इस रंगबिरंगी दुनिया में विविध धर्म और उनकी अनेक राहें हैं। आदिकाल में धर्म बाहरी सृष्टि की भव्यता और उसकी जटिलता से मंत्रमुग्ध होकर प्रचलन में आएँ। पौराणिक धर्म देवताओं द्वारा अबोध मानवों को नियमारूप बताएँ गए। कुछ धर्म समाज में वर्चस्व और एकाधिकार स्थापित करने की कोशिश से गढ़े गए, जबकि कुछ धर्मों का उदय सच्चे आध्यात्मिक अनुभवों से हुआ। लेकिन बुद्ध का धर्म, जो ‘सम्बोधि’ से उत्पन्न हुआ, एक अद्वितीय मार्ग की कहानी है।
एक साधारण मानव ने अपने असाधारण प्रयासों से परममुक्ति की खोज की, संबोधि प्राप्त की और सम्यक-सम्बुद्ध बने। उन्होंने संबोधि के माध्यम से जो अनन्त ज्ञान प्राप्त किया, उसका थोड़ा-सा ही अंश, आज भी, लगभग २६०० वर्षों बाद, हमारे जीवन की तनाव, पीड़ा और व्याकुलता को जड़ से समाप्त करने का मार्ग दिखाता है। इस प्रकार, ‘सम्बोधि’ केवल श्रद्धा का नहीं, बल्कि ज्ञानवर्धन और कौतूहल का भी विषय है, जिसे जितना अधिक जानेंगे, उतना ही जीवन सीधा और लक्ष्यपूर्ण बनेगा।
हालांकि, बुद्ध ने अपने संबोधि के बारे में अधिक विस्तार से नहीं बताया, बल्कि केवल सतही जानकारी दी। उन्होंने बताया कि संबोधि प्राप्त करने के दौरान जो ज्ञान उन्हें प्राप्त हुआ, वह पूरे वन के पत्तों के समान विस्तृत था। जबकि उन्होंने जो ज्ञान साझा किया, वह मात्र एक मुट्ठी पत्तों के समान था। उनका यह कदम दर्शाता है कि उनका एक मुट्ठी ज्ञान ही जीवन की तमाम पीड़ा और तनाव को समाप्त करने के लिए पर्याप्त है। बाकी का ज्ञान, शायद, अप्रासंगिक हो सकता है और लक्ष्य विचलित कर सकता है।
उन्होंने मुख्यतः तीन प्रकार के ज्ञान पर ध्यान केंद्रित किया — पहला, पूर्वजन्मों का स्मरण ज्ञान। दूसरा, सभी सत्वों की कर्मानुसार पुनरुत्पत्ति का ज्ञान; और तीसरा, आस्रव-क्षय ज्ञान। और इसी अंतिम ज्ञान के माध्यम से उन्होंने मुक्ति, मोक्ष अथवा निर्वाण प्राप्त किया। किन्तु, पहले दो ज्ञान आवश्यक हैं, ताकि संसार में भटकते रहने के दुःखदायी परिणाम दिखायी दें, और हम तीसरे ज्ञान की ओर मुक्ति-कदम बढ़ा सकें।
उन्होंने अपने पूर्वजन्मों के बारे में केवल इतना ही बताया कि उससे हमें संसारचक्र की नश्वरता का अहसास हो सके। इसका सार यह था कि जीवन एक निरंतर आवृत्ति है—जन्म, नाम, पहचान, सुख-दुख के अनुभव, भोजन, और फिर मृत्यु। और यह चक्र अनवरत चलता रहता है। यह जानकारी हमें संसार के प्रति उदासीनता उत्पन्न करने के उद्देश्य से दी गई।
मानवता को करुणा के साथ धर्म सिखाते हुए, बुद्ध ने स्पष्ट किया कि हमारे अनेकों जन्मों में बहाए गए आँसू समुद्रों के कुल जल से भी अधिक हैं। केवल माँ की मृत्यु पर बहाए गए आँसू पृथ्वी के सभी समुद्रों के जल से भी अधिक हैं। पिता, पुत्र, पुत्री, भाई, बहन, गंभीर-रोग, संपत्ति लुट जाना इत्यादि दुःखों पर अलग समुद्र भर सकते हैं। उनका उद्देश्य था कि हम इन आसक्तियों की अस्थिरता और दुःखदायी पहलुओं पर ध्यान दें और संसार से मुक्ति की ओर प्रेरित हों।
यदि हम बुद्ध के प्रत्येक प्रवचन का उद्देश्य जानने की कोशिश करें, तो यह स्पष्ट होता है कि वे संवेग की ओर प्रेरित करते हैं। संवेग, अर्थात संसार की अस्थिरता को देखकर मुक्ति की प्रबल इच्छा का जागरण। यह इच्छा बुद्ध द्वारा प्राप्त पहले और द्वितीय ज्ञान से उत्पन्न होती है, जो बताता है कि सभी प्राणी अपने कर्मों के अनुसार बार-बार जन्म लेते हैं और कर्म उनकी सोच और इरादों से तय होते हैं।
बुद्ध ने इन तथ्यों की व्यापक जानकारी नहीं दी। उन्होंने केवल आवश्यक ज्ञान प्रदान किया ताकि हम समझ सकें कि चाहे इस संसार में कितना भी मजा क्यों न हो, यह अंततः अस्थायी और दुःखदायी है। यहाँ तक कि देवताओं और ब्रह्माओं की ऊँचाई तक पहुँचने के बाद भी यह चक्र रुकता नहीं, थमता नहीं, और अंततः वे भी पुनः गिर पड़ते हैं।
सम्बोधि के तीसरे ज्ञान में, बुद्ध ने जाना कि कर्म जीवन में दुःख उत्पन्न कर सकते हैं, सुख दे सकते हैं, या दुःखों का जड़ से नाश भी कर सकते हैं। कर्म ही वह मोड़ है, जहाँ से जीवन के रास्ते निकलते हैं और परिणाम तय होते हैं। यही केन्द्रबिन्दु है, जिस पर ध्यान देना आवश्यक है। विविध कर्मों की गुणवत्ता को समझते हुए, हमें उचित कर्म का चयन करना होता है और उसके परिणाम के लिए तैयार रहना पड़ता है। बुद्ध ने कर्म के चयन की इस प्रक्रिया का महत्व समझाया, जो जीवन जीते समय और मृत्यु के क्षण में भविष्य को आकार देती है। यही बोध उनके शिक्षण का मूल था: दुःख के उत्पत्ति का कारण और उसे समाप्त करने का उपाय।
बुद्ध का मार्ग सभी के लिए खुला है—साधारण मानव हो या देवता। कोई भी इस मार्ग पर चलकर बोधि और मुक्ति प्राप्त कर सकता है। कोई भी जाति या प्रजाति का मनुष्य सम्बोधि प्राप्त करने की आवश्यकताओं को विकसित कर सकता है, बशर्ते वह स्वयं से ईमानदार और समझदार हो।
भगवान बुद्ध और उनकी संबोधि पर विश्वास रखना केवल उनके जीवन की कथाओं को जानने का नहीं है, बल्कि उनके द्वारा दिखाए मार्ग पर चलने का भी है। यही संबोधि की वास्तविकता है—एक ऐसा ज्ञान जो हमेशा हमारे लिए उपलब्ध है, और जो हमें जीवन की तमाम परेशानियों से मुक्त कर सकता है। शील, चित्त की एकाग्रता और अंतर्दृष्टि के माध्यम से हम भी वही परममुक्त अवस्था प्राप्त कर सकते हैं, जो बुद्ध ने पाई और उनके अनगिनत शिष्यों ने प्राप्त की। यही कारण है कि संबोधि आज भी हमारे लिए उतनी ही प्रासंगिक और आवश्यक है, जितनी अतीत में थी और जितनी भविष्य में रहेगी।