संवेग ओवाद
~ भगवान के कड़े, किंतु आवश्यक निर्देश ~
दसधम्म —
भिक्षुओं, दस धर्म होते है, जिनके प्रति प्रवज्यितों को हमेशा चिंतनशील रहना चाहिए। कौन से दस?
(१) मैं वर्ण [सामाजिक व्यवस्था] त्याग चुका हूँ।
(२) मेरी जीविका दूसरों के सहारे है।
(३) मुझे अपना [पुराना] आचरण बदलना होगा।
(४) क्या मैं अपने शील में त्रुटि निकाल सकता हूँ?
(५) क्या जानकार सब्रह्मचारी मेरे शील में त्रुटि निकाल सकते हैं?
(६) मैं अपने सभी प्रिय व मनचाहे लोगों से अन्ततः अलग हो जाऊँगा, दूर हो जाऊँगा।
(७) मैं अपने कर्मों का मालिक हूँ, अपने कर्मों का वारिस हूँ, अपने कर्मों से जन्मा हूँ, अपने कर्मों से संबंधित हूँ, अपने कर्मों पर निर्भर रहता हूँ। मैं जो कर्म करूँगा, कल्याण या पाप, उन्हीं का वारिस बनूँगा।
(८) दिन-रात बीत रहे हैं—मैं [दिन-ब-दिन] क्या बनते जा रहा हूँ?
(९) क्या मेरा मन एकांत जगह पर लगता है?
(१०) क्या वाकई मैंने कोई ‘मनुष्योत्तर अवस्था’ प्राप्त की—कोई विशेष आर्य ज्ञानदर्शन? ताकि मरते हुए सब्रह्मचारीयों के पूछने पर मुझे शर्मिंदगी न होगी।
— यह दस धर्म है भिक्षुओं, जिनके प्रति प्रवज्यितों को हमेशा चिंतनशील रहना चाहिए।
«अं.नि.१०:४८»
सप्पुरिस कोई सत्पुरुष है या नहीं, यह चार गुणों से पता चलता हैं। कौन से चार? (१) जब सत्पुरुष से पूछा जाए, तब भी वह दुसरे के दुर्गुण नहीं बताता। न पूछे जानेपर तो बात ही क्या! हालाँकि जब उसे प्रश्न पूछकर बाध्य किया जाए, तब वह दुसरे के दुर्गुण झिझकते हुए, कई छोड़ देते हुए, न पूर्णता से, न ही विवरण के साथ बताता है। (२) जब सत्पुरुष से न पूछा जाए, तब भी वह दुसरे के सदगुण बताता है। पूछे जानेपर तो बात ही क्या! हालाँकि जब उसे प्रश्न पूछकर बाध्य किया जाए, तब वह दुसरे के सदगुण बिना झिझकते हुए, बिना छोड़ देते हुए, पूर्णता से, विवरण के साथ बताता है। (३) जब सत्पुरुष से न पूछा जाए, तब भी वह स्वयं के दुर्गुण बताता है। पूछे जानेपर तो बात ही क्या! हालाँकि जब उसे प्रश्न पूछकर बाध्य किया जाए, तब वह स्वयं के दुर्गुण बिना झिझकते हुए, बिना छोड़ देते हुए, पूर्णता से, विवरण के साथ बताता है। (४) जब सत्पुरुष से पूछा जाए, तब भी वह स्वयं के सदगुण नहीं बताता। न पूछे जानेपर तो बात ही क्या! हालाँकि जब उसे प्रश्न पूछकर बाध्य किया जाए, तब वह स्वयं के सदगुण झिझकते हुए, कई छोड़ देते हुए, न पूर्णता से, न ही विवरण के साथ बताता है। — इन चार गुणों से पता चलता है कि कोई व्यक्ति सत्पुरुष है या नहीं। [असत्पुरुष ठीक इसके विपरीत करता है। इसके अलावा;] • असत्पुरुष अकृतज्ञ होता है; एहसान फ़रामोश होता है। यह अकृतज्ञता, एहसान फ़रामोशी असभ्य लोगों में ही दिखाई पड़ती है। यह असत्पुरुषों का स्तर होता है। • जबकि सत्पुरुष कृतज्ञ होता है, एहसानमंद होता है। यह कृतज्ञता, यह एहसानमंदी सभ्य लोगों में ही दिखाई पड़ता है। यह सत्पुरुषों का स्तर होता है। • यह असंभव है! ऐसा नहीं हो सकता कि असत्पुरुष किसी असत्पुरुष को सही जान पाए कि ‘यह असत्पुरुष है।’ या किसी सत्पुरुष को भी सही जान पाए कि ‘यह सत्पुरुष है।’ • यह संभव है! ऐसा हो सकता कि सत्पुरुष किसी असत्पुरुष को सही जान पाए कि ‘यह असत्पुरुष है।’ या किसी सत्पुरुष को भी सही जान पाए कि ‘यह सत्पुरुष है।’ «मा.नि.११० + अं.नि.२:३१ + अं.नि.४:७३»
धातु-प्रवृत्ति भिक्षुओं, धातु-प्रवृत्ति के अनुसार सत्वों में आपसी मेलमिलाप व सहचार्यता होती है। हीन-वृत्ति के लोग हीन-वृत्ति के लोगों से मेलमिलाप व सहचार्यता करते हैं। कल्याणकारी-वृत्ति के लोग कल्याणकारी-वृत्ति के लोगों से मेलमिलाप व सहचार्यता करते हैं। अतीतकाल में धातु-प्रवृत्ति के अनुसार ही सत्वों में आपसी मेलमिलाप व सहचार्यता होती थी। हीन-वृत्ति के लोग हीन-वृत्ति के लोगों से… कल्याणकारी-वृत्ति के लोग कल्याणकारी-वृत्ति के लोगों से मेलमिलाप व सहचार्यता करते थे। भविष्यकाल में धातु-प्रवृत्ति के अनुसार ही सत्वों में आपसी मेलमिलाप व सहचार्यता होगी। हीन-वृत्ति के लोग हीन-वृत्ति के लोगों से… कल्याणकारी-वृत्ति के लोग कल्याणकारी-वृत्ति के लोगों से मेलमिलाप व सहचार्यता करेंगे। «इतिवुत्तक ७८»
«थेरगाथा १:८४»
कल्याणमित्त “भगवान, अर्ध ब्रह्मचर्य तो बस यही है—कल्याणमित्रता, कल्याण-सहचार्यता, कल्याण-बंधुत्व।” ऐसा मत कहो, आनंद। ऐसा मत कहो। कल्याणमित्रता, कल्याण-सहचार्यता, कल्याण-बंधुत्व दरअसल संपूर्ण ब्रह्मचर्य है। जब कोई भिक्षु कल्याणमित्रता, कल्याण-सहचार्यता, कल्याण-बंधुत्व में रहता हो, तब उससे अपेक्षा की जा सकती है कि वह ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ की साधना करेंगा, बार-बार करेंगा। कैसे? ऐसा होता है कि भिक्षु सम्यकदृष्टि की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उसे भी त्याग देता है। वह सम्यकसंकल्प की साधना… सम्यकवचन की साधना… सम्यककार्य की साधना… सम्यकजीविका की साधना… सम्यकमेहनत की साधना… सम्यकस्मृति की साधना… सम्यकसमाधि की साधना निर्लिप्तता के सहारे, वैराग्य के सहारे, निरोध के सहारे करता है, और अंततः उसे भी त्याग देता है। — इस तरह वह भिक्षु कल्याणमित्रता, कल्याण-सहचार्यता, कल्याण-बंधुत्व में रहते हुए ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ की साधना करता है, बार-बार करता है। और ‘कल्याणमित्रता, कल्याण-सहचार्यता, कल्याण-बंधुत्व दरअसल संपूर्ण ब्रह्मचर्य है’—यह कोई इस तर्क से भी जान सकता है कि मुझ जैसे कल्याणमित्र के सहारे जन्म-स्वभाववाले अनेक सत्व जन्म-विमुक्त हुए… बुढ़ापा-स्वभाववाले अनेक सत्व बुढ़ापा-विमुक्त हुए… मौत-स्वभाववाले अनेक सत्व मृत्यु-विमुक्त हुए… शोक विलाप दर्द व्यथा नाराज़ी-स्वभाववाले अनेक सत्व शोक विलाप दर्द व्यथा नाराज़ी से विमुक्त हुए। «सं.नि.४५:२»
लाभ सत्कार व कीर्ति भिक्षुओं, बड़ी निर्दयी होती है। योगबन्धन से सर्वोपरि राहत पाने में बड़ी, कठोर व तीक्ष्ण बाधा बनती है। क्या तुमने कल रात बूढ़े सियार को रोते सुना? “हाँ, भन्ते।” वह बूढ़ा सियार खुजली से परेशान है। उसे कही सुख नहीं मिलता—चाहे वह गुफ़ा में जाए, पेड़ तले जाए, या खुली जगह। वह जहाँ भी जाए, जहाँ भी खड़े रहे, जहाँ भी बैठे, जहाँ भी लेटे—हमेशा परेशान ही रहता है। उसी तरह कोई भिक्षु ‘लाभ सत्कार व कीर्ति’ से पराभूत हो जाता है। उसका चित्त झुलस जाता है। उसे कही सुख नहीं मिलता—चाहे वह शून्यागार में जाए, पेड़ तले जाए, या खुली जगह। वह जहाँ भी जाए, जहाँ भी खड़े रहे, जहाँ भी बैठे, जहाँ भी लेटे—हमेशा परेशान ही रहता है। इतनी निर्दयी होती है भिक्षुओं, ‘लाभ सत्कार व कीर्ति’! योगबन्धन से सर्वोपरि राहत पाने में बड़ी, कठोर व तीक्ष्ण बाधा बनती है! इसलिए भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए—‘जब भी हमें ‘लाभ सत्कार व कीर्ति’ मिल रही हो, हम उससे अलग हट जाएंगे। और जो ‘लाभ सत्कार व कीर्ति’ मिल चुकी हो, उससे अपना चित्त झुलसने नहीं देंगे।’ «सं.नि.१७:८»
वाचाकुसल सायंकाल में भगवान ध्यान से उठकर वहाँ गये, जहाँ आयुष्मान राहुल थे। आयुष्मान राहुल ने भगवान को दूर से ही आते देखा। देखकर आसन बिछाया, और पैर धोने के लिये जल रखा। भगवान ने पैर बिछे आसन पर बैठकर धोये। आयुष्मान राहुल भगवान को अभिवादन कर एक-ओर बैठ गये। तब भगवान ने थोडा-सा जल लोटे में छोड़, आयुष्मान राहुल को कहा—“राहुल, लोटे में बचा यह थोड़ा-सा जल देखते हो?” “हाँ, भन्ते।” जिन्हें जानबुझकर झूठ बोलने में लज्जा न आती हो, उनमें इस तरह श्रमणत्व थोड़ा-सा ही बचता है। तब भगवान ने वह थोड़ा-सा जल भी फेंककर आयुष्मान राहुल को कहा—“देखा राहुल, वह थोड़ा-सा जल भी फेंक दिया गया?” “हाँ, भन्ते!” जिन्हें जानबूझकर झूठ बोलने में लज्जा न आती हो, उनमें थोड़ा-सा बचा श्रमणत्व भी इस तरह फेंक दिया जाता है। तब भगवान ने लोटे को उलटा कर आयुष्मान राहुल को कहा—“राहुल, उलटे लोटे को देखते हो?” “हाँ, भन्ते!” जिन्हें जानबूझकर झूठ बोलने में लज्जा न आती हो, उनमें थोड़ा-सा बचा श्रमणत्व भी इस तरह उलटा हो जाता है। तब भगवान ने लोटा सीधा कर आयुष्मान राहुल को कहा—“राहुल, खोखले लोटे को देखते हो?” “हाँ, भन्ते!” जिन्हें जानबूझकर झूठ बोलने में लज्जा न आती हो, उनमें थोड़ा-सा बचा श्रमणत्व भी इस तरह खोखला हो जाता है। मैं कहता हूँ, जिन्हें जानबूझकर झूठ बोलने में लज्जा न आती हो, वह ऐसा कोई पाप नहीं, जो न करेंगा। इसलिये राहुल, तुम्हें ऐसा सीखना चाहिये कि ‘हँसी-मज़ाक़ में भी झूठ नहीं बोलूँगा!’ «मा.नि.६१»
आनंद, जिन्हें इस धर्मविनय में आकर अधिक समय नहीं हुआ, उन्हें सिखाओ—‘आवुसो, कम बोलो। सीमा बाँधकर बात करो!’ — इस तरह आनंद, उन्हें नाप-तौलकर बोलने में प्रेरित, स्थापित व प्रतिष्ठित करो। «अं.नि.५:११४»
ऐसा योग्य नहीं है भिक्षुओं, कि अच्छे कुल-परिवार के पुत्र, श्रद्धा से प्रवज्यित होकर तुच्छ विषय पर बात करें। आपस में मिलने पर आपके दो कर्तव्य है—धर्मचर्चा या आर्यमौन। «उदान २:२»
भिक्षुओं, यदि कोई मेरी, धर्म या संघ की निंदा करें, तब नफ़रत, विरोध और मन की नाख़ुशी योग्य नहीं। यदि मेरी, धर्म या संघ की निंदा सुनकर तुम कुपित या खिन्न हो जाओ, तो इसमें तुम्हारी ही हानि होगी… तब तुम्हें सत्य-असत्य पता करना चाहिए—‘क्या यह बात सत्य नहीं, असत्य है? क्या हम लोगों में वाक़ई यह बात पायी नहीं जाती?’ उसी तरह यदि कोई मेरी, या धर्म की, या संघ की प्रशंसा करें, और तुम प्रसन्न या ख़ुश हो जाओ, तो इसमें भी तुम्हारी ही हानि होगी… तब भी तुम्हें सत्य-असत्य पता करना चाहिए—‘क्या यह असत्य नहीं, बल्कि सत्य है? क्या हम लोगों में वाक़ई यह बात पायी जाती है?’ «दी.नि.१»
कालञ्ञुता पोतलिय, दुनिया में चार तरह के लोग पाए जाते है। कौन-से चार? (१) जो निन्दनीय व्यक्ति की ईमानदारी से, मुद्दे के साथ सही समय देखकर निन्दा करता हो; किंतु प्रशंसनीय व्यक्ति की ईमानदारी से, मुद्दे के साथ सही समय देखकर प्रशंसा न करता हो। (२) जो प्रशंसनीय व्यक्ति की ईमानदारी से, मुद्दे के साथ सही समय देखकर प्रशंसा करता हो; किंतु निन्दनीय व्यक्ति की ईमानदारी से, मुद्दे के साथ सही समय देखकर निन्दा न करता हो। (३) जो निन्दनीय व्यक्ति की ईमानदारी से, मुद्दे के साथ सही समय देखकर निन्दा न करता हो; और प्रशंसनीय व्यक्ति की ईमानदारी से, मुद्दे के साथ सही समय देखकर प्रशंसा भी न करता हो। (४) जो निन्दनीय व्यक्ति की ईमानदारी से, मुद्दे के साथ सही समय देखकर निन्दा करता हो; और प्रशंसनीय व्यक्ति की ईमानदारी से, मुद्दे के साथ सही समय देखकर प्रशंसा भी करता हो। — यह चार तरह के लोग दुनिया में पाए जाते हैं। पोतलिय, तुम्हें इन चारों में से कौन-सा व्यक्ति सर्वोत्तम लगता है? “हे गोतम! मुझे इन चारों में से तीसरा व्यक्ति—‘जो निन्दनीय व्यक्ति की ईमानदारी से, मुद्दे के साथ सही समय देखकर निन्दा न करता हो; और प्रशंसनीय व्यक्ति की ईमानदारी से, मुद्दे के साथ सही समय देखकर प्रशंसा भी न करता हो’—सर्वोत्तम लगता है। क्योकि «उपेक्खा» तटस्थता धर्म सर्वोत्तम है।” किंतु मुझे पोतलिय, इन चारों में से चतुर्थ व्यक्ति—‘जो निन्दनीय व्यक्ति की ईमानदारी से, मुद्दे के साथ सही समय देखकर निन्दा करता हो; और प्रशंसनीय व्यक्ति की ईमानदारी से, मुद्दे के साथ सही समय देखकर प्रशंसा भी करता हो’—सर्वोत्तम लगता है। क्योंकि «तत्थ तत्थ कालञ्ञुता» यहाँ वहाँ समयसूचक ज्ञान सर्वोत्तम है। [पोतलिय ने चौककर दोहराया:] “इन चारों में से चतुर्थ व्यक्ति—‘जो निन्दनीय व्यक्ति की ईमानदारी से, मुद्दे के साथ सही समय देखकर निन्दा करता हो; और प्रशंसनीय व्यक्ति की ईमानदारी से, मुद्दे के साथ सही समय देखकर प्रशंसा भी करता हो’—सर्वोत्तम लगता है। क्योंकि «तत्थ तत्थ कालञ्ञुता» यहाँ वहाँ समयसूचक ज्ञान सर्वोत्तम है। उत्तम, हे गोतम! अतिउत्तम! जैसे उलटे हुए को कोई सीधा करें, या छिपे हुए को कोई खोल दे, या भटके हुए को कोई मार्ग दिखाए, या अँधेरे में कोई दीप जलाकर दिखाए, जिससे अच्छी आँखोंवाला साफ़ देख पाए। उसी तरह आपने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं गोतम की शरण जाता हूँ! धर्म एवं संघ की! आज से हे गोतम, मुझे जीवनकाल तक के लिए अपना उपासक धारण करें।” «अं.नि.४:१००»
गधा कल्पना करो भिक्षुओं, कोई गधा गायों के झुंड के पीछे-पीछे चल रहा हो, कहते हुए—‘मैं भी गाय हूँ! मैं भी गाय हूँ!’ अब उसका ‘रंग-रूप’ गाय जैसा नहीं। उसकी ‘आवाज़’ गाय जैसी नहीं। उसके ‘ख़ुर’ गाय जैसे नहीं। तब भी वह गधा गायों के झुंड के पीछे-पीछे चलते रहता है, कहते हुए—‘मैं भी गाय हूँ! मैं भी गाय हूँ!’ उसी तरह ऐसा होता है कि कोई भिक्षु भिक्षुसंघ के पीछे-पीछे चलने लगता है, कहते हुए—‘मैं भी भिक्षु हूँ! मैं भी भिक्षु हूँ!’ अब उसमें दुसरे भिक्षुओं की तरह शील ऊँचा उठाने «अधिसील» की साधना के प्रति चाह नहीं होती। उसमें दुसरे भिक्षुओं की तरह चित्त ऊँचा उठाने «अधिचित्त» की साधना के प्रति चाह नहीं होती। उसमें दुसरे भिक्षुओं की तरह अन्तर्ज्ञान ऊँचा उठाने «अधिपञ्ञ» की साधना के प्रति चाह नहीं होती। तब भी वह भिक्षु भिक्षुसंघ के पीछे-पीछे चलते रहता है, कहते हुए—‘मैं भी भिक्षु हूँ! मैं भी भिक्षु हूँ!’ तो भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए—‘हम शील ऊँचा उठाने की साधना के प्रति अपनी चाह तीव्र करेंगे। हम चित्त ऊँचा उठाने की साधना के प्रति अपनी चाह तीव्र करेंगे। हम अन्तर्ज्ञान ऊँचा उठाने की साधना के प्रति अपनी चाह तीव्र करेंगे।’ «अं.नि.३:८३»
अट्ठ महापुरिसवितक्क भिक्षुओं, महापुरुष की आठ सोच होती है कि— (१) यह धर्म अल्प इच्छुक लोगों का हैं, भव्य इच्छुकों का नहीं! (२) यह धर्म संतुष्ट लोगों का हैं, असंतुष्टों का नहीं! (३) यह धर्म एकांतप्रेमी लोगों का हैं, लोगों में रमनेवालों का नहीं! (४) यह धर्म ऊर्जावान लोगों का हैं, आलसी निठ्ठलों का नहीं! (५) यह धर्म स्मरणशीलवान लोगों का हैं, भुलक्कड़ लोगों का नहीं! (६) यह धर्म समाहित लोगों का हैं, असमाधिस्थों का नहीं! (७) यह धर्म अंतर्ज्ञानी लोगों का हैं, दुर्बुद्धिवालों का नहीं! (८) यह धर्म सुलझन चाहनेवाले व सुलझन में रमनेवाले लोगों का हैं, उलझन «पपञ्च» [या झमेला] चाहनेवाले, व उलझनों में रमनेवालों का नहीं! «अं.नि.८:३०»
समण जीविका भिक्षुओं, भिक्षाटन करना निचले स्तर की जीविका है। ‘जाओ, हाथ में कटोरा लेकर भीख माँगते घूमो!’—ऐसा सुनना दुनिया में गाली के बराबर है। तब भी अच्छे कुल-परिवार से आए युवक अनिवार्य कारण से यह जीविका अपनाते है। जबकि उन्हें ऐसा करने के लिए किसी राजा या लुटेरे ने बाध्य नहीं किया—न ही कर्ज़ से, न ही भय से, और न ही जीविका बर्बाद होने से। बल्कि उन्होंने सोचा—‘हम जन्म बुढ़ापा मौत से घिरे है। शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा, दुःख से घिरे, दुःख से अभिभूत है। काश! हमें इस दुःख-संग्रह का अंत पता चले!’ परंतु अच्छे कुल-परिवार से आए युवक श्रद्धा से प्रवज्यित होकर भी तत्पश्चात कामुकता के लिए लालायित हो जाते है, उनका राग बलवान हो जाता है, चित्त हिंसापूर्ण हो जाता है, संकल्प भ्रष्ट हो जाते है, धुँधली स्मरणशीलता, लापरवाही, एकाग्रहीनता, बिखरा हुआ चित्त, असंयमित इंद्रियाँ हो जाती है। जैसे ‘चिता में जलाई लकड़ी’ हो—दोनों छोर से जली, बीच में टट्टी से सनी। ऐसी लकड़ी न गाँव ले जाते है, न जंगल। मैं कहता हूँ, ऐसे भिक्षु के लिए यही उपमा है—जिसने गृहस्थीभोग तो खो दिया, अब श्रमणध्येय भी पूरा नहीं करता। «इतिवुत्तक ९१»
धम्म परियत्ति भिक्षुओं, ऐसा होता है कि कुछ नालायक लोग धर्म की पढ़ाई करते है—«सुत्त» वार्तालाप, «गेय्य» गद्य-पद्यवाला वर्णन, «वेय्याकरण» स्पष्टीकरण, «गाथा» पद्यगाथा, «उदान» सहज निकले उदगार, «इतिवुत्तक» उद्धरण, «जातक» जन्म-कथाएँ, «अब्भुतधम्म» अद्भुत घटनाएँ, «वेदल्ल» प्रश्नोत्तर सत्र। किंतु स्व-अन्तर्ज्ञान से ‘धर्मार्थ’ जानने के लिए वह धर्म की पढ़ाई नहीं करते। स्व-अन्तर्ज्ञान से धर्मार्थ न जान, वे ‘चिंतन-मनन’ कर भी धर्म से सहमत नहीं होते। धर्म की पढ़ाई वे मात्र बहस जीतने के लिए करते है—दूसरों पर हमला, और ख़ुद का बचाव करने के लिए। वह उस ध्येय तक नहीं पहुँचते, जिसके लिए वाक़ई धर्म की पढ़ाई की जाती है। धर्म को ग़लत तरह से पकड़ना उनकी दीर्घकालीन हानि व दुःख का कारण बनता है। क्यों? क्योंकि धर्म ग़लत तरह से पकड़ा गया। कल्पना करो कि किसी पुरुष को जलसर्प की आवश्यकता हो, और वह जलसर्प ढूँढते हुए भटक रहा हो। उसे एक बड़ा जलसर्प दिखाई दे, जिसे वह कुंडल या पूँछ से पकड़े। तब जलसर्प पीछे पलटकर उसे हाथ, बाँह या किसी अंग को डस लेगा, जिससे पुरुष की मौत होगी, या मौत जैसी पीड़ा। क्यों? क्योंकि जलसर्प ग़लत तरह से पकड़ा गया। उसी तरह ऐसा होता है कि कुछ नालायक लोग धर्म की पढ़ाई करते है… मात्र बहस जीतने के लिए… वे उस ध्येय तक नहीं पहुँचते, जिसके लिए वाक़ई धर्म की पढ़ाई की जाती है। धर्म को ग़लत तरह से पकड़ना उनकी दीर्घकालीन हानि व दुःख का कारण बनता है। क्यों? क्योंकि धर्म ग़लत तरह से पकड़ा गया। किंतु कभी कोई श्रद्धालु कुलपुत्र धर्म की पढ़ाई करता है… धर्म की पढ़ाई कर, वह स्व-अन्तर्ज्ञान से धर्मार्थ पता करता है… और धर्म से सहमत हो जाता है। धर्म की पढ़ाई वह मात्र बहस जीतने के लिए नहीं करता—दूसरों पर हमला, और ख़ुद का बचाव करने के लिए नहीं। बल्कि वह उस ध्येय तक पहुँचता है, जिसके लिए वाक़ई धर्म की पढ़ाई की जाती है। धर्म को सही तरह से पकड़ना उसके दीर्घकालीन हित व सुख का कारण बनता है। क्यों? क्योंकि धर्म सही तरह से पकड़ा गया। कल्पना करो कि किसी पुरुष को जलसर्प की आवश्यकता हो, और वह जलसर्प ढूँढते हुए भटक रहा हो। उसे एक बड़ा जलसर्प दिखाई दे, जिसका सिर वह दो-मुँहे डंडे से दृढ़तापूर्वक दबाए, और उसकी गर्दन मजबूती से दबोच ले। तब जलसर्प चाहे जितना उसकी बाँह लपेटे, उस कारण पुरुष की मौत या मौत जैसी पीड़ा न होगी। क्यों? क्योंकि जलसर्प को सही तरह से पकड़ा गया। उसी तरह कोई श्रद्धालु कुलपुत्र धर्म की पढ़ाई करता है… वह स्व-अन्तर्ज्ञान से धर्मार्थ पता करता है… और धर्म से सहमत हो जाता है। धर्म की पढ़ाई वह मात्र बहस जीतने के लिए नहीं करता—दूसरों पर हमला, और ख़ुद का बचाव करने के लिए नहीं। बल्कि वह उस ध्येय तक पहुँचता है, जिसके लिए वाक़ई धर्म की पढ़ाई की जाती है। धर्म को सही तरह से पकड़ना उसके दीर्घकालीन हित व सुख का कारण बनता है। क्यों? क्योंकि धर्म सही तरह से पकड़ा गया। «मा.नि.२२»
«धम्मपद ९, १०»
भिक्षुओं, जब तक आपमें कुशल धर्मों को लेकर श्रद्धा… लज्जा… फ़िक्र… ऊर्जा… और अन्तर्ज्ञान रहे, तब तक आप अकुशल नहीं बनते। किंतु जब वे गायब हो जाए, और श्रद्धाहीनता… निर्लज्जता… बेफ़िक्री… आलस्यता… और मूढ़ता राज करने लगे, तब आप अकुशल बनते है। जो भिक्षु या भिक्षुणी धर्मशिक्षा त्यागकर तुच्छ गृहस्थी में लौटते हैं, वे पाँच न्यायपूर्ण कारणों से निंदा व फटकार के पात्र होते हैं। [उन्हें लोग कहते है:] “तुम्हें कुशल धर्मों को लेकर श्रद्धा… लज्जा… फ़िक्र… ऊर्जा… और अन्तर्ज्ञान नहीं था!” किंतु जो भिक्षु या भिक्षुणी परिपूर्णता व परिशुद्धता के साथ ‘ब्रह्मचर्य’ पालन करते हैं, [भले ही] दर्द व व्यथा में रोते हुए, आँसू भरे चेहरे के साथ—वे पाँच न्यायपूर्ण कारणों से प्रशंसा के पात्र होते हैं। [उन्हें लोग कहते है:] “तुम्हें कुशल धर्मों को लेकर श्रद्धा… लज्जा… फ़िक्र… ऊर्जा… और अन्तर्ज्ञान था!” इसलिए जो भिक्षु या भिक्षुणी ‘ब्रह्मचर्य’ का पालन परिपूर्णता व परिशुद्धता के साथ करते है, [भले ही] दर्द व व्यथा में रोते हुए, आँसू भरे चेहरे के साथ, वे पाँच न्यायपूर्ण कारणों से प्रशंसा के पात्र होते हैं। «अं.नि.५:५ + ५:६»
सत्थापधान उदाहरण शोकग्रस्त होने पर बगल से उसकी वीणा गिर पड़ी। तब वह हताश यक्ष वहीं विलुप्त हो गया। «सुत्तनिपात ३:२»
अन्तिम ओवाद कल्पना करो भिक्षुओं, चौड़े व गहरे दलदल से घिरा एक बड़ा जंगल हो, जिसका आश्रय लेकर एक विशाल हिरणों का झुंड रहता हो। तब एक पुरुष आए, जो हिरणों की भलाई न चाहता हो, कल्याण न चाहता हो, योगबन्धन से राहत न चाहता हो। वह उनके प्रफुल्लता तक पहुँचने का सुरक्षित व राहत भरा रास्ता बंद करें, और गलत रास्ता खोल दे। पुरुष-शिकारी पीछे लगाए, स्त्री-शिकारी द्वारा जाल बिछाए। और इस तरह वह विशाल हिरणों का झुंड तत्पश्चात तबाही व बर्बादी में गिर पड़े। तब कल्पना करो कि एक अन्य पुरुष प्रकट हो, जो हिरणों की भलाई चाहता हो, कल्याण चाहता हो, योगबन्धन से राहत चाहता हो। वह उनके प्रफुल्लता तक पहुँचने का सुरक्षित व राहत भरा रास्ता खोले, और गलत रास्ता बंद कर दे—पुरुष-शिकारी को हटाए, स्त्री-शिकारी द्वारा बिछा जाल तोड़ दे। और इस तरह वह विशाल हिरणों का झुंड तत्पश्चात वृध्दि विपुलता व प्रगति प्राप्त करें। — तो भिक्षुओं, मैंने यह उपमा अपनी बात रखने के लिए दी है। और वह बात यह है; • बड़ा जंगल—यह संसार है। • चौड़ा व गहरा दलदली इलाक़ा—कामुकता है। • विशाल हिरणों का झुंड—[दुनिया के] सत्व हैं। • जो पुरुष हिरणों की भलाई न चाहता हो, कल्याण न चाहता हो, योगबन्धन से राहत न चाहता हो—वह पापी मार है। • ग़लत रास्ता—मिथ्या अष्टांगिक मार्ग है। अर्थात, मिथ्यादृष्टि… मिथ्यासमाधि। • पुरुष-शिकारी—दिलचस्पी व मज़ा है। • स्त्री-शिकारी—अविद्या है। • अन्य पुरुष जो हिरणों की भलाई चाहता हो, कल्याण चाहता हो, योगबन्धन से राहत चाहता हो—वह तथागत अरहंत सम्यक-संबुद्ध है। • प्रफुल्लता तक पहुँचने का सुरक्षित व राहत भरा रास्ता—आर्य अष्टांगिक मार्ग है। अर्थात, सम्यकदृष्टि… सम्यकसमाधि। तो भिक्षुओं, मैंने प्रफुल्लता तक पहुँचने का सुरक्षित व राहत भरा रास्ता खोल दिया है। पुरुष-शिकारी को हटा दिया है। स्त्री-शिकारी का बिछा जाल तोड़ दिया है। जो शास्ता को करना चाहिए—अपने शिष्यों का कल्याण चाहते हुए, उन पर अनुकंपा करते हुए—वह मैंने तुम्हारे लिए कर दिया! देखों, वहाँ पेड़ों के तल हैं। वहाँ ख़ाली जगहें हैं। झान करो, भिक्षुओं! लापरवाह मत बनो। फ़िर पश्चाताप मत करना। यह हमारा [=सभी बुद्धों का] आपको संदेश है। «मा.नि.१९»
कटता है अलग-थलग रहने से।
जैसे सवारी करें छोटे तख़्ते पर कोई
— डूब जाए वह महासमुद्र में।
वैसे ही साधु जीविका वाला कोई
डूब जाए साथ कर आलसी से।
इसलिए दूर रहों आलसियों से तुम
— जिनमें दृढ़प्रतिज्ञ हो कम।
सहवास करों आर्यजनों का तुम
निर्लिप्त दृढ़निश्चयी, तल्लीन रहे जो झान में
ऊर्जा जिस पंडित की जगी सदा रहे।
दिन में मेलमिलाप में रमना,
कब, कब वह मुर्ख
दुःखों का अंत करेंगा?
और दुर्भाग्यशाली ने,
श्रमणजीवन नाश किया,
ध्येय भी फेक दिया!
नाश उसका भी होगा
—जैसे लकड़ी चिता की हो!
पाप ही पाप करते
वह नरक में उपजेगा!
बेहतर होगा निगलना लौहगोला
—जलता धधकता!
बजाय निगले वह दुष्शील
असंयमी देश की भिक्षा!
जो न सच्चा हो, न आत्मसंयमी
—काषाय-योग्य वह नहीं।
किंतु पथभ्रष्टता से छूटा,
सच्चा आत्मसंयमी,
शील में सुप्रतिष्ठित
—काषाय-योग्य वाक़ई वही।
निरंजरा नदी के समीप
मुझे उद्यम में दृढ़निश्चयी,
झान में विशेष पराक्रम करते देख
नमुची [=मार] आया,
और करुणाभरे शब्द कहने लगा—
“अरे आप दुवर्ण और पतले हो चुके!
मौत पास आ चुकी!
हज़ार-अंश में मौत है,
जीवन एक-अंश में!
जीवित बचिए जनाब,
जीवन है बेहतर!
जीवित रहकर पुण्य तो करोगे!
ब्रह्मचर्य पालन कर,
अग्नियज्ञ कर पुण्यसंचय होगा!
ऐसे उद्यम «पधान» से भला क्या लाभ?
दुर्गम यह उद्यमपथ! दुष्कर!
टिकना है कठिन!”
— कहते हुए यह गाथाएँ
मार खड़ा हुआ भगवान के आगे।
भगवान ने उत्तर दिया उस मार को—
“बेहोशों के रिश्तेदार «पमत्तबन्धु» पापी!
जिस भी ध्येय से आए यहाँ।
पुण्यों की रत्तीभर जरूरत मुझे नहीं।
पुण्यों की जरूरत जिन्हें,
मार-उपदेश के लायक वहीं।
मुझ में है श्रद्धा!
तप ऊर्जा और अन्तर्ज्ञान!
जब इतना दृढ़ हूँ,
क्यों करते हो जीने की याचना?
[घोर प्रयत्न से उठा] यह वायु
जला दे नदी की भी धारा,
तब मेरा लहू क्यों न सूखेगा?
लहू जब सूखेगा,
पित्त व कफ तब सूखेगा।
जब मांसपेशियां क्षीण होते,
चित्त स्पष्ट तब होगा।
स्मृति अन्तर्ज्ञान समाधि
अधिकाधिक स्थिर होते।
ऐसी परम-संवेदना प्राप्त कर रहने से
काम के प्रति चित्त हो जाता निरस!
देखो, सत्व शुद्धि!
कामराग तुम्हारी सेना पहली!
बोरियत दूसरी!
भूख-प्यास तीसरी,
और तृष्णा चौथी!
सुस्ती व तंद्रा पाँचवी,
डर छठी!
अनिश्चितता सातवीं!
ढ़ोंग व अकड़ूपन आठवी!
लाभ सत्कार व कीर्ति नौवीं!
मिथ्याप्राप्त प्रतिष्ठा दसवीं!
करना आत्मप्रशंसा,
दूसरों को तुच्छ दिखाना ग्यारहवीं!
— बस यही नमुची, तुम्हारी सेना!
कान्हा की लड़ाकू-सेना!
कायर हरा न पाये,
परंतु हराने पश्चात ही सुख पाये!
क्यों लादू यह मुंजघास?
थूकता हूँ अपने जीवन पर!
संग्राम में होगी मौत बेहतर,
बजाय मैं बचूं जीवित, हारकर!
अनेक श्रमण ब्राह्मण यही डूबकर दिखाई न देते आगे!
वे पथ न जानते, जिसकी साधना करते चला जाए!
वाहनसहित मार को सुसज्जित-सेना के साथ
घिरा देखकर मैं संग्राम में उतरता!
मुझे कही स्थान से न च्युत कर दे!
देव-मनुष्यसहित संपूर्ण ब्रह्मांड
तुम्हारी जिस सेना से
न पाए जीत,
अन्तर्ज्ञान से उसे ऐसे तोड़ूंगा
— जैसे कच्चे घडे को, मार पत्थर!
संकल्पों को कर वश,
स्मृति सुप्रतिष्ठित कर
अनेक श्रावकों को सिखाता,
देश-देश घूमूँगा!
होशपूर्ण, दृढ़निश्चयी,
अनुशासन पूर्ण करनेवाले—
मेरे श्रावक, तुम्हारी इच्छा के बावजूद
वहाँ जाएंगे,
जहाँ जाकर
दुबारा न होता शोक!”
मार:
“सात वर्षों तक भगवान का पीछा किया,
परंतु गौरवपूर्ण सम्बुद्ध का कोई
द्वार न खोल पाया!
चर्बी-वर्ण का देख पत्थर,
कौवा उसके चक्कर काटे—
[सोचते हुए] ‘मैंने ढूंढ लिया कुछ कोमल!
शायद है स्वादिष्ट!’
परंतु कोई स्वाद न पा, उड़ा कौवा!
टूट पड़ते उस पत्थर पर,
कौवे की तरह
थक गया मैं गोतम के साथ!”
★ समाप्त ★
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