नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

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अध्यात्म

अध्यात्म जीवन क्यों?

हर इंसान के जीवन में ऐसा क्षण आता है जब मन में गहरे सवाल उठते हैं — “मैं कौन हूँ?” और “मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है?” चाहे जीवन कितना ही व्यस्त या सफ़ल क्यों न हो, भीतर कहीं न कहीं यह पुकार उभरने लगती है: “इस सबका अर्थ क्या है?” और “मेरे जीने का मकसद क्या है?”

ये सवाल केवल तात्कालिक जिज्ञासा या बौद्धिक चुनौती नहीं हैं। ये ऐसे सवाल नहीं हैं, जो किसी ज्ञानी से पुछकर या कोई किताब पढ़कर सुलझ जाएँ। भले ही बाहरी स्त्रोत से एक सुंदर उत्तर मिले जो कुछ समय के लिए बुद्धि को संतुष्ट कर दे। लेकिन ये सवाल भीतर से कुरेदना बंद नहीं करते हैं, जब तक इनका उत्तर आपके अपने अनुभव से न आ जाए।

ये सवाल हमारे अवचेतन मन की गहराइयों से अंकुरित होते हैं। इसलिए इन्हें बौद्धिक प्रयासों से न सुलझाया जा सकता हैं, न ही अनदेखा किया जा सकता हैं।

अक्सर लोग इनसे बचने का प्रयास करते हैं — वे इन्हें टालते हैं, खुद को बाहरी कामों में व्यस्त करते हैं, और कभी-कभी तो इनसे दूर भागने के लिए अति भौतिकवादी जीवनशैली में डूब जाते हैं। लेकिन जब भी वे शांत बैठते हैं, भीतर से एक अनजाना असंतोष, बेचैनी और निराशा महसूस करने लगते हैं। चाहे कितनी भी संपत्ति, प्रतिष्ठा या सफलता क्यों न मिल जाए, अंदरूनी अधूरापन बना रहता है, जिसे बाहरी साधनों से भरने की हर कोशिश नाकाम सिद्ध होती है।

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक विक्टर फ्रैंकल ने अपनी किताब “मैन्स सर्च फॉर मीनिंग” में कहा —

“भले ही इंसान को जीवन में सारी सुख-सुविधाएँ मिल जाएँ, लेकिन जीवन का अर्थ या उद्देश्य न पता चलें, तो वह हमेशा भीतर अधूरा या खोखला महसूस करता है।”

किसी किसी को इन सवालों से बचने की कोशिश की भारी कीमत चुकानी पड़ती है। अवसाद (डिप्रेशन), मध्य-जीवन संकट (मिडलाइफ क्राइसिस), टूटते हुए रिश्ते-परिवार, मानसिक रोग, और कभी-कभी लाइलाज बीमारियाँ भी इसी टालमटोल का परिणाम हो सकती हैं।

जब जीवन का अर्थ नहीं मिलता, तो बाहरी सफलता और भौतिक संपन्नता खोखली लगने लगती हैं। कुछ अभागे लोग तो इस मानसिक बोझ से जूझते-जूझते अपने जीवन का अंत तक कर देते हैं।

लेकिन यह असंतोष और अधूरापन केवल उन्हीं को प्रभावित करता है जो जीवन को केवल ‘भोगवादी’ दृष्टिकोण से देखते हैं। हर किसी व्यक्ति की दबी इच्छा होती है कि वह अपने अस्तित्व का यथार्थ जाने।

ये सवाल हमें परेशान करने के लिए नहीं आते हैं, बल्कि हमें हमारी आंतरिक सच्चाई से जोड़ने के लिए और जीवन को पूर्ण करने के लिए आते हैं। ये सवाल श्राप नहीं, एक वरदान हैं जो हमें अपने बचपने से निकालकर प्रौढ़ बनाते हैं, सतही जीवन से गहरे अर्थपूर्ण जीवन की ओर ईशारा करते हैं।

दरअसल, वे जीवनधारा की ओर से मिल रहा एक संकेत होता है, जो चैतन्य को उसकी उत्क्रांती के अगले चरण में बढ़ाने के लिए आते हैं।


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