भगवान बुद्ध, जिनका जन्म ‘सिद्धार्थ गौतम’ के रूप में हुआ, हजारों वर्ष पूर्व इस धरती पर अवतरित हुए। कहा जाता है कि कई युगों तक इस संसार को सम्यक-सम्बुद्ध का दर्शन नहीं होता। जिस युग में कोई बोधिसत्व परमार्थ की खोज में ‘बुद्ध’ बनता है, वह युग देवताओं और मनुष्यों के लिए अत्यंत सौभाग्यशाली माना जाता है। जब बुद्ध को आर्यसत्यों का साक्षात्कार होता है, तब समस्त दुःखों का अंत हो जाता है, और संसार में अनन्त जन्मों की भटकन समाप्त होती है। इसके बाद, वे धर्मचक्र प्रवर्तन करते हैं और संघ की स्थापना करते हैं, जिसके माध्यम से अनगिनत लोगों को आर्यधर्म का मार्ग दिखाकर उनकी मुक्ति में सहायक बनते हैं।
जब भगवान बुद्ध इस धरती पर विचरण कर रहे थे, तब उनके बारे में यह बात प्रचलित थी—
“यहाँ कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध’ प्रकट होते हैं — विद्या और आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर उसे इस लोक में प्रकट करते हैं, जो देव, मार, ब्रह्म, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरा हुआ है। उनका धर्म आरंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, और अन्त में कल्याणकारी है। वे परिपूर्ण और परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ को अर्थ और विस्तार के साथ प्रकाशित करते हैं।”
« दीघनिकाय १ : ब्रह्मजाल सुत्त »
बुद्ध इस संसार में एक अनूठा आदर्श प्रस्तुत करते हैं — अध्यात्म और ज्ञान का प्रतीक, सत्य और अहिंसा की चरम सीमा। उनका जीवन सूरज की तरह आने वाली पीढ़ियों को निरंतर प्रेरित करता है, और उनकी शिक्षाएँ समय की हर धारा में सदैव प्रासंगिक और प्रेरणादायक बनी रहती हैं।
सिद्धार्थ का जन्म तकरीबन ६२३ ईसा-पूर्व 1 लुम्बिनी में शाल वृक्ष के नीचे हुआ, जो वर्तमान में नेपाल में स्थित है। वे कपिलवस्तु राज्य के शाक्यवंशीय राजा ‘शुद्धोधन’ और रानी ‘महामाया’ के पुत्र थे। उनका जन्म ऐसे राज-परिवार में हुआ, जिसे संसार की सारी सुख-सुविधाएँ प्राप्त थी। उनका जन्म अद्भुत और विस्मयकारी था, जिसका विवरण पिछले जन्म से शुरू होता है—
“बोधिसत्व, स्मरणशील और सचेत रहते हुए, तुषित देवलोक 2 में उत्पन्न हुए… वहाँ तुषित देवलोक में, वे स्मरणशील और सचेत रहते हुए पूर्ण जीवनकाल 3 तक रहें… अंततः, वे तुषित देवलोक से उतर कर, स्मरणशील और सचेत रहते हुए, अपनी माँ के गर्भ में अवतरित हुए…
तब देवताओं की दिव्य-तेज से भी परे एक महा-तेज, असीम-तेज उत्पन्न हुआ, जो देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरे इस लोक में फैल गया। यहाँ तक कि असीम-अंधकार, घोर-अंधकार में पड़े अन्तर-ब्रह्मांडिय स्थलों पर भी, जहाँ सर्व-शक्तिशाली सूर्य और चंद्रमा का प्रकाश तक नहीं पहुँच पाता, वहाँ भी देवताओं की दिव्य-तेज से परे एक महा-तेज, असीम-तेज फैल गया। और वहाँ जन्म लिए सत्वों ने उस तेज में एक-दूसरे को पहली बार देखा, तो उन्हें लगा, “अरे! यहाँ अन्य सत्वों ने भी जन्म लिया हैं!”… और उस महा-तेज, असीम-तेज में ये दस हज़ार ब्रह्मांड कंपित हुए, प्रकंपित हुए, थरथराएँ…
जब बोधिसत्व, स्मरणशील और सचेत रहते हुए, अपनी माता के गर्भ में अवतरित हुए, तब चारों दिशाओं से चार महाराज देव 4 उसकी रक्षा करने के लिए आएँ, (सोचते हुए:) “कही कोई मानवीय अथवा अमानवीय सत्व बोधिसत्व या उनकी माँ को हानि न पहुंचाएँ।”…
जब बोधिसत्व अपनी माँ के गर्भ में अवतरित हुए, तो बोधिसत्व की माँ स्वाभाविक रूप से सदाचारी बनी। वह जीवहत्या से विरत हुई, चुराने से विरत हुई, यौन दुराचार से विरत हुई, झूठ बोलने से विरत हुई, और शराब मद्य आदि मदहोश करने वाले नशे-पते से विरत हुई…
उसे किसी के प्रति कामुकता से लिप्त कोई विचार उत्पन्न नहीं हुआ। तथा उसका किसी भी कामुक व्यक्ति से सामना दुर्गम बना… उसे पाँचों इंद्रियों के असीम सुख प्राप्त हुए… उसे कोई रोग नहीं हुआ। वह बिना किसी शारीरिक पीड़ा के राहत से रहती…
उसने अपने गर्भ में बोधिसत्व को उसके समस्त अंगों और परिपूर्ण इंद्रियों के साथ देखा। जैसे, कोई ऊँची जाति का शुभ मणि हो — अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध!
जहाँ अन्य गर्भवती स्त्रियाँ नौ महीनों में संतान को जन्म देती हैं, किन्तु बोधिसत्व की माँ ने बोधिसत्व को ठीक दस महीनों के बाद जन्म दिया… जहाँ अन्य महिलाएँ बैठकर या लेटकर बच्चे को जन्म देती हैं, किन्तु बोधिसत्व की माँ ने बोधिसत्व को खड़े होकर जन्म दिया’…
जब बोधिसत्व ने अपनी माँ का गर्भ छोड़ा, तो सर्वप्रथम देवताओं ने उन्हें ग्रहण किया, और फिर मानवों ने… चार महाराज देवों ने आकर बोधिसत्व का स्वागत किया और उन्हें अपनी माँ के सामने खड़ा किया (कहते हुए:) “हे रानी, प्रसन्न हो। आप को एक महातेजस्वी महाप्रभावशाली पुत्र जन्मा है!”…
जब बोधिसत्व ने अपनी माँ के गर्भ को छोड़ा, तो उन्होंने उसे बेदाग, तरल पदार्थ से रहित, बलगम से रहित, रक्त से रहित, लसीका से रहित छोड़ा — शुद्ध, अत्यंत शुद्ध! जैसे, काशी वस्त्र पर रत्न रखा जाए, तो न रत्न वस्त्र को मैला करेगा, न ही वस्त्र रत्न को। ऐसा क्यों? दोनों की शुद्धता के कारण! किन्तु तब भी आकाश से पानी की दो धाराएं प्रकट हुईं - एक ठंडी, और दूसरी गर्म - बोधिसत्व और उनकी माँ को नहलाने-धुलाने के लिए!…
जैसे ही बोधिसत्व का जन्म हुआ, वे ज़मीन पर पैरों के बल स्थिर खड़े हुए, और उत्तर-दिशा की ओर मुख कर के सात कदम चले। उनके ऊपर एक सफ़ेद छत्र नज़र आता था। और तब, उन्होंने सभी दिशाओं को निहारने के बाद एक भव्य घोषणा की —
« मज्झिमनिकाय १२३ : अच्छरियब्भुत सुत्त »
तब दूर कही, असित नामक एक ऋषि-मुनि समाधि में लिन थे। उन्होंने अपने दिव्य-चक्षु से तैतीस देवलोक में जश्न होते देखा। उन्हें कुछ समझ नहीं आया कि यकायक शक्तिशाली देवतागण, शुभ्र वस्त्र परिधान कर, झंडे उठाकर इतने उल्लास और आनंद के साथ जयकारें क्यों लगा रहे हैं?
तब वहाँ वे उस स्वर्ग में गए और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए पूछा—
« खुद्दकनिकाय सुत्तनिपात ३:११ : नालक सुत्त »
*सिद्धार्थ के जन्म के एक सप्ताह बाद उनकी माँ महामाया का निधन हो गया, जो फ़िर तुषित देवलोक में उत्पन्न हुई। उनका पालन-पोषण महामाया की बहन महापजापति गोतमी ने किया, जो राजा शुद्धोधन की दूसरी पत्नी थीं। कहा जाता है कि बहन के निधन के बाद महापजापति गोतमी ने अपने पुत्र नन्द 5 के बजाय सिद्धार्थ को दूध पिलाया और उन्हें अपने विशेष प्रेम से लाड़-प्यार किया। सिद्धार्थ को उनके पिता और मौसी-माँ ने भरपूर सुख-सुविधाओं में बड़ा किया; उन्हें किसी भी भोग की कमी नहीं होने दी।
युवावस्था में सिद्धार्थ का विवाह 6 हुआ, और उनका एक पुत्र हुआ, जिसका नाम राहुल रखा गया। उनका वैवाहिक जीवन भोग-विलास से भरा हुआ था, परंतु यह संसारिक जीवन उन्हें संतोष नहीं दिला सका। पिछले अनेक जन्मों के संचित अन्तर्ज्ञान के कारण, सिद्धार्थ को जीवन की गहरी सच्चाइयाँ दिखने लगी —
“मैं सुखों में पलता था; परमसुखों में पलता था; अत्यंत सुखों में पलता था। पिता ने मेरे महलों के आगे तीन पुष्करणीयाँ (=कमलपुष्पों से भरे तालाब) बनवाई थी — एक में रक्तकमल, एक में श्वेतकमल, और एक में नीलकमल ख़िलते थे।
मैं ऐसा चंदन (गन्धस्वरूप) उपयोग न करता, जो बनारसी न हो। मेरी पगड़ी व कुर्ता बनारसी होता; बल्कि मेरा अंतर्वस्त्र व बाह्यवस्त्र भी बनारस से लाया जाता। मेरे ऊपर एक सफ़ेद राजसी-छाता दिन-रात ताना जाता, ताकि मुझे ठंडी, धूप, धूल, मल, या ओस न लगे।
मेरे लिए तीन महल बने थे — एक शीतकाल के लिए; एक ग्रीष्मकाल के लिए; और एक वर्षाकाल के लिए। वर्षाकाल के चारों महीने वर्षामहल में रहते हुए, मुझे गायकी-नर्तकियों द्वारा बहलाया जाता, बिना अन्य पुरुष की उपस्थिति के। मुझे महल से नीचे एक बार भी उतरना न पड़ता। जहाँ अन्य घरों में श्रमिक और नौकरों को टूटा-चावल और दाल परोसी जाती, वही मेरे पिता के महल में उन्हें गेंहू, चावल, और मांस खिलाया जाता।
• इस तरह भाग्यशाली, अत्यंत सुखसंपन्न होने पर भी, मैंने सोचा, ‘कभी धर्म न सुना आम आदमी, स्वयं जीर्ण-धर्म से घिरा, जीर्ण-धर्म न लाँघा—जब किसी बूढ़े को देखें, तो खौफ़, लज्जा, और घिन महसूस करता है, भूलते हुए कि वह स्वयं बुढ़ापे से नहीं छूटा, बुढ़ापे के परे नही गया। यदि मैं भी जीर्ण-धर्म से घिरा, जीर्ण-धर्म न लाँघा, किसी बूढ़े को देख खौफ़, लज्जा, और घिन महसूस करूँ, तो मेरे लिए उचित नही होगा।’
— जैसे ही मैंने यह समीक्षा की, मेरा ‘यौवन’ का सारा नशा उतर गया।
• इस तरह भाग्यशाली, अत्यंत सुखसंपन्न होने पर भी, मैंने सोचा, ‘कभी धर्म न सुना आम आदमी, स्वयं रोग-धर्म से घिरा, रोग-धर्म न लाँघा—जब किसी रोगी को देखें, तो खौफ़, लज्जा, और घिन महसूस करता है, भूलते हुए कि वह स्वयं रोग से नहीं छूटा, रोग के परे नही गया। यदि मैं भी रोग-धर्म से घिरा, रोग-धर्म न लाँघा, किसी रोगी को देख खौफ़, लज्जा, और घिन महसूस करूँ, तो मेरे लिए उचित नही होगा।’
— जैसे ही मैंने यह समीक्षा की, मेरा ‘आरोग्य’ का सारा नशा उतर गया।
• इस तरह भाग्यशाली, अत्यंत सुखसंपन्न होने पर भी, मैंने सोचा, ‘कभी धर्म न सुना आम आदमी, स्वयं मरण-धर्म से घिरा, मरण-धर्म न लाँघा—जब किसी मृत को देखें तो खौफ़, लज्जा, और घिन महसूस करता है, भूलते हुए कि वह स्वयं मौत से नहीं छूटा, मौत के परे नही गया। यदि मैं भी मरण-धर्म से घिरा, मरण-धर्म न लाँघा, किसी मृत को देख खौफ़, लज्जा, और घिन महसूस करूँ, तो मेरे लिए उचित नही होगा।’
— जैसे ही मैंने यह समीक्षा की, मेरा ‘जीवन’ का सारा नशा उतर गया।” 7
« अंगुत्तरनिकाय ३:३६ : देवदूत सुत्त »
सिद्धार्थ की एक समीक्षा से जीवन की गहरी परतें खुलने लगती। उनका तीक्ष्ण मन बढ़ती उम्र के साथ-साथ ऐसी बातों का बोध करने लगता, जो साधारण नहीं थी।
उनके भीतर परमसत्य की खोज की प्रबल इच्छा जागृत हुई, जबकि लोगों की संग्रहण की प्रवृत्ति और भोग-लालसा उन्हें निराश करने लगी। उन्हें समाज ऐसा प्रतीत हुआ जैसे एक सूखते जलाशय में मछलियाँ अंतिम बूंद के लिए संघर्ष कर रही हों। इसी बोध ने उनके भीतर वैराग्य और संवेग का जन्म दिया। —
« खुद्दकनिकाय सुत्तनिपात ४:१५ : अत्तदण्ड सुत्त »
बोधिसत्व के जीवन की दिशा और ध्येय, इस सामान्य-से लगते तर्क से पूरी तरह उलट गया —
“जब मैं संबोधिपूर्व केवल एक बोधिसत्व था—जन्म, रोग, बुढ़ापा, मौत, शोक, और क्लेश से घिरा—मैं (उसमें सुख) खोजता था, जो जन्म, रोग, बुढ़ापा, मौत, शोक, और क्लेश से ही घिरा था।
तो मैंने सोचा, ‘मैं उसे क्यों खोजूँ, जो जन्म, रोग, बुढ़ापा, मौत, शोक, और क्लेश से ही घिरा हो? क्यों न मैं खोज करूँ — अजन्म, अरोग, अजीर्ण, अमृत, अशोक, अक्लेश, योगबन्धन से सर्वोपरि राहत, निर्वाण की?” 8
« मज्झिमनिकाय २६ : पासरासि सुत्त »
और तब, राजकुमार सिद्धार्थ ने २९ वर्ष की आयु में अपना सर्वस्व त्याग कर, अमृत की खोज में निकल पड़े। इस घटना को महाभिनिष्क्रमण कहते हैं —
“मुझे लगने लगा, ‘गृहस्थी-जीवन बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु संन्यास, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्यता का पालन करना सरल नहीं है, जो चमचमाते शँख जैसा हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’
तत्पश्चात मैं युवा ही था—काले केशवाला, जीवन के प्रथम चरण में, यौवन वरदान से युक्त—तब मैंने माता-पिता के इच्छाविरुद्ध, उन्हें आँसूभरे चेहरे से बिलखते छोड़, 9 सिर-दाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो संन्यास लिया।”
« मज्झिमनिकाय ३६ : महासच्चक सुत्त »
बोधिसत्व ने ‘गौतम’ के नाम से सन्यास ग्रहण किया। और ऐसा करते ही काया से बुरे कर्म करना त्याग दिए, वाणी से बुरे कर्म करना त्याग दिए, मन से बुरे कर्म करना त्याग दिए, और अपनी आजीविका को अत्यंत पवित्र और परिशुद्ध बनाया।
वे अपना शाक्यों का देश ‘कपिलवस्तु’ त्याग कर दक्षिण-दिशा में चलने लगे। संभवतः, वे गंडक नदी के किनारे से होकर कुशीनगर, मल्लन, वज्जी, और लिच्छवियों के क्षेत्रों से होते हुए, अंततः मगध राज्य की राजधानी राजगृह में पहुँचे, जहाँ की उत्तरी सीमा पर गंगा नदी बहती थी। 10
एक दिन बोधिसत्व राजगृह में भिक्षाटन कर रहे थे। तब मगध देश के महाराज सेनिय बिम्बिसार राजमहल की बालकनी में टहल रहे थे। तब उनकी नज़र बोधिसत्व पर पड़ी। वे बोधिसत्व का रूप, चलने के अंदाज को देखकर हतप्रभ रह गये। उन्होंने तुरन्त एक गुप्त सैनिक को रवाना किया, पता करने के लिए कि ‘आख़िर इतना अद्भुत रूपवान भिक्षुक कौन है और कहाँ से है? अवश्य ही बहुत ऊँचे कुल से लगता है!’ 11
उस सैनिक ने बोधिसत्व का पीछा किया, और उन्हें पाण्डव गुफा में जाकर भिक्षा-भोज करते देखा। तब महाराज सेनिय बिम्बीसार ने स्वयं वहाँ जाकर मुलाक़ात और पेशकश की। किन्तु, सिद्धार्थ आगे बढ़ते रहे।
सिद्धार्थ की खोजशैली प्रयोगात्मक थी। वे एक कार्यशैली को अपनाते, उसे आजमाते और परिणामों का मूल्यांकन करते। यदि परिणाम उनके मानकों पर खरे न उतरते, तो वे उसके कारणों की और उससे बेहतर कुशलता की तलाश करने लगते। संभावित परिणाम आने पर, वे उसके साथ कुशलता बढ़ाने वाले और प्रयोग करते। इस तरह परीक्षण और त्रुटि की इस प्रक्रिया से गुजरते हुए वे आगे बढ़ते रहे।
उन्हें दो गुरुओं के बारे में पता चला कि वे मुक्ति-मोक्ष का मार्ग सिखाते हैं। तब उन्होंने उनसे मुलाक़ात की, और उनके निर्देशन में साधना शुरू की। और तुरन्त ही, उन साधनाओं में सर्वोच्च अवस्थाओं का साक्षात्कार किया —
“इस प्रकार कुशलता की खोज में, परमशांति की अद्वितीय अवस्था की खोज में, मैं आलार कलाम के पास गया, और, वहाँ पहुँचकर, उनसे कहा: ‘मित्र कलाम, मैं इस धर्म-विनय में साधना करना चाहता हूँ।’
उन्होंने मुझे उत्तर दिया, ‘मेरे मित्र, आप यहाँ रह सकते हैं। यह धम्म ऐसा है कि एक बुद्धिमान व्यक्ति शीघ्र ही अपने गुरु के ज्ञान में प्रवेश कर सकता है, और प्रत्यक्ष इसका साक्षात्कार कर सकता है।’
बहुत समय नहीं बीता, जब मैंने तुरंत उनके धम्म में प्रवेश कर सर्वोच्चता का साक्षात्कार किया… मैं उनके पास गया और कहा, ‘मित्र कलाम, क्या यह शून्यता-आयाम ही इस धर्म की सर्वोच्चता है, जिसमें आप भी प्रवेश कर साक्षात्कार कर रहते हैं?’
‘हाँ, मित्र…’
‘मित्र! मैं भी इस धम्म में प्रवेश कर साक्षात्कार कर चुका हूँ’…
‘यह हमारे लिए लाभ है, मेरे मित्र… जैसा मैं हूँ, वैसे ही आप हैं; जैसे आप हैं, वैसा ही मैं हूँ। आओ मित्र, अब हम दोनों मिलकर इस समुदाय का नेतृत्व करें।’
“इस तरह मेरे गुरु आलार कलाम ने मुझे, अपने शिष्य को, अपने समान स्तर पर रखा और बहुत सम्मान दिया। किन्तु मेरे मन में विचार आया, ‘यह धम्म मोहभंग, वैराग्य, निरोध, स्थिरता, प्रत्यक्ष ज्ञान, जागृति या बंधन-मुक्ति की ओर नहीं ले जाता, बल्कि शून्यता आयाम में पुनः प्रकट होने की ओर ले जाता है।’
इसलिए, उस धम्म से असंतुष्ट होकर, मैं वहाँ से चला गया…
तब मैं उद्दक रामपुत्त के पास गया, और, वहाँ पहुँचकर, उनसे कहा: ‘मित्र उद्दक, मैं इस धर्म-विनय में साधना करना चाहता हूँ।’
उन्होंने भी मुझे उत्तर दिया, ‘मेरे मित्र, आप यहाँ रह सकते हैं। यह धम्म ऐसा है कि एक बुद्धिमान व्यक्ति शीघ्र ही अपने गुरु के ज्ञान में प्रवेश कर सकता है, और प्रत्यक्ष इसका साक्षात्कार कर सकता है।’
बहुत समय नहीं बीता, जब मैंने तुरंत उनके भी धम्म में प्रवेश कर सर्वोच्चता का साक्षात्कार किया… मैं उनके पास गया और कहा, ‘मित्र उद्दक, क्या यह न बोध न अबोध-आयाम ही इस धर्म की सर्वोच्चता है, जिसमें आप भी प्रवेश कर साक्षात्कार कर रहते हैं?’
‘हाँ, मित्र…’
‘मित्र! मैं भी इस धम्म में प्रवेश कर साक्षात्कार कर चुका हूँ’…
‘यह हमारे लिए लाभ है, मेरे मित्र… जैसा मैं हूँ, वैसे ही आप हैं; जैसे आप हैं, वैसा ही मैं हूँ। आओ मित्र, अब हम दोनों मिलकर इस समुदाय का नेतृत्व करें।’
“इस तरह मेरे गुरु उद्दक रामपुत्त ने भी मुझे, अपने शिष्य को, अपने समान स्तर पर रखा और बहुत सम्मान दिया। किन्तु मेरे मन में विचार आया, ‘यह धम्म मोहभंग, वैराग्य, निरोध, स्थिरता, प्रत्यक्ष ज्ञान, जागृति या बंधन-मुक्ति की ओर नहीं ले जाता, बल्कि न बोध न अबोध-आयाम में पुनः प्रकट होने की ओर ले जाता है।’
इसलिए, उस धम्म से असंतुष्ट होकर, मैं वहाँ से चला गया…
« मज्झिमनिकाय ३६ : महासच्चक सुत्त »
इस प्रकार, बोधिसत्व ने उस समय के दोनों प्रमुख धर्मों में सर्वोच्चता प्राप्त की, लेकिन फिर भी संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने देखा कि इन दोनों मार्गों से संसार को पार नहीं किया जा सकता, बल्कि केवल संसार की सीमाओं के भीतर उच्चतम अवस्थाओं तक पहुँचा जा सकता है।
इसलिए, सिद्धार्थ गौतम ने उन सभी विद्यमान धर्मों की उम्मीद छोड़ दी और एक नए मार्ग की खोज में निकल पड़े। उनका लक्ष्य था ऐसा आयाम खोजना जो संसार से परे हो, जिसमें कोई रचना, निर्माण या कल्पना न हो; जिसमें बाहरी निर्भरता और आधार का कोई स्थान न हो; जो कभी न बदलता हो और परिवर्तन-शील न हो; और जिसमें पुनर्जन्म की श्रृंखला टूट जाती हो।
मगध देश में भ्रमण करते हुए, सिद्धार्थ गौतम उरुवेला नामक एक सैन्य-नगर में पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक रमणीय ग्रामीण क्षेत्र देखा, जहाँ प्रेरणादायी उपवन, सुंदर तटों वाली स्वच्छ नेरञ्जरा नदी, और चारों ओर भिक्षाटन के लिए गांव थे। बस, उन्होंने वही रहकर कठोर तप करना शुरू कर दिया।
आईयें, बोधिसत्व के अमानवीय तपस्या का वर्णन उन्ही से सुनते हैं:
“मैंने अपने अनुभव से दो गुणों को जाना है: कुशलता को बढ़ाने में असंतुष्ट रहना, और अथक तपस्या करना।
मैंने अथक तपस्या किया, (सोचते हुए,) ‘मैं खुशी से अपना रक्त और माँस सूखा दूँगा! केवल नसें और कंकाल ही छोड़ुंगा! किन्तु जब तक वह न हासिल करूँ, जो पौरुष-दृढ़ता, पौरुष-ऊर्जा, और पौरुष-प्रयास से हासिल किया जाता है, तब तक अपनी ऊर्जा को राहत नहीं दूंगा!’”
« अंगुत्तरनिकाय २:५ : उपञ्ञातसुत्तं »
“जैसे कोई बलवान पुरुष किसी दुर्बल का सिर, गला, या कंधा दबाकर पीटता है, विवश करता है, या रौंद देता है, उसी तरह मैंने दाँत भींच कर, जीभ को तालु पर दबाते हुए, अपने चित्त को मानस द्वारा पीट दिया, विवश किया, रौंद दिया… मेरी बगल से पसीना बहने लगा। यद्यपि मेरे भीतर अथक ऊर्जा जागृत हुई, चित्त अचल हुआ, किन्तु, दर्दभरे परिश्रम के कारण मेरी काया उत्तेजित, अशांत, और परेशान हुई। किन्तु वह दर्द मेरे मन पर हावी नहीं हुआ, और न ही बना रहा।
मैंने सोचा: ‘क्या होगा, यदि मैं श्वास-रहित ध्यान में डूब जाऊँ?’ तब मैंने नाक और मुँह से साँस लेना और छोड़ना बंद कर दिया। जब ऐसा किया, तो कान में वायु की गर्जना-सी होने लगी। उसी तरह जैसे लोहार की धौंकनी से तेज़ वायु निकलते हुए होती है… तब मैंने नाक, मुँह और कानों से साँस लेना और छोड़ना बंद कर दिया। जब ऐसा किया, तो शक्तिशाली बलों ने मेरे सिर को चीरना शुरू किया, जैसे कोई बलवान पुरुष तेज तलवार से मेरे सिर को चीर रहा हो… मेरे सिर में तेज दर्द हुआ, जैसे कोई बलवान पुरुष मेरे सिर को सख्त चमड़े की पट्टियों से तेज कसते जा रहा हो… शक्तिशाली बलों ने मेरे पेट के उदर को चीरना शुरू किया, जैसे कोई कसाई बैल के पेट के उदर को चीरते जा रहा हो… मेरे शरीर में तेज जलन होने लगी, जैसे दो बलवान पुरुष किसी दुर्बल को, बाहों से पकड़कर घसीटते हुए, तेज़ अंगारों के गड्ढे में डालकर भूनने लगे हों। यद्यपि मेरे भीतर अथक ऊर्जा जागृत हुई, चित्त अचल हुआ, किन्तु, दर्दभरे परिश्रम के कारण मेरी काया उत्तेजित, अशांत, और परेशान हुई। किन्तु वह दर्द मेरे मन पर हावी नहीं हुआ, और न ही बना रहा।
देवताओं ने मुझे देखकर कहा, ‘लगता है, ध्यानस्थ गौतम मर गया!’ दूसरे देवताओं ने कहा, ‘लगता है, मरा नहीं है, पर मर रहा है!’ तीसरे देवताओं ने कहा, ‘लगता है, न मरा है, न ही मर रहा है। बल्कि वह अरहंत हुआ! क्योंकि अरहंत शायद इसी तरह जीते हैं!’
मैंने सोचा: ‘क्या होगा, यदि मैं पूर्णतः बिना भोजन के रहूँ?’ तब कुछ देवतागण मेरे पास आए और कहा, ‘प्रिय महोदय, कृपया भोजन को पूर्णतः न त्यागे! यदि आप भोजन पूर्णतः त्याग देंगे, तो हम आपके शरीर में रोमछिद्रों से दिव्य-पोषण डालेंगे, और आप उसी पर जीवित रहेंगे!’ मैंने सोचा, ‘यदि मैं दावा करूँ कि मैं पूर्णतः उपवास पर हूँ, जबकि ये देवता मेरे शरीर के रोमछिद्रों से दिव्य पोषण डाल रहे हो, तो मेरा दावा झूठ होगा!’ तब मैंने टाल दिया, ‘बस!’
मैंने सोचा: ‘क्या होगा, यदि मैं एक बार में थोड़ा-सा ही भोजन करूँ — एक बार में मुट्ठी-भर दाल, दाल का पानी, मूँग-दाल, या मटर-दाल?’ तब मैंने थोड़ा-सा ही भोजन करना शुरू किया… मेरी काया बहुत दुर्बल हो गयी… अल्प भोजन करने से मेरे अंग बेल या बांस के जोड़वाले खंडों जैसे हो गए… मेरी पीठ ऊंट की कूबड़ जैसी हो गई… मेरी रीढ़ मोतियों की माला की तरह उभर कर आयी… मेरी पसलियां किसी पुराने जर्जर भण्डार के धरनों की तरह बाहर निकले… मेरी आंखों की चमक गड्ढों में गहराई तक धँस गयी, जैसे किसी कुएं में गहराई तक जाकर जल चमकता है… मेरा सिर किसी सूखे सिकुड़े करेले की तरह सूख और सिकुड़ गया… मेरे पेट की त्वचा मेरी रीढ़ से इस तरह चिपक गई कि जब मैं अपने पेट को छूना चाहता, तो रीढ़ भी हाथ में आती; और रीढ़ को छूना चाहता, तो पेट की त्वचा हाथ में आती… यदि मैं पेशाब या शौच करता, तो वहीं मूह के बल गिर पड़ता! यदि हाथों से अपने अंगों को मलता, तो मेरे रोम जड़ों से उखड़ कर गिरते!
मुझे देखकर लोग कहते, ‘लगता है, ध्यानस्थ गौतम काला है!’ दूसरे लोग कहते, ‘लगता है, ध्यानस्थ गौतम काला नहीं, भूरा है!’ तीसरे लोग कहते, ‘लगता है, ध्यानस्थ गौतम न तो काला है, न ही भूरा! बल्कि उसका वर्ण सुनहरा है!’ मेरी त्वचा का साफ, चमकीला वर्ण इतना दुवर्ण हो गया था… मात्र कम भोजन करने से।
मैंने सोचा: ‘जो भी श्रमण-ब्राह्मणों ने अतीत में (इतने प्रयास के कारण) दर्दभरी, कष्टदायक, तीक्ष्ण, भेदक वेदनाओं का अनुभव किया हो, उनमें यह परम है! इस दर्द से बड़ा कोई दर्द नहीं! जो भी श्रमण-ब्राह्मण भविष्य में दर्दभरी, कष्टदायक, तीक्ष्ण, भेदक वेदनाओं का अनुभव करेंगे, उनमें यह परम होगी! इस दर्द से बड़ा कोई दर्द नहीं होगा! और जो भी श्रमण-ब्राह्मण वर्तमान में दर्दभरी, कष्टदायक, तीक्ष्ण, भेदक वेदनाओं का अनुभव करते हैं, उनमें यह परम है! इस दर्द से बड़ा कोई दर्द नहीं है! किन्तु इतनी कड़ी दुष्कर चर्या के पश्चात भी मैंने किसी मनुष्योत्तर अवस्था, ज्ञान या दृष्टि में विलक्षणता प्राप्त नहीं की! क्या संबोधि का कोई अन्य मार्ग हो सकता है?’
तब मुझे याद आया, ‘जब मेरे पिता राजा शुद्धोधन (कृषि उत्सव के दौरान) काम कर रहे थे, और मैं जामुन के पेड़ की शीतल छाया में बैठा था। तब मैंने कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा था। क्या वह संबोधि का मार्ग हो सकता है?’ तब उसी स्मृति के साथ चैतन्य जागा — ‘यही संबोधि का मार्ग है!’
मैंने सोचा: ‘तो मैं उस सुख से डरता क्यों हूँ, जिसका कामुकता से कोई संबंध नहीं, अकुशल-स्वभाव से कोई संबंध नहीं है?’ तब मुझे लगा, ‘अब मैं उस कुशल सुख से नहीं डरूँगा! किन्तु वह सुख इतनी दुर्बल काया से प्राप्त करना सरल नहीं है। कैसे होगा, यदि मैं ठोस भोजन करूँ!…
“अब पाँच भिक्षुक मेरे पास रह रहे थे, सोचते हुए कि ‘यदि हमारे श्रमण गौतम को कोई उच्चतर अवस्था प्राप्त हो जाए, तो वे हमें बताएँगे।’ किन्तु जब उन्होंने मुझे ठोस भोजन - कुछ चावल और दलिया - खाते हुए देखा, तो वे निराश हो गए, और यह सोचते हुए मुझे छोड़कर चले गए, ‘श्रमण गौतम ने तपस्या त्याग दी है, और वे विलासितापूर्ण जीवन में लौट गए हैं।’
« मज्झिमनिकाय ३६ : महासच्चक सुत्त »
सिद्धार्थ गौतम का सीधा और सच्चा स्वभाव, तथा संबोधि के प्रति अथक समर्पण-भाव प्रेरणादायक है। उन्होंने कठोर तपस्या में कोई कसर नहीं छोड़ी। वे उस मिथ्या-मार्ग पर चलते हुए उसके अंतिम-छोर तक पहुँच गए। किन्तु, जब वहाँ कुछ प्राप्त नहीं हुआ, तो उन्होंने उस सच्चाई को स्वीकारने में तत्परता दिखायी। भले ही उस मार्ग में उनका छह वर्षों का समय और बहुत ऊर्जा खर्च हो चुकी थी, और सराहने वाले अनुयायी जमा हो चुके थे। किन्तु, लगता है कि जैसे बोधिसत्व के लिए यह त्यागना जरा-सी बात थी।
बोधिसत्व ने अपना मार्ग बदल दिया। उन्होंने भोजन करना शुरू किया ताकि सम्यक-समाधि के लिए अपने शरीर में आवश्यक ऊर्जा बनाए रख सकें। इस दौरान, उन्होंने शरीर को पीड़ित करने के बजाय, अपने मन की ओर ध्यान केंद्रित किया।
वे अपने मन में उठने वाले हर विचार और संकल्प को वर्गीकृत करने लगे। कामुक, दुर्भावनापूर्ण और हिंसात्मक विचारों को उन्होंने अकुशल श्रेणी में रखा, जबकि संन्यास, सद्भावनापूर्ण और अहिंसात्मक विचारों को कुशल श्रेणी में वर्गीकृत किया।
जब भी उन्हें अकुशल विचार आते, वे उन विचारों के दुखद परिणामों पर ध्यान देते और उन्हें छोड़ देते। इसके विपरीत, जब कुशल विचार आते, वे उन्हें बढ़ावा देते और सही समय पर मन को शांत कर सांस पर ध्यान केंद्रित करते।
“जो व्यक्ति जिस तरह सोचता है, वही उसके चित्त का झुकाव बनता है… और वह कुशल अथवा अकुशल दिशा में झुकते चले जाता है।”
« मज्झिमनिकाय १९ : द्वेधावितक्क सुत्त »
सम्यक-मार्ग पता चलते ही उनका चित्त तेजी से ऊपर उठते गया। उन्होंने कई ऋद्धिबलों को भी विकसित किया —
“तब, मैंने पाँच धर्मों को विकसित किया, जो ऋद्धिबलों के द्योतक हैं। कौन-से पाँच?
• चाहत और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल,
• ऊर्जा और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल,
• चित्त और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल,
• विमर्श और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल,
• और पाँचवा, केवल अतिउत्साह।
जब मैंने इन चार धर्मों की ‘अतिउत्साह’ के साथ साधना की, उन्हें भीतर विकसित किया, तब जिस भी ऊँचे ज्ञान को जानने और साक्षात्कार करने के लिए मैंने अपना चित्त झुकाया, अवसर मिलते ही मैंने उनका साक्षात्कार किया।
मैं जब चाहता, विविध ऋद्धियों का उपयोग करता — एक होकर अनेक बनता, अनेक होकर एक बनता। प्रकट होता, विलुप्त होता। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता ।
मैं जब चाहता, अपने विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुन लेता — चाहे दिव्य हो या मानवी, दूर की हो या पास की।
मैं जब चाहता, अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता। मुझे रागपूर्ण चित्त पता चलता कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता कि ‘अविमुक्त चित्त है।’”
« अंगुत्तरनिकाय ५ : ६८ दुतिय इद्धिपाद सुत्त »
तब मुझे लगा, “उफ़! यह दुनिया कितनी मुश्किलों में फँस गई है! यह जन्म लेती है, जीर्ण होती है, मरती है, च्युत होती है, फिर पुनरुत्पन्न होती है। किन्तु, जीर्णता और मौत के इस दुःख से निकलने का मार्ग नहीं समझ पाती। उफ़! वह जीर्णता और मौत से बचने का मार्ग कब समझ पाएगी?”
तब मैंने सोचा, “किन्तु, क्या होने से ‘जीर्णता और मौत’ आती है? किस आवश्यक कारण से ‘जीर्णता और मौत’ होती है?” तब उचित चिंतन कर अन्तर्ज्ञान से मुझे समझ आया, “जीर्णता और मौत तब होती है, जब जन्म हो। जन्म होने के आवश्यक कारण से ही जीर्णता और मौत आती हैं।”
तब सोचा, “किन्तु, क्या होने से ‘जन्म’ होता है? किस आवश्यक कारण से ‘जन्म’ होता है?” तब उचित चिंतन कर अन्तर्ज्ञान से मुझे समझ आया, “जन्म तब होता है, जब भव (=अस्तित्व बनाना) हो। अस्तित्व बनने के आवश्यक कारण से ही जन्म होता है।”
तब सोचा, “किन्तु, क्या होने से ‘अस्तित्व’ बनता है? किस आवश्यक कारण से ‘भव’ होता है?” तब उचित चिंतन कर अन्तर्ज्ञान से मुझे समझ आया, “अस्तित्व तब बनता है, जब आसक्ति (=उपादान) हो। आसक्ति के आवश्यक कारण से ही अस्तित्व बनता है।”
तब सोचा, “किन्तु, क्या होने से… किस आवश्यक कारण से आसक्ति होती है… तृष्णा होती है… संवेदना होती है… संस्पर्श होता है… छह आयाम होते हैं… नाम-रूप होता है… चैतन्य होता है?” तब उचित चिंतन कर अन्तर्ज्ञान से मुझे समझ आया, “चैतन्य तब होता है, जब नाम-रूप हो। नाम-रूप के आवश्यक कारण से ही चैतन्य होता है।”
तब मुझे लगा, “चैतन्य नाम-रूप पर वापस लौटता है, उसके आगे नहीं जाता। इसी सीमा तक कोई जन्म लेता है, जीर्ण होता है, मरता है, च्युत होता है, फिर पुनरुत्पन्न होता है। बस इसी नाम-रूप के कारण चैतन्य के होने से। चैतन्य के कारण नाम-रूप होता है, और नाम-रूप के कारण छह आयाम होते हैं… संस्पर्श होता है… संवेदना होती है… तृष्णा होती है… आसक्ति होती है… अस्तित्व बनता है… जन्म होता है… जीर्णता, मौत, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा होती हैं। इस तरह, इस दु:खों की गठरी की उत्पत्ति होती है।
“उत्पत्ति… उत्पत्ति…” ये पहले कभी न सुने धर्म के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।
तब मैंने सोचा, “किन्तु, क्या होने से ‘जीर्णता और मौत’ नहीं होती है? किस आवश्यक कारण से ‘जीर्णता और मौत’ नहीं होती है?” तब उचित चिंतन कर अन्तर्ज्ञान से मुझे समझ आया, “जीर्णता और मौत तब नहीं होती, जब ‘जन्म’ न हो। जन्म न होने के आवश्यक कारण से ही जीर्णता और मौत भी नहीं होती हैं।”
तब सोचा, “किन्तु, क्या होने से… किस आवश्यक कारण से जन्म नहीं होता… अस्तित्व नहीं बनता… आसक्ति नहीं होती… तृष्णा नहीं होती… संवेदना नहीं होती… संस्पर्श नहीं होता… छह आयाम नहीं होते… नाम-रूप नहीं होता… चैतन्य नहीं होता है? तब उचित चिंतन कर अन्तर्ज्ञान से मुझे समझ आया, “चैतन्य तब नहीं होता, जब नाम-रूप न हो। नाम-रूप न होने के आवश्यक कारण से ही चैतन्य भी नहीं होता है।”
तब मुझे लगा, “मुझे बोधि-मार्ग मिल गया! नाम-रूप न होने से चैतन्य नहीं होता। और चैतन्य न होने से नाम-रूप नहीं होता। नाम-रूप न होने से छह आयाम नहीं होते… संस्पर्श नहीं होता… संवेदना नहीं होती… तृष्णा नहीं होती… आसक्ति नहीं होती… अस्तित्व नहीं बनता… जन्म नहीं होता… जीर्णता, मौत, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, निराशा इत्यादि नहीं होते हैं। इस तरह, इस दु:खों की गठरी का निरोध होता है।”
“निरोध… निरोध…” ये पहले कभी न सुने धर्म के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।
जैसे कोई पुरुष किसी जंगल से गुजर रहा हो। उसे एक प्राचीन मार्ग, प्राचीन पगडंडी दिखायी दे, जिस पर अतीतकाल में लोग चला करते थे। तब वह उस मार्ग का पीछा करे, और पीछा करते हुए उसे एक प्राचीन नगर, प्राचीन राजधानी दिखे, जहाँ अतीतकाल में लोग रहते थे, जो बाग, बगीचे, उपवन और तालाब से भरा हुआ था, रक्षार्थ दीवारों से घिरा हुआ था, बहुत रमणीय था। तब वह लौटकर राजा या राजमंत्री जाकर सूचित करता है, “महाराज, आपको पता होना चाहिए कि मैं जंगल से गुजर रहा था। मुझे एक प्राचीन मार्ग, प्राचीन पगडंडी दिखायी दी। मैंने उस मार्ग का पीछा किया तो एक प्राचीन नगर, प्राचीन राजधानी दिखायी दी, जहाँ अतीतकाल में लोग रहते थे, जो बाग, बगीचे, उपवन और तालाब से भरा हुआ है, रक्षार्थ दीवारों से घिरा हुआ है, बहुत रमणीय है! महामहिम, उस नगर का पुनर्निर्माण करें!” तब राजा या राजमंत्री उस नगर का पुनर्निर्माण करते हैं, ताकि बाद में वह नगर शक्तिशाली, समृद्ध, घनी आबादी वाला, पूर्णतः विकसित बन जाए।
उसी तरह, मैंने भी एक प्राचीन मार्ग, प्राचीन पगडंडी देखि, जिस पर अतीतकाल के सम्यक-सम्बुद्ध चला करते थे। और वह प्राचीन मार्ग, प्राचीन पगडंडी क्या है? बस, यही आर्य अष्टांगिक मार्ग। अर्थात, अर्थात, सम्यक-दृष्टि, सम्यक-संकल्प, सम्यक-वचन, सम्यक-कार्य, सम्यक-जीविका, सम्यक-व्यायाम, सम्यक-स्मृति, और सम्यक-समाधि। यही वह प्राचीन मार्ग, प्राचीन पगडंडी है, जिस पर अतीतकाल के सम्यक-सम्बुद्ध चला करते थे। मैंने उस मार्ग का पीछा किया तो मुझे जीर्णता और मौत का प्रत्यक्ष-ज्ञान हुआ, जीर्णता और मौत की उत्पत्ति का प्रत्यक्ष-ज्ञान हुआ, जीर्णता और मौत के निरोध का प्रत्यक्ष-ज्ञान हुआ, जीर्णता और मौत के निरोधकर्ता मार्ग का प्रत्यक्ष-ज्ञान हुआ। उसका पीछा किया तो जन्म… अस्तित्व… आसक्ति… तृष्णा… संवेदना… संस्पर्श… छह आयाम… नाम-रूप… चैतन्य… रचना का प्रत्यक्ष-ज्ञान हुआ, रचना की उत्पत्ति का प्रत्यक्ष-ज्ञान हुआ, रचना के निरोध का प्रत्यक्ष-ज्ञान हुआ, रचना के निरोधकर्ता मार्ग का प्रत्यक्ष-ज्ञान हुआ।”
« संयुत्तनिकाय १२ : ६५ : नगर सुत्त »
तब, उन्हें पाँच महान स्वप्न दिखाई दिए।
१. जम्बूद्वीप की विराट धरती उनका बिस्तर थी। पर्वतराज हिमालय उनका तकिया था। उनका बायाँ हाथ पूर्वी-समुद्र में, दायाँ हाथ पश्चिमी-समुद्र में और दोनों पैर दक्षिणी-समुद्र में थे। यह महास्वप्न उन्हें यह बताने के लिए प्रकट हुआ कि वह अनुत्तर सम्यक-संबोधि प्राप्त करने के अत्यंत करीब पहुँच चुके हैं, और उसे पाना अटल है।
२. उनकी नाभि से एक बेल निकली और आकाश तक पहुँच गयी । यह दूसरा महास्वप्न उन्हें यह बताने के लिए दिखाई दिया कि जब वे आर्य अष्टांगिक-मार्ग के लिए जागृत हो गए थे, तो वे इसे देवताओं और मनुष्यों तक अच्छी तरह से घोषित करेंगे।
३. भूमि पर रेंगने वाले काले सिर वाले सफेद कीड़े उनके पैरों पर चढ़कर घुटनों तक फैल गए। यह तीसरा महास्वप्न उन्हें यह बताने के लिए दिखाई दिया कि कई सफेद कपड़े पहने गृहस्थ लोग आजीवन तथागत की शरण में जाएंगे।
४. चार दिशाओं से आने वाले अलग-अलग रंग के चार पक्षी उनके पैरों पर गिरे और पूरी तरह से सफेद हो गए। यह चौथा महास्वप्न उन्हें यह बताने के लिए दिखाई दिया कि चार जातियों के लोग - क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र - उनके द्वारा सिखाए गए धम्मविनय में घर से बेघर हो, काषायवस्त्र धारण कर, अप्रतिम मुक्ति का अनुभव करेंगे।
५. वे मल के एक विशाल पर्वत पर चक्रमण करते रहे, लेकिन उनके पैर मल से गंदे नहीं हुए। यह पाँचवा महास्वप्न उन्हें यह बताने के लिए दिखाई दिया कि तथागत को वस्त्र, भिक्षा, आवास और आवश्यक औषधियों का उपहार बहुत प्राप्त होगा, लेकिन वे उनका उपयोग उनसे अनासक्त, मोहरहित, अपराध बोध से रहित होकर करेंगे, [उनके प्रति आसक्ति की] कमियों को देखेंगे, और उनसे बचने का उपाय समझेंगे।
« अंगुत्तरनिकाय ५:१९६ : महासुपिन सुत्त »
“अंततः मैंने कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा। किन्तु, इस तरह उत्पन्न सुखद संवेदना मेरे मन को अभिभूत कर के नहीं रह सकी।…
सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा। किन्तु, इस तरह उत्पन्न सुखद संवेदना मेरे मन को अभिभूत कर के नहीं रह सकी।…
प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा। किन्तु, इस तरह उत्पन्न सुखद संवेदना मेरे मन को अभिभूत कर के नहीं रह सकी।…
सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा। किन्तु, इस तरह उत्पन्न सुखद संवेदना मेरे मन को अभिभूत कर के नहीं रह सकी।
जब मेरा चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो गया, तब मैंने उस चित्त को पूर्वजन्म स्मरण करने की ओर झुकाया। तब मुझे अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण हुए — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त (=ब्रह्मांडिय सिकुड़न), कई कल्पों का लोक-विवर्त (=ब्रह्मांडिय विस्तार), कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह मैंने अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण किए।
मुझे इस प्रथम-ज्ञान का साक्षात्कार रात के प्रथम-पहर में हुआ। अविद्या नष्ट हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ! अँधेरा नष्ट हुआ, उजाला उत्पन्न हुआ! जैसे किसी अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी के साथ होता है। किन्तु, इस तरह उत्पन्न सुखद संवेदना मेरे मन को अभिभूत कर के नहीं रह सकी।
तब मैंने अपने समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल चित्त को सत्वों की गति जानने की ओर झुकाया। तब मुझे अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखा। और मुझे पता चला कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह, मैंने अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखा।
मुझे इस द्वितीय-ज्ञान का साक्षात्कार रात के मध्यम-पहर में हुआ। अविद्या नष्ट हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ! अँधेरा नष्ट हुआ, उजाला उत्पन्न हुआ! जैसे किसी अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी के साथ होता है। किन्तु, इस तरह उत्पन्न सुखद संवेदना मेरे मन को अभिभूत कर के नहीं रह सकी।
तब मैंने अपने समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाया। तब ‘दुःख’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘दुःख की उत्पत्ति’, मुझे यथास्वरूप पता चली। ‘दुःख का निरोध’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘दुःख का निरोधकर्ता मार्ग’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘आस्रव’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘आस्रव की उत्पत्ति’, मुझे यथास्वरूप पता चली। ‘आस्रव का निरोध’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘आस्रव का निरोधकर्ता मार्ग’, मुझे यथास्वरूप पता चला। इस तरह जानने से, देखने से, मेरा चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हुआ, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हुआ, अविद्या-आस्रव से विमुक्त हुआ। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न हुआ, ‘विमुक्त हुआ!’ मुझे पता चला, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
मुझे इस तृतीय-ज्ञान का साक्षात्कार रात के अंतिम-पहर में हुआ। अविद्या नष्ट हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ! अँधेरा नष्ट हुआ, उजाला उत्पन्न हुआ! जैसे किसी अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी के साथ होता है। किन्तु, इस तरह उत्पन्न सुखद संवेदना मेरे मन को अभिभूत कर के नहीं रह सकी।”
« मज्झिमनिकाय ३६ : पासरासि सुत्त »
और इस तरह, बोधिसत्व की सही मेहनत रंग लाई और उन्होंने सम्यक-संबोधि प्राप्त की।
और, जब तथागत को अनुत्तर ‘सम्यक-संबोधि’ प्राप्त होती है, तब पृथ्वी कंपित होती है, प्रकंपित होती है, थरथराती है।”
« दीघनिकाय १६ : महापरिनिब्बान सुत्त »
तब, ‘भगवान अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ के मुख से यह बोल फूट पड़े —
« खुद्दकनिकाय धम्मपद : जरावग्ग : १५३ + १५४ »
उस समय बुद्ध भगवान उरूवेला में नेरञ्जरा नदी के किनारे बोधिवृक्ष के नीचे, बस अभी बुद्धत्व प्राप्त किए थे। वहाँ भगवान उस बोधिवृक्ष के नीचे एक सप्ताह तक एक आसन से बैठकर विमुक्ति सुख का निरंतर अनुभव करते रहे… एक सप्ताह बीतने पर, भगवान उस समाधि से उठकर, बोधिवृक्ष के नीचे से ‘अजपाल’ नामक वटवृक्ष के नीचे गए। वहाँ जाकर, वे अजपाल वटवृक्ष के तले एक सप्ताह तक एक आसन से बैठकर विमुक्ति सुख का निरंतर अनुभव करते रहे…
तब एकांतवास में उनके चित्त में विचार उठे, “(किसी ज्येष्ठ के प्रति) गौरव और आदर-सम्मान के बिना रहना दुःखदायी है। मैं किस श्रमण-ब्राह्मण का आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसके निश्रय में रहूँ?”
तब उन्हें लगा, “अपने अपरिपूर्ण शील-स्कन्ध को पूर्ण करने के लिए, मुझे किसी श्रमण-ब्राह्मण का आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसके निश्रय में रहना चाहिए। किन्तु, देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण-ब्राह्मण पीढ़ियाँ, शासक और जनता से भरे इस लोक में, मैं किसी अन्य श्रमण-ब्राह्मण को नहीं देखता हूँ, जो मुझसे अधिक शील-संपन्न हो, जिसका मैं आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसके निश्रय में रह सकता हूँ।
और, अपने अपरिपूर्ण समाधि-स्कन्ध… प्रज्ञा-स्कन्ध… विमुक्ति-स्कन्ध… विमुक्ति ज्ञानदर्शन को पूर्ण करने के लिए, मुझे किसी श्रमण-ब्राह्मण का आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसके निश्रय में रहना चाहिए। किन्तु, देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण-ब्राह्मण पीढ़ियाँ, शासक और जनता से भरे इस लोक में, मैं किसी अन्य श्रमण-ब्राह्मण को नहीं देखता हूँ, जो मुझसे अधिक समाधि-संपन्न… प्रज्ञा-संपन्न… विमुक्ति-संपन्न… विमुक्ति ज्ञानदर्शन-संपन्न हो, जिसका मैं आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसके निश्रय में रह सकता हूँ।
क्यों न मैं उसी धर्म का आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसका निश्रय लेकर रहूँ, जिससे मुझे अभी संबोधि मिली?”
और, सहम्पति ब्रह्मा ने भगवान के चित्त में चल रहे तर्क-वितर्क को जान लिया। तब, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, सहम्पति ब्रह्मा ब्रह्मलोक से विलुप्त हुआ और भगवान के समक्ष प्रकट हुआ। उस सहम्पति ब्रह्मा ने बाहरी वस्त्र को एक कंधे पर कर, दाएँ घुटने को भूमि पर टिकाकर, हाथ जोड़कर भगवान से कहा —
“ऐसा ही होता है, भगवान! ऐसा ही होता है, सुगत! जितने ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ अतीतकाल में हुए, वे भी उसी धर्म का आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसका निश्रय लेकर रहें, जिससे उन्हें संबोधि मिली थी। जितने ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ भविष्यकाल में होंगे, वे भी उसी धर्म का आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसका निश्रय लेकर रहेंगे, जिससे उन्हें संबोधि मिलेगी। और भगवान, जो अभी वर्तमान में ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है, वे भी उसी धर्म का आदर-सम्मान और सत्कार कर, उसका निश्रय लेकर रहे, जिससे उन्हें संबोधि मिली है।”
ऐसा सहम्पति ब्रह्मा ने कहा। ऐसा कहकर उसने आगे कहा,
« संयुत्तनिकाय ६:२ : गारव सुत्त »
“क्या एक सामान्य ‘मानव’ द्वारा सम्यक-संबोधि प्राप्त करने के बाद, वह एक ‘मानव’ ही रहता है, अथवा देवता बन जाता है, अथवा कोई और सत्व बन जाता है? आखिर उसे किस नाम से पुकारना उचित है?” — इन सभी के उत्तर स्वयं भगवान ने दिये हैं। हमने इस अंतिम सूत्र को थोड़ा-सा घुमाकर प्रथम-व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य में बताने का प्रयास किया है —
एक समय ब्राह्मण द्रोण उक्कट्ठ से सेतब्य के बीच यात्रा कर रहा था । तब उसे किसी के पदचिह्न दिखे, जिसमें चक्र मौजूद थे — हजार तीली के साथ, नेमी के साथ, नाभी के साथ, अपने सम्पूर्ण आकार की परिपूर्णता के साथ! उसे लगा, “आश्चर्य हैं! अद्भुत हैं! ये पदचिन्ह मानव के नहीं हैं!”
तब उसने उन पदचिन्हों का पीछा किया, जो रास्ते से होकर उपवन की ओर गए। उनका अनुसरण करते हुए, वह एक पेड़ के तले जा पहुँचा, जहाँ कोई पालथी मार, काया सीधी रख, स्मृतिमान बैठा था — प्रसन्न मुद्रा, विस्मयकारी रूप, श्रद्धाजनक, प्रशान्त इंद्रिय, प्रशान्त चित्त, संपूर्ण आत्मवश, असीम निश्चलता, संरक्षित इंद्रिय, उन पर परम नियंत्रण और संयम, सर्वश्रेष्ठ!
ब्राह्मण द्रोण उनके पास गया और पूछा, “महाशय, क्या आप देवता है?”
“नहीं, ब्राह्मण, मैं देवता नहीं हूँ!”
“तब, क्या आप गंधर्व है?”
“नहीं, ब्राह्मण, मैं गंधर्व नहीं हूँ!”
“तब, क्या आप यक्ष है?”
“नहीं, ब्राह्मण, मैं यक्ष नहीं हूँ!”
“तब, क्या आप मनुष्य है?”
“नहीं, ब्राह्मण, मैं मनुष्य नहीं हूँ!”
“जब आप देवता नहीं है, गंधर्व नहीं है, यक्ष नहीं है, मनुष्य नहीं है, तब भला आप किस तरह के सत्व है?”
“ब्राह्मण! जिस आस्रव का त्याग न करने से मैं देवता बनता, उसे मैंने त्याग दिया है, जड़ से उखाड़ दिया है, जिसकी पुनरुत्पत्ति संभव नहीं है। जिस आस्रव का त्याग न करने से मैं गंधर्व बनता… यक्ष बनता… मनुष्य बनता, उसे मैंने त्याग दिया है, जड़ से उखाड़ दिया है, जिसकी पुनरुत्पत्ति संभव नहीं है। जैसे कोई नीलकमल या श्वेतकमल जल में पैदा होता है, जल में बढ़ता है, और जल से ऊपर उठकर जल से अलिप्त रहता है। उसी तरह, मैं इस लोक में पैदा हुआ, इस लोक में पला-बढ़ा, और इस लोक को हराकर लोक से अलिप्त रहता हूँ। ब्राह्मण, मुझे ‘बुद्ध’ करके स्मरण रखो।
« अंगुत्तरनिकाय ४:३६ : दोण सुत्त »
पश्चिम देशों के इतिहासकारों के अनुसार यह तिथि ५६३ ईसा पूर्व के आसपास मानी जाती है। किन्तु श्रीलंका, बर्मा, और थायलैंड के साथ-साथ अनेक देशों के लिखित इतिहास में यह तिथि समान-रूप से ६२३ ईसा-पूर्व दर्ज हैं। ↩︎
धम्मचक्कपवत्तन सुत्त और अन्य सूत्रों के अनुसार, यह संसार मुख्यतः ३१ लोकों में बटा हुआ है। चार अरूप आयाम, सोलह स्तरों के ब्रह्मलोक, छह तरह के स्वर्ग देवलोक, तथा मानवलोक, प्रेतलोक, असुरलोक, पशुयोनि, नर्क एक-एक! तुषित देवलोक स्वर्ग में ऊपर से तीसरा देवलोक है। ↩︎
“अंगुत्तरनिकाय ३:७१ मुलुपोसथ” में पढ़ने में आता है कि तुषित देवताओं की आयु ४००० दिव्य वर्षों की होती हैं। अर्थात, लगभग ५७ करोड़, ६० लाख मानव वर्ष! ↩︎
पूर्व-दिशा से गन्धर्वों का महाराज धृतराष्ठ, दक्षिण दिशा से कुंभण्डों का महाराज विरुल्हक, पश्चिम दिशा से नागों का महाराज विरूपाक्ष, और उत्तर दिशा से यक्षों का महाराज कुबेर या वैष्णव! ↩︎
महापजापति के इकलौते पुत्र नन्द को सुन्दरीनन्द के नाम से भी जाना जाता था। राजा शुद्धोधन के भाई अमितोदन के पुत्र अनुरुद्ध और महानाम थे, और सिद्धार्थ के अन्य चचेरे भाइयों में आनन्द, भद्दिय और किम्बिल शामिल थे। महानाम के अलावा, सभी भाई भिक्षु बने, जिनमें से देवदत्त के अतिरिक्त सभी अरहंत हुए। ↩︎
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सिद्धार्थ की पत्नी का नाम प्राचीन बौद्ध साहित्य में स्पष्ट रूप से नहीं मिलता। जहाँ-जहाँ उनका उल्लेख होता है, उन्हें केवल राहुलमाता के नाम से जाना जाता है। बुद्धकथा में इस संदर्भ की कमी को भरने के लिए, बाद की अट्ठकथा में बताया गया है कि उनका नाम यशोधरा था। वह कोलिय वंश के राजा सुप्पबुद्ध की सुंदर राजकुमारी थीं, और उनका भाई देवदत्त था। सिद्धार्थ की माता महामाया और उनकी मौसी महापजापति भी कोलिय वंश से थीं। अट्ठकथा के अनुसार, शाक्यों और कोलियों के बीच राजविवाह का यह सिलसिला आम था। ↩︎
प्रचलित कथाओं के अनुसार, राजा शुद्धोधन ने बोधिसत्व को जीवन की सभी दुखद सच्चाइयों से दूर रखा था। ऐसा कहा जाता है कि २८ वर्ष की आयु तक बोधिसत्व ने न कभी किसी रोगी, न वृद्ध, न मृत व्यक्ति, और न ही भिक्षुक को देखा था। और एक दिन, रथ यात्रा के दौरान उन्होंने ये चार दृश्य देखे। किन्तु, इस सूत्र से प्रतीत होता है कि शायद यह कथा पूरी तरह से सही न हो। क्योंकि भगवान बुद्ध इस सूत्र में एक अलग चित्रण करते हैं — वे साधारण लोगों को ‘खौफ, लज्जा और घृणा’ से भरते देखते हैं और अपने भीतर गहन चिंतन-मनन करते हैं, जिससे उनका यौवन, चंगाई और जीवन से मोहभंग होता है, और उनका हृदय संवेग की ओर झुकता है। ↩︎
पिछली शताब्दी के ग्रंथों, विशेष रूप से डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की १९५६ की प्रसिद्ध पुस्तक “बुद्ध और उनका धर्म” में उल्लेख किया गया है कि शाक्यों और कोलियों के बीच रोहिणी नदी के विवाद ने युद्ध की संभावना को जन्म दिया, और इसी के प्रतिकूल सिद्धार्थ ने गृहत्याग का निर्णय लिया। डॉ. आंबेडकर ने इस संदर्भ में यह स्पष्ट किया कि सिद्धार्थ द्वारा देखे गए चार निमित्त — वृद्ध, रोगी, मृतक और भिक्षुक — की घटना तार्किक नहीं लगती। चूँकि प्राचीन पालि साहित्य में भी इसका उल्लेख नहीं मिलता, इसलिए उनकी शंका इस दृष्टिकोण से उचित प्रतीत होती है। वास्तव में, ये चार दृश्य देखने की कथाएँ सैकड़ों वर्षों बाद बौद्ध साहित्य में अट्ठकथा के रूप में जोड़ी गई थी।
किन्तु, यह भी ध्यान देने योग्य है कि रोहिणी नदी के विवाद का उल्लेख भी प्राचीन बौद्ध साहित्य, संपूर्ण पालि त्रिपिटक, संस्कृत-चीनी महायान ग्रंथों, और अन्य किसी बौद्ध ग्रंथों में नहीं है। डॉ. आंबेडकर ने स्वयं कहा है कि इस विवाद को गृहत्याग का संभावित कारण बताना उनकी कल्पना या अनुमान था, जिसे ग्रंथ में एक कथा के रूप में प्रस्तुत किया गया। किन्तु, इस प्राचीन पालि सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि भगवान बुद्ध ने अपने गृहत्याग का असली कारण संवेग और निर्वाण की खोज बताया है। इसलिए बुद्ध के द्वारा इस स्वघोषित आत्मकथा को नकारत हुए किसी अन्य काल्पनिक कारण की तलाश करने की आवश्यकता नहीं है। बुद्ध से पूर्व और उनके पश्चात, आज भी अनेक भारतीय लोग संवेग जागने के आधार पर संन्यास ग्रहण करते हैं। ↩︎
प्रचलित कहानियों में यह भी आता हैं कि बोधिसत्व ने रात में, बिना किसी को सूचित किए, गृहस्थी त्यागकर चले गए। किन्तु, इस सूत्र में भगवान स्वयं बताते हैं कि उन्होंने माता-पिता को आँसू-भरे चेहरे से बिलखते हुए छोड़ा। जो घटना, शायद, सब के आगे घटी हो? ↩︎
५२ वर्षों के बाद इसी मार्ग पर विपरीत दिशा में जाते हुए, बुद्ध ने अपने जीवन की अंतिम यात्रा भी की। उस यात्रा का विवरण के साथ उल्लेख त्रिपिटक के सबसे लंबे सूत्र, ‘महापरिनिब्बाण सुत्त’ में आता है। ↩︎
खुद्दकनिकाय सुत्तनिपात ३:१ : पब्बज्जा सुत्त ↩︎