नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

निराशावादी धर्म

आपने शायद सुना होगा कि बौद्ध धर्म निराशावादी है और बुद्ध का आर्यसत्य ‘जीवन दुख है!’ इस धारणा को विद्वानों ने प्रचलित किया है, जिसमें हमारे देश के प्रथम उपराष्ट्रपति भी शामिल थे। लेकिन बता दें कि यह एक मिथ्या व्याख्या है, जो गलतफहमी पर आधारित है। सच्चाई यह है कि बुद्ध ने ऐसा कभी नहीं कहा कि “जीवन दुःख है!” बल्कि उन्होने कहा, “दुःख हैं!” और उन्होने इतना साधारण-सा सच बताकर बात खत्म नहीं कर दी। बल्कि आगे तीन सच और बताएं, “उस दुःख का कारण है!”, “उस दुःख का अंत संभव है!”, और “उस दुःख को खत्म करने का यह तरीका है!” क्या ये चार सत्य जीवन को निराशावादी बनाते हैं? अथवा ये व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखने का एक तरीका हैं?

जैसे आप कोई डॉक्टर के पास इलाज करने के लिए जाए, अथवा मैकेनिक के पास अपनी खराब गाड़ी को लेकर जाए, और वे उसकी जाँच-पड़ताल करने के बाद कहें, “हाँ, समस्या तो दिख रही है!”, “समस्या का ये कारण हो सकता है!”, “लेकिन चिंता मत करो, क्योंकि ये समस्या हल हो जाती है।” “ऐसा-ऐसा करने से समस्या हल जाएगी!” तो क्या आप उन्हें निराशावादी कहेंगे? अथवा उन्हें पेशेवर, कुशल या निपुण कहेंगे?

और, जो अपने जीवन की ‘सुलझने वाली’ समस्याओं का सामना नहीं करना चाहते या स्वीकार तक नहीं करना चाहते, ऐसे लोगों को समझदार और समर्थ लोग क्या कहें, ‘पलायनवादी’, ‘डरपोक’, या ‘मूढ़’?

बहरहाल, बुद्ध की शैली बहुत पेशेवर और ख़ास है। क्योंकि वे दुःख और उसके तमाम प्रकारों — जैसे बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा, निराशा आदि — को समाप्त करने के अंतिम उपाय बताते हैं, जो उससे पहले मानवता को पता तक नहीं थे। और उसके लिए आपको अगले जीवन का इंतज़ार नहीं करना है। बल्कि ये उपाय इसी जीवन में तत्काल हर मानव के लिए सुलभ है।

जिस प्रकार कोई पेशेवर डॉक्टर जानलेवा बीमारी से नहीं डरता, उसी तरह बुद्ध भी किसी प्रकार के दुःख से डरते नहीं। क्योंकि उन्होंने अपने इसी जीवन में अंतिम मंज़िल पर पहुँचकर, अमृत चखकर, ऐसी असीम राहत पा ली हैं, जो दुनिया के किसी रचना पर आधारित नहीं है। ऐसी राहत, सुख और शान्ति — जो सदैव बनी रहती है, लेकिन बनायी नहीं जाती; जो अकारण होती है; सर्वोपरि सुरक्षित होती है, जिस पर कोई खतरा नहीं मंडराता। उस मुक्ति के आधार पर बुद्ध ने हमें सुझाव दिया कि जहाँ भी हम दुःख का अनुभव करें, उसे नज़रअंदाज़ न करें। बल्कि उसका सामना करें, उसे समझें, और उसका कारण खोजकर उसे ख़त्म कर दें।

बुद्ध ने कभी जीवन को लेकर अपना अंतिम फैसला नहीं सुनाया। जीवन सिर्फ ‘अच्छा है’, या सिर्फ ‘बुरा है’, केवल ‘सुखद है’, या केवल ‘दुखद है’ — ऐसा कोई भावनात्मक मूल्यांकन नहीं किया। बल्कि उन्होंने सिखाया कि जीवन को अच्छा या बुरा मानने के बजाय, हमें परेशान करती उस पीड़ा पर तत्काल उपाय करना चाहिए। चुभते तीर को निकाल बाहर करना चाहिए। दुःख के स्वरूप और आकार को भलीभाँति समझना चाहिए, ताकि उसे उचित दवाई देकर ख़त्म किया जा सकें।

उनकी पेशेवर शैली से हमें समझ में आता है कि दुःख दरअसल शरीर, वेदनाओं या रचनाओं में नहीं, बल्कि उनसे ‘चिपकाव’ के कारण होता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो बुद्ध ने दुःख के मुख्य कारण ‘जीवन’ और उससे जुड़े ‘पाँच स्कन्धों’ को नहीं बताया। बल्कि उन्होने उसका कारण पाँच ‘उपादान-स्कन्धों’ को बताया। अर्थात, ‘कायिक रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, और विज्ञान’ अपने आप में दुःख उत्पन्न नहीं करते हैं। बल्कि इन स्कंधों से ‘चिपके रहना’, या उनसे ‘आसक्त रहना’ दुःख उत्पन्न करता है! जो उनसे चिपके रहेगा, उसे दुःख होगा। जो नहीं रहेगा, उसे नहीं होगा।

इतनी साधारण-सी बात का बोध होना सरल नहीं है। क्योंकि हम खुद की अज्ञानता से भरी धारणाओं से ही सुपरिचित है, और उनसे ही बंधे रहते है। यदि अचानक हमें परम-तथ्यों या आर्य-सत्यों के उपाय बताएं जाएँ, तो यकायक अक्षमता या असमर्थता महसूस होती है, और चित्त उससे दूर हटता है। लेकिन संभव है कि समय बीतने पर हमें उन सत्यों की व्यावहारिकता नज़र आएँ। तब जाकर हम आर्यसत्य और उसके उपायों को स्वीकार करने की ओर कदम बढ़ाते हैं।

बहरहाल, हमें सीखना होगा कि जीवन को सिर्फ ‘दुःखमयी’ या ‘सुखमयी’ कह देना उचित नहीं है, जब उसका असली कारण ‘चिपकने की प्रवृत्ति’ है। यदि हम उस प्रवृत्ति को छोड़ दें, तभी ‘आज़ादी’ या ‘मुक्ति’ का अनुभव कर सकते हैं। और फलस्वरूप असीम राहत, सुख, शान्ति और शीतलता महसूस कर सकते हैं।

तो, सवाल यह नहीं है कि किसी ईश्वर, देवता या आपके भाग्य ने आपको ये ‘कैसा’ जीवन दे दिया। बल्कि यह है कि हम उस जीवन का संचालन कैसे कर रहे हैं? उसे दिन-ब-दिन क्या-से-क्या बनाते जा रहे हैं? अँधेरे से अँधेरे की ओर बढ़ रहे हैं, या उजाले की ओर? क्या हम जीवन जीने की कुशल कलाओं को आत्मसात कर रहे हैं? या मदमस्त होकर आत्मपीड़ा और परपीड़ा बढ़ाने वाले तौर-तरीकों में ही लिप्त हैं?

यदि हम पलायन करना छोड़ दें, ईश्वर और भाग्य पर निर्भर रहना छोड़ दें, और चार आर्यसत्यों को पेशेवर और व्यावहारिक तरीके से जीवन में लागू करें, तो आशा हैं कि एक-न-एक दिन हमें अवश्य दुःखों का मूल कारण और उसका हल दिखाई देगा। और तब हम भी किसी पेशेवर, कुशल और निपुण व्यक्ति की तरह कहेंगे — “समस्या दिख गयी! और ये रहा उसका हल! लो, समस्या ख़त्म!"😇