भगवान बुद्ध ने स्त्रियों को प्रवज्जा की अनुमति देने के पश्चात एक आह भरी थी। उस आह की गूँज अनेक शताब्दियों के बाद आज तक थमी नहीं है। भगवान ने आह भरते हुए भविष्यवाणी की थी कि यदि उनके ‘धर्म-विनय’ में स्त्रियों को प्रवज्जा न मिलती, तो बुद्ध-शासन अपने शुद्ध स्वरूप में एक हजार वर्षों तक चलता। किन्तु अब, केवल पाँच-सौ वर्ष चलेगा। और, भगवान के महापरिनिर्वाण के लगभग पाँच-सौ वर्षों बाद, महायान का उदय हुआ, जिसने पहली बार धर्म के मूलस्वरूप को कड़ी चुनौती दी और उससे लोकप्रियता छीन ली।
२०१० में हुई जनगणना के अनुसार, महायान दुनिया का सबसे बड़ा बौद्ध संप्रदाय है। दुनिया के कुल बौद्ध लोगों में ५३% लोग महायान को मानते हैं, जबकि थेरवाद को ३६% और वज्रयान को ६%। तो आइये, जानते हैं कि महायान क्या, क्यों, और कैसा है। फिर, इन तीनों के बीच कुछ मूलभूत अंतरों को जान लें। क्योंकि हो सकता है कि आपकी भी कुछ धारणाएँ बुद्धवचन के अनुसार न हो।
महायान का अर्थ है “बड़ा वाहन”। इसका तात्पर्य है कि हमें धर्ममार्ग पर चलते समय आत्म-केंद्रित नहीं होना चाहिए। इसके बजाय, हमें करुणा के साथ दूसरों की ओर देखना और उनकी सहायता करनी चाहिए। सभी जीव जन्म-मरण के दुष्चक्र में फंसे हुए हैं, इसलिए हमें अर्हंत बनकर मुक्त नहीं होना चाहिए, बल्कि बोधिसत्व की शपथ लेनी चाहिए। अर्हंत का सीमित और “हीन” एकल-सीट यान चुनने के बजाय, हमें एक “महायान” का निर्माण करना चाहिए, जिसमें अधिकतम लोग बैठ सकें। हमें सभी को उसमें बिठाते हुए निर्वाण की ओर बढ़ना चाहिए। यदि कोई साथ नहीं आना चाहता, तो गाड़ी रोककर उसे मनाना चाहिए, चाहे इसमें कितना भी समय लगे। क्योंकि इस प्रक्रिया में आपकी पारमिताएँ बढ़ती रहेंगी। आपका उद्देश्य महान होना चाहिए—पहले दूसरों की भलाई का ध्यान रखें। उन्हें पहले निर्वाण की ओर भेजें, जबकि आप अंत में प्रवेश करें। ताकि आप यह सुनिश्चित कर सकें कि कोई भी जीव दुनिया में पीछे न छूटे।
अपने यान को महान बनाने की यह अवधारणा दुनिया में बेहद लोकप्रिय है और सुनने में आकर्षक और निष्कपट लगती है। लेकिन इसके कई रोमांटिक पहलू बुद्धवाणी के साथ ही सामान्य बुद्धि के विपरीत भी हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई महायानि “पहले आप” का नारा लगाता है, तो वह वास्तव में निर्वाण की ओर बढ़ने से पीछे हटता है। वह इस स्वप्न में खो जाता है कि वह दुनिया का “सबसे अंतिम” प्रवेशकर्ता बनेगा। अपनी महानता का प्रदर्शन करते हुए, वह निर्वाण की दौड़ में सबसे पीछे रहकर अंततः दरवाजे पर ताला लगाएगा, फिर मुड़कर हाथ झाड़ते हुए मुस्कुराएगा। इस लोकप्रिय महायानि कल्पना को एक विदेशी मित्र ने मुझे अभिनय के माध्यम से बताया था। उस समय, अन्य महायानि मित्र मुसकुराते हुए आपस में लड़ने लगे कि “नहीं, मैं सबसे अंतिम रहूँगा!” “नहीं, देखना, मैं रहूँगा!” “आखिर में तो मैं ही रहूँगा!”
इस तरह की सोच हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम वाकई दूसरों की भलाई के लिए स्वयं का परम-कल्याण रोके हुए हैं, या बस अपने रोमांटिक विचारों में खोए हुए हैं। खैर! इस लोकप्रिय कल्पना का उदय कैसे और क्यों हुआ, इसे जानने के लिए बौद्ध इतिहास से एक नजर दौड़ानी होगी।
भगवान के जीवित रहते हुए ऐसा समय आ चुका था जब कम भिक्षु अर्हत्वपद प्राप्त कर रहे थे। भगवान ने इसके पीछे का कारण शिष्यों में पारमिताओं की कमी नहीं, बल्कि आदर-सम्मान की कमी बताया। संघ में ऐसे नालायक और ढीठ शिष्य बढ़ गए थे, जिनकी भगवान और उनके शब्दों में कोई रुचि नहीं थी। वे भगवान द्वारा बताए गए धर्म को उसके मूल स्वरूप में सीखने के बजाय अपनी मनमर्जी से गढ़े गए जाली धर्म पर चलना चाहते थे —
एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। तब भंते महाकश्यप भगवान के पास गए और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गए। एक-ओर बैठकर उन्होने कहा, “भंते, क्या कारण, क्या परिस्थिति है, जो पहले शिक्षापद कम थे, किन्तु अधिक भिक्षु अंतिम-ज्ञान (=अर्हतफ़ल) में स्थापित थे। जबकि आजकल शिक्षापद बहुत हैं, किन्तु कम ही भिक्षु अंतिम-ज्ञान में स्थापित हैं?”
भगवान ने उत्तर दिया: “ऐसा ही होता है, कश्यप, ऐसा ही होता है। जब सत्वों का पतन हो रहा हो और सद्धर्म विलुप्त हो रहा हो, तब शिक्षापद अधिक होते हैं, किन्तु कम ही भिक्षु अंतिम-ज्ञान में स्थापित होते हैं। सद्धर्म तब तक विलुप्त नहीं होता, जब तक उसका जाली प्रतिरूप चलन में न आए। जिस तरह, परिशुद्ध स्वर्ण तब तक चलन से विलुप्त नहीं होता, जब तक उसका जाली प्रतिरूप (=पीतल) चलन में न आ जाए ।
कश्यप, पृथ्वी धातु… जल धातु… अग्नि धातु… वायु धातु सद्धर्म को विलुप्त नहीं करती है। बल्कि यही पैदा हुए कुछ नालायक लोग सद्धर्म को विलुप्त करते हैं। 1 सद्धर्म (तत्काल) विलुप्त नहीं होता, जैसे नाँव डूब जाती है। बल्कि पाँच पतनशील-स्वभाव होते हैं, जो सद्धर्म में उलझन बढ़ाने और (धीमे) विलुप्ति का कारण बनते हैं।
ऐसा होता है कि कोई भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक, या उपासिका — शास्ता के प्रति बिना आदर, बिना सम्मान के रहते हैं। सद्धर्म के प्रति… संघ के प्रति… शिक्षा के प्रति… समाधि के प्रति बिना आदर, बिना सम्मान के रहते हैं। और तब, ये पाँच पतनशील-स्वभाव सद्धर्म में उलझन बढ़ाकर, सद्धर्म की विलुप्ति का कारण बनते हैं।”
— संयुत्तनिकाय १६:१३ : सद्धम्मपतिरूपक सुत्त
इसी प्रकार, अनेक सूत्रों से यह स्पष्ट होता है कि भगवान के रहते हुए भी संघ में अर्हन्तों का अनुपात गिर रहा था। संघ के ढीठ और नालायक भिक्षु अपनी कल्पनाओं को आधार बनाकर जाली धर्म गढ़ रहे थे। यदि हम इस सूत्र के साथ भगवान की आह-भरी भविष्यवाणी को जोड़कर देखें, तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि शायद भिक्षुणी-संघ के गठन के कारण ऐसे लोग संघ की ओर आकर्षित हुए। वे लोग मुक्ति की खोज में नहीं, बल्कि लाभ, सत्कार, कीर्ति और मेलजोल बढ़ाने के लिए आ रहे थे। सच्चाई जो भी हो, लेकिन भगवान के अनुसार, ये ही लोग सद्धर्म की विलुप्ति का कारण बनने वाले थे। इससे हम अनुमान लगा सकते हैं कि भगवान के महापरिनिर्वाण के पश्चात संघ की स्थिति क्या हुई होगी।
आगे, महाकश्यप भंते के सुझाव पर भिक्षुसंघ ने धर्म-विनय का संकलन किया। भगवान की वाणी को वरिष्ठ और अग्र भिक्षुओं द्वारा प्रमाणित किया गया। इस प्रकार, मूलधर्म में हेरफेर की आशंका बहुत कम हुई, और धर्म भाणक परंपरा के (मौखिक) माध्यम से फैलने लगा। इसके सौ वर्षों बाद दूसरी संगीति, और ढाई सौ वर्षों के बाद तीसरी संगीति संपन्न हुई। इसी दौरान भिक्षुसंघ में आधिकारिक तौर पर स्थविरवाद और महासङ्घिक के बीच विभाजन का प्रमाण मिलता है, जो विनय को लेकर हुआ था।
तीसरे संगायन में सम्राट अशोक ने स्वयं उपस्थित होकर अनेक भिक्षुओं से प्रश्न पूछे। बड़ी संख्या में भिक्षुओं ने तथाकथित रूप से गलत उत्तर दिए। इससे पहले से ही फूट पड़े संघ में और अधिक दरारें उत्पन्न हुईं, और आगे सर्वास्तिवाद और विभज्जवाद के नाम से बौद्ध संघ फ़िर बंट गया। सम्राट अशोक ने दुनिया भर में विभज्जवाद (थेरवाद के पूर्वज) के मिशनरी भेजे, और धर्म-विनय का प्रचार-प्रसार किया।
अगले ढाई सौ वर्षों के भीतर विभज्जवाद गुट द्वारा बौद्ध धर्म का प्रभाव अधिकांश दक्षिणी आशियाई देशों, जैसे श्रीलंका, म्यांमार, थायलैंड, कंबोडिया, लाओस आदि में स्थापित हो गया। किन्तु, उत्तर दिशा में इसका प्रसार कमजोर रहा। क्योंकि, सर्वास्तिवादियों ने विभज्जवाद के विरोध में संस्कृत भाषा को अपनाया, जो उस समय मुख्यतः ब्राह्मणों द्वारा प्रयोग की जाती थी। उन्होंने ईस्वी सन १०० में कश्मीर में चौथी संगीति आयोजित की, जिसमें सम्राट कनिष्क ने उनके संस्कृत ग्रंथों के लिखित रूप में संग्रहण की व्यवस्था की।
दूसरी ओर, दक्षिणी जम्बूद्वीप और श्रीलंका युद्ध और अकाल की चपेट में आ गए, जिससे जनसंख्या में भारी हानि हुई। भिक्षुओं का जीवन भी असुरक्षित हो गया, जिसके परिणामस्वरूप थेरवादियों ने श्रीलंका में चौथी संगीति का आयोजन कर सम्पूर्ण पालि साहित्य को लिखित रूप में संकलित किया। इस तरह, पहली बार त्रिपिटक को पालि भाषा में सुरक्षित किया गया। इस प्रकार, इतिहास में चौथे संगायन की दो अलग-अलग घटनाएँ दर्ज हुईं—एक कश्मीर में, संस्कृत भाषा में, और दूसरी श्रीलंका में, पालि भाषा में।
उत्तरी जम्बूद्वीप में महासाङ्घिक और सर्वास्तिवादी गुट धर्म के विशेष पहलुओं को अपनाते हुए अलग-अलग शाखाओं में विभाजित होते हुए १८ शाखाएँ बन गई। हर बौद्ध गुट का ध्यान धर्म के किसी एक विशेष पहलू पर केंद्रित होता था, जो उस गुट की विशेषता बनती थी। एक गुट कुछ सूत्रों को अधिक महत्व देता था, तो दूसरा गुट दूसरे सूत्रों को। एक गुट सूत्रों का एक तरह से अर्थ निकालता था, तो दूसरा गुट दूसरे तरह से। इस तरह, समय और स्थान के अनुसार कुछ गुटों की लोकप्रियता घटती-बढ़ती रही। तब भी, धर्म बिना मिलावट के शुद्ध बना रहा। न सूत्रों से छेड़छाड़ की गयी, न ही धर्म का मूलस्वरूप बदलाया गया। हालाँकि यह अब बदलने वाला था, क्योंकि लगभग पाँच सौ वर्ष बीत चुके थे।
महायान की संकल्पनाएँ महासाङ्घिक गुट में से आकार लेने लगीं। चूँकि लोगों को अमूर्त धर्म सुनने के बजाय रोचक कथाओं में अधिक रुचि होती हैं। उन्होने लोगों की नब्ज़ पकड़ी, और बुद्ध के पूर्वजन्मों की कथाओं को रोचक बनाया जाने लगा। बोधिसत्व जातक 2 कथाओं के साथ-साथ बुद्ध का वर्णन भी 3 बढ़ा-चढ़ाकर बताने का दौर शुरू हुआ। उसी दौरान गंधार, मथुरा और अमरावती कलाओं में बुद्ध की मूर्तियाँ बनायी जाने लगी, गुफ़ाओं और विहारों की दीवारों पर जातक कथाओं के चित्रण होने लगे।
हालाँकि इनके बीच भी थेरवादी भिक्षु मूर्ति और चित्रण आदि से दूर 4 रहें। उनके प्रवचनों में ऐसे रोचक कथाओं की कमी थी, जिनके लिए गृहस्थ खिचे चले आते थे। उन्होने बदलाव की आँधी में बहकर धर्म का अनर्थ नहीं होने दिया 5। इसलिए उनकी लोकप्रियता घटते जा रही थी।
हालाँकि, अब तक सभी १८ बौद्ध गुटों में धर्म के पाँच निकाय या आगम लगभग समान थे, विनय में कुछ मामूली बदलाव आए थे 6। किन्तु, महायान ने नए संस्कृत सूत्रों की रचना कर के खेल पलट दिया। उन्होने लोगों को बताया कि भगवान बुद्ध ने इच्छाधारी नागों को जाकर ‘बोधिसत्व मार्ग’ बताया था। अब उन नागों ने आकर महायानि भिक्षुओं को वे सूत्र बता दिये हैं। तब, महायानि भिक्षुओं ने अर्हंतपद को तुच्छ और “हीन” बताना शुरू किया, और लोगों के आगे बोधिसत्व मार्ग का महान आदर्श रख, पारमिताओं पर ज़ोर 7 देना शुरू किया। ऐसा धर्म कोई दूसरा बौद्ध गुट नहीं बताता था। जाहिर है कि उन्होने ऐसा ख़ास धर्म सुनाकर भोले लोगों का दिल जीत लिया।
इस तरह, बौद्ध गुटों की आपसी स्पर्धा लगभग खत्म हो गयी, और महायान की लोकप्रियता आसमान छूने लगी। तब महायान उत्तरी जम्बूद्वीप से निकलकर हिमालय के पार होते हुए उत्तरी आशियाई देशों, जैसे चीन, कोरिया, जापान, ताइवान, वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया, और उसके परे भी तेजी से फैलता चला गया। जम्बूद्वीप में 4थी से १२वीं शताब्दी के बीच महायान ने अपनी लोकप्रियता की चरम सीमा छुई, और नालंदा, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों में उसका प्रमुख प्रभाव बना रहा।
कुछ समय पाकर, महायान से एक नया बौद्ध संप्रदाय ‘वज्रयान’ उभरकर सामने आया, जो हिमालय के इलाकों, जैसे नेपाल, तिब्बत और उसके परे मंगोलिया के आसपास पनपने लगा। वह वज्रयानी संप्रदाय तंत्र-मंत्र पर आधारित था, जिसे स्थानीय लोगों ने स्थानीय तिब्बती भाषा में विकसित किया था। वे दलाई लामा को अपना मुख्य गुरु मानते थे, जो बार-बार जन्म लेकर वज्रयान को आगे बढ़ाने का कार्य करते हैं। गौर करें कि सभी १८ बौद्ध गुट, महायान और वज्रयान को ऐतिहासिक तौर पर “बौद्ध” नहीं समझते थे। क्योंकि वे बुद्ध वाणी से इतना दूर हो गए थे कि उन्हें बौद्ध पुकारना भी उचित नहीं था।
अंततः जम्बूद्वीप में लगभग सभी १८ बौद्ध गुट विलुप्त हो गए। हालाँकि, दक्षिणी आशियाई देशों में थेरवादी संघ संघर्ष करते हुए बड़ी मुश्किल से बचा रहा। किन्तु उसमें भी अनेक महायानि मिलावटें और अशुद्धियाँ आ गयी। पाँच निकाय सूत्रों के बजाय भाषाविद पंडितों के ग्रन्थों (विसुद्धिमग्ग आदि) को अधिक महत्व दिया गया, जिसके अनेक पहलू भगवान की मूलवाणी के विपरीत गए थे। उनसे अनेक मिथ्या धारणाएँ उपजी, और धर्म को देखने का नजरिया बदल गया 8।
इस तरह, अनेक बौद्ध परंपराएँ हजारों वर्षों से एक-दूसरे को प्रभावित करते आ रहे हैं। आज यह स्थिति है कि हमें सद्धर्म और अधर्म के बीच अंतर्भेद नहीं दिखता है। यद्यपि कोई सच्चा व्यक्ति मिथ्यादृष्टि धारण कर अथक साधना करे, किन्तु उसे आर्यफल लाभ होना संभव नहीं है। इस तरह, भगवान की भविष्यवाणी सटीक साबित हुई। आज, १५०० वर्षों के बाद सद्धर्म में इतनी अशुद्धियाँ आ चुकी हैं, अंजाने में इतनी मिलावटें हो चुकी हैं कि सद्धर्म और अधर्म का भेद मिट चुका है। किन्तु, अशुद्ध स्वर्ण को शुद्ध करने के कई परंपरागत और आधुनिक उपाय मौजूद हैं।
आईयें, सबसे पहले इन तीनों परम्पराओं के कुछ मूलभूत और ऐतिहासिक अंतर्भेदों पर दृष्टि डालते हैं।
मुद्दा | थेरवाद | महायान | वज्रयान |
---|---|---|---|
बुद्ध | शास्ता, गुरु, मार्गदर्शक | दिव्य अवतार | भक्तियोग्य, पूजनीय |
आदर्श | गौतम बुद्ध, अर्हंत भिक्षु-भिक्षुणी | अवलोकितेश्वर 9, मंजुश्री, मैत्रेय | पद्मसंभव, अवलोकितेश्वर, तारा, वज्रपानी |
लक्ष्य | तत्काल दुःखमुक्ति, आर्यफ़ल, निर्वाण। | बोधिसत्त्व शपथ, सभी के लिए प्रतिक्षा, सुखावती लोक में जन्म। | वज्रधर बनना। |
दर्शन | चार आर्यसत्य। | दो सत्य (परमार्थसत्य, संवृतिसत्य) । | अद्वैत दर्शन |
मार्ग | आर्य अष्टांगिक मार्ग, ३७ बोधिपक्खिय धम्म। | पारमिताएँ बढ़ाना, करुणा, शून्यता ध्यान। | तंत्र-मंत्र, योग। |
साधना | शील, समाधि, प्रज्ञा, समथ-विपस्सना। | सामूहिक भक्ति, पुजा, सामाजिक कार्य । | तंत्र-मंत्र, गुप्त साधना। |
विनय | कठोर अनुशासन। | लचीला अनुशासन। | तांत्रिक अनुशासन |
भाषा/स्त्रोत | पालि त्रिपिटक | संस्कृत और चीनी महायानि सूत्र | तिब्बती तंत्र-ग्रंथ |
सामाजिक अनुष्ठान | दान, शील, भावना | बुद्धमूर्ति पुजा, बोधिसत्वों की पुजा, विविध और विस्तृत | जटिल और तांत्रिक |
प्रतीक | स्तूप, बोधिवृक्ष | जातक चित्रण, बुद्धमूर्ति, बोधिसत्व मूर्ति। | विविध तांत्रिक प्रतीक, मंडल। |
प्रभाव | दक्षिण-पूर्व एशिया | पूर्वी एशिया | तिब्बत और हिमालयी क्षेत्र |
इनके अलावा, महायान का एक प्रमुख आकर्षण इसकी समावेशिता है। “बोधिसत्व” की लोकप्रिय अवधारणा सामान्य लोगों को बहुत आकर्षित करती है, क्योंकि इसमें रोचक कथाएँ हैं, और व्यक्तिगत मुक्ति से ज्यादा सामूहिक जनकल्याण का लक्ष्य रखा गया है। जिससे करुणा, सहानुभूति और समुदाय की भावना को बढ़ावा मिलता है, समुदाय के मेलजोल से सुख-संतुष्टि प्राप्त होती है, जो लोगों के लिए एक गहरा अर्थ रखता है। महायान में साधना के विविध और लचीले अनेक रूप हैं। इसमें सामान्य लोग भक्ति, पूजा, मंत्रजाप, माला-घूमाना और करुणा ध्यान के अनेक माध्यम अपनाते हैं। इस लचीलेपन से महायान विभिन्न संस्कृतियों में तेजी से जरूर फैला, किन्तु ऐसा करते हुए बुद्ध की मूलवाणी से दूरी बना ली।
मैं आज धर्म में अजीब विडंबना देखता हूँ। एक-ओर, पूर्व आशियाई महायानि गृहस्थों की थेरवाद के प्रति रुचि बढ़ती जा रही हैं, जो थेरवादी भिक्षुओं को अपने देशों में आमंत्रित कर बड़े-बड़े सम्मेलन आयोजित कर रहे हैं, और बुद्ध की मूलवाणी सुनकर उसे धारण कर रहे हैं। दूसरी ओर, अपने आप को थेरवादी बौद्ध कहने वाले दक्षिण-पूर्व आशियाई गृहस्थ महायानि धारणाओं में प्रसन्न हैं। एक-ओर, मेरा विएतनामी महायानि भिक्षु मित्र, जो बोधिसत्व मार्ग से ऊबकर अर्हत्वपद पाने की च्येष्ठा में जुट गया है। दूसरी-ओर मेरा भारतीय थेरवादी भिक्षु मित्र, जो बोधिसत्व की शपथ लेकर, ‘पारमिताओं’ को बढ़ाने के लिए, सामाजिक कार्य में जुट गया है। इस तरह, दोनों ही तबकों में गुप्त रूप से अदला-बदली होना जारी है।
जब महायान अपनी लोकप्रियता की चरम पर था, उसी दौरान अनेक ग्रंथ, अट्ठकथाएँ आदि पालि त्रिपिटक का हिस्सा बनाए गए, जो महायानि धारणाओं में ही रंगे नजर आते हैं। हालाँकि उनकी भाषा और धर्म का बताया अर्थ भगवान की मूलवाणी से मेल नहीं खाता। इसलिए उस मिलावट को पकड़ना कठिन नहीं हैं। किन्तु, अफसोस है कि अनेक थेरवादी, जो महायानि धारणाओं में फँसे हो, जब पालि पञ्चनिकाय पढ़ते भी हैं, तो उसका अर्थ घूमा-फिराकर अपनी महायानि धारणाओं के अनुरूप ही निकालते हैं।
जैसे हमने देखा कि भगवान के महापरिनिर्वाण के पाँच सौ वर्षों बाद महायानि सूत्रों का गठन हुआ। यदि हम उन महायानि सूत्रों को एक-ओर रख दे, और अनेक शताब्दियों के बाद जोड़े गए त्रिपिटक ग्रन्थों को भी एक-ओर रख दें, और केवल प्राचीन ‘पालि पञ्चनिकाय’ या ‘संस्कृत/चीनी पाँच आगम’ पढ़ें, तो पाते हैं कि वे लगभग एक ही बात कर रहे हैं। उन प्राचीन सूत्रों में न कभी ‘बोधिसत्व आदर्श’ का जिक्र होता है, न कभी ‘पारमिताओं’ की आवश्यकता बतायी जाती है। बल्कि इसी जीवन में आर्यफल प्राप्ति का मार्ग प्रदर्शित किया जाता हैं।
भगवान बुद्ध ने प्रथम भिक्षुणी महापजापति गोतमी, जो उनकी माँ-रूपी मौसी थी, को एक सूत्र देकर इसी बात को एकदम स्पष्ट कर दिया था —
“गोतमी, जिस धर्म के बारे में तुम्हें पता चले कि यह धर्म —
• राग (=अनुराग, दिलचस्पी, जुनून) बढ़ाता है, विराग नहीं;
• संयोग (=जुड़ाव, बंधन) बढ़ाता है, विसंयोग (=पृथकता) नहीं;
• आचय (=संग्रह, संचय) बढ़ाता है, अपचय (=ह्रास, क्षय, घटाव) नहीं;
• महेच्छता (=बड़ी-बड़ी महान इच्छाएँ) बढ़ाता है, अल्पेच्छता नहीं;
• असंतुष्टि बढ़ाता है, संतुष्टि नहीं;
• सामाजिक मेलजोल बढ़ाता है, निर्लिप्त एकान्तवास नहीं;
• आलस्य (=कार्य को भविष्य में धकेलना) बढ़ाता है, वीर्यारंभ (=तुरंत जुटना) नहीं;
• दुब्भरता (=बोझ, ज़िम्मेदारी) बढ़ाता है, सुब्भरता (=बोझमुक्ति) नहीं;
— तब तुम उस धर्म को लेकर निश्चित धारण कर सकती हो कि “यह धर्म नहीं हो सकता! यह विनय नहीं हो सकता! यह शास्ता (=बुद्ध) की सीख नहीं हो सकती!”
दूसरी-ओर, जिस धर्म के बारे में तुम्हें पता चले कि — यह धर्म विराग बढ़ाता है, अनुराग नहीं; पृथकता बढ़ाता है, जुड़ाव नहीं; क्षय बढ़ाता है, संचय नहीं; अल्पेच्छता बढ़ाता है, महेच्छता नहीं; संतुष्टि बढ़ाता है, असंतुष्टि नहीं; निर्लिप्त एकांतवास बढ़ाता है, सामाजिक मेलजोल नहीं; तुरंत जुटना बढ़ाता है, आलस्य नहीं; बोझमुक्ति बढ़ाता है, बोझ या ज़िम्मेदारी नहीं — तब उस धर्म को लेकर तुम निश्चित धारण कर सकती हो कि “यह धर्म है! यह विनय है! यह शास्ता (=बुद्ध) की सीख है!””
— अंगुत्तरनिकाय ८:५३ : संखित्त सुत्त
भगवान के इसी सूत्र से धर्म को लेकर अनेक मिथ्या-धारणाएँ खत्म हो जाती हैं। आप पालि में पञ्चनिकाय पढ़ें, या संस्कृत/चीनी में पाँच आगम, आप लगभग सभी प्राचीन सूत्रों को इसी चेकलिस्ट को पूर्ण करते देख सकते हैं। भगवान के सभी सूत्र तुरंत मुक्ति के लिए संवेग जगाते हैं। जो पराया सूत्र इस चेकलिस्ट से मेल न खाएँ, उन्हें संदेह से देखें। और अक्सर ऐसे ही संदेहास्पद सूत्रों की भाषा भी प्राचीन लहजे से मेल नहीं खाती। अर्थात, भगवान की मूलवाणी पहचानना अत्यंत सरल है।
इस तरह, बड़ी-बड़ी गाड़ियों के स्वप्न देखने वाला व्यक्ति दरअसल महान नहीं है। बल्कि भगवान के अनुसार महान व्यक्ति कौन है, इस आखिरी सूत्र से जानें —
एक समय आयुष्मान अनुरुद्ध भंते (=भगवान के चचेरे भाई) अकेले एकांतवास में साधना कर रहे थे। तब उनके मन में ऐसे विचार उमड़ें, “(बुद्ध का) यह धर्म अल्प इच्छा रखने वाले लोगों का हैं, भव्य इच्छा रखने वाले लोगों के लिए नहीं। यह धर्म संतुष्ट लोगों का हैं, असंतुष्ट लोगों के लिए नहीं। यह धर्म निर्लिप्त एकांतवासी लोगों का हैं, लोगों के साथ रमने वालों के लिए नहीं। यह धर्म तुरंत जुटने वाले लोगों का हैं, आलसी निट्ठल्लों के लिए नहीं। यह धर्म स्मरणशील लोगों का हैं, भुल्लकड़ लोगों के लिए नहीं। यह धर्म स्थिर एकाग्रचित्त वाले लोगों का हैं, अस्थिर और चंचल चित्त के लोगों के लिए नहीं। यह धर्म अंतर्ज्ञानी लोगों का हैं, दुर्बुद्धि वाले लोगों के लिए नहीं।”
भगवान ने अपने चित्त से आयुष्मान अनुरुद्ध के मन में चल रहे विचारों को जान लिया। तब, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, भगवान भेसकला के मृगवन से विलुप्त हुए और चेती के पूर्वी वेणुवन में, ठीक आयुष्मान अनुरुद्ध के सामने प्रकट हुए, और बिछे आसन पर बैठ गए। आयुष्मान अनुरुद्ध भंते ने भगवान को अभिवादन किया, और नीचे एक-ओर आसन लगाकर बैठ गए।
तब भगवान ने कहा, “साधु, साधु, अनुरुद्ध! बहुत अच्छा (=शुभ) है, जो तुम्हारे मन में महापुरुषों के विचार जैसे विचार आए हैं — “यह धर्म वाकई अल्प इच्छा रखने वाले लोगों का हैं, भव्य इच्छा रखने वाले लोगों का नहीं हैं। यह धर्म संतुष्ट लोगों का हैं, असंतुष्ट लोगों का नहीं हैं। यह धर्म निर्लिप्त एकांतवासी लोगों का हैं, लोगों के साथ रमने वालों का नहीं हैं। यह धर्म तुरंत जुटने वाले लोगों का हैं, आलसी निट्ठल्लों का नहीं हैं। यह धर्म स्मरणशील लोगों का हैं, भुल्लकड़ लोगों का नहीं हैं। यह धर्म स्थिर एकाग्रचित्त वाले लोगों का हैं, अस्थिर और चंचल चित्त के लोगों का नहीं हैं। यह धर्म अंतर्ज्ञानी लोगों का हैं, दुर्बुद्धि वाले लोगों का नहीं हैं।”
और, अनुरुद्ध, तुम्हें इस अंतिम आठवें विचार को भी मन में लाना चाहिए कि “यह धर्म सुलझन चाहने वाले, सुलझन में रमने वाले लोगों का हैं, प्रपंच (=झमेला, उलझन) चाहने वाले, प्रपंचों में रमने वाले लोगों का नहीं हैं।”
— अंगुत्तरनिकाय ८:३० : अनुरुद्ध सुत्त
खैर, आपको जो मार्ग अच्छा लगता हो, उस पर चलें । बस इतना जान लें कि भगवान ने देव और मानव को एक ही मार्ग बताया है ।
प्राचीन भारत में लोग मानते थे कि चार महाभूत के असंतुलित या कुपित होने पर प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं। जैसे कि पृथ्वी धातु कुपित हो, तो भूकंप, भूस्खलन, उल्कापिंड गिरते हैं। जल धातु के कुपित होने पर बाढ़ और सुनामी इत्यादि आते हैं। अग्नि धातु के कुपित होने पर आगजनी, विश्व गर्माहट, सौर्य ज्वालाएँ इत्यादि होते हैं। वायु धातु के कुपित होने पर तूफ़ान इत्यादि आते हैं। यहाँ भगवान कह रहे हैं कि सद्धर्म प्राकृतिक आपदाओं से खत्म नहीं होता है। बल्कि संघ के नालायक और ढीठ सदस्य अपनी मूर्खता और कपटता से उसे खत्म करते हैं। ↩︎
जातक मूल गाथाओं को खुद्दकनिकाय में बहुत पश्चात शामिल किए जाने के प्रमाण मिलते हैं, शायद चौथी संगायन या उसके पश्चात। किन्तु अतिशयोक्ति-पूर्ण कथाएँ, जिन्हें “जातक अट्ठकथा” कहते हैं, तकरीबन एक हजार वर्षों बाद पुनर्लेखन किया गया। उसी के साथ, सभी अन्य अट्ठकथाएँ भी एक हजार वर्षों के पश्चात ही भाषाविद भिक्षुओं के द्वारा लिखी गयी, जिनमें प्रमुख तौर पर आचार्य बुद्धघोष का नाम आता है। आज कोई नहीं जानता हैं कि प्राकृत और सिंघली भाषा में लिखी प्राचीन अट्ठकथाएँ कैसी थी। क्योंकि आचार्य बुद्धघोष के द्वारा अट्ठकथाओं का पालि में पुनर्लेखन करने के पश्चात दोनों में बहुत अंतर आया था। इसलिए सभी प्राचीन अट्ठकथाओं को जला दिया गया, ताकि आगे चलकर दोनों की वैधता को लेकर भिक्षुओं में कोई टकराव न हो। ↩︎
हालाँकि बुद्ध लंबे कद-काठी के जरूर थे। किन्तु कोई बुद्ध का कद १६ फीट बताता, तो कोई १२ फीट, तो कोई ८। आखिरकार, पूज्य भंते थानीस्सरो और संघ ने विनयपिटक में दिये वर्णन के अनुसार गणना किया, तो उनका कद निकला ६ फीट ७ इंच। ठीक इतना ही कद बुद्ध के भाई भंते नन्द का भी था। ↩︎
इसका उदाहरण महाराष्ट्र की अजन्ता गुफ़ाओं के साथ-साथ अन्य गुफ़ाओं और अवशेष मिले विहारों में भी देखने को मिलता है। सभी महायानि गुफाएँ चित्रों और मूर्तियों से सजी हुई रंगबिरंगी दिखती हैं, जबकि थेरवादी गुफ़ाओं में स्तूप के अलावा कुछ नहीं दिखता हैं। ↩︎
प्राचीन थेरवाद में बुद्ध की मूर्ति या चित्र आदि बनाना स्वीकार्य नहीं था। क्योंकि बुद्ध ने अनेक बार अपने रूप को लेकर फटकार लगाई थी। वे अपने शरीर की ओर दर्शाते हुए भिक्षुओं से पुछते कि ‘क्या यह रूप तथागत है? क्या तथागत किसी रूप में बसते है? क्या वे इस रूप के भीतर है, या बाहर कही है?’ अर्थात, जब आप तथागत का वर्णन उनके जीवित रहते हुए भी रूप आदि स्कंधों के माध्यम से नहीं कर सकते, तब भला परिनिर्वाण के बाद कैसे कर सकते हैं? जाहिर है कि भगवान मूर्ति के साथ-साथ अन्य रूप का वर्णन करने के विरोध में थे। अतः ईमानदार थेरवादी शिष्यों ने यह स्वस्थ परंपरा कायम रखी। हालाँकि पिछली शताब्दी से लगभग सभी थेरवादी परंपराओं ने भी बुद्ध मूर्तियों को बसाना शुरू कर दिया है। ↩︎
आधुनिक भाषाविद पंडितों ने थेरवादी और महायानि साहित्य की आपस में तुलना कर के देखी। उन्होने पालि के पाँच निकाय (=दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुत्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय, खुद्दकनिकाय) को चीनी/संस्कृत भाषा के चार आगम (=दीर्घ आगम, मध्यम आगम, संयुक्त आगम, एकोत्तर आगम, और शूद्रक आगम) से जोड़कर देखा, तो पाया कि वे आज भी लगभग समान हैं। किन्तु, शूद्रक आगम में समय के साथ-साथ नए-नए ग्रन्थों को जोड़ा जाता रहा हैं। इसलिए उनमें दोनों में थोड़ा भेद मिलता हैं। दोनों के विनय नियमावली में भी मामूली अंतर हैं, किन्तु, कुछ अतिरिक्त नियम यहाँ-वहाँ पाये जाते हैं। कुछ पंडितों का कहना हैं कि दोनों के विनय में लगभग ७०% से ८०% तक समानता हैं। इस तरह, दोनों परंपराओं में असली अंतर नए जोड़े महायानि सूत्र ही हैं — जैसे प्रज्ञापारमिता हृदय सूत्र, वज्रच्छेदिका सूत्र, सद्धर्म पुंडरीक सूत्र, अवतंसक सूत्र, विमलकिर्ति निर्देश सूत्र, लंकावतार सूत्र, सुवर्णप्रभास सूत्र, अमिताभ सूत्र और सुखावतीव्यूह सूत्र इत्यादि। ↩︎
संपूर्ण पञ्चनिकाय में पारमिताओं का उल्लेख न के बराबर है। केवल एक-दो लघु सूत्रों में, जहाँ ‘पारमि’ शब्द का प्रयोग हुआ, वहाँ भी उसका संदर्भ और परिपेक्ष्य उस तरह प्रस्तुत नहीं होता है, जैसा आजकल पारमिताओं के बारे में धारण किया जाता है। बल्कि उसका इस तरह उल्लेख होता है, जैसे वह कोई गुण हो। किन्तु आजकल पारमिताओं को पुण्य के साथ जोड़कर बताया जाता है, जैसे मुक्ति के लिए उन्हें पूर्ण करना आवश्यक हैं। निश्चित ही, अर्हंत बनने के लिए पारमिताओं की आवश्यकता — एक नितांत मिथ्याधारणा है, जिसका संपूर्ण त्रिपिटक, महायानि सूत्र या किसी भी अन्य संप्रदाय में कोई उल्लेख नहीं है। लगता है, जैसे यह केवल आर्यपद प्राप्त न कर पाने के एक बहाने के तौर पर उपयोग होता है। जब कोई भिक्षु को लंबा समय लगता था, तब भगवान उसका कारण पारमिता नहीं बताते थे, बल्कि पाँच इंद्रियों में कमजोरी बताते थे। वे पाँच इंद्रिय ३७ बोधिपक्खिय धम्म का हिस्सा हैं। यदि किसी को बहुत वर्षों तक प्रयत्न करने के बाद भी फल प्राप्त न हो, तो संभव है कि वह आर्य अष्टांगिक मार्ग को पूर्ण न कर किसी मिथ्या साधना में लिन हो। ↩︎
जैसे, अनत्त का अर्थ “आत्मा नहीं है” मानना, अपने अनुभवों को चार आर्यसत्य में देखने के बजाय दो महायानि सत्य (परमत्थ सच्च, सम्मुति सच्च) में देखना, आर्य अष्टांगिक मार्ग की शुद्ध साधना के बजाय पारमिताओं को महत्व देना, सम्यक-समाधि को हीन मानकर उसकी उपेक्षा करना, विपस्सना की मिथ्या-साधना करना, मूर्तिपुजा और अभिधम्म के पीछे पड़ना, आदि। ↩︎
अवलोकितेश्वर महायान के सबसे लोकप्रिय बोधिसत्वों में से एक, और बोधिसत्व मार्ग पर चलने वालों के लिए एक प्रेरणास्त्रोत हैं। अवलोकितेश्वर अर्थात, ऐसा “ऊपर बैठा ईश्वर, जो नीचे दुनिया पर अपनी करुणादृष्टि डालता है।” इन्हें करुणा का अवतार माना जाता है, जो सभी जीवों के दुःखों को दूर करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहते हैं। उनकी अनेक प्रतिमाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनमें से एक सबसे अधिक लोकप्रिय — जिसमें उनके ग्यारह सिर और एक हज़ार हाथ हैं।
यह रूप उनकी लोगों के प्रति असीम करुणा और सहायता करने के क्षमता दर्शाती हैं। उनके लिए “ॐ मणि पद्मे हूँ” इस प्रसिद्ध महायानि मंत्र का जाप किया जाता है। ↩︎