नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

संघ कथा - २

प्रथम भाग में हमने पढ़ा कि भगवान ने ६० अर्हंत भिक्षुओं को संबोधित किया था —

“भ्रमणचर्या करों, भिक्षुओं, बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए! किसी एक रास्ते पर दो मत जाओ। और, ऐसा धर्म उपदेश करों, भिक्षुओं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, तथा अन्त में कल्याणकारी हो। गहरे अर्थ और विवरण के साथ, इस सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य को प्रकाशित करों! ऐसे सत्व हैं, जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे! और भिक्षुओं, मैं उरुवेला के सैनिय नगर में धर्म उपदेश करने के लिए जाऊँगा!”

तब भगवान वाराणसी में जितना रुकना चाहते थे, उतना रुके, और फिर उरुवेला के भ्रमण पर अकेले निकल पड़े। उन्होने एक विशेष स्थान पर आकर मार्ग को छोड़ दिया और उपवन में प्रवेश किया, और एक वृक्ष के नीचे बैठ गए।

उस समय उपवन में तीस मित्र और उनकी पत्नियों का एक भला समूह पिकनिक मना रहा था। उनमें से एक की पत्नी नहीं थी, तो उसके लिए एक वेश्या को बुलाया गया था। जब वे मदमस्त होकर मजा कर रहे थे, तब वेश्या उसकी वस्तुएँ उठाकर भाग गयी। तब सभी मित्र अपने उस मित्र की सहायता करते हुए उस वेश्या को ढूँढने निकले। उपवन में घूमते-भटकते हुए उन्होने भगवान को वृक्ष के नीचे बैठा देखा। तब वे भगवान के पास गए और कहा, “भंते, क्या भगवान ने एक स्त्री को देखा?”

“किन्तु, कुमारों! भला एक स्त्री को क्यों देखना था?”

“भंते, हम तीस लोग मित्र हैं। हम अपनी पत्नियों के साथ एक समूह बनाकर उपवन में पिकनिक मना रहे थे। उनमें से एक की पत्नी नहीं थी, तो उसके लिए एक वेश्या को बुलाया गया था। जब वे मदमस्त होकर मजा कर रहे थे, तब वेश्या उसकी वस्तुएँ उठाकर भाग गयी। अब हम अपने उस मित्र की सहायता करते हुए उस वेश्या को ढूँढ रहे हैं।”

“क्या लगता है, कुमारों? तुम्हारे लिए क्या बेहतर है — उस स्त्री की खोज करना या आत्म-खोज करना?”

“भंते, हमारे लिए आत्म-खोज करना बेहतर है।”

“ऐसा हो, कुमारों, तो बैठो। मैं तुम्हें धर्म बताता हूँ।”

“ठीक है, भंते।”

तब, भगवान ने उन्हें अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि उनका तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।

जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह उन तीस मित्रों को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”

तब धर्म देख चुके, धर्म पा चुके, धर्म जान चुके, धर्म में गहरे उतर चुके तीस मित्र संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए।

तब उन्होने भगवान से कहा, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“आओ, भिक्षु!” कह कर, भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, उन आयुष्मानो की उपसंपदा संपन्न हुई।


उरुवेला में चमत्कारों की कथा

तब भगवान क्रमशः भ्रमण करते हुए अंततः उरुवेला पहुँच गए। उस समय उरुवेला में तीन जटाधारी भाई रहते थे —उरुवेल कश्यप, नदी कश्यप, और गया कश्यप। उनमें उरुवेल कश्यप पाँच सौ जटाधारी साधुओं का नायक था, मार्गदर्शक था, अग्र था, प्रमुख था, मुखिया था। नदी कश्यप तीन सौ जटाधारी साधुओं का… जबकि गया कश्यप दो सौ जटाधारी साधुओं का नायक था, मार्गदर्शक था, अग्र था, प्रमुख था, मुखिया था।

भगवान जटाधारी उरुवेल कश्यप के आश्रम गए, और जाकर जटाधारी उरुवेल कश्यप से कहा, “तुम्हारे लिए बड़ी बात न हो, कश्यप, तो क्या मैं एक रात के लिए तुम्हारे अग्निगार में रुक सकता हूँ?”

“यह मेरे लिए बड़ी बात नहीं है, महाश्रमण। किन्तु वहाँ एक चन्ड-स्वभाव का ऋद्धिमानी नागराज रहता है, जो अत्यंत घोर विषैला नाग है। कही वह तुम्हें आहत न कर दे।”

भगवान ने दो-तीन बार उससे आग्रह किया, किन्तु उसने वही जवाब दिया। तब भगवान ने कहा, “शायद वह मुझे आहत नहीं करेगा। अब चलो भी, कश्यप! मुझे तुम्हारे अग्निगार में रुकने दो।”

“ठीक है, महाश्रमण! जहाँ सुखद लगे, वहाँ रहो!”

तब भगवान ने अग्निगार में प्रवेश किया और घास का आसन लगाकर, उस पर पालथी मार, काया सीधी रख, स्मृतिमान होकर बैठ गए।

जब नाग ने भगवान को बैठा देखा, तो उसने नाखुश होकर धुआँ ऊगला। तब भगवान ने सोचा, “मुझे इस नाग को वश करने के लिए अग्नि विरुद्ध अग्नि का उपयोग करना चाहिए, ताकि उसकी त्वचा, माँस, नसें, हड्डी या अस्थिमज्जा आहत न हो।”

तब भगवान ने उस तरह के ऋद्धिबल की रचना की और धुआँ उगला। तब नाग को अहंकार के मारे सहन नहीं हुआ, और उसने ज्वालाएँ उगलना शुरू किया। भगवान ने भी अग्निधातु में प्रवेश कर ज्वालाएँ उगली। दोनों के द्वारा इस तरह ज्वालाएँ उगलने पर ऐसा लग रहा था, मानो अग्निगार को बड़ी लपटों की आग लग कर, सब कुछ धधक रहा हो।

तब जटाधारी साधूगण अग्निगार के आसपास जमा हो गए, कहते हुए, “उस अत्यंत रूपवान महाश्रमण को नाग आहत कर रहा है!”

रात बीतने तक भगवान ने अग्नि विरुद्ध अग्नि का उपयोग कर, उस नाग को वश में कर लिया था, बिना उसकी त्वचा, माँस, नसें, हड्डी या अस्थिमज्जा को आहत किए। उन्होने उसे अपने भिक्षापात्र में डाला और जटाधारी उरुवेल कश्यप को दिखाया, “यह रहा, कश्यप, तुम्हारा नाग! उसकी अग्नि, मेरी अग्नि से शान्त हो गयी।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । इसने इस चन्ड-स्वभाव के ऋद्धिमानी नागराज, जो अत्यंत घोर विषैला नाग है, उसे अपनी अग्नि से वश कर लिया। किन्तु, खैर! वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

किन्तु जटाधारी उरुवेल कश्यप को भगवान का ऋद्धि चमत्कार देखकर आस्था जड़ गयी। उसने भगवान से कहा, “यही रहो, महाश्रमण! मैं तुम्हारे भोजन की व्यवस्था करूँगा।”

जल्द ही, भगवान, जटाधारी उरुवेल कश्यप के आश्रम के समीप उपवन में विहार करने लगे। तब देर रात, चार महाराज देवतागण अत्याधिक कान्ति से संपूर्ण उपवन को रौशन करते हुए, भगवान के पास गए और अभिवादन कर भगवान की चार दिशाओं में खड़े हुए — अग्नि के चार महापिंड की तरह दिखते हुए।

तब रात बीतने पर, जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण! और कल रात तुमसे कौन मिलने आए थे? जो अत्याधिक कान्ति से संपूर्ण उपवन को रौशन करते हुए तुम्हारे पास गए और तुम्हें अभिवादन कर तुम्हारी चार दिशाओं में खड़े हो गए — अग्नि के चार महापिंड की तरह दिखते हुए?”

“वे तो, कश्यप, चार महाराज देवतागण थे, जो मेरे पास धर्म सुनने के लिए आए थे।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । इसके पास चार महाराज देवतागण धर्म सुनने के लिए आते हैं। किन्तु, खैर! वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

तब देर रात, देवराज इन्द्र सक्क (=सक्षम) अत्याधिक कान्ति से संपूर्ण उपवन को रौशन करते हुए भगवान के पास गया, और अभिवादन कर भगवान की एक-ओर खड़ा हुआ, किसी महाअग्निपिंड की तरह दिखता हुआ-सा, जो पिछले रात की कान्ति से अधिक तेजस्वी, उत्तम और उत्कृष्ठतम थी।

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण! और कल रात तुमसे मिलने कौन आया था? जो अत्याधिक कान्ति से संपूर्ण उपवन को रौशन करते हुए तुम्हारे पास गया, और तुम्हें अभिवादन कर तुम्हारी एक-ओर खड़ा हुआ, किसी महाअग्निपिंड की तरह दिखता हुआ-सा, जो पिछले रात की कान्ति से अधिक तेजस्वी, उत्तम और उत्कृष्ठतम थी?”

“वह तो, कश्यप, देवराज इन्द्र सक्क था, जो मेरे पास धर्म सुनने के लिए आया था।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । इसके पास देवराज इन्द्र सक्क धर्म सुनने के लिए आता है। किन्तु, खैर! वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

तब देर रात, सहम्पति ब्रह्मा अत्याधिक कान्ति से संपूर्ण उपवन को रौशन करते हुए भगवान के पास गया, और अभिवादन कर भगवान की एक-ओर खड़ा हुआ, किसी महाअग्निपिंड की तरह दिखता हुआ-सा, जो पिछले रात की कान्ति से अधिक तेजस्वी, उत्तम और उत्कृष्ठतम थी।

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण! और कल रात भी तुमसे मिलने कौन आया था? जो अत्याधिक कान्ति से संपूर्ण उपवन को रौशन करते हुए तुम्हारे पास गया, और तुम्हें अभिवादन कर तुम्हारी एक-ओर खड़ा हुआ, किसी महाअग्निपिंड की तरह दिखता हुआ-सा, जो पिछले रात की कान्ति से अधिक तेजस्वी, उत्तम और उत्कृष्ठतम थी?”

“वह तो, कश्यप, सहम्पति ब्रह्मा था, जो मेरे पास धर्म सुनने के लिए आया था।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । इसके पास सहम्पति ब्रह्मा धर्म सुनने के लिए आता है। किन्तु, खैर! वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

उस समय जटाधारी उरुवेल कश्यप ने महायज्ञ का आयोजन किया था, जिसमें अङ्ग और मगध की सम्पूर्ण जनता उत्तम खाद्य और भोजन के साथ आकर उपस्थित होना चाह रही थी।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप ने सोचा, “मैंने इस महायज्ञ का आयोजन किया है, जिसमें अङ्ग और मगध की सम्पूर्ण जनता उत्तम खाद्य और भोजन के साथ आकर उपस्थित होना चाह रही है। किन्तु यदि इस महाश्रमण ने महाजनता के सामने अपनी ऋद्धियाँ दिखा दी, तो सारा लाभ-सत्कार उसी को मिलेगा, और मुझे थोड़ा-सा मिलेगा। काश, वह कल न आए!”

तब भगवान ने अपने चित्त से जटाधारी उरुवेल कश्यप के चित्त के विचार जान लिए, और जाकर उत्तरकुरु 1 में भिक्षाटन किया और उसे अनोतत्त झील 2 में जाकर ग्रहण कर, वही दिन भर ध्यान-साधना की।

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण! और, महाश्रमण, तुम कल क्यों नहीं आएँ? हमने तुम्हारे बारे में सोचा कि महाश्रमण क्यों नहीं आ रहा है? हमने तुम्हारे लिए उत्तम खाद्य और भोजन अलग रख दिया था।”

“किन्तु, कश्यप, क्या तुमने ऐसा नहीं सोचा था कि “मैंने इस महायज्ञ का आयोजन किया है, जिसमें अङ्ग और मगध की सम्पूर्ण जनता उत्तम खाद्य और भोजन के साथ आकर उपस्थित होना चाह रही है। किन्तु यदि इस महाश्रमण ने महाजनता के सामने अपनी ऋद्धियाँ दिखा दी, तो सारा लाभ-सत्कार उसी को मिलेगा, और मुझे थोड़ा-सा मिलेगा। काश, वह कल न आए!” तब मैंने अपने चित्त से तुम्हारे चित्त के विचार जान लिए, तब जाकर उत्तरकुरु में भिक्षाटन किया और उसे अनोतत्त झील में जाकर ग्रहण कर, वही दिन भर ध्यान-साधना की। "

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह अपने चित्त से दूसरों का चित्त जान लेता है। किन्तु, खैर! वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

उस समय भगवान को पंसुकूल [=त्यागे वस्त्र का चीथड़ा] प्राप्त हुआ था। तब भगवान को लगा, “मैं इस पंसुकूल को कहाँ धोऊँ?”

तब देवराज इन्द्र सक्क ने भगवान के चित्त के विचार जान लिए, और उसने आकर अपने हाथों से तालाब खोदकर, भगवान से कहा, “यहाँ, भंते, भगवान अपने पंसुकूल को धोएँ!”

तब भगवान को लगा, “मैं इस पंसुकूल को कहाँ पीटते हुए धोऊँ??”

तब देवराज इन्द्र सक्क ने भगवान के चित्त के विचार जान लिए, और उसने एक विशाल चट्टान रखकर, भगवान से कहा, “यहाँ, भंते, भगवान अपने पंसुकूल को पीटते हुए धोएँ!”

तब भगवान को लगा, “मैं क्या (आधार) पकड़ कर तालाब से बाहर आऊँ?”

तब अर्जुन वृक्ष के देवता ने भगवान के चित्त के विचार जान लिए, और उसने एक टहनी को झुकाते हुए कहा, “इसे, भंते, भगवान पकड़ कर तालाब से बाहर आएँ!”

तब भगवान को लगा, “मैं इस पंसुकूल को कहाँ सुखाऊँ?”

तब देवराज इन्द्र सक्क ने भगवान के चित्त के विचार जान लिए, और उसने एक विशाल चट्टान रखकर, भगवान से कहा, “यहाँ, भंते, भगवान अपने पंसुकूल को सुखाने डाले!”

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण! किन्तु, महाश्रमण, ये सब क्या हुआ? पहले यहाँ कोई तालाब नहीं था, किन्तु अब यहाँ तालाब है। पहले यहाँ बड़ी चट्टाने नहीं थी। किसने इन चट्टानों को यहाँ रखा? पहले अर्जुन वृक्ष की टहनी इस तरह झुकी नहीं थी, किन्तु अब झुकी है?”

भगवान ने घटित हुआ सब बता दिया… तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । इसकी सेवा में तो देवराज इन्द्र सक्क तक हाजिर होता है। किन्तु, खैर! वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण!”

भगवान ने कहा, “तुम जाओ, कश्यप। मैं आता हूँ।” जटाधारी उरुवेल कश्यप को भेजकर, भगवान ने जाकर उसी जम्बूवृक्ष से जम्बूफल (=जामुन का फल) लिया, जिससे (भारतीय उपमहाद्वीप का नाम) ‘जम्बूद्वीप’ नाम पड़ा है, और पहले जाकर अग्निगार में बैठ गए।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप ने आकर भगवान को देखा, तो उसने कहा, “महाश्रमण, तुम किस मार्ग से आएँ? मैं वहाँ से पहले निकला और तुम यहाँ पहले पहुँच गए।”

“कश्यप, मैंने जाकर उसी जम्बूवृक्ष से जम्बूफल लिया, जिससे ‘जम्बूद्वीप’ नाम पड़ा है, और आकर अग्निगार में बैठ गया। यह जम्बूफल, कश्यप, वर्णसंपन्न है, गंधसंपन्न है, रससंपन्न है। तुम्हें चाहिए तो खाओ!”

“नहीं चाहिए, महाश्रमण! तुम ही इसे खाने के काबिल (=अर्हंत) हो। तुम्हें ही इसे खाना चाहिए।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह जाकर उसी जम्बूवृक्ष से जम्बूफल ले आया, जिससे ‘जम्बूद्वीप’ नाम पड़ा है, और पहले आकर अग्निगार में बैठ गया। किन्तु, खैर! वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

तब रात बीतने पर जटाधारी उरुवेल कश्यप भगवान के पास गया और उनसे कहा, “भोजन का समय हुआ, महाश्रमण!”

भगवान ने कहा, “तुम जाओ, कश्यप। मैं आता हूँ।” जटाधारी उरुवेल कश्यप को भेजकर, भगवान ने जाकर उसी जम्बूवृक्ष के कुछ दूरी पर आमवृक्ष से आम लिया… आमवृक्ष के कुछ दूरी पर आँवलावृक्ष से आँवला लिया… आँवलावृक्ष के कुछ दूरी पर हरड़वृक्ष से हरड़ लिया… तैतीस देवलोक जाकर (नन्दनवन में लगा) मूँगे का पुष्प लिया, और, पहले जाकर अग्निगार में बैठ गए।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप ने आकर भगवान को देखा, तो उसने कहा, “महाश्रमण, आज तुम किस मार्ग से आएँ? मैं वहाँ से पहले निकला और तुम पुनः यहाँ पहले पहुँच गए।”

“कश्यप, मैंने तैतीस देवलोक जाकर मूँगे का पुष्प लिया, और आकर अग्निगार में बैठ गया। यह पुष्प, कश्यप, वर्णसंपन्न है, गंधसंपन्न है। तुम्हें चाहिए तो लो!”

“नहीं चाहिए, महाश्रमण! तुम ही इसे लेने के काबिल हो। तुम्हें ही इसे रखना चाहिए।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह तैतीस देवलोक जाकर मूँगे का पुष्प ले आया, और पहले आकर अग्निगार में बैठ गया। किन्तु, खैर! वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप का दिया भोजन ग्रहण किया और उसी उपवन में विहार करते रहे।

उस समय जटाधारी साधूगण लकड़ियों को चीर न पाने से अग्निसेवा नहीं कर पा रहे थे। तब उन जटाधारी साधूगण को लगा, “निश्चित, यह महाश्रमण की ऋद्धिप्रताप से है कि हम लकड़ियों को चीर न पाने से अग्निसेवा नहीं कर पा रहे हैं।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप को संबोधित किया, “कश्यप, फट जाएँ लकड़ियाँ!”

“हाँ फट जाएँ, महाश्रमण!”

और अचानक पाँच सौ लकड़ियाँ एक साथ फट गयी।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह इस तरह लकड़ियों को फाड़ देता है। किन्तु, खैर! वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

उस समय जटाधारी साधूगण अग्नि जला न पाने से अग्निसेवा नहीं कर पा रहे थे। तब उन जटाधारी साधूगण को लगा, “निश्चित ही, यह महाश्रमण की ऋद्धिप्रताप से है कि हम अग्नि जला न पाने से अग्निसेवा नहीं कर पा रहे हैं।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप को संबोधित किया, “कश्यप, अग्नि जल जाएँ!”

“हाँ जल जाएँ, महाश्रमण!”

और अचानक पाँच सौ अग्नि एक साथ जल उठी ।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह इस तरह अग्नि को जला देता है। किन्तु, खैर! वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

उस समय जटाधारी साधूगण अग्निसेवा पूर्ण कर अग्नि को बुझा नहीं पा रहे थे। तब उन जटाधारी साधूगण को लगा, “निश्चित ही, यह महाश्रमण की ऋद्धिप्रताप से है कि हम अग्निसेवा पूर्ण कर अग्नि को बुझा नहीं पा रहे हैं।”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप को संबोधित किया, “कश्यप, अग्नि बुझ जाएँ!”

“हाँ बुझ जाएँ, महाश्रमण!”

और अचानक पाँच सौ अग्नि एक साथ बुझ गयी ।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह इस तरह अग्नि को बुझा भी देता है। किन्तु, खैर! वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

उस समय शीतऋतु के मध्य की ठंडी रात में, हिमपात के समय जटाधारी साधूगण नेरञ्जरा नदी में बार-बार डुबकियाँ लगाकर उठ रहे थे। तब भगवान ने ऋद्धिरचना से पाँच सौ गरम तवे रख दिए, ताकि जल से निकलते ही जटाधारी स्वयं को ऊष्ण कर पाए।

तब उन जटाधारी साधूगण को लगा, “निश्चित ही, यह महाश्रमण की ऋद्धिप्रताप है कि यहाँ पाँच सौ गरम तवे रखे हैं, जो ऋद्धिरचना से बने हैं।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह इस तरह इतने सारे गरम तवे ऋद्धिरचना से बनाकर रख देता हैं। किन्तु, खैर! वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

इस तरह, भगवान ने कुल साढ़े तीन हज़ार चमत्कार किए!

और, एक दिन बेमौसम एक महामेघ ने महावृष्ठी करायी और बड़ी बाढ़ आयी। जिस स्थान पर भगवान रहते थे, वह स्थान पूर्णतः जल में समा गया। तब भगवान ने अपनी ऋद्धि से जल को सभी दिशाओं में पीछे धकेल दिया, और बीच में सूखे भूमि पर चक्रमण करने लगे।

दूसरी ओर, जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “कही महाश्रमण बाढ़ में न बह जाएँ!” वह बहुत से जटाधारियों के साथ नाँव लेकर भगवान के स्थान पर आया। और उसने देखा कि भगवान ने जल को सभी दिशाओं में पीछे धकेल दिया है, और बीच में सूखे भूमि पर चक्रमण कर रहे है। तब उसने भगवान से कहा, “तुम ही हो, महाश्रमण?”

“हाँ, मैं हूँ, कश्यप!”

तब भगवान हवा में उड़कर नाँव में आ गए।

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप को लगा, “यह महाश्रमण तो महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है । यह इस तरह जल को पीछे धकेल सकता है। किन्तु, खैर! वह मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।”

तब भगवान को लगा, “बहुत समय से यह नालायक पुरुष यही सोचता है कि ‘महाश्रमण महाऋद्धिमानी, महाप्रतापी है , किन्तु मेरे जैसा अर्हंत नहीं है।’ क्यों न अब इस जटाधारी में संवेग जगाऊँ!”

तब भगवान ने जटाधारी उरुवेल कश्यप से कहा, “तुम अर्हंत नहीं हो, कश्यप, और न ही अर्हंतमार्ग पर स्थित हो। तुम्हारे पास कोई साधनामार्ग नहीं है, जो तुम्हें अर्हंत बनाएँ या अर्हंतमार्ग पर स्थित करे।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप ने भगवान के चरणों में अपना सिर रख दिया और कहा, “भंते, मुझे भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“कश्यप, तुम पाँच सौ जटाधारी साधुओं के नायक हो, मार्गदर्शक हो, अग्र हो, प्रमुख हो, मुखिया हो। उन्हें पहले सूचित करो, ताकि उन्हें जैसा उचित लगे, वे करें।”

तब जटाधारी उरुवेल कश्यप उन जटाधारी साधुगण के पास गया, और कहा, “श्रीमानो! मेरी इच्छा है कि मैं महाश्रमण के ब्रह्मचर्य धारण करूँ। आप श्रीमानो को जैसा उचित लगे, वैसा करें।”

“श्रीमान, हमें चिरकाल से उस महाश्रमण पर आस्था जड़ चुकी है। यदि आप महाश्रमण का ब्रह्मचर्य धारण करेंगे, तो हम सभी महाश्रमण का ब्रह्मचर्य धारण करेंगे!”

तब उन जटाधारियों ने अपने केशमिश्रण, जटामिश्रण, डंडा-बोरी और अग्निपुजा-सामान को नदी में बहा दिया, और भगवान के पास आएँ। भगवान के चरणों में सिर रखकर उन्होने भगवान से याचना की, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“आओ, भिक्षु!” भगवान ने कहा, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।”

और इस तरह, उन सभी आयुष्मानों की उपसंपदा संपन्न हुई।

तब जटाधारी नदी कश्यप ने केशमिश्रण, जटामिश्रण, डंडा-बोरी और अग्निपुजा-सामान को नदी में बहते देखा। उसने कहा, “मेरा भाई ठीक तो है?” उसने जटाधारियों को भेजा, “जाओ, मेरे भाई का पता लगाओ।”

तब (पता चलने पर) वह तीन सौ जटाधारियों के साथ उरुवेल कश्यप के पास गया, और आयुष्मान उरुवेल कश्यप से कहा, “क्या ये श्रेष्ठ है, कश्यप?”

“हाँ मित्र, ये श्रेष्ठ है।”

तब उन जटाधारियों ने अपने केशमिश्रण, जटामिश्रण, डंडा-बोरी और अग्निपुजा-सामान को नदी में बहा दिया, और भगवान के पास आएँ। भगवान के चरणों में सिर रखकर उन्होने भगवान से याचना की, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“आओ, भिक्षु!” भगवान ने कहा, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।”

और इस तरह, उन सभी आयुष्मानों की उपसंपदा संपन्न हुई।

तब जटाधारी गया कश्यप ने केशमिश्रण, जटामिश्रण, डंडा-बोरी और अग्निपुजा-सामान को नदी में बहते देखा। उसने कहा, “मेरे भाई ठीक तो हैं?” उसने जटाधारियों को भेजा, “जाओ, मेरे भाइयों का पता लगाओ।”

तब (पता चलने पर) वह दो सौ जटाधारियों के साथ उरुवेल कश्यप के पास गया, और आयुष्मान उरुवेल कश्यप से कहा, “क्या ये श्रेष्ठ है, कश्यप?”

“हाँ मित्र, ये श्रेष्ठ है।”

तब उन जटाधारियों ने अपने केशमिश्रण, जटामिश्रण, डंडा-बोरी और अग्निपुजा-सामान को नदी में बहा दिया, और भगवान के पास आएँ। भगवान के चरणों में सिर रखकर उन्होने भगवान से याचना की, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“आओ, भिक्षु!” भगवान ने कहा, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।”

और इस तरह, उन सभी आयुष्मानों की उपसंपदा संपन्न हुई।

पूर्व-जटाधारी भिक्षुओं का अर्हत्व लाभ

तब भगवान ने उन भिक्षुओं को संबोधित किया —

“सब कुछ, भिक्खुओं, धधक रहा हैं 3। क्या सब कुछ धधक रहा हैं?

आँखे धधक रही है, रूप धधक रहे हैं, आँखों का चैतन्य धधक रहा है, आँखों पर संस्पर्श धधक रहा है, और आँखों पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – वह भी धधक रहा है। किससे धधक रहा है? मैं कहता हूँ राग-अग्नि से धधक रहा है, द्वेष-अग्नि से धधक रहा है, मोह-अग्नि से धधक रहा है; जन्म, बुढ़ापा और मौत से, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा से धधक रहा है।

कान धधक रहा है, आवाज धधक रही हैं, कान का चैतन्य धधक रहा है, कान पर संस्पर्श धधक रहा है, और कान पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – वह भी धधक रहा है। किससे धधक रहा है? मैं कहता हूँ राग-अग्नि से धधक रहा है, द्वेष-अग्नि से धधक रहा है, मोह-अग्नि से धधक रहा है; जन्म, बुढ़ापा और मौत से, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा से धधक रहा है।

नाक धधक रहा है, गन्ध धधक रहे हैं, नाक का चैतन्य धधक रहा है, नाक पर संस्पर्श धधक रहा है, और नाक पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – वह भी धधक रहा है। किससे धधक रहा है? मैं कहता हूँ राग-अग्नि से धधक रहा है, द्वेष-अग्नि से धधक रहा है, मोह-अग्नि से धधक रहा है; जन्म, बुढ़ापा और मौत से, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा से धधक रहा है।

जीभ धधक रही है, स्वाद धधक रहे हैं, जीभ का चैतन्य धधक रहा है, जीभ पर संस्पर्श धधक रहा है, और जीभ पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – वह भी धधक रहा है। किससे धधक रहा है? मैं कहता हूँ राग-अग्नि से धधक रहा है, द्वेष-अग्नि से धधक रहा है, मोह-अग्नि से धधक रहा है; जन्म, बुढ़ापा और मौत से, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा से धधक रहा है।

काया धधक रही है, संस्पर्श धधक रहे हैं, काया का चैतन्य धधक रहा है, काया पर संस्पर्श धधक रहा है, और काया पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – वह भी धधक रहा है। किससे धधक रहा है? मैं कहता हूँ राग-अग्नि से धधक रहा है, द्वेष-अग्नि से धधक रहा है, मोह-अग्नि से धधक रहा है; जन्म, बुढ़ापा और मौत से, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा से धधक रहा है।

मन धधक रहा है, धर्म धधक रहे हैं, मन का चैतन्य धधक रहा है, मन पर संस्पर्श धधक रहा है, और मन पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – वह भी धधक रहा है। किससे धधक रहा है? मैं कहता हूँ राग-अग्नि से धधक रहा है, द्वेष-अग्नि से धधक रहा है, मोह-अग्नि से धधक रहा है; जन्म, बुढ़ापा और मौत से, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा से धधक रहा है।

ऐसा देखकर, भिक्षुओं, धर्म सुने आर्यश्रावक का आँखों से मोहभंग होता है, रूपों से मोहभंग होता है, आँखों के चैतन्य से मोहभंग होता है, आँखों पर होते संस्पर्श से मोहभंग होता है, और आँखों पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – उससे भी मोहभंग होता है।

कान से मोहभंग होता है, आवाज से मोहभंग होता है, कान के चैतन्य से मोहभंग होता है, कान पर होते संस्पर्श से मोहभंग होता है, और कान पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – उससे भी मोहभंग होता है।

नाक से मोहभंग होता है, गन्ध से मोहभंग होता है, नाक के चैतन्य से मोहभंग होता है, नाक पर होते संस्पर्श से मोहभंग होता है, और नाक पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – उससे भी मोहभंग होता है।

जीभ से मोहभंग होता है, स्वाद से मोहभंग होता है, जीभ के चैतन्य से मोहभंग होता है, जीभ पर होते संस्पर्श से मोहभंग होता है, और जीभ पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – उससे भी मोहभंग होता है।

काया से मोहभंग होता है, संस्पर्श से मोहभंग होता है, काया के चैतन्य से मोहभंग होता है, काया पर होते संस्पर्श से मोहभंग होता है, और काया पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – उससे भी मोहभंग होता है।

मन से मोहभंग होता है, धर्म से मोहभंग होता है, मन के चैतन्य से मोहभंग होता है, मन पर होते संस्पर्श से मोहभंग होता है, और मन पर संस्पर्श से जो संवेदना होती है – सुखद, दुःखद या अदुःखदसुखद – उससे भी मोहभंग होता है।

मोहभंग होने से विराग होता है। विराग होने से विमुक्त होता है। विमुक्ति से ज्ञात होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ और पता चलता है, ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’”

और जब यह स्पष्टीकरण दिया जा रहा था, तब सभी एक हजार भिक्षुओं का चित्त अनासक्त हो आस्रव-मुक्त हुआ।


बिम्बिसार से भेंट

तब भगवान को गया शीर्ष में जितना रुकना था, उतना रुके, और फिर एक हजार भिक्षुओं, जो पहले जटाधारी साधू थे, के विशाल संघ के साथ (मगध की राजधानी) राजगृह की ओर चल पड़े । अंततः वे क्रमशः भ्रमणचर्या करते हुए राजगृह तक पहुँच गए। तब भगवान ने राजगृह के लट्ठवन में सुप्रतिष्ठित चेतिय में विहार किया।

मगध के महाराज सेनिय बिम्बिसार को सूचित किया गया — “श्रीमान! शाक्यपुत्र श्रमण गौतम, जो शाक्य-कुल से प्रवज्यित हैं, राजगृह में पहुँच कर, लट्ठवन के सुप्रतिष्ठित चेतिय में विहार कर रहे है। और उनके बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त! वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं। और ऐसे अर्हन्तों का दर्शन वाकई शुभ होता है।””

तब मगधराज सेनिय बिम्बिसार मगध के एक लाख बीस हजार ब्राह्मणों और (वैश्य) गृहस्थों को लेकर भगवान के पास गया, और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। मगध के एक लाख बीस हजार ब्राह्मणों और गृहस्थों में से कुछ ने भगवान को अभिवादन किया, और एक-ओर बैठ गए। कुछ ब्राह्मणों और गृहस्थों ने भगवान से नम्रतापूर्ण वार्तालाप किया, और एक-ओर बैठ गए। कुछ ब्राह्मणों और गृहस्थों ने हाथ जोड़कर अंजलिबद्ध वंदन किया, और एक-ओर बैठ गए। कोई ब्राह्मणों और गृहस्थों ने भगवान को अपना नाम-गोत्र बताया, और एक-ओर बैठ गए। और कोई ब्राह्मण और गृहस्थ चुपचाप ही एक-ओर बैठ गए।

और, मगध के एक लाख बीस हजार ब्राह्मण और गृहस्थ (अचरज में) सोचने लगे, “यह महाश्रमण उरुवेल कश्यप का ब्रह्मचर्य पालन कर रहा है, अथवा उरुवेल कश्यप महाश्रमण का ब्रह्मचर्य पालन कर रहा है?”…

… तब आयुष्मान उरुवेल कश्यप अपने आसन से उठा, और एक कन्धे पर चीवर कर भगवान के चरणों में अपना सिर लगाते हुए कहा, “भंते, भगवान मेरे शास्ता है, मैं भगवान का शिष्य हूँ! भगवान मेरे शास्ता है, मैं भगवान का शिष्य हूँ!”

तब, मगध के उन एक लाख बीस हजार ब्राह्मणों और गृहस्थों को पता चला कि दरअसल उरुवेल कश्यप, महाश्रमण का ब्रह्मचर्य पालन कर रहा है।

तब भगवान ने अपने चित्त से मगध के उन एक लाख बीस हजार ब्राह्मणों और गृहस्थों के चित्त के विचार जान लिए, और उन्हें अनुक्रम से धर्म बताया, जैसे दान कथा, शील कथा, स्वर्ग कथा; फ़िर कामुकता में ख़ामी, दुष्परिणाम और दूषितता, और अंततः संन्यास के लाभ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि उनका तैयार चित्त है, मृदु चित्त है, अवरोध-विहीन चित्त है, प्रसन्न चित्त है, आश्वस्त चित्त है, तब उन्होने बुद्ध-विशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग।

जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह मगधराज सेनिय बिम्बिसार के साथ मगध के एक लाख दस हजार ब्राह्मणों और गृहस्थों को उसी आसन पर बैठकर धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!” और बचे दस हजार ने उपासकत्व की घोषणा की।

तब धर्म देख चुका, धर्म पा चुका, धर्म जान चुका, धर्म में गहरे उतर चुका मगधराज सेनिय बिम्बिसार संदेह लाँघकर परे चले गए। तब उन्हें कोई सवाल न बचे। उन्हें निडरता प्राप्त हुई, तथा वे शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुए। तब उसने भगवान से कहा —

“भंते, जब पहले मैं राजकुमार था, तब मेरी पाँच इच्छाएँ थी, जो अब पूर्ण हो चुकी हैं। जब मैं पहले राजकुमार था, तो सोचता था, ‘अरे! काश, मेरा राजतिलक कर मुझे राजा बना दें!’ यह मेरी पहली इच्छा थी, जो अब पूर्ण हो चुकी है। ‘मेरे साम्राज्य में ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ आएँ!’ यह मेरी दूसरी इच्छा थी, जो अब पूर्ण हो चुकी है। ‘मैं उस भगवान का दर्शन ले सकूँ!’ यह मेरी तीसरी इच्छा थी, जो अब पूर्ण हो चुकी है। ‘वे भगवान मुझे धर्म उपदेश करें!’ यह मेरी चौथी इच्छा थी, जो अब पूर्ण हो चुकी है। ‘मैं भगवान के धर्म उपदेश को समझ जाऊँ!’ यह मेरी पाँचवी इच्छा थी, जो अब पूर्ण हो चुकी है। अतिउत्तम, गुरु गौतम! अतिउत्तम, गुरु गौतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें! और, भंते, भगवान कल भिक्षुसंघ के साथ मेरा भोजन स्वीकार करें।”

भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी। तब भगवान की स्वीकृति जान कर, मगधराज सेनिय बिम्बिसार आसन से उठकर भगवान को अभिवादन करते हुए, प्रदक्षिणा करते हुए चला गया। और रात बीतने पर मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने अपने राजमहल पर उत्तम खाद्य और भोजन बनाकर, भगवान से विनंती की, “उचित समय है, हे गौतम! भोजन तैयार है।”

तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, एक हजार भिक्षुओं, जो पूर्व जटाधारी थे, के विशाल संघ के साथ राजगृह में प्रवेश किया। तब, देवराज इन्द्र सक्क ने अपनी ऋद्धिरचना से युवा-ब्राह्मण का रूप लिया, और बुद्ध के नेतृत्व में चल रहे भिक्षुसंघ के आगे-आगे चलते हुए ये गाथाएँ गाने लगा —

"सभ्य, पूर्व-जटाधारी सभ्यों के साथ,
विमुक्त, विमुक्तों के साथ,
स्वर्णिम वर्ण भगवान ने, राजगृह प्रवेश किया।
मुक्त, पूर्व-जटाधारी मुक्तों के साथ,
विमुक्त, विमुक्तों के साथ,
स्वर्णिम वर्ण भगवान ने, राजगृह प्रवेश किया।
सन्त, पूर्व-जटाधारी संतों के साथ,
विमुक्त, विमुक्तों के साथ,
स्वर्णिम वर्ण भगवान ने, राजगृह प्रवेश किया।
दस-वासी, दस-बल,
दस-धर्मों के जानकार, दस-गुणों से युक्त,
दस-सौ के परिवार सहित,
राजगृह प्रवेश किया।"

लोगों ने देवराज इन्द्र सक्क को देखकर कहने लगे, “कितना रूपवान है यह युवा-ब्राह्मण! कितना दर्शनीय है यह युवा-ब्राह्मण! कितना विश्वसनीय है यह युवा-ब्राह्मण! कौन है यह युवा-ब्राह्मण?”

ऐसा कहे जाने पर, देवराज इन्द्र सक्क ने उन लोगों से गाथाओं में कहा —

"जो ज्ञानी, सभी तरह से सभ्य है,
शुद्ध, अद्वितीय, इस लोक में अर्हंत, सुगत है,
मैं उनका सेवक हूँ!"

तब भगवान मगधराज सेनिय बिम्बिसार के राजमहल गए और विशाल भिक्षुसंघ के साथ बिछे आसन पर बैठ गये। तब मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने भगवान और भिक्षुसंघ को स्वयं अपने हाथों से उत्तम खाद्य और भोजन परोस कर संतृप्त किया, संतुष्ट किया। भगवान के भोजन कर पात्र से हाथ हटाने के पश्चात, मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने स्वयं का आसन नीचे लगाया और एक ओर बैठ गया।

एक ओर बैठकर मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने सोचा, “भगवान कहाँ विहार करेंगे? ऐसी जगह, जो गाँव से बहुत दूर न रहे, बहुत पास भी न रहे, जो जाने-आने में सुविधाजनक हो, जो भगवान के दर्शनार्थ लोगों के लिए भी सुलभ हो, जहाँ दिन में कम लोग, और रात में कम आवाज, कम शोर, शान्तिमय हो, लोगों से वीरान, एकांतवास के लिए उपयुक्त हो।”

तब मगधराज सेनिय बिम्बिसार को लगा, “मेरा वेलुवन उद्यान ऐसी ही जगह है, जो गाँव से बहुत दूर है, न बहुत पास है, जो जाने-आने में सुविधाजनक है, जो भगवान के दर्शनार्थ लोगों के लिए भी सुलभ होगा, जहाँ दिन में कम लोग, और रात में कम आवाज, कम शोर, शान्तिमय है, जो लोगों से वीरान, एकांतवास के लिए उपयुक्त है। क्यों न मैं अपने वेलुवन उद्यान को बुद्ध के नेतृत्व में भिक्षुसंघ को दे दूँ?”

तब मगधराज सेनिय बिम्बिसार ने अपनी राजसी स्वर्ण-थाली को लेकर भगवान को अर्पण करते हुए कहा, “भंते, मैं वेलुवन उद्यान को बुद्ध के नेतृत्व में भिक्षुसंघ को देता हूँ!”

भगवान ने उस उद्यान का स्वीकार किया। और, भगवान ने मगधराज सेनिय बिम्बिसार को धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया, और आसन से उठकर चले गए।

तब इस कारण, इस प्रकरण से भगवान ने भिक्षुओं को धर्मकथा प्रदान की और संबोधित करते हुए कहा, “भिक्षुओं, मैं विहार की अनुमति देता हूँ!”


सारिपुत्त और मोग्गल्लान

उस समय, घुमक्कड़ सञ्चय अपने ढ़ाई-सौ के विशाल घुमक्कड़-परिषद के साथ राजगृह में रहता था। उस समय, सारिपुत्त और मोग्गल्लान घुमक्कड़ सञ्चय का ब्रह्मचर्य पालन करते थे। उन दोनों ने आपस में सहमति बना रखी थी, “जिसे पहले अमृत मिले, वह दूसरे को बताएँ।”

उस समय सुबह होने पर आयुष्मान अस्सजि (=अश्वजित, पञ्चवर्गीय भिक्षुओं में से एक) चीवर ओढ़, पात्र लेकर भिक्षाटन के लिए राजगृह में प्रवेश किया। उनका आचरण आस्था जागृत करने वाला था — आगे बढ़ते और लौट आते हुए, नज़र टिकाते और नज़र हटाते हुए, (अंग) सिकोड़ते और पसारते हुए, झुकी आँखें और बेहतरीन काया-संचालन (=ईर्यापथ) संपन्न।

तब, घुमक्कड़ सारिपुत्त ने आयुष्मान अस्सजि को भिक्षाटन के लिए राजगृह में भटकते देखा। उनका आचरण आस्था जागृत कर रहा था — आगे बढ़ते और लौट आते हुए, नज़र टिकाते और नज़र हटाते हुए, सिकोड़ते और पसारते हुए, झुकी आँखें और बेहतरीन काया-संचालन संपन्न। ऐसा देखकर उसे लगा, “इस लोक में जो अर्हंत हैं या अर्हंतमार्ग पर स्थित हैं, हो न हो, यह भिक्षु उनमें से एक हैं। क्यों न मैं इस भिक्षु के पास जाऊँ और पुछूँ, ‘तुम किसे उद्देश्य कर प्रवज्जित हुए हो, मित्र? कौन हैं तुम्हारे शास्ता? तुम्हें किसके धर्म में रुचि है?’”

किन्तु घुमक्कड़ सारिपुत्त को लगा, “भिक्षु को पुछने का यह समय उचित नहीं है, जब वह बस्ती में भिक्षाटन के लिए भटक रहा हो। क्यों न मैं इस भिक्षु के पीछे-पीछे चलते रहूँ? मार्ग ढूँढने वाले को राह मिल जाएगी!”

तब आयुष्मान अस्सजि राजगृह से भिक्षाटन करने पर भिक्षा लेकर लौट गए। तब घुमक्कड़ सारिपुत्त आयुष्मान अस्सजि के पास गया, और मैत्रीपूर्ण वार्तालाप किया। प्रसन्न वार्तालाप कर, एक-ओर खड़ा होकर उसने आयुष्मान अस्सजि से कहा, “तुम्हारे इंद्रिय प्रसन्न हैं, मित्र, और तुम्हारी त्वचा परिशुद्ध और तेजस्वी है। तुम किसे उद्देश्य कर प्रवज्जित हुए हो, मित्र? कौन हैं तुम्हारे शास्ता? तुम्हें किसके धर्म में रुचि है?”

“शाक्यपुत्र महाश्रमण, जो शाक्य-कुल से प्रवज्जित है, मैं उन भगवान को उद्देश्य कर प्रवज्जित हुआ हूँ। वही भगवान मेरे शास्ता है। और मुझे उस भगवान के धर्म में रुचि है।”

“किन्तु, उस शास्ता का वाद (=तत्वज्ञान) क्या है? वे क्या उपदेश करते है?”

“मित्र, मैं नया हूँ। मुझे प्रवज्जा लिए अधिक समय नहीं हुआ। इस धर्म-विनय में नया-नया आया हूँ, इसलिए मैं तुम्हें विस्तार से धर्म नहीं बता पाऊँगा। किन्तु, मैं तुम्हें संक्षिप्त में धर्म बता सकता हूँ।”

तब, घुमक्कड़ सारिपुत्त ने आयुष्मान अस्सजि से कहा, “होगा, मित्र —

थोड़े में या बहुत बताओ,
बस, मुझे अर्थ बताओ!
मेरा अर्थ से ही अर्थ है,
बहुत विवरण से क्या होगा?"

तब, आयुष्मान अस्सजि ने घुमक्कड़ सारिपुत्त को यह धर्म-सूत्र बताया —

"जो धर्म कारण से उत्पन्न हैं,
तथागत उनका कारण बताते है,
साथ ही, उनका निरोध बताते है,
बस, यही महाश्रमण का वाद है!"

घुमक्कड़ सारिपुत्त को यह धर्म-सूत्र सुनते ही धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”

"यही धर्म है, बस इतना ही,
अशोक-पद पाने के लिए पर्याप्त!
किन्तु, जो अदृश्य बना रहता है,
असंख्य कल्प बीत जाते हैं।

तब, घुमक्कड़ सारिपुत्त घुमक्कड़ मोग्गल्लान के पास गया। घुमक्कड़ मोग्गल्लान ने घुमक्कड़ सारिपुत्त को द्दूर से आते देखा, और कह पड़ा, “तुम्हारे इंद्रिय प्रसन्न हैं, मित्र, और तुम्हारी त्वचा परिशुद्ध और तेजस्वी है। कही ऐसा तो नहीं कि तुमने अमृत पा लिया हो?”

“हाँ, मित्र! मैंने अमृत पा लिया है!”

“किन्तु, मित्र, तुमने अमृत को कैसे पा लिया?”

(तब, घुमक्कड़ सारिपुत्त ने घुमक्कड़ मोग्गल्लान को सारी घटनाएँ विवरण से बतायी… और जब ये कहा,)

"जो धर्म कारण से उत्पन्न हैं,
तथागत उनका कारण बताते है,
साथ ही, उनका निरोध बताते है,
बस, यही महाश्रमण का वाद है!"

घुमक्कड़ मोग्गल्लान को यह धर्म-सूत्र सुनते ही धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!”

"यही धर्म है, बस इतना ही,
अशोक-पद पाने के लिए पर्याप्त!
किन्तु, जो अदृश्य बना रहता है,
असंख्य कल्प बीत जाते हैं।

तब, घुमक्कड़ मोग्गल्लान ने घुमक्कड़ सारिपुत्त से कहा, “चलो, मित्र, उस भगवान के पास! वे ही हमारे शास्ता है!”

“किन्तु, मित्र, जो ढ़ाई-सौ घुमक्कड़ निश्रय के लिए हमारी ओर देखकर रहते हैं, उन्हें भी बताना चाहिए। ताकि उन्हें जो उचित लगे, वे करें।”

तब सारिपुत्त और मोग्गल्लान उन घुमक्कड़ों के पास गए, और उन्हें कहा, “हम दोनों भगवान के पास जा रहे हैं! वे ही हमारे शास्ता है!”

(उन्होने जवाब दिया:) “किन्तु, हम निश्रय के लिए आप आयुष्मान की ओर देखकर रहते हैं। यदि आप दोनों आयुष्मान महाश्रमण का ब्रह्मचर्य पालन करेंगे, तो हम सभी महाश्रमण का ब्रह्मचर्य पालन करेंगे।”

तब सारिपुत्त और मोग्गल्लान घुमक्कड़ सञ्चय के पास गए, और उसे कहा, “हम दोनों भगवान के पास जा रहे हैं! वे ही हमारे शास्ता है!”

(उसने कहा:) “मत जाओ, मित्रों! हम तीनों इस सभा को मिलकर चलाएँगे!”

दूसरी बार… और तीसरी बार सारिपुत्त और मोग्गल्लान ने घुमक्कड़ सञ्चय से कहा, “हम दोनों भगवान के पास जा रहे हैं! वे ही हमारे शास्ता है!”

(तीसरी बार उसने कहा:) “मत जाओ, मित्रों! हम तीनों इस सभा को मिलकर चलाएँगे!”

तब सारिपुत्त और मोग्गल्लान उन ढ़ाई-सौ घुमक्कड़ों को लेकर वेलुवन की ओर चल पड़े। वही घुमक्कड़ सञ्चय ने गर्म रक्त की उल्टी 4 की।

जब भगवान ने सारिपुत्त और मोग्गल्लान को दूर से आते देखा, तो उन्होने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, ये दो मित्र कोलित और उपतिस्स आ रहे हैं। मेरी यह शिष्यों की जोड़ी अग्र बनेगी, भद्र बनेगी।”

… तब सारिपुत्त और मोग्गल्लान भगवान के पास गए, और भगवान के चरणों में सिर रखते हुए, भगवान से कहा, “भंते, हमें भगवान के पास प्रवज्जा प्राप्त हो, उपसंपदा मिले ।”

“आओ, भिक्षु!” कह कर, भगवान ने उत्तर दिया, “यह स्पष्ट बताया धर्म है। दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए इस ब्रह्मचर्य को धारण करो।” और इस तरह, उन आयुष्मानों की उपसंपदा संपन्न हुई।


दुष्प्रचार

उस समय, मगध के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध कुलपुत्र भगवान का ब्रह्मचर्य पालन कर रहे थे। लोगों ने भर्त्सना, आलोचना और दुष्प्रचार किया — “श्रमण गौतम हमें अपुत्रक बना रहे हैं! स्त्रियों को पतिहीन बना रहे हैं! कुल-परिवारों को तोड़ रहे हैं! वहाँ एक हजार जटाधारीयों ने प्रवज्जा ले ली! और यहाँ घुमक्कड़ सञ्चय के ढ़ाई-सौ ने प्रवज्जा ले ली! मगध के सभी प्रसिद्ध - प्रसिद्ध कुलपुत्र अब भगवान का ब्रह्मचर्य पालन कर रहे हैं!”

भिक्षुओं को देखकर, वे लोग गाथाओं में फटकार लगाते —

"हुआ आगमन महाश्रमण का,"
मगध के गिरिब्बज में,
सञ्चय के तो सभी ले गया,
अब और किसे ले जाएगा?"

भिक्षुओं ने उन लोगों की भर्त्सना, आलोचना और दुष्प्रचार को सुना, और जाकर भगवान से सब कह दिया। तब भगवान ने कहा, “ये बातें लंबे समय तक नहीं चलेगी, भिक्षुओं। एक सप्ताह तक चलेगी, और एक सप्ताह होते-होते विलुप्त हो जाएगी। तब भी, भिक्षुओं, जब वे लोग तुम्हें इन गाथाओं में फटकार लगाएँ, तब तुम इन गाथाओं से उनका प्रतिउत्तर दों —

"सद्धर्म से ले जाते है,
वे तथागत 'महावीर' है!
जब धर्म से वे ले जाते है,
तो तुम्हें क्यों ईर्ष्या होती है?"

तत्पश्चात, जब लोग भिक्षुओं को देखकर गाथाओं में फटकार लगाते —

"हुआ आगमन महाश्रमण का,
मगध के गिरिब्बज में;
सञ्चय के तो सभी ले गया,
अब और किसे ले जाएगा?"

तब भिक्षु इन गाथाओं से उनका प्रतिउत्तर देते —

"सद्धर्म से ले जाते है,
वे तथागत 'महावीर' है!
जब धर्म से वे ले जाते है,
तो तुम्हें क्यों ईर्ष्या होती है?"

लोगों को लगा, “लगता है कि शाक्यपुत्र श्रमण धर्म से ही ले जा रहा है, अधर्म से नहीं।” और ये बातें एक सप्ताह तक चली, और एक सप्ताह होते-होते विलुप्त हो गयी।

—विनयपिटक : महावग्ग : ०१. महाक्खंदक


इस तरह, भगवान ने ब्रह्मयाचना स्वीकार की और वाराणसी में जाकर धर्मचक्र प्रवर्तन किया। कुछ ही दिनों में जम्बूद्वीप की गलियों में हजारों अर्हंत भिक्षा माँगते नजर आने लगे, जिनके पावन चरण इस भूमि को धन्य करते चले गए।

कुछ ही महीनों बाद, भगवान ने अपने शाक्यकुल से आए राजनिमंत्रण पर, हजारों अर्हंतों के भिक्षुसंघ के साथ कपिलवस्तु की यात्रा की। वहाँ कई राजकुमार भाईयों, शाक्यवंशीय प्रजा के साथ-साथ, अपने सात-वर्षीय पुत्र राहुल को भी प्रवज्जा दी और अंततः अर्हंत बनाया। महा-ऊपकारी मौसी महाप्रजापति गौतमी को प्रवज्जा की अनुमति देकर, भगवान ने भिक्षुणीसंघ का भी रास्ता खोला, जिसमें उनकी मौसी के साथ-साथ पूर्वपत्नी यशोधरा भी अर्हंत हुईं। इस प्रकार, भगवान के दोनों संघ तेजी से फैलते चले गए।

भगवान के महाप्रतापी बल से, अहंकारी वर्ण-विभाजित भारतीय समाज ने तेजी से करवट ली। जनता की आँखें खुली और समाज की मुख्यधारा और दरकिनार किए गए सभी वर्णों और वर्गों के लाखों और करोड़ों लोगों को परममुक्ति का सुअवसर मिला। जातिवाद और रूढ़िवाद पर प्रश्न उठाए गए। स्वयं को टिकाए रखने के लिए, उसने अपने स्वरूप में अनेक फेरबदल किए, बौद्ध सूत्रों की नकल उतार कर पौराणिक ग्रंथों में नए अध्याय जोड़े और समाज में चल रही आध्यात्मिक स्पर्धा में खुद को पुनः स्थापित किया। हालांकि, तब भी एक समय ऐसा आया, जब यह सोलह देशों से बना जम्बूद्वीप बौद्ध धर्म की शीतलता में पूरी तरह समाहित हो गया और बोधिसत्व के पाँचों महास्वप्न साकार हुए।

इस तीसरे रत्न ‘संघ’ की ऐतिहासिक यात्रा अत्यंत रोचक और घटनापूर्ण रही है। प्रारंभिक काल में, भिक्षुसंघ एक सुसंगठित और एकजुट समुदाय के रूप में कार्यरत था। लेकिन भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के कुछ शताब्दियों बाद, विभिन्न विचारधाराओं और पद्धतियों के उदय ने संघ के भीतर मतभेद उत्पन्न किए। इससे भिक्षुसंघ कई परंपराओं और विद्यालयों में विभाजित हो गया।

इस विभाजन ने कभी-कभी संघर्ष को जन्म दिया, लेकिन संघ ने अपनी मूल शिक्षाओं को संरक्षित रखने का प्रयास किया। समय के साथ, बौद्ध धर्म के विभिन्न परंपराओं ने भगवान बुद्ध की शिक्षाओं की विविध व्याख्याएँ प्रस्तुत की, जिससे कुछ विचलन और अलग-अलग अनुवाद सामने आए।

उदाहरण के लिए, महायान बौद्ध धर्म ने संस्कृत भाषा अपना कर, कुछ नए विचार और रीतियाँ जोड़ीं, जबकि थेरवाद बौद्ध धर्म ने बुद्ध के प्राचीन शब्दों और शिक्षाओं को बिना किसी समझौते के मूल पालि भाषा में बनाए रखा। इस प्रकार, जबकि विभिन्न परंपराएँ बौद्ध धर्म की शिक्षा को अपनी-अपनी दृष्टियों से समझती हैं, थेरवाद ने सच्ची शिक्षाओं की शुद्धता को बनाए रखने का निरंतर प्रयास किया।

आज भी, आधुनिक युग में, बौद्ध संघ का स्वरूप विविध और विश्वव्यापी है। कई देशों में, बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियाँ भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के प्रति समर्पित होकर कठोर तपस्या और अभ्यास में लगे हुए हैं। वे न केवल पारंपरिक प्रथाओं को जीवित रखे हुए हैं, बल्कि आधुनिक समाज में बौद्ध धर्म के सार को प्रसारित करने का प्रयास भी कर रहे हैं। समर्पण, ध्यान-साधना, और नैतिकता के पथ पर चलकर, वे विश्वभर में शांति और समझ के संदेश को फैलाने में योगदान दे रहे हैं। इस तरह, संघ ने इतिहास के उतार-चढ़ाव को पार करते हुए, आज २६०० वर्षों बाद भी बुद्ध की शिक्षाओं के उजाले में अपनी यात्रा जारी रखी है।

नमो बुद्धाय! नमो धम्माय! नमो सङ्घाय!

एक विकल्प

एक समय भगवान विशाल भिक्षुसंघ के साथ, मगध देश के दो मुख्यमंत्री — सुनीध और वस्सकार के नए राजमहल से लौट रहे थे। तब सुनीध और वस्सकार भगवान के पीछे-पीछे चलने लगे, सोचते हुए, “जिस नगरद्वार से भगवान गुजरेंगे, उस नगरद्वार का नाम ‘गौतम द्वार’ रखा जाएगा। और जिस घाट से भगवान गंगा नदी पार करेंगे, उस घाट का नाम ‘गौतम घाट’ रखा जाएगा।” तब भगवान जिस नगरद्वार से गुजरे, उस नगरद्वार का नामकरण ‘गौतम द्वार’ किया गया।

तब भगवान गंगा नदी की ओर बढ़े। उस समय, बाढ़-सदृश्य गंगा नदी पूर्णतः जलव्याप्त थी। गंगा के तट इतने भरे थे कि तट पर बैठा कौवा भी गंगाजल पी सके। और वहाँ कोलाहल मचा था। इस तट से दूर तट पर पहुँचने के लिए कई लोग अपना जहाज ढूँढ रहे थे, कई लोग अपनी नौका ढूँढ रहे थे, और कई लोग बेड़ा बांध रहे थे।

तब, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, भगवान इस तट से विलुप्त हुए और दूर तट पर विशाल भिक्षुसंघ के साथ प्रकट हुए।

और, उस तट पर भी कोलाहल मचा था। इस तट से दूर तट पर पहुँचने के लिए कई लोग अपना जहाज ढूँढ रहे थे, कई लोग अपनी नौका ढूँढ रहे थे, और कई लोग बेड़ा बांध रहे थे। तब भगवान उसका आध्यात्मिक अर्थ जानकर बोल पड़े —

"अल्प ही मानव हैं, जो पार चले जाते हैं।
बाकी जनता तट पर ही दौड़ती रहती है।"

— खुद्दकनिकाय उदान : ८: ६ : पाटलिगामिय सुत्त + धम्मपद पण्डितवग्ग ८५


  1. बौद्ध साहित्य में ‘उत्तरकुरु’ मानवीय स्थान नहीं, बल्कि यक्षों का देश है। दीघनिकाय के आटानाटिय सुत्त में उसका वर्णन मिलता है। कहते हैं कि वह जम्बूद्वीप की उत्तर-दिशा में स्थित है। उसके अनेक बड़े नगर हैं, जैसे आटानाटा, कुसिनाटा, नाटपुरिया, परकुसिनाटा, कपीवन्त, जनोघ, नवनवटिय, अम्बराअम्बरवटिय, जबकि आलकमंदा उसकी राजधानी है। गौर करें कि यक्ष अलग होते हैं और राक्षस या असुर अलग। यक्षों का महाराज वेस्सवण या वैष्णव है, जिसे कुबेर भी कहते हैं, जो चार महाराज देवताओं में से एक है। ↩︎

  2. बौद्ध साहित्य में आता हैं कि हिमालय में कुल सात महान झीलें हैं, जो जनता से छिपी हुई हैं — अनोतत्त, कन्नमुण्ड, रथकार, छद्दन्त, कुणाल, मन्दाकिनी और सिह-प्रपात! अनोतत्त पाँच पर्वतशिखरों से घिरा है — सुदस्सनकूट (=सुदर्शनकूट) पर्वत, चित्रकूट पर्वत, कालकूट पर्वत, गन्धामादन पर्वत और केलास (=कैलाश) पर्वत। इसका छिपा स्थान, सूर्य और चंद्र की किरणे पड़ना, जल का तापमान, पवन का बहना, इत्यादि विस्तृत वर्णन लिखा मिलता है। कहते हैं कि सम्यक-सम्बुद्ध, प्रत्येक-बुद्ध और अर्हंत वहाँ जाकर स्नान करते थे, और देवतागण अब वहाँ क्रीडा करते हैं। कुछ लोग इसे मानसरोवर झील से भी जोड़ते हैं। ↩︎

  3. कहा जाता हैं कि भगवान ने उन्हें ‘आदित्तपरियाय सुत्त’ उपदेश इसलिए दिया, क्योंकि सभी पूर्व जटाधारी अग्निपुजा और अग्निसेवा करते रहे थे। उनका अग्नि से पुराना नाता रहा था। उसी अग्नि निमित्त को पकड़कर भगवान ने उन्हें उपदेशित किया। ↩︎

  4. ‘गर्म रक्त की उल्टी होना’ यह बौद्ध साहित्य में अनेक बार उल्लेख आता है। हम नहीं जानते हैं कि क्या कुछ लोगों को वास्तव में गर्म रक्त की उल्टी होती थी, अथवा यह उन व्यक्तियों के लिए एक मुहावरे के रूप में उपयोग किया गया हैं, जो किसी हानिकारक घटना से बुरी तरह चौंक गए हो, या उनका दिल टूट गया हो। जो भी हो, लेकिन, हमें ऐसे व्यक्तियों के ऊपर पड़े प्रभाव की तीव्रता, और उनके हृदय-विदारक भावना की प्रचंडता समझ आती हैं। ↩︎