संवेग
~ साधारण सत्यों का ‘आर्य’ परिचय ~
भगवान —
भिक्षुओं, मैं सुखों में पलता था; परमसुखों में पलता था; अत्यंत सुखों में पलता था। मेरे महलों के आगे पिता ने तीन पुष्करणीयाँ [=कमलफूलों से भरे तालाब] बनवाई थी—एक में रक्तकमल, एक में श्वेतकमल, और एक में नीलकमल ख़िलते थे।
मैं ऐसा चंदन [गन्धस्वरूप] न उपयोग करता, जो बनारसी न हो। मेरी पगड़ी व कुर्ता भी बनारसी होता; बल्कि मेरा अंतर्वस्त्र व बाह्यवस्त्र भी बनारस से लाया जाता। एक सफ़ेद राजसी-छाता मेरे ऊपर दिन-रात पकड़ा जाता, ताकि मुझे ठंडी धूप धूल मल या ओस न लगे।
मेरे लिए तीन महल बने थे—एक शीतकाल के लिए; एक ग्रीष्मकाल के लिए; और एक वर्षाकाल के लिए। वर्षाकाल के चारों महीने वर्षामहल में रहते मुझे गायकी-नर्तकियों द्वारा बहलाया जाता, बिना अन्य पुरुष की उपस्थिति के। मुझे महल से नीचे एक बार भी न उतरना पड़ता। जहाँ अन्य घरों में श्रमिक व नौकरों को टूटा-चावल व दाल परोसी जाती, मेरे पिता के महल में उन्हें गेंहू चावल व मांस खिलाया जाता।
• इस तरह भाग्यशाली, अत्यंत सुखसंपन्न होने पर भी मैंने सोचा, ‘कभी धर्म न सुना आम आदमी, स्वयं जीर्ण-धर्म से घिरा, जीर्ण-धर्म न लाँघा—जब किसी बूढ़े को देखें, तो खौफ़, लज्जा व घिन महसूस करता है, भूलते हुए कि वह स्वयं बुढ़ापे से नहीं छूटा, बुढ़ापे के परे नहीं गया। यदि मैं भी जीर्ण-धर्म से घिरा, जीर्ण-धर्म न लाँघा, किसी बूढ़े को देख खौफ़, लज्जा व घिन महसूस करूँ, तो मेरे लिए उचित नहीं होगा।’
— जैसे ही मैंने यह समीक्षा की, मेरा यौवन का सारा नशा उतर गया।
• इस तरह भाग्यशाली, अत्यंत सुखसंपन्न होने पर भी मैंने सोचा, ‘कभी धर्म न सुना आम आदमी, स्वयं रोग-धर्म से घिरा, रोग-धर्म न लाँघा—जब किसी रोगी को देखें, तो खौफ़, लज्जा व घिन महसूस करता है, भूलते हुए कि वह स्वयं रोग से नहीं छूटा, रोग के परे नहीं गया। यदि मैं भी रोग-धर्म से घिरा, रोग-धर्म न लाँघा, किसी रोगी को देख खौफ़, लज्जा व घिन महसूस करूँ, तो मेरे लिए उचित नहीं होगा।’
— जैसे ही मैंने यह समीक्षा की, मेरा आरोग्य का सारा नशा उतर गया।
• इस तरह भाग्यशाली, अत्यंत सुखसंपन्न होने पर भी मैंने सोचा, ‘कभी धर्म न सुना आम आदमी, स्वयं मरण-धर्म से घिरा, मरण-धर्म न लाँघा—जब किसी मृत को देखें तो खौफ़, लज्जा व घिन महसूस करता है, भूलते हुए कि वह स्वयं मौत से नहीं छूटा, मौत के परे नहीं गया। यदि मैं भी मरण-धर्म से घिरा, मरण-धर्म न लाँघा, किसी मृत को देख खौफ़, लज्जा व घिन महसूस करूँ, तो मेरे लिए उचित नहीं होगा।’
— जैसे ही मैंने यह समीक्षा की, मेरा जीवन का सारा नशा उतर गया।
«अं.नि.३:३८»
जब मैं संबोधिपूर्व केवल एक बोधिसत्व था—जन्म, रोग, बुढ़ापा, मौत, शोक व क्लेश से घिरा—मैं [उसमें सुख] खोजता था, जो जन्म रोग बुढ़ापा मौत शोक व क्लेश से ही घिरा था। तो मैंने सोचा, ‘जन्म रोग बुढ़ापा मौत शोक व क्लेश से घिरा—मैं उसे क्यों खोजूँ, जो जन्म रोग बुढ़ापा मौत शोक व क्लेश से ही घिरा हो? क्यों न मैं खोजूँ—अजन्म, अरोग, अजीर्ण, अमृत, अशोक, अक्लेश, योगबन्धन से सर्वोपरि राहत, निर्वाण! 1’ तत्पश्चात मैं युवा ही था—काले केशवाला, जीवन के प्रथम चरण में, यौवन वरदान से युक्त—तब मैंने माता-पिता के इच्छाविरुद्ध, उन्हें आँसूभरे चेहरे से बिलखते छोड़, सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्या [=संन्यास] लिया। «मा.नि.२६»
«सु.नि.४:१५»
यदि मैं तुम्हें अतीतकाल में ले जाकर दुःखों की उत्पत्ति व विलुप्ति सिखाऊँ कि ‘इस तरह अतीत में था’, तो तुम सशंकित व भ्रमित हो जाओगे। यदि मैं तुम्हें भविष्यकाल में ले जाकर दुःखों की उत्पत्ति व विलुप्ति सिखाऊँ कि ‘इस तरह भविष्य में होगा’, तो भी तुम सशंकित व भ्रमित हो जाओगे। इसलिए मैं यहीं बैठे, तुम्हें वहीं बिठाए, अभी यही दुःखों की उत्पत्ति व विलुप्ति सिखाता हूँ। गौर से सुनो, मैं बताता हूँ। “जैसा आप कहें, भन्ते!” तो क्या लगता है, भद्रक? उरुवेलकप्प में कुछ लोग है, जिनकी हत्या कैद दंड या निंदा हो जाए, तो तुम्हें शोक विलाप दर्द व्यथा या निराशा होगी? “हाँ, ऐसे कुछ लोग है भगवान…” और उरुवेलकप्प में कुछ लोग है, जिनकी हत्या कैद दंड या निंदा हो जाए, तो तुम्हें शोक विलाप दर्द व्यथा या निराशा नहीं होगी? “हाँ, ऐसे भी कुछ लोग है भगवान…” तो भद्रक, किस कारण, किस परिस्थिति «हेतु पच्चय» से तुम्हें कुछ लोगों की हत्या… से शोक… होगा, और कुछ लोगों की हत्या… से शोक… नहीं होगा? “भगवान, जिनकी हत्या… से मुझे शोक… होगा, उनके प्रति मुझे चाह व दिलचस्पी «छन्दराग» है। जिनकी हत्या… से मुझे शोक… नहीं होगा, उनके प्रति मुझे चाह व दिलचस्पी नहीं। देखो भद्रक! काल के परे जाकर तुमने अभी यही जो बोध किया, जो समझा, जो पता किया, उससे तुम अतीतकाल और भविष्यकाल के बारे में अनुमान लगा सकते हो कि ‘अतीतकाल में जो भी दुःख-दर्द हुआ—सभी की जड़ चाह ही थी, सभी की जननी चाह ही थी। क्योंकि चाह दुःखों का मूल कारण है। तथा भविष्यकाल में जो भी दुःख-दर्द होगा—सभी की जड़ चाह ही रहेगी, सभी की जननी चाह ही रहेगी। क्योंकि चाह ही दुःखों का मूल कारण है।’ “आश्चर्य है भगवान, अद्भुत है! कितने भलीप्रकार भगवान ने बात रखीं कि ‘अतीतकाल में जो भी दुःख-दर्द हुआ—सभी की जड़ चाह ही थी, सभी की जननी चाह ही थी। क्योंकि चाह दुःखों का मूल कारण है। तथा भविष्यकाल में जो भी दुःख-दर्द होगा—सभी की जड़ चाह ही रहेगी, सभी की जननी चाह ही रहेगी। क्योंकि चाह ही दुःखों का मूल कारण है।’ मेरा चिरवासी नामक पुत्र है भगवान, जो बहुत दूर रहता है। जब मैं रोज़ उठता हूँ, एक आदमी भेजता हूँ, “जाओ पता करो, चिरवासी का क्या हाल है?” और जब तक वह वापस न लौटे, चिंतित रहता हूँ ‘कही चिरवासी बीमार न पड़ा हो!’ तो भद्रक, तुम्हें क्या लगता है? यदि चिरवासी की हत्या कैद दंड या निंदा हो जाए, तो तुम्हें शोक विलाप दर्द व्यथा या निराशा न होगी? “भगवान, यदि मेरे पुत्र चिरवासी की हत्या कैद दंड या निंदा हो जाए, तो मेरा सारा जीवन ही बदल जाएगा! शोक विलाप दर्द व्यथा या निराशा कैसे न होगी?” और तुम्हें क्या लगता है? जब तुमने चिरवासी की माँ को न देखा न सुना था, क्या तुम्हें तब उसके प्रति चाह दिलचस्पी या प्रेम था? “नहीं, भन्ते।” बल्कि जब तुमने चिरवासी की माँ को देखा या सुना, तब तुम्हें उसके प्रति चाह दिलचस्पी या प्रेम हुआ? “हाँ, भन्ते।” यदि चिरवासी की माँ की हत्या कैद दंड या निंदा हो जाए, तो तुम्हें शोक विलाप दर्द व्यथा या निराशा न होगी? “भगवान, यदि चिरवासी की माँ की हत्या या कैद या दंड या निंदा हो जाए, तब भी मेरा सारा जीवन बदल जाएगा! शोक विलाप दर्द व्यथा या निराशा कैसे न होगी?” तो भद्रक, जब भी दुःख उत्पन्न हो, इस तरह तर्कवितर्क करके पता चल सकता है कि वे कैसे और क्यों उत्पन्न होते हैं—सभी की जड़ चाह होती है, सभी का कारण चाह होती है। क्योंकि चाह ही दुःखों का मूल कारण है। «सं.नि.४२:११»
ऐसा ही होता है ब्राह्मण, ऐसा ही होता है। शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा—प्रिय से पैदा होते हैं, प्रिय से आरंभ होते हैं। इसी श्रावस्ती की बात है, एक लड़की की माँ मर गई। माँ की मौत से लड़की पागल हो, बहके चित्त से — इस रास्ते से उस रास्ते, इस चौराहे से उस चौराहे भटकते हुए — कहती, “क्या तुमने मेरी माँ को देखा? क्या तुमने मेरी माँ को देखा?” इस तर्क से समझा जा सकता है कि शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा — कैसे प्रिय से पैदा होते हैं, प्रिय से आरंभ होते हैं। इसी श्रावस्ती की बात है, एक लड़की के पिता मर गए। पिता की मौत से लड़की पागल हो, बहके चित्त से — इस रास्ते से उस रास्ते, इस चौराहे से उस चौराहे भटकते हुए — कहती, “क्या तुमने मेरे पिता को देखा? क्या तुमने मेरे पिता को देखा?” इस तर्क से भी समझा जा सकता है कि शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा—कैसे प्रिय से पैदा होते हैं, प्रिय से आरंभ होते हैं। इसी श्रावस्ती की बात है, एक लड़की का भाई… बहन… पुत्र… पुत्री… पति मर गया। भाई… बहन… पुत्र… पुत्री… पति की मौत से लड़की पागल हो, बहके चित्त से — इस रास्ते से उस रास्ते, इस चौराहे से उस चौराहे भटकते हुए — कहती, “क्या तुमने मेरे पति को देखा? क्या तुमने मेरे पति को देखा?” इस तर्क से भी समझा जा सकता है कि शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा—कैसे प्रिय से पैदा होते हैं, प्रिय से आरंभ होते हैं। इसी श्रावस्ती की बात है, एक लड़के की माँ मर गई। माँ की मौत से लड़का पागल हो, बहके चित्त से — इस रास्ते से उस रास्ते, इस चौराहे से उस चौराहे भटकते हुए — कहता, “क्या तुमने मेरी माँ को देखा? क्या तुमने मेरी माँ को देखा?” इस तर्क से भी समझा जा सकता है कि शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा—कैसे प्रिय से पैदा होते हैं, प्रिय से आरंभ होते हैं। इसी श्रावस्ती की बात है, एक लड़के के पिता मर गए। पिता की मौत से लड़का पागल हो, बहके चित्त से — इस रास्ते से उस रास्ते, इस चौराहे से उस चौराहे भटकते हुए — कहता, “क्या तुमने मेरे पिता को देखा? क्या तुमने मेरे पिता को देखा?” इस तर्क से भी समझा जा सकता है कि शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा—कैसे प्रिय से पैदा होते हैं, प्रिय से आरंभ होते हैं। इसी श्रावस्ती की बात है, एक लड़के का भाई… बहन… पुत्र… पुत्री… पत्नी मर गई। भाई… बहन… पुत्र… पुत्री… पत्नी की मौत से लड़का पागल हो, बहके चित्त से — इस रास्ते से उस रास्ते, इस चौराहे से उस चौराहे भटकते हुए — कहता, “क्या तुमने मेरी पत्नी को देखा? क्या तुमने मेरी पत्नी को देखा?” इस तर्क से भी समझा जा सकता है कि शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा—कैसे प्रिय से पैदा होते हैं, प्रिय से आरंभ होते हैं। इसी श्रावस्ती की बात है, एक पत्नी अपने मायके गई। परिवार ने उसके पति से रिश्ता तुड़वाकर उसकी इच्छाविरुद्ध अन्य पुरुष से ब्याहना चाहा। तब उसने पति से कह दिया, “परिवार अपना रिश्ता तुड़वाकर मुझे अन्य पुरुष से ब्याहना चाहते है।” तब उस पति ने अपने पत्नी को काटकर दो टुकड़े कर दिए, तथा स्वयं को भी काटकर मार डाला, [सोचते हुए] ‘मरकर हम एक होंगे।’ इस तर्क से भी समझा जा सकता है कि शोक विलाप दर्द व्यथा व निराशा—कैसे प्रिय से पैदा होते हैं, प्रिय से आरंभ होते हैं। «मा.नि.८७»
जन्म-जन्मांतरण की शुरुवात सोच के परे है, भिक्षुओं। संसरण की निश्चित शुरुवात पता नहीं चलती, परंतु अविद्या में डूबे, तृष्णा में फँसे सत्व जन्म-जन्मांतरण में भटक रहे हैं। जैसे हवा में उछाला डंडा नीचे गिरे, तो कभी ऊपरी छोर के बल गिरता है, तो कभी निचले छोर के बल गिरता है, तो कभी बीच हिस्से के बल गिरता है। उसी तरह अविद्या में डूबे, तृष्णा में फँसे, जन्म-जन्मांतरण में भटकते हुए सत्व कभी इस लोक से उस लोक जाते हैं, तो कभी उस लोक से इस लोक आते हैं। यूँ दीर्घ.. दीर्घकाल तक आप इतना दुःख ले चुके, दर्द ले चुके, ग़म उठा चुके, श्मशान भर चुके—जो [दुनिया के] समस्त रचनाओं के प्रति मोहभंग होने के लिए पर्याप्त है, वैराग्य लाने के लिए पर्याप्त है, विमुक्ति पाने के लिए पर्याप्त है। क्या लगता है, भिक्षुओं? आपने यूँ दीर्घ.. दीर्घकाल से जन्म-जन्मांतरण में भटकते, अप्रिय से जुड़ते, प्रिय से बिछड़ते, रोते बिलखते हुए जितने आँसू बहाए—वह अधिक होंगे या चारों महासागरों का एकत्रित जल? आँसू अधिक है भिक्षुओं, जो आपने यूँ दीर्घकाल से जन्म-जन्मांतरण में भटकते, अप्रिय से जुड़ते, प्रिय से बिछड़ते, रोते बिलखते हुए बहाए है, न कि चारों महासागरों का एकत्रित जल। चिरकाल से आपने [बार-बार] माँ की मौत अनुभव की हैं। आपने यूँ दीर्घकाल से जन्म-जन्मांतरण में भटकते, अप्रिय से जुड़ते, प्रिय से बिछड़ते, रोते बिलखते हुए माँ की मौत पर जितने आँसू बहाए है—वह अधिक है; न कि चारों महासागरों का एकत्रित जल। चिरकाल से आपने [बार-बार] पिता की मौत अनुभव की हैं। आपने यूँ दीर्घकाल से जन्म-जन्मांतरण में भटकते, अप्रिय से जुड़ते, प्रिय से बिछड़ते, रोते बिलखते हुए पिता की मौत पर जितने आँसू बहाए है—वह अधिक है; न कि चारों महासागरों का एकत्रित जल। चिरकाल से आपने [बार-बार] भाई की मौत… बहन की मौत… पत्नी की मौत… पति की मौत… पुत्र की मौत… पुत्री की मौत… रिश्तेदारों की मौत… संपत्ति लूट जाना… रोग-पीड़ा अनुभव किये हैं। आपने यूँ दीर्घकाल से जन्म-जन्मांतरण में भटकते, अप्रिय से जुड़ते, प्रिय से बिछड़ते, रोते बिलखते हुए भाई की मौत… बहन की मौत… पत्नी की मौत… पति की मौत… पुत्र की मौत… पुत्री की मौत…रिश्तेदारों की मौत… संपत्ति लूट जाने… रोग-पीड़ा पर जितने आँसू बहाए हैं—वह अधिक है; न कि चारों महासागरों का एकत्रित जल। क्या लगता है, भिक्षुओं? आपने यूँ दीर्घ.. दीर्घकाल से जन्म-जन्मांतरण में भटकते हुए अपना सिर कटाकर जितना रक्त बहाया—वह अधिक होगा या चारों महासागरों का एकत्रित जल? रक्त अधिक है भिक्षुओं, जो आपने यूँ दीर्घ.. दीर्घकाल से जन्म-जन्मांतरण में भटकते हुए अपना सिर कटाकर बहाया है, न कि चारों महासागरों का एकत्रित जल। आपने [बार-बार] गाय होते हुए अपना सिर कटाकर जितना रक्त बहाया—वह अधिक है; न कि चारों महासागरों का एकत्रित जल। आपने [बार-बार] बैल होते हुए अपना सिर कटाकर जितना रक्त बहाया—वह अधिक है; न कि चारों महासागरों का एकत्रित जल। आपने [बार-बार] भैंस होते हुए… भेड़ होते हुए… बकरी होते हुए… हिरण होते हुए… मुर्गी होते हुए…. सुअर होते हुए अपना सिर कटाकर जितना रक्त बहाया—वह अधिक है; न कि चारों महासागरों का एकत्रित जल। आपने [बार-बार] गाँव का लुटेरा चोर होते हुए गिरफ्तार होने पर दंडस्वरूप अपना सिर कटाकर जितना रक्त बहाया—वह अधिक है; न कि चारों महासागरों का एकत्रित जल। आपने [बार-बार] महामार्ग का डाकु होते हुए गिरफ्तार होने पर दंडस्वरूप अपना सिर कटाकर जितना रक्त बहाया—वह अधिक है; न कि चारों महासागरों का एकत्रित जल। आपने [बार-बार] व्यभिचारी होते हुए गिरफ्तार होने पर दंडस्वरूप अपना सिर कटाकर जितना रक्त बहाया—वह अधिक है; न कि चारों महासागरों का एकत्रित जल। जन्म-जन्मांतरण की शुरुवात सोच के परे है, भिक्षुओं। संसरण की निश्चित शुरुवात पता नहीं चलती, परंतु अविद्या में डूबे, तृष्णा में फँसे सत्व जन्म-जन्मांतरण में भटक रहे हैं। यूँ दीर्घ.. दीर्घकाल तक आप इतना दुःख ले चुके, इतना दर्द ले चुके, इतना ग़म उठा चुके, इतने श्मशान भर चुके—जो [दुनिया के] समस्त रचनाओं के प्रति मोहभंग होने के लिए पर्याप्त है, वैराग्य लाने के लिए पर्याप्त है, विमुक्ति पाने के लिए पर्याप्त है। एक समय आता है, जब बड़े-बड़े महासागर भाप बन जाते है, सूख जाते है, उनका अस्तित्व नहीं बचता। परंतु सत्व जब तक अविद्या में डूबे, तृष्णा में फँसे, जन्म-जन्मांतरण में भटक रहे हो—उनके दुःखों का अंत नहीं होता। एक समय आता है, जब पर्वतराज सुमेरु जल जाता है, राख़ हो जाता है, उसका अस्तित्व नहीं बचता। परंतु सत्व जब तक अविद्या में डूबे, तृष्णा में फँसे, जन्म-जन्मांतरण में भटक रहे हो—उनके दुःखों का अंत नहीं होता। एक समय आता है, जब यह विशाल पृथ्वी जल जाती है, राख़ हो जाती है, उसका अस्तित्व नहीं बचता। परंतु सत्व जब तक अविद्या में डूबे, तृष्णा में फँसे, जन्म-जन्मांतरण में भटक रहे हो—उनके दुःखों का अंत नहीं होता। जन्म-जन्मांतरण में भटकता हुआ एक व्यक्ति मात्र एक कल्प तक पीछे जितनी हड्डी-कंकाल छोड़ते जाता है—यदि उनका कोई ढ़ेर लगाए, तो वह इस वेपुल्ल पर्वत से ऊँचा हो जाए। और यह गिनना आसान नहीं कि एक कल्प में कुल कितने वर्ष होते हैं—इतने सैकड़ों वर्ष.. या इतने हज़ारों वर्ष.. या इतने लाखों वर्ष होते हैं। कल्पना करों कि चट्टान का एक महापर्वत हो—एक योजन [=१२~१६ कि.मी.] लंबा, एक योजन चौड़ा, एक योजन ऊँचा, बिना दरार, बिना छेदवाला एकल पिंड। तब प्रत्येक सौ वर्षों में कोई पुरुष मात्र एक बार आए, और काशी के [मुलायम] वस्त्र से उसे मात्र एक बार पोछे। उस प्रयास से चट्टान का वह महापर्वत बहुत जल्द अपव्यय होगा, मिट जाएगा, किंतु कल्प नहीं बीतेगा। इतना लंबा होता है भिक्षुओं, एक कल्प! और इतने लंबे कल्प में जन्म-जन्मांतरण में भटकते हुए मात्र एक कल्प ही नहीं बीता.. या एक सौ कल्प नहीं बीते.. या एक हज़ार कल्प नहीं बीते.. या एक लाख कल्प नहीं बीते… जैसे गंगा नदी जहाँ से बह निकलती है, और जहाँ समुद्र में मिलती है, उसके बीच रेत के कुल कण गिनना आसान न होगा कि इतने सैकड़ों रेत के कण होंगे.. या इतने हज़ारों रेत के कण होंगे, या इतने लाखों रेत के कण होंगे। जन्म-जन्मांतरण में भटकते हुए उनसे भी अधिक कल्प बीत चुके, गुज़र चुके, जिन्हें गिनना आसान न होगा कि इतने सैकड़ों कल्प बीत चुके.. या इतने हज़ारों कल्प बीत चुके.. या इतने लाखों कल्प बीत चुके, गुज़र चुके। आप यूँ दीर्घ.. दीर्घकाल तक इतना दुःख ले चुके, इतना दर्द ले चुके, इतना ग़म उठा चुके, इतने श्मशान भर चुके—जो समस्त रचनाओं के प्रति मोहभंग होने के लिए पर्याप्त है, वैराग्य लाने के लिए पर्याप्त है, विमुक्ति पाने के लिए पर्याप्त है। जैसे कोई कुत्ता खंभे या खूँटी से बंधा—उसी खंभे या खूँटी के गोल-गोल दौड़ते रहता है, घूमते रहता है। उसी तरह कोई आर्यदर्शन से वंचित, आर्यधर्म से अपरिचित, आर्यधर्म में न अनुशासित हो; या सत्पुरूषदर्शन से वंचित, सत्पुरूषधर्म से अपरिचित, सत्पुरूषधर्म में न अनुशासित हो—ऐसा धर्म न सुना आम आदमी — • [भौतिक] रूप को आत्म [स्व] मानता है; या आत्म का रूप मानता है; या आत्म में रूप मानता है; या रूप में आत्म मानता है। • संवेदना «वेदना» को आत्म मानता है; या आत्म की संवेदना मानता है; या आत्म में संवेदना मानता है; या संवेदना में आत्म मानता है। • नज़रिया «सञ्ञा» को आत्म मानता है; या आत्म का नज़रिया मानता है; या आत्म में नज़रिया मानता है; या नज़रिया में आत्म मानता है। • रचना 2 «सङखार» को आत्म मानता है; या आत्म की रचना मानता है; या आत्म में रचना मानता है; या रचना में आत्म मानता है। • चैतन्यता «विञ्ञाण» को आत्म मानता है; या आत्म की चैतन्यता मानता है; या आत्म में चैतन्यता मानता है; या चैतन्यता में आत्म मानता है। 3 और वह उसी रूप के गोल-गोल दौड़ते रहता है, घूमते रहता है। वह उसी संवेदना के… नज़रिए के… रचना के… चैतन्यता के गोल-गोल दौड़ते रहता है, घूमते रहता है। उनके गोल-गोल दौड़ते रहने से, घूमते रहने से वह उन रूप से… संवेदना से… नज़रिए से… रचना से… चैतन्यता से छूट नहीं पाता। उनसे छूट न पाने से वह जन्म बुढ़ापा मौत से छूट नहीं पाता; शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा से छूट नहीं पाता। मैं कहता हूँ वह दुःखों से छूट नहीं पाता। परंतु कोई जो आर्यदर्शन लाभान्वित, आर्यधर्म से सुपरिचित, आर्यधर्म में अनुशासित हो; या सत्पुरूषदर्शन लाभान्वित, सत्पुरूषधर्म से सुपरिचित, सत्पुरूषधर्म में अनुशासित हो—ऐसा धर्म सुना आर्यश्रावक — • रूप को आत्म नहीं मानता; या आत्म का रूप नहीं मानता; या आत्म में रूप नहीं मानता; या रूप में आत्म नहीं मानता। • संवेदना को आत्म नहीं मानता; या आत्म की संवेदना नहीं मानता; या आत्म में संवेदना नहीं मानता; या संवेदना में आत्म नहीं मानता। • नज़रिए को आत्म नहीं मानता; या आत्म का नज़रिया नहीं मानता; या आत्म में नज़रिया नहीं मानता; या नज़रिया में आत्म नहीं मानता। • रचना को आत्म नहीं मानता; या आत्म की रचना नहीं मानता; या आत्म में रचना नहीं मानता; या रचना में आत्म नहीं मानता। • चैतन्यता को आत्म नहीं मानता; या आत्म की चैतन्यता नहीं मानता; या आत्म में चैतन्यता नहीं मानता; या चैतन्यता में आत्म नहीं मानता। वह रूप के गोल-गोल दौड़ते नहीं रहता, घूमते नहीं रहता। वह संवेदना के… नज़रिए के… रचना के… चैतन्यता के गोल-गोल दौड़ते नहीं रहता, घूमते नहीं रहता। उनके गोल-गोल दौड़ते न रहने से, घूमते न रहने से वह उन रूप से… संवेदना से… नज़रिए से… रचना से… चैतन्यता से छूट पाता है। उनसे छूट पाने से वह जन्म बुढ़ापा मौत से छूट पाता है; शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा से छूट पाता है। मैं कहता हूँ वह दुःखों से छूट पाता है। जैसे कोई कुत्ता खंभे या खूँटी से बंधा—जब भी चलेगा, उसी खंभे या खूँटी के आसपास चलता मिलेगा। जब भी खड़ा रहेगा, उसी खंभे या खूँटी के आसपास खड़ा मिलेगा। जब भी बैठेगा, उसी खंभे या खूँटी के आसपास बैठा मिलेगा। जब भी लेटेगा, उसी खंभे या खूँटी के आसपास लेटा मिलेगा। उसी तरह, धर्म न सुने आम आदमी को लगता है कि यह — • रूप—‘मेरा है। मेरा आत्म है। यही तो मैं हूँ।’ • संवेदना—‘मेरी है। मेरा आत्म है। यही तो मैं हूँ।’ • नज़रिया—‘मेरा है। मेरा आत्म है। यही तो मैं हूँ।’ • रचना—‘मेरी है। मेरा आत्म है। यही तो मैं हूँ।’ • चैतन्यता—‘मेरी है। मेरा आत्म है। यही तो मैं हूँ।’ वह जब भी चलेगा, इन्ही पाँच आधार-संग्रह «उपादानक्खन्ध» के आसपास चलता मिलेगा। वह जब भी खड़ा रहेगा, इन्ही पाँच आधार-संग्रह के आसपास खड़ा मिलेगा। वह जब भी बैठेगा, इन्ही पाँच आधार-संग्रह के आसपास बैठा मिलेगा। वह जब भी लेटेगा, इन्ही पाँच आधार-संग्रह के आसपास लेटा मिलेगा। इसलिए आप को अपने चित्त के बारे में सोचना चाहिए—‘दीर्घकाल से यह चित्त ‘राग द्वेष मोह’ द्वारा मैला हुआ है। चित्त के मैलेपन से सत्व मैले होते हैं। चित्त की सफ़ाई से सत्व विशुद्ध होते हैं।’ भिक्षुओं, क्या आपने कभी चलचित्रों की नौटंकी देखी है? “हाँ, भन्ते!” उन चलचित्र नौटंकी की रचनाएँ चित्त ने की है। बल्कि यह चित्त उन तमाम चलचित्र नौटंकीयों से अधिक रंगबिरंगा है। इसलिए आप को अपने चित्त के बारे में सोचना चाहिए—‘दीर्घकाल से यह चित्त ‘राग द्वेष मोह’ द्वारा मैला हुआ है। चित्त के मैलेपन से सत्व मैले होते हैं। चित्त की सफ़ाई से सत्व विशुद्ध होते हैं।’ मैं किसी अन्य सत्वलोक में इतनी रंगबिरंगी विविधता नहीं देखता, जितना पशुयोनि में देखता हूँ। आम जीवजंतुओं की रचना चित्त ने की है। बल्कि चित्त में पशुयोनि से अधिक रंगबिरंगी विविधता पाई जाती है। इसलिए आप को अपने चित्त के बारे में सोचना चाहिए—‘दीर्घकाल से यह चित्त ‘राग द्वेष मोह’ द्वारा मैला हुआ है। चित्त के मैलेपन से सत्व मैले होते हैं। चित्त की सफ़ाई से सत्व विशुद्ध होते हैं।’ जैसे किसी चित्रकार के पास जब ‘लाख हल्दी नील या लालिमा’ [=रंग] हो—तभी वह फ़लक, दीवार या कपड़े पर सभी अंगप्रत्यंगों वाला स्त्रीचित्र या पुरुषचित्र रंग पाता है। उसी तरह कोई धर्म न सुना आम आदमी, जब कुछ रचने जाए, तो रूप रचता है, संवेदना रचता है, नज़रिया रचता है, रचना रचता है, चैतन्यता रचता है। • तो क्या मानते हो भिक्षुओं, रूप नित्य होता है या अनित्य? “अनित्य, भन्ते।” जो नित्य नहीं होता, वह कष्टपूर्ण होता है या सुखपूर्ण? “कष्टपूर्ण, भन्ते।” जो नित्य न हो, बल्कि कष्टपूर्ण हो, बदलते स्वभाव का हो, क्या उसे यूँ देखना योग्य है कि—‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ?’ “नहीं, भन्ते।” इसलिए भिक्षुओं, जो रूप—भूत भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप के सभी रूप—‘मेरे नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं’—इस तरह जैसे बने हो «यथाभूत», सही पता करके देखना है «सम्मप्पञ्ञाय दट्ठब्बं»। • संवेदना नित्य होती है या अनित्य? “अनित्य, भन्ते।” जो नित्य नहीं होती, वह कष्टपूर्ण होती है या सुखपूर्ण? “कष्टपूर्ण, भन्ते।” जो नित्य न हो, बल्कि कष्टपूर्ण हो, बदलते स्वभाव की हो, क्या उसे यूँ देखना योग्य है कि—‘यह मेरी है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ?’ “नहीं, भन्ते।” इसलिए भिक्षुओं, जो भी संवेदना है—भूत भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की सभी संवेदनाएँ—‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं’—इस तरह जैसे बनी हो, सही पता करके देखना है। • नज़रिया नित्य होता है या अनित्य? “अनित्य, भन्ते।” जो नित्य नहीं होता, वह कष्टपूर्ण होता है या सुखपूर्ण? “कष्टपूर्ण, भन्ते।” जो नित्य न हो, बल्कि कष्टपूर्ण हो, बदलते स्वभाव का हो, क्या उसे यूँ देखना योग्य है कि—‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ?’ “नहीं, भन्ते।” इसलिए भिक्षुओं, जो भी नज़रिया है—भूत भविष्य या वर्तमान का, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप के सभी नज़रिए—‘मेरे नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं’—इस तरह जैसे बने हो, सही पता करके देखना है। • रचना नित्य होती है या अनित्य? “अनित्य, भन्ते।” जो नित्य नहीं होती, वह कष्टपूर्ण होती है या सुखपूर्ण? “कष्टपूर्ण, भन्ते।” जो नित्य न हो, बल्कि कष्टपूर्ण हो, बदलते स्वभाव की हो, क्या उसे यूँ देखना योग्य है कि—‘यह मेरी है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ?’ “नहीं, भन्ते।” इसलिए भिक्षुओं, जो भी रचना है—भूत भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की सभी रचनाएँ—‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं’—इस तरह जैसे बनी हो, सही पता करके देखना है। • चैतन्यता नित्य होती है या अनित्य? “अनित्य, भन्ते।” जो नित्य नहीं होती, वह कष्टपूर्ण होती है या सुखपूर्ण? “कष्टपूर्ण, भन्ते।” जो नित्य न हो, बल्कि कष्टपूर्ण हो, बदलते स्वभाव की हो, क्या उसे यूँ देखना योग्य है कि—‘यह मेरी है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ?’ “नहीं, भन्ते।” इसलिए भिक्षुओं, जो भी चैतन्यता है—भूत भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की सभी चैतन्यता—‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं’—इस तरह जैसे बनी हो, सही पता करके देखना है। इस तरह देखने से भिक्षुओं, धर्म सुने आर्यश्रावक का रूपों के प्रति मोहभंग «निब्बिदा» होता है, संवेदनाओं के प्रति मोहभंग होता है, नज़रियों के प्रति मोहभंग होता है, रचनाओं के प्रति मोहभंग होता है, चैतन्यता के प्रति मोहभंग होता है। मोहभंग होने से वैराग्य आता है। वैराग्य आने से वह विमुक्त होता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है—‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है—‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’ «सं.नि.२२:९९ + १५:३ + १५:५ + १५:८ + १५:९ + १५:१० + १५:१३ + २२:१००»
[भगवान ने अपने अँगूठे के नाखून पर धूल उठाकर पूछा —] क्या लगता है भिक्षुओं, क्या अधिक है—मेरे नाखून पर लगी यह धूल, या विशाल पृथ्वी? “विशाल पृथ्वी बहुत अधिक है, भगवान। भगवान के नाखून पर लगी यह धूल कुछ भी नहीं; उसे गिना भी नहीं जाएगा। कोई तुलना ही नहीं। बहुत कम है। विशाल पृथ्वी से तुलना करें तो भगवान के नाखून पर लगी धूल एक अंश भी नहीं।” उसी तरह भिक्षुओं, बहुत कम [=सुगति] सत्व होते हैं, जो मृत्युपरांत — • मनुष्यलोक से देवलोक, या मनुष्यलोक से पुनः मनुष्यलोक में पुनर्जन्म पाते हैं। • देवलोक से पुनः देवलोक, या देवलोक से मनुष्यलोक में पुनर्जन्म पाते हैं। • पशुयोनि से… प्रेतलोक से… नरक से देवलोक या मनुष्यलोक में पुनर्जन्म पाते हैं। परंतु बहुत अधिक [=दुर्गति] सत्व होते हैं, जो मृत्युपरांत — • मनुष्यलोक से नरक प्रेतलोक या पशुयोनि में पुनर्जन्म पाते हैं। • देवलोक से नरक प्रेतलोक या पशुयोनि में पुनर्जन्म पाते हैं। • पशुयोनि से नरक प्रेतलोक या पशुयोनि में पुनर्जन्म पाते हैं। • प्रेतलोक से नरक प्रेतलोक या पशुयोनि में पुनर्जन्म पाते हैं। • नरक से नरक प्रेतलोक या पशुयोनि में पुनर्जन्म पाते हैं। «सं.नि.५६:१०२ ~ ५६:११३»
«मा.नि.८२»
‘दुनिया.. दुनिया..’ कहते है, भगवान। यह शब्द ‘दुनिया’ «लोक» कहाँ लागू होता है? «लुज्जती’ति लोके» टूट-टूटकर बिखरती है, उसे ‘दुनिया’ कहते है। क्या टूटकर बिखरती है? • आँख टूटकर बिखरती है। रूप टूटकर बिखरते हैं। आँख की चैतन्यता टूटकर बिखरती है। आँख का संपर्क टूटकर बिखरता है। आँख के संपर्क से उत्पन्न जो भी महसूस हो—सुख, दर्द या नसुख-नदर्द—वह भी टूटकर बिखरता है। • कान टूटकर बिखरते है। आवाज़े टूटकर बिखरती हैं। कान की चैतन्यता टूटकर बिखरती है। कान का संपर्क टूटकर बिखरता है। कान के संपर्क से उत्पन्न जो भी महसूस हो—सुख, दर्द या नसुख-नदर्द—वह भी टूटकर बिखरता है। • नाक टूटकर बिखरती है। गंध टूटकर बिखरती हैं। नाक की चैतन्यता टूटकर बिखरती है। नाक का संपर्क टूटकर बिखरता है। नाक के संपर्क से उत्पन्न जो भी महसूस हो—सुख, दर्द या नसुख-नदर्द—वह भी टूटकर बिखरता है। • जीभ टूटकर बिखरती है। स्वाद टूटकर बिखरते हैं। जीभ की चैतन्यता टूटकर बिखरती है। जीभ का संपर्क टूटकर बिखरता है। जीभ के संपर्क से उत्पन्न जो भी महसूस हो—सुख, दर्द या नसुख-नदर्द—वह भी टूटकर बिखरता है। • काया टूटकर बिखरती है। संस्पर्श टूटकर बिखरते हैं। काया की चैतन्यता टूटकर बिखरती है। काया का संपर्क टूटकर बिखरता है। काया के संपर्क से उत्पन्न जो भी महसूस हो—सुख, दर्द या नसुख-नदर्द—वह भी टूटकर बिखरता है। • मन टूटकर बिखरता है। स्वभाव टूटकर बिखरते हैं। मन की चैतन्यता टूटकर बिखरती है। मन का संपर्क टूटकर बिखरता है। मन के संपर्क से उत्पन्न जो भी महसूस हो—सुख, दर्द या नसुख-नदर्द—वह भी टूटकर बिखरता है। टूट-टूटकर बिखरती है, उसे ‘दुनिया’ कहते है। «सं.नि.३५:८२»
कल्पना करो भिक्षुओं, चार ज़हरीले नाग हो। और ऐसा व्यक्ति आए जो जीना चाहता हो, दर्द से दूर रहना चाहता हो। उसे कहा जाए—“देखिए जनाब, यह चार ज़हरीले नाग है, जिन्हें समय-समय पर उठाना है, नहलाना है, खिलाना है, और सुलाना है। किंतु उनकी सेवा करते हुए कोई नाग गुस्सा हो जाए, तो वह तुम्हें डसे बिना छोड़ेगा नहीं। तुम वहीं तड़प-तड़पकर मर जाओगे। तो तुम्हारी नौकरी लगा दी जाती है।” तब वह व्यक्ति, उन चार ज़हरीले नागों से घबराकर यहाँ वहाँ भागे। तब उसे कहा जाए—“जनाब, हमें ख़बर मिली है कि आपके पाँच दुश्मन पीछा कर रहे है, [सोचते हुए] ‘आप जहाँ कहीं मिले, ख़ून कर दे!’ तो देखिए जनाब, आपको क्या करना है?” तब वह व्यक्ति, उन चार ज़हरीले नागों और उन पाँच दुश्मनों से घबराकर यहाँ वहाँ भागे। तब उसे कहा जाए—“जनाब, हमें ख़बर मिली है कि एक गुप्तहत्यारा तलवार निकाले आपका पीछा कर रहा है, [सोचते हुए] ‘आप जहाँ कही मिले, सिर उड़ा दूँ!’ तो देखिए जनाब, आपको क्या करना है?” तब वह व्यक्ति, उन चार ज़हरीले नागों, उन पाँच दुश्मनों, और एक गुप्तहत्यारे से घबराकर यहाँ वहाँ भागे। तब उसे एक वीरान गाँव दिखाई दे। वह जिस भी घर जाए, वह ख़ाली निर्जन हो। जो भी बर्तन उठाए, वह ख़ाली खोखला हो। तब उसे कहा जाए—“डाकुओं की टोली गाँव लूटने के लिए हमला करनेवाली है। तो देखिए जनाब, आपको क्या करना है?” तब वह व्यक्ति, उन चार ज़हरीले नागों, उन पाँच दुश्मनों, एक गुप्तहत्यारे, और डाकुओं की टोली से घबराकर यहाँ वहाँ भागे। तब आगे उसे भीषण बाढ़ दिखाई दे, जिसका यह तट ख़तरनाक हो व दूर का तट सुरक्षित। किंतु पार करने के लिए न नाव हो, न पुल। तब वह सोचता है—‘मैं क्यों न लकड़ियां घास टहनियाँ व पत्ते इकट्ठाकर बेड़ा बनाऊ? उस बेड़े पर सवार हो, हाथ पैरों से चप्पू चलाता हुआ दूर के तट पर सुरक्षित पहुँचूँगा।’ तब वह लकड़ियां घास टहनियाँ व पत्ते इकट्ठाकर बेड़ा बनाता है, और उसपर सवार हो, हाथ पैरों से चप्पू चलाता हुआ वह ब्राह्मण बाढ़ पार कर दूर के तट पर सुरक्षित खड़ा होकर राहत की साँस लेता है। — तो भिक्षुओं, मैंने यह उपमा अपनी बात रखने के लिए दी है। और वह बात यह है; • चार ज़हरीले नाग—चार महाभूत है: पृथ्वी जल अग्नि वायु धातु। • पाँच दुश्मन—पाँच आधार-संग्रह है। • तलवार निकाला एक गुप्तहत्यारा—मज़ा लेना और दिलचस्पी «नन्दिराग» है। • वीरान गाँव—भीतरी छह इंद्रिया हैं। यदि समझदार सक्षम व चतुर व्यक्ति—आँख कान नाक जीभ काया मन ठीक से जाँचें, तो उसे वह ख़ाली खोखली दिखाई देगी। • डाकुओं की टोली—बाहरी छह विषय हैं। आँखों पर प्रिय-अप्रिय दोनों तरह के रूप टकराते रहते है। कानों पर प्रिय-अप्रिय दोनों तरह की आवाज़ें टकराती रहती है। नाक पर प्रिय-अप्रिय दोनों तरह की गंध टकराती रहती है। जीभ पर प्रिय-अप्रिय दोनों तरह के स्वाद टकराते रहते है। काया पर प्रिय-अप्रिय दोनों तरह के संस्पर्श टकराते रहते है। मन पर प्रिय-अप्रिय दोनों तरह के स्वभाव टकराते रहते है। • भीषण बाढ़—बहाव «आसव» की चार बाढ़ है: काम अस्तित्व दृष्टि व अविद्या का बहाव। • यह ख़तरनाक तट—आत्मियता «सक्काय» करना है। • दूर का सुरक्षित तट—निर्वाण है। • बेड़ा—आर्य अष्टांगिक मार्ग है। • हाथ पैरों से चप्पू चलाना—परिश्रम करना है। • ब्राह्मण का बाढ़ पार कर दूर के तट पर सुरक्षित खड़े हो राहत की साँस लेना—अरहंत होना है। «सं.नि.३५:२३८»
[भगवान ने अपने अँगूठे के नाखून पर धूल उठाकर पूछा —] क्या लगता है भिक्षुओं, क्या अधिक है—मेरे नाखून पर लगी यह धूल, या विशाल पृथ्वी? “विशाल पृथ्वी बहुत अधिक है, भगवान! भगवान के नाखून पर लगी यह धूल कुछ भी नहीं है। उसे गिना भी न जाएगा। कोई तुलना ही नहीं। बहुत कम है। विशाल पृथ्वी से तुलना करें तो भगवान के नाखून पर लगी धूल एक अंश भी नहीं।” उसी तरह भिक्षुओं, दृष्टिसंपन्न [=श्रोतापन्न] भिक्षु, जिसे धम्म ठीक समझ आए, उसका दुःख-दर्द बहुत अधिक खत्म हुआ, अंत हुआ। और जो बच गया, जो उसे अधिक से अधिक ७ जन्मों में मिलेगा, वह कुछ भी नहीं। उसे गिना भी नहीं जाएगा। कोई तुलना ही नहीं। बहुत कम है। पूर्व के दुःखों के ढ़ेर «दुक्खक्खन्ध» से तुलना करें, तो बचा दुःख-दर्द एक अंश भी नहीं। इतना विशाल पुरस्कार मिलता है भिक्षुओं, जिसे धर्म ठीक समझ आए! इतना महान पुरस्कार मिलता है, जिसे धर्मचक्षु प्राप्त हो! «सं.नि.१३:१»
«धम्मपद १७८»
सत्थुसासन “भन्ते, अच्छा होगा, यदि भगवान मुझे संक्षिप्त में धर्म सिखाएं। ताकि भगवान से धर्म सुनकर मैं निर्लिप्त एकांतवास में फ़िक्रमन्द सचेत व दृढ़निश्चयी होकर रहूँ।” उपालि, जिन धर्मस्वभावों के बारे में तुम जानते हो कि—‘यह धर्मस्वभाव नितांत मोहभंग नहीं कराते; वैराग्य नहीं लाते; निरोध व रोकथाम नहीं कराते; प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि और निर्वाण तक नहीं ले जाते’—उन्हें लेकर तुम निश्चित धारण कर सकते हो कि ‘यह धर्म नहीं हो सकता! यह विनय नहीं हो सकता! यह शास्ता की सीख नहीं हो सकती!’ और जिन धर्मस्वभावों के बारे में तुम जानते हो कि—‘यह धर्मस्वभाव नितांत मोहभंग कराते है; नितांत वैराग्य लाते है; निरोध व रोकथाम कराते है; प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि और निर्वाण तक ले जाते हैं’—उन्हें लेकर तुम निश्चित धारण कर सकते हो कि ‘यह धर्म होगा! यह विनय होगा! यह शास्ता की सीख होगी!’ «अं.नि.७:८०»
“भन्ते, भगवान के दीर्घकाल से सिखाएं धर्म को मैं ऐसे जानता हूँ—‘लोभ चित्त का दूषण «उपक्किलेस» होता है; द्वेष चित्त का दूषण होता है; मोह चित्त का दूषण होता है।’ हालाँकि मैं यह सब जानता हूँ! तब भी मेरे चित्त में कभी-कभी लोभ धर्मस्वभाव, द्वेष धर्मस्वभाव और मोह धर्मस्वभाव घुसकर बैठ जाता है। तो मैं सोचता हूँ कि ‘आख़िर कौन-सा धर्म अब तक मेरे भीतर से नहीं छूटा, जिससे कभी-कभी मेरे चित्त में ‘लोभ, द्वेष और मोह’ घुसकर बैठ जाता है?” “महानाम! वे ही हैं, जो तुम्हारे भीतर से नहीं छूटे, जिस कारण तुम्हारे चित्त में कभी-कभी लोभ धर्मस्वभाव, द्वेष धर्मस्वभाव और मोह धर्मस्वभाव घुसकर बैठ जाता है। क्योंकि यदि वे तुम्हारे भीतर से छूटे चुके होते, तो तुम आज गृहस्थी-जीवन न जीते, और काम-भोग न करते। चूँकि वे ही तुम्हारे भीतर से न छूट पाए, इसलिए तुम आज गृहस्थी-जीवन जीते हो, और काम-भोग भी करते हो। कल्पना करो कि एक गरीब व्यक्ति हो, असहाय और कंगाल—जिसकी एकमेव छोटी-सी झोपड़ी हो, टूटी हुई, ख़स्ता हालात में, कौवों के लिए खुली, ज़रा भी अच्छी नहीं; जिसके पास एकमेव खाट हो, टूटी हुई, ख़स्ता हालात में, ज़रा भी अच्छी नहीं; जिसके पास टूटे चावल और कद्दू के बीज रखा एकमेव बर्तन हो, ज़रा भी अच्छा नहीं; जिसकी एकमेव पत्नी हो, ज़रा भी अच्छी नहीं। तब वह वन में जाए और किसी भिक्षु को देखें, जो अच्छा भोजन कर, हाथ-पैर धोकर, शीतल छाँव में बैठकर, चित्त ऊँचा उठाने «अधिचित्त» के प्रति संकल्पबद्ध हो। तब गरीब सोचता है—‘कितना सुखद होता है श्रमण-जीवन! कितना पीड़ामुक्त होता है श्रमण-जीवन! अरे! काश मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’ किंतु वह अपनी एकमेव छोटी-सी झोपड़ी नहीं त्याग पाता, जो टूटी हुई, ख़स्ता हालात में, कौवों के लिए खुली, ज़रा भी अच्छी नहीं है। वह अपनी एकमेव खाट नहीं त्याग पाता, जो टूटी हुई, ख़स्ता हालात में, ज़रा भी अच्छी नहीं है। वह टूटे चावल और कद्दू के बीज रखा अपना एकमेव बर्तन नहीं त्याग पाता, जो ज़रा भी अच्छा नहीं है। वह अपनी एकमेव पत्नी नहीं त्याग पाता, जो ज़रा भी अच्छी नहीं है। और इसलिए वह सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित नहीं हो पाता। अब कोई कहे कि ‘वह झोंपड़ी… खाट… बर्तन… पत्नी, जो ज़रा भी अच्छे नहीं, वे उसके लिए दुर्बल फंदा है, कमज़ोर फंदा है, सड़ता फंदा है, निस्सार फंदा है!’ क्या ऐसा कहना सच होगा? “नहीं, भन्ते! वह झोंपड़ी… खाट… बर्तन… पत्नी, जो ज़रा भी अच्छे नहीं, वे उसके लिए बड़ा फंदा है, तगड़ा फंदा है, भारी फंदा है, शक्तिशाली फंदा है!” उसी तरह मैं जब नालायक पुरुषों को कहता हूँ कि ‘इसे त्याग दो!’ तो वे कहते है, ‘क्या? इतनी छोटी तुच्छ बात? अरे बड़ा सताता है यह श्रमण!’ और वे उसे नहीं त्यागते। बल्कि वे मेरे प्रति और सीखते «सेक्ख» आर्यश्रावकों के प्रति अशिष्टता दिखाते हैं। उनके लिए वह ‘छोटी तुच्छ बात’ बड़ा फंदा होती है, तगड़ा फंदा होती है, भारी फंदा होती है, शक्तिशाली फंदा होती है। अब कल्पना करो कि कोई गृहस्थ हो, या कुलपुत्र [या पुत्री] हो—जिसके पास स्वर्ण-ईटों से भरा विशाल खज़ाना हो, विभिन्न अनाजों से भरा विशाल भंडार हो, अनेक विस्तृत विशालकाय खेत-खलिहान हो, अनेक विस्तृत विशालकाय ज़मीन-ज़ायदाद हो, विशाल संख्या में पत्नियाँ हो, और विशाल संख्या में गुलाम स्त्री-पुरुष हो। तब वह वन में जाए और किसी भिक्षु को देखें, जो अच्छा भोजन कर, हाथ-पैर धोकर, शीतल छाँव में बैठकर, चित्त ऊँचा उठाने के प्रति संकल्पबद्ध हो। तब गृहस्थ सोचता है—‘कितना सुखद होता है श्रमण-जीवन! कितना पीड़ामुक्त होता है श्रमण-जीवन! अरे! काश मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’ तब वह स्वर्ण-ईटों से भरा विशाल ख़जाना त्याग पाता है, विभिन्न अनाजों से भरा विशाल भंडार त्याग पाता है, अनेक विस्तृत विशालकाय खेत-खलिहान त्याग पाता है, अनेक विस्तृत विशालकाय ज़मीन-ज़ायदाद त्याग पाता है, विशाल संख्या में पत्नियाँ त्याग पाता है, और विशाल संख्या में गुलाम स्त्री-पुरुष त्याग पाता है। और तब वह सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित होता है। अब कोई कहे कि ‘वह ख़जाना… भंडार… खेत-खलिहान… जमीन-ज़ायदाद… पत्नियाँ… गुलाम उसके लिए बड़ा फंदा है, तगड़ा फंदा है, भारी फंदा है, शक्तिशाली फंदा है!’ क्या ऐसा कहना सच होगा? “नहीं, भन्ते! वह ख़जाना… भंडार… खेत-खलिहान… जमीन-ज़ायदाद… पत्नियाँ… गुलाम उसके लिए दुर्बल फंदा है, कमज़ोर फंदा है, सड़ता फंदा है, निस्सार फंदा है!” उसी तरह मैं जब कुछ कुलपुत्रों को कहता हूँ कि ‘इसे त्याग दो!’ तो वे कहते है, ‘क्या? भगवान हमें इतनी छोटी तुच्छ बात त्यागने कहते है? सुगत हमें इतनी छोटी तुच्छ बात त्यागने कहते है?’ और वे उसे तुरंत त्याग देते हैं। वे मेरे प्रति या सीखते आर्यश्रावकों के प्रति अशिष्टता नहीं दिखाते। वे त्याग कर निश्चिन्त रहते हैं, अनुतेज्जित रहते हैं, अपनी आवश्यकताओं को लेकर संतुष्ट रहते हैं, जंगली हिरण की तरह मुक्त चित्त से रहते हैं। उनके लिए वह ‘छोटी तुच्छ बात’ दुर्बल फंदा होती है, कमज़ोर फंदा होती है, सड़ता फंदा होती है, निस्सार फंदा होती है। «मा.नि.१३ + मा.नि.६६»
जिस धर्म-विनय में ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ न पता चले, उसमें प्रथम-श्रेणी के श्रमण, द्वितीय-श्रेणी के श्रमण, तृतीय-श्रेणी के श्रमण, या चतुर्थ-श्रेणी के श्रमण4 भी नहीं पाये जाते। परंतु जिस धर्म-विनय में ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ पता चले, उसी में चारों-श्रेणीयों के श्रमण पाये जाते हैं। ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ इसी धर्म-विनय में पता चलता है, और इसी में चारों-श्रेणीयों के श्रमण पाये जाते हैं। अन्य धर्मसिद्धांत ज्ञानसंपन्न-श्रमणों से ख़ाली है। और यदि भिक्षु ठीक से रहें, तो यह दुनिया अरहंतों से ख़ाली न रहे। «दी.नि.१६»
निर्वाण: जैसे, जलते रहने के लिए अग्नि को आधार की ज़रूरत होती है, किंतु आधार न पाकर अग्नि अंततः बुझ जाती (निवृत्त होती) है। उसी तरह अस्तित्व बनाए रखने के लिए चित्त को ‘पाँच आधार-संग्रह’ की ज़रूरत होती है, किंतु सर्वस्व आधार या चिपकाव «उपादान» छूट जाने पर चित्त मुक्त होकर, इस बुझने (निर्वाण) की अवस्था का साक्षात्कार करता है। वहाँ बेहोशी नहीं होती, बल्कि छह-इंद्रियों से परे परम-सुखद नित्य का अनुभव होता है। जैसे, आधार लेकर जलते रहने की प्रक्रिया लगातार कष्टदायक, तनावपूर्ण होती है। उसी तरह चित्त भी पाँच-संग्रहों का आधार लेकर भीतर ही भीतर लगातार कष्ट, तनाव और जलन महसूस करता है। किंतु आधार छोड़ देने पर अभूतपूर्व शान्ति और शीतलता के साथ समस्त कष्ट, तनाव और जलन से मुक्ति महसूस करता है। ↩︎ संस्कार: जैसे, कुम्हार गीली मिट्टी लेकर ‘चेतनापूर्वक’ घड़ा या अन्य बर्तन गढ़ता/रचता है, या उपन्यासकार चेतनापूर्वक पात्र व कथा गढ़ता/रचता है—जो नैसर्गिक प्राकृत अवस्था में न होकर, बनावटी, चेतनापूर्वक रची, गढ़ी, बुनी या संस्कृत की गयी हो—उन्हें संस्कार या रचना कहते है। अंग्रेजी में formation या fabrication। ↩︎ धर्म न सुना, आम-आदमी इन पाँच-संग्रहों (=रूप संवेदनाएँ नज़रिए रचनाएँ और चैतन्यता) को इस तरह चार-चार तरह से आत्म या स्व मानता है—ऐसी ५ X ४ कुल बीस मान्यताएँ आत्मियदृष्टियाँ«सक्कायदिट्ठी» कहलाती हैं, जो एक बंधन «संयोजन» है। इसे और अन्य दो बंधन—‘अनिश्चितता’ और ‘शील-व्रतों पर अटकना’—तोड़कर प्रथम-आर्यफ़ल ‘श्रोतापन्नपद’ प्राप्त किया जाता है। पश्चात ‘काम-राग’ और ‘चिडचिड’ बंधन तोड़कर अनागामीफ़ल मिलता है। इन पाँच के अलावा, अन्य पाँच—रूप-राग, अरूप-राग, अहंभाव, बेचैनी और अविद्या—ऐसे कुल दस-बंधन तोड़कर, कोई जन्म-जन्मान्तरण से छूटकर, दुःखमुक्त ‘अरहन्तपद’ प्राप्त करता है। ↩︎ चार श्रेणी के श्रमण = श्रोतापन्न, सकदागामी, अनागामी और अरहंत होते हैं। ↩︎
छटपटाती दिखी जनता, गड्ढे में मछलियों जैसे।
— विरुद्ध एक दूसरे के, देख भय लगा मुझे।
सारहीन पूर्णतः दुनिया, दिशाएँ बिखरी ऐसे-तैसे।
इच्छा करते भवन की, मिला न कुछ बिना पूर्वदावेदारी के।
न दिखा कुछ, बजाय स्पर्धा, असंतुष्टि महसूस की मैंने।
अंततः दिखा मुझे—एक तीर, जिसके दर्शन दुर्लभ बड़े
हृदय बसते उस तीर से वशीभूत, सभी दिशाएँ आप भागते।
किंतु खिंच तीर बाहर, आप न भागते, न ही डूबते।
बचती नहीं।
कोई मालिक नहीं।
सब छोड़कर जाना पड़ता है।
तृप्त नहीं करती।
तृष्णा की नौकर है।
सब्बलोकाधिपच्चेन, सोतापत्तिफलं वरं।»
पश्चात स्वर्ग जाकर समस्त विश्वों पर आधिपत्य!
उससे भी बेहतर है श्रोतापतिफल!
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