नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

महास्कन्धक

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१. बोधि-कथा

उस समय बुद्ध भगवान उरूवेला में नेरञ्जरा नदी के किनारे बोधिवृक्ष के नीचे, बस अभी बुद्धत्व प्राप्त किए थे। वहाँ भगवान उस बोधिवृक्ष के नीचे एक सप्ताह तक एक आसन से बैठकर विमुक्ति सुख का निरंतर अनुभव करते रहे। तब भगवान ने रात के प्रथम पहर 1 में प्रतित्य-समुत्पाद (=आधारपूर्ण सहउत्पत्ति) का सीधे और उल्टे क्रम में मनन किया —

“अविद्या के कारण रचना होती है, रचना के कारण चैतन्य होता है, चैतन्य के कारण नाम-रूप होता है, नाम-रूप के कारण छह आयाम होते हैं, छह आयाम के कारण संस्पर्श होता है, संस्पर्श के कारण संवेदना होती है, संवेदना के कारण तृष्णा होती है, तृष्णा के कारण आसक्ति होती है, आसक्ति के कारण उत्पत्ति होती है, उत्पत्ति के कारण जन्म होता है, जन्म के कारण बूढ़ापा, मौत, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा उत्पन्न होते हैं। इस तरह, इस दु:खों की गठरी की उत्पत्ति होती है।

उस अविद्या के पूर्णतः अशेष विराग (=मिटाने) और निरोध होने से रचना का निरोध होता है। रचना के रुकने से चैतन्य का निरोध होता है, चैतन्य के रुकने से नाम-रूप का निरोध होता है, नाम-रूप के रुकने से छह आयाम का निरोध होता है, छह आयाम के रुकने से संस्पर्श का निरोध होता है, संस्पर्श के रुकने से संवेदना का निरोध होता है, संवेदना के रुकने से तृष्णा का निरोध होता है, तृष्णा के रुकने से आसक्ति का निरोध होता है, आसक्ति के रुकने से उत्पत्ति का निरोध होता है, उत्पत्ति के रुकने से जन्म का निरोध होता है, जन्म के रुकने से बूढ़ापा, मौत, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, और निराशा का खात्मा होता है। इस तरह, इस दु:खों की गठरी का निरोध होता है।"

तब, भगवान ने इसका गहरा अर्थ जान कर यह (उदान) बोल पड़े —

“जब धर्म प्रकट होते हैं,
उस तत्पर, ध्यानी ब्राह्मण को।
तब उसकी सारी शंकाएँ दूर होती है,
उस कारणपूर्ण धर्म को जान-समझकर।”

तब, भगवान ने रात के मध्यम-पहर में प्रतित्य-समुत्पाद का सीधे और उल्टे क्रम में पुनः मनन किया —

“अविद्या के कारण रचना होती है, रचना के कारण चैतन्य होता है, चैतन्य के कारण नाम-रूप होता है… इस तरह, इस दु:खों की गठरी की उत्पत्ति होती है। उस अविद्या के पूर्णतः अशेष विराग और निरोध होने से रचना का निरोध होता है। रचना के रुकने से चैतन्य का निरोध होता है, चैतन्य के रुकने से नाम-रूप का निरोध होता है… इस तरह, इस दु:खों की गठरी का निरोध होता है।"

तब, भगवान ने इसका गहरा अर्थ जान कर यह बोल पड़े —

“जब धर्म प्रकट होते हैं,
उस तत्पर, ध्यानी ब्राह्मण को।
तब उसकी सारी शंकाएँ दूर होती है,
कारण का खत्म होना जान-समझकर।”

तब, भगवान ने रात के अंतिम-पहर में प्रतित्य-समुत्पाद का सीधे और उल्टे क्रम में पुनः मनन किया —

“अविद्या के कारण रचना होती है, रचना के कारण चैतन्य होता है, चैतन्य के कारण नाम-रूप होता है… इस तरह, इस दु:खों की गठरी की उत्पत्ति होती है। उस अविद्या के पूर्णतः अशेष विराग और निरोध होने से रचना का निरोध होता है। रचना के रुकने से चैतन्य का निरोध होता है, चैतन्य के रुकने से नाम-रूप का निरोध होता है… इस तरह, इस दु:खों की गठरी का निरोध होता है।"

तब, भगवान ने इसका गहरा अर्थ जान कर यह बोल पड़े —

“जब धर्म प्रकट होते हैं,
उस तत्पर, ध्यानी ब्राह्मण को।
वह मार सेना को उखाड़ फेकता है,
जैसे सूरज आकाश को उज्ज्वलित करता है।”

बोधिकथा समाप्त।

२. अजपाल कथा

एक सप्ताह बीतने पर, भगवान उस समाधि से उठकर, बोधिवृक्ष के नीचे से ‘अजपाल’ नामक बरगद वृक्ष के नीचे गए। वहाँ जाकर, वे अजपाल बरगद के तले एक सप्ताह तक एक आसन से बैठकर विमुक्ति सुख का निरंतर अनुभव करते रहे।

तब, उस समय कोई अहंकारी ब्राह्मण भगवान के पास गया , और जाकर मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर एक-ओर खड़ा हुआ। एक-ओर खड़े होकर, उस ब्राह्मण ने भगवान से कहा, “हे गौतम ! कोई कैसे ब्राह्मण होता है ? ब्राह्मण बनाने वाले स्वभाव कौन-से हैं?”

तब, भगवान ने इसका गहरा अर्थ जान कर यह बोल पड़े —

“जो ब्राह्मण, पापधर्म से दूर रहे,
जो विनम्र हो, मल से मुक्त, आत्म-संयत रहे,
अंतिम-ज्ञान को जानकर, ब्रह्मचर्य समाप्त करे,
वो धर्मपूर्वक स्वयं को 'ब्राह्मण' कहे।
जिसे इस लोक का कोई अहंकार न हो।”

अजपालकथा समाप्त।

३. मुचलिन्द कथा

एक सप्ताह बीतने पर, भगवान उस समाधि से उठकर, ‘अजपाल’ बरगद के नीचे से मुचलिन्द वृक्ष के नीचे गए। वहाँ जाकर, वे मुचलिन्द के तले एक सप्ताह तक एक आसन से बैठकर विमुक्ति सुख का निरंतर अनुभव करते रहे।

तब उस समय, बेमौसम महामेघ घिर आया, और एक सप्ताह तक शीतल पवन और बादलों के साथ बारिश होती रही।

तब, नागराज मुचलिन्द (वृक्षदेव?) अपने निवास से निकल कर भगवान के शरीर को अपनी सर्पकाया से सात बार लपेट कर, सिर पर विशाल फ़न तान कर खड़ा हुआ, ताकि “भगवान को ठंडी, गर्मी, मक्खी, मच्छर, पवन, धूप, और रेंगने वाले जीव-जन्तु न छु पाए।”

एक सप्ताह बीतने पर, जब नागराज मुचलिन्द को लगा कि देवताओं ने वर्षा रोक दी, तब उसने भगवान के शरीर से अपनी सर्पकाया की लपेट को खोल कर, स्वयं को एक युवा-ब्राह्मण के रूप में प्रकट कर, भगवान को हाथ जोड़कर नमन किया।

तब, भगवान ने इसका गहरा अर्थ जान कर यह बोल पड़े —

“तुष्ट के लिए निर्लिप्त-एकांतवास सुखद है,
जो सुने हुए धर्म को देखता हो।
दुनिया के प्रति दुर्भावना न होना सुखद है,
जो प्राणियों के प्रति संयमित हो।
दुनिया के प्रति वैराग्य सुखद है,
जिसने कामुकता को लाँघ दिया हो।
किन्तु जो 'मैं हूँ' अहंभाव को दूर करता है,
वह, वाकई, परम सुखद हो!”

मुचलिन्दकथा समाप्त।

४. राजायतन कथा

एक सप्ताह बीतने पर, भगवान उस समाधि से उठकर, मुचलिन्द के नीचे से राजायतन वृक्ष के नीचे गए। वहाँ जाकर, वे राजायतन के तले एक सप्ताह तक एक आसन से बैठकर विमुक्ति सुख का निरंतर अनुभव करते रहे।

तब उस समय, तपुस्स (=तपस्सु) और भल्लिक नामक दो व्यापारी, उक्कला (देश) से मार्ग पर चलते हुए, वहाँ उस स्थान पर पहुँचे। तब उस तपुस्स और भल्लिक के एक रिश्तेदार देवता ने उनसे कहा, “हे श्रीमानों! भगवान को अभी संबोधि प्राप्त हुई है, और वे राजायतन के तले रह रहे है। उन भगवान के पास जाओ, और उन्हें अपना ‘चीवड़ा और लड्डू’ अर्पण करों! ऐसा करना तुम्हारे दीर्घकाल के लिए हितकारक और सुखदायी होगा !"

तब तपुस्स और भल्लिक व्यापारी, अपना चीवड़ा और लड्डू लेकर, भगवान के पास गए। और भगवान को अभिवादन कर एक-ओर खड़े हुए। एक-ओर खड़े होकर उस तपुस्स और भल्लिक व्यापारियों ने भगवान से कहा,

“भन्ते! भगवान हमारे चीवड़ा और लड्डू ग्रहण करें! ताकि यह हमारे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखदायी हो!"

भगवान को लगा, “तथागत कभी (भिक्षा को) सीधे हाथ में ग्रहण नहीं करते हैं। तब मैं इस चीवड़े और लड्डू को कहाँ ग्रहण करूँ?”

तब, चारों महाराज देवताओं ने भगवान के चित्त की बात जान ली। और वे चारों दिशाओं से चार पत्थर के भिक्षापात्र लेकर भगवान के पास गए, “भन्ते! भगवान इस में चीवड़ा और लड्डू ग्रहण करें!”

तब भगवान ने उनमें से एक पत्थर के पात्र में चीवड़ा और लड्डू को ग्रहण कर उसका भोज किया। तपुस्स और भल्लिक व्यापारी ने जान लिया कि भगवान ने उनका दिया भोज खा लिया है, तब उन्होने भगवान से कहा, “भन्ते! हम दोनों भगवान की शरण जाते हैं, और धर्म की भी। भगवान हमें आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”

वे ही इस दुनिया के द्विशरण वचन से बने सर्वप्रथम उपासक थे।

राजायतनकथा समाप्त।

५. ब्रह्मयाचन कथा

एक सप्ताह बीतने पर, भगवान उस समाधि से उठकर, राजायतन के नीचे से पुनः अजपाल बरगद के नीचे गए। और भगवान उस अजपाल बरगद के नीचे रहने लगे। तब एकान्तवास की तल्लीन अवस्था में भगवान के चित्त में यह विचार उत्पन्न हुआ —

“मैंने ऐसे धर्म को प्राप्त किया है, जो गहरा, दुर्दर्शी (=मुश्किल से दिखने वाला), दुर्ज्ञेय (=मुश्किल से पता चलने वाला), शांतिमय, सर्वोत्तम, तर्क-वितर्क से प्राप्त न होने वाला, निपुण और ज्ञानियों द्वारा अनुभव करने योग्य है। किन्तु, यह जनता आसक्तियों में रमती है, आसक्तियों में रत रहती है, और आसक्तियों में ही प्रसन्न होती है। और ऐसी जनता, जो आसक्तियों में रमती हो, आसक्तियों में रत रहती हो, और आसक्तियों में ही प्रसन्न होती हो, उनके लिए यह इद-पच्चयता (=कार्य-कारण भाव) और प्रतित्य-समुत्पाद अत्यंत दुर्दर्शी होगा। और उनके लिए यह भी बहुत दुर्दर्शी होगा — सभी रचनाओं का रुक जाना, सभी अर्जित वस्तुओं का त्याग, तृष्णा का अन्त, विराग, निरोध, निर्वाण! यदि मैं उन्हें ऐसा धर्म दूँ, जो उन्हें समझ में न आएँ, तो वह मेरे लिए थकाऊ और परेशानी से भरा होगा।”

और तब अचानक, भगवान को पहले कभी न सुनी गयी गाथाएँ सूझ पड़ी —

“जिस धर्म को पा लिया मैंने,
उसे प्रकाशित करने का अर्थ नहीं होगा।
राग-द्वेष में पड़े हुओं को,
यह धर्म का बोध नहीं होगा।
उल्टी धारा में तैरने की निपुणता,
जो गहरी, दुर्दर्शी, और सूक्ष्म है,
नहीं दिखेगा उन्हें, जो राग में रत रहते हो,
और घोर अंधकार से घिरे हुओं हो।"

जब भगवान ने इस तरह सोच-विचार किया, तो भगवान का चित्त अल्प उत्सुकता (=उदासीन और निष्क्रिय भाव) और धर्म न सिखाने की ओर झुक गया। और तब, सहम्पति ब्रह्मा ने भगवान के चित्त में चल रहे तर्क-वितर्क को जान लिया। उसे लगा, “नाश हो गया इस लोक का! विनाश हो गया इस लोक का! जो तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का चित्त अल्प उत्सुकता और धर्म न सिखाने की ओर झुक गया।”

तब, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, सहम्पति ब्रह्मा ब्रह्मलोक से विलुप्त हुआ और भगवान के समक्ष प्रकट हुआ। उस सहम्पति ब्रह्मा ने बाहरी वस्त्र को एक कंधे पर कर, दाएँ घुटने को भूमि पर टिकाकर, हाथ जोड़कर भगवान से कहा —

“भंते, भगवान धर्म का उपदेश करें! सुगत धर्म का उपदेश करें! ऐसे सत्व हैं जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे!”

ब्रह्मा सहम्पति ने ऐसा कहा, और ऐसा कह कर उसने आगे कहा —

“मगध में पूर्व प्रकट हुआ,
अशुद्ध धर्म, दुष्टों द्वारा गढ़ा हुआ।
आप खोल दें, इस अमृत के द्वार को!
उन्हें सुनने दें, विमल बुद्ध के धर्म को!
जैसे खड़ा हो कोई, पर्वत शिखर पर,
दिखे उसे जनता, प्रत्येक दिशाओं की,
उसी तरह, धर्ममय, सुमेध,
महल पर चढ़ा, सर्वत्र चक्षुमान
शोक को लाँघा हुआ, वह जनता देखकर,
शोक में डूबी, जन्म, बुढ़ापे से अभिभूत!
उठें, हे वीर, संग्राम विजेता!
कारवाँ के मुखिया, लोक में ऋणमुक्त विचरते हुए,
दें उपदेश भगवान धर्म का!
ऐसे लोग हैं जो समझ जाएँगे!"

ऐसा कहे जाने के बाद, भगवान ने सहम्पति ब्रह्मा से कहा, “ब्रह्मा! मुझे लगा कि ‘मैंने ऐसे धर्म को प्राप्त किया है, जो गहरा, दुर्दर्शी, दुर्ज्ञेय, शांतिमय, सर्वोत्तम, तर्क-वितर्क से प्राप्त न होने वाला, निपुण और ज्ञानियों द्वारा अनुभव करने योग्य है। किन्तु, यह जनता आसक्तियों में रमती है, आसक्तियों में रत रहती है, और आसक्तियों में ही प्रसन्न होती है। और ऐसी जनता, जो आसक्तियों में रमती हो, आसक्तियों में रत रहती हो, और आसक्तियों में ही प्रसन्न होती हो, उनके लिए यह कार्य-कारणता और प्रतित्य-समुत्पाद अत्यंत दुर्दर्शी होगा। और उनके लिए यह भी बहुत दुर्दर्शी होगा — सभी रचनाओं का रुक जाना, सभी अर्जित वस्तुओं का त्याग, तृष्णा का अन्त, विराग, निरोध, निर्वाण! यदि मैं उन्हें ऐसा धर्म दूँ, जो उन्हें समझ में न आएँ, तो वह मेरे लिए थकाऊ और परेशानी से भरा होगा।"

और तब अचानक, मुझे पहले कभी न सुनी गयी गाथाएँ सूझ पड़ी —

“जिस धर्म को पा लिया मैंने,
उसे प्रकाशित करने का अर्थ नहीं होगा।
राग-द्वेष में पड़े हुओं को,
यह धर्म का बोध नहीं होगा।
उल्टी धारा में तैरने की निपुणता,
जो गहरी, दुर्दर्शी, और सूक्ष्म है,
नहीं दिखेगा उन्हें, जो राग में रत रहते हो,
और घोर अंधकार से घिरे हुओं हो।"

और, जब मैंने इस तरह सोच-विचार किया, तो मेरा चित्त उदासीनता और धर्म न सिखाने की ओर झुक गया।"

तब, ब्रह्मा सहम्पति ने भगवान से दुबारा याचना की —

“भंते, भगवान धर्म का उपदेश करें! सुगत धर्म का उपदेश करें! ऐसे सत्व हैं जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे!”

ब्रह्मा सहम्पति ने ऐसा कहा, और ऐसा कह कर उसने आगे कहा —

“मगध में पूर्व प्रकट हुआ,
अशुद्ध धर्म, दुष्टों द्वारा गढ़ा हुआ।
आप खोल दें, इस अमृत के द्वार को!
उन्हें सुनने दें, विमल बुद्ध के धर्म को!
जैसे खड़ा हो कोई, पर्वत शिखर पर,
दिखे उसे जनता, प्रत्येक दिशाओं की,
उसी तरह, धर्ममय, सुमेध,
महल पर चढ़ा, सर्वत्र चक्षुमान
शोक को लाँघा हुआ, वह जनता देखकर,
शोक में डूबी, जन्म, बुढ़ापे से अभिभूत!
उठें, हे वीर, संग्राम विजेता!
कारवाँ के मुखिया, लोक में ऋणमुक्त विचरते हुए,
दें उपदेश भगवान धर्म का!
ऐसे लोग हैं जो समझ जाएँगे!"

ऐसा कहे जाने के बाद, भगवान ने सहम्पति ब्रह्मा से कहा, “ब्रह्मा! मुझे लगा कि ‘मैंने ऐसे धर्म को प्राप्त किया है, जो गहरा, दुर्दर्शी… और, जब मैंने इस तरह सोच-विचार किया, तो मेरा चित्त उदासीनता और धर्म न सिखाने की ओर झुक गया।"

तब, ब्रह्मा सहम्पति ने भगवान से तीसरी बार याचना की —

“भंते, भगवान धर्म का उपदेश करें! सुगत धर्म का उपदेश करें! ऐसे सत्व हैं जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे!… "

तब भगवान ने उस ब्रह्मा की याचना को समझा। और, सत्वों के प्रति करुणा से, बुद्धचक्षु से ब्रह्मांड का अवलोकन किया। भगवान ने बुद्धचक्षु से ब्रह्मांड का अवलोकन करते हुए ऐसे सत्वों को देखा जिनकी आँखों में कम धूल थी, और जिनकी आँखों में अधिक धूल थी, जिनकी इंद्रियाँ तीक्ष्ण थी, और जिनकी इंद्रियाँ मन्द थी, भली वृत्ति के, और बुरी वृत्ति के, सरलता से सिखाएँ जाने वाले, और कठिनाई से सिखाएँ जाने वाले, परलोक में ख़तरा जानकर रहने वाले कुछ सत्व, और परलोक में कोई ख़तरा न जानकर रहने वाले कुछ सत्व।

जैसे किसी पुष्करणी [=कमलपुष्प के तालाब] में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो जल के भीतर जन्म लेते हैं, जल के भीतर बढ़ते हैं, जल के भीतर पनपते हैं, बिना जल से बाहर निकले। जबकि कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो जल के भीतर जन्म लेते हैं, जल के भीतर बढ़ते हैं, और ऊपर तक आकर जल की सतह को छू पाते हैं। जबकि कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो जल के भीतर जन्म लेते हैं, और जल के भीतर बढ़ते हुए सतह से ऊपर आकर, जल से अछूत रहते हैं।

उसी तरह, भगवान ने बुद्धचक्षु से ब्रह्मांड का अवलोकन करते हुए ऐसे सत्वों को देखा जिनकी आँखों में कम धूल थी, और जिनकी आँखों में अधिक धूल थी, जिनकी इंद्रियाँ तीक्ष्ण थी, और जिनकी इंद्रियाँ मन्द थी, भली वृत्ति के, और बुरी वृत्ति के, सरलता से सिखाएँ जाने वाले, और कठिनाई से सिखाएँ जाने वाले, परलोक में ख़तरा जानकर रहने वाले कुछ सत्व, और परलोक में कोई ख़तरा न जानकर रहने वाले कुछ सत्व।

ऐसा देखकर भगवान ने सहम्पति ब्रह्मा को गाथाओं में कहा —

“खुले हैं द्वार अमृत के!
जिन्हें कान हो, वे श्रद्धा प्रकट करें!
परेशानी देख, मैं चाहता न था, ब्रह्मा!
मानव को सद्गुणी उत्कृष्ट धर्म बताना।

तब ब्रह्मा सहम्पति को लगा, “भगवान ने मेरी याचना को स्वीकार लिया है।” तब उसने भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर, वही अन्तर्धान हो गया।

ब्रह्मयाचनकथा समाप्त।

६. पञ्चवग्गिय कथा

तब भगवान को लगा, “मैं पहले किसे धर्म का उपदेश करूँ? कौन है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा?”

तब भगवान को लगा, “यह आळार कालाम पण्डित है, अनुभवी है, मेधावी है, और दीर्घकाल से आँखों में कम धूल वाला है। मैं पहले उसे धर्म का उपदेश करता हूँ। वही है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा।”

तब एक अदृश्य देवता ने भगवान को सूचित किया, “भंते, आळार कालाम की मौत हुए एक सप्ताह बीत चुका है।” और भगवान को भी ज्ञान उत्पन्न हुआ, “आळार कालाम की मौत हुए एक सप्ताह बीत चुका है।” भगवान को लगा, “बड़ा नुकसान हुआ आळार कालाम का। यदि वह इस धर्म को सुनता, तो तुरंत समझ जाता।”

तब भगवान को पुनः लगा, “अब मैं पहले किसे धर्म का उपदेश करूँ? कौन है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा?" तब भगवान को लगा, “यह उद्दक रामपुत्त पण्डित है, अनुभवी है, मेधावी है, और दीर्घकाल से आँखों में कम धूल वाला है। मैं पहले उसे धर्म का उपदेश करता हूँ। वही है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा।”

तब एक अदृश्य देवता ने भगवान को फिर सूचित किया, “भंते, उद्दक रामपुत्त की मौत कल रात हुई।” और भगवान को भी ज्ञान उत्पन्न हुआ, “उद्दक रामपुत्त की मौत कल रात हुई।” भगवान को लगा, “बड़ा नुकसान हुआ उद्दक रामपुत्त का। यदि वह भी इस धर्म को सुनता, तो तुरंत समझ जाता।”

तब भगवान को पुनः लगा, “अब मैं पहले किसे धर्म का उपदेश करूँ? कौन है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा?" तब भगवान को लगा, “ये पञ्चवर्गीय भिक्षुगण बहुत उपयोगी थे, जब मैं कठोर तप कर रहा था। मैं उन पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को पहले धर्म का उपदेश करूँगा।” तब भगवान को लगा, “किन्तु इस समय पञ्चवर्गीय भिक्षुगण कहाँ रह रहे हैं?”

तब भगवान ने अपने मनुष्योत्तर दिव्यचक्षु से पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को वाराणसी में ऋषिपतन के मृगवन में रहते हुए देखा। तब, भगवान ने उरुवेला में इच्छानुसार जितना रुकना था, उतना रुके, और वाराणसी के भ्रमण पर निकल पड़े।

तब उपक आजीवक (=संन्यासी) ने भगवान को गया से बोधि उत्पन्न होने वाले स्थान (=बोधगया के बोधिवृक्ष) के मार्ग में यात्रा करते देखा। उसने भगवान को कहा, “तुम्हारे इंद्रिय प्रसन्न हैं, मित्र, और तुम्हारी त्वचा परिशुद्ध और तेजस्वी है। तुम किसे उद्देश्य कर प्रवज्जित हुए हो, मित्र? कौन हैं तुम्हारे शास्ता? तुम्हें किसके धर्म में रुचि है?”

ऐसा कहे जाने पर, भगवान ने उपक आजीवक को गाथाओं में कहा —

“सभी में, मैं अभिभू हूँ, सब कुछ का जानकार हूँ,
सभी धर्मों को त्याग कर, मैं न किसी से मलिन हूँ,
सर्वस्व का त्यागकर, तृष्णा मिटाकर विमुक्त हूँ,
स्वयं से प्राप्त प्रत्यक्ष-ज्ञान को किसे उद्देश्य करूँ?
मेरा कोई आचार्य नहीं, न मेरे जैसा कोई लगता है,
देवताओं से भरे ब्रह्मांड में मेरे समान कोई नहीं,
मैं इस लोक में अर्हंत हूँ, शास्ता मैं सर्वोपरि,
सम्यकसम्बुद्ध मैं एकमेव, शीतल हो निवृत्त हूँ!
इस अंधकारमय लोक में, धर्मचक्र प्रवर्तन करने
जा रहा हूँ मैं काशी में, अमृत का बिगुल बजाने!"

“तुम्हारे दावे से तो लगता है, मित्र, कि जैसे तुम कोई काबिल ‘अनन्त-विजेता’ हो!”

“वाकई विजेता, मुझ जैसे हो।
आस्रव का अन्त जो करते हैं।
सभी पापी धर्मों को हरा चुके हो।
इसलिए ही मैं विजेता हूँ!"

ऐसा कहे जाने पर, उपक आजीवक ने “ऐसा ही होगा, मित्र!” कहते हुए अपना सिर हिलाया, और उल्टे रास्ते से चला गया।

तब भगवान ने अनुक्रम से वाराणसी में ऋषिपतन के मृगवन की ओर भ्रमण करते हुए पञ्चवर्गीय भिक्षुओं के पास गए। पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान को दूर से आते हुए देखा। और, उन्हें देखते ही एक-दूसरे से सहमति बनायी —

“मित्रों, ये श्रमण गौतम आ रहा है — विलासी, तपस्या से भटका, विलासी जीवन में लौटा हुआ । हमें उसका न अभिवादन करना चाहिए, न उसके लिए खड़े होना चाहिए, न उसका पात्र और चीवर ही उठाना चाहिए। किन्तु, बैठने का आसन रख देना चाहिए। उसे बैठने की इच्छा हो तो बैठेगा।"

किन्तु, जैसे-जैसे भगवान पञ्चवर्गीय भिक्षुओं के पास आए, वैसे-वैसे पञ्चवर्गीय भिक्षुगण बनी आम-सहमति पर टिक नहीं पाएँ। एक ने आगे बढ़कर उनका पात्र और चीवर ग्रहण किया, एक ने आसन लगाया, एक ने पैर धोने का जल रखा, एक ने पैर रखने का पीठ रखा, और एक ने पैर रगड़ने का पत्थर रखा।

भगवान बिछे आसन पर बैठ गए और बैठकर अपने पैर धोएँ। हालाँकि, वे तब भी भगवान को नाम से और ‘मित्र’ कहकर पुकार रहे थे। ऐसा कहे जाने पर भगवान ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, तथागत को नाम से और ‘मित्र’ कहकर ना पुकारें। तथागत ‘अरहंत (=क़ाबिल) सम्यक-सम्बुद्ध’ है। सुनों, भिक्षुओं, अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है। मैं तुम्हें अनुशासित करूँगा और धर्म का उपदेश करूँगा। बताएँ अनुसार चलोगे तो इसी जीवन में जल्द ही ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर स्थित हो जाओगे, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं।”

ऐसा कहे जाने पर, पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान से कहा, “मित्र गौतम, जब तुम्हें इतनी दुष्कर तपस्या से कोई मनुष्योत्तर अवस्था, विशेष आर्य-ज्ञानदर्शन प्राप्त नहीं हुआ, तब विलासी होकर, तपस्या से भटक कर, विलासी जीवन में लौटने से, भला कैसे ये सब प्राप्त हो गया?”

ऐसा कहे जाने पर भगवान ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, तथागत न विलासी, न तपस्या से भटके, और न ही विलासी जीवन में लौटे है। बल्कि तथागत ‘अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है। सुनों, भिक्षुओं, अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है। मैं तुम्हें अनुशासित करूँगा और धर्म का उपदेश करूँगा। बताएँ अनुसार चलोगे तो इसी जीवन में जल्द ही ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर स्थित हो जाओगे, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं।”

तब पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने दूसरी बार भगवान से कहा, “किन्तु, मित्र गौतम, जब तुम्हें इतनी दुष्कर तपस्या से कोई मनुष्योत्तर अवस्था, विशेष आर्य-ज्ञानदर्शन प्राप्त नहीं हुआ, तब विलासी होकर, तपस्या से भटक कर, विलासी जीवन में लौटने से, भला कैसे ये सब प्राप्त हो गया?”

तब भगवान ने दूसरी बार पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, तथागत न विलासी, न तपस्या से भटके, और न ही विलासी जीवन में लौटे है। बल्कि तथागत ‘अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है। सुनों, भिक्षुओं, अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है…”

तब पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने तिसरी बार भगवान से कहा, “किन्तु, मित्र गौतम, जब तुम्हें इतनी दुष्कर तपस्या से कोई मनुष्योत्तर अवस्था, विशेष आर्य-ज्ञानदर्शन प्राप्त नहीं हुआ, तब विलासी होकर, तपस्या से भटक कर, विलासी जीवन में लौटने से, भला कैसे ये सब प्राप्त हो गया?”

तब भगवान ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, क्या तुमने मुझे ऐसा कहते हुए कभी सुना है?”

“नहीं, भंते!”

“तब सुनों, भिक्षुओं! तथागत ‘अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है। अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है। मैं तुम्हें अनुशासित करूँगा और धर्म का उपदेश करूँगा। बताएँ अनुसार चलोगे तो इसी जीवन में जल्द ही ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर स्थित हो जाओगे, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं।”

भगवान पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को समझाने में सफल हुए । तब पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान की बात को ठीक से सुना, कान दिया, और समझने के लिए मन लगाया।

तब भगवान ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को संबोधित किया —

“दो छोर हैं, भिक्षुओं, जिन्हें प्रवज्जित (=संन्यासी) ने ग्रहण नहीं करना चाहिए। कौन-से दो? ये कामुकता के मारे कामसुख से जुड़ने का जो हीन, देहाती, जन-साधारण, अनार्य, और अनर्थकारी छोर है। और, ये आत्मपीड़ा से जुड़ने का जो दुखदायी, अनार्य, और अनर्थकारी छोर है।

ये दोनों ही छोर टालकर, भिक्षुओं, तथागत ने मध्यम-मार्ग के द्वारा संबोधि प्राप्त की, जो चक्षु देता है, ज्ञान देता है, जो प्रशान्ति, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण की ओर बढ़ता है। और, ये मध्यम-मार्ग क्या है, जिसके द्वारा तथागत ने संबोधि प्राप्त की, जो चक्षु देता है, ज्ञान देता है, जो प्रशान्ति, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण की ओर बढ़ता है?

बस, यही आर्य अष्टांगिक मार्ग। अर्थात, सम्यक-दृष्टि, सम्यक-संकल्प, सम्यक-वचन, सम्यक-कार्य, सम्यक-जीविका, सम्यक-व्यायाम, सम्यक-स्मृति, और सम्यक-समाधि। ये ही मध्यम-मार्ग है, जिसके द्वारा तथागत ने संबोधि प्राप्त की, जो चक्षु देता है, ज्ञान देता है, जो प्रशान्ति, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण की ओर बढ़ता है।

और, भिक्षुओं, यह दुःख आर्यसत्य है। जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, बीमारी दुःख है, मौत दुःख है। अप्रिय से जुड़ाव दुःख है, प्रिय से अलगाव दुःख है। इच्छापूर्ति न होना दुःख है। संक्षिप्त में, पाँच उपादानस्कंध (=आसक्ति संग्रह) दुःख हैं।

और, भिक्षुओं, यह दुःख की उत्पत्ति आर्यसत्य है — यह तृष्णा, जो पुनः पुनः बनाती है, मज़ा और दिलचस्पी के साथ आती है, यहाँ-वहाँ लुत्फ़ उठाती है। अर्थात काम तृष्णा, भव तृष्णा, और विभव तृष्णा।

और, भिक्षुओं, यह दुःख का अन्त आर्यसत्य है — उस तृष्णा का अशेष विराग होना, निरोध होना, त्याग दिया जाना, संन्यास लिया जाना, मुक्ति होना, आश्रय छूट जाना।

और, भिक्षुओं, यह दुःख का अन्तकर्ता मार्ग आर्यसत्य है — बस यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग। अर्थात, सम्यक-दृष्टि, सम्यक-संकल्प, सम्यक-वचन, सम्यक-कार्य, सम्यक-जीविका, सम्यक-व्यायाम, सम्यक-स्मृति, और सम्यक-समाधि।

‘यह दुःख आर्यसत्य है।’ इस पहले कभी न सुने धर्म के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ। ‘इस दुःख आर्यसत्य को पूर्णतः (अंतिम छोर तक) पता करना है’… ‘इस दुःख आर्यसत्य को पूर्णतः जान लिया गया’ — ये पहले कभी न सुने धर्मों के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।

‘यह दुःख की उत्पत्ति आर्यसत्य है’… ‘इस दुःख की उत्पत्ति आर्यसत्य को पूर्णतः त्याग देना है’… ‘इस दुःख की उत्पत्ति आर्यसत्य को पूर्णतः त्याग दिया गया’ — ये पहले कभी न सुने धर्म के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।

‘यह दुःख का अन्त आर्यसत्य है’… ‘इस दुःख के अन्त आर्यसत्य का साक्षात्कार करना है’… ‘इस दुःख के अन्त आर्यसत्य का साक्षात्कार कर लिया गया।’ — ये पहले कभी न सुने धर्म के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।

‘यह दुःख का अन्तकर्ता मार्ग आर्यसत्य है’… ‘इस दुःख के अन्तकर्ता मार्ग आर्यसत्य की साधना करना है’… ‘इस दुःख के अन्तकर्ता मार्ग आर्यसत्य की साधना कर ली गई।’ — ये पहले कभी न सुने धर्म के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।

जब तक, भिक्षुओं, मैंने इन चार आर्यसत्यों को तीन चरणों में बारह प्रकारों से अपने ज्ञान-दर्शन को शुद्ध नहीं किया, तब तक मैंने इस लोक में, जो देव, मार, ब्रह्म, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरा हुआ है, सर्वोत्तर सम्यक-सम्बोधि का दावा नहीं किया। किन्तु, जब मैंने इन चार आर्यसत्यों को तीन चरणों में बारह प्रकारों से अपने ज्ञान-दर्शन को शुद्ध कर लिया, तब तक मैंने इस लोक में, जो देव, मार, ब्रह्म, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरा हुआ है, सर्वोत्तर सम्यक-सम्बोधि का दावा किया। और तब मुझे ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ, “मेरी विमुक्ति अचल है, यह मेरा अंतिम जन्म है, अब आगे पुनरुत्पत्ति नहीं है!”

भगवान ने ऐसा कहा। प्रसन्न होकर, पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान के उपदेश का अभिनन्दन किया।

और जब यह स्पष्टीकरण दिया जा रहा था, तब आयुष्मान कोण्डञ्ञ को धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”

जब भगवान ने धर्मचक्र प्रवर्तित किया, तब भूमि देवताओं ने जोश में घोषणाएँ दी — “यहाँ भगवान ने वाराणसी के ऋषिपतन मृगवन में अनुत्तर धर्मचक्र का प्रवर्तन कर दिया है, जो अब किसी श्रमण, या ब्राह्मण, या देवता, या मार, या ब्रह्म, या इस ब्रह्मांड में किसी से भी रोका नहीं जा सकता!”

भूमि देवताओं की घोषणाएँ सुनकर चार महाराज देवताओं ने जोश में आकर घोषणाएँ (=ख़बर) दी — “यहाँ भगवान ने वाराणसी के ऋषिपतन मृगवन में अनुत्तर धर्मचक्र का प्रवर्तन कर दिया है, जो अब किसी श्रमण, या ब्राह्मण, या देवता, या मार, या ब्रह्म, या इस ब्रह्मांड में किसी से भी रोका नहीं जा सकता!”

चार महाराज देवताओं की घोषणाएँ सुनकर तैतीस देवताओं ने जोश में आकर घोषणाएँ दी — “यहाँ भगवान ने वाराणसी के ऋषिपतन मृगवन में अनुत्तर धर्मचक्र का प्रवर्तन कर दिया है, जो अब किसी श्रमण से, या ब्राह्मण से, या देवता से, या मार से, या ब्रह्म से, या इस ब्रह्मांड में किसी से भी रोका नहीं जा सकता!”

तैतीस देवताओं की घोषणाएँ सुनकर याम देवताओं ने जोश में घोषणाएँ दी… याम देवताओं की घोषणाएँ सुनकर तुषित देवताओं ने जोश में घोषणाएँ दी… तुषित देवताओं की घोषणाएँ सुनकर निर्माणरति देवताओं ने जोश में घोषणाएँ दी… निर्माणरति देवताओं की घोषणाएँ सुनकर परनिर्मित वशवर्ती देवताओं ने जोश में घोषणाएँ दी… परनिर्मित वशवर्ती देवताओं की घोषणाएँ सुनकर ब्रह्म कायिक देवताओं ने जोश में घोषणाएँ दी — “यहाँ भगवान ने वाराणसी के ऋषिपतन मृगवन में अनुत्तर धर्मचक्र का प्रवर्तन कर दिया है, जो अब किसी श्रमण से, या ब्राह्मण से, या देवता से, या मार से, या ब्रह्म से, या इस ब्रह्मांड में किसी से भी रोका नहीं जा सकता!”

उसी क्षण, उसी पल, उसी मुहूर्त में यह ख़बर ब्रह्मलोक तक फैल गयी। तब दस हजार ब्रह्मांड कंपित हुए, प्रकंपित हुए, थरथराएँ। और, एक असीम और शानदार उजाला इस लोक में प्रकट हुआ, जो देवताओं की शक्तिशाली प्रभा से आगे निकल गया।

तब भगवान यह (उदान) बोल पड़े, “कोण्डञ्ञ समझ गया! वाकई, कोण्डञ्ञ समझ गया!”

और इस तरह, कोण्डञ्ञ का नाम “कोण्डञ्ञ समझ गया!” ही पड़ गया। और धर्म देख चुका, धर्म पा चुका, धर्म जान चुका, धर्म में गहरे उतर चुका आयुष्मान ‘कोण्डञ्ञ समझ गया’, संदेह लाँघकर परे चला गया। तब उसे कोई सवाल न बचे। उसे निडरता प्राप्त हुई, तथा वह शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुआ। तब उसने भगवान से कहा, “भंते, मुझे भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, (भिक्षु) उपसंपदा मिले ।”

“आओ, भिक्षु!” कह कर भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, उस आयुष्मान की उपसंपदा संपन्न हुई।

तब भगवान ने बचे हुए भिक्षुओं को धर्म की बातों से उपदेशित किया, अनुशासित किया। और भगवान के द्वारा धर्म की बातों से उपदेशित होते हुए, अनुशासित होते हुए आयुष्मान वप्प और आयुष्मान भद्दिय को धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”

तब धर्म देख चुके, धर्म पा चुके, धर्म जान चुके, धर्म में गहरे उतर चुके आयुष्मान वप्प और आयुष्मान भद्दिय संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए। तब उन्होने भगवान से कहा, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“आओ, भिक्षु!” कह कर, फिर भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, उन आयुष्मानों की उपसंपदा संपन्न हुई।

तब भगवान ने भिक्षुओं के द्वारा लायी गयी भिक्षा पर यापन करते हुए, बचे हुए भिक्षुओं को धर्म की बातों से उपदेशित किया, अनुशासित किया। और भगवान के द्वारा धर्म की बातों से उपदेशित होते हुए, अनुशासित होते हुए आयुष्मान महानाम और आयुष्मान अस्सजि को धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”

तब धर्म देख चुके, धर्म पा चुके, धर्म जान चुके, धर्म में गहरे उतर चुके आयुष्मान महानाम और आयुष्मान अस्सजि संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए। तब उन्होने भगवान से कहा, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“आओ, भिक्षु!” कह कर, फिर भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, उन सभी आयुष्मानों की उपसंपदा संपन्न हुई।

तब, भगवान ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा —

“भिक्षुओं, रूप आत्म नहीं है। यदि रूप आत्म होता तो पीड़ित न होता, और हम उसे (मनचाहा) बदल पाते, ‘मेरा रूप ऐसा हो, वैसा न हो ।’ किन्तु वाकई रूप आत्म नहीं है, इसलिए पीड़ित होता है, और हम उसे बदल नहीं पाते हैं, ‘मेरा रूप ऐसा हो, वैसा न हो।’

संवेदना आत्म नहीं है । यदि संवेदना आत्म होती तो पीड़ित न करती, और हम उसे बदल पाते, ‘मेरी संवेदना ऐसी हो, वैसी न हो।’ किन्तु वाकई संवेदना आत्म नहीं है, इसलिए पीड़ित करती है, और हम उसे बदल नहीं पाते हैं, ‘मेरी संवेदना ऐसी हो, वैसी न हो।’

नजरिया आत्म नहीं है। यदि नजरिया आत्म होता तो पीड़ित न करता, और हम उसे बदल पाते, ‘मेरा नजरिया ऐसा हो, वैसे न हो।’ किन्तु वाकई नजरिया आत्म नहीं है, इसलिए पीड़ित करता है, और हम उसे बदल नहीं पाते हैं, ‘मेरा नजरिया ऐसा हो, वैसा न हो।’

रचना आत्म नहीं है। यदि रचना आत्म होती तो पीड़ित न करती, और हम उसे बदल पाते, ‘मेरी रचना ऐसी हो, वैसी न हो।’ किन्तु वाकई रचना आत्म नहीं है, इसलिए पीड़ित करती है, और हम उसे बदल नहीं पाते हैं, ‘मेरी रचना ऐसी हो, वैसी न हो।’

चैतन्य आत्म नहीं है। यदि चैतन्य आत्म होता तो पीड़ित न करता, और हम उसे बदल पाते, ‘मेरा चैतन्य ऐसा हो, वैसे न हो।’ किन्तु वाकई चैतन्य आत्म नहीं है, इसलिए पीड़ित करता है, और हम उसे बदल नहीं पाते हैं, ‘मेरा चैतन्य ऐसा हो, वैसा न हो।’

क्या मानते हो, भिक्षुओं? रूप नित्य है या अनित्य?”

“अनित्य, भन्ते।”

“जो नित्य नहीं, वह कष्टदायी है या सुखदायी?”

“कष्टदायी, भन्ते।”

“जो नित्य नहीं, कष्टदायी है, परिवर्तनशील है, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”

“नहीं, भन्ते।”

“संवेदना नित्य है या अनित्य?”

“अनित्य, भन्ते।”

“जो नित्य नहीं, वह कष्टदायी है या सुखदायी?”

“कष्टदायी, भन्ते।”

“जो नित्य नहीं, कष्टदायी है, परिवर्तनशील है, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”

“नहीं, भन्ते।”

“नजरिया नित्य है या अनित्य?”

“अनित्य, भन्ते।”

“जो नित्य नहीं, वह कष्टदायी है या सुखदायी?”

“कष्टदायी, भन्ते।”

“जो नित्य नहीं, कष्टदायी है, परिवर्तनशील है, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”

“नहीं, भन्ते।”

“रचना नित्य है या अनित्य?”

“अनित्य, भन्ते।”

“जो नित्य नहीं, वह कष्टदायी है या सुखदायी?”

“कष्टदायी, भन्ते।”

“जो नित्य नहीं, कष्टदायी है, परिवर्तनशील है, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”

“नहीं, भन्ते।”

“चैतन्य नित्य है या अनित्य?”

“अनित्य, भन्ते।”

“जो नित्य नहीं, वह कष्टदायी है या सुखदायी?”

“कष्टदायी, भन्ते।”

“जो नित्य नहीं, कष्टदायी है, परिवर्तनशील है, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”

“नहीं, भन्ते।”

“इसलिए, भिक्षुओं, जो भी रूप हो — भूत, भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप का। सभी रूपों को यह ‘मेरे नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सही अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखना है।

जो भी संवेदना हो — भूत, भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की। सभी संवेदनाओं को यह ‘मेरी नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सही अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखना है।

जो भी नजरिया हो — भूत, भविष्य या वर्तमान का, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप का। सभी नजरियों को यह ‘मेरे नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सही अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखना है।

जो भी रचना हो — भूत, भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की। सभी रचनाओं को यह ‘मेरी नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सही अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखना है।

जो भी चैतन्य हो — भूत, भविष्य या वर्तमान का, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप का। सभी चैतन्य को यह ‘मेरे नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सही अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखना है।

भिक्षुओं, इस तरह देखने से धर्म-सुने आर्यश्रावक का रूप के प्रति मोहभंग होता है, संवेदना के प्रति मोहभंग होता है, नजरिये के प्रति मोहभंग होता है, रचना के प्रति मोहभंग होता है, चैतन्य के प्रति मोहभंग होता है।

मोहभंग होने से विराग होता है। विराग होने से विमुक्त होता है। विमुक्ति से ज्ञात होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ और पता चलता है, ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’

ऐसा भगवान ने कहा। प्रसन्न होकर, पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया। और जब यह स्पष्टीकरण दिया जा रहा था, तब पञ्चवर्गीय भिक्षुओं का चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ।

और तब, इस दुनिया में छह अर्हंत हुए।

पञ्चवग्गियकथा समाप्त।
प्रथम भाणवार समाप्त।

७. पबज्जा कथा

उस समय यश नामक कुलपुत्र, बनारस में श्रेष्ठी का पुत्र था, जिसे बहुत सुखों को पाला गया था। उसके लिए तीन महल बने थे — एक शीतकाल के लिए; एक ग्रीष्मकाल के लिए; और एक वर्षाकाल के लिए। वर्षाकाल के चारों महीने वर्षामहल में रहते हुए, उसे गायकी-नर्तकियों द्वारा बहलाया जाता, बिना अन्य पुरुष की उपस्थिति के। उसे महल से नीचे एक बार भी उतरना न पड़ता।

एक बार यश कुलपुत्र, पाँच कामभोग की समग्रताओं से लिप्त होकर, अपने सेविकाओं से पूर्व, अपने परिजनों से पूर्व निद्रा में चला गया। रात भर तेल का दीया जलता रहा। तब अचानक, यश कुलपुत्र ने उठकर अपने परिजनों को सोते हुए देखा। किसी की बगल में वीणा थी, किसी के गले में मृदंग था, तो किसी के बगल में ढ़ोल था, किसी के केश बिखरे थे, तो किसी की लार गिर रही थी, तो कोई निद्रा में बड़बड़ा रही थी — साक्षात श्मशान जैसा लग रहा था।

ऐसा दिखने पर, उसे (कामुकता में) ख़ामी प्रकट हुई, और मोहभंगिमा चित्त में घर कर गयी। तब यश कुलपुत्र यकायक (उदान) बोल पड़ा, “उफ़, ये अत्याचार! उफ़, ये उत्पीड़न!”

तब यश कुलपुत्र, अपने स्वर्ण पादुका को पहन कर, प्रवेश द्वार की ओर गया। अमनुष्यों ने द्वार खोल दिया, (सोचते हुए), “यश कुलपुत्र का घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने में कोई बाधा न हो।” तब यश कुलपुत्र वहाँ से निकलकर नगरद्वार की ओर गया। उसे भी अमनुष्यों ने खोल दिया, (सोचते हुए), “यश कुलपुत्र का घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने में कोई बाधा न हो।” और तब, यश कुलपुत्र वहाँ से निकलकर ऋषिपतन मृगवन की ओर चल पड़ा।

उस समय, भगवान रात के अंतिम पहर में उठकर चंक्रमण कर रहे थे। जब भगवान ने दूर से यश कुलपुत्र को आते देखा, तो चंक्रमण पथ से उतर कर बिछे आसन पर बैठ गए। तब, यश कुलपुत्र ने भगवान के पास आकार पुनः उदान बोल पड़ा, “उफ़, ये अत्याचार! उफ़, ये उत्पीड़न!”

और तब, भगवान ने यश कुलपुत्र से कहा, “यहाँ अत्याचार नहीं है, यश! यहाँ उत्पीड़न नहीं है! आओ, बैठो! मैं तुम्हें धर्म बताता हूँ!”

तब, यश कुलपुत्र को लगा, “यहाँ अत्याचार नहीं है! यहाँ उत्पीड़न नहीं है!” वह, उल्लासित और उत्साहित हो, अपनी स्वर्ण पादुका निकाल, भगवान के पास गया, और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया।

तब, एक-ओर बैठे यश कुलपुत्र को भगवान ने अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि यश कुलपुत्र का तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।

जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह यश कुलपुत्र को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”

तब उधर, यश कुलपुत्र की माता उसके महल में गयी, और यश कुलपुत्र को न पाकर अपने पति श्रेष्ठी गृहपति के पास गयी, और कहने लगी, “आपका पुत्र कही दिखायी नहीं दे रहा है।”

तब श्रेष्ठी गृहपति ने चारों दिशाओं में अश्वदूत भेजे, और वह स्वयं ऋषिपतन के मृगवन की ओर चल पड़ा। वहाँ श्रेष्ठी गृहपति को भूमि पर स्वर्ण पादुका के चिन्ह दिखायी दिये, और उसने पीछा किया।

तब भगवान ने श्रेष्ठी गृहपति को दूर से आते देखा। और उसे देखकर भगवान को लगा, “क्यों न मैं अपनी ऋद्धिबल से ऐसी रचना करूँ कि श्रेष्ठी गृहपति यही बैठे होकर भी यश कुलपुत्र को न देख पाएँ।” और तब भगवान ने अपने ऋद्धिबल से ऐसी रचना की।

तब श्रेष्ठी गृहपति भगवान के पास गया, और भगवान से कहा, “भंते! क्या भगवान ने यश कुलपुत्र को देखा है?”

“ऐसी बात हो, गृहपति, तो यहाँ बैठो। संभव है यहाँ बैठकर तुम्हें यही बैठा हुआ यश कुलपुत्र दिख जाएँ।”

जब श्रेष्ठी गृहपति ने ऐसा सुना, तो वह उल्लासित और उत्साहित होकर भगवान के पास गया, और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया।

तब, एक-ओर बैठे श्रेष्ठी गृहपति को भगवान ने अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि श्रेष्ठी गृहपति का तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।

जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह श्रेष्ठी गृहपति को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”

तब धर्म देख चुका, धर्म पा चुका, धर्म जान चुका, धर्म में गहरे उतर चुका श्रेष्ठी गृहपति संदेह लाँघकर परे चला गया। तब उसे कोई सवाल न बचे। उसे निडरता प्राप्त हुई, तथा वह शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुआ। तब उसने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, भंते ! अतिउत्तम, भंते! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और भिक्षुसंघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”

वह इस दुनिया का त्रिशरण लेने वाला प्रथम उपासक बना।

और, जब यश कुलपुत्र अपने पिता को धर्म उपदेश दिया जाते देख रहा था, तब उसने पहले देखे, पहले समझे धर्म-आधार पर पुनः चिंतन-मनन किया, और उसका चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ।

और भगवान को पता चला, “यश कुलपुत्र ने अपने पिता को धर्म उपदेश दिया जाते देख, पहले देखे, पहले समझे धर्म-आधार पर पुनः चिंतन-मनन किया, और उसका चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ। अब यश कुलपुत्र वैसे हीनवृत्ति के कामभोग का सेवन नहीं कर सकता, जैसे गृहस्थ जीवन में करता था। अभी मैं अपने ऋद्धिबल की रचना करना रोक देता हूँ!”

तब भगवान ने अपने ऋद्धिबल की रचना करना रोक दिया। तब श्रेष्ठी गृहपति को यश कुलपुत्र वही बैठा दिखायी दिया। तब उसने यश कुलपुत्र से कहा, “पुत्र यश, तुम्हारी माता शोक और विलाप में डूब गयी है। अपनी माता को जीवन दो।”

यश कुलपुत्र ने भगवान की ओर देखा।

भगवान ने श्रेष्ठी गृहपति से कहा, “क्या लगता है तुम्हें, गृहपति? जैसे कोई तुम्हारे ही जैसे इस शिक्षा का ज्ञान, और शिक्षा का दर्शन देख चुका हो, समझ चुका हो। और वह उस देखे और समझे धर्म-आधार पर पुनः चिंतन-मनन करे, और उसका चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हो जाएँ। तब, गृहपति, ऐसा कोई पुनः वैसे ही हीनवृत्ति के कामभोग का सेवन कर सकता है, जैसे गृहस्थ जीवन में करता था?”

“नहीं, भंते!”

“गृहपति, यश कुलपुत्र ने अपने पिता को धर्म उपदेश दिया जाते देख, पहले देखे, पहले समझे धर्म-आधार पर पुनः चिंतन-मनन किया, और उसका चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ। अब यश कुलपुत्र वैसे हीनवृत्ति के कामभोग का सेवन नहीं कर सकता, जैसे गृहस्थ जीवन में करता था। "

“बहुत लाभ हुआ यश कुलपुत्र का! अत्यंत लाभ हुआ यश कुलपुत्र का, जो उसका चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ। भंते, कृपया भगवान आज का भोजन हमसे ग्रहण करें, आपके सेवक श्रमण यश कुलपुत्र के साथ।”

भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी। तब भगवान की स्वीकृति जान कर, श्रेष्ठी गृहपति आसन से उठकर भगवान को अभिवादन करते हुए, प्रदक्षिणा करते हुए चला गया।

श्रेष्ठी गृहपति के जाने के तुरंत बाद, यश कुलपुत्र ने भगवान से कहा, “भंते, मुझे भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“आओ, भिक्षु!” कह कर, भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, उस आयुष्मान की उपसंपदा संपन्न हुई।

और तब, इस दुनिया में सात अर्हंत हुए।

यसस्स पब्बज्जा समाप्त।

तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, सेवक श्रमण यश के साथ श्रेष्ठी गृहपति के घर गए, और जाकर बिछे आसन पर बैठ गये। तब यश की माता और पूर्व पत्नी भगवान के पास गए, और अभिवादन कर एक ओर बैठ गए।

तब, भगवान ने उन्हें अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि उनका तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।

जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह यश की माता और पूर्व पत्नी को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”

तब धर्म देख चुके, धर्म पा चुके, धर्म जान चुके, धर्म में गहरे उतर चुके यश की माता और पूर्व पत्नी संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए।

तब उन्होने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, भंते ! अतिउत्तम, भंते! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। हम बुद्ध की शरण जाते हैं! धर्म की और भिक्षुसंघ की भी! भगवान हमें आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासिकाएँ धारण करें!”

और, वे दोनों इस दुनिया में त्रिशरण लेने वाली प्रथम उपासिकाएँ बनी।

तब, यश के माता, पिता और पूर्व पत्नी ने भगवान और आयुष्मान यश को अपने हाथों से उत्तम खाद्य और भोजन परोस कर संतृप्त किया, संतुष्ट किया। भगवान के भोजन कर पात्र से हाथ हटाने के पश्चात, उन्होने स्वयं का आसन नीचे लगाया और एक ओर बैठ गए।

तब भगवान ने यश की माता, पिता और पूर्व पत्नी को धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया, और आसन से उठकर चले गए।

अब, आयुष्मान यश के चार गृहस्थ मित्र थे, जो वाराणसी के बड़े-बड़े श्रेष्टियों के कुलपुत्र थे — विमल, सुबाहु, पुण्णजि, और गवम्पति। उन्होने सुना कि यश कुलपुत्र ने सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित हो गया है।

ऐसा सुनने पर, उन्होने (आपसी वार्तालाप में) कहा, “नहीं! जरूर यह धर्म-विनय तुच्छ नहीं होगा! यह प्रवज्जा तुच्छ नहीं होगी, जो यश कुलपुत्र ने अपनी सिर-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय-वस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित हो गया है।”

तब वे यश के पास गए, और आयुष्मान यश को अभिवादन कर एक-ओर बैठ गए। तब आयुष्मान यश अपने चारो गृहस्थ मित्रों को भगवान के पास ले गए, और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक-ओर बैठकर आयुष्मान यश ने भगवान से कहा, “भंते, ये मेरे चारो गृहस्थ मित्र वाराणसी के श्रेष्ठियों के कुलपुत्र हैं — विमल, सुबाहु, पुण्णजि, और गवम्पति। भगवान इन्हें उपदेशित करे, अनुशासित करे।”

तब, भगवान ने उन्हें अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि उनका तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।

जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह आयुष्मान यश के चारों गृहस्थ मित्रों को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”

तब धर्म देख चुके, धर्म पा चुके, धर्म जान चुके, धर्म में गहरे उतर चुके यश के चारों गृहस्थ मित्र संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए।

तब उन्होने भगवान से कहा, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“आओ, भिक्षु!” कह कर, भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, उन आयुष्मानो की उपसंपदा संपन्न हुई।

तब, भगवान ने उन भिक्षुओं को धर्म कथा से उपदेशित किया, अनुशासित किया। भगवान की धर्म कथा से उपदेशित होकर, अनुशासित होकर उनका चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ।

और तब, इस दुनिया में ग्यारह अर्हंत हुए।

चतुगिहिसहायकपब्बज्जा समाप्त।

तब आयुष्मान यश के पचास गृहस्थ मित्र, जो अन्य नगरों के बड़े-बड़े कुलों के पुत्र थे, उन्होने सुना कि यश कुलपुत्र ने सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित हो गया है।

ऐसा सुनने पर, उन्होने कहा, “नहीं! जरूर यह धर्म-विनय तुच्छ नहीं होगा! यह प्रवज्जा तुच्छ नहीं होगी, जो यश कुलपुत्र ने अपनी सिर-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय-वस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित हो गया है।”

तब वे यश के पास गए, और आयुष्मान यश को अभिवादन कर एक-ओर बैठ गए। तब आयुष्मान यश अपने पचास गृहस्थ मित्रों को भगवान के पास ले गए, और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक-ओर बैठकर आयुष्मान यश ने भगवान से कहा, “भंते, ये मेरे पचास गृहस्थ मित्र अन्य नगरों के बड़े-बड़े कुलों के पुत्र हैं। भगवान इन्हें उपदेशित करे, अनुशासित करे।”

तब, भगवान ने उन्हें अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि उनका तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।

जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह आयुष्मान यश के पचासों गृहस्थ मित्रों को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”

तब धर्म देख चुके, धर्म पा चुके, धर्म जान चुके, धर्म में गहरे उतर चुके यश के पचासों गृहस्थ मित्र संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए।

तब उन्होने भगवान से कहा, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।"

“आओ, भिक्षु!” कह कर, भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, उन आयुष्मानो की उपसंपदा संपन्न हुई।

तब, भगवान ने उन भिक्षुओं को धर्म कथा से उपदेशित किया, अनुशासित किया। भगवान की धर्म कथा से उपदेशित होकर, अनुशासित होकर उनका चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ।

और तब, इस दुनिया में एकसठ अर्हंत हुए।

पञ्ञासगिहिसहायकपब्बज्जा समाप्त।

मार कथा

तब भगवान ने उन भिक्षुओं को संबोधित किया —

“भिक्षुओं! मैं दिव्य-मानवी, सभी जाल से मुक्त हूँ! तुम भी, भिक्षुओं, दिव्य-मानवी, सभी जाल से मुक्त हो! भ्रमणचर्या करों, भिक्षुओं, बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए! किसी एक रास्ते पर दो मत जाओ। और, ऐसा धर्म उपदेश करों, भिक्षुओं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, तथा अन्त में कल्याणकारी हो। गहरे अर्थ और विस्तार के साथ, इस सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य को प्रकाशित करों! ऐसे सत्व हैं, जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे! और भिक्षुओं, मैं उरुवेला के सैनिक नगर में धर्म उपदेश करने के लिए जाऊँगा!”

तब, पापी मार भगवान के पास गया, और भगवान से गाथाओं में कहा —

"सभी जाल से बंधे हो, ये दिव्य और ये मानवी।
महाबंधन में बंधे हो, श्रमण मुझसे छूटे नहीं!"


(भगवान ने उत्तर दिया:)
सभी जाल से मुक्त हूँ, ये दिव्य और ये मानवी।
महाबंधन तोड़कर, तुम्हें अंतकर्ता कुचल दिया!


(मार ने कहा:)
ये जाल अंतरिक्षचर है, मन से चलता फिरता है।
उससे तुम्हें फिर बांधूँगा, श्रमण मुझसे छूटे नहीं!


(भगवान ने उत्तर दिया:)
रूप आवाज स्वाद गंध, संस्पर्श मन को रमाते हैं।
इनसे मुझे चाहत नहीं, तुम्हें अंतकर्ता कुचल दिया!

तब पापी मार को लगा, “भगवान मुझे जानते है। सुगत मुझे जानते है।” और दुःखी और हताश होकर, वह वही विलुप्त हो गया।

मारकथा समाप्त।

पब्बज्जा और उपसम्पदा कथा

तब भिक्षुगण नाना दिशाओं से, नाना देहातों से प्रवज्जा और उपसंपदा के लिए लोगों को ले आते थे, (सोचते हुए:) “भगवान इन्हें प्रवज्जा देंगे, उपसंपदा देंगे!”

भिक्षु इतना चलकर थक जाते थे, और साथ ही प्रवज्जा चाहने वाले और उपसंपदा चाहने वाले भी।

जब भगवान एकांतवास में थे, तब उनके चित्त में यह विचार आया, “भिक्षुगण नाना दिशाओं से, नाना देहातों से प्रवज्जा और उपसंपदा के लिए लोगों को ले आते हैं, (सोचते हुए:) “भगवान इन्हें प्रवज्जा देंगे, उपसंपदा देंगे!” किन्तु भिक्षु इतना चलकर थक जाते थे, और साथ ही प्रवज्जा चाहने वाले और उपसंपदा चाहने वाले भी। क्यों न मैं भिक्षुओं को अनुमति दूँ — तुम ही, भिक्षुओं, जिस-जिस दिशा में, जिस-जिस देहातों में हो, वही प्रवज्जा दो, उपसंपदा दो!”

तब, सायंकाल में भगवान एकांतवास से बाहर आए, और इस कारण, इस प्रकरण से धर्म कथा बताने के लिए भिक्षुओं को आमंत्रित किया —

“भिक्षुओं! मैं एकांतवास में था, तब मेरे चित्त में यह विचार आया, “भिक्षुगण नाना दिशाओं से, नाना देहातों से प्रवज्जा और उपसंपदा के लिए लोगों को ले आते हैं, (सोचते हुए:) “भगवान इन्हें प्रवज्जा देंगे, उपसंपदा देंगे!” किन्तु भिक्षु इतना चलकर थक जाते थे, और साथ ही प्रवज्जा चाहने वाले और उपसंपदा चाहने वाले भी। तो, भिक्षुओं, मैं आप को अनुमति देता दूँ — तुम ही, जिस-जिस दिशा में, जिस-जिस देहातों में हो, वही प्रवज्जा दो, उपसंपदा दो! और भिक्षुओं, वह प्रवज्जा और उपसंपदा इस तरह की जानी चाहिए — पहले केश-दाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, उत्तरासंग (ऊपरी चीवर) को एक कन्धे पर कर, भिक्खुओं को चरणवन्दन कर, उकड़ू बैठ, हाथ जोड़कर ऐसा बोलने के लिए कहें —

‘बुद्धं सरणं गच्छामि,
धम्मं सरणं गच्छामि,
सङ्घं सरणं गच्छामि।

दुतियम्पि बुद्धं सरणं गच्छामि,
दुतियम्पि धम्मं सरणं गच्छामि,
दुतियम्पि सङ्घं सरणं गच्छामि।

ततियम्पि बुद्धं सरणं गच्छामि,
ततियम्पि धम्मं सरणं गच्छामि,
ततियम्पि सङ्घं सरणं गच्छामी’ति।

(अर्थात, मैं बुद्ध की… धर्म की… संघ की शरण जाता हूँ। दूसरी बार… तीसरी बार, मैं बुद्ध की… धर्म की… संघ की शरण जाता हूँ।)

इस तरह, भिक्षुओं, इन तीन शरणगमन से उनकी प्रवज्जा और उपसंपदा करानी चाहिए।

तीन सरणगमन उपसम्पदाकथा समाप्त।

१०. दूतिय मार कथा

भगवान ने वर्षावास समाप्त कर भिक्षुओं को संबोधित किया,

“भिक्षुओं, मैंने उचित चिंतन (योनिसो मनसिकार) और उचित सम्यक-प्रयास से अनुत्तर विमुक्ति प्राप्त की, अनुत्तर विमुक्ति का साक्षात्कार किया। तुमने भी, भिक्षुओं, उचित चिंतन और उचित सम्यक-प्रयास से अनुत्तर विमुक्ति प्राप्त की, अनुत्तर विमुक्ति का साक्षात्कार किया।”

तब पापी मार भगवान के पास गया और भगवान को गाथाओं में कहा,

मार जाल से बंधे हो, ये दिव्य और ये मानवी।
महाबंधन में बंधे हो, श्रमण मुझसे छूटे नहीं!

(भगवान ने उत्तर दिया :)
मार जाल से मुक्त हूँ, ये दिव्य और ये मानवी।
महाबंधन तोड़कर तुम्हें अंतकर्ता कुचल दिया!

तब पापी मार को लगा, “भगवान मुझे जानते है। सुगत मुझे जानते है।” और दुःखी और हताश होकर, वह वही विलुप्त हो गया।

दूसरी मारकथा समाप्त।

भद्रवर्गीय लोग

तब भगवान ने वाराणसी में इच्छानुसार जितना रुकना था, उतना रुके, और उरुवेला के भ्रमण पर निकल पड़े। एक विशेष स्थान पर आकर, उन्होने मार्ग को छोड़ दिया, और उपवन में प्रवेश कर एक वृक्ष के नीचे बैठ गए।

उसी समय, तीस भले मित्रों और उनकी पत्नियों का एक समूह उस उपवन में पिकनिक मना रहा था। उनमें से एक की पत्नी नहीं थी, तो उसके लिए एक वेश्या को बुलाया गया था। जब वे मदमस्त होकर मजा कर रहे थे, तब वेश्या उसकी वस्तुएँ उठाकर भाग गयी। अपने उस मित्र की सहायता करते हुए सभी उस वेश्या को ढूँढने निकले। उपवन में घूमते-भटकते हुए उन्होने भगवान को वृक्ष के नीचे बैठा देखा। तब वे भगवान के पास ज्ञे और कहा, “भंते, क्या भगवान ने एक स्त्री को देखा?”

“किन्तु, कुमारों! एक स्त्री को क्यों देखना था?”

“हम तीस लोग, भंते, मित्र हैं। हम अपनी पत्नियों के साथ एक समूह बनाकर उपवन में पिकनिक मना रहे थे। उनमें से एक की पत्नी नहीं थी, तो उसके लिए एक वेश्या को बुलाया गया था। जब वे मदमस्त होकर मजा कर रहे थे, तब वेश्या उसकी वस्तुएँ उठाकर भाग गयी। अब, अपने उस मित्र की सहायता करते हुए हम उस वेश्या को ढूँढ रहे हैं।”

“तुम्हें क्या लगता है, कुमारों? तुम्हारे लिए क्या श्रेष्ठ है — उस स्त्री की खोज करना या आत्म खोज करना?”

“भंते, हमारे लिए आत्म खोज करना श्रेष्ठ है।”

“ऐसा हो, कुमारों, तो बैठो। मैं तुम्हें धर्म बताता हूँ।”

“ठीक है, भंते।”

तब, भगवान ने उन्हें अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि उनका तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।

जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह आयुष्मान यश के चारों गृहस्थ मित्रों को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”

तब धर्म देख चुके, धर्म पा चुके, धर्म जान चुके, धर्म में गहरे उतर चुके यश के चारों गृहस्थ मित्र संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए।

तब उन्होने भगवान से कहा, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“आओ, भिक्षु!” कह कर, भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, उन आयुष्मानो की उपसंपदा संपन्न हुई।

भद्दवग्गियसहायकानं वत्थु समाप्त।

दुतिय भाणवार।

१२. उरुवेला में चमत्कारों की कथा

भगवान क्रमशः भ्रमण करते हुए, अंततः उरुवेला पहुँच गए। उस समय उरुवेला में तीन जटाधारी भाई रहते थे —उरुवेल कश्यप, नदी कश्यप, और गया कश्यप। उनमें उरुवेल कश्यप पाँच सौ जटाधारी साधुओं का नायक था, मार्गदर्शक था, अग्र था, प्रमुख था, मुखिया था। नदी कश्यप तीन सौ जटाधारी साधुओं का नायक था, मार्गदर्शक था, अग्र था, प्रमुख था, मुखिया था। और गया कश्यप दो सौ जटाधारी साधुओं का नायक था, मार्गदर्शक था, अग्र था, प्रमुख था, मुखिया था।

भगवान जटाधारी उरुवेल कश्यप के आश्रम गए, और जाकर जटाधारी उरुवेल कश्यप से कहा, “तुम्हारे लिए बड़ी बात न हो, कश्यप, तो क्या मैं एक रात के लिए तुम्हारे अग्निगार (=जहाँ अग्नि को जलता रखा जाता था) में रुक सकता हूँ?”

“मेरे लिए बड़ी बात नहीं है, महाश्रमण। किन्तु वहाँ एक चंड, ऋद्धिमानी नागराज रहता है, जो अत्यंत घोर विषैला साँप है। कही वह तुम्हें आहत न करें।”

भगवान ने दो-तीन बार उससे आग्रह किया, “तुम्हारे लिए बड़ी बात न हो, कश्यप, तो क्या मैं एक रात के लिए तुम्हारे अग्निगार में रुक सकता हूँ?”

“मेरे लिए बड़ी बात नहीं है, महाश्रमण। किन्तु वहाँ एक चंड, ऋद्धिमानी नागराज रहता है, जो अत्यंत घोर विषैला साँप है। कही वह तुम्हें आहत न करें।”

“शायद वह मुझे आहत नहीं करेगा। अब चलो भी, कश्यप! मुझे तुम्हारे अग्निगार में रुकने दो।”

“ठीक है, महाश्रमण! जहाँ सुखद लगे, वहाँ रहो!”

तब भगवान ने अग्निगार में प्रवेश किया और घास का आसन लगाकर, उस पर पालथी मार, काया सीधी रख, स्मृतिमान होकर बैठ गए।

जब नाग ने भगवान को बैठा देखा, तो उसने नाखुश होकर धुआँ ऊगला। तब भगवान ने सोचा, “मुझे इस नाग को वश करने के लिए अग्नि विरुद्ध अग्नि का उपयोग करना चाहिए, बिना उसकी त्वचा, माँस, नसें, हड्डी या अस्थिमज्जा को आहत किए।”

तब भगवान ने उस तरह के ऋद्धिबल की रचना की, और धुआँ उगला। तब नाग को अहंकार के मारे सहन नहीं हुआ, और तब उसने ज्वालाएँ उगली। भगवान ने भी अग्निधातु में प्रवेश कर ज्वालाएँ उगली। दोनों के द्वारा इस तरह ज्वालाएँ उगलने पर ऐसा लग रहा था, मानो अग्निगार को बड़ी लपटों की आग लग कर, सब कुछ धधक रहा हो।

तब जटाधारी साधूगण अग्निगार के आसपास जमा हो गए, कहते हुए, “उस अत्यंत रूपवान महाश्रमण को नाग आहत कर रहा है!”

रात बीतने तक भगवान ने, अग्नि विरुद्ध अग्नि का उपयोग कर, उस नाग को वश में कर लिया था, बिना उसकी त्वचा, माँस, नसें, हड्डी या अस्थिमज्जा को आहत किए। उन्होने उसे अपने भिक्षापात्र में डाला, और जटाधारी उरुवेल कश्यप को दिखाया, “यह रहा, कश्यप, तुम्हारा नाग! उसकी अग्नि, अग्नि से शान्त हो गयी।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । इसने इस चंड और ऋद्धिमानी नागराज, जो अत्यंत घोर विषैला साँप है, को भी अग्नि विरुद्ध अग्नि से वश कर लिया। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को भगवान के ऋद्धि चमत्कार को देखकर आस्था जड़ गयी। उसने भगवान से कहा, “यही रहो, महाश्रमण! मैं तुम्हारे भोजन की व्यवस्था करूँगा।”

पहला चमत्कार।

जल्द ही, भगवान, जटाधारी उरुवेल कश्यप के आश्रम के समीप उपवन में विहार करने लगे। तब देर रात, चार महाराज देवतागण अत्याधिक कान्ति से संपूर्ण उपवन को रौशन करते हुए भगवान के पास गए, और अभिवादन कर भगवान की चार दिशाओं में खड़े हुए, चार महाअग्नि पिंड की तरह दिखते हुए।

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया, और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण! और कल रात तुमसे कौन मिलने आए थे? जो अत्याधिक कान्ति से संपूर्ण उपवन को रौशन करते हुए तुम्हारे पास गए, और तुम्हें अभिवादन कर तुम्हारी चार दिशाओं में खड़े हो गए, चार महाअग्नि पिंड की तरह दिखते हुए?”

“वे तो, कश्यप, चार महाराज देवतागण थे, जो मेरे पास धर्म सुनने के लिए आए थे।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । इसके पास चार महाराज देवतागण धर्म सुनने के लिए आते हैं। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

दूसरा चमत्कार।

तब देर रात, देवराज इन्द्र सक्क (=सक्षम) अत्याधिक कान्ति से संपूर्ण उपवन को रौशन करते हुए भगवान के पास गया, और अभिवादन कर भगवान की एक-ओर खड़ा हुआ, किसी महाअग्निपिंड की तरह दिखता हुआ-सा, जो पिछले रात की कान्ति से अधिक तेजस्वी, उत्तम और उत्कृष्ठतम थी।

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया, और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण! और कल रात तुमसे मिलने कौन आया था? जो अत्याधिक कान्ति से संपूर्ण उपवन को रौशन करते हुए तुम्हारे पास गया, और तुम्हें अभिवादन कर तुम्हारी एक-ओर खड़ा हुआ, किसी महाअग्निपिंड की तरह दिखता हुआ-सा, जो पिछले रात की कान्ति से अधिक तेजस्वी, उत्तम और उत्कृष्ठतम थी?”

“वह तो, कश्यप, देवराज इन्द्र सक्क था, जो मेरे पास धर्म सुनने के लिए आया था।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । इसके पास देवराज इन्द्र सक्क धर्म सुनने के लिए आता है। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

तीसरा चमत्कार।

तब देर रात, सहम्पति ब्रह्मा अत्याधिक कान्ति से संपूर्ण उपवन को रौशन करते हुए भगवान के पास गया, और अभिवादन कर भगवान की एक-ओर खड़ा हुआ, किसी महाअग्निपिंड की तरह दिखता हुआ-सा, जो पिछले रात की कान्ति से अधिक तेजस्वी, उत्तम और उत्कृष्ठतम थी।

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया, और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण! और कल रात भी तुमसे मिलने कौन आया था? जो अत्याधिक कान्ति से संपूर्ण उपवन को रौशन करते हुए तुम्हारे पास गया, और तुम्हें अभिवादन कर तुम्हारी एक-ओर खड़ा हुआ, किसी महाअग्निपिंड की तरह दिखता हुआ-सा, जो पिछले रात की कान्ति से अधिक तेजस्वी, उत्तम और उत्कृष्ठतम थी?”

“वह तो, कश्यप, सहम्पति ब्रह्मा था, जो मेरे पास धर्म सुनने के लिए आया था।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । इसके पास सहम्पति ब्रह्मा धर्म सुनने के लिए आता है। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

चौथा चमत्कार।

उस समय जटाधारी उरुवेल कश्यप ने महायज्ञ का आयोजन किया था, जिसमें अङ्ग और मगध की सम्पूर्ण जनता उत्तम खाद्य और भोजन के साथ आकर उपस्थित होना चाह रही थी।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप ने सोचा, “मैंने इस महायज्ञ का आयोजन किया है, जिसमें अङ्ग और मगध की सम्पूर्ण जनता उत्तम खाद्य और भोजन के साथ आकर उपस्थित होना चाह रही है। किन्तु यदि इस महाश्रमण ने महाजनता के सामने अपनी ऋद्धियाँ दिखा दी, तो सारा लाभ-सत्कार उसी को मिलेगा, और मुझे थोड़ा-सा मिलेगा। काश, वह कल न आए!”

तब भगवान ने अपने चित्त से जटाधारी उरुवेल कश्यप के चित्त के विचार जान लिए, और जाकर उत्तरकुरु 2 में भिक्षाटन किया और उसे अनोतत्त झील 3 में जाकर ग्रहण कर, वही दिन भर ध्यान-साधना की।


  1. प्रथम पहर शाम ६ बजे से रात १० बजे तक माना जाता है। मध्यम पहर रात १० बजे से रात २ बजे तक माना जाता है। और अंतिम पहर रात २ बजे से सुबह ६ बजे तक माना जाता है। ↩︎

  2. बौद्ध साहित्य में ‘उत्तरकुरु’ मानवीय स्थान नहीं, बल्कि यक्षों का देश है। दीघनिकाय के आटानाटिय सुत्त में उसका वर्णन मिलता है। कहते हैं कि वह जम्बूद्वीप की उत्तर-दिशा में स्थित है। उसके अनेक बड़े नगर हैं, जैसे आटानाटा, कुसिनाटा, नाटपुरिया, परकुसिनाटा, कपीवन्त, जनोघ, नवनवटिय, अम्बराअम्बरवटिय, जबकि आलकमंदा उसकी राजधानी है। गौर करें कि यक्ष अलग होते हैं और राक्षस या असुर अलग। यक्षों का महाराज वेस्सवण या वैष्णव है, जिसे कुबेर भी कहते हैं। ↩︎

  3. बौद्ध साहित्य में आता हैं कि हिमालय में कुल सात महान झीलें हैं, जो जनता से छिपी हुई हैं ↩︎

अनोतत्त, कन्नमुण्ड, रथकार, छद्दन्त, कुणाल, मन्दाकिनी और सिह-प्रपात! अनोतत्त पाँच पर्वतशिखरों से घिरा है

सुदस्सनकूट (=सुदर्शनकूट) पर्वत, चित्रकूट पर्वत, कालकूट पर्वत, गन्धामादन पर्वत और केलास (=कैलाश) पर्वत। इसका छिपा स्थान, सूर्य और चंद्र की किरणे पड़ना, जल का तापमान, पवन का बहना, इत्यादि विस्तृत वर्णन लिखा मिलता है। कहते हैं कि सम्यक-सम्बुद्ध, प्रत्येक-बुद्ध और अर्हंत वहाँ जाकर स्नान करते थे, और देवतागण अब वहाँ क्रीडा करते हैं। कुछ लोग इसे मानसरोवर झील से भी जोड़ते हैं।

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया, और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण! और, महाश्रमण, तुम कल क्यों नहीं आएँ? हमने तुम्हारे बारे में सोचा कि महाश्रमण क्यों नहीं आ रहा है? किन्तु हमने तुम्हारे लिए उत्तम खाद्य और भोजन अलग रख दिया था।”

“किन्तु, कश्यप, क्या तुमने ऐसा नहीं सोचा कि “मैंने इस महायज्ञ का आयोजन किया है, जिसमें अङ्ग और मगध की सम्पूर्ण जनता उत्तम खाद्य और भोजन के साथ आकर उपस्थित होना चाह रही है। किन्तु यदि इस महाश्रमण ने महाजनता के सामने अपनी ऋद्धियाँ दिखा दी, तो सारा लाभ-सत्कार उसी को मिलेगा, और मुझे थोड़ा-सा मिलेगा। काश, वह कल न आए!”

तब मैंने अपने चित्त से तुम्हारे चित्त के विचार जान लिए, तब जाकर उत्तरकुरु में भिक्षाटन किया और उसे अनोतत्त झील में जाकर ग्रहण कर, वही दिन भर ध्यान-साधना की। "

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह अपने चित्त से दूसरों का चित्त जान लेता है। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

पाँचवा चमत्कार।

उस समय भगवान को पंसुकूल [=त्यागे वस्त्र का चीथड़ा] प्राप्त हुआ था। तब भगवान को लगा, “मैं इस पंसुकूल को कहाँ धोऊँ?”

तब देवराज इन्द्र सक्क ने भगवान के चित्त के विचार जान लिए, और उसने आकर अपने हाथों से तालाब खोदकर, भगवान से कहा, “यहाँ, भंते, भगवान अपने पंसुकूल को धोएँ!”

तब भगवान को लगा, “मैं इस पंसुकूल को कहाँ पीटते हुए धोऊँ??”

तब देवराज इन्द्र सक्क ने भगवान के चित्त के विचार जान लिए, और उसने एक विशाल चट्टान रखकर, भगवान से कहा, “यहाँ, भंते, भगवान अपने पंसुकूल को पीटते हुए धोएँ!”

तब भगवान को लगा, “मैं क्या (आधार) पकड़ कर तालाब से बाहर आऊँ?”

तब अर्जुन वृक्ष के देवता ने भगवान के चित्त के विचार जान लिए, और उसने एक टहनी को झुकाते हुए कहा, “इसे, भंते, भगवान पकड़ कर तालाब से बाहर आएँ!”

तब भगवान को लगा, “मैं इस पंसुकूल को कहाँ सुखाऊँ?”

तब देवराज इन्द्र सक्क ने भगवान के चित्त के विचार जान लिए, और उसने एक विशाल चट्टान रखकर, भगवान से कहा, “यहाँ, भंते, भगवान अपने पंसुकूल को सुखाने डाले!”

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया, और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण! किन्तु ये सब क्या हुआ, महाश्रमण? पहले यहाँ कोई तालाब नहीं था, किन्तु अब यहाँ तालाब है। पहले यहाँ बड़ी चट्टाने नहीं थी। किसने इन चट्टानों को यहाँ रखा? पहले अर्जुन वृक्ष की टहनी इस तरह झुकी नहीं थी, किन्तु अब झुकी है।”

भगवान ने कहा, “कश्यप, मुझे पंसुकूल प्राप्त हुआ था। तब मुझे लगा, “मैं इस पंसुकूल को कहाँ धोऊँ?” तब देवराज इन्द्र सक्क ने मेरे चित्त के विचार जान लिए, और उसने आकर अपने हाथों से तालाब खोदकर, मुझसे कहा, “यहाँ, भंते, भगवान अपने पंसुकूल को धोएँ!” इस तरह, कश्यप, इस तालाब को अमनुष्य ने खोदा है।

तब मुझे लगा, “मैं इस पंसुकूल को कहाँ पीटते हुए धोऊँ??” तब देवराज इन्द्र सक्क ने मेरे चित्त के विचार जान लिए, और उसने एक विशाल चट्टान रखकर, मुझसे कहा, “यहाँ, भंते, भगवान अपने पंसुकूल को पीटते हुए धोएँ!” इस तरह, कश्यप, इस चट्टान को अमनुष्य ने रखा है।

तब मुझे लगा, “मैं क्या पकड़ कर तालाब से बाहर आऊँ?” तब अर्जुन वृक्ष के देवता ने मेरे चित्त के विचार जान लिए, और उसने एक टहनी को झुकाते हुए कहा, “इसे, भंते, भगवान पकड़ कर तालाब से बाहर आएँ!” इस तरह, कश्यप, इस टहनी को अमनुष्य ने झुकाया है।

तब मुझे लगा, “मैं इस पंसुकूल को कहाँ सुखाऊँ?” तब देवराज इन्द्र सक्क ने मेरे चित्त के विचार जान लिए, और उसने एक विशाल चट्टान रखकर, मुझसे कहा, “यहाँ, भंते, भगवान अपने पंसुकूल को सुखाने डाले!” इस तरह, कश्यप, इस चट्टान को अमनुष्य ने रखा है।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । इसकी सेवा में तो देवराज इन्द्र सक्क तक हाजिर होता है। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

छटा चमत्कार।

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया, और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण!”

भगवान ने कहा, “तुम जाओ, कश्यप। मैं आता हूँ।” जटाधारी उरुवेल कश्यप को भेजकर, भगवान ने जाकर उसी जम्बूवृक्ष से जम्बूफल (=जामुन का फल) लिया, जिससे (भारतीय उपमहाद्वीप का नाम) ‘जम्बूद्वीप’ नाम पड़ा है, और, पहले जाकर अग्निगार में बैठ गए।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप ने आकर भगवान को देखा, तो उसने कहा, “महाश्रमण, तुम किस मार्ग से आएँ? मैं वहाँ से पहले निकला और तुम यहाँ पहले पहुँच गए।”

“कश्यप, मैंने जाकर उसी जम्बूवृक्ष से जम्बूफल लिया, जिससे ‘जम्बूद्वीप’ नाम पड़ा है, और आकर अग्निगार में बैठ गया। यह जम्बूफल, कश्यप, वर्णसंपन्न है, गंधसंपन्न है, रससंपन्न है। तुम्हें चाहिए तो खाओ!”

“नहीं चाहिए, महाश्रमण! तुम ही इसे खाने के काबिल (=अर्हंत) हो। तुम्हें ही इसे खाना चाहिए।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह जाकर उसी जम्बूवृक्ष से जम्बूफल ले आया, जिससे ‘जम्बूद्वीप’ नाम पड़ा है, और पहले आकर अग्निगार में बैठ गया। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

सातवा चमत्कार।

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया, और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण!”

भगवान ने कहा, “तुम जाओ, कश्यप। मैं आता हूँ।” जटाधारी उरुवेल कश्यप को भेजकर, भगवान ने जाकर उसी जम्बूवृक्ष के कुछ दूरी पर आमवृक्ष से आम लिया, और, पहले जाकर अग्निगार में बैठ गए।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप ने आकर भगवान को देखा, तो उसने कहा, “महाश्रमण, आज तुम किस मार्ग से आएँ? मैं वहाँ से पहले निकला और तुम पुनः यहाँ पहले पहुँच गए।”

“कश्यप, मैंने जाकर उसी जम्बूवृक्ष के कुछ दूरी पर आमवृक्ष से आम लिया, और आकर अग्निगार में बैठ गया। यह आम, कश्यप, वर्णसंपन्न है, गंधसंपन्न है, रससंपन्न है। तुम्हें चाहिए तो खाओ!”

“नहीं चाहिए, महाश्रमण! तुम ही इसे खाने के काबिल हो। तुम्हें ही इसे खाना चाहिए।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह जाकर उसी जम्बूवृक्ष कुछ दूरी पर आमवृक्ष से आम ले आया, और पहले आकर अग्निगार में बैठ गया। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

आठवा चमत्कार।

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया, और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण!”

भगवान ने कहा, “तुम जाओ, कश्यप। मैं आता हूँ।” जटाधारी उरुवेल कश्यप को भेजकर, भगवान ने जाकर उसी आमवृक्ष के कुछ दूरी पर आँवलावृक्ष से आँवला लिया, और, पहले जाकर अग्निगार में बैठ गए।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप ने आकर भगवान को देखा, तो उसने कहा, “महाश्रमण, आज तुम किस मार्ग से आएँ? मैं वहाँ से पहले निकला और तुम पुनः यहाँ पहले पहुँच गए।”

“कश्यप, मैंने जाकर उसी आमवृक्ष के कुछ दूरी पर आँवलावृक्ष से आँवला लिया, और आकर अग्निगार में बैठ गया। यह आँवला, कश्यप, वर्णसंपन्न है, गंधसंपन्न है, रससंपन्न है। तुम्हें चाहिए तो खाओ!”

“नहीं चाहिए, महाश्रमण! तुम ही इसे खाने के काबिल हो। तुम्हें ही इसे खाना चाहिए।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह जाकर उसी आमवृक्ष के कुछ दूरी पर आँवलावृक्ष से आँवला ले आया, और पहले आकर अग्निगार में बैठ गया। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

नौवा चमत्कार।

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया, और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण!”

भगवान ने कहा, “तुम जाओ, कश्यप। मैं आता हूँ।” जटाधारी उरुवेल कश्यप को भेजकर, भगवान ने जाकर उसी आँवलावृक्ष के कुछ दूरी पर हरड़वृक्ष से हरड़ लिया, और, पहले जाकर अग्निगार में बैठ गए।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप ने आकर भगवान को देखा, तो उसने कहा, “महाश्रमण, आज तुम किस मार्ग से आएँ? मैं वहाँ से पहले निकला और तुम पुनः यहाँ पहले पहुँच गए।”

“कश्यप, मैंने जाकर उसी आँवलावृक्ष के कुछ दूरी पर हरड़वृक्ष से हरड़ लिया, और आकर अग्निगार में बैठ गया। यह हरड़, कश्यप, वर्णसंपन्न है, गंधसंपन्न है, रससंपन्न है। तुम्हें चाहिए तो खाओ!”

“नहीं चाहिए, महाश्रमण! तुम ही इसे खाने के काबिल हो। तुम्हें ही इसे खाना चाहिए।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह जाकर उसी आँवलावृक्ष के कुछ दूरी पर हरड़वृक्ष से हरड़ ले आया, और पहले आकर अग्निगार में बैठ गया। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

दसवा चमत्कार।

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया, और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण!”

भगवान ने कहा, “तुम जाओ, कश्यप। मैं आता हूँ।” जटाधारी उरुवेल कश्यप को भेजकर, भगवान ने तैतीस देवलोक जाकर (नन्दनवन में लगा) मूँगे का पुष्प लिया, और, पहले जाकर अग्निगार में बैठ गए।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप ने आकर भगवान को देखा, तो उसने कहा, “महाश्रमण, आज तुम किस मार्ग से आएँ? मैं वहाँ से पहले निकला और तुम पुनः यहाँ पहले पहुँच गए।”

“कश्यप, मैंने तैतीस देवलोक जाकर मूँगे का पुष्प लिया, और आकर अग्निगार में बैठ गया। यह पुष्प, कश्यप, वर्णसंपन्न है, गंधसंपन्न है। तुम्हें चाहिए तो लो!”

“नहीं चाहिए, महाश्रमण! तुम ही इसे लेने के काबिल हो। तुम्हें ही इसे रखना चाहिए।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह तैतीस देवलोक जाकर मूँगे का पुष्प ले आया, और पहले आकर अग्निगार में बैठ गया। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

ग्यारहवा चमत्कार।

उस समय जटाधारी साधूगण लकड़ियों को चीर न पाने से अग्निसेवा नहीं कर पा रहे थे। तब उन जटाधारी साधूगण को लगा, “निश्चित, यह महाश्रमण की ऋद्धिप्रताप से है कि हम लकड़ियों को चीर न पाने से अग्निसेवा नहीं कर पा रहे हैं।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप को संबोधित किया, “कश्यप, फट जाएँ लकड़ियाँ!”

“हाँ फट जाएँ, महाश्रमण!”

और अचानक पाँच सौ लकड़ियाँ एक साथ फट गयी।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह इस तरह लकड़ियों को फाड़ देता है। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

बारहवा चमत्कार।

उस समय जटाधारी साधूगण अग्नि जला न पाने से अग्निसेवा नहीं कर पा रहे थे। तब उन जटाधारी साधूगण को लगा, “निश्चित ही, यह महाश्रमण की ऋद्धिप्रताप से है कि हम अग्नि जला न पाने से अग्निसेवा नहीं कर पा रहे हैं।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप को संबोधित किया, “कश्यप, अग्नि जल जाएँ!”

“हाँ जल जाएँ, महाश्रमण!”

और अचानक पाँच सौ अग्नि एक साथ जल उठी ।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह इस तरह अग्नि को जला देता है। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तेरहवा चमत्कार।

उस समय जटाधारी साधूगण अग्निसेवा पूर्ण कर अग्नि को बुझा नहीं पा रहे थे। तब उन जटाधारी साधूगण को लगा, “निश्चित ही, यह महाश्रमण की ऋद्धिप्रताप से है कि हम अग्निसेवा पूर्ण कर अग्नि को बुझा नहीं पा रहे हैं।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप को संबोधित किया, “कश्यप, अग्नि बुझ जाएँ!”

“हाँ बुझ जाएँ, महाश्रमण!”

और अचानक पाँच सौ अग्नि एक साथ बुझ गयी ।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह इस तरह अग्नि को बुझा भी देता है। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

चौदहवा चमत्कार।

उस समय शीतऋतु के मध्य की ठंडी रात में, हिमपात के समय जटाधारी साधूगण नेरञ्जरा नदी में बार-बार डुबकियाँ लगाकर उठ रहे थे। तब भगवान ने ऋद्धिरचना से पाँच सौ गरम तवे रख दिए, ताकि जल से निकलते ही जटाधारी स्वयं को ऊष्ण कर पाए।

तब उन जटाधारी साधूगण को लगा, “निश्चित ही, यह महाश्रमण की ऋद्धिप्रताप है कि यहाँ रखे पाँच सौ गरम तवे ऋद्धिरचना से बने हैं।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह इस तरह इतने सारे गरम तवे ऋद्धिरचना से बनाकर रख देता हैं। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

पंधरावा चमत्कार।

उस समय बिन-मौसम एक महामेघ ने महावृष्ठी करायी, और बड़ी बाढ़ आयी। जिस स्थान पर भगवान रहते थे, वह स्थान पूर्णतः जल में समा गया। तब भगवान को लगा, “क्यों न मैं जल को सभी दिशाओं में पीछे धकेल दूँ, और बीच में सूखे भूमि पर चक्रमण करूँ?” तब उन्होने जल को सभी दिशाओं में पीछे धकेल दिया, और बीच में सूखे भूमि पर चक्रमण करने लगे।

वहाँ जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “कही महाश्रमण बाढ़ में न बह जाएँ!” वह बहुत से जटाधारियों के साथ नाँव लेकर भगवान के स्थान पर आया। और उसने देखा कि भगवान ने जल को सभी दिशाओं में पीछे धकेल दिया है, और बीच में सूखे भूमि पर चक्रमण कर रहे है। तब उसने भगवान से कहा, “तुम ही हो, महाश्रमण?”

“हाँ, मैं हूँ, कश्यप!”

तब भगवान हवा में उड़कर नाँव में आ गए।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह इस तरह जल को पीछे धकेल सकता है। किन्तु वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान को लगा, “बहुत समय से यह नालायक पुरुष यही सोचता है कि महाश्रमण महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है , किन्तु मेरे जैसा अर्हंत नहीं है। क्यों न अब इस जटाधारी में संवेग जगाऊँ!”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप से कहा, “तुम अर्हंत नहीं हो, कश्यप, और न ही अर्हंतमार्ग पर स्थित हो। तुम्हारे पास कोई साधनमार्ग नहीं है, जो तुम्हें अर्हंत बनाएँ या अर्हंतमार्ग पर स्थित करे।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप ने भगवान के चरणों में अपना सिर रख दिया, और कहा, “भंते, मुझे भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“कश्यप, तुम पाँच सौ जटाधारी साधुओं के नायक हो, मार्गदर्शक हो, अग्र हो, प्रमुख हो, मुखिया हो। उन्हें पहले सूचित करो, ताकि उन्हें जैसा उचित लगे, वे करें।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप उन जटाधारी साधुगण के पास गया, और कहा, “श्रीमानो! मेरी इच्छा है कि मैं महाश्रमण के ब्रह्मचर्य धारण करूँ। आप श्रीमानो को जैसा उचित लगे, वैसा करें।”

“श्रीमान, हमें चिरकाल से उस महाश्रमण पर आस्था जड़ चुकी है। यदि आप महाश्रमण का ब्रह्मचर्य धारण करेंगे, तो हम सभी महाश्रमण का ब्रह्मचर्य धारण करेंगे!”

तब उन जटाधारियों ने अपने केशमिश्रण, जटामिश्रण, डंडा-बोरी और अग्निपुजा-सामान को नदी में बहा दिया, और भगवान के पास आएँ। भगवान के चरणों में सिर रखकर उन्होने भगवान से याचना की, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“आओ, भिक्षु!” भगवान ने कहा, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।”

और इस तरह, उन सभी आयुष्मानों की उपसंपदा संपन्न हुई।

तब जटाधारी नदी कश्यप ने केशमिश्रण, जटामिश्रण, डंडा-बोरी और अग्निपुजा-सामान को नदी में बहते देखा। उसने कहा, “मेरा भाई ठीक तो है?” उसने जटाधारियों को भेजा, “जाओ, मेरे भाई का पता लगाओ।”

तब (पता चलने पर) वह तीन सौ जटाधारियों के साथ उरुवेल कश्यप के पास गया, और आयुष्मान उरुवेल कश्यप से कहा, “क्या ये श्रेष्ठ है, कश्यप?”

“हाँ मित्र, ये श्रेष्ठ है।”

तब उन जटाधारियों ने अपने केशमिश्रण, जटामिश्रण, डंडा-बोरी और अग्निपुजा-सामान को नदी में बहा दिया, और भगवान के पास आएँ। भगवान के चरणों में सिर रखकर उन्होने भगवान से याचना की, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“आओ, भिक्षु!” भगवान ने कहा, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।”

और इस तरह, उन सभी आयुष्मानों की उपसंपदा संपन्न हुई।

तब जटाधारी गया कश्यप ने केशमिश्रण, जटामिश्रण, डंडा-बोरी और अग्निपुजा-सामान को नदी में बहते देखा। उसने कहा, “मेरे भाई ठीक तो हैं?” उसने जटाधारियों को भेजा, “जाओ, मेरे भाइयों का पता लगाओ।”

तब (पता चलने पर) वह दो सौ जटाधारियों के साथ उरुवेल कश्यप के पास गया, और आयुष्मान उरुवेल कश्यप से कहा, “क्या ये श्रेष्ठ है, कश्यप?”

“हाँ मित्र, ये श्रेष्ठ है।”

तब उन जटाधारियों ने अपने केशमिश्रण, जटामिश्रण, डंडा-बोरी और अग्निपुजा-सामान को नदी में बहा दिया, और भगवान के पास आएँ। भगवान के चरणों में सिर रखकर उन्होने भगवान से याचना की, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“आओ, भिक्षु!” भगवान ने कहा, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।”

और इस तरह, उन सभी आयुष्मानों की उपसंपदा संपन्न हुई।

भगवान ने अधिष्ठान से पाँच सौ लकड़ियों को फाड़ने से रोक दिया, और तब फाड़ दिया।
अग्नि जलने से रोक दिया, और तब जला दिया।
बुझने से भी रोक दिया, और तब बुझा दिया।
पाँच सौ गरम तवों की ऋद्धिरचना की।
इस तरह, कुल मिलाकर साढ़े तीन हज़ार चमत्कार किए।

तब भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया —

“सब कुछ, भिक्खुओं, धधक रहा हैं 1। क्या सब कुछ धधक रहा हैं?

आँखे धधक रही है, रूप धधक रहे हैं, आँखों का चैतन्य धधक रहा है, आँखों पर संस्पर्श धधक रहा है, और आँखों पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – वह भी धधक रहा है। किससे धधक रहा है? मैं कहता हूँ राग-अग्नि से धधक रहा है, द्वेष-अग्नि से धधक रहा है, मोह-अग्नि से धधक रहा है; जन्म, बुढ़ापा और मौत से, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा से धधक रहा है।

कान धधक रहा है, आवाज धधक रही हैं, कान का चैतन्य धधक रहा है, कान पर संस्पर्श धधक रहा है, और कान पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – वह भी धधक रहा है। किससे धधक रहा है? मैं कहता हूँ राग-अग्नि से धधक रहा है, द्वेष-अग्नि से धधक रहा है, मोह-अग्नि से धधक रहा है; जन्म, बुढ़ापा और मौत से, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा से धधक रहा है।

नाक धधक रहा है, गन्ध धधक रहे हैं, नाक का चैतन्य धधक रहा है, नाक पर संस्पर्श धधक रहा है, और नाक पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – वह भी धधक रहा है। किससे धधक रहा है? मैं कहता हूँ राग-अग्नि से धधक रहा है, द्वेष-अग्नि से धधक रहा है, मोह-अग्नि से धधक रहा है; जन्म, बुढ़ापा और मौत से, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा से धधक रहा है।

जीभ धधक रही है, स्वाद धधक रहे हैं, जीभ का चैतन्य धधक रहा है, जीभ पर संस्पर्श धधक रहा है, और जीभ पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – वह भी धधक रहा है। किससे धधक रहा है? मैं कहता हूँ राग-अग्नि से धधक रहा है, द्वेष-अग्नि से धधक रहा है, मोह-अग्नि से धधक रहा है; जन्म, बुढ़ापा और मौत से, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा से धधक रहा है।

काया धधक रही है, संस्पर्श धधक रहे हैं, काया का चैतन्य धधक रहा है, काया पर संस्पर्श धधक रहा है, और काया पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – वह भी धधक रहा है। किससे धधक रहा है? मैं कहता हूँ राग-अग्नि से धधक रहा है, द्वेष-अग्नि से धधक रहा है, मोह-अग्नि से धधक रहा है; जन्म, बुढ़ापा और मौत से, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा से धधक रहा है।

मन धधक रहा है, धर्म धधक रहे हैं, मन का चैतन्य धधक रहा है, मन पर संस्पर्श धधक रहा है, और मन पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – वह भी धधक रहा है। किससे धधक रहा है? मैं कहता हूँ राग-अग्नि से धधक रहा है, द्वेष-अग्नि से धधक रहा है, मोह-अग्नि से धधक रहा है; जन्म, बुढ़ापा और मौत से, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा से धधक रहा है।

ऐसा देखकर, भिक्षुओं, धर्म सुने आर्यश्रावक का आँखों से मोहभंग होता है, रूपों से मोहभंग होता है, आँखों के चैतन्य से मोहभंग होता है, आँखों पर होते संस्पर्श से मोहभंग होता है, और आँखों पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – उससे भी मोहभंग होता है।

कान से मोहभंग होता है, आवाज से मोहभंग होता है, कान के चैतन्य से मोहभंग होता है, कान पर होते संस्पर्श से मोहभंग होता है, और कान पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – उससे भी मोहभंग होता है।

नाक से मोहभंग होता है, गन्ध से मोहभंग होता है, नाक के चैतन्य से मोहभंग होता है, नाक पर होते संस्पर्श से मोहभंग होता है, और नाक पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – उससे भी मोहभंग होता है।

जीभ से मोहभंग होता है, स्वाद से मोहभंग होता है, जीभ के चैतन्य से मोहभंग होता है, जीभ पर होते संस्पर्श से मोहभंग होता है, और जीभ पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – उससे भी मोहभंग होता है।

काया से मोहभंग होता है, संस्पर्श से मोहभंग होता है, काया के चैतन्य से मोहभंग होता है, काया पर होते संस्पर्श से मोहभंग होता है, और काया पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – उससे भी मोहभंग होता है।

मन से मोहभंग होता है, धर्म से मोहभंग होता है, मन के चैतन्य से मोहभंग होता है, मन पर होते संस्पर्श से मोहभंग होता है, और मन पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – उससे भी मोहभंग होता है।

मोहभंग होने से विराग होता है। विराग होने से विमुक्त होता है। विमुक्ति से ज्ञात होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ और पता चलता है, ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’”

और जब यह स्पष्टीकरण दिया जा रहा था, तब सभी एक हजार भिक्षुओं का चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ।

आदित्तपरियाय सुत्त समाप्त।

उरुवेलपाटिहारियं ततियभाणवार समाप्त।

बिम्बिसार समागम कथा

तब भगवान को गया शीर्ष में जितना रुकना था, उतना रुके, और फिर एक हजार भिक्षुओं, जो पहले जटाधारी साधू थे, के विशाल संघ के साथ (मगध की राजधानी) राजगृह की ओर चल पड़े । अंततः वे क्रमशः भ्रमणचर्या करते हुए राजगृह तक पहुँच गए। तब भगवान ने राजगृह के लट्ठवन में सुप्रतिष्ठित चेतिय में विहार किया।

मगध के महाराज सेनिय बिम्बिसार को सूचित किया गया


  1. कहा जाता हैं कि भगवान ने उन्हें आदित्तपरियाय सुत्त, अर्थात ‘जलना, धधकना’ यह उपदेश इसलिए दिया, क्योंकि सभी पूर्व जटाधारी जीवन भर अग्निपुजा और अग्निसेवा करते रहे थे। उनका अग्नि से पुराना नाता रहा था। उसी अग्नि निमित्त को पकड़कर भगवान ने उन्हें उपदेशित किया ↩︎

“श्रीमान! शाक्यपुत्र श्रमण गौतम, जो शाक्य-कुल से प्रवज्यित हैं, राजगृह में पहुँच कर, लट्ठवन के सुप्रतिष्ठित चेतिय में विहार कर रहे है। और उनके बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त! वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं। और ऐसे अर्हन्तों का दर्शन वाकई शुभ होता है।””

तब मगधराज सेनिय बिम्बिसार मगध के एक लाख बीस हजार ब्राह्मणों और (वैश्य) गृहस्थों को लेकर भगवान के पास गया, और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। मगध के एक लाख बीस हजार ब्राह्मणों और गृहस्थों में से कुछ ने भगवान को अभिवादन किया, और एक-ओर बैठ गए। कुछ ब्राह्मणों और गृहस्थों ने भगवान से नम्रतापूर्ण वार्तालाप किया, और एक-ओर बैठ गए। कुछ ब्राह्मणों और गृहस्थों ने हाथ जोड़कर अंजलिबद्ध वंदन किया, और एक-ओर बैठ गए। कोई ब्राह्मणों और गृहस्थों ने भगवान को अपना नाम-गोत्र बताया, और एक-ओर बैठ गए। और कोई ब्राह्मण और गृहस्थ चुपचाप ही एक-ओर बैठ गए।

और, मगध के एक लाख बीस हजार ब्राह्मण और गृहस्थ (अचरज में) सोचने लगे, “यह महाश्रमण उरुवेल कश्यप का ब्रह्मचर्य पालन कर रहा है, अथवा उरुवेल कश्यप महाश्रमण का ब्रह्मचर्य पालन कर रहा है?”

तब भगवान ने अपने चित्त से मगध के उन एक लाख बीस हजार ब्राह्मणों और गृहस्थों के चित्त के विचार जान लिए, और आयुष्मान उरुवेल कश्यप से गाथाओं में कहा

"कृश नामक, उरुवेलावासी,
क्या देखा, जो अग्नि त्याग दिया?
यह पूछता मैं कश्यप से,
अग्निपुजा क्यों छोड़ दिया?

(उरुवेल कश्यप ने उत्तर दिया:)
कहते हैं वे, यज्ञ के ईनाम में ।
रूप, आवाज, स्वाद और कामस्त्री मिलेंगे।
किन्तु स्वामित्व के मल को जान,
यज्ञ, आहुति में मेरा मन नहीं रमा।

(भगवान ने कहा:)
तो रूप, आवाज और स्वादों में
कश्यप, तुम्हारा मन रमा नहीं।
तब इस देव-मानव से भरे लोक में,
बताओं, कहाँ तुम्हारा मन रमता है?

(उरुवेल कश्यप ने उत्तर दिया:)
ऐसी शान्त-अवस्था दिखी मुझे,
न काम-भव, न स्वामित्व, न कुछ जहाँ
न परिवर्तनशील, न अन्यथा पता चले,
इसलिए यज्ञ आहुती में मन नहीं रमा।


और तब आयुष्मान उरुवेल कश्यप अपने आसन से उठा, एक कन्धे पर चीवर कर, भगवान के चरणों में अपना सिर लगाते हुए, भगवान से कहा, “भंते, भगवान मेरे शास्ता है, मैं भगवान का शिष्य हूँ! भगवान मेरे शास्ता है, मैं भगवान का शिष्य हूँ!”

तब, मगध के उन एक लाख बीस हजार ब्राह्मणों और गृहस्थों को पता चला कि उरुवेल कश्यप महाश्रमण का ब्रह्मचर्य पालन कर रहा है।

तब भगवान ने अपने चित्त से मगध के उन एक लाख बीस हजार ब्राह्मणों और गृहस्थों के चित्त के विचार जान लिए, और उन्हें अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि उनका तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।

जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह मगधराज सेनिय बिम्बिसार के साथ मगध के एक लाख दस हजार ब्राह्मणों और गृहस्थों को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!” और बचे दस हजार ने उपासकत्व की घोषणा की।

तब धर्म देख चुका, धर्म पा चुका, धर्म जान चुका, धर्म में गहरे उतर चुका मगधराज सेनिय बिम्बिसार संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए। तब उसने भगवान से कहा

“भंते, जब पहले मैं कुमार था, तब मेरी पाँच इच्छाएँ थी, जो अब पूर्ण हो चुकी हैं। जब मैं पहले कुमार था, तो सोचता था, ‘अरे! काश, मेरा राजतिलक कर मुझे राजा बना दें!’ यह मेरी पहली इच्छा थी, जो अब पूर्ण हो चुकी है। ‘मेरे साम्राज्य में अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध आएँ!’ यह मेरी दूसरी इच्छा थी, जो अब पूर्ण हो चुकी है। ‘मैं उस भगवान का दर्शन ले सकूँ!’ यह मेरी तीसरी इच्छा थी, जो अब पूर्ण हो चुकी है। ‘वे भगवान मुझे धर्म उपदेश करें!’ यह मेरी चौथी इच्छा थी, जो अब पूर्ण हो चुकी है। ‘मैं भगवान के धर्म उपदेश को समझ जाऊँ!’ यह मेरी पाँचवी इच्छा थी, जो अब पूर्ण हो चुकी है।

अतिउत्तम, गुरु गौतम! अतिउत्तम, गुरु गौतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें! और, भंते, भगवान कल भिक्षुसंघ के साथ मेरा भोजन स्वीकार करें।”

भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी। तब भगवान की स्वीकृति जान कर, मगधराज सेनिय बिम्बिसार आसन से उठकर भगवान को अभिवादन करते हुए, प्रदक्षिणा करते हुए चला गया। और रात बीतने पर मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने अपने राजमहल पर उत्तम खाद्य और भोजन बनाकर, भगवान से विनंती की, “उचित समय है, हे गौतम! भोजन तैयार है।”

तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, एक हजार भिक्षुओं, जो पूर्व जटाधारी थे, के विशाल संघ के साथ राजगृह में प्रवेश किया। तब, देवराज इन्द्र सक्क ने अपनी ऋद्धिरचना से युवा-ब्राह्मण का रूप लिया, और बुद्ध के नेतृत्व में चल रहे भिक्षुसंघ के आगे-आगे चलते हुए ये गाथाएँ गाने लगा

"सभ्य, पूर्व-जटाधारी सभ्यों के साथ,
विमुक्त, विमुक्तों के साथ,
स्वर्णिम वर्ण भगवान, राजगृह प्रवेश किया।
मुक्त, पूर्व-जटाधारी मुक्तों के साथ,
विमुक्त, विमुक्तों के साथ,
स्वर्णिम वर्ण भगवान, राजगृह प्रवेश किया।
सन्त, पूर्व-जटाधारी संतों के साथ,
विमुक्त, विमुक्तों के साथ,
स्वर्णिम वर्ण भगवान, राजगृह प्रवेश किया।
दस-वासी, दस-बल,
दस-धर्म जानकार, दस-गुणों से युक्त,
दस-सौ के परिवार सहित,
राजगृह में प्रवेश किया।"

लोगों ने देवराज इन्द्र सक्क को देखकर कहने लगे, “कितना रूपवान है यह युवा-ब्राह्मण, कितना दर्शनीय है यह युवा-ब्राह्मण, कितना विश्वसनीय है यह युवा-ब्राह्मण! कौन है यह युवा-ब्राह्मण?”

ऐसा कहे जाने पर, देवराज इन्द्र सक्क ने उन लोगों से गाथाओं में कहा

"जो ज्ञानी है, सभी तरह से सभ्य,
शुद्ध है, अद्वितीय, इस लोक में अर्हंत सुगत,
मैं उनका सेवक हूँ!"

तब भगवान मगधराज सेनिय बिम्बिसार के राजमहल गए, और विशाल भिक्षुसंघ के साथ बिछे आसन पर बैठ गये। तब मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने भगवान और भिक्षुसंघ को स्वयं अपने हाथों से उत्तम खाद्य और भोजन परोस कर संतृप्त किया, संतुष्ट किया। भगवान के भोजन कर पात्र से हाथ हटाने के पश्चात, मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने स्वयं का आसन नीचे लगाया और एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने सोचा, “भगवान कहाँ विहार करेंगे? ऐसी जगह, जो गाँव से बहुत दूर न रहे, बहुत पास भी न रहे, जो जाने-आने में सुविधाजनक हो, जो भगवान के दर्शनार्थ लोगों के लिए भी सुलभ हो, जहाँ दिन में कम लोग, और रात में कम आवाज, कम शोर, शान्तिमय हो, लोगों से वीरान, एकांतवास के लिए उपयुक्त हो।”

तब मगधराज सेनिय बिम्बिसार को लगा, “मेरा वेलुवन उद्यान ऐसी ही जगह है, जो गाँव से बहुत दूर है, न बहुत पास है, जो जाने-आने में सुविधाजनक है, जो भगवान के दर्शनार्थ लोगों के लिए भी सुलभ होगा, जहाँ दिन में कम लोग, और रात में कम आवाज, कम शोर, शान्तिमय है, जो लोगों से वीरान, एकांतवास के लिए उपयुक्त है। क्यों न मैं अपने वेलुवन उद्यान को बुद्ध के नेतृत्व में भिक्षुसंघ को दे दूँ?”

तब मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने अपनी राजसी स्वर्ण-थाली को लेकर भगवान को अर्पण करते हुए कहा, “भंते, मैं वेलुवन उद्यान को बुद्ध के नेतृत्व में भिक्षुसंघ को देता हूँ!”

भगवान ने उस उद्यान का स्वीकार किया। और, भगवान ने मगधराज सेनिय बिम्बिसार को धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया, और आसन से उठकर चले गए।

तब इस कारण, इस प्रकरण से भगवान ने भिक्षुओं को धर्मकथा प्रदान की और संबोधित करते हुए कहा, “भिक्षुओं, मैं मठ (=आराम, विहार, उद्यान) की अनुमति देता हूँ!”

बिम्बिसार समागम कथा समाप्त।

सारिपुत्त मोग्गल्लान पब्बज्जा कथा

उस समय, घुमक्कड़ सञ्चय अपने ढ़ाई-सौ के विशाल घुमक्कड़-परिषद के साथ राजगृह में रहता था। उस समय, सारिपुत्त और मोग्गल्लान घुमक्कड़ सञ्चय का ब्रह्मचर्य पालन करते थे। उन दोनों ने आपस में सहमति बना रखी थी, “जिसे पहले अमृत मिले, वह दूसरे को बताएँ।”

उस समय सुबह होने पर आयुष्मान अस्सजि (=अश्वजित, पञ्चवर्गीय भिक्षुओं में से एक) चीवर ओढ़, पात्र लेकर भिक्षाटन के लिए राजगृह में प्रवेश किया। उनका आचरण आस्था जागृत करने वाला था

आगे बढ़ते और लौट आते हुए, नज़र टिकाते और नज़र हटाते हुए, (अंग) सिकोड़ते और पसारते हुए, झुकी आँखें और बेहतरीन काया-संचालन (=ईर्यापथ, बॉडी-लेंगवेज़ में उत्तम) संपन्न।

तब, घुमक्कड़ सारिपुत्त ने आयुष्मान अस्सजि को भिक्षाटन के लिए राजगृह में भटकते देखा। उनका आचरण आस्था जागृत कर रहा था

आगे बढ़ते और लौट आते हुए, नज़र टिकाते और नज़र हटाते हुए, सिकोड़ते और पसारते हुए, झुकी आँखें और बेहतरीन काया-संचालन संपन्न। ऐसा देखकर उसे लगा, “इस लोक में जो अर्हंत हैं या अर्हंतमार्ग पर स्थित हैं, हो न हो, यह भिक्षु उनमें से एक हैं। क्यों न मैं इस भिक्षु के पास जाऊँ और पुछूँ, ‘तुम किसे उद्देश्य कर प्रवज्जित हुए हो, मित्र? कौन हैं तुम्हारे शास्ता? तुम्हें किसके धर्म में रुचि है?’”

किन्तु घुमक्कड़ सारिपुत्त को लगा, “भिक्षु को पुछने का यह समय उचित नहीं है, जब वह बस्ती में भिक्षाटन के लिए भटक रहा हो। क्यों न मैं इस भिक्षु के पीछे-पीछे चलते रहूँ? मार्ग ढूँढने वाले को राह मिल जाएगी!”

तब आयुष्मान अस्सजि राजगृह से भिक्षाटन करने पर भिक्षा लेकर लौट गए। तब घुमक्कड़ सारिपुत्त आयुष्मान अस्सजि के पास गया, और मैत्रीपूर्ण वार्तालाप किया। प्रसन्न वार्तालाप कर, एक-ओर खड़ा होकर उसने आयुष्मान अस्सजि से कहा, “तुम्हारे इंद्रिय प्रसन्न हैं, मित्र, और तुम्हारी त्वचा परिशुद्ध और तेजस्वी है। तुम किसे उद्देश्य कर प्रवज्जित हुए हो, मित्र? कौन हैं तुम्हारे शास्ता? तुम्हें किसके धर्म में रुचि है?”

“शाक्यपुत्र महाश्रमण, जो शाक्य-कुल से प्रवज्जित है, मैं उन भगवान को उद्देश्य कर प्रवज्जित हुआ हूँ। वही भगवान मेरे शास्ता है। और मुझे उस भगवान के धर्म में रुचि है।”

“किन्तु, उस शास्ता का वाद (=तत्वज्ञान) क्या है? वे क्या उपदेश करते है?”

“मित्र, मैं नया हूँ। मुझे प्रवज्जा लिए अधिक समय नहीं हुआ। इस धर्म-विनय में नया-नया आया हूँ, इसलिए मैं तुम्हें विस्तार से धर्म नहीं बता पाऊँगा। किन्तु, मैं तुम्हें संक्षिप्त में धर्म बता सकता हूँ।”

तब, घुमक्कड़ सारिपुत्त ने आयुष्मान अस्सजि से कहा, “होगा, मित्र

थोड़ा-सा या बहुत बताओ,
बस, मुझे अर्थ बताओ,
मेरा अर्थ से ही अर्थ है,
बहुत विवरण से क्या होगा?"

तब, आयुष्मान अस्सजि ने घुमक्कड़ सारिपुत्त को यह धर्म-सूत्र बताया

"जो धर्म कारण से उत्पन्न हैं,
तथागत उनका कारण बताते है,
साथ ही, उनका निरोध बताते है,
बस, यही महाश्रमण का वाद है!"

घुमक्कड़ सारिपुत्त को यह धर्म-सूत्र सुनते ही धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”

"यही धर्म है, बस इतना ही,
अशोक-पद पाने के लिए पर्याप्त है!
किन्तु, जो अदृश्य रहता है,
असंख्य कल्प बीत जाते हैं।

तब, घुमक्कड़ सारिपुत्त घुमक्कड़ मोग्गल्लान के पास गया। घुमक्कड़ मोग्गल्लान ने घुमक्कड़ सारिपुत्त को द्दूर से आते देखा, और कह पड़ा, “तुम्हारे इंद्रिय प्रसन्न हैं, मित्र, और तुम्हारी त्वचा परिशुद्ध और तेजस्वी है। कही ऐसा तो नहीं कि तुमने अमृत पा लिया हो?"

“हाँ, मित्र! मैंने अमृत पा लिया है!”

“किन्तु, मित्र, तुमने अमृत को कैसे पा लिया?”

(तब, घुमक्कड़ सारिपुत्त ने घुमक्कड़ मोग्गल्लान को सारी घटनाएँ विवरण से बतायी… और जब ये कहा,)

"जो धर्म कारण से उत्पन्न हैं,
तथागत उनका कारण बताते है,
साथ ही, उनका निरोध बताते है,
बस, यही महाश्रमण का वाद है!"

घुमक्कड़ मोग्गल्लान को यह धर्म-सूत्र सुनते ही धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”

"यही धर्म है, बस इतना ही,
अशोक-पद पाने के लिए पर्याप्त है!
किन्तु, जो अदृश्य रहता है,
असंख्य कल्प बीत जाते हैं।

तब, घुमक्कड़ मोग्गल्लान ने घुमक्कड़ सारिपुत्त से कहा, “चलो, मित्र, उस भगवान के पास! वे ही हमारे शास्ता है!”

“किन्तु, मित्र, जो ढ़ाई-सौ घुमक्कड़ निश्रय के लिए हमारी ओर देखकर रहते हैं, उन्हें भी बताना चाहिए। ताकि उन्हें जो उचित लगे, वे करें।”

तब सारिपुत्त और मोग्गल्लान उन घुमक्कड़ों के पास गए, और उन्हें कहा, “हम दोनों भगवान के पास जा रहे हैं! वे ही हमारे शास्ता है!”

(उन्होने जवाब दिया:) “किन्तु, हम निश्रय के लिए आयुष्मान की ओर देखकर रहते हैं। यदि आप दोनों आयुष्मान महाश्रमण का ब्रह्मचर्य पालन करेंगे, तो हम भी सब महाश्रमण का ब्रह्मचर्य पालन करेंगे।”

तब सारिपुत्त और मोग्गल्लान घुमक्कड़ सञ्चय के पास गए, और उसे कहा, “हम दोनों भगवान के पास जा रहे हैं! वे ही हमारे शास्ता है!”

(उसने कहा:) “मत जाओ, मित्रों! हम तीनों इस सभा को मिलकर चलाएँगे!”

दूसरी बार… और तीसरी बार सारिपुत्त और मोग्गल्लान ने घुमक्कड़ सञ्चय से कहा, “हम दोनों भगवान के पास जा रहे हैं! वे ही हमारे शास्ता है!”

(तीसरी बार उसने कहा:) “मत जाओ, मित्रों! हम तीनों इस सभा को मिलकर चलाएँगे!”

तब सारिपुत्त और मोग्गल्लान उन ढ़ाई-सौ घुमक्कड़ों को लेकर वेलुवन की ओर चल पड़े। वही घुमक्कड़ सञ्चय ने गर्म रक्त की उल्टी 1 कर दी।

जब भगवान ने सारिपुत्त और मोग्गल्लान को दूर से आते देखा, तो उन्होने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, ये दो मित्र कोलित और उपतिस्स आ रहे हैं। मेरी यह शिष्यों की जोड़ी अग्र बनेगी, भद्र बनेगी।”

वेलुवन पहुँचने के पूर्व ही,
उनके ज्ञान की सीमा गहरी थी।
विमुक्ति, अनुत्तर अर्जन-त्याग!
शास्ता ने उनके बारे में कहा।

"ये दो मित्र, जो आ रहे हैं,
कोलित और उपतिस्स हैं!
मेरी यह शिष्यों की जोड़ी,
अग्र बनेगी, भद्र बनेगी!"

तब सारिपुत्त और मोग्गल्लान भगवान के पास गए, और भगवान के चरणों में सिर रखते हुए, भगवान से कहा, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“आओ, भिक्षु!” कह कर, भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, उन आयुष्मानों की उपसंपदा संपन्न हुई।

१४.१ अभिञ्ञातानंपब्बज्जा

उस समय, मगध के प्रसिद्ध - प्रसिद्ध कुलपुत्र भगवान का ब्रह्मचर्य पालन कर रहे थे। लोगों ने भर्त्सना, आलोचना और दुष्प्रचार किया


  1. ‘गर्म रक्त की उल्टी होना’ यह बौद्ध साहित्य में अनेक बार उल्लेख आता है। हम नहीं जानते हैं कि क्या कुछ लोगों को वास्तव में गर्म रक्त की उल्टी होती थी, अथवा यह उन व्यक्तियों के लिए एक मुहावरे के रूप में उपयोग किया गया हैं, जो किसी हानिकारक घटना से बुरी तरह चौंक गए हो, या उनका दिल टूट गया हो। जो भी हो, लेकिन, हमें ऐसे व्यक्तियों के ऊपर पड़े प्रभाव की तीव्रता, और उनके हृदय-विदारक भावना की प्रचंडता समझ आती हैं। ↩︎

“श्रमण गौतम हमें अपुत्रक बना रहे हैं! स्त्रियों को पतिहीन बना रहे हैं! कुल-परिवारों को तोड़ रहे हैं! वहाँ एक हजार जटाधारीयों ने प्रवज्जा ले ली! और यहाँ घुमक्कड़ सञ्चय के ढ़ाई-सौ ने प्रवज्जा ले ली! मगध के सभी प्रसिद्ध - प्रसिद्ध कुलपुत्र अब भगवान का ब्रह्मचर्य पालन कर रहे हैं!”

भिक्षुओं को देखकर, वे लोग गाथाओं में फटकार लगाते

"हुआ आगमन महाश्रमण का,"
मगध के गिरिब्बज [^गिरि] में;
सञ्चय के तो सभी ले गया,
अब और किसे ले जाएगा?"

भिक्षुओं ने उन लोगों की भर्त्सना, आलोचना और दुष्प्रचार को सुना, और जाकर भगवान से सब कह दिया। तब भगवान ने कहा, “ये बातें लंबे समय तक नहीं चलेगी, भिक्षुओं। एक सप्ताह तक चलेगी, और एक सप्ताह होते-होते विलुप्त हो जाएगी। तब भी, भिक्षुओं, जब वे लोग तुम्हें इन गाथाओं में फटकार लगाएँ

"हुआ आगमन महाश्रमण का,
मगध के गिरिब्बज [^गिरि] में;
सञ्चय के तो सभी ले गया,
अब और किसे ले जाएगा?"

तब तुम इन गाथाओं से उनका प्रतिउत्तर दों

"सद्धर्म से ले जाते है,
वे तथागत 'महावीर' है!
जब धर्म से वे ले जाते है,
तो तुम्हें क्यों ईर्ष्या होती है?""

तत्पश्चात, जब लोग भिक्षुओं को देखकर गाथाओं में फटकार लगाते

"हुआ आगमन महाश्रमण का,
मगध के गिरिब्बज में;
सञ्चय के तो सभी ले गया,
अब और किसे ले जाएगा?"

तब भिक्षु इन गाथाओं से उनका प्रतिउत्तर देते

"सद्धर्म से ले जाते है,
वे तथागत 'महावीर' है!
जब धर्म से वे ले जाते है,
तो तुम्हें क्यों ईर्ष्या होती है?""

लोगों को लगा, “लगता है कि शाक्यपुत्र श्रमण धर्म से ही ले जा रहा है, अधर्म से नहीं।” और ये बातें एक सप्ताह तक चली। और एक सप्ताह होते-होते विलुप्त हो गयी।

सारिपुत्त मोग्गल्लान पब्बज्जा कथा समाप्त।

चतुत्थ भाणवार समाप्त।

Pali

१. बोधिकथा

१. [उदा॰ १ आदयो] तेन समयेन बुद्धो भगवा उरुवेलायं विहरति नज्‍जा नेरञ्‍जराय तीरे बोधिरुक्खमूले पठमाभिसम्बुद्धो। अथ खो भगवा बोधिरुक्खमूले सत्ताहं एकपल्‍लङ्केन निसीदि विमुत्तिसुखपटिसंवेदी [विमुत्तिसुखं पटिसंवेदी (क॰)]। अथ खो भगवा रत्तिया पठमं यामं पटिच्‍चसमुप्पादं अनुलोमपटिलोमं मनसाकासि – ‘‘अविज्‍जापच्‍चया सङ्खारा, सङ्खारपच्‍चया विञ्‍ञाणं, विञ्‍ञाणपच्‍चया नामरूपं, नामरूपपच्‍चया सळायतनं, सळायतनपच्‍चया फस्सो, फस्सपच्‍चया वेदना, वेदनापच्‍चया तण्हा, तण्हापच्‍चया उपादानं, उपादानपच्‍चया भवो, भवपच्‍चया जाति, जातिपच्‍चया जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा सम्भवन्ति – एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होति। ‘‘अविज्‍जायत्वेव असेसविरागनिरोधा सङ्खारनिरोधो, सङ्खारनिरोधा विञ्‍ञाणनिरोधो, विञ्‍ञाणनिरोधा नामरूपनिरोधो, नामरूपनिरोधा सळायतननिरोधो, सळायतननिरोधा फस्सनिरोधो, फस्सनिरोधा वेदनानिरोधो, वेदनानिरोधा तण्हानिरोधो, तण्हानिरोधा उपादाननिरोधो , उपादाननिरोधा भवनिरोधो, भवनिरोधा जातिनिरोधो, जातिनिरोधा जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा निरुज्झन्ति – एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स निरोधो होती’’ति।

अथ खो भगवा एतमत्थं विदित्वा तायं वेलायं इमं उदानं उदानेसि –

‘‘यदा हवे पातुभवन्ति धम्मा।

आतापिनो झायतो ब्राह्मणस्स।

अथस्स कङ्खा वपयन्ति सब्बा।

यतो पजानाति सहेतुधम्म’’न्ति॥

२. [उदा॰ २] अथ खो भगवा रत्तिया मज्झिमं यामं पटिच्‍चसमुप्पादं अनुलोमपटिलोमं मनसाकासि – ‘‘अविज्‍जापच्‍चया सङ्खारा, सङ्खारपच्‍चया विञ्‍ञाणं, विञ्‍ञाणपच्‍चया नामरूपं…पे॰… एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होती…पे॰… निरोधो होती’’ति।

अथ खो भगवा एतमत्थं विदित्वा तायं वेलायं इमं उदानं उदानेसि –

‘‘यदा हवे पातुभवन्ति धम्मा।

आतापिनो झायतो ब्राह्मणस्स।

अथस्स कङ्खा वपयन्ति सब्बा।

यतो खयं पच्‍चयानं अवेदी’’ति॥

३. [उदा॰ ३] अथ खो भगवा रत्तिया पच्छिमं यामं पटिच्‍चसमुप्पादं अनुलोमपटिलोमं मनसाकासि – ‘‘अविज्‍जापच्‍चया सङ्खारा, सङ्खारपच्‍चया विञ्‍ञाणं, विञ्‍ञाणपच्‍चया नामरूपं…पे॰… एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होति…पे॰… निरोधो होती’’ति।

अथ खो भगवा एतमत्थं विदित्वा तायं वेलायं इमं उदानं उदानेसि –

‘‘यदा हवे पातुभवन्ति धम्मा।

आतापिनो झायतो ब्राह्मणस्स।

विधूपयं तिट्ठति मारसेनं।

सूरियोव [सुरियोव (सी॰ स्या॰ कं॰)] ओभासयमन्तलिक्ख’’न्ति॥

बोधिकथा निट्ठिता।

२. अजपालकथा

४. [उदा॰ ४] अथ खो भगवा सत्ताहस्स अच्‍चयेन तम्हा समाधिम्हा वुट्ठहित्वा बोधिरुक्खमूला येन अजपालनिग्रोधो तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा अजपालनिग्रोधमूले सत्ताहं एकपल्‍लङ्केन निसीदि विमुत्तिसुखपटिसंवेदी। अथ खो अञ्‍ञतरो हुंहुङ्कजातिको ब्राह्मणो येन भगवा तेनुपसङ्कमि। उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो सो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘कित्तावता नु खो, भो गोतम, ब्राह्मणो होति, कतमे च पन ब्राह्मणकरणा [ब्राह्मणकारका (क॰) ब्राह्मणकराणा (?)] धम्मा’’ति? अथ खो भगवा एतमत्थं विदित्वा तायं वेलायं इमं उदानं उदानेसि –

[नेत्ति॰ १०३] यो ब्राह्मणो बाहितपापधम्मो।

निहुंहुङ्को निक्‍कसावो यतत्तो।

वेदन्तगू वुसितब्रह्मचरियो।

धम्मेन सो ब्रह्मवादं वदेय्य।

यस्सुस्सदा नत्थि कुहिञ्‍चि लोके’’ति॥

अजपालकथा निट्ठिता।

३. मुचलिन्दकथा

५. [उदा॰ ११] अथ खो भगवा सत्ताहस्स अच्‍चयेन तम्हा समाधिम्हा वुट्ठहित्वा अजपालनिग्रोधमूला येन मुचलिन्दो तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा मुचलिन्दमूले सत्ताहं एकपल्‍लङ्केन निसीदि विमुत्तिसुखपटिसंवेदी। तेन खो पन समयेन महा अकालमेघो उदपादि, सत्ताहवद्दलिका सीतवातदुद्दिनी। अथ खो मुचलिन्दो नागराजा सकभवना निक्खमित्वा भगवतो कायं सत्तक्खत्तुं भोगेहि परिक्खिपित्वा उपरिमुद्धनि महन्तं फणं करित्वा अट्ठासि – ‘‘मा भगवन्तं सीतं, मा भगवन्तं उण्हं, मा भगवन्तं डंसमकसवातातपसरीसपसम्फस्सो’’ति […सिरिं सप… (सी॰ स्या॰ कं॰)]। अथ खो मुचलिन्दो नागराजा सत्ताहस्स अच्‍चयेन विद्धं विगतवलाहकं देवं विदित्वा भगवतो काया भोगे विनिवेठेत्वा सकवण्णं पटिसंहरित्वा माणवकवण्णं अभिनिम्मिनित्वा भगवतो पुरतो अट्ठासि पञ्‍जलिको भगवन्तं नमस्समानो। अथ खो भगवा एतमत्थं विदित्वा तायं वेलायं इमं उदानं उदानेसि –

[कथा॰ ३३८ कथावत्थुपाळियम्पि]‘‘सुखो विवेको तुट्ठस्स, सुतधम्मस्स पस्सतो।

अब्यापज्‍जं सुखं लोके, पाणभूतेसु संयमो॥

[कथा॰ ३३८ कथावत्थुपाळियम्पि]‘‘सुखा विरागता लोके, कामानं समतिक्‍कमो।

अस्मिमानस्स यो विनयो, एतं वे परमं सुख’’न्ति॥

मुचलिन्दकथा निट्ठिता।

४. राजायतनकथा

६. अथ खो भगवा सत्ताहस्स अच्‍चयेन तम्हा समाधिम्हा वुट्ठहित्वा मुचलिन्दमूला येन राजायतनं तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा राजायतनमूले सत्ताहं एकपल्‍लङ्केन निसीदि विमुत्तिसुखपटिसंवेदी। तेन खो पन समयेन तपुस्स [तपस्सु (सी॰)] भल्‍लिका वाणिजा उक्‍कला तं देसं अद्धानमग्गप्पटिपन्‍ना होन्ति। अथ खो तपुस्सभल्‍लिकानं वाणिजानं ञातिसालोहिता देवता तपुस्सभल्‍लिके वाणिजे एतदवोच – ‘‘अयं, मारिसा, भगवा राजायतनमूले विहरति पठमाभिसम्बुद्धो; गच्छथ तं भगवन्तं मन्थेन च मधुपिण्डिकाय च पतिमानेथ; तं वो भविस्सति दीघरत्तं हिताय सुखाया’’ति। अथ खो तपुस्सभल्‍लिका वाणिजा मन्थञ्‍च मधुपिण्डिकञ्‍च आदाय येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठंसु। एकमन्तं ठिता खो तपुस्सभल्‍लिका वाणिजा भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘पटिग्गण्हातु नो, भन्ते, भगवा मन्थञ्‍च मधुपिण्डिकञ्‍च, यं अम्हाकं अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया’’ति। अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘न खो तथागता हत्थेसु पटिग्गण्हन्ति। किम्हि नु खो अहं पटिग्गण्हेय्यं मन्थञ्‍च मधुपिण्डिकञ्‍चा’’ति? अथ खो चत्तारो महाराजानो भगवतो चेतसा चेतोपरिवितक्‍कमञ्‍ञाय चतुद्दिसा चत्तारो सेलमये पत्ते भगवतो उपनामेसुं – ‘‘इध, भन्ते, भगवा पटिग्गण्हातु मन्थञ्‍च मधुपिण्डिकञ्‍चा’’ति। पटिग्गहेसि भगवा पच्‍चग्घे सेलमये पत्ते मन्थञ्‍च मधुपिण्डिकञ्‍च, पटिग्गहेत्वा परिभुञ्‍जि। अथ खो तपुस्सभल्‍लिका वाणिजा भगवन्तं ओनीतपत्तपाणिं विदित्वा भगवतो पादेसु सिरसा निपतित्वा भगवन्तं (ओनीतपत्तपाणिं विदित्वा भगवतो पादेसु सिरसा निपतित्वा भगवन्तं) [( ) सी॰ स्या॰ पोत्थकेसु नत्थि] एतदवोचुं – ‘‘एते मयं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छाम धम्मञ्‍च, उपासके नो भगवा धारेतु अज्‍जतग्गे पाणुपेते सरणं गते’’ति। ते च लोके पठमं उपासका अहेसुं द्वेवाचिका।

राजायतनकथा निट्ठिता।

५. ब्रह्मयाचनकथा

७. [अयं ब्रह्मयाचनकथा दी॰ नि॰ २.६४ आदयो; म॰ नि॰ १.२८१ आदयो; म॰ नि॰ २.३३६ आदयो; सं॰ नि॰ १.१७२ आदयो] अथ खो भगवा सत्ताहस्स अच्‍चयेन तम्हा समाधिम्हा वुट्ठहित्वा राजायतनमूला येन अजपालनिग्रोधो तेनुपसङ्कमि। तत्र सुदं भगवा अजपालनिग्रोधमूले विहरति। अथ खो भगवतो रहोगतस्स पटिसल्‍लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्‍को उदपादि – ‘‘अधिगतो खो म्यायं धम्मो गम्भीरो दुद्दसो दुरनुबोधो सन्तो पणीतो अतक्‍कावचरो निपुणो पण्डितवेदनीयो। आलयरामा खो पनायं पजा आलयरता आलयसम्मुदिता। आलयरामाय खो पन पजाय आलयरताय आलयसम्मुदिताय दुद्दसं इदं ठानं यदिदं इदप्पच्‍चयतापअच्‍चसमुप्पादो; इदम्पि खो ठानं सुदुद्दसं यदिदं सब्बसङ्खारसमथो सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो तण्हाक्खयो विरागो निरोधो निब्बानं। अहञ्‍चेव खो पन धम्मं देसेय्यं, परे च मे न आजानेय्युं, सो ममस्स किलमथो, सा ममस्स विहेसा’’ति। अपिस्सु भगवन्तं इमा अनच्छरिया गाथायो पटिभंसु पुब्बे अस्सुतपुब्बा –

‘‘किच्छेन मे अधिगतं, हलं दानि पकासितुं।

रागदोसपरेतेहि, नायं धम्मो सुसम्बुधो॥

‘‘पटिसोतगामिं निपुणं, गम्भीरं दुद्दसं अणुं।

रागरत्ता न दक्खन्ति, तमोखन्धेन आवुटा [आवटा (सी॰)]’’ति॥

इतिह भगवतो पटिसञ्‍चिक्खतो अप्पोस्सुक्‍कताय चित्तं नमति, नो धम्मदेसनाय।

८. अथ खो ब्रह्मुनो सहम्पतिस्स भगवतो चेतसा चेतोपरिवितक्‍कमञ्‍ञाय एतदहोसि – ‘‘नस्सति वत भो लोको, विनस्सति वत भो लोको, यत्र हि नाम तथागतस्स अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अप्पोस्सुक्‍कताय चित्तं नमति [नमिस्सति (?)], नो धम्मदेसनाया’’ति। अथ खो ब्रह्मा सहम्पति – सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्‍जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्‍जेय्य एवमेव – ब्रह्मलोके अन्तरहितो भगवतो पुरतो पातुरहोसि। अथ खो ब्रह्मा सहम्पति एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा दक्खिणजाणुमण्डलं पथवियं निहन्त्वा येन भगवा तेनञ्‍जलिं पणामेत्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘देसेतु, भन्ते, भगवा धम्मं, देसेतु सुगतो धम्मं। सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति , भविस्सन्ति धम्मस्स अञ्‍ञातारो’’ति। इदमवोच ब्रह्मा सहम्पति, इदं वत्वान अथापरं एतदवोच –

‘‘पातुरहोसि मगधेसु पुब्बे।

धम्मो असुद्धो समलेहि चिन्तितो।

अपापुरेतं [अवापुरेतं (सी॰)] अमतस्स द्वारं।

सुणन्तु धम्मं विमलेनानुबुद्धं॥

‘‘सेले यथा पब्बतमुद्धनिट्ठितो।

यथापि पस्से जनतं समन्ततो।

तथूपमं धम्ममयं सुमेध।

पासादमारुय्ह समन्तचक्खु।

सोकावतिण्णं जनतमपेतसोको।

अवेक्खस्सु जातिजराभिभूतं॥

‘‘उट्ठेहि वीर विजितसङ्गाम।

सत्थवाह अणण [अनण (क॰)] विचर लोके।

देसस्सु [देसेतु (क॰)] भगवा धम्मं।

अञ्‍ञातारो भविस्सन्ती’’ति॥

[[ ] सी॰ स्या॰ पोत्थकेसु नत्थि, मूलपण्णासकेसु पासरासिसुत्थे ब्रह्मयाचना सकिं येव आगता] [ एवं वुत्ते भगवा ब्रह्मानं सहम्पतिं एतदवोच – ‘‘मय्हम्पि खो, ब्रह्मे, एतदहोसि – ‘अधिगतो खो म्यायं धम्मो गम्भीरो दुद्दसो दुरनुबोधो सन्तो पणीतो अतक्‍कावचरो निपुणो पण्डितवेदनीयो। आलयरामा खो पनायं पजा आलयरता आलयसम्मुदिता। आलयरामाय खो पन पजाय आलयरताय आलयसम्मुदिताय दुद्दसं इदं ठानं यदिदं इदप्पच्‍चयतापटिच्‍चसमुप्पादो; इदम्पि खो ठानं सुदुद्दसं यदिदं सब्बसङ्खारसमथो सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो तण्हाक्खयो विरागो निरोधो निब्बानं। अहञ्‍चेव खो पन धम्मं देसेय्यं, परे च मे न आजानेय्युं, सो ममस्स किलमथो, सा ममस्स विहेसा’ति। अपिस्सु मं, ब्रह्मे, इमा अनच्छरिया गाथायो पटिभंसु पुब्बे अस्सुतपुब्बा –

‘किच्छेन मे अधिगतं, हलं दानि पकासितुं।

रागदोसपरेतेहि, नायं धम्मो सुसम्बुधो॥

‘पटिसोतगामिं निपुणं, गम्भीरं दुद्दसं अणुं।

रागरत्ता न दक्खन्ति, तमोखन्धेन आवुटा’ति॥

इतिह मे, ब्रह्मे, पटिसञ्‍चिक्खतो अप्पोस्सुक्‍कताय चित्तं नमति नो धम्मदेसनाया’’ति।

दुतियम्पि खो ब्रह्मा सहम्पति भगवन्तं एतदवोच – ‘‘देसेतु, भन्ते, भगवा धम्मं, देसेतु सुगतो धम्मं; सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अञ्‍ञातारो’’ति। इदमवोच ब्रह्मा सहम्पति, इदं वत्वान अथापरं एतदवोच –

‘‘पातुरहोसि मगधेसु पुब्बे।

धम्मो असुद्धो समलेहि चिन्तितो।

अपापुरेतं अमतस्स द्वारं।

सुणन्तु धम्मं विमलेनानुबुद्धं॥

‘‘सेले यथा पब्बतमुद्धनिट्ठितो।

यथापि पस्से जनतं समन्ततो।

तथूपमं धम्ममयं सुमेध।

पासादमारुय्ह समन्तचक्खु।

सोकावतिण्णं जनतमपेतसोको।

अवेक्खस्सु जातिजराभिभूतं॥

‘‘उट्ठेहि वीर विजितसङ्गाम।

सत्थवाह अणण विचर लोके।

देसस्सु भगवा धम्मं।

अञ्‍ञातारो भविस्सन्ती’’ति॥

दुतियम्पि खो भगवा ब्रह्मानं सहम्पतिं एतदवोच – ‘‘मय्हम्पि खो, ब्रह्मे, एतदहोसि – ‘अधिगतो खो म्यायं धम्मो गम्भीरो दुद्दसो दुरनुबोधो सन्तो पणीतो अतक्‍कावचरो निपुणो पण्डितवेदनीयो। आलयरामा खो पनायं पजा आलयरता आलयसम्मुदिता। आलयरामाय खो पन पजाय आलयरताय आलयसम्मुदिताय दुद्दसं इदं ठानं यदिदं इदप्पच्‍चयतापटिच्‍चसमुप्पादो; इदम्पि खो ठानं सुदुद्दसं यदिदं सब्बसङ्खारसमथो सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो तण्हाक्खयो विरागो निरोधो निब्बानं। अहञ्‍चेव खो पन धम्मं देसेय्यं, परे च मे न आजानेय्युं, सो ममस्स किलमथो, सा ममस्स विहेसा’ति। अपिस्सु मं, ब्रह्मे, इमा अनच्छरिया गाथायो पटिभंसु पुब्बे अस्सुतपुब्बा –

‘किच्छेन मे अधिगतं, हलं दानि पकासितुं।

रागदोसपरेतेहि, नायं धम्मो सुसम्बुधो॥

‘पटिसोतगामिं निपुणं, गम्भीरं दुद्दसं अणुं।

रागरत्ता न दक्खन्ति, तमोखन्धेन आवुटा’ति॥

इतिह मे, ब्रह्मे, पटिसञ्‍चिक्खतो अप्पोस्सुक्‍कताय चित्तं नमति, नो धम्मदेसनाया’’ति।

ततियम्पि खो ब्रह्मा सहम्पति भगवन्तं एतदवोच – ‘‘देसेतु, भन्ते, भगवा धम्मं, देसेतु सुगतो धम्मं। सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अञ्‍ञातारो’’ति। इदमवोच ब्रह्मा सहम्पति, इदं वत्वान अथापरं एतदवोच –

‘‘पातुरहोसि मगधेसु पुब्बे।

धम्मो असुद्धो समलेहि चिन्तितो।

अपापुरेतं अमतस्स द्वारं।

सुणन्तु धम्मं विमलेनानुबुद्धं॥

‘‘सेले यथा पब्बतमुद्धनिट्ठितो।

यथापि पस्से जनतं समन्ततो।

तथूपमं धम्ममयं सुमेध।

पासादमारुय्ह समन्तचक्खु।

सोकावतिण्णं जनतमपेतसोको।

अवेक्खस्सु जातिजराभिभूतं॥

‘‘उट्ठेहि वीर विजितसङ्गाम।

सत्थवाह अणण विचर लोके।

देसस्सु भगवा धम्मं।

अञ्‍ञातारो भविस्सन्ती’’ति॥

९. अथ खो भगवा ब्रह्मुनो च अज्झेसनं विदित्वा सत्तेसु च कारुञ्‍ञतं पटिच्‍च बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेसि। अद्दसा खो भगवा बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेन्तो सत्ते अप्परजक्खे महारजक्खे तिक्खिन्द्रिये मुदिन्द्रिये स्वाकारे द्वाकारे सुविञ्‍ञापये दुविञ्‍ञापये, अप्पेकच्‍चे परलोकवज्‍जभयदस्साविने [दस्साविनो (सी॰ स्या॰ कं॰)] विहरन्ते, अप्पेकच्‍चे न परलोकवज्‍जभयदस्साविने विहरन्ते। सेय्यथापि नाम उप्पलिनियं वा पदुमिनियं वा पुण्डरीकिनियं वा अप्पेकच्‍चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि उदकानुग्गतानि अन्तो निमुग्गपोसीनि , अप्पेकच्‍चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि समोदकं ठितानि, अप्पेकच्‍चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि उदकं अच्‍चुग्गम्म ठितानि [तिट्ठन्ति (सी॰ स्या॰)] अनुपलित्तानि उदकेन, एवमेवं भगवा बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेन्तो अद्दस सत्ते अप्परजक्खे महारजक्खे तिक्खिन्द्रिये मुदिन्द्रिये स्वाकारे द्वाकारे सुविञ्‍ञापये दुविञ्‍ञापये, अप्पेकच्‍चे परलोकवज्‍जभयदस्साविने विहरन्ते, अप्पेकच्‍चे न परलोकवज्‍जभयदस्साविने विहरन्ते; दिस्वान ब्रह्मानं सहम्पतिं गाथाय पच्‍चभासि –

‘‘अपारुता तेसं अमतस्स द्वारा।

ये सोतवन्तो पमुञ्‍चन्तु सद्धं।

विहिंससञ्‍ञी पगुणं न भासिं।

धम्मं पणीतं मनुजेसु ब्रह्मे’’ति॥

अथ खो ब्रह्मा सहम्पति ‘‘कतावकासो खोम्हि भगवता धम्मदेसनाया’’ति भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेवन्तरधायि।

ब्रह्मयाचनकथा निट्ठिता।

६. पञ्‍चवग्गियकथा

१०. [म॰ नि॰ १.२८४ आदयो; म॰ नि॰ २.३३९ आदयो] अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘कस्स नु खो अहं पठमं धम्मं देसेय्यं? को इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’’ति? अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘अयं खो आळारो कालामो पण्डितो ब्यत्तो मेधावी दीघरत्तं अप्परजक्खजातिको; यंनूनाहं आळारस्स कालामस्स पठमं धम्मं देसेय्यं, सो इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’’ति। अथ खो अन्तरहिता देवता भगवतो आरोचेसि – ‘‘सत्ताहकालङ्कतो, भन्ते, आळारो कालामो’’ति। भगवतोपि खो ञाणं उदपादि – ‘‘सत्ताहकालङ्कतो आळारो कालामो’’ति। अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘महाजानियो खो आळारो कालामो; सचे हि सो इमं धम्मं सुणेय्य, खिप्पमेव आजानेय्या’’ति। अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘कस्स नु खो अहं पठमं धम्मं देसेय्यं? को इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’’ति? अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘अयं खो उदको [उद्दको (सी॰ स्या॰)] रामपुत्तो पण्डितो ब्यत्तो मेधावी दीघरत्तं अप्परजक्खजातिको; यंनूनाहं उदकस्स रामपुत्तस्स पठमं धम्मं देसेय्यं, सो इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’’ति। अथ खो अन्तरहिता देवता भगवतो आरोचेसि – ‘‘अभिदोसकालङ्कतो, भन्ते, उदको रामपुत्तो’’ति। भगवतोपि खो ञाणं उदपादि – ‘‘अभिदोसकालङ्कतो उदको रामपुत्तो’’ति। अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘महाजानियो खो उदको रामपुत्तो; सचे हि सो इमं धम्मं सुणेय्य, खिप्पमेव आजानेय्या’’ति

अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘कस्स नु खो अहं पठमं धम्मं देसेय्यं? को इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’’ति? अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘बहुकारा खो मे पञ्‍चवग्गिया भिक्खू, ये मं पधानपहितत्तं उपट्ठहिंसु; यंनूनाहं पञ्‍चवग्गियानं भिक्खूनं पठमं धम्मं देसेय्य’’न्ति। अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘कहं नु खो एतरहि पञ्‍चवग्गिया भिक्खू विहरन्ती’’ति? अद्दसा खो भगवा दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्‍कन्तमानुसकेन पञ्‍चवग्गिये भिक्खू बाराणसियं विहरन्ते इसिपतने मिगदाये। अथ खो भगवा उरुवेलायं यथाभिरन्तं विहरित्वा येन बाराणसी तेन चारिकं पक्‍कामि।

११. अद्दसा खो उपको आजीवको भगवन्तं अन्तरा च गयं अन्तरा च बोधिं अद्धानमग्गप्पटिपन्‍नं, दिस्वान भगवन्तं एतदवोच – ‘‘विप्पसन्‍नानि खो ते, आवुसो, इन्द्रियानि, परिसुद्धो छविवण्णो परियोदातो। कंसि त्वं, आवुसो, उद्दिस्स पब्बजितो? को वा ते सत्था? कस्स वा त्वं धम्मं रोचेसी’’ति? एवं वुत्ते भगवा उपकं आजीवकं गाथाहि अज्झभासि –

[ध॰ प॰ ३५३; कथा॰ ४०५] ‘‘सब्बाभिभू सब्बविदूहमस्मि,

सब्बेसु धम्मेसु अनूपलित्तो।

सब्बञ्‍जहो तण्हाक्खये विमुत्तो,

सयं अभिञ्‍ञाय कमुद्दिसेय्यं॥

[मि॰ प॰ ४.५.११ मिलिन्दपञ्हेपि; कथा॰ ४०५] ‘‘न मे आचरियो अत्थि, सदिसो मे न विज्‍जति।

सदेवकस्मिं लोकस्मिं, नत्थि मे पटिपुग्गलो॥

[कथा॰ ४०५ कथावत्थुपाळियम्पि] ‘‘अहञ्हि अरहा लोके, अहं सत्था अनुत्तरो।

एकोम्हि सम्मासम्बुद्धो, सीतिभूतोस्मि निब्बुतो॥

[कथा॰ ४०५ कथावत्थुपाळियम्पि]‘‘धम्मचक्‍कं पवत्तेतुं, गच्छामि कासिनं पुरं।

अन्धीभूतस्मिं लोकस्मिं, आहञ्छं [आहञ्‍ञिं (क॰)] अमतदुन्दुभि’’न्ति॥

यथा खो त्वं, आवुसो, पटिजानासि, अरहसि अनन्तजिनोति।

[कथा॰ ४०५ कथावत्थुपाळियम्पि] ‘‘मादिसा वे जिना होन्ति, ये पत्ता आसवक्खयं।

जिता मे पापका धम्मा, तस्माहमुपक [तस्माहमुपका (सी॰)] जिनो’’ति॥

एवं वुत्ते उपको आजीवको हुपेय्यपावुसोति [हुवेय्यपावुसो (सी॰) हुवेय्यावुसो (स्या॰)] वत्वा सीसं ओकम्पेत्वा उम्मग्गं गहेत्वा पक्‍कामि।

१२. अथ खो भगवा अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन बाराणसी इसिपतनं मिगदायो, येन पञ्‍चवग्गिया भिक्खू तेनुपसङ्कमि। अद्दसंसु खो पञ्‍चवग्गिया भिक्खू भगवन्तं दूरतोव आगच्छन्तं; दिस्वान अञ्‍ञमञ्‍ञं कतिकं [इदं पदं केसुचि नत्थि] सण्ठपेसुं – ‘‘अयं, आवुसो, समणो गोतमो आगच्छति, बाहुल्‍लिको पधानविब्भन्तो आवत्तो बाहुल्‍लाय। सो नेव अभिवादेतब्बो, न पच्‍चुट्ठातब्बो, नास्स पत्तचीवरं पटिग्गहेतब्बं; अपि च खो आसनं ठपेतब्बं, सचे सो आकङ्खिस्सति निसीदिस्सती’’ति। यथा यथा खो भगवा पञ्‍चवग्गिये भिक्खू उपसङ्कमति, तथा तथा [तथा तथा ते (सी॰ स्या॰)] पञ्‍चवग्गिया भिक्खू नासक्खिंसु सकाय कतिकाय सण्ठातुं । असण्ठहन्ता भगवन्तं पच्‍चुग्गन्त्वा एको भगवतो पत्तचीवरं पटिग्गहेसि, एको आसनं पञ्‍ञपेसि, एको पादोदकं, एको पादपीठं, एको पादकठलिकं उपनिक्खिपि। निसीदि भगवा पञ्‍ञत्ते आसने; निसज्‍ज खो भगवा पादे पक्खालेसि। अपिस्सु [अपि च खो (पासरासिसुत्थ)] भगवन्तं नामेन च आवुसोवादेन च समुदाचरन्ति। एवं वुत्ते भगवा पञ्‍चवग्गिये भिक्खू एतदवोच – ‘‘मा, भिक्खवे, तथागतं नामेन च आवुसोवादेन च समुदाचरथ [समुदाचरित्थ (सी॰ स्या॰)]। अरहं, भिक्खवे, तथागतो सम्मासम्बुद्धो, ओदहथ, भिक्खवे, सोतं, अमतमधिगतं, अहमनुसासामि, अहं धम्मं देसेमि। यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्‍जमाना [यथानुसिट्ठं पटिपज्‍जमाना (स्या॰)] नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्‍ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्‍ज विहरिस्सथा’’ति। एवं वुत्ते पञ्‍चवग्गिया भिक्खू भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘तायपि खो त्वं, आवुसो गोतम, इरियाय [चरियाय (स्या॰)], ताय पटिपदाय, ताय दुक्‍करकारिकाय नेवज्झगा उत्तरि मनुस्सधम्मा [उत्तरिमनुस्सधम्मं (स्या॰ क॰)] अलमरियञाणदस्सनविसेसं, किं पन त्वं एतरहि, बाहुल्‍लिको पधानविब्भन्तो आवत्तो बाहुल्‍लाय, अधिगमिस्ससि उत्तरि मनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेस’’न्ति? एवं वुत्ते भगवा पञ्‍चवग्गिये भिक्खू एतदवोच – ‘‘न, भिक्खवे, तथागतो बाहुल्‍लिको, न पधानविब्भन्तो, न आवत्तो बाहुल्‍लाय; अरहं, भिक्खवे, तथागतो सम्मासम्बुद्धो। ओदहथ, भिक्खवे, सोतं, अमतमधिगतं, अहमनुसासामि , अहं धम्मं देसेमि। यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्‍जमाना नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेवधम्मे सयं अभिञ्‍ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्‍ज विहरिस्सथा’’ति। दुतियम्पि खो पञ्‍चवग्गिया भिक्खू भगवन्तं एतदवोचुं…पे॰…। दुतियम्पि खो भगवा पञ्‍चवग्गिये भिक्खू एतदवोच…पे॰…। ततियम्पि खो पञ्‍चवग्गिया भिक्खू भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘तायपि खो त्वं, आवुसो गोतम, इरियाय, ताय पटिपदाय, ताय दुक्‍करकारिकाय नेवज्झगा उत्तरि मनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसं, किं पन त्वं एतरहि, बाहुल्‍लिको पधानविब्भन्तो आवत्तो बाहुल्‍लाय, अधिगमिस्ससि उत्तरि मनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेस’’न्ति? एवं वुत्ते भगवा पञ्‍चवग्गिये भिक्खू एतदवोच – ‘‘अभिजानाथ मे नो तुम्हे, भिक्खवे, इतो पुब्बे एवरूपं पभावितमेत’’न्ति [भासितमेतन्ति (सी॰ स्या॰ क॰) टीकायो ओलोकेतब्बा]? ‘‘नोहेतं, भन्ते’’। अरहं, भिक्खवे, तथागतो सम्मासम्बुद्धो, ओदहथ, भिक्खवे, सोतं, अमतमधिगतं, अहमनुसासामि, अहं धम्मं देसेमि। यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्‍जमाना नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरंब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेवधम्मे सयं अभिञ्‍ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्‍ज विहरिस्सथाति। असक्खि खो भगवा पञ्‍चवग्गिये भिक्खू सञ्‍ञापेतुं। अथ खो पञ्‍चवग्गिया भिक्खू भगवन्तं सुस्सूसिंसु, सोतं ओदहिंसु, अञ्‍ञा चित्तं उपट्ठापेसुं।

१३. अथ खो भगवा पञ्‍चवग्गिये भिक्खू आमन्तेसि –

‘‘[सं॰ नि॰ ५.१०८१ आदयो] द्वेमे, भिक्खवे , अन्ता पब्बजितेन न सेवितब्बा। कतमे द्वे [इदं पदद्वयं सी॰ स्या॰ पोत्थकेसु नत्थि]? यो चायं कामेसु कामसुखल्‍लिकानुयोगो हीनो गम्मो पोथुज्‍जनिको अनरियो अनत्थसंहितो, यो चायं अत्तकिलमथानुयोगो दुक्खो अनरियो अनत्थसंहितो। एते खो, भिक्खवे, उभो अन्ते अनुपगम्म, मज्झिमा पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धा, चक्खुकरणी ञाणकरणी उपसमाय अभिञ्‍ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति। कतमा च सा, भिक्खवे, मज्झिमा पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धा, चक्खुकरणी ञाणकरणी उपसमाय अभिञ्‍ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति? अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि, सम्मासङ्कप्पो, सम्मावाचा, सम्माकम्मन्तो, सम्माआजीवो, सम्मावायामो, सम्मासति, सम्मासमाधि। अयं खो सा, भिक्खवे, मज्झिमा पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धा, चक्खुकरणी ञाणकरणी उपसमाय अभिञ्‍ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति।

१४. ‘‘इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खं अरियसच्‍चं। जातिपि दुक्खा, जरापि दुक्खा, ब्याधिपि दुक्खो, मरणम्पि दुक्खं, अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खो, पियेहि विप्पयोगो दुक्खो, यम्पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं। संखित्तेन, पञ्‍चुपादानक्खन्धा [पञ्‍चुपादानखन्धापि (क)] दुक्खा। ‘‘इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खसमुदयं [एत्थ ‘‘इदं दुक्खं अरियसच्‍चन्ति आदीसु दुक्खसमुदयो दुक्खनिरोधोति वत्तब्बे दुक्खसमुदयं दुक्खनिरोधन्ति लिङ्गविपल्‍लासो ततो’’ति पटिसम्भिदामग्गट्ठकथायं वुत्तं। विसुद्धिमग्गटीकायं पन उप्पादो भयन्तिपाठवण्णनायं ‘‘सतिपि द्विन्‍नं पदानं समानाधिकरणभावे लिङ्गभेदो गहितो, यथा दुक्खसमुदयो अरियसच्‍च’’न्ति वुत्तं। तेसु दुक्खसमुदयो अरियसच्‍च’’न्ति सकलिङ्गिकपाठो ‘‘दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्‍च’’न्ति पाळिया समेति।] अरियसच्‍चं – यायं तण्हा पोनोब्भविका [पोनोभविका (क॰)] नन्दीरागसहगता [नन्दिरागसहगता (सी॰ स्या॰)] तत्रतत्राभिनन्दिनी, सेय्यथिदं – कामतण्हा, भवतण्हा, विभवतण्हा।

‘‘इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खनिरोधं अरियसच्‍चं – यो तस्सा येव तण्हाय असेसविरागनिरोधो, चागो, पटिनिस्सग्गो, मुत्ति, अनालयो। ‘‘इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्‍चं – अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि, सम्मासङ्कप्पो, सम्मावाचा, सम्माकम्मन्तो, सम्माआजीवो, सम्मावायामो, सम्मासति, सम्मासमाधि।

१५. ‘‘इदं दुक्खं अरियसच्‍चन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्‍ञा उदपादि, विज्‍जा उदपादि , आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खं अरियसच्‍चं परिञ्‍ञेय्यन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्‍ञा उदपादि, विज्‍जा उदपादि, आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खं अरियसच्‍चं परिञ्‍ञातन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्‍ञा उदपादि, विज्‍जा उदपादि, आलोको उदपादि।

‘‘इदं दुक्खसमुदयं अरियसच्‍चन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्‍ञा उदपादि, विज्‍जा उदपादि, आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खसमुदयं अरियसच्‍चं पहातब्बन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्‍ञा उदपादि, विज्‍जा उदपादि, आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खसमुदयं अरियसच्‍चं पहीनन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्‍ञा उदपादि, विज्‍जा उदपादि, आलोको उदपादि।

‘‘इदं दुक्खनिरोधं अरियसच्‍चन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्‍ञा उदपादि, विज्‍जा उदपादि, आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खनिरोधं अरियसच्‍चं सच्छिकातब्बन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्‍ञा उदपादि, विज्‍जा उदपादि, आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खनिरोधं अरियसच्‍चं सच्छिकतन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्‍ञा उदपादि, विज्‍जा उदपादि, आलोको उदपादि।

‘‘इदं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्‍चन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्‍ञा उदपादि, विज्‍जा उदपादि, आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्‍चं भावेतब्बन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्‍ञा उदपादि, विज्‍जा उदपादि, आलोको उदपादि। तं खो पनिदं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्‍चं भावितन्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्‍ञा उदपादि, विज्‍जा उदपादि, आलोको उदपादि।

१६. ‘‘यावकीवञ्‍च मे, भिक्खवे, इमेसु चतूसु अरियसच्‍चेसु एवं तिपरिवट्टं द्वादसाकारं यथाभूतं ञाणदस्सनं न सुविसुद्धं अहोसि, नेव तावाहं, भिक्खवे, सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धोति पच्‍चञ्‍ञासिं। यतो च खो मे, भिक्खवे, इमेसु चतूसु अरियसच्‍चेसु एवं तिपरिवट्टं द्वादसाकारं यथाभूतं ञाणदस्सनं सुविसुद्धं अहोसि, अथाहं, भिक्खवे, सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धोति [अभिसम्बुद्धो (सी॰ स्या॰)] पच्‍चञ्‍ञासिं। ञाणञ्‍च पन मे दस्सनं उदपादि – अकुप्पा मे विमुत्ति, अयमन्तिमा जाति, नत्थि दानि पुनब्भवो’’ति। इदमवोच भगवा अत्तमना पञ्‍चवग्गिया भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति [इदमवोच…पे॰… अभिनन्दुन्तिवाक्यं सी॰ स्या॰ पोत्थकेसु नत्थि]।

इमस्मिञ्‍च पन वेय्याकरणस्मिं भञ्‍ञमाने आयस्मतो कोण्डञ्‍ञस्स विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – ‘‘यं किञ्‍चि समुदयधम्मं सब्बं तं निरोधधम्म’’न्ति।

१७. पवत्तिते च पन भगवता धम्मचक्‍के, भुम्मा देवा सद्दमनुस्सावेसुं – ‘‘एतं भगवता बाराणसियं इसिपतने मिगदाये अनुत्तरं धम्मचक्‍कं पवत्तितं, अप्पटिवत्तियं समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मि’’न्ति। भुम्मानं देवानं सद्दं सुत्वा चातुमहाराजिका देवा सद्दमनुस्सावेसुं…पे॰… चातुमहाराजिकानं देवानं सद्दं सुत्वा तावतिंसा देवा…पे॰… यामा देवा…पे॰… तुसिता देवा…पे॰… निम्मानरती देवा…पे॰… परनिम्मितवसवत्ती देवा…पे॰… ब्रह्मकायिका देवा सद्दमनुस्सावेसुं – ‘‘एतं भगवता बाराणसियं इसिपतने मिगदाये अनुत्तरं धम्मचक्‍कं पवत्तितं अप्पटिवत्तियं समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मि’’न्ति। इतिह, तेन खणेन, तेन लयेन [तेन लयेनाति पदद्वयं सी॰ स्या॰ पोत्थकेसु नत्थि] तेन मुहुत्तेन याव ब्रह्मलोका सद्दो अब्भुग्गच्छि। अयञ्‍च दससहस्सिलोकधातु संकम्पि सम्पकम्पि सम्पवेधि ; अप्पमाणो च उळारो ओभासो लोके पातुरहोसि, अतिक्‍कम्म देवानं देवानुभावं। अथ खो भगवा इमं उदानं उदानेसि – ‘‘अञ्‍ञासि वत, भो कोण्डञ्‍ञो, अञ्‍ञासि वत भो कोण्डञ्‍ञो’’ति। इति हिदं आयस्मतो कोण्डञ्‍ञस्स ‘अञ्‍ञासिकोण्डञ्‍ञो’ त्वेव नामं अहोसि।

१८. अथ खो आयस्मा अञ्‍ञासिकोण्डञ्‍ञो दिट्ठधम्मो पत्तधम्मो विदितधम्मो परियोगाळ्हधम्मो तिण्णविचिकिच्छो विगतकथंकथो वेसारज्‍जप्पत्तो अपरप्पच्‍चयो सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोच – ‘‘लभेय्याहं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्‍जं, लभेय्यं उपसम्पद’’न्ति। ‘‘एहि भिक्खू’’ति भगवा अवोच – ‘‘स्वाक्खातो धम्मो, चर ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। साव तस्स आयस्मतो उपसम्पदा अहोसि।

१९. अथ खो भगवा तदवसेसे भिक्खू धम्मिया कथाय ओवदि अनुसासि। अथ खो आयस्मतो च वप्पस्स आयस्मतो च भद्दियस्स भगवता धम्मिया कथाय ओवदियमानानं अनुसासियमानानं विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – यं किञ्‍चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्मन्ति।

ते दिट्ठधम्मा पत्तधम्मा विदितधम्मा परियोगाळ्हधम्मा तिण्णविचिकिच्छा विगतकथंकथा वेसारज्‍जप्पत्ता अपरप्पच्‍चया सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘लभेय्याम मयं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्‍जं, लभेय्याम उपसम्पद’’न्ति। ‘‘एथ भिक्खवो’’ति भगवा अवोच – ‘‘स्वाक्खातो धम्मो, चरथ ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। साव तेसं आयस्मन्तानं उपसम्पदा अहोसि।

अथ खो भगवा तदवसेसे भिक्खू नीहारभत्तो धम्मिया कथाय ओवदि अनुसासि। यं तयो भिक्खू पिण्डाय चरित्वा आहरन्ति, तेन छब्बग्गो यापेति। अथ खो आयस्मतो च महानामस्स आयस्मतो च अस्सजिस्स भगवता धम्मिया कथाय ओवदियमानानं अनुसासियमानानं विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – यं किञ्‍चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्मन्ति । ते दिट्ठधम्मा पत्तधम्मा विदितधम्मा परियोगाळ्हधम्मा तिण्णविचिकिच्छा विगतकथंकथा वेसारज्‍जप्पत्ता अपरप्पच्‍चया सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘लभेय्याम मयं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्‍जं, लभेय्याम उपसम्पद’’न्ति। ‘‘एथ भिक्खवो’’ति भगवा अवोच – ‘‘स्वाक्खातो धम्मो, चरथ ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। साव तेसं आयस्मन्तानं उपसम्पदा अहोसि।

२०. अथ खो भगवा पञ्‍चवग्गिये भिक्खू आमन्तेसि –

[सं॰ नि॰ ३.५९ आदयो] ‘‘रूपं, भिक्खवे, अनत्ता। रूपञ्‍च हिदं, भिक्खवे, अत्ता अभविस्स, नयिदं रूपं आबाधाय संवत्तेय्य, लब्भेथ च रूपे – ‘एवं मे रूपं होतु, एवं मे रूपं मा अहोसी’ति। यस्मा च खो, भिक्खवे, रूपं अनत्ता, तस्मा रूपं आबाधाय संवत्तति, न च लब्भति रूपे – ‘एवं मे रूपं होतु, एवं मे रूपं मा अहोसी’ति। वेदना, अनत्ता। वेदना च हिदं, भिक्खवे, अत्ता अभविस्स, नयिदं वेदना आबाधाय संवत्तेय्य, लब्भेथ च वेदनाय – ‘एवं मे वेदना होतु, एवं मे वेदना मा अहोसी’ति। यस्मा च खो, भिक्खवे, वेदना अनत्ता, तस्मा वेदना आबाधाय संवत्तति, न च लब्भति वेदनाय – ‘एवं मे वेदना होतु, एवं मे वेदना मा अहोसी’ति। सञ्‍ञा, अनत्ता। सञ्‍ञा च हिदं, भिक्खवे, अत्ता अभविस्स, नयिदं सञ्‍ञा आबाधाय संवत्तेय्य, लब्भेथ च सञ्‍ञाय – ‘एवं मे सञ्‍ञा होतु, एवं मे सञ्‍ञा मा अहोसी’ति। यस्मा च खो, भिक्खवे, सञ्‍ञा अनत्ता, तस्मा सञ्‍ञा आबाधाय संवत्तति, न च लब्भति सञ्‍ञाय – ‘एवं मे सञ्‍ञा होतु, एवं मे सञ्‍ञा मा अहोसी’ति। सङ्खारा, अनत्ता। सङ्खारा च हिदं, भिक्खवे, अत्ता अभविस्संसु, नयिदं [नयिमे (क॰)] सङ्खारा आबाधाय संवत्तेय्युं, लब्भेथ च सङ्खारेसु – ‘एवं मे सङ्खारा होन्तु, एवं मे सङ्खारा मा अहेसु’न्ति। यस्मा च खो, भिक्खवे, सङ्खारा अनत्ता, तस्मा सङ्खारा आबाधाय संवत्तन्ति, न च लब्भति सङ्खारेसु – ‘एवं मे सङ्खारा होन्तु, एवं मे सङ्खारा मा अहेसु’न्ति। विञ्‍ञाणं, अनत्ता। विञ्‍ञाणञ्‍च हिदं , भिक्खवे, अत्ता अभविस्स, नयिदं विञ्‍ञाणं आबाधाय संवत्तेय्य , लब्भेथ च विञ्‍ञाणे – ‘एवं मे विञ्‍ञाणं होतु, एवं मे विञ्‍ञाणं मा अहोसी’ति। यस्मा च खो, भिक्खवे, विञ्‍ञाणं अनत्ता, तस्मा विञ्‍ञाणं आबाधाय संवत्तति, न च लब्भति विञ्‍ञाणे – ‘एवं मे विञ्‍ञाणं होतु, एवं मे विञ्‍ञाणं मा अहोसी’ति।

२१. ‘‘तं किं मञ्‍ञथ, भिक्खवे, रूपं निच्‍चं वा अनिच्‍चं वाति? अनिच्‍चं, भन्ते । यं पनानिच्‍चं दुक्खं वा तं सुखं वाति? दुक्खं, भन्ते। यं पनानिच्‍चं दुक्खं विपरिणामधम्मं, कल्‍लं नु तं समनुपस्सितुं – एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ताति? नो हेतं, भन्ते। वेदना निच्‍चा वा अनिच्‍चा वाति? अनिच्‍चा, भन्ते। यं पनानिच्‍चं दुक्खं वा तं सुखं वाति? दुक्खं, भन्ते। यं पनानिच्‍चं दुक्खं विपरिणामधम्मं, कल्‍लं नु तं समनुपस्सितुं – एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ताति? नो हेतं, भन्ते। सञ्‍ञा निच्‍चा वा अनिच्‍चा वाति? अनिच्‍चा, भन्ते। यं पनानिच्‍चं दुक्खं वा तं सुखं वाति? दुक्खं, भन्ते। यं पनानिच्‍चं दुक्खं विपरिणामधम्मं, कल्‍लं नु तं समनुपस्सितुं – एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ताति? नो हेतं, भन्ते। सङ्खारा निच्‍चा वा अनिच्‍चा वाति? अनिच्‍चा, भन्ते। यं पनानिच्‍चं, दुक्खं वा तं सुखं वाति? दुक्खं, भन्ते। यं पनानिच्‍चं दुक्खं विपरिणामधम्मं, कल्‍लं नु तं समनुपस्सितुं – एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ताति? नो हेतं, भन्ते। विञ्‍ञाणं निच्‍चं वा अनिच्‍चं वाति? अनिच्‍चं, भन्ते। यं पनानिच्‍चं, दुक्खं वा तं सुखं वाति? दुक्खं, भन्ते। यं पनानिच्‍चं दुक्खं विपरिणामधम्मं, कल्‍लं नु तं समनुपस्सितुं – एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ताति? नो हेतं, भन्ते।

२२. ‘‘तस्मातिह , भिक्खवे, यं किञ्‍चि रूपं अतीतानागतपच्‍चुप्पन्‍नं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा ओळारिकं वा सुखुमं वा हीनं वा पणीतं वा यं दूरे [यं दूरे वा (स्या॰)] सन्तिके वा, सब्बं रूपं – नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ताति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दट्ठब्बं। या काचि वेदना अतीतानागतपच्‍चुप्पन्‍ना अज्झत्तं वा बहिद्धा वा ओळारिका वा सुखुमा वा हीना वा पणीता वा या दूरे सन्तिके वा, सब्बा वेदना – नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ताति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दट्ठब्बं। या काचि सञ्‍ञा अतीतानागतपच्‍चुप्पन्‍ना अज्झत्तं वा बहिद्धा वा ओळारिका वा सुखुमा वा हीना वा पणीता वा या दूरे सन्तिके वा, सब्बा सञ्‍ञा – नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ताति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दट्ठब्बं। ये केचि सङ्खारा अतीतानागतपच्‍चुप्पन्‍ना अज्झत्तं वा बहिद्धा वा ओळारिका वा सुखुमा वा हीना वा पणीता वा ये दूरे सन्तिके वा, सब्बे सङ्खारा – नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ताति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दट्ठब्बं। यं किञ्‍चि विञ्‍ञाणं अतीतानागतपच्‍चुप्पन्‍नं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा ओळारिकं वा सुखुमं वा हीनं वा पणीतं वा यं दूरे सन्तिके वा, सब्बं विञ्‍ञाणं – नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ताति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्‍ञाय दट्ठब्बं।

२३. ‘‘एवं पस्सं, भिक्खवे, सुतवा अरियसावको रूपस्मिम्पि निब्बिन्दति, वेदनायपि निब्बिन्दति, सञ्‍ञायपि निब्बिन्दति, सङ्खारेसुपि निब्बिन्दति, विञ्‍ञाणस्मिम्पि निब्बिन्दति; निब्बिन्दं विरज्‍जति; विरागा विमुच्‍चति; विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञाणं होति, ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाती’’ति।

२४. इदमवोच भगवा। अत्तमना पञ्‍चवग्गिया भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति [अभिनन्दुं (स्या॰)]। इमस्मिञ्‍च पन वेय्याकरणस्मिं भञ्‍ञमाने पञ्‍चवग्गियानं भिक्खूनं अनुपादाय आसवेहि चित्तानि विमुच्‍चिंसु। तेन खो पन समयेन छ लोके अरहन्तो होन्ति।

पञ्‍चवग्गियकथा निट्ठिता।

पठमभाणवारो।

७. पब्बज्‍जाकथा

२५. तेन खो पन समयेन बाराणसियं यसो नाम कुलपुत्तो सेट्ठिपुत्तो सुखुमालो होति। तस्स तयो पासादा होन्ति – एको हेमन्तिको, एको गिम्हिको, एको वस्सिको। सो वस्सिके पासादे चत्तारो मासे [वस्सिके पासादे वस्सिके चत्तारो मासे (सी॰)] निप्पुरिसेहि तूरियेहि परिचारयमानो न हेट्ठापासादं ओरोहति। अथ खो यसस्स कुलपुत्तस्स पञ्‍चहि कामगुणेहि समप्पितस्स समङ्गीभूतस्स परिचारयमानस्स पटिकच्‍चेव [पटिगच्‍चेव (सी॰)] निद्दा ओक्‍कमि, परिजनस्सपि निद्दा ओक्‍कमि, सब्बरत्तियो च तेलपदीपो झायति। अथ खो यसो कुलपुत्तो पटिकच्‍चेव पबुज्झित्वा अद्दस सकं परिजनं सुपन्तं – अञ्‍ञिस्सा कच्छे वीणं, अञ्‍ञिस्सा कण्ठे मुदिङ्गं, अञ्‍ञिस्सा कच्छे आळम्बरं, अञ्‍ञं विकेसिकं, अञ्‍ञं विक्खेळिकं, अञ्‍ञा विप्पलपन्तियो, हत्थप्पत्तं सुसानं मञ्‍ञे। दिस्वानस्स आदीनवो पातुरहोसि, निब्बिदाय चित्तं सण्ठासि। अथ खो यसो कुलपुत्तो उदानं उदानेसि – ‘‘उपद्दुतं वत भो, उपस्सट्ठं वत भो’’ति।

अथ खो यसो कुलपुत्तो सुवण्णपादुकायो आरोहित्वा येन निवेसनद्वारं तेनुपसङ्कमि। अमनुस्सा द्वारं विवरिंसु – मा यसस्स कुलपुत्तस्स कोचि अन्तरायमकासि अगारस्मा अनगारियं पब्बज्‍जायाति । अथ खो यसो कुलपुत्तो येन नगरद्वारं तेनुपसङ्कमि। अमनुस्सा द्वारं विवरिंसु – मा यसस्स कुलपुत्तस्स कोचि अन्तरायमकासि अगारस्मा अनगारियं पब्बज्‍जायाति। अथ खो यसो कुलपुत्तो येन इसिपतनं मिगदायो तेनुपसङ्कमि।

२६. तेन खो पन समयेन भगवा रत्तिया पच्‍चूससमयं पच्‍चुट्ठाय अज्झोकासे चङ्कमति। अद्दसा खो भगवा यसं कुलपुत्तं दूरतोव आगच्छन्तं, दिस्वान चङ्कमा ओरोहित्वा पञ्‍ञत्ते आसने निसीदि। अथ खो यसो कुलपुत्तो भगवतो अविदूरे उदानं उदानेसि – ‘‘उपद्दुतं वत भो, उपस्सट्ठं वत भो’’ति। अथ खो भगवा यसं कुलपुत्तं एतदवोच – ‘‘इदं खो, यस, अनुपद्दुतं, इदं अनुपस्सट्ठं। एहि यस, निसीद, धम्मं ते देसेस्सामी’’ति। अथ खो यसो कुलपुत्तो – इदं किर अनुपद्दुतं , इदं अनुपस्सट्ठन्ति हट्ठो उदग्गो सुवण्णपादुकाहि ओरोहित्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्‍नस्स खो यसस्स कुलपुत्तस्स भगवा अनुपुब्बिं कथं कथेसि, सेय्यथिदं – दानकथं सीलकथं सग्गकथं, कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं, नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि। यदा भगवा अञ्‍ञासि यसं कुलपुत्तं कल्‍लचित्तं, मुदुचित्तं, विनीवरणचित्तं, उदग्गचित्तं, पसन्‍नचित्तं, अथ या बुद्धानं सामुक्‍कंसिका धम्मदेसना तं पकासेसि – दुक्खं, समुदयं, निरोधं, मग्गं। सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य, एवमेव यसस्स कुलपुत्तस्स तस्मिंयेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – यं किञ्‍चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्मन्ति।

२७. अथ खो यसस्स कुलपुत्तस्स माता पासादं अभिरुहित्वा यसं कुलपुत्तं अपस्सन्ती येन सेट्ठि गहपति तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा सेट्ठिं गहपतिं एतदवोच – ‘‘पुत्तो ते, गहपति, यसो न दिस्सती’’ति। अथ खो सेट्ठि गहपति चतुद्दिसा अस्सदूते उय्योजेत्वा सामंयेव येन इसिपतनं मिगदायो तेनुपसङ्कमि। अद्दसा खो सेट्ठि गहपति सुवण्णपादुकानं निक्खेपं, दिस्वान तंयेव अनुगमासि [अनुगमा (सी॰ स्या॰)]। अद्दसा खो भगवा सेट्ठिं गहपतिं दूरतोव आगच्छन्तं, दिस्वान भगवतो एतदहोसि – ‘‘यंनूनाहं तथारूपं इद्धाभिसङ्खारं अभिसङ्खरेय्यं यथा सेट्ठि गहपति इध निसिन्‍नो इध निसिन्‍नं यसं कुलपुत्तं न पस्सेय्या’’ति। अथ खो भगवा तथारूपं इद्धाभिसङ्खारं अभिसङ्खरेसि। अथ खो सेट्ठि गहपति येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अपि, भन्ते, भगवा यसं कुलपुत्तं पस्सेय्या’’ति? तेन हि, गहपति, निसीद, अप्पेव नाम इध निसिन्‍नो इध निसिन्‍नं यसं कुलपुत्तं पस्सेय्यासीति। अथ खो सेट्ठि गहपति – इधेव किराहं निसिन्‍नो इध निसिन्‍नं यसं कुलपुत्तं पस्सिस्सामीति हट्ठो उदग्गो भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्‍नस्स खो सेट्ठिस्स गहपतिस्स भगवा अनुपुब्बिं कथं कथेसि, सेय्यथिदं – दानकथं सीलकथं सग्गकथं, कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं, नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि। यदा भगवा अञ्‍ञासि सेट्ठिं गहपतिं कल्‍लचित्तं, मुदुचित्तं, विनीवरणचित्तं, उदग्गचित्तं, पसन्‍नचित्तं, अथ या बुद्धानं सामुक्‍कंसिका धम्मदेसना, तं पकासेसि – दुक्खं, समुदयं, निरोधं, मग्गं। सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य एवमेव सेट्ठिस्स गहपतिस्स तस्मिंयेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – यं किञ्‍चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्मन्ति। अथ खो सेट्ठि गहपति दिट्ठधम्मो पत्तधम्मो विदितधम्मो परियोगाळ्हधम्मो तिण्णविचिकिच्छो विगतकथंकथो वेसारज्‍जप्पत्तो अपरप्पच्‍चयो सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्‍कन्तं, भन्ते, अभिक्‍कन्तं, भन्ते, सेय्यथापि, भन्ते, निक्‍कुज्‍जितं [निकुज्‍जितं (क॰)] वा उक्‍कुज्‍जेय्य, पटिच्छन्‍नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्‍जोतं धारेय्य – चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्तीति – एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि, धम्मञ्‍च, भिक्खुसङ्घञ्‍च। उपासकं मं भगवा धारेतु अज्‍जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति । सोव लोके पठमं उपासको अहोसि तेवाचिको ।

२८. अथ खो यसस्स कुलपुत्तस्स पितुनो धम्मे देसियमाने यथादिट्ठं यथाविदितं भूमिं पच्‍चवेक्खन्तस्स अनुपादाय आसवेहि चित्तं विमुच्‍चि। अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘यसस्स खो कुलपुत्तस्स पितुनो धम्मे देसियमाने यथादिट्ठं यथाविदितं भूमिं पच्‍चवेक्खन्तस्स अनुपादाय आसवेहि चित्तं विमुत्तं। अभब्बो खो यसो कुलपुत्तो हीनायावत्तित्वा कामे परिभुञ्‍जितुं, सेय्यथापि पुब्बे अगारिकभूतो; यंनूनाहं तं इद्धाभिसङ्खारं पटिप्पस्सम्भेय्य’’न्ति। अथ खो भगवा तं इद्धाभिसङ्खारं पटिप्पस्सम्भेसि। अद्दसा खो सेट्ठि गहपति यसं कुलपुत्तं निसिन्‍नं, दिस्वान यसं कुलपुत्तं एतदवोच – ‘‘माता ते तात, यस, परिदेव [परिदेवी (क॰)] सोकसमापन्‍ना, देहि मातुया जीवित’’न्ति। अथ खो यसो कुलपुत्तो भगवन्तं उल्‍लोकेसि। अथ खो भगवा सेट्ठिं गहपतिं एतदवोच – ‘‘तं किं मञ्‍ञसि, गहपति, यस्स सेक्खेन ञाणेन सेक्खेन दस्सनेन धम्मो दिट्ठो विदितो सेय्यथापि तया? तस्स यथादिट्ठं यथाविदितं भूमिं पच्‍चवेक्खन्तस्स अनुपादाय आसवेहि चित्तं विमुत्तं। भब्बो नु खो सो, गहपति, हीनायावत्तित्वा कामे परिभुञ्‍जितुं सेय्यथापि पुब्बे अगारिकभूतो’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘यसस्स खो, गहपति, कुलपुत्तस्स सेक्खेन ञाणेन सेक्खेन दस्सनेन धम्मो दिट्ठो विदितो सेय्यथापि तया। तस्स यथादिट्ठं यथाविदितं भूमिं पच्‍चवेक्खन्तस्स अनुपादाय आसवेहि चित्तं विमुत्तं। अभब्बो खो, गहपति, यसो कुलपुत्तो हीनायावत्तित्वा कामे परिभुञ्‍जितुं सेय्यथापि पुब्बे अगारिकभूतो’’ति। ‘‘लाभा, भन्ते, यसस्स कुलपुत्तस्स, सुलद्धं, भन्ते, यसस्स कुलपुत्तस्स, यथा यसस्स कुलपुत्तस्स अनुपादाय आसवेहि चित्तं विमुत्तं। अधिवासेतु मे, भन्ते, भगवा अज्‍जतनाय भत्तं यसेन कुलपुत्तेन पच्छासमणेना’’ति। अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन। अथ खो सेट्ठि गहपति भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्‍कामि। अथ खो यसो कुलपुत्तो अचिरपक्‍कन्ते सेट्ठिम्हि गहपतिम्हि भगवन्तं एतदवोच – ‘‘लभेय्याहं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्‍जं, लभेय्यं उपसम्पद’’न्ति। ‘‘एहि भिक्खू’’ति भगवा अवोच – ‘‘स्वाक्खातो धम्मो, चर ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। साव तस्स आयस्मतो उपसम्पदा अहोसि। तेन खो पन समयेन सत्त लोके अरहन्तो होन्ति।

यसस्स पब्बज्‍जा निट्ठिता।

२९. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय आयस्मता यसेन पच्छासमणेन येन सेट्ठिस्स गहपतिस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा पञ्‍ञत्ते आसने निसीदि। अथ खो आयस्मतो यसस्स माता च पुराणदुतियिका च येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु। तासं भगवा अनुपुब्बिं कथं कथेसि, सेय्यथिदं – दानकथं सीलकथं सग्गकथं, कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं, नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि। यदा ता भगवा अञ्‍ञासि कल्‍लचित्ता, मुदुचित्ता, विनीवरणचित्ता, उदग्गचित्ता, पसन्‍नचित्ता, अथ या बुद्धानं सामुक्‍कंसिका धम्मदेसना तं पकासेसि – दुक्खं, समुदयं, निरोधं, मग्गं । सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य, एवमेव तासं तस्मिंयेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – यं किञ्‍चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्मन्ति। ता दिट्ठधम्मा पत्तधम्मा विदितधम्मा परियोगाळ्हधम्मा तिण्णविचिकिच्छा विगतकथंकथा वेसारज्‍जप्पत्ता अपरप्पच्‍चया सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘अभिक्‍कन्तं, भन्ते, अभिक्‍कन्तं, भन्ते…पे॰… एता मयं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छाम, धम्मञ्‍च, भिक्खुसङ्घञ्‍च। उपासिकायो नो भगवा धारेतु अज्‍जतग्गे पाणुपेता सरणं गता’’ति। ता च लोके पठमं उपासिका अहेसुं तेवाचिका।

अथ खो आयस्मतो यसस्स माता च पिता च पुराणदुतियिका च भगवन्तञ्‍च आयस्मन्तञ्‍च यसं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेत्वा सम्पवारेत्वा, भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं, एकमन्तं निसीदिंसु। अथ खो भगवा आयस्मतो यसस्स मातरञ्‍च पितरञ्‍च पुराणदुतियिकञ्‍च धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उट्ठायासना पक्‍कामि।

३०. अस्सोसुं खो आयस्मतो यसस्स चत्तारो गिहिसहायका बाराणसियं सेट्ठानुसेट्ठीनं कुलानं पुत्ता – विमलो, सुबाहु , पुण्णजि, गवम्पति – यसो किर कुलपुत्तो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितोति। सुत्वान नेसं एतदहोसि – ‘‘न हि नून सो ओरको धम्मविनयो, न सा ओरका पब्बज्‍जा, यत्थ यसो कुलपुत्तो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो’’ति। ते [ते चत्तारो जना (क॰)] येनायस्मा यसो तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं यसं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठंसु। अथ खो आयस्मा यसो ते चत्तारो गिहिसहायके आदाय येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्‍नो खो आयस्मा यसो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘इमे मे, भन्ते, चत्तारो गिहिसहायका बाराणसियं सेट्ठानुसेट्ठीनं कुलानं पुत्ता – विमलो, सुबाहु, पुण्णजि, गवम्पति। इमे [इमे चत्तारो (क॰)] भगवा ओवदतु अनुसासतू’’ति । तेसं भगवा अनुपुब्बिं कथं कथेसि, सेय्यथिदं – दानकथं सीलकथं सग्गकथं कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि, यदा ते भगवा अञ्‍ञासि कल्‍लचित्ते मुदुचित्ते विनीवरणचित्ते उदग्गचित्ते पसन्‍नचित्ते, अथ या बुद्धानं सामुक्‍कंसिका धम्मदेसना, तं पकासेसि दुक्खं समुदयं निरोधं मग्गं, सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य, एवमेव तेसं तस्मिंयेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि ‘‘यं किञ्‍चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्म’’न्ति। ते दिट्ठधम्मा पत्तधम्मा विदितधम्मा परियोगाळ्हधम्मा तिण्णविचिकिच्छा विगतकथंकथा वेसारज्‍जप्पत्ता अपरप्पच्‍चया सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘लभेय्याम मयं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्‍जं, लभेय्याम उपसम्पद’’न्ति। ‘‘एथ भिक्खवो’’ति भगवा अवोच – ‘‘स्वाक्खातो धम्मो, चरथ ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। साव तेसं आयस्मन्तानं उपसम्पदा अहोसि। अथ खो भगवा ते भिक्खू धम्मिया कथाय ओवदि अनुसासि। तेसं भगवता धम्मिया कथाय ओवदियमानानं अनुसासियमानानं अनुपादाय आसवेहि चित्तानि विमुच्‍चिंसु। तेन खो पन समयेन एकादस लोके अरहन्तो होन्ति।

चतुगिहिसहायकपब्बज्‍जा निट्ठिता।

३१. अस्सोसुं खो आयस्मतो यसस्स पञ्‍ञासमत्ता गिहिसहायका जानपदा पुब्बानुपुब्बकानं कुलानं पुत्ता – यसो किर कुलपुत्तो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितोति। सुत्वान नेसं एतदहोसि – ‘‘न हि नून सो ओरको धम्मविनयो, न सा ओरका पब्बज्‍जा, यत्थ यसो कुलपुत्तो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो’’ति। ते येनायस्मा यसो तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं यसं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठंसु। अथ खो आयस्मा यसो ते पञ्‍ञासमत्ते गिहिसहायके आदाय येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्‍नो खो आयस्मा यसो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘इमे मे, भन्ते, पञ्‍ञासमत्ता गिहिसहायका जानपदा पुब्बानुपुब्बकानं कुलानं पुत्ता। इमे भगवा ओवदतु अनुसासतू’’ति। तेसं भगवा अनुपुब्बिं कथं कथेसि, सेय्यथिदं – दानकथं सीलकथं सग्गकथं कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि। यदा ते भगवा अञ्‍ञासि कल्‍लचित्ते मुदुचित्ते विनीवरणचित्ते उदग्गचित्ते पसन्‍नचित्ते, अथ या बुद्धानं सामुक्‍कंसिका धम्मदेसना, तं पकासेसि दुक्खं समुदयं निरोधं मग्गं, सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य, एवमेव तेसं तस्मिंयेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि यं किञ्‍चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्मन्ति। ते दिट्ठधम्मा पत्तधम्मा विदितधम्मा परियोगाळ्हधम्मा तिण्णविचिकिच्छा विगतकथंकथा वेसारज्‍जप्पत्ता अपरप्पच्‍चया सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘लभेय्याम मयं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्‍जं, लभेय्याम उपसम्पद’’न्ति। ‘‘एथ भिक्खवो’’ति भगवा अवोच – ‘‘स्वाक्खातो धम्मो, चरथ ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। साव तेसं आयस्मन्तानं उपसम्पदा अहोसि। अथ खो भगवा ते भिक्खू धम्मिया कथाय ओवदि अनुसासि। तेसं भगवता धम्मिया कथाय ओवदियमानानं अनुसासियमानानं अनुपादाय आसवेहि चित्तानि विमुच्‍चिंसु। तेन खो पन समयेन एकसट्ठि लोके अरहन्तो होन्ति।

पञ्‍ञासगिहिसहायकपब्बज्‍जा निट्ठिता।

निट्ठिता च पब्बज्‍जाकथा।

८. मारकथा

३२. अथ खो भगवा ते भिक्खू आमन्तेसि [सं॰ नि॰ १.१४१ मारसंयुत्तेपि] – ‘‘मुत्ताहं, भिक्खवे, सब्बपासेहि, ये दिब्बा ये च मानुसा। तुम्हेपि, भिक्खवे , मुत्ता सब्बपासेहि, ये दिब्बा ये च मानुसा। चरथ, भिक्खवे, चारिकं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। मा एकेन द्वे अगमित्थ। देसेथ, भिक्खवे, धम्मं आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्‍जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेथ। सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका , अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अञ्‍ञातारो। अहम्पि, भिक्खवे, येन उरुवेला सेनानिगमो तेनुपसङ्कमिस्सामि धम्मदेसनाया’’ति।

३३. अथ खो मारो पापिमा येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं गाथाय अज्झभासि –

‘‘बद्धोसि सब्बपासेहि, ये दिब्बा ये च मानुसा।

महाबन्धनबद्धोसि, न मे समण मोक्खसी’’ति॥

‘‘मुत्ताहं [मुत्तोहं (सी॰ स्या॰)] सब्बपासेहि, ये दिब्बा ये च मानुसा।

महाबन्धनमुत्तोम्हि, निहतो त्वमसि अन्तकाति॥

[सं॰ नि॰ १.१५१ मारसंयुत्तेपि] ‘‘अन्तलिक्खचरो पासो, य्वायं चरति मानसो।

तेन तं बाधयिस्सामि, न मे समण मोक्खसीति॥

[सं॰ नि॰ १.११५१ मारसंयुत्तेपि] ‘‘रूपा सद्दा रसा गन्धा, फोट्ठब्बा च मनोरमा।

एत्थ मे विगतो छन्दो, निहतो त्वमसि अन्तका’’ति॥

अथ खो मारो पापिमा – जानाति मं भगवा, जानाति मं सुगतोति दुक्खी दुम्मनो

तत्थेवन्तरधायीति।

मारकथा निट्ठिता।

९. पब्बज्‍जूपसम्पदाकथा

३४. तेन खो पन समयेन भिक्खू नानादिसा नानाजनपदा पब्बज्‍जापेक्खे च उपसम्पदापेक्खे च आनेन्ति – भगवा ने पब्बाजेस्सति उपसम्पादेस्सतीति। तत्थ भिक्खू चेव किलमन्ति पब्बज्‍जापेक्खा च उपसम्पदापेक्खा च। अथ खो भगवतो रहोगतस्स पटिसल्‍लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्‍को उदपादि – ‘‘एतरहि खो भिक्खू नानादिसा नानाजनपदा पब्बज्‍जापेक्खे च उपसम्पदापेक्खे च आनेन्ति – भगवा ने पब्बाजेस्सति उपसम्पादेस्सतीति। तत्थ भिक्खू चेव किलमन्ति पब्बज्‍जापेक्खा च उपसम्पदापेक्खा च। यंनूनाहं भिक्खूनं अनुजानेय्यं – तुम्हेव दानि, भिक्खवे, तासु तासु दिसासु तेसु तेसु जनपदेसु पब्बाजेथ उपसम्पादेथा’’ति। अथ खो भगवा सायन्हसमयं पटिसल्‍लाना वुट्ठितो एतस्मिं निदाने एतस्मिं पकरणे धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘इध मय्हं, भिक्खवे, रहोगतस्स पटिसल्‍लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्‍को उदपादि – ‘एतरहि खो भिक्खू नानादिसा नानाजनपदा पब्बज्‍जापेक्खे च उपसम्पदापेक्खे च आनेन्ति भगवा ने पब्बाजेस्सति उपसम्पादेस्सतीति, तत्थ भिक्खू चेव किलमन्ति पब्बज्‍जापेक्खा च उपसम्पदापेक्खा च, यंनूनाहं भिक्खूनं अनुजानेय्यं तुम्हेव दानि, भिक्खवे, तासु तासु दिसासु तेसु तेसु जनपदेसु पब्बाजेथ उपसम्पादेथा’’’ति, अनुजानामि, भिक्खवे, तुम्हेव दानि तासु तासु दिसासु तेसु तेसु जनपदेसु पब्बाजेथ उपसम्पादेथ। एवञ्‍च पन, भिक्खवे, पब्बाजेतब्बो उपसम्पादेतब्बो –

पठमं केसमस्सुं ओहारापेत्वा [ओहारेत्वा (क॰)], कासायानि वत्थानि अच्छादापेत्वा, एकंसं उत्तरासङ्गं कारापेत्वा, भिक्खूनं पादे वन्दापेत्वा, उक्‍कुटिकं निसीदापेत्वा, अञ्‍जलिं पग्गण्हापेत्वा, एवं वदेहीति वत्तब्बो – बुद्धं सरणं गच्छामि, धम्मं सरणं गच्छामि, सङ्घं सरणं गच्छामि; दुतियम्पि बुद्धं सरणं गच्छामि, दुतियम्पि धम्मं सरणं गच्छामि, दुतियम्पि सङ्घं सरणं गच्छामि; ततियम्पि बुद्धं सरणं गच्छामि, ततियम्पि धम्मं सरणं गच्छामि, ततियम्पि सङ्घं सरणं गच्छामी’’ति। ‘‘अनुजानामि, भिक्खवे, इमेहि तीहि सरणगमनेहि पब्बज्‍जं उपसम्पद’’न्ति।

तीहि सरणगमनेहि उपसम्पदाकथा निट्ठिता।

१०. दुतियमारकथा

३५. अथ खो भगवा वस्संवुट्ठो [वस्संवुत्थो (सी॰)] भिक्खू आमन्तेसि [सं॰ नि॰ १.१५५] – ‘‘मय्हं खो, भिक्खवे, योनिसो मनसिकारा योनिसो सम्मप्पधाना अनुत्तरा विमुत्ति अनुप्पत्ता, अनुत्तरा विमुत्ति सच्छिकता । तुम्हेपि, भिक्खवे, योनिसो मनसिकारा योनिसो सम्मप्पधाना अनुत्तरं विमुत्तिं अनुपापुणाथ, अनुत्तरं विमुत्तिं सच्छिकरोथा’’ति। अथ खो मारो पापिमा येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं गाथाय अज्झभासि –

‘‘बद्धोसि मारपासेहि, ये दिब्बा ये च मानुसा।

महाबन्धनबद्धोसि [मारबन्धनबद्धोसि (सी॰ स्या॰)], न मे समण मोक्खसी’’ति॥

‘‘मुत्ताहं मारपासेहि, ये दिब्बा ये च मानुसा।

महाबन्धनमुत्तोम्हि [मारबन्धनमुत्तोम्हि (सी॰ स्या॰)], निहतो त्वमसि अन्तका’’ति॥

अथ खो मारो पापिमा – जानाति मं भगवा, जानाति मं सुगतोति दुक्खी दुम्मनो

तत्थेवन्तरधायि।

दुतियमारकथा निट्ठिता।

११. भद्दवग्गियवत्थु

३६. अथ खो भगवा बाराणसियं यथाभिरन्तं विहरित्वा येन उरुवेला तेन चारिकं पक्‍कामि। अथ खो भगवा मग्गा ओक्‍कम्म येन अञ्‍ञतरो वनसण्डो तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा तं वनसण्डं अज्झोगाहेत्वा अञ्‍ञतरस्मिं रुक्खमूले निसीदि। तेन खो पन समयेन तिंसमत्ता भद्दवग्गिया सहायका सपजापतिका तस्मिं वनसण्डे परिचारेन्ति। एकस्स पजापति नाहोसि; तस्स अत्थाय वेसी आनीता अहोसि। अथ खो सा वेसी तेसु पमत्तेसु परिचारेन्तेसु भण्डं आदाय पलायित्थ। अथ खो ते सहायका सहायकस्स वेय्यावच्‍चं करोन्ता, तं इत्थिं गवेसन्ता, तं वनसण्डं आहिण्डन्ता अद्दसंसु भगवन्तं अञ्‍ञतरस्मिं रुक्खमूले निसिन्‍नं। दिस्वान येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘अपि, भन्ते, भगवा एकं इत्थिं पस्सेय्या’’ति? ‘‘किं पन वो, कुमारा, इत्थिया’’ति? ‘‘इध मयं, भन्ते, तिंसमत्ता भद्दवग्गिया सहायका सपजापतिका इमस्मिं वनसण्डे परिचारिम्हा। एकस्स पजापति नाहोसि; तस्स अत्थाय वेसी आनीता अहोसि। अथ खो सा, भन्ते , वेसी अम्हेसु पमत्तेसु परिचारेन्तेसु भण्डं आदाय पलायित्थ। ते मयं, भन्ते, सहायका सहायकस्स वेय्यावच्‍चं करोन्ता, तं इत्थिं गवेसन्ता, इमं वनसण्डं आहिण्डामा’’ति। ‘‘तं किं मञ्‍ञथ वो, कुमारा, कतमं नु खो तुम्हाकं वरं – यं वा तुम्हे इत्थिं गवेसेय्याथ, यं वा अत्तानं गवेसेय्याथा’’ति? ‘‘एतदेव, भन्ते, अम्हाकं वरं यं मयं अत्तानं गवेसेय्यामा’’ति। ‘‘तेन हि वो, कुमारा, निसीदथ, धम्मं वो देसेस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भद्दवग्गिया सहायका भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु। तेसं भगवा अनुपुब्बिं कथं कथेसि, सेय्यथिदं – दानकथं सीलकथं सग्गकथं कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि, यदा ते भगवा अञ्‍ञासि कल्‍लचित्ते मुदुचित्ते विनीवरणचित्ते उदग्गचित्ते पसन्‍नचित्ते, अथ या बुद्धानं सामुक्‍कंसिका धम्मदेसना, तं पकासेसि दुक्खं समुदयं निरोधं मग्गं, सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य, एवमेव तेसं तस्मिंयेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि ‘‘यं किञ्‍चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्म’’न्ति। ते दिट्ठधम्मा पत्तधम्मा विदितधम्मा परियोगाळ्हधम्मा तिण्णविचिकिच्छा विगतकथंकथा वेसारज्‍जप्पत्ता अपरप्पच्‍चया सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘लभेय्याम मयं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्‍जं, लभेय्याम उपसम्पद’’न्ति। ‘‘एथ भिक्खवो’’ति भगवा अवोच – ‘‘स्वाक्खातो धम्मो, चरथ ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। साव तेसं आयस्मन्तानं उपसम्पदा अहोसि।

भद्दवग्गियसहायकानं वत्थु निट्ठितं।

दुतियभाणवारो।

१२. उरुवेलपाटिहारियकथा

३७. अथ खो भगवा अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन उरुवेला तदवसरि। तेन खो पन समयेन उरुवेलायं तयो जटिला पटिवसन्ति – उरुवेलकस्सपो, नदीकस्सपो, गयाकस्सपोति। तेसु उरुवेलकस्सपो जटिलो पञ्‍चन्‍नं जटिलसतानं नायको होति, विनायको अग्गो पमुखो पामोक्खो। नदीकस्सपो जटिलो तिण्णं जटिलसतानं नायको होति, विनायको अग्गो पमुखो पामोक्खो। गयाकस्सपो जटिलो द्विन्‍नं जटिलसतानं नायको होति, विनायको अग्गो पमुखो पामोक्खो। अथ खो भगवा येन उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स अस्समो तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा उरुवेलकस्सपं जटिलं एतदवोच – ‘‘सचे ते, कस्सप , अगरु, वसेय्याम एकरत्तं अग्यागारे’’ति? ‘‘न खो मे, महासमण, गरु, चण्डेत्थ नागराजा इद्धिमा आसिविसो घोरविसो, सो तं मा विहेठेसी’’ति। दुतियम्पि खो भगवा उरुवेलकस्सपं जटिलं एतदवोच – ‘‘सचे ते, कस्सप, अगरु, वसेय्याम एकरत्तं अग्यागारे’’ति? ‘‘न खो मे, महासमण, गरु, चण्डेत्थ नागराजा इद्धिमा आसिविसो घोरविसो, सो तं मा विहेठेसी’’ति। ततियम्पि खो भगवा उरुवेलकस्सपं जटिलं एतदवोच – ‘‘सचे ते, कस्सप, अगरु, वसेय्याम एकरत्तं अग्यागारे’’ति? ‘‘न खो मे, महासमण, गरु, चण्डेत्थ नागराजा इद्धिमा आसिविसो घोरविसो, सो तं मा विहेठेसी’’ति। ‘‘अप्पेव मं न विहेठेय्य, इङ्घ त्वं, कस्सप, अनुजानाहि अग्यागार’’न्ति। ‘‘विहर, महासमण, यथासुख’’न्ति। अथ खो भगवा अग्यागारं पविसित्वा तिणसन्थारकं पञ्‍ञपेत्वा निसीदि पल्‍लङ्कं आभुजित्वा उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा।

३८. अद्दसा खो सो नागो भगवन्तं पविट्ठं, दिस्वान दुम्मनो [दुक्खी दुम्मनो (सी॰ स्या॰)] पधूपायि [पखूपासि (क॰)]। अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘यंनूनाहं इमस्स नागस्स अनुपहच्‍च छविञ्‍च चम्मञ्‍च मंसञ्‍च न्हारुञ्‍च अट्ठिञ्‍च अट्ठिमिञ्‍जञ्‍च तेजसा तेजं परियादियेय्य’’न्ति। अथ खो भगवा तथारूपं इद्धाभिसङ्खारं अभिसङ्खरित्वा पधूपायि। अथ खो सो नागो मक्खं असहमानो पज्‍जलि। भगवापि तेजोधातुं समापज्‍जित्वा पज्‍जलि। उभिन्‍नं सजोतिभूतानं अग्यागारं आदित्तं विय होति सम्पज्‍जलितं सजोतिभूतं। अथ खो ते जटिला अग्यागारं परिवारेत्वा एवमाहंसु – ‘‘अभिरूपो वत भो महासमणो नागेन विहेठियती’’ति। अथ खो भगवा तस्सा रत्तिया अच्‍चयेन तस्स नागस्स अनुपहच्‍च छविञ्‍च चम्मञ्‍च मंसञ्‍च न्हारुञ्‍च अट्ठिञ्‍च अट्ठिमिञ्‍जञ्‍च तेजसा तेजं परियादियित्वा पत्ते पक्खिपित्वा उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स दस्सेसि – ‘‘अयं ते, कस्सप, नागो परियादिन्‍नो [परियादिण्णो (क॰)] अस्स तेजसा तेजो’’ति। अथ खो उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स एतदहोसि – ‘‘महिद्धिको खो महासमणो महानुभावो, यत्र हि नाम चण्डस्स नागराजस्स इद्धिमतो आसिविसस्स घोरविसस्स तेजसा तेजं परियादियिस्सति, नत्वेव च खो अरहा यथा अह’’न्ति।

३९.

नेरञ्‍जरायं भगवा, उरुवेलकस्सपं जटिलं अवोच।

‘‘सचे ते कस्सप अगरु, विहरेमु अज्‍जण्हो अग्गिसालम्ही’’ति [अग्गिसरणम्हीति (सी॰ स्या॰)]॥

‘‘न खो मे महासमण गरु।

फासुकामोव तं निवारेमि।

चण्डेत्थ नागराजा।

इद्धिमा आसिविसो घोरविसो।

सो तं मा विहेठेसी’’ति॥

‘‘अप्पेव मं न विहेठेय्य।

इङ्घ त्वं कस्सप अनुजानाहि अग्यागार’’न्ति।

दिन्‍नन्ति नं विदित्वा।

अभीतो [असम्भीतो (सी॰)] पाविसि भयमतीतो॥

दिस्वा इसिं पविट्ठं, अहिनागो दुम्मनो पधूपायि।

सुमनमनसो अधिमनो [अविमनो (कत्थचि), नविमनो (स्या॰)], मनुस्सनागोपि तत्थ पधूपायि॥

मक्खञ्‍च असहमानो, अहिनागो पावकोव पज्‍जलि।

तेजोधातुसु कुसलो, मनुस्सनागोपि तत्थ पज्‍जलि॥

उभिन्‍नं सजोतिभूतानं।

अग्यागारं आदित्तं होति सम्पज्‍जलितं सजोतिभूतं।

उदिच्छरे जटिला।

‘‘अभिरूपो वत भो महासमणो।

नागेन विहेठियती’’ति भणन्ति॥

अथ तस्सा रत्तिया [अथ रत्तिया (सी॰ स्या॰)] अच्‍चयेन।

हता नागस्स अच्‍चियो होन्ति [अहिनागस्स अच्‍चियो न होन्ति (सी॰ स्या॰)]।

इद्धिमतो पन ठिता [इद्धिमतो पनुट्ठिता (सी॰)]।

अनेकवण्णा अच्‍चियो होन्ति॥

नीला अथ लोहितिका।

मञ्‍जिट्ठा पीतका फलिकवण्णायो।

अङ्गीरसस्स काये।

अनेकवण्णा अच्‍चियो होन्ति॥

पत्तम्हि ओदहित्वा।

अहिनागं ब्राह्मणस्स दस्सेसि।

‘‘अयं ते कस्सप नागो।

परियादिन्‍नो अस्स तेजसा तेजो’’ति॥

अथ खो उरुवेलकस्सपो जटिलो भगवतो इमिना इद्धिपाटिहारियेन अभिप्पसन्‍नो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘इधेव, महासमण, विहर, अहं ते [ते उपट्ठामि (इतिपि)] धुवभत्तेना’’ति।

पठमं पाटिहारियं।

४०. अथ खो भगवा उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स अस्समस्स अविदूरे अञ्‍ञतरस्मिं वनसण्डे विहासि। अथ खो चत्तारो महाराजानो अभिक्‍कन्ताय रत्तिया अभिक्‍कन्तवण्णा केवलकप्पं वनसण्डं ओभासेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा चतुद्दिसा अट्ठंसु सेय्यथापि महन्ता अग्गिक्खन्धा। अथ खो उरुवेलकस्सपो जटिलो तस्सा रत्तिया अच्‍चयेन येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘कालो, महासमण, निट्ठितं भत्तं। के नु खो ते, महासमण, अभिक्‍कन्ताय रत्तिया अभिक्‍कन्तवण्णा केवलकप्पं वनसण्डं ओभासेत्वा येन त्वं तेनुपसङ्कमिंसु , उपसङ्कमित्वा तं अभिवादेत्वा चतुद्दिसा अट्ठंसु ‘‘सेय्यथापि महन्ता अग्गिक्खन्धा’’ति। ‘‘एते खो, कस्सप, चत्तारो महाराजानो येनाहं तेनुपसङ्कमिंसु धम्मस्सवनाया’’ति। अथ खो उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स एतदहोसि – ‘‘महिद्धिको खो महासमणो महानुभावो, यत्र हि नाम चत्तारोपि महाराजानो उपसङ्कमिस्सन्ति धम्मस्सवनाय, न त्वेव च खो अरहा यथा अह’’न्ति। अथ खो भगवा उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स भत्तं भुञ्‍जित्वा तस्मिंयेव वनसण्डे विहासि।

दुतियं पाटिहारियं।

४१. अथ खो सक्‍को देवानमिन्दो अभिक्‍कन्ताय रत्तिया अभिक्‍कन्तवण्णो केवलकप्पं वनसण्डं ओभासेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि , उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि सेय्यथापि महाअग्गिक्खन्धो, पुरिमाहि वण्णनिभाहि अभिक्‍कन्ततरो च पणीततरो च। अथ खो उरुवेलकस्सपो जटिलो तस्सा रत्तिया अच्‍चयेन येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘कालो, महासमण, निट्ठितं भत्तं। को नु खो सो, महासमण, अभिक्‍कन्ताय रत्तिया अभिक्‍कन्तवण्णो केवलकप्पं वनसण्डं ओभासेत्वा येन त्वं तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि सेय्यथापि महाअग्गिक्खन्धो, पुरिमाहि वण्णनिभाहि अभिक्‍कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति? ‘‘एसो खो, कस्सप, सक्‍को देवानमिन्दो येनाहं तेनुपसङ्कमि धम्मस्सवनाया’’ति। अथ खो उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स एतदहोसि – ‘‘महिद्धिको खो महासमणो महानुभावो, यत्र हि नाम सक्‍कोपि देवानमिन्दो उपसङ्कमिस्सति धम्मस्सवनाय, न त्वेव च खो अरहा यथा अह’’न्ति। अथ खो भगवा उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स भत्तं भुञ्‍जित्वा तस्मिंयेव वनसण्डे विहासि।

ततियं पाटिहारियं।

४२. अथ खो ब्रह्मा सहम्पति अभिक्‍कन्ताय रत्तिया अभिक्‍कन्तवण्णो केवलकप्पं वनसण्डं ओभासेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि सेय्यथापि महाअग्गिक्खन्धो, पुरिमाहि वण्णनिभाहि अभिक्‍कन्ततरो च पणीततरो च। अथ खो उरुवेलकस्सपो जटिलो तस्सा रत्तिया अच्‍चयेन येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘कालो, महासमण, निट्ठितं भत्तं। को नु खो सो, महासमण, अभिक्‍कन्ताय रत्तिया अभिक्‍कन्तवण्णो केवलकप्पं वनसण्डं ओभासेत्वा येन त्वं तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि सेय्यथापि महाअग्गिक्खन्धो, पुरिमाहि वण्णनिभाहि अभिक्‍कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति? ‘‘एसो खो, कस्सप, ब्रह्मा सहम्पति येनाहं तेनुपसङ्कमि धम्मस्सवनाया’’ति। अथ खो उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स एतदहोसि – ‘‘महिद्धिको खो महासमणो महानुभावो, यत्र हि नाम ब्रह्मापि सहम्पति उपसङ्कमिस्सति धम्मस्सवनाय, न त्वेव च खो अरहा यथा अह’’न्ति। अथ खो भगवा उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स भत्तं भुञ्‍जित्वा तस्मिंयेव वनसण्डे विहासि।

चतुत्थं पाटिहारियं।

४३. तेन खो पन समयेन उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स महायञ्‍ञो पच्‍चुपट्ठितो होति, केवलकप्पा च अङ्गमगधा पहूतं खादनीयं भोजनीयं आदाय अभिक्‍कमितुकामा होन्ति । अथ खो उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स एतदहोसि – ‘‘एतरहि खो मे महायञ्‍ञो पच्‍चुपट्ठितो, केवलकप्पा च अङ्गमगधा पहूतं खादनीयं भोजनीयं आदाय अभिक्‍कमिस्सन्ति। सचे महासमणो महाजनकाये इद्धिपाटिहारियं करिस्सति , महासमणस्स लाभसक्‍कारो अभिवड्ढिस्सति, मम लाभसक्‍कारो परिहायिस्सति। अहो नून महासमणो स्वातनाय नागच्छेय्या’’ति। अथ खो भगवा उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स चेतसा चेतोपरिवितक्‍कमञ्‍ञाय उत्तरकुरुं गन्त्वा ततो पिण्डपातं आहरित्वा अनोतत्तदहे परिभुञ्‍जित्वा तत्थेव दिवाविहारं अकासि। अथ खो उरुवेलकस्सपो जटिलो तस्सा रत्तिया अच्‍चयेन येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘कालो, महासमण, निट्ठितं भत्तं। किं नु खो, महासमण, हिय्यो नागमासि? अपि च मयं तं सराम – किं नु खो महासमणो नागच्छतीति? खादनीयस्स च भोजनीयस्स च ते पटिवीसो [पटिविंसो (सी॰), पटिविसो (स्या॰)] ठपितो’’ति। ननु ते, कस्सप, एतदहोसि – ‘‘‘एतरहि खो मे महायञ्‍ञो पच्‍चुपट्ठितो, केवलकप्पा च अङ्गमगधा पहूतं खादनीयं भोजनीयं आदाय अभिक्‍कमिस्सन्ति, सचे महासमणो महाजनकाये इद्धिपाटिहारियं करिस्सति, महासमणस्स लाभसक्‍कारो अभिवड्ढिस्सति, मम लाभसक्‍कारो परिहायिस्सति, अहो नून महासमणो स्वातनाय नागच्छेय्या’ति। सो खो अहं, कस्सप, तव चेतसा चेतोपरिवितक्‍कं अञ्‍ञाय उत्तरकुरुं गन्त्वा ततो पिण्डपातं आहरित्वा अनोतत्तदहे परिभुञ्‍जित्वा तत्थेव दिवाविहारं अकासि’’न्ति। अथ खो उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स एतदहोसि – ‘‘महिद्धिको खो महासमणो महानुभावो, यत्र हि नाम चेतसापि चित्तं पजानिस्सति , न त्वेव च खो अरहा यथा अह’’न्ति। अथ खो भगवा उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स भत्तं भुञ्‍जित्वा तस्मिंयेव वनसण्डे विहासि।

पञ्‍चमं पाटिहारियं।

४४. तेन खो पन समयेन भगवतो पंसुकूलं उप्पन्‍नं होति। अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘कत्थ नु खो अहं पंसुकूलं धोवेय्य’’न्ति? अथ खो सक्‍को देवानमिन्दो भगवतो चेतसा चेतोपरिवितक्‍कमञ्‍ञाय पाणिना पोक्खरणिं खणित्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘इध, भन्ते, भगवा पंसुकूलं धोवतू’’ति। अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘किम्हि नु खो अहं पंसुकूलं परिमद्देय्य’’न्ति? अथ खो सक्‍को देवानमिन्दो भगवतो चेतसा चेतोपरिवितक्‍कमञ्‍ञाय महतिं सिलं उपनिक्खिपि – इध, भन्ते, भगवा पंसुकूलं परिमद्दतूति। अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘किम्हि नु खो अहं [अहं पंसुकूलं (क॰)] आलम्बित्वा उत्तरेय्य’’न्ति? अथ खो ककुधे अधिवत्था देवता भगवतो चेतसा चेतोपरिवितक्‍कमञ्‍ञाय साखं ओनामेसि – इध, भन्ते, भगवा आलम्बित्वा उत्तरतूति। अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘किम्हि नु खो अहं पंसुकूलं विस्सज्‍जेय्य’’न्ति? अथ खो सक्‍को देवानमिन्दो भगवतो चेतसा चेतोपरिवितक्‍कमञ्‍ञाय महतिं सिलं उपनिक्खिपि – इध, भन्ते, भगवा पंसुकूलं विस्सज्‍जेतूति। अथ खो उरुवेलकस्सपो जटिलो तस्सा रत्तिया अच्‍चयेन येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘कालो , महासमण, निट्ठितं भत्तं। किं नु खो, महासमण, नायं पुब्बे इध पोक्खरणी, सायं इध पोक्खरणी। नयिमा सिला पुब्बे उपनिक्खित्ता। केनिमा सिला उपनिक्खित्ता? नयिमस्स ककुधस्स पुब्बे साखा ओनता, सायं साखा ओनता’’ति। इध मे, कस्सप, पंसुकूलं उप्पन्‍नं अहोसि। तस्स मय्हं, कस्सप, एतदहोसि – ‘‘कत्थ नु खो अहं पंसुकूलं धोवेय्य’’न्ति? अथ खो, कस्सप, सक्‍को देवानमिन्दो मम चेतसा चेतोपरिवितक्‍कमञ्‍ञाय पाणिना पोक्खरणिं खणित्वा मं एतदवोच – ‘‘इध, भन्ते, भगवा पंसुकूलं धोवतू’’ति। सायं कस्सप अमनुस्सेन पाणिना खणिता पोक्खरणी। तस्स मय्हं, कस्सप, एतदहोसि – ‘‘किम्हि नु खो अहं पंसुकूलं परिमद्देय्य’’न्ति? अथ खो, कस्सप, सक्‍को देवानमिन्दो मम चेतसा चेतोपरिवितक्‍कमञ्‍ञाय महतिं सिलं उपनिक्खिपि – ‘‘इध, भन्ते, भगवा पंसुकूलं परिमद्दतू’’ति। सायं कस्सप अमनुस्सेन उपनिक्खित्ता सिला। तस्स मय्हं, कस्सप, एतदहोसि – ‘‘किम्हि नु खो अहं आलम्बित्वा उत्तरेय्य’’न्ति? अथ खो, कस्सप, ककुधे अधिवत्था देवता ज मम चेतसा चेतोपरिवितक्‍कमञ्‍ञाय साखं ओनामेसि – ‘‘इध, भन्ते, भगवा आलम्बित्वा उत्तरतू’’ति। स्वायं आहरहत्थो ककुधो। तस्स मय्हं, कस्सप, एतदहोसि – ‘‘किम्हि नु खो अहं पंसुकूलं विस्सज्‍जेय्य’’न्ति? अथ खो, कस्सप, सक्‍को देवानमिन्दो मम चेतसा चेतोपरिवितक्‍कमञ्‍ञाय महतिं सिलं उपनिक्खिपि – ‘‘इध, भन्ते, भगवा पंसुकूलं विस्सज्‍जेतू’’ति । सायं कस्सप अमनुस्सेन उपनिक्खित्ता सिलाति। अथ खो उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स एतदहोसि – ‘‘महिद्धिको खो महासमणो महानुभावो, यत्र हि नाम सक्‍कोपि देवानमिन्दो वेय्यावच्‍चं करिस्सति, न त्वेव च खो अरहा यथा अह’’न्ति। अथ खो भगवा उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स भत्तं भुञ्‍जित्वा तस्मिंयेव वनसण्डे विहासि।

अथ खो उरुवेलकस्सपो जटिलो तस्सा रत्तिया अच्‍चयेन येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवतो कालं आरोचेसि – ‘‘कालो, महासमण, निट्ठितं भत्त’’न्ति। ‘‘गच्छ त्वं, कस्सप, आयामह’’न्ति उरुवेलकस्सपं जटिलं उय्योजेत्वा याय जम्बुया ‘जम्बुदीपो’ पञ्‍ञायति, ततो फलं गहेत्वा पठमतरं आगन्त्वा अग्यागारे निसीदि। अद्दसा खो उरुवेलकस्सपो जटिलो भगवन्तं अग्यागारे निसिन्‍नं, दिस्वान भगवन्तं एतदवोच – ‘‘कतमेन त्वं, महासमण, मग्गेन आगतो? अहं तया पठमतरं पक्‍कन्तो, सो त्वं पठमतरं आगन्त्वा अग्यागारे निसिन्‍नो’’ति। ‘‘इधाहं, कस्सप, तं उय्योजेत्वा याय जम्बुया ‘जम्बुदीपो’ पञ्‍ञायति, ततो फलं गहेत्वा पठमतरं आगन्त्वा अग्यागारे निसिन्‍नो। इदं खो, कस्सप, जम्बुफलं वण्णसम्पन्‍नं गन्धसम्पन्‍नं रससम्पन्‍नं। सचे आकङ्खसि परिभुञ्‍जा’’ति। ‘‘अलं, महासमण, त्वंयेव तं अरहसि , त्वंयेव तं [त्वंयेवेतं आहरसि, त्वंयेवेतं (सी॰ स्या॰)] परिभुञ्‍जाही’’ति। अथ खो उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स एतदहोसि – ‘‘महिद्धिको खो महासमणो महानुभावो, यत्र हि नाम मं पठमतरं उय्योजेत्वा याय जम्बुया ‘जम्बुदीपो’ पञ्‍ञायति, ततो फलं गहेत्वा पठमतरं आगन्त्वा अग्यागारे निसीदिस्सति, न त्वेव च खो अरहा यथा अह’’न्ति। अथ खो भगवा उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स भत्तं भुञ्‍जित्वा तस्मिंयेव वनसण्डे विहासि।

४५. अथ खो उरुवेलकस्सपो जटिलो तस्सा रत्तिया अच्‍चयेन येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवतो कालं आरोचेसि – ‘‘कालो, महासमण, निट्ठितं भत्त’’न्ति। गच्छ त्वं, कस्सप, आयामहन्ति उरुवेलकस्सपं जटिलं उय्योजेत्वा याय जम्बुया ‘जम्बुदीपो’ पञ्‍ञायति, तस्सा अविदूरे अम्बो…पे॰… तस्सा अविदूरे आमलकी…पे॰… तस्सा अविदूरे हरीतकी…पे॰… तावतिंसं गन्त्वा पारिच्छत्तकपुप्फं गहेत्वा पठमतरं आगन्त्वा अग्यागारे निसीदि। अद्दसा खो उरुवेलकस्सपो जटिलो भगवन्तं अग्यागारे निसिन्‍नं, दिस्वान भगवन्तं एतदवोच – ‘‘कतमेन त्वं, महासमण, मग्गेन आगतो? अहं तया पठमतरं पक्‍कन्तो, सो त्वं पठमतरं आगन्त्वा अग्यागारे निसिन्‍नो’’ति। ‘‘इधाहं , कस्सप, तं उय्योजेत्वा तावतिंसं गन्त्वा पारिच्छत्तकपुप्फं गहेत्वा पठमतरं आगन्त्वा अग्यागारे निसिन्‍नो। इदं खो, कस्सप, पारिच्छत्तकपुप्फं वण्णसम्पन्‍नं गन्धसम्पन्‍नं [सुगन्धिकं (क॰)]। (सचे आकङ्खसि गण्हा’’ति। ‘‘अलं, महासमण, त्वंयेव तं अरहसि, त्वंयेव तं गण्हा’’ति) [( ) सी॰ स्या॰ पोत्थकेसु नत्थि]। अथ खो उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स एतदहोसि – ‘‘महिद्धिको खो महासमणो महानुभावो, यत्र हि नाम मं पठमतरं उय्योजेत्वा तावतिंसं गन्त्वा पारिच्छत्तकपुप्फं गहेत्वा पठमतरं आगन्त्वा अग्यागारे निसीदिस्सति, न त्वेव च खो अरहा यथा अह’’न्ति।

४६. तेन खो पन समयेन ते जटिला अग्गिं परिचरितुकामा न सक्‍कोन्ति कट्ठानि फालेतुं । अथ खो तेसं जटिलानं एतदहोसि – ‘‘निस्संसयं खो महासमणस्स इद्धानुभावो, यथा मयं न सक्‍कोम कट्ठानि फालेतु’’न्ति। अथ खो भगवा उरुवेलकस्सपं जटिलं एतदवोच – ‘‘फालियन्तु, कस्सप, कट्ठानी’’ति। ‘‘फालियन्तु, महासमणा’’ति। सकिदेव पञ्‍च कट्ठसतानि फालियिंसु। अथ खो उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स एतदहोसि – ‘‘महिद्धिको खो महासमणो महानुभावो, यत्र हि नाम कट्ठानिपि फालियिस्सन्ति, न त्वेव च खो अरहा यथा अह’’न्ति।

४७. तेन खो पन समयेन ते जटिला अग्गिं परिचरितुकामा न सक्‍कोन्ति अग्गिं उज्‍जलेतुं [जालेतुं (सी॰), उज्‍जलितुं (क॰)]। अथ खो तेसं जटिलानं एतदहोसि – ‘‘निस्संसयं खो महासमणस्स इद्धानुभावो, यथा मयं न सक्‍कोम अग्गिं उज्‍जलेतु’’न्ति। अथ खो भगवा उरुवेलकस्सपं जटिलं एतदवोच – ‘‘उज्‍जलियन्तु, कस्सप, अग्गी’’ति। ‘‘उज्‍जलियन्तु, महासमणा’’ति। सकिदेव पञ्‍च अग्गिसतानि उज्‍जलियिंसु। अथ खो उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स एतदहोसि – ‘‘महिद्धिको खो महासमणो महानुभावो, यत्र हि नाम अग्गीपि उज्‍जलियिस्सन्ति, न त्वेव च खो अरहा यथा अह’’न्ति।

४८. तेन खो पन समयेन ते जटिला अग्गिं परिचरित्वा न सक्‍कोन्ति अग्गिं विज्झापेतुं। अथ खो तेसं जटिलानं एतदहोसि – ‘‘निस्संसयं खो महासमणस्स इद्धानुभावो, यथा मयं न सक्‍कोम अग्गिं विज्झापेतु’’न्ति। अथ खो भगवा उरुवेलकस्सपं जटिलं एतदवोच – ‘‘विज्झायन्तु, कस्सप, अग्गी’’ति। ‘‘विज्झायन्तु, महासमणा’’ति। सकिदेव पञ्‍च अग्गिसतानि विज्झायिंसु। अथ खो उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स एतदहोसि – ‘‘महिद्धिको खो महासमणो महानुभावो, यत्र हि नाम अग्गीपि विज्झायिस्सन्ति, न त्वेव च खो अरहा यथा अह’’न्ति।

४९. तेन खो पन समयेन ते जटिला सीतासु हेमन्तिकासु रत्तीसु अन्तरट्ठकासु हिमपातसमये नज्‍जा नेरञ्‍जराय उम्मुज्‍जन्तिपि, निमुज्‍जन्तिपि, उम्मुज्‍जननिमुज्‍जनम्पि करोन्ति। अथ खो भगवा पञ्‍चमत्तानि मन्दामुखिसतानि अभिनिम्मिनि, यत्थ ते जटिला उत्तरित्वा विसिब्बेसुं । अथ खो तेसं जटिलानं एतदहोसि – ‘‘निस्संसयं खो महासमणस्स इद्धानुभावो, यथयिमा मन्दामुखियो निम्मिता’’ति। अथ खो उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स एतदहोसि – ‘‘महिद्धिको खो महासमणो महानुभावो, यत्र हि नाम ताव बहू मन्दामुखियोपि अभिनिम्मिनिस्सति, न त्वेव च खो अरहा यथा अह’’न्ति।

५०. तेन खो पन समयेन महा अकालमेघो पावस्सि, महा उदकवाहको सञ्‍जायि। यस्मिं पदेसे भगवा विहरति, सो पदेसो उदकेन न ओत्थटो [उदकेन ओत्थटो (सी॰ स्या॰)] होति। अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘यंनूनाहं समन्ता उदकं उस्सारेत्वा मज्झे रेणुहताय भूमिया चङ्कमेय्य’’न्ति। अथ खो भगवा समन्ता उदकं उस्सारेत्वा मज्झे रेणुहताय भूमिया चङ्कमि। अथ खो उरुवेलकस्सपो जटिलो – माहेव खो महासमणो उदकेन वूळ्हो अहोसीति नावाय सम्बहुलेहि जटिलेहि सद्धिं यस्मिं पदेसे भगवा विहरति तं पदेसं अगमासि। अद्दसा खो उरुवेलकस्सपो जटिलो भगवन्तं समन्ता उदकं उस्सारेत्वा मज्झे रेणुहताय भूमिया चङ्कमन्तं, दिस्वान भगवन्तं एतदवोच – ‘‘इदं नु त्वं, महासमणा’’ति? ‘‘अयमहमस्मि [आम अहमस्मि (स्या॰)], कस्सपा’’ति भगवा वेहासं अब्भुग्गन्त्वा नावाय पच्‍चुट्ठासि। अथ खो उरुवेलकस्सपस्स जटिलस्स एतदहोसि – ‘‘महिद्धिको खो महासमणो महानुभावो, यत्र हि नाम उदकम्पि न पवाहिस्सति [नप्पसहिस्सति (सी॰)], न त्वेव च खो अरहा यथा अह’’न्ति।

५१. अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘चिरम्पि खो इमस्स मोघपुरिसस्स एवं भविस्सति – ‘महिद्धिको खो महासमणो महानुभावो, न त्वेव च खो अरहा यथा अह’न्ति; यंनूनाहं इमं जटिलं संवेजेय्य’’न्ति। अथ खो भगवा उरुवेलकस्सपं जटिलं एतदवोच – ‘‘नेव च खो त्वं, कस्सप, अरहा, नापि अरहत्तमग्गसमापन्‍नो। सापि ते पटिपदा नत्थि, याय त्वं अरहा वा अस्ससि, अरहत्तमग्गं वा समापन्‍नो’’ति। अथ खो उरुवेलकस्सपो जटिलो भगवतो पादेसु सिरसा निपतित्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘लभेय्याहं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्‍जं, लभेय्यं उपसम्पद’’न्ति। त्वं खोसि, कस्सप, पञ्‍चन्‍नं जटिलसतानं नायको विनायको अग्गो पमुखो पामोक्खो। तेपि ताव अपलोकेहि, यथा ते मञ्‍ञिस्सन्ति तथा ते करिस्सन्तीति। अथ खो उरुवेलकस्सपो जटिलो येन ते जटिला तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा ते जटिले एतदवोच – ‘‘इच्छामहं , भो, महासमणे ब्रह्मचरियं चरितुं, यथा भवन्तो मञ्‍ञन्ति तथा करोन्तू’’ति। ‘‘चिरपटिका मयं, भो, महासमणे अभिप्पसन्‍ना, सचे भवं, महासमणे ब्रह्मचरियं चरिस्सति, सब्बेव मयं महासमणे ब्रह्मचरियं चरिस्सामा’’ति। अथ खो ते जटिला केसमिस्सं जटामिस्सं खारिकाजमिस्सं अग्गिहुतमिस्सं उदके पवाहेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा भगवतो पादेसु सिरसा निपतित्वा भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘लभेय्याम मयं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्‍जं, लभेय्याम उपसम्पद’’न्ति। ‘‘एथ भिक्खवो’’ति भगवा अवोच – ‘‘स्वाक्खातो धम्मो, चरथ ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। साव तेसं आयस्मन्तानं उपसम्पदा अहोसि।

५२. अद्दसा खो नदीकस्सपो जटिलो केसमिस्सं जटामिस्सं खारिकाजमिस्सं अग्गिहुतमिस्सं उदके वुय्हमाने, दिस्वानस्स एतदहोसि – ‘‘माहेव मे भातुनो उपसग्गो अहोसी’’ति। जटिले पाहेसि – गच्छथ मे भातरं जानाथाति। सामञ्‍च तीहि जटिलसतेहि सद्धिं येनायस्मा उरुवेलकस्सपो तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं उरुवेलकस्सपं एतदवोच – ‘‘इदं नु खो, कस्सप, सेय्यो’’ति? ‘‘आमावुसो, इदं सेय्यो’’ति। अथ खो ते जटिला केसमिस्सं जटामिस्सं खारिकाजमिस्सं अग्गिहुतमिस्सं उदके पवाहेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा भगवतो पादेसु सिरसा निपतित्वा भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘लभेय्याम मयं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्‍जं, लभेय्याम उपसम्पद’’न्ति। ‘‘एथ भिक्खवो’’ति भगवा अवोच – ‘‘स्वाक्खातो धम्मो, चरथ ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। साव तेसं आयस्मन्तानं उपसम्पदा अहोसि।

५३. अद्दसा खो गयाकस्सपो जटिलो केसमिस्सं जटामिस्सं खारिकाजमिस्सं अग्गिहुतमिस्सं उदके वुय्हमाने, दिस्वानस्स एतदहोसि – ‘‘माहेव मे भातूनं उपसग्गो अहोसी’’ति। जटिले पाहेसि – गच्छथ मे भातरो जानाथाति। सामञ्‍च द्वीहि जटिलसतेहि सद्धिं येनायस्मा उरुवेलकस्सपो तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं उरुवेलकस्सपं एतदवोच – ‘‘इदं नु खो, कस्सप, सेय्यो’’ति? ‘‘आमावुसो, इदं सेय्यो’’ति। अथ खो ते जटिला केसमिस्सं जटामिस्सं खारिकाजमिस्सं अग्गिहुतमिस्सं उदके पवाहेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा भगवतो पादेसु सिरसा निपतित्वा भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘लभेय्याम मयं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्‍जं, लभेय्याम उपसम्पद’’न्ति। ‘‘एथ भिक्खवो’’ति भगवा अवोच – ‘‘स्वाक्खातो धम्मो, चरथ ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। साव तेसं आयस्मन्तानं उपसम्पदा अहोसि।

भगवतो अधिट्ठानेन पञ्‍च कट्ठसतानि न फालियिंसु, फालियिंसु; अग्गी न उज्‍जलियिंसु, उज्‍जलियिंसु; न विज्झायिंसु, विज्झायिंसु; पञ्‍चमन्दामुखिसतानि अभिनिम्मिनि। एतेन नयेन अड्ढुड्ढपाटिहारियसहस्सानि होन्ति।

५४. अथ खो भगवा उरुवेलायं यथाभिरन्तं विहरित्वा येन गयासीसं तेन पक्‍कामि महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं भिक्खुसहस्सेन सब्बेहेव पुराणजटिलेहि। तत्र सुदं भगवा गयायं विहरति गयासीसे सद्धिं भिक्खुसहस्सेन। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि –

[सं॰ नि॰ ४.२९] ‘‘सब्बं , भिक्खवे, आदित्तं। किञ्‍च, भिक्खवे, सब्बं आदित्तं? चक्खु आदित्तं, रूपा आदित्ता, चक्खुविञ्‍ञाणं आदित्तं, चक्खुसम्फस्सो आदित्तो, यमिदं चक्खुसम्फस्सपच्‍चया उप्पज्‍जति वेदयितं सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा तम्पि आदित्तं। केन आदित्तं? रागग्गिना दोसग्गिना मोहग्गिना आदित्तं, जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि आदित्तन्ति वदामि। सोतं आदित्तं, सद्दा आदित्ता, सोतविञ्‍ञाणं आदित्तं, सोतसम्फस्सो आदित्तो, यमिदं सोतसम्फस्सपच्‍चया उप्पज्‍जति वेदयितं सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा तम्पि आदित्तं। केन आदित्तं? रागग्गिना दोसग्गिना मोहग्गिना आदित्तं, जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि आदित्तन्ति वदामि। घानं आदित्तं, गन्धा आदित्ता, घानविञ्‍ञाणं आदित्तं, घानसम्फस्सो आदित्तो, यमिदं घानसम्फस्सपच्‍चया उप्पज्‍जति वेदयितं सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा तम्पि आदित्तं। केन आदित्तं? रागग्गिना दोसग्गिना मोहग्गिना आदित्तं, जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि आदित्तन्ति वदामि। जिव्हा आदित्ता, रसा आदित्ता, जिव्हाविञ्‍ञाणं आदित्तं जिव्हासम्फस्सो आदित्तो, यमिदं जिव्हासम्फस्सपच्‍चया उप्पज्‍जति वेदयितं सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा तम्पि आदित्तं। केन आदित्तं? रागग्गिना दोसग्गिना मोहग्गिना आदित्तं, जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि आदित्तन्ति वदामि। कायो आदित्तो, फोट्ठब्बा आदित्ता, कायविञ्‍ञाणं आदित्तं कायसम्फस्सो आदित्तो, यमिदं कायसम्फस्सपच्‍चया उप्पज्‍जति वेदयितं सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा तम्पि आदित्तं। केन आदित्तं? रागग्गिना दोसग्गिना मोहग्गिना आदित्तं, जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि आदित्तन्ति वदामि। मनो आदित्तो, धम्मा आदित्ता, मनोविञ्‍ञाणं आदित्तं मनोसम्फस्सो आदित्तो, यमिदं मनोसम्फस्सपच्‍चया उप्पज्‍जति वेदयितं सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा तम्पि आदित्तं। केन आदित्तं? रागग्गिना दोसग्गिना मोहग्गिना आदित्तं, जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि आदित्तन्ति वदामि।

‘‘एवं पस्सं, भिक्खवे, सुतवा अरियसावको चक्खुस्मिम्पि निब्बिन्दति, रूपेसुपि निब्बिन्दति, चक्खुविञ्‍ञाणेपि निब्बिन्दति, चक्खुसम्फस्सेपि निब्बिन्दति, यमिदं चक्खुसम्फस्सपच्‍चया उप्पज्‍जति वेदयितं सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा, तस्मिम्पि निब्बिन्दति। सोतस्मिम्पि निब्बिन्दति, सद्देसुपि निब्बिन्दति…पे॰… घानस्मिम्पि निब्बिन्दति , गन्धेसुपि निब्बिन्दति…पे॰… जिव्हायपि निब्बिन्दति, रसेसुपि निब्बिन्दति…पे॰… कायस्मिम्पि निब्बिन्दति, फोट्ठब्बेसुपि निब्बिन्दति…पे॰… मनस्मिम्पि निब्बिन्दति, धम्मेसुपि निब्बिन्दति, मनोविञ्‍ञाणेपि निब्बिन्दति, मनोसम्फस्सेपि निब्बिन्दति, यमिदं मनोसम्फस्सपच्‍चया उप्पज्‍जति वेदयितं सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा तस्मिम्पि निब्बिन्दति, निब्बिन्दं विरज्‍जति, विरागा विमुच्‍चति, विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञाणं होति। खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्तायाति पजानाती’’ति।

इमस्मिञ्‍च पन वेय्याकरणस्मिं भञ्‍ञमाने तस्स भिक्खुसहस्सस्स अनुपादाय आसवेहि चित्तानि विमुच्‍चिंसु।

आदित्तपरियायसुत्तं निट्ठितं।

उरुवेलपाटिहारियं ततियभाणवारो निट्ठितो।

१३. बिम्बिसारसमागमकथा

५५. अथ खो भगवा गयासीसे यथाभिरन्तं विहरित्वा येन राजगहं तेन चारिकं पक्‍कामि, महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं भिक्खुसहस्सेन सब्बेहेव पुराणजटिलेहि। अथ खो भगवा अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन राजगहं तदवसरि। तत्र सुदं भगवा राजगहे विहरति लट्ठिवने [लट्ठिवनुय्याने (स्या॰)] सुप्पतिट्ठे चेतिये। अस्सोसि खो राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो – समणो खलु भो गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो राजगहं अनुप्पत्तो राजगहे विहरति लट्ठिवने सुप्पतिट्ठे चेतिये। तं खो पन भगवन्तं [भवन्तं (क॰)] गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्‍जाचरणसम्पन्‍नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा [भगवाति (क॰)]। सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्‍ञा सच्छिकत्वा पवेदेति। सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्‍जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति। साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होतीति।

अथ खो राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो द्वादसनहुतेहि [द्वादसनियुतेहि (योजना)] मागधिकेहि ब्राह्मणगहपतिकेहि परिवुतो येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। तेपि खो द्वादसनहुता मागधिका ब्राह्मणगहपतिका अप्पेकच्‍चे भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु, अप्पेकच्‍चे भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु, अप्पेकच्‍चे येन भगवा तेनञ्‍जलिं पणामेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु, अप्पेकच्‍चे भगवतो सन्तिके नामगोत्तं सावेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु, अप्पेकच्‍चे तुण्हीभूता एकमन्तं निसीदिंसु। अथ खो तेसं द्वादसनहुतानं [द्वादसनियुतानं (योजना)] मागधिकानं ब्राह्मणगहपतिकानं एतदहोसि – ‘‘किं नु खो महासमणो उरुवेलकस्सपे ब्रह्मचरियं चरति, उदाहु उरुवेलकस्सपो महासमणे ब्रह्मचरियं चरती’’ति? अथ खो भगवा तेसं द्वादसनहुतानं मागधिकानं ब्राह्मणगहपतिकानं चेतसा चेतोपरिवितक्‍कमञ्‍ञाय आयस्मन्तं उरुवेलकस्सपं गाथाय अज्झभासि –

‘‘किमेव दिस्वा उरुवेलवासि, पहासि अग्गिं किसकोवदानो।

पुच्छामि तं कस्सप, एतमत्थं कथं पहीनं तव अग्गिहुत्तन्ति॥

‘‘रूपे च सद्दे च अथो रसे च।

कामित्थियो चाभिवदन्ति यञ्‍ञा।

एतं मलन्ति उपधीसु ञत्वा।

तस्मा न यिट्ठे न हुते अरञ्‍जिन्ति॥

‘‘एत्थेव ते मनो न रमित्थ (कस्सपाति भगवा)।

रूपेसु सद्देसु अथो रसेसु।

अथ को चरहि देवमनुस्सलोके।

रतो मनो कस्सप, ब्रूहि मेतन्ति॥

‘‘दिस्वा पदं सन्तमनूपधीकं।

अकिञ्‍चनं कामभवे असत्तं।

अनञ्‍ञथाभाविमनञ्‍ञनेय्यं।

तस्मा न यिट्ठे न हुते अरञ्‍जि’’न्ति॥

५६. अथ खो आयस्मा उरुवेलकस्सपो उट्ठायासना एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा भगवतो पादेसु सिरसा निपतित्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सत्था मे, भन्ते, भगवा, सावकोहमस्मि; सत्था मे, भन्ते, भगवा, सावकोहमस्मी’’ति। अथ खो तेसं द्वादसनहुतानं मागधिकानं ब्राह्मणगहपतिकानं एतदहोसि – ‘‘उरुवेलकस्सपो महासमणे ब्रह्मचरियं चरती’’ति। अथ खो भगवा तेसं द्वादसनहुतानं मागधिकानं ब्राह्मणगहपतिकानं चेतसा चेतोपरिवितक्‍कमञ्‍ञाय अनुपुब्बिं कथं कथेसि, सेय्यथिदं – दानकथं सीलकथं सग्गकथं कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि। यदा ते भगवा अञ्‍ञासि कल्‍लचित्ते मुदुचित्ते विनीवरणचित्ते उदग्गचित्ते पसन्‍नचित्ते, अथ या बुद्धानं सामुक्‍कंसिका धम्मदेसना, तं पकासेसि – दुक्खं, समुदयं, निरोधं, मग्गं। सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य, एवमेव एकादसनहुतानं मागधिकानं ब्राह्मणगहपतिकानं बिम्बिसारप्पमुखानं तस्मिं येव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – यं किञ्‍चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्मन्ति। एकनहुतं उपासकत्तं पटिवेदेसि।

५७. अथ खो राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो दिट्ठधम्मो पत्तधम्मो विदितधम्मो परियोगाळ्हधम्मो तिण्णविचिकिच्छो विगतकथंकथो वेसारज्‍जप्पत्तो अपरप्पच्‍चयो सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोच – ‘‘पुब्बे मे, भन्ते, कुमारस्स सतो पञ्‍च अस्सासका अहेसुं, ते मे एतरहि समिद्धा। पुब्बे मे, भन्ते, कुमारस्स सतो एतदहोसि – ‘अहो वत मं रज्‍जे अभिसिञ्‍चेय्यु’न्ति, अयं खो मे, भन्ते, पठमो अस्सासको अहोसि, सो मे एतरहि समिद्धो। ‘तस्स च मे विजितं अरहं सम्मासम्बुद्धो ओक्‍कमेय्या’ति, अयं खो मे, भन्ते, दुतियो अस्सासको अहोसि, सो मे एतरहि समिद्धो। ‘तञ्‍चाहं भगवन्तं पयिरुपासेय्य’न्ति, अयं खो मे, भन्ते, ततियो अस्सासको अहोसि, सो मे एतरहि समिद्धो। ‘सो च मे भगवा धम्मं देसेय्या’ति, अयं खो मे, भन्ते, चतुत्थो अस्सासको अहोसि, सो मे एतरहि समिद्धो। ‘तस्स चाहं भगवतो धम्मं आजानेय्य’न्ति, अयं खो मे, भन्ते, पञ्‍चमो अस्सासको अहोसि, सो मे एतरहि समिद्धो। पुब्बे मे, भन्ते, कुमारस्स सतो इमे पञ्‍च अस्सासका अहेसुं, ते मे एतरहि समिद्धा। अभिक्‍कन्तं, भन्ते, अभिक्‍कन्तं, भन्ते, सेय्यथापि, भन्ते, निक्‍कुज्‍जितं वा उक्‍कुज्‍जेय्य, पटिच्छन्‍नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्‍जोतं धारेय्य चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्तीति – एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि, धम्मञ्‍च, भिक्खुसङ्घञ्‍च। उपासकं मं [मं भन्ते (क॰)], भगवा धारेतु अज्‍जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं, अधिवासेतु च मे, भन्ते, भगवा , स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’’ति । अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन। अथ खो राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्‍कामि। अथ खो राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो तस्सा रत्तिया अच्‍चयेन पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा भगवतो कालं आरोचापेसि – ‘‘कालो, भन्ते, निट्ठितं भत्त’’न्ति।

५८. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय राजगहं पाविसि महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं भिक्खुसहस्सेन सब्बेहेव पुराणजटिलेहि। तेन खो पन समयेन सक्‍को देवानमिन्दो माणवकवण्णं अभिनिम्मिनित्वा बुद्धप्पमुखस्स भिक्खुसङ्घस्स पुरतो पुरतो गच्छति इमा गाथायो गायमानो –

‘‘दन्तो दन्तेहि सह पुराणजटिलेहि, विप्पमुत्तो विप्पमुत्तेहि।

सिङ्गीनिक्खसवण्णो, राजगहं पाविसि भगवा॥

‘‘मुत्तो मुत्तेहि सह पुराणजटिलेहि, विप्पमुत्तो विप्पमुत्तेहि।

सिङ्गीनिक्खसवण्णो, राजगहं पाविसि भगवा॥

‘‘तिण्णो तिण्णेहि सह पुराणजटिलेहि।

विप्पमुत्तो विप्पमुत्तेहि।

सिङ्गीनिक्खसुवण्णो।

राजगहं पाविसि भगवा॥

‘‘सन्तो सन्तेहि सह पुराणजटिलेहि।

विप्पमुत्तो विप्पमुत्तेहि।

सिङ्गीनिक्खसवण्णो।

राजगहं पाविसि भगवा॥

‘‘दसवासो दसबलो, दसधम्मविदू दसभि चुपेतो।

सो दससतपरिवारो [परिवारको (क॰)] राजगहं, पाविसि भगवा’’ति॥

मनुस्सा सक्‍कं देवानमिन्दं पस्सित्वा एवमाहंसु – ‘‘अभिरूपो वतायं माणवको, दस्सनीयो वतायं माणवको, पासादिको वतायं माणवको। कस्स नु खो अयं माणवको’’ति? एवं वुत्ते सक्‍को देवानमिन्दो ते मनुस्से गाथाय अज्झभासि –

‘‘यो धीरो सब्बधि दन्तो, सुद्धो अप्पटिपुग्गलो।

अरहं सुगतो लोके, तस्साहं परिचारको’’ति॥

५९. अथ खो भगवा येन रञ्‍ञो मागधस्स सेनियस्स बिम्बिसारस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा पञ्‍ञत्ते आसने निसीदि सद्धिं भिक्खुसङ्घेन। अथ खो राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो बुद्धप्पमुखं भिक्खुसङ्घं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेत्वा सम्पवारेत्वा भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्‍नस्स खो रञ्‍ञो मागधस्स सेनियस्स बिम्बिसारस्स एतदहोसि [चूळव॰ ३०७] – ‘‘कत्थ नु खो भगवा विहरेय्य? यं अस्स गामतो नेव अविदूरे न अच्‍चासन्‍ने, गमनागमनसम्पन्‍नं, अत्थिकानं अत्थिकानं मनुस्सानं अभिक्‍कमनीयं, दिवा अप्पाकिण्णं [अप्पकिण्णं (सी॰ स्या॰), अब्भोकिण्णं (क॰)], रत्तिं अप्पसद्दं अप्पनिग्घोसं विजनवातं, मनुस्सराहस्सेय्यकं, पटिसल्‍लानसारुप्प’’न्ति। अथ खो रञ्‍ञो मागधस्स सेनियस्स बिम्बिसारस्स एतदहोसि – ‘‘इदं खो अम्हाकं वेळुवनं उय्यानं गामतो नेव अविदूरे न अच्‍चासन्‍ने गमनागमनसम्पन्‍नं अत्थिकानं अत्थिकानं मनुस्सानं अभिक्‍कमनीयं दिवा अप्पाकिण्णं रत्तिं अप्पसद्दं अप्पनिग्घोसं विजनवातं मनुस्सराहस्सेय्यकं पटिसल्‍लानसारुप्पं। यंनूनाहं वेळुवनं उय्यानं बुद्धप्पमुखस्स भिक्खुसङ्घस्स ददेय्य’’न्ति। अथ खो राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सोवण्णमयं भिङ्कारं गहेत्वा भगवतो ओणोजेसि – ‘‘एताहं, भन्ते, वेळुवनं उय्यानं बुद्धप्पमुखस्स भिक्खुसङ्घस्स दम्मी’’ति। पटिग्गहेसि भगवा आरामं। अथ खो भगवा राजानं मागधं सेनियं बिम्बिसारं धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उट्ठायासना पक्‍कामि। अथ खो भगवा एतस्मिं निदाने एतस्मिं पकरणे धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘अनुजानामि, भिक्खवे, आराम’’न्ति।

बिम्बिसारसमागमकथा निट्ठिता।

१४. सारिपुत्तमोग्गल्‍लानपब्बज्‍जाकथा

६०. तेन खो पन समयेन सञ्‍चयो [सञ्‍जयो (सी॰ स्या॰)] परिब्बाजको राजगहे पटिवसति महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं अड्ढतेय्येहि परिब्बाजकसतेहि। तेन खो पन समयेन सारिपुत्तमोग्गल्‍लाना सञ्‍चये परिब्बाजके ब्रह्मचरियं चरन्ति। तेहि कतिका कता होति – यो पठमं अमतं अधिगच्छति, सो इतरस्स आरोचेतूति। अथ खो आयस्मा अस्सजि पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय राजगहं पिण्डाय पाविसि पासादिकेन अभिक्‍कन्तेन पटिक्‍कन्तेन आलोकितेन विलोकितेन समिञ्‍जितेन पसारितेन, ओक्खित्तचक्खु इरियापथसम्पन्‍नो। अद्दसा खो सारिपुत्तो परिब्बाजको आयस्मन्तं अस्सजिं राजगहे पिण्डाय चरन्तं पासादिकेन अभिक्‍कन्तेन पटिक्‍कन्तेन आलोकितेन विलोकितेन समिञ्‍जितेन पसारितेन ओक्खित्तचक्खुं इरियापथसम्पन्‍नं। दिस्वानस्स एतदहोसि – ‘‘ये वत लोके अरहन्तो वा अरहत्तमग्गं वा समापन्‍ना, अयं तेसं भिक्खु अञ्‍ञतरो। यंनूनाहं इमं भिक्खुं उपसङ्कमित्वा पुच्छेय्यं – ‘कंसि त्वं, आवुसो, उद्दिस्स पब्बजितो, को वा ते सत्था, कस्स वा त्वं धम्मं रोचेसी’’’ति? अथ खो सारिपुत्तस्स परिब्बाजकस्स एतदहोसि – ‘‘अकालो खो इमं भिक्खुं पुच्छितुं, अन्तरघरं पविट्ठो पिण्डाय चरति। यंनूनाहं इमं भिक्खुं पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धेय्यं, अत्थिकेहि उपञ्‍ञातं मग्ग’’न्ति। अथ खो आयस्मा अस्सजि राजगहे पिण्डाय चरित्वा पिण्डपातं आदाय पटिक्‍कमि। अथ खो सारिपुत्तोपि परिब्बाजको येनायस्मा अस्सजि तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा आयस्मता अस्सजिना सद्धिं सम्मोदि, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो सारिपुत्तो परिब्बाजको आयस्मन्तं अस्सजिं एतदवोच – ‘‘विप्पसन्‍नानि खो ते, आवुसो, इन्द्रियानि, परिसुद्धो छविवण्णो परियोदातो। कंसि त्वं, आवुसो, उद्दिस्स पब्बजितो, को वा ते सत्था, कस्स वा त्वं धम्मं रोचेसी’’ति? ‘‘अत्थावुसो, महासमणो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो, ताहं भगवन्तं उद्दिस्स पब्बजितो, सो च मे भगवा सत्था, तस्स चाहं भगवतो धम्मं रोचेमी’’ति। ‘‘किंवादी पनायस्मतो सत्था, किमक्खायी’’ति? ‘‘अहं खो, आवुसो, नवो अचिरपब्बजितो, अधुनागतो इमं धम्मविनयं, न ताहं सक्‍कोमि वित्थारेन धम्मं देसेतुं, अपि च ते संखित्तेन अत्थं वक्खामी’’ति। अथ खो सारिपुत्तो परिब्बाजको आयस्मन्तं अस्सजिं एतदवोच – ‘‘होतु, आवुसो –

‘‘अप्पं वा बहुं वा भासस्सु, अत्थंयेव मे ब्रूहि।

अत्थेनेव मे अत्थो, किं काहसि ब्यञ्‍जनं बहु’’न्ति॥

अथ खो आयस्मा अस्सजि सारिपुत्तस्स परिब्बाजकस्स इमं धम्मपरियायं अभासि –

[अप॰ १.१.२८६ थेरापदानेपि] ‘‘ये धम्मा हेतुप्पभवा, तेसं हेतुं तथागतो आह।

तेसञ्‍च यो निरोधो, एवंवादी महासमणो’’ति॥

अथ खो सारिपुत्तस्स परिब्बाजकस्स इमं धम्मपरियायं सुत्वा विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – ‘‘यं किञ्‍चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्म’’न्ति।

[अप॰ १.१.२८९ थेरापदानेपि] एसेव धम्मो यदि तावदेव, पच्‍चब्यत्थ पदमसोकं।

अदिट्ठं अब्भतीतं, बहुकेहि कप्पनहुतेहीति॥

६१. अथ खो सारिपुत्तो परिब्बाजको येन मोग्गल्‍लानो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमि। अद्दसा खो मोग्गल्‍लानो परिब्बाजको सारिपुत्तं परिब्बाजकं दूरतोव आगच्छन्तं, दिस्वान सारिपुत्तं परिब्बाजकं एतदवोच – ‘‘विप्पसन्‍नानि खो ते, आवुसो, इन्द्रियानि, परिसुद्धो छविवण्णो परियोदातो। कच्‍चि नु त्वं, आवुसो, अमतं अधिगतो’’ति? ‘‘आमावुसो, अमतं अधिगतो’’ति। ‘‘यथाकथं पन त्वं, आवुसो, अमतं अधिगतो’’ति? ‘‘इधाहं, आवुसो, अद्दसं अस्सजिं भिक्खुं राजगहे पिण्डाय चरन्तं पासादिकेन अभिक्‍कन्तेन पटिक्‍कन्तेन आलोकितेन विलोकितेन समिञ्‍जितेन पसारितेन ओक्खित्तचक्खुं इरियापथसम्पन्‍नं। दिस्वान मे एतदहोसि – ‘ये वत लोके अरहन्तो वा अरहत्तमग्गं वा समापन्‍ना, अयं तेसं भिक्खु अञ्‍ञतरो। यंनूनाहं इमं भिक्खुं उपसङ्कमित्वा पुच्छेय्यं – कंसि त्वं, आवुसो उद्दिस्स पब्बजितो, को वा ते सत्था, कस्स वा त्वं धम्मं रोचेसी’’’ति। तस्स मय्हं, आवुसो, एतदहोसि – ‘‘अकालो खो इमं भिक्खुं पुच्छितुं अन्तरघरं पविट्ठो पिण्डाय चरति, यंनूनाहं इमं भिक्खुं पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धेय्यं अत्थिकेहि उपञ्‍ञातं मग्ग’’न्ति। अथ खो, आवुसो, अस्सजि भिक्खु राजगहे पिण्डाय चरित्वा पिण्डपातं आदाय पटिक्‍कमि। अथ ख्वाहं, आवुसो, येन अस्सजि भिक्खु तेनुपसङ्कमिं, उपसङ्कमित्वा अस्सजिना भिक्खुना सद्धिं सम्मोदिं, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्ठासिं। एकमन्तं ठितो खो अहं, आवुसो, अस्सजिं भिक्खुं एतदवोचं – ‘‘विप्पसन्‍नानि खो ते, आवुसो, इन्द्रियानि, परिसुद्धो छविवण्णो परियोदातो। ‘कंसि त्वं, आवुसो, उद्दिस्स पब्बजितो, को वा ते सत्था, कस्स वा त्वं धम्मं रोचेसी’’’ति? ‘अत्थावुसो, महासमणो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो, ताहं भगवन्तं उद्दिस्स पब्बजितो, सो च मे भगवा सत्था, तस्स चाहं भगवतो धम्मं रोचेमी’ति। ‘किंवादी पनायस्मतो सत्था किमक्खायी’ति । ‘अहं खो, आवुसो, नवो अचिरपब्बजितो अधुनागतो इमं धम्मविनयं, न ताहं सक्‍कोमि वित्थारेन धम्मं देसेतुं, अपि च ते संखित्तेन अत्थं वक्खामी’’’ति । अथ ख्वाहं, आवुसो, अस्सजिं भिक्खुं एतदवोचं – ‘‘होतु, आवुसो,

अप्पं वा बहुं वा भासस्सु, अत्थंयेव मे ब्रूहि।

अत्थेनेव मे अत्थो, किं काहसि ब्यञ्‍जनं बहु’’न्ति॥

अथ खो, आवुसो, अस्सजि भिक्खु इमं धम्मपरियायं अभासि –

‘‘ये धम्मा हेतुप्पभवा, तेसं हेतुं तथागतो आह।

तेसञ्‍च यो निरोधो, एवंवादी महासमणो’’ति॥

अथ खो मोग्गल्‍लानस्स परिब्बाजकस्स इमं धम्मपरियायं सुत्वा विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – यं किञ्‍चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्मन्ति।

एसेव धम्मो यदि तावदेव, पच्‍चब्यत्थ पदमसोकं।

अदिट्ठं अब्भतीतं, बहुकेहि कप्पनहुतेहीति॥

६२. अथ खो मोग्गल्‍लानो परिब्बाजको सारिपुत्तं परिब्बाजकं एतदवोच ‘‘गच्छाम मयं, आवुसो, भगवतो सन्तिके, सो नो भगवा सत्था’’ति। ‘‘इमानि खो, आवुसो, अड्ढतेय्यानि परिब्बाजकसतानि अम्हे निस्साय अम्हे सम्पस्सन्ता इध विहरन्ति, तेपि ताव अपलोकेम [अपलोकाम (क)]। यथा ते मञ्‍ञिस्सन्ति, तथा ते करिस्सन्ती’’ति। अथ खो सारिपुत्तमोग्गल्‍लाना येन ते परिब्बाजका तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा ते परिब्बाजके एतदवोचुं – ‘‘गच्छाम मयं, आवुसो, भगवतो सन्तिके, सो नो भगवा सत्था’’ति। ‘‘मयं आयस्मन्ते निस्साय आयस्मन्ते सम्पस्सन्ता इध विहराम, सचे आयस्मन्ता महासमणे ब्रह्मचरियं चरिस्सन्ति, सब्बेव मयं महासमणे ब्रह्मचरियं चरिस्सामा’’ति। अथ खो सारिपुत्तमोग्गल्‍लाना येन सञ्‍चयो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा सञ्‍चयं परिब्बाजकं एतदवोचुं – ‘‘गच्छाम मयं, आवुसो, भगवतो सन्तिके, सो नो भगवा सत्था’’ति। ‘‘अलं, आवुसो, मा अगमित्थ, सब्बेव तयो इमं गणं परिहरिस्सामा’’ति। दुतियम्पि खो…पे॰… ततियम्पि खो सारिपुत्तमोग्गल्‍लाना सञ्‍चयं परिब्बाजकं एतदवोचुं – ‘‘गच्छाम मयं, आवुसो, भगवतो सन्तिके, सो नो भगवा सत्था’’ति। ‘‘अलं, आवुसो, मा अगमित्थ, सब्बेव तयो इमं गणं परिहरिस्सामा’’ति। अथ खो सारिपुत्तमोग्गल्‍लाना तानि अड्ढतेय्यानि परिब्बाजकसतानि आदाय येन वेळुवनं तेनुपसङ्कमिंसु। सञ्‍चयस्स पन परिब्बाजकस्स तत्थेव उण्हं लोहितं मुखतो उग्गञ्छि।

अद्दसा खो भगवा [भगवाते (क)] सारिपुत्तमोग्गल्‍लाने दूरतोव आगच्छन्ते, दिस्वान भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘एते, भिक्खवे, द्वे सहायका आगच्छन्ति, कोलितो उपतिस्सो च। एतं मे सावकयुगं भविस्सति अग्गं भद्दयुग’’न्ति।

गम्भीरे ञाणविसये, अनुत्तरे उपधिसङ्खये।

विमुत्ते अप्पत्ते वेळुवनं, अथ ने सत्था ब्याकासि॥

एते द्वे सहायका, आगच्छन्ति कोलितो उपतिस्सो च।

एतं मे सावकयुगं, भविस्सति अग्गं भद्दयुगन्ति॥

अथ खो सारिपुत्तमोग्गल्‍लाना येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु , उपसङ्कमित्वा

भगवतो पादेसु सिरसा निपतित्वा भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘लभेय्याम मयं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्‍जं, लभेय्याम उपसम्पद’’न्ति। ‘‘एथ भिक्खवो’’ति भगवा अवोच – ‘‘स्वाक्खातो धम्मो, चरथ ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। साव तेसं आयस्मन्तानं उपसम्पदा अहोसि।

अभिञ्‍ञातानं पब्बज्‍जा

६३. तेन खो पन समयेन अभिञ्‍ञाता अभिञ्‍ञाता मागधिका कुलपुत्ता भगवति ब्रह्मचरियं चरन्ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – अपुत्तकताय पटिपन्‍नो समणो गोतमो, वेधब्याय पटिपन्‍नो समणो गोतमो, कुलुपच्छेदाय पटिपन्‍नो समणो गोतमो, इदानि अनेन जटिलसहस्सं पब्बाजितं, इमानि च अड्ढतेय्यानि परिब्बाजकसतानि सञ्‍चयानि [सञ्‍जेय्यानि (सी॰), सञ्‍जयानि (स्या॰)] पब्बाजितानि। इमे च अभिञ्‍ञाता अभिञ्‍ञाता मागधिका कुलपुत्ता समणे गोतमे ब्रह्मचरियं चरन्तीति। अपिस्सु भिक्खू दिस्वा इमाय गाथाय चोदेन्ति –

‘‘आगतो खो महासमणो, मागधानं गिरिब्बजं।

सब्बे सञ्‍चये नेत्वान [सञ्‍जेय्यके नेत्वा (सी॰)], कंसु दानि नयिस्सती’’ति॥

अस्सोसुं खो भिक्खू तेसं मनुस्सानं उज्झायन्तानं खिय्यन्तानं विपाचेन्तानं। अथ खो ते भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं…पे॰… न, भिक्खवे, सो सद्दो चिरं भविस्सति, सत्ताहमेव भविस्सति, सत्ताहस्स अच्‍चयेन अन्तरधायिस्सति। तेन हि, भिक्खवे, ये तुम्हे इमाय गाथाय चोदेन्ति –

‘‘आगतो खो महासमणो, मागधानं गिरिब्बजं।

सब्बे सञ्‍चये नेत्वान, कंसु दानि नयिस्सती’’ति॥

ते तुम्हे इमाय गाथाय पटिचोदेथ –

‘‘नयन्ति वे महावीरा, सद्धम्मेन तथागता।

धम्मेन नयमानानं [नीयमानानं (क॰)], का उसूया [उस्सुया (क॰)] विजानत’’न्ति॥

तेन खो पन समयेन मनुस्सा भिक्खू दिस्वा इमाय गाथाय चोदेन्ति –

‘‘आगतो खो महासमणो, मागधानं गिरिब्बजं।

सब्बे सञ्‍चये नेत्वान, कंसु दानि नयिस्सती’’ति॥

भिक्खू ते मनुस्से इमाय गाथाय पटिचोदेन्ति –

‘‘नयन्ति वे महावीरा, सद्धम्मेन तथागता।

धम्मेन नयमानानं, का उसूया विजानत’’न्ति॥

मनुस्सा धम्मेन किर समणा सक्यपुत्तिया नेन्ति नो अधम्मेनाति सत्ताहमेव सो सद्दो अहोसि, सत्ताहस्स अच्‍चयेन अन्तरधायि।

सारिपुत्तमोग्गल्‍लानपब्बज्‍जाकथा निट्ठिता।

चतुत्थभाणवारो निट्ठितो।