आर्य अष्टांगिक मार्ग बुद्ध की शिक्षा का मूल सार है। इसे उन्होंने अपने सबसे पहले शिष्यों (पञ्चवग्गिय भिक्खू) से लेकर तो अपने अंतिम शिष्य (सुभद्द) तक को सिखाया। इसे “आर्य” इसलिए कहा गया है क्योंकि जब इसके आठों अंग पूर्ण रूप से विकसित हो जाते हैं, तब यह साधक को श्रोतापति — संबोधि के प्रथम सोपान — पर ले जाता है।
यह मार्ग कोई अंतिम लक्ष्य नहीं, बल्कि लक्ष्य तक पहुँचने का माध्यम है। शुरुआत में यह मार्ग साधना और अभ्यास का क्रम होता है; परंतु जैसे-जैसे यह विकसित होता है, यह स्वयं साधक को निर्वाण की ओर ले जाने वाला वाहन बन जाता है।
आर्य अष्टांगिक मार्ग के आठ अंग तीन मुख्य श्रेणियों में विभाजित हैं —
ध्यान दें कि प्रत्येक शील, समाधि, या प्रज्ञा के अंग स्वयं में ‘आर्य’ नहीं होते — गलत शील, गलत समाधि, और गलत प्रज्ञा भी संभव हैं। यहाँ तक कि आठों सम्यक अंग भी अपने आप में ‘आर्य’ नहीं होते। वे ‘आर्य’ तब तक नहीं बनते हैं, जब तक सभी आठों अंगों के ‘सम्यक’ रूप आपस में मिलकर-जुलकर, विकसित होकर, परिपक्व न हो जाएँ।
आर्य अष्टांगिक मार्ग दो तरीकों से कार्य करता है —
जैसे एक बच्चा धीरे-धीरे चलना सीखता है — अपने पहले से मौजूद अंगों को चलाकर, उन्हें संतुलित कर, दायाँ और बायाँ पैर एक-दूसरे का आधार लेकर कदम उठाते हैं, तब धीरे-धीरे चलना सहज हो जाता है — और अंततः एक स्वाभाविक जीवनशैली बन जाती है। वैसे ही यह मार्ग हमारे भीतर पहले से निहित कुशल गुणों को निखारता है, और उन्हें विकसित कर, संतुलित करते हुए मुक्ति की ओर बढ़ाता है।
इस मार्ग के दो स्तर हैं —
मार्ग का लौकिक स्तर विश्वास और नैतिक अनुशासन से शुरू होता है — जैसे कि कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत में अटूट विश्वास, नैतिक जीवन और व्रत-कर्तव्यों का पालन, और यह विश्वास कि कुछ साधु-सन्त वास्तव में सत्य को अनुभव कर चुके हैं। यही सम्यक-दृष्टि का प्रारंभिक रूप है। ये विश्वास आर्य मार्ग पर आगे बढ़ने की न्यूनतम शर्तें हैं — क्योंकि बिना कर्म सिद्धांत में दृढ़ श्रद्धा के, साधना की नींव नहीं बनती।
इस दृष्टि पर टिके रहकर, संकल्प बनता है कि ऐसा आचरण न किया जाए जो बुरा कर्म उत्पन्न करे। फिर वाणी, कार्य, और आजीविका संयमित करनी होती हैं। और आगे, सम्यक प्रयास, स्मृति और समाधि से प्रज्ञा और अंतर्दृष्टि बढ़ती हैं। यही साधना अन्ततः चार आर्य सत्यों की अंतर्दृष्टि भी प्रकट करती है।
जब सम्यक दृष्टि ठोस तौर पर ‘आर्य’ स्तर पर पहुँचती है, तब शेष सात अंग भी सम्यक होकर उसी स्तर तक पहुँचने लगते हैं। तब यह मार्ग केवल अभ्यास नहीं रहता, बल्कि प्रज्ञा और समाधि का एकीकृत अनुभव बन जाता है — जहाँ चित्त की स्थिति ही मार्ग बन जाती है।
जब मार्ग पूर्णतः विकसित होता है, तो साधक ‘श्रोतापन्न’ बनता है। अगले स्तरों — सकृदागामी, अनागामी — तक पहुँचने के लिए भी यही आठ अंग बार-बार चित्त में एकत्र होते हैं। और जब अर्हत्व का चरम लक्ष्य आता है, तब दो और अंग — सम्यक ज्ञान और सम्यक विमुक्ति — भी इस समवाय में सम्मिलित होते हैं।
तब साधक लक्ष्य तक पहुँच जाता है, और यह मार्ग तब ‘साधन’ नहीं रहता, बल्कि एक सहज ‘निवास’ बन जाता है — जिसमें शील, समाधि और प्रज्ञा, स्वयं के लिए सुख और दूसरों के लिए प्रेरणा बन जाते हैं।
“अकुशल स्वभाव के पनपने में ‘अविद्या’ नेतृत्व करती है। उसके पीछे-पीछे निर्लज्जता (“अहिरी”) और बेफ़िक्री (“अनोतप्प”) चलकर आते हैं।
इसके विपरीत, कुशल स्वभाव के पनपने में ‘विद्या’ नेतृत्व करती है। उसके पीछे-पीछे लज्जा (“हिरी”) और फ़िक्र (“ओतप्प”) चलकर आते हैं।
— संयुत्तनिकाय ४५:१ + मज्झिमनिकाय ११७
“यह आर्य अष्टांगिक मार्ग क्या है? सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि। • सही दृष्टि क्या है? • सही संकल्प क्या है? • सही वचन क्या है? • सही कार्य क्या है? • सही जीविका क्या है? • सही प्रयास क्या है? • सही स्मृति क्या है? • सही समाधि क्या है? — संयुत्तनिकाय ४५:८ : विभङगसुत्त
विशाख: “क्या यह आर्य अष्टांगिक मार्ग संस्कृत है, अथवा असंस्कृत?” भिक्षुणी धम्मदिन्ना: “यह आर्य अष्टांगिक मार्ग संस्कृत है।” विशाख: “क्या (शील, समाधि, प्रज्ञा के) तीन स्कंध आर्य अष्टांगिक मार्ग में निहित हैं, अथवा आर्य अष्टांगिक मार्ग तीन स्कंधों में निहित हैं?” भिक्षुणी धम्मदिन्ना: “तीन स्कंध आर्य अष्टांगिक मार्ग में निहित नहीं हैं। बल्कि आर्य अष्टांगिक मार्ग तीन स्कंधों में निहित हैं। सही वाणी, सही कार्य, सही आजीविका — ‘शील’ स्कंध में आते हैं। सही प्रयास, सही स्मृति, सही समाधि — ‘समाधि’ स्कंध में आते हैं। और सही दृष्टि, सही संकल्प — ‘प्रज्ञा’ स्कंध में आते हैं।” (इस बातचीत के बाद, भगवान बुद्ध ने भिक्षुणी धम्मदिन्ना के द्वारा दिए गए उत्तरों को दोहराते हुए अपनी स्वीकृति दी।) — मज्झिमनिकाय ४४
“मैं कोई अन्य स्वभाव नहीं देखता, जिससे अनुत्पन्न अकुशल स्वभाव उत्पन्न होने लगते हैं, और उत्पन्न अकुशल स्वभाव बढ़कर विकसित होने लगते हैं — जैसे, मिथ्या दृष्टि! और, उसी तरह, मैं कोई अन्य स्वभाव नहीं देखता, जिससे अनुत्पन्न कुशल स्वभाव उत्पन्न होने लगते हैं, और उत्पन्न कुशल स्वभाव बढ़कर विकसित होने लगते हैं — जैसे, सम्यक दृष्टि! जैसे, किसी नम भूमि पर नीम, करेला, या कड़वे ख़रबूज़े का बीज पड़ जाए। वह बीज नम भूमि से अब जो पोषण लेगा, जितना भी पोषण लेगा — सब कड़वावट ही लाएगा, कटु ही लगेगा, स्वाद में नापसंदीदा ही होगा। क्यों? क्योंकि बीज ही वैसे कड़वे स्वभाव का है। उसी तरह होता है जब कोई मिथ्यादृष्टि में पड़ता है! मिथ्यादृष्टि में पड़कर, कोई जो भी शारीरिक कर्म, वाणी के कर्म, या मानसिक कर्म आरंभ करता है, या जो भी इरादे, निश्चय, संकल्प, या कोई रचना आरंभ करता है — सब अप्रिय, असुखद, अनाकर्षक, अलाभ, और दुःख की ओर ही जाते हैं। क्यों? क्योंकि दृष्टि ही वैसे पापी स्वभाव की है। किंतु, यदि किसी नम भूमि पर गन्ना, चावल, या अंगूर का बीज पड़ जाए। वह बीज नम भूमि से अब जो पोषण लेगा, जितना भी पोषण लेगा — सभी मिठास ही लाएगा, स्वादिष्ट ही लगेगा, स्वाद में पसंदीदा ही होगा। क्यों? क्योंकि बीज ही वैसे मंगलकारी स्वभाव की है। उसी तरह होता है जब कोई सम्यक दृष्टि में प्रतिष्ठित होता है! सम्यक दृष्टि में प्रतिष्ठित होकर, कोई जो भी शारीरिक कर्म, वाणी के कर्म, या मानसिक कर्म आरंभ करता है, या जो भी इरादे, निश्चय, संकल्प, या कोई रचना आरंभ करता है — सभी प्रिय, सुखद, आकर्षक, लाभदायक, और सुख की ओर ही जाते हैं। क्यों? क्योंकि दृष्टि ही वैसे मंगलकारी स्वभाव की है।” — अंगुत्तरनिकाय १:१८१~१८२, १८९~१९०
जब किसी ‘चित्त की एकाग्रता’ इन सात अंगों से परिपूर्ण हो — सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति — तब उसे ‘आर्य सम्यक समाधि’ कहते हैं। वे सात अंग उसका आधार बनते हैं, और वे ही उसकी पूर्व-आवश्यकता है। (१) इनमें सही दृष्टि अग्र होती है। कैसे? जिस व्यक्ति को मिथ्या दृष्टि के बारे में पता चलता है कि ‘यह मिथ्यादृष्टि है’, और उसे सम्यक दृष्टि के बारे में पता चलता है कि ‘यह सम्यक दृष्टि है’ — बस वही उसकी ‘सही दृष्टि’ है। मिथ्या दृष्टि क्या है? ‘दान [का फ़ल] नहीं होता। चढ़ावा नहीं होता। आहुति नहीं होती। सुकृत्य या दुष्कृत्यों का फ़ल या परिणाम नहीं होता। लोक नहीं होता। परलोक नहीं होता। माता और पिता (के ऋण) नहीं होते। कोई सत्व स्वयंभू प्रकट (“ओपपातिक”) नहीं होते। और ऐसे श्रमण और ब्राह्मण नहीं होते हैं, जो सम्यक साधना कर, सम्यक प्रगति करते हुए, प्रत्यक्ष ज्ञान का साक्षात्कार कर, लोक और परलोक होने की घोषणा करते हैं।’ — यह मिथ्यादृष्टि है। सम्यक दृष्टि क्या है? मैं कहता हूँ, सम्यक दृष्टि दो प्रकार की होती है — (लोकिय) सम्यक दृष्टि क्या है? ‘दान होता है। चढ़ावा होता है। आहुति होती है। सुकृत्यों और दुष्कृत्यों के फल-परिणाम होते हैं। लोक होता है। परलोक होता है। माता होती है, पिता होते है। ऐसे कुछ सत्व होते हैं जो स्वयंभू प्रकट होते हैं। और ऐसे श्रमण और ब्राह्मण होते हैं, जो सम्यक साधना कर, सम्यक प्रगति करते हुए, प्रत्यक्ष ज्ञान का साक्षात्कार कर, लोक-परलोक होने की घोषणा करते हैं।’ — यह आस्रव के साथ, पुण्य पक्ष की, संग्रह कराने वाली सम्यक दृष्टि है। आर्य सम्यक दृष्टि क्या है? ऐसा कोई व्यक्ति हो — आर्य-चित्त का, आस्रवमुक्त चित्त का, आर्य मार्ग पर भलीभांति प्रतिष्ठित, आर्य मार्ग की साधना करने वाला। ऐसे किसी व्यक्ति का सम्यक दृष्टि मार्ग-अंग, प्रज्ञा, प्रज्ञा-इंद्रिय, प्रज्ञा-बल, स्वभाव-विश्लेषण संबोध्यङ्ग — ये आर्य-सम्यक दृष्टि हैं, बिना आस्रव के साथ, लोकुत्तर, आर्य मार्ग के अंगों वाली। जो व्यक्ति मिथ्या दृष्टि को त्याग कर सम्यक दृष्टि को उत्पन्न करने का प्रयास करे — वही उसका ‘सम्यक प्रयास’ है। जो मिथ्या दृष्टि को त्याग कर सम्यक दृष्टि उत्पन्न करने के प्रति स्मृतिमान रहे — वही उसकी ‘सम्यक स्मृति’ है। इस तरह, तीन धर्म — सम्यक दृष्टि, सम्यक प्रयास, सम्यक स्मृति — ‘सम्यक दृष्टि’ के गोल-गोल चक्कर काटते हैं। (२) इनमें सही दृष्टि अग्र होती है। कैसे? जिस व्यक्ति को मिथ्या संकल्प के बारे में पता चलता है कि ‘यह मिथ्या संकल्प है’, और उसे सम्यक संकल्प के बारे में पता चलता है कि ‘यह सम्यक संकल्प है’ — बस वही उसकी ‘सही दृष्टि’ है। मिथ्या संकल्प क्या है? कामुक संकल्प, दुर्भावनापूर्ण संकल्प, और हिंसात्मक संकल्प। — ये मिथ्या संकल्प हैं। और सम्यक संकल्प क्या है? मैं कहता हूँ, सम्यक संकल्प दो प्रकार के होते हैं — (लोकिय) सम्यक संकल्प क्या है? निष्काम (=संन्यास) के प्रति संकल्प, दुर्भावना रहित संकल्प, और अहिंसात्मक संकल्प। — ये आस्रव के साथ, पुण्य पक्ष के, संग्रह कराने वाले सम्यक संकल्प हैं। आर्य सम्यक संकल्प क्या है? ऐसा कोई व्यक्ति हो — आर्य-चित्त का, आस्रवमुक्त चित्त का, आर्य मार्ग पर भलीभांति प्रतिष्ठित, आर्य मार्ग की साधना करने वाला। ऐसे किसी व्यक्ति का चिंतन, विचार, संकल्प, मानसिक ठहराव, तल्लीनता, ध्यान केंद्रित होना, और वाणी रचना — ये आर्य सम्यक संकल्प हैं, बिना आस्रव के साथ, लोकुत्तर, आर्य मार्ग के अंगों वाले। जो व्यक्ति मिथ्या संकल्प त्याग कर सम्यक संकल्प लेने का प्रयास करे — वही उसका ‘सम्यक प्रयास’ है। जो मिथ्या संकल्प त्याग कर सम्यक संकल्प आत्मसात करने के प्रति स्मृतिमान रहे — वही उसकी ‘सम्यक स्मृति’ है। इस तरह, तीन धर्म — सम्यक दृष्टि, सम्यक प्रयास, सम्यक स्मृति — ‘सम्यक संकल्प’ के गोल-गोल चक्कर काटते हैं। (३) इनमें सही दृष्टि अग्र होती है। कैसे? जिस व्यक्ति को मिथ्या वचन के बारे में पता चलता है कि ‘ये मिथ्या वचन हैं’, और उसे सम्यक वचन के बारे में पता चलता है कि ‘यह सम्यक वचन है’ — बस वही उसकी ‘सही दृष्टि’ है। मिथ्या वचन क्या है? झूठ बोलना, फूट डालने वाली बात करना, कटु वचन बोलना, निरर्थक बातें करना। — ये मिथ्या वचन हैं। और सम्यक वचन क्या है? मैं कहता हूँ, सम्यक वचन दो प्रकार के होते हैं — (लोकिय) सम्यक वचन क्या है? झूठ बोलने से विरत रहना, फूट डालने वाले वचन से विरत रहना, कटु वचन से विरत रहना, निरर्थक वचन से विरत रहना। — ये आस्रव के साथ, पुण्य पक्ष के, संग्रह कराने वाले सम्यक वचन हैं। आर्य सम्यक वचन क्या है? ऐसा कोई व्यक्ति हो — आर्य-चित्त का, आस्रवमुक्त चित्त का, आर्य मार्ग पर भलीभांति प्रतिष्ठित, आर्य मार्ग की साधना करने वाला। ऐसे व्यक्ति के चार प्रकार के वाणी दुराचार से विरति, परहेज, परिवर्जन, परिहार — ये आर्य सम्यक वचन हैं, बिना आस्रव के साथ, लोकुत्तर, आर्य मार्ग के अंगों वाले। जो व्यक्ति मिथ्या वचन त्याग कर सम्यक वचन बोलने का प्रयास करे — वही उसका ‘सम्यक प्रयास’ है। जो मिथ्या वचन त्याग कर सम्यक वचन बोलने करने के प्रति स्मृतिमान रहे — वही उसकी ‘सम्यक स्मृति’ है। इस तरह, तीन धर्म — सम्यक दृष्टि, सम्यक प्रयास, सम्यक स्मृति — ‘सम्यक वचन’ के गोल-गोल चक्कर काटते हैं। (४) इनमें सही दृष्टि अग्र होती है। कैसे? जिस व्यक्ति को मिथ्या कार्य के बारे में पता चलता है कि ‘ये मिथ्या कार्य हैं’, और उसे सम्यक कार्य के बारे में पता चलता है कि ‘यह सम्यक कार्य है’ — बस वही उसकी ‘सही दृष्टि’ है। मिथ्या कार्य क्या है? — ये मिथ्या कार्य हैं। और सम्यक कार्य क्या है? मैं कहता हूँ, सम्यक कार्य दो प्रकार के होते हैं — (लोकिय) सम्यक कार्य क्या है? — ये आस्रव के साथ, पुण्य पक्ष के, संग्रह कराने वाले सम्यक कार्य हैं। आर्य सम्यक कार्य क्या है? ऐसा कोई व्यक्ति हो — आर्य-चित्त का, आस्रवमुक्त चित्त का, आर्य मार्ग पर भलीभांति प्रतिष्ठित, आर्य मार्ग की साधना करने वाला। ऐसे व्यक्ति के तीन प्रकार के शारीरिक दुराचार से विरति, परहेज, परिवर्जन, परिहार — ये आर्य सम्यक कार्य हैं, बिना आस्रव के साथ, लोकुत्तर, आर्य मार्ग के अंगों वाले। जो व्यक्ति मिथ्या कार्य त्याग कर सम्यक कार्य करने का प्रयास करे — वही उसका ‘सम्यक प्रयास’ है। जो मिथ्या कार्य त्याग कर सम्यक कार्य करने के प्रति स्मृतिमान रहे — वही उसकी ‘सम्यक स्मृति’ है। इस तरह, तीन धर्म — सम्यक दृष्टि, सम्यक प्रयास, सम्यक स्मृति — ‘सम्यक कार्य’ के गोल-गोल चक्कर काटते हैं। (५) इनमें सही दृष्टि अग्र होती है। कैसे? जिस व्यक्ति को मिथ्या जीविका के बारे में पता चलता है कि ‘ये मिथ्या जीविका हैं’, और उसे सम्यक जीविका के बारे में पता चलता है कि ‘यह सम्यक जीविका है’ — बस वही उसकी ‘सही दृष्टि’ है। मिथ्या जीविका क्या है? षड्यंत्र करना, राजी करना, निर्देश देना, (दूसरों को) तुच्छ बताना, और लाभ (आर्थिक निवेश) से लाभ पाने की कोशिश करना। — ये मिथ्या जीविका हैं। और सम्यक जीविका क्या है? मैं कहता हूँ, सम्यक जीविका दो प्रकार की होती हैं — (लोकिय) सम्यक जीविका क्या है? मिथ्या-जीविका त्यागना, और समजीविका से अपना जीवन यापन करना — ये आस्रव के साथ, पुण्य पक्ष के, संग्रह कराने वाले सम्यक जीविका हैं। आर्य सम्यक जीविका क्या है? ऐसा कोई व्यक्ति हो — आर्य-चित्त का, आस्रवमुक्त चित्त का, आर्य मार्ग पर भलीभांति प्रतिष्ठित, आर्य मार्ग की साधना करने वाला। ऐसे व्यक्ति की मिथ्या जीविका से विरति, परहेज, परिवर्जन, परिहार — ये आर्य सम्यक जीविका हैं, बिना आस्रव के साथ, लोकुत्तर, आर्य मार्ग के अंगों वाले। जो व्यक्ति मिथ्या जीविका त्याग कर सम्यक जीविका करने का प्रयास करे — वही उसका ‘सम्यक प्रयास’ है। जो मिथ्या जीविका त्याग कर सम्यक जीविका करने के प्रति स्मृतिमान रहे — वही उसकी ‘सम्यक स्मृति’ है। इस तरह, तीन धर्म — सम्यक दृष्टि, सम्यक प्रयास, सम्यक स्मृति — ‘सम्यक जीविका’ के गोल-गोल चक्कर काटते हैं। इनमें सही दृष्टि अग्र होती है। कैसे? इस तरह, शिक्षार्थी (“सेक्ख”, ऐसा आर्य व्यक्ति जो अब तक अरहंत नहीं हुआ हो) आठ अंगों से संपन्न होता है, और अरहंत दस अंगों से। इनमें सही दृष्टि अग्र होती है। कैसे? — मज्झिमनिकाय ११७
भगवान ने सारिपुत्त भंते से पूछा, “सारिपुत्त, लोग ‘श्रोत श्रोत’ कहते हैं। यह ‘श्रोत’ क्या है?” सारिपुत्त भंते ने भगवान को उत्तर दिया, “भंते, ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ ही श्रोत है।” “और, सारिपुत्त, लोग ‘श्रोतापन्न श्रोतापन्न’ कहते हैं। यह ‘श्रोतापन्न’ क्या है?” “भंते, जो व्यक्ति ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ में संपन्न हो, उसे ही ‘श्रोतापन्न’ कहते हैं।” “साधु, साधु, सारिपुत्त! तुमने सही उत्तर दिया!” — संयुत्तनिकाय ५५:५
भगवान ने अपने अंतिम शिष्य सुभद्द से कहा: “जिस धर्मविनय में ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ पता नहीं चलता है, उसमें प्रथम-स्तर के श्रमण, द्वितीय-स्तर के श्रमण, तृतीय-स्तर के श्रमण, या चतुर्थ-स्तर के श्रमण भी पाये नहीं जाते हैं। किन्तु, जिस धर्मविनय में ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ पता चलता है, उसी में चारों स्तरों के श्रमण भी पाये जाते हैं। (मेरे) इसी धर्मविनय में ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ पता चलता है, और इसी (संघ) में चारों स्तरों के श्रमण भी पाये जाते हैं। अन्य धर्म संप्रदाय ज्ञानसंपन्न श्रमणों से खाली है। और, यदि भिक्षु ठीक से रहें, तो यह दुनिया अरहंतों से खाली नहीं रहेगी।” — दीघनिकाय १६ : महापरिनिब्बान सुत्त
मार्ग विस्तार से
दृष्टि का परिणाम
आर्य सम्यक समाधि