नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

निर्वाण का खौफ़


हम सभी जानते हैं कि जब लौ बुझती है तो क्या होता है — “अग्नि की लपट शांत होकर ख़त्म हो जाती हैं।” इसलिए जब हमें पता चलता हैं कि बौद्ध साधना का अंतिम लक्ष्य ‘निर्वाण’ है, अर्थात ‘जैसे लौ बुझती है, वैसे बुझ जाओ, ख़त्म हो जाओ!’, तो अनेक लोग डर जाते हैं। उनके मन में ‘खात्मा’ होने की खौफ़नाक छवि उभरती है, जो किसी को आतंकित करती है, तो किसी को हताश करती है।

कोई कहता है, “मुझे तो निर्वाण के सोच से ही कपकपी होती है!” तो कोई कहता है, “निर्वाण लेकर सारा मज़ा ही ख़त्म हो जाएगा!” कोई ईमानदारी से पूछता है, “भंते, निर्वाण लेकर बोर हुआ, तो? कहाँ जाऊँगा?” तो कोई बेचारा आकर कहता है, “भंते, मेरे चाचा का परिनिर्वाण हो गया। घर चलिये!” हम चौंक कर पुछते हैं, “परिनिर्वाण?? लेकिन उन्हें निर्वाण कब मिला था?” तो हड़बड़ी में कहता है, “कल रात, चाची की गोद में सिर रखते ही!”

निर्वाण के नाम पर भिक्षु को तरह-तरह की रोचक संकल्पनाएँ सुनने मिलती हैं। लेकिन हम बता दें कि निर्वाण का ये ‘बोरिंग’, ‘खौफ़नाक’, या ‘दुःखमयी’ वर्णन इसलिए उपजे हैं, क्योंकि उसका पुराना संदर्भ खो गया है। बौद्ध, जैन और वैदिक समाज में आग बुझने का अर्थ खात्मा या मौत नहीं था, बल्कि कुछ और ही था।

प्राचीन भारत में वैदिक मान्यता प्रचलित थी कि जब आग बुझती है, तो वह नष्ट नहीं होती। बल्कि अग्नि-धातु एक अव्यक्त अवस्था में चली जाती है, और असीम और बंधनमुक्त होकर पूरे ब्रह्मांड में फैल जाती है। जब बुद्ध ने ‘निर्वाण’ की व्याख्या के लिए इस उपमा का उपयोग किया, तो इस पर ध्यान नहीं दिया कि “बुझी हुई आग का अस्तित्व ख़त्म होता है या नहीं?” बजाय इस पर ध्यान दिया कि “बुझी हुई आग को भला परिभाषित कैसे करें?”

इसलिए उनका कथन था कि “जिसने निर्वाण पा लिया, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।” क्या निर्वाण के बाद उसका अस्तित्व होता है? या नहीं होता? या होता है और नहीं भी — ये प्रश्न उस पर लागू नहीं होते। निर्वाण — अस्तित्व या गैर-अस्तित्व की सीमाओं से भी परे होता है। सरल शब्दों में कहें, तो निर्वाण का यह अर्थ कदापि नहीं है कि बस “ख़त्म! फिनिश! टाटा! गुडबाय! गया!”

बुद्ध निर्वाण को ‘आज़ादी’ या ‘मुक्ति’ के प्रतीक में प्रस्तुत करते थे। उस समय आध्यात्मिक लोगों के लिए जलती अग्नि का अर्थ होता था — अशान्ति, बेचैनी, व्याकुलता, पीड़ा, जलना, जलाना, अस्तित्व टिकाने की जद्दोजहद, ईंधन से लगाव, ईंधन पर निर्भरता, बंधन, इत्यादि। अर्थात, अग्नि को जलने के लिए अपने ईंधन को सदैव पकड़े रहना होता है। यदि अग्नि अपने ईंधन को छोड़ देती है तो मुक्त हो जाती है, और जलने जलाने की पीड़ादायक प्रक्रिया से आज़ाद हो जाती है। अपनी अशान्ति, बेचैनी, व्याकुलता, निर्भरता और बंधन से मुक्ति पाती है। इस कारण उस समय आग बुझने की घटना को ‘मुक्ति’ के तौर पर देखा जाता था।

सिर्फ निर्वाण ही नहीं, अग्नि से संबंधित अन्य शब्द भी उसी तरह परिभाषित होते थे। जैसे, ‘पाँच उपादान-स्कन्ध’, जिसका अर्थ हैं पाँच स्कंधों के प्रति लगाव, आसक्ति और निर्भरता। ये शब्द दरअसल ‘ईंधन-स्रोत’ का प्रतीक है। अर्थात, जिस ईंधनस्त्रोत के समूह को पकड़े रहने से ‘चित्त’ सदैव पीड़ित रहता हो। और ‘स्कन्ध’ का अर्थ केवल पाँच स्कंध (अर्थात, रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान) ही नहीं, बल्कि उसका शाब्दिक अर्थ “पेड़ के तना” भी है। अर्थात, पेड़ की पत्ती या छोटी-छोटी टहनी तुरंत जलकर ख़ाक हो जाती हैं, लेकिन यदि पेड़ का तना आग पकड़े तो दीर्घकाल तक जलते रहता है।

जिस तरह अग्निधातु ईंधन से जब भी आसक्ति तोड़े, तभी उसकी पीड़ा खत्म होती है। उसी तरह चित्त जब भी पाँच स्कंधों से आसक्ति तोड़े, तभी उसकी पीड़ा खत्म होती है। वर्ना अग्नि की ही तरह वह स्वयं को, और न जाने कितनों को कष्ट देते रहता है। इस तरह अग्नि का बुझने से अर्थ ‘बंधनमुक्ति’ है, ‘पीड़ा का खत्म होना’ है, ‘स्वयं का खत्म होना’ नहीं। उसी संदर्भ में यही उपमा निर्वाण के लिए लागू होती है — बंधनमुक्ति और पीड़ा खत्म होने के अर्थ में। उसमें रति-अरति, अर्थात, ‘मजा या बोर होने’ की अवस्थाएँ भी पीछे छूट जाते हैं। बुद्ध ने बार-बार बताया कि निर्वाणिक अवस्था वर्णन से परे है। यहाँ तक कि उसके लिए मौत, खात्मा, अस्तित्व या गैर-अस्तित्व जैसे शब्द भी उपयुक्त नहीं हैं। क्योंकि वे शब्द केवल उन्हीं वस्तुओं के लिए उपयोग किए जाते हैं, जिनकी सीमाएँ तय हो, जिन्हें एक चौखट में रखकर परिभाषित किया जा सकें।

यह निर्वाण की ‘बंधनमुक्ति’ कैसी होती है? प्राचीन सूत्रों में इसके दो चरण बताए गए हैं। पहले चरण उपादिसेस में जो इसी जीवनकाल में बंधनमुक्त होता है, उसे ऐसी बुझी हुई अग्नि के प्रतीक से दर्शाया जाता है, जहाँ ‘अंगारे अभी भी गर्म हैं’। वह एक अरहंत होता है, जिसका चित्त मुक्त हो चुका है, लेकिन जो अभी भी छह इंद्रियों के माध्यम से दृश्य देखता है, ध्वनियाँ सुनता है, गन्ध सूँघता है, स्वाद चखता है, काया से राहत या कष्ट महसूस करता है, और सोच-विचार करता है। अर्थात, उसकी “राग, द्वेष और भ्रम” रूपी अग्नि बुझ चुकी है, लेकिन “इंद्रिय” रूपी अंगारे अभी भी गरम हैं।

जबकि बंधनमुक्ति का दूसरा स्तर अनुपादिसेस परिनिर्वाण की अवस्था है, जिसमें अरहंत के काया छूटने के बाद उसकी इंद्रियों का हर इनपुट शान्त हो जाता है। अर्थात, जिसका चित्त परममुक्त है, और अंगारे भी गरम नहीं रही। जिसे अपने जीवनकाल में इस निर्वाणिक अवस्था का साक्षात्कार हो, उसके लिए उससे बड़ी राहत, शीतलता, शान्ति और आज़ादी इस संसार में कही और महसूस नहीं होती। यह परमसुख, जिसे शब्दों की सीमा में उलझाना असंभव है, वाकई छूकर देखने योग्य है।

१९७७ की बात है। थायलैंड के प्रसिद्ध भिक्षु “अजान चा” 1 को ब्रिटिश उपासक संघ बहुत आग्रहपूर्वक इंग्लैंड ले गए थे। वहाँ लंदन में एक अंग्रेज़ महिला ने उनसे सवाल किया, “अजान, क्या निर्वाण के बाद अस्तित्व बना रहता है?”

अजान चाह ने बगल में एक मोमबत्ती की ओर इशारा करते हुए पूछा, “क्या आपको यह मोमबत्ती दिख रही है? क्या इसकी लौ दिख रही है?”

उसने जवाब दिया, “हाँ!”

अजान ने मोमबत्ती को बुझा दिया और पूछा, “अब ये लौ कहाँ गयी? किस दिशा में गयी? क्या उस अग्नि का अस्तित्व अब भी है, या ख़त्म हुआ?”

महिला ने उत्तर दिया, “मुझे नहीं पता! लेकिन ये उपमा मेरे कुछ समझ नहीं आयी!”

अजान चाह ने मूंह फेरते हुए कहा, “तब यह बात तुम्हारी समझ में नहीं आएगी!”

हो सकता है, यह बात आपको भी समझ न आए। लेकिन अगली बार, जब आप कही आग बुझते हुए देखें तो जरा रुक कर गौर करें। हो सकता है कि शायद आपको भी भिक्षुणी पटाचारा 2 की तरह बात समझ जाएँ —

"पैरों को धोते हुए, मैंने नीचे बहता जल देखा।
उसे देखकर चित्त मेरा, अश्व की भाँति स्थिर हुआ।
दीया उठा कर तब मैंने, कुटी में प्रवेश किया।
मंच लगा कर बैठी मैं, सुई से बत्ती बुझा दिया।
लौ को निवृत्त होते देख, मेरा चित्त विमुक्त हुआ।"

थेरीगाथा ५:१० : पटाचारा


भवतु सब्ब मङ्गलं!

  1. थायलैंड के अजान चा या ‘आचार्य चा’ का नाम दरअसल भिक्खु ‘बोधिञाण’ थेर था। वे एक धुतांगधारी अरण्य भिक्षु थे, जिन्हें अरहंत माना जाता था। उनका धर्म बताने का अंदाज बहुत निराला, लेकिन सटीक था। मरणोपरांत उनकी काया को अग्नि देने के बाद शेष बची हड्डियाँ धातु में तब्दील हुई, जो आज भी उनके विहार ‘वाट पा ननचट’ में रखी हुई हैं। उनके हजारों शिष्य बने, और कुछ पश्चिमी दुनिया में बहुत प्रसिद्ध हुए, जिनमें नामी-गिरामी वैज्ञानिक भी शामिल हैं।

    आज उनकी परंपरा की दुनिया भर में तीन-सौ से ज्यादा शाखा-विहार हैं, जो उनके उपदेशों का प्रचार और प्रसार करते हैं। ↩︎

  2. प्राचीन बौद्ध साहित्य में भिक्षुणी पटाचारा का स्थान बहुत गौरवशाली है। वह भिक्षुणी-संघ की विनय में अग्रणी थी। बौद्ध अट्ठकथा में उसके जीवन की पूर्वकथा बड़ी हृदयद्रावक लेकिन प्रेरणादायक है। श्रावस्ती में एक अमीर श्रेष्ठी के घर में जन्मी ‘रूपवती’, जो उसका असली नाम भी था, और वर्णन भी, को अपने घर के दास से प्रेम हुआ। जिद्दी स्वभाव की रूपवती ने जंगल में भागकर उससे विवाह किया। दो पुत्रों को जन्म देने के बाद, एक दिन उस पर सृष्टि का कहर बरपा। उसके पति को साँप ने डसकर मार दिया, जबकि उसके दोनों नन्हें पुत्र बाढ़ में बह गए। जब वह पागलो-सी भागती हुए अपने मायके पहुँची, तो उसके पिता, माँ और परिवारजन की लाशे पड़ी थी, जिनके घर पर बिजली गिरने से सभी की मौत हो चुकी थी। उस सदमे में पागल हो गई और कई वर्षों तक निर्वस्त्र भटकती रही।

    एक दिन भटकते हुए, वह अनाथपिण्डक के जेतवन विहार में गयी, जहाँ भगवान उपासक-उपासिकाओं को धर्म प्रवचन कर रहे थे। भगवान को देखते ही उसे होश लौटा, और स्वयं को निर्वस्त्र देख वह लज्जित हुई। तब किसी भले सज्जन ने उसे अपनी पट (=चद्दर) ओढ़ा दी। तब उस ‘पटाचारा’ ने भगवान से धर्म सुना और श्रोतापति-फल प्राप्त किया। तब आगे उसने भिक्षुणी बनकर भगवान के विनय अनुशासन में अग्रणी के रूप में पारंगत हुई, और अर्हंतपद को प्राप्त हुई। ↩︎