एक समय भगवान कोलियों के साथ कक्करपत्त नामक कोलिय नगर में रह रहे थे। तब कोलियपुत्र दीघजाणु भगवान के पास गया और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गया। एक-ओर बैठकर, उसने कहा, “भंते! हम कामभोगी गृहस्थ हैं, जो स्त्रियों और बालबच्चों से घिरे रहते हैं, काशी के महँगे वस्त्र पहनते हैं, चन्दन लगाते हैं, माला पहनते हैं, गंध और लेप लगाते हैं, स्वर्ण और रुपये संभालते हैं। अच्छा होगा, भंते, जो भगवान हम जैसे गृहस्थ लोगों को ऐसा धर्म बताएँ, जो हमारे लिए इस जीवन में हितकारक और सुखदायी हो, और अगले जीवन में भी हितकारक और सुखदायी हो।”
भगवान ने कहा, “दीघजाणु, ये चार धर्म हैं, जो गृहस्थ के इस जीवन में हितकारक और सुखदायी होते हैं। कौन-से चार? कार्यशीलता, सतर्कता, कल्याणमित्रता, और समजीविता।
• कार्यशीलता का क्या अर्थ है? ऐसा होता है कि कोई कुलपुत्र, जो कोई कार्य कर के जीविका कमाता है — चाहे खेती, व्यवसाय, पशुपालन, तीरंदाजी, सरकारी कामकाज, अथवा कोई शिल्पकारी हो — वह दक्षता के साथ और बिना आलस किए काम करता है, काम के तरीके में निपुणता लाता है, और उत्साह के साथ कार्यों को अंजाम देता है। इसे कहते हैं कार्यशीलता।
• सतर्कता का क्या अर्थ है? ऐसा होता है कि कोई कुलपुत्र की भोगसंपदा हो, जो उसने अपनी मेहनत से, कार्यशीलता से, प्रयास से, बाहों के बल से, पसीना बहाकर कमाई हो, वह उसकी सतर्कता से रक्षा करता है, सोचते हुए कि “कही मेरी इस भोगसंपदा को सरकार या चोर न लूट लें, या आग न जला दे, या बाढ़ न बहा दे, या नालायक वारिस न बर्बाद कर दे!” इस कहते हैं सतर्कता।
• कल्याणमित्रता का क्या अर्थ है? ऐसा होता है कोई कुलपुत्र जिस गाँव, नगर या शहर में रहता हो, वह ऐसे गृहस्थ, या कुलपुत्र की संगत (=मित्रता) करता है, जो श्रद्धासंपन्न हो, शीलसंपन्न हो, त्यागसंपन्न हो, प्रज्ञासंपन्न हो, फिर चाहे वे युवा हो या वृद्ध। वह उनसे बातचीत करता है, चर्चा करता है। वह श्रद्धासंपन्न से सीखकर श्रद्धासंपदा लेता है, शीलसंपन्न से सीखकर शीलसंपदा लेता है, त्यागसंपन्न से सीखकर त्यागसंपदा लेता है, और प्रज्ञासंपन्न से सीखकर प्रज्ञासंपदा लेता है। इसे कहते हैं कल्याणमित्रता।
• समजीविता का क्या अर्थ है? ऐसा होता है कोई कुलपुत्र अपनी भोगसंपदा की आमदनी और खर्चा जानता है, और अपनी जीविका को सम रखता है — न बहुत खर्चीला, न ही कंजूस, सोचते हुए कि “इस तरह मेरी आमदनी खर्च से अधिक बनी रहे, लेकिन मेरा खर्चा आमदनी से अधिक न बढ़े।” जैसे कोई तराजू में तोलने वाला जानता है, “यह इस ओर इतना झुक गया, या इस ओर इतना ऊपर चला गया।” यदि किसी कुलपुत्र की आमदनी कम और खर्चा अधिक हो, तो उसकी बदनामी होती है कि “वह कुलपुत्र अपनी भोगसंपदा को ऐसे खा रहा है, जैसे पूरे फलवृक्ष को साबुत निगल रहा हो।” और यदि किसी कुलपुत्र की आमदनी अधिक और खर्चा कम हो, तो उसकी बदनामी होती है कि “यह कुलपुत्र कुपोषित मरेगा!” किन्तु कोई कुलपुत्र होता है, जो अपनी भोगसंपदा की आमदनी और खर्चा जानता है, और अपनी जीविका को सम रखता है — न बहुत खर्चीला, न ही कंजूस, सोचते हुए कि “इस तरह मेरी आमदनी खर्च से अधिक बनी रहे, लेकिन मेरा खर्चा आमदनी से अधिक न बढ़े।” इसे कहते हैं समजीविता।
भोगसंपदा की चार तरह से बर्बादी होती है — स्त्रीभोग में धुत होकर, शराब में धुत होकर, जुए में धुत होकर, और पापी को मित्र, सहचारी या सहायक बनाकर। जैसे कोई बाँध बनाया तालाब हो, जिसके चार अंतर्मुख और चार बहिर्मुख हो। तब कोई पुरुष आकर चारों अंतर्मुख बन्द करे और चारों बहिर्मुख खोल दे, और देवता वर्षा न कराएँ। तब उस तालाब के खाली होने की अपेक्षा की जा सकती है, भरने की नहीं। उसी तरह, भोगसंपदा की चार तरह से बर्बादी होती है — स्त्रीभोग में धुत होकर, शराब में धुत होकर, जुए में धुत होकर, और पापी को मित्र, सहचारी या सहायक बनाकर।
और भोगसंपदा की चार तरह से आबादी होती है — स्त्रीभोग में धुत न होना, शराब में धुत न होना, जुए में धुत न होना, और कल्याणकारी व्यक्ति को मित्र, सहचारी या सहायक बनाकर। जैसे कोई बाँध बनाया तालाब हो, जिसके चार अंतर्मुख और चार बहिर्मुख हो। तब कोई पुरुष आकर चारों अंतर्मुख खोल दे और चारों बहिर्मुख बन्द करे, और देवता वर्षा कराएँ। तब उस तालाब के भरने की अपेक्षा की जा सकती है, खाली होने की नहीं। उसी तरह, भोगसंपदा की चार तरह से आबादी होती है — स्त्रीभोग में धुत न होना, शराब में धुत न होना, जुए में धुत न होना, और कल्याणकारी व्यक्ति को मित्र, सहचारी या सहायक बनाकर।
इस तरह, ये चार धर्म हैं, जो गृहस्थ के इस जीवन में हितकारक और सुखदायी होते हैं।
और चार धर्म हैं, जो गृहस्थ के अगले जीवन में हितकारक और सुखदायी होते हैं। कौन-से चार? श्रद्धा संपन्नता, शील संपन्नता, त्याग संपन्नता, और प्रज्ञा संपन्नता।
• श्रद्धा संपन्नता का क्या अर्थ है? ऐसा होता है कि किसी आर्यश्रावक को श्रद्धा होती है। उसे तथागत की बोधि में अटूट आस्था होती है कि — ‘वाकई भगवान ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है — विद्या और आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ इसे कहते हैं श्रद्धा संपन्नता।
• शील संपन्नता का क्या अर्थ है? ऐसा होता है कि कोई आर्यश्रावक जीवहत्या से विरत रहता है, चुराने से विरत रहता है, व्यभिचार से विरत रहता है, झूठ बोलने से विरत रहता है, और शराब मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते से विरत रहता है। इसे कहते हैं शील संपन्नता।
• त्याग संपन्नता का क्या अर्थ है? ऐसा होता है कि कोई आर्यश्रावक दानी होता है — कंजूसी के मल से छूटा, स्वच्छ चित्त का, मुक्त त्यागी, खुले हृदय का, उदारता में रत होता, याचनाओं का पूर्णकर्ता, दान-संविभाग में रत रहता है। इसे कहते हैं त्याग संपन्नता।
• प्रज्ञा संपन्नता का क्या अर्थ है? ऐसा होता है कि कोई आर्यश्रावक अंतर्ज्ञानी होता है — आर्य, भेदक, उदय-व्यय पता करने योग्य, दुःखों का सम्यक अन्तकर्ता। इसे कहते हैं प्रज्ञा संपन्नता।
इस तरह, ये चार धर्म हैं, जो गृहस्थ के अगले जीवन में हितकारक और सुखदायी होते हैं।”
— अंगुत्तरनिकाय ८:५४ : दीघजाणु सुत्त
राजकुमारी सुमन, पाँच-सौ रथों पर सवार पाँच-सौ राजकुमारीयों के काफ़िले के साथ, वहाँ गई जहाँ भगवान रुके थे। और वे पहुँच कर अभिवादन कर सभी एक-ओर बैठ गई। एक-ओर बैठकर राजकुमारी सुमन ने भगवान से कहा, “भन्ते! मान लिजिये भगवान के दो शिष्य हो — श्रद्धा में एक जैसे, शील में एक जैसे, और प्रज्ञा में एक जैसे! लेकिन उनमें एक भोजनदाता था, जबकि दूसरा नहीं। और वे दोनों मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हो। तब उनके देवता बनने पर, क्या दोनों में कोई अंतर, कोई भेद होगा?”
“हाँ, सुमन! जो भोजनदाता था, वह देवता बनने पर दूसरे को पाँच क्षेत्रों में पीछे छोड़ देगा — दिव्य दीर्घायुता, दिव्य सौंदर्यता, दिव्य सुख, दिव्य प्रतिष्ठा, और दिव्य शक्ति …”
“और, भन्ते! यदि वे दोनों वहाँ से च्युत होकर, पुनः इस लोक में उत्पन्न हो। तब उनके पुनः मनुष्य बनने पर, क्या दोनों में कोई अंतर, कोई भेद होगा?”
“हाँ, सुमन! जो भोजनदाता था, वह पुनः मनुष्य बनने पर दूसरे को पुनः पाँच क्षेत्रों में पीछे छोड़ देगा — मानवीय दीर्घायुता, मानवीय सौंदर्यता, मानवीय सुख, मानवीय प्रतिष्ठा, और मानवीय शक्ति …”
“और भन्ते! यदि वे संन्यास ग्रहण कर, घर से बेघर होकर भिक्षु बन जाए। तब उनके प्रवज्यित होने पर, क्या दोनों में कोई अंतर, कोई भेद होगा?”
“हाँ, सुमन! जो भोजनदाता था, वह प्रवज्या ग्रहण करने पर दूसरे को पुनः पाँच क्षेत्रों में पीछे छोड़ देगा — अक्सर उसे नए चीवर को ग्रहण करने की विनंती की जाएगी, विरल ही होगा कि उसे न पूछा जाए। अक्सर उसे भोजन ग्रहण करने की विनंती की जाएगी, विरल ही होगा कि उसे न पूछा जाए। अक्सर उसे नए निवास को ग्रहण करने की विनंती की जाएगी, विरल ही होगा कि उसे न पूछा जाए। अक्सर उसे रोगावश्यक औषधि-भेषज्य को ग्रहण करने की विनंती की जाएगी, विरल ही होगा कि उसे न पूछा जाए। अक्सर ब्रह्मचारी साथी उससे सुखद कार्य से… सुखद वाणी से… सुखद विचार से बर्ताव करेंगे… उसे सुखद उपहार भेंट करेंगे, विरल ही होगा कि उससे असुखद कार्य, वाणी और विचार से बर्ताव हो, या सुखद उपहार भेंट न हो।”
“और, भन्ते! यदि वे दोनों ही अर्हंतपद प्राप्त करें। तब अर्हंतपद प्राप्त करने पर, क्या दोनों में कोई अंतर, कोई भेद होगा?”
“तब, सुमन, उस मामले में कहता हूँ कि दोनों की विमुक्ति में न कोई अंतर होगा, न कोई भेद।”
“आश्चर्य है, भन्ते, अद्भुत है! भोजन देने का, पुण्य करने का यही कारण पर्याप्त है कि देवता बनने पर लाभदायक हो, मनुष्य बनने पर लाभदायक हो, या संन्यास ग्रहण करने पर भी लाभदायक हो!”
“ऐसा ही है, सुमन! ऐसा ही है! भोजन देने का, पुण्य करने का यही कारण पर्याप्त है कि देवता बनने पर लाभदायक होता है, मनुष्य बनने पर लाभदायक होता है, या संन्यास ग्रहण करने पर भी लाभदायक होता है!”
ऐसा भगवान ने कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा:
— अंगुत्तरनिकाय ५:३१ : सुमनसुत्त
भगवान ने कहा, “पाँच तरह के दान — महादान है, आदिम है, सनातन है, पारंपरिक है, पुरातन है, मिलावट-रहित है, प्रारंभ से मिलावट-रहित है, संदेह-रहित है, संदेह-रहित ही रहेंगे, विद्वान श्रमण-ब्राह्मण द्वारा निर्दोष कहे जाते हैं। कौन-से पाँच?
• कोई आर्यश्रावक हिंसा त्याग कर, जीवहत्या से विरत रहता है। ऐसा कर वह असंख्य सत्वों को ख़तरे से मुक्ति, शत्रुता से मुक्ति, और पीड़ा से मुक्ति प्रदान करता है। वह असंख्य सत्वों को ख़तरे से मुक्ति, शत्रुता से मुक्ति, और पीड़ा से मुक्ति प्रदान कर, स्वयं ख़तरे, शत्रुता और पीड़ा से असीम मुक्ति में भागीदार बनता है।
• कोई आर्यश्रावक न सौंपी चीज़ें त्याग कर, चोरी से विरत रहता है…
• कोई आर्यश्रावक कामुक मिथ्याचार त्याग कर, व्यभिचार से विरत रहता है…
• कोई आर्यश्रावक झूठ बोलना त्याग कर, असत्यवचन से विरत रहता है…
• कोई आर्यश्रावक शराब मद्य आदि त्याग कर, मदहोश करने वाले नशेपते से विरत रहता है। ऐसा कर वह असंख्य सत्वों को ख़तरे से मुक्ति, शत्रुता से मुक्ति, और पीड़ा से मुक्ति प्रदान करता है। वह असंख्य सत्वों को ख़तरे से मुक्ति, शत्रुता से मुक्ति, और पीड़ा से मुक्ति प्रदान कर स्वयं ख़तरे, शत्रुता और पीड़ा से असीम मुक्ति में भागीदार बनता है।
ये पाँच तरह के दान — महादान है, आदिम है, सनातन है, पारंपरिक है, पुरातन है, मिलावटरहित है, प्रारंभ से मिलावटरहित है, संदेहरहित है, संदेहरहित ही रहेंगे, विद्वान श्रमणों और ब्राह्मणों द्वारा निर्दोष कहे जाते हैं।”
— अंगुत्तरनिकाय ८:३९ : अभिसन्दसुत्त
भगवान ने कहा, “बुद्धिमान काया से सदाचार करते हुए, वाणी से सदाचार करते हुए, और मन से सदाचार करते हुए मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजता है। अब, यदि कोई उचित तरह से बोल पड़े, “अत्यंत इच्छित! अत्यंत प्रिय! अत्यंत मनचाहा!”, तब ऐसा कहना स्वर्ग के बारे में उचित होगा। यहाँ तक कि भिक्षुओं, स्वर्ग के सुख की उपमा भी देना सरल नहीं है।”
तब किसी ने कहा, “किंतु, भन्ते! क्या तब भी कोई उपमा दी जा सकती है?”
“दी जा सकती है! कल्पना करो कि कोई चक्रवर्ती सम्राट हो, सात रत्नों और चार शक्तियों से संपन्न, और वह उनकी वजह से सुख और खुशी का अनुभव करता हो।
सात रत्न क्या होते हैं?
• जब कोई क्षत्रिय राजा, राजतिलक हुआ नरेश, पूर्णिमा उपोसथ के दिन सिर धोकर महल के ऊपरी उपोसथकक्ष में जाता है। तब वहाँ, दिव्य चक्ररत्न प्रादुर्भुत होता है — हजार तीली के साथ, नेमी के साथ, नाभी के साथ, अपने सम्पूर्ण आकार की परिपूर्णता के साथ! उसे देख कर उस क्षत्रिय राजा, राजतिलक हुए नरेश को लगता है, “अब मैने यह सुना है कि जब कोई क्षत्रिय राजा, राजतिलक हुआ नरेश, पूर्णिमा उपोसथ के दिन सिर धोकर महल के ऊपरी उपोसथकक्ष में जाए, और यदि वहाँ दिव्य चक्ररत्न प्रादुर्भुत हो — हजार तीली के साथ, नेमी के साथ, नाभी के साथ, अपने सम्पूर्ण आकार की परिपूर्णता के साथ — तब वह राजा ‘चक्रवर्ती सम्राट’ बनता है। क्या तब मैं चक्रवर्ती सम्राट बनूँगा?”
तब वह क्षत्रिय राजा, राजतिलक हुआ नरेश, अपने आसन से उठ कर बाए हाथ में जलपात्र ले, दाएँ हाथ से उस चक्ररत्न पर जल छिड़कते हुए कहता है, “प्रवर्तन करो, श्री चक्ररत्न! सर्वविजयी हो, श्री चक्ररत्न!”
तब वह चक्ररत्न प्रवर्तित होते [=घूमते] पूर्व-दिशा में आगे बढ़ने लगता है। और चक्रवर्ती सम्राट, अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ, उसका पीछा करता है। वह चक्ररत्न जिस प्रदेश में थम जाएँ, वहाँ चक्रवर्ती सम्राट अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ आवास लेता है। तब पूर्व-दिशा के विरोधी राजा आकर चक्रवर्ती सम्राट को कहते हैं, “आईयें, महाराज! स्वागत है, महाराज! आज्ञा करें, महाराज! आदेश दें, महाराज!”
चक्रवर्ती सम्राट कहता है, “जीवहत्या ना करें! चोरी ना करें! व्यभिचार ना करें! झूठ ना बोलें! मद्य ना पिएँ! [इसके अलावा] जो खाते हैं, खाएँ!” तब पूर्व-दिशा के विरोधी राजा चक्रवर्ती सम्राट के आगे समर्पण करते हैं।
इस तरह, चक्ररत्न आगे बढ़ते हुए पूर्वी महासमुद्र में डुबकी लगाकर पुनः उबरता है, और प्रवर्तित होते दक्षिण-दिशा में आगे बढ़ने लगता है। और चक्रवर्ती सम्राट अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उसका पीछा करता है।… तब दक्षिण-दिशा के विरोधी राजा चक्रवर्ती सम्राट के आगे समर्पण करते हैं। तब चक्ररत्न आगे बढ़ते हुए दक्षिण महासमुद्र में डुबकी लगाकर पुनः उबरता है, और प्रवर्तित होते पश्चिम-दिशा में आगे बढ़ने लगता है। और चक्रवर्ती सम्राट अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उसका पीछा करता है।… तब पश्चिम-दिशा के विरोधी राजा चक्रवर्ती सम्राट के आगे समर्पण करते हैं। तब चक्ररत्न आगे बढ़ते हुए पश्चिम महासमुद्र में डुबकी लगाकर पुनः उबरता है, और प्रवर्तित होते उत्तर-दिशा में आगे बढ़ने लगता है। और चक्रवर्ती सम्राट अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उसका पीछा करता है।… तब उत्तर-दिशा के विरोधी राजा चक्रवर्ती सम्राट के आगे समर्पण करते हैं।
इस तरह, चक्ररत्न पृथ्वी पर महासमुद्रों तक सर्वविजयी होकर राजधानी लौटता है, और चक्रवर्ती सम्राट के राजमहल में अंतःपुर द्वार के ऊपर अक्ष लगाकर थम जाता है, जैसे अंतःपुर द्वार की शोभा बढ़ा रहा हो। ऐसा होता है चक्ररत्न, जो चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रादुर्भूत होता है।
• फिर, चक्रवर्ती सम्राट के लिए हाथीरत्न प्रादुर्भुत होता है — संपूर्ण सफ़ेद, सात तरह से प्रतिस्थापित, ऋद्धिमानी, आकाश से भ्रमण करने वाला, ‘उपोसथ’ नामक हाथीराज! उसे देखते ही चक्रवर्ती सम्राट के चित्त में विश्वास प्रकट होता है, “बहुत शुभ होगी इस हाथी की सवारी, जो यह काबू में आए!” तब हाथीरत्न काबू में आ जाता है, जैसे कोई उत्कृष्ट जाति का राजसी हाथी दीर्घकाल तक भलीभांति काबू में रहा हो। और चक्रवर्ती सम्राट हाथीरत्न को परखने के लिए उस पर सुबह में सवार हो जाता है, और संपूर्ण पृथ्वी का महासमुद्र तक भ्रमण कर प्रातः आहार [नाश्ते] के समय तक राजधानी लौट आता है। ऐसा होता है हाथीरत्न, जो चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रादुर्भूत होता है।
• फिर, चक्रवर्ती सम्राट के लिए अश्वरत्न प्रादुर्भुत होता है — संपूर्ण सफ़ेद, चमकता काला सिर, मूँज की घास जैसे अयाल [=गर्दन के बाल], ऋद्धिमानी, आकाश से भ्रमण करने वाला, ‘वलाहक’ [=गर्जनमेघ] नामक अश्वराज! उसे देखते ही चक्रवर्ती सम्राट के चित्त में विश्वास प्रकट होता है, “बहुत शुभ होगी इस घोड़े की सवारी, जो यह काबू में आए!” तब अश्वरत्न काबू में आ जाता है, जैसे कोई उत्कृष्ट जाति का राजसी घोड़ा दीर्घकाल तक भलीभांति काबू में रहा हो। और चक्रवर्ती सम्राट अश्वरत्न को परखने के लिए उस पर सुबह में सवार हो जाता है, और संपूर्ण पृथ्वी का महासमुद्र तक भ्रमण कर प्रातः आहार [नाश्ते] के समय तक राजधानी में लौट आता है। ऐसा होता है अश्वरत्न, जो चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रादुर्भूत होता है।
• फिर, चक्रवर्ती सम्राट के लिए मणिरत्न प्रादुर्भुत होता है — वैदुर्य मणि, शुभ जाति का, अष्टपहलु, सुपरिष्कृत! उस मणिरत्न की आभा एक योजन [=लगभग १६ किलोमीटर] तक फैलती है। और चक्रवर्ती सम्राट मणिरत्न को परखने के लिए, उसे राजध्वज के शीर्ष पर नियुक्त कर, रात के घोर अंधकार में अपनी चार अंगोवाली सेना की व्यूहरचना में आगे बढ़ता है। तब उसकी आभा को दिन समझते हुए आसपास के सभी गांवों की जनता दिवसकार्य शुरू कर देते हैं। ऐसा होता है मणिरत्न, जो चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रादुर्भूत होता है।
• फिर, चक्रवर्ती सम्राट के लिए स्त्रीरत्न प्रादुर्भुत होता है — अत्यंत रुपमती, सुहावनी, सजीली, परमवर्ण और परमसौंदर्य से संपन्न! न बहुत लंबी, न बहुत नाटी, न बहुत पतली, न बहुत मोटी, न बहुत साँवली, न बहुत गोरी! मानव-सौंदर्यता लांघ चुकी, किंतु दिव्य-सौंदर्यता न प्राप्त की! उस स्त्रीरत्न का काया स्पर्श ऐसा लगता है, जैसे रूई या रेशम का गुच्छा हो! उस स्त्रीरत्न के अंग शीतकाल में उष्ण रहते हैं और उष्णकाल में शीतल! उस स्त्रीरत्न की काया से चंदन-सी गन्ध आती है, तथा मुख से कमलपुष्प-सी गन्ध। वह स्त्रीरत्न चक्रवर्ती सम्राट के पूर्व उठती, पश्चात सोती, सेवा के लिए लालायित रहती, मनचाहा आचरण करती, तथा प्रिय बातें करती है। वह स्त्रीरत्न चक्रवर्ती सम्राट के प्रति निष्ठा [=वफ़ा] का मन से भी उल्लंघन नहीं करती, तो काया से कैसे करेगी? ऐसा होता है स्त्रीरत्न, जो चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रादुर्भूत होता है।
• फिर, चक्रवर्ती सम्राट के लिए गृहस्थरत्न प्रादुर्भुत होता है — जिसे पूर्वकर्म के फ़लस्वरूप दिव्यचक्षु प्राप्त होता है, जिससे वह छिपे हुए खज़ाने, मालकियत अथवा बिना मालकियत वाले, देख पाता है। वह गृहस्थरत्न चक्रवर्ती सम्राट के पास जाकर कहता है, “महाराज, आप निश्चिंत रहें! मैं आपके धनदौलत की देखभाल करूँगा!” और चक्रवर्ती सम्राट गृहस्थरत्न को परखने के लिए उसे नाँव में साथ लेकर गंगा नदी की सैर पर निकलता है, और बीच नदी में कहता है, “गृहस्थ, मुझे स्वर्णचांदी का ढेर चाहिए!”
“महाराज! तब नाँव को एक किनारे लगने दें!”
“दरअसल गृहस्थ, मुझे स्वर्णचांदी का ढेर ‘अभी इसी जगह’ चाहिए!”
तब, गृहस्थरत्न अपने दोनों हाथों को जल में डुबोता है, स्वर्णचांदी से भरी हाँडी निकालता है, और चक्रवर्ती सम्राट को कहता है, “महाराज, इतना पर्याप्त है? क्या इतना करना पर्याप्त है? क्या इतनी अर्पित मात्रा पर्याप्त है?”
“इतना पर्याप्त है, गृहस्थ! इतना करना पर्याप्त है! इतनी अर्पित मात्रा पर्याप्त है!” ऐसा होता है गृहस्थरत्न, जो चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रादुर्भूत होता है।
फिर, चक्रवर्ती सम्राट के लिए सलाहकाररत्न प्रादुर्भुत होता है — विद्वान, ज्ञानी, मेधावी, सक्षम! जो चक्रवर्ती सम्राट को आगे बढ़ने-योग्य अवसर में आगे बढ़ाता, छोड़ने-योग्य अवसर में छुड़वाता, स्थापित-योग्य अवसर में स्थापित कराता! वह सलाहकाररत्न चक्रवर्ती सम्राट के पास जाकर कहता है, “महाराज, आप निश्चिंत रहें! मैं निर्देशित करूँगा!” ऐसा होता है सलाहकाररत्न, जो चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रादुर्भूत होता है। चक्रवर्ती सम्राट ऐसे सप्तरत्नों से संपन्न होता है।
और, चार शक्तियाँ क्या होती हैं?
• चक्रवर्ती सम्राट अत्यंत रूपवान, आकर्षक, सजीला, परमवर्ण से संपन्न होता है, अन्य किसी भी मनुष्य से परे! यह चक्रवर्ती सम्राट की प्रथम शक्ति होती है।
• चक्रवर्ती सम्राट दीर्घायु होता है, दीर्घकाल तक बने रहता है, अन्य किसी भी मनुष्य से परे! यह चक्रवर्ती सम्राट की द्वितीय शक्ति होती है।
• चक्रवर्ती सम्राट निरोगी बने रहता है, रोगमुक्त और पाचनक्रिया सम बने रहती है, न बहुत शीतल, न बहुत उष्ण, अन्य किसी भी मनुष्य से परे! यह चक्रवर्ती सम्राट की तृतीय शक्ति होती है।
• चक्रवर्ती सम्राट ब्राह्मणों और [वैश्य] गृहस्थों का प्रिय और पसंदीदा होता है। जैसे पिता अपनी संतान के लिए प्रिय और पसंदीदा होता है, उसी तरह, चक्रवर्ती सम्राट ब्राह्मणों और गृहस्थों के लिए प्रिय और पसंदीदा होता है। ब्राह्मण और गृहस्थ भी चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रिय और पसंदीदा होते हैं। जैसे संतान अपने पिता के लिए प्रिय और पसंदीदा होते हैं, उसी तरह, ब्राह्मण और गृहस्थ भी चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रिय और पसंदीदा होते हैं। जब चक्रवर्ती सम्राट, अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ, उद्यानभूमि से गुज़रता है, तब ब्राह्मण और गृहस्थ उसके पास जाकर कहते हैं, “महाराज, मंद गति से गुज़रे! ताकि हम आपको देर तक देख सकें!” तब चक्रवर्ती सम्राट अपने रथसारथी को आदेश देता है, “सारथी, मंद गति से चलो! ताकि हमें ब्राह्मण और गृहस्थ देर तक देख सकें!” यह चक्रवर्ती सम्राट की चतुर्थ शक्ति होती है।
तो क्या लगता हैं? क्या चक्रवर्ती सम्राट सप्तरत्नों और चार शक्तियों से संपन्न होकर सुख और खुशी का अनुभव करेगा?”
“भन्ते! चक्रवर्ती सम्राट किसी एक रत्न से भी अत्यंत सुख और खुशी का अनुभव करेगा! सप्तरत्नों और चार शक्तियों से संपन्न होने की बात ही क्या!”
तब भगवान ने एक पत्थर उठाया और कहा, “तो क्या लगता है? क्या बड़ा है — मेरे हाथ का यह पत्थर, अथवा पर्वतराज हिमालय?”
“भन्ते! भगवान ने जो पत्थर उठाया, वह पर्वतराज हिमालय के आगे गिना भी नहीं जाएगा! वह एक अंश भी नहीं है! दोनों में कोई तुलना ही नहीं है!”
“उसी तरह, जो चक्रवर्ती सम्राट सप्तरत्नों और चार शक्तियों से संपन्न होकर सुख और खुशी का अनुभव करेगा, वह स्वर्गिक सुख के आगे गिने भी न जाएँगे! वह एक अंश भी नहीं है! दोनों में कोई तुलना ही नहीं है!”
— मज्झिमनिकाय १२९ : बालपण्डितसुत्त
एक समय भगवान शाक्यों के साथ कपिलवस्तु में बरगद-विहार में रह रहे थे। तब (चचेरा भाई) महानाम शाक्य भगवान के पास गया, और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गया। एक-ओर बैठकर उसने भगवान से कहा, “भन्ते, मैं भगवान के द्वारा दीर्घकाल तक सिखाएँ धर्म को इस तरह जानता हूँ कि ‘लोभ चित्त का दूषण होता है, द्वेष चित्त का दूषण होता है, और भ्रम चित्त का दूषण होता है।’ इस तरह, मैं यह सब जानता हूँ! तब भी, कभी-कभी मेरे चित्त में लोभ स्वभाव, द्वेष स्वभाव, या भ्रम स्वभाव घुस कर बैठ जाता है। तब, मैं सोचता हूँ कि ‘आख़िर कौन-सा धर्म अब तक मेरे भीतर से छूटा नहीं, जिसकी वजह से कभी-कभी मेरे चित्त में ‘लोभ, द्वेष और भ्रम’ घुसकर बैठ जाता है?”
“महानाम! वे (लोभ, द्वेष और भ्रम) ही हैं, जो तुम्हारे भीतर से छूटे नहीं, जिसकी वजह से कभी-कभी तुम्हारे चित्त में लोभ स्वभाव, द्वेष स्वभाव, या भ्रम स्वभाव घुस कर बैठ जाता है। क्योंकि यदि वे तुम्हारे भीतर से छूटे चुके होते, तो तुम आज गृहस्थी-जीवन न जीते और कामभोग न करते। चूँकि, वे ही तुम्हारे भीतर से छूटे नहीं हैं, इसलिए आज तुम गृहस्थी-जीवन जीते हो और कामभोग भी करते हो।
और, महानाम, कामुकता का प्रलोभन क्या हैं? ये पाँच कामसुख होते हैं। आँख पर टकराता रूप — जो मनचाहा हो, सुखद लगे, मोहक हो, प्रिय लगे, लुभावना हो, कामुकता से जुड़ा हो। कान से टकराती आवाज… नाक से टकराती गंध… जीभ से टकराता स्वाद… और शरीर से टकराता संस्पर्श — जो मनचाहा हो, सुखद लगे, मोहक हो, प्रिय लगे, लुभावना हो, कामुकता से जुड़ा हो। अब, जो भी सुख और खुशी इन पाँच कामसुख के आधार पर उत्पन्न होती है, वही कामुकता का प्रलोभन है।
और, कामुकता में ख़ामी क्या है?
• ऐसा होता है कि कोई कुलपुत्र कोई कार्य कर के जीविका कमाता है — चाहे खेती, व्यवसाय, पशुपालन, तीरंदाजी, सरकारी कामकाज, अथवा कोई शिल्पकारी हो। तब उसे जीविका कमाते समय ठंडी लगती है, गर्मी लगती है, मक्खियाँ, मच्छर, पवन, धूप, बिच्छु, साँप आदि के संस्पर्श से परेशान होता रहता है। भूख-प्यास से मरता हुआ, वह अपनी जीविका कमाता है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण कामुकता है, उसका स्त्रोत कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• अब, यदि कोई कुलपुत्र अपनी मेहनत से, कार्यशीलता से, प्रयास से, बाहों के बल से, पसीना बहाकर भोगसंपदा प्राप्त न कर पाए — तो वह अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है, “हाय! मेरी सारी मेहनत पानी में गई! सारा परिश्रम व्यर्थ गया!” यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• अब, यदि कोई कुलपुत्र अपनी मेहनत से, कार्यशीलता से, प्रयास से, बाहों के बल से, पसीना बहाकर भोगसंपदा प्राप्त करें — तब उसकी रक्षा करते हुए, उसे पीड़ा और व्यथा होती है, “कही मेरी इस भोगसंपदा को सरकार या चोर न लूट लें, या आग न जला दे, या बाढ़ न बहा दे, या नालायक वारिस न बर्बाद कर दे!” यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• अब, यदि कोई कुलपुत्र अपनी भोगसंपदा की रक्षा करते हुए देखता है कि उसकी भोगसंपदा को सरकार या चोर लूट लेती है, या आग जला देती है, या बाढ़ बहा देती है, या नालायक वारिस बर्बाद कर देता है, तो वह अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है, “हाय! जो मेरा था, अब नहीं रहा!’ यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि राजा राजा से लड़ता है, क्षत्रिय क्षत्रिय से लड़ता है, ब्राह्मण ब्राह्मण से लड़ता है, (वैश्य) गृहस्थ गृहस्थ से लड़ता है, माँ पुत्र से लड़ती है, पुत्र माँ से लड़ता है, बाप पुत्र से लड़ता है, पुत्र बाप से लड़ता है, भाई भाई से लड़ता है, भाई बहन से लड़ता है, बहन भाई से लड़ती है, बहन बहन से लड़ती है, और मित्र मित्र से लड़ता है। और, तब वे लड़ते, झगड़ते, विवाद करते हुए एक-दूसरे पर हाथ उठाते हैं, पत्थर उठाते हैं, डंडा, छुरी या शस्त्र से हमला करते हैं। और तब, इस कलह में मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग हाथों में ढ़ाल और तलवार पकड़े, धनुष में तीर चढ़ाकर, दोनों-ओर से व्यूहरचित युद्ध में आक्रमण करते हुए दौड़ पड़ते हैं। और वहाँ तीर व भालें उड़ते हैं, तलवारें चमकती हैं, तीर और भाले बींधते हुए लोगों को घायल करते हैं, तलवारों से सिर काटे जाते हैं। और तब, इस युद्ध में मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग हाथों में ढ़ाल और तलवार पकड़े, धनुष में तीर चढ़ाकर, ऊँचे फ़िसलनभरे किल्लों पर आक्रमण करते हुए दौड़ पड़ते हैं। और वहाँ तीर व भालें उड़ते हैं, तलवारें चमकती हैं, तीर और भाले बींधते हुए लोगों को घायल करते हैं, ऊपर से उबलता हुआ गर्म ग़ोबर गिराया जाता है, भारी चट्टान गिराकर कुचला जाता है, तलवारों से सिर काटे जाते हैं। और तब, इस युद्ध में मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग खिड़कियाँ तोड़कर चोरी करते हैं, लूटते हैं, डाका डालते हैं, मार्ग पर घात लगाते हैं, व्यभिचार करते हैं। और, जब उन्हें गिरफ्तार किया जाता है तो सरकार उन्हें दंडस्वरूप तरह-तरह से यातनाएँ देती है — जैसे चाबुक़ से पीटती है, कोड़े लगाती है, मुग्दर, बेंत या डंडे से पीटती है। हाथ काट देती है, पैर काट देती है, हाथ और पैर दोनों काट देती है। कान काट देती है, नाक काट देती है, कान और नाक दोनों काट देती है। खोपड़ी निकालकर गर्म लोहा दाल देती है। सिर की चमड़ी उतार कर खोपड़ी को कंकड़ों से रगड़ती है। चिमटे से मुँह खुलवा कर भीतर अँगारें या दीपक जला देती है। शरीर पर तेलबत्ती लपेट कर आग लगा देती है। हाथ पर तेलबत्ती लपेट कर आग लगा देती है। गले से कलाई तक की चमड़ी खींचकर उतार देती है। गले से कुल्हे तक की चमड़ी भी खींचकर उतार देती है। कोहनियों और घुटनों में खूँटा ठोक कर ज़मीन पर लिटा देती है। दोनों-ओर से नुक़िले काँटे घुसेड़ कर चमड़ी, माँस और नसें नचोट लेती है। सारे शरीर की चमड़ी को सिक्के-सिक्के भर छिलवा देती है। शरीर को पीट-पीटकर उस पर कंघी फेरती है, एक-करवट लिटाकर कानों में खूँटा गाड़ देती है। चमड़ी को बिना हानि पहुँचाये भीतर हड्डी पीस देती है। उबलता हुआ तेल डालती है। कुत्तों द्वारा नोच-नोचकर उनका भोजन बना देती है। खूँटी घुसाकर सुली पर लटका देती है। और तलवार से सिर काट देती है। और तब, इसमें मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• और आगे, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग काया से दुराचार करते हैं, वाणी से दुराचार करते हैं, मन से दुराचार करते हैं। और दुराचार में लिप्त होकर मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजते हैं। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो अगले जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
और, कामुकता से बचने का मार्ग क्या है? कामुकता के प्रति चाहत और दिलचस्पी को हटा देना, उसे त्याग देना — यही कामुकता से बचने का मार्ग है।
— मज्झिमनिकाय १४ : चूळदुक्खक्खन्ध सुत्त
ब्राह्मण जाणुस्सोणि भगवान के पास गया, और मैत्रीपूर्ण वार्तालाप करते हुए एक-ओर बैठ गया। एक-ओर बैठकर उसने भगवान से कहा, “मैं यह मानता हूँ, यह धारण करता हूँ कि दुनिया में ऐसा कोई नहीं है, जो मरण-स्वभाव से घिरा हो, किन्तु मरण से भयभीत न हो, आतंकित न हो।”
भगवान ने कहा, “ऐसे लोग हैं, जो मरण-स्वभाव से घिरे हैं, और मरण से भयभीत होते हैं, आतंकित होते हैं। और ऐसे भी लोग हैं, जो मरण-स्वभाव से घिरे हैं, किन्तु मरण से भयभीत नहीं होते हैं, आतंकित नहीं होते हैं। ऐसे कौन हैं, जो मरण-स्वभाव से घिरे हैं, और मरण से भयभीत होते हैं, आतंकित होते हैं?
• ऐसा कोई व्यक्ति हो, जिसने कामुकता के लिए अपनी दिलचस्पी, चाहत, आसक्ति, प्यास, ताप, और तृष्णा को त्यागा न हो। उसे कोई गंभीर रोग लगता है। तो वह सोचता है, “हाय! ये मनचाही कामुकता मुझसे ले ली जाएगी, और मैं उससे जुदा हो जाऊँगा!” तब, वह अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है। इस तरह का व्यक्ति, जो मरण-स्वभाव से घिरा है, मरण से भयभीत होता है, आतंकित होता है।
• और, ऐसा कोई व्यक्ति हो, जिसने काया के लिए अपनी दिलचस्पी, चाहत, आसक्ति, प्यास, ताप, और तृष्णा को त्यागा न हो। उसे कोई गंभीर रोग लगता है। तो वह सोचता है, “हाय! ये प्यारा शरीर मुझसे ले लिया जाएगा, और मैं उससे जुदा हो जाऊँगा!” तब, वह अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है। इस तरह का व्यक्ति, जो मरण-स्वभाव से घिरा है, मरण से भयभीत होता है, आतंकित होता है।
• और, ऐसा कोई व्यक्ति हो, जिसने कल्याणकर्म न किए हो, कुशलकर्म न किए हो, भयभीत को आसरा न दिया हो। बल्कि उसने पाप किए हो, क्रूरता और गलतियाँ की हो। उसे कोई गंभीर रोग लगता है। तो वह सोचता है, “हाय! मैने न कल्याणकर्म किए, न कुशलकर्म किए, न ही भयभीत को आसरा दिया। बल्कि मैने पाप किए है, क्रूरता की है, और अनेक गलतियाँ की है! अब, जो लोग कल्याण नहीं करते, कुशल नहीं करते, भयभीत को आसरा नहीं देते; बल्कि पाप, क्रूरता और गलतियाँ करते हैं, उनकी जो गति होती है, वही मेरी भी गति होगी!” तब, वह अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है। इस तरह का व्यक्ति, जो मरण-स्वभाव से घिरा है, मरण से भयभीत होता है, आतंकित होता है।
• और, ऐसा कोई व्यक्ति हो, जो शंका और संदेह में फँसा हो, जो सच्चाई और धर्म को लेकर निश्चित निष्कर्ष पर न पहुँचा हो। उसे कोई गंभीर रोग लगता है। तो वह सोचता है, “हाय! कितना उलझा हुआ, मैं भ्रांतियों में पड़ा हूँ! मैं सच्चाई और धर्म को लेकर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया!” तब, वह अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है। इस तरह का व्यक्ति, जो मरण-स्वभाव से घिरा है, मरण से भयभीत होता है, आतंकित होता है।
इस तरह, ब्राह्मण, ये चार तरह के लोग होते हैं, जो मरण-स्वभाव से घिरे हैं, और मरण से भयभीत होते हैं, आतंकित होते हैं। आर, ऐसे कौन हैं, जो मरण-स्वभाव से घिरे हैं, किन्तु मरण से भयभीत नहीं होते हैं, आतंकित नहीं होते हैं?
• ऐसा कोई व्यक्ति हो, जिसने कामुकता के लिए अपनी दिलचस्पी, चाहत, आसक्ति, प्यास, ताप, और तृष्णा को त्याग दिया हो। उसे कोई गंभीर रोग लगता है। तो वह ऐसा नहीं सोचता है, “हाय! ये मनचाही कामुकता मुझसे ले ली जाएगी, और मैं उससे जुदा हो जाऊँगा!” तब वह न अफ़सोस करता है, न ढ़ीला पड़ता है, न विलाप करता है, न छाती पीटता है, न ही बावला हो जाता है। इस तरह का व्यक्ति, जो मरण-स्वभाव से घिरा है, मरण से भयभीत नहीं होता है, आतंकित नहीं होता है।
• और, ऐसा कोई व्यक्ति हो, जिसने काया के लिए अपनी दिलचस्पी, चाहत, आसक्ति, प्यास, ताप, और तृष्णा को त्याग दिया हो। उसे कोई गंभीर रोग लगता है। तो वह ऐसा नहीं सोचता है, “हाय! ये प्यारा शरीर मुझसे ले लिया जाएगा, और मैं उससे जुदा हो जाऊँगा!” तब वह न अफ़सोस करता है, न ढ़ीला पड़ता है, न विलाप करता है, न छाती पीटता है, न ही बावला हो जाता है। इस तरह का व्यक्ति, जो मरण-स्वभाव से घिरा है, मरण से भयभीत नहीं होता है, आतंकित नहीं होता है।
• और, ऐसा कोई व्यक्ति हो, जिसने पाप न किए हो, क्रूरता और गलतियाँ न की हो। बल्कि उसने कल्याणकर्म किए हो, कुशलकर्म किए हो, भयभीत को आसरा दिया हो। उसे कोई गंभीर रोग लगता है। तो वह सोचता है, “मैंने पाप नहीं किए हैं। क्रूरता और गलतियाँ नहीं की हैं। बल्कि मैने कल्याणकर्म किए है, कुशलकर्म किए है, भयभीत को आसरा दिया है। अब, जो लोग पाप नहीं करते, क्रूरता और गलतियाँ नहीं करते हैं, बल्कि कल्याण करते हैं, कुशल करते हैं, भयभीत को आसरा देते हैं, उनकी जो गति होती है, वही मेरी भी गति होगी!” तब, वह न अफ़सोस करता है, न ढ़ीला पड़ता है, न विलाप करता है, न छाती पीटता है, न ही बावला हो जाता है। इस तरह का व्यक्ति, जो मरण-स्वभाव से घिरा है, मरण से भयभीत नहीं होता है, आतंकित नहीं होता है।
• और, ऐसा कोई व्यक्ति हो, जिसे कोई शंका और संदेह न हो, जो सच्चाई और धर्म को लेकर निश्चित निष्कर्ष पर पहुँच चुका हो। उसे कोई गंभीर रोग लगता है। तो वह सोचता है, “मुझे कोई शंका या संदेह नहीं है। बल्कि मैं सच्चाई और धर्म को लेकर निश्चित निष्कर्ष पर पहुँच चुका हूँ!” तब, वह न अफ़सोस करता है, न ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, न छाती पीटता है, न ही बावला हो जाता है। इस तरह का व्यक्ति, जो मरण-स्वभाव से घिरा है, मरण से भयभीत नहीं होता है, आतंकित नहीं होता है।
इस तरह, ब्राह्मण, ये चार तरह के लोग होते हैं, जो मरण-स्वभाव से घिरे हैं, किन्तु मरण से भयभीत नहीं होते हैं, आतंकित नहीं होते हैं।
— अंगुत्तरनिकाय ४:१८४ : अभय सुत्त
एक समय भगवान कौशाम्बी के शीशम-वन में रहते थे। उन्होंने हाथ में शीशम के कुछ पत्ते लेकर कहा, “क्या लगता है, तुम्हें? क्या अधिक है? मेरे हाथ के पत्ते, या समस्त शीशम-वन को आच्छादित किए हुए पत्ते?”
“भंते, आपके हाथ में पत्ते थोड़े से है, किंतु शीशमवन को आच्छादित किए पत्ते अत्याधिक हैं।”
“उसी तरह, मुझे अत्याधिक ज्ञान प्राप्त हुआ, किन्तु जिसे मैंने प्रकट नहीं किया है। क्यों प्रकट नहीं किया? क्योंकि, वह ध्येय से संबंधित नहीं है, ब्रह्मचर्य मूल से संबंधित नहीं है, उनसे न मोहभंग होता है, न वैराग्य होता है, न निरोध होता है, न प्रशान्ति मिलती है, न प्रत्यक्ष ज्ञान मिलता है, न संबोधि मिलती है, और न ही निर्वाण मिलता है। इसलिए, मैंने उसे प्रकट नहीं किया है।
और मैंने क्या प्रकट किया है? मैंने प्रकट किया — ‘दुःख है’, ‘दुःख की उत्पत्ति है’, ‘दुःख का अन्त है’, और ‘दुःख का अन्तकर्ता मार्ग है’। उसे क्यों प्रकट किया? क्योंकि, वह ध्येय से संबंधित है, ब्रह्मचर्य मूल से संबंधित है, उससे मोहभंग होता है, वैराग्य होता है, निरोध होता है, प्रशान्ति मिलती है, प्रत्यक्ष ज्ञान मिलता है, संबोधि मिलती है, निर्वाण मिलता है। इसलिए, मैंने उसे प्रकट किया है।
दुःख क्या है?
जन्म दुःख (=तनावपूर्ण, कष्टपूर्ण या व्यथापूर्ण) है, बुढ़ापा दुःख है, मौत दुःख है। शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा दुःख हैं। अप्रिय से जुड़ाव दुःख है, प्रिय से अलगाव दुःख है। इच्छापूर्ति न होना दुःख है। संक्षिप्त में, पाँच उपादानस्कंध (=आसक्ति संग्रह) दुःख हैं।
अर्थात, रूप आसक्ति संग्रह, संवेदना आसक्ति संग्रह, संज्ञा आसक्ति संग्रह, रचना आसक्ति संग्रह, और विज्ञान आसक्ति संग्रह।
दुःख की उत्पत्ति क्या है?
यह तृष्णा है, जो पुनः पुनः बनाती है, मज़ा और दिलचस्पी के साथ आती है, यहाँ-वहाँ लुत्फ़ उठाती है। अर्थात काम तृष्णा (=इंद्रियसुख पाने की ललक), भव तृष्णा (=अस्तित्व बनाने या बनाएँ रखने की ललक), और विभव तृष्णा (=अस्तित्व मिटा देने की ललक।)
दुःख का अन्त क्या है?
उस तृष्णा का अशेष विराग होना, निरोध होना, त्याग दिया जाना, संन्यास लिया जाना, मुक्ति होना, आश्रय छूट जाना।
दुःख का अन्तकर्ता मार्ग क्या है?
बस यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही मेहनत, सही स्मृति, और सही समाधि।
• सही दृष्टि क्या है? दुःख की वास्तविकता पता रहना, दुःख उत्पत्ति की वास्तविकता पता रहना, दुःख अन्त की वास्तविकता पता रहना, और दुःख अन्तकर्ता मार्ग की वास्तविकता पता रहना।
• सही संकल्प क्या है? संन्यास का संकल्प, दुर्भावना मिटाने का संकल्प, अहिंसा का संकल्प।
• सही वचन क्या है? झूठ बोलने से विरत रहना, फूट डालने वाले वचन से विरत रहना, कटु वचन से विरत रहना, निरर्थक वचन से विरत रहना।
• सही कार्य क्या है? जीवहत्या से विरत रहना, चुराने से विरत रहना, अब्रह्मचर्य (=काम-स्वभाव) से विरत रहना।
• सही जीविका क्या है? मिथ्या-जीविका त्यागना, और समजीविका से अपना जीवन यापन करना।
• सही मेहनत क्या है? जो पापी अकुशल स्वभाव अभी प्रकट न हुआ हो — वह आगे भी प्रकट न हो, उसके लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । और, जो पापी अकुशल स्वभाव प्रकट हुआ हो — उसे त्यागने के लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । और, जो कुशल स्वभाव अभी प्रकट न हुआ हो — उसे प्रकट करने के लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । और, जो कुशल स्वभाव प्रकट हुआ हो — उसे बनाएँ रखने और बढ़ाने के लिए, उसमें वृद्धि और प्रचुरता लाने के लिए, उन्हें विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना ।
• सही स्मृति क्या है? काया को केवल काया देखते हुए रहना — तत्पर सचेत और स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाते हुए। संवेदना को केवल संवेदना देखते हुए रहना — तत्पर सचेत और स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाते हुए। चित्त को केवल चित्त देखते हुए रहना — तत्पर सचेत और स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाते हुए। स्वभाव को केवल स्वभाव देखते हुए रहना — तत्पर सचेत और स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाते हुए।
• सही समाधि क्या है? त्याग का आलंबन बनाकर समाधि लगाना और चित्त एकाग्र करना । कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहना। आगे सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहना। आगे प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करना। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहना। और आगे, सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहना।
— संयुत्तनिकाय ५६:३१ : सीसपावन सुत्त + ४५:८ : विभङगसुत्त