भगवान कहते हैं —
“अकुशल [स्वभाव] का त्याग करो! अकुशल का त्याग किया जा सकता है। यदि अकुशल का त्याग नहीं किया जा सकता, तो मैं तुमसे यह न कहता—“अकुशल का त्याग करो!” परंतु क्योंकि अकुशल का त्याग किया जा सकता है, इसलिए मैं तुमसे कहता हूँ—“अकुशल का त्याग करो!”
यदि अकुशल का त्याग करना अहितकर या पीड़ादायक होता, तो मैं तुमसे यह न कहता—“अकुशल का त्याग करो!” परंतु क्योंकि अकुशल का त्याग करना हितकर और सुखदायक है, इसलिए मैं तुमसे कहता हूँ—“अकुशल का त्याग करो!”
— अंगुत्तरनिकाय २:१९
लेकिन ये अकुशल स्वभाव क्या होते हैं? और, उनसे बाधा कैसे उत्पन्न होती है? भगवान बताते हैं —
“ये पाँच व्यवधान और रुकावटें होती हैं, जो चित्त को वशीभूत कर लेती हैं और प्रज्ञा [=अन्तर्ज्ञान] को दुर्बल कर देती हैं। कौन-सी पाँच?
- कामेच्छा
- दुर्भावना
- सुस्ती और तंद्रा
- बेचैनी और पश्चाताप
- उलझन
— ये पाँच व्यवधान और रुकावटें होती हैं, जो चित्त को वशीभूत कर लेती हैं और अन्तर्ज्ञान को दुर्बल कर देती हैं।
कल्पना करो कि कोई नदी पहाड़ से उतर रही हो—तीव्र प्रवाह वाली, जो अपने साथ सब कुछ दूर तक बहा ले जाती है। अब कोई व्यक्ति आए, और उस नदी के दोनों तटों को खोदकर जलप्रवाह को भिन्न दिशाओं में मोड़ दे।
तब नदी की मुख्यधारा टूट जाएगी। उसके प्रवाह में व्यवधान आ जाएगा। उसका वेग मंद पड़ जाएगा। और वह पहले की तरह सब कुछ दूर तक नहीं बहा पाएगी।
ठीक उसी प्रकार, जब तक कोई व्यक्ति इन पाँच व्यवधानों को दूर नहीं कर लेता, तब तक यह संभव नहीं कि वह—अपने कल्याण को जान पाए, या दूसरों के कल्याण को जान पाए, या आपसी कल्याण को जान पाए, या वास्तव में कोई मनुष्योत्तर अवस्था प्राप्त कर सके—कोई विशेष आर्य ज्ञानदर्शन।
अब कल्पना करो वही नदी—तेज़ प्रवाह के साथ पहाड़ से उतरती हुई—और कोई व्यक्ति आए, जो उन जलधाराओं को रोक दे, जो तटों की ओर भटक रही थीं।
तब नदी की मुख्यधारा अविच्छिन्न बनी रहेगी। उसके प्रवाह में कोई व्यवधान नहीं आएगा। उसका वेग बना रहेगा। वह सब कुछ अपने साथ दूर तक बहा ले जाएगी।
ठीक उसी प्रकार, जब कोई व्यक्ति इन पाँच व्यवधानों को हटा देता है, तब यह संभव हो जाता है कि वह—अपने कल्याण को जान सके, दूसरों के कल्याण को जान सके, आपसी कल्याण को जान सके, और वास्तव में कोई मनुष्योत्तर अवस्था प्राप्त कर सके—कोई विशेष आर्य ज्ञानदर्शन।”
— अङ्गुत्तरनिकाय ५:५१
आईए, बिना किसी विलंब के पहली रुकावट के त्याग की ओर बढ़ें— यानी उस कामेच्छा की ओर—