कुल्लञ्हि जनो बन्धति [कुल्लं जनो च बन्धति (स्या॰), कुल्लं हि जनो पबन्धति (सी॰ पी॰ क॰)], तिण्णा [नितिण्णा, न तिण्णा (क॰)] मेधाविनो जना’’ति॥

पठमभाणवारो।

अरियसच्चकथा

१५५. अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘आयामानन्द, येन कोटिगामो तेनुपसङ्कमिस्सामा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि। अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं येन कोटिगामो तदवसरि। तत्र सुदं भगवा कोटिगामे विहरति। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि –

‘‘चतुन्नं, भिक्खवे, अरियसच्चानं अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममञ्चेव तुम्हाकञ्च। कतमेसं चतुन्नं? दुक्खस्स, भिक्खवे, अरियसच्चस्स अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममञ्चेव तुम्हाकञ्च। दुक्खसमुदयस्स, भिक्खवे, अरियसच्चस्स अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममञ्चेव तुम्हाकञ्च। दुक्खनिरोधस्स, भिक्खवे, अरियसच्चस्स अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममञ्चेव तुम्हाकञ्च। दुक्खनिरोधगामिनिया पटिपदाय, भिक्खवे, अरियसच्चस्स अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममञ्चेव तुम्हाकञ्च। तयिदं, भिक्खवे, दुक्खं अरियसच्चं अनुबुद्धं पटिविद्धं, दुक्खसमुदयं [दुक्खसमुदयो (स्या॰)] अरियसच्चं अनुबुद्धं पटिविद्धं, दुक्खनिरोधं [दुक्खनिरोधो (स्या॰)] अरियसच्चं अनुबुद्धं पटिविद्धं, दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्चं अनुबुद्धं पटिविद्धं, उच्छिन्ना भवतण्हा, खीणा भवनेत्ति, नत्थिदानि पुनब्भवो’’ति। इदमवोच भगवा। इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था –

‘‘चतुन्नं अरियसच्चानं, यथाभूतं अदस्सना।

संसितं दीघमद्धानं, तासु तास्वेव जातिसु॥

तानि एतानि दिट्ठानि, भवनेत्ति समूहता।

उच्छिन्नं मूलं दुक्खस्स, नत्थि दानि पुनब्भवो’’ति॥

तत्रपि सुदं भगवा कोटिगामे विहरन्तो एतदेव बहुलं भिक्खूनं धम्मिं कथं करोति – ‘‘इति सीलं, इति समाधि, इति पञ्ञा। सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो। समाधिपरिभाविता पञ्ञा महप्फला होति महानिसंसा। पञ्ञापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं – कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा’’ति।

अनावत्तिधम्मसम्बोधिपरायणा

१५६. अथ खो भगवा कोटिगामे यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘आयामानन्द, येन नातिका [नादिका (स्या॰ पी॰)] तेनुपङ्कमिस्सामा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि। अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं येन नातिका तदवसरि। तत्रपि सुदं भगवा नातिके विहरति गिञ्जकावसथे। अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘साळ्हो नाम, भन्ते, भिक्खु नातिके कालङ्कतो, तस्स का गति, को अभिसम्परायो? नन्दा नाम, भन्ते, भिक्खुनी नातिके कालङ्कता, तस्सा का गति, को अभिसम्परायो? सुदत्तो नाम, भन्ते, उपासको नातिके कालङ्कतो, तस्स का गति, को अभिसम्परायो? सुजाता नाम, भन्ते, उपासिका नातिके कालङ्कता, तस्सा का गति, को अभिसम्परायो? कुक्कुटो [ककुधो (स्या॰)] नाम, भन्ते, उपासको नातिके कालङ्कतो, तस्स का गति, को अभिसम्परायो? काळिम्बो [कालिङ्गो (पी॰), कारळिम्बो (स्या॰)] नाम, भन्ते, उपासको…पे॰… निकटो नाम, भन्ते, उपासको… कटिस्सहो [कटिस्सभो (सी॰ पी॰)] नाम, भन्ते, उपासको… तुट्ठो नाम, भन्ते, उपासको… सन्तुट्ठो नाम, भन्ते, उपासको… भद्दो [भटो (स्या॰)] नाम, भन्ते, उपासको… सुभद्दो [सुभटो (स्या॰)] नाम, भन्ते, उपासको नातिके कालङ्कतो, तस्स का गति, को अभिसम्परायो’’ति?

१५७. ‘‘साळ्हो, आनन्द, भिक्खु आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासि। नन्दा, आनन्द, भिक्खुनी पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनी अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका। सुदत्तो, आनन्द, उपासको तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामी सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सति। सुजाता, आनन्द, उपासिका तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा [परायना (सी॰ स्या॰ पी॰ क॰)]। कुक्कुटो, आनन्द, उपासको पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका। काळिम्बो, आनन्द, उपासको…पे॰… निकटो, आनन्द, उपासको… कटिस्सहो, आनन्द, उपासको… तुट्ठो, आनन्द, उपासको … सन्तुट्ठो, आनन्द, उपासको… भद्दो, आनन्द, उपासको… सुभद्दो, आनन्द, उपासको पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका। परोपञ्ञासं, आनन्द, नातिके उपासका कालङ्कता, पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनो अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका। साधिका नवुति [छाधिका नवुति (स्या॰)], आनन्द, नातिके उपासका कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामिनो सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति। सातिरेकानि [दसातिरेकानि (स्या॰)], आनन्द, पञ्चसतानि नातिके उपासका कालङ्कता, तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा।

धम्मादासधम्मपरियाया

१५८. ‘‘अनच्छरियं खो पनेतं, आनन्द, यं मनुस्सभूतो कालङ्करेय्य। तस्मिंयेव [तस्मिं तस्मिं चे (सी॰ पी॰), तस्मिं तस्मिं खो (स्या॰)] कालङ्कते तथागतं उपसङ्कमित्वा एतमत्थं पुच्छिस्सथ, विहेसा हेसा, आनन्द, तथागतस्स। तस्मातिहानन्द, धम्मादासं नाम धम्मपरियायं देसेस्सामि, येन समन्नागतो अरियसावको आकङ्खमानो अत्तनाव अत्तानं ब्याकरेय्य – ‘खीणनिरयोम्हि खीणतिरच्छानयोनि खीणपेत्तिविसयो खीणापायदुग्गतिविनिपातो, सोतापन्नोहमस्मि अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो’ति।

१५९. ‘‘कतमो च सो, आनन्द, धम्मादासो धम्मपरियायो, येन समन्नागतो अरियसावको आकङ्खमानो अत्तनाव अत्तानं ब्याकरेय्य – ‘खीणनिरयोम्हि खीणतिरच्छानयोनि खीणपेत्तिविसयो खीणापायदुग्गतिविनिपातो, सोतापन्नोहमस्मि अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो’ति?

‘‘इधानन्द, अरियसावको बुद्धे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो होति – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ति।

‘‘धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो होति – ‘स्वाक्खातो भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विञ्ञूही’ति।

‘‘सङ्घे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो होति – ‘सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, उजुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, ञायप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, सामीचिप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो यदिदं चत्तारि पुरिसयुगानि अट्ठ पुरिसपुग्गला, एस भगवतो सावकसङ्घो आहुनेय्यो पाहुनेय्यो दक्खिणेय्यो अञ्जलिकरणीयो अनुत्तरं पुञ्ञक्खेत्तं लोकस्सा’ति।

‘‘अरियकन्तेहि सीलेहि समन्नागतो होति अखण्डेहि अच्छिद्देहि असबलेहि अकम्मासेहि भुजिस्सेहि विञ्ञूपसत्थेहि अपरामट्ठेहि समाधिसंवत्तनिकेहि।

‘‘अयं खो सो, आनन्द, धम्मादासो धम्मपरियायो, येन समन्नागतो अरियसावको आकङ्खमानो अत्तनाव अत्तानं ब्याकरेय्य – ‘खीणनिरयोम्हि खीणतिरच्छानयोनि खीणपेत्तिविसयो खीणापायदुग्गतिविनिपातो, सोतापन्नोहमस्मि अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो’’’ति।

तत्रपि सुदं भगवा नातिके विहरन्तो गिञ्जकावसथे एतदेव बहुलं भिक्खूनं धम्मिं कथं करोति –

‘‘इति सीलं इति समाधि इति पञ्ञा। सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो। समाधिपरिभाविता पञ्ञा महप्फला होति महानिसंसा। पञ्ञापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं – कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा’’ति।

१६०. अथ खो भगवा नातिके यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘आयामानन्द, येन वेसाली तेनुपसङ्कमिस्सामा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि। अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं येन वेसाली तदवसरि। तत्र सुदं भगवा वेसालियं विहरति अम्बपालिवने। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि –

‘‘सतो, भिक्खवे, भिक्खु विहरेय्य सम्पजानो, अयं वो अम्हाकं अनुसासनी। कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु सतो होति? इध, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। वेदनासु वेदनानुपस्सी…पे॰… चित्ते चित्तानुपस्सी…पे॰… धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु सतो होति।

‘‘कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु सम्पजानो होति? इध, भिक्खवे, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति। एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु सम्पजानो होति। सतो, भिक्खवे, भिक्खु विहरेय्य सम्पजानो, अयं वो अम्हाकं अनुसासनी’’ति।

अम्बपालीगणिका

१६१. अस्सोसि खो अम्बपाली गणिका – ‘‘भगवा किर वेसालिं अनुप्पत्तो वेसालियं विहरति मय्हं अम्बवने’’ति। अथ खो अम्बपाली गणिका भद्दानि भद्दानि यानानि योजापेत्वा भद्दं भद्दं यानं अभिरुहित्वा भद्देहि भद्देहि यानेहि वेसालिया निय्यासि। येन सको आरामो तेन पायासि। यावतिका यानस्स भूमि, यानेन गन्त्वा, याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकाव येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो अम्बपालिं गणिकं भगवा धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि। अथ खो अम्बपाली गणिका भगवता धम्मिया कथाय सन्दस्सिता समादपिता समुत्तेजिता सम्पहंसिता भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अधिवासेतु मे, भन्ते, भगवा स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’’ति। अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन। अथ खो अम्बपाली गणिका भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि।

अस्सोसुं खो वेसालिका लिच्छवी – ‘‘भगवा किर वेसालिं अनुप्पत्तो वेसालियं विहरति अम्बपालिवने’’ति। अथ खो ते लिच्छवी भद्दानि भद्दानि यानानि योजापेत्वा भद्दं भद्दं यानं अभिरुहित्वा भद्देहि भद्देहि यानेहि वेसालिया निय्यिंसु। तत्र एकच्चे लिच्छवी नीला होन्ति नीलवण्णा नीलवत्था नीलालङ्कारा, एकच्चे लिच्छवी पीता होन्ति पीतवण्णा पीतवत्था पीतालङ्कारा, एकच्चे लिच्छवी लोहिता होन्ति लोहितवण्णा लोहितवत्था लोहितालङ्कारा, एकच्चे लिच्छवी ओदाता होन्ति ओदातवण्णा ओदातवत्था ओदातालङ्कारा। अथ खो अम्बपाली गणिका दहरानं दहरानं लिच्छवीनं अक्खेन अक्खं चक्केन चक्कं युगेन युगं पटिवट्टेसि [परिवत्तेसि (वि॰ महावग्ग)]। अथ खो ते लिच्छवी अम्बपालिं गणिकं एतदवोचुं – ‘‘किं, जे अम्बपालि, दहरानं दहरानं लिच्छवीनं अक्खेन अक्खं चक्केन चक्कं युगेन युगं पटिवट्टेसी’’ति? ‘‘तथा हि पन मे, अय्यपुत्ता, भगवा निमन्तितो स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’’ति। ‘‘देहि, जे अम्बपालि, एतं [एकं (क॰)] भत्तं सतसहस्सेना’’ति। ‘‘सचेपि मे, अय्यपुत्ता, वेसालिं साहारं दस्सथ [दज्जेय्याथ (वि॰ महावग्ग)], एवमहं तं [एवम्पि महन्तं (स्या॰), एवं महन्तं (सी॰ पी॰)] भत्तं न दस्सामी’’ति [नेव दज्जाहं तं भत्तन्ति (वि॰ महावग्ग)]। अथ खो ते लिच्छवी अङ्गुलिं फोटेसुं – ‘‘जितम्ह [जितम्हा (बहूसु)] वत भो अम्बकाय, जितम्ह वत भो अम्बकाया’’ति [‘‘जितम्हा वत भो अम्बपालिकाय वञ्चितम्हा वत भो अम्बपालिकाया’’ति (स्या॰)]।

अथ खो ते लिच्छवी येन अम्बपालिवनं तेन पायिंसु। अद्दसा खो भगवा ते लिच्छवी दूरतोव आगच्छन्ते। दिस्वान भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘येसं [येहि (वि॰ महावग्ग)], भिक्खवे, भिक्खूनं देवा तावतिंसा अदिट्ठपुब्बा, ओलोकेथ, भिक्खवे, लिच्छविपरिसं; अपलोकेथ, भिक्खवे, लिच्छविपरिसं; उपसंहरथ, भिक्खवे, लिच्छविपरिसं – तावतिंससदिस’’न्ति। अथ खो ते लिच्छवी यावतिका यानस्स भूमि, यानेन गन्त्वा, याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकाव येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु। एकमन्तं निसिन्ने खो ते लिच्छवी भगवा धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि। अथ खो ते लिच्छवी भगवता धम्मिया कथाय सन्दस्सिता समादपिता समुत्तेजिता सम्पहंसिता भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘अधिवासेतु नो, भन्ते, भगवा स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’’ति। अथ खो भगवा ते लिच्छवी एतदवोच – ‘‘अधिवुत्थं [अधिवासितं (स्या॰)] खो मे, लिच्छवी, स्वातनाय अम्बपालिया गणिकाय भत्त’’न्ति। अथ खो ते लिच्छवी अङ्गुलिं फोटेसुं – ‘‘जितम्ह वत भो अम्बकाय, जितम्ह वत भो अम्बकाया’’ति। अथ खो ते लिच्छवी भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कमिंसु।

१६२. अथ खो अम्बपाली गणिका तस्सा रत्तिया अच्चयेन सके आरामे पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा भगवतो कालं आरोचापेसि – ‘‘कालो, भन्ते, निट्ठितं भत्त’’न्ति। अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घेन येन अम्बपालिया गणिकाय निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि। अथ खो अम्बपाली गणिका बुद्धप्पमुखं भिक्खुसङ्घं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि। अथ खो अम्बपाली गणिका भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्ना खो अम्बपाली गणिका भगवन्तं एतदवोच – ‘‘इमाहं, भन्ते, आरामं बुद्धप्पमुखस्स भिक्खुसङ्घस्स दम्मी’’ति। पटिग्गहेसि भगवा आरामं। अथ खो भगवा अम्बपालिं गणिकं धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उट्ठायासना पक्कामि। तत्रपि सुदं भगवा वेसालियं विहरन्तो अम्बपालिवने एतदेव बहुलं भिक्खूनं धम्मिं कथं करोति – ‘‘इति सीलं, इति समाधि, इति पञ्ञा। सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो। समाधिपरिभाविता पञ्ञा महप्फला होति महानिसंसा। पञ्ञापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं – कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा’’ति।

वेळुवगामवस्सूपगमनं

१६३. अथ खो भगवा अम्बपालिवने यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘आयामानन्द, येन वेळुवगामको [बेळुवगामको (सी॰ पी॰)] तेनुपसङ्कमिस्सामा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि। अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं येन वेळुवगामको तदवसरि। तत्र सुदं भगवा वेळुवगामके विहरति। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘एथ तुम्हे, भिक्खवे, समन्ता वेसालिं यथामित्तं यथासन्दिट्ठं यथासम्भत्तं वस्सं उपेथ [उपगच्छथ (स्या॰)]। अहं पन इधेव वेळुवगामके वस्सं उपगच्छामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पटिस्सुत्वा समन्ता वेसालिं यथामित्तं यथासन्दिट्ठं यथासम्भत्तं वस्सं उपगच्छिंसु। भगवा पन तत्थेव वेळुवगामके वस्सं उपगच्छि।

१६४. अथ खो भगवतो वस्सूपगतस्स खरो आबाधो उप्पज्जि, बाळ्हा वेदना वत्तन्ति मारणन्तिका। ता सुदं भगवा सतो सम्पजानो अधिवासेसि अविहञ्ञमानो। अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘न खो मेतं पतिरूपं, य्वाहं अनामन्तेत्वा उपट्ठाके अनपलोकेत्वा भिक्खुसङ्घं परिनिब्बायेय्यं। यंनूनाहं इमं आबाधं वीरियेन पटिपणामेत्वा जीवितसङ्खारं अधिट्ठाय विहरेय्य’’न्ति। अथ खो भगवा तं आबाधं वीरियेन पटिपणामेत्वा जीवितसङ्खारं अधिट्ठाय विहासि। अथ खो भगवतो सो आबाधो पटिपस्सम्भि। अथ खो भगवा गिलाना वुट्ठितो [गिलानवुट्ठितो (सद्दनीति)] अचिरवुट्ठितो गेलञ्ञा विहारा निक्खम्म विहारपच्छायायं पञ्ञत्ते आसने निसीदि। अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘दिट्ठो मे, भन्ते, भगवतो फासु; दिट्ठं मे, भन्ते, भगवतो खमनीयं, अपि च मे, भन्ते, मधुरकजातो विय कायो। दिसापि मे न पक्खायन्ति; धम्मापि मं न पटिभन्ति भगवतो गेलञ्ञेन, अपि च मे, भन्ते, अहोसि काचिदेव अस्सासमत्ता – ‘न ताव भगवा परिनिब्बायिस्सति, न याव भगवा भिक्खुसङ्घं आरब्भ किञ्चिदेव उदाहरती’’’ति।

१६५. ‘‘किं पनानन्द, भिक्खुसङ्घो मयि पच्चासीसति [पच्चासिंसति (सी॰ स्या॰)]? देसितो, आनन्द, मया धम्मो अनन्तरं अबाहिरं करित्वा। नत्थानन्द, तथागतस्स धम्मेसु आचरियमुट्ठि। यस्स नून, आनन्द, एवमस्स – ‘अहं भिक्खुसङ्घं परिहरिस्सामी’ति वा ‘ममुद्देसिको भिक्खुसङ्घो’ति वा, सो नून, आनन्द, भिक्खुसङ्घं आरब्भ किञ्चिदेव उदाहरेय्य। तथागतस्स खो, आनन्द, न एवं होति – ‘अहं भिक्खुसङ्घं परिहरिस्सामी’ति वा ‘ममुद्देसिको भिक्खुसङ्घो’ति वा। सकिं [किं (सी॰ पी॰)], आनन्द, तथागतो भिक्खुसङ्घं आरब्भ किञ्चिदेव उदाहरिस्सति। अहं खो पनानन्द, एतरहि जिण्णो वुद्धो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो। आसीतिको मे वयो वत्तति। सेय्यथापि, आनन्द, जज्जरसकटं वेठमिस्सकेन [वेळुमिस्सकेन (स्या॰), वेघमिस्सकेन (पी॰), वेधमिस्सकेन, वेखमिस्सकेन (क॰)] यापेति, एवमेव खो, आनन्द, वेठमिस्सकेन मञ्ञे तथागतस्स कायो यापेति। यस्मिं, आनन्द, समये तथागतो सब्बनिमित्तानं अमनसिकारा एकच्चानं वेदनानं निरोधा अनिमित्तं चेतोसमाधिं उपसम्पज्ज विहरति, फासुतरो, आनन्द, तस्मिं समये तथागतस्स कायो होति। तस्मातिहानन्द, अत्तदीपा विहरथ अत्तसरणा अनञ्ञसरणा, धम्मदीपा धम्मसरणा अनञ्ञसरणा। कथञ्चानन्द, भिक्खु अत्तदीपो विहरति अत्तसरणो अनञ्ञसरणो, धम्मदीपो धम्मसरणो अनञ्ञसरणो? इधानन्द, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति अतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। वेदनासु…पे॰… चित्ते…पे॰… धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। एवं खो, आनन्द, भिक्खु अत्तदीपो विहरति अत्तसरणो अनञ्ञसरणो, धम्मदीपो धम्मसरणो अनञ्ञसरणो। ये हि केचि, आनन्द, एतरहि वा मम वा अच्चयेन अत्तदीपा विहरिस्सन्ति अत्तसरणा अनञ्ञसरणा, धम्मदीपा धम्मसरणा अनञ्ञसरणा, तमतग्गे मे ते, आनन्द, भिक्खू भविस्सन्ति ये केचि सिक्खाकामा’’ति।

दुतियभाणवारो।

निमित्तोभासकथा

१६६. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय वेसालिं पिण्डाय पाविसि। वेसालियं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘गण्हाहि, आनन्द, निसीदनं, येन चापालं चेतियं [पावालं (चेतियं (स्या॰)] तेनुपसङ्कमिस्साम दिवा विहाराया’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा निसीदनं आदाय भगवन्तं पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धि। अथ खो भगवा येन चापालं चेतियं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि। आयस्मापि खो आनन्दो भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि।

१६७. एकमन्तं निसिन्नं खो आयस्मन्तं आनन्दं भगवा एतदवोच – ‘‘रमणीया, आनन्द, वेसाली, रमणीयं उदेनं चेतियं, रमणीयं गोतमकं चेतियं, रमणीयं सत्तम्बं [सत्तम्बकं (पी॰)] चेतियं, रमणीयं बहुपुत्तं चेतियं, रमणीयं सारन्ददं चेतियं, रमणीयं चापालं चेतियं। यस्स कस्सचि, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा। तथागतस्स खो, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो [आकङ्खमानो (?)], आनन्द, तथागतो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा’’ति। एवम्पि खो आयस्मा आनन्दो भगवता ओळारिके निमित्ते कयिरमाने ओळारिके ओभासे कयिरमाने नासक्खि पटिविज्झितुं; न भगवन्तं याचि – ‘‘तिट्ठतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिट्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’’न्ति, यथा तं मारेन परियुट्ठितचित्तो। दुतियम्पि खो भगवा…पे॰… ततियम्पि खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘रमणीया, आनन्द, वेसाली, रमणीयं उदेनं चेतियं, रमणीयं गोतमकं चेतियं, रमणीयं सत्तम्बं चेतियं, रमणीयं बहुपुत्तं चेतियं, रमणीयं सारन्ददं चेतियं, रमणीयं चापालं चेतियं। यस्स कस्सचि, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा। तथागतस्स खो, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो, आनन्द, तथागतो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा’’ति। एवम्पि खो आयस्मा आनन्दो भगवता ओळारिके निमित्ते कयिरमाने ओळारिके ओभासे कयिरमाने नासक्खि पटिविज्झितुं; न भगवन्तं याचि – ‘‘तिट्ठतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिट्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’’न्ति, यथा तं मारेन परियुट्ठितचित्तो। अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘गच्छ त्वं, आनन्द, यस्सदानि कालं मञ्ञसी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा अविदूरे अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले निसीदि।

मारयाचनकथा

१६८. अथ खो मारो पापिमा अचिरपक्कन्ते आयस्मन्ते आनन्दे येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो मारो पापिमा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘परिनिब्बातुदानि, भन्ते, भगवा, परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बानकालो दानि, भन्ते, भगवतो। भासिता खो पनेसा, भन्ते, भगवता वाचा – ‘न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे भिक्खू न सावका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञ्ञपेस्सन्ति पट्ठपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानी [उत्तानिं (क॰), उत्तानि (सी॰ पी॰)] करिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेस्सन्ती’ति। एतरहि खो पन, भन्ते, भिक्खू भगवतो सावका वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खन्ति देसेन्ति पञ्ञपेन्ति पट्ठपेन्ति विवरन्ति विभजन्ति उत्तानीकरोन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेन्ति। परिनिब्बातुदानि, भन्ते, भगवा, परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बानकालोदानि, भन्ते, भगवतो।

‘‘भासिता खो पनेसा, भन्ते, भगवता वाचा – ‘न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे भिक्खुनियो न साविका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनियो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञ्ञपेस्सन्ति पट्ठपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानीकरिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेस्सन्ती’ति। एतरहि खो पन, भन्ते, भिक्खुनियो भगवतो साविका वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनियो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खन्ति देसेन्ति पञ्ञपेन्ति पट्ठपेन्ति विवरन्ति विभजन्ति उत्तानीकरोन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेन्ति। परिनिब्बातुदानि, भन्ते, भगवा, परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बानकालोदानि, भन्ते, भगवतो।

‘‘भासिता खो पनेसा, भन्ते, भगवता वाचा – ‘न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे उपासका न सावका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञ्ञपेस्सन्ति पट्ठपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानीकरिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेस्सन्ती’ति। एतरहि खो पन, भन्ते, उपासका भगवतो सावका वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खन्ति देसेन्ति पञ्ञपेन्ति पट्ठपेन्ति विवरन्ति विभजन्ति उत्तानीकरोन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेन्ति। परिनिब्बातुदानि, भन्ते, भगवा, परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बानकालोदानि, भन्ते, भगवतो।

‘‘भासिता खो पनेसा, भन्ते, भगवता वाचा – ‘न तावाहं, पापिम परिनिब्बायिस्सामि, याव मे उपासिका न साविका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनियो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञ्ञपेस्सन्ति पट्ठपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानीकरिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेस्सन्ती’ति। एतरहि खो पन, भन्ते, उपासिका भगवतो साविका वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनियो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खन्ति देसेन्ति पञ्ञपेन्ति पट्ठपेन्ति विवरन्ति विभजन्ति उत्तानीकरोन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेन्ति। परिनिब्बातुदानि, भन्ते, भगवा, परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बानकालोदानि, भन्ते, भगवतो।

‘‘भासिता खो पनेसा, भन्ते, भगवता वाचा – ‘न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे इदं ब्रह्मचरियं न इद्धं चेव भविस्सति फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजञ्ञं पुथुभूतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासित’न्ति। एतरहि खो पन, भन्ते, भगवतो ब्रह्मचरियं इद्धं चेव फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजञ्ञं पुथुभूतं, याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं। परिनिब्बातुदानि, भन्ते, भगवा, परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बानकालोदानि, भन्ते, भगवतो’’ति।

एवं वुत्ते भगवा मारं पापिमन्तं एतदवोच – ‘‘अप्पोस्सुक्को त्वं, पापिम, होहि, न चिरं तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति। इतो तिण्णं मासानं अच्चयेन तथागतो परिनिब्बायिस्सती’’ति।

आयुसङ्खारओस्सज्जनं

१६९. अथ खो भगवा चापाले चेतिये सतो सम्पजानो आयुसङ्खारं ओस्सजि। ओस्सट्ठे च भगवता आयुसङ्खारे महाभूमिचालो अहोसि भिंसनको सलोमहंसो [लोमहंसो (स्या॰)], देवदुन्दुभियो [देवदुद्रभियो (क॰)] च फलिंसु। अथ खो भगवा एतमत्थं विदित्वा तायं वेलायं इमं उदानं उदानेसि –

‘‘तुलमतुलञ्च सम्भवं, भवसङ्खारमवस्सजि मुनि।

अज्झत्तरतो समाहितो, अभिन्दि कवचमिवत्तसम्भव’’न्ति॥

महाभूमिचालहेतु

१७०. अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि – ‘‘अच्छरियं वत भो, अब्भुतं वत भो, महा वतायं भूमिचालो; सुमहा वतायं भूमिचालो भिंसनको सलोमहंसो; देवदुन्दुभियो च फलिंसु। को नु खो हेतु को पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाया’’ति?

अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि, एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, महा वतायं, भन्ते, भूमिचालो; सुमहा वतायं, भन्ते, भूमिचालो भिंसनको सलोमहंसो; देवदुन्दुभियो च फलिंसु। को नु खो, भन्ते, हेतु को पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाया’’ति?

१७१. ‘‘अट्ठ खो इमे, आनन्द, हेतू, अट्ठ पच्चया महतो भूमिचालस्स पातुभावाय। कतमे अट्ठ? अयं, आनन्द, महापथवी उदके पतिट्ठिता, उदकं वाते पतिट्ठितं, वातो आकासट्ठो। होति खो सो, आनन्द, समयो, यं महावाता वायन्ति। महावाता वायन्ता उदकं कम्पेन्ति। उदकं कम्पितं पथविं कम्पेति। अयं पठमो हेतु पठमो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय।

‘‘पुन चपरं, आनन्द, समणो वा होति ब्राह्मणो वा इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तो, देवो वा महिद्धिको महानुभावो, तस्स परित्ता पथवीसञ्ञा भाविता होति, अप्पमाणा आपोसञ्ञा। सो इमं पथविं कम्पेति सङ्कम्पेति सम्पकम्पेति सम्पवेधेति। अयं दुतियो हेतु दुतियो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय।

‘‘पुन चपरं, आनन्द, यदा बोधिसत्तो तुसितकाया चवित्वा सतो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमति, तदायं पथवी कम्पति सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति। अयं ततियो हेतु ततियो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय।

‘‘पुन चपरं, आनन्द, यदा बोधिसत्तो सतो सम्पजानो मातुकुच्छिस्मा निक्खमति, तदायं पथवी कम्पति सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति। अयं चतुत्थो हेतु चतुत्थो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय।

‘‘पुन चपरं, आनन्द, यदा तथागतो अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झति, तदायं पथवी कम्पति सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति। अयं पञ्चमो हेतु पञ्चमो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय।

‘‘पुन चपरं, आनन्द, यदा तथागतो अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तेति, तदायं पथवी कम्पति सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति। अयं छट्ठो हेतु छट्ठो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय।

‘‘पुन चपरं, आनन्द, यदा तथागतो सतो सम्पजानो आयुसङ्खारं ओस्सज्जति, तदायं पथवी कम्पति सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति। अयं सत्तमो हेतु सत्तमो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय।

‘‘पुन चपरं, आनन्द, यदा तथागतो अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बायति, तदायं पथवी कम्पति सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति। अयं अट्ठमो हेतु अट्ठमो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय। इमे खो, आनन्द, अट्ठ हेतू, अट्ठ पच्चया महतो भूमिचालस्स पातुभावाया’’ति।

अट्ठ परिसा

१७२. ‘‘अट्ठ खो इमा, आनन्द, परिसा। कतमा अट्ठ? खत्तियपरिसा, ब्राह्मणपरिसा, गहपतिपरिसा, समणपरिसा, चातुमहाराजिकपरिसा [चातुम्महाराजिकपरिसा (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)], तावतिंसपरिसा, मारपरिसा, ब्रह्मपरिसा। अभिजानामि खो पनाहं, आनन्द, अनेकसतं खत्तियपरिसं उपसङ्कमिता। तत्रपि मया सन्निसिन्नपुब्बं चेव सल्लपितपुब्बञ्च साकच्छा च समापज्जितपुब्बा। तत्थ यादिसको तेसं वण्णो होति, तादिसको मय्हं वण्णो होति। यादिसको तेसं सरो होति, तादिसको मय्हं सरो होति। धम्मिया कथाय सन्दस्सेमि समादपेमि समुत्तेजेमि सम्पहंसेमि। भासमानञ्च मं न जानन्ति – ‘को नु खो अयं भासति देवो वा मनुस्सो वा’ति? धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा अन्तरधायामि। अन्तरहितञ्च मं न जानन्ति – ‘को नु खो अयं अन्तरहितो देवो वा मनुस्सो वा’ति? अभिजानामि खो पनाहं, आनन्द, अनेकसतं ब्राह्मणपरिसं…पे॰… गहपतिपरिसं… समणपरिसं… चातुमहाराजिकपरिसं… तावतिंसपरिसं… मारपरिसं… ब्रह्मपरिसं उपसङ्कमिता। तत्रपि मया सन्निसिन्नपुब्बं चेव सल्लपितपुब्बञ्च साकच्छा च समापज्जितपुब्बा। तत्थ यादिसको तेसं वण्णो होति, तादिसको मय्हं वण्णो होति। यादिसको तेसं सरो होति, तादिसको मय्हं सरो होति। धम्मिया कथाय सन्दस्सेमि समादपेमि समुत्तेजेमि सम्पहंसेमि। भासमानञ्च मं न जानन्ति – ‘को नु खो अयं भासति देवो वा मनुस्सो वा’ति? धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा अन्तरधायामि। अन्तरहितञ्च मं न जानन्ति – ‘को नु खो अयं अन्तरहितो देवो वा मनुस्सो वा’ति? इमा खो, आनन्द, अट्ठ परिसा।

अट्ठ अभिभायतनानि

१७३. ‘‘अट्ठ खो इमानि, आनन्द, अभिभायतनानि। कतमानि अट्ठ? अज्झत्तं रूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानि। ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्ञी होति। इदं पठमं अभिभायतनं।

‘‘अज्झत्तं रूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानि। ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्ञी होति। इदं दुतियं अभिभायतनं।

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानि। ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्ञी होति। इदं ततियं अभिभायतनं।

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानि। ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्ञी होति। इदं चतुत्थं अभिभायतनं।

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति नीलानि नीलवण्णानि नीलनिदस्सनानि नीलनिभासानि। सेय्यथापि नाम उमापुप्फं नीलं नीलवण्णं नीलनिदस्सनं नीलनिभासं। सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं नीलं नीलवण्णं नीलनिदस्सनं नीलनिभासं। एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति नीलानि नीलवण्णानि नीलनिदस्सनानि नीलनिभासानि। ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्ञी होति। इदं पञ्चमं अभिभायतनं।

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति पीतानि पीतवण्णानि पीतनिदस्सनानि पीतनिभासानि। सेय्यथापि नाम कणिकारपुप्फं पीतं पीतवण्णं पीतनिदस्सनं पीतनिभासं। सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं पीतं पीतवण्णं पीतनिदस्सनं पीतनिभासं। एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति पीतानि पीतवण्णानि पीतनिदस्सनानि पीतनिभासानि। ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्ञी होति। इदं छट्ठं अभिभायतनं।

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति लोहितकानि लोहितकवण्णानि लोहितकनिदस्सनानि लोहितकनिभासानि। सेय्यथापि नाम बन्धुजीवकपुप्फं लोहितकं लोहितकवण्णं लोहितकनिदस्सनं लोहितकनिभासं। सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं लोहितकं लोहितकवण्णं लोहितकनिदस्सनं लोहितकनिभासं। एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति लोहितकानि लोहितकवण्णानि लोहितकनिदस्सनानि लोहितकनिभासानि। ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्ञी होति। इदं सत्तमं अभिभायतनं।

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति ओदातानि ओदातवण्णानि ओदातनिदस्सनानि ओदातनिभासानि। सेय्यथापि नाम ओसधितारका ओदाता ओदातवण्णा ओदातनिदस्सना ओदातनिभासा। सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं ओदातं ओदातवण्णं ओदातनिदस्सनं ओदातनिभासं। एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति ओदातानि ओदातवण्णानि ओदातनिदस्सनानि ओदातनिभासानि। ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्ञी होति। इदं अट्ठमं अभिभायतनं। इमानि खो, आनन्द, अट्ठ अभिभायतनानि।

अट्ठ विमोक्खा

१७४. ‘‘अट्ठ खो इमे, आनन्द, विमोक्खा। कतमे अट्ठ? रूपी रूपानि पस्सति, अयं पठमो विमोक्खो। अज्झत्तं अरूपसञ्ञी बहिद्धा रूपानि पस्सति, अयं दुतियो विमोक्खो। सुभन्तेव अधिमुत्तो होति, अयं ततियो विमोक्खो। सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं चतुत्थो विमोक्खो। सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं पञ्चमो विमोक्खो। सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं छट्ठो विमोक्खो। सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति। अयं सत्तमो विमोक्खो। सब्बसो नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समतिक्कम्म सञ्ञावेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति, अयं अट्ठमो विमोक्खो। इमे खो, आनन्द, अट्ठ विमोक्खा।

१७५. ‘‘एकमिदाहं, आनन्द, समयं उरुवेलायं विहरामि नज्जा नेरञ्जराय तीरे अजपालनिग्रोधे पठमाभिसम्बुद्धो। अथ खो, आनन्द, मारो पापिमा येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो, आनन्द, मारो पापिमा मं एतदवोच – ‘परिनिब्बातुदानि, भन्ते, भगवा; परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बानकालोदानि, भन्ते, भगवतो’ति। एवं वुत्ते अहं, आनन्द, मारं पापिमन्तं एतदवोचं –

‘‘‘न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे भिक्खू न सावका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञ्ञपेस्सन्ति पट्ठपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानीकरिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेस्सन्ति।

‘‘‘न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे भिक्खुनियो न साविका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनियो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञ्ञपेस्सन्ति पट्ठपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानीकरिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेस्सन्ति।

‘‘‘न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे उपासका न सावका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञ्ञपेस्सन्ति पट्ठपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानीकरिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेस्सन्ति।

‘‘‘न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे उपासिका न साविका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनियो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञ्ञपेस्सन्ति पट्ठपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानीकरिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेस्सन्ति।

‘‘‘न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे इदं ब्रह्मचरियं न इद्धञ्चेव भविस्सति फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजञ्ञं पुथुभूतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासित’न्ति।

१७६. ‘‘इदानेव खो, आनन्द, अज्ज चापाले चेतिये मारो पापिमा येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो, आनन्द, मारो पापिमा मं एतदवोच – ‘परिनिब्बातुदानि, भन्ते, भगवा, परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बानकालोदानि, भन्ते, भगवतो। भासिता खो पनेसा, भन्ते, भगवता वाचा – ‘‘न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे भिक्खू न सावका भविस्सन्ति…पे॰… याव मे भिक्खुनियो न साविका भविस्सन्ति…पे॰… याव मे उपासका न सावका भविस्सन्ति…पे॰… याव मे उपासिका न साविका भविस्सन्ति…पे॰… याव मे इदं ब्रह्मचरियं न इद्धञ्चेव भविस्सति फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजञ्ञं पुथुभूतं, याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासित’’न्ति। एतरहि खो पन, भन्ते, भगवतो ब्रह्मचरियं इद्धञ्चेव फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजञ्ञं पुथुभूतं, याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं। परिनिब्बातुदानि, भन्ते, भगवा, परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बानकालोदानि, भन्ते, भगवतो’ति।

१७७. ‘‘एवं वुत्ते, अहं, आनन्द, मारं पापिमन्तं एतदवोचं – ‘अप्पोस्सुक्को त्वं, पापिम, होहि, नचिरं तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति। इतो तिण्णं मासानं अच्चयेन तथागतो परिनिब्बायिस्सती’ति। इदानेव खो, आनन्द, अज्ज चापाले चेतिये तथागतेन सतेन सम्पजानेन आयुसङ्खारो ओस्सट्ठो’’ति।

आनन्दयाचनकथा

१७८. एवं वुत्ते आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘तिट्ठतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिट्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’’न्ति।

‘‘अलंदानि, आनन्द। मा तथागतं याचि, अकालोदानि, आनन्द, तथागतं याचनाया’’ति। दुतियम्पि खो आयस्मा आनन्दो…पे॰… ततियम्पि खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘तिट्ठतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिट्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’’न्ति।

‘‘सद्दहसि त्वं, आनन्द, तथागतस्स बोधि’’न्ति? ‘‘एवं, भन्ते’’। ‘‘अथ किञ्चरहि त्वं, आनन्द, तथागतं यावततियकं अभिनिप्पीळेसी’’ति? ‘‘सम्मुखा मेतं, भन्ते, भगवतो सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं – ‘यस्स कस्सचि, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा। तथागतस्स खो, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा। सो आकङ्खमानो, आनन्द, तथागतो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा’’’ति। ‘‘सद्दहसि त्वं, आनन्दा’’ति? ‘‘एवं, भन्ते’’। ‘‘तस्मातिहानन्द, तुय्हेवेतं दुक्कटं, तुय्हेवेतं अपरद्धं, यं त्वं तथागतेन एवं ओळारिके निमित्ते कयिरमाने ओळारिके ओभासे कयिरमाने नासक्खि पटिविज्झितुं, न तथागतं याचि – ‘तिट्ठतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिट्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’’न्ति। सचे त्वं, आनन्द, तथागतं याचेय्यासि, द्वेव ते वाचा तथागतो पटिक्खिपेय्य, अथ ततियकं अधिवासेय्य। तस्मातिहानन्द, तुय्हेवेतं दुक्कटं, तुय्हेवेतं अपरद्धं।

१७९. ‘‘एकमिदाहं, आनन्द, समयं राजगहे विहरामि गिज्झकूटे पब्बते। तत्रापि खो ताहं, आनन्द, आमन्तेसिं – ‘रमणीयं, आनन्द, राजगहं, रमणीयो, आनन्द, गिज्झकूटो पब्बतो। यस्स कस्सचि, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा। तथागतस्स खो, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो, आनन्द, तथागतो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा’ति। एवम्पि खो त्वं, आनन्द, तथागतेन ओळारिके निमित्ते कयिरमाने ओळारिके ओभासे कयिरमाने नासक्खि पटिविज्झितुं, न तथागतं याचि – ‘तिट्ठतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिट्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’न्ति। सचे त्वं, आनन्द, तथागतं याचेय्यासि, द्वे ते वाचा तथागतो पटिक्खिपेय्य, अथ ततियकं अधिवासेय्य। तस्मातिहानन्द, तुय्हेवेतं दुक्कटं, तुय्हेवेतं अपरद्धं।

१८०. ‘‘एकमिदाहं, आनन्द, समयं तत्थेव राजगहे विहरामि गोतमनिग्रोधे…पे॰… तत्थेव राजगहे विहरामि चोरपपाते… तत्थेव राजगहे विहरामि वेभारपस्से सत्तपण्णिगुहायं… तत्थेव राजगहे विहरामि इसिगिलिपस्से काळसिलायं… तत्थेव राजगहे विहरामि सीतवने सप्पसोण्डिकपब्भारे… तत्थेव राजगहे विहरामि तपोदारामे… तत्थेव राजगहे विहरामि वेळुवने कलन्दकनिवापे… तत्थेव राजगहे विहरामि जीवकम्बवने… तत्थेव राजगहे विहरामि मद्दकुच्छिस्मिं मिगदाये तत्रापि खो ताहं, आनन्द, आमन्तेसिं – ‘रमणीयं, आनन्द, राजगहं, रमणीयो गिज्झकूटो पब्बतो, रमणीयो गोतमनिग्रोधो, रमणीयो चोरपपातो, रमणीया वेभारपस्से सत्तपण्णिगुहा, रमणीया इसिगिलिपस्से काळसिला, रमणीयो सीतवने सप्पसोण्डिकपब्भारो, रमणीयो तपोदारामो, रमणीयो वेळुवने कलन्दकनिवापो, रमणीयं जीवकम्बवनं, रमणीयो मद्दकुच्छिस्मिं मिगदायो। यस्स कस्सचि, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा…पे॰… आकङ्खमानो, आनन्द, तथागतो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा’ति। एवम्पि खो त्वं, आनन्द, तथागतेन ओळारिके निमित्ते कयिरमाने ओळारिके ओभासे कयिरमाने नासक्खि पटिविज्झितुं, न तथागतं याचि – ‘तिट्ठतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिट्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’न्ति। सचे त्वं, आनन्द, तथागतं याचेय्यासि, द्वेव ते वाचा तथागतो पटिक्खिपेय्य, अथ ततियकं अधिवासेय्य। तस्मातिहानन्द, तुय्हेवेतं दुक्कटं, तुय्हेवेतं अपरद्धं।

१८१. ‘‘एकमिदाहं, आनन्द, समयं इधेव वेसालियं विहरामि उदेने चेतिये। तत्रापि खो ताहं, आनन्द, आमन्तेसिं – ‘रमणीया, आनन्द, वेसाली, रमणीयं उदेनं चेतियं। यस्स कस्सचि, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा। तथागतस्स खो, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो, आनन्द, तथागतो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा’ति। एवम्पि खो त्वं, आनन्द, तथागतेन ओळारिके निमित्ते कयिरमाने ओळारिके ओभासे कयिरमाने नासक्खि पटिविज्झितुं, न तथागतं याचि – ‘तिट्ठतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिट्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’न्ति। सचे त्वं, आनन्द, तथागतं याचेय्यासि, द्वेव ते वाचा तथागतो पटिक्खिपेय्य, अथ ततियकं अधिवासेय्य, तस्मातिहानन्द, तुय्हेवेतं दुक्कटं, तुय्हेवेतं अपरद्धं।

१८२. ‘‘एकमिदाहं, आनन्द, समयं इधेव वेसालियं विहरामि गोतमके चेतिये …पे॰… इधेव वेसालियं विहरामि सत्तम्बे चेतिये… इधेव वेसालियं विहरामि बहुपुत्ते चेतिये… इधेव वेसालियं विहरामि सारन्ददे चेतिये… इदानेव खो ताहं, आनन्द, अज्ज चापाले चेतिये आमन्तेसिं – ‘रमणीया, आनन्द, वेसाली, रमणीयं उदेनं चेतियं, रमणीयं गोतमकं चेतियं, रमणीयं सत्तम्बं चेतियं, रमणीयं बहुपुत्तं चेतियं, रमणीयं सारन्ददं चेतियं, रमणीयं चापालं चेतियं। यस्स कस्सचि, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा। तथागतस्स खो, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो, आनन्द, तथागतो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा’ति। एवम्पि खो त्वं, आनन्द, तथागतेन ओळारिके निमित्ते कयिरमाने ओळारिके ओभासे कयिरमाने नासक्खि पटिविज्झितुं, न तथागतं याचि – ‘तिट्ठतु भगवा कप्पं, तिट्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’न्ति। सचे त्वं, आनन्द, तथागतं याचेय्यासि, द्वेव ते वाचा तथागतो पटिक्खिपेय्य, अथ ततियकं अधिवासेय्य। तस्मातिहानन्द, तुय्हेवेतं दुक्कटं, तुय्हेवेतं अपरद्धं।

१८३. ‘‘ननु एतं [एवं (स्या॰ पी॰)], आनन्द, मया पटिकच्चेव [पटिगच्चेव (सी॰ पी॰)] अक्खातं – ‘सब्बेहेव पियेहि मनापेहि नानाभावो विनाभावो अञ्ञथाभावो। तं कुतेत्थ, आनन्द, लब्भा, यं तं जातं भूतं सङ्खतं पलोकधम्मं, तं वत मा पलुज्जीति नेतं ठानं विज्जति’। यं खो पनेतं, आनन्द, तथागतेन चत्तं वन्तं मुत्तं पहीनं पटिनिस्सट्ठं ओस्सट्ठो आयुसङ्खारो, एकंसेन वाचा भासिता – ‘न चिरं तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति। इतो तिण्णं मासानं अच्चयेन तथागतो परिनिब्बायिस्सती’ति। तञ्च [तं वचनं (सी॰)] तथागतो जीवितहेतु पुन पच्चावमिस्सतीति [पच्चागमिस्सतीति (स्या॰ क॰)] नेतं ठानं विज्जति। आयामानन्द, येन महावनं कूटागारसाला तेनुपसङ्कमिस्सामा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि।

अथ खो भगवा आयस्मता आनन्देन सद्धिं येन महावनं कूटागारसाला तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘गच्छ त्वं, आनन्द, यावतिका भिक्खू वेसालिं उपनिस्साय विहरन्ति, ते सब्बे उपट्ठानसालायं सन्निपातेही’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा यावतिका भिक्खू वेसालिं उपनिस्साय विहरन्ति, ते सब्बे उपट्ठानसालायं सन्निपातेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सन्निपतितो, भन्ते, भिक्खुसङ्घो, यस्सदानि, भन्ते, भगवा कालं मञ्ञती’’ति।

१८४. अथ खो भगवा येनुपट्ठानसाला तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि। निसज्ज खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘तस्मातिह, भिक्खवे, ये ते मया धम्मा अभिञ्ञा देसिता, ते वो साधुकं उग्गहेत्वा आसेवितब्बा भावेतब्बा बहुलीकातब्बा, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। कतमे च ते, भिक्खवे, धम्मा मया अभिञ्ञा देसिता, ये वो साधुकं उग्गहेत्वा आसेवितब्बा भावेतब्बा बहुलीकातब्बा, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। सेय्यथिदं – चत्तारो सतिपट्ठाना चत्तारो सम्मप्पधाना चत्तारो इद्धिपादा पञ्चिन्द्रियानि पञ्च बलानि सत्त बोज्झङ्गा अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो। इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा मया अभिञ्ञा देसिता, ये वो साधुकं उग्गहेत्वा आसेवितब्बा भावेतब्बा बहुलीकातब्बा, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’’न्ति।

१८५. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘हन्ददानि, भिक्खवे, आमन्तयामि वो, वयधम्मा सङ्खारा, अप्पमादेन सम्पादेथ। नचिरं तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति। इतो तिण्णं मासानं अच्चयेन तथागतो परिनिब्बायिस्सती’’ति। इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था [इतो परं स्यामपोत्थके एवंपि पाठो दिस्सति –§दहरापि च ये वुद्धा, ये बाला ये च पण्डिता॥§अड्ढाचेव दलिद्दा च, सब्बे मच्चुपरायना।§यथापि कुम्भकारस्स, कतं मत्तिकभाजनं॥§खुद्दकञ्च महन्तञ्च, यञ्च पक्कं यञ्च आमकं।§सब्बं भेदपरियन्तं, एवं मच्चान जीवितं॥§अथापरं एतदवोच सत्था]। –

‘‘परिपक्को वयो मय्हं, परित्तं मम जीवितं।

पहाय वो गमिस्सामि, कतं मे सरणमत्तनो॥

‘‘अप्पमत्ता सतीमन्तो, सुसीला होथ भिक्खवो।

सुसमाहितसङ्कप्पा, सचित्तमनुरक्खथ॥

‘‘यो इमस्मिं धम्मविनये, अप्पमत्तो विहस्सति।

पहाय जातिसंसारं, दुक्खस्सन्तं करिस्सती’’ति [विहरिस्सति (स्या॰), विहेस्सति (सी॰)]॥

ततियो भाणवारो।

नागापलोकितं

१८६. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय वेसालिं पिण्डाय पाविसि। वेसालियं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो नागापलोकितं वेसालिं अपलोकेत्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘इदं पच्छिमकं, आनन्द, तथागतस्स वेसालिया दस्सनं भविस्सति। आयामानन्द, येन भण्डगामो [भण्डुगामो (क॰)] तेनुपसङ्कमिस्सामा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि।

अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं येन भण्डगामो तदवसरि। तत्र सुदं भगवा भण्डगामे विहरति। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘चतुन्नं, भिक्खवे, धम्मानं अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममञ्चेव तुम्हाकञ्च। कतमेसं चतुन्नं? अरियस्स, भिक्खवे, सीलस्स अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममं चेव तुम्हाकञ्च। अरियस्स, भिक्खवे, समाधिस्स अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममं चेव तुम्हाकञ्च। अरियाय, भिक्खवे, पञ्ञाय अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममं चेव तुम्हाकञ्च। अरियाय, भिक्खवे, विमुत्तिया अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममं चेव तुम्हाकञ्च। तयिदं, भिक्खवे, अरियं सीलं अनुबुद्धं पटिविद्धं, अरियो समाधि अनुबुद्धो पटिविद्धो, अरिया पञ्ञा अनुबुद्धा पटिविद्धा, अरिया विमुत्ति अनुबुद्धा पटिविद्धा, उच्छिन्ना भवतण्हा, खीणा भवनेत्ति, नत्थि दानि पुनब्भवो’’ति। इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था –

‘‘सीलं समाधि पञ्ञा च, विमुत्ति च अनुत्तरा।

अनुबुद्धा इमे धम्मा, गोतमेन यसस्सिना॥

‘‘इति बुद्धो अभिञ्ञाय, धम्ममक्खासि भिक्खुनं।

दुक्खस्सन्तकरो सत्था, चक्खुमा परिनिब्बुतो’’ति॥

तत्रापि सुदं भगवा भण्डगामे विहरन्तो एतदेव बहुलं भिक्खूनं धम्मिं कथं करोति – ‘‘इति सीलं, इति समाधि, इति पञ्ञा। सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो। समाधिपरिभाविता पञ्ञा महप्फला होति महानिसंसा। पञ्ञापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं – कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा’’ति।

चतुमहापदेसकथा

१८७. अथ खो भगवा भण्डगामे यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘आयामानन्द, येन हत्थिगामो, येन अम्बगामो, येन जम्बुगामो, येन भोगनगरं तेनुपसङ्कमिस्सामा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि। अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं येन भोगनगरं तदवसरि। तत्र सुदं भगवा भोगनगरे विहरति आनन्दे [सानन्दरे (क॰)] चेतिये। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘चत्तारोमे, भिक्खवे, महापदेसे देसेस्सामि, तं सुणाथ, साधुकं मनसिकरोथ, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –

१८८. ‘‘इध, भिक्खवे, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘सम्मुखा मेतं, आवुसो, भगवतो सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं, अयं धम्मो अयं विनयो इदं सत्थुसासन’न्ति। तस्स, भिक्खवे, भिक्खुनो भासितं नेव अभिनन्दितब्बं नप्पटिक्कोसितब्बं। अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा तानि पदब्यञ्जनानि साधुकं उग्गहेत्वा सुत्ते ओसारेतब्बानि [ओतारेतब्बानि], विनये सन्दस्सेतब्बानि। तानि चे सुत्ते ओसारियमानानि [ओतारियमानानि] विनये सन्दस्सियमानानि न चेव सुत्ते ओसरन्ति [ओतरन्ति (सी॰ पी॰ अ॰ नि॰ ४.१८०], न च विनये सन्दिस्सन्ति, निट्ठमेत्थ गन्तब्बं – ‘अद्धा, इदं न चेव तस्स भगवतो वचनं; इमस्स च भिक्खुनो दुग्गहित’न्ति। इतिहेतं, भिक्खवे, छड्डेय्याथ। तानि चे सुत्ते ओसारियमानानि विनये सन्दस्सियमानानि सुत्ते चेव ओसरन्ति, विनये च सन्दिस्सन्ति, निट्ठमेत्थ गन्तब्बं – ‘अद्धा, इदं तस्स भगवतो वचनं; इमस्स च भिक्खुनो सुग्गहित’न्ति। इदं, भिक्खवे, पठमं महापदेसं धारेय्याथ।

‘‘इध पन, भिक्खवे, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘अमुकस्मिं नाम आवासे सङ्घो विहरति सथेरो सपामोक्खो। तस्स मे सङ्घस्स सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं, अयं धम्मो अयं विनयो इदं सत्थुसासन’न्ति। तस्स, भिक्खवे, भिक्खुनो भासितं नेव अभिनन्दितब्बं नप्पटिक्कोसितब्बं। अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा तानि पदब्यञ्जनानि साधुकं उग्गहेत्वा सुत्ते ओसारेतब्बानि, विनये सन्दस्सेतब्बानि। तानि चे सुत्ते ओसारियमानानि विनये सन्दस्सियमानानि न चेव सुत्ते ओसरन्ति, न च विनये सन्दिस्सन्ति, निट्ठमेत्थ गन्तब्बं – ‘अद्धा, इदं न चेव तस्स भगवतो वचनं; तस्स च सङ्घस्स दुग्गहित’न्ति। इतिहेतं, भिक्खवे, छड्डेय्याथ। तानि चे सुत्ते ओसारियमानानि विनये सन्दस्सियमानानि सुत्ते चेव ओसरन्ति विनये च सन्दिस्सन्ति, निट्ठमेत्थ गन्तब्बं – ‘अद्धा, इदं तस्स भगवतो वचनं; तस्स च सङ्घस्स सुग्गहित’न्ति। इदं, भिक्खवे, दुतियं महापदेसं धारेय्याथ।

‘‘इध पन, भिक्खवे, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘अमुकस्मिं नाम आवासे सम्बहुला थेरा भिक्खू विहरन्ति बहुस्सुता आगतागमा धम्मधरा विनयधरा मातिकाधरा। तेसं मे थेरानं सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं – अयं धम्मो अयं विनयो इदं सत्थुसासन’न्ति। तस्स, भिक्खवे, भिक्खुनो भासितं नेव अभिनन्दितब्बं…पे॰… न च विनये सन्दिस्सन्ति, निट्ठमेत्थ गन्तब्बं – ‘अद्धा, इदं न चेव तस्स भगवतो वचनं; तेसञ्च थेरानं दुग्गहित’न्ति। इतिहेतं, भिक्खवे, छड्डेय्याथ। तानि चे सुत्ते ओसारियमानानि…पे॰… विनये च सन्दिस्सन्ति, निट्ठमेत्थ गन्तब्बं – ‘अद्धा, इदं तस्स भगवतो वचनं; तेसञ्च थेरानं सुग्गहित’न्ति। इदं, भिक्खवे, ततियं महापदेसं धारेय्याथ।

‘‘इध पन, भिक्खवे, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘अमुकस्मिं नाम आवासे एको थेरो भिक्खु विहरति बहुस्सुतो आगतागमो धम्मधरो विनयधरो मातिकाधरो। तस्स मे थेरस्स सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं – अयं धम्मो अयं विनयो इदं सत्थुसासन’न्ति। तस्स, भिक्खवे, भिक्खुनो भासितं नेव अभिनन्दितब्बं नप्पटिक्कोसितब्बं। अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा तानि पदब्यञ्जनानि साधुकं उग्गहेत्वा सुत्ते ओसारितब्बानि, विनये सन्दस्सेतब्बानि। तानि चे सुत्ते ओसारियमानानि विनये सन्दस्सियमानानि न चेव सुत्ते ओसरन्ति, न च विनये सन्दिस्सन्ति, निट्ठमेत्थ गन्तब्बं – ‘अद्धा, इदं न चेव तस्स भगवतो वचनं; तस्स च थेरस्स दुग्गहित’न्ति। इतिहेतं, भिक्खवे, छड्डेय्याथ। तानि च सुत्ते ओसारियमानानि विनये सन्दस्सियमानानि सुत्ते चेव ओसरन्ति, विनये च सन्दिस्सन्ति, निट्ठमेत्थ गन्तब्बं – ‘अद्धा, इदं तस्स भगवतो वचनं; तस्स च थेरस्स सुग्गहित’न्ति। इदं, भिक्खवे, चतुत्थं महापदेसं धारेय्याथ। इमे खो, भिक्खवे, चत्तारो महापदेसे धारेय्याथा’’ति।

तत्रपि सुदं भगवा भोगनगरे विहरन्तो आनन्दे चेतिये एतदेव बहुलं भिक्खूनं धम्मिं कथं करोति – ‘‘इति सीलं, इति समाधि, इति पञ्ञा। सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो। समाधिपरिभाविता पञ्ञा महप्फला होति महानिसंसा। पञ्ञापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं – कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा’’ति।

कम्मारपुत्तचुन्दवत्थु

१८९. अथ खो भगवा भोगनगरे यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘आयामानन्द, येन पावा तेनुपसङ्कमिस्सामा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि। अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं येन पावा तदवसरि। तत्र सुदं भगवा पावायं विहरति चुन्दस्स कम्मारपुत्तस्स अम्बवने। अस्सोसि खो चुन्दो कम्मारपुत्तो – ‘‘भगवा किर पावं अनुप्पत्तो, पावायं विहरति मय्हं अम्बवने’’ति। अथ खो चुन्दो कम्मारपुत्तो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो चुन्दं कम्मारपुत्तं भगवा धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि। अथ खो चुन्दो कम्मारपुत्तो भगवता धम्मिया कथाय सन्दस्सितो समादपितो समुत्तेजितो सम्पहंसितो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अधिवासेतु मे, भन्ते, भगवा स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’’ति। अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन। अथ खो चुन्दो कम्मारपुत्तो भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि।

अथ खो चुन्दो कम्मारपुत्तो तस्सा रत्तिया अच्चयेन सके निवेसने पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा पहूतञ्च सूकरमद्दवं भगवतो कालं आरोचापेसि – ‘‘कालो, भन्ते, निट्ठितं भत्त’’न्ति। अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घेन येन चुन्दस्स कम्मारपुत्तस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि। निसज्ज खो भगवा चुन्दं कम्मारपुत्तं आमन्तेसि – ‘‘यं ते, चुन्द, सूकरमद्दवं पटियत्तं, तेन मं परिविस। यं पनञ्ञं खादनीयं भोजनीयं पटियत्तं, तेन भिक्खुसङ्घं परिविसा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो चुन्दो कम्मारपुत्तो भगवतो पटिस्सुत्वा यं अहोसि सूकरमद्दवं पटियत्तं, तेन भगवन्तं परिविसि। यं पनञ्ञं खादनीयं भोजनीयं पटियत्तं, तेन भिक्खुसङ्घं परिविसि। अथ खो भगवा चुन्दं कम्मारपुत्तं आमन्तेसि – ‘‘यं ते, चुन्द, सूकरमद्दवं अवसिट्ठं, तं सोब्भे निखणाहि। नाहं तं, चुन्द, पस्सामि सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय, यस्स तं परिभुत्तं सम्मा परिणामं गच्छेय्य अञ्ञत्र तथागतस्सा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो चुन्दो कम्मारपुत्तो भगवतो पटिस्सुत्वा यं अहोसि सूकरमद्दवं अवसिट्ठं, तं सोब्भे निखणित्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो चुन्दं कम्मारपुत्तं भगवा धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उट्ठायासना पक्कामि।

१९०. अथ खो भगवतो चुन्दस्स कम्मारपुत्तस्स भत्तं भुत्ताविस्स खरो आबाधो उप्पज्जि, लोहितपक्खन्दिका पबाळ्हा वेदना वत्तन्ति मारणन्तिका। ता सुदं भगवा सतो सम्पजानो अधिवासेसि अविहञ्ञमानो। अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘आयामानन्द, येन कुसिनारा तेनुपसङ्कमिस्सामा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि।

चुन्दस्स भत्तं भुञ्जित्वा, कम्मारस्साति मे सुतं।

आबाधं सम्फुसी धीरो, पबाळ्हं मारणन्तिकं॥

भुत्तस्स च सूकरमद्दवेन,

ब्याधिप्पबाळ्हो उदपादि सत्थुनो।

विरेचमानो [विरिच्चमानो (सी॰ स्या॰ क॰), विरिञ्चमानो (?)] भगवा अवोच,

गच्छामहं कुसिनारं नगरन्ति॥

पानीयाहरणं

१९१. अथ खो भगवा मग्गा ओक्कम्म येन अञ्ञतरं रुक्खमूलं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘इङ्घ मे त्वं, आनन्द, चतुग्गुणं सङ्घाटिं पञ्ञपेहि, किलन्तोस्मि, आनन्द, निसीदिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा चतुग्गुणं सङ्घाटिं पञ्ञपेसि। निसीदि भगवा पञ्ञत्ते आसने। निसज्ज खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘इङ्घ मे त्वं, आनन्द, पानीयं आहर, पिपासितोस्मि, आनन्द, पिविस्सामी’’ति। एवं वुत्ते आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘इदानि, भन्ते, पञ्चमत्तानि सकटसतानि अतिक्कन्तानि, तं चक्कच्छिन्नं उदकं परित्तं लुळितं आविलं सन्दति। अयं, भन्ते, ककुधा [ककुथा (सी॰ पी॰)] नदी अविदूरे अच्छोदका सातोदका सीतोदका सेतोदका [सेतका (सी॰)] सुप्पतित्था रमणीया। एत्थ भगवा पानीयञ्च पिविस्सति, गत्तानि च सीती [सीतं (सी॰ पी॰ क॰)] करिस्सती’’ति।

दुतियम्पि खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘इङ्घ मे त्वं, आनन्द, पानीयं आहर, पिपासितोस्मि, आनन्द, पिविस्सामी’’ति। दुतियम्पि खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘इदानि, भन्ते, पञ्चमत्तानि सकटसतानि अतिक्कन्तानि, तं चक्कच्छिन्नं उदकं परित्तं लुळितं आविलं सन्दति। अयं, भन्ते, ककुधा नदी अविदूरे अच्छोदका सातोदका सीतोदका सेतोदका सुप्पतित्था रमणीया। एत्थ भगवा पानीयञ्च पिविस्सति, गत्तानि च सीतीकरिस्सती’’ति।

ततियम्पि खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘इङ्घ मे त्वं, आनन्द, पानीयं आहर, पिपासितोस्मि, आनन्द, पिविस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा पत्तं गहेत्वा येन सा नदिका तेनुपसङ्कमि। अथ खो सा नदिका चक्कच्छिन्ना परित्ता लुळिता आविला सन्दमाना, आयस्मन्ते आनन्दे उपसङ्कमन्ते अच्छा विप्पसन्ना अनाविला सन्दित्थ [सन्दति (स्या॰)]। अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि – ‘‘अच्छरियं वत, भो, अब्भुतं वत, भो, तथागतस्स महिद्धिकता महानुभावता। अयञ्हि सा नदिका चक्कच्छिन्ना परित्ता लुळिता आविला सन्दमाना मयि उपसङ्कमन्ते अच्छा विप्पसन्ना अनाविला सन्दती’’ति। पत्तेन पानीयं आदाय येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, तथागतस्स महिद्धिकता महानुभावता। इदानि सा भन्ते नदिका चक्कच्छिन्ना परित्ता लुळिता आविला सन्दमाना मयि उपसङ्कमन्ते अच्छा विप्पसन्ना अनाविला सन्दित्थ। पिवतु भगवा पानीयं पिवतु सुगतो पानीय’’न्ति। अथ खो भगवा पानीयं अपायि।

पुक्कुसमल्लपुत्तवत्थु

१९२. तेन रोखो पन समयेन पुक्कुसो मल्लपुत्तो आळारस्स कालामस्स सावको कुसिनाराय पावं अद्धानमग्गप्पटिप्पन्नो होति। अद्दसा खो पुक्कुसो मल्लपुत्तो भगवन्तं अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले निसिन्नं। दिस्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो पुक्कुसो मल्लपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, सन्तेन वत, भन्ते, पब्बजिता विहारेन विहरन्ति। भूतपुब्बं, भन्ते, आळारो कालामो अद्धानमग्गप्पटिप्पन्नो मग्गा ओक्कम्म अविदूरे अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले दिवाविहारं निसीदि। अथ खो, भन्ते, पञ्चमत्तानि सकटसतानि आळारं कालामं निस्साय निस्साय अतिक्कमिंसु। अथ खो, भन्ते, अञ्ञतरो पुरिसो तस्स सकटसत्थस्स [सकटसतस्स (क॰)] पिट्ठितो पिट्ठितो आगच्छन्तो येन आळारो कालामो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आळारं कालामं एतदवोच – ‘अपि, भन्ते, पञ्चमत्तानि सकटसतानि अतिक्कन्तानि अद्दसा’ति? ‘न खो अहं, आवुसो, अद्दस’न्ति। ‘किं पन, भन्ते, सद्दं अस्सोसी’ति? ‘न खो अहं, आवुसो, सद्दं अस्सोसि’न्ति। ‘किं पन, भन्ते, सुत्तो अहोसी’ति? ‘न खो अहं, आवुसो, सुत्तो अहोसि’न्ति। ‘किं पन, भन्ते, सञ्ञी अहोसी’ति? ‘एवमावुसो’ति। ‘सो त्वं, भन्ते, सञ्ञी समानो जागरो पञ्चमत्तानि सकटसतानि निस्साय निस्साय अतिक्कन्तानि नेव अद्दस, न पन सद्दं अस्सोसि; अपिसु [अपि हि (सी॰ स्या॰ पी॰)] ते, भन्ते, सङ्घाटि रजेन ओकिण्णा’ति? ‘एवमावुसो’ति। अथ खो, भन्ते, तस्स पुरिसस्स एतदहोसि – ‘अच्छरियं वत भो, अब्भुतं वत भो, सन्तेन वत भो पब्बजिता विहारेन विहरन्ति। यत्र हि नाम सञ्ञी समानो जागरो पञ्चमत्तानि सकटसतानि निस्साय निस्साय अतिक्कन्तानि नेव दक्खति, न पन सद्दं सोस्सती’ति! आळारे कालामे उळारं पसादं पवेदेत्वा पक्कामी’’ति।

१९३. ‘‘तं किं मञ्ञसि, पुक्कुस, कतमं नु खो दुक्करतरं वा दुरभिसम्भवतरं वा – यो वा सञ्ञी समानो जागरो पञ्चमत्तानि सकटसतानि निस्साय निस्साय अतिक्कन्तानि नेव पस्सेय्य, न पन सद्दं सुणेय्य; यो वा सञ्ञी समानो जागरो देवे वस्सन्ते देवे गळगळायन्ते विज्जुल्लतासु [विज्जुतासु (सी॰ स्या॰ पी॰)] निच्छरन्तीसु असनिया फलन्तिया नेव पस्सेय्य, न पन सद्दं सुणेय्या’’ति? ‘‘किञ्हि, भन्ते, करिस्सन्ति पञ्च वा सकटसतानि छ वा सकटसतानि सत्त वा सकटसतानि अट्ठ वा सकटसतानि नव वा सकटसतानि [नव वा सकटसतानि दस वा सकटसतानि (सी॰)], सकटसहस्सं वा सकटसतसहस्सं वा। अथ खो एतदेव दुक्करतरं चेव दुरभिसम्भवतरञ्च यो सञ्ञी समानो जागरो देवे वस्सन्ते देवे गळगळायन्ते विज्जुल्लतासु निच्छरन्तीसु असनिया फलन्तिया नेव पस्सेय्य, न पन सद्दं सुणेय्या’’ति।

‘‘एकमिदाहं, पुक्कुस, समयं आतुमायं विहरामि भुसागारे। तेन खो पन समयेन देवे वस्सन्ते देवे गळगळायन्ते विज्जुल्लतासु निच्छरन्तीसु असनिया फलन्तिया अविदूरे भुसागारस्स द्वे कस्सका भातरो हता चत्तारो च बलिबद्दा [बलिबद्दा (सी॰ पी॰)]। अथ खो, पुक्कुस, आतुमाय महाजनकायो निक्खमित्वा येन ते द्वे कस्सका भातरो हता चत्तारो च बलिबद्दा तेनुपसङ्कमि। तेन खो पनाहं, पुक्कुस, समयेन भुसागारा निक्खमित्वा भुसागारद्वारे अब्भोकासे चङ्कमामि। अथ खो, पुक्कुस, अञ्ञतरो पुरिसो तम्हा महाजनकाया येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितं खो अहं, पुक्कुस, तं पुरिसं एतदवोचं – ‘किं नु खो एसो, आवुसो, महाजनकायो सन्निपतितो’ति? ‘इदानि, भन्ते, देवे वस्सन्ते देवे गळगळायन्ते विज्जुल्लतासु निच्छरन्तीसु असनिया फलन्तिया द्वे कस्सका भातरो हता चत्तारो च बलिबद्दा। एत्थेसो महाजनकायो सन्निपतितो। त्वं पन, भन्ते, क्व अहोसी’ति? ‘इधेव खो अहं, आवुसो, अहोसि’न्ति। ‘किं पन, भन्ते, अद्दसा’ति? ‘न खो अहं, आवुसो, अद्दस’न्ति। ‘किं पन, भन्ते, सद्दं अस्सोसी’ति? ‘न खो अहं, आवुसो, सद्दं अस्सोसि’न्ति। ‘किं पन, भन्ते, सुत्तो अहोसी’ति? ‘न खो अहं, आवुसो, सुत्तो अहोसि’न्ति। ‘किं पन, भन्ते, सञ्ञी अहोसी’ति? ‘एवमावुसो’ति। ‘सो त्वं, भन्ते, सञ्ञी समानो जागरो देवे वस्सन्ते देवे गळगळायन्ते विज्जुल्लतासु निच्छरन्तीसु असनिया फलन्तिया नेव अद्दस, न पन सद्दं अस्सोसी’ति? ‘‘एवमावुसो’’ति?

‘‘अथ खो, पुक्कुस, पुरिसस्स एतदहोसि – ‘अच्छरियं वत भो, अब्भुतं वत भो, सन्तेन वत भो पब्बजिता विहारेन विहरन्ति। यत्र हि नाम सञ्ञी समानो जागरो देवे वस्सन्ते देवे गळगळायन्ते विज्जुल्लतासु निच्छरन्तीसु असनिया फलन्तिया नेव दक्खति, न पन सद्दं सोस्सती’ति [सुणिस्सति (स्या॰)]। मयि उळारं पसादं पवेदेत्वा मं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामी’’ति।

एवं वुत्ते पुक्कुसो मल्लपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘एसाहं, भन्ते, यो मे आळारे कालामे पसादो तं महावाते वा ओफुणामि सीघसोताय [सिङ्घसोताय (क॰)] वा नदिया पवाहेमि। अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते! सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’ति; एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च। उपासकं मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति।

१९४. अथ खो पुक्कुसो मल्लपुत्तो अञ्ञतरं पुरिसं आमन्तेसि – ‘‘इङ्घ मे त्वं, भणे, सिङ्गीवण्णं युगमट्ठं धारणीयं आहरा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो सो पुरिसो पुक्कुसस्स मल्लपुत्तस्स पटिस्सुत्वा तं सिङ्गीवण्णं युगमट्ठं धारणीयं आहरि [आहरसि (क॰)]। अथ खो पुक्कुसो मल्लपुत्तो तं सिङ्गीवण्णं युगमट्ठं धारणीयं भगवतो उपनामेसि – ‘‘इदं, भन्ते, सिङ्गीवण्णं युगमट्ठं धारणीयं, तं मे भगवा पटिग्गण्हातु अनुकम्पं उपादाया’’ति। ‘‘तेन हि, पुक्कुस, एकेन मं अच्छादेहि, एकेन आनन्द’’न्ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो पुक्कुसो मल्लपुत्तो भगवतो पटिस्सुत्वा एकेन भगवन्तं अच्छादेति, एकेन आयस्मन्तं आनन्दं। अथ खो भगवा पुक्कुसं मल्लपुत्तं धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि। अथ खो पुक्कुसो मल्लपुत्तो भगवता धम्मिया कथाय सन्दस्सितो समादपितो समुत्तेजितो सम्पहंसितो उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि।

१९५. अथ खो आयस्मा आनन्दो अचिरपक्कन्ते पुक्कुसे मल्लपुत्ते तं सिङ्गीवण्णं युगमट्ठं धारणीयं भगवतो कायं उपनामेसि। तं भगवतो कायं उपनामितं हतच्चिकं विय [वीतच्चिकंविय (सी॰ पी॰)] खायति। अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, याव परिसुद्धो, भन्ते, तथागतस्स छविवण्णो परियोदातो। इदं, भन्ते, सिङ्गीवण्णं युगमट्ठं धारणीयं भगवतो कायं उपनामितं हतच्चिकं विय खायती’’ति। ‘‘एवमेतं, आनन्द, एवमेतं, आनन्द द्वीसु कालेसु अतिविय तथागतस्स कायो परिसुद्धो होति छविवण्णो परियोदातो। कतमेसु द्वीसु? यञ्च, आनन्द, रत्तिं तथागतो अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झति, यञ्च रत्तिं अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बायति। इमेसु खो, आनन्द, द्वीसु कालेसु अतिविय तथागतस्स कायो परिसुद्धो होति छविवण्णो परियोदातो। ‘‘अज्ज खो, पनानन्द, रत्तिया पच्छिमे यामे कुसिनारायं उपवत्तने मल्लानं सालवने अन्तरेन [अन्तरे (स्या॰)] यमकसालानं तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति [भविस्सतीति (क॰)]। आयामानन्द, येन ककुधा नदी तेनुपसङ्कमिस्सामा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि।

सिङ्गीवण्णं युगमट्ठं, पुक्कुसो अभिहारयि।

तेन अच्छादितो सत्था, हेमवण्णो असोभथाति॥

१९६. अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं येन ककुधा नदी तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ककुधं नदिं अज्झोगाहेत्वा न्हत्वा च पिवित्वा च पच्चुत्तरित्वा येन अम्बवनं तेनुपसङ्कमि। उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं चुन्दकं आमन्तेसि – ‘‘इङ्घ मे त्वं, चुन्दक, चतुग्गुणं सङ्घाटिं पञ्ञपेहि, किलन्तोस्मि, चुन्दक, निपज्जिस्सामी’’ति।

‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा चुन्दको भगवतो पटिस्सुत्वा चतुग्गुणं सङ्घाटिं पञ्ञपेसि। अथ खो भगवा दक्खिणेन पस्सेन सीहसेय्यं कप्पेसि पादे पादं अच्चाधाय सतो सम्पजानो उट्ठानसञ्ञं मनसिकरित्वा। आयस्मा पन चुन्दको तत्थेव भगवतो पुरतो निसीदि।

गन्त्वान बुद्धो नदिकं ककुधं,

अच्छोदकं सातुदकं विप्पसन्नं।

ओगाहि सत्था अकिलन्तरूपो [सुकिलन्तरूपो (सी॰ पी॰)],

तथागतो अप्पटिमो च [अप्पटिमोध (पी॰)] लोके॥

न्हत्वा च पिवित्वा चुदतारि सत्था [पिवित्वा चुन्दकेन, पिवित्वा च उत्तरि (क॰)],

पुरक्खतो भिक्खुगणस्स मज्झे।

वत्ता [सत्था (सी॰ स्या॰ पी॰)] पवत्ता भगवा इध धम्मे,

उपागमि अम्बवनं महेसि॥

आमन्तयि चुन्दकं नाम भिक्खुं,

चतुग्गुणं सन्थर मे निपज्जं।

सो चोदितो भावितत्तेन चुन्दो,

चतुग्गुणं सन्थरि खिप्पमेव॥

निपज्जि सत्था अकिलन्तरूपो,

चुन्दोपि तत्थ पमुखे [समुखे (क॰)] निसीदीति॥

१९७. अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘सिया खो [यो खो (क॰)], पनानन्द, चुन्दस्स कम्मारपुत्तस्स कोचि विप्पटिसारं उप्पादेय्य – ‘तस्स ते, आवुसो चुन्द, अलाभा तस्स ते दुल्लद्धं, यस्स ते तथागतो पच्छिमं पिण्डपातं परिभुञ्जित्वा परिनिब्बुतो’ति। चुन्दस्स, आनन्द, कम्मारपुत्तस्स एवं विप्पटिसारो पटिविनेतब्बो – ‘तस्स ते, आवुसो चुन्द, लाभा तस्स ते सुलद्धं, यस्स ते तथागतो पच्छिमं पिण्डपातं परिभुञ्जित्वा परिनिब्बुतो। सम्मुखा मेतं, आवुसो चुन्द, भगवतो सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं – द्वे मे पिण्डपाता समसमफला [समा समफला (क॰)] समविपाका [समसमविपाका (सी॰ स्या॰ पी॰)], अतिविय अञ्ञेहि पिण्डपातेहि महप्फलतरा च महानिसंसतरा च। कतमे द्वे? यञ्च पिण्डपातं परिभुञ्जित्वा तथागतो अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झति, यञ्च पिण्डपातं परिभुञ्जित्वा तथागतो अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बायति। इमे द्वे पिण्डपाता समसमफला समविपाका, अतिविय अञ्ञेहि पिण्डपातेहि महप्फलतरा च महानिसंसतरा च। आयुसंवत्तनिकं आयस्मता चुन्देन कम्मारपुत्तेन कम्मं उपचितं, वण्णसंवत्तनिकं आयस्मता चुन्देन कम्मारपुत्तेन कम्मं उपचितं, सुखसंवत्तनिकं आयस्मता चुन्देन कम्मारपुत्तेन कम्मं उपचितं, यससंवत्तनिकं आयस्मता चुन्देन कम्मारपुत्तेन कम्मं उपचितं, सग्गसंवत्तनिकं आयस्मता चुन्देन कम्मारपुत्तेन कम्मं उपचितं, आधिपतेय्यसंवत्तनिकं आयस्मता चुन्देन कम्मारपुत्तेन कम्मं उपचित’न्ति। चुन्दस्स, आनन्द, कम्मारपुत्तस्स एवं विप्पटिसारो पटिविनेतब्बो’’ति। अथ खो भगवा एतमत्थं विदित्वा तायं वेलायं इमं उदानं उदानेसि –

‘‘ददतो पुञ्ञं पवड्ढति,

संयमतो वेरं न चीयति।

कुसलो च जहाति पापकं,

रागदोसमोहक्खया सनिब्बुतो’’ति॥

चतुत्थो भाणवारो।

यमकसाला

१९८. अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘आयामानन्द, येन हिरञ्ञवतिया नदिया पारिमं तीरं, येन कुसिनारा उपवत्तनं मल्लानं सालवनं तेनुपसङ्कमिस्सामा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि। अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं येन हिरञ्ञवतिया नदिया पारिमं तीरं, येन कुसिनारा उपवत्तनं मल्लानं सालवनं तेनुपसङ्कमि। उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘इङ्घ मे त्वं, आनन्द, अन्तरेन यमकसालानं उत्तरसीसकं मञ्चकं पञ्ञपेहि, किलन्तोस्मि, आनन्द, निपज्जिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा अन्तरेन यमकसालानं उत्तरसीसकं मञ्चकं पञ्ञपेसि। अथ खो भगवा दक्खिणेन पस्सेन सीहसेय्यं कप्पेसि पादे पादं अच्चाधाय सतो सम्पजानो।

तेन खो पन समयेन यमकसाला सब्बफालिफुल्ला होन्ति अकालपुप्फेहि। ते तथागतस्स सरीरं ओकिरन्ति अज्झोकिरन्ति अभिप्पकिरन्ति तथागतस्स पूजाय। दिब्बानिपि मन्दारवपुप्फानि अन्तलिक्खा पपतन्ति, तानि तथागतस्स सरीरं ओकिरन्ति अज्झोकिरन्ति अभिप्पकिरन्ति तथागतस्स पूजाय। दिब्बानिपि चन्दनचुण्णानि अन्तलिक्खा पपतन्ति, तानि तथागतस्स सरीरं ओकिरन्ति अज्झोकिरन्ति अभिप्पकिरन्ति तथागतस्स पूजाय। दिब्बानिपि तूरियानि अन्तलिक्खे वज्जन्ति तथागतस्स पूजाय। दिब्बानिपि सङ्गीतानि अन्तलिक्खे वत्तन्ति तथागतस्स पूजाय।

१९९. अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘सब्बफालिफुल्ला खो, आनन्द, यमकसाला अकालपुप्फेहि। ते तथागतस्स सरीरं ओकिरन्ति अज्झोकिरन्ति अभिप्पकिरन्ति तथागतस्स पूजाय। दिब्बानिपि मन्दारवपुप्फानि अन्तलिक्खा पपतन्ति, तानि तथागतस्स सरीरं ओकिरन्ति अज्झोकिरन्ति अभिप्पकिरन्ति तथागतस्स पूजाय। दिब्बानिपि चन्दनचुण्णानि अन्तलिक्खा पपतन्ति, तानि तथागतस्स सरीरं ओकिरन्ति अज्झोकिरन्ति अभिप्पकिरन्ति तथागतस्स पूजाय। दिब्बानिपि तूरियानि अन्तलिक्खे वज्जन्ति तथागतस्स पूजाय। दिब्बानिपि सङ्गीतानि अन्तलिक्खे वत्तन्ति तथागतस्स पूजाय। न खो, आनन्द, एत्तावता तथागतो सक्कतो वा होति गरुकतो वा मानितो वा पूजितो वा अपचितो वा। यो खो, आनन्द, भिक्खु वा भिक्खुनी वा उपासको वा उपासिका वा धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरति सामीचिप्पटिपन्नो अनुधम्मचारी, सो तथागतं सक्करोति गरुं करोति मानेति पूजेति अपचियति [इदं पदं सीस्याइपोत्थकेसु न दिस्सति], परमाय पूजाय। तस्मातिहानन्द, धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना विहरिस्साम सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनोति। एवञ्हि वो, आनन्द, सिक्खितब्ब’’न्ति।

उपवाणत्थेरो

२००. तेन खो पन समयेन आयस्मा उपवाणो भगवतो पुरतो ठितो होति भगवन्तं बीजयमानो। अथ खो भगवा आयस्मन्तं उपवाणं अपसारेसि – ‘‘अपेहि, भिक्खु, मा मे पुरतो अट्ठासी’’ति। अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि – ‘‘अयं खो आयस्मा उपवाणो दीघरत्तं भगवतो उपट्ठाको सन्तिकावचरो समीपचारी। अथ च पन भगवा पच्छिमे काले आयस्मन्तं उपवाणं अपसारेति – ‘अपेहि भिक्खु, मा मे पुरतो अट्ठासी’ति। को नु खो हेतु, को पच्चयो, यं भगवा आयस्मन्तं उपवाणं अपसारेति – ‘अपेहि, भिक्खु, मा मे पुरतो अट्ठासी’ति? अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘अयं, भन्ते, आयस्मा उपवाणो दीघरत्तं भगवतो उपट्ठाको सन्तिकावचरो समीपचारी। अथ च पन भगवा पच्छिमे काले आयस्मन्तं उपवाणं अपसारेति – ‘‘अपेहि, भिक्खु, मा मे पुरतो अट्ठासी’’ति। को नु खो, भन्ते, हेतु, को पच्चयो, यं भगवा आयस्मन्तं उपवाणं अपसारेति – ‘‘अपेहि, भिक्खु, मा मे पुरतो अट्ठासी’’ति? ‘‘येभुय्येन, आनन्द, दससु लोकधातूसु देवता सन्निपतिता तथागतं दस्सनाय। यावता, आनन्द, कुसिनारा उपवत्तनं मल्लानं सालवनं समन्ततो द्वादस योजनानि, नत्थि सो पदेसो वालग्गकोटिनितुदनमत्तोपि महेसक्खाहि देवताहि अप्फुटो। देवता, आनन्द, उज्झायन्ति – ‘दूरा च वतम्ह आगता तथागतं दस्सनाय। कदाचि करहचि तथागता लोके उप्पज्जन्ति अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा। अज्जेव रत्तिया पच्छिमे यामे तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति। अयञ्च महेसक्खो भिक्खु भगवतो पुरतो ठितो ओवारेन्तो, न मयं लभाम पच्छिमे काले तथागतं दस्सनाया’’’ति।

२०१. ‘‘कथंभूता पन, भन्ते, भगवा देवता मनसिकरोती’’ति [मनसि करोन्तीति (स्या॰ क॰)]? ‘‘सन्तानन्द, देवता आकासे पथवीसञ्ञिनियो केसे पकिरिय कन्दन्ति, बाहा पग्गय्ह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति [छिन्नंपादंविय पपतन्ति (स्या॰)], आवट्टन्ति, विवट्टन्ति – ‘अतिखिप्पं भगवा परिनिब्बायिस्सति, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बायिस्सति, अतिखिप्पं चक्खुं [चक्खुमा (स्या॰ क॰)] लोके अन्तरधंआयिस्सती’ति।

‘‘सन्तानन्द, देवता पथवियं पथवीसञ्ञिनियो केसे पकिरिय कन्दन्ति, बाहा पग्गय्ह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति, विवट्टन्ति – ‘अतिखिप्पं भगवा परिनिब्बायिस्सति, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बायिस्सति, अतिखिप्पं चक्खुं लोके अन्तरधायिस्सती’’’ति।

‘‘या पन ता देवता वीतरागा, ता सता सम्पजाना अधिवासेन्ति – ‘अनिच्चा सङ्खारा, तं कुतेत्थ लब्भा’ति।

चतुसंवेजनीयट्ठानानि

२०२. ‘‘पुब्बे, भन्ते, दिसासु वस्सं वुट्ठा [वस्संवुत्था (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] भिक्खू आगच्छन्ति तथागतं दस्सनाय। ते मयं लभाम मनोभावनीये भिक्खू दस्सनाय, लभाम पयिरुपासनाय। भगवतो पन मयं, भन्ते, अच्चयेन न लभिस्साम मनोभावनीये भिक्खू दस्सनाय, न लभिस्साम पयिरुपासनाया’’ति।

‘‘चत्तारिमानि, आनन्द, सद्धस्स कुलपुत्तस्स दस्सनीयानि संवेजनीयानि ठानानि। कतमानि चत्तारि? ‘इध तथागतो जातो’ति, आनन्द, सद्धस्स कुलपुत्तस्स दस्सनीयं संवेजनीयं ठानं। ‘इध तथागतो अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो’ति, आनन्द, सद्धस्स कुलपुत्तस्स दस्सनीयं संवेजनीयं ठानं। ‘इध तथागतेन अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तित’न्ति, आनन्द, सद्धस्स कुलपुत्तस्स दस्सनीयं संवेजनीयं ठानं। ‘इध तथागतो अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बुतो’ति, आनन्द, सद्धस्स कुलपुत्तस्स दस्सनीयं संवेजनीयं ठानं। इमानि खो, आनन्द, चत्तारि सद्धस्स कुलपुत्तस्स दस्सनीयानि संवेजनीयानि ठानानि।

‘‘आगमिस्सन्ति खो, आनन्द, सद्धा भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो – ‘इध तथागतो जातो’तिपि, ‘इध तथागतो अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो’तिपि, ‘इध तथागतेन अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तित’न्तिपि, ‘इध तथागतो अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बुतो’तिपि। ये हि केचि, आनन्द, चेतियचारिकं आहिण्डन्ता पसन्नचित्ता कालङ्करिस्सन्ति, सब्बे ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जिस्सन्ती’’ति।

आनन्दपुच्छाकथा

२०३. ‘‘कथं मयं, भन्ते, मातुगामे पटिपज्जामा’’ति? ‘‘अदस्सनं, आनन्दा’’ति। ‘‘दस्सने, भगवा, सति कथं पटिपज्जितब्ब’’न्ति? ‘‘अनालापो, आनन्दा’’ति। ‘‘आलपन्तेन पन, भन्ते, कथं पटिपज्जितब्ब’’न्ति? ‘‘सति, आनन्द, उपट्ठापेतब्बा’’ति।

२०४. ‘‘कथं मयं, भन्ते, तथागतस्स सरीरे पटिपज्जामा’’ति? ‘‘अब्यावटा तुम्हे, आनन्द, होथ तथागतस्स सरीरपूजाय। इङ्घ तुम्हे, आनन्द, सारत्थे घटथ अनुयुञ्जथ [सदत्थे अनुयुञ्जथ (सी॰ स्या॰), सदत्थं अनुयुञ्जथ (पी॰), सारत्थे अनुयुञ्जथ (क॰)], सारत्थे अप्पमत्ता आतापिनो पहितत्ता विहरथ। सन्तानन्द, खत्तियपण्डितापि ब्राह्मणपण्डितापि गहपतिपण्डितापि तथागते अभिप्पसन्ना, ते तथागतस्स सरीरपूजं करिस्सन्ती’’ति।

२०५. ‘‘कथं पन, भन्ते, तथागतस्स सरीरे पटिपज्जितब्ब’’न्ति? ‘‘यथा खो, आनन्द, रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ति, एवं तथागतस्स सरीरे पटिपज्जितब्ब’’न्ति। ‘‘कथं पन, भन्ते, रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ती’’ति? ‘‘रञ्ञो, आनन्द, चक्कवत्तिस्स सरीरं अहतेन वत्थेन वेठेन्ति, अहतेन वत्थेन वेठेत्वा विहतेन कप्पासेन वेठेन्ति, विहतेन कप्पासेन वेठेत्वा अहतेन वत्थेन वेठेन्ति। एतेनुपायेन पञ्चहि युगसतेहि रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरं [सरीरे (स्या॰ क॰)] वेठेत्वा आयसाय तेलदोणिया पक्खिपित्वा अञ्ञिस्सा आयसाय दोणिया पटिकुज्जित्वा सब्बगन्धानं चितकं करित्वा रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरं झापेन्ति। चातुमहापथे [चातुम्महापथे (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] रञ्ञो चक्कवत्तिस्स थूपं करोन्ति। एवं खो, आनन्द, रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ति। यथा खो, आनन्द, रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ति, एवं तथागतस्स सरीरे पटिपज्जितब्बं। चातुमहापथे तथागतस्स थूपो कातब्बो। तत्थ ये मालं वा गन्धं वा चुण्णकं [वण्णकं (सी॰ पी॰)] वा आरोपेस्सन्ति वा अभिवादेस्सन्ति वा चित्तं वा पसादेस्सन्ति तेसं तं भविस्सति दीघरत्तं हिताय सुखाय।

थूपारहपुग्गलो

२०६. ‘‘चत्तारोमे, आनन्द, थूपारहा। कतमे चत्तारो? तथागतो अरहं सम्मासम्बुद्धो थूपारहो, पच्चेकसम्बुद्धो थूपारहो, तथागतस्स सावको थूपारहो, राजा चक्कवत्ती [चक्कवत्ति (स्या॰ क॰)] थूपारहोति।

‘‘किञ्चानन्द, अत्थवसं पटिच्च तथागतो अरहं सम्मासम्बुद्धो थूपारहो? ‘अयं तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स थूपो’ति, आनन्द, बहुजना चित्तं पसादेन्ति। ते तत्थ चित्तं पसादेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ति। इदं खो, आनन्द, अत्थवसं पटिच्च तथागतो अरहं सम्मासम्बुद्धो थूपारहो।

‘‘किञ्चानन्द, अत्थवसं पटिच्च पच्चेकसम्बुद्धो थूपारहो? ‘अयं तस्स भगवतो पच्चेकसम्बुद्धस्स थूपो’ति, आनन्द, बहुजना चित्तं पसादेन्ति। ते तत्थ चित्तं पसादेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ति। इदं खो, आनन्द, अत्थवसं पटिच्च पच्चेकसम्बुद्धो थूपारहो।

‘‘किञ्चानन्द, अत्थवसं पटिच्च तथागतस्स सावको थूपारहो? ‘अयं तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सावकस्स थूपो’ति आनन्द, बहुजना चित्तं पसादेन्ति। ते तत्थ चित्तं पसादेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ति। इदं खो, आनन्द, अत्थवसं पटिच्च तथागतस्स सावको थूपारहो।

‘‘किञ्चानन्द, अत्थवसं पटिच्च राजा चक्कवत्ती थूपारहो? ‘अयं तस्स धम्मिकस्स धम्मरञ्ञो थूपो’ति, आनन्द, बहुजना चित्तं पसादेन्ति। ते तत्थ चित्तं पसादेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ति। इदं खो, आनन्द, अत्थवसं पटिच्च राजा चक्कवत्ती थूपारहो। इमे खो, आनन्द चत्तारो थूपारहा’’ति।

आनन्दअच्छरियधम्मो

२०७. अथ खो आयस्मा आनन्दो विहारं पविसित्वा कपिसीसं आलम्बित्वा रोदमानो अट्ठासि – ‘‘अहञ्च वतम्हि सेखो सकरणीयो, सत्थु च मे परिनिब्बानं भविस्सति, यो मम अनुकम्पको’’ति। अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘कहं नु खो, भिक्खवे, आनन्दो’’ति? ‘‘एसो, भन्ते, आयस्मा आनन्दो विहारं पविसित्वा कपिसीसं आलम्बित्वा रोदमानो ठितो – ‘अहञ्च वतम्हि सेखो सकरणीयो, सत्थु च मे परिनिब्बानं भविस्सति, यो मम अनुकम्पको’’’ति। अथ खो भगवा अञ्ञतरं भिक्खुं आमन्तेसि – ‘‘एहि त्वं, भिक्खु, मम वचनेन आनन्दं आमन्तेहि – ‘सत्था तं, आवुसो आनन्द, आमन्तेती’’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो सो भिक्खु भगवतो पटिस्सुत्वा येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच – ‘‘सत्था तं, आवुसो आनन्द, आमन्तेती’’ति। ‘‘एवमावुसो’’ति खो आयस्मा आनन्दो तस्स भिक्खुनो पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो आयस्मन्तं आनन्दं भगवा एतदवोच – ‘‘अलं, आनन्द, मा सोचि मा परिदेवि, ननु एतं, आनन्द, मया पटिकच्चेव अक्खातं – ‘सब्बेहेव पियेहि मनापेहि नानाभावो विनाभावो अञ्ञथाभावो’; तं कुतेत्थ, आनन्द, लब्भा। यं तं जातं भूतं सङ्खतं पलोकधम्मं, तं वत तथागतस्सापि सरीरं मा पलुज्जी’ति नेतं ठानं विज्जति। दीघरत्तं खो ते, आनन्द, तथागतो पच्चुपट्ठितो मेत्तेन कायकम्मेन हितेन सुखेन अद्वयेन अप्पमाणेन, मेत्तेन वचीकम्मेन हितेन सुखेन अद्वयेन अप्पमाणेन, मेत्तेन मनोकम्मेन हितेन सुखेन अद्वयेन अप्पमाणेन। कतपुञ्ञोसि त्वं, आनन्द, पधानमनुयुञ्ज, खिप्पं होहिसि अनासवो’’ति।

२०८. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘येपि ते, भिक्खवे, अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, तेसम्पि भगवन्तानं एतप्परमायेव उपट्ठाका अहेसुं, सेय्यथापि मय्हं आनन्दो। येपि ते, भिक्खवे, भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, तेसम्पि भगवन्तानं एतप्परमायेव उपट्ठाका भविस्सन्ति, सेय्यथापि मय्हं आनन्दो। पण्डितो, भिक्खवे, आनन्दो; मेधावी, भिक्खवे, आनन्दो। जानाति ‘अयं कालो तथागतं दस्सनाय उपसङ्कमितुं भिक्खूनं, अयं कालो भिक्खुनीनं, अयं कालो उपासकानं, अयं कालो उपासिकानं, अयं कालो रञ्ञो राजमहामत्तानं तित्थियानं तित्थियसावकान’न्ति।

२०९. ‘‘चत्तारोमे, भिक्खवे, अच्छरिया अब्भुता धम्मा [अब्भुतधम्मा (स्या॰ क॰)] आनन्दे। कतमे चत्तारो? सचे, भिक्खवे, भिक्खुपरिसा आनन्दं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति। तत्र चे आनन्दो धम्मं भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति। अतित्ताव, भिक्खवे, भिक्खुपरिसा होति, अथ खो आनन्दो तुण्ही होति। सचे, भिक्खवे, भिक्खुनीपरिसा आनन्दं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति। तत्र चे आनन्दो धम्मं भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति। अतित्ताव, भिक्खवे, भिक्खुनीपरिसा होति, अथ खो आनन्दो तुण्ही होति। सचे, भिक्खवे, उपासकपरिसा आनन्दं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति। तत्र चे आनन्दो धम्मं भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति। अतित्ताव, भिक्खवे, उपासकपरिसा होति, अथ खो आनन्दो तुण्ही होति। सचे, भिक्खवे, उपासिकापरिसा आनन्दं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति। तत्र चे, आनन्दो, धम्मं भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति। अतित्ताव, भिक्खवे, उपासिकापरिसा होति, अथ खो आनन्दो तुण्ही होति। इमे खो, भिक्खवे, चत्तारो अच्छरिया अब्भुता धम्मा आनन्दे।

‘‘चत्तारोमे, भिक्खवे, अच्छरिया अब्भुता धम्मा रञ्ञे चक्कवत्तिम्हि। कतमे चत्तारो? सचे, भिक्खवे, खत्तियपरिसा राजानं चक्कवत्तिं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति। तत्र चे राजा चक्कवत्ती भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति। अतित्ताव, भिक्खवे, खत्तियपरिसा होति। अथ खो राजा चक्कवत्ती तुण्ही होति। सचे भिक्खवे, ब्राह्मणपरिसा…पे॰… गहपतिपरिसा…पे॰… समणपरिसा राजानं चक्कवत्तिं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति। तत्र चे राजा चक्कवत्ती भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति। अतित्ताव, भिक्खवे, समणपरिसा होति, अथ खो राजा चक्कवत्ती तुण्ही होति। एवमेव खो, भिक्खवे, चत्तारोमे अच्छरिया अब्भुता धम्मा आनन्दे। सचे, भिक्खवे, भिक्खुपरिसा आनन्दं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति। तत्र चे आनन्दो धम्मं भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति। अतित्ताव, भिक्खवे, भिक्खुपरिसा होति। अथ खो आनन्दो तुण्ही होति। सचे, भिक्खवे भिक्खुनीपरिसा…पे॰… उपासकपरिसा…पे॰… उपासिकापरिसा आनन्दं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति। तत्र चे आनन्दो धम्मं भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति। अतित्ताव, भिक्खवे, उपासिकापरिसा होति। अथ खो आनन्दो तुण्ही होति। इमे खो, भिक्खवे, चत्तारो अच्छरिया अब्भुता धम्मा आनन्दे’’ति।

महासुदस्सनसुत्तदेसना

२१०. एवं वुत्ते आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘मा, भन्ते, भगवा इमस्मिं खुद्दकनगरके उज्जङ्गलनगरके साखानगरके परिनिब्बायि। सन्ति, भन्ते, अञ्ञानि महानगरानि, सेय्यथिदं – चम्पा राजगहं सावत्थी साकेतं कोसम्बी बाराणसी; एत्थ भगवा परिनिब्बायतु। एत्थ बहू खत्तियमहासाला, ब्राह्मणमहासाला गहपतिमहासाला तथागते अभिप्पसन्ना। ते तथागतस्स सरीरपूजं करिस्सन्ती’’ति ‘‘माहेवं, आनन्द, अवच; माहेवं, आनन्द, अवच – ‘खुद्दकनगरकं उज्जङ्गलनगरकं साखानगरक’न्ति।

‘‘भूतपुब्बं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो नाम अहोसि चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनप्पदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो। रञ्ञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स अयं कुसिनारा कुसावती नाम राजधानी अहोसि, पुरत्थिमेन च पच्छिमेन च द्वादसयोजनानि आयामेन; उत्तरेन च दक्खिणेन च सत्तयोजनानि वित्थारेन। कुसावती, आनन्द, राजधानी इद्धा चेव अहोसि फीता च बहुजना च आकिण्णमनुस्सा च सुभिक्खा च। सेय्यथापि, आनन्द, देवानं आळकमन्दा नाम राजधानी इद्धा चेव होति फीता च बहुजना च आकिण्णयक्खा च सुभिक्खा च; एवमेव खो, आनन्द, कुसावती राजधानी इद्धा चेव अहोसि फीता च बहुजना च आकिण्णमनुस्सा च सुभिक्खा च। कुसावती, आनन्द, राजधानी दसहि सद्देहि अविवित्ता अहोसि दिवा चेव रत्तिञ्च, सेय्यथिदं – हत्थिसद्देन अस्ससद्देन रथसद्देन भेरिसद्देन मुदिङ्गसद्देन वीणासद्देन गीतसद्देन सङ्खसद्देन सम्मसद्देन पाणिताळसद्देन ‘अस्नाथ पिवथ खादथा’ति दसमेन सद्देन।

‘‘गच्छ त्वं, आनन्द, कुसिनारं पविसित्वा कोसिनारकानं मल्लानं आरोचेहि – ‘अज्ज खो, वासेट्ठा, रत्तिया पच्छिमे यामे तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति। अभिक्कमथ वासेट्ठा, अभिक्कमथ वासेट्ठा। मा पच्छा विप्पटिसारिनो अहुवत्थ – अम्हाकञ्च नो गामक्खेत्ते तथागतस्स परिनिब्बानं अहोसि, न मयं लभिम्हा पच्छिमे काले तथागतं दस्सनाया’’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय अत्तदुतियो कुसिनारं पाविसि।

मल्लानं वन्दना

२११. तेन खो पन समयेन कोसिनारका मल्ला सन्धागारे [सन्थागारे (सी॰ स्या॰ पी॰)] सन्निपतिता होन्ति केनचिदेव करणीयेन। अथ खो आयस्मा आनन्दो येन कोसिनारकानं मल्लानं सन्धागारं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा कोसिनारकानं मल्लानं आरोचेसि – ‘‘अज्ज खो, वासेट्ठा, रत्तिया पच्छिमे यामे तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति। अभिक्कमथ वासेट्ठा अभिक्कमथ वासेट्ठा। मा पच्छा विप्पटिसारिनो अहुवत्थ – ‘अम्हाकञ्च नो गामक्खेत्ते तथागतस्स परिनिब्बानं अहोसि, न मयं लभिम्हा पच्छिमे काले तथागतं दस्सनाया’’’ति। इदमायस्मतो आनन्दस्स वचनं सुत्वा मल्ला च मल्लपुत्ता च मल्लसुणिसा च मल्लपजापतियो च अघाविनो दुम्मना चेतोदुक्खसमप्पिता अप्पेकच्चे केसे पकिरिय कन्दन्ति, बाहा पग्गय्ह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति विवट्टन्ति – ‘अतिखिप्पं भगवा परिनिब्बायिस्सति, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बायिस्सति, अतिखिप्पं चक्खुं लोके अन्तरधायिस्सती’ति। अथ खो मल्ला च मल्लपुत्ता च मल्लसुणिसा च मल्लपजापतियो च अघाविनो दुम्मना चेतोदुक्खसमप्पिता येन उपवत्तनं मल्लानं सालवनं येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमिंसु। अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि – ‘‘सचे खो अहं कोसिनारके मल्ले एकमेकं भगवन्तं वन्दापेस्सामि, अवन्दितो भगवा कोसिनारकेहि मल्लेहि भविस्सति, अथायं रत्ति विभायिस्सति। यंनूनाहं कोसिनारके मल्ले कुलपरिवत्तसो कुलपरिवत्तसो ठपेत्वा भगवन्तं वन्दापेय्यं – ‘इत्थन्नामो, भन्ते, मल्लो सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो भगवतो पादे सिरसा वन्दती’ति। अथ खो आयस्मा आनन्दो कोसिनारके मल्ले कुलपरिवत्तसो कुलपरिवत्तसो ठपेत्वा भगवन्तं वन्दापेसि – ‘इत्थन्नामो, भन्ते, मल्लो सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो भगवतो पादे सिरसा वन्दती’’’ति। अथ खो आयस्मा आनन्दो एतेन उपायेन पठमेनेव यामेन कोसिनारके मल्ले भगवन्तं वन्दापेसि।

सुभद्दपरिब्बाजकवत्थु

२१२. तेन खो पन समयेन सुभद्दो नाम परिब्बाजको कुसिनारायं पटिवसति। अस्सोसि खो सुभद्दो परिब्बाजको – ‘‘अज्ज किर रत्तिया पच्छिमे यामे समणस्स गोतमस्स परिनिब्बानं भविस्सती’’ति। अथ खो सुभद्दस्स परिब्बाजकस्स एतदहोसि – ‘‘सुतं खो पन मेतं परिब्बाजकानं वुड्ढानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं – ‘कदाचि करहचि तथागता लोके उप्पज्जन्ति अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा’ति। अज्जेव रत्तिया पच्छिमे यामे समणस्स गोतमस्स परिनिब्बानं भविस्सति। अत्थि च मे अयं कङ्खाधम्मो उप्पन्नो, एवं पसन्नो अहं समणे गोतमे, ‘पहोति मे समणो गोतमो तथा धम्मं देसेतुं, यथाहं इमं कङ्खाधम्मं पजहेय्य’’’न्ति। अथ खो सुभद्दो परिब्बाजको येन उपवत्तनं मल्लानं सालवनं, येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच – ‘‘सुतं मेतं, भो आनन्द, परिब्बाजकानं वुड्ढानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं – ‘कदाचि करहचि तथागता लोके उप्पज्जन्ति अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा’ति। अज्जेव रत्तिया पच्छिमे यामे समणस्स गोतमस्स परिनिब्बानं भविस्सति। अत्थि च मे अयं कङ्खाधम्मो उप्पन्नो – एवं पसन्नो अहं समणे गोतमे ‘पहोति मे समणो गोतमो तथा धम्मं देसेतुं, यथाहं इमं कङ्खाधम्मं पजहेय्य’न्ति। साधाहं, भो आनन्द, लभेय्यं समणं गोतमं दस्सनाया’’ति। एवं वुत्ते आयस्मा आनन्दो सुभद्दं परिब्बाजकं एतदवोच – ‘‘अलं, आवुसो सुभद्द, मा तथागतं विहेठेसि, किलन्तो भगवा’’ति। दुतियम्पि खो सुभद्दो परिब्बाजको…पे॰… ततियम्पि खो सुभद्दो परिब्बाजको आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच – ‘‘सुतं मेतं, भो आनन्द, परिब्बाजकानं वुड्ढानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं – ‘कदाचि करहचि तथागता लोके उप्पज्जन्ति अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा’ति। अज्जेव रत्तिया पच्छिमे यामे समणस्स गोतमस्स परिनिब्बानं भविस्सति। अत्थि च मे अयं कङ्खाधम्मो उप्पन्नो – एवं पसन्नो अहं समणे गोतमे, ‘पहोति मे समणो गोतमो तथा धम्मं देसेतुं, यथाहं इमं कङ्खाधम्मं पजहेय्य’न्ति। साधाहं, भो आनन्द, लभेय्यं समणं गोतमं दस्सनाया’’ति। ततियम्पि खो आयस्मा आनन्दो सुभद्दं परिब्बाजकं एतदवोच – ‘‘अलं, आवुसो सुभद्द, मा तथागतं विहेठेसि, किलन्तो भगवा’’ति।

२१३. अस्सोसि खो भगवा आयस्मतो आनन्दस्स सुभद्देन परिब्बाजकेन सद्धिं इमं कथासल्लापं। अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘अलं, आनन्द, मा सुभद्दं वारेसि, लभतं, आनन्द, सुभद्दो तथागतं दस्सनाय। यं किञ्चि मं सुभद्दो पुच्छिस्सति, सब्बं तं अञ्ञापेक्खोव पुच्छिस्सति, नो विहेसापेक्खो। यं चस्साहं पुट्ठो ब्याकरिस्सामि, तं खिप्पमेव आजानिस्सती’’ति। अथ खो आयस्मा आनन्दो सुभद्दं परिब्बाजकं एतदवोच – ‘‘गच्छावुसो सुभद्द, करोति ते भगवा ओकास’’न्ति। अथ खो सुभद्दो परिब्बाजको येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो सुभद्दो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘येमे, भो गोतम, समणब्राह्मणा सङ्घिनो गणिनो गणाचरिया ञाता यसस्सिनो तित्थकरा साधुसम्मता बहुजनस्स, सेय्यथिदं – पूरणो कस्सपो, मक्खलि गोसालो, अजितो केसकम्बलो, पकुधो कच्चायनो, सञ्चयो बेलट्ठपुत्तो, निगण्ठो नाटपुत्तो, सब्बेते सकाय पटिञ्ञाय अब्भञ्ञिंसु, सब्बेव न अब्भञ्ञिंसु, उदाहु एकच्चे अब्भञ्ञिंसु, एकच्चे न अब्भञ्ञिंसू’’ति? ‘‘अलं, सुभद्द, तिट्ठतेतं – ‘सब्बेते सकाय पटिञ्ञाय अब्भञ्ञिंसु, सब्बेव न अब्भञ्ञिंसु, उदाहु एकच्चे अब्भञ्ञिंसु, एकच्चे न अब्भञ्ञिंसू’ति। धम्मं ते, सुभद्द, देसेस्सामि; तं सुणाहि साधुकं मनसिकरोहि, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो सुभद्दो परिब्बाजको भगवतो पच्चस्सोसि। भगवा एतदवोच –

२१४. ‘‘यस्मिं खो, सुभद्द, धम्मविनये अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो न उपलब्भति, समणोपि तत्थ न उपलब्भति। दुतियोपि तत्थ समणो न उपलब्भति। ततियोपि तत्थ समणो न उपलब्भति। चतुत्थोपि तत्थ समणो न उपलब्भति। यस्मिञ्च खो, सुभद्द, धम्मविनये अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो उपलब्भति, समणोपि तत्थ उपलब्भति, दुतियोपि तत्थ समणो उपलब्भति, ततियोपि तत्थ समणो उपलब्भति, चतुत्थोपि तत्थ समणो उपलब्भति। इमस्मिं खो, सुभद्द, धम्मविनये अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो उपलब्भति, इधेव, सुभद्द, समणो, इध दुतियो समणो, इध ततियो समणो, इध चतुत्थो समणो, सुञ्ञा परप्पवादा समणेभि अञ्ञेहि [अञ्ञे (पी॰)]। इमे च [इधेव (क॰)], सुभद्द, भिक्खू सम्मा विहरेय्युं, असुञ्ञो लोको अरहन्तेहि अस्साति।

‘‘एकूनतिंसो वयसा सुभद्द,

यं पब्बजिं किंकुसलानुएसी।

वस्सानि पञ्ञास समाधिकानि,

यतो अहं पब्बजितो सुभद्द॥

ञायस्स धम्मस्स पदेसवत्ती,

इतो बहिद्धा समणोपि नत्थि॥

‘‘दुतियोपि समणो नत्थि। ततियोपि समणो नत्थि। चतुत्थोपि समणो नत्थि। सुञ्ञा परप्पवादा समणेभि अञ्ञेहि। इमे च, सुभद्द, भिक्खू सम्मा विहरेय्युं, असुञ्ञो लोको अरहन्तेहि अस्सा’’ति।

२१५. एवं वुत्ते सुभद्दो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते। सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य, ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’ति, एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च। लभेय्याहं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, लभेय्यं उपसम्पद’’न्ति। ‘‘यो खो, सुभद्द, अञ्ञतित्थियपुब्बो इमस्मिं धम्मविनये आकङ्खति पब्बज्जं, आकङ्खति उपसम्पदं, सो चत्तारो मासे परिवसति। चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय। अपि च मेत्थ पुग्गलवेमत्तता विदिता’’ति। ‘‘सचे, भन्ते, अञ्ञतित्थियपुब्बा इमस्मिं धम्मविनये आकङ्खन्ता पब्बज्जं आकङ्खन्ता उपसम्पदं चत्तारो मासे परिवसन्ति, चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय। अहं चत्तारि वस्सानि परिवसिस्सामि, चतुन्नं वस्सानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्तु उपसम्पादेन्तु भिक्खुभावाया’’ति।

अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘तेनहानन्द, सुभद्दं पब्बाजेही’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि। अथ खो सुभद्दो परिब्बाजको आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच – ‘‘लाभा वो, आवुसो आनन्द; सुलद्धं वो, आवुसो आनन्द, ये एत्थ सत्थु [सत्थारा (स्या॰)] सम्मुखा अन्तेवासिकाभिसेकेन अभिसित्ता’’ति। अलत्थ खो सुभद्दो परिब्बाजको भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, अलत्थ उपसम्पदं। अचिरूपसम्पन्नो खो पनायस्मा सुभद्दो एको वूपकट्ठो अप्पमत्तो आतापी पहितत्तो विहरन्तो नचिरस्सेव – ‘यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति’ तदनुत्तरं ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासि। ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति अब्भञ्ञासि। अञ्ञतरो खो पनायस्मा सुभद्दो अरहतं अहोसि। सो भगवतो पच्छिमो सक्खिसावको अहोसीति।

पञ्चमो भाणवारो।

तथागतपच्छिमवाचा

२१६. अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘सिया खो पनानन्द, तुम्हाकं एवमस्स – ‘अतीतसत्थुकं पावचनं, नत्थि नो सत्था’ति। न खो पनेतं, आनन्द, एवं दट्ठब्बं। यो वो, आनन्द, मया धम्मो च विनयो च देसितो पञ्ञत्तो, सो वो ममच्चयेन सत्था। यथा खो पनानन्द, एतरहि भिक्खू अञ्ञमञ्ञं आवुसोवादेन समुदाचरन्ति, न खो ममच्चयेन एवं समुदाचरितब्बं। थेरतरेन, आनन्द, भिक्खुना नवकतरो भिक्खु नामेन वा गोत्तेन वा आवुसोवादेन वा समुदाचरितब्बो। नवकतरेन भिक्खुना थेरतरो भिक्खु ‘भन्ते’ति वा ‘आयस्मा’ति वा समुदाचरितब्बो। आकङ्खमानो, आनन्द, सङ्घो ममच्चयेन खुद्दानुखुद्दकानि सिक्खापदानि समूहनतु। छन्नस्स, आनन्द, भिक्खुनो ममच्चयेन ब्रह्मदण्डो दातब्बो’’ति। ‘‘कतमो पन, भन्ते, ब्रह्मदण्डो’’ति? ‘‘छन्नो, आनन्द, भिक्खु यं इच्छेय्य, तं वदेय्य। सो भिक्खूहि नेव वत्तब्बो, न ओवदितब्बो, न अनुसासितब्बो’’ति।

२१७. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘सिया खो पन, भिक्खवे, एकभिक्खुस्सापि कङ्खा वा विमति वा बुद्धे वा धम्मे वा सङ्घे वा मग्गे वा पटिपदाय वा, पुच्छथ, भिक्खवे, मा पच्छा विप्पटिसारिनो अहुवत्थ – ‘सम्मुखीभूतो नो सत्था अहोसि, न मयं सक्खिम्हा भगवन्तं सम्मुखा पटिपुच्छितु’’’ न्ति। एवं वुत्ते ते भिक्खू तुण्ही अहेसुं। दुतियम्पि खो भगवा…पे॰… ततियम्पि खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘सिया खो पन, भिक्खवे, एकभिक्खुस्सापि कङ्खा वा विमति वा बुद्धे वा धम्मे वा सङ्घे वा मग्गे वा पटिपदाय वा, पुच्छथ, भिक्खवे, मा पच्छा विप्पटिसारिनो अहुवत्थ – ‘सम्मुखीभूतो नो सत्था अहोसि, न मयं सक्खिम्हा भगवन्तं सम्मुखा पटिपुच्छितु’’’ न्ति। ततियम्पि खो ते भिक्खू तुण्ही अहेसुं। अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘सिया खो पन, भिक्खवे, सत्थुगारवेनपि न पुच्छेय्याथ। सहायकोपि, भिक्खवे, सहायकस्स आरोचेतू’’ति। एवं वुत्ते ते भिक्खू तुण्ही अहेसुं। अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, एवं पसन्नो अहं, भन्ते, इमस्मिं भिक्खुसङ्घे, ‘नत्थि एकभिक्खुस्सापि कङ्खा वा विमति वा बुद्धे वा धम्मे वा सङ्घे वा मग्गे वा पटिपदाय वा’’’ति। ‘‘पसादा खो त्वं, आनन्द, वदेसि, ञाणमेव हेत्थ, आनन्द, तथागतस्स। नत्थि इमस्मिं भिक्खुसङ्घे एकभिक्खुस्सापि कङ्खा वा विमति वा बुद्धे वा धम्मे वा सङ्घे वा मग्गे वा पटिपदाय वा। इमेसञ्हि, आनन्द, पञ्चन्नं भिक्खुसतानं यो पच्छिमको भिक्खु, सो सोतापन्नो अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो’’ति।

२१८. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘हन्द दानि, भिक्खवे, आमन्तयामि वो, वयधम्मा सङ्खारा अप्पमादेन सम्पादेथा’’ति। अयं तथागतस्स पच्छिमा वाचा।

परिनिब्बुतकथा

२१९. अथ खो भगवा पठमं झानं समापज्जि, पठमज्झाना वुट्ठहित्वा दुतियं झानं समापज्जि, दुतियज्झाना वुट्ठहित्वा ततियं झानं समापज्जि, ततियज्झाना वुट्ठहित्वा चतुत्थं झानं समापज्जि। चतुत्थज्झाना वुट्ठहित्वा आकासानञ्चायतनं समापज्जि, आकासानञ्चायतनसमापत्तिया वुट्ठहित्वा विञ्ञाणञ्चायतनं समापज्जि, विञ्ञाणञ्चायतनसमापत्तिया वुट्ठहित्वा आकिञ्चञ्ञायतनं समापज्जि, आकिञ्चञ्ञायतनसमापत्तिया वुट्ठहित्वा नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समापज्जि, नेवसञ्ञानासञ्ञायतनसमापत्तिया वुट्ठहित्वा सञ्ञावेदयितनिरोधं समापज्जि।

अथ खो आयस्मा आनन्दो आयस्मन्तं अनुरुद्धं एतदवोच – ‘‘परिनिब्बुतो, भन्ते अनुरुद्ध, भगवा’’ति। ‘‘नावुसो आनन्द, भगवा परिनिब्बुतो, सञ्ञावेदयितनिरोधं समापन्नो’’ति।

अथ खो भगवा सञ्ञावेदयितनिरोधसमापत्तिया वुट्ठहित्वा नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समापज्जि, नेवसञ्ञानासञ्ञायतनसमापत्तिया वुट्ठहित्वा आकिञ्चञ्ञायतनं समापज्जि, आकिञ्चञ्ञायतनसमापत्तिया वुट्ठहित्वा विञ्ञाणञ्चायतनं समापज्जि, विञ्ञाणञ्चायतनसमापत्तिया वुट्ठहित्वा आकासानञ्चायतनं समापज्जि, आकासानञ्चायतनसमापत्तिया वुट्ठहित्वा चतुत्थं झानं समापज्जि, चतुत्थज्झाना वुट्ठहित्वा ततियं झानं समापज्जि, ततियज्झाना वुट्ठहित्वा दुतियं झानं समापज्जि, दुतियज्झाना वुट्ठहित्वा पठमं झानं समापज्जि, पठमज्झाना वुट्ठहित्वा दुतियं झानं समापज्जि, दुतियज्झाना वुट्ठहित्वा ततियं झानं समापज्जि, ततियज्झाना वुट्ठहित्वा चतुत्थं झानं समापज्जि, चतुत्थज्झाना वुट्ठहित्वा समनन्तरा भगवा परिनिब्बायि।

२२०. परिनिब्बुते भगवति सह परिनिब्बाना महाभूमिचालो अहोसि भिंसनको सलोमहंसो। देवदुन्दुभियो च फलिंसु। परिनिब्बुते भगवति सह परिनिब्बाना ब्रह्मासहम्पति इमं गाथं अभासि –

‘‘सब्बेव निक्खिपिस्सन्ति, भूता लोके समुस्सयं।

यत्थ एतादिसो सत्था, लोके अप्पटिपुग्गलो।

तथागतो बलप्पत्तो, सम्बुद्धो परिनिब्बुतो’’ति॥

२२१. परिनिब्बुते भगवति सह परिनिब्बाना सक्को देवानमिन्दो इमं गाथं अभासि –

‘‘अनिच्चा वत सङ्खारा, उप्पादवयधम्मिनो।

उप्पज्जित्वा निरुज्झन्ति, तेसं वूपसमो सुखो’’ति॥

२२२. परिनिब्बुते भगवति सह परिनिब्बाना आयस्मा अनुरुद्धो इमा गाथायो अभासि –

‘‘नाहु अस्सासपस्सासो, ठितचित्तस्स तादिनो।

अनेजो सन्तिमारब्भ, यं कालमकरी मुनि॥

‘‘असल्लीनेन चित्तेन, वेदनं अज्झवासयि।

पज्जोतस्सेव निब्बानं, विमोक्खो चेतसो अहू’’ति॥

२२३. परिनिब्बुते भगवति सह परिनिब्बाना आयस्मा आनन्दो इमं गाथं अभासि –

‘‘तदासि यं भिंसनकं, तदासि लोमहंसनं।

सब्बाकारवरूपेते, सम्बुद्धे परिनिब्बुते’’ति॥

२२४. परिनिब्बुते भगवति ये ते तत्थ भिक्खू अवीतरागा अप्पेकच्चे बाहा पग्गय्ह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति विवट्टन्ति, ‘‘अतिखिप्पं भगवा परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं चक्खुं लोके अन्तरहितो’’ति। ये पन ते भिक्खू वीतरागा, ते सता सम्पजाना अधिवासेन्ति – ‘‘अनिच्चा सङ्खारा, तं कुतेत्थ लब्भा’’ति।

२२५. अथ खो आयस्मा अनुरुद्धो भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘अलं, आवुसो, मा सोचित्थ मा परिदेवित्थ। ननु एतं, आवुसो, भगवता पटिकच्चेव अक्खातं – ‘सब्बेहेव पियेहि मनापेहि नानाभावो विनाभावो अञ्ञथाभावो’। तं कुतेत्थ, आवुसो, लब्भा। ‘यं तं जातं भूतं सङ्खतं पलोकधम्मं, तं वत मा पलुज्जी’ति, नेतं ठानं विज्जति। देवता, आवुसो, उज्झायन्ती’’ति। ‘‘कथंभूता पन, भन्ते, आयस्मा अनुरुद्धो देवता मनसि करोती’’ति [भन्ते अनुरुद्ध देवता मनसि करोन्तीति (स्या॰ क॰)]?

‘‘सन्तावुसो आनन्द, देवता आकासे पथवीसञ्ञिनियो केसे पकिरिय कन्दन्ति, बाहा पग्गय्ह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति, विवट्टन्ति – ‘अतिखिप्पं भगवा परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं चक्खुं लोके अन्तरहितो’ति। सन्तावुसो आनन्द, देवता पथविया पथवीसञ्ञिनियो केसे पकिरिय कन्दन्ति, बाहा पग्गय्ह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति, विवट्टन्ति – ‘अतिखिप्पं भगवा परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं चक्खुं लोके अन्तरहितो’ति। या पन ता देवता वीतरागा, ता सता सम्पजाना अधिवासेन्ति – ‘अनिच्चा सङ्खारा, तं कुतेत्थ लब्भा’ति। अथ खो आयस्मा च अनुरुद्धो आयस्मा च आनन्दो तं रत्तावसेसं धम्मिया कथाय वीतिनामेसुं।

२२६. अथ खो आयस्मा अनुरुद्धो आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘गच्छावुसो आनन्द, कुसिनारं पविसित्वा कोसिनारकानं मल्लानं आरोचेहि – ‘परिनिब्बुतो, वासेट्ठा, भगवा, यस्सदानि कालं मञ्ञथा’’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो आयस्मतो अनुरुद्धस्स पटिस्सुत्वा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय अत्तदुतियो कुसिनारं पाविसि। तेन खो पन समयेन कोसिनारका मल्ला सन्धागारे सन्निपतिता होन्ति तेनेव करणीयेन। अथ खो आयस्मा आनन्दो येन कोसिनारकानं मल्लानं सन्धागारं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा कोसिनारकानं मल्लानं आरोचेसि – ‘परिनिब्बुतो, वासेट्ठा, भगवा, यस्सदानि कालं मञ्ञथा’ति। इदमायस्मतो आनन्दस्स वचनं सुत्वा मल्ला च मल्लपुत्ता च मल्लसुणिसा च मल्लपजापतियो च अघाविनो दुम्मना चेतोदुक्खसमप्पिता अप्पेकच्चे केसे पकिरिय कन्दन्ति, बाहा पग्गय्ह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति, विवट्टन्ति – ‘‘अतिखिप्पं भगवा परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं चक्खुं लोके अन्तरहितो’’ति।

बुद्धसरीरपूजा

२२७. अथ खो कोसिनारका मल्ला पुरिसे आणापेसुं – ‘‘तेन हि, भणे, कुसिनारायं गन्धमालञ्च सब्बञ्च ताळावचरं सन्निपातेथा’’ति। अथ खो कोसिनारका मल्ला गन्धमालञ्च सब्बञ्च ताळावचरं पञ्च च दुस्सयुगसतानि आदाय येन उपवत्तनं मल्लानं सालवनं, येन भगवतो सरीरं तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवतो सरीरं नच्चेहि गीतेहि वादितेहि मालेहि गन्धेहि सक्करोन्ता गरुं करोन्ता मानेन्ता पूजेन्ता चेलवितानानि करोन्ता मण्डलमाळे पटियादेन्ता एकदिवसं वीतिनामेसुं।

अथ खो कोसिनारकानं मल्लानं एतदहोसि – ‘‘अतिविकालो खो अज्ज भगवतो सरीरं झापेतुं, स्वे दानि मयं भगवतो सरीरं झापेस्सामा’’ति। अथ खो कोसिनारका मल्ला भगवतो सरीरं नच्चेहि गीतेहि वादितेहि मालेहि गन्धेहि सक्करोन्ता गरुं करोन्ता मानेन्ता पूजेन्ता चेलवितानानि करोन्ता मण्डलमाळे पटियादेन्ता दुतियम्पि दिवसं वीतिनामेसुं, ततियम्पि दिवसं वीतिनामेसुं, चतुत्थम्पि दिवसं वीतिनामेसुं, पञ्चमम्पि दिवसं वीतिनामेसुं, छट्ठम्पि दिवसं वीतिनामेसुं।

अथ खो सत्तमं दिवसं कोसिनारकानं मल्लानं एतदहोसि – ‘‘मयं भगवतो सरीरं नच्चेहि गीतेहि वादितेहि मालेहि गन्धेहि सक्करोन्ता गरुं करोन्ता मानेन्ता पूजेन्ता दक्खिणेन दक्खिणं नगरस्स हरित्वा बाहिरेन बाहिरं दक्खिणतो नगरस्स भगवतो सरीरं झापेस्सामा’’ति।

२२८. तेन खो पन समयेन अट्ठ मल्लपामोक्खा सीसंन्हाता अहतानि वत्थानि निवत्था ‘‘मयं भगवतो सरीरं उच्चारेस्सामा’’ति न सक्कोन्ति उच्चारेतुं। अथ खो कोसिनारका मल्ला आयस्मन्तं अनुरुद्धं एतदवोचुं – ‘‘को नु खो, भन्ते अनुरुद्ध, हेतु को पच्चयो, येनिमे अट्ठ मल्लपामोक्खा सीसंन्हाता अहतानि वत्थानि निवत्था ‘मयं भगवतो सरीरं उच्चारेस्सामा’ति न सक्कोन्ति उच्चारेतु’’न्ति? ‘‘अञ्ञथा खो, वासेट्ठा, तुम्हाकं अधिप्पायो, अञ्ञथा देवतानं अधिप्पायो’’ति। ‘‘कथं पन, भन्ते, देवतानं अधिप्पायो’’ति? ‘‘तुम्हाकं खो, वासेट्ठा, अधिप्पायो – ‘मयं भगवतो सरीरं नच्चेहि गीतेहि वादितेहि मालेहि गन्धेहि सक्करोन्ता गरुं करोन्ता मानेन्ता पूजेन्ता दक्खिणेन दक्खिणं नगरस्स हरित्वा बाहिरेन बाहिरं दक्खिणतो नगरस्स भगवतो सरीरं झापेस्सामा’ति; देवतानं खो, वासेट्ठा, अधिप्पायो – ‘मयं भगवतो सरीरं दिब्बेहि नच्चेहि गीतेहि वादितेहि गन्धेहि सक्करोन्ता गरुं करोन्ता मानेन्ता पूजेन्ता उत्तरेन उत्तरं नगरस्स हरित्वा उत्तरेन द्वारेन नगरं पवेसेत्वा मज्झेन मज्झं नगरस्स हरित्वा पुरत्थिमेन द्वारेन निक्खमित्वा पुरत्थिमतो नगरस्स मकुटबन्धनं नाम मल्लानं चेतियं एत्थ भगवतो सरीरं झापेस्सामा’ति। ‘‘यथा, भन्ते, देवतानं अधिप्पायो, तथा होतू’’ति।

२२९. तेन खो पन समयेन कुसिनारा याव सन्धिसमलसंकटीरा जण्णुमत्तेन ओधिना मन्दारवपुप्फेहि सन्थता [सण्ठिता (स्या॰)] होति। अथ खो देवता च कोसिनारका च मल्ला भगवतो सरीरं दिब्बेहि च मानुसकेहि च नच्चेहि गीतेहि वादितेहि मालेहि गन्धेहि सक्करोन्ता गरुं करोन्ता मानेन्ता पूजेन्ता उत्तरेन उत्तरं नगरस्स हरित्वा उत्तरेन द्वारेन नगरं पवेसेत्वा मज्झेन मज्झं नगरस्स हरित्वा पुरत्थिमेन द्वारेन निक्खमित्वा पुरत्थिमतो नगरस्स मकुटबन्धनं नाम मल्लानं चेतियं एत्थ च भगवतो सरीरं निक्खिपिंसु।

२३०. अथ खो कोसिनारका मल्ला आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोचुं – ‘‘कथं मयं, भन्ते आनन्द, तथागतस्स सरीरे पटिपज्जामा’’ति? ‘‘यथा खो, वासेट्ठा, रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ति, एवं तथागतस्स सरीरे पटिपज्जितब्ब’’न्ति। ‘‘कथं पन, भन्ते आनन्द, रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ती’’ति? ‘‘रञ्ञो, वासेट्ठा, चक्कवत्तिस्स सरीरं अहतेन वत्थेन वेठेन्ति, अहतेन वत्थेन वेठेत्वा विहतेन कप्पासेन वेठेन्ति, विहतेन कप्पासेन वेठेत्वा अहतेन वत्थेन वेठेन्ति। एतेन उपायेन पञ्चहि युगसतेहि रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरं वेठेत्वा आयसाय तेलदोणिया पक्खिपित्वा अञ्ञिस्सा आयसाय दोणिया पटिकुज्जित्वा सब्बगन्धानं चितकं करित्वा रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरं झापेन्ति। चातुमहापथे रञ्ञो चक्कवत्तिस्स थूपं करोन्ति। एवं खो, वासेट्ठा, रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ति। यथा खो, वासेट्ठा, रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ति, एवं तथागतस्स सरीरे पटिपज्जितब्बं। चातुमहापथे तथागतस्स थूपो कातब्बो। तत्थ ये मालं वा गन्धं वा चुण्णकं वा आरोपेस्सन्ति वा अभिवादेस्सन्ति वा चित्तं वा पसादेस्सन्ति, तेसं तं भविस्सति दीघरत्तं हिताय सुखाया’’ति। अथ खो कोसिनारका मल्ला पुरिसे आणापेसुं – ‘‘तेन हि, भणे, मल्लानं विहतं कप्पासं सन्निपातेथा’’ति।

अथ खो कोसिनारका मल्ला भगवतो सरीरं अहतेन वत्थेन वेठेत्वा विहतेन कप्पासेन वेठेसुं, विहतेन कप्पासेन वेठेत्वा अहतेन वत्थेन वेठेसुं। एतेन उपायेन पञ्चहि युगसतेहि भगवतो सरीरं वेठेत्वा आयसाय तेलदोणिया पक्खिपित्वा अञ्ञिस्सा आयसाय दोणिया पटिकुज्जित्वा सब्बगन्धानं चितकं करित्वा भगवतो सरीरं चितकं आरोपेसुं।

महाकस्सपत्थेरवत्थु

२३१. तेन खो पन समयेन आयस्मा महाकस्सपो पावाय कुसिनारं अद्धानमग्गप्पटिप्पन्नो होति महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि। अथ खो आयस्मा महाकस्सपो मग्गा ओक्कम्म अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले निसीदि। तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो आजीवको कुसिनाराय मन्दारवपुप्फं गहेत्वा पावं अद्धानमग्गप्पटिप्पन्नो होति। अद्दसा खो आयस्मा महाकस्सपो तं आजीवकं दूरतोव आगच्छन्तं, दिस्वा तं आजीवकं एतदवोच – ‘‘अपावुसो, अम्हाकं सत्थारं जानासी’’ति? ‘‘आमावुसो, जानामि, अज्ज सत्ताहपरिनिब्बुतो समणो गोतमो। ततो मे इदं मन्दारवपुप्फं गहित’’न्ति। तत्थ ये ते भिक्खू अवीतरागा अप्पेकच्चे बाहा पग्गय्ह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति, विवट्टन्ति – ‘‘अतिखिप्पं भगवा परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं चक्खुं लोके अन्तरहितो’’ति। ये पन ते भिक्खू वीतरागा, ते सता सम्पजाना अधिवासेन्ति – ‘‘अनिच्चा सङ्खारा, तं कुतेत्थ लब्भा’’ति।

२३२. तेन खो पन समयेन सुभद्दो नाम वुद्धपब्बजितो तस्सं परिसायं निसिन्नो होति। अथ खो सुभद्दो वुद्धपब्बजितो ते भिक्खू एतदवोच – ‘‘अलं, आवुसो, मा सोचित्थ, मा परिदेवित्थ, सुमुत्ता मयं तेन महासमणेन। उपद्दुता च होम – ‘इदं वो कप्पति, इदं वो न कप्पती’ति। इदानि पन मयं यं इच्छिस्साम, तं करिस्साम, यं न इच्छिस्साम, न तं करिस्सामा’’ति। अथ खो आयस्मा महाकस्सपो भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘अलं, आवुसो, मा सोचित्थ, मा परिदेवित्थ। ननु एतं, आवुसो, भगवता पटिकच्चेव अक्खातं – ‘सब्बेहेव पियेहि मनापेहि नानाभावो विनाभावो अञ्ञथाभावो’। तं कुतेत्थ, आवुसो, लब्भा। ‘यं तं जातं भूतं सङ्खतं पलोकधम्मं, तं तथागतस्सापि सरीरं मा पलुज्जी’ति, नेतं ठानं विज्जती’’ति।

२३३. तेन खो पन समयेन चत्तारो मल्लपामोक्खा सीसंन्हाता अहतानि वत्थानि निवत्था – ‘‘मयं भगवतो चितकं आळिम्पेस्सामा’’ति न सक्कोन्ति आळिम्पेतुं। अथ खो कोसिनारका मल्ला आयस्मन्तं अनुरुद्धं एतदवोचुं – ‘‘को नु खो, भन्ते अनुरुद्ध, हेतु को पच्चयो, येनिमे चत्तारो मल्लपामोक्खा सीसंन्हाता अहतानि वत्थानि निवत्था – ‘मयं भगवतो चितकं आळिम्पेस्सामा’ति न सक्कोन्ति आळिम्पेतु’’न्ति? ‘‘अञ्ञथा खो, वासेट्ठा, देवतानं अधिप्पायो’’ति। ‘‘कथं पन, भन्ते, देवतानं अधिप्पायो’’ति? ‘‘देवतानं खो, वासेट्ठा, अधिप्पायो – ‘अयं आयस्मा महाकस्सपो पावाय कुसिनारं अद्धानमग्गप्पटिप्पन्नो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि। न ताव भगवतो चितको पज्जलिस्सति, यावायस्मा महाकस्सपो भगवतो पादे सिरसा न वन्दिस्सती’’’ति। ‘‘यथा, भन्ते, देवतानं अधिप्पायो, तथा होतू’’ति।

२३४. अथ खो आयस्मा महाकस्सपो येन कुसिनारा मकुटबन्धनं नाम मल्लानं चेतियं, येन भगवतो चितको तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा एकंसं चीवरं कत्वा अञ्जलिं पणामेत्वा तिक्खत्तुं चितकं पदक्खिणं कत्वा भगवतो पादे सिरसा वन्दि। तानिपि खो पञ्चभिक्खुसतानि एकंसं चीवरं कत्वा अञ्जलिं पणामेत्वा तिक्खत्तुं चितकं पदक्खिणं कत्वा भगवतो पादे सिरसा वन्दिंसु। वन्दिते च पनायस्मता महाकस्सपेन तेहि च पञ्चहि भिक्खुसतेहि सयमेव भगवतो चितको पज्जलि।

२३५. झायमानस्स खो पन भगवतो सरीरस्स यं अहोसि छवीति वा चम्मन्ति वा मंसन्ति वा न्हारूति वा लसिकाति वा, तस्स नेव छारिका पञ्ञायित्थ, न मसि; सरीरानेव अवसिस्सिंसु। सेय्यथापि नाम सप्पिस्स वा तेलस्स वा झायमानस्स नेव छारिका पञ्ञायति, न मसि; एवमेव भगवतो सरीरस्स झायमानस्स यं अहोसि छवीति वा चम्मन्ति वा मंसन्ति वा न्हारूति वा लसिकाति वा, तस्स नेव छारिका पञ्ञायित्थ, न मसि; सरीरानेव अवसिस्सिंसु। तेसञ्च पञ्चन्नं दुस्सयुगसतानं द्वेव दुस्सानि न डय्हिंसु यञ्च सब्बअब्भन्तरिमं यञ्च बाहिरं। दड्ढे च खो पन भगवतो सरीरे अन्तलिक्खा उदकधारा पातुभवित्वा भगवतो चितकं निब्बापेसि। उदकसालतोपि [उदकं सालतोपि (सी॰ स्या॰ कं॰)] अब्भुन्नमित्वा भगवतो चितकं निब्बापेसि। कोसिनारकापि मल्ला सब्बगन्धोदकेन भगवतो चितकं निब्बापेसुं। अथ खो कोसिनारका मल्ला भगवतो सरीरानि सत्ताहं सन्धागारे सत्तिपञ्जरं करित्वा धनुपाकारं परिक्खिपापेत्वा [परिक्खिपित्वा (स्या॰)] नच्चेहि गीतेहि वादितेहि मालेहि गन्धेहि सक्करिंसु गरुं करिंसु मानेसुं पूजेसुं।

सरीरधातुविभाजनं

२३६. अस्सोसि खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो – ‘‘भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो’’ति। अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसि – ‘‘भगवापि खत्तियो अहम्पि खत्तियो, अहम्पि अरहामि भगवतो सरीरानं भागं, अहम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामी’’ति।

अस्सोसुं खो वेसालिका लिच्छवी – ‘‘भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो’’ति। अथ खो वेसालिका लिच्छवी कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसुं – ‘‘भगवापि खत्तियो मयम्पि खत्तिया, मयम्पि अरहाम भगवतो सरीरानं भागं, मयम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामा’’ति।

अस्सोसुं खो कपिलवत्थुवासी सक्या – ‘‘भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो’’ति। अथ खो कपिलवत्थुवासी सक्या कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसुं – ‘‘भगवा अम्हाकं ञातिसेट्ठो, मयम्पि अरहाम भगवतो सरीरानं भागं, मयम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामा’’ति।

अस्सोसुं खो अल्लकप्पका बुलयो [थूलयो (स्या॰)] – ‘‘भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो’’ति। अथ खो अल्लकप्पका बुलयो कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसुं – ‘‘भगवापि खत्तियो मयम्पि खत्तिया, मयम्पि अरहाम भगवतो सरीरानं भागं, मयम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामा’’ति।

अस्सोसुं खो रामगामका कोळिया – ‘‘भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो’’ति। अथ खो रामगामका कोळिया कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसुं – ‘‘भगवापि खत्तियो मयम्पि खत्तिया, मयम्पि अरहाम भगवतो सरीरानं भागं, मयम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामा’’ति।

अस्सोसि खो वेट्ठदीपको ब्राह्मणो – ‘‘भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो’’ति। अथ खो वेट्ठदीपको ब्राह्मणो कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसि – ‘‘भगवापि खत्तियो अहं पिस्मि ब्राह्मणो, अहम्पि अरहामि भगवतो सरीरानं भागं, अहम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामी’’ति।

अस्सोसुं खो पावेय्यका मल्ला – ‘‘भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो’’ति। अथ खो पावेय्यका मल्ला कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसुं – ‘‘भगवापि खत्तियो मयम्पि खत्तिया, मयम्पि अरहाम भगवतो सरीरानं भागं, मयम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामा’’ति।

एवं वुत्ते कोसिनारका मल्ला ते सङ्घे गणे एतदवोचुं – ‘‘भगवा अम्हाकं गामक्खेत्ते परिनिब्बुतो, न मयं दस्साम भगवतो सरीरानं भाग’’न्ति।

२३७. एवं वुत्ते दोणो ब्राह्मणो ते सङ्घे गणे एतदवोच –

‘‘सुणन्तु भोन्तो मम एकवाचं,

अम्हाक [छन्दानुरक्खणत्थं निग्गहीतलोपो]। बुद्धो अहु खन्तिवादो।

न हि साधु यं उत्तमपुग्गलस्स,

सरीरभागे सिया सम्पहारो॥

सब्बेव भोन्तो सहिता समग्गा,

सम्मोदमाना करोमट्ठभागे।

वित्थारिका होन्तु दिसासु थूपा,

बहू जना चक्खुमतो पसन्ना’’ति॥

२३८. ‘‘तेन हि, ब्राह्मण, त्वञ्ञेव भगवतो सरीरानि अट्ठधा समं सविभत्तं विभजाही’’ति। ‘‘एवं, भो’’ति खो दोणो ब्राह्मणो तेसं सङ्घानं गणानं पटिस्सुत्वा भगवतो सरीरानि अट्ठधा समं सुविभत्तं विभजित्वा ते सङ्घे गणे एतदवोच – ‘‘इमं मे भोन्तो तुम्बं ददन्तु अहम्पि तुम्बस्स थूपञ्च महञ्च करिस्सामी’’ति। अदंसु खो ते दोणस्स ब्राह्मणस्स तुम्बं।

अस्सोसुं खो पिप्पलिवनिया [पिप्फलिवनिया (स्या॰)] मोरिया – ‘‘भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो’’ति। अथ खो पिप्पलिवनिया मोरिया कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसुं – ‘‘भगवापि खत्तियो मयम्पि खत्तिया, मयम्पि अरहाम भगवतो सरीरानं भागं, मयम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामा’’ति। ‘‘नत्थि भगवतो सरीरानं भागो, विभत्तानि भगवतो सरीरानि। इतो अङ्गारं हरथा’’ति। ते ततो अङ्गारं हरिंसु [आहरिंसु (स्या॰ क॰)]।

धातुथूपपूजा

२३९. अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो राजगहे भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकासि। वेसालिकापि लिच्छवी वेसालियं भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकंसु। कपिलवत्थुवासीपि सक्या कपिलवत्थुस्मिं भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकंसु। अल्लकप्पकापि बुलयो अल्लकप्पे भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकंसु। रामगामकापि कोळिया रामगामे भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकंसु। वेट्ठदीपकोपि ब्राह्मणो वेट्ठदीपे भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकासि। पावेय्यकापि मल्ला पावायं भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकंसु। कोसिनारकापि मल्ला कुसिनारायं भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकंसु। दोणोपि ब्राह्मणो तुम्बस्स थूपञ्च महञ्च अकासि। पिप्पलिवनियापि मोरिया पिप्पलिवने अङ्गारानं थूपञ्च महञ्च अकंसु। इति अट्ठ सरीरथूपा नवमो तुम्बथूपो दसमो अङ्गारथूपो। एवमेतं भूतपुब्बन्ति।

२४०. अट्ठदोणं चक्खुमतो सरीरं, सत्तदोणं जम्बुदीपे महेन्ति।

एकञ्च दोणं पुरिसवरुत्तमस्स, रामगामे नागराजा महेति॥

एकाहि दाठा तिदिवेहि पूजिता, एका पन गन्धारपुरे महीयति।

कालिङ्गरञ्ञो विजिते पुनेकं, एकं पन नागराजा महेति॥

तस्सेव तेजेन अयं वसुन्धरा,

आयागसेट्ठेहि मही अलङ्कता।

एवं इमं चक्खुमतो सरीरं,

सुसक्कतं सक्कतसक्कतेहि॥

देविन्दनागिन्दनरिन्दपूजितो,

मनुस्सिन्दसेट्ठेहि तथेव पूजितो।

तं वन्दथ [तं तं वन्दथ (स्या॰)] पञ्जलिका लभित्वा,

बुद्धो हवे कप्पसतेहि दुल्लभोति॥

चत्तालीस समा दन्ता, केसा लोमा च सब्बसो।

देवा हरिंसु एकेकं, चक्कवाळपरम्पराति॥

महापरिनिब्बानसुत्तं निट्ठितं ततियं।