§ २-शिष्य, उपाध्याय आदि के कर्तव्य (१) शिष्य का कर्तव्य उस समय भिक्षु उपाध्याय के बिना रहते थे, (इसलिये वह) उपदेश=अनुशासन न किये जाने से, बिना ठीक से पहने, बिना ठीक से ढाँके, बेसहूरी से भिक्षा के लिये जाते थे । खाते हुए मनुष्यो के भोजन के ऊपर, खाद्य के ऊपर पेय के ऊपर जूठे पात्र को बढा देते थे । स्वयं दाल भी भात भी माँगकर खाते थे । भोजन पर बैठे हल्ला मचाते रहते थे । लोग हैरान होते, धिक्कारते और दु:खी होते थे । क्यो शाक्य पुत्रीय श्रमण बिना ठीक से पहिने० भोजन पर बैठे भी हल्का मचाते रहते है, जैसे कि ब्राह्मण ब्राह्मण-भोजमे । भिक्षुओ ने लोगो का हैरान होना ० सुना । जो भिक्षु निर्लोभी सन्तुष्ट, लज्जी,२ संकोचशील, शिक्षार्थी थे, वह हैरान हुए, धिक्कार ने लगे, दु:खी हुए ० । । तब उन भिक्षुओ ने भगवान् से इस बात को कहा । । भगवान् ने धिक्कार—‘भिक्षुओ ! उन नालायको का (यह करना) अनुचित है अयोग्य है असाधु का आचार है, अभव्य है, अकरणीय है । भिक्षुओ ! कैसे वह नालायक बिना ठीक से पहिने० भिक्षा के लिये घूमते है० । भिक्षुओ ! (उनका) यह (आचरण) अप्रसन्नो को प्रसन्न करने के लिये नही है, और न प्रसन्नो (=श्रद्धालुओ) को अघिक प्रसन्न करने के लिये, बल्कि अप्रसन्नो को (और भी) अप्रसन्न करने के लिये, तथा प्रसन्नो मे से भी किसी किसी के उलट देने के लिये है ।” तब भगवान् ने उन भिक्षुओ को अनेक प्रकार से धिक्कार कर भिक्षुओ को संबोधित किया— “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ उपाध्याय (करने) की ! उपाध्याय को शिष्य (=सद्धिविहारी) मे पुत्र-बुद्धि रखनी चाहिये, और शिष्य को उपाध्याय मे पिता-बुद्धि । इस प्रकार उपाध्याय ग्रहण करना चाहिये—उपरना (उत्तरा-सग) को एक कंधे पर करवा, पाद-वदन करवा, उकडूँ बैठवा, हाथ जोडवा ऐसा कहलवाना चाहिये—‘भन्ते ! मेरे उपाध्याय बनिये, भन्ते ! मेरे उपाध्याय बनिये, भन्ते ! मेरे उपाध्याय बनिये ।’ “भिक्षुओ ! शिष्य को उपाध्याय के साथ अच्छा बर्ताव करना चाहिये । अच्छा बर्ताव यह है—समय से उठकर, जूता छोड, उत्तरासंग को एक कंधे पर रख, दातुवन देनी चाहिये, मुख (धोने को) जल देना चाहिये । आसन बिछाना चाहिये । यदि खिचडी (कलेऊ के लिये) है, तो पात्र धोकर (उसे) देना चाहिये । । पानी देकर पात्र लेकर बिना घसे धोकर रख देना चाहिये । उपाध्याय के उठ जाने पर, आसन उठाकर रख देना चाहिये । यदि वह स्थान मैला हो, तो झाडू देना चाहिये । यदि उपाध्याय गाँव मे जाना चाहते है, तो वस्त्र थमाना चाहिये, कमर-बन्द देना चाहिये, चौपेत कर सघाटी१ देनी चाहिये, धोकर पानी भर पात्र देना चाहिये । यदि उपाध्याय अनुगामी-भिक्षु चाहते है, तो तीन स्थानो को ढाँकते हुए घेरादार (चीवर) पहन, करम-बन्द बाँध चौपेती सघाटी पहिन, मुद्धी बाँध, धोकर पात्र ले उपाध्याय का अनुचर (=पीछे चलने वाला) भिक्षु बनना चाहिये । (साथ मे) न बहुत दूर होकर चलना चाहिये, न बहुत समीप होकर चलना चाहिये । पात्र मे मिली (भिक्षा) को ग्रहण करना चाहिये । उपाध्याय के बात करते समय, बीच बीच मे बात न करना चाहिये । उपाध्याय (यदि) सदोष (बात) बोल रहे हो, तो मना करना चाहिये । लौटते समय पहिले ही आकर आसन बिछा देना चाहिये, पादोदक (=पैर धोने का जल), पाद-पीठ, पादकठली (=पैर घिसने का साधन) रख देना चाहिये । आगे बढकर पात्र-चीवर (हाथ से) लेना चाहिये । दूसरा वस्त्र देना चाहिये । पहिला वस्त्र ले लेना चाहिये । यदि चीवर मे पसीना लगा हो, थोडी देर धूप मे सुखा देना चाहिये । धूप मे चीवर को डाहना न चाहिये । (फिर) चीवर बटोर लेना चाहिये । यदि भिक्षान्न है, और उपाध्याय भोजन करना चाहते है, तो पानी देकर भिक्षा देनी चाहिये । उपाध्याय को पानी के लिये पूछना चाहिये । भोजन कर लेने पर पानी देकर, पात्र ले, झुकाकर बिना घिसे अच्छी तरह धो-पोछकर मुहर्तभर धूप मे सुखा देना चाहिये । धूप मे पात्र डाहना न चाहिये । यदि उपाध्याय स्नान करना चाहे, स्थान कराना चाहिये । यदि जताघर (=स्नानागार) मे जाना चाहे, (स्नान-) चूर्ण ले जाना चाहिये, मिट्टी भिगोनी चाहिये । जताघर के पीढे को लेकर उपाध्याय के पीछे पीछे जाकर, जन्ताघर के पीढे को दे, चीवर ले एक ओर रख देना चाहिये । (स्नान-) चूर्ण देना चाहिये । मिट्टी देनी चाहिये । उपाध्याय का (शरीर) मलना चाहिये । (उपाध्याय के) नहा लेने से पूर्व ही अपने देह को पोछ (सुखा), कपडा पहन, उपाध्याय के शरीर से पानी पोछना चाहिये । वस्त्र देना चाहिये । सघाटी देनी चाहिये । जताघर का पीढा ले पहिले ही आकर, आसन बिछाना चाहिये० । जिस विहार मे उपाध्याय विहार करते है, यदि वह विहार मैला हो, तो समर्थ होने पर उसे साफ करना चाहिये । विहार साफ करने मे पहिले पात्र चीवर निकाल कर, एक ओर रखना चाहिये । गद्दा-चदृर निकालकर एक ओर रखना चाहिये । तकिया… रखनी चाहिये । चारपार्इ खडीकर केवाड मे बिना टकराये लेकर, एक ओर रख देना चाहिये । पीढे को खडाकर केवाड मे बिना टकराये० । चारपार्इ के (पावे के) ओट० । पौदान को एक ओर० । सिरहाने का पटरा एक ओर० । फर्श की बिछावट के अनुसार हिफाजत से ले जाकर० । यदि विहार में जाला हो, तो उल्लोक पहिले बहारना चाहिये । अँधेरे कोने साफ करने चाहिये । यदि भीत (=दीवार) गेरू से गच की हुर्इ हो, तो लत्ता, भिगोकर रगडकर साफ करनी चाहिये । य़दि काली हो गर्इ, मलिन भूमि हो, (तो भी) लत्ता भिगो कर रगड कर साफ करनी चाहिये । । जिस मे धूल से खराब न हो जाय । कूडे को ले जाकर एक तरफ फेकना चाहिये । फर्श को धूप मे सुखा, साफ कर फटकार कर, ले आकर पहिले की भाँति बिछा देना चाहिये । चारपार्इ के ओट को धूप मे सुखा साफकर ले आकर, उनके स्थान पर रख देना चाहिये । चारपार्इ को धूप मे सुखा, साफ-कर, फटकार कर नवाकार केवाड को बिना टकराये ले आकर ० । पीढा० । तकिया० । गद्दा चदृर धूप मे सुखा साफ कर फटकार कर ले आकर बिछा देना चाहिये । पीकदान सुखा साफ कर लेकर यथा-स्थान रख देना चाहिये । यदि धूलि लिये पुरवा हवा चल रही हो, पूर्व की खिडकियॉ बन्द कर देनी चाहिये । । यदि जाडे के दिन हो, दिन को जगला खुला रखकर, रात को बन्द कर देना चाहिये । यदि गर्मी का दिन हो तो दिन को जगला बन्दकर रात को खोल देना चाहिये । यदि आगन (=परिवेण) मैला हो, आगन झाडना चाहिये । यदि कोठरी मैली हो० । य़दि बैठक मैली हो० । यदि अग्निशाला (=पानी गर्म करने का घर) मैली० । यदि पाखना मैला हो० । यदि पानी न हो, पानी भरकर रखना चाहिये । यदि पीने का जल न हो० । यदि पाखाने की मटकी मे जल न हो० । यदि उपाध्याय को उदासी हो, तो शिष्य को (उसे) हटाना हटवाना चाहिये, या धार्मिक कथा उन से करनी चाहिये । यदि उपाध्याय को शंका (=कौकृत्य) उत्पन्न हुर्इ हो, तो शिष्य को हटाना हटवाना चाहिये, या धार्मिक कथा उन से करनी चाहिये । यदि उपाध्याय को (उल्टी) धारणा उत्पन्न हुर्इ हो, तो शिष्य को छुडाना छुडवाना चाहिये, या धार्मिक कथा उन से करनी चाहिये । यदि उपाध्याय ने परिवास१ देने योग्य बडा अपराध किया हो, तो शिष्य को कोशिश करनी चाहिये, जिसमे कि संघ उपाध्याय को परिवास दे । यदि उपाध्याय (दोष के कारण) मूलाय-प्रतिकर्पण१ के योग्य हो, तो शिष्य को कोशिश करनी चाहिये, जिसमे कि संघ उपाध्याय का मूलाय-प्रतिकर्पण करे । यदि उपाध्याय मानत्व १के योग्य हो, ० । यदि उपाध्याय अह्वान १के योग्य हो, ० । यदि (भिक्षु-) संघ, उपाध्याय को तर्जनीय१ (=तज्जनीय), नियस्स१, प्रब्राजनीय,१ पतिसारणीय१, या उत्क्षेपणीय१ कर्म (=दंड) करना चाहे तो शिष्य को उत्सुकता करनी चाहिये, जिसमे कि संघ उपाध्याय को दंड न करे या हल्का दंड करे । यदि संघ ने तज्जनीय, नियस्स, प्रब्बाजनीय, पतिसारणीय या उत्क्षेपणीय दंड कर दिया हो तो शिष्य को उत्सुकता करनी चाहिये कि उपाध्याय ठीक से रहे, लोभ गिरा दे, निस्तार के अनुकूल बर्ताव करे, जिसमे कि संघ उस दंड को मसूख कर दे । यदि उपाध्याय का चीवर धोने लायक हो तो शिष्य को धोना चाहिये, या उत्सुकता करनी चाहिये जिसमे कि उपाध्याय का चीवर धोया जावे । यदि उपाध्याय को चीवर बनाने की जरूरत हो,० यदि उपाध्याय को रंग पकाने की जरूरत हो,० यदि उपाध्याय का चीवर रँग ने लायक हो,० । चीवर को रँगते वक्त अच्छी तरह उलट पलटकर रँगना चाहिये । कही खाली न छोडना चाहिये । उपाध्याय को बिना पूछे न किसी को पात्र देना चाहिये न किसी से पात्र ग्रहण करना चाहिये, न किसी को चीवर देना चाहिये न किसी से चीवर लेना चाहिये न किसी को परिष्कार (=उपयोगी सामान) देना चाहिये न किसी से परिष्कार लेना चाहिये, न किसी का बाल काटना चाहिये न किसी से बाल कटवाना चाहिये, न किसी की (देह) घँसनी चाहिये, न किसी से घँसानी चाहिये, न किसी की सेवा करनी चाहिये, न किसी से सेवा करानी चाहिये, न किसी का पीछे चलने वाला भिक्षु बनना चाहिये, न किसी को पीछे चलने वाला भिक्षु बनाना चाहिये, न किसी का भिक्षान्न ले आना चाहिये, न किसी से भिक्षान्न लिवाना चाहिये । उपाध्याय को बिना पूछे न गाँव मे जाना चाहिये, न (साधना के लिये) श्मशान मे जाना चाहिये, न (किसी) दिशा की ओर चल देना चाहिये । यदि उपाध्याय रोगी हो तो (रोग से) उठने की प्रतीक्षा करते, जीवनभर सेवा करनी चाहिये । शिष्य का व्रत समाप्त । (२) उपाध्याय के कर्त्तव्य उपाध्याय को शिष्य से अच्छा बर्ताव करना चाहिये । वह बर्ताव यह है—उपाध्याय को शिष्य पर अनुग्रह करना चाहिये, (शिष्य के लिये) उपदेश देना चाहिये । पात्र देना चाहिये । यदि उपाध्याय को चीवर है, शिष्य को नही । चीवर देना चाहिये, या शिष्य को चीवर दिलाने के लिये उत्सुक होना चाहिये—परिष्कार१ देना चाहिये । । यदि शिष्य१ रोगी हो, तो समय से उठकर दातुवन, मुखोदक देना चाहिये । आसन बिछाना चाहिये । यदि खिचडी हो, तो पात्र धोकर देना चाहिये । पानी देकर, पात्र ले बिना घिसे धोकर रख देना चाहिये । शिष्य के उठ जानेपर, आसन उठा लेना चाहिये । यदि वह स्थान मैला है, तो झाडू देना चाहिये । यदि शिष्य गाँव मे जाना चाहता है, तो वस्त्र थमाना चाहिये ० । ० यदि पाखाने की मटकी मे जल न हो ० । सेवा करनी चाहिये । उस समय शिष्य उपाध्याय के चले जाने पर, विचार-परिवर्तन कर लेने पर (या) मर जाने पर बिना आचार्य के हो, उपदेश=अनुशासन न किये जाने से, बिना ठीक से (चीवर) पहने बिना ठीक से ढँके बेसहूरी से भिक्षा के लिये जाते थे० । भगवान् ने भिक्षुओ को संबोधित किया— “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, आचार्य (करने) की ।” 4 (३) हटाने और न हटाने योग्य शिष्य १—(क) उस समय शिष्य उपाध्यायो को साथ अच्छी तरह न बर्तते थे इस से जो निर्लोभी, संतुष्ट, लज्जाशील, संकोची, शिक्षा चाहने वाले भिक्षु थे वह हैरान होते, धिक्कारते और दु:खी होते थे—“क्यो शिष्य उपाध्यायो को साथ ठीक से नही बर्तते !” तब उन भिक्षुओ ने भगवान् से इस बात को कहा । “भिक्षुओ ! सचमुच शिष्य उपाध्यायो के साथ ठीक से नही बर्तते ?” “सचमुच, भगवान् !” भगवान् ने धिक्कारा “भिक्षुओ ! उन नालायको का (यह करना) अनुचित है, अ-योग्य है, साधुओ के आचार के विरूद्ध है, अ-भव्य है, अ-करणीय है । भिक्षुओ ! कैसे वह नालायक उपाध्याय के साथ अच्छी तरह नही बर्तते ? भिक्षुओ ! (उनका) यह (आचरण) अप्रसन्नो को प्रसन्न करने के लिये नही है और न प्रसन्नो को अधिक प्रसन्न करने के लिये, बल्कि अप्रसन्नो को (और भी) अप्रसन्न करने के लिये तथा प्रसन्नो मे से भी किसी किसी को उलटा देने के लिये है ।” तब भगवान् ने उन भिक्षुओ को अनेक प्रकार से धिक्कार कर संबोधित किया— “भिक्षुओ ! शिष्यो को उपाध्याय के साथ बेठीक बर्ताव नही करना चाहिये । जो बेठीक बर्ताव करे उसे दुक्कट (=दुष्कृत) का दोष हो ।” 5 (ख) (तब भी) ठीक से नही बर्तते थे । (भिक्षुओ ने) भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने कहा) — “भिक्षुओ ! बेठीक बर्ताव करने वाले (शिष्य को) हटा देने की अनुमति देता हूँ ।” 6 “और इस प्रकार भिक्षुओ ! हटाना चाहिये !—‘तुझे हटाता हूँ’, ‘मत फिर तू यहाँ आना’, या ‘ले जा अपना पात्र-चीवर’, या ‘मत तू मेरी सुश्रृषा करना’—इस प्रकार शरीर से या वचन से सूचित करने पर वह शिष्य हटा समझा जाता है । (यदि) न काया से, न वचन से, न काय-वचन से सूचित करे तो शिष्य हटाया नही समझा जाता ।” २—उस समय शिष्य हटाये जाने पर क्षमा-याचना नही करते थे । भगवान् से इस बात को (भिक्षुओ ने) कहा । (भगवान् ने कहा) — “भिक्षुओ ! क्षमा कराने की अनूमति देता हुँ ।” 7 (तो भी) नही क्षमा कराते थे । भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने कहा) — “भिक्षुओ ! हटाये हुए (शिष्य को) न क्षमा कराना योग्य नही, जो न क्षमा कराये उसे दुक्कट का दोष हो ।” 8 ३—(क) उस समय क्षमा कराने पर भी उपाध्याय क्षमा नही करते थे । भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने कहा) — “भिक्षुओ ! क्षमा करने की अनुमति देता हूँ ।” 9 (ख) तो भी नही क्षमा करते थे, (जिस से) शिष्य चले जाते थे, या गृहस्थ हो जाते थे, या अन्य मतवालो के पास चले जाते थे । भगवान से यह बात कही । (भगवान् ने कहा) — “भिक्षुओ ! क्षमा माँगने पर न क्षमा करना उचित नही । जो न क्षमा करे उसको दुक्कट का दोष हो ।” 10 ४—उस समय उपाध्याय ठीक से बर्ताव करने वाले (शिष्य) को हटाते थे और बेठीक से बर्ताव करने वाले को नही हटाते थे । भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने कहा) — (क) “भिक्षुओ ! ठीक से बर्ताव करने वाले को नही हटाना चाहिये । जो हटावे उसको दुक्कट का दोष हो । और भिक्षुओ ! बेठीक से बर्ताव करने वाले को न हटाना योग्य नही, जो न हटावे उसे दुक्कट का दोष हो ।”11 (ख) “भिक्षुओ ! पाँच बातो से युक्त शिष्य को हटाना चाहिये—(१) उपाध्याय मे अधिक प्रेम नही रखता, (२) उपाध्याय मे अधिक श्रद्धा नही रखता, (३) अधिक लज्जाशील (=लज्जी) नही होता, (४) अधिक गौरव नही करता और (५) अधिक (ध्यान आदि की) भावना नही करता । भिक्षुओ ! इन पाँच बातों से युक्त शिष्य को हटाना चाहिये ।”12 (ग) “भिक्षुओ ! पाँच बातो से युक्त शिष्य को नही हटाना चाहिये—(१) उपाध्याय मे अधिक प्रेम रखता है, (२) उपाध्याय मे अधिक श्रद्धा रखता है, (३) अधिक लज्जाशील होता है, (४) अधिक गौरव करता है, और (५) अधिक (ध्यान आदि की) भावना करता है । भिक्षुओ ! इन पाँच बातो से युक्त शिष्य को नही हटाना चाहिये ।”13 (घ) “भिक्षुओ ! पाँच बातो से युक्त शिष्य हटाने योग्य है—(१) उपाध्याय मे अधिक प्रेम नही रखता, ० (५) अधिक भावना नही करता ० । 14 (ङ) “भिक्षुओ ! पॉच बातो से युक्त शिष्य हटाने योग्य नही है—(१) उपाध्याय से अधिक प्रेम रखता है, ० (५) अधिक भावना करता है ० । 15 (च) “भिक्षुओ ! पॉच बातो से युक्त शिष्य को न हटाने पर उपाध्याय दोषी होता है, और हटाने पर निर्दोष होता है—(१) उपाध्याय में अधिक प्रेम नही रखता, ० (५) अधिक भावना नही करता है ० । 16 (छ) “भिक्षुओ ! पॉच बातो से युक्त शिष्य को हटाने पर उपाध्याय दोषी होता है और न हटाने पर निर्दोष होता है—(१) उपाध्याय में अधिक प्रेम रखता है, ० (५) अधिक भावना करता है० ।” 17 (४) तीन शरणा से प्रब्रज्या उस समय ब्राह्मण राध ने भिक्षुओ के पास साधु बनना चाहा । भिक्षुओ ने (उसे) साधु न बनाना चाहा । वह प्रब्रज्या न पाने से दुर्बल, रुखा, दुर्वर्ण, पीला हाळ-हाळ-निकला हो गया । । भगवान् ने उस ब्राह्मण को देख भिक्षुओ को संबोधित किया—“भिक्षुओ ! इस ब्राह्मण का उपकार किसी को याद है ?” एसे कहने पर आयुष्मान् सारिपुत्र ने भगवान् से कहा—“भन्ते ! मे इस ब्राह्मण का उपकार स्मरण करता हूँ । ” “सारिपुत्र ! इस ब्राह्मण का क्या उपकार तू स्मरण करता है ?” “भन्ते ! मुझे राजग्रह में भिक्षा के लिये घुमते समय, इस ब्राह्मण ने कलछीभर भात दिल-वाया था । भन्ते मै इस ब्राह्मण का यह उपकार स्मरण करता हूँ ।” “साधु ! साधु ! सारिपुत्र ! सत्पुरुष कृतज्ञ=कृतवेदी (होते है) । तो सारिपुत्र ! तू (ही) इस ब्राह्मण को प्रब्रजित कर, उपसम्पादित कर । ” “भन्ते ! कैसे इस ब्राह्मण को प्रब्रजित करुँ, (कैसे) उपसम्पादित करुँ ?” तब भगवान् ने इसी सम्बन्ध में=इसी प्रकरण में धर्मसम्बन्धी कथा कह भिक्षुओ को सम्बोधित किया— “भिक्षुओ ! मैने जो तीन शरण-गमन से उपसम्पदा की अनुमति दी थी, आज से उसे मन्सूख करता हूँ । (आज से तीन अनुश्रावणो और) चौथी ज्ञप्ति वाले कर्म के साथ उपस्पदा की अनुमति देता हूँ । 18 इस तरह उपसम्पदा करनी चाहिये—योग्य समर्थ भिक्षु संघ को ज्ञापित करे— क ज्ञप्ति—“भन्ते ! संघ मुझे सुने, १अमुक नामक, अमुक नाम के आयुष्मान का उम्मेदवार (=उपसंपदापेक्षी) है । यदि संघ उचित समझे, तो संघ अमुक नामक को, अमुक नामक के उपाध्यायत्त्व से उपसम्पन्न करे ।—यह ज्ञप्ति है । ख अनृश्राचण (१) “भन्ते ! संघ मुझे सुने, अमुक नामक, अमुक नाम के आयुष्मान् का उपसम्पदापेक्षी है । संघ अमुक नामक की अमुक नामक के उपाध्यायत्त्व में उपसम्पन्न करता है । जिस आयुष्मान् को अमुक नामक की उपसंपदा अमुक नामक के उपाध्यायत्त्व में स्वीकार है, वह चुप रहे, जिसको स्वीकार न हो, वह बोले । (२) दूसरी बार भी इसी बात को बोलता हूँ—“भन्ते ! संघ सुने, यह अमुक नामक, अमुक नामक आयुष्मान् का उपसम्पदापेक्षी१ है० । जिसको स्वीकार न हो, वह बोले । (३) तीसरी बार भी इसी बात को बोलता हूँ—“भन्ते ! संघ सुने० ।” ग धारणा—“संघ को स्वीकार है, इसलिये चुप है—ऐसा समझता हूँ ।” (५) उपसम्पदा कर्म १—उस समय कोई भिक्षु उपसम्पन्न होने के बाद ही उलटा आचरण करता था । भिक्षुओ ने उससे यह कहा—“आवुस ! मत ऐसा कर, यह युक्त नहीं है ।” उसने उत्तर दिया—“मैने आयुष्मानो सेयाचना (=प्रार्थना) नही की कि मुझे उपसम्पन्न (=भिक्षु) बनाओ । क्यो मुझे बिना याचना किये तुमने उपसम्पन्न बनाया ?” भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! बिना याचना किये उपसम्पन्न नही बनाना चाहिये । जो उपसम्पन्न करे उसे दुक्कट का दोष हो । भिक्षुओ ! याचना करने पर उपसम्पन्न करने की अनुमति देता हूँ । 19 २—उपसम्पदा याचना—“और भिक्षुओ ! इस प्रकार याचना करनी चाहिये—वह उपसम्पदापेक्षी (=भिक्षु होने की इच्छा वाला) संघ के पास जाकर (दाहिने कंधे को खोल) एक कंधे पर उत्तरासंघ (=उपरना) को करके भिक्षुओ के चरणो में वंदनाकर, उकळुँ बैठ, हाथ जोळकर ऐसा कहे—‘भन्ते ! संघ से उपसम्पदा (पाने) की याचना करता हूँ, भन्ते ! संघ दया करके मेरा उद्धार करे ।’ दूसरी बार भी० । तीसरी बार भी ‘भन्ते ! संघ से उपसम्पदा (पाने) की याचना करता हूँ, भन्ते ! संघ दया करके मेरा उद्धार करे ।’ १“(तब भिक्षुओ !) योग्य, समर्थ भिक्षु संघ को ज्ञापित करे— क ज्ञप्ति—‘(१) भन्ते ! संघ मेरी सुने—अमुक२ नाम वाले (भिक्षु को) उपाध्याय बना, अमुक नाम वाले आयुष्मान् का (शिष्य), अमुक नाम वाला यह (पुरुष) उपसम्पदा चाहता है । यदि संघ उचित समझे तो संघ अमुक नामक को, अमुक नाम के उपाध्याय के उपाध्यायत्त्व मे उपसम्पदा करे ।—यह ज्ञप्ति (=सूचना है ।) ख अनुश्रावण—‘(१) भन्ते ! संघ मेरी सुने—अमुक नाम वाला, यह अमुक नाम वाले आयुष्मान् का उपसम्पदा चाहने वाला (शिष्य) है । संघ अमुक नाम वाले को अमुक नाम वाले (भिक्षु) के उपाध्यायत्व में उपसम्पन्न करता है । जिस आयुष्मान् को अमुक नाम वाले की उपसम्पदा, अमुक नाम वाले (भिक्षु) के उपाध्यायत्त्व मे स्वीकार है, वह चुप रहे, जिसको स्वीकार न हो, वह बोले । ‘(२) “दूसरी बार भी इसी बात को बोलता हूँ—पूज्य संघ मेरी सुने० । ‘(३) “तीसरी बार भी इसी बात को बोलता हूँ—पूज्य संघ मेरी सुने० । ग धारणा—“संघ को स्वीकार है, इसीलिये चुप है—ऐसा समझता हूँ ।” (६) भिक्षु-पन के चार निश्रय उस समय राजगृह में उत्तम भोजो का सिलसिला चल रहा था । तब एक ब्राह्मण के मन में ऐसा हुआ—‘यह शाक्य-पुत्रीय (=बौद्ध) श्रमण (=साधु), शील और आचार में आराम से रहने वाले है, सुंदर भोजन करके शान्त शय्याओ मे सोते है, क्यो न मै भी शाक्य-पुत्रीय साधुओ मे साधु बनूँ ।’ तब उस ब्राह्मण ने भिक्षुओ के पास जाकर प्रब्रज्या के लिये प्रार्थना की । भिक्षुओ ने उसे प्रब्रज्या और उपसंपदा दी । उसके प्रब्रजित होने पर (वह) भोजो का सिलसिला टूट गया । भिक्षुओ ने (उससे) यह कहा— “आ आवुस ! भिक्षाचार के लिये चले ।” उसने उत्तर दिया—“आवुसो ! मै भिक्षाचार करने के लिये प्रब्रजित नही हुआ हूँ । यदि मुझे दोगे तो खाऊँगा, यदि न दोगे तो लौट जाऊँगा ।” “क्या आवुस ! तू उदर के लिये प्रब्रजित हुआ ?” “हाँ आवुस !” (तब) जो भिक्षु निर्लोभी, संतुष्ट, लज्जाशील, संकोचशील और शिक्षा चाहने वाले थे, वह हैरान हो धिक्कारते और दु:खी होते थे—‘कैसे यह भिक्षु इस प्रकार के सुंदर रुप से व्याख्यात धर्म मे पेट के लिये प्रब्रज्या देते है ।’ (और) यह बात भगवान् से कही । (भगवान् ने कहा) — “सचमुच भिक्षु ! तू पेट के लिये प्रब्रजित हुआ ?” “सचमुच भगवान् ।” बुद्ध भगवान् ने निंदा की—“नालायक कैसे तू पेट के लिए ऐसे सुंदर रुप से व्याख्यात धर्म से प्रब्रजित होगा ? नालायक ! न यह अप्रसन्नो को प्रसन्न करने के लिये है ० ।” निंदा करके धर्मिक कथा कहकर भिक्षुओ को संबोधित किया— “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ । उपसंपदा करते वक्त चार निश्रयो (=जीविका के जरियो) – को बतलाने की—‘(१) यह प्रब्रज्या, भिक्षा मॉगे भोजन के निश्रय से है, इसके (पालन में) जिंदगी भर तुझे उद्योग करना चाहिये । हॉ (यह) अधिक लाभ (भी तेरे लिये विहित है) —संघ-भोज, (तेरे) उदेश्य से बना भोजन, निमंत्रण, शला का भोजन१, पाक्षिक (भोज), उपोसथ के दिन का (भोज), प्रतिपद् का (भोज) । ‘(२) पळे चीथळो के बनाये चीवर के निश्रय से यह प्रब्रज्या है, इसके (पालन में) जिन्दगी भर उद्योग करना चाहिये । हाँ (यह) अधिक लाभ (भी तेरे लिये विहित है) —क्षौम२ (वस्त्र), कपास का (वस्त्र), कौशेय (-रेशमी वस्त्र), कम्बल (-ऊनी वस्त्र), सन (का वस्त्र), भॉग की (छाल का वस्त्र) । ‘(३) वृक्ष के नीचे निवास करने के निश्रय से यह प्रब्रज्या है, इसके (पालन में) जिन्दगी भर उद्योग करना चाहिये । हॉ (यह) अधिक लाभ (भी तेरे लिये विहित है) —विहार, आढ्ययोग (=अटारी) ०, प्रासाद, हर्म्य, गुहा । ‘(४) गोमूत्र की औषधी के निश्रय से यह प्रब्रज्या है इसके (पालने मे) जिन्दगी भर उद्योग करना चाहिये । हॉ (यह) अधिक लाभ (भी तेरे लिये बिहित है) —घी, मक्खन, तेल, मधु, खॉळ । २० उपाध्याय-व्रत पॉचवा भाणवार समाप्त॥५॥ (७) उपसम्पादक के वर्ष आदि का नियम उपसेन की कथा—उस समय एक ब्राह्मण-कुमार (=माणवक) ने भिक्षुओ के पास आकर प्रब्रज्या पाने की प्रार्थना की । भिक्षुओ ने उसे तुरंत ही (चारो) निश्रय बतलाये । उसने यह कहा— “भन्ते ! यदि प्रब्रजित होने के बाद (इन) निश्रयो को बतलाये होते तो मै (इन्हे) पसंद करता, अब मै नही प्रब्रजित होऊँगा । यह निश्रय मुझे नापसन्द है, प्रतिकूल है ।” भिक्षुओ ने यह बात भगवान् से कही । (भगवान् ने कहा) — भिक्षुओ ! तुरंत ही निश्रय नही बतला देना चाहिये । जो बतलाये उसे दुक्कट का दोष हो । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ उपसंपदा हो जाने के बाद निश्रयो को बतलाने की । 21 उस समय भिक्षु दो पुरुष(=कोरम्), तीन पुरुष वाले (भिक्षु-) गण से भी उपसंपदा देते थे । भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने कहा) —“भिक्षुओ ! दस से कम वर्ग (=कोरम्) वाले गण से उपसंपदा न करानी चाहिये । जो कराये उसके दुक्कट का दोष हो । अनुमति देता हूँ, दश या दस से अधिक पुरुष वाले गण द्वारा उपसंपदा कराने की ।” 22 उस समय एक वर्ष दो वर्ष के (भिक्षु बने) भिक्षु भी शीष्यो की उपसंपदा करते थे । आयुष्मान् उपसेनवगन्तपुत्तने भी (भिक्षु बनने के) एक वर्ष बाद ही शिष्य को उपसंपादित किया । (दूसरे) वर्षावास को समाप्त करलेने पर वह दो वर्ष के (भिक्षु) हो एक वर्ष के (भिक्षु बने अपने) शिष्य को लेकर जहॉ भगवान् थे वहॉ गये । जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठे । आगन्तुक भिक्षुओ के साथ कुशल-प्रश्न करना बुद्ध भगवानो का स्वभाव है । तब भगवान ने आयुष्मान् उपसेनवगन्तुपुत्त से यह कहा — “भिक्षु ! ठीक तो रहा, अच्छा तो रहा, रास्ते में तकलीफ तो नही पाये ?” “ठीक रहा भगवान् ! अच्छा रहा भगवान् ! क्लेश के बिना हम रास्ते आये ।” जानते हुए भी तथागत (किसी बात को) पूछते है । जानते हुए भी नही पूछते । (पुछने का) काल जानकर पूछते है, (न पूछने का) काल जानकर नही पूछते । तथागत सार्थक (बात) को पूछते है, निरर्थक को नही पूछते । निरर्थक होने पर तथागतो की मर्यादा-भंग (=सेतु-घात) होती है । बुद्ध भगवान् दो प्रकार से भिक्षुओ को पूछते है—(१) शिष्यो को धर्मोपदेश करने के लिये और (२) (शिष्यो के लिये) भिक्षु-नियम (=शिक्षा-पद) बनाने के लिये । तब भगवान् ने आयुष्मान् उपसेनवगन्त पुत्र से यह कहा— “भिक्षु ! तू कितने वर्ष का (भिक्षु) है ?” “मै दो वर्ष का हूँ, भगवान् ।” “और यह भिक्षु कितने वर्ष का (भिक्षु) हे ?” “एक वर्ष का है, भगवान् ।” “यह भिक्षु कौन है ?” “यह मेरा शिष्य है, भगवान् ।” बुद्ध भगवान् ने—“नालायक ! यह अनुचित है, अयोग्य है, साधुओ के आचार के विरुद्ध है, अभव्य है, अकरणीय है । कैसे तू नालायक ! (स्वयं) दुसरो द्वारा उपदेश ओर अनुशासन किये जाने योग्य होते दुसरे का उपदेश और अनुशासन करने वाला बनेगा ? नालायक ! तू बळी जल्दी जमात की गठरी वाला ओर बटोरु बन गया । नालायक ! न यह अप्रसन्नो को प्रसन्न करने के लिये है ० ।” निंदा करके धार्मिक कथा कहकर भिक्षुओ को संबोधित किया— “भिक्षुओ ! दस वर्ष से कमवाले (भिक्षु) को उपसंपदा न करानी चाहिये । जो उपसंपदा कराये उसे दुक्कट का दोष हो । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, दस या दस से अधिक वर्ष वाले (भिक्षु) द्वारा उपसंपदा करने की ।” 23 उस समय भिक्षु अचतुर और अजान होते हुए भी ‘हम दस वर्ष के है’ ऐसा सोच (दूसरे की) उपसंपदा कराते थे, और शिष्य पंडित (=होशियार) देखे जाते थे तथा उपाध्याय अबूझ, उपाध्याय विद्या-रहित (=अल्प-श्रुत) देखे जाते थे और शिष्य विद्वान् (=बहुश्रुत), उपाध्याय प्रज्ञारहित देखे जाते थे और शिष्य प्रज्ञावान् । (तब) एक पहले अन्य साधु-संप्रदाय मे रहा (शिष्य) उपाध्याय के धर्म-संबंधी बात कहने पर उपाध्याय के साथ विवाद करके उसी संप्रदाय (=तीर्थायतन) मे चला गया । तब जो वह भिक्षु निर्लोभी, संतुष्ट ० दुखी: होते थे—कैसे अचतुर और अजान होते हुए भी ‘हम दस वर्ष के है’ ऐसा सोच (दूसरे की) उपसंपदा कराते है, ० उसी संप्रदाय मे चले जाते है !!” तब उन भिक्षुओ ने भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने कहा) — “सचमुच भिक्षुओ ! अचतुर और अजान होते हुए भी, ‘हम दस वर्ष के है’ सोच, (दुसरे की) उपसंपदा कराते है, ० उसी संप्रदाय मे चले जाते है ?” “सचमुच भगवान् ।” बुद्ध भगवान् ने निंदा— “भिक्षुओ । कैसे वह नालायक अचतुर और अजान होते हुए भी ‘हम दस वर्ष के है’ ऐसा सोच (दुसरे की) उपसंपदा कराते हे, ० उसी संप्रदाय में चले जाते है ? भिक्षुओ ! न यह अप्रसन्नो ० ।” निंदा करके भगवान् ने धर्म-संबंधी कथा कह भिक्षुओ को संबोधित किया— “भिक्षुओ ! अचतुर, अजान (पुरुष दूसरे की) उपसंपदा न करे । जो उपसंपदा करे उसे दुक्कट का दोष हो । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, चतुर और जानकार दस या दस से अधिक वर्षवाले भिक्षु को उपसंपदा करने की ।” 24 (८) अन्तेवासो का कर्तव्य उस समय शिष्य उपाध्याय के (भिक्षु-आश्रम से) चले जाने पर, विचार-परिवर्तन कर लेने पर या मर जाने पर, या दूसरे पक्ष मे चले जाने पर भी बिना आचार्य के ही उपदेश=अनुशासन न किये जाने से बिना ठिक से (चीवर) पहने, बिना ठिक से ढँके बेशहूरी के साथ भिक्षा के लिये चले जाते थे, खाते हुए मनुष्यो के भोजन के ऊपर, खाद्य के ऊपर पेय के ऊपर, जूठे पात्र को बढा देते थे । स्वयं दाल भी भात भी मॉगते थे, खाते थे । भोजन पर बैठे हल्ला मचाते रहते थे । लोग हैरान होते, धिक्कारते और दु:खी होते थे—क्यो शाक्यपुत्रीय श्रमण बिना ठीक से पहने ० हल्ला मचाते रहते है, जैसे कि ब्राह्मण, ब्राह्मण-भोजन मे ? भिक्षुओ ने लोगो का हैरान होना, धिक्कारना और दु:खी होना सुना । तब जो भिक्षु निर्लोभी, संतुष्ट, लज्जाशील, संकोचशील, सीख की चाह वाले थे, वह हैरान हुए, धिक्कार ने लगे, दु:खी हुए ० । तब उन भिक्षुओ ने भगवन् से इस बात को कहा । । भगवान् ने धिक्कारा “भिक्षुओ ! उन नालायको का यह करना अनुचित है ० अकरणीय है ० भिक्षुओ ! कैसे वह नालायक बिना ठीक से पहने ० हल्ला मचाते रहते है, जैसे कि ब्राह्मण, ब्राह्मण-भोजन मे ? भिक्षुओ ! (उनका) यह (आचरण) अप्रसन्नो को प्रसन्न करने के लियै नही है ० ।” तब भगवान् ने उन भिक्षुओ को अनेक प्रकार से धिक्कार कर संबोधित किया— “भिक्षुओ ! मै आचार्य (करने) की अनुमति देता हूँ । 25 आचार्य को शिष्य में पुत्र-बुद्धि रखनी चाहिये, और शिष्य को आचार्य में पिता-बुद्धि । आचार्य ग्रहण करने का यह प्रकार है—उपरने को एक कंधे पर करवा चरण की बदना करवा, उकळूँ बैठवा, हाथ जोळवा, ऐसा कहना चाहिये—‘भन्ते ! मेरे आचार्य बनिये । आयुष्मान् के आश्रय से मै रहूँगा, भन्ते ! मेरे आचार्य बनिये, ० भन्ते ! मेरे आचार्य बनिये ० ।’ यदि (आचार्य) वचन से ‘ठीक है,’ ‘अच्छा है’, ‘युक्त है’, ‘उचित है’, या ‘सुन्दर रीति से करो’, कहे, या काया से सूचित करे, या काय-वचन से सूचित करे तो वह आचार्य के तौर पर ग्रहण किया गया । यदि न काया से सूचित करता है, न वचन से सूचित करता है, न काय-वचन से सूचित करता है, तो उसका आचार्य के तौर पर ग्रहण नही होगा । “भिक्षुओ ! शिष्य को आचार्य के साथ अच्छा बर्ताव करना चाहिये ०१ । (९) आचार्य का कर्तव्य आचार्य को शिष्य के साथ अच्छा बर्ताव करना चाहिये ०१ । छठॉ भाणवार (समाप्त)॥६॥ (१०) निश्रय टूटने के कारण उस समय शिष्य आचार्य के साथ अच्छी तरह न बर्तते थे इससे जो अल्पेच्छ, संतुष्ट, लज्जाशील, संकोची, शिक्षा चाहने वाले ० ।१ पॉच बातो से युक्त शिष्य को हटाने पर उपाध्याय दोषी होता है, और न हटाने पर निर्दोष होता है ० । उस समय भिक्षु अचतुर, और अजान होते हुए भी ‘हम दस वर्प के है’ ऐसा सोच (दूसरे की) उपसंपदा करते थे और शिष्य पंडित देखे जाते थे और आचार्य अबूझ ० ।१ उस समय शिष्य आचार्य और उपाध्याय के चले जाने पर, विचार-परिवर्तन कर लेने पर या मर जाने पर या दूसरे पक्ष मे चले जाने पर भी निश्रय (=शिष्यता) के खतम होने की बात को नही जानते थे । (भिक्षुओ ने) यह बात भगवान् से कही । भगवान् ने कहा ।— १—“भिक्षुओ ! यह पॉच बाते है जिन से उपाध्याय से निश्रय टूट जाता है—(१) उपाध्याय (भिक्षु आश्रम से) चला गया हो, (२) विचार-परिवर्तन कर लिये हो, (३) मर गया हो (४) दूसरे पक्ष मे चला गया हो, (५) स्वीकृति दे गया हो । भिक्षुओ ! यह पॉच बाते है जिन से उपाध्याय से निश्रय टूट जाता है । 26 २—“भिक्षुओ ! यह छ बाते है जिन से आचार्य से निश्रय टूट जाता है—(१) आचार्य आश्रम से चला गया हो, (२) विचार-परिवर्तन कर लिये हो, (३) मर गया हो, (४) दूसरे पक्ष में चला गया हो, (५) स्वीकृति दे गया हो, (६) उपाध्याय ने समाधान कर दिया हो । भिक्षुओ ! यह छ ० । 27 §३—उपसम्पदा और प्रब्रज्या (१) उपसम्पदा देने और न देने योग्य गुरु १—“भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से युक्त भिक्षु को (दूसरे की) न उपसंपदा करानी चाहिये, न निश्रय देना चाहिये, न श्रामणेर बनाकर रखना चाहिये—(१) न (वह) संपूर्ण शील (=सदाचार) —पुज से युक्त होता है, (२) न संपूर्ण समाधि—पुज से युक्त होता है, (३) न संपूर्ण प्रज्ञा-पुज से संयुक्त होता है, (४) न संपूर्ण विमुक्ति (=राग द्वेषादि का परित्याग) -पुज से युक्त होता है, (५) न संपूर्ण विमुक्तियो के ज्ञान के साक्षात्कार के पुज से संयुक्त होता है । भिक्षुओ ! इन पॉच बातों से ० । 28 २—“भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से युक्त भिक्षु को (दूसरे की) उपसंपदा करनी चाहिये, निश्रय देना चाहिये, श्रामणेर बनाकर रखना चाहिये—(१) (वह) संपूर्ण शील (=सदाचार) पुंज से युक्त होता है ०, (५) न संपूर्ण विमुक्तियो के ज्ञान के साक्षात्कार पुंज से संयुक्त होता है । भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से ० । 29 ३—“और भी भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से युक्त भिक्षु को (दूसरे की) न उपसंपदा करनी चाहिये, न निश्रय देना चाहिये, न श्रामणेर बनाकर रखना चाहिये—(१) न (वह) स्वयं संपूर्ण शीलपुंज से युक्त होता है, न दूसरो को संपूर्ण शील—पुंज की ओर प्रेरित करने वाला होता है, (२) न स्वयं संपूर्ण समाधिपुंज से संयुक्त होता है, और न दूसरो को संपूर्ण समाधि—पुंज की ओर प्रेरित करता है, (३) न स्वयं संपूर्ण प्रज्ञापुंज से संयुक्त होता है, न दूसरो को संपूर्ण प्रज्ञा—पुंज की ओर प्रेरित करता है, (४) न स्वयं संपूर्ण विमुक्ति-पुंज से युक्त होता है, और न दूसरो को संपूर्ण विमुक्ति—पुंज की ओर प्रेरित करता है, (५) न स्वयं संपूर्ण विमुक्तियो के ज्ञान के साक्षात्कार के पुंज से युक्त होता है, न दूसरे को संपूर्ण विमुक्तियो के ज्ञान के साक्षात्कार के पुंज की ओर प्रेरित करता है । 30 ४—“भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से युक्त भिक्षु को (दूसरे की) उपसंपदा करनी चाहिये, निश्रय देना चाहिये, श्रामणेर बनाकर रखना चाहिये—(१) (वह) संपूर्ण शील—पुंज से युक्त होता है ०, (५) संपूर्ण विमुक्तियो के ज्ञान के साक्षात्कार के पुंज से संयुक्त होता है । भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से ० । 31 ५—“और भी भिक्षुओ ! पॉच बातो से युक्त भिक्षु को न उपसंपदा करनी चाहिये ०—(१) अश्रद्धालु होता है, (२) लज्जा-रहित होता है, (३) संकोच-रहित होता है, (४) आलसी होता है, (५) भूल जाने वाला होता है । भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से युक्त । 32 ६—“भिक्षुओ ! पॉच बातो से युक्त भिक्षु को उपसंपदा करनी चाहिये ०—(१) श्रद्धालु होता है, (२) लज्जालु होता है, (३) संकोचशील होता है, (४) उद्योगी होता है, (५) याद रखने वाला होता है । भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से युक्त ० । 33 ७—“और भी भिक्षुओ ! पॉच बातो से युक्त भिक्षु को न उपसंपदा करनी चाहिये ०—(१) शील से हीन होता है, (२) आचार से हीन होता है, (३) बुरी धारणा वाला होता है, (४) विद्याहीन होता है, (५) प्रज्ञाहीन होता है । भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से युक्त ० । 34 ८—“भिक्षुओ ! पॉच बातो से युक्त भिक्षु को उपसंपदा करनी चाहिये ०—(१) शील से हीन नही होता, (२) आचार से हीन नही होता, (३) बुरी धारणा वाला नही होता, (४) विद्यावान् होता है, (५) प्रज्ञावान् होता है । भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से युक्त ० । 35 ९—“और भी भिक्षुओ ! पॉच बातो से युक्त भिक्षु को न उपसंपदा करनी चाहिये ०—(१) बीमार शिष्य या अन्तेवासी की सेवा करने या कराने में समर्थ नही होता, (२) (मन के) उचाट को हटाने या हटवाने मे समर्थ (नही) होता, (३) (मन के) उत्पन्न खटके को दूर करने कराने मे (नही) समर्थ होता, (४) दोष (=अपराध) को नही जानता, (५) दोष से शुद्ध होने को नही जानता । भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से युक्त ० । 36 १०—“भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से युक्त भिक्षु को उपसंपदा करनी चाहिये ०—(१) बीमार शिष्य या अन्तेवासी की सेवा करने या कराने मे समर्थ होता है ० (५) दोष से शुद्ध होना जानता है । भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से युक्त ० । 37 ११—“और भी भिक्षुओ ! पॉच बातो से युक्त भिक्षु को न उपसंपदा करनी चाहिये ०—नही समर्थ होता (१) शिष्य या अन्तेवासी को आचार विषयक सीख सिखलाने मे, (२) शुद्ध ब्रह्मचर्य की शिक्षामे ले जाने मे, (३) धर्म की ओर (=अभिधम्मे) ले जाने मे, (४) विनय की ओर (= अभिविनये) ले जाने मे, (५) उत्पन्न धारणाओ के विषय में धर्मानुसार विवेचन करने में । भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से युक्त ० । 38 १२—“भिक्षुओ ! पॉच बातो से युक्त भिक्षु को उपसंपदा करनी चाहिये ०—समर्थ होता है (१) शिष्य या अन्तेवासी को आचार विषयक सीख सिखलाने मे ० (५) उत्पन्न धारणाओ के विषय मे धर्मानुसार विवेचन करने मे । भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से युक्त ० । 39 १३—“और भी भिक्षुओ ! पॉच बातो से युक्त भिक्षु को उपसंपदा करनी चाहिये ०—(१) न दोष को जानता है, (२) न निर्दोषता को जानता है, (३) न छोटे दोष को जानता है, (४) न बडे दोष (=आपत्ति) को जानता है, (५) और (भिक्षु-भिक्षुणी) दोनो के प्रातिमोक्षो को विस्तार के साथ नही हृद्गत किये रहता, सूक्त (=बुद्धोपदेश) और प्रमाण से (प्रातिमोक्ष को) न सुविभाजित किये रहता, न सुप्रवर्तित, न सुनिर्णीत किये रहता है । भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से युक्त ० । 40 १४—“भिक्षुओ ! पॉच बातो से युक्त भिक्षु को उपसंपदा करनी चाहिये ०—(१) दोष को जानता है, ० (५) प्रातिमोक्षो को विस्तार के साथ हृद्गत किये रहता है ० । भिक्षुओ ! इन पाँच बातो से युक्त ० । १५—“और भी भिक्षुओ ! पॉच बातों से युक्त भिक्षु को न उपसंपदा करनी चाहिये ०—(१) न दोष को जानता है, (२) न निर्दोषता को जानता है, (३) न छोटे दोष को जानता है, (४) न बडे दोष को जानता है, (५) दस बर्ष से कम का (भिक्षु) होता है । भिक्षुओ ! इन पाँच बातो से युक्त ० । 41 १६—“भिक्षुओ । पाँच बातो से युक्त भिक्षु को उपसंपदा करनी चाहिये ०—(१) दोष को जानता है ० (५) दस वर्ष से अधिक का भिक्षु होता है । भिक्षुओ ! इन पाँच बातो से युक्त ० ।’ 42 पचको से उपसंपदा करणीय समाप्त । १—“भिक्षुओ ! इन छ बातो से युक्त भिक्षु को न उपसंपदा करनी चाहिये ०—(१) न संपूर्ण शील—पुंज से युक्त होता है, (२) न संपूर्ण समाधि—पुंज से ०, (३) न संपूर्ण प्रज्ञा-पुंज से ०, (४) न संपूर्ण विमुक्ति-पुंज से ० (५) न संपूर्ण विमुक्तियो के ज्ञान के साक्षात्कार के पुंज से ०, (६) न दस वर्ष से अधिक का भिक्षु होता है । भिक्षुओ ! इन पॉच बातो से संयुक्त ० । 43 २—“भिक्षुओ ! इन छ बातो से युक्त भिक्षु को उपसंपदा करनी चाहिये ०—(१) संपूर्ण शील—पुंज से युक्त होता है ० (६) दस वर्ष से अधिक का (भिक्षु) होता है । भिक्षुओ ! इन छ बातो से युक्त ० । 44 ३—०१ । 45-58 छक्को से उपसंपदा करणीय समाप्त । (२) अन्य संप्रदायी व्यक्तियो के साथ (क) लौटे व्यक्ति की उपसम्पदा उस समय जो वह एक (पुरुष) २ दूसरे साधु-संप्रदाय (=अन्यतीर्थ) मे (शिष्य) रहा, उपाध्याय के धर्म-संबंधी बात करने पर उपाध्याय के साथ विवाद करके उसी संप्रदाय मे चला गया, उसने फिर आकर, भिक्षुओ के पास उपसंपदा पाने की प्रार्थना की । भिक्षुओ ने भगवान् से इस बात को कहा । (भगवान् ने कहा) — “भिक्षुओ ! जो वह पहले दूसरे साधु—संप्रदाय मे रहा (शिष्य) उपाध्याय के धर्म—संबंधी बात कहने पर उपाध्याय के साथ विवाद करके उसी संप्रदाय मे चला गया फिर आने पर उसकी उपसंपदा न करनी चाहिये, और भिक्षुओ ! जो कोई ऐसा पहले दूसरे साधु—संप्रदाय मे रहा (पुरुष) इस धर्म मे प्रब्रज्या या उपसंपदा पाने की प्रार्थना करता है, उसे चार महीने का परिवास देना चाहिये । 59 “भिक्षुओ ! (परिवास) इस प्रकार देना चाहिये—पहिले दाढी, मूँछ मुडवाकर, कापाय वस्त्र पहना एक कंधेपर उत्तरासंघ को करवा भिक्षुओ के चरणो की वंदना करवा, उकडूँ बैठवा, हाथ जोडवा ‘ऐसा कहो’ कहना चाहिये—बुद्ध की शरण जाता हूँ, धर्म की शरण जाता हूँ, संघ की शरण जाता हूँ’ । दूसरी बार भी ० । तीसरी बार भी—‘बुद्ध की शरण जाता हूँ, धर्म की शरण जाता हूँ, संघ की शरण जाता हूँ ।’ “भिक्षुओ ! उस पहले दूसरे संप्रदाय मे रहे (पुरुष) को संघ के पास जाकर एक कंधे पर उपरना रख भिक्षुओ के चरणो की वंदना कर उकडूँ बैठ, हाथ जोड ऐसे याचना करानी चाहिये— याचना—‘भन्ते ! मै (इस नाम वाला) पहले दूसरे साधु—संप्रदाय मे रहा (अब) इस धर्म मे उपसंपदा पाना चाहता हूँ, सो मै भन्ते ! संघ के पास चार महिनो का परिवास चाहता हूँ । दूसरी बार भी ० । तीसरी बार भी—‘भन्ते ! मै (इस नाम वाला) पहले अन्य साधु—संप्रदाय मे रहा (अब) इस धर्म मे उपसंपदा पाना चाहता हूँ, सो मै भन्ते ! संघ के पास चार महिनो का परिवास चाहता हूँ ।’ “(तब) योग्य, समर्थ भिक्षु संघ को ज्ञापित करे— (क) ज्ञप्ति—‘भन्ते ! संघ मेरी सुने ! यह अमुक नाम वाला, पहले अन्य साधु—संप्रदाय मे रहा (अब) इस धर्म मे उपसंपदा पाना चाहता है, और संघ से चार मास का परिवास चाहता है० । ख अनुश्रावण—(१) ० संघ इस नाम वाले पहिले दूसरे साधु—संप्रदाय मे रहे (इस पुरुष) को चार मास का परिवास देता है । जिस आयुष्मान् को इस नाम वाले पहले अन्य साधु-संप्रदाय मे रहे, (इस पुरुष) को चार मास का परिवास देता है । जिस आयुष्मान् को इस नाम वाले पहले अन्य साधु-संप्रदाय मे रहे, (इस पुरुष) को चार मास का परिवास देया जाना स्वीकार है वह चुप रहे जिसको स्वीकार न हो वह बोले । (२) (दूसरी बार भी०) । (३) (तीसरी बार भी०) । ग घारणा—“संघने इस नाम वाले पहिले अन्य साधु-संप्रदाय मे रहे (इस पुरुष) को चार मास का परिवास दे दिया, संघ को स्वीकार है, इसलिये चुप है—ऐसा समझाता हूँ ।’ (ख) ठीक न होने लायक “भिक्षुओ ! इस प्रकार से पहिले अन्य साधु-संप्रदाय में रहा (पुरुष) साध्य होता है, और इस प्रकार असाध्य ।” क कैसे भिक्षुओ ! पहिले-दूसरे-साधुसंप्रदाय मे रहा (पुरुष) अनाराधक होता है ॽ— (१) “भिक्षुओ ! जो पहिले—दूसरे—साधु-संप्रदाय मे रहा (पुरुष) अतिकाल मे गॉव मे जाता है, और बहुत दिन बिताकर निकलता है । इस प्रकार भी भिक्षुओ ! पहिले—दूसरे—साधु-संप्रदाय मे रहा (=अन्य—तीर्थिक—पूर्व) अनाराधक होता है । (२) “और फिर भिक्षुओ ! वेश्या की-आँख-पडेवाला होता है, विधवा की-आँख-पडेवाला होता है, वडी-उम्र की-कुमारिका की आँख-पडेवाला होता है, नपुंसक की-आँख-पडेवाला होता है, भिक्षुणी की-आँख-पडेवाला होता है । इस प्रकार भी भिक्षुओ ! अन्य तीर्थिक पूर्व, अनाराधक (=असाध्य) । (३) “और फिर भिक्षुओ ! अन्य तीर्थिकपूर्व, गुरु—भाइयो के छोटे-बडे जो काम है, उनके करने मे दक्ष, आलसरहित नहि होता । उनके विषय मे उपाय और सोच नही करता, न करने मे समर्थ, न ठीक से विधान करने मे समर्थ होता है । ऐसे भी भिक्षुओ० । (४) “और फिर भिक्षुओ ! अन्य तीर्थिकपूर्व, शील, चित्त और प्रज्ञा के संबंध में पाठ करने तथा पूछने मे तीव्र इच्छा वाला नहि होता । ऐसे भी भिक्षुओ ! ० । (५) “और फिर भिक्षुओ ! अन्य-तीर्थिक-पूर्व जिस संप्रदाय से (पहिले) संलग्न होता है उसके शास्ता (=उपदेष्टा), उसके बाद, उसकी स्वीकृति, उसकी रुचि, उसके दान के संबंध मे अप्रशंसा करने पर कुपित होता है, असंतुष्ट होता है, नाराज होता है, और बुद्ध या धर्म या संघ की अप्रशंसा करते वक्त संतुष्ट होता है, प्रसन्न होता है, हृष्ट होता है । अथवा जिस संप्रदाय से (पहिले) संलग्न था उसके शास्ता उसके बाद, उसकी स्वीकृत, उसकी रुचि, उसके दान के संबंध मे अप्रशंसा करने पर संतुष्ट होता है, प्रसन्न होता है, हृष्ट होता है । भिक्षुओ ! अन्यतीर्थिकपूर्व के असाध्य होने मे यह संघ से सबद्ध (बात) है । इस प्रकार भिक्षुओ ! अन्यतीर्थिकपूर्व अनाराधक होता है । “भिक्षुओ ! इस प्रकार के अनाराधक (=असाध्य) अन्यतीर्थिकपूर्व के आने पर उपसंपदा न करनी चाहिये । 60 (ग) ठीक होने लायक “कैसे भिक्षुओ ! अन्यतीर्थिकपूर्व आराधक (=साध्य) होता है ॽ— (१) “भिक्षुओ ! जो अन्यतीर्थिकपूर्व अतिकाल मे ग्राम मे प्रवेश नही करता, न बहुत दिन बिताकर निकलता है, (वह पहिले-दूसरे-साधु-संप्रदाय मे रहा) आराधक होता हे । (२) “और फिर भिक्षुओ ! वेश्या की-आँख-न-पडेवाला, विधवा की-आँख-न-पडेवाला, बडी-उम्र की-कुमारिका की-आँख-न-पडेवाला, नपुंसक की-आँख-न-पडेवाला, भिक्षुणी की-आँख-न-पडेवाला अन्यतीर्थिकपूर्व आराधक होता है । (३) “और फिर भिक्षुओ ! (जो) अन्यतीर्थिकपूर्व, गुरु-भाइयो के छोटे-बडे जो काम है, उनके करने मे दक्ष, आलस-रहित होता है, उनके विषय मे उपाय और सोच करता है, करने मे तथा ठीक से विधान करने मे समर्थ होता है, (वह) आराधक होता है । (४) “और फिर भिक्षुओ ! (जो) अन्यतीर्थिकपूर्व शील, चित्त और प्रज्ञा के संबंध में पाठ करने तथा पूछने मे तीव्र इच्छा वाला होता है, (वह) आराधक होता है । (५) “और फिर भिक्षुओ ! (जो) अन्यतीर्थिकपूर्व जिस संप्रदाय से (पहिले) संलग्न था, उसके शास्ता, उसके बाद, उसकी स्वीकृति, उसकी रुचि उसके दान संबंध मे अप्रशंसा करने पर संतुष्ट होता है, प्रसन्न होता है, हृष्ट होता है, और बुद्ध या धर्म या संघ की अप्रशंसा करते वक्त कुपित होता है, असंतुष्ट होता है, नाराज होता है । अथवा जिस संप्रदाय से (पहिले) संलग्न था उसके शास्ता ०की प्रशंसा करने पर कुपित० होता है, और बुद्ध, धर्म, या संघ की प्रशंसा करने पर संतुष्ट० होता है, भिक्षुओ ! (उस) अन्यतीर्थिकपूर्व के साध्य होने मे यह संघ से सबद्ध (बात) है । इस प्रकार भिक्षुओ ! (वह) अन्यतीर्थिकपूर्व आराधक होता है । “भिक्षुओ ! इस प्रकार के आराधक अन्यतीर्थिकपूर्व के आने पर उपसंपदा देनी चाहिये । 61 (३) वाणप्रस्थियो के लिये विशेष ख्याल “यदि भिक्षुओ ! अन्यतीर्थिकपूर्व नंगा आवे, तो उपाध्याय का चीवर उसे ओढाना चाहिये । यदि बिना कटे केशो वाला आए, तो मुंडन-कर्म के लिये संघ से पूछना चाहिये । भिक्षुओ ! जो वह अग्निहोत्री, जटाधारी (=जटिलक=वाणप्रस्थी) हो, तो आते ही उनकी उपसंपदा करनी चाहिये, उन्हे परिवास न देना चाहिये । सो क्यो ॽ भिक्षुओ ! वह कर्मवादी (=कर्म के फल को मानने वाले), और क्रिया-वादी होते है । 62 “भिक्षुओ ! यदि शाक्य-जाति का अन्यतीर्थिकपूर्व आवे तो आते ही उसकी उपसंपदा करनी चाहिये, उसे परिवास न देना चाहिये । भिक्षुओ ! यह मै (अपने) जातिवालो को परंपरा तक के लिये उपहार देता हूँ ।” 63 सप्तम भाणवार समाप्त॥७॥ (४) प्रब्रज्या के लिये अयोग्य व्यक्ति १—उस समय मगध मे, कुष्ठ, फोळा, चर्म-रोग, सूजन और मृगी—यह पॉच बीमारियॉ उत्पन्न हुई थी । पॉचो बीमारियो से पीळित हो लोग जीवक कौमारभृत्य के पास आकर ऐसा कहते थे—“अच्छा हो आचार्य ! हमारी चिकित्सा करो ।” “आर्यो ! मुझे बहुत काम है, बहुत करणीय है । मगधराज सेनिय बिम्बिसार की सेवा मे जाना पळता है । रनिवास और बुद्ध प्रमुख१ भिक्षु-संघ की भी (सेवा करनी होती है) । मै (आप लोगो की) चिकित्सा करने मे असमर्थ हूँ ।” तब उन मनुष्यो के मन मे यह हुआ—यह शाक्यपुत्रीय श्रमण (=बौद्ध भिक्षु) आराम-पसन्द (=सुखशील) और सुख समाचार (=आराम वाले काम करने वाले) है । ये अच्छा भोजन करके (अच्छे) निवासो और शय्याओ मे सोते है । क्यो न हम भी शाक्यपुत्रीय श्रमणो मे (जाकर) भिक्षु बन जायें । तब भिक्षु भी सेवा करेगे और जीवक कौमारभृत्य भी चिकित्सा करेगा । तब उन मनुष्यो ने भिक्षुओ के पास जाकर प्रबज्या (=सन्यास) मॉगी । भिक्षुओ ने उन्हे प्रब्रज्या दी, उपसंपदा दी । तब भिक्षु भी उनकी सेवा करते थे और जीवक कौमारभृत्य भी उनकी चिकित्सा करता था । उस समय बहुत से रोगी भिक्षुओ की सेवा करते हुए बहुत याचना, माँगना किया करते थे—‘रोगी के लिये पथ्य दीजिये, रोगी के सेवक के लिये भोजन दीजिये, रोगी के लिये ओषध दीजिये ।ʼ जीवक कौमारभृत्य भी बहुत से रोगी भिक्षुओ की चिकित्सा मे लगे रहने से किसी राज-कार्य को छोळ बैठा । कोई पुरुष पॉच रोगो से पीळित हो जीवक कौमारभृत्य के पास आकार ऐसा बोला—“अच्छा हो आचार्य ! मेरी चिकित्सा करे । “आर्य ! मेरे बहुत से काम है, बहुत करणीय है । मगधराज सेनिय बिम्बिसार की सेवा में जाना पळता है । रनिवास और बुद्ध प्रमुख१ भिक्षु-संघ की भी (सेवा करनी होती है) । मै (आपकी) सेवा करने मे असमर्थ हूँ ।” “आचार्य़ ! मेरा सारा धन तुम्हारा होगा और मै तुम्हारा दास हूँगा । अच्छा हो आचार्य मेरी चिकित्सा करे ।” “आर्य मेरे बहुत से काम है० ।” तब उस मनुष्य के (मन मे) ऐसा हुआ—यह शाक्य पुत्रीय श्रमण आराम-पसन्द (=सुख-शील) और सुख-समाचार (=आराम वाले काम करने वाले) है । ये अच्छा भोजन करके (अच्छे) निवासी ओर शय्याओ मे सोते है । क्यो न मै भी शाक्यपुत्रीय श्रमणो मे (जाकर) भिक्षु बन जाऊँ । तब भिक्षु भी सेवा करेगे और जीवक कौमारभृत्य भी चिकित्सा करेगा और नीरोग होने पर मै भिक्षु-आश्रम छोळ चला जाऊँगा ।” तब उस मनुष्य ने भिक्षुओ के पास जाकर प्रबज्या (=सन्यास) मॉगी । भिक्षुओ ने उसे प्रब्रज्या दी, उपसम्पदा दी । तब भिक्षु भी उसकी सेवा करते थे और जीवक कौमारभृत्य भी उसकी चिकित्सा करते थे । नीरोग होने पर वह भिक्षुपन छोळ चला गया । जीवक कौमारभृत्य ने भिक्षु-आश्रम छोळकर चले गये उस आदमी को देखा । देखकर उस पुरुष से पूछा—“क्यो आर्य ! तुम तो भिक्षु बने थे ॽ” “हॉ आचार्य !” “तो आर्य ! तुमने क्यो ऐसा किया ॽ” तब उस पुरुष ने जीवक कौमारभृत्य से सब बात बतला दी । (उसे सुनकर) जीवक कौमारभृत्य हैरान होता, धिक्कारता और दु:खी होता था—कैसे भदन्त (लोग) पॉच रोगो से पीळित (पुरुष को) प्रब्रज्या देते है ! तब जीवक कौमारभृत्य भगवान् के पास गया । जाकर भगवान् की बन्दना कर एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठे जीवक कौमारभृत्य ने भगवान् से यह कहा—“अच्छा हो भन्ते ! आर्य (=भिक्षु) लोग पॉच रोगो से पीळित को प्रब्रज्या न दे ।” तब भगवान् ने जीवक कौमारभृत्य को धार्मिक कथा कह समुत्तेजित सप्रहर्षित किया । तब जीवक कौमारभृत्य भगवान् की धार्मिक कथा द्वारा समुत्तेजित हो आसन से उठकर भगवान् को अभिवादनकर, प्रदक्षिणाकर चला गया । तब भगवान् ने इसी संबंध मे इसी प्रकरण मे धार्मिक कथा कहकर भिक्षुओ को संबोधित किया— “भिक्षुओ । (कुष्ठ आदि) पॉच रोगो से पीळित को नही प्रब्रज्या देनी चाहिये । जो प्रब्रज्या दे उसे दुक्कट का दोष हो ।” 64 २—उस समय मगधराज सेनिय बिम्बिसार के सीमान्त मे विद्रोह हो गया था । तब मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने (अपने) सेना-नायक महामात्यो को आज्ञा दी—“जाओ रे । सीमान्त को ठीक करो ।” “अच्छा देव !”—(कह) सेना-नायक महामात्योने मगधराज सेनिय बिम्बिसार को उत्तर दिया । तब अच्छे योधाओ के (मन मे) ऐसा हुआ—‘हम युद्ध को पसन्द करके, जाकर पाप करेगे और बहुत अ-पुण्य पैदा करेगे । क्या उपाय है जिस से कि हम पाप से बचे, अ-पुण्य को न पैदा करे ॽ’ तब उन योधाओ के (मन मे) ऐसा हुआ—‘यह शाक्यपुत्रीय श्रमण धर्मचारी उत्तमाचारी, ब्रह्मचारी, सत्यवादी, शीलवान् धर्मात्मा है । यदि हम शाक्यपुत्रीय श्रमणो के पास (जाकर) प्रब्रजित हो जाये तो हम पाप से बच जायेँगे, अ-पुण्य को पैदा न करेगे ।’ तब उन योधाओ ने भिक्षुओ के पास जाकर प्रब्रज्या मॉगी, और भिक्षुओ ने उन्हे प्रब्रज्या और उपसंपदा दी । सेना-नायक महामात्यो ने उन राजसैनिको से पूछा— “क्यो रे ! इस इस नाम वाले योधा नही दिखाई देते ॽ” “स्वामी ! इस इस नाम वाले योधा भिक्षुओ के पास प्रब्रजित हो गये ।” तब वह सेना-नायक महामात्य हैरान होते, धिक्कारते और दु:खी होते थे—‘कैसे शाक्यपुत्रीय श्रमण राजसैनिको को प्रब्रज्या देते है !’ तब सेना-नायक महामात्यो ने यह वात मगधराज सेनिय बिम्बिसार से कही । तब मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने व्यावहारिक महामात्यो (=न्यायाधीशो) से पूछा— “क्यो जी ! जो राज-सैनिक को प्रब्रज्या दे उसको क्या होना चाहिये ॽ” “देव ! उस (=उपाध्याय) का सिर काटना चाहिये, अनुशासक (=उपदेश करने वाले) की जीभ निकाल नी चाहिये, और (=सन्यास देनेवाले) गण की पसली तोळ देनी चाहिये ।” तब मगधराध सेनिय बिम्बिसार, जहॉ भगवान् थे वहॉ गया । जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठे मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने भगवान् से यह कहा— “भन्ते ! (बुद्ध धर्म के प्रति) श्रद्धा-भक्ति न रखने वाले राजा भी है । वह थोळी बात के लिये भी भिक्षुओ को पीळा दे सकते है । अच्छा हो भन्ते ! आर्य (=भिक्षु) लोग राजसैनिक को प्रब्रज्या न दे ।” तब भगवान् ने मगधराज सेनिय बिम्बिसार को धार्मिक कथा कह सप्रहर्षित किया । तब मगधराज सेनिय बिम्बिसार भगवान् की धार्मिक कथा से सप्रहर्षित हो, आसन से उठ, भगवान् को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर चला गया । तब भगवान् ने इसी संबंध मे, इसी प्रकरण मे धार्मिक कथा कह भिक्षुओ को संबोधित किया— “भिक्षुओ ! राजसैनिको को नही प्रब्रज्या देनी चाहिये । जो दे उसे दुक्कट का दोष हो ।” 65 ३—उस समय अंगुलिमाल ङाकू (आकर) भिक्षु बना था । लोग (उसे) देखकर उद्विग्न होते, त्रास खाते और भागते, दूसरी ओर चले जाते, दूसरी ओर मुँह कर लेते और दरवाजा बन्द कर लेते थे । लोग हैरान होते, धिक्कारते और दु:खी होते थे—कैसे शाक्य-पुत्रीय श्रमण ध्वजबन्ध (=ध्वजा उळाकर डाका ङालने वाले) ङाकू को प्रब्रज्या देगे !” भिक्षुओ ने उन मनुष्यो के हैरान होने, धिक्कार ने और दु:खी होने को सुना । तब उन भिक्षुओ ने भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! ध्वजबन्ध डाक् को नही प्रब्रज्या देनी चाहिये । जो दे उसे दुक्कट का दोप हो ।” 66 ४—उस समय मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने आज्ञा कर दी थी—‘जो शाक्यपुत्रीय श्रमणो के पास जाकर प्रब्रजित होगे उनको (दंङ आदि) कुछ नही किया जा सकता । (भगवान् का) धर्म सुन्दर प्रकार से कहा गया है, (लोग) दु:ख के अच्छी प्रकार अन्त करने के लिये (जाकर) ब्रह्मचर्य पालन करे ।’ उस समय कोई पुरुष चोरी करके जेल (=कारा) मे पळा था । वह जेल को तोळ भाग, कर भिक्षुओ के पास प्रब्रजित हो गया । लोग (उसे) देखकर ऐसा कहते थे—‘यह वह जेल तोळने वाला चोर है । अहो ! इसे ले चले ।’ कोई कोई ऐसा कहते थे—‘आर्यो ! मत ऐसा कहो । मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने आज्ञा दे दी है—‘जो शाक्यपुत्रीय श्रमणो के पास जाकर प्रब्रजित होगे उनको (दंङ आदि) कुछ नही किया जा सकता । (भगवान् का) धर्म सुन्दर प्रकार से कहा गया है, (लोग) दु:ख के अच्छी प्रकार अन्त करने के लिए (जाकर) ब्रह्मचर्य पालन करे ।’ (इससे) लोग हैरान होते, धिक्कारते और दु:खी होते थे—‘यह शाक्यपुत्रीय श्रमण अभय चाहने वाले है । इनका कुछ नही किया जा सकता । कैसे यह शाक्यपुत्रीय श्रमण जेल तोळने वाले चोर को प्रब्रज्या देगे ।’ भिक्षुओ ने भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ । जेल तोळने वाले चोर को नही प्रब्रज्या देनी चाहिये । जो दे उसे दुक्कय का दोष हो ।” 67 ५—उस समय कोई पुरुष चोरी करके भागकर भिक्षु बन गया था । वह राजा के अन्त पुर (=कचहरी) मे लिखित था—‘(यह) जहाँ देखा जाय, वही मारा जाय ।’ लोग उसे देखकर ऐसा कहते थे—‘यह वही लिखितक चोर है । अहो इसे मार दे ।’ कोई कोई ऐसा कहते थे ‘आर्य़ो ! मत ऐसा कहो । मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने आज्ञा दे दी है—जो शाक्यपुत्रीय श्रमणो के पास० ।’ (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! लिखितक चोर को नही प्रब्रज्या देनी चाहिये० ।” 68 ६—उस समय कोळा मारने का दंङ पाया हुआ एक पुरुष भिक्षुओ के पास प्रब्रजित हुआ था । लोग हैरान होते० । (भगवान् ने कहा) — “भिक्षुओ ! कोळा मारने का दंङ पाये हुए को नही प्रब्रजित करना चाहिये० ।” 69 ७—उस समय एक पुरुष (राज-) दंङ से लक्षणाहत (=आग मे लाल किये लोहे आदि से दागा) हो भिक्षुओ मे आकर प्रब्रजित हुआ था ।० । (भगवान् ने कहा) — “भिक्षुओ ! (राज-) दंङ से लक्षणाहत को नही प्रब्रज्या देनी चाहिये० ।” 70 ८—उस समय एक ऋणी पुरुष भागकर भिक्षुओ के पास प्रब्रजित हुआ था । धनियो (=ऋण देने वालो) ने देखकर यह कहा—‘यह हमारा ऋणी है । अहो ! इसको ले चले ।’ दूसरो ने ऐसा कहा—‘मत आर्यो ! ऐसा कहो । मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने आज्ञा दे रखी है० ।’ (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! ऋणी को नही प्रब्रज्या देनी चाहिये० ।” 71 ९—उस समय एक दास (=गुलाम) भागकर भिक्षुओ मे प्रब्रजित हुआ था । मालिको ने देखकर ऐसा कहा—‘यह वह हमारा दास है । अहो ! इसे ले चले० । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ । दास को नही प्रब्रज्या देनी चाहिये० ।” 72 (५) मुंङन के लिये संघ को सम्मति उस समय एक स्वर्णकार (=कम्मार) का पुत्र माता-पिता के साथ झगळाकर आरामम जा भिक्षुओ के साथ प्रब्रजित हो गया । तब उस स्वर्णकार-पुत्र के माता-पिता ने उसे खोजते हुए आराम मे जा भिक्षुओ से पूछा—‘क्या भन्ते ! इस प्रकार के लळके को देखा है ॽ’ न जानने के कारण भिक्षुओ ने कहा—‘हम नही जानते ।’ न देखने के कारण कहा—‘हमने नही देखा ।’ तब उस स्वर्णकार-पुत्र के माता-पिता खोज करके उसे भिक्षुओ मे प्रब्रजित हुआ देख हैरान होते, धिक्कारते और दुखी होते थे—‘यह शाक्यपुत्रीय श्रमण निर्लज्ज, दु:शील, झूठ बोलने वाले है जिन्हो ने जानते हुए कहा, हम नही जानते, देखते हुए कहा, हमने नही देखा । यह लळका तो यहॉ भिक्षुओ के पास प्रब्रजित हुआ है ।’ भिक्षुओ ने उस स्वर्णकार-पुत्र के माता-पिता के हैरान होने, धिक्कार ने और दुखी होने को सुना । तब उन्होने यह बात भगवान् से कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! मुङन-कर्म करने के लिये संघ की अनुमति लेने की आज्ञा देता हूँ ।” 73 (६) बीस वर्ष से कम की उपसम्पदा नही उस समय राजगृह मे सप्तदशवर्गीय (=जिस समुदाय मे सत्रह आदमी हो) लङके एक दूसरे के मित्र थे । उपालि लळका उनका मुखिया था । तब उपालि के माता-पिता के (मन मे) ऐसा हुआ—‘किस उपाय से हमारे मरने के बाद उपालि सुख से रह सकेगा, दुख नही पायेगा ॽ’ तब उपालि के माता-पिता के (मन मे) ऐसा हुआ—‘यदि उपालि लेखा सीखे तो वह हमारे मरने के बाद सुख से रह सकेगा, दुख नही पायेगा ।’ तब उपालि के माता-पिता के (मन मे) ऐसा हुआ—‘यदि उपालि लेखा सीखेगा तो उसकी अँगुलियॉ दुखेगी । हाँ यदि उपालि गणना (=हिसाब) सीखे तो हमारे मरने के बाद० ।” तब उपालि के माता-पिता के (मन मे) ऐसा हुआ—‘यदि उपालि गणना सीखेगा तो उसकी जाँघ दुखेगी । हॉ यदि उपालि रूप (=सराफी) सीखे तो हमारे मरने के बाद० ।’ तब उपालि के माता-पिता के (मन मे) ऐसा हुआ—‘यदि उपालि रुप को सीखेगा तो उसकी आँखे दुखेगी । हाँ यह शाक्यपुत्रीय श्रमण सुखशील और सुख-समाचार है । ये अच्छा भोजन करके (अच्छे) निवासी और शय्याओ मे सोते है । क्यो न उपालि भी शाक्यपुत्रीय श्रमणो मे जाकर भिक्षु बन जाय । इस प्रकार उपालि हमारे मरने के बाद० ।’ उपालि लळके ने (अपने) माता-पिता के इस कथा-सलाप को सुना । तब उपालि लळका जहाँ उसके (साथी) लळके थे वहाँ गया । जाकर उन लळको से बोला—‘आओ आर्यो ! हम सब शाक्यपुत्रीय श्रमणो के पास जाकर प्रब्रजित हो ।’ तब उन लळको ने अपने अपने मॉ-बाप के पास जाकर यह कहा—‘हमे घरसे-बेघर हो प्रब्रज्या लेने की आज्ञा दे ।’ तब उन लळको के माता-पिता ने एक सी रुचि रखने वाले लळको के अभिप्राय को सुंदर जान अनुमति दे दी । उन्होने भिक्षुओ के पास आकर प्रब्रज्या मॉगी । भिक्षुओ ने उन्हे प्रब्रज्या और उपसंपदा दी । तब रात के भिनसार को उठकर वह (यह कह) रोते थे—‘खिचळी दो ! भात दो ! खाना दो !’ भिक्षु ऐसा कहते थे—‘ठहरो आवुसो ! जब तक कि बिहान हो जाता है, यदि यवागू (=पतली खिचळी) होगा तो पीना, यदि भात होगा तो खाना, यदि खाना होगा तो भोजन करना । यदि खिचळी, भात या खाना न होगा तो भिक्षा करके खाना ।’ भिक्षुओ के ऐसा कहनेपर भी वह रोते ही रहते थे—खिचळी दो ! ० ।’ और बिस्तरेपर लोटते-पोटते रहते थे । भगवान् ने रात के अन्तिम पहरमे उठकर बच्चो के शब्द को सुनकर आयुष्मान् आनन्द को संबोधित किया— “आनन्द ! कैसा यह बच्चो का शब्द है ॽ” आयुष्मान् आनन्द ने भगवान् से सब बात बतलाई । (भगवान् ने उन भिक्षुओ से पूछा) — “भिक्षुओ ! सचमुच जानबूझकर भिक्षु बीस वर्ष से कम के व्यक्ति को उपसंपदा देते है ॽ” “सचमुच भगवान् ।” बुद्ध भगवान् ने—“कैसे भिक्षुओ ! यह मोघ-पुरुष (=निकम्मे आदमी) जानते हुए बीस वर्ष से कम के व्यकित को उपसंपदा देते है ॽ भिक्षुओ ! बीस वर्ष से कम का पुरुष सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, मच्छर-मक्खी, धूप-हवा, सरीसृप (=सॉप, बिच्छू आदि रेगने वाले जीव) की पीळा के सहेने मे असमर्थ होता है । कठोर, दुरागत के वचनो (के सहने मे), और दुखमय, तीव्र, खरी, कटु, प्रतिकूल, अप्रिय प्राण हरने वाली उत्पन्न हुई शारीरिक पीळाओ को न स्वीकार करने वाला होता है, भिक्षुओ ! बीस वर्ष वाला पुरुष सर्दी-गर्मी ० के सहने मे समर्थ होता है । ० स्वीकार करने वाला होता है । भिक्षुओ ! यह न अप्रसन्नो के प्रसन्न करने के लिये है० ।१ निन्दा करके भगवान् ने धार्मिक कथा कह भिक्षुओ को संबोधित किया— “भिक्षुओ ! जानते हुए बीस वर्ष के कम के व्यक्ति को नही उपसंपदा देनी चाहिये । जो उपसंपदा दे उसे धर्मानुसार (प्रतिकार) करना चाहिये ।” 74 (७) पंद्रह वर्ष से कम का श्रामणेर नही १—उस समय एक खान्दान महामारी के रोग से मर गया । उसमे पिता-पुत्र (दोही) बच रहे । वह भिक्षुओ के पास जा प्रब्रजित हो एक साथ ही भिक्षा के लिये जाते थे । जब पिता को कोई भिक्षा देता था तो वह बच्चा दौळकर यह कहता था—‘तात ! मुझे भी दो, तात ! मुझे भी दो ।’ लोग हैरान होते, धिक्कारते और दुखी होते थे—‘शाक्यपुत्रीय श्रमण अ-ब्रह्मचारी होते है । यह बच्चा भिक्षुणी से उत्पन्न हुआ है ।’ भिक्षुओ ने उन मनुष्यो के हैरान होने० । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! पन्द्रह वर्ष से कम के बच्चे को नही श्रामणेर बनाना (=प्रबज्या देना) चाहिये । जो श्रामणेर बनाये उसे दुक्कट का दोष हो ।” 75 २—उस समय आयुष्मान् आनन्द का एक श्रद्धालु=प्रसन्न, सेवक-कुल महामारी से मर गया । सिर्फ दो बच्चे बच रहे । वह (अपने घर की) परिपाटी के अनुसार भिक्षुओ को देखकर दौळकर पास आते थे । भिक्षु उन्हे फटकार देते थे । उन भिक्षुओ के फटकारने से वह रोने लगते थे । तब आयुष्मान् आनन्द के मन मे ऐसा हुआ—‘भगवान् की आज्ञा है कि पन्द्रह वर्ष से कम के बच्चे को श्रामणेर नही बनाना चाहिये, और यह बच्चे पन्द्रह वर्ष से कम के ही है । किस उपाय मे यह बच्चे विनष्ट होने से बचाये जा सकते है ।’ तब आयुष्मान् आनन्द ने भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने कहा) — “आनन्द ! क्या वह बच्चे कौवा उळाने लायक है ॽ” “हाँ है, भगवान् !” तब भगवान् ने इसी संबंध में, इसी प्रकरण में धार्मिक कथा कह भिक्षुओ को संबोधित किया— “भिक्षुओ ! कौवा उळाने में समर्थ पन्द्रह वर्ष से कम उम्र के बच्चे को श्रामणेर बनाने की अनुमति देता हूँ ।” 76 (८) श्रामणेर शिष्यो की संख्या ३—उस समय आयुष्मान् उपनद शाक्यपुत्र के पास कटक और महक दो श्रामणेर थे । वह एक दूसरे को दुर्वचन कहते थे । भिक्षु (यह देख) हैरान होते, धिक्कारते और दुखी होते थे—‘कैसे श्रामणेर इस प्रकार का अत्याचार करेंगे ।’ उन्हो ने भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! एक (भिक्षु) के दो श्रामणेर नहीं रखना चाहिये । जो रखे उसे दुक्कट का दोष हो ।” 77 (९) निश्रय की अवधि उस समय भगवान् ने राजगृह में ही वर्षा, हेमन्त और ग्रीष्म को बिताया । लोग हैरान होते, धिक्कारते और दुखी होते थे—‘शाक्यपुत्रीय श्रमणो के लिये दिशाएँ अन्धकारमय है, शून्य है । इन्हे दिशाएँ जान नही पळती ।’ भिक्षुओ ने उन मनुष्यो के हैरान होने, धिक्कार ने और दुखी होने को सुना । तब उन भिक्षुओ ने भगवान् से यह बात कही । तब भगवान् ने आयुष्मान् आनंद को संबोधित किया—“जा आनन्द ! जलछक्का (=अवापुरण) ले एक ओर से भिक्षुओ को कह—‘आवुसो ! भगवान् दक्षिणा-गिरि में चारिका करनें के लिये जाना चाहते है । जिस आयुष्मान् की इच्छा हो आये ।’ “अच्छा भन्ते !” (कह) भगवान् को उत्तर दे आयुष्मान् आनन्द ने जल छक्का ले एक ओर से भिक्षुओ को कहा—‘आवुसो ! भगवान् दक्षिणागिरि में चारिका करने के लिये जाना चाहते है । जिस आयुष्मान् की इच्छा हो आये ।’ भिक्षुओ ने यह कहा—‘आवुस आनंद ! भगवान् ने आज्ञा दी है, दस वर्ष तक निश्रय लेकर वसने की, दस वर्ष (के भिक्षु) को निश्रय देने की । उसके लिये हमे जाना होगा और निश्रय ग्रहण करना होगा । थोळे दिन का निवास होगा और फिर लौटकर आना होगा, और फिर दोबारा निश्रय ग्रहण करना होगा । इसलिये यदि हमारे आचार्य और उपाध्याय चलेगे तो हम भी चलेगे । न चलेगे तो हम भी नहीं चलेगे । (अन्यथा) आवुस आनन्द ! हमारे चित्त का ओछापन समझा जायगा ।’ तब भगवान् छोटे से भिक्षु-संघ के साथ दक्षिणागिरि में विचरने के लिये चले गये । तब भगवान् दक्षिणा-गिरि में इच्छानुसार विहारकर राजगृह में लौट आये । तब भगवान् ने आयुष्मान् आनंद से पूछा— “क्या था आनंद ! जो तथागत छोटे से भिक्षु-संघ के साथ दक्षिणागिरि में विचरने के लिये गये ॽ” तब आयुष्मान् आनंद ने भगवान् को वह सब बात बतलाई । भगवान् ने इसी संबंध में इसी प्रकरण में धार्मिक कथा कह भिक्षुओ को संबोधित किया— “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ चतुर और समर्थ भिक्षु को पाँच वर्ष तक निश्रय लेकर बसने की, और अ-चतुर को जीवन भर तक (निश्रय लेकर बसने की) । 78 (१०) किस के लिये निश्रय आवश्यक है और किसके लिये नहीं है क—भिक्षुओ ! पाँच बातो से युक्त भिक्षु को निश्रय के बिना वास नहीं करना चाहिये—(१) न वह संपूर्णशील-पुँज से युक्त होता है, ०१ (५) न संपूर्ण विमुक्तियो के ज्ञान के साक्षात्कार-पुंज से संयुक्त होता है । भिक्षु इन पाँच बातो से युक्त भिक्षु को निश्रय के बिना वास नही करना चाहिये । 79 ख—भिक्षुओ ! पाँच बातो से युक्त भिक्षु को निश्रय के बिना वास करना चाहिये—(१) वह संपूर्णशील-पुंज से युक्त होता है, ०१ (५) संपूर्ण विमुक्तियो के ज्ञान के साक्षात्कार पुंज से संयुक्त होता है । भिक्षु इन पाँच बातो से युक्त भिक्षु को निश्रय के बिना वास करना चाहिये । 80 ग—और भी भिक्षुओ ! पाँच बातो से युक्त भिक्षु को निश्रय के बिना वास नहीं करना चाहिये—(१) अ-श्रद्धालु होता है, (२) लज्जा रहित होता है, (३) संकोच-रहित होता है, (४) आलसी होता है, (५) भूल जाने वाला होतै है । ० । 81 घ—भिक्षुओ ! पाँच बातो से युक्त भिक्षु को निश्रय के बिना वास करना चाहिये—(१) श्रद्धालु होता है ० । (५) याद रखने वाला होता है । ० । 82 ड—और भी भिक्षुओ ! पाँच बातो से युक्त भिक्षु को निश्रय के बिना नहीं रहना चाहिये—(१) शील के विषय में शील-हीन होता है, (२) आचार के विषय में आचार-हीन होता है, (३) धारणा के विषय में बुरी धारणा वाला होता है, (४) विद्याहीन होता है, (५) प्रज्ञाहीन होता है । ० । 83 च—भिक्षुओ ! पाँच बातो से युक्त भिक्षु को निश्रय के बिना रहना चाहिये—(१) शीलहीन नही होता, (२) आचारहीन नही होता, (३) धारणा के विषय में बुरी धारणा वाला नहीं होता, (४) विद्यावान् होता है, (५) प्रज्ञावान् होता है । ० । 84 छ—और भी भिक्षुओ ! पाँच बातो से युक्त भिक्षु को निश्रय के बिना नहीं रहना चाहिये—(१) दोष को नही जानता, (२) न निर्दोषता को जानता है, (३) न छोटे दोष को जानता है, (४) न वळे दोष को जानता है, और (४) भिक्षु-भिक्षुणी दोनो के प्रातिमोक्षो को विस्तार के साथ नहीं हृद्गत किये रहता । सूक्त (=बुद्धोपदेश) से और प्रमाण से प्रातिमोक्ष को न सुविभाजित किये रहता, न सुप्रबर्तित, न सु-निर्णीत किये रहता है । ० । 85 ज—भिक्षुओ ! पाँच बातो से युक्त भिक्षु को निश्रय के बिना रहना चाहिये—(१) दोष को जानता है, ० (५) प्रातिमोक्षो को विस्तार के साथ हृद्गत किये रहता है । ० । 86 झ—और भी भिक्षुओ । पाँच बातो से युक्त भिक्षु को निश्रय के बिना नही रहना चाहिये—(१) न दोष को जानता है, (२) न निर्दोषता को जानता है, (३) न छोटे दोष को जानता है, (४) न बळे दोष को जानता है, (५) और पाँच वर्ष से कम का भिक्षु होता है । ० । 87 ञ—भिक्षुओ ! पाँच बातो से युक्त भिक्षु को निश्रय के बिना रहना चाहिये—(१) दोष को जानता है, (२) निर्दोषता को जानता है, (३) छोटे दोष को जानता है, (४) बळे दोष को जानता है, (५) पाँच वर्ष से अधिक का भिक्षु होता है । ० । 88 ट—भिक्षुओ ! इन छ बातो से युक्त भिक्षु को निश्रय के बिना नहीं रहना चाहिये—(१) न संपूर्ण शील-पुंज से युक्त होता है, ०२ (६) न पाँच वर्ष से अधिक का भिक्षु होता है । ० । 89 ठ—० निश्रय के बिना रहना चाहिये—(१) संपुर्ण शील-पुंज से युक्त होता है, ० (६) पाँच वर्ष से अधिक का भिक्षु होता है । ० । 90 ड—० निश्रय के बिना नहीं रहना चाहिये—(१) अ-श्रद्धालु होता है, (२) लज्जा-रहित होता है, (३) संकोच-रहित होता है, (४) आलसी होता है, (५) भूल जाने वाला होता है, (६) पाँच वर्ष से कम का भिक्षु होता है । ० । 91 ढ—० निश्रय के बिना रहना चाहिये—(१) श्रद्धालु होता है, (२) लज्जालु होता है, (३) संकोच-शील होता है, (४) उद्योगी होता है, (५) याद रखने वाला होता है, (६) पाँच वर्ष से अधिक का भिक्षु होता है । ० । 92 ण—० निश्रय के बिना नहीं रहना चाहिये—(१) शीलहीन होता है, (२) आचारहीन होता है, (३) धारणा के विषय में बुरी धारणा वाला होता है, (४) विद्याहीन होता है, (५) प्रज्ञाहीन होता है, (६) पाँच वर्ष से कम का भिक्षु होता है । ० । 93 त—० निश्रय के बिना रहना चाहिये—(१) शीलहीन नही ०, (६) पाँच वर्ष से अधिक का भिक्षु होता है । ० । 94 थ—० निश्रय के बिना नही रहना चाहिये—(१) न दोष को जानता है, (२) न निर्दोषता को जानता है, (३) न छोटे दोष को जानता है, (४) न बळे दोष को जानता है, (५) (भिक्षु-भिक्षुणी) दोनो के प्रातिमोक्षो को विस्तार के साथ नहीं हद्गत किये रहता, सूक्त (=बुद्धोपदेश) और प्रमाण से प्रातिमोक्ष को न सु-विभाजित किये रहता, न सु-प्रवर्तित, न सु-निर्णित किये रहता, (६) पाँच वर्ष से कम का भिक्षु होता है । ० । 95 द-० निश्रय के बिना रहना चाहिये—(१) दोष को जानता है, ० (६) पाँच वर्ष से अधिक का भिक्षु होता है । ० । 96 अष्टम भाणवार समाप्त॥८॥ ६—कपिलवस्तु (११) प्रब्रज्या के लिये माता-पिता की आज्ञा (क) राहुल की प्रब्रज्या—तब भगवान् राजगृह में इच्छानुसार विहार करके कपिलवस्तु की ओर विचरण करने के लिये चल दिये । क्रमश विचरण करते जहाँ कपिलवस्तु है वहाँ पहुँचे । और भगवान् वहाँ शाक्य (-देश) में कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में विहार करते थे । भगवान् पूर्वाह्ण समय पहनकर पात्र-चीवर ले जहाँ शुद्धोदन शाक्य का घर था, वहाँ गये । जाकर बिछाये आसन पर बैठे । तब राहुल-माता-देवी ने राहुल-कुमार को यो कहा—“राहुल ! यह तेरे पिता है, जा दायज (=वरासत) माँग ।” तब राहुल-कुमार जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया । जाकर भगवान् के सामने खळा हो कहने लगा—“श्रमण ! तेरी छाया सुखमय है ।” तब भगवान् आसन से उठकर चल दिये । राहुलकुमार भी भगवान् के पीछे पीछे लगा— “श्रमण ! मुझे दायज दे, श्रमण ! मुझे दायज दे ।” तब भगवान् ने आयुष्मान् सारिपुत्र से कहा “तो सारिपुत्र ! राहुल-कुमार को प्रब्रजित करो ।” ‘भन्ते ! किस प्रकार राहुल-कुमार को प्रब्रजित करूँ ॽ” इसी मौके पर इसी प्रकरण में धार्मिक कथा कहकर, भगवान् ने भिक्षुओ को संबोधित किया— (ख) श्रामणेर बनाने की विधि—“भिक्षुओ ! तीन शरण-गमन से श्रामणेर-प्रब्रज्या- की अनुज्ञा देता हूँ । इस प्रकार प्रब्रजित करना चाहिये । पहिले शिर-दाढी मुँळवा कापाय-वस्त्र पहिना, एक कंधे पर उपरना करवा, भिक्षुओ की पाद-वन्दना करवा, उकळूँ बैठवा, हाथ जोळवा ऐसा कहो बोलना चाहिये—“बुद्ध की शरण जाता हूँ, धर्म की शरण जाता हूँ, संघ की शरण जाता हूँ । दूसरी बार भी ० । तीसरी बार भी बुद्ध की शरण ० ।” 97 तब आयुष्मान् सारिपुत्र ने राहुल-कुमार को प्रब्रजित किया । तब शुद्धोदन शाक्य जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया, और भगवान् को अभिवादन कर, एक ओर बैठ गया । एक ओर बैठे हुए शुद्धोदन शाक्य ने भगवान् से कहा— “भन्ते ! भगवान् से मैं एक वर चाहता हूँ ।” “गौतम ! तथागत वर से दूर हो चुके है ।” “भन्ते ! जो उचित है, दोष-रहित है ।” “बोलो गौतम ।” “भगवान् के प्रब्रजित होने पर मुझे बहुत दु:ख हुआ या, वैसे ही नन्द (के प्रब्रजित) होने पर भी । राहुल के (प्रब्रजित) होने पर अत्यधिक । भन्ते ! पुत्र-प्रेम मेरी छाल छेद रहा है । छाल छेदकर ० । चमडे को छेदकर मास को छेद रहा है । मास को छेदकर नस को छेद रहा है । नस को छेदकर हड्डी को छेद रहा है । हड्डी को छेदकर घायल कर दिया है । अच्छा हो, भन्ते ! आर्य (=भिक्षुलोग) माता पिता की अनुमति के बिना (किसी को) प्रब्रजित न करे ।” (ग) माता-पिता की आज्ञा से प्रब्रज्या—भगवान् ने शुद्धोदन शाक्य से धार्मिक कथा कही । तब शुद्धोदन शाक्य आसन से उठ अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर चला गया । भगवान् ने इसी मौके पर, इसी प्रकरण में धार्मिक कथा कह, भिक्षुओ को संबोधित किया—“भिक्षुओ ! माता पिता की अनुमति के बिना, पुत्र को प्रब्रजित न करना चाहिये । जो प्रब्रजित करे, उसे दुक्कट का दोष है ।” 98 (१२) श्रामणेरो के विषय में नियम (क) श्रामणेरो की संख्या—तब भगवान् कपिलवस्तु में इच्छानुसार विहारकर श्रावस्ती में विचरण के लिये चल दिये । क्रमश विचरण करते जहाँ श्रावस्ती है वहाँ पहुँचे और भगवान् वहाँ श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के आश्रम जेतवन में विहार करते थे । उस समय आयुष्मान् सारिपुत्र के सेवक एक खान्दान ने आयुष्मान् सारिपुत्र के पास (अपने) बच्चे को (यह कहकर) भेजा—‘इस बच्चे को स्थविर प्रब्रज्या दे ।’ तब आयुष्मान् सारिपुत्र के (मन में) ऐसा हुआ—भगवान् ने आज्ञा दी है कि एक (भिक्षु) को दो श्रामणेर न रखने चाहिये और मेरे पास यह राहुल श्रामणेर है ही । मुझे क्या करना चाहिये ॽ’ उन्होने भगवान् से बात कही । (भगवान् ने कहा) — “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, चतुर और समर्थ एक भिक्षु को भी दो श्रामणेर रखने की, या जितनो को वह उपदेश और अनुशासन कर सके उतनो के रखने की ।” 99 (ख) श्रामणेरो के शिक्षापद—तब श्रामणेरो के (मन में) यह हुआ—‘हम लोगो के कितने शिक्षा-पद (=आचार-नियम) है, हमे क्या क्या सीखना चाहिये ।’ (भिक्षुओ ने) भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने कहा) — “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, श्रामणेरो को दस शिक्षा-पदो की, जिन्हे श्रामणेर सीखे—(१) प्राण-हिंसा से बाज आना, (२) चोरी करने से बाज आना, (३) अ-ब्रह्मचर्य से बाज आना, (४) झुठ बोलने से बाज आना, (५) मद्य, कच्ची शराब (आदि) बुद्धि-भ्रष्ट करने वाली (चीजो) से बाज आना, (६) दो पहर बाद भोजन करने से बाज़ आना, (७) नाच, गीत, बाजा, और चित्त को चचल करने वाले तमाशो से बाज आना, (८) माला, गध और उबटने के धारण, मडन, विभूषण की बात से बाज आना । (९) ऊँची शय्या और महार्ध शय्या से बाज आना, (१०) सोना-चाँदी को ग्रहण करने से बाज आना । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, श्रामणेरो को (इन) दस शिक्षा-पदो की जिन्हे श्रामणेर सीखे ।” 100 (१३) दंडनीय श्रामणेरो को दंड (क) दंडनीय—उस समय श्रामणेर भिक्षुओ के साथ गौरव और प्रतिष्ठा न रखते हुए उल्टी वृति के हो रहे थे । भिक्षु हैरान होते, धिक्कारते और दुखी होते थे—‘कैसे श्रामणेर भिक्षुओ के साथ गौरव और प्रतिष्ठा न रखते हुए उल्टी वृत्ति के हो रहे है ॽ उन्हो ने यह बात भगवान् से कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, पाँच बातो से युक्त श्रामणेर को दंड करने की—(१) भिक्षुओ के अ-लाभ की कोशिश करता है, (२) भिक्षुओ के अनर्थ की कोशिश करता है, (३) भिक्षुओ के वास न पाने की कोशिश करता है, (४) भिक्षुओ की निन्दा, शिकायत करता है, (५) भिक्षुओ में परस्पर बिगाळ कराता है । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, (इन) पाँच बातो से युक्त श्रामणेर को दंड करने की ।” 101 (ख) दंड—तब भिक्षुओ के (मन में) ऐसा हुआ—‘क्या दंड करना चाहिये ॽ’ उन्हो ने भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, आवरण (=घर के भीतर आने से रोकना) करने को ।” 102 (ग) दंड में नियम—(a) उस समय भिक्षु श्रामणेरो के लिये सारे सघाराम का आवरण करते थे जिससे श्रामणेर आराम के भीतर प्रवेश न पाने से चले जाते, गृहस्थाश्रम में लौट जाते या तीर्थिको के मत में चले जाते थे । उन्हो ने भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! सारे सघाराम का आवरण नही करना चाहिये । जो करे उसे दुक्क्ट का दोष होता है । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, जहाँ वह बसता हो या घूमता हो वहाँ आवरण करने की ।” 103 (b) उस समय भिक्षु श्रामणेरो के मुख के आहार का आवरण (=रोक) करते थे । लोग खिचळी, पान, और संघ-भोजन तैयार करते वक्त श्रामणेरो से यह कहते थे—‘आओ भन्ते ! खिचळी पिओ, आओ भन्ते ! भात खाओ ।’ श्रामणेर ऐसा उत्तर देते थे—‘आवुसो ! वैसा नही कर सकते । भिक्षुओ ने हमारा आवरण किया है ।’ लोग हैरान होते, धिक्कारते और दुखी होते थे—‘कैसे भदन्त लोग श्रामणेरो के मुख के आहार का आवरण करेंगे ।’ लोगो ने भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! मुख के आहार का आवरण नही करना चाहिये । जो करे उसको दुक्कट का दोष होता है ।” 104 दंड करने का वर्णन समाप्त । (c) उस समय षड्वर्गीय१ (=छ पुरुषो वाला समुदाय) भिक्षु उपाध्यायो से बिना पूछे ही श्रामणेरो का आवरण करते थे । उपाध्याय खोजते थे—हमारे श्रामणेर क्यो नही दिखलाई पळ रहे है । (दूसरे) भिक्षुओ ने यह कहा—‘आवुसो ! षड्वर्गीय भिक्षुओ ने आवरण कर दिया है ।’ उन श्रामणेरो के (उपाध्याय) हैरान होते, धिक्कारते और दुखी होते थे—‘कैसे षड्वर्गीय भिक्षु बिना हमसे पूछे ही हमारे श्रामणेरो का आवरण करेंगे ।’ (उन्हो ने) भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! उपाध्यायो से बिना पूछे आवरण नही करना चाहिये । जो करे उसे दुक्कट का दोष हो ।” 105 (d) उस समय षड्वर्गीय भिक्षु स्थविर भिक्षुओ के श्रामणेरो को फुसला ले जाते थे । स्थविर लोग अपने ही दतौन और मुख धोने को जल को लेते तकलीफ पाते थे । (लोगो ने) भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! दूसरे की परिषद् (=अनुचरगण) को नही फुसलाना चाहिये । जो फुसलाये उसे दुक्कट का दोष हो ।” 106 उस समय आयुष्मान् उपनद शाक्य-पुत्र के श्रामणेर कटकने कट की नामक भिक्षुणी को दूषित किया । भिक्षु हैरान होते, धिक्कारते, दुखी होते थे—‘कैसे श्रामणेर इस प्रकार के आनाचार को करेंगे ।’ भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — घ निकाल ने का दंड—“भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, दस बातो से युक्त श्रामणेर को निकाल देने की—(१) प्राणि-हिंसका दोषी होता है, (२) चोर होता है, (३) अ-ब्रह्मचारी होता है, (४) झुठ बोलने वाला होता है, (५) शराब पीने वाला होता है, (६) बुद्ध की निंदा करता है, (७) धर्म की निंदा करता है, (८) संघ की निंदा करता है, (९) झूठी धारणा वाला होता है, (१०) भिक्षुणी-दूषक होता है । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, (इन) दस बातो से युक्त श्रामणेर को निकाल देने की ।” 107 (१४) उपसंपदा के लिये अयोग्य व्यक्ति १—उस समय एक षडक (=हिजळा) भिक्षुओ के पास आकर प्रब्रजित हुआ था । वह जवान-जवान भिक्षुओ के पास आकर ऐसा कहता था—‘आओ आयुष्मानो ! मुझे दूषित करो ।’ भिक्षु फटकारते थे—‘भाग जा षडक, हट जा षडक, तुझसे क्या मतलब है ॽ’ भिक्षुओ के फटकारने पर वह बडे बडे स्थुल शरीर वाले श्रामणेरो के पास जाकर ऐसा कहता था—‘आओ आयुष्मानो ! मुझे दूषित करो ।’ श्रामणेर फटकारते थे—‘भाग जा षडक, हट जा षडक, तुझसे क्या मतलब है ॽ’ श्रामणेरो के फटकारने पर हाथीवानो और साईसो के पास जाकर ऐसा कहता था—‘आओ आवुसो ! मुझे दूषित करो ।’ हाथीवानो और साईसो ने दूषित किया और वह हैरान होते, धिक्कारते थे—‘यह शाक्य पुत्रीय श्रमण षडक है । जो इनमें षडक नही है वह षडको को दूषित करते है । इस प्रकार यह सभी अब्रह्मचारी है । उन हाथीवानो और साईसो के हैरान होने, धिक्कारने को भिक्षुओ ने सुना । (उन्हो ने) भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! उपसंपदा न पाये षडक को उपसंपदा नही देनी चाहिये, और उपसंपदा पाये को निकाल देना चाहिये ।” 108 २—उस समय कुलीनता से च्युत एक पुराने खान्दान का सुकुमार लळका था । तब उस कुलीनता से च्युत पुराने खानदान के सुकुमार लळके के (मन में) यह हुआ—मैं सुकुमार हूँ (इसलिये) अप्राप्त भोग को न प्राप्त करने में समर्थ हूँ, न प्राप्त भोग के प्रतिकार करने में (समर्थ हूँ) । किस उपाय से मैं सुख से जी सकता हूँ, कष्ट को न प्राप्त हो सकता हूँ ॽ’ तब उस कुलीनता से च्युत पुराने खानदान के सुकुमार पुत्र के (मन में) हुआ—‘यह शाक्य-पुत्रीय श्रमण सुखशील और सुख-आचार है । ये अच्छा भोजन करके (अच्छे) निवासो और शय्याओ में सोते है । क्यो न मैं स्वयं पात्र-चीवर संपादित कर दाढी-मूँछ मूँळा, काषाय वस्त्र पहन आराम में जाकर भिक्षुओ के साथ वास करूँ ॽ’ तब उस कुलीनता से च्युत पुराने खान्दान के लळके ने स्वयं पात्र-चीवर संपादित कर केश दाढी मुळा, काषाय वस्त्र पहन आराम (=भिक्षु-निवास) में जा भिक्षुओ का अभिवादन किया । भिक्षुओ ने पूछा— “आवुस ! कितने वर्ष के (भिक्षु) हो ॽ” “आवुसो ! कितने वर्ष होने का क्या मतलब ॽ” “आवुस ! कौन तेरा उपाध्याय है ॽ” “आवुसो ! उपाध्याय क्या चीज है ॽ” तब भिक्षुओ ने आयुष्मान् उपालि से यह कहा— “आवुस उपालि इस प्रब्रजित (=साधु) की पूछताछ करो ।” तब आयुष्मान् उपालि द्वारा पूछताछ करने पर उस कुलीनता से च्युत पुराने खान्दान के लळके ने सब बात कह दी । आयुष्मान् उपालि ने वह बात भिक्षुओ से कह दी । भिक्षुओ ने वह बात भगवान् से कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! चोरी से वस्त्र पहने उपसंपदा-रहित (पुरुष) को नही उपसंपदा देनी चाहिये । उपसंपदा प्राप्त कर लिये हो तो उसे निकाल देना चाहिये । भिक्षुओ ! तीर्थिको (=अन्य पन्थ के अनुयायियो) के पास चले गये उपसंपदा-रहित (पुरुष) को उपसंपदा न देनी चाहिये । यदि उपसंपदा पा गया हो तो उसे निकाल देना चाहिये ।” 109 ३—उस समय एक नाग (अपनी) नाग-योनि से घृणा करता, दिक होता, जुगुप्सा करता था । तब उस नाग के (मन में) ऐसा हुआ—‘किस उपाय से मैं नाग-योनि से मुक्त होऊँ और जल्दी मनुष्यत्व को पाऊँ ॽ’ तब उस नाग के (मन में) ऐसा हुआ—‘यह शाक्यपुत्रीय श्रमण धर्मचारी, ब्रह्मचारी, सत्यवादी, शीलवान् और पुण्यात्मा है । यदि मैं शाक्यपुत्रीय श्रमणो के पास प्रब्रज्या पा सकूँ, तो इस प्रकार नागयोनि से मुक्त हो सकता हूँ, और शीघ्र ही मनुष्यत्व को प्राप्त हो सकता हूँ ।’ तब उस नाग ने तरूण ब्राह्मण (=माणवक) का रुप धारण कर भिक्षुओ के पास जा प्रब्रज्या माँगी । भिक्षुओ ने उसे प्रब्रज्या और उपसंपदा प्रदान की । उस समय वह नाग एक भिक्षु के साथ सीमान्त के विहार में निवास करता था । एक दिन वह भिक्षु रात के भिनसार को उठकर टहलने लगा । तब वह नाग उस भिक्षु के बाहर निकलने पर बेफिक्र हो सोने लगा और सारा विहार साप से भर गया, तथा खिळकियो से फण निकल रहे थे । तब उस भिक्षु ने विहार में प्रवेश करने के लिये किवाळ को खोलते वक्त देखा कि सारा विहार साँप से भर गया है और खिळकियो से फण निकल रहे है । देखकर भयभीत हो चिल्ला उठा । (दूसरे) भिक्षु दौळ आ उस भिक्षु से बोले—आवुस ! किसलिये तू चिल्ला उठा ॽ’ “आवुसो ! यह सारा विहार साँप से भरा है, और खिळकियो से फण निकल रहे है ।” तब वह नाग उस शब्द के कारण सिमिटकर अपने आसन पर बैठ गया । भिक्षुओ ने उससे यह कहा— “आवुस ! तु कौन है ॽ” “भन्ते ! मैं नाग हूँ ।” “आवुस ! तूने क्यो ऐसा किया ॽ” तब उस नाग ने भिक्षुओ से वह सब बात कह दी । भिक्षुओ ने उस बात को भगवान् से कहा । तब भगवान् ने इसी संबंध में इसी प्रकरण में भिक्षु-संघ को जमाकर नाग से यह कहा— “तुम इस धर्म विनय के योग्य नही क्योंकि तुम नाग हो । जाओ नाग ! वही अपने (लोक में) । चतुर्दशी पूर्णमासी, और अष्टमी, और पक्ष के उपोसथ को उपवास करो । इस प्रकार तुम नागयोनि से मुक्त हो जाओगे और जल्दी मनुष्यत्व को प्राप्त करोगे ।” तब वह नाग—‘मै इस धर्म के योग्य नही हूँ—’ (सोच) दु:खी (=दुर्मना) आँसू बहाते हुए चीत्कार कर चला गया । तब भगवान् ने भिक्षुओ को संबोधित किया— “भिक्षुओ ! नाग के स्वभाव को प्रगट करने के दो समय है—(१) जब अपने स्वजातीय स्त्री से मैथुन करता है, (२) और जब निधडक हो निंद्रा लेता है । भिक्षुओ ! यह दो नाग के स्वभाव को प्रगट करने के समय है । भिक्षुओ ! तिर्थक् योनि वाले प्राणी को विना उपसंपदा के होने पर उपसंपदा न देनी चाहिये और उपसंपदा पाया हुआ होने पर उसे निकाल देना चाहिये ।” 110 ४—उस समय एक ब्राह्मण-पुत्र (=माणवक ने) माता को जान से मार डाला । उस समय वह उस बुरे कर्म से पश्चात्ताप करता, हैरान होता और जुगुप्सा करता था । तब उस ब्राह्मण-पुत्र के (मन में) ऐसा हुआ—‘किस उपाय से मैं इस बुरे कर्म से नकल सकता हूँ ॽ” तब उस माणवक के मन में ऐसा हुआ—‘यह शाक्यपुत्रीय श्रमण धर्मचारी, समचारी ब्रह्मचारी, सत्यवादी, शीलवान्, उत्तम-धर्म वाले है । यदि मैं शाक्यपुत्रीय श्रमणो के पास प्रब्रज्या पाऊँ तो इस प्रकार मैं इस बुरे काम मे मुक्त हो जाऊँ । तब उस माणवक ने भिक्षुओ के पास जा प्रब्रज्या माँगी । भिक्षुओ ने आयुष्मान् उपालि से यह बात कही—‘आवुस उपालि ! पहले भी एक नाग ब्राह्मण-पुत्र का रुप धारण कर भिक्षुओ में प्रब्रजित हुआ था । अच्छा हो आवुस उपालि ! इस माणवक की पूछ-ताछ करो ।’ तब उस माणवक ने आयुष्मान् उपालि के पूछताछ करने पर यह सब बात कह दी । आयुष्मान् उपालि ने भिक्षुओ से वह बात कही । भिक्षुओ ने भगवान् से वह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! उपसंपदा-रहित माता के हत्यारे को नहीं उपसंपदा देनी चाहिये, और उपसंपदा पाये हुए हो तो उसे निकाल देना चाहिये ।” 111 ५—उस समय एक माणवक ने पिता को मार डाला था । उस समय वह उस बुरे कर्म से पश्चाताप करता, हैरान होता और जुगुप्सा करता था । तब उस ब्राह्मण-पुत्र के (मन में) ऐसा हुआ—‘किस उपाय से मैं इस बुरे कर्म से निकल सकता हूँ ॽ’ तब उस माणवक के (मन में) ऐसा हुआ—‘यह शाक्य पुत्रीय श्रमण धर्मचारी, समचारी, ब्रह्मचारी, सत्यवादी, शीलवान्, उत्तमधर्मवाले है । यदि मैं शाक्यपुत्रीय श्रमणो के पास प्रब्रज्या पाउँ तो इस प्रकार मैं इस बुरे काम से मुक्ति पाऊँ ।’ तब उस माणवक ने भिक्षुओ के पास जा प्रब्रज्या माँगी । भिक्षुओ ने आयुष्मान् उपालि से यह बात कही—‘आवुस उपालि ! पहले भी एक नाग ब्राह्मण-पुत्र का रुप धारण कर भिक्षुओ में प्रब्रजित हुआ था । अच्छा हो आवुस उपालि ! इस माणवक की पूछताछ करो ।’ तब उस माणवक ने आयुष्मान् उपालि के पूछताछ करने पर वह सब बात कह दी । आयुष्मान् उपालि ने भिक्षुओ से वह बात कही । भिक्षुओ ने भगवान् से वह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! उपसंपदा-रहित पिता के हत्यारे को नदी उपसंपदा देनी चाहिये, और उपसंपदा पाये हुए हो तो उसे निकाल देना चाहिये ।” 112 ६—उस समय सांकेत (=अयोध्या) से श्रावस्ती जाने वाले मार्ग पर बहुत से भिक्षु जा रहे थे । मार्ग के बीच में चोरो ने निकलकर किन्ही किन्ही भिक्षुओ को लूटा और किन्ही किन्ही को मार डाला । श्रावस्ती से निकलकर राजसैनिको ने भी किन्ही किन्ही चोरो को पकळ लिया और कोई कोई चोर भाग गये । वह भागे हुए चोर भिक्षुओ के पास जाकर प्रब्रजित हो गये । जो पकळे गये थे वे बंधके लिये ले जाये जाने लगे । उन प्रब्रजित (चोरो) ने उन चोरो को बंधके लिये ले जाते देखा । देखकर उन्होने यह कहा—‘अच्छा हुआ जो हम भाग गये । यदि पकळे जाते तो हम भी इसी प्रकार मारे जाते ।’ उन भिक्षुओ ने यह पूछा—‘क्यो आवुसो ! तुम क्या कहते हो ॽ’ तब उन प्रब्रजितो ने भिक्षुओ से वह सब बात कह दी । भिक्षुओ ने भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! यह भिक्षु (लोग) अर्हत् है । भिक्षुओ ! अर्हत्-घातक को यदि उपसंपदा न मिली हो तो उपसंपदा न देनी चाहिये, और उपसंपदा मिली हो तो उसे निकाल देना चाहिये ।” 113 ७—उस समय साकेत से श्रावस्ती जाने वाले मार्गपर बहुत सी भिक्षुणियाँ जा रही थी । २३—उस समय भिक्षु पात्र-रहित (व्यक्ति) को उपसंपदा देते थे । वह पात्र के बिना हाथो में ही भिक्षा माँगते थे । लोग हैरान होते, धिक्कारते थे—‘कैसे यह पात्र के बिना हाथो में ही भीख माँगते है जैसे कि तीर्थिक ।’ भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने कहा) — “भिक्षुओ ! पात्र-रहित को उपसंपदा न देनी चाहिये । जो उपसंपदा दे उसे दुक्कट का दोष हो ।” 128 २४—उस समय भिक्षु चीवर-रहित (व्यक्ति) को उपसंपदा देते थे और वह नंगेही भिक्षाटन करते थे । लोग हैरान होते थे—‘कैसे ये नंगेही भिक्षाटन करते है जैसे कि तीर्थिक ! भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! चीवर-रहित (व्यक्ति) को उपसंपदा न देनी चाहिये । जो उपसंपदा दे उसे दुक्कट का दोष हो ।” 129 २५—उस समय भिक्षु पात्र-चीवर-रहित (व्यक्ति) को उपसंपदा देते थे । वह नंगे ही हाथो में ही भिक्षा माँगते थे । “भिक्षुओ ! पात्र-चीवर-रहित को उपसंपदा न देनी चाहिये, ० ।” 130 २६—उस समय भिक्षु मँगनी के प्रात्र के साथ उपसंपदा देते थे । उपसंपदा हो जानेपर पात्र ले लिया जाता था और वह हाथो में भिक्षा माँगते थे । ०— “भिक्षुओ ! मँगनी के पात्र के साथ उपसंपदा न देनी चाहिये । जो दे उसे दुक्कट का दोष हो ।” 131 २७—उस समय भिक्षु मँगनी के चीवर के साथ उपसंपदा देते थे । उपसंपदा हो जानेपर चीवर ले लिया जाता था, और वह नंगेही भिक्षाटन करते थे । ०— “भिक्षुओ ! मँगनी के चीवर के साथ उपसंपदा न देनी चाहिये । जो उपसंपदा दे उसे दुक्कट का दोष हो ।” 132 २८—उस समय भिक्षु मँगनी के पात्र-चीवर के साथ उपसंपदा देते थे । उपसंपदा हो जानेपर पात्र-चीवर ले लिया जाता था और वह नंगे हो हाथो में भिक्षा माँगते थे । लोग हैरान होते, दुखी होते, धिक्कारते थे—‘ (कैसे यह नंगे हो हाथो में भिक्षा माँगते है) जैसे कि तीर्थिक ।’ भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! मँगनी के पात्र-चीवर के साथ उपसंपदा न देनी चाहिये । जो दे उसे दुक्कट का दोष हो ।” 133 (१५) प्रब्रज्या के लिये अयोग्य व्यक्ति १—उस समय भिक्षु कटे हाथवाले को प्रब्रज्या देते (=श्रामणेर बनाते) थे । मनुष्य देखकर हैरान होते थे । भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! कटे हाथ वाले को प्रब्रज्या न देनी चाहिये । जो प्रब्रज्या दे उसे दुक्कट का दोष हो ।” 134 २—०—कटे पैरवाले को ० । 135 ३—०—कटे हाथ-पैरवाले को ० । 136 ४—०—कटे कान वाले को ० । 137 ५—०—कटी नाक वाले को ० । 138 ६—०—कटे नाक-कान वाले को ० । 139 ७—०—कटी अँगुलियो वाले को ० । 140 २—उस समय भिक्षु लज्जाहीनो का निश्रय लेकर वास करते थे, और वह भी जल्दी ही लज्जाहीन बुरे भिक्षु हो जाते थे । भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! लज्जाहीनो का निश्रय लेकर वास नही करना चाहिये । जो वास करे उसे दुक्कट का दोष हो ।” 167 ३—तब भिक्षुओ के (मन मे) ऐसा हुआ—‘भगवान् ने आज्ञा दी है कि लज्जाहीनो को न निश्रय देना चाहिये न लज्जाहीनो का निश्रय ले वास करना चाहिये, लेकिन लज्जाशील (=लज्जी), लज्जाहीन (=अलज्जी) को कैसे हम जानेगे ॽ’ भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ चार पॉच दिन तक प्रतीक्षा करने की जितने में कि भिक्षु के स्वभाव को जान जाय ।” 168 ४—उस समय एक भिक्षु कोसल देश मे रास्ते मे जा रहा था । उस समय उस भिक्षु के (मन मे) ऐसा हुआ—‘भगवान् ने आज्ञा दी है कि निश्रय के बिना नही रहना चाहिये और मे निश्रय लेने योग्य होते हुए रास्ते मे हूँ । कैसे मुझे करना चाहिये ॽ’ भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) — “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, रास्ते मे जाते हुए भिक्षु को, निश्रय न पाने पर बिना निश्रयही के रहने की ।” 169 ५—उस समय दो भिक्षु कोसल देश मे रास्ते मे जा रहे थे । वह एक वास-स्थान मे गये । वहाँ एक भिक्षु बीमार पड गया । तब उस बीमार भिक्षु के (मन मे) ऐसा हुआ—‘भगवान् ने आज्ञा दी है कि निश्रय के बिना नही रहना चाहिये, मै निश्रय लेने योग्य होते हुए रोगी हूँ । कैसे मुझे करना चाहिये ॽ’ भगवान् से यह बात कही ।— “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, रोगी भिक्षु को निश्रय न पाने पर बिना निश्रयही के रहने की ।” 170 ६—तब उस बीमार के परिचारक भिक्षु के (मन मे) ऐसा हुआ—‘भगवान् ने आज्ञा दी है कि निश्रय के बिना नही रहना चाहिये और मे निश्रय लेने योग्य हूँ और यह भिक्षु रोगी है, मुझे कैसा करना चाहिये ॽ’ भगवान् से यह बात कही ।− “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ बीमार के परिचारक भिक्षु को इच्छा रखते भी निश्रय न पाने पर बिना निश्रय के रहने की ।” 171 ७−उस समय एक भिक्षु जंगल मे रहता था । उस निवास-स्थान पर उसे अच्छा था । तब उस भिक्षु के (मन मे) ऐसा हुआ−‘भगवान् ने आज्ञा दी है कि निश्रय के बिना नही रहना चाहिये, और मै निश्रय लेने योग्य होते हुये जंगल मे हूँ, तथा मुझे इस वास-स्थान पर अच्छा है । मुझे कैसा करना चाहिये ॽ’ भगवान् से यह बात कही ।— “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ जंगल मे रहने वाले भिक्षु को निवास अनुकूल मालूम होने पर, निश्रय के न मिलने पर बिना निश्रय के ही रहने की, (यह सोचकर) जब अनुकूल निश्रयदायक आयेगा तो उसका निश्रय लेकर वास करूँगा ।” 172 (२) बळो को गोत्र के नाम से पुकारना उस समय आयुष्मान् महाकाश्यप के पास एक उपसंपदा चाहने वाला था । तब आयुष्मान् महाकाश्यप ने आयुष्मान् आनन्द के पास (यह कहकर) दूत भेजा—‘आनन्द ! आओ और इस पुरुष के लिये अनुश्रावण१ करो ।’ आयुष्मान् आनंद ने ऐसा कहा—‘रथविर (महाकाश्यप) का नाम भी लेने मे मै असमर्थ हूँ । रथविर मेरे गुरू है ।’ −भगवान् से यह बात कही । (भगवान् ने यह कहा) − “भिक्षुओ ! अनुमति देता हू, गोत्र (के नाम) से पुकारने की ।” 173 (३) अनुश्रावण के नियम १−उस समय आयुष्मान् महाकाश्यप के पास दो उपसंपदा चाहने वाले थे । ‘मे पहले उपसंपदा लूँगा, मै पहले उपसंपदा लूँगा, कहकर वे विवाद करते थे । भगवान् से यह बात कही ।− “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ एक साथ दोनो अनुश्रावण की ।” 174 २−उस समय बहुत से स्थविरो के पास उपसंपदा चाहने वाले थे । ‘मै पहले उपसंपदा लूँगा, मैं पहले उपसंपदा लूँगा’ कहकर वे विवाह करते थे । तब स्थविरो ने कहा−’आवुसो ! (आओ) हम सब एक ही अनुश्रावण करे ।’ भगवान् ने यह बात कही ।− “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ दो तीन के लिये एक अनुश्रावण करने की । लेकिन यदि उनका उपाध्याय एक हो, अनेक न हो ।” 175 (४) गर्भ से बीस वर्ष की उपसम्पदा उस समय आयुष्मान कुमारकाश्यप ने गर्भ से बीस वर्ष गिनकर उपसंपदा पाई थी तब आयुष्मान् कुमारकाश्यप के (मन मे) ऐसा हुआ—‘भगवान् ने विधान किया है कि बीस वर्ष से कम के व्यक्ति को उपसंपदा न देनी चाहिये और मैने गर्भ मे (आने) से लेकर बीस वर्ष जोळ उपसंपदा पाई । क्या मेरी उपसंपदा ठीक है ॽ’ भगवान् ने यह बात कही ।− “भिक्षुओ ! जब माता की कोक से पहले पहल चित्त उत्पन्न होता है, पहले पहल विज्ञान प्रादुर्भत होता है तब से लेकर जन्म मान ने की है । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ गर्भ से बीस (वर्ष वाले) को उपसंपदा देने की ।” 176 (५) उपसम्पदा के बाधक शारीरिक दोष उस समय कोढी भी, फोळेवाले भी (बुरे) चर्म-रोग वाले भी, शोथ वाले भी, मृगी वाले भी उपसंपदा पाये देखे जाते थे । भगवान् से यह बात कही− “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ उपसंपदा करते वक्त तेरह प्रकार के (उपसंपदा मे) अन्तरायिक (=बाधक) बातो के पूछने की । और भिक्षुओ ! इस प्रकार पूछना चाहिये—‘क्या तुझे ऐसी बीमारी (जैसेकि) (१) कोढ, (२) गड (=एक प्रकार का बुरा फोळा), (३) किलास (=एक प्रकार का बुरा चर्म-रोग), (४) शोथ, (५) मृगी, (६) तू मनुष्य है, (७) तू पुरूष है ॽ (८) तू स्वतंत्र (अदास) है ? (९) तू उऋण है ॽ (१०) तू राज-सैनिक तो नही है ॽ (११) तुझे माता पिता ने (भिक्षु बनने की) अनुमति दी है ? (१२) तू पूरे बीस वर्ष का है ॽ (१३) तेरे पास पात्र-चीवर (सरया मे) पूर्ण है ॽ तेरा क्या नाम है ॽ तेरे उपाध्याय का क्या नाम है ॽ” 177 (६) उपसम्पदा कर्म (क) १—अनुशासन—उस समय अनुशासन न किये ही उपसंपदा-चाहने वाले मे भिक्षु लोग (तेरह) विघ्नकारक बातो को पूछते थे । उपसंपदा चाहने वाले चुप हो जाते थे, मूक हो जाते थे. उत्तर नहीं दे सकते थे । भगवान् से यह बात कही ।− “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, पहले अनुशासन दे (=सिखा) करके, पीछे अन्तरायिक बाधक बातो के पूछने की ।” 178 २—(भिक्षु लोग) वही संघ के बीच मे अनुशासन करते थे । उपसंपदा चाहने वाले (फिर) उसी तरह चुप रह जाते थे, मूक हो जाते थे, उत्तर न दे सकते थे । भगवान् से यह बात कही ।— “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, एक ओर ले जाकर विघ्नकारक बातो के अनुशासन करने की, और संघ के बीच मे पूछने की । भिक्षुओ ! इस प्रकार अनुशासन करना चाहिये—पहले उपाध्याय ग्रहण कराना चाहिये । उपाध्याय ग्रहण करा पात्र-चीवर को बतलाना चाहिये—यह तेरा पात्र है, यह सघाटी, यह उत्तरासंघ, यह अन्तरवासक । जा उस स्थान मे खडा हो ।” 179 ३—(उस समय) मूर्ख, अजान, अनुशासन करते थे । ठीक से अनुशासन न होने के कारण उपसंपदा चाहने वाले चुप रह जाते, मूक हो जाते, उत्तर न दे सकते थे । भगवान् से यह बात कही ।— “भिक्षुओ ! मूर्ख, अजान अनुशासन न करे । जो अनुशासन करे तो दुक्कट का दोष हो । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ चतुर समर्थ भिक्षु को अनुशासन करने की ।” 180 (ख) अनुशासक का चुनाव—उस समय सम्मति के बिना ही अनुशासन करते थे । भगवान् से यह बात कही ।—भिक्षुओ ! सम्मति के बिना अनुशासन नही करना चाहिये । जो अनुशासन करे उसे दुक्कट का दोष हो । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ सम्मति प्राप्त को अनुशासन करने की । 181 “और भिक्षुओ ! इस प्रकार सम्मत्रण करना चाहिये—अपने ही अपने लिये सम्मत्रण करना चाहिये या दूसरे को दूसरे के लिये सम्मत्रण करना चाहिये । कैसे अपने ही अपने लिये सम्मत्रण करना चाहिये ॽ—चतुर, समर्थ भिक्षु संघ को सूचित करे— भन्ते ! संघ मेरी (बात) सुने, यह अमुक नाम वाला अमुक नाम वाले आयुष्मान् का उपसंपदा चाहने वाला (शिष्य) है । यदि संघ उचित समझे तो मै अमुक नाम वाले (इस पुरूष) को अनुशासन करूँ ।—इस प्रकार अपने ही अपने लिये सम्मत्रण करना चाहिेये । “कैसे दूसरे के लिये सम्मत्रण करना चाहिये ॽ—चतुर समर्थ भिक्षु संघ को सूचित करे— क ज्ञप्ति—भन्ते ! संघ मेरी (बात) सुने । यह इस नाम वाला इस नाम वाले आयुष्मान् का उपसंपदा चाहने वाला (शिष्य) है । यदि संघ उचित समझे तो इस नाम वाला (भिक्षु) इस नाम वाले (उपसंपदा चाहने वाले) को अनुशासन करे ।—इस प्रकार दूसरे को दूसरे के लिये सम्मत्रणा करनी चाहिये । तब उस सम्मति प्राप्त भिक्षु को उपसंपदा चाहने वाले के पास जाकर ऐसा कहना चाहिये— ख अनुशासन—“अमुक नाम वाले ! सुनते हो ॽ यह तु्म्हारा सत्य का काल (=भूत का काल) है । जो जानता है संघ के बीच पूछने पर है होने पर “है” कहना चाहिये, ‘नही’ होने पर नही कहना चाहिये । चुप मत हो जाना, मूक मत हो जाना, (संघ मे) इस प्रकार तुझ से पूछेगे—क्या तुझे ऐसी बीमारी है (जैसे कि) कोढ, गड, किलास. शोथ, मृगी ॽ क्या तू मनुष्य है, पुरूष है, स्वतंत्र है, उऋण है, राज-सैनिक तो नही है, तुझे माता-पिता ने (भिक्षु बनाने की) अनुमति दी है, तू पूरे बीस वर्ष का है, तेरे पास पात्र-चीवर (पूर्ण संख्या मे) है ॽ तेरा क्या नाम है ॽ तेरे उपाध्याय का क्या नाम है ॽ” (उस समय अनुशासक और उपसंपदा चाहने वाले दोनो) एक साथ (संघ मे) आते थे । (भगवान् से यह बात कही) — “भिक्षुओ ! एक साथ नही आना चाहिये ।” 182 ग उपसंपदा मे ज्ञप्ति, अनुश्रावण और धारणा—अनुशासक पहले आकर संघ को सूचित करे— भन्ते ! संघ मेरी (बात) सुने ! यह इस नाम का इस नाम वाले आयुष्मान् का उपसंपदा चाहने वाला शिष्य है । मैने उसको अनुशासन किया है । यदि संघ उचित समझे तो इस नाम वाला (उपसंपदा चाहने वाला) आवे । ‘आआो !’ कहना चाहिये । (फिर) एक कंधे पर उत्तरासंघ को करवा कर भिक्षुओ के चरणो मे वंदना करवा, उकळूँ बैठवा, हाथ जुळवा, उपसंपदा के लिये याचना करवानी चाहिये । (७) पंद्रह वर्ष से कम का श्रामणेर उसी समय (समय जानने के लिये) छाया मापनी चाहिये, ऋतु का प्रमाण बत्तलाना चाहिये, दिन का भाग बतलाना चाहिये, संगीनि१ बतलानी चाहिये । सारी निश्रय२ बतलाने चाहिये—(१) यह प्रबज्या भिक्षा माँगे भोजन के निश्रय से है । इसके (पालन मे) जिन्दगी भर तुझे उद्योग करना चाहिये । हाँ (यह) अतिरेक लाभ (भी तेरे लिये विहित है) —संघ-भोज, तेरे उदेश्य ने बना भोजन निमंत्रण, शला का भोजन, पाक्षिक (भोज) उपोसथ के दिन का (भोज), प्रतिपद् का (भोज) । (२) पळ चीथळो के बनाये चीवर के निश्रय से यह प्रबज्या है, इसके (पालन में) जिन्दगी भर उद्योग करना चाहिये । हाँ (यह) अतिरेक लाभ (भी तेरे लिये विहित है) −क्षौम (अलसी की छाल का वस्त्र), कपास का (वस्त्र), कौशेय (=रेशमी वस्त्र), कम्बल (=ऊनी वस्त्र), सनका (वस्त्र), भाँग की (छाल का वस्त्र) । (३) वृक्ष के नीचे निवास के निश्रय से यह प्रब्रज्या है । इसके (पालन मे) जिन्दगी भर उद्योग करना चाहिये । हाँ (यह) अतिरेक लाभ (भी तेरे लिये विहित है) −विहार, आढ्ययोग, प्रासाद, हर्म्य, गुहा । (४) गोमूत्र की ओषधि के निश्रय से यह प्रब्रज्या है । इसके (पालन मे) ज़िन्दगी भर उद्योग करना चाहिये । हाँ (यह) अतिरेक लाभ (भी तेरे लिये विहित है) −घी, मक्खन, तेल, मधु, खाळ ।” 183 चार निश्रय समाप्त (८) श्रामणेर शिष्या को संख्या उस समय (कुछ) भिक्षु एक भिक्षु को उपसंपदा दे, अकेले ही छोळ चले गये । पीछे अकेले ही चलते वक्त रास्ते मे उसे अपनी पहले की स्त्री मिली । उसने पूछा− “क्या इस वक्त प्रब्रजित हो गये हो ॽ” “हाँ प्रब्रजित हो गया हूँ ।” “प्रब्रजितो के लिये स्त्री-समागम बहुत दुर्लभ है । आओ ! मैथुन-सेवन करो ।” वह उसके साथ मैथुन कर, देर से गया । भिक्षुओने पूछा− “आवुस ! क्यो तूने इतनी देर लगाई ॽ” तब उसने भिक्षुओ से वह सब बात कह दी । भिक्षुओने भगवान् से वह सब बात कही । (भगवान् ने यह कहा) − “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, उपसंपदा करके एक दूसरे (भिक्षु को साथी) देने की और चार अकरणीयो के बतलाने की− “(१) उपसम्पन्न भिक्षु को अन्तत पशु से भी मैथुन नही करना चाहिये । जो भिक्षु मैथुन करे वह अश्रमण होता है, अशाक्य-पुत्रीय होता है । जैसे शिर-कटा-पुरुष उस शरीर से जीने मे असमर्थ होता है ऐसे ही भिक्षु मैथुन करके अश्रमण होता है, अशाक्यपुत्रीय होता है । यह तेरे लिये जीवन भर अकरणीय है । “(२) उपसम्पदा प्राप्त भिक्षु को चोरी समझे जाने वाली (किसी वस्तु को) चाहे वह तृण की शला का ही क्यो न हो न लेना चाहिये । जो भिक्षु पाद१ या पाद के मूल्य या पाद से अधिक की चोरी समझी जाने वाली (चीज) को ग्रहण करे वह अश्रमण, अशाक्य-पुत्रीय होता है । जैसे ढेप से छूटा पीला पत्ता फिर हरा होने के अयोग्य है, ऐसे ही भिक्षु पाद या पाद के मूल्य के या पाद से अधिक की चोरी समझी जाने वाली (चीज) को ग्रहण करे वह अश्रमण, अशाक्यपुत्रीय होता है । यह तेरे लिये जीवन भर अकरणीय है । “(३) उपसम्पदा प्राप्त भिक्षु को जान बूझकर प्राण न मारना चाहिये चाहे वह चीटा माटा ही क्यो न हो । जो भिक्षु जान बूझकर मनुष्य के प्राण को मारता है या अन्तत गर्भपात भी कराता है वह अश्रमण, अशाक्यपुत्रीय होता है । जैसे कोई मोटी शिला दो टंक हो जानेपर फिर जोळने लायक नही रहती ऐसे ही भिक्षु जान बूझकर मनुष्य को प्राण से मारने से अश्रमण अशाक्यपुत्रीय होता है । यह तेरे लिये जीवन भर अकरणीय है । “(४) उपसम्पदा प्राप्त भिक्षु को (अपने) दिव्य शक्ति (=उत्तरमनुष्यधर्म) को न कहना चाहिये । अन्तत शृन्यागार मे मैं रमण करता हूँ, इतना भर भी (नही कहना चाहिये) । जो बुरी नीयत- वाला लोभ के वश मे पळा भिक्षु अविद्यमान, असत्य—दिव्य-शक्ति, ध्यान, विमोक्ष, समाधि, समापत्ति, मार्ग या फल—को (अपने मे) बतलाता है वह अश्रमण अशाक्यपुत्रीय होता है । जैसे शिर कटा ताळ फिर बढने के योग्य नही होता, ऐसे ही बुरी नीयत वाला लोभ के वश मे पळा भिक्षु अविद्यमान, असत्य—दिव्य-शक्ति (अपने मे) बतलाकर अश्रमण अशाक्यपुत्रीय होता है । यह तेरे लिये जीवन भर अकरणीय है ।” 184 चार अकरणीय समाप्त (९) निश्रय की अवधि उस समय एक भिक्षु (दोष को करके) दोष को न देखने से उत्क्षिप्त होने पर धर्म छोळकर चला गया । उसने फिर आकर भिक्षुओ से उपसंपदा माँगी । भगवान् से यह बात कही ।— “भिक्षुओ ! यदि कोई भिक्षु दोष (=आपत्ति) के न देखने से उत्क्षिप्त हो निकल जाता है और वह फिर आकर उपसंपदा माँगता है तो उस से ऐसा पूछना चाहिये—‘कया तुम उस दोष को देखते हो ॽ’—यदि वह कहे—‘मै देखता हूँ’ तो उसे प्रब्रज्या देनी चाहिये । यदि कहे ‘नही देखता हूँ’ तो प्रब्रज्या नही देनी चाहिये । प्रब्रज्या देकर पूछना चाहिये—‘क्या तुम उस आपत्ति को देखते हो ॽ’ यदि कहे ‘मैं देखता हूँ’ तो उपसंपदा देनी चाहिये । यदि कहे ‘नही देखता हूँ’ तो उपसंपदा नही देनी चाहिये ।’ उपसंपदा देकर पूछना चाहिये—‘क्या तुम उस आपत्ति को देखते हो ॽ’ यदि कहे ‘मैं देखता हूँ’ तो उसका ओसारण१ करना चाहिये, यदि कहे ‘नही देखता हूँ’ तो उसका ओसारण नही करना चाहिये । ओसारण करके पूछना चाहिये—‘क्या तुम उस आपत्ति को देखते हो ॽ’ यदि कहे कि ‘देखता हूँ—तो अच्छा है । यदि कहे ‘नही देखता’ तो एकमत होने पर फिर उत्क्षिप्त करना चाहिये । यदि एकमत न मिलता हो तो साथ के भोजन और निवास मे दोष नही । यदि भिक्षुओ ! आपत्ति के न प्रतिकार से भिक्षु उत्क्षिप्त होने पर चला जाये और वह फिर आकर भिक्षुओ से उपसंपदा माँगे तो उस से ऐसा पूछना चाहिये—‘क्या उस दोष का तुम प्रतिकार करोगे ॽ’ यदि कहे ‘प्रतिकार करूँगा’ तो प्रब्रज्या देनी चाहिये, यदि कहे ‘प्रतिकार नही करूँगा’ तो प्रब्रज्या नही देनी चाहिये । प्रब्रज्या देकर पूछना चाहिये ‘क्या तुम उस दोष का प्रतिकार करोगे ॽ’ यदि कहे ‘प्रतिकार करूँगा’ तो उपसंपदा देनी चाहिये, यदि कहे ‘प्रतिकार नही करुँगा’ तो उपसम्पदा नही देनी चाहिये । उपसंपदा देकर पूछना चाहिये ‘क्या तुम उस आपत्ति का प्रतिकार करोगे ॽ’ यदि कहे ‘प्रतिकार करुँगा’ तो ओसारण करना चाहिये । यदि कहे ‘प्रतिकार नही करुँगा’ तो ओसारण नही करना चाहिये । ओसारण करके पूछना चाहिये ‘क्या उस दोष का प्रतिकार करते हो ॽ’ यदि वह प्रतिकार करे तो ठीक, यदि प्रतिकार न करे तो एकमत होने पर फिर उत्क्षिप्त करना चाहिये । यदि एकमत न प्राप्त हो तो साथ के भोजन और निवास मे दोष नही । 185 “यदि भिक्षुओ ! कोई भिक्षु बुरी दृष्टि के न त्यागने से उत्क्षिप्त होकर चला गया हो और वह फिर आकर भिक्षुओ से उपसंपदा माँगे तो उस से पूछना चाहिये—‘क्या तुम उस बुरी धारणा को छोळेगे ॽ’ यदि कहे कि—छोळूँगा—तो प्रब्रज्या देनी चाहिये, यदि कहे कि—नही छोळँगा—तो प्रब्रज्या नही देनी चाहिये । प्रब्रज्या देकर पूछना चाहिये—क्या तुम उस बुरी धारणा को छोळोगे ॽ—यदि कहे कि—छोळूँगा—तो उपसम्पदा देनी चाहिये, यदि कहे कि—नही छोळूँगा—तो उपसम्पदा नही देनी चाहिये । उपसंपदा देकर पूछना चाहिये—क्या तुम उस बुरी धारणा को छोळोगे—यदि कहे—छोळँगा—तो ओसारण करना चाहिये, यदि कहे—नही छोळूँगा—तो ओसारण नही करना चाहिये । ओसारण करके कहना चाहिये—उस बुरी धारणा को छोळो !—यदि छोळता है तो अच्छा है । यदि नही छोळता तो एकमत मिलने पर फिर उत्क्षिप्त करना चाहिये । एकमत न मिलने पर साथ भोजन और निवास मे दोष नही । 186 प्रथम महाक्खन्धक (समाप्त)॥१॥
१५. उपज्झायवत्तकथा
६४. तेन खो पन समयेन भिक्खू अनुपज्झायका अनाचरियका [इदं पदं सी॰ स्या॰ पोत्थकेसु नत्थि] अनोवदियमाना अननुसासियमाना दुन्निवत्था दुप्पारुता अनाकप्पसम्पन्ना पिण्डाय चरन्ति; मनुस्सानं [ते मनुस्सानं (क॰)] भुञ्जमानानं उपरिभोजनेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेन्ति, उपरिखादनीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेन्ति, उपरिसायनीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेन्ति, उपरिपानीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेन्ति; सामं सूपम्पि ओदनम्पि विञ्ञापेत्वा भुञ्जन्ति; भत्तग्गेपि उच्चासद्दा महासद्दा विहरन्ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘कथञ्हि नाम समणा सक्यपुत्तिया दुन्निवत्था दुप्पारुता अनाकप्पसम्पन्ना पिण्डाय चरिस्सन्ति; मनुस्सानं भुञ्जमानानं, उपरिभोजनेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेस्सन्ति, उपरिखादनीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेस्सन्ति, उपरिसायनीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेस्सन्ति, उपरिपानीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेस्सन्ति; सामं सूपम्पि ओदनम्पि विञ्ञापेत्वा भुञ्जिस्सन्ति; भत्तग्गेपि उच्चासद्दा महासद्दा विहरिस्सन्ति सेय्यथापि ब्राह्मणा ब्राह्मणभोजने’’ति।
अस्सोसुं खो भिक्खू तेसं मनुस्सानं उज्झायन्तानं खिय्यन्तानं विपाचेन्तानं। ये ते भिक्खू अप्पिच्छा सन्तुट्ठा लज्जिनो कुक्कुच्चका सिक्खाकामा, ते उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘कथञ्हि नाम भिक्खू दुन्निवत्था दुप्पारुता अनाकप्पसम्पन्ना पिण्डाय चरिस्सन्ति; मनुस्सानं भुञ्जमानानं, उपरिभोजनेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेस्सन्ति, उपरिखादनीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेस्सन्ति, उपरिसायनीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेस्सन्ति, उपरिपानीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेस्सन्ति; सामं सूपम्पि ओदनम्पि विञ्ञापेत्वा भुञ्जिस्सन्ति; भत्तग्गेपि उच्चासद्दा महासद्दा विहरिस्सन्ती’’ति। अथ खो ते भिक्खू…पे॰… भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं।
अथ खो भगवा एतस्मिं निदाने एतस्मिं पकरणे भिक्खुसङ्घं सन्निपातापेत्वा भिक्खू पटिपुच्छि – ‘‘सच्चं किर, भिक्खवे, भिक्खू दुन्निवत्था दुप्पारुता अनाकप्पसम्पन्ना पिण्डाय चरन्ति, मनुस्सानं भुञ्जमानानं उपरि भोजनेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेन्ति, उपरिखादनीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेन्ति, उपरिसायनीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेन्ति, उपरिपानीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेन्ति, सामं सूपम्पि ओदनम्पि विञ्ञापेत्वा भुञ्जन्ति, भत्तग्गेपि उच्चासद्दा महासद्दा विहरन्ती’’ति? ‘‘सच्चं भगवा’’ति। विगरहि बुद्धो भगवा – ‘‘अननुच्छविकं, भिक्खवे, तेसं मोघपुरिसानं अननुलोमिकं अप्पतिरूपं अस्सामणकं अकप्पियं अकरणीयं। कथञ्हि नाम ते, भिक्खवे, मोघपुरिसा दुन्निवत्था दुप्पारुता अनाकप्पसम्पन्ना पिण्डाय चरिस्सन्ति, मनुस्सानं भुञ्जमानानं उपरिभोजनेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेस्सन्ति, उपरिखादनीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेस्सन्ति, उपरिसायनीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेस्सन्ति, उपरिपानीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेस्सन्ति, सामं सूपम्पि ओदनम्पि विञ्ञापेत्वा भुञ्जिस्सन्ति, भत्तग्गेपि उच्चासद्दा महासद्दा विहरिस्सन्ति। नेतं, भिक्खवे, अप्पसन्नानं वा पसादाय, पसन्नानं वा भिय्योभावाय। अथ ख्वेतं, भिक्खवे, अप्पसन्नानञ्चेव अप्पसादाय, पसन्नानञ्च एकच्चानं अञ्ञथत्ताया’’ति। अथ खो भगवा ते भिक्खू अनेकपरियायेन विगरहित्वा दुब्भरताय दुप्पोसताय महिच्छताय असन्तुट्ठिताय [असन्तुट्ठिया (सी॰), असन्तुट्ठताय (स्या)] सङ्गणिकाय कोसज्जस्स अवण्णं भासित्वा अनेकपरियायेन सुभरताय सुपोसताय अप्पिच्छस्स सन्तुट्ठस्स सल्लेखस्स धुतस्स पासादिकस्स अपचयस्स वीरियारम्भस्स [विरियारम्भस्स (सी॰ स्या॰)] वण्णं भासित्वा भिक्खूनं तदनुच्छविकं तदनुलोमिकं धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि –
६५. ‘‘अनुजानामि, भिक्खवे, उपज्झायं। उपज्झायो, भिक्खवे, सद्धिविहारिकम्हि पुत्तचित्तं उपट्ठपेस्सति , सद्धिविहारिको उपज्झायम्हि पितुचित्तं उपट्ठपेस्सति। एवं ते अञ्ञमञ्ञं सगारवा सप्पतिस्सा सभागवुत्तिनो विहरन्ता इमस्मिं धम्मविनये वुड्ढिं विरुळ्हिं वेपुल्लं आपज्जिस्सन्ति। एवञ्च पन, भिक्खवे, उपज्झायो गहेतब्बो – एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा पादे वन्दित्वा उक्कुटिकं निसीदित्वा अञ्जलिं पग्गहेत्वा एवमस्स वचनीयो – ‘उपज्झायो मे, भन्ते, होहि; उपज्झायो मे, भन्ते, होहि; उपज्झायो मे, भन्ते, होही’ति। साहूति वा लहूति वा ओपायिकन्ति वा पतिरूपन्ति वा पासादिकेन सम्पादेहीति वा कायेन विञ्ञापेति, वाचाय विञ्ञापेति, कायेन वाचाय [न वाचाय (क॰)] विञ्ञापेति, गहितो होति उपज्झायो; न कायेन विञ्ञापेति, न वाचाय विञ्ञापेति , न कायेन वाचाय विञ्ञापेति, न गहितो होति उपज्झायो।
६६. [चूळव॰ ३७६ आदयो]‘‘सद्धिविहारिकेन, भिक्खवे, उपज्झायम्हि सम्मा वत्तितब्बं। तत्रायं सम्मावत्तना –
‘‘कालस्सेव वुट्ठाय उपाहना ओमुञ्चित्वा एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा दन्तकट्ठं दातब्बं, मुखोदकं दातब्बं, आसनं पञ्ञपेतब्बं। सचे यागु होति, भाजनं धोवित्वा यागु उपनामेतब्बा। यागुं पीतस्स उदकं दत्वा भाजनं पटिग्गहेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन धोवित्वा पटिसामेतब्बं। उपज्झायम्हि वुट्ठिते आसनं उद्धरितब्बं। सचे सो देसो उक्लापो होति, सो देसो सम्मज्जितब्बो।
‘‘सचे उपज्झायो गामं पविसितुकामो होति, निवासनं दातब्बं, पटिनिवासनं पटिग्गहेतब्बं, कायबन्धनं दातब्बं, सगुणं कत्वा सङ्घाटियो दातब्बा, धोवित्वा पत्तो सोदको [सउदको (क॰)] दातब्बो। सचे उपज्झायो पच्छासमणं आकङ्खति, तिमण्डलं पटिच्छादेन्तेन परिमण्डलं निवासेत्वा कायबन्धनं बन्धित्वा सगुणं कत्वा सङ्घाटियो पारुपित्वा गण्ठिकं पटिमुञ्चित्वा धोवित्वा पत्तं गहेत्वा उपज्झायस्स पच्छासमणेन होतब्बं। नातिदूरे गन्तब्बं, नाच्चासन्ने गन्तब्बं, पत्तपरियापन्नं पटिग्गहेतब्बं। न उपज्झायस्स भणमानस्स अन्तरन्तरा कथा ओपातेतब्बा। उपज्झायो आपत्तिसामन्ता भणमानो निवारेतब्बो।
‘‘निवत्तन्तेन पठमतरं आगन्त्वा आसनं पञ्ञपेतब्बं, पादोदकं पादपीठं पादकथलिकं उपनिक्खिपितब्बं, पच्चुग्गन्त्वा पत्तचीवरं पटिग्गहेतब्बं, पटिनिवासनं दातब्बं, निवासनं पटिग्गहेतब्बं। सचे चीवरं सिन्नं होति, मुहुत्तं उण्हे ओतापेतब्बं, न च उण्हे चीवरं निदहितब्बं; चीवरं सङ्घरितब्बं, चीवरं सङ्घरन्तेन चतुरङ्गुलं कण्णं उस्सारेत्वा चीवरं सङ्घरितब्बं – मा मज्झे भङ्गो अहोसीति। ओभोगे कायबन्धनं कातब्बं।
‘‘सचे पिण्डपातो होति, उपज्झायो च भुञ्जितुकामो होति, उदकं दत्वा पिण्डपातो उपनामेतब्बो। उपज्झायो पानीयेन पुच्छितब्बो । भुत्ताविस्स उदकं दत्वा पत्तं पटिग्गहेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन धोवित्वा वोदकं कत्वा मुहुत्तं उण्हे ओतापेतब्बो, न च उण्हे पत्तो निदहितब्बो। पत्तचीवरं निक्खिपितब्बं। पत्तं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन पत्तं गहेत्वा एकेन हत्थेन हेट्ठामञ्चं वा हेट्ठापीठं वा परामसित्वा पत्तो निक्खिपितब्बो। न च अनन्तरहिताय भूमिया पत्तो निक्खिपितब्बो। चीवरं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन चीवरं गहेत्वा एकेन हत्थेन चीवरवंसं वा चीवररज्जुं वा पमज्जित्वा पारतो अन्तं ओरतो भोगं कत्वा चीवरं निक्खिपितब्बं। उपज्झायम्हि वुट्ठिते आसनं उद्धरितब्बं, पादोदकं पादपीठं पादकथलिकं पटिसामेतब्बं। सचे सो देसो उक्लापो होति, सो देसो सम्मज्जितब्बो।
‘‘सचे उपज्झायो नहायितुकामो होति, नहानं पटियादेतब्बं। सचे सीतेन अत्थो होति, सीतं पटियादेतब्बं। सचे उण्हेन अत्थो होति, उण्हं पटियादेतब्बं।
‘‘सचे उपज्झायो जन्ताघरं पविसितुकामो होति, चुण्णं सन्नेतब्बं, मत्तिका तेमेतब्बा, जन्ताघरपीठं आदाय उपज्झायस्स पिट्ठितो पिट्ठितो गन्त्वा जन्ताघरपीठं दत्वा चीवरं पटिग्गहेत्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं, चुण्णं दातब्बं, मत्तिका दातब्बा। सचे उस्सहति, जन्ताघरं पविसितब्बं। जन्ताघरं पविसन्तेन मत्तिकाय मुखं मक्खेत्वा पुरतो च पच्छतो च पटिच्छादेत्वा जन्ताघरं पविसितब्बं। न थेरे भिक्खू अनुपखज्ज निसीदितब्बं। न नवा भिक्खू आसनेन पटिबाहितब्बा। जन्ताघरे उपज्झायस्स परिकम्मं कातब्बं। जन्ताघरा निक्खमन्तेन जन्ताघरपीठं आदाय पुरतो च पच्छतो च पटिच्छादेत्वा जन्ताघरा निक्खमितब्बं।
‘‘उदकेपि उपज्झायस्स परिकम्मं कातब्बं। नहातेन पठमतरं उत्तरित्वा अत्तनो गत्तं वोदकं कत्वा निवासेत्वा उपज्झायस्स गत्ततो उदकं पमज्जितब्बं, निवासनं दातब्बं, सङ्घाटि दातब्बा, जन्ताघरपीठं आदाय पठमतरं आगन्त्वा आसनं पञ्ञपेतब्बं, पादोदकं पादपीठं पादकथलिकं उपनिक्खिपितब्बं, उपज्झायो पानीयेन पुच्छितब्बो। सचे उद्दिसापेतुकामो होति, उद्दिसितब्बो। सचे परिपुच्छितुकामो होति, परिपुच्छितब्बो।
‘‘यस्मिं विहारे उपज्झायो विहरति, सचे सो विहारो उक्लापो होति, सचे उस्सहति, सोधेतब्बो। विहारं सोधेन्तेन पठमं पत्तचीवरं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं। निसीदनपच्चत्थरणं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं। भिसिबिब्बोहनं [भिसिबिम्बोहनं (सी॰ स्या॰)] नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं। मञ्चो नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन, असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं, नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बो। पीठं नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन , असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं, नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं। मञ्चपटिपादका नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बा। खेळमल्लको नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बो। अपस्सेनफलकं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं। भूमत्थरणं यथापञ्ञत्तं सल्लक्खेत्वा नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं। सचे विहारे सन्तानकं होति, उल्लोका पठमं ओहारेतब्बं, आलोकसन्धिकण्णभागा पमज्जितब्बा। सचे गेरुकपरिकम्मकता भित्ति कण्णकिता होति, चोळकं तेमेत्वा पीळेत्वा पमज्जितब्बा। सचे काळवण्णकता भूमि कण्णकिता होति, चोळकं तेमेत्वा पीळेत्वा पमज्जितब्बा। सचे अकता होति भूमि, उदकेन परिप्फोसित्वा सम्मज्जितब्बा – मा विहारो रजेन उहञ्ञीति। सङ्कारं विचिनित्वा एकमन्तं छड्डेतब्बं।
‘‘भूमत्थरणं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। मञ्चपटिपादका ओतापेत्वा पमज्जित्वा अतिहरित्वा यथाठाने ठपेतब्बा। मञ्चो ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन, असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं, अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बो। पीठं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन, असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं, अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। भिसिबिब्बोहनं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। निसीदनपच्चत्थरणं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। खेळमल्लको ओतापेत्वा पमज्जित्वा अतिहरित्वा यथाठाने ठपेतब्बो। अपस्सेनफलकं ओतापेत्वा पमज्जित्वा अतिहरित्वा यथाठाने ठपेतब्बं। पत्तचीवरं निक्खिपितब्बं। पत्तं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन पत्तं गहेत्वा एकेन हत्थेन हेट्ठामञ्चं वा हेट्ठापीठं वा परामसित्वा पत्तो निक्खिपितब्बो। न च अनन्तरहिताय भूमिया पत्तो निक्खिपितब्बो। चीवरं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन चीवरं गहेत्वा एकेन हत्थेन चीवरवंसं वा चीवररज्जुं वा पमज्जित्वा पारतो अन्तं ओरतो भोगं कत्वा चीवरं निक्खिपितब्बं।
‘‘सचे पुरत्थिमा सरजा वाता वायन्ति, पुरत्थिमा वातपाना थकेतब्बा। सचे पच्छिमा सरजा वाता वायन्ति, पच्छिमा वातपाना थकेतब्बा। सचे उत्तरा सरजा वाता वायन्ति, उत्तरा वातपाना थकेतब्बा। सचे दक्खिणा सरजा वाता वायन्ति, दक्खिणा वातपाना थकेतब्बा। सचे सीतकालो होति, दिवा वातपाना विवरितब्बा, रत्तिं थकेतब्बा। सचे उण्हकालो होति, दिवा वातपाना थकेतब्बा, रत्तिं विवरितब्बा।
‘‘सचे परिवेणं उक्लापं होति, परिवेणं सम्मज्जितब्बं। सचे कोट्ठको उक्लापो होति, कोट्ठको सम्मज्जितब्बो। सचे उपट्ठानसाला उक्लापा होति, उपट्ठानसाला सम्मज्जितब्बा। सचे अग्गिसाला उक्लापा होति, अग्गिसाला सम्मज्जितब्बा। सचे वच्चकुटि उक्लापा होति, वच्चकुटि सम्मज्जितब्बा। सचे पानीयं न होति, पानीयं उपट्ठापेतब्बं। सचे परिभोजनीयं न होति, परिभोजनीयं उपट्ठापेतब्बं। सचे आचमनकुम्भिया उदकं न होति, आचमनकुम्भिया उदकं आसिञ्चितब्बं।
‘‘सचे उपज्झायस्स अनभिरति उप्पन्ना होति, सद्धिविहारिकेन वूपकासेतब्बो, वूपकासापेतब्बो, धम्मकथा वास्स कातब्बा। सचे उपज्झायस्स कुक्कुच्चं उप्पन्नं होति, सद्धिविहारिकेन विनोदेतब्बं, विनोदापेतब्बं, धम्मकथा वास्स कातब्बा। सचे उपज्झायस्स दिट्ठिगतं उप्पन्नं होति, सद्धिविहारिकेन विवेचेतब्बं, विवेचापेतब्बं, धम्मकथा वास्स कातब्बा । सचे उपज्झायो गरुधम्मं अज्झापन्नो होति परिवासारहो, सद्धिविहारिकेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो उपज्झायस्स परिवासं ददेय्याति। सचे उपज्झायो मूलाय पटिकस्सनारहो होति, सद्धिविहारिकेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो उपज्झायं मूलाय पटिकस्सेय्याति। सचे उपज्झायो मानत्तारहो होति, सद्धिविहारिकेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो उपज्झायस्स मानत्तं ददेय्याति। सचे उपज्झायो अब्भानारहो होति, सद्धिविहारिकेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो उपज्झायं अब्भेय्याति। सचे सङ्घो उपज्झायस्स कम्मं कत्तुकामो होति तज्जनीयं वा नियस्सं [नियसं (क॰)] वा पब्बाजनीयं वा पटिसारणीयं वा उक्खेपनीयं वा, सद्धिविहारिकेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो उपज्झायस्स कम्मं न करेय्य लहुकाय वा परिणामेय्याति। कतं वा पनस्स होति सङ्घेन कम्मं तज्जनीयं वा नियस्सं वा पब्बाजनीयं वा पटिसारणीयं वा उक्खेपनीयं वा, सद्धिविहारिकेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो उपज्झायो सम्मा वत्तेय्य, लोमं पातेय्य, नेत्थारं वत्तेय्य, सङ्घो तं कम्मं पटिप्पस्सम्भेय्याति।
‘‘सचे उपज्झायस्स चीवरं धोवितब्बं होति, सद्धिविहारिकेन धोवितब्बं, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो उपज्झायस्स चीवरं धोवियेथाति। सचे उपज्झायस्स चीवरं कातब्बं होति, सद्धिविहारिकेन कातब्बं, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो उपज्झायस्स चीवरं करियेथाति। सचे उपज्झायस्स रजनं पचितब्बं होति, सद्धिविहारिकेन पचितब्बं, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो उपज्झायस्स रजनं पचियेथाति। सचे उपज्झायस्स चीवरं रजितब्बं [रजेतब्बं (सी॰ स्या॰)] होति, सद्धिविहारिकेन रजितब्बं, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो उपज्झायस्स चीवरं रजियेथाति। चीवरं रजन्तेन [रजेन्तेन (सी॰ स्या॰)] साधुकं सम्परिवत्तकं सम्परिवत्तकं रजितब्बं, न च अच्छिन्ने थेवे पक्कमितब्बं।
‘‘न उपज्झायं अनापुच्छा एकच्चस्स पत्तो दातब्बो, न एकच्चस्स पत्तो पटिग्गहेतब्बो; न एकच्चस्स चीवरं दातब्बं, न एकच्चस्स चीवरं पटिग्गहेतब्बं; न एकच्चस्स परिक्खारो दातब्बो, न एकच्चस्स परिक्खारो पटिग्गहेतब्बो; न एकच्चस्स केसा छेदेतब्बा [छेत्तब्बा (सी॰), छेदितब्बा (क॰)], न एकच्चेन केसा छेदापेतब्बा; न एकच्चस्स परिकम्मं कातब्बं, न एकच्चेन परिकम्मं कारापेतब्बं; न एकच्चस्स वेय्यावच्चो [वेय्यावच्चं (कत्थचि)] कातब्बो , न एकच्चेन वेय्यावच्चो कारापेतब्बो; न एकच्चस्स पच्छासमणेन होतब्बं, न एकच्चो पच्छासमणो आदातब्बो; न एकच्चस्स पिण्डपातो नीहरितब्बो, न एकच्चेन पिण्डपातो नीहरापेतब्बो; न उपज्झायं अनापुच्छा गामो पविसितब्बो; न सुसानं गन्तब्बं; न दिसा पक्कमितब्बा। सचे उपज्झायो गिलानो होति, यावजीवं उपट्ठातब्बो; वुट्ठानमस्स आगमेतब्ब’’न्ति।
उपज्झायवत्तं निट्ठितं।
१६. सद्धिविहारिकवत्तकथा
६७. [चूळव॰ ३७८ आदयो] ‘‘उपज्झायेन, भिक्खवे, सद्धिविहारिकम्हि सम्मा वत्तितब्बं। तत्रायं सम्मावत्तना –
‘‘उपज्झायेन, भिक्खवे, सद्धिविहारिको सङ्गहेतब्बो अनुग्गहेतब्बो उद्देसेन परिपुच्छाय ओवादेन अनुसासनिया। सचे उपज्झायस्स पत्तो होति, सद्धिविहारिकस्स पत्तो न होति, उपज्झायेन सद्धिविहारिकस्स पत्तो दातब्बो, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो सद्धिविहारिकस्स पत्तो उप्पज्जियेथाति। सचे उपज्झायस्स चीवरं होति, सद्धिविहारिकस्स चीवरं न होति, उपज्झायेन सद्धिविहारिकस्स चीवरं दातब्बं, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो सद्धिविहारिकस्स चीवरं उप्पज्जियेथाति। सचे उपज्झायस्स परिक्खारो होति, सद्धिविहारिकस्स परिक्खारो न होति, उपज्झायेन सद्धिविहारिकस्स परिक्खारो दातब्बो, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो सद्धिविहारिकस्स परिक्खारो उप्पज्जियेथाति।
‘‘सचे सद्धिविहारिको गिलानो होति, कालस्सेव उट्ठाय दन्तकट्ठं दातब्बं, मुखोदकं दातब्बं, आसनं पञ्ञपेतब्बं। सचे यागु होति, भाजनं धोवित्वा यागु उपनामेतब्बा। यागुं पीतस्स उदकं दत्वा भाजनं पटिग्गहेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन धोवित्वा पटिसामेतब्बं। सद्धिविहारिकम्हि वुट्ठिते आसनं उद्धरितब्बं। सचे सो देसो उक्लापो होति, सो देसो सम्मज्जितब्बो।
‘‘सचे सद्धिविहारिको गामं पविसितुकामो होति, निवासनं दातब्बं, पटिनिवासनं पटिग्गहेतब्बं, कायबन्धनं दातब्बं, सगुणं कत्वा सङ्घाटियो दातब्बा, धोवित्वा पत्तो सोदको दातब्बो। एत्तावता निवत्तिस्सतीति आसनं पञ्ञपेतब्बं, पादोदकं पादपीठं पादकथलिकं उपनिक्खिपितब्बं, पच्चुग्गन्त्वा पत्तचीवरं पटिग्गहेतब्बं, पटिनिवासनं दातब्बं, निवासनं पटिग्गहेतब्बं । सचे चीवरं सिन्नं होति, मुहुत्तं उण्हे ओतापेतब्बं, न च उण्हे चीवरं निदहितब्बं; चीवरं सङ्घरितब्बं, चीवरं सङ्घरन्तेन चतुरङ्गुलं कण्णं उस्सारेत्वा चीवरं सङ्घरितब्बं – मा मज्झे भङ्गो अहोसीति। ओभोगे कायबन्धनं कातब्बं।
‘‘सचे पिण्डपातो होति, सद्धिविहारिको च भुञ्जितुकामो होति, उदकं दत्वा पिण्डपातो उपनामेतब्बो। सद्धिविहारिको पानीयेन पुच्छितब्बो। भुत्ताविस्स उदकं दत्वा पत्तं पटिग्गहेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन धोवित्वा वोदकं कत्वा मुहुत्तं उण्हे ओतापेतब्बो, न च उण्हे पत्तो निदहितब्बो। पत्तचीवरं निक्खिपितब्बं। पत्तं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन पत्तं गहेत्वा एकेन हत्थेन हेट्ठामञ्चं वा हेट्ठापीठं वा परामसित्वा पत्तो निक्खिपितब्बो। न च अनन्तरहिताय भूमिया पत्तो निक्खिपितब्बो। चीवरं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन चीवरं गहेत्वा एकेन हत्थेन चीवरवंसं वा चीवररज्जुं वा पमज्जित्वा पारतो अन्तं ओरतो भोगं कत्वा चीवरं निक्खिपितब्बं। सद्धिविहारिकम्हि वुट्ठिते आसनं उद्धरितब्बं, पादोदकं पादपीठं पादकथलिकं पटिसामेतब्बं। सचे सो देसो उक्लापो होति, सो देसो सम्मज्जितब्बो।
‘‘सचे सद्धिविहारिको नहायितुकामो होति, नहानं पटियादेतब्बं। सचे सीतेन अत्थो होति, सीतं पटियादेतब्बं। सचे उण्हेन अत्थो होति, उण्हं पटियादेतब्बं ।
‘‘सचे सद्धिविहारिको जन्ताघरं पविसितुकामो होति, चुण्णं सन्नेतब्बं, मत्तिका तेमेतब्बा, जन्ताघरपीठं आदाय गन्त्वा जन्ताघरपीठं दत्वा चीवरं पटिग्गहेत्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं, चुण्णं दातब्बं, मत्तिका दातब्बा। सचे उस्सहति, जन्ताघरं पविसितब्बं। जन्ताघरं पविसन्तेन मत्तिकाय मुखं मक्खेत्वा पुरतो च पच्छतो च पटिच्छादेत्वा जन्ताघरं पविसितब्बं। न थेरे भिक्खू अनुपखज्ज निसीदितब्बं। न नवा भिक्खू आसनेन पटिबाहितब्बा। जन्ताघरे सद्धिविहारिकस्स परिकम्मं कातब्बं। जन्ताघरा निक्खमन्तेन जन्ताघरपीठं आदाय पुरतो च पच्छतो च पटिच्छादेत्वा जन्ताघरा निक्खमितब्बं।
‘‘उदकेपि सद्धिविहारिकस्स परिकम्मं कातब्बं। नहातेन पठमतरं उत्तरित्वा अत्तनो गत्तं वोदकं कत्वा निवासेत्वा सद्धिविहारिकस्स गत्ततो उदकं पमज्जितब्बं, निवासनं दातब्बं, सङ्घाटि दातब्बा। जन्ताघरपीठं आदाय पठमतरं आगन्त्वा आसनं पञ्ञपेतब्बं, पादोदकं पादपीठं पादकथलिकं उपनिक्खिपितब्बं। सद्धिविहारिको पानीयेन पुच्छितब्बो।
‘‘यस्मिं विहारे सद्धिविहारिको विहरति, सचे सो विहारो उक्लापो होति, सचे उस्सहति, सोधेतब्बो। विहारं सोधेन्तेन पठमं पत्तचीवरं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं; निसीदनपच्चत्थरणं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं; भिसिबिब्बोहनं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं; मञ्चो नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन, असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं, नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बो; पीठं नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं; मञ्चपटिपादका नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बा; खेळमल्लको नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बो; अपस्सेनफलकं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं; भूमत्थरणं यथापञ्ञत्तं सल्लक्खेत्वा नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं। सचे विहारे सन्तानकं होति, उल्लोका पठमं ओहारेतब्बं, आलोकसन्धिकण्णभागा पमज्जितब्बा। सचे गेरुकपरिकम्मकता भित्ति कण्णकिता होति, चोळकं तेमेत्वा पीळेत्वा पमज्जितब्बा। सचे काळवण्णकता भूमि कण्णकिता होति, चोळकं तेमेत्वा पीळेत्वा पमज्जितब्बा। सचे अकता होति भूमि, उदकेन परिप्फोसित्वा सम्मज्जितब्बा – मा विहारो रजेन उहञ्ञीति। सङ्कारं विचिनित्वा एकमन्तं छड्डेतब्बं।
‘‘भूमत्थरणं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। मञ्चपटिपादका ओतापेत्वा पमज्जित्वा अतिहरित्वा यथाठाने ठपेतब्बा। मञ्चो ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन, असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं, अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बो। पीठं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन, असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं, अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। भिसिबिब्बोहनं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। निसीदनपच्चत्थरणं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। खेळमल्लको ओतापेत्वा पमज्जित्वा अतिहरित्वा यथाठाने ठपेतब्बो। अपस्सेनफलकं ओतापेत्वा पमज्जित्वा अतिहरित्वा यथाठाने ठपेतब्बं। पत्तचीवरं निक्खिपितब्बं। पत्तं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन पत्तं गहेत्वा एकेन हत्थेन हेट्ठामञ्चं वा हेट्ठापीठं वा परामसित्वा पत्तो निक्खिपितब्बो। न च अनन्तरहिताय भूमिया पत्तो निक्खिपितब्बो। चीवरं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन चीवरं गहेत्वा एकेन हत्थेन चीवरवंसं वा चीवररज्जुं वा पमज्जित्वा पारतो अन्तं ओरतो भोगं कत्वा चीवरं निक्खिपितब्बं।
‘‘सचे पुरत्थिमा सरजा वाता वायन्ति, पुरत्थिमा वातपाना थकेतब्बा। सचे पच्छिमा सरजा वाता वायन्ति, पच्छिमा वातपाना थकेतब्बा। सचे उत्तरा सरजा वाता वायन्ति, उत्तरा वातपाना थकेतब्बा। सचे दक्खिणा सरजा वाता वायन्ति, दक्खिणा वातपाना थकेतब्बा। सचे सीतकालो होति, दिवा वातपाना विवरितब्बा, रत्तिं थकेतब्बा। सचे उण्हकालो होति, दिवा वातपाना थकेतब्बा, रत्तिं विवरितब्बा।
‘‘सचे परिवेणं उक्लापं होति, परिवेणं सम्मज्जितब्बं। सचे कोट्ठको उक्लापो होति, कोट्ठको सम्मज्जितब्बो। सचे उपट्ठानसाला उक्लापा होति, उपट्ठानसाला सम्मज्जितब्बा। सचे अग्गिसाला उक्लापा होति, अग्गिसाला सम्मज्जितब्बा। सचे वच्चकुटि उक्लापा होति, वच्चकुटि सम्मज्जितब्बा। सचे पानीयं न होति, पानीयं उपट्ठापेतब्बं। सचे परिभोजनीयं न होति, परिभोजनीयं उपट्ठापेतब्बं। सचे आचमनकुम्भिया उदकं न होति, आचमनकुम्भिया उदकं आसिञ्चितब्बं।
‘‘सचे सद्धिविहारिकस्स अनभिरति उप्पन्ना होति, उपज्झायेन वूपकासेतब्बो, वूपकासापेतब्बो, धम्मकथा वास्स कातब्बा। सचे सद्धिविहारिकस्स कुक्कुच्चं उप्पन्नं होति, उपज्झायेन विनोदेतब्बं, विनोदापेतब्बं, धम्मकथा वास्स कातब्बा । सचे सद्धिविहारिकस्स दिट्ठिगतं उप्पन्नं होति, उपज्झायेन विवेचेतब्बं, विवेचापेतब्बं, धम्मकथा वास्स कातब्बा। सचे सद्धिविहारिको गरुधम्मं अज्झापन्नो होति परिवासारहो, उपज्झायेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो सद्धिविहारिकस्स परिवासं ददेय्याति। सचे सद्धिविहारिको मूलाय पटिकस्सनारहो होति, उपज्झायेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो सद्धिविहारिकं मूलाय पटिकस्सेय्याति। सचे सद्धिविहारिको मानत्तारहो होति, उपज्झायेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो सद्धिविहारिकस्स मानत्तं ददेय्याति। सचे सद्धिविहारिको अब्भानारहो होति, उपज्झायेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो सद्धिविहारिकं अब्भेय्याति। सचे सङ्घो सद्धिविहारिकस्स कम्मं कत्तुकामो होति, तज्जनीयं वा नियस्सं वा पब्बाजनीयं वा पटिसारणीयं वा उक्खेपनीयं वा, उपज्झायेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो सद्धिविहारिकस्स कम्मं न करेय्य, लहुकाय वा परिणामेय्याति। कतं वा पनस्स होति सङ्घेन कम्मं, तज्जनीयं वा नियस्सं वा पब्बाजनीयं वा पटिसारणीयं वा उक्खेपनीयं वा, उपज्झायेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सद्धिविहारिको सम्मा वत्तेय्य, लोमं पातेय्य, नेत्थारं वत्तेय्य, सङ्घो तं कम्मं पटिप्पस्सम्भेय्याति।
‘‘सचे सद्धिविहारिकस्स चीवरं धोवितब्बं होति, उपज्झायेन आचिक्खितब्बं एवं धोवेय्यासीति , उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो सद्धिविहारिकस्स चीवरं धोवियेथाति। सचे सद्धिविहारिकस्स चीवरं कातब्बं होति, उपज्झायेन आचिक्खितब्बं एवं करेय्यासीति, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो सद्धिविहारिकस्स चीवरं करियेथाति। सचे सद्धिविहारिकस्स रजनं पचितब्बं होति, उपज्झायेन आचिक्खितब्बं एवं पचेय्यासीति, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो सद्धिविहारिकस्स रजनं पचियेथाति। सचे सद्धिविहारिकस्स चीवरं रजितब्बं होति, उपज्झायेन आचिक्खितब्बं, एवं रजेय्यासीति, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो सद्धिविहारिकस्स चीवरं रजियेथाति। चीवरं रजन्तेन साधुकं सम्परिवत्तकं सम्परिवत्तकं रजितब्बं। न च अच्छिन्ने थेवे पक्कमितब्बं। सचे सद्धिविहारिको गिलानो होति, यावजीवं उपट्ठातब्बो, वुट्ठानमस्स आगमेतब्ब’’न्ति।
सद्धिविहारिकवत्तं निट्ठितं।
१७. पणामितकथा
६८. तेन खो पन समयेन सद्धिविहारिका उपज्झायेसु न सम्मा वत्तन्ति। ये ते भिक्खू अप्पिच्छा…पे॰… ते उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘कथञ्हि नाम सद्धिविहारिका उपज्झायेसु न सम्मा वत्तिस्सन्ती’’ति। अथ खो ते भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं…पे॰… सच्चं किर, भिक्खवे, सद्धिविहारिका उपज्झायेसु न सम्मा वत्तन्तीति? सच्चं भगवाति। विगरहि बुद्धो भगवा…पे॰… कथञ्हि नाम, भिक्खवे, सद्धिविहारिका उपज्झायेसु न सम्मा वत्तिस्सन्तीति…पे॰… विगरहित्वा…पे॰… धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘न, भिक्खवे, सद्धिविहारिकेन उपज्झायम्हि न सम्मा वत्तितब्बं। यो न सम्मा वत्तेय्य, आपत्ति दुक्कटस्सा’’ति । नेव सम्मा वत्तन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, असम्मावत्तन्तं पणामेतुं। एवञ्च पन, भिक्खवे, पणामेतब्बो – ‘‘पणामेमि त’’न्ति वा, ‘‘मायिध पटिक्कमी’’ति वा, ‘‘नीहर ते पत्तचीवर’’न्ति वा, ‘‘नाहं तया उपट्ठातब्बो’’ति वा, कायेन विञ्ञापेति, वाचाय विञ्ञापेति, कायेन वाचाय विञ्ञापेति, पणामितो होति सद्धिविहारिको; न कायेन विञ्ञापेति, न वाचाय विञ्ञापेति, न कायेन वाचाय विञ्ञापेति, न पणामितो होति सद्धिविहारिकोति।
तेन खो पन समयेन सद्धिविहारिका पणामिता न खमापेन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, खमापेतुन्ति। नेव खमापेन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं । न, भिक्खवे, पणामितेन न खमापेतब्बो। यो न खमापेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
तेन खो पन समयेन उपज्झाया खमापियमाना न खमन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, खमितुन्ति। नेव खमन्ति। सद्धिविहारिका पक्कमन्तिपि विब्भमन्तिपि तित्थियेसुपि सङ्कमन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, खमापियमानेन न खमितब्बं। यो न खमेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
तेन खो पन समयेन उपज्झाया सम्मावत्तन्तं पणामेन्ति, असम्मावत्तन्तं न पणामेन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, सम्मावत्तन्तो पणामेतब्बो। यो पणामेय्य , आपत्ति दुक्कटस्स । न च, भिक्खवे, असम्मावत्तन्तो न पणामेतब्बो। यो न पणामेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
‘‘पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतो सद्धिविहारिको पणामेतब्बो। उपज्झायम्हि नाधिमत्तं पेमं होति, नाधिमत्तो पसादो होति, नाधिमत्ता हिरी होति, नाधिमत्तो गारवो होति, नाधिमत्ता भावना होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतो सद्धिविहारिको पणामेतब्बो।
‘‘पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतो सद्धिविहारिको न पणामेतब्बो। उपज्झायम्हि अधिमत्तं पेमं होति, अधिमत्तो पसादो होति, अधिमत्ता हिरी होति, अधिमत्तो गारवो होति, अधिमत्ता भावना होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतो सद्धिविहारिको न पणामेतब्बो।
‘‘पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतो सद्धिविहारिको अलं पणामेतुं। उपज्झायम्हि नाधिमत्तं पेमं होति, नाधिमत्तो पसादो होति, नाधिमत्ता हिरी होति, नाधिमत्ता गारवो होति, नाधिमत्ता भावना होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतो सद्धिविहारिको अलं पणामेतुं।
‘‘पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतो सद्धिविहारिको नालं पणामेतुं। उपज्झायम्हि अधिमत्तं पेमं होति, अधिमत्तो पसादो होति, अधिमत्ता हिरी होति, अधिमत्तो गारवो होति, अधिमत्ता भावना होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतो सद्धिविहारिको नालं पणामेतुं।
‘‘पञ्चहि , भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतं सद्धिविहारिकं अप्पणामेन्तो उपज्झायो सातिसारो होति, पणामेन्तो अनतिसारो होति। उपज्झायम्हि नाधिमत्तं पेमं होति, नाधिमत्तो पसादो होति, नाधिमत्ता हिरी होति, नाधिमत्तो गारवो होति, नाधिमत्ता भावना होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतं सद्धिविहारिकं अप्पणामेन्तो उपज्झायो सातिसारो होति, पणामेन्तो अनतिसारो होति।
‘‘पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतं सद्धिविहारिकं पणामेन्तो उपज्झायो सातिसारो होति, अप्पणामेन्तो अनतिसारो होति। उपज्झायम्हि अधिमत्तं पेमं होति, अधिमत्तो पसादो होति, अधिमत्ता हिरी होति, अधिमत्तो गारवो होति, अधिमत्ता भावना होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतं सद्धिविहारिकं पणामेन्तो उपज्झायो सातिसारो होति, अप्पणामेन्तो अनतिसारो होती’’ति।
६९. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो ब्राह्मणो भिक्खू उपसङ्कमित्वा पब्बज्जं याचि। तं भिक्खू न इच्छिंसु पब्बाजेतुं। सो भिक्खूसु पब्बज्जं अलभमानो किसो अहोसि लूखो दुब्बण्णो उप्पण्डुप्पण्डुकजातो धमनिसन्थतगत्तो। अद्दसा खो भगवा तं ब्राह्मणं किसं लूखं दुब्बण्णं उप्पण्डुप्पण्डुकजातं धमनिसन्थतगत्तं, दिस्वान भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘किं नु खो सो, भिक्खवे, ब्राह्मणो किसो लूखो दुब्बण्णो उप्पण्डुप्पण्डुकजातो धमनिसन्थतगत्तो’’ति? एसो, भन्ते, ब्राह्मणो भिक्खू उपसङ्कमित्वा पब्बज्जं याचि। तं भिक्खू न इच्छिंसु पब्बाजेतुं। सो भिक्खूसु पब्बज्जं अलभमानो किसो लूखो दुब्बण्णो उप्पण्डुप्पण्डुकजातो धमनिसन्थतगत्तोति। अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘को नु खो, भिक्खवे, तस्स ब्राह्मणस्स अधिकारं सरसी’’ति? एवं वुत्ते आयस्मा सारिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अहं खो, भन्ते, तस्स ब्राह्मणस्स अधिकारं सरामी’’ति। ‘‘किं पन त्वं, सारिपुत्त, तस्स ब्राह्मणस्स अधिकारं सरसी’’ति? ‘‘इध मे, भन्ते, सो ब्राह्मणो राजगहे पिण्डाय चरन्तस्स कटच्छुभिक्खं दापेसि। इमं खो अहं, भन्ते, तस्स ब्राह्मणस्स अधिकारं सरामी’’ति। ‘‘साधु साधु, सारिपुत्त, कतञ्ञुनो हि, सारिपुत्त, सप्पुरिसा कतवेदिनो। तेन हि त्वं, सारिपुत्त, तं ब्राह्मणं पब्बाजेहि उपसम्पादेही’’ति । ‘‘कथाहं, भन्ते , तं ब्राह्मणं पब्बाजेमि उपसम्पादेमी’’ति? अथ खो भगवा एतस्मिं निदाने एतस्मिं पकरणे धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि – या सा, भिक्खवे, मया तीहि सरणगमनेहि उपसम्पदा अनुञ्ञाता, तं अज्जतग्गे पटिक्खिपामि। अनुजानामि, भिक्खवे, ञत्तिचतुत्थेन कम्मेन उपसम्पादेतुं [उपसम्पदं (सी॰ स्या॰)]। एवञ्च पन, भिक्खवे, उपसम्पादेतब्बो। ब्यत्तेन भिक्खुना पटिबलेन सङ्घो ञापेतब्बो –
७०. ‘‘सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो। अयं इत्थन्नामो इत्थन्नामस्स आयस्मतो उपसम्पदापेक्खो। यदि सङ्घस्स पत्तकल्लं, सङ्घो इत्थन्नामं उपसम्पादेय्य इत्थन्नामेन उपज्झायेन। एसा ञत्ति।
‘‘सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो। अयं इत्थन्नामो इत्थन्नामस्स आयस्मतो उपसम्पदापेक्खो। सङ्घो इत्थन्नामं उपसम्पादेति इत्थन्नामेन उपज्झायेन। यस्सायस्मतो खमति इत्थन्नामस्स उपसम्पदा इत्थन्नामेन उपज्झायेन, सो तुण्हस्स; यस्स नक्खमति, सो भासेय्य।
‘‘दुतियम्पि एतमत्थं वदामि – सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो। अयं इत्थन्नामो इत्थन्नामस्स आयस्मतो उपसम्पदापेक्खो। सङ्घो इत्थन्नामं उपसम्पादेति इत्थन्नामेन उपज्झायेन। यस्सायस्मतो खमति इत्थन्नामस्स उपसम्पदा इत्थन्नामेन उपज्झायेन, सो तुण्हस्स; यस्स नक्खमति, सो भासेय्य ।
‘‘ततियम्पि एतमत्थं वदामि – सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो। अयं इत्थन्नामो इत्थन्नामस्स आयस्मतो उपसम्पदापेक्खो। सङ्घो इत्थन्नामं उपसम्पादेति इत्थन्नामेन उपज्झायेन। यस्सायस्मतो खमति इत्थन्नामस्स उपसम्पदा इत्थन्नामेन उपज्झायेन, सो तुण्हस्स; यस्स नक्खमति, सो भासेय्य।
‘‘उपसम्पन्नो सङ्घेन इत्थन्नामो इत्थन्नामेन उपज्झायेन। खमति सङ्घस्स, तस्मा तुण्ही, एवमेतं धारयामी’’ति।
७१. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो भिक्खु उपसम्पन्नसमनन्तरा अनाचारं आचरति। भिक्खू एवमाहंसु – ‘‘मावुसो, एवरूपं अकासि, नेतं कप्पती’’ति। सो एवमाह – ‘‘नेवाहं आयस्मन्ते याचिं उपसम्पादेथ मन्ति। किस्स मं तुम्हे अयाचिता उपसम्पादित्था’’ति? भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं । न, भिक्खवे, अयाचितेन उपसम्पादेतब्बो । यो उपसम्पादेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स। अनुजानामि, भिक्खवे, याचितेन उपसम्पादेतुं। एवञ्च पन, भिक्खवे, याचितब्बो। तेन उपसम्पदापेक्खेन सङ्घं उपसङ्कमित्वा एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा भिक्खूनं पादे वन्दित्वा उक्कुटिकं निसीदित्वा अञ्जलिं पग्गहेत्वा एवमस्स वचनीयो – ‘‘सङ्घं, भन्ते, उपसम्पदं याचामि, उल्लुम्पतु मं, भन्ते, सङ्घो अनुकम्पं उपादाया’’ति। दुतियम्पि याचितब्बो। ततियम्पि याचितब्बो। ब्यत्तेन भिक्खुना पटिबलेन सङ्घो ञापेतब्बो –
७२. ‘‘सुणातु मे, भन्ते , सङ्घो। अयं इत्थन्नामो इत्थन्नामस्स आयस्मतो उपसम्पदापेक्खो। इत्थन्नामो सङ्घं उपसम्पदं याचति इत्थन्नामेन उपज्झायेन। यदि सङ्घस्स पत्तकल्लं, सङ्घो इत्थन्नामं उपसम्पादेय्य इत्थन्नामेन उपज्झायेन। एसा ञत्ति।
‘‘सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो। अयं इत्थन्नामो इत्थन्नामस्स आयस्मतो उपसम्पदापेक्खो। इत्थन्नामो सङ्घं उपसम्पदं याचति इत्थन्नामेन उपज्झायेन। सङ्घो इत्थन्नामं उपसम्पादेति इत्थन्नामेन उपज्झायेन। यस्सायस्मतो खमति इत्थन्नामस्स उपसम्पदा इत्थन्नामेन उपज्झायेन, सो तुण्हस्स; यस्स नक्खमति, सो भासेय्य।
‘‘दुतियम्पि एतमत्थं वदामि…पे॰… ततियम्पि एतमत्थं वदामि…पे॰…।
‘‘उपसम्पन्नो सङ्घेन इत्थन्नामो इत्थन्नामेन उपज्झायेन। खमति सङ्घस्स, तस्मा तुण्ही, एवमेतं धारयामी’’ति।
७३. तेन खो पन समयेन राजगहे पणीतानं भत्तानं भत्तपटिपाटि अट्ठिता [अधिट्ठिता (क॰)] होति। अथ खो अञ्ञतरस्स ब्राह्मणस्स एतदहोसि – ‘‘इमे खो समणा सक्यपुत्तिया सुखसीला सुखसमाचारा, सुभोजनानि भुञ्जित्वा निवातेसु सयनेसु सयन्ति। यंनूनाहं समणेसु सक्यपुत्तियेसु पब्बजेय्य’’न्ति। अथ खो सो ब्राह्मणो भिक्खू उपसङ्कमित्वा पब्बज्जं याचि। तं भिक्खू पब्बाजेसुं उपसम्पादेसुं। तस्मिं पब्बजिते भत्तपटिपाटि खीयित्थ। भिक्खू एवमाहंसु – ‘‘एहि दानि, आवुसो, पिण्डाय चरिस्सामा’’ति। सो एवमाह – ‘‘नाहं, आवुसो, एतंकारणा पब्बजितो पिण्डाय चरिस्सामीति। सचे मे दस्सथ भुञ्जिस्सामि , नो चे मे दस्सथ विब्भमिस्सामी’’ति। ‘‘किं पन त्वं, आवुसो, उदरस्स कारणा पब्बजितो’’ति ? ‘‘एवमावुसो’’ति। ये ते भिक्खू अप्पिच्छा…पे॰… ते उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – कथञ्हि नाम भिक्खु एवं स्वाक्खाते धम्मविनये उदरस्स कारणा पब्बजिस्सतीति। ते भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं…पे॰… सच्चं किर त्वं, भिक्खु, उदरस्स कारणा पब्बजितोति? सच्चं भगवाति। विगरहि बुद्धो भगवा…पे॰… ‘‘कथञ्हि नाम त्वं, मोघपुरिस, एवं स्वाक्खाते धम्मविनये उदरस्स कारणा पब्बजिस्ससि। नेतं, मोघपुरिस, अप्पसन्नानं वा पसादाय पसन्नानं वा भिय्योभावाय’’…पे॰… विगरहित्वा…पे॰… धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘अनुजानामि, भिक्खवे, उपसम्पादेन्तेन चत्तारो निस्सये आचिक्खितुं – पिण्डियालोपभोजनं निस्साय पब्बज्जा, तत्थ ते यावजीवं उस्साहो करणीयो; अतिरेकलाभो – सङ्घभत्तं, उद्देसभत्तं, निमन्तनं, सलाकभत्तं, पक्खिकं, उपोसथिकं, पाटिपदिकं। पंसुकूलचीवरं निस्साय पब्बज्जा, तत्थ ते यावजीवं उस्साहो करणीयो; अतिरेकलाभो – खोमं, कप्पासिकं, कोसेय्यं, कम्बलं, साणं, भङ्गं। रुक्खमूलसेनासनं निस्साय पब्बज्जा, तत्थ ते यावजीवं उस्साहो करणीयो; अतिरेकलाभो – विहारो , अड्ढयोगो, पासादो, हम्मियं, गुहा। पूतिमुत्तभेसज्जं निस्साय पब्बज्जा, तत्थ ते यावजीवं उस्साहो करणीयो; अतिरेकलाभो – सप्पि, नवनीतं, तेलं, मधु, फाणित’’न्ति।
पणामितकथा निट्ठिता।
उपज्झायवत्तभाणवारो निट्ठितो पञ्चमो।
पञ्चमभाणवारो
१८. आचरियवत्तकथा
७४. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो माणवको भिक्खू उपसङ्कमित्वा पब्बज्जं याचि। तस्स भिक्खू पटिकच्चेव निस्सये आचिक्खिंसु। सो एवमाह – ‘‘सचे मे, भन्ते, पब्बजिते निस्सये आचिक्खेय्याथ, अभिरमेय्यामहं [अभिरमेय्यञ्चाहं (सी॰), अभिरमेय्यं स्वाहं (क॰)]। न दानाहं, भन्ते, पब्बजिस्सामि; जेगुच्छा मे निस्सया पटिकूला’’ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, पटिकच्चेव निस्सया आचिक्खितब्बा। यो आचिक्खेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स। अनुजानामि, भिक्खवे, उपसम्पन्नसमनन्तरा निस्सये आचिक्खितुन्ति।
तेन खो पन समयेन भिक्खू दुवग्गेनपि तिवग्गेनपि गणेन उपसम्पादेन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, ऊनदसवग्गेन गणेन उपसम्पादेतब्बो। यो उपसम्पादेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स। अनुजानामि, भिक्खवे, दसवग्गेन वा अतिरेकदसवग्गेन वा गणेन उपसम्पादेतुन्ति ।
७५. तेन खो पन समयेन भिक्खू एकवस्सापि दुवस्सापि सद्धिविहारिकं उपसम्पादेन्ति। आयस्मापि उपसेनो वङ्गन्तपुत्तो एकवस्सो सद्धिविहारिकं उपसम्पादेसि। सो वस्संवुट्ठो दुवस्सो एकवस्सं सद्धिविहारिकं आदाय येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। आचिण्णं खो पनेतं बुद्धानं भगवन्तानं आगन्तुकेहि भिक्खूहि सद्धिं पटिसम्मोदितुं। अथ खो भगवा आयस्मन्तं उपसेनं वङ्गन्तपुत्तं एतदवोच – ‘‘कच्चि, भिक्खु, खमनीयं, कच्चि यापनीयं, कच्चि त्वं अप्पकिलमथेन अद्धानं आगतो’’ति? ‘‘खमनीयं, भगवा, यापनीयं, भगवा। अप्पकिलमथेन मयं, भन्ते, अद्धानं आगता’’ति। जानन्तापि तथागता पुच्छन्ति, जानन्तापि न पुच्छन्ति, कालं विदित्वा पुच्छन्ति, कालं विदित्वा न पुच्छन्ति; अत्थसंहितं तथागता पुच्छन्ति; नो अनत्थसंहितं। अनत्थसंहिते सेतुघातो तथागतानं। द्वीहि आकारेहि बुद्धा भगवन्तो भिक्खू पटिपुच्छन्ति – धम्मं वा देसेस्साम, सावकानं वा सिक्खापदं पञ्ञपेस्सामाति। अथ खो भगवा आयस्मन्तं उपसेनं वङ्गन्तपुत्तं एतदवोच – ‘‘कतिवस्सोसि त्वं, भिक्खू’’ति? ‘‘दुवस्सोहं, भगवा’’ति। ‘‘अयं पन भिक्खु कतिवस्सो’’ति? ‘‘एकवस्सो, भगवा’’ति। ‘‘किं तायं भिक्खु होती’’ति? ‘‘सद्धिविहारिको मे, भगवा’’ति। विगरहि बुद्धो भगवा – ‘‘अननुच्छविकं, मोघपुरिस, अननुलोमिकं अप्पतिरूपं अस्सामणकं अकप्पियं अकरणीयं। कथञ्हि नाम त्वं, मोघपुरिस, अञ्ञेहि ओवदियो अनुसासियो अञ्ञं ओवदितुं अनुसासितुं मञ्ञिस्ससि। अतिलहुं खो त्वं, मोघपुरिस, बाहुल्लाय आवत्तो, यदिदं गणबन्धिकं। नेतं, मोघपुरिस, अप्पसन्नानं वा पसादाय पसन्नानं वा भिय्योभावाय’’…पे॰… विगरहित्वा…पे॰… धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘न, भिक्खवे, ऊनदसवस्सेन उपसम्पादेतब्बो। यो उपसम्पादेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स। अनुजानामि, भिक्खवे, दसवस्सेन वा अतिरेकदसवस्सेन वा उपसम्पादेतु’’न्ति।
७६. तेन खो पन समयेन भिक्खू – दसवस्सम्हा दसवस्सम्हाति – बाला अब्यत्ता उपसम्पादेन्ति। दिस्सन्ति उपज्झाया बाला, सद्धिविहारिका पण्डिता। दिस्सन्ति उपज्झाया अब्यत्ता, सद्धिविहारिका ब्यत्ता। दिस्सन्ति उपज्झाया अप्पस्सुता, सद्धिविहारिका बहुस्सुता। दिस्सन्ति उपज्झाया दुप्पञ्ञा, सद्धिविहारिका पञ्ञवन्तो। अञ्ञतरोपि अञ्ञतित्थियपुब्बो उपज्झायेन सहधम्मिकं वुच्चमानो उपज्झायस्स वादं आरोपेत्वा तंयेव तित्थायतनं सङ्कमि। ये ते भिक्खू अप्पिच्छा…पे॰… ते उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – कथञ्हि नाम भिक्खू – दसवस्सम्हा दसवस्सम्हाति – बाला अब्यत्ता उपसम्पादेस्सन्ति। दिस्सन्ति उपज्झाया बाला सद्धिविहारिका पण्डिता, दिस्सन्ति उपज्झाया अब्यत्ता सद्धिविहारिका ब्यत्ता, दिस्सन्ति उपज्झाया अप्पस्सुता सद्धिविहारिका बहुस्सुता, दिस्सन्ति उपज्झाया दुप्पञ्ञा, सद्धिविहारिका पञ्ञवन्तोति। अथ खो ते भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। ‘‘सच्चं किर, भिक्खवे, भिक्खू – दसवस्सम्हा दसवस्सम्हाति – बाला अब्यत्ता उपसम्पादेन्ति। दिस्सन्ति उपज्झाया बाला, सद्धिविहारिका पण्डिता, दिस्सन्ति उपज्झाया अब्यत्ता सद्धिविहारिका ब्यत्ता, दिस्सन्ति उपज्झाया अप्पस्सुता, सद्धिविहारिका बहुस्सुता, दिस्सन्ति उपज्झाया दुप्पञ्ञा, सद्धिविहारिका पञ्ञवन्तो’’ति? ‘‘सच्चं, भगवा’’ति। विगरहि बुद्धो भगवा…पे॰… कथञ्हि नाम ते, भिक्खवे, मोघपुरिसा – दसवस्सम्हा दसवस्सम्हाति – बाला अब्यत्ता उपसम्पादेस्सन्ति। दिस्सन्ति उपज्झाया बाला, सद्धिविहारिका पण्डिता, दिस्सन्ति उपज्झाया अब्यत्ता सद्धिविहारिका ब्यत्ता, दिस्सन्ति उपज्झाया अप्पस्सुता, सद्धिविहारिका बहुस्सुता, दिस्सन्ति उपज्झाया दुप्पञ्ञा, सद्धिविहारिका पञ्ञवन्तो। नेतं, भिक्खवे, अप्पसन्नानं वा पसादाय…पे॰… विगरहित्वा…पे॰… धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘न, भिक्खवे, बालेन अब्यत्तेन उपसम्पादेतब्बो। यो उपसम्पादेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स। अनुजानामि, भिक्खवे, ब्यत्तेन भिक्खुना पटिबलेन दसवस्सेन वा अतिरेकदसवस्सेन वा उपसम्पादेतु’’न्ति।
७७. तेन खो पन समयेन भिक्खू उपज्झायेसु पक्कन्तेसुपि विब्भन्तेसुपि कालङ्कतेसुपि पक्खसङ्कन्तेसुपि अनाचरियका अनोवदियमाना अननुसासियमाना दुन्निवत्था दुप्पारुता अनाकप्पसम्पन्ना पिण्डाय चरन्ति, मनुस्सानं भुञ्जमानानं उपरिभोजनेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेन्ति, उपरिखादनीयेपि – उपरिसायनीयेपि – उपरिपानीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेन्ति; सामं सूपम्पि ओदनम्पि विञ्ञापेत्वा भुञ्जन्ति; भत्तग्गेपि उच्चासद्दा महासद्दा विहरन्ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘कथञ्हि नाम समणा सक्यपुत्तिया दुन्निवत्था दुप्पारुता अनाकप्पसम्पन्ना पिण्डाय चरिस्सन्ति; मनुस्सानं भुञ्जमानानं उपरिभोजनेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेस्सन्ति, उपरिखादनीयेपि – उपरिसायनीयेपि – उपरिपानीयेपि उत्तिट्ठपत्तं उपनामेस्सन्ति; सामं सूपम्पि ओदनम्पि विञ्ञापेत्वा भुञ्जिस्सन्ति; भत्तग्गेपि उच्चासद्दा महासद्दा विहरिस्सन्ति, सेय्यथापि ब्राह्मणा ब्राह्मणभोजने’’ति। अस्सोसुं खो भिक्खू तेसं मनुस्सानं उज्झायन्तानं खिय्यन्तानं विपाचेन्तानं …पे॰… अथ खो ते भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। सच्चं किर, भिक्खवे…पे॰… सच्चं, भगवाति…पे॰… विगरहित्वा धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि –
‘‘अनुजानामि, भिक्खवे, आचरियं। आचरियो, भिक्खवे, अन्तेवासिकम्हि पुत्तचित्तं उपट्ठापेस्सति, अन्तेवासिको आचरियम्हि पितुचित्तं उपट्ठापेस्सति। एवं ते अञ्ञमञ्ञं सगारवा सप्पतिस्सा सभागवुत्तिनो विहरन्ता इमस्मिं धम्मविनये वुद्धिं विरुळ्हिं वेपुल्लं आपज्जिस्सन्ति। अनुजानामि, भिक्खवे, दसवस्सं निस्साय वत्थुं, दसवस्सेन निस्सयं दातुं। एवञ्च पन, भिक्खवे, आचरियो गहेतब्बो। एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा पादे वन्दित्वा उक्कुटिकं निसीदित्वा अञ्जलिं पग्गहेत्वा एवमस्स वचनीयो – ‘आचरियो मे, भन्ते, होहि, आयस्मतो निस्साय वच्छामि; आचरियो मे, भन्ते, होहि, आयस्मतो निस्साय वच्छामि; आचरियो मे, भन्ते, होहि, आयस्मतो निस्साय वच्छामी’ति। ‘साहूति’ वा ‘लहूति’ वा ‘ओपायिक’न्ति वा ‘पतिरूप’न्ति वा ‘पासादिकेन सम्पादेही’ति वा कायेन विञ्ञापेति, वाचाय विञ्ञापेति, कायेन वाचाय विञ्ञापेति, गहितो होति आचरियो; न कायेन विञ्ञापेति, न वाचाय विञ्ञापेति, न कायेन वाचाय विञ्ञापेति, न गहितो होति आचरियो।
७८. [चूळव॰ ३८० आदयो] ‘‘अन्तेवासिकेन , भिक्खवे, आचरियम्हि सम्मा वत्तितब्बं। तत्रायं सम्मावत्तना –
‘‘कालस्सेव उट्ठाय उपाहनं ओमुञ्चित्वा एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा दन्तकट्ठं दातब्बं, मुखोदकं दातब्बं, आसनं पञ्ञपेतब्बं। सचे यागु होति, भाजनं धोवित्वा यागु उपनामेतब्बा । यागुं पीतस्स उदकं दत्वा भाजनं पटिग्गहेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन धोवित्वा पटिसामेतब्बं। आचरियम्हि वुट्ठिते आसनं उद्धरितब्बं। सचे सो देसो उक्लापो होति, सो देसो सम्मज्जितब्बो।
‘‘सचे आचरियो गामं पविसितुकामो होति, निवासनं दातब्बं, पटिनिवासनं पटिग्गहेतब्बं, कायबन्धनं दातब्बं, सगुणं कत्वा सङ्घाटियो दातब्बा, धोवित्वा पत्तो सोदको दातब्बो। सचे आचरियो पच्छासमणं आकङ्खति, तिमण्डलं पटिच्छादेन्तेन परिमण्डलं निवासेत्वा कायबन्धनं बन्धित्वा सगुणं कत्वा सङ्घाटियो पारुपित्वा गण्ठिकं पटिमुञ्चित्वा धोवित्वा पत्तं गहेत्वा आचरियस्स पच्छासमणेन होतब्बं। नातिदूरे गन्तब्बं, नाच्चासन्ने गन्तब्बं, पत्तपरियापन्नं पटिग्गहेतब्बं। न आचरियस्स भणमानस्स अन्तरन्तरा कथा ओपातेतब्बा। आचरियो आपत्तिसामन्ता भणमानो निवारेतब्बो।
‘‘निवत्तन्तेन पठमतरं आगन्त्वा आसनं पञ्ञपेतब्बं, पादोदकं पादपीठं पादकथलिकं उपनिक्खिपितब्बं, पच्चुग्गन्त्वा पत्तचीवरं पटिग्गहेतब्बं, पटिनिवासनं दातब्बं, निवासनं पटिग्गहेतब्बं। सचे चीवरं सिन्नं होति, मुहुत्तं उण्हे ओतापेतब्बं, न च उण्हे चीवरं निदहितब्बं। चीवरं सङ्घरितब्बं। चीवरं सङ्घरन्तेन चतुरङ्गुलं कण्णं उस्सारेत्वा चीवरं सङ्घरितब्बं – मा मज्झे भङ्गो अहोसीति। ओभोगे कायबन्धनं कातब्बं।
‘‘सचे पिण्डपातो होति , आचरियो च भुञ्जितुकामो होति, उदकं दत्वा पिण्डपातो उपनामेतब्बो। आचरियो पानीयेन पुच्छितब्बो। भुत्ताविस्स उदकं दत्वा पत्तं पटिग्गहेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन धोवित्वा वोदकं कत्वा मुहुत्तं उण्हे ओतापेतब्बो, न च उण्हे पत्तो निदहितब्बो। पत्तचीवरं निक्खिपितब्बं। पत्तं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन पत्तं गहेत्वा एकेन हत्थेन हेट्ठामञ्चं वा हेट्ठापीठं वा परामसित्वा पत्तो निक्खिपितब्बो। न च अनन्तरहिताय भूमिया पत्तो निक्खिपितब्बो। चीवरं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन चीवरं गहेत्वा एकेन हत्थेन चीवरवंसं वा चीवररज्जुं वा पमज्जित्वा पारतो अन्तं ओरतो भोगं कत्वा चीवरं निक्खिपितब्बं। आचरियम्हि वुट्ठिते आसनं उद्धरितब्बं, पादोदकं पादपीठं पादकथलिकं पटिसामेतब्बं। सचे सो देसो उक्लापो होति, सो देसो सम्मज्जितब्बो।
‘‘सचे आचरियो नहायितुकामो होति, नहानं पटियादेतब्बं। सचे सीतेन अत्थो होति, सीतं पटियादेतब्बं। सचे उण्हेन अत्थो होति, उण्हं पटियादेतब्बं।
‘‘सचे आचरियो जन्ताघरं पविसितुकामो होति, चुण्णं सन्नेतब्बं, मत्तिका तेमेतब्बा, जन्ताघरपीठं आदाय आचरियस्स पिट्ठितो पिट्ठितो गन्त्वा जन्ताघरपीठं दत्वा चीवरं पटिग्गहेत्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं, चुण्णं दातब्बं, मत्तिका दातब्बा। सचे उस्सहति, जन्ताघरं पविसितब्बं। जन्ताघरं पविसन्तेन मत्तिकाय मुखं मक्खेत्वा पुरतो च पच्छतो च पटिच्छादेत्वा जन्ताघरं पविसितब्बं। न थेरे भिक्खू अनुपखज्ज निसीदितब्बं। न नवा भिक्खू आसनेन पटिबाहितब्बा। जन्ताघरे आचरियस्स परिकम्मं कातब्बं। जन्ताघरा निक्खमन्तेन जन्ताघरपीठं आदाय पुरतो च पच्छतो च पटिच्छादेत्वा जन्ताघरा निक्खमितब्बं।
‘‘उदकेपि आचरियस्स परिकम्मं कातब्बं। नहातेन पठमतरं उत्तरित्वा अत्तनो गत्तं वोदकं कत्वा निवासेत्वा आचरियस्स गत्ततो उदकं पमज्जितब्बं, निवासनं दातब्बं, सङ्घाटि दातब्बा, जन्ताघरपीठं आदाय पठमतरं आगन्त्वा आसनं पञ्ञपेतब्बं, पादोदकं पादपीठं पादकथलिकं उपनिक्खिपितब्बं। आचरियो पानीयेन पुच्छितब्बो। सचे उद्दिसापेतुकामो होति, उद्दिसापेतब्बो। सचे परिपुच्छितुकामो होति, परिपुच्छितब्बो।
‘‘यस्मिं विहारे आचरियो विहरति, सचे सो विहारो उक्लापो होति, सचे उस्सहति, सोधेतब्बो। विहारं सोधेन्तेन पठमं पत्तचीवरं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं; निसीदनपच्चत्थरणं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं; भिसिबिब्बोहनं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं; मञ्चो नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन, असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं, नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बो; पीठं नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन, असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं, नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं; मञ्चपटिपादका नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बा; खेळमल्लको नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बो ; अपस्सेनफलकं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं; भूमत्थरणं यथापञ्ञत्तं सल्लक्खेत्वा नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं। सचे विहारे सन्तानकं होति, उल्लोका पठमं ओहारेतब्बं, आलोकसन्धिकण्णभागा पमज्जितब्बा। सचे गेरुकपरिकम्मकता भित्ति कण्णकिता होति, चोळकं तेमेत्वा पीळेत्वा पमज्जितब्बा। सचे काळवण्णकता भूमि कण्णकिता होति, चोळकं तेमेत्वा पीळेत्वा पमज्जितब्बा। सचे अकता होति भूमि, उदकेन परिप्फोसित्वा सम्मज्जितब्बा – मा विहारो रजेन उहञ्ञीति। सङ्कारं विचिनित्वा एकमन्तं छड्डेतब्बं।
‘‘भूमत्थरणं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। मञ्चपटिपादका ओतापेत्वा पमज्जित्वा अतिहरित्वा यथाठाने ठपेतब्बा। मञ्चो ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन, असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं, अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बो। पीठं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन, असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं, अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। भिसिबिब्बोहनं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। निसीदनपच्चत्थरणं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। खेळमल्लको ओतापेत्वा पमज्जित्वा अतिहरित्वा यथाठाने ठपेतब्बो । अपस्सेनफलकं ओतापेत्वा पमज्जित्वा अतिहरित्वा यथाठाने ठपेतब्बं। पत्तचीवरं निक्खिपितब्बं। पत्तं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन पत्तं गहेत्वा एकेन हत्थेन हेट्ठामञ्चं वा हेट्ठापीठं वा परामसित्वा पत्तो निक्खिपितब्बो। न च अनन्तरहिताय भूमिया पत्तो निक्खिपितब्बो। चीवरं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन चीवरं गहेत्वा एकेन हत्थेन चीवरवंसं वा चीवररज्जुं वा पमज्जित्वा पारतो अन्तं ओरतो भोगं कत्वा चीवरं निक्खिपितब्बं।
‘‘सचे पुरत्थिमा सरजा वाता वायन्ति, पुरत्थिमा वातपाना थकेतब्बा। सचे पच्छिमा सरजा वाता वायन्ति, पच्छिमा वातपाना थकेतब्बा। सचे उत्तरा सरजा वाता वायन्ति, उत्तरा वातपाना थकेतब्बा । सचे दक्खिणा सरजा वाता वायन्ति, दक्खिणा वातपाना थकेतब्बा। सचे सीतकालो होति, दिवा वातपाना विवरितब्बा, रत्तिं थकेतब्बा। सचे उण्हकालो होति, दिवा वातपाना थकेतब्बा, रत्तिं विवरितब्बा।
‘‘सचे परिवेणं उक्लापं होति, परिवेणं सम्मज्जितब्बं। सचे कोट्ठको उक्लापो होति, कोट्ठको सम्मज्जितब्बो। सचे उपट्ठानसाला उक्लापा होति, उपट्ठानसाला सम्मज्जितब्बा। सचे अग्गिसाला उक्लापा होति, अग्गिसाला सम्मज्जितब्बा। सचे वच्चकुटि उक्लापा होति, वच्चकुटि सम्मज्जितब्बा। सचे पानीयं न होति, पानीयं उपट्ठापेतब्बं। सचे परिभोजनीयं न होति, परिभोजनीयं उपट्ठापेतब्बं । सचे आचमनकुम्भियं उदकं न होति, आचमनकुम्भिया उदकं आसिञ्चितब्बं।
‘‘सचे आचरियस्स अनभिरति उप्पन्ना होति, अन्तेवासिकेन वूपकासेतब्बो, वूपकासापेतब्बो, धम्मकथा वास्स कातब्बा। सचे आचरियस्स कुक्कुच्चं उप्पन्नं होति, अन्तेवासिकेन विनोदेतब्बं, विनोदापेतब्बं, धम्मकथा वास्स कातब्बा। सचे आचरियस्स दिट्ठिगतं उप्पन्नं होति, अन्तेवासिकेन विवेचेतब्बं, विवेचापेतब्बं, धम्मकथा वास्स कातब्बा। सचे आचरियो गरुधम्मं अज्झापन्नो होति परिवासारहो, अन्तेवासिकेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो आचरियस्स परिवासं ददेय्याति। सचे आचरियो मूलाय पटिकस्सनारहो होति, अन्तेवासिकेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो आचरियं मूलाय पटिकस्सेय्याति। सचे आचरियो मानत्तारहो होति, अन्तेवासिकेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो आचरियस्स मानत्तं ददेय्याति। सचे आचरियो अब्भानारहो होति, अन्तेवासिकेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो आचरियं अब्भेय्याति । सचे सङ्घो आचरियस्स कम्मं कत्तुकामो होति, तज्जनीयं वा नियस्सं वा पब्बाजनीयं वा पटिसारणीयं वा उक्खेपनीयं वा, अन्तेवासिकेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो आचरियस्स कम्मं न करेय्य, लहुकाय वा परिणामेय्याति। कतं वा पनस्स होति सङ्घेन कम्मं, तज्जनीयं वा नियस्सं वा पब्बाजनीयं वा पटिसारणीयं वा उक्खेपनीयं वा, अन्तेवासिकेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो आचरियो सम्मा वत्तेय्य, लोमं पातेय्य, नेत्थारं वत्तेय्य, सङ्घो तं कम्मं पटिप्पस्सम्भेय्याति।
‘‘सचे आचरियस्स चीवरं धोवितब्बं होति, अन्तेवासिकेन धोवितब्बं, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो आचरियस्स चीवरं धोवियेथाति। सचे आचरियस्स चीवरं कातब्बं होति, अन्तेवासिकेन कातब्बं, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो आचरियस्स चीवरं करियेथाति। सचे आचरियस्स रजनं पचितब्बं होति, अन्तेवासिकेन पचितब्बं, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो आचरियस्स रजनं पचियेथाति। सचे आचरियस्स चीवरं रजितब्बं होति, अन्तेवासिकेन रजितब्बं, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो आचरियस्स चीवरं रजियेथाति। चीवरं रजन्तेन साधुकं सम्परिवत्तकं सम्परिवत्तकं रजितब्बं, न च अच्छिन्ने थेवे पक्कमितब्बं।
‘‘न आचरियं अनापुच्छा एकच्चस्स पत्तो दातब्बो, न एकच्चस्स पत्तो पटिग्गहेतब्बो; न एकच्चस्स चीवरं दातब्बं; न एकच्चस्स चीवरं पटिग्गहेतब्बं; न एकच्चस्स परिक्खारो दातब्बो; न एकच्चस्स परिक्खारो पटिग्गहेतब्बो; न एकच्चस्स केसा छेदेतब्बा; न एकच्चेन केसा छेदापेतब्बा; न एकच्चस्स परिकम्मं कातब्बं; न एकच्चेन परिकम्मं कारापेतब्बं; न एकच्चस्स वेय्यावच्चो कातब्बो; न एकच्चेन वेय्यावच्चो कारापेतब्बो; न एकच्चस्स पच्छासमणेन होतब्बं; न एकच्चो पच्छासमणो आदातब्बो; न एकच्चस्स पिण्डपातो नीहरितब्बो; न एकच्चेन पिण्डपातो नीहरापेतब्बो। न आचरियं अनापुच्छा गामो पविसितब्बो, न सुसानं गन्तब्बं, न दिसा पक्कमितब्बा। सचे आचरियो गिलानो होति, यावजीवं उपट्ठातब्बो, वुट्ठानमस्स आगमेतब्ब’’न्ति।
आचरियवत्तं निट्ठितं।
१९. अन्तेवासिकवत्तकथा
७९. [चूळव॰ ३८१-३८२] ‘‘आचरियेन , भिक्खवे, अन्तेवासिकम्हि सम्मा वत्तितब्बं। तत्रायं सम्मावत्तना –
‘‘आचरियेन , भिक्खवे, अन्तेवासिको सङ्गहेतब्बो अनुग्गहेतब्बो उद्देसेन परिपुच्छाय ओवादेन अनुसासनिया। सचे आचरियस्स पत्तो होति, अन्तेवासिकस्स पत्तो न होति, आचरियेन अन्तेवासिकस्स पत्तो दातब्बो, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो अन्तेवासिकस्स पत्तो उप्पज्जियेथाति। सचे आचरियस्स चीवरं होति, अन्तेवासिकस्स चीवरं न होति, आचरियेन अन्तेवासिकस्स चीवरं दातब्बं, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो अन्तेवासिकस्स चीवरं उप्पज्जियेथाति। सचे आचरियस्स परिक्खारो होति, अन्तेवासिकस्स परिक्खारो न होति, आचरियेन अन्तेवासिकस्स परिक्खारो दातब्बो, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो अन्तेवासिकस्स परिक्खारो उप्पज्जियेथाति।
‘‘सचे अन्तेवासिको गिलानो होति, कालस्सेव उट्ठाय दन्तकट्ठं दातब्बं, मुखोदकं दातब्बं, आसनं पञ्ञपेतब्बं। सचे यागु होति, भाजनं धोवित्वा यागु उपनामेतब्बा। यागुं पीतस्स उदकं दत्वा भाजनं पटिग्गहेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन धोवित्वा पटिसामेतब्बं। अन्तेवासिकम्हि वुट्ठिते आसनं उद्धरितब्बं। सचे सो देसो उक्लापो होति, सो देसो सम्मज्जितब्बो।
‘‘सचे अन्तेवासिको गामं पविसितुकामो होति, निवासनं दातब्बं, पटिनिवासनं पटिग्गहेतब्बं, कायबन्धनं दातब्बं, सगुणं कत्वा सङ्घाटियो दातब्बा, धोवित्वा पत्तो सोदको दातब्बो।
‘‘एत्तावता निवत्तिस्सतीति आसनं पञ्ञपेतब्बं, पादोदकं पादपीठं पादकथलिकं उपनिक्खिपितब्बं, पच्चुग्गन्त्वा पत्तचीवरं पटिग्गहेतब्बं, पटिनिवासनं दातब्बं, निवासनं पटिग्गहेतब्बं। सचे चीवरं सिन्नं होति, मुहुत्तं उण्हे ओतापेतब्बं, न च उण्हे चीवरं निदहितब्बं। चीवरं सङ्घरितब्बं। चीवरं सङ्घरन्तेन चतुरङ्गुलं कण्णं उस्सारेत्वा चीवरं सङ्घरितब्बं – मा मज्झे भङ्गो अहोसीति। ओभोगे कायबन्धनं कातब्बं।
‘‘सचे पिण्डपातो होति, अन्तेवासिको च भुञ्जितुकामो होति, उदकं दत्वा पिण्डपातो उपनामेतब्बो। अन्तेवासिको पानीयेन पुच्छितब्बो। भुत्ताविस्स उदकं दत्वा पत्तं पटिग्गहेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन धोवित्वा वोदकं कत्वा मुहुत्तं उण्हे ओतापेतब्बो, न च उण्हे पत्तो निदहितब्बो। पत्तचीवरं निक्खिपितब्बं। पत्तं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन पत्तं गहेत्वा एकेन हत्थेन हेट्ठामञ्चं वा हेट्ठापीठं वा परामसित्वा पत्तो निक्खिपितब्बो। न च अनन्तरहिताय भूमिया पत्तो निक्खिपितब्बो। चीवरं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन चीवरं गहेत्वा एकेन हत्थेन चीवरवंसं वा चीवररज्जुं वा पमज्जित्वा पारतो अन्तं ओरतो भोगं कत्वा चीवरं निक्खिपितब्बं। अन्तेवासिकम्हि वुट्ठिते आसनं उद्धरितब्बं, पादोदकं पादपीठं पादकथलिकं पटिसामेतब्बं। सचे सो देसो उक्लापो होति, सो देसो सम्मज्जितब्बो।
‘‘सचे अन्तेवासिको नहायितुकामो होति, नहानं पटियादेतब्बं। सचे सीतेन अत्थो होति, सीतं पटियादेतब्बं। सचे उण्हेन अत्थो होति, उण्हं पटियादेतब्बं।
‘‘सचे अन्तेवासिको जन्ताघरं पविसितुकामो होति, चुण्णं सन्नेतब्बं, मत्तिका तेमेतब्बा, जन्ताघरपीठं आदाय गन्त्वा जन्ताघरपीठं दत्वा चीवरं पटिग्गहेत्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं, चुण्णं दातब्बं, मत्तिका दातब्बा। सचे उस्सहति, जन्ताघरं पविसितब्बं। जन्ताघरं पविसन्तेन मत्तिकाय मुखं मक्खेत्वा पुरतो च पच्छतो च पटिच्छादेत्वा जन्ताघरं पविसितब्बं। न च थेरे भिक्खू अनुपखज्ज निसीदितब्बं, न नवा भिक्खू आसनेन पटिबाहितब्बा। जन्ताघरे अन्तेवासिकस्स परिकम्मं कातब्बं। जन्ताघरा निक्खमन्तेन जन्ताघरपीठं आदाय पुरतो च पच्छतो च पटिच्छादेत्वा जन्ताघरा निक्खमितब्बं।
‘‘उदकेपि अन्तेवासिकस्स परिकम्मं कातब्बं। नहातेन पठमतरं उत्तरित्वा अत्तनो गत्तं वोदकं कत्वा निवासेत्वा अन्तेवासिकस्स गत्ततो उदकं पमज्जितब्बं, निवासनं दातब्बं, सङ्घाटि दातब्बा, जन्ताघरपीठं आदाय पठमतरं आगन्त्वा आसनं पञ्ञपेतब्बं, पादोदकं पादपीठं पादकथलिकं उपनिक्खिपितब्बं। अन्तेवासिको पानीयेन पुच्छितब्बो।
‘‘यस्मिं विहारे अन्तेवासिको विहरति, सचे सो विहारो उक्लापो होति, सचे उस्सहति, सोधेतब्बो। विहारं सोधेन्तेन पठमं पत्तचीवरं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं; निसीदनपच्चत्थरणं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं; भिसिबिब्बोहनं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं ; मञ्चो नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन, असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं, नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बो; पीठं नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन, असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं, नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं; मञ्चपटिपादका नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बा; खेळमल्लको नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बो; अपस्सेनफलकं नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं; भूमत्थरणं यथापञ्ञत्तं सल्लक्खेत्वा नीहरित्वा एकमन्तं निक्खिपितब्बं। सचे विहारे सन्तानकं होति, उल्लोका पठमं ओतारेतब्बं, आलोकसन्धिकण्णभागा पमज्जितब्बा। सचे गेरुकपरिकम्मकता भित्ति कण्णकिता होति, चोळकं तेमेत्वा पीळेत्वा पमज्जितब्बा। सचे काळवण्णकता भूमि कण्णकिता होति, चोळकं तेमेत्वा पीळेत्वा पमज्जितब्बा। सचे अकता होति भूमि, उदकेन परिप्फोसित्वा सम्मज्जितब्बा – मा विहारो रजेन उहञ्ञीति। सङ्कारं विचिनित्वा एकमन्तं छड्डेतब्बं।
‘‘भूमत्थरणं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। मञ्चपटिपादका ओतापेत्वा पमज्जित्वा अतिहरित्वा यथाठाने ठपेतब्बा। मञ्चो ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन, असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं, अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बो। पीठं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा नीचं कत्वा साधुकं अप्पटिघंसन्तेन, असङ्घट्टेन्तेन कवाटपिट्ठं, अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। भिसिबिब्बोहनं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। निसीदनपच्चत्थरणं ओतापेत्वा सोधेत्वा पप्फोटेत्वा अतिहरित्वा यथापञ्ञत्तं पञ्ञपेतब्बं। खेळमल्लको ओतापेत्वा पमज्जित्वा अतिहरित्वा यथाठाने ठपेतब्बो। अपस्सेनफलकं ओतापेत्वा पमज्जित्वा अतिहरित्वा यथाठाने ठपेतब्बं। पत्तचीवरं निक्खिपितब्बं। पत्तं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन पत्तं गहेत्वा एकेन हत्थेन हेट्ठामञ्चं वा हेट्ठापीठं वा परामसित्वा पत्तो निक्खिपितब्बो। न च अनन्तरहिताय भूमिया पत्तो निक्खिपितब्बो। चीवरं निक्खिपन्तेन एकेन हत्थेन चीवरं गहेत्वा एकेन हत्थेन चीवरवंसं वा चीवररज्जुं वा पमज्जित्वा पारतो अन्तं ओरतो भोगं कत्वा चीवरं निक्खिपितब्बं।
‘‘सचे पुरत्थिमा सरजा वाता वायन्ति, पुरत्थिमा वातपाना थकेतब्बा। सचे पच्छिमा सरजा वाता वायन्ति, पच्छिमा वातपाना थकेतब्बा। सचे उत्तरा सरजा वाता वायन्ति, उत्तरा वातपाना थकेतब्बा। सचे दक्खिणा सरजा वाता वायन्ति, दक्खिणा वातपाना थकेतब्बा। सचे सीतकालो होति, दिवा वातपाना विवरितब्बा, रत्तिं थकेतब्बा। सचे उण्हकालो होति, दिवा वातपाना थकेतब्बा, रत्तिं विवरितब्बा।
‘‘सचे परिवेणं उक्लापं होति, परिवेणं सम्मज्जितब्बं। सचे कोट्ठको उक्लापो होति, कोट्ठको सम्मज्जितब्बो। सचे उपट्ठानसाला उक्लापा होति, उपट्ठानसाला सम्मज्जितब्बा। सचे अग्गिसाला उक्लापा होति, अग्गिसाला सम्मज्जितब्बा। सचे वच्चकुटि उक्लापा होति, वच्चकुटि सम्मज्जितब्बा। सचे पानीयं न होति, पानीयं उपट्ठापेतब्बं। सचे परिभोजनीयं न होति, परिभोजनीयं उपट्ठापेतब्बं। सचे आचमनकुम्भिया उदकं न होति, आचमनकुम्भिया उदकं आसिञ्चितब्बं।
‘‘सचे अन्तेवासिकस्स अनभिरति उप्पन्ना होति, आचरियेन वूपकासेतब्बो, वूपकासापेतब्बो, धम्मकथा वास्स कातब्बा। सचे अन्तेवासिकस्स कुक्कुच्चं उप्पन्नं होति, आचरियेन विनोदेतब्बं, विनोदापेतब्बं, धम्मकथा वास्स कातब्बा। सचे अन्तेवासिकस्स दिट्ठिगतं उप्पन्नं होति, आचरियेन विवेचेतब्बं, विवेचापेतब्बं, धम्मकथा वास्स कातब्बा। सचे अन्तेवासिको गरुधम्मं अज्झापन्नो होति परिवासारहो, आचरियेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो, अन्तेवासिकस्स परिवासं ददेय्याति। सचे अन्तेवासिको मूलाय पटिकस्सनारहो होति, आचरियेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो अन्तेवासिकं मूलाय पटिकस्सेय्याति। सचे अन्तेवासिको मानत्तारहो होति, आचरियेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो अन्तेवासिकस्स मानत्तं ददेय्याति। सचे अन्तेवासिको अब्भानारहो होति, आचरियेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो अन्तेवासिकं अब्भेय्याति। सचे सङ्घो अन्तेवासिकस्स कम्मं कत्तुकामो होति, तज्जनीयं वा नियस्सं वा पब्बाजनीयं वा पटिसारणीयं वा उक्खेपनीयं वा, आचरियेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो सङ्घो अन्तेवासिकस्स कम्मं न करेय्य, लहुकाय वा परिणामेय्याति। कतं वा पनस्स होति सङ्घेन कम्मं, तज्जनीयं वा नियस्सं वा पब्बाजनीयं वा पटिसारणीयं वा उक्खेपनीयं वा, आचरियेन उस्सुक्कं कातब्बं – किन्ति नु खो अन्तेवासिको सम्मा वत्तेय्य, लोमं पातेय्य, नेत्थारं वत्तेय्य, सङ्घो तं कम्मं पटिप्पस्सम्भेय्याति।
‘‘सचे अन्तेवासिकस्स चीवरं धोवितब्बं होति, आचरियेन आचिक्खितब्बं – ‘एवं धोवेय्यासी’ति, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो अन्तेवासिकस्स चीवरं धोवियेथाति। सचे अन्तेवासिकस्स चीवरं कातब्बं होति, आचरियेन आचिक्खितब्बं – ‘एवं करेय्यासी’ति, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो अन्तेवासिकस्स चीवरं करियेथाति। सचे अन्तेवासिकस्स रजनं पचितब्बं होति, आचरियेन आचिक्खितब्बं – ‘एवं पचेय्यासी’ति, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो अन्तेवासिकस्स रजनं पचियेथाति। सचे अन्तेवासिकस्स चीवरं रजितब्बं होति, आचरियेन आचिक्खितब्बं – ‘एवं रजेय्यासी’ति, उस्सुक्कं वा कातब्बं – किन्ति नु खो अन्तेवासिकस्स चीवरं रजियेथाति। चीवरं रजन्तेन साधुकं सम्परिवत्तकं सम्परिवत्तकं रजितब्बं, न च अच्छिन्ने थेवे पक्कमितब्बं। सचे अन्तेवासिको गिलानो होति, यावजीवं उपट्ठातब्बो, वुट्ठानमस्स आगमेतब्ब’’न्ति।
अन्तेवासिकवत्तं निट्ठितं।
छट्ठभाणवारो।
२०. पणामना खमापना
८०. तेन खो पन समयेन अन्तेवासिका आचरियेसु न सम्मा वत्तन्ति…पे॰… भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं…पे॰… न, भिक्खवे, अन्तेवासिकेन आचरियम्हि न सम्मा वत्तितब्बं। यो न सम्मा वत्तेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति। नेव सम्मा वत्तन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं…पे॰… अनुजानामि, भिक्खवे, असम्मावत्तन्तं पणामेतुं। एवञ्च पन, भिक्खवे, पणामेतब्बो – पणामेमि तन्ति वा, मायिध पटिक्कमीति वा, नीहर ते पत्तचीवरन्ति वा, नाहं तया उपट्ठातब्बोति वा। कायेन विञ्ञापेति, वाचाय विञ्ञापेति, कायेन वाचाय विञ्ञापेति, पणामितो होति अन्तेवासिको; न कायेन विञ्ञापेति, न वाचाय विञ्ञापेति, न कायेन वाचाय विञ्ञापेति, न पणामितो होति अन्तेवासिकोति।
तेन खो पन समयेन अन्तेवासिका पणामिता न खमापेन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, खमापेतुन्ति। नेव खमापेन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, पणामितेन न खमापेतब्बो। यो न खमापेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
तेन खो पन समयेन आचरिया खमापियमाना न खमन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, खमितुन्ति। नेव खमन्ति। अन्तेवासिका पक्कमन्तिपि विब्भमन्तिपि तित्थियेसुपि सङ्कमन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, खमापियमानेन न खमितब्बं। यो न खमेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
तेन खो पन समयेन आचरिया सम्मावत्तन्तं पणामेन्ति, असम्मावत्तन्तं न पणामेन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, सम्मावत्तन्तो पणामेतब्बो। यो पणामेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स। न च, भिक्खवे, असम्मावत्तन्तो न पणामेतब्बो। यो न पणामेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स।
८१. ‘‘पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतो अन्तेवासिको पणामेतब्बो। आचरियम्हि नाधिमत्तं पेमं होति, नाधिमत्तो पसादो होति, नाधिमत्ता हिरी होति, नाधिमत्तो गारवो होति, नाधिमत्ता भावना होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतो अन्तेवासिको पणामेतब्बो।
‘‘पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतो अन्तेवासिको न पणामेतब्बो। आचरियम्हि अधिमत्तं पेमं होति, अधिमत्तो पसादो होति, अधिमत्ता हिरी होति, अधिमत्तो गारवो होति, अधिमत्ता भावना होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतो अन्तेवासिको न पणामेतब्बो।
‘‘पञ्चहि , भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतो अन्तेवासिको अलं पणामेतुं। आचरियम्हि नाधिमत्तं पेमं होति, नाधिमत्तो पसादो होति, नाधिमत्ता हिरी होति, नाधिमत्तो गारवो होति, नाधिमत्ता भावना होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतो अन्तेवासिको अलं पणामेतुं।
‘‘पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतो अन्तेवासिको नालं पणामेतुं। आचरियम्हि अधिमत्तं पेमं होति, अधिमत्तो पसादो होति, अधिमत्ता हिरी होति, अधिमत्तो गारवो होति, अधिमत्ता भावना होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतो अन्तेवासिको नालं पणामेतुं।
‘‘पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतं अन्तेवासिकं अप्पणामेन्तो आचरियो सातिसारो होति, पणामेन्तो अनतिसारो होति। आचरियम्हि नाधिमत्तं पेमं होति, नाधिमत्तो पसादो होति, नाधिमत्ता हिरी होति, नाधिमत्तो गारवो होति, नाधिमत्ता भावना होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतं अन्तेवासिकं अप्पणामेन्तो आचरियो सातिसारो होति, पणामेन्तो अनतिसारो होति।
‘‘पञ्चहि , भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतं अन्तेवासिकं पणामेन्तो आचरियो सातिसारो होति, अप्पणामेन्तो अनतिसारो होति। आचरियम्हि अधिमत्तं पेमं होति, अधिमत्तो पसादो होति, अधिमत्ता हिरी होति, अधिमत्तो गारवो होति, अधिमत्ता भावना होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतं अन्तेवासिकं पणामेन्तो आचरियो सातिसारो होति, अप्पणामेन्तो अनतिसारो होती’’ति।
पणामना खमापना निट्ठिता।
२१. बालअब्यत्तवत्थु
८२. तेन खो पन समयेन भिक्खू, दसवस्सम्हा दसवस्सम्हाति, बाला अब्यत्ता निस्सयं देन्ति। दिस्सन्ति आचरिया बाला, अन्तेवासिका पण्डिता । दिस्सन्ति आचरिया अब्यत्ता, अन्तेवासिका ब्यत्ता। दिस्सन्ति आचरिया अप्पस्सुता, अन्तेवासिका बहुस्सुता। दिस्सन्ति आचरिया दुप्पञ्ञा, अन्तेवासिका पञ्ञवन्तो। ये ते भिक्खू अप्पिच्छा…पे॰… ते उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘कथञ्हि नाम भिक्खू, दसवस्सम्हा दसवस्सम्हाति, बाला अब्यत्ता निस्सयं दस्सन्ति। दिस्सन्ति आचरिया बाला अन्तेवासिका पण्डिता, दिस्सन्ति आचरिया अब्यत्ता अन्तेवासिका ब्यत्ता, दिस्सन्ति आचरिया अप्पस्सुता अन्तेवासिका बहुस्सुता, दिस्सन्ति आचरिया दुप्पञ्ञा अन्तेवासिका पञ्ञवन्तो’’ति। अथ खो ते भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं…पे॰… सच्चं किर, भिक्खवे, भिक्खू, दसवस्सम्हा दसवस्सम्हाति, बाला अब्यत्ता निस्सयं देन्ति…पे॰… सच्चं, भगवाति। विगरहि बुद्धो भगवा…पे॰… विगरहित्वा…पे॰… धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘न, भिक्खवे, बालेन अब्यत्तेन निस्सयो दातब्बो। यो ददेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स। अनुजानामि, भिक्खवे, ब्यत्तेन भिक्खुना पटिबलेन दसवस्सेन वा अतिरेकदसवस्सेन वा निस्सयं दातु’’न्ति।
बालअब्यत्तवत्थु निट्ठितं।
२२. निस्सयपटिप्पस्सद्धिकथा
८३. तेन खो पन समयेन भिक्खू आचरियुपज्झायेसु पक्कन्तेसुपि विब्भन्तेसुपि कालङ्कतेसुपि पक्खसङ्कन्तेसुपि निस्सयपटिप्पस्सद्धियो न जानन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं।
‘‘पञ्चिमा, भिक्खवे, निस्सयपटिप्पस्सद्धियो उपज्झायम्हा – उपज्झायो पक्कन्तो वा होति, विब्भन्तो वा, कालङ्कतो वा, पक्खसङ्कन्तो वा, आणत्तियेव पञ्चमी। इमा खो, भिक्खवे, पञ्च निस्सयपटिप्पस्सद्धियो उपज्झायम्हा।
‘‘छयिमा, भिक्खवे, निस्सयपटिप्पस्सद्धियो आचरियम्हा – आचरियो पक्कन्तो वा होति, विब्भन्तो वा, कालङ्कतो वा, पक्खसङ्कन्तो वा, आणत्तियेव पञ्चमी, उपज्झायेन वा समोधानगतो होति। इमा खो, भिक्खवे, छ निस्सयपटिप्पस्सद्धियो आचरियम्हा’’।
निस्सपटिप्पस्सद्धिकथा निट्ठिता।
२३. उपसम्पादेतब्बपञ्चकं
८४. ‘‘पञ्चहि , भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। न असेक्खेन [न असेखेन (क॰)] सीलक्खन्धेन समन्नागतो होति, न असेक्खेन समाधिक्खन्धेन समन्नागतो होति, न असेक्खेन पञ्ञाक्खन्धेन समन्नागतो होति, न असेक्खेन विमुत्तिक्खन्धेन समन्नागतो होति, न असेक्खेन विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धेन समन्नागतो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। असेक्खेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो होति, असेक्खेन समाधिक्खन्धेन समन्नागतो होति, असेक्खेन पञ्ञाक्खन्धेन समन्नागतो होति, असेक्खेन विमुत्तिक्खन्धेन समन्नागतो होति, असेक्खेन विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धेन समन्नागतो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। अत्तना न असेक्खेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो होति, न परं असेक्खे सीलक्खन्धे समादपेता; अत्तना न असेक्खेन समाधिक्खन्धेन समन्नागतो होति, न परं असेक्खे समाधिक्खन्धे समादपेता; अत्तना न असेक्खेन पञ्ञाक्खन्धेन समन्नागतो होति, न परं असेक्खे पञ्ञाक्खन्धे समादपेता; अत्तना न असेक्खेन विमुत्तिक्खन्धेन समन्नागतो होति, न परं असेक्खे विमुत्तिक्खन्धे समादपेता; अत्तना न असेक्खेन विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धेन समन्नागतो होति, न परं असेक्खे विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धे समादपेता – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘पञ्चहि , भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। अत्तना असेक्खेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो होति, परं असेक्खे सीलक्खन्धे समादपेता; अत्तना असेक्खेन समाधिक्खन्धेन समन्नागतो होति, परं असेक्खे समाधिक्खन्धे समादपेता; अत्तना असेक्खेन पञ्ञाक्खन्धेन समन्नागतो होति, परं असेक्खे पञ्ञाक्खन्धे समादपेता; अत्तना असेक्खेन विमुत्तिक्खन्धेन समन्नागतो होति, परं असेक्खे विमुत्तिक्खन्धे समादपेता; अत्तना असेक्खेन विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धेन समन्नागतो होति, परं असेक्खे विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धे समादपेता – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। अस्सद्धो होति, अहिरिको होति, अनोत्तप्पी होति, कुसीतो होति, मुट्ठस्सति होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो , सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। सद्धो होति, हिरिमा होति, ओत्तप्पी होति, आरद्धवीरियो होति, उपट्ठितस्सति होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘अपरेहिपि , भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। अधिसीले सीलविपन्नो होति, अज्झाचारे आचारविपन्नो होति, अतिदिट्ठिया दिट्ठिविपन्नो होति, अप्पस्सुतो होति, दुप्पञ्ञो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘पञ्चहि , भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं , निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। न अधिसीले सीलविपन्नो होति, न अज्झाचारे आचारविपन्नो होति, न अतिदिट्ठिया दिट्ठिविपन्नो होति, बहुस्सुतो होति, पञ्ञवा होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। न पटिबलो होति अन्तेवासिं वा सद्धिविहारिं वा गिलानं उपट्ठातुं वा उपट्ठापेतुं वा, अनभिरतं [अनभिरतिं (स्या॰), उप्पन्नं अनभिरतिं (क॰)] वूपकासेतुं वा वूपकासापेतुं वा, उप्पन्नं कुक्कुच्चं धम्मतो विनोदेतुं [विनोदेतुं वा विनोदापेतुं वा (सब्बत्थ, विमतिविनोदनी टीका ओलोकेतब्बा)] आपत्तिं न जानाति, आपत्तिया वुट्ठानं न जानाति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। पटिबलो होति अन्तेवासिं वा सद्धिविहारिं वा गिलानं उपट्ठातुं वा उपट्ठापेतुं वा, अनभिरतं वूपकासेतुं वा वूपकासापेतुं वा, उप्पन्नं कुक्कुच्चं धम्मतो विनोदेतुं आपत्तिं जानाति, आपत्तिया वुट्ठानं जानाति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। न पटिबलो होति अन्तेवासिं वा सद्धिविहारिं वा अभिसमाचारिकाय सिक्खाय सिक्खापेतुं, आदिब्रह्मचरियकाय सिक्खाय विनेतुं, अभिधम्मे विनेतुं, अभिविनये विनेतुं, उप्पन्नं दिट्ठिगतं धम्मतो विवेचेतुं – इमेहि खो , भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘पञ्चहि , भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। पटिबलो होति अन्तेवासिं वा सद्धिविहारिं वा अभिसमाचारिकाय सिक्खाय सिक्खापेतुं, आदिब्रह्मचरियकाय सिक्खाय विनेतुं, अभिधम्मे विनेतुं, अभिविनये विनेतुं, उप्पन्नं दिट्ठिगतं धम्मतो विवेचेतुं – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। आपत्तिं न जानाति, अनापत्तिं न जानाति, लहुकं आपत्तिं न जानाति, गरुकं आपत्तिं न जानाति, उभयानि खो पनस्स पातिमोक्खानि वित्थारेन न स्वागतानि होन्ति न सुविभत्तानि न सुप्पवत्तीनि न सुविनिच्छितानि सुत्तसो अनुब्यञ्जनसो – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। आपत्तिं जानाति, अनापत्तिं जानाति, लहुकं आपत्तिं जानाति, गरुकं आपत्तिं जानाति, उभयानि खो पनस्स पातिमोक्खानि वित्थारेन स्वागतानि होन्ति सुविभत्तानि सुप्पवत्तीनि सुविनिच्छितानि सुत्तसो अनुब्यञ्जनसो – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। आपत्तिं न जानाति, अनापत्तिं न जानाति, लहुकं आपत्तिं न जानाति, गरुकं आपत्तिं न जानाति, ऊनदसवस्सो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘पञ्चहि , भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। आपत्तिं जानाति, अनापत्तिं जानाति, लहुकं आपत्तिं जानाति, गरुकं आपत्तिं जानाति, दसवस्सो वा होति अतिरेकदसवस्सो वा – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो’’ति।
उपसम्पादेतब्बपञ्चकं निट्ठितं।
२४. उपसम्पादेतब्बछक्कं
८५. ‘‘छहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो । न असेक्खेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो होति, न असेक्खेन समाधिक्खन्धेन समन्नागतो होति, न असेक्खेन पञ्ञाक्खन्धेन समन्नागतो होति, न असेक्खेन विमुत्तिक्खन्धेन समन्नागतो होति, न असेक्खेन विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धेन समन्नागतो होति, ऊनदसवस्सो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘छहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। असेक्खेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो होति, असेक्खेन समाधिक्खन्धेन समन्नागतो होति, असेक्खेन पञ्ञाक्खन्धेन समन्नागतो होति, असेक्खेन विमुत्तिक्खन्धेन समन्नागतो होति, असेक्खेन विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धेन समन्नागतो होति, दसवस्सो वा होति अतिरेकदसवस्सो वा – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। अत्तना न असेक्खेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो होति, न परं असेक्खे सीलक्खन्धे समादपेता; अत्तना न असेक्खेन समाधिक्खन्धेन समन्नागतो होति, न परं असेक्खे समाधिक्खन्धे समादपेता; अत्तना न असेक्खेन पञ्ञाक्खन्धेन समन्नागतो होति, न परं असेक्खे पञ्ञाक्खन्धे समादपेता; अत्तना न असेक्खेन विमुत्तिक्खन्धेन समन्नागतो होति, न परं असेक्खे विमुत्तिक्खन्धे समादपेता; अत्तना न असेक्खेन विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धेन समन्नागतो होति, न परं असेक्खे विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धे समादपेता; ऊनदसवस्सो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘छहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। अत्तना असेक्खेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो होति, परं असेक्खे सीलक्खन्धे समादपेता अत्तना असेक्खेन समाधिक्खन्धेन समन्नागतो होति, परं असेक्खे समाधिक्खन्धे समादपेता। अत्तना असेक्खेन पञ्ञाक्खन्धेन समन्नागतो होति, परं असेक्खे पञ्ञाक्खन्धे समादपेता। अत्तना असेक्खेन विमुत्तिक्खन्धेन समन्नागतो होति, परं असेक्खे विमुत्तिक्खन्धे समादपेता। अत्तना असेक्खेन विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धेन समन्नागतो होति, परं असेक्खे विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धे समादपेता; दसवस्सो वा होति अतिरेकदसवस्सो वा – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। अस्सद्धो होति, अहिरिको होति, अनोत्तप्पी होति, कुसीतो होति, मुट्ठस्सति होति, ऊनदसवस्सो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘छहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं , निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। सद्धो होति, हिरिमा होति, ओत्तप्पी होति, आरद्धवीरियो होति, उपट्ठितस्सति होति, दसवस्सो वा होति अतिरेकदसवस्सो वा – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। अधिसीले सीलविपन्नो होति, अज्झाचारे आचारविपन्नो होति, अतिदिट्ठिया दिट्ठिविपन्नो होति, अप्पस्सुतो होति, दुप्पञ्ञो होति, ऊनदसवस्सो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘छहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। न अधिसीले सीलविपन्नो होति, न अज्झाचारे आचारविपन्नो होति, न अतिदिट्ठिया दिट्ठिविपन्नो होति, बहुस्सुतो होति, पञ्ञवा होति, दसवस्सो वा होति अतिरेकदसवस्सो वा – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। न पटिबलो होति अन्तेवासिं वा सद्धिविहारिं वा गिलानं उपट्ठातुं वा उपट्ठापेतुं वा, अनभिरतं वूपकासेतुं वा वूपकासापेतुं वा, उप्पन्नं कुक्कुच्चं धम्मतो विनोदेतुं, आपत्तिं न जानाति, आपत्तिया वुट्ठानं न जानाति, ऊनदसवस्सो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘छहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। पटिबलो होति अन्तेवासिं वा सद्धिविहारिं वा गिलानं उपट्ठातुं वा उपट्ठापेतुं वा, अनभिरतं वूपकासेतुं वा वूपकासापेतुं वा, उप्पन्नं कुक्कुच्चं धम्मतो विनोदेतुं, आपत्तिं जानाति, आपत्तिया वुट्ठानं जानाति, दसवस्सो वा होति अतिरेकदसवस्सो वा – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘अपरेहिपि , भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। न पटिबलो होति अन्तेवासिं वा सद्धिविहारिं वा अभिसमाचारिकाय सिक्खाय सिक्खापेतुं, आदिब्रह्मचरियकाय सिक्खाय विनेतुं, अभिधम्मे विनेतुं , अभिविनये विनेतुं, उप्पन्नं दिट्ठिगतं धम्मतो विवेचेतुं, ऊनदसवस्सो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘छहि , भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। पटिबलो होति अन्तेवासिं वा सद्धिविहारिं वा अभिसमाचारिकाय सिक्खाय सिक्खापेतुं आदिब्रह्मचरियकाय सिक्खाय विनेतुं, अभिधम्मे विनेतुं, अभिविनये विनेतुं, उप्पन्नं दिट्ठिगतं धम्मतो विवेचेतुं, दसवस्सो वा होति अतिरेकदसवस्सो वा – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। आपत्तिं न जानाति, अनापत्तिं न जानाति, लहुकं आपत्तिं न जानाति, गरुकं आपत्तिं न जानाति, उभयानि खो पनस्स पातिमोक्खानि वित्थारेन न स्वागतानि होन्ति न सुविभत्तानि न सुप्पवत्तीनि न सुविनिच्छितानि सुत्तसो अनुब्यञ्जनसो, ऊनदसवस्सो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न उपसम्पादेतब्बं, न निस्सयो दातब्बो, न सामणेरो उपट्ठापेतब्बो।
‘‘छहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो , सामणेरो उपट्ठापेतब्बो। आपत्तिं जानाति , अनापत्तिं जानाति, लहुकं आपत्तिं जानाति, गरुकं आपत्तिं जानाति, उभयानि खो पनस्स पातिमोक्खानि वित्थारेन स्वागतानि होन्ति सुविभत्तानि सुप्पवत्तीनि सुविनिच्छितानि सुत्तसो अनुब्यञ्जनसो, दसवस्सो वा होति अतिरेकदसवस्सो वा – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना उपसम्पादेतब्बं, निस्सयो दातब्बो, सामणेरो उपट्ठापेतब्बो’’ति।
उपसम्पादेतब्बछक्कं निट्ठितं।
२५. अञ्ञतित्थियपुब्बकथा
८६. तेन खो पन समयेन यो सो अञ्ञतित्थियपुब्बो [यो सो पसुरपरिब्बाजको अञ्ञतित्थियपुब्बो (क॰)] पज्झायेन सहधम्मिकं वुच्चमानो उपज्झायस्स वादं आरोपेत्वा तंयेव तित्थायतनं सङ्कमि। सो पुन पच्चागन्त्वा भिक्खू उपसम्पदं याचि। भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। यो सो, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो उपज्झायेन सहधम्मिकं वुच्चमानो उपज्झायस्स वादं आरोपेत्वा तंयेव तित्थायतनं सङ्कन्तो, सो आगतो न उपसम्पादेतब्बो। यो सो, भिक्खवे, अञ्ञोपि अञ्ञतित्थियपुब्बो इमस्मिं धम्मविनये आकङ्खति पब्बज्जं, आकङ्खति उपसम्पदं, तस्स चत्तारो मासे परिवासो दातब्बो। एवञ्च पन, भिक्खवे, दातब्बो – पठमं केसमस्सुं ओहारापेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादापेत्वा एकंसं उत्तरासङ्गं कारापेत्वा भिक्खूनं पादे वन्दापेत्वा उक्कुटिकं निसीदापेत्वा अञ्जलिं पग्गण्हापेत्वा एवं वदेहीति वत्तब्बो – ‘‘बुद्धं सरणं गच्छामि, धम्मं सरणं गच्छामि, सङ्घं सरणं गच्छामि; दुतियम्पि बुद्धं सरणं गच्छामि, दुतियम्पि धम्मं सरणं गच्छामि, दुतियम्पि सङ्घं सरणं गच्छामि; ततियम्पि बुद्धं सरणं गच्छामि, ततियम्पि धम्मं सरणं गच्छामि, ततियम्पि सङ्घं सरणं गच्छामी’’ति।
तेन, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बेन सङ्घं उपसङ्कमित्वा एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा भिक्खूनं पादे वन्दित्वा उक्कुटिकं निसीदित्वा अञ्जलिं पग्गहेत्वा एवमस्स वचनीयो – ‘‘अहं, भन्ते, अञ्ञतित्थियपुब्बो इमस्मिं धम्मविनये आकङ्खामि उपसम्पदं। सोहं, भन्ते, सङ्घं चत्तारो मासे परिवासं याचामी’’ति। दुतियम्पि याचितब्बो। ततियम्पि याचितब्बो। ब्यत्तेन भिक्खुना पटिबलेन सङ्घो ञापेतब्बो –
‘‘सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो। अयं इत्थन्नामो अञ्ञतित्थियपुब्बो इमस्मिं धम्मविनये आकङ्खति उपसम्पदं। सो सङ्घं चत्तारो मासे परिवासं याचति। यदि सङ्घस्स पत्तकल्लं सङ्घो इत्थन्नामस्स अञ्ञतित्थियपुब्बस्स चत्तारो मासे परिवासं ददेय्य। एसा ञत्ति।
‘‘सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो। अयं इत्थन्नामो अञ्ञतित्थियपुब्बो इमस्मिं धम्मविनये आकङ्खति उपसम्पदं। सो सङ्घं चत्तारो मासे परिवासं याचति। सङ्घो इत्थन्नामस्स अञ्ञतित्थियपुब्बस्स चत्तारो मासे परिवासं देति। यस्सायस्मतो खमति इत्थन्नामस्स अञ्ञतित्थियपुब्बस्स चत्तारो मासे परिवासस्स दानं, सो तुण्हस्स; यस्स नक्खमति, सो भासेय्य।
‘‘दिन्नो सङ्घेन इत्थन्नामस्स अञ्ञतित्थियपुब्बस्स चत्तारो मासे परिवासो। खमति सङ्घस्स, तस्मा तुण्ही, एवमेतं धारयामी’’ति।
८७. ‘‘एवं खो, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो आराधको होति, एवं अनाराधको। कथञ्च, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो अनाराधको होति? इध, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो अतिकालेन गामं पविसति, अतिदिवा पटिक्कमति। एवम्पि, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो अनाराधको होति।
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो वेसियागोचरो वा होति, विधवागोचरो वा होति, थुल्लकुमारिकागोचरो वा होति, पण्डकगोचरो वा होति, भिक्खुनिगोचरो वा होति। एवम्पि, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो अनाराधको होति।
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो यानि तानि सब्रह्मचारीनं उच्चावचानि करणीयानि, तत्थ न दक्खो होति, न अनलसो, न तत्रुपायाय वीमंसाय समन्नागतो, न अलं कातुं, न अलं संविधातुं। एवम्पि, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो अनाराधको होति।
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो न तिब्बच्छन्दो होति उद्देसे, परिपुच्छाय, अधिसीले, अधिचित्ते, अधिपञ्ञाय। एवम्पि, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो अनाराधको होति।
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो यस्स तित्थायतना सङ्कन्तो होति, तस्स सत्थुनो तस्स दिट्ठिया तस्स खन्तिया तस्स रुचिया तस्स आदायस्स अवण्णे भञ्ञमाने कुपितो होति अनत्तमनो अनभिरद्धो, बुद्धस्स वा धम्मस्स वा सङ्घस्स वा अवण्णे भञ्ञमाने अत्तमनो होति उदग्गो अभिरद्धो। यस्स वा पन तित्थायतना सङ्कन्तो होति, तस्स सत्थुनो तस्स दिट्ठिया तस्स खन्तिया तस्स रुचिया तस्स आदायस्स वण्णे भञ्ञमाने अत्तमनो होति उदग्गो अभिरद्धो, बुद्धस्स वा धम्मस्स वा सङ्घस्स वा वण्णे भञ्ञमाने कुपितो होति अनत्तमनो अनभिरद्धो। इदं, भिक्खवे, सङ्घातनिकं अञ्ञतित्थियपुब्बस्स अनाराधनीयस्मिं। एवम्पि खो, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो अनाराधको होति। एवं अनाराधको खो, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो आगतो न उपसम्पादेतब्बो।
‘‘कथञ्च, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो आराधको होति? इध, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो नातिकालेन गामं पविसति नातिदिवा पटिक्कमति। एवम्पि, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो आराधको होति।
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो न वेसियागोचरो होति, न विधवागोचरो होति, न थुल्लकुमारिकागोचरो होति, न पण्डकगोचरो होति, न भिक्खुनिगोचरो होति। एवम्पि, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो आराधको होति।
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो यानि तानि सब्रह्मचारीनं उच्चावचानि करणीयानि, तत्थ दक्खो होति, अनलसो, तत्रुपायाय वीमंसाय समन्नागतो, अलं कातुं, अलं संविधातुं। एवम्पि, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो आराधको होति।
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे , अञ्ञतित्थियपुब्बो तिब्बच्छन्दो होति उद्देसे, परिपुच्छाय, अधिसीले, अधिचित्ते, अधिपञ्ञाय। एवम्पि, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो आराधको होति।
‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो यस्स तित्थायतना सङ्कन्तो होति, तस्स सत्थुनो तस्स दिट्ठिया तस्स खन्तिया तस्स रुचिया तस्स आदायस्स अवण्णे भञ्ञमाने अत्तमनो होति उदग्गो अभिरद्धो, बुद्धस्स वा धम्मस्स वा सङ्घस्स वा अवण्णे भञ्ञमाने कुपितो होति अनत्तमनो अनभिरद्धो। यस्स वा पन तित्थायतना सङ्कन्तो होति, तस्स सत्थुनो तस्स दिट्ठिया तस्स खन्तिया तस्स रुचिया तस्स आदायस्स वण्णे भञ्ञमाने कुपितो होति अनत्तमनो अनभिरद्धो, बुद्धस्स वा धम्मस्स वा सङ्घस्स वा वण्णे भञ्ञमाने अत्तमनो होति उदग्गो अभिरद्धो। इदं, भिक्खवे, सङ्घातनिकं अञ्ञतित्थियपुब्बस्स आराधनीयस्मिं। एवम्पि खो, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो आराधको होति। एवं आराधको खो, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो आगतो उपसम्पादेतब्बो।
‘‘सचे, भिक्खवे, अञ्ञतित्थियपुब्बो नग्गो आगच्छति, उपज्झायमूलकं चीवरं परियेसितब्बं। सचे अच्छिन्नकेसो आगच्छति, सङ्घो अपलोकेतब्बो भण्डुकम्माय। ये ते, भिक्खवे, अग्गिका जटिलका, ते आगता उपसम्पादेतब्बा, न तेसं परिवासो दातब्बो। तं किस्स हेतु? कम्मवादिनो एते, भिक्खवे, किरियवादिनो। सचे, भिक्खवे, जातिया साकियो अञ्ञतित्थियपुब्बो आगच्छति , सो आगतो उपसम्पादेतब्बो, न तस्स परिवासो दातब्बो। इमाहं, भिक्खवे, ञातीनं आवेणिकं परिहारं दम्मी’’ति।
अञ्ञतित्थियपुब्बकथा निट्ठिता।
सत्तमभाणवारो।
२६. पञ्चाबाधवत्थु
८८. तेन खो पन समयेन मगधेसु पञ्च आबाधा उस्सन्ना होन्ति – कुट्ठं, गण्डो, किलासो, सोसो, अपमारो। मनुस्सा पञ्चहि आबाधेहि फुट्ठा जीवकं कोमारभच्चं उपसङ्कमित्वा एवं वदन्ति – ‘‘साधु नो, आचरिय, तिकिच्छाही’’ति। ‘‘अहं ख्वय्यो, बहुकिच्चो बहुकरणीयो; राजा च मे मागधो सेनियो बिम्बिसारो उपट्ठातब्बो इत्थागारञ्च बुद्धप्पमुखो च भिक्खुसङ्घो; नाहं सक्कोमि तिकिच्छितु’’न्ति। ‘‘सब्बं सापतेय्यञ्च ते, आचरिय, होतु; मयञ्च ते दासा; साधु, नो, आचरिय, तिकिच्छाही’’ति। ‘‘अहं ख्वय्यो, बहुकिच्चो बहुकरणीयो राजा च मे मागधो सेनियो बिम्बिसारो उपट्ठातब्बो इत्थागारञ्च बुद्धप्पमुखो च भिक्खुसङ्घो; नाहं सक्कोमि तिकिच्छितु’’न्ति। अथ खो तेसं मनुस्सानं एतदहोसि – ‘‘इमे खो समणा सक्यपुत्तिया सुखसीला सुखसमाचारा, सुभोजनानि भुञ्जित्वा निवातेसु सयनेसु सयन्ति। यंनून मयं समणेसु सक्यपुत्तियेसु पब्बजेय्याम। तत्थ भिक्खू चेव उपट्ठहिस्सन्ति, जीवको च कोमारभच्चो तिकिच्छिस्सती’’ति । अथ खो ते मनुस्सा भिक्खू उपसङ्कमित्वा पब्बज्जं याचिंसु। ते भिक्खू पब्बाजेसुं, उपसम्पादेसुं। ते भिक्खू चेव उपट्ठहिंसु जीवको च कोमारभच्चो तिकिच्छि। तेन खो पन समयेन भिक्खू बहू गिलाने भिक्खू उपट्ठहन्ता याचनबहुला विञ्ञत्तिबहुला विहरन्ति – गिलानभत्तं देथ, गिलानुपट्ठाकभत्तं देथ, गिलानभेसज्जं देथाति। जीवकोपि कोमारभच्चो बहू गिलाने भिक्खू तिकिच्छन्तो अञ्ञतरं राजकिच्चं परिहापेसि।
८९. अञ्ञतरोपि पुरिसो पञ्चहि आबाधेहि फुट्ठो जीवकं कोमारभच्चं उपसङ्कमित्वा एतदवोच – ‘‘साधु मं, आचरिय, तिकिच्छाही’’ति। ‘‘अहं ख्वय्यो, बहुकिच्चो, बहुकरणीयो, राजा च मे मागधो सेनियो बिम्बिसारो उपट्ठातब्बो इत्थागारञ्च बुद्धप्पमुखो च भिक्खुसङ्घो; नाहं सक्कोमि तिकिच्छितु’’न्ति। ‘‘सब्बं सापतेय्यञ्च ते, आचरिय, होतु, अहञ्च ते दासो; साधु मं, आचरिय, तिकिच्छाही’’ति। ‘‘अहं ख्वय्यो, बहुकिच्चो बहुकरणीयो, राजा च मे मागधो सेनियो बिम्बिसारो उपट्ठातब्बो इत्थागारञ्च बुद्धप्पमुखो च भिक्खुसङ्घो, नाहं सक्कोमि तिकिच्छितु’’न्ति। अथ खो तस्स पुरिसस्स एतदहोसि – ‘‘इमे खो समणा सक्यपुत्तिया सुखसीला सुखसमाचारा, सुभोजनानि भुञ्जित्वा निवातेसु सयनेसु सयन्ति। यंनूनाहं समणेसु सक्यपुत्तियेसु पब्बजेय्यं। तत्थ भिक्खू चेव उपट्ठहिस्सन्ति, जीवको च कोमारभच्चो तिकिच्छिस्सति। सोम्हि [सोहं (बहूसु, विमतिविनोदनीटीका ओलोकेतब्बा)] अरोगो विब्भमिस्सामी’’ति । अथ खो सो पुरिसो भिक्खु उपसङ्कमित्वा पब्बज्जं याचि। तं भिक्खू पब्बाजेसुं, उपसम्पादेसुं। तं भिक्खू चेव उपट्ठहिंसु, जीवको च कोमारभच्चो तिकिच्छि। सो अरोगो विब्भमि। अद्दसा खो जीवको कोमारभच्चो तं पुरिसं विब्भन्तं, दिस्वान तं पुरिसं एतदवोच – ‘‘ननु त्वं, अय्यो, भिक्खूसु पब्बजितो अहोसी’’ति? ‘‘एवं, आचरिया’’ति। ‘‘किस्स पन त्वं, अय्यो, एवरूपमकासी’’ति? अथ खो सो पुरिसो जीवकस्स कोमारभच्चस्स एतमत्थं आरोचेसि। जीवको कोमारभच्चो उज्झायति खिय्यति विपाचेति – ‘‘कथञ्हि नाम भदन्ता [भद्दन्ता (क॰)] पञ्चहि आबाधेहि फुट्ठं पब्बाजेस्सन्ती’’ति। अथ खो जीवको कोमारभच्चो येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो जीवको कोमारभच्चो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘साधु, भन्ते, अय्या पञ्चहि आबाधेहि फुट्ठं न पब्बाजेय्यु’’न्ति। अथ खो भगवा जीवकं कोमारभच्चं धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि। अथ खो जीवको कोमारभच्चो भगवता धम्मिया कथाय सन्दस्सितो समादपितो समुत्तेजितो सम्पहंसितो उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि। अथ खो भगवा एतस्मिं निदाने एतस्मिं पकरणे धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘न, भिक्खवे, पञ्चहि आबाधेहि फुट्ठो पब्बाजेतब्बो। यो पब्बाजेय्य, आपत्ति दुक्कटस्सा’’ति।
पञ्चाबाधवत्थु निट्ठितं।
२७. राजभटवत्थु
९०. तेन खो पन समयेन रञ्ञो मागधस्स सेनियस्स बिम्बिसारस्स पच्चन्तो कुपितो होति। अथ खो राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सेनानायके महामत्ते आणापेसि – ‘‘गच्छथ, भणे, पच्चन्तं उच्चिनथा’’ति। ‘‘एवं, देवा’’ति खो सेनानायका महामत्ता रञ्ञो मागधस्स सेनियस्स बिम्बिसारस्स पच्चस्सोसुं। अथ खो अभिञ्ञातानं अभिञ्ञातानं योधानं एतदहोसि – ‘‘मयं खो युद्धाभिनन्दिनो गच्छन्ता पापञ्च करोम, बहुञ्च अपुञ्ञं पसवाम। केन नु खो मयं उपायेन पापा च विरमेय्याम कल्याणञ्च करेय्यामा’’ति? अथ खो तेसं योधानं एतदहोसि – ‘‘इमे खो समणा सक्यपुत्तिया धम्मचारिनो समचारिनो ब्रह्मचारिनो सच्चवादिनो सीलवन्तो कल्याणधम्मा। सचे खो मयं समणेसु सक्यपुत्तियेसु पब्बजेय्याम, एवं मयं पापा च विरमेय्याम कल्याणञ्च करेय्यामा’’ति। अथ खो ते योधा भिक्खू उपसङ्कमित्वा पब्बज्जं याचिंसु। ते भिक्खू पब्बाजेसुं, उपसम्पादेसुं। सेनानायका महामत्ता राजभटे पुच्छिंसु – ‘‘किं नु खो, भणे, इत्थन्नामो च इत्थन्नामो च योधा न दिस्सन्ती’’ति? ‘‘इत्थन्नामो च इत्थन्नामो च, सामि, योधा भिक्खूसु पब्बजिता’’ति। सेनानायका महामत्ता उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘कथञ्हि नाम समणा सक्यपुत्तिया राजभटं पब्बाजेस्सन्ती’’ति। सेनानायका महामत्ता रञ्ञो मागधस्स सेनियस्स बिम्बिसारस्स एतमत्थं आरोचेसुं। अथ खो राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो वोहारिके महामत्ते पुच्छि – ‘‘यो, भणे, राजभटं पब्बाजेति, किं सो पसवती’’ति? ‘‘उपज्झायस्स, देव, सीसं छेतब्बं, अनुस्सावकस्स [अनुसावकस्स (क॰)] जिव्हा उद्धरितब्बा, गणस्स उपड्ढफासुका भञ्जितब्बा’’ति। अथ खो राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सन्ति, भन्ते, राजानो अस्सद्धा अप्पसन्ना। ते अप्पमत्तकेनपि भिक्खू विहेठेय्युं। साधु, भन्ते, अय्या राजभटं न पब्बाजेय्यु’’न्ति। अथ खो भगवा राजानं मागधं सेनियं बिम्बिसारं धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि। अथ खो राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो भगवता धम्मिया कथाय सन्दस्सितो समादपितो समुत्तेजितो सम्पहंसितो उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि। अथ खो भगवा एतस्मिं निदाने एतस्मिं पकरणे धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘न, भिक्खवे, राजभटो पब्बाजेतब्बो। यो पब्बाजेय्य, आपत्ति दुक्कटस्सा’’ति।
राजभटवत्थु निट्ठितं।
२८. अङ्गुलिमालचोरवत्थु
९१. तेन खो पन समयेन चोरो अङ्गुलिमालो भिक्खूसु पब्बजितो होति। मनुस्सा पस्सित्वा उब्बिज्जन्तिपि, उत्तसन्तिपि, पलायन्तिपि , अञ्ञेनपि गच्छन्ति, अञ्ञेनपि मुखं करोन्ति, द्वारम्पि थकेन्ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘कथञ्हि नाम समणा सक्यपुत्तिया धजबन्धं चोरं पब्बाजेस्सन्ती’’ति। अस्सोसुं खो भिक्खू तेसं मनुस्सानं उज्झायन्तानं खिय्यन्तानं विपाचेन्तानं। अथ खो ते भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं…पे॰… न, भिक्खवे, धजबन्धो चोरो पब्बाजेतब्बो। यो पब्बाजेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
अङ्गुलिमालचोरवत्थु निट्ठितं।
२९. कारभेदकचोरवत्थु
९२. तेन खो पन समयेन रञ्ञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन अनुञ्ञातं होति – ‘‘ये समणेसु सक्यपुत्तियेसु पब्बजन्ति, न ते लब्भा किञ्चि कातुं; स्वाक्खातो धम्मो, चरन्तु ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो पुरिसो चोरिकं कत्वा काराय बद्धो होति। सो कारं भिन्दित्वा पलायित्वा भिक्खूसु पब्बजितो होति। मनुस्सा पस्सित्वा एवमाहंसु – ‘‘अयं सो कारभेदको चोरो। हन्द, नं नेमा’’ति। एकच्चे एवमाहंसु – ‘‘माय्यो, एवं अवचुत्थ। अनुञ्ञातं रञ्ञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन – ‘‘ये समणेसु सक्यपुत्तियेसु पब्बजन्ति, न ते लब्भा किञ्चि कातुं; स्वाक्खातो धम्मो, चरन्तु ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘अभयूवरा इमे समणा सक्यपुत्तिया, नयिमे लब्भा किञ्चि कातुं। कथञ्हि नाम समणा सक्यपुत्तिया कारभेदकं चोरं पब्बाजेस्सन्ती’’ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, कारभेदको चोरो पब्बाजेतब्बो। यो पब्बाजेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
कारभेदकचोरवत्थु निट्ठितं।
३०. लिखितकचोरवत्थु
९३. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो पुरिसो चोरिकं कत्वा पलायित्वा भिक्खूसु पब्बजितो होति। सो च रञ्ञो अन्तेपुरे लिखितो होति – यत्थ पस्सति, तत्थ हन्तब्बोति। मनुस्सा पस्सित्वा एवमाहंसु – ‘‘अयं सो लिखितको चोरो। हन्द, नं हनामा’’ति। एकच्चे एवमाहंसु – ‘‘माय्यो, एवं अवचुत्थ। अनुञ्ञातं रञ्ञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन ‘‘ये समणेसु सक्यपुत्तियेसु पब्बजन्ति, न ते लब्भा किञ्चि कातुं, स्वाक्खातो धम्मो, चरन्तु ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘अभयूवरा इमे समणा सक्यपुत्तिया, नयिमे लब्भा किञ्चि कातुं। कथञ्हि नाम समणा सक्यपुत्तिया लिखितकं चोरं पब्बाजेस्सन्ती’’ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, लिखितको चोरो पब्बाजेतब्बो। यो पब्बाजेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
लिखितकचोरवत्थु निट्ठितं।
३१. कसाहतवत्थु
९४. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो पुरिसो कसाहतो कतदण्डकम्मो भिक्खूसु पब्बजितो होति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘कथञ्हि नाम समणा सक्यपुत्तिया कसाहतं कतदण्डकम्मं पब्बाजेस्सन्ती’’ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न , भिक्खवे, कसाहतो कतदण्डकम्मो पब्बाजेतब्बो। यो पब्बाजेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
कसाहतवत्थु निट्ठितं।
३२. लक्खणाहतवत्थु
९५. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो पुरिसो लक्खणाहतो कतदण्डकम्मो भिक्खूसु पब्बजितो होति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘कथञ्हि नाम समणा सक्यपुत्तिया लक्खणाहतं कतदण्डकम्मं पब्बाजेस्सन्ती’’ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, लक्खणाहतो कतदण्डकम्मो पब्बाजेतब्बो। यो पब्बाजेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
लक्खणाहतवत्थु निट्ठितं।
३३. इणायिकवत्थु
९६. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो पुरिसो इणायिको पलायित्वा भिक्खूसु पब्बजितो होति। धनिया पस्सित्वा एवमाहंसु – ‘‘अयं सो अम्हाकं इणायिको। हन्द, नं नेमा’’ति। एकच्चे एवमाहंसु – ‘‘माय्यो, एवं अवचुत्थ। अनुञ्ञातं रञ्ञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन – ‘‘ये समणेसु सक्यपुत्तियेसु पब्बजन्ति, न ते लब्भा किञ्चि कातुं; स्वाक्खातो धम्मो, चरन्तु ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘अभयूवरा इमे समणा सक्यपुत्तिया। नयिमे लब्भा किञ्चि कातुं। कथञ्हि नाम समणा सक्यपुत्तिया इणायिकं पब्बाजेस्सन्ती’’ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं । न, भिक्खवे, इणायिको पब्बाजेतब्बो। यो पब्बाजेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
इणायिकवत्थु निट्ठितं।
३४. दासवत्थु
९७. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो दासो पलायित्वा भिक्खूसु पब्बजितो होति। अय्यका [अय्यिका (क॰), अयिरका (सी॰)] पस्सित्वा एवमाहंसु – ‘‘अयं सो अम्हाकं दासो। हन्द, नं नेमा’’ति। एकच्चे एवमाहंसु – ‘‘माय्यो, एवं अवचुत्थ, अनुञ्ञातं रञ्ञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन ‘‘ये समणेसु सक्यपुत्तियेसु पब्बजन्ति, न ते लब्भा किञ्चि कातुं, स्वाक्खातो धम्मो, चरन्तु ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाया’’ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘अभयूवरा इमे समणा सक्यपुत्तिया, नयिमे लब्भा किञ्चि कातुं। कथञ्हि नाम समणा सक्यपुत्तिया दासं पब्बाजेस्सन्ती’’ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, दासो पब्बाजेतब्बो। यो पब्बाजेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
दासवत्थु निट्ठितं।
३५. कम्मारभण्डुवत्थु
९८. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो कम्मारभण्डु मातापितूहि सद्धिं भण्डित्वा आरामं गन्त्वा भिक्खूसु पब्बजितो होति। अथ खो तस्स कम्मारभण्डुस्स मातापितरो तं कम्मारभण्डुं विचिनन्ता आरामं गन्त्वा भिक्खू पुच्छिंसु – ‘‘अपि, भन्ते, एवरूपं दारकं पस्सेय्याथा’’ति? भिक्खू अजानंयेव आहंसु – ‘‘न जानामा’’ति, अपस्संयेव आहंसु – ‘‘न पस्सामा’’ति। अथ खो तस्स कम्मारभण्डुस्स मातापितरो तं कम्मारभण्डुं विचिनन्ता भिक्खूसु पब्बजितं दिस्वा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘अलज्जिनो इमे समणा सक्यपुत्तिया, दुस्सीला मुसावादिनो। जानंयेव आहंसु – ‘न जानामा’ति, पस्संयेव आहंसु – ‘न पस्सामा’ति। अयं दारको भिक्खूसु पब्बजितो’’ति। अस्सोसुं खो भिक्खू तस्स कम्मारभण्डुस्स मातापितूनं उज्झायन्तानं खिय्यन्तानं विपाचेन्तानं। अथ खो ते भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, सङ्घं अपलोकेतुं भण्डुकम्मायाति।
कम्मारभण्डुवत्थु निट्ठितं।
३६. उपालिदारकवत्थु
९९. [इदं वत्थु पाचि॰ ४०२ आदयो] तेन खो पन समयेन राजगहे सत्तरसवग्गिया दारका सहायका होन्ति। उपालिदारको तेसं पामोक्खो होति। अथ खो उपालिस्स मातापितूनं एतदहोसि – ‘‘केन नु खो उपायेन उपालि अम्हाकं अच्चयेन सुखञ्च जीवेय्य, न च किलमेय्या’’ति? अथ खो उपालिस्स मातापितूनं एतदहोसि – ‘‘सचे खो उपालि लेखं सिक्खेय्य, एवं खो उपालि अम्हाकं अच्चयेन सुखञ्च जीवेय्य, न च किलमेय्या’’ति। अथ खो उपालिस्स मातापितूनं एतदहोसि – ‘‘सचे खो उपालि लेखं सिक्खिस्सति, अङ्गुलियो दुक्खा भविस्सन्ति। सचे खो उपालि गणनं सिक्खेय्य, एवं खो उपालि अम्हाकं अच्चयेन सुखञ्च जीवेय्य, न च किलमेय्या’’ति। अथ खो उपालिस्स मातापितूनं एतदहोसि – ‘‘सचे खो उपालि गणनं सिक्खिस्सति, उरस्स दुक्खो भविस्सति। सचे खो उपालि रूपं सिक्खेय्य, एवं खो उपालि अम्हाकं अच्चयेन सुखञ्च जीवेय्य, न च किलमेय्या’’ति। अथ खो उपालिस्स मातापितूनं एतदहोसि – ‘‘सचे खो उपालि रूपं सिक्खिस्सति, अक्खीनि दुक्खा भविस्सन्ति। इमे खो समणा सक्यपुत्तिया सुखसीला सुखसमाचारा, सुभोजनानि भुञ्जित्वा निवातेसु सयनेसु सयन्ति । सचे खो उपालि समणेसु सक्यपुत्तियेसु पब्बजेय्य, एवं खो उपालि अम्हाकं अच्चयेन सुखञ्च जीवेय्य, न च किलमेय्या’’ति।
अस्सोसि खो उपालिदारको मातापितूनं इमं कथासल्लापं। अथ खो उपालिदारको येन ते दारका तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा ते दारके एतदवोच – ‘‘एथ मयं, अय्या, समणेसु सक्यपुत्तियेसु पब्बजिस्सामा’’ति। ‘‘सचे खो त्वं, अय्य, पब्बजिस्ससि, एवं मयम्पि पब्बजिस्सामा’’ति। अथ खो ते दारका एकमेकस्स मातापितरो उपसङ्कमित्वा एतदवोचुं – ‘‘अनुजानाथ मं अगारस्मा अनागारियं पब्बज्जाया’’ति। अथ खो तेसं दारकानं मातापितरो – ‘‘सब्बेपिमे दारका समानच्छन्दा कल्याणाधिप्पाया’’ति – अनुजानिंसु। ते भिक्खू उपसङ्कमित्वा पब्बज्जं याचिंसु। ते भिक्खू पब्बाजेसुं उपसम्पादेसुं । ते रत्तिया पच्चूससमयं पच्चुट्ठाय रोदन्ति – ‘‘यागुं देथ, भत्तं देथ, खादनीयं देथा’’ति। भिक्खू एवमाहंसु – ‘‘आगमेथ, आवुसो, याव रत्ति विभायति। सचे यागु भविस्सति पिविस्सथ, सचे भत्तं भविस्सति भुञ्जिस्सथ, सचे खादनीयं भविस्सति खादिस्सथ; नो चे भविस्सति यागु वा भत्तं वा खादनीयं वा, पिण्डाय चरित्वा भुञ्जिस्सथा’’ति। एवम्पि खो ते भिक्खू भिक्खूहि वुच्चमाना रोदन्तियेव ‘‘यागुं देथ, भत्तं देथ, खादनीयं देथा’’ति; सेनासनं उहदन्तिपि उम्मिहन्तिपि।
अस्सोसि खो भगवा रत्तिया पच्चूससमयं पच्चुट्ठाय दारकसद्दं। सुत्वान आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘किं नु खो सो, आनन्द, दारकसद्दो’’ति? अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवतो एतमत्थं आरोचेसि…पे॰… ‘‘सच्चं किर, भिक्खवे, भिक्खू जानं ऊनवीसतिवस्सं पुग्गलं उपसम्पादेन्ती’’ति? ‘‘सच्चं, भगवा’’ति। विगरहि बुद्धो भगवा…पे॰… ‘‘कथञ्हि नाम ते, भिक्खवे, मोघपुरिसा जानं ऊनवीसतिवस्सं पुग्गलं उपसम्पादेस्सन्ति। ऊनवीसतिवस्सो, भिक्खवे, पुग्गलो अक्खमो होति सीतस्स उण्हस्स जिघच्छाय पिपासाय डंसमकसवातातपसरीसपसम्फस्सानं दुरुत्तानं दुरागतानं वचनपथानं उप्पन्नानं सारीरिकानं वेदनानं दुक्खानं तिब्बानं खरानं कटुकानं असातानं अमनापानं पाणहरानं अनधिवासकजातिको होति। वीसतिवस्सोव खो, भिक्खवे, पुग्गलो खमो होति सीतस्स उण्हस्स जिघच्छाय पिपासाय डंसमकसवातातपसरीसपसम्फस्सानं दुरुत्तानं दुरागतानं वचनपथानं, उप्पन्नानं सारीरिकानं वेदनानं दुक्खानं तिब्बानं खरानं कटुकानं असातानं अमनापानं पाणहरानं अधिवासकजातिको होति। नेतं, भिक्खवे, अप्पसन्नानं वा पसादाय, पसन्नानं वा भिय्योभावाय…पे॰… विगरहित्वा…पे॰… धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘न, भिक्खवे, जानं ऊनवीसतिवस्सो पुग्गलो उपसम्पादेतब्बो। यो उपसम्पादेय्य, यथाधम्मो कारेतब्बो’’ति।
उपालिदारकवत्थु निट्ठितं।
३७. अहिवातकरोगवत्थु
१००. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरं कुलं अहिवातकरोगेन कालङ्कतं होति। तस्स पितापुत्तका सेसा होन्ति। ते भिक्खूसु पब्बजित्वा एकतोव पिण्डाय चरन्ति। अथ खो सो दारको पितुनो भिक्खाय दिन्नाय उपधावित्वा एतदवोच – ‘‘मय्हम्पि, तात, देहि; मय्हम्पि , तात, देही’’ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘अब्रह्मचारिनो इमे समणा सक्यपुत्तिया। अयम्पि दारको भिक्खुनिया जातो’’ति। अस्सोसुं खो भिक्खू तेसं मनुस्सानं उज्झायन्तानं खिय्यन्तानं विपाचेन्तानं। अथ खो ते भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, ऊनपन्नरसवस्सो दारको पब्बाजेतब्बो। यो पब्बाजेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
तेन खो पन समयेन आयस्मतो आनन्दस्स उपट्ठाककुलं सद्धं पसन्नं अहिवातकरोगेन कालङ्कतं होति, द्वे च दारका सेसा होन्ति। ते पोराणकेन आचिण्णकप्पेन भिक्खू पस्सित्वा उपधावन्ति। भिक्खू अपसादेन्ति। ते भिक्खूहि अपसादियमाना रोदन्ति। अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि – ‘‘भगवता पञ्ञत्तं ‘न ऊनपन्नरसवस्सो दारको पब्बाजेतब्बो’ति। इमे च दारका ऊनपन्नरसवस्सा। केन नु खो उपायेन इमे दारका न विनस्सेय्यु’’न्ति? अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवतो एतमत्थं आरोचेसि। उस्सहन्ति पन ते, आनन्द, दारका काके उड्डापेतुन्ति? उस्सहन्ति, भगवाति। अथ खो भगवा एतस्मिं निदाने एतस्मिं पकरणे धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘अनुजानामि, भिक्खवे, ऊनपन्नरसवस्सं दारकं काकुड्डेपकं पब्बाजेतु’’न्ति।
अहिवातकरोगवत्थु निट्ठितं।
३८. कण्टकवत्थु
१०१. तेन खो पन समयेन आयस्मतो उपनन्दस्स सक्यपुत्तस्स द्वे सामणेरा होन्ति – कण्टको च महको च। ते अञ्ञमञ्ञं दूसेसुं। भिक्खू उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘कथञ्हि नाम सामणेरा एवरूपं अनाचारं आचरिस्सन्ती’’ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, एकेन द्वे सामणेरा उपट्ठापेतब्बा। यो उपट्ठापेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
कण्टकवत्थु निट्ठितं।
३९. आहुन्दरिकवत्थु
१०२. तेन खो पन समयेन भगवा तत्थेव राजगहे वस्सं वसि, तत्थ हेमन्तं, तत्थ गिम्हं। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘आहुन्दरिका समणानं सक्यपुत्तियानं दिसा अन्धकारा, न इमेसं दिसा पक्खायन्ती’’ति। अस्सोसुं खो भिक्खू तेसं मनुस्सानं उज्झायन्तानं खिय्यन्तानं विपाचेन्तानं। अथ खो ते भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘गच्छानन्द, अवापुरणं [अपापुरणं (क॰)] आदाय अनुपरिवेणियं भिक्खूनं आरोचेहि – ‘‘इच्छतावुसो भगवा दक्खिणागिरिं चारिकं पक्कमितुं। यस्सायस्मतो अत्थो, सो आगच्छतू’’ति। एवं, भन्ते, ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुणित्वा अवापुरणं आदाय अनुपरिवेणियं भिक्खूनं आरोचेसि – ‘इच्छतावुसो भगवा दक्खिणागिरिं चारिकं पक्कमितुं। यस्सायस्मतो अत्थो, सो आगच्छतू’’’ति। भिक्खू एवमाहंसु – ‘‘भगवता, आवुसो आनन्द, पञ्ञत्तं दसवस्सानि निस्साय वत्थुं, दसवस्सेन निस्सयं दातुं। तत्थ च नो गन्तब्बं भविस्सति, निस्सयो च गहेतब्बो भविस्सति, इत्तरो च वासो भविस्सति, पुन च पच्चागन्तब्बं भविस्सति, पुन च निस्सयो गहेतब्बो भविस्सति। सचे अम्हाकं आचरियुपज्झाया गमिस्सन्ति, मयम्पि गमिस्साम; नो चे अम्हाकं आचरियुपज्झाया गमिस्सन्ति, मयम्पि न गमिस्साम। लहुचित्तकता नो, आवुसो आनन्द, पञ्ञायिस्सती’’ति। अथ खो भगवा ओगणेन भिक्खुसङ्घेन दक्खिणागिरिं चारिकं पक्कामि।
आहुन्दरिकवत्थु निट्ठितं।
४०. निस्सयमुच्चनककथा
१०३. अथ खो भगवा दक्खिणागिरिस्मिं यथाभिरन्तं विहरित्वा पुनदेव राजगहं पच्चागच्छि। अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘किं नु खो, आनन्द, तथागतो ओगणेन भिक्खुसङ्घेन दक्खिणागिरिं चारिकं पक्कन्तो’’ति? अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवतो एतमत्थं आरोचेसि। अथ खो भगवा एतस्मिं निदाने एतस्मिं पकरणे धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘अनुजानामि, भिक्खवे, ब्यत्तेन भिक्खुना पटिबलेन पञ्चवस्सानि निस्साय वत्थुं, अब्यत्तेन यावजीवं।
‘‘पञ्चहि , भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं। न असेक्खेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो होति न असेक्खेन समाधिक्खन्धेन, न असेक्खेन पञ्ञाक्खन्धेन न असेक्खेन विमुत्तिक्खन्धेन न असेक्खेन विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धेन समन्नागतो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘पञ्चहि , भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं। असेक्खेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो होति असेक्खेन समाधिक्खन्धेन। असेक्खेन पञ्ञाक्खन्धेन… असेक्खेन विमुत्तिक्खन्धेन… असेक्खेन विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धेन समन्नागतो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं। अस्सद्धो होति, अहिरिको होति, अनोत्तप्पी होति, कुसीतो होति, मुट्ठस्सति होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं। सद्धो होति , हिरिमा होति, ओत्तप्पी होति, आरद्धवीरियो होति, उपट्ठितस्सति होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं। अधिसीले सीलविपन्नो होति, अज्झाचारे आचारविपन्नो होति, अतिदिट्ठिया दिट्ठिविपन्नो होति, अप्पस्सुतो होति, दुप्पञ्ञो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘पञ्चहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं। न अधिसीले सीलविपन्नो होति, न अज्झाचारे आचारविपन्नो होति, न अतिदिट्ठिया दिट्ठिविपन्नो होति, बहुस्सुतो होति, पञ्ञवा होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘अपरेहिपि , भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं। आपत्तिं न जानाति, अनापत्तिं न जानाति, लहुकं आपत्तिं न जानाति, गरुकं आपत्तिं न जानाति, उभयानि खो पनस्स पातिमोक्खानि वित्थारेन न स्वागतानि होन्ति न सुविभत्तानि न सुप्पवत्तीनि न सुविनिच्छितानि सुत्तसो अनुब्यञ्जनसो – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘पञ्चहि , भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं। आपत्तिं जानाति, अनापत्तिं जानाति, लहुकं आपत्तिं जानाति, गरुकं आपत्तिं जानाति, उभयानि खो पनस्स पातिमोक्खानि वित्थारेन स्वागतानि होन्ति सुविभत्तानि सुप्पवत्तीनि सुविनिच्छितानि सुत्तसो अनुब्यञ्जनसो – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं। आपत्तिं न जानाति, अनापत्तिं न जानाति, लहुकं आपत्तिं न जानाति, गरुकं आपत्तिं न जानाति, ऊनपञ्चवस्सो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘पञ्चहि , भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं। आपत्तिं जानाति, अनापत्तिं जानाति, लहुकं आपत्तिं जानाति, गरुकं आपत्तिं जानाति, पञ्चवस्सो वा होति अतिरेक पञ्चवस्सो वा – इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं।
निस्सयमुच्चनककथा निट्ठिता।
पञ्चकदसवारो निट्ठितो।
१०४. ‘‘छहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं। न असेक्खेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो होति, न असेक्खेन समाधिक्खन्धेन, न असेक्खेन पञ्ञाक्खन्धेन, न असेक्खेन विमुत्तिक्खन्धेन, न असेक्खेन विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धेन समन्नागतो होति, ऊनपञ्चवस्सो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘छहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं। असेक्खेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो होति, असेक्खेन समाधिक्खन्धेन, असेक्खेन पञ्ञाक्खन्धेन, असेक्खेन विमुत्तिक्खन्धेन, असेक्खेन विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धेन समन्नागतो होति, पञ्चवस्सो वा होति अतिरेकपञ्चवस्सो वा – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘अपरेहिपि , भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं। अस्सद्धो होति, अहिरिको होति, अनोत्तप्पी होति, कुसीतो होति, मुट्ठस्सति होति, ऊनपञ्चवस्सो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘छहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं। सद्धो होति, हिरिमा होति, ओत्तप्पी होति, आरद्धवीरियो होति, उपट्ठितस्सति होति, पञ्चवस्सो वा होति अतिरेकपञ्चवस्सो वा – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं। अधिसीले सीलविपन्नो होति, अज्झाचारे आचारविपन्नो होति, अतिदिट्ठिया दिट्ठिविपन्नो होति, अप्पस्सुतो होति, दुप्पञ्ञो होति, ऊनपञ्चवस्सो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘छहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं। न अधिसीले सीलविपन्नो होति, न अज्झाचारे आचारविपन्नो होति, न अतिदिट्ठिया दिट्ठिविपन्नो होति, बहुस्सुतो होति, पञ्ञवा होति, पञ्चवस्सो वा होति अतिरेकपञ्चवस्सो वा – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘अपरेहिपि, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं। आपत्तिं न जानाति, अनापत्तिं न जानाति, लहुकं आपत्तिं न जानाति, गरुकं आपत्तिं न जानाति, उभयानि खो पनस्स पातिमोक्खानि वित्थारेन न स्वागतानि होन्ति न सुविभत्तानि न सुप्पवत्तीनि न सुविनिच्छितानि सुत्तसो अनुब्यञ्जनसो, ऊनपञ्चवस्सो होति – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना न अनिस्सितेन वत्थब्बं।
‘‘छहि, भिक्खवे, अङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्बं। आपत्तिं जानाति, अनापत्तिं जानाति, लहुकं आपत्तिं जानाति, गरुकं आपत्तिं जानाति, उभयानि खो पनस्स पातिमोक्खानि वित्थारेन स्वागतानि होन्ति सुविभत्तानि सुप्पवत्तीनि सुविनिच्छितानि सुत्तसो अनुब्यञ्जनसो, पञ्चवस्सो वा होति अतिरेकपञ्चवस्सो वा – इमेहि खो, भिक्खवे, छहङ्गेहि समन्नागतेन भिक्खुना अनिस्सितेन वत्थब्ब’’न्ति।
अभयूवरभाणवारो निट्ठितो अट्ठमो।
अट्ठमभाणवारो।
४१. राहुलवत्थु
१०५. अथ खो भगवा राजगहे यथाभिरन्तं विहरित्वा येन कपिलवत्थु तेन चारिकं पक्कामि। अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन कपिलवत्थु तदवसरि। तत्र सुदं भगवा सक्केसु विहरति कपिलवत्थुस्मिं निग्रोधारामे। अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय येन सुद्धोदनस्स सक्कस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि। अथ खो राहुलमाता देवी राहुलं कुमारं एतदवोच – ‘‘एसो ते, राहुल, पिता। गच्छस्सु [गच्छस्स (स्या॰)], दायज्जं याचाही’’ति। अथ खो राहुलो कुमारो येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवतो पुरतो, अट्ठासि – ‘‘सुखा ते, समण, छाया’’ति। अथ खो भगवा उट्ठायासना पक्कामि। अथ खो राहुलो कुमारो भगवन्तं पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धि – ‘‘दायज्जं मे, समण, देहि; दायज्जं मे, समण, देही’’ति। अथ खो भगवा आयस्मन्तं सारिपुत्तं आमन्तेसि – ‘‘तेन हि त्वं, सारिपुत्त, राहुलं कुमारं पब्बाजेही’’ति। ‘‘कथाहं, भन्ते, राहुलं कुमारं पब्बाजेमी’’ति? अथ खो भगवा एतस्मिं निदाने एतस्मिं पकरणे धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘अनुजानामि, भिक्खवे, तीहि सरणगमनेहि सामणेरपब्बज्जं। एवञ्च पन, भिक्खवे, पब्बाजेतब्बो – पठमं केसमस्सुं ओहारापेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादापेत्वा एकंसं उत्तरासङ्गं कारापेत्वा भिक्खूनं पादे वन्दापेत्वा उक्कुटिकं निसीदापेत्वा अञ्जलिं पग्गण्हापेत्वा एवं वदेहीति वत्तब्बो – बुद्धं सरणं गच्छामि, धम्मं सरणं गच्छामि, सङ्घं सरणं गच्छामि; दुतियम्पि बुद्धं सरणं गच्छामि, दुतियम्पि धम्मं सरणं गच्छामि, दुतियम्पि सङ्घं सरणं गच्छामि; ततियम्पि बुद्धं सरणं गच्छामि, ततियम्पि धम्मं सरणं गच्छामि, ततियम्पि सङ्घं सरणं गच्छामीति। अनुजानामि, भिक्खवे, इमेहि तीहि सरणगमनेहि सामणेरपब्बज्ज’’न्ति। अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो राहुलं कुमारं पब्बाजेसि।
अथ खो सुद्धोदनो सक्को येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो सुद्धोदनो सक्को भगवन्तं एतदवोच – ‘‘एकाहं, भन्ते, भगवन्तं वरं याचामी’’ति। ‘‘अतिक्कन्तवरा खो, गोतम, तथागता’’ति। ‘‘यञ्च, भन्ते, कप्पति, यञ्च अनवज्ज’’न्ति। ‘‘वदेहि, गोतमा’’ति। ‘‘भगवति मे, भन्ते, पब्बजिते अनप्पकं दुक्खं अहोसि, तथा नन्दे, अधिमत्तं राहुले। पुत्तपेमं , भन्ते, छविं छिन्दति, छविं छेत्वा चम्मं छिन्दति, चम्मं छेत्वा मंसं छिन्दति, मंसं छेत्वा न्हारुं छिन्दति, न्हारुं छेत्वा अट्ठिं छिन्दति, अट्ठिं छेत्वा अट्ठिमिञ्जं आहच्च तिट्ठति। साधु, भन्ते, अय्या अननुञ्ञातं मातापितूहि पुत्तं न पब्बाजेय्यु’’न्ति। अथ खो भगवा सुद्धोदनं सक्कं धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि। अथ खो सुद्धोदनो सक्को भगवता धम्मिया कथाय सन्दस्सितो समादपितो समुत्तेजितो सम्पहंसितो उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि। अथ खो भगवा एतस्मिं निदाने एतस्मिं पकरणे धम्मिं कथं कत्वा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘न, भिक्खवे, अननुञ्ञातो मातापितूहि पुत्तो पब्बाजेतब्बो। यो पब्बाजेय्य, आपत्ति दुक्कटस्सा’’ति।
अथ खो भगवा कपिलवत्थुस्मिं यथाभिरन्तं विहरित्वा येन सावत्थि तेन चारिकं पक्कामि। अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन सावत्थि तदवसरि। तत्र सुदं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। तेन खो पन समयेन आयस्मतो सारिपुत्तस्स उपट्ठाककुलं आयस्मतो सारिपुत्तस्स सन्तिके दारकं पाहेसि – ‘‘इमं दारकं थेरो पब्बाजेतू’’ति। अथ खो आयस्मतो सारिपुत्तस्स एतदहोसि – ‘‘भगवता पञ्ञत्तं ‘न एकेन द्वे सामणेरा उपट्ठापेतब्बा’ति। अयञ्च मे राहुलो सामणेरो। कथं नु खो मया पटिपज्जितब्ब’’न्ति? भगवतो एतमत्थं आरोचेसि। अनुजानामि, भिक्खवे, ब्यत्तेन भिक्खुना पटिबलेन एकेन द्वे सामणेरे उपट्ठापेतुं, यावतके वा पन उस्सहति ओवदितुं अनुसासितुं तावतके उपट्ठापेतुन्ति।
राहुलवत्थु निट्ठितं।
४२. सिक्खापदकथा
१०६. अथ खो सामणेरानं एतदहोसि – ‘‘कति नु खो अम्हाकं सिक्खापदानि, कत्थ च अम्हेहि सिक्खितब्ब’’न्ति? भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं…पे॰… अनुजानामि, भिक्खवे, सामणेरानं दस सिक्खापदानि, तेसु च सामणेरेहि सिक्खितुं – पाणातिपाता वेरमणी [वेरमणि, वेरमणिं (क॰)], अदिन्नादाना वेरमणी, अब्रह्मचरिया वेरमणी, मुसावादा वेरमणी, सुरामेरयमज्जपमादट्ठाना वेरमणी, विकालभोजना वेरमणी, नच्चगीतवादितविसूकदस्सना वेरमणी, मालागन्धविलेपनधारणमण्डनविभूसनट्ठाना वेरमणी , उच्चासयनमहासयना वेरमणी, जातरूपरजतपटिग्गहणा वेरमणी। अनुजानामि, भिक्खवे, सामणेरानं इमानि दस सिक्खापदानि, इमेसु च सामणेरेहि सिक्खितुन्ति।
सिक्खापदकथा निट्ठिता।
४३. दण्डकम्मवत्थु
१०७. तेन खो पन समयेन सामणेरा भिक्खूसु अगारवा अप्पतिस्सा असभागवुत्तिका विहरन्ति। भिक्खू उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘कथञ्हि नाम सामणेरा भिक्खूसु अगारवा अप्पतिस्सा असभागवुत्तिका विहरिस्सन्ती’’ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं…पे॰… अनुजानामि, भिक्खवे, पञ्चहङ्गेहि समन्नागतस्स सामणेरस्स दण्डकम्मं कातुं। भिक्खूनं अलाभाय परिसक्कति, भिक्खूनं अनत्थाय परिसक्कति, भिक्खूनं अवासाय परिसक्कति, भिक्खू अक्कोसति परिभासति, भिक्खू भिक्खूहि भेदेति – अनुजानामि, भिक्खवे, इमेहि पञ्चहङ्गेहि समन्नागतस्स सामणेरस्स दण्डकम्मं कातुन्ति।
अथ खो भिक्खूनं एतदहोसि – ‘‘किं नु खो दण्डकम्मं कातब्ब’’न्ति? भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, आवरणं कातुन्ति।
तेन खो पन समयेन भिक्खू सामणेरानं सब्बं सङ्घारामं आवरणं करोन्ति। सामणेरा आरामं पविसितुं अलभमाना पक्कमन्तिपि , विब्भमन्तिपि, तित्थियेसुपि सङ्कमन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, सब्बो सङ्घारामो आवरणं कातब्बो। यो करेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स। अनुजानामि, भिक्खवे, यत्थ वा वसति, यत्थ वा पटिक्कमति, तत्थ आवरणं कातुन्ति।
तेन खो पन समयेन भिक्खू सामणेरानं मुखद्वारिकं आहारं आवरणं करोन्ति। मनुस्सा यागुपानम्पि सङ्घभत्तम्पि करोन्ता सामणेरे एवं वदेन्ति – ‘‘एथ, भन्ते, यागुं पिवथ; एथ, भन्ते, भत्तं भुञ्जथा’’ति। सामणेरा एवं वदेन्ति – ‘‘नावुसो, लब्भा। भिक्खूहि आवरणं कत’’न्ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘कथञ्हि नाम भदन्ता सामणेरानं मुखद्वारिकं आहारं आवरणं करिस्सन्ती’’ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, मुखद्वारिको आहारो आवरणं कातब्बो। यो करेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
दण्डकम्मवत्थु निट्ठितं।
४४. अनापुच्छावरणवत्थु
१०८. तेन खो पन समयेन छब्बग्गिया भिक्खू उपज्झाये अनापुच्छा सामणेरानं आवरणं करोन्ति। उपज्झाया गवेसन्ति – कथं [कहं (क॰)] नु खो अम्हाकं सामणेरा न दिस्सन्तीति। भिक्खू एवमाहंसु – ‘‘छब्बग्गियेहि, आवुसो, भिक्खूहि आवरणं कत’’न्ति। उपज्झाया उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘कथञ्हि नाम छब्बग्गिया भिक्खू अम्हे अनापुच्छा अम्हाकं सामणेरानं आवरणं करिस्सन्ती’’ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, उपज्झाये अनापुच्छा आवरणं कातब्बं। यो करेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
अनापुच्छावरणवत्थु निट्ठितं।
४५. अपलाळनवत्थु
तेन खो पन समयेन छब्बग्गिया भिक्खू थेरानं भिक्खूनं सामणेरे अपलाळेन्ति। थेरा सामं दन्तकट्ठम्पि मुखोदकम्पि गण्हन्ता किलमन्ति । भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, अञ्ञस्स परिसा अपलाळेतब्बा। यो अपलाळेय्य, आपत्ति दुक्कटस्सा ति।
अपलाळनवत्थु निट्ठितं।
४६. कण्टकसामणेरवत्थु
तेन खो पन समयेन आयस्मतो उपनन्दस्स सक्यपुत्तस्स कण्टको नाम सामणेरो कण्टकिं नाम भिक्खुनिं दूसेसि। भिक्खू उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘कथञ्हि नाम सामणेरो एवरूपं अनाचारं आचरिस्सती’’ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, दसहङ्गेहि समन्नागतं सामणेरं नासेतुं। पाणातिपाती होति, अदिन्नादायी होति, अब्रह्मचारी होति, मुसावादी होति, मज्जपायी होति, बुद्धस्स अवण्णं भासति, धम्मस्स अवण्णं भासति, सङ्घस्स अवण्णं भासति, मिच्छादिट्ठिको होति, भिक्खुनिदूसको होति – अनुजानामि, भिक्खवे, इमेहि दसहङ्गेहि समन्नागतं सामणेरं नासेतुन्ति।
४७. पण्डकवत्थु
१०९. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो पण्डको भिक्खूसु पब्बजितो होति। सो दहरे दहरे भिक्खू उपसङ्कमित्वा एवं वदेति – ‘‘एथ, मं आयस्मन्तो दूसेथा’’ति। भिक्खू अपसादेन्ति – ‘‘नस्स, पण्डक, विनस्स, पण्डक, को तया अत्थो’’ति। सो भिक्खूहि अपसादितो महन्ते महन्ते मोळिगल्ले सामणेरे उपसङ्कमित्वा एवं वदेति – ‘‘एथ, मं आवुसो दूसेथा’’ति। सामणेरा अपसादेन्ति – ‘‘नस्स, पण्डक, विनस्स, पण्डक, को तया अत्थो’’ति। सो सामणेरेहि अपसादितो हत्थिभण्डे अस्सभण्डे उपसङ्कमित्वा एवं वदेति – ‘‘एथ, मं, आवुसो , दूसेथा’’ति। हत्थिभण्डा अस्सभण्डा दूसेसुं। ते उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – ‘‘पण्डका इमे समणा सक्यपुत्तिया। येपि इमेसं न पण्डका, तेपि इमे पण्डके दूसेन्ति। एवं इमे सब्बेव अब्रह्मचारिनो’’ति। अस्सोसुं खो भिक्खू तेसं हत्थिभण्डानं अस्सभण्डानं उज्झायन्तानं खिय्यन्तानं विपाचेन्तानं। अथ खो ते भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। पण्डको, भिक्खवे, अनुपसम्पन्नो न उपसम्पादेतब्बो, उपसम्पन्नो नासेतब्बोति।
४८. थेय्यसंवासकवत्थु
११०. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो पुराणकुलपुत्तो खीणकोलञ्ञो सुखुमालो होति। अथ खो तस्स पुराणकुलपुत्तस्स खीणकोलञ्ञस्स एतदहोसि – ‘‘अहं खो सुखुमालो, न पटिबलो अनधिगतं वा भोगं अधिगन्तुं, अधिगतं वा भोगं फातिं कातुं। केन नु खो अहं उपायेन सुखञ्च जीवेय्यं, न च किलमेय्य’’न्ति? अथ खो तस्स पुराणकुलपुत्तस्स खीणकोलञ्ञस्स एतदहोसि – ‘‘इमे खो समणा सक्यपुत्तिया सुखसीला सुखसमाचारा, सुभोजनानि भुञ्जित्वा निवातेसु सयनेसु सयन्ति। यंनूनाहं सामं पत्तचीवरं पटियादेत्वा केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा आरामं गन्त्वा भिक्खूहि सद्धिं संवसेय्य’’न्ति। अथ खो सो पुराणकुलपुत्तो खीणकोलञ्ञो सामं पत्तचीवरं पटियादेत्वा केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा आरामं गन्त्वा भिक्खू अभिवादेति। भिक्खू एवमाहंसु – ‘‘कतिवस्सोसि त्वं, आवुसो’’ति? किं एतं, आवुसो, कतिवस्सो नामाति? को पन ते, आवुसो, उपज्झायोति? किं एतं , आवुसो, उपज्झायो नामाति? भिक्खू आयस्मन्तं उपालिं एतदवोचुं – ‘‘इङ्घावुसो उपालि, इमं पब्बजितं अनुयुञ्जाही’’ति। अथ खो सो पुराणकुलपुत्तो खीणकोलञ्ञो आयस्मता उपालिना अनुयुञ्जियमानो एतमत्थं आरोचेसि। आयस्मा उपालि भिक्खूनं एतमत्थं आरोचेसि। भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। थेय्यसंवासको, भिक्खवे, अनुपसम्पन्नो न उपसम्पादेतब्बो, उपसम्पन्नो नासेतब्बोति। तित्थियपक्कन्तको, भिक्खवे, अनुपसम्पन्नो न उपसम्पादेतब्बो, उपसम्पन्नो नासेतब्बोति।
४९. तिरच्छानगतवत्थु
१११. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो नागो नागयोनिया अट्टीयति हरायति जिगुच्छति। अथ खो तस्स नागस्स एतदहोसि – ‘‘केन नु खो अहं उपायेन नागयोनिया च परिमुच्चेय्यं खिप्पञ्च मनुस्सत्तं पटिलभेय्य’’न्ति। अथ खो तस्स नागस्स एतदहोसि – ‘‘इमे खो समणा सक्यपुत्तिया धम्मचारिनो समचारिनो ब्रह्मचारिनो सच्चवादिनो सीलवन्तो कल्याणधम्मा। सचे खो अहं समणेसु सक्यपुत्तियेसु पब्बजेय्यं, एवाहं नागयोनिया च परिमुच्चेय्यं, खिप्पञ्च मनुस्सत्तं पटिलभेय्य’’न्ति। अथ खो सो नागो माणवकवण्णेन भिक्खू उपसङ्कमित्वा पब्बज्जं याचि। तं भिक्खू पब्बाजेसुं, उपसम्पादेसुं। तेन खो पन समयेन सो नागो अञ्ञतरेन भिक्खुना सद्धिं पच्चन्तिमे विहारे पटिवसति। अथ खो सो भिक्खु रत्तिया पच्चूससमयं पच्चुट्ठाय अज्झोकासे चङ्कमति। अथ खो सो नागो तस्स भिक्खुनो निक्खन्ते विस्सट्ठो निद्दं ओक्कमि। सब्बो विहारो अहिना पुण्णो, वातपानेहि भोगा निक्खन्ता होन्ति। अथ खो सो भिक्खु विहारं पविसिस्सामीति कवाटं पणामेन्तो अद्दस सब्बं विहारं अहिना पुण्णं, वातपानेहि भोगे निक्खन्ते, दिस्वान भीतो विस्सरमकासि। भिक्खू उपधावित्वा तं भिक्खुं एतदवोचुं – ‘‘किस्स त्वं, आवुसो, विस्सरमकासी’’ति? ‘‘अयं, आवुसो, सब्बो विहारो अहिना पुण्णो, वातपानेहि भोगा निक्खन्ता’’ति। अथ खो सो नागो तेन सद्देन पटिबुज्झित्वा सके आसने निसीदि। भिक्खू एवमाहंसु – ‘‘कोसि त्वं, आवुसो’’ति? ‘‘अहं, भन्ते, नागो’’ति। ‘‘किस्स पन त्वं, आवुसो, एवरूपं अकासी’’ति? अथ खो सो नागो भिक्खूनं एतमत्थं आरोचेसि। भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अथ खो भगवा एतस्मिं निदाने एतस्मिं पकरणे भिक्खुसङ्घं सन्निपातापेत्वा तं नागं एतदवोच – ‘‘तुम्हे खोत्थ नागा अविरुळ्हिधम्मा इमस्मिं धम्मविनये। गच्छ त्वं, नाग, तत्थेव चातुद्दसे पन्नरसे अट्ठमिया च पक्खस्स उपोसथं उपवस, एवं त्वं नागयोनिया च परिमुच्चिस्ससि, खिप्पञ्च मनुस्सत्तं पटिलभिस्ससी’’ति। अथ खो सो नागो अविरुळ्हिधम्मो किराहं इमस्मिं धम्मविनयेति दुक्खी दुम्मनो अस्सूनि पवत्तयमानो विस्सरं कत्वा पक्कामि। अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘द्वेमे, भिक्खवे, पच्चया नागस्स सभावपातुकम्माय। यदा च सजातिया मेथुनं धम्मं पटिसेवति, यदा च विस्सट्ठो निद्दं ओक्कमति – इमे खो, भिक्खवे, द्वे पच्चया नागस्स सभावपातुकम्माय । तिरच्छानगतो, भिक्खवे, अनुपसम्पन्नो न उपसम्पादेतब्बो, उपसम्पन्नो नासेतब्बो’’ति।
५०. मातुघातकवत्थु
११२. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो माणवको मातरं जीविता वोरोपेसि। सो तेन पापकेन कम्मेन अट्टीयति हरायति जिगुच्छति । अथ खो तस्स माणवकस्स एतदहोसि – ‘‘केन नु खो अहं उपायेन इमस्स पापकस्स कम्मस्स निक्खन्तिं करेय्य’’न्ति? अथ खो तस्स माणवकस्स एतदहोसि – ‘‘इमे खो समणा सक्यपुत्तिया धम्मचारिनो समचारिनो ब्रह्मचारिनो सच्चवादिनो सीलवन्तो कल्याणधम्मा। सचे खो अहं समणेसु सक्यपुत्तियेसु पब्बजेय्यं, एवाहं इमस्स पापकस्स कम्मस्स निक्खन्तिं करेय्य’’न्ति। अथ खो सो माणवको भिक्खू उपसङ्कमित्वा पब्बज्जं याचि। भिक्खू आयस्मन्तं उपालिं एतदवोचुं – ‘‘पुब्बेपि खो, आवुसो उपालि, नागो माणवकवण्णेन भिक्खूसु पब्बजितो। इङ्घावुसो उपालि, इमं माणवकं अनुयुञ्जाही’’ति। अथ खो सो माणवको आयस्मता उपालिना अनुयुञ्जीयमानो एतमत्थं आरोचेसि। आयस्मा उपालि भिक्खूनं एतमत्थं आरोचेसि। भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं…पे॰… मातुघातको, भिक्खवे, अनुपसम्पन्नो न उपसम्पादेतब्बो, उपसम्पन्नो नासेतब्बोति।
५१. पितुघातकवत्थु
११३. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो माणवको पितरं जीविता वोरोपेसि। सो तेन पापकेन कम्मेन अट्टीयति हरायति जिगुच्छति। अथ खो तस्स माणवकस्स एतदहोसि ‘‘केन नु खो अहं उपायेन इमस्स पापकस्स कम्मस्स निक्खन्तिं करेय्य’’न्ति। अथ खो तस्स माणवकस्स एतदहोसि ‘‘इमे खो समणा सक्यपुत्तिया धम्मचारिनो समचारिनो ब्रह्मचारिनो सच्चवादिनो सीलवन्तो कल्याणधम्मा, सचे खो अहं समणेसु सक्यपुत्तियेसु पब्बजेय्यं, एवाहं इमस्स पापकस्स कम्मस्स निक्खन्तिं करेय्य’’न्ति। अथ खो सो माणवको भिक्खू उपसङ्कमित्वा पब्बज्जं याचि। भिक्खू आयस्मन्तं उपालिं एतदवोचुं – ‘‘पुब्बेपि खो, आवुसो उपालि, नागो माणवकवण्णेन भिक्खूसु पब्बजितो, इङ्घावुसो, उपालि, इमं माणवकं अनुयुञ्जाही’’ति। अथ खो सो माणवको आयस्मता उपालिना अनुयुञ्जीयमानो एतमत्थं आरोचेसि। आयस्मा उपालि भिक्खूनं एतमत्थं आरोचेसि। भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। पितुघातको, भिक्खवे, अनुपसम्पन्नो न उपसम्पादेतब्बो, उपसम्पन्नो नासेतब्बोति।
५२. अरहन्तघातकवत्थु
११४. तेन खो पन समयेन सम्बहुला भिक्खू साकेता सावत्थिं अद्धानमग्गप्पटिपन्ना होन्ति। अन्तरामग्गे चोरा निक्खमित्वा एकच्चे भिक्खू अच्छिन्दिंसु, एकच्चे भिक्खू हनिंसु। सावत्थिया राजभटा निक्खमित्वा एकच्चे चोरे अग्गहेसुं, एकच्चे चोरा पलायिंसु। ये ते पलायिंसु ते भिक्खूसु पब्बजिंसु, ये ते गहिता ते वधाय ओनिय्यन्ति । अद्दसंसु खो ते पलायित्वा पब्बजिता ते चोरे वधाय ओनिय्यमाने, दिस्वान एवमाहंसु – ‘‘साधु खो मयं पलायिम्हा, सचा च [सचे च, सचज्ज (अट्ठकथायं पाठन्तरा)] मयं गय्हेय्याम [गण्हेय्याम (क॰)], मयम्पि एवमेव हञ्ञेय्यामा’’ति । भिक्खू एवमाहंसु – ‘‘किं पन तुम्हे, आवुसो, अकत्था’’ति? अथ खो ते पब्बजिता भिक्खूनं एतमत्थं आरोचेसुं। भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अरहन्तो एते, भिक्खवे, भिक्खू। अरहन्तघातको, भिक्खवे, अनुपसम्पन्नो न उपसम्पादेतब्बो, उपसम्पन्नो नासेतब्बोति।
५३. भिक्खुनीदूसकवत्थु
११५. तेन खो पन समयेन सम्बहुला भिक्खुनियो साकेता सावत्थिं अद्धानमग्गप्पटिपन्ना होन्ति। अन्तरामग्गे चोरा निक्खमित्वा एकच्चा भिक्खुनियो अच्छिन्दिंसु, एकच्चा भिक्खुनियो दूसेसुं। सावत्थिया राजभटा निक्खमित्वा एकच्चे चोरे अग्गहेसुं, एकच्चे चोरा पलायिंसु। ये ते पलायिंसु, ते भिक्खूसु पब्बजिंसु। ये ते गहिता, ते वधाय ओनिय्यन्ति। अद्दसंसु खो ते पलायित्वा पब्बजिता ते चोरे वधाय ओनिय्यमाने, दिस्वान एवमाहंसु ‘‘साधु खो मयं पलायिम्हा, सचा च मयं गय्हेय्याम, मयम्पि एवमेव हञ्ञेय्यामा’’ति। भिक्खू एवमाहंसु ‘‘किं पन तुम्हे, आवुसो, अकत्था’’ति। अथ खो ते पब्बजिता भिक्खूनं एतमत्थं आरोचेसुं। भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। भिक्खुनिदूसको, भिक्खवे , अनुपसम्पन्नो न उपसम्पादेतब्बो, उपसम्पन्नो नासेतब्बोति। सङ्घभेदको, भिक्खवे, अनुपसम्पन्नो न उपसम्पादेतब्बो, उपसम्पन्नो नासेतब्बोति। लोहितुप्पादको, भिक्खवे, अनुपसम्पन्नो न उपसम्पादेतब्बो, उपसम्पन्नो नासेतब्बोति।
५४. उभतोब्यञ्जनकवत्थु
११६. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो उभतोब्यञ्जनको भिक्खूसु पब्बजितो होति। सो करोतिपि कारापेतिपि। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। उभतोब्यञ्जनको, भिक्खवे, अनुपसम्पन्नो न उपसम्पादेतब्बो, उपसम्पन्नो नासेतब्बोति।
५५. अनुपज्झायकादिवत्थूनि
११७. तेन खो पन समयेन भिक्खू अनुपज्झायकं उपसम्पादेन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, अनुपज्झायको उपसम्पादेतब्बो। यो उपसम्पादेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
तेन खो पन समयेन भिक्खू सङ्घेन उपज्झायेन उपसम्पादेन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, सङ्घेन उपज्झायेन उपसम्पादेतब्बो। यो उपसम्पादेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
तेन खो पन समयेन भिक्खू गणेन उपज्झायेन उपसम्पादेन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, गणेन उपज्झायेन उपसम्पादेतब्बो। यो उपसम्पादेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
तेन खो पन समयेन भिक्खू पण्डकुपज्झायेन उपसम्पादेन्ति…पे॰… थेय्यसंवासकुपज्झायेन उपसम्पादेन्ति…पे॰… तित्थियपक्कन्तकुपज्झायेन उपसम्पादेन्ति …पे॰… तिरच्छानगतुपज्झायेन उपसम्पादेन्ति…पे॰… मातुघातकुपज्झायेन उपसम्पादेन्ति…पे॰… पितुघातकुपज्झायेन उपसम्पादेन्ति…पे॰… अरहन्तघातकुपज्झायेन उपसम्पादेन्ति…पे॰… भिक्खुनिदूसकुपज्झायेन उपसम्पादेन्ति…पे॰… सङ्घभेदकुपज्झायेन उपसम्पादेन्ति…पे॰… लोहितुप्पादकुपज्झायेन उपसम्पादेन्ति…पे॰… उभतोब्यञ्जनकुपज्झायेन उपसम्पादेन्ति भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, पण्डकुपज्झायेन उपसम्पादेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, थेय्यसंवासकुपज्झायेन उपसम्पादेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, तित्थियपक्कन्तकुपज्झायेन उपसम्पादेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, तिरच्छानगतुपज्झायेन उपसम्पादेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, मातुघातकुपज्झायेन उपसम्पादेतब्बो …पे॰… न, भिक्खवे, पितुघातकुपज्झायेन उपसम्पादेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, अरहन्तघातकुपज्झायेन उपसम्पादेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, भिक्खुनिदूसकुपज्झायेन उपसम्पादेतब्बो …पे॰… न, भिक्खवे, सङ्घभेदकुपज्झायेन उपसम्पादेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, लोहितुप्पादकुपज्झायेन उपसम्पादेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, उभतोब्यञ्जनकुपज्झायेन उपसम्पादेतब्बो। यो उपसम्पादेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
५६. अपत्तकादिवत्थु
११८. तेन खो पन समयेन भिक्खू अपत्तकं उपसम्पादेन्ति। हत्थेसु पिण्डाय चरन्ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – सेय्यथापि तित्थियाति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, अपत्तको उपसम्पादेतब्बो। यो उपसम्पादेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
तेन खो पन समयेन भिक्खू अचीवरकं उपसम्पादेन्ति । नग्गा पिण्डाय चरन्ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – सेय्यथापि तित्थियाति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, अचीवरको उपसम्पादेतब्बो। यो उपसम्पादेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
तेन खो पन समयेन भिक्खू अपत्तचीवरकं उपसम्पादेन्ति। नग्गा हत्थेसु पिण्डाय चरन्ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – सेय्यथापि तित्थियाति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, अपत्तचीवरको उपसम्पादेतब्बो। यो उपसम्पादेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
तेन खो पन समयेन भिक्खू याचितकेन पत्तेन उपसम्पादेन्ति। उपसम्पन्ने पत्तं पटिहरन्ति। हत्थेसु पिण्डाय चरन्ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – सेय्यथापि तित्थियाति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, याचितकेन पत्तेन उपसम्पादेतब्बो। यो उपसम्पादेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
तेन खो पन समयेन भिक्खू याचितकेन चीवरेन उपसम्पादेन्ति। उपसम्पन्ने चीवरं पटिहरन्ति। नग्गा पिण्डाय चरन्ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – सेय्यथापि तित्थियाति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, याचितकेन चीवरेन उपसम्पादेतब्बो। यो उपसम्पादेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
तेन खो पन समयेन भिक्खू याचितकेन पत्तचीवरेन उपसम्पादेन्ति। उपसम्पन्ने पत्तचीवरं पटिहरन्ति। नग्गा हत्थेसु पिण्डाय चरन्ति। मनुस्सा उज्झायन्ति खिय्यन्ति विपाचेन्ति – सेय्यथापि तित्थियाति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, याचितकेन पत्तचीवरेन उपसम्पादेतब्बो। यो उपसम्पादेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
नउपसम्पादेतब्बेकवीसतिवारो निट्ठितो।
५७. नपब्बाजेतब्बद्वत्तिंसवारो
११९. तेन खो पन समयेन भिक्खू हत्थच्छिन्नं पब्बाजेन्ति…पे॰… पादच्छिन्नं पब्बाजेन्ति…पे॰… हत्थपादच्छिन्नं पब्बाजेन्ति…पे॰… कण्णच्छिन्नं पब्बाजेन्ति…पे॰… नासच्छिन्नं पब्बाजेन्ति…पे॰… कण्णनासच्छिन्नं पब्बाजेन्ति…पे॰… अङ्गुलिच्छिन्नं पब्बाजेन्ति…पे॰… अळच्छिन्नं पब्बाजेन्ति…पे॰… कण्डरच्छिन्नं पब्बाजेन्ति…पे॰… फणहत्थकं पब्बाजेन्ति…पे॰… खुज्जं पब्बाजेन्ति…पे॰… वामनं पब्बाजेन्ति…पे॰… गलगण्डिं पब्बाजेन्ति…पे॰… लक्खणाहतं पब्बाजेन्ति…पे॰… कसाहतं पब्बाजेन्ति…पे॰… लिखितकं पब्बाजेन्ति…पे॰… सीपदिं पब्बाजेन्ति…पे॰… पापरोगिं पब्बाजेन्ति…पे॰… परिसदूसकं पब्बाजेन्ति…पे॰… काणं पब्बाजेन्ति…पे॰… कुणिं पब्बाजेन्ति…पे॰… खञ्जं पब्बाजेन्ति…पे॰… पक्खहतं पब्बाजेन्ति…पे॰… छिन्निरियापथं पब्बाजेन्ति…पे॰… जरादुब्बलं पब्बाजेन्ति…पे॰… अन्धं पब्बाजेन्ति…पे॰… मूगं पब्बाजेन्ति…पे॰… बधिरं पब्बाजेन्ति…पे॰… अन्धमूगं पब्बाजेन्ति…पे॰… अन्धबधिरं पब्बाजेन्ति…पे॰… मूगबधिरं पब्बाजेन्ति…पे॰… अन्धमूगबधिरं पब्बाजेन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं…पे॰… न, भिक्खवे, हत्थच्छिन्नो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, पादच्छिन्नो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, हत्थपादच्छिन्नो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, कण्णच्छिन्नो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, नासच्छिन्नो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, कण्णनासच्छिन्नो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, अङ्गुलिच्छिन्नो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, अळच्छिन्नो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, कण्डरच्छिन्नो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, फणहत्थको पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, खुज्जो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, वामनो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, गलगण्डी पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, लक्खणाहतो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, कसाहतो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, लिखितको पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, सीपदी पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, पापरोगी पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, परिसदूसको पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, काणो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न , भिक्खवे, कुणी पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, खञ्जो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, पक्खहतो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, छिन्निरियापथो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, जरादुब्बलो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, अन्धो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, मूगो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, बधिरो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, अन्धमूगो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, अन्धबधिरो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, मूगबधिरो पब्बाजेतब्बो…पे॰… न, भिक्खवे, अन्धमूगबधिरो पब्बाजेतब्बो। यो पब्बाजेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
नपब्बाजेतब्बद्वत्तिंसवारो निट्ठितो।
दायज्जभाणवारो निट्ठितो नवमो।
५८. अलज्जीनिस्सयवत्थूनि
१२०. तेन खो पन समयेन छब्बग्गिया भिक्खू अलज्जीनं निस्सयं देन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, अलज्जीनं निस्सयो दातब्बो। यो ददेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
तेन खो पन समयेन भिक्खू अलज्जीनं निस्साय वसन्ति। तेपि नचिरस्सेव अलज्जिनो होन्ति पापकाभिक्खू। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, अलज्जीनं निस्साय वत्थब्बं। यो वसेय्य, आपत्ति दुक्कटस्साति।
अथ खो भिक्खूनं एतदहोसि – ‘‘भगवता पञ्ञत्तं ‘न अलज्जीनं निस्सयो दातब्बो, न अलज्जीनं निस्साय वत्थब्ब’न्ति। कथं नु खो मयं जानेय्याम लज्जिं वा अलज्जिं वा’’ति? भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, चतूहपञ्चाहं आगमेतुं याव भिक्खुसभागतं जानामीति।
५९. गमिकादिनिस्सयवत्थूनि
१२१. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो भिक्खु कोसलेसु जनपदे अद्धानमग्गप्पटिपन्नो होति। अथ खो तस्स भिक्खुनो एतदहोसि – ‘‘भगवता पञ्ञत्तं ‘न अनिस्सितेन वत्थब्ब’न्ति। अहञ्चम्हि निस्सयकरणीयो अद्धानमग्गप्पटिपन्नो, कथं नु खो मया पटिपज्जितब्ब’’न्ति? भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, अद्धानमग्गप्पटिपन्नेन भिक्खुना निस्सयं अलभमानेन अनिस्सितेन वत्थुन्ति।
तेन खो पन समयेन द्वे भिक्खू कोसलेसु जनपदे अद्धानमग्गप्पटिपन्ना होन्ति। ते अञ्ञतरं आवासं उपगच्छिंसु। तत्थ एको भिक्खु गिलानो होति। अथ खो तस्स गिलानस्स भिक्खुनो एतदहोसि – ‘‘भगवता पञ्ञत्तं ‘न अनिस्सितेन वत्थब्ब’न्ति। अहञ्चम्हि निस्सयकरणीयो गिलानो, कथं नु खो मया पटिपज्जितब्ब’’न्ति? भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, गिलानेन भिक्खुना निस्सयं अलभमानेन अनिस्सितेन वत्थुन्ति।
अथ खो तस्स गिलानुपट्ठाकस्स भिक्खुनो एतदहोसि – ‘‘भगवता पञ्ञत्तं ‘न अनिस्सितेन वत्थब्ब’न्ति। अहञ्चम्हि निस्सयकरणीयो, अयञ्च भिक्खु गिलानो, कथं नु खो मया पटिपज्जितब्ब’’न्ति? भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, गिलानुपट्ठाकेन भिक्खुना निस्सयं अलभमानेन याचियमानेन अनिस्सितेन वत्थुन्ति।
तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो भिक्खु अरञ्ञे विहरति। तस्स च तस्मिं सेनासने फासु होति। अथ खो तस्स भिक्खुनो एतदहोसि – ‘‘भगवता पञ्ञत्तं ‘न अनिस्सितेन वत्थब्ब’न्ति। अहञ्चम्हि निस्सयकरणीयो अरञ्ञे विहरामि, मय्हञ्च इमस्मिं सेनासने फासु होति, कथं नु खो मया पटिपज्जितब्ब’’न्ति? भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, आरञ्ञिकेन भिक्खुना फासुविहारं सल्लक्खेन्तेन निस्सयं अलभमानेन अनिस्सितेन वत्थुं – यदा पतिरूपो निस्सयदायको आगच्छिस्सति, तदा तस्स निस्साय वसिस्सामीति।
६०. गोत्तेन अनुस्सावनानुजानना
१२२. तेन खो पन समयेन आयस्मतो महाकस्सपस्स उपसम्पदापेक्खो होति। अथ खो आयस्मा महाकस्सपो आयस्मतो आनन्दस्स सन्तिके दूतं पाहेसि – आगच्छतु आनन्दो इमं अनुस्सावेस्सतूति [अनुस्सावेस्सतीति (स्या॰)]। आयस्मा आनन्दो एवमाह – ‘‘नाहं उस्सहामि थेरस्स नामं गहेतुं, गरु मे थेरो’’ति । भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, गोत्तेनपि अनुस्सावेतुन्ति।
६१. द्वेउपसम्पदापेक्खादिवत्थु
१२३. तेन खो पन समयेन आयस्मतो महाकस्सपस्स द्वे उपसम्पदापेक्खा होन्ति। ते विवदन्ति – अहं पठमं उपसम्पज्जिस्सामि, अहं पठमं उपसम्पज्जिस्सामीति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, द्वे एकानुस्सावने कातुन्ति।
तेन खो पन समयेन सम्बहुलानं थेरानं उपसम्पदापेक्खा होन्ति। ते विवदन्ति – अहं पठमं उपसम्पज्जिस्सामि, अहं पठमं उपसम्पज्जिस्सामीति। थेरा एवमाहंसु – ‘‘हन्द, मयं, आवुसो, सब्बेव एकानुस्सावने करोमा’’ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, द्वे तयो एकानुस्सावने कातुं, तञ्च खो एकेन उपज्झायेन, न त्वेव नानुपज्झायेनाति।
६२. गब्भवीसूपसम्पदानुजानना
१२४. तेन खो पन समयेन आयस्मा कुमारकस्सपो गब्भवीसो उपसम्पन्नो अहोसि। अथ खो आयस्मतो कुमारकस्सपस्स एतदहोसि – ‘‘भगवता पञ्ञत्तं ‘न ऊनवीसतिवस्सो पुग्गलो उपसम्पादेतब्बो’ति। अहञ्चम्हि गब्भवीसो उपसम्पन्नो। उपसम्पन्नो नु खोम्हि, ननु खो उपसम्पन्नो’’ति? भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। यं, भिक्खवे, मातुकुच्छिस्मिं पठमं चित्तं उप्पन्नं, पठमं विञ्ञाणं पातुभूतं , तदुपादाय सावस्स जाति। अनुजानामि, भिक्खवे, गब्भवीसं उपसम्पादेतुन्ति।
६३. उपसम्पदाविधि
१२५. तेन खो पन समयेन उपसम्पन्ना दिस्सन्ति कुट्ठिकापि गण्डिकापि किलासिकापि सोसिकापि अपमारिकापि। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, उपसम्पादेन्तेन तेरस [तस्स (क॰)] अन्तरायिके धम्मे पुच्छितुं। एवञ्च पन, भिक्खवे, पुच्छितब्बो – ‘‘सन्ति ते एवरूपा आबाधा – कुट्ठं, गण्डो, किलासो, सोसो, अपमारो? मनुस्सोसि ? पुरिसोसि? भुजिस्सोसि? अणणोसि? नसि राजभटो? अनुञ्ञातोसि मातापितूहि? परिपुण्णवीसतिवस्सोसि? परिपुण्णं ते पत्तचीवरं? किंनामोसि? कोनामो ते उपज्झायो’’ति?
तेन खो पन समयेन भिक्खू अननुसिट्ठे उपसम्पदापेक्खे अन्तरायिके धम्मे पुच्छन्ति। उपसम्पदापेक्खा वित्थायन्ति, मङ्कू होन्ति, न सक्कोन्ति विस्सज्जेतुं। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, पठमं अनुसासित्वा पच्छा अन्तरायिके धम्मे पुच्छितुन्ति।
तत्थेव सङ्घमज्झे अनुसासन्ति। उपसम्पदापेक्खा तथेव वित्थायन्ति, मङ्कू होन्ति, न सक्कोन्ति विस्सज्जेतुं। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। अनुजानामि, भिक्खवे, एकमन्तं अनुसासित्वा सङ्घमज्झे अन्तरायिके धम्मे पुच्छितुं। एवञ्च पन, भिक्खवे, अनुसासितब्बो –
१२६. पठमं उपज्झं गाहापेतब्बो। उपज्झं गाहापेत्वा पत्तचीवरं आचिक्खितब्बं – अयं ते पत्तो, अयं सङ्घाटि, अयं उत्तरासङ्गो, अयं अन्तरवासको। गच्छ, अमुम्हि ओकासे तिट्ठाहीति।
बाला अब्यत्ता अनुसासन्ति। दुरनुसिट्ठा उपसम्पदापेक्खा वित्थायन्ति, मङ्कू होन्ति, न सक्कोन्ति विस्सज्जेतुं। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, बालेन अब्यत्तेन अनुसासितब्बो। यो अनुसासेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स। अनुजानामि, भिक्खवे, ब्यत्तेन भिक्खुना पटिबलेन अनुसासितुन्ति।
असम्मता अनुसासन्ति। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं। न, भिक्खवे, असम्मतेन अनुसासितब्बो। यो अनुसासेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स। अनुजानामि , भिक्खवे, सम्मतेन अनुसासितुं। एवञ्च पन, भिक्खवे, सम्मन्नितब्बो [सम्मनितब्बो (क॰)] – अत्तना वा [अत्तनाव (स्या॰)] अत्तानं सम्मन्नितब्बं, परेन वा परो सम्मन्नितब्बो।
कथञ्च अत्तनाव अत्तानं सम्मन्नितब्बं? ब्यत्तेन भिक्खुना पटिबलेन सङ्घो ञापेतब्बो – ‘‘सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो। इत्थन्नामो इत्थन्नामस्स आयस्मतो उपसम्पदापेक्खो। यदि सङ्घस्स पत्तकल्लं, अहं इत्थन्नामं अनुसासेय्य’’न्ति। एवं अत्तनाव अत्तानं सम्मन्नितब्बं।
कथञ्च पन परेन परो सम्मन्नितब्बो? ब्यत्तेन भिक्खुना पटिबलेन सङ्घो ञापेतब्बो – ‘‘सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो। इत्थन्नामो इत्थन्नामस्स आयस्मतो उपसम्पदापेक्खो। यदि सङ्घस्स पत्तकल्लं, इत्थन्नामो इत्थन्नामं अनुसासेय्या’’ति । एवं परेन परो सम्मन्नितब्बो।
तेन सम्मतेन भिक्खुना उपसम्पदापेक्खो उपसङ्कमित्वा एवमस्स वचनीयो – ‘‘सुणसि, इत्थन्नाम, अयं ते सच्चकालो भूतकालो। यं जातं तं सङ्घमज्झे पुच्छन्ते सन्तं अत्थीति वत्तब्बं, असन्तं नत्थी’’ति वत्तब्बं। मा खो वित्थायि, मा खो मङ्कु अहोसि। एवं तं पुच्छिस्सन्ति – ‘‘सन्ति ते एवरूपा आबाधा – कुट्ठं, गण्डो, किलासो, सोसो, अपमारो? मनुस्सोसि? पुरिसोसि? भुजिस्सोसि? अणणोसि? नसि राजभटो? अनुञ्ञातोसि मातापितूहि? परिपुण्णवीसतिवस्सोसि? परिपुण्णं ते पत्तचीवरं? किंनामोसि? कोनामो ते उपज्झायो’’ति?
एकतो आगच्छन्ति। न, भिक्खवे, एकतो आगन्तब्बं। अनुसासकेन पठमतरं आगन्त्वा सङ्घो ञापेतब्बो – ‘‘सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो। इत्थन्नामो इत्थन्नामस्स आयस्मतो उपसम्पदापेक्खो । अनुसिट्ठो सो मया। यदि सङ्घस्स पत्तकल्लं, इत्थन्नामो आगच्छेय्या’’ति। आगच्छाहीति वत्तब्बो।
एकंसं उत्तरासङ्गं कारापेत्वा भिक्खूनं पादे वन्दापेत्वा उक्कुटिकं निसीदापेत्वा अञ्जलिं पग्गण्हापेत्वा उपसम्पदं याचापेतब्बो – ‘‘सङ्घं, भन्ते, उपसम्पदं याचामि। उल्लुम्पतु मं, भन्ते, सङ्घो अनुकम्पं उपादाय। दुतियम्पि, भन्ते, सङ्घं उपसम्पदं याचामि। उल्लुम्पतु मं, भन्ते, सङ्घो अनुकम्पं उपादाय। ततियम्पि, भन्ते, सङ्घं उपसम्पदं याचामि। उल्लुम्पतु मं , भन्ते, सङ्घो अनुकम्पं उपादाया’’ति। ब्यत्तेन भिक्खुना पटिबलेन सङ्घो ञापेतब्बो –
‘‘सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो। अयं इत्थन्नामो इत्थन्नामस्स आयस्मतो उपसम्पदापेक्खो। यदि सङ्घस्स पत्तकल्लं, अहं इत्थन्नामं अन्तरायिके धम्मे पुच्छेय्य’’न्ति? सुणसि, इत्थन्नाम, अयं ते सच्चकालो भूतकालो। यं जातं तं पुच्छामि। सन्तं अत्थीति वत्तब्बं, असन्तं नत्थीति वत्तब्बं। सन्ति ते एवरूपा आबाधा – कुट्ठं गण्डो किलेसो सोसो अपमारो, मनुस्सोसि, पुरिसोसि, भुजिस्सोसि, अणणोसि, नसि राजभटो, अनुञ्ञातोसि मातापितूहि, परिपुण्णवीसतिवस्सोसि, परिपुण्णं ते पत्तचीवरं, किंनामोसि, कोनामो ते उपज्झायोति? ब्यत्तेन भिक्खुना पटिबलेन सङ्घो ञापेतब्बो –
१२७. ‘‘सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो। अयं इत्थन्नामो इत्थन्नामस्स आयस्मतो उपसम्पदापेक्खो, परिसुद्धो अन्तरायिकेहि धम्मेहि, परिपुण्णस्स पत्तचीवरं। इत्थन्नामो सङ्घं उपसम्पदं याचति इत्थन्नामेन उपज्झायेन। यदि सङ्घस्स पत्तकल्लं, सङ्घो इत्थन्नामं उपसम्पादेय्य इत्थन्नामेन उपज्झायेन। एसा ञत्ति।
‘‘सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो। अयं इत्थन्नामो इत्थन्नामस्स आयस्मतो उपसम्पदापेक्खो, परिसुद्धो अन्तरायिकेहि धम्मेहि, परिपुण्णस्स पत्तचीवरं। इत्थन्नामो सङ्घं उपसम्पदं याचति इत्थन्नामेन उपज्झायेन। सङ्घो इत्थन्नामं उपसम्पादेति इत्थन्नामेन उपज्झायेन । यस्सायस्मतो खमति इत्थन्नामस्स उपसम्पदा इत्थन्नामेन उपज्झायेन, सो तुण्हस्स; यस्स नक्खमति, सो भासेय्य।
‘‘दुतियम्पि एतमत्थं वदामि – सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो। अयं इत्थन्नामो इत्थन्नामस्स आयस्मतो उपसम्पदापेक्खो, परिसुद्धो अन्तरायिकेहि धम्मेहि, परिपुण्णस्स पत्तचीवरं। इत्थन्नामो सङ्घं उपसम्पदं याचति इत्थन्नामेन उपज्झायेन। सङ्घो इत्थन्नामं उपसम्पादेति इत्थन्नामेन उपज्झायेन। यस्सायस्मतो खमति इत्थन्नामस्स उपसम्पदा इत्थन्नामेन उपज्झायेन, सो तुण्हस्स; यस्स नक्खमति, सो भासेय्य।
‘‘ततियम्पि एतमत्थं वदामि – सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो। अयं इत्थन्नामो इत्थन्नामस्स आयस्मतो उपसम्पदापेक्खो, परिसुद्धो अन्तरायिकेहि धम्मेहि, परिपुण्णस्स पत्तचीवरं। इत्थन्नामो सङ्घं उपसम्पदं याचति इत्थन्नामेन उपज्झायेन। सङ्घो इत्थन्नामं उपसम्पादेति इत्थन्नामेन उपज्झायेन। यस्सायस्मतो खमति इत्थन्नामस्स उपसम्पदा इत्थन्नामेन उपज्झायेन, सो तुण्हस्स; यस्स नक्खमति, सो भासेय्य।
‘‘उपसम्पन्नो सङ्घेन इत्थन्नामो इत्थन्नामेन उपज्झायेन। खमति सङ्घस्स, तस्मा तुण्ही, एवमेतं धारयामी’’ति।
उपसम्पदाकम्मं निट्ठितं।
६४. चत्तारो निस्सया
१२८. तावदेव छाया मेतब्बा, उतुप्पमाणं आचिक्खितब्बं, दिवसभागो आचिक्खितब्बो, सङ्गीति आचिक्खितब्बा , चत्तारो निस्सया आचिक्खितब्बा [आचिक्खितब्बा, चत्तारि अकरणीयानि आचिक्खितब्बानि। (क॰)] –
‘‘पिण्डियालोपभोजनं निस्साय पब्बज्जा। तत्थ ते यावजीवं उस्साहो करणीयो। अतिरेकलाभो – सङ्घभत्तं, उद्देसभत्तं, निमन्तनं, सलाकभत्तं, पक्खिकं, उपोसथिकं, पाटिपदिकं।
‘‘पंसुकूलचीवरं निस्साय पब्बज्जा। तत्थ ते यावजीवं उस्साहो करणीयो। अतिरेकलाभो – खोमं, कप्पासिकं, कोसेय्यं, कम्बलं, साणं, भङ्गं।
‘‘रुक्खमूलसेनासनं निस्साय पब्बज्जा। तत्थ ते यावजीवं उस्साहो करणीयो। अतिरेकलाभो – विहारो, अड्ढयोगो, पासादो, हम्मियं, गुहा।
‘‘पूतिमुत्तभेसज्जं निस्साय पब्बज्जा। तत्थ ते यावजीवं उस्साहो करणीयो। अतिरेकलाभो – सप्पि, नवनीतं, तेलं, मधु, फाणित’’न्ति।
चत्तारो निस्सया निट्ठिता।
६५. चत्तारि अकरणीयानि
१२९. तेन खो पन समयेन भिक्खू अञ्ञतरं भिक्खुं उपसम्पादेत्वा एककं ओहाय पक्कमिंसु। सो पच्छा एककोव आगच्छन्तो अन्तरामग्गे पुराणदुतियिकाय समागञ्छि। सा एवमाह – ‘‘किंदानि पब्बजितोसी’’ति? ‘‘आम, पब्बजितोम्ही’’ति। ‘‘दुल्लभो खो पब्बजितानं मेथुनो धम्मो; एहि, मेथुनं धम्मं पटिसेवा’’ति। सो तस्सा मेथुनं धम्मं पटिसेवित्वा चिरेन अगमासि। भिक्खू एवमाहंसु – ‘‘किस्स त्वं, आवुसो, एवं चिरं अकासी’’ति? अथ खो सो भिक्खु भिक्खूनं एतमत्थं आरोचेसि। भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं । अनुजानामि, भिक्खवे, उपसम्पादेत्वा दुतियं दातुं, चत्तारि च अकरणीयानि आचिक्खितुं –
‘‘उपसम्पन्नेन भिक्खुना मेथुनो धम्मो न पटिसेवितब्बो, अन्तमसो तिरच्छानगतायपि। यो भिक्खु मेथुनं धम्मं पटिसेवति, अस्समणो होति असक्यपुत्तियो। सेय्यथापि नाम पुरिसो सीसच्छिन्नो अभब्बो तेन सरीरबन्धनेन जीवितुं, एवमेव भिक्खु मेथुनं धम्मं पटिसेवित्वा अस्समणो होति असक्यपुत्तियो। तं ते यावजीवं अकरणीयं।
‘‘उपसम्पन्नेन भिक्खुना अदिन्नं थेय्यसङ्खातं न आदातब्बं, अन्तमसो तिणसलाकं उपादाय। यो भिक्खु पादं वा पादारहं वा अतिरेकपादं वा अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियति, अस्समणो होति असक्यपुत्तियो। सेय्यथापि नाम पण्डुपलासो बन्धना पमुत्तो अभब्बो हरितत्थाय, एवमेव भिक्खु पादं वा पादारहं वा अतिरेकपादं वा अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियित्वा अस्समणो होति असक्यपुत्तियो। तं ते यावजीवं अकरणीयं।
‘‘उपसम्पन्नेन भिक्खुना सञ्चिच्च पाणो जीविता न वोरोपेतब्बो, अन्तमसो कुन्थकिपिल्लिकं उपादाय। यो भिक्खु सञ्चिच्च मनुस्सविग्गहं जीविता वोरोपेति, अन्तमसो गब्भपातनं उपादाय, अस्समणो होति असक्यपुत्तियो। सेय्यथापि नाम पुथुसिला द्वेधा भिन्ना अप्पटिसन्धिका होति, एवमेव भिक्खु सञ्चिच्च मनुस्सविग्गहं जीविता वोरोपेत्वा अस्समणो होति असक्यपुत्तियो । तं ते यावजीवं अकरणीयं।
‘‘उपसम्पन्नेन भिक्खुना उत्तरिमनुस्सधम्मो न उल्लपितब्बो, अन्तमसो ‘सुञ्ञागारे अभिरमामी’ति। यो भिक्खु पापिच्छो इच्छापकतो असन्तं अभूतं उत्तरिमनुस्सधम्मं उल्लपति झानं वा विमोक्खं वा समाधिं वा समापत्तिं वा मग्गं वा फलं वा, अस्समणो होति असक्यपुत्तियो। सेय्यथापि नाम तालो मत्थकच्छिन्नो अभब्बो पुन विरुळ्हिया, एवमेव भिक्खु पापिच्छो इच्छापकतो असन्तं अभूतं उत्तरिमनुस्सधम्मं उल्लपित्वा अस्समणो होति असक्यपुत्तियो। तं ते यावजीवं अकरणीय’’न्ति।
चत्तारि अकरणीयानि निट्ठितानि।
६६. आपत्तिया अदस्सने उक्खित्तकवत्थूनि
१३०. तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो भिक्खु आपत्तिया अदस्सने उक्खित्तको विब्भमि। सो पुन पच्चागन्त्वा भिक्खू उपसम्पदं याचि। भगवतो एतमत्थं आरोचेसुं।
इध पन, भिक्खवे, भिक्खु आपत्तिया अदस्सने उक्खित्तको विब्भमति। सो पुन पच्चागन्त्वा भिक्खू उपसम्पदं याचति। सो एवमस्स वचनीयो – ‘‘पस्सिस्ससि तं आपत्ति’’न्ति? सचाहं पस्सिस्सामीति, पब्बाजेतब्बो। सचाहं न पस्सिस्सामीति, न पब्बाजेतब्बो। पब्बाजेत्वा वत्तब्बो – ‘‘पस्सिस्ससि तं आपत्ति’’न्ति? सचाहं पस्सिस्सामीति, उपसम्पादेतब्बो। सचाहं न पस्सिस्सामीति, न उपसम्पादेतब्बो। उपसम्पादेत्वा वत्तब्बो – ‘‘पस्सिस्ससि तं आपत्ति’’न्ति? सचाहं पस्सिस्सामीति , ओसारेतब्बो। सचाहं न पस्सिस्सामीति, न ओसारेतब्बो। ओसारेत्वा वत्तब्बो – ‘‘पस्ससि [पस्साहि (सी॰)] तं आपत्ति’’न्ति? सचे पस्सति, इच्चेतं कुसलं। नो चे पस्सति, लब्भमानाय सामग्गिया पुन उक्खिपितब्बो। अलब्भमानाय सामग्गिया अनापत्ति सम्भोगे संवासे।
इध पन, भिक्खवे, भिक्खु आपत्तिया अप्पटिकम्मे उक्खित्तको विब्भमति। सो पुन पच्चागन्त्वा भिक्खू उपसम्पदं याचति। सो एवमस्स वचनीयो – ‘‘पटिकरिस्ससि तं आपत्ति’’न्ति? सचाहं पटिकरिस्सामीति, पब्बाजेतब्बो । सचाहं न पटिकरिस्सामीति, न पब्बाजेतब्बो। पब्बाजेत्वा वत्तब्बो – ‘‘पटिकरिस्ससि तं आपत्ति’’न्ति? सचाहं पटिकरिस्सामीति, उपसम्पादेतब्बो। सचाहं न पटिकरिस्सामीति, न उपसम्पादेतब्बो। उपसम्पादेत्वा वत्तब्बो – ‘‘पटिकरिस्ससि तं आपत्ति’’न्ति? सचाहं पटिकरिस्सामीति, ओसारेतब्बो। सचाहं न पटिकरिस्सामीति, न ओसारेतब्बो। ओसारेत्वा वत्तब्बो – ‘‘पटिकरोहि तं आपत्ति’’न्ति। सचे पटिकरोति, इच्चेतं कुसलं। नो चे पटिकरोति लब्भमानाय सामग्गिया पुन उक्खिपितब्बो। अलब्भमानाय सामग्गिया अनापत्ति सम्भोगे संवासे।
इध पन, भिक्खवे, भिक्खु पापिकाय दिट्ठिया अप्पटिनिस्सग्गे उक्खित्तको विब्भमति। सो पुन पच्चागन्त्वा भिक्खू उपसम्पदं याचति। सो एवमस्स वचनीयो – ‘‘पटिनिस्सज्जिस्ससि तं पापिकं दिट्ठि’’न्ति? सचाहं पटिनिस्सज्जिस्सामीति, पब्बाजेतब्बो। सचाहं न पटिनिस्सज्जिस्सामीति, न पब्बाजेतब्बो। पब्बाजेत्वा वत्तब्बो – ‘‘पटिनिस्सज्जिस्ससि तं पापिकं दिट्ठि’’न्ति? सचाहं पटिनिस्सज्जिस्सामीति, उपसम्पादेतब्बो। सचाहं न पटिनिस्सज्जिस्सामीति, न उपसम्पादेतब्बो। उपसम्पादेत्वा वत्तब्बो – ‘‘पटिनिस्सज्जिस्ससि तं पापिकं दिट्ठि’’न्ति? सचाहं पटिनिस्सज्जिस्सामीति, ओसारेतब्बो। सचाहं न पटिनिस्सज्जिस्सामीति, न ओसारेतब्बो। ओसारेत्वा वत्तब्बो – ‘‘पटिनिस्सज्जेहि तं पापिकं दिट्ठि’’न्ति। सचे पटिनिस्सज्जति, इच्चेतं कुसलं। नो चे पटिनिस्सज्जति, लब्भमानाय सामग्गिया पुन उक्खिपितब्बो। अलब्भमानाय सामग्गिया अनापत्ति सम्भोगे संवासेति।
महाखन्धको पठमो।
६७. तस्सुद्दानं
१३१.
विनयम्हि महत्थेसु, पेसलानं सुखावहे।
निग्गहानञ्च पापिच्छे, लज्जीनं पग्गहेसु च॥
सासनाधारणे चेव, सब्बञ्ञुजिनगोचरे।
अनञ्ञविसये खेमे, सुपञ्ञत्ते असंसये॥
खन्धके विनये चेव, परिवारे च मातिके।
यथात्थकारी कुसलो, पटिपज्जति योनिसो॥
यो गवं न विजानाति, न सो रक्खति गोगणं।
एवं सीलं अजानन्तो, किं सो रक्खेय्य संवरं॥
पमुट्ठम्हि च सुत्तन्ते, अभिधम्मे च तावदे।
विनये अविनट्ठम्हि, पुन तिट्ठति सासनं॥
तस्मा सङ्गाहणाहेतुं [सङ्गाहनाहेतुं (क॰)], उद्दानं अनुपुब्बसो।
पवक्खामि यथाञायं, सुणाथ मम भासतो॥
वत्थु निदानं आपत्ति, नया पेय्यालमेव च।
दुक्करं तं असेसेतुं, नयतो तं विजानथाति॥
बोधि राजायतनञ्च, अजपालो सहम्पति।
ब्रह्मा आळारो उदको, भिक्खु च उपको इसि॥
कोण्डञ्ञो वप्पो भद्दियो, महानामो च अस्सजि।
यसो चत्तारो पञ्ञास, सब्बे पेसेसि सो दिसा॥
वत्थु मारेहि तिंसा च, उरुवेलं तयो जटी।
अग्यागारं महाराजा, सक्को ब्रह्मा च केवला॥
पंसुकूलं पोक्खरणी, सिला च ककुधो सिला।
जम्बु अम्बो च आमलो, पारिपुप्फञ्च आहरि॥
फालियन्तु उज्जलन्तु, विज्झायन्तु च कस्सप।
निमुज्जन्ति मुखी मेघो, गया लट्ठि च मागधो॥
उपतिस्सो कोलितो च, अभिञ्ञाता च पब्बजुं।
दुन्निवत्था पणामना, किसो लूखो च ब्राह्मणो॥
अनाचारं आचरति, उदरं माणवो गणो।
वस्सं बालेहि पक्कन्तो, दस वस्सानि निस्सयो॥
न वत्तन्ति पणामेतुं, बाला पस्सद्धि पञ्च छ।
यो सो अञ्ञो च नग्गो च, अच्छिन्नजटिलसाकियो॥
मगधेसु पञ्चाबाधा, एको राजा [भटो चोरो (स्या॰)] च अङ्गुलि।
मागधो च अनुञ्ञासि, कारा लिखि कसाहतो॥
लक्खणा इणा दासो च, भण्डुको उपालि अहि।
सद्धं कुलं कण्टको च, आहुन्दरिकमेव च॥
वत्थुम्हि दारको सिक्खा, विहरन्ति च किं नु खो।
सब्बं मुखं उपज्झाये, अपलाळन कण्टको॥
पण्डको थेय्यपक्कन्तो, अहि च मातरी पिता।
अरहन्तभिक्खुनीभेदा, रुहिरेन च ब्यञ्जनं॥
अनुपज्झायसङ्घेन, गणपण्डकपत्तको।
अचीवरं तदुभयं, याचितेनपि ये तयो॥
हत्था पादा हत्थपादा, कण्णा नासा तदूभयं।
अङ्गुलिअळकण्डरं, फणं खुज्जञ्च वामनं॥
गलगण्डी लक्खणा चेव, कसा लिखितसीपदी।
पापपरिसदूसी च, काणं कुणि तथेव च॥
खञ्जं पक्खहतञ्चेव, सच्छिन्नइरियापथं।
जरान्धमूगबधिरं, अन्धमूगञ्च यं तहिं॥
अन्धबधिरं यं वुत्तं, मूगबधिरमेव च।
अन्धमूगबधिरञ्च, अलज्जीनञ्च निस्सयं॥
वत्थब्बञ्च तथाद्धानं, याचमानेन लक्खणा [पेक्खना (सब्बत्थ)]।
आगच्छतु विवदन्ति, एकुपज्झायेन कस्सपो॥
दिस्सन्ति उपसम्पन्ना, आबाधेहि च पीळिता।
अननुसिट्ठा वित्थेन्ति, तत्थेव अनुसासना॥
सङ्घेपि च अथो बाला, असम्मता च एकतो।
उल्लुम्पतुपसम्पदा, निस्सयो एकको तयोति॥
इमम्हि खन्धके वत्थूनि एकसतञ्च द्वासत्तति।
महाखन्धको निट्ठितो।