बुद्ध के समय जम्बूद्वीप का मध्य देश (=आज का उत्तर प्रदेश और बिहार) बुद्धि-विलास और तर्क-वितर्क करने का एक प्रमुख केंद्र था। वह गणित, विज्ञान, ज्योतिष्य और दर्शनशास्त्र में प्रगत माना जाता था, जबकि खगोलशास्त्र के क्षेत्र में नई प्रगतियाँ हो रही थी। खगोलशास्त्री गृह-नक्षत्रों की गतिविधि देखकर नए निष्कर्ष निकाल रहे थे कि ‘समय’ दरअसल दोहराता है, और उसकी कोई सीमा नहीं है। वह अनन्तकाल दोहराते हुए चलते रहता है। उसे ‘कालचक्र’ कहा गया, और कालखंड के एक लंबे चक्कर को ‘कल्प’ पुकारा गया।
तब इसके मद्देनजर दार्शनिक लोगों ने मानव-जीवन पर अनेक प्रश्न उठाएँ। वे दार्शनिक दो मुख्य खेमों में बंट गए — पहले, ब्राह्मण वादी लोग थे, जो वेदों की सीमित चौखट में रहकर, वैदिक-शास्त्रों के अनुसार विश्लेषण करते, और अक्सर पक्षपाती ढ़ंग से वेदों का बचाव करते नजर आते। और दूसरे, जिन्हें श्रमण कहा जाता था, जो निष्पक्ष रहकर तथ्यों और नए वैज्ञानिक खोज के आधार पर विश्लेषण करते, और नए दार्शनिक सिद्धांतों को जन्म देते। वे अक्सर वेदों की संप्रभुता को चुनौती देते, और उसके फलस्वरूप ब्राह्मणी वर्चस्वता पर प्रश्नचिन्ह लग जाते। जाहिर है, उनमें तीखी बहस होती। 1
सिद्धार्थ के बुद्धत्व से पहले ही, इन ‘श्रमण’ और ‘ब्राह्मण’ साधकों के बीच सृष्टि के नियमों और परमसुख की खोज को लेकर व्यापक असहमति बन चुकी थी। उनकी असहमति मुख्यतः दो मुद्दों पर थी —
(१) आत्मा: ब्राह्मणों के साथ-साथ अधिकांश श्रमण परंपराएँ मानती थी कि किसी व्यक्ति की आत्मा या उसकी व्यक्तिगत पहचान जन्म से पहले और मृत्यु के बाद भी बनी रहती है। असहमति इस बात पर थी कि क्या वह पहचान सदैव एक-सी रहती है, अथवा परिवर्तनशील है।
वेदों ने पुनर्जन्म का सकारात्मक वर्णन किया था। लेकिन बुद्ध के समय तक आते-आते नए खगोल तथ्य सामने आए, और ‘कालचक्र’ और ‘कल्पो’ की बात होने लगी। अनन्त घूमते कालचक्र में बार-बार पुनर्जन्म लेने की प्रक्रिया उबाऊ दिखने लगी, और उसमें सुख देखने वालों में भारी कमी आयी। तब वेद वर्णन को व्यर्थ देखने वाली अनेक श्रमण परंपराएँ चल पड़ी, जो मुक्ति के नए-नए तरीके खोजती। हालाँकि एक भोक्तावादी श्रमण परंपरा, जिसे ‘लोकायतन’ कहा जाता, किसी भी आत्मा या पहचान का अस्तित्व ठुकराते हुए कामसुख में ही सच्चा सुख मानती।
(२) कर्म और कारण-कार्य: वेदों ने कर्म का सिद्धांत प्रस्तुत जरूर किया था, किन्तु उसका महत्व बहुत सीमित और वर्णन अर्थहीन-सा था। उसमे था कि उचित कर्म मरणोपरांत अगले जीवन में सुख देते हैं, किन्तु वे उचित कर्म वेद-मान्य कर्मकाण्ड थे, जैसे यज्ञ, हवन, गाय-अश्व आदि पशुओं की बलि, केवल ब्राह्मणों को दानदक्षिणा, और उनसे ही कर्मकाण्ड कराना। उनके अनुसार कर्मकाण्ड सही ढंग से किया जाना अत्यावश्यक था, जिसके लिए कर्मकाण्ड मैनुअल बनाए गए और अनजाने में हुई गलतियों के लिए भी विशेष मंत्र रचे गए। इस तरह, ब्राह्मणों के कर्म सिद्धान्त का अर्थ केवल सामाजिक स्तर पर की गयी शारीरिक क्रिया थी।
जाहिर है, सभी श्रमण परंपराओं ने वेदों का कर्म सिद्धांत ठुकरा दिया, और वह भी अलग-अलग कारणों से। एक श्रमण परंपरा, जिसे ‘आजीवक’ कहा जाता, ने कहा कि मानव-कर्म प्रभावहीन होते है और जीवन पर असर नहीं डालते। आजीवकों की एक शाखा ने कहा कि ब्रह्मांड में सभी कर्म भ्रामक हैं क्योंकि वास्तविकता केवल अपरिवर्तनीय धातुओं का खेल है। आजीवकों की ही दूसरी शाखा ने कहा कि कर्म और फल होते तो हैं, लेकिन मुक्ति भाग्य के अधीन है। मुक्ति जब होगी तब होगी, उसके लिए प्रयास करना निरर्थक है। उनकी प्रसिद्ध उपमा ‘सूत का गोला’ थी, जिसका एक छोर पकड़कर उछाला जाए तो गोला खुलते जाता है। उसी तरह कर्म-संस्कारों की कड़ियाँ आपस में जुड़ी होती हैं, जो समय के साथ उसी क्रम में खुलती जाती हैं।
लोकायतन का कहना था कि शारीरिक कर्म इसी जीवन पर असर डालते हैं, लेकिन भविष्य में पुनर्जन्म नहीं होता। सारी घटनाएँ यूँ-ही अकस्मात घटती हैं, और कारण-कार्य, अच्छाई-बुराई जैसी कोई चीज नहीं है।
जैन मानते थे कि सभी कर्म दरअसल हिंसा का एक रूप है। अधिक हिंसात्मक कृत्य अधिक आस्रव उत्पन्न करते हैं, जो आत्मा को पुनर्जन्म के चक्र में बाँधते हैं। इसलिए सच्चा सुख इस जीवन में नहीं, अगले जीवन में ही संभव है। और वह भी तब, जब कोई स्वयं को खूब आत्म-पीड़ा दे, ताकि आत्मा से चिपके हुए आस्रव जल जाएँ, और नए कर्म कम-से-कम बनाए।
हालाँकि अनेक मतभेदों के बावजूद, वैदिक ब्राह्मणों और जैन श्रमणों में कुछ समानताएँ थीं। जैसे दोनों मानते थे कि कर्म का मन से कोई लेना-देना नहीं, बल्कि शरीर से है। और कर्म के फल निश्चित और तय होते हैं, और अनुक्रम से मिलते हैं।
बोधिसत्व ने इन विभिन्न दृष्टिकोणों की पृष्ठभूमि में अपने परममुक्ति की खोज शुरू की। जहाँ एक-ओर तो कुछ श्रमण परंपराओं ने कर्म को अराजक और व्यर्थ माना था, जबकि दूसरी-ओर ब्राह्मण और कुछ श्रमण परंपराओं ने कर्म को केवल शारीरिक मानते हुए नियतिवाद और अनुक्रमता के नियमों से बंधा बताया था।
बोधिसत्व ने निरीक्षण किया कि यदि नियतिवाद (=सब तय है!) और पूर्ण अराजकता (=सब अकस्मात है!) के सिद्धांतों को मान लिया जाए, तो उद्देश्यपूर्ण कर्म का कोई अर्थ नहीं रह जाता। तब भी उन्हीं सिद्धांतों के अनुयायी उद्देश्यपूर्ण तरीके से कर्म करते दिखायी देते हैं। यदि केवल शारीरिक कर्मों का फल हैं, मनोकर्म का फल नहीं, तब मनोकर्म सुधारना, मन तीक्ष्ण बनाना, उचित जानकारी रखना, सही या गलत समझना भी आवश्यक नहीं। तब भी सभी श्रमण-ब्राह्मण इस बात पर सहमत हैं कि सही जानकारी रखना, सच्चाई को सही ढंग से समझना अत्यावश्यक है। किसी भी पक्ष ने अपनी धारणाओं को प्रमाणित करने के लिए तर्क और अवलोकन के उच्च-मानकों का उपयोग नहीं किया था। इससे बोधिसत्व को पता चला कि सच्चाई को समझना और उस पर सही निष्कर्ष निकालना, दरअसल एक महत्वपूर्ण ‘मानसिक’ कौशल है, जिसे दूसरे महत्व नहीं देते हैं। तब बोधिसत्व ने उन दार्शनिक बहसों के बजाय अपने तत्काल अनुभव और मानसिक कुशलताओं पर ध्यान केंद्रित किया।
बोधिसत्व ने अपने चित्त में उन निहितार्थों की खोज की, जिन्हें अन्य परंपराएँ नजरअंदाज कर रही थी। उन्होंने न केवल मन के विचारों, स्वभावों और चित्त-वृत्तियों पर ध्यान दिया, बल्कि उन विचारों और स्वभावों के घटकों को तोड़-मरोड़कर देखा कि — उनकी कब, कैसे, क्यों, और किसके साथ उत्पत्ति होती हैं, निरोध होता हैं, वृद्धि होती हैं, कमजोर होते हैं, या चरम-अवस्था को प्राप्त करते हैं? इस तरह, बोधिसत्त ने ज्ञान के अनगिनत तथ्यों को जुटाने के बजाय, अपने मन को अत्यंत कुशल और तीक्ष्ण बनाया, और मनोकर्म को प्रत्यक्ष तौर पर यथाभूत जानना शुरू किया।
उन्होंने सीखा कि मानसिक कौशल को विकसित किया जा सकता है। उन्हें पता चला कि ‘राग, द्वेष और भ्रम’ से दूषित विचार वर्तमान में हानिकारक होते हैं, और भविष्य में भी बुरा परिणाम देते हैं। दूसरी ओर, ‘विराग, सद्भाव और विमोह’ से उज्ज्वल विचार वर्तमान में सुख और राहत देते हैं, और भविष्य में भी सुखद फल देते हैं। यदि कोई अपने मन को ठीक करता है, विचारों को व्यवस्थित करता है, तो वह उजाले की ओर बढ़ने लगता है, भले ही उसके पूर्व कर्म अच्छे न रहे हो। दूसरी ओर, भले ही किसी के पूर्व कर्म अच्छे रहे हो, किन्तु पश्चात मन बिगाड़ कर बुरे विचार करने लगे, तो वह अँधेरे की ओर बढ़ने लगता है।
इसका अर्थ था कि मनोकर्म व्यर्थ नहीं, बल्कि सबसे अग्र, महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण था। एक मनोकर्म का उपजा परिणाम दूसरे मनोकर्म की तुलना में बेहतर या निकृष्ठ होता है। इसलिए मानसिक कौशल विकसित करना निरर्थक नहीं, अत्यावश्यक था। और इसके अलावा, कौशल विकसित करते समय गलतियों से सीखा जा सकता था। अर्थात, — कर्म, उसके फल, और उस पर हुई पुनः प्रतिक्रिया — का चक्र, पूरी तरह से निश्चित नहीं है, तय नहीं है, और अनुक्रम से नहीं मिलता है। बल्कि वह पूर्व मानसिक कुशलताओं और वर्तमान प्रयास के साथ कई अन्य घटकों पर निर्भर करता है। उसमें ध्यान-साधना, दृष्टि-धारणा, और चेतना-इरादे भी अपना इनपुट देते हैं, जब चक्र ‘क्रमिक’ और ‘अकस्मात’ दोनों ही मोड़ों से गुजरता है।
इस संदर्भ में, ध्यान-साधना एक महत्वपूर्ण घटक है। जिसने भी किसी कौशल में महारत हासिल की हो, उसे यह समझ में आता है कि महारत की प्रक्रिया में तीन घटकों पर ध्यान देना आवश्यक है: (१) वास्तविक मौजूदा परिस्थिति क्या है, (२) उस परिस्थिति में अब क्या नया प्रयास किया जा रहा है, और (३) उन दोनों से उपजते परिणाम पर कैसी प्रतिक्रिया दी जा रही है। ‘आतापी सम्पजानो सतिमा’ की इस तिकड़ी को सरल हिन्दी में ‘तत्पर, सचेत और स्मरणशील’ होना कहते हैं, जो हमें अपनी मौजूदा परिस्थिति, कुशल प्रयास कर्म, और उनके प्रभाव में उपजते परिणाम पर निगरानी रखने में सक्षम बनाती है। यही तिकड़ी किसी भी कौशल को उसके चरम-सीमा तक बढ़ाने की कुंजी है।
अपनी साधना के प्रथम चरण में, बोधिसत्व ने मन की कुशलता को तब तक बढ़ाना जारी रखा, जब तक वह ‘झान’ (=चित्त की स्थिर एकाग्रता) की उच्चतम अवस्था तक नहीं पहुँच गयी। चतुर्थ-ध्यान के रूप में उन्हें ऐसी मानसिक अवस्था प्राप्त हुई, जो तटस्थता और सजगता की चरम अवस्थाएँ थी, जहाँ शारीरिक सुख या पीड़ा, अथवा मानसिक खुशी या परेशानी के अहसास पीछे छूट गए थे। उस तेजस्वी चित्त को उन्होने अपने पूर्वजन्मों के स्मरण करने की ओर मोड़ा। और पाया कि वास्तव में उनके अनगिनत जन्म हुए थे। और पूर्व जन्मों के कर्म, उनके इस जीवन को भी प्रभावित कर रहे थे।
इस पहली अंतर्दृष्टि ने एक गुत्थी सुलझायी। तब आगे, उन्हें यह जानना था कि क्या वास्तव में कर्म ही वह सिद्धान्त है, जो हमारे निजी जीवन के साथ-साथ संपूर्ण ब्रह्मांड को और उसमें पनपते समस्त जीवन को आकार देता है? तब उन्होने अपने तेजस्वी चित्त को दुनिया की ओर मोड़ा, और पाया कि वास्तव में दुनिया के समस्त सत्व कर्म के अनुसार ही विशेष जीवन और पुनर्जन्म पाते हैं। इस तरह, सत्वों के द्वारा हुए पूर्वकर्म और आज किए जा रहे वर्तमान-कर्म, मिलकर उन्हें सुख या दुःख का अहसास कराते हैं। और वे कर्म उनकी दृष्टि पर आधारित होते हैं।
इस दूसरी अंतर्दृष्टि ने दूसरी गुत्थी सुलझायी। और तब, उन्हें कर्म और पुनर्जन्म के इस दुष्चक्र से मुक्ति का मार्ग जानना था। उन्होने अपने समस्त अनुभवों को टुकड़े-टुकड़े कर चार श्रेणियों में विभाजित कर दिया — (१) तनावपूर्ण अनुभव होने के पीछे अपनी ही कोई आसक्ति देखना, (२) उस आसक्ति की उत्पत्ति तृष्णा के साथ होते हुए देखना, (३) उस तृष्णा के निरोध में दुःखमुक्ति देखना, और (४) उस तृष्णा का निरोध कराने पर अंतिम उपाय करना। उन्होने इस कारण-कार्य अंदाज को ‘मैं’, ‘मेरे’, या ‘पराए’ के चश्मे से न देखते हुए, केवल उनके मूल-स्वरूप में देखा, और सूक्ष्मता की ओर बढ़ते चले गए।
तब जैसे उन्हें कोई खोया मार्ग मिल गया; मुक्ति पाने की विद्या मिल गयी। इस विद्या को प्राप्त करते ही, उन्हें अपनी अविद्या या अज्ञानता का परिचय मिला। और उसके पीछे मूल कारण आस्रव नजर आएँ। तब उन्हें भी चार श्रेणियों में विभाजित कर उनका मूल-स्वरूप, उनका उत्पत्ति का कारण, कारण का निरोध, और निरोध करने का उपाय करते हुए, वे कर्तव्यशीलता के साथ आगे बढ़ते चले गए।
बोधिसत्व ने जैसे-जैसे विद्या के इन कर्तव्यों को निभाया, वैसे-वैसे उनका मानसिक कौशल चरम-अवस्थाएँ प्राप्त करने लगा, दृष्टि को सर्वोपरि तीक्ष्ण बनाने लगा। एक समय आया, जब उनके सात बोधि-अंग चरमता छुकर पूर्णतः विकसित हो गए। तब अनुभव की प्रक्रिया में शामिल सभी मानसिक इनपुट, एक-एक कर उन्होने त्यागते हुए चले गए। अंततः सब त्यागने के बाद, उन्होने इन सात बोधि-अंगों को भी त्याग दिया। परिणामस्वरूप, सभी इनपुट रुक जाने से एक अरचित अवस्था में प्रवेश हुआ।
इसी के साथ उन्हें परममुक्ति, संबोधि, निर्वाण का अनुभव हुआ, जो तनाव-व्याकुलता, मौत और पुनर्जन्म के परे की अवस्था थी। और उसके पश्चात अनन्त-ज्ञान का द्वार खुला। तब बोधिसत्त, बुद्ध बने। इस विद्या को उन्होने ‘चार आर्यसत्य’ कहा, जो सभी को जन्म, बुढ़ापा और मौत, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्त कर सकता था।
गौर करें कि सभी ब्राह्मण ‘ब्राह्मणवादी’ नहीं होते हैं। अधिकांश श्रमण परंपराओं के भी द्योतक ‘ब्राह्मण’ ही होते थे। इतिहास में बहुत कम श्रमण परंपराएँ क्षत्रिय लोगों द्वारा रचित थी। यह दुःखद सत्य है कि वैश्य और शूद्र वर्ण के श्रमण गुरुओं को गंभीरता से नहीं लिया जाता था। इसलिए ऐसी श्रमण परंपराएँ हो भी, तो उनकी लोकप्रियता न के बराबर थी। और इसलिए उस दौर के इतिहास में उनका उल्लेख मिलना कठिन है। ↩︎