पारमी शब्द “परम” से उत्पन्न हुआ है, जिसका सरल अर्थ है किसी धर्मगुण को बढ़ाकर उसकी “परम अवस्था” तक पहुँचाना। पारमी को “पूर्णता” या “संचय” के रूप में भी समझा जाता है। यह शब्द उन आदर्श गुणों का प्रतिनिधित्व करता है, जिनका संचय साधक को बुद्धत्व (या अर्हत्व) की प्राप्ति में सहायक बनता है।
आज दस पारमिताएँ — जैसे दान, शील, निष्कामता, प्रज्ञा, वीर्य, क्षांति, सच्चाई, अधिष्ठान, मेत्ता, और उपेक्षा — थेरवादी साधना में व्यापक रूप से प्रतिष्ठित हो चुकी हैं। किंतु यह ध्यान देने योग्य है कि प्राचीन बौद्ध साहित्य (Early Buddhist Texts - EBT) में पारमिता का उल्लेख नहीं मिलता।
वास्तव में, पारमी की अवधारणा मूल बुद्ध वचनों से एक महत्वपूर्ण भटकाव है। इस ऐतिहासिक विकास और उसके प्रभावों को समझना आवश्यक है।
बुद्ध के मूल ग्रंथ — दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुत्तनिकाय, और अंगुत्तरनिकाय — में “पारमी” शब्द का प्रयोग अत्यंत अल्प है। जहाँ कहीं इसका उल्लेख होता भी है, वहाँ इसका संदर्भ भिन्न होता है। “बोधिसत्त्व” शब्द बुद्ध के पूर्वजन्मों के प्रसंग में अवश्य आता है (जैसे दीघनिकाय १४ में), परंतु कहीं भी ‘पारमी संचय’ की चर्चा नहीं होती।
प्रारंभिक बौद्ध उपदेशों में साधकों को मुख्यतः चार आर्य सत्यों के साक्षात्कार तथा आर्य अष्टांगिक मार्ग के अभ्यास के माध्यम से निर्वाण प्राप्ति पर केंद्रित किया गया था। उस समय का बौद्ध धर्म तत्काल निर्वाण साधना पर केंद्रित था, न कि दीर्घकालिक बुद्धत्व की आकांक्षा पर।
भिक्खु बोधि, भिक्खु अनालयो, और प्रो. गोम्ब्रिच जैसे आधुनिक बौद्ध विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि प्रारंभिक पालि सुत्तों में “पारमी” की कोई अवधारणा विद्यमान नहीं थी।
बुद्ध ने जो वास्तविक साधना-पथ सिखाया, उसे “बोधिपक्खिय धम्म” के नाम से जाना जाता है — और वही निर्वाण प्राप्ति के लिए अनिवार्य साधना थी। इसमें सम्मिलित हैं:
यही बौद्ध धर्म का मूल साधना-पथ था, जो साधक को सीधे मुक्ति (निर्वाण) की ओर ले जाता था — न कि किसी भविष्यकालीन बुद्धत्व की योजना की ओर। यदि पारमी की आवश्यकता होती, तो बुद्ध निश्चित ही उन्हें इस मार्ग का अंग बनाते। लेकिन स्पष्ट है कि उन्होंने ऐसा नहीं किया। बुद्ध का आदर्श बहुसंख्यक जीवनों में गुण संचय कर किसी आदर्श चरम तक पहुँचने का नहीं था, और न ही उन्होंने किसी साधक को इस दिशा में प्रेरित किया।
बुद्ध के परिनिर्वाण के लगभग पाँच सौ वर्षों बाद, महायान परंपरा में जातक कथाओं, बोधिसत्त्व-मार्ग, और पारमिताओं का तेजी से विकास हुआ। महायान ग्रंथों में “छह” पारमिताएँ साधना के रूप में प्रतिष्ठित हुईं, और वहीं से उनकी व्यापक लोकप्रियता का आरंभ हुआ। इसी महायान प्रभाव के चलते थेरवाद में भी बोधिसत्त्व साधना का आदर्श धीरे-धीरे लोकप्रिय होने लगा।
तीसरी-चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद रचित ग्रंथों — विशेषतः बुद्धवंस और चरियापिटक — में बोधिसत्त्व द्वारा दस पारमियों के संचय का उल्लेख मिलता है। बुद्धवंस में “सुमेध” बोधिसत्त्व दीपंकर बुद्ध के समक्ष बुद्धत्व प्राप्ति हेतु संकल्प करते हैं और दस पारमियों के पूर्ण अभ्यास का व्रत लेते हैं। चरियापिटक में भी इन्हीं पारमियों के अभ्यास से जुड़ी कथाएँ प्रस्तुत की गई हैं।
रिचर्ड गोम्ब्रिच और भिक्षु अनालयो जैसे विद्वान इस मत से सहमत हैं कि महायान के प्रतिस्पर्धी प्रभावों के चलते थेरवाद ने भी स्वतंत्र रूप से (दस पारमियों के रूप में) इस अवधारणा का विकास किया, और उसे इस प्रकार अपने सिद्धांतों में समाहित किया कि वह थेरवाद की मौलिक धारा से विरोधाभासी न लगे।
यह परिवर्तन इस बात का संकेतक है कि बौद्ध समुदाय में साधकों के लिए एक दीर्घकालीन प्रेरणा-स्रोत की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी थी। यद्यपि यह सामाजिक दृष्टि से एक उपयोगी कदम था, फिर भी यह बुद्ध के मूल धर्म से एक महत्वपूर्ण विचलन सिद्ध हुआ।
पाँचवीं शताब्दी में, पालि विद्वान आचार्य बुद्धघोष ने अपनी कृति “विशुद्धिमग्ग” तथा अन्य अट्ठकथाओं में पारमी की संकल्पना को व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया और उसे अधिकांश सूत्रों की व्याख्या में समाहित कर दिया।
उन्होंने प्रत्येक पारमी को तीन स्तरों में विभाजित किया — पारमी, उपपारमी, और परमत्थ पारमी — और स्पष्टतः कहा कि बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए इन गुणों का संचय अनिवार्य है। इस प्रकार, बोधिसत्त्व साधना का एक विस्तृत ढांचा तैयार हुआ, जो मूलतः भविष्य में बुद्धत्व प्राप्त करने की दीर्घकालिक योजना पर केंद्रित था।
बुद्धघोष ने साधना के आदर्श को इस तरह मोड़ दिया कि वह अनेक जन्मों में तपस्या और गुण संचय की प्रक्रिया बन गया। इसका परिणाम यह हुआ कि सामान्य साधक भी बोधिसत्त्व बनने की आकांक्षा पालने लगे, और तत्काल दुःखमुक्ति (निर्वाण) की साधना की अपेक्षा, धर्म का लक्ष्य दूरगामी और दीर्घकालिक बन गया। अब इस जीवन में तुरंत मुक्ति का मार्ग गौण हो गया।
धीरे-धीरे, पारमी बौद्ध जीवन का आदर्श बन गईं। साधारण गृहस्थ से लेकर राजाओं तक, सभी के लिए पारमियों का संचय धर्म-साधना का प्रतीक बन गया। इसके परिणामस्वरूप तत्काल निर्वाण प्राप्ति का स्थान दीर्घकालिक पुनर्जन्म और भविष्य के बुद्धत्व की आकांक्षा ने ले लिया।
इसके साथ ही, धर्म की मूल शिक्षाएँ भी लुप्त होने लगीं। उदाहरणस्वरूप, विशुद्धिमग्ग के पश्चात “सम्यक-समाधि” की अवधारणा और उसकी साधना क्रमशः विकृत होती चली गई। उसकी जगह अन्य साधनाएँ, जैसे कि “सूखी विपस्सना”, प्रचलन में आईं — जिनका प्रारंभिक सूत्रों में कोई उल्लेख नहीं मिलता।
अंततः, जब धर्म के विकृत होने के कारण निर्वाण की प्रत्यक्ष उपलब्धि अत्यंत दुर्लभ हो गई, तब पारमी को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया कि अब बुद्धत्व ही नहीं, बल्कि “अरहत्व” प्राप्त करने के लिए भी पारमियों का संचय आवश्यक बताया जाने लगा। इसके समर्थन में न तो किसी मूल सूत्र का प्रमाण दिया गया, और न ही सैकड़ों वर्षों बाद रचित मिलावटी ग्रंथों का। यह विचार बस सहज रूप से स्वीकार कर लिया गया।
इस प्रकार, बौद्ध साधना का फोकस इस जीवन में मुक्ति से हटकर अनगिनत जन्मों तक गुण संचय की दीर्घकालिक यात्रा पर स्थानांतरित हो गया।
अब तक हमने पारमी की उत्पत्ति और विकास को समझा। आइए अब कुछ ऐसे विचारणीय प्रश्नों पर ध्यान दें, जो पारमी की अवधारणा और उसकी प्रामाणिकता पर गंभीर शंका उत्पन्न करते हैं:
यदि दान पारमी का संचित होना आवश्यक होता, तो जिन लोगों ने पूर्वजन्मों में दान पारमी पूरी की होती, वे इस जन्म में अमीर पैदा होते और वही लोग अरहंत बनते। परंतु बौद्ध इतिहास गवाह है कि पिछली सदी में थाईलैंड जैसे देशों में गरीब किसान परिवारों से संन्यास लेकर अनेक साधक — जैसे अजाह्न — अरहंत बने, जबकि वहाँ के धनवान राजाओं और समृद्ध लोगों में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। यहाँ पारमियों के संचय की कल्पना और उसकी प्रासंगिकता दिखाई नहीं देती।
यदि अरहंत बनने के लिए पारमी का संचय आवश्यक होता, तो केवल धनवान, शीलवान, प्रज्ञावान और पैदाइशी सत्पुरुष ही इस लक्ष्य को प्राप्त कर पाते। किंतु प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में, और आज भी, दुर्लभ उदाहरण मिलते हैं जहाँ गरीब, अशील, हत्यारे या अल्पबुद्धि व्यक्ति भी इस जीवन में ही शुद्ध प्रयास द्वारा अरहंत बन सके हैं।
आजकल यह धारणा फैली है कि बिना पारमियों के संचय के कोई गृहत्याग नहीं कर सकता। किंतु भगवान बुद्ध ने अपने पुण्यशील भाई महानाम शाक्य से स्पष्ट कहा था कि उसके गृहस्थ जीवन में रुकने का कारण “लोभ, द्वेष और मोह” हैं — न कि पारमी का अभाव। अतः, गृहत्याग का प्रश्न सीधे मानसिक कलुषों से जुड़ा था, न कि गुणों के पूर्वसंचय से।
भगवान ने धर्मोपदेश के समय बताया कि अरहत्व प्राप्त करने के लिए केवल दो न्यूनतम गुण आवश्यक हैं: (१) व्यक्ति समझदार (विञ्ञु) हो, और (२) पाखंडी न हो। उन्होंने पारमियों का कोई उल्लेख नहीं किया।
भगवान ने स्पष्ट कहा कि कोई साधक तुरंत अरहंत बनता है और कोई धीरे-धीरे — यह उसकी पाँच इन्द्रियों (श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि, प्रज्ञा) की सबलता या दुर्बलता पर निर्भर करता है। यहाँ भी पारमियों की कोई भूमिका नहीं दिखाई देती। लेकिन उन पाँच इंद्रियों की आवश्यकता “बोधिपक्खिय धम्म” में समाहित है।
थेरवाद में पारमी का सिद्धांत एक ऐतिहासिक और क्रमिक विकास का परिणाम है, जो सामाजिक आवश्यकताओं और धार्मिक प्रतिस्पर्धा के दबाव में उत्पन्न हुआ। निस्संदेह, पारमियों ने साधकों को नैतिक प्रेरणा और दीर्घकालिक साधना का एक आदर्श प्रदान किया, लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट है कि पारमी की अवधारणा मूल बौद्ध शिक्षाओं — विशेषतः ३७ बोधिपक्षीय धर्मों और तत्काल निर्वाण-साधना — से एक निर्णायक भटकाव है।
आज, जब हम बौद्ध साधना के शुद्धतम रूप को समझने का प्रयास करते हैं, तो यह आवश्यक है कि हम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित वास्तविक मार्ग को पहचानें — वह मार्ग जो लोभ, द्वेष और मोह के तत्काल उन्मूलन और इस जीवन में ही निर्वाण प्राप्ति पर केंद्रित था — न कि समय के साथ विकसित हुई सांस्कृतिक परंपराओं और आदर्शों को वास्तविक धर्म मान लें।
आइए, श्रद्धापूर्वक, बुद्ध के असली संदेश और उनके द्वारा दिखाए गए सीधे और सरल मार्ग का पुनर्पाठ करें — वही मार्ग जो जन्म, जरा, रोग और मृत्यु के अंत का सत्य उपाय है।