उस समय बुद्ध भगवान उरूवेला में नेरञ्जरा नदी के किनारे बोधिवृक्ष के नीचे, बस अभी बुद्धत्व प्राप्त किए थे। वहाँ भगवान उस बोधिवृक्ष के नीचे एक सप्ताह तक एक आसन से बैठकर विमुक्ति सुख का निरंतर अनुभव करते रहे… (पहला) एक सप्ताह बीतने पर, भगवान उस समाधि से उठकर, बोधिवृक्ष के नीचे से ‘अजपाल’ नामक बरगद वृक्ष के नीचे गए। वहाँ जाकर, वे अजपाल बरगद के तले एक सप्ताह तक एक आसन से बैठकर विमुक्ति सुख का निरंतर अनुभव करते रहे… (दूसरा) एक सप्ताह बीतने पर, भगवान उस समाधि से उठकर, ‘अजपाल’ बरगद के नीचे से मुचलिन्द वृक्ष के नीचे गए। वहाँ जाकर, वे मुचलिन्द के तले एक सप्ताह तक एक आसन से बैठकर विमुक्ति सुख का निरंतर अनुभव करते रहे।
तब उस समय, बेमौसम महामेघ घिर आया, और एक सप्ताह तक शीतल पवन और बादलों के साथ बारिश होती रही। तब, नागराज मुचलिन्द अपने निवास से निकल कर भगवान के शरीर को अपनी सर्पकाया से सात बार लपेट कर, सिर पर विशाल फ़न तान कर खड़ा हुआ, ताकि “भगवान को ठंडी, गर्मी, मक्खी, मच्छर, पवन, धूप, और रेंगने वाले जीव-जन्तु न छु पाए।”
एक सप्ताह बीतने पर, जब नागराज मुचलिन्द को लगा कि देवताओं ने वर्षा रोक दी, तब उसने भगवान के शरीर से अपनी सर्पकाया की लपेट को खोल कर, स्वयं को एक युवा-ब्राह्मण के रूप में प्रकट कर, भगवान को हाथ जोड़कर नमन किया… (तीसरा) एक सप्ताह बीतने पर, भगवान उस समाधि से उठकर, मुचलिन्द के नीचे से राजायतन वृक्ष के नीचे गए। वहाँ जाकर, वे राजायतन के तले एक सप्ताह तक एक आसन से बैठकर विमुक्ति सुख का निरंतर अनुभव करते रहे।
तब उस समय, तपुस्स (=तपस्सु) और भल्लिक नामक दो व्यापारी, उक्कला (देश) से मार्ग पर चलते हुए, वहाँ उस स्थान पर पहुँचे। तब उस तपुस्स और भल्लिक के एक परिजन देवता ने उनसे कहा, “हे श्रीमानों! भगवान को अभी संबोधि प्राप्त हुई है, और वे राजायतन के तले रह रहे है। उन भगवान के पास जाओ, और उन्हें अपना ‘चीवड़ा और लड्डू’ अर्पण करों! ऐसा करना तुम्हारे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखदायी होगा !"
तब तपुस्स और भल्लिक व्यापारी, अपना चीवड़ा और लड्डू लेकर, भगवान के पास गए। और भगवान को अभिवादन कर एक-ओर खड़े हुए। एक-ओर खड़े होकर उस तपुस्स और भल्लिक व्यापारियों ने भगवान से कहा,
“भन्ते! भगवान हमारे चीवड़ा और लड्डू ग्रहण करें! ताकि यह हमारे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखदायी हो!"
भगवान को लगा, “तथागत कभी (भिक्षा को) सीधे हाथ में ग्रहण नहीं करते हैं। तब मैं इस चीवड़े और लड्डू को कहाँ ग्रहण करूँ?”
तब, चारों महाराज देवताओं ने भगवान के चित्त की बात जान ली। और वे चारों दिशाओं से चार पत्थर के भिक्षापात्र लेकर भगवान के पास गए, “भन्ते! भगवान इस में चीवड़ा और लड्डू ग्रहण करें!”
तब भगवान ने उनमें से एक पत्थर के पात्र में चीवड़ा और लड्डू को ग्रहण कर उसका भोज किया। तपुस्स और भल्लिक व्यापारी ने जान लिया कि भगवान ने उनका दिया भोज खा लिया है, तब उन्होने भगवान से कहा, “भन्ते! हम दोनों भगवान की शरण जाते हैं, और धर्म की भी। भगवान हमें आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
वे ही इस दुनिया के द्विशरण वचन से बने प्रथम उपासक थे।
(चौथा) एक सप्ताह बीतने पर, भगवान उस समाधि से उठकर, राजायतन के नीचे से पुनः अजपाल बरगद के नीचे गए। और भगवान उस अजपाल बरगद के नीचे रहने लगे। तब एकान्तवास की तल्लीन अवस्था में भगवान के चित्त में यह विचार उत्पन्न हुआ —
“मैंने ऐसे धर्म को प्राप्त किया है, जो गहरा, दुर्दर्शी (=मुश्किल से दिखने वाला), दुर्ज्ञेय (=मुश्किल से पता चलने वाला), शांतिमय, सर्वोत्तम, तर्क-वितर्क से प्राप्त न होने वाला, निपुण और ज्ञानियों द्वारा अनुभव करने योग्य है। किन्तु, यह जनता आसक्तियों में रमती है, आसक्तियों में रत रहती है, और आसक्तियों में ही प्रसन्न होती है। और ऐसी जनता, जो आसक्तियों में रमती हो, आसक्तियों में रत रहती हो, और आसक्तियों में ही प्रसन्न होती हो, उनके लिए यह इद-पच्चयता (=कार्य-कारण भाव) और प्रतित्य-समुत्पाद अत्यंत दुर्दर्शी होगा। और उनके लिए यह भी बहुत दुर्दर्शी होगा — सभी रचनाओं का रुक जाना, सभी अर्जित वस्तुओं का त्याग, तृष्णा का अन्त, विराग, निरोध, निर्वाण! यदि मैं उन्हें ऐसा धर्म दूँ, जो उन्हें समझ में न आएँ, तो वह मेरे लिए थकाऊ और परेशानी से भरा होगा।”
और तब अचानक, भगवान को पहले कभी न सुनी गयी गाथाएँ सूझ पड़ी —
जब भगवान ने इस तरह सोच-विचार किया, तो भगवान का चित्त अल्प उत्सुकता (=उदासीन और निष्क्रिय भाव) और धर्म न सिखाने की ओर झुक गया। और तब, सहम्पति ब्रह्मा 1 ने भगवान के चित्त में चल रहे तर्क-वितर्क को जान लिया। उसे लगा, “नाश हो गया इस लोक का! विनाश हो गया इस लोक का! जो तथागत अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध का चित्त अल्प उत्सुकता और धर्म न सिखाने की ओर झुक गया।”
तब, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, सहम्पति ब्रह्मा ब्रह्मलोक से विलुप्त हुआ और भगवान के समक्ष प्रकट हुआ। उस सहम्पति ब्रह्मा ने बाहरी वस्त्र को एक कंधे पर कर, दाएँ घुटने को भूमि पर टिकाकर, हाथ जोड़कर भगवान से कहा —
“भंते, भगवान धर्म का उपदेश करें! सुगत धर्म का उपदेश करें! ऐसे सत्व हैं जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे!”
ब्रह्मा सहम्पति ने ऐसा कहा, और ऐसा कह कर उसने आगे कहा —
ऐसा कहे जाने के बाद, भगवान ने सहम्पति ब्रह्मा से कहा, “ब्रह्मा! मैंने ऐसे धर्म को प्राप्त किया है, जो गहरा, दुर्दर्शी, दुर्ज्ञेय, शांतिमय, सर्वोत्तम, तर्क-वितर्क से प्राप्त न होने वाला, निपुण और ज्ञानियों द्वारा अनुभव करने योग्य है। किन्तु, यह जनता आसक्तियों में रमती है, आसक्तियों में रत रहती है, और आसक्तियों में ही प्रसन्न होती है…
तब, ब्रह्मा सहम्पति ने भगवान से दुबारा याचना की —
“भंते, भगवान धर्म का उपदेश करें! सुगत धर्म का उपदेश करें! ऐसे सत्व हैं जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे!”…
ऐसा कहे जाने के बाद, भगवान ने सहम्पति ब्रह्मा से फिर वही कहा, “ब्रह्मा! मैंने ऐसे धर्म को प्राप्त किया है, जो गहरा, दुर्दर्शी…"
तब, ब्रह्मा सहम्पति ने भगवान से तीसरी बार याचना की —
“भंते, भगवान धर्म का उपदेश करें! सुगत धर्म का उपदेश करें! ऐसे सत्व हैं जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे!… "
तब भगवान ने उस ब्रह्मा की याचना पर गौर किया। और, सत्वों के प्रति करुणा से, बुद्धचक्षु से ब्रह्मांड का अवलोकन किया। भगवान ने बुद्धचक्षु से ब्रह्मांड का अवलोकन करते हुए ऐसे सत्वों को देखा जिनकी आँखों में कम धूल थी, और जिनकी आँखों में अधिक धूल थी, जिनकी इंद्रियाँ तीक्ष्ण थी, और जिनकी इंद्रियाँ मन्द थी, भली वृत्ति के, और बुरी वृत्ति के, सरलता से सिखाएँ जाने वाले, और कठिनाई से सिखाएँ जाने वाले, परलोक में ख़तरा जानकर रहने वाले कुछ सत्व, और परलोक में कोई ख़तरा न जानकर रहने वाले कुछ सत्व।
जैसे किसी पुष्करणी में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो जल के भीतर जन्म लेते हैं, जल के भीतर बढ़ते हैं, जल के भीतर पनपते हैं, बिना जल से बाहर निकले। जबकि कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो जल के भीतर जन्म लेते हैं, जल के भीतर बढ़ते हैं, और ऊपर तक आकर जल की सतह को छू पाते हैं। जबकि कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो जल के भीतर जन्म लेते हैं, और जल के भीतर बढ़ते हुए सतह से ऊपर आकर, जल से अछूत रहते हैं।
उसी तरह, भगवान ने बुद्धचक्षु से ब्रह्मांड का अवलोकन करते हुए ऐसे सत्वों को देखा जिनकी आँखों में कम धूल थी, और जिनकी आँखों में अधिक धूल थी, जिनकी इंद्रियाँ तीक्ष्ण थी, और जिनकी इंद्रियाँ मन्द थी, भली वृत्ति के, और बुरी वृत्ति के, सरलता से सिखाएँ जाने वाले, और कठिनाई से सिखाएँ जाने वाले, परलोक में ख़तरा जानकर रहने वाले कुछ सत्व, और परलोक में कोई ख़तरा न जानकर रहने वाले कुछ सत्व।
ऐसा देखकर भगवान ने सहम्पति ब्रह्मा को गाथाओं में कहा —
जिन्हें कान हो, वे श्रद्धा प्रकट करें!
मानव को सद्गुणी उत्कृष्ट धर्म बताना।
तब ब्रह्मा सहम्पति को लगा, “भगवान ने मेरी याचना को स्वीकार लिया है।” तब उसने भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर, वही अन्तर्धान हो गया।
तब भगवान को लगा, “मैं पहले किसे धर्म का उपदेश करूँ? कौन है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा?”
तब भगवान को लगा, “यह आळार कालाम पण्डित है, अनुभवी है, मेधावी है, और दीर्घकाल से आँखों में कम धूल वाला है। मैं पहले उसे धर्म का उपदेश करता हूँ। वही है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा।”
तब एक अदृश्य देवता ने भगवान को सूचित किया, “भंते, आळार कालाम की मौत हुए एक सप्ताह बीत चुका है।” और भगवान को भी ज्ञान उत्पन्न हुआ, “आळार कालाम की मौत हुए एक सप्ताह बीत चुका है।” भगवान को लगा, “बड़ा नुकसान हुआ आळार कालाम का। यदि वह इस धर्म को सुनता, तो तुरंत समझ जाता।”
तब भगवान को पुनः लगा, “अब मैं पहले किसे धर्म का उपदेश करूँ? कौन है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा?" तब भगवान को लगा, “यह उद्दक रामपुत्त पण्डित है, अनुभवी है, मेधावी है, और दीर्घकाल से आँखों में कम धूल वाला है। मैं पहले उसे धर्म का उपदेश करता हूँ। वही है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा।”
तब एक अदृश्य देवता ने भगवान को फिर सूचित किया, “भंते, उद्दक रामपुत्त की मौत कल रात हुई।” और भगवान को भी ज्ञान उत्पन्न हुआ, “उद्दक रामपुत्त की मौत कल रात हुई।” भगवान को लगा, “बड़ा नुकसान हुआ उद्दक रामपुत्त का। यदि वह भी इस धर्म को सुनता, तो तुरंत समझ जाता।”
तब भगवान को पुनः लगा, “अब मैं पहले किसे धर्म का उपदेश करूँ? कौन है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा?" तब भगवान को लगा, “ये पञ्चवर्गीय भिक्षुगण बहुत उपयोगी थे, जब मैं कठोर तप कर रहा था। मैं उन पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को पहले धर्म का उपदेश करूँगा।” तब भगवान को लगा, “किन्तु इस समय पञ्चवर्गीय भिक्षुगण कहाँ रह रहे हैं?”
तब भगवान ने अपने मनुष्योत्तर दिव्यचक्षु से पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को वाराणसी में ऋषिपतन के मृगवन में रहते हुए देखा। तब, भगवान ने उरुवेला में इच्छानुसार जितना रुकना था, उतना रुके, 2 और वाराणसी के भ्रमण पर निकल पड़े।
तब उपक आजीवक (=संन्यासी) ने भगवान को गया से बोधि उत्पन्न होने वाले स्थान (=बोधगया के बोधिवृक्ष) के मार्ग में यात्रा करते देखा। उसने भगवान को कहा, “तुम्हारे इंद्रिय प्रसन्न हैं, मित्र, और तुम्हारी त्वचा परिशुद्ध और तेजस्वी है। तुम किसे उद्देश्य कर प्रवज्जित हुए हो, मित्र? कौन हैं तुम्हारे शास्ता? तुम्हें किसके धर्म में रुचि है?”
ऐसा कहे जाने पर, भगवान ने उपक आजीवक को गाथाओं में कहा —
“तुम्हारे दावे से तो लगता है, मित्र, कि जैसे तुम कोई काबिल ‘अनन्त-विजेता’ 3 हो!”
ऐसा कहे जाने पर, उपक आजीवक ने “ऐसा ही होगा, मित्र!” कहते हुए अपना सिर हिलाया, और उल्टे रास्ते से चला गया।
तब भगवान ने अनुक्रम से वाराणसी में ऋषिपतन के मृगवन की ओर भ्रमण करते हुए पञ्चवर्गीय भिक्षुओं के पास गए। पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान को दूर से आते हुए देखा। और, उन्हें देखते ही एक-दूसरे से सहमति बनायी —
“मित्रों, ये श्रमण गौतम आ रहा है — विलासी, तपस्या से भटका, विलासी जीवन में लौटा हुआ । हमें उसका न अभिवादन करना चाहिए, न उसके लिए खड़े होना चाहिए, न उसका पात्र और चीवर ही उठाना चाहिए। किन्तु, बैठने का आसन रख देना चाहिए। उसे बैठने की इच्छा हो तो बैठेगा।"
किन्तु, जैसे-जैसे भगवान पञ्चवर्गीय भिक्षुओं के पास आए, वैसे-वैसे पञ्चवर्गीय भिक्षुगण बनी आम-सहमति पर टिक नहीं पाएँ। एक ने आगे बढ़कर उनका पात्र और चीवर ग्रहण किया, एक ने आसन लगाया, एक ने पैर धोने का जल रखा, एक ने पैर रखने का पीठ रखा, और एक ने पैर रगड़ने का पत्थर रखा।
भगवान बिछे आसन पर बैठ गए और बैठकर अपने पैर धोएँ। हालाँकि, वे तब भी भगवान को नाम से और ‘मित्र’ कहकर पुकार रहे थे। ऐसा कहे जाने पर भगवान ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, तथागत को नाम से और ‘मित्र’ कहकर ना पुकारें। तथागत ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है। सुनों, भिक्षुओं, अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है। मैं तुम्हें अनुशासित करूँगा और धर्म का उपदेश करूँगा। बताएँ अनुसार चलोगे तो इसी जीवन में जल्द ही ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर स्थित हो जाओगे, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं।”
ऐसा कहे जाने पर, पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान से कहा, “मित्र गौतम, जब तुम्हें इतनी दुष्कर तपस्या से कोई मनुष्योत्तर अवस्था, विशेष आर्य-ज्ञानदर्शन प्राप्त नहीं हुआ, तब विलासी होकर, तपस्या से भटक कर, विलासी जीवन में लौटने से, भला कैसे ये सब प्राप्त हो गया?”
ऐसा कहे जाने पर भगवान ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, तथागत न विलासी, न तपस्या से भटके, और न ही विलासी जीवन में लौटे है। बल्कि तथागत ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है। सुनों, भिक्षुओं, अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है। मैं तुम्हें अनुशासित करूँगा और धर्म का उपदेश करूँगा। बताएँ अनुसार चलोगे तो इसी जीवन में जल्द ही ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर स्थित हो जाओगे, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं।”
तब पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने दूसरी बार भगवान से कहा, “किन्तु, मित्र गौतम, जब तुम्हें इतनी दुष्कर तपस्या से कोई मनुष्योत्तर अवस्था, विशेष आर्य-ज्ञानदर्शन प्राप्त नहीं हुआ, तब विलासी होकर, तपस्या से भटक कर, विलासी जीवन में लौटने से, भला कैसे ये सब प्राप्त हो गया?”
तब भगवान ने दूसरी बार पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, तथागत न विलासी, न तपस्या से भटके, और न ही विलासी जीवन में लौटे है। बल्कि तथागत ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है। सुनों, भिक्षुओं, अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है…”
तब पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने तिसरी बार भगवान से कहा, “किन्तु, मित्र गौतम, जब तुम्हें इतनी दुष्कर तपस्या से कोई मनुष्योत्तर अवस्था, विशेष आर्य-ज्ञानदर्शन प्राप्त नहीं हुआ, तब विलासी होकर, तपस्या से भटक कर, विलासी जीवन में लौटने से, भला कैसे ये सब प्राप्त हो गया?”
तब भगवान ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, क्या तुमने मुझे ऐसा कहते हुए पहले कभी सुना है?”
“नहीं, भंते!”
“तब सुनों, भिक्षुओं! तथागत ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है। अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है। मैं तुम्हें अनुशासित करूँगा और धर्म का उपदेश करूँगा। बताएँ अनुसार चलोगे तो इसी जीवन में जल्द ही ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर स्थित हो जाओगे, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं।”
भगवान पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को समझाने में सफल हुए । तब पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान की बात को ठीक से सुना, कान दिया, और समझने के लिए मन लगाया।
तब भगवान ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को संबोधित किया —
“दो छोर हैं, भिक्षुओं, जिन्हें प्रवज्जित ने ग्रहण नहीं करना चाहिए। कौन-से दो? ये कामुकता के मारे कामसुख से जुड़ने का जो हीन, देहाती, जन-साधारण, अनार्य, और अनर्थकारी छोर है। और, ये आत्मपीड़ा से जुड़ने का जो दुखदायी, अनार्य, और अनर्थकारी छोर है।
ये दोनों ही छोर टालकर, भिक्षुओं, तथागत ने मध्यम-मार्ग के द्वारा संबोधि प्राप्त की, जो चक्षु देता है, ज्ञान देता है, जो प्रशान्ति, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण की ओर बढ़ता है। और, ये मध्यम-मार्ग क्या है, जिसके द्वारा तथागत ने संबोधि प्राप्त की, जो चक्षु देता है, ज्ञान देता है, जो प्रशान्ति, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण की ओर बढ़ता है?
बस, यही आर्य अष्टांगिक मार्ग। अर्थात, सम्यक-दृष्टि, सम्यक-संकल्प, सम्यक-वचन, सम्यक-कार्य, सम्यक-जीविका, सम्यक-व्यायाम, सम्यक-स्मृति, और सम्यक-समाधि। ये ही मध्यम-मार्ग है, जिसके द्वारा तथागत ने संबोधि प्राप्त की, जो चक्षु देता है, ज्ञान देता है, जो प्रशान्ति, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण की ओर बढ़ता है।
और, भिक्षुओं, यह दुःख आर्यसत्य है। जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, बीमारी दुःख है, मौत दुःख है। अप्रिय से जुड़ाव दुःख है, प्रिय से अलगाव दुःख है। इच्छापूर्ति न होना दुःख है। संक्षिप्त में, पाँच उपादानस्कंध (=आसक्ति संग्रह) दुःख हैं।
और, भिक्षुओं, यह दुःख की उत्पत्ति आर्यसत्य है — यह तृष्णा, जो पुनः पुनः बनाती है, मज़ा और दिलचस्पी के साथ आती है, यहाँ-वहाँ लुत्फ़ उठाती है। अर्थात काम तृष्णा, भव तृष्णा, और विभव तृष्णा।
और, भिक्षुओं, यह दुःख का अन्त आर्यसत्य है — उस तृष्णा का अशेष विराग होना, निरोध होना, त्याग दिया जाना, संन्यास लिया जाना, मुक्ति होना, आश्रय छूट जाना।
और, भिक्षुओं, यह दुःख का अन्तकर्ता मार्ग आर्यसत्य है — बस यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग। अर्थात, सम्यक-दृष्टि, सम्यक-संकल्प, सम्यक-वचन, सम्यक-कार्य, सम्यक-जीविका, सम्यक-व्यायाम, सम्यक-स्मृति, और सम्यक-समाधि।
‘यह दुःख आर्यसत्य है।’ इस पहले कभी न सुने धर्म के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ। ‘इस दुःख आर्यसत्य को पूर्णतः (अंतिम छोर तक) पता करना है’… ‘इस दुःख आर्यसत्य को पूर्णतः जान लिया गया’ — ये पहले कभी न सुने धर्मों के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।
‘यह दुःख की उत्पत्ति आर्यसत्य है’… ‘इस दुःख की उत्पत्ति आर्यसत्य को पूर्णतः त्याग देना है’… ‘इस दुःख की उत्पत्ति आर्यसत्य को पूर्णतः त्याग दिया गया’ — ये पहले कभी न सुने धर्म के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।
‘यह दुःख का अन्त आर्यसत्य है’… ‘इस दुःख के अन्त आर्यसत्य का साक्षात्कार करना है’… ‘इस दुःख के अन्त आर्यसत्य का साक्षात्कार कर लिया गया।’ — ये पहले कभी न सुने धर्म के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।
‘यह दुःख का अन्तकर्ता मार्ग आर्यसत्य है’… ‘इस दुःख के अन्तकर्ता मार्ग आर्यसत्य की साधना करना है’… ‘इस दुःख के अन्तकर्ता मार्ग आर्यसत्य की साधना कर ली गई।’ — ये पहले कभी न सुने धर्म के प्रति मेरी आँखें खुली, मुझे बोध हुआ, अन्तर्ज्ञान उपजा, विद्या प्रकट हुई, उजाला हुआ।
जब तक, भिक्षुओं, मैंने इन चार आर्यसत्यों को तीन चरणों में बारह प्रकारों से अपने ज्ञान-दर्शन को शुद्ध नहीं किया, तब तक मैंने इस लोक में, जो देव, मार, ब्रह्म, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरा हुआ है, सर्वोत्तर सम्यक-सम्बोधि का दावा नहीं किया। किन्तु, जब मैंने इन चार आर्यसत्यों को तीन चरणों में बारह प्रकारों से अपने ज्ञान-दर्शन को शुद्ध कर लिया, तब तक मैंने इस लोक में, जो देव, मार, ब्रह्म, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरा हुआ है, सर्वोत्तर सम्यक-सम्बोधि का दावा किया। और तब मुझे ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ, “मेरी विमुक्ति अचल है, यह मेरा अंतिम जन्म है, अब आगे पुनरुत्पत्ति नहीं है!”
भगवान ने ऐसा कहा। प्रसन्न होकर, पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान के उपदेश का अभिनन्दन किया।
और जब यह स्पष्टीकरण दिया जा रहा था, तब आयुष्मान कोण्डञ्ञ को धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”
जब भगवान ने धर्मचक्र प्रवर्तित किया, तब भूमि देवताओं ने आवेश में घोषणाएँ दी — “यहाँ भगवान ने वाराणसी के ऋषिपतन मृगवन में अनुत्तर धर्मचक्र का प्रवर्तन कर दिया है, जो अब किसी श्रमण, या ब्राह्मण, या देवता, या मार, या ब्रह्म, या इस ब्रह्मांड में किसी से भी रोका नहीं जा सकता!”
भूमि देवताओं की घोषणाएँ सुनकर चार महाराज देवताओं ने आवेश में आकर घोषणाएँ दी — “यहाँ भगवान ने वाराणसी के ऋषिपतन मृगवन में अनुत्तर धर्मचक्र का प्रवर्तन कर दिया है, जो अब किसी श्रमण, या ब्राह्मण, या देवता, या मार, या ब्रह्म, या इस ब्रह्मांड में किसी से भी रोका नहीं जा सकता!”
चार महाराज देवताओं की घोषणाएँ सुनकर तैतीस देवताओं ने आवेश में आकर घोषणाएँ दी — “यहाँ भगवान ने वाराणसी के ऋषिपतन मृगवन में अनुत्तर धर्मचक्र का प्रवर्तन कर दिया है, जो अब किसी श्रमण से, या ब्राह्मण से, या देवता से, या मार से, या ब्रह्म से, या इस ब्रह्मांड में किसी से भी रोका नहीं जा सकता!”
तैतीस देवताओं की घोषणाएँ सुनकर याम देवताओं ने आवेश में घोषणाएँ दी… याम देवताओं की घोषणाएँ सुनकर तुषित देवताओं ने आवेश में घोषणाएँ दी… तुषित देवताओं की घोषणाएँ सुनकर निर्माणरति देवताओं ने आवेश में घोषणाएँ दी… निर्माणरति देवताओं की घोषणाएँ सुनकर परनिर्मित वशवर्ती देवताओं ने आवेश में घोषणाएँ दी… परनिर्मित वशवर्ती देवताओं की घोषणाएँ सुनकर ब्रह्म कायिक देवताओं ने आवेश में घोषणाएँ दी — “यहाँ भगवान ने वाराणसी के ऋषिपतन मृगवन में अनुत्तर धर्मचक्र का प्रवर्तन कर दिया है, जो अब किसी श्रमण से, या ब्राह्मण से, या देवता से, या मार से, या ब्रह्म से, या इस ब्रह्मांड में किसी से भी रोका नहीं जा सकता!”
उसी क्षण, उसी पल, उसी मुहूर्त में यह ख़बर ब्रह्मलोक तक फैल गयी। तब दस हजार ब्रह्मांड कंपित हुए, प्रकंपित हुए, थरथराएँ। और, एक असीम और शानदार उजाला इस लोक में प्रकट हुआ, जो देवताओं की शक्तिशाली प्रभा से आगे निकल गया।
तब भगवान यह उदात्त बोल पड़े, “कोण्डञ्ञ समझ गया! वाकई, कोण्डञ्ञ समझ गया!”
और इस तरह, कोण्डञ्ञ का नाम “कोण्डञ्ञ समझ गया!” ही पड़ गया। और धर्म देख चुका, धर्म पा चुका, धर्म जान चुका, धर्म में गहरे उतर चुका आयुष्मान ‘कोण्डञ्ञ समझ गया’, संदेह लाँघकर परे चला गया। तब उसे कोई सवाल न बचे। उसे निडरता प्राप्त हुई, तथा वह शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुआ। तब उसने भगवान से कहा, “भंते, मुझे भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, (भिक्षु) उपसंपदा मिले ।”
“आओ, भिक्षु!” कह कर भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, (संघ के प्रथम भिक्षु) आयुष्मान कोण्डञ्ञ की उपसंपदा संपन्न हुई।
तब भगवान ने बचे हुए भिक्षुओं को धर्म की बातों से उपदेशित किया, अनुशासित किया। और भगवान के द्वारा धर्म की बातों से उपदेशित होते हुए, अनुशासित होते हुए आयुष्मान वप्प और आयुष्मान भद्दिय को धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”
तब धर्म देख चुके, धर्म पा चुके, धर्म जान चुके, धर्म में गहरे उतर चुके आयुष्मान वप्प और आयुष्मान भद्दिय संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए। तब उन्होने भगवान से कहा, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”
“आओ, भिक्षु!” कह कर, फिर भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, उन आयुष्मानों की उपसंपदा संपन्न हुई।
तब भगवान ने भिक्षुओं के द्वारा लायी गयी भिक्षा पर यापन करते हुए, बचे हुए भिक्षुओं को धर्म की बातों से उपदेशित किया, अनुशासित किया। और भगवान के द्वारा धर्म की बातों से उपदेशित होते हुए, अनुशासित होते हुए आयुष्मान महानाम और आयुष्मान अस्सजि को धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”
तब धर्म देख चुके, धर्म पा चुके, धर्म जान चुके, धर्म में गहरे उतर चुके आयुष्मान महानाम और आयुष्मान अस्सजि संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए। तब उन्होने भगवान से कहा, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”
“आओ, भिक्षु!” कह कर, फिर भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, उन सभी आयुष्मानों की उपसंपदा संपन्न हुई।
तब, भगवान ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा —
“भिक्षुओं, रूप आत्म नहीं है। यदि रूप आत्म होता तो पीड़ित न होता, और हम उसे (मनचाहा) बदल पाते, ‘मेरा रूप ऐसा हो, वैसा न हो ।’ किन्तु वाकई रूप आत्म नहीं है, इसलिए पीड़ित होता है, और हम उसे बदल नहीं पाते हैं, ‘मेरा रूप ऐसा हो, वैसा न हो।’
संवेदना आत्म नहीं है । यदि संवेदना आत्म होती तो पीड़ित न करती, और हम उसे बदल पाते, ‘मेरी संवेदना ऐसी हो, वैसी न हो।’ किन्तु वाकई संवेदना आत्म नहीं है, इसलिए पीड़ित करती है, और हम उसे बदल नहीं पाते हैं, ‘मेरी संवेदना ऐसी हो, वैसी न हो।’
नजरिया आत्म नहीं है। यदि नजरिया आत्म होता तो पीड़ित न करता, और हम उसे बदल पाते, ‘मेरा नजरिया ऐसा हो, वैसे न हो।’ किन्तु वाकई नजरिया आत्म नहीं है, इसलिए पीड़ित करता है, और हम उसे बदल नहीं पाते हैं, ‘मेरा नजरिया ऐसा हो, वैसा न हो।’
रचना आत्म नहीं है। यदि रचना आत्म होती तो पीड़ित न करती, और हम उसे बदल पाते, ‘मेरी रचना ऐसी हो, वैसी न हो।’ किन्तु वाकई रचना आत्म नहीं है, इसलिए पीड़ित करती है, और हम उसे बदल नहीं पाते हैं, ‘मेरी रचना ऐसी हो, वैसी न हो।’
चैतन्य आत्म नहीं है। यदि चैतन्य आत्म होता तो पीड़ित न करता, और हम उसे बदल पाते, ‘मेरा चैतन्य ऐसा हो, वैसे न हो।’ किन्तु वाकई चैतन्य आत्म नहीं है, इसलिए पीड़ित करता है, और हम उसे बदल नहीं पाते हैं, ‘मेरा चैतन्य ऐसा हो, वैसा न हो।’
क्या मानते हो, भिक्षुओं? रूप नित्य है या अनित्य?”
“अनित्य, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं, वह कष्टदायी है या सुखदायी?”
“कष्टदायी, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं, कष्टदायी है, परिवर्तनशील है, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”
“नहीं, भन्ते।”
“संवेदना नित्य है या अनित्य?”
“अनित्य, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं, वह कष्टदायी है या सुखदायी?”
“कष्टदायी, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं, कष्टदायी है, परिवर्तनशील है, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”
“नहीं, भन्ते।”
“नजरिया नित्य है या अनित्य?”
“अनित्य, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं, वह कष्टदायी है या सुखदायी?”
“कष्टदायी, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं, कष्टदायी है, परिवर्तनशील है, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”
“नहीं, भन्ते।”
“रचना नित्य है या अनित्य?”
“अनित्य, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं, वह कष्टदायी है या सुखदायी?”
“कष्टदायी, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं, कष्टदायी है, परिवर्तनशील है, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”
“नहीं, भन्ते।”
“चैतन्य नित्य है या अनित्य?”
“अनित्य, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं, वह कष्टदायी है या सुखदायी?”
“कष्टदायी, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं, कष्टदायी है, परिवर्तनशील है, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”
“नहीं, भन्ते।”
“इसलिए, भिक्षुओं, जो भी रूप हो — भूत, भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप का। सभी रूपों को यह ‘मेरे नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सही अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखना है।
जो भी संवेदना हो — भूत, भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की। सभी संवेदनाओं को यह ‘मेरी नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सही अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखना है।
जो भी नजरिया हो — भूत, भविष्य या वर्तमान का, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप का। सभी नजरियों को यह ‘मेरे नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सही अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखना है।
जो भी रचना हो — भूत, भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की। सभी रचनाओं को यह ‘मेरी नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सही अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखना है।
जो भी चैतन्य हो — भूत, भविष्य या वर्तमान का, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप का। सभी चैतन्य को यह ‘मेरे नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सही अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखना है।
भिक्षुओं, इस तरह देखने से धर्म-सुने आर्यश्रावक का रूप के प्रति मोहभंग होता है, संवेदना के प्रति मोहभंग होता है, नजरिये के प्रति मोहभंग होता है, रचना के प्रति मोहभंग होता है, चैतन्य के प्रति मोहभंग होता है।
मोहभंग होने से विराग होता है। विराग होने से विमुक्त होता है। विमुक्ति से ज्ञात होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ और पता चलता है, ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’
ऐसा भगवान ने कहा। प्रसन्न होकर, पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया। और जब यह स्पष्टीकरण दिया जा रहा था, तब पञ्चवर्गीय भिक्षुओं का चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ।
और तब, इस दुनिया में छह अर्हंत हुए।
उस समय यश नामक कुलपुत्र, बनारस में श्रेष्ठी का पुत्र था, जिसे बहुत सुखों को पाला गया था। उसके लिए तीन महल बने थे — एक शीतकाल के लिए; एक ग्रीष्मकाल के लिए; और एक वर्षाकाल के लिए। वर्षाकाल के चारों महीने वर्षामहल में रहते हुए, उसे गायकी-नर्तकियों द्वारा बहलाया जाता, बिना अन्य पुरुष की उपस्थिति के। उसे महल से नीचे एक बार भी उतरना न पड़ता।
एक बार यश कुलपुत्र, पाँच कामभोग की समग्रताओं से लिप्त होकर, अपने सेविकाओं से पूर्व, अपने परिजनों से पूर्व निद्रा में चला गया। रात भर तेल का दीया जलता रहा। तब अचानक, यश कुलपुत्र ने उठकर अपने परिजनों को सोते हुए देखा। किसी की बगल में वीणा थी, किसी के गले में मृदंग था, तो किसी के बगल में ढ़ोल था, किसी के केश बिखरे थे, तो किसी की लार गिर रही थी, तो कोई निद्रा में बड़बड़ा रही थी — साक्षात श्मशान जैसा लग रहा था।
ऐसा दिखने पर, उसे (कामुकता में) ख़ामी प्रकट हुई, और मोहभंगिमा चित्त में घर कर गयी। तब यश कुलपुत्र यकायक उदात्त बोल पड़ा, “उफ़, ये अत्याचार! उफ़, ये उत्पीड़न!”
तब यश कुलपुत्र, अपने स्वर्ण पादुका को पहन कर, प्रवेश द्वार की ओर गया। अमनुष्यों ने द्वार खोल दिया, (सोचते हुए), “यश कुलपुत्र का घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने में कोई बाधा न हो।” तब यश कुलपुत्र वहाँ से निकलकर नगरद्वार की ओर गया। उसे भी अमनुष्यों ने खोल दिया, (सोचते हुए), “यश कुलपुत्र का घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने में कोई बाधा न हो।” और तब, यश कुलपुत्र वहाँ से निकलकर ऋषिपतन मृगवन की ओर चल पड़ा।
उस समय, भगवान रात के अंतिम पहर में उठकर चंक्रमण कर रहे थे। जब भगवान ने दूर से यश कुलपुत्र को आते देखा, तो चंक्रमण पथ से उतर कर बिछे आसन पर बैठ गए। तब, यश कुलपुत्र ने भगवान के पास आकार पुनः उदात्त बोल पड़ा, “उफ़, ये अत्याचार! उफ़, ये उत्पीड़न!”
और तब, भगवान ने यश कुलपुत्र से कहा, “यहाँ अत्याचार नहीं है, यश! यहाँ उत्पीड़न नहीं है! आओ, बैठो! मैं तुम्हें धर्म बताता हूँ!”
तब, यश कुलपुत्र को लगा, “यहाँ अत्याचार नहीं है! यहाँ उत्पीड़न नहीं है!” वह, उल्लासित और उत्साहित हो, अपनी स्वर्ण पादुका निकाल, भगवान के पास गया, और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया।
तब, एक-ओर बैठे यश कुलपुत्र को भगवान ने अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि यश कुलपुत्र का तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।
जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह यश कुलपुत्र को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”
तब उधर, यश कुलपुत्र की माता उसके महल में गयी, और यश कुलपुत्र को न पाकर अपने पति श्रेष्ठी गृहपति के पास गयी, और कहने लगी, “आपका पुत्र कही दिखायी नहीं दे रहा है।”
तब श्रेष्ठी गृहपति ने चारों दिशाओं में अश्वदूत भेजे, और वह स्वयं ऋषिपतन के मृगवन की ओर चल पड़ा। वहाँ श्रेष्ठी गृहपति को भूमि पर स्वर्ण पादुका के चिन्ह दिखायी दिये, और उसने पीछा किया।
तब भगवान ने श्रेष्ठी गृहपति को दूर से आते देखा। और उसे देखकर भगवान को लगा, “क्यों न मैं अपनी ऋद्धिबल से ऐसी रचना करूँ कि श्रेष्ठी गृहपति यही बैठे होकर भी यश कुलपुत्र को न देख पाएँ।” और तब भगवान ने अपने ऋद्धिबल से ऐसी रचना की।
तब श्रेष्ठी गृहपति भगवान के पास गया, और भगवान से कहा, “भंते! क्या भगवान ने यश कुलपुत्र को देखा है?”
“ऐसी बात हो, गृहपति, तो यहाँ बैठो। संभव है यहाँ बैठकर तुम्हें यही बैठा हुआ यश कुलपुत्र दिख जाएँ।”
जब श्रेष्ठी गृहपति ने ऐसा सुना, तो वह उल्लासित और उत्साहित होकर भगवान के पास गया, और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया।
तब, एक-ओर बैठे श्रेष्ठी गृहपति को भगवान ने अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि श्रेष्ठी गृहपति का तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।
जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह श्रेष्ठी गृहपति को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”
तब धर्म देख चुका, धर्म पा चुका, धर्म जान चुका, धर्म में गहरे उतर चुका श्रेष्ठी गृहपति संदेह लाँघकर परे चला गया। तब उसे कोई सवाल न बचे। उसे निडरता प्राप्त हुई, तथा वह शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुआ। तब उसने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, भंते ! अतिउत्तम, भंते! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और भिक्षुसंघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
वह इस दुनिया का त्रिशरण लेने वाला प्रथम उपासक बना।
और, जब यश कुलपुत्र अपने पिता को धर्म उपदेश दिया जाते देख रहा था, तब उसने पहले देखे, पहले समझे धर्म-आधार पर पुनः चिंतन-मनन किया, और उसका चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ।
और भगवान को पता चला, “यश कुलपुत्र ने अपने पिता को धर्म उपदेश दिया जाते देख, पहले देखे, पहले समझे धर्म-आधार पर पुनः चिंतन-मनन किया, और उसका चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ। अब यश कुलपुत्र वैसे हीनवृत्ति के कामभोग का सेवन नहीं कर सकता, जैसे गृहस्थ जीवन में करता था। अभी मैं अपने ऋद्धिबल की रचना करना रोक देता हूँ!”
तब भगवान ने अपने ऋद्धिबल की रचना करना रोक दिया। तब श्रेष्ठी गृहपति को यश कुलपुत्र वही बैठा दिखायी दिया। तब उसने यश कुलपुत्र से कहा, “पुत्र यश, तुम्हारी माता शोक और विलाप में डूब गयी है। अपनी माता को जीवन दो।”
यश कुलपुत्र ने भगवान की ओर देखा।
भगवान ने श्रेष्ठी गृहपति से कहा, “क्या लगता है तुम्हें, गृहपति? जैसे कोई तुम्हारे ही जैसे इस शिक्षा का ज्ञान, और शिक्षा का दर्शन देख चुका हो, समझ चुका हो। और वह उस देखे और समझे धर्म-आधार पर पुनः चिंतन-मनन करे, और उसका चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हो जाएँ। तब, गृहपति, ऐसा कोई पुनः वैसे ही हीनवृत्ति के कामभोग का सेवन कर सकता है, जैसे गृहस्थ जीवन में करता था?”
“नहीं, भंते!”
“गृहपति, यश कुलपुत्र ने अपने पिता को धर्म उपदेश दिया जाते देख, पहले देखे, पहले समझे धर्म-आधार पर पुनः चिंतन-मनन किया, और उसका चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ। अब यश कुलपुत्र वैसे हीनवृत्ति के कामभोग का सेवन नहीं कर सकता, जैसे गृहस्थ जीवन में करता था। "
“बहुत लाभ हुआ यश कुलपुत्र का! अत्यंत लाभ हुआ यश कुलपुत्र का, जो उसका चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ। भंते, कृपया भगवान आज का भोजन हमसे ग्रहण करें, आपके सेवक श्रमण यश कुलपुत्र के साथ।”
भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी। तब भगवान की स्वीकृति जान कर, श्रेष्ठी गृहपति आसन से उठकर भगवान को अभिवादन करते हुए, प्रदक्षिणा करते हुए चला गया।
श्रेष्ठी गृहपति के जाने के तुरंत बाद, यश कुलपुत्र ने भगवान से कहा, “भंते, मुझे भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”
“आओ, भिक्षु!” कह कर, भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, उस आयुष्मान की उपसंपदा संपन्न हुई।
और तब, इस दुनिया में सात अर्हंत हुए।
तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, सेवक श्रमण यश के साथ श्रेष्ठी गृहपति के घर गए, और जाकर बिछे आसन पर बैठ गये। तब यश की माता और पूर्व पत्नी भगवान के पास गए, और अभिवादन कर एक ओर बैठ गए।
तब, भगवान ने उन्हें अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि उनका तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।
जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह यश की माता और पूर्व पत्नी को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”
तब धर्म देख चुके, धर्म पा चुके, धर्म जान चुके, धर्म में गहरे उतर चुके यश की माता और पूर्व पत्नी संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए।
तब उन्होने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, भंते ! अतिउत्तम, भंते! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। हम बुद्ध की शरण जाते हैं! धर्म की और भिक्षुसंघ की भी! भगवान हमें आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासिकाएँ धारण करें!”
और, वे दोनों इस दुनिया में त्रिशरण लेने वाली प्रथम उपासिकाएँ बनी।
तब, यश के माता, पिता और पूर्व पत्नी ने भगवान और आयुष्मान यश को अपने हाथों से उत्तम खाद्य और भोजन परोस कर संतृप्त किया, संतुष्ट किया। भगवान के भोजन कर पात्र से हाथ हटाने के पश्चात, उन्होने स्वयं का आसन नीचे लगाया और एक ओर बैठ गए।
तब भगवान ने यश की माता, पिता और पूर्व पत्नी को धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया, और आसन से उठकर चले गए।
अब, आयुष्मान यश के चार गृहस्थ मित्र थे, जो वाराणसी के बड़े-बड़े श्रेष्टियों के कुलपुत्र थे — विमल, सुबाहु, पुण्णजि, और गवम्पति। उन्होने सुना कि यश कुलपुत्र ने सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित हो गया है।
ऐसा सुनने पर, उन्होने (आपसी वार्तालाप में) कहा, “नहीं! जरूर यह धर्म-विनय तुच्छ नहीं होगा! यह प्रवज्जा तुच्छ नहीं होगी, जो यश कुलपुत्र ने अपनी सिर-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय-वस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित हो गया है।”
तब वे यश के पास गए, और आयुष्मान यश को अभिवादन कर एक-ओर बैठ गए। तब आयुष्मान यश अपने चारो गृहस्थ मित्रों को भगवान के पास ले गए, और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक-ओर बैठकर आयुष्मान यश ने भगवान से कहा, “भंते, ये मेरे चारो गृहस्थ मित्र वाराणसी के श्रेष्ठियों के कुलपुत्र हैं — विमल, सुबाहु, पुण्णजि, और गवम्पति। भगवान इन्हें उपदेशित करे, अनुशासित करे।”
तब, भगवान ने उन्हें अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि उनका तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।
जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह आयुष्मान यश के चारों गृहस्थ मित्रों को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”
तब धर्म देख चुके, धर्म पा चुके, धर्म जान चुके, धर्म में गहरे उतर चुके यश के चारों गृहस्थ मित्र संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए।
तब उन्होने भगवान से कहा, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”
“आओ, भिक्षु!” कह कर, भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, उन आयुष्मानो की उपसंपदा संपन्न हुई।
तब, भगवान ने उन भिक्षुओं को धर्म कथा से उपदेशित किया, अनुशासित किया। भगवान की धर्म कथा से उपदेशित होकर, अनुशासित होकर उनका चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ।
और तब, इस दुनिया में ग्यारह अर्हंत हुए।
तब आयुष्मान यश के पचास गृहस्थ मित्र, जो अन्य नगरों के बड़े-बड़े कुलों के पुत्र थे, उन्होने सुना कि यश कुलपुत्र ने सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित हो गया है।
ऐसा सुनने पर, उन्होने कहा, “नहीं! जरूर यह धर्म-विनय तुच्छ नहीं होगा! यह प्रवज्जा तुच्छ नहीं होगी, जो यश कुलपुत्र ने अपनी सिर-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय-वस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित हो गया है।”
तब वे यश के पास गए, और आयुष्मान यश को अभिवादन कर एक-ओर बैठ गए। तब आयुष्मान यश अपने पचास गृहस्थ मित्रों को भगवान के पास ले गए, और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक-ओर बैठकर आयुष्मान यश ने भगवान से कहा, “भंते, ये मेरे पचास गृहस्थ मित्र अन्य नगरों के बड़े-बड़े कुलों के पुत्र हैं। भगवान इन्हें उपदेशित करे, अनुशासित करे।”
तब, भगवान ने उन्हें अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि उनका तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।
जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह आयुष्मान यश के पचासों गृहस्थ मित्रों को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”
तब धर्म देख चुके, धर्म पा चुके, धर्म जान चुके, धर्म में गहरे उतर चुके यश के पचासों गृहस्थ मित्र संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए।
तब उन्होने भगवान से कहा, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।"
“आओ, भिक्षु!” कह कर, भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, उन आयुष्मानो की उपसंपदा संपन्न हुई।
तब, भगवान ने उन भिक्षुओं को धर्म कथा से उपदेशित किया, अनुशासित किया। भगवान की धर्म कथा से उपदेशित होकर, अनुशासित होकर उनका चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ।
और तब, इस दुनिया में एकसठ अर्हंत हुए।
तब भगवान ने उन भिक्षुओं को संबोधित किया —
“भिक्षुओं! मैं दिव्य-मानवी, सभी जाल से मुक्त हूँ! तुम भी, भिक्षुओं, दिव्य-मानवी, सभी जाल से मुक्त हो! भ्रमणचर्या करों, भिक्षुओं, बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए! किसी एक रास्ते पर दो मत जाओ। और, ऐसा धर्म उपदेश करों, भिक्षुओं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, तथा अन्त में कल्याणकारी हो। गहरे अर्थ और विवरण के साथ, इस सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य को प्रकाशित करों! ऐसे सत्व हैं, जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे! और भिक्षुओं, मैं उरुवेला के सैनिय नगर में धर्म उपदेश करने के लिए जाऊँगा!”
—विनयपिटक : महावग्ग : ०१. महाक्खंदक
और तब, मात्र इकसठ अर्हंतों का यह नन्हा-सा, लेकिन अद्भुत और महाप्रतापी संघ चारों दिशाओं में फैलने लगा। भगवान बुद्ध की आज्ञा और आर्य-विनय का पालन करते हुए, वे आर्य-धर्म का प्रसार करने निकले। जनता में हलचल मच गई—वे भिक्षुओं से प्रश्न पूछते और जब धर्म का गहन अर्थ समझते, श्रद्धा से नतमस्तक हो जाते। भगवान की कीर्ति शीघ्र ही जम्बूद्वीप के विभिन्न हिस्सों में फैलने लगी। संघ में प्रवज्जा और उपसंपदा की चाह रखने वालों की बाढ़ आ गई। अर्हंत भिक्षु विभिन्न दिशाओं से विशाल समूहों का नेतृत्व करते हुए भगवान के पास पहुँचने लगे, ताकि वे सीधे भगवान से दीक्षा प्राप्त कर सकें। अंततः, भगवान ने उन्हें अनुमति दी कि वे अपने स्थानीय क्षेत्रों में ही लोगों को प्रवज्जा और उपसंपदा दें, जिससे उन्हें दूर तक चलकर आने की आवश्यकता न हो। पञ्चवर्गीय भिक्षुओं में से एक, आयुष्मान अस्सजि ने मात्र आर्य-विनय का पालन करने से ही कई प्रसिद्ध श्रमण और ब्राह्मणों को प्रभावित किया। इनमें प्रमुख थे सारिपुत्त और महामोग्गलान, जो अपने सैकड़ों अनुयायियों सहित, किसी और गुरु के शिष्य थे। दूसरी ओर, भगवान ने उरुवेला में जाकर अपने महाऋद्धियों से एक हजार जटाधारी तपस्वियों को नतमस्तक करा दिया, जो दूर-दूर तक लोकप्रिय थे। और उन्हें भिक्षु बनाकर एकमात्र उपदेश से अर्हंत भी बना दिया। तब, मगध के महाराज बिम्बिसार सवा लाख लोगों की प्रजा के साथ मिलने के लिए आएँ। उन्हें भी एक-साथ श्रोतापन्न बना दिया। किन्तु, तब भगवान बुद्ध और संघ का दुष्प्रचार भी हुआ। आगे की इस रोमांचक कथा के लिए पढ़ें — 📽️ संघ कथा - भाग दो ⋙ सहम्पति ब्रह्मा को ‘ज्येष्ठ महाब्रह्मा’ भी कहा जाता है, जो प्रसिद्ध ‘बकब्रह्मा’ से ऊपर के ब्रह्मलोक में रहता है। सहम्पति पिछले जीवन में सहक नामक मनुष्य था, जो भगवान कश्यप बुद्ध के संघ में भिक्षु बना था। उसने भिक्षु जीवन में पाँच इंद्रियों (=श्रद्धा, शील, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा) को विकसित किया, जिसके फलस्वरूप आनागामि फ़ल प्राप्त कर ऊँचे ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ। उसका बौद्ध धर्म में उपकार माना जाता है। उसी ने भगवान गौतम बुद्ध को धर्म सिखाने के लिए राजी किया, और मानवलोक का अनन्त कल्याण हुआ । यही नहीं, बल्कि वह महत्वपूर्ण क्षण में प्रकट होकर, भगवान गौतम बुद्ध को आश्वस्त भी करता, जैसे धर्म को गौरवान्वित करने के समय, या भिक्षुओं को चार स्मृतिप्रस्थान और पाँच इंद्रिय की साधना सिखाने से पूर्व। कहा जाता हैं कि उसे पश्चात ब्राह्मण साहित्य में ‘स्वयंभू ब्रह्मा’ के नाम पर शामिल किया गया। ↩︎ त्रिपिटक के अनुसार, भगवान उसके पश्चात तीन सप्ताह और रुके। इस तरह, भगवान ने उरुवेला में बुद्धत्व लाभ होने के पश्चात कुल सात सप्ताह बिताएँ। किन्तु, कुछ अन्य ग्रन्थों में मिथ्या लिखा है कि बोधिसत्व ने सात सप्ताह तक निरंतर ध्यानसाधना करने पर बुद्धत्व प्राप्त हुआ। ↩︎ पश्चात, भगवान बुद्ध के लिए “अनन्तजिन” विशेषण का उपयोग करना अत्यंत प्रसिद्ध हुआ। ↩︎