भगवान बुद्ध ने सिखाया कि धर्म को उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत करना चाहिए — झूठी प्रशंसा या अलंकरण की कोई ज़रूरत नहीं। धर्म का उद्देश्य है दुःख से मुक्ति, न कि उसे काव्यात्मक या आकर्षक बनाकर प्रशंसा बटोरना। यदि कोई धर्म की झूठी निंदा या तारीफ करता है, तो साफ़ और सीधे बता देना चाहिए — ‘इस धर्म में ऐसा नहीं है।’
बुद्ध के परिनिर्वाण के लगभग एक हजार वर्षों बाद, कुछ भाषाविद भिक्षुओं ने धर्म-विनय के अनेक पहलुओं को जटिल और गूढ़ बनाते हुए उसे एक नया रूप दे दिया। जिन मुद्दों पर बुद्ध मौन रहे थे, उन्हें तर्कों और नई धारणाओं से भरने का प्रयास किया। इसने लोगों को धर्म की सहज स्पष्टता से दूर कर दिया और मुक्ति के मूल उद्देश्य से भटकाव पैदा किया। ऐसे प्रयासों ने धर्म को विशेष और श्रेष्ठ दिखाने के चक्कर में साधकों को मिथ्या दृष्टियों में उलझा दिया।
यह भी समझना ज़रूरी है कि यह धर्म किसी अन्य धर्म के साथ प्रतिस्पर्धा में नहीं है — न तो सुंदरता, गहराई, या विशिष्टता के मामले में। इसकी वास्तविक प्रतिस्पर्धा अज्ञानता से है। धर्म का उद्देश्य मुक्ति का मार्ग दिखाना है, न कि दूसरों से श्रेष्ठता सिद्ध करना। धर्म की वास्तविक सुंदरता उसकी सादगी और स्पष्टता में है। हमारा प्रयास है कि धर्म को ठीक उसी रूप में प्रस्तुत किया जाए — भले ही वह गहरा लगे या सतही, लेकिन सटीक और सच्चा हो।
‘भगवा’ का सीधा अर्थ है ‘धन्य’, ‘पवित्र’, और ‘पूजनीय’।
यह शब्द उस व्यक्ति के लिए प्रयोग होता था, जो किसी धर्म-समुदाय में सबसे अधिक पूजनीय हो। पालि शब्द ‘भग’ का संबंध ‘भाग्य’ और ‘भाग’ से भी है, जिससे ‘भगवा’ का एक अर्थ ‘भाग्यवान’ या ‘सौभाग्यशाली’ भी निकलता है—वह व्यक्ति जो अपने महान कर्मों के कारण भाग्यशाली हुआ हो।
एक अन्य दृष्टिकोण से, ‘भाग’ का अर्थ है ‘विभाजन’ या ‘साझा करने वाला’, जिससे ‘स्वामी’, ‘प्रभु’, या ‘मालिक’ का भी बोध होता है। इसे अंग्रेजी में ‘Lord’ कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि ऐसा धर्म-संपन्न व्यक्ति, जिसने करुणावश अपने धर्म का जनता में विभाजन और वितरण किया हो, वही ‘भगवा’ कहलाता है। इस तरह, उसकी उदारता और ज्ञान से जनता भी धन्य और धर्म-संपन्न हुई।
सैकड़ों वर्षों बाद, कुछ भाषाविद भिक्षुओं ने ‘भगवा’ शब्द की व्याख्या में बदलाव किया। उन्होंने इसे काव्यात्मक रूप में परिभाषित करते हुए ‘भग’ को ‘भग्ग’ से जोड़ा, और कहा कि ‘जो व्यक्ति अपने भीतर के राग, द्वेष, और मोह को भग्न करता (तोड़ देता) है, वही ‘भगवान’ है।’ हालांकि, यह व्याख्या संदिग्ध और अतिशयोक्तिपूर्ण लगती है, क्योंकि प्राचीन बौद्ध साहित्य में इस तरह की परिभाषा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। अगर यह परिभाषा मान्य होती, तो ‘भगवान’ शब्द अर्हत शिष्यों के लिए भी इस्तेमाल किया जाता।
वास्तव में, ‘भगवान’ शब्द का उपयोग बुद्ध से पहले भी होता आ रहा था। श्रमण परंपरा में जैन गुरु महावीर और अन्य समकालीन गुरुओं के लिए, ब्राह्मण परंपरा में ब्रह्मा और देवताओं के लिए, और बाद में विष्णु के अवतारों के लिए भी यह शब्द प्रयोग किया गया। हाल ही में, ओशो और नेपाली गुरु धर्म संघ जैसे आध्यात्मिक गुरुओं के लिए भी ‘भगवान’ शब्द का प्रयोग हुआ है।
तथागत का अर्थ (तथ+आगत) है, अर्थात, “जो वास्तविकता पर आ गया”। अथवा (तथा+गत) है, “जो वास्तव में पार चला गया” ।
यह शब्द बुद्ध द्वारा नहीं गढ़ा गया था; यह पहले से प्रचलित था। उस समय के लोग इसे ऐसे दुर्लभ व्यक्ति के लिए प्रयोग करते थे, जिसने इसी जीवन में सर्वोच्च आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त कर लिया हो और जिसके लिए कोई अगली मंजिल न बची हो।
बुद्ध ने अक्सर इस शब्द का प्रयोग अपने लिए किया। हालाँकि, बौद्ध परंपरा में यह शब्द विशेष रूप से बुद्ध के लिए ही प्रयुक्त होता है। फिर भी, भगवान कभी-कभी ‘तथागत’ शब्द को अपने अन्य अरहंत शिष्यों के लिए भी इस्तेमाल करते थे।
‘सम्मा’ का अर्थ है सम्यक, सही, सटीक, ठीक, यथायोग्य। और ‘सम्बुद्ध’ का अर्थ है, जिसे संबोधि प्राप्त हो। अर्थात, जिसने सही संबोधि प्राप्त की हो।
कई प्राचीन सूत्रों में यह उल्लेख मिलता है कि यह शब्द पहले से प्रचलित था, हालांकि किसी भी श्रमण-ब्राह्मण ने इसे अपने लिए नहीं अपनाया था। सिद्धार्थ गौतम पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस शब्द का प्रयोग किया।
हालांकि प्राचीन बौद्ध साहित्य में ‘संबोधि’ का एक ही प्रकार माना जाता था। भगवान ने कई सूत्रों में स्पष्ट किया है कि उनके शिष्यों की बोधि और उनकी बोधि में कोई अंतर नहीं है। उन्होंने केवल प्रथम चार आर्यसत्य की खोज कर संबोधि पहले प्राप्त की और धर्मचक्र प्रवर्तन कर उस मार्ग को प्रदर्शित किया, इसलिए उन्हें ‘सम्मा-सम्बुद्ध’ कहा जाता है।
लेकिन सैकड़ों वर्षों बाद, महायान अवधारणाओं के उदय के साथ, संबोधि की तीन संकल्पनाएं प्रचलित हुईं — सम्मा-संबोधि, प्रत्येक-बोधि, और श्रावक-बोधि।
कहा गया कि प्रत्येक-बोधि ‘प्रत्येक-बुद्ध’ को, और श्रावक-बोधि बुद्ध के शिष्य को मिलती है। प्रत्येक बुद्ध वह होता है, जो स्वयं से चार आर्य सत्य को खोजता है, लेकिन संघ का निर्माण नहीं करता। इन तीनों में पारमिताओं का अंतर बताया गया, जबकि इसका प्राचीन सूत्रों में कोई उल्लेख नहीं मिलता।
इस शब्द का बौद्ध परंपरा में अर्थ हैं “श्रेष्ठ!” अर्थात, ऐसी बात — जो साधारण न हो, जनसामान्य की श्रेणी में न आए। बल्कि जो ख़ास हो, विशिष्ट हो, भिन्न हो। जो ऊँची श्रेणी की हो, अगले स्तर की हो। जो सभ्य हो, भद्र हो, महान हो। जिसके मानक, जिसकी गरिमा और प्रतिष्ठा बहुत ऊँची हो। जो सभी के लिए आदर्शपूर्ण हो, सम्मान और आदर के पात्र हो।
उदाहरण के तौर पर, बुद्ध ने ‘आर्य’ शब्द को अपने चार सत्य के साथ जोड़ा। क्योंकि दुनिया के अनेक सत्य हैं, किन्तु कोई सत्य ऐसा नहीं हैं जिसे जानते ही जन्मों-जन्मों के दुःख खत्म होना शुरू हो जाएँ। जिसका साक्षात्कार होते ही परममुक्ति मिल जाएँ। बल्कि वे चार ही ऐसे सत्य हैं, जिनमें जन्म-मरण की शृंखला तोड़कर तत्काल अमृत चखाने की क्षमता हैं। इसलिए उन्हें साधारण श्रेणी के ‘सत्य’ कहना उचित नहीं हैं, बल्कि ‘आर्य सत्य’ कहना योग्य हैं।
इसी तरह, बुद्ध ने ‘आर्य’ शब्द को संघ के साथ जोड़ा। क्योंकि दुनिया में अनेक संघ हैं, किन्तु कोई संघ ऐसा नहीं हैं, जिनमें दुनिया के श्रेष्ठतम आठ प्रकार के आर्य व्यक्ति मिलते हो — श्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी, अरहंत, और इनके चार मार्गगामी। इसी तरह, बुद्ध ने आर्य विशेषण को कई ख़ास जगह उपयोग किया हैं।
किन्तु यह शब्द वंशवाद से जुड़ने के कारण विवादास्पद हो गया है। कुछ लोग इसका अर्थ निकालते हैं, ऐसा व्यक्ति, जो असाधारण तरह से रूपवान दिखता हो, जिसकी ऊँची कदकाठी हो, गोरी त्वचा हो, नीली आँखें हो, सीधी नाक हो। जैसे, जब भारतीय उपमहाद्वीप में उत्तर-पश्चिमी दिशा से लोग आने लगे, तो वे स्थानीय लोगों की तुलना में भिन्न दिखते थे, और उनके तौर-तरीके भी भिन्न थे। वे स्वयं को आर्य कहते थे, जबकि स्थानीय लोगों को अनार्य (=असभ्य)।
पिछली शताब्दी में एडोल्फ हिटलर ने इसी शब्द का प्रयोग कर जर्मनी की सत्ता छीनी, दुनिया पर राज करने की मंशा से विश्वयुद्ध छेड़ा और लाखों लोग मारे गए। जाहिर हैं, आज इस शब्द का प्रयोग होते ही जानकार लोगों के शरीर में सिरहन दौड़ती हैं।
ब्रह्मचर्य का पारंपरिक अर्थ था — संयमित और शुद्ध जीवन, विशेष रूप से यौन संयम, जैसा कि वैदिक परंपरा में देखा गया। परंतु बुद्ध ने इस शब्द को एक नई गहराई दी। उन्होंने इसे केवल संयम तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे ‘सम्पूर्ण शुद्धि’ और ‘अंतिम मुक्ति’ के रूप में परिभाषित किया। अर्थात, “ब्रह्मचर्य परिपूर्ण तब होता है जब वह निर्वाण पर समाप्त हो।” यानी यह कोई व्रत या जीने की कला नहीं, बल्कि संपूर्ण दुख-मुक्ति का मार्ग है।
बुद्ध और उनके अरहंत शिष्य निर्वाण प्राप्त करने पर घोषणा करते हैं कि उन्होंने यह ब्रह्मचर्य जीवन न केवल आरंभ किया, बल्कि “पूरा कर लिया”, “जी लिया”, और अंततः “उसे पार कर” निर्वाण तक पहुँचे। यही कारण है कि वे अपने बारे में कहते हैं: “ब्रह्मचर्य समाप्त हुआ, कर्तव्य पूरा हुआ, अब कोई पुनर्जन्म नहीं।” इस प्रकार, ब्रह्मचर्य उनके धर्म में केवल यौन ‘संयम’ नहीं, बल्कि अंतिम सच्चाई तक पहुँचने का मार्ग है।
‘धम्म’ या ‘धर्म’ के अनेक संदर्भ और अर्थ हैं। जैसे, विश्वव्यापी सत्य, अस्तित्व की वास्तविकता, विधि का विधान, सृष्टि का न्याय, आध्यात्मिक मार्ग, प्रवचन, मन का स्वभाव, गुण या घटना, चित्त की प्रवृत्ति, चैतन्य का झुकाव, दार्शनिक सिद्धांत, जीवन के उसूल, जीने की कला, आदर्श नैतिकता, और आचार-सदाचार।
भगवान के धर्मगुणों को इस तरह बताया जाता है:
‘वाकई भगवान का धर्म — स्पष्ट बताया है, तुरंत दिखता है, कालातीत है, आजमाने योग्य, परे ले जाने वाला, समझदार द्वारा अनुभव योग्य!’
हालांकि पिछली शताब्दी के विद्वानों ने ‘धम्म’ और ‘धर्म’ शब्द में ख़ासा अंतर बताने की कोशिश की। उन्होने धर्म को हिन्दू ‘संप्रदाय’ से जोड़ा, और धम्म को बुद्ध की सीख से। लेकिन दरअसल इसका अर्थ बहुत ही विस्तृत है, जिसे सीमित करने से बुद्ध की सीख ही सीमित हो जाती है।
बुद्ध ने अपनी मुक्ति की सच्चाई को ‘धर्म’ कहा। उन्होंने देव-मानवों को मार्ग दिखाने और सिद्धांत सिखाने को भी ‘धर्म’ का नाम दिया। किसी व्यक्ति के गुण, स्वभाव, और वृत्ति को भी ‘धर्म’ कहा गया, और उसके मन में प्रकट होने वाली बातों को भी इसी नाम से संबोधित किया गया। किसी अन्य गुरु की सीख और मार्ग को भी ‘धर्म’ माना गया।
“अभि” का अर्थ होता है — “ऊँचा”, “श्रेष्ठ” या “गहन”। पालि में “अभि”, “अधि” और “अति” जैसे उपसर्ग अक्सर एक-दूसरे के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होते हैं। प्रारंभिक पालि साहित्य में “अभिधम्म” शब्द का प्रयोग “उच्चतर धम्म” के अर्थ में हुआ है — अर्थात् वे उपदेश जो विषय की गहराई में जाते हैं। उस समय यह कोई स्वतंत्र पिटक नहीं था, बल्कि पाँच निकायों में ही सम्मिलित कुछ गहन सूत्रों के लिए प्रयुक्त विशेषण जैसा था।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो “अभिधम्म पिटक” के रूप में किसी स्वतंत्र संग्रह का सबसे पहला प्रमाण मोग्गलिपुत्त तिस्स के काल में मिलता है, जो सम्राट अशोक के समय, ईसा-पूर्व तीसरी शताब्दी में, तृतीय संगीति की अध्यक्षता कर रहे थे। इस काल में “कथावत्थु” नामक ग्रंथ की रचना हुई, जो आज के अभिधम्मपिटक में सम्मिलित है। यह ग्रंथ स्पष्टतः स्वयं बुद्ध द्वारा रचित नहीं है, बल्कि उस समय संघ में उत्पन्न मतभेदों के समाधान के रूप में, संवादात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया।
बाद में थेरवाद परंपरा में अभिधम्म को एक स्वतंत्र पिटक का स्थान दिया गया, जिसमें सात ग्रंथों को सम्मिलित किया गया। ये ग्रंथ बुद्ध के महापरिनिब्बान के कई शताब्दियों पश्चात संकलित किए गए। इनमें बौद्ध धारणाएँ लेकर उन्हें विश्लेषणात्मक और दार्शनिक रूप में वर्गीकृत किया गया — जैसे चित्त, चेतसिक, रूप, निब्बान आदि की श्रेणियाँ।
जब प्रारंभिक सूत्रों में “अभिधम्म” शब्द आता है, वहाँ अक्सर “अभिविनय” भी साथ जुड़ा मिलता है — “अभिधम्म-अभिविनय”, अर्थात “श्रेष्ठ धम्म और श्रेष्ठ विनय”। यह दिखाता है कि “अभिधम्म” उस समय केवल एक विशेषण था, न कि कोई पृथक “पिटक”। जैसे अभिविनय कोई स्वतंत्र “पिटक” नहीं बन गया, वैसे ही अभिधम्म “पिटक” को भी बाद में जोड़ा गया एक अतिरिक्त विकास समझा जाना चाहिए।
बुद्ध के महापरिनिब्बान से पूर्व, जब उन्होंने भिक्षु-संघ को संबोधित किया, तो स्पष्ट रूप से जिन धम्मों को उन्होंने विशेष रूप से स्मरण, अभ्यास और प्रचार के लिए कहा, वे थे:
“चार स्मृति-प्रस्थान, चार सम्यक-प्रधान, चार ऋद्धिपद, पाँच इंद्रिय, पाँच बल, सात बोधि-अंग, और आर्य अष्टांगिक मार्ग। भिक्षुओं, मैंने ये धर्म (=३७ बोधिपक्खिय धम्म) तुम्हें प्रत्यक्ष-ज्ञान से बताए हैं, उन्हें भली प्रकार सीखना, धारण करना, विकसित करना, बार-बार कर के बढ़ाना, ताकि ये ब्रह्मचर्य मार्ग चिरस्थायी बना रहे — बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए!”
— दीघनिकाय १६ :महापरिनिब्बान सुत्त
यह कथन दर्शाता है कि बुद्ध ने जो धम्म-विनय सिखाया, उसमें इन ३७ बोधिपक्खिय धर्मों को केंद्रीय स्थान प्राप्त था। ये ही धर्म विमुक्ति के लिए पर्याप्त हैं। अभिधम्म “पिटक” का कहीं उल्लेख नहीं किया गया, न ही उसका कोई संकेत मिलता है।
इस प्रकार, प्रारंभिक बौद्ध साहित्य (Early Buddhist Text “EBT”) के आलोक में देखा जाए, तो अभिधम्म पिटक एक उत्तरवर्ती सृजन है — बुद्धवाणी नहीं, बल्कि भिक्षु-संघ की व्याख्यात्मक परंपरा का भाग। इसमें विश्लेषण की गहराई अवश्य है, परंतु इसे मूल धम्म का पर्याय या प्रतिस्थापन नहीं माना जा सकता।
पारमी शब्द “परम” से निकला है। इसका सरल अर्थ है, किसी धर्म-गुण को बढ़ाकर उसकी “परम अवस्था” तक ले जाना।
बौद्ध परंपरा की एक अत्यंत लोकप्रिय अवधारणा बन चुकी है, विशेषतः महायान के विस्तार के बाद। यद्यपि पारमियों की चर्चा थेरवाद बौद्ध परंपरा में भी व्यापक रूप से होती है — जैसे दस पारमियाँ (दान, शील, निष्काम, प्रज्ञा, वीर्य, क्षांति, सच्चाई, अधिष्ठान, मेत्ता, और उपेक्षा) — लेकिन यह प्रारंभिक बौद्ध सूत्रों (EBT) में स्पष्ट रूप से नहीं पाई जाती।
महायान में इन्हीं पारमिताओं को “बोधिसत्व” के आदर्श के रूप में, एक दीर्घकालीन संकल्प के साथ, हजारों जन्मों तक पूर्ण करने की प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया गया। थेरवाद में प्रारंभिक जातक कथाओं — जैसे पाँच निकायों में बिखरे कुछ उल्लेख — में कहीं यह नहीं कहा गया कि बोधिसत्व किसी विशेष गुण की “पारमी” पूरी कर रहे हैं। ये कहानियाँ नैतिकता का बोध जरूर कराती हैं, पर “बोधिसत्व-संकल्प” या “किसी विशेष पारमी गुण को पूरा” करने के विचार पूरी तरह अनुपस्थित हैं। किन्तु कालांतर में जातक की अट्ठकथाएँ रची गयी, और प्रस्तुत किया गया कि बोधिसत्व इन जन्मों में “पारमिताओं” को पूरा कर रहे हैं — और इस प्रकार यह थेरवाद में भी एक स्थायी थीम बन गई।
पारमिताओं के तीन स्तर बताए जाते हैं:
हालांकि यह मार्ग सुनने में सुंदर लगता है, और नैतिक शिक्षा में सहायक भी है, परंतु EBT की दृष्टि से देखा जाए तो यह दृष्टिकोण संभावित रूप से मिथ्या दृष्टि की श्रेणी में आता है। क्योंकि इसमें मुक्ति का आधार किसी भावी लक्ष्य पर टिका होता है — जहाँ कोई स्वयं को “बोधिसत्व” मानकर अनेक जन्मों तक गुण जमा करता है, बजाय इसके कि इसी जीवन में चार आर्यसत्य के द्वारा दुःखमुक्ति का साक्षात्कार करें। बुद्ध के अनुसार मुक्त होने के लिए अनेक जन्मों की योजना नहीं, बल्कि इसी जीवन में अधिक से अधिक सात वर्षों तक साधना ही पर्याप्त है।
इसलिए पारमी की धारणा यद्यपि उपकारी और प्रेरणादायक हो सकती है, वह मूल बुद्धवचन के अनुसार न तो आवश्यक है और न ही अनिवार्य। कुछ लोगों के लिए तो यह अहंकार और भव-तृष्णा का बहाना भी बन सकती है।
अधिक जानने के लिए पढ़ें — “पारमिता का मिथक”
आस्रव का सरल अर्थ है — स्त्राव, रिसाव, या बहाव। यह वह पुराना, सड़ा हुआ मानसिक द्रव्य है, जो समय-समय पर रिसने लगता है। जैसे नाली का गंदा पानी बाहर आने लगे तो आसपास दुर्गंध फैलती है, वैसे ही जब चित्त से आस्रव रिसने लगते हैं, तो शरीर और मन — यानी हमारा आचरण और विचार — दोनों दूषित हो जाते हैं, और वे भी एक प्रकार की ‘बदबू’ देने लगते हैं।
कभी-कभी कोई विशेष ऊर्जा भीतर प्रवाहित होती है, जिससे तनाव उत्पन्न होता है। इस तनाव में चित्त किसी एक दिशा में झुकने लगता है। यही झुकाव आस्रवों के स्त्राव का कारण बनता है। भीतर एक प्रकार की नशा-जैसी स्थिति बनती है, जिससे विशेष प्रकार के स्वभाव, विचार और इच्छाएँ उत्पन्न होने लगती हैं। इस अवस्था में चित्त जैसे किसी गिरफ्त में आ जाता है, और आगे के सारे कर्म उसी के प्रभाव में किए जाते हैं।
कुछ आस्रव कभी-कभार रिसते हैं, तो कुछ लगातार बहते रहते हैं। भगवान ने चार प्रकार के आस्रव बताए हैं:
भगवान के अनुसार प्रतित्य समुत्पाद की पहली कड़ी “अविद्या”, आस्रव के कारण ही उपजती है, जिससे होकर आगे दुःख की गठरियाँ खुलती है। लेकिन आस्रव का क्षय होने से अविद्या उत्पन्न नहीं होती, और सभी दुःखों से मुक्ति होती है। इसलिए “आस्रवक्षय ज्ञान” ही बौद्ध धर्म का अंतिम लक्ष्य है, जिसे प्राप्त करने पर ही कोई निर्वाण का साक्षात्कार कर अरहंत-पद प्राप्त करता है।
भगवान ने सब्बासव सुत्त में सभी प्रकार के आस्रव को समाप्त करने के सात तरीके बताएँ हैं। जैसे, दृष्टि आस्रव को हटाने के लिए योनिसो मनसिकार, और बाकी आस्रव के लिए इंद्रिय संवर, आवश्यकताओं का उचित उपयोग करना, सहन करना, खतरों को टालना, बुराइयों को दूर हटाना, और संबोधि-अंगों की साधना करना शामिल हैं।
अनुशय का शाब्दिक अर्थ है – वह जो किसी के साथ सोया हुआ हो। यानी भीतर गहराई में जमी वे मानसिक प्रवृत्तियाँ, जो तब तक निष्क्रिय या छिपी रहती हैं, जब तक कोई विशेष परिस्थिति उन्हें जगा न दे। इसे हम अवचेतन में दबे हुए गुप्त मानसिक संस्कार कह सकते हैं। ये तब तक निष्क्रिय रह सकते हैं, जब तक कोई बाहरी या आंतरिक कारण इन्हें उकसाकर सक्रिय न कर दे। अनुशय वे गहरे आदतन झुकाव हैं, जो समय-समय पर उभरकर व्यक्ति के विचार, वाणी और कर्मों को प्रभावित करते हैं।
जिस तरह अवचेतन मन में ढेर सारे अनुभव, इच्छाएँ और भावनाएँ जमा रहती हैं, वैसे ही अनुशय भी अदृश्य मानसिक संस्कार की तरह होते हैं। व्यक्ति भले ही सतह पर इन्हें न देख पाए, लेकिन जब कोई परिस्थिति इनके अनुकूल होती है, तो वे तुरंत प्रतिक्रिया के रूप में प्रकट हो जाते हैं।
उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति के भीतर क्रोध का अनुशय दबा हो, तो वह सामान्यतः शांत दिखाई दे सकता है, लेकिन जैसे ही कोई उसे अपमानित करता है, उसमें क्रोध जागने लगता है। इसी तरह, वासना का अनुशय तब तक निष्क्रिय रहता है जब तक कि कोई उत्तेजक दृश्य, स्मृति या अवसर उसे जाग्रत न कर दे।
सात प्रकार के अनुशय होते हैं;
क्लेष का अर्थ है ऐसे मल, जो चित्त को ढ़क कर हमें और दूसरों को कष्ट देते रहते हैं।
क्लेश मुख्य रूप से तीन होते हैं — लोभ, द्वेष, और मोह। इन तीनों से निकल कर दस प्रकार के क्लेश उपजते हैं। किसी-किसी सूत्र में सोलह भिन्न प्रकार के क्लेशों का उल्लेख हैं — लालच, दुर्भावना, क्रोध, बदले की भावना, छल-कपट, अकड़ूपन, ईर्ष्या, कंजूसी, धोखेबाज़ी, डींग हांकना, अहंभाव, घमंड, नशा, लापरवाही, दूसरों को नीचा दिखाना, और अविद्या।
उपधि का अर्थ है — वह चीज़ जिससे हम चिपकते हैं, या जो चित्त का बोझ बन जाती है। यह शब्द अक्सर “संपत्ति”, “बोझ”, या “सामग्री” के अर्थ में आता है — लेकिन बौद्ध शिक्षाओं में इसका मतलब है, “आंतरिक मानसिक बोझ”, जिसे चित्त ढोता फिरता है।
सूत्तों में उपधि का संबंध “आसक्ति” और “आत्मग्रहण” से है। यह उन चीज़ों की ओर इशारा करता है जिन्हें व्यक्ति “अपना” मानता है — चाहे वह घर-परिवार या संपत्ति हो। जब चित्त किसी भी चीज़ को “मैं” या “मेरा” कहकर पकड़ लेता है, तो वह उसकी “उपधि” बन जाती है। इसलिए उपधि का सीधा संबंध अपनत्व की भावना से है, जो संसार में बंधन और पुनर्जन्म का कारण बनती है।
चूळनिद्देस (एक अपेक्षाकृत उत्तरकालीन ग्रंथ) में उपधि के दस प्रकार बताए गए हैं: तृष्णा, दृष्टि, क्लेश, कर्म, दुराचरण, आहार (शारीरिक और मानसिक), क्रोध, चार महाभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु), छह बाह्य इन्द्रिय विषय (रूप, आवाज़, गंध, स्वाद, संस्पर्श, विचार), और छह प्रकार के चैतन्य।
उपादान का अर्थ है — किसी वस्तु को पकड़ना, उस पर टिक जाना, और उसी से मानसिक पोषण लेना। यह केवल चिपकाव नहीं, बल्कि भीतर एक ऐसी प्रवृत्ति है जो किसी अनुभव, विचार, दृष्टिकोण या भावना को अपना आधार बना लेती है, जैसे अग्नि किसी ईंधन से चिपकी रहती है और उसी से जलती है।
पालि में उपादान शब्द दो स्तरों पर अर्थ देता है — शारीरिक और मानसिक। शारीरिक रूप में यह अग्नि के लिए ईंधन और अग्नि की ईंधन को पकड़ने की क्रिया — दोनों को दर्शाता है। मानसिक रूप में यह उस सामग्री को भी दर्शाता है जिससे मन अपने “अस्तित्व” का पोषण करता है, और उस पोषण को पकड़ने की प्रवृत्ति को भी। यही कारण है कि इसे “आश्रय”, “पकड़”, या “जीवित रहने की मनोवृत्ति” — इन सबके रूप में समझा जा सकता है।
बुद्ध ने कहा कि “उपादान ही दुःख है”, क्योंकि यही वह क्रिया है जो अनुभवों को पकड़कर अहंभाव, तृष्णा और भव को जन्म देती है। उपादान के चार प्रकार बताए गए हैं —
ये चारों उपादान जब पाँच-स्कंधों (रूप, वेदना, सञ्ञा, सङ्खार, विञ्ञाण) में जड़ पकड़ लेते हैं, तब वे दुःख का रूप ले लेते हैं। विपस्सना साधना इन्हीं उपादानों को पहचानकर छोड़ने का अभ्यास है। जब चित्त जानता है कि जिसे वह पकड़ रहा है, वही उसका बोझ और दुःख है — तब वह स्वेच्छा से छोड़ने लगता है। यही विमुक्ति की शुरुआत है।
ऐसी बेड़ियाँ, या ऐसे बन्धन, जो किसी को जन्म-मरण की अनन्त भटकन (=संसरण) में बाँधती हैं।
कुल दस बेड़ियाँ बतायी गयी हैं —
पहली तीन बेड़ियाँ तोड़ने वाले को ‘सोतापन्न’ कहते हैं। चौथी और पाँचवी बेड़ी को दुर्बल करने वाले को ‘सकदागामी’। पहली पाँच बेड़ियाँ तोड़ने वाले को ‘अनागामी’। और सभी दस बेड़ियाँ तोड़ने वाले को ‘अरहंत’।
नीवरण का अर्थ है — मन की वे रुकावटें या आच्छादन, जो चित्त को स्पष्ट देख पाने से रोकते हैं। ये पाँच मानसिक अवरोध होते हैं, जो समथ और विपश्यना में बाधा उत्पन्न करते हैं। बौद्ध साधना में इनका निरीक्षण और क्षय अनिवार्य माना जाता है। क्योंकि जब तक चित्त इनसे ढँका रहता है, तब तक वह न तो स्थिर (समथ) हो सकता है, न ही वास्तविकता को ठीक से देख (विपश्यना कर) सकता है।
पाँच नीवरण होते हैं:
नीवरणों को दबाना नहीं, पहचान कर त्यागना होता है। जब ध्यान की प्रक्रिया में चित्त इन पाँच आवरणों से मुक्त होता है, तब उसमें प्रकाश, निपुणता और स्थिरता आती है — और वहीं से सच्चे ध्यान और अंतर्दृष्टि की नींव रखी जाती है।
निर्वाण का शाब्दिक अर्थ है, अग्नि का बुझना, शीतल हो जाना।
अग्नि को जलते रहने के लिए ईंधन या आधार की जरूरत होती है। वह न प्राप्त हो तो अग्नि बुझ जाती या ‘निवृत’ होती है। उसी तरह, किसी सत्व को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए पाँच उपादान-स्कन्ध की जरूरत होती है। यदि सर्वस्व उपादान या आधार छूट जाए तो चित्त मुक्त हो जाता है, और इस बुझने की निर्वाणिक अवस्था का साक्षात्कार करता है। वहाँ बेहोशी नहीं होती, बल्कि इंद्रियों से परे परमसुखद ‘नित्य’ का अनुभव होता है।
जिस तरह ईंधन का आधार लेकर कोई ज्वलन प्रक्रिया कष्टदायक, तनावपूर्ण और व्याकुलता से भरी होती है। उसी तरह, पाँच उपादान-स्कंधों का आधार लेकर कोई अस्तित्व प्रक्रिया पीड़ादायक, तनावपूर्ण और व्याकुलता से भरी होती है। भव-प्रक्रिया में लिप्त चित्त को भीतर ही भीतर लगातार पीड़ा, तनाव और ज्वलन महसूस होती है। अथवा वह ईंधन-रूपी आधार छोड़ देने पर अभूतपूर्व शान्ति, राहत और शीतलता महसूस होती है, और साथ ही, समस्त पीड़ा, तनाव और ज्वलन से मुक्ति होती है।
अधिक जानने के लिए पढ़ें: निर्वाण का खौफ़
पपञ्च — यह शब्द सामान्य रूप से भ्रमित करने वाले विचारों, मन की व्यर्थ चंचलता या अंतहीन मानसिक उलझनों के लिए प्रयोग होता है; लेकिन पालि सूत्रों में इसका आशय केवल विचारों की अधिकता नहीं, बल्कि ऐसे विचारों की प्रवृत्ति से है जो “स्व” की धारणाओं से उत्पन्न होकर संसार के साथ टकराव और क्लेश उत्पन्न करते हैं।
सुत्तनिपात ४:१४ में कहा गया है कि पपञ्च का मूल है — “मैं सोचने वाला हूँ” यह धारणात्मक दृष्टिकोण। जब चित्त स्वयं को “कर्ता”, “भोक्ता”, या “स्वामी” के रूप में देखता है, तब उससे जुड़ी अनेक द्वैतात्मक श्रेणियाँ उत्पन्न होती हैं — जैसे: “मैं/अन्य”, “मेरा/पराया”, “होना/न होना”, “खिलाने वाला/भोजन”। यह दृष्टिकोण न केवल स्वयं की एक ठोस पहचान गढ़ता है, बल्कि अन्यों को भी भोग “वस्तुओं” की तरह देखता है — और यहीं से संघर्ष, प्रतिस्पर्धा और दुःख का जन्म होता है।
इसलिए प्रपंच केवल मानसिक उलझन नहीं, बल्कि “वस्तुकरण” की प्रवृत्ति है — जिसमें व्यक्ति अपने अनुभवों, संबंधों, और स्वयं को भी ऐसी ठोस श्रेणियों में बाँधता है जो अंततः क्लेशकारी सिद्ध होती हैं। यही कारण है कि बुद्ध ने इसे मिटाने योग्य जड़ कहा, और उस चित्त को मुक्त बताया — जिसमें पपञ्च-सङ्ख (वस्तुकरण के विकारी विचार) शेष नहीं रहते।
जिस तरह कुम्हार गीली मिट्टी को गढ़कर घड़ा बनाता है या कोई लेखक सोच-समझकर कथा और पात्रों की रचना करता है, उसी तरह रचना [=संस्कार] वह प्रक्रिया है, जिसमें किसी वस्तु, विचार या भावना को पहले से मौजूद तत्वों को जोड़-घटाकर नया रूप दिया जाता है। यह स्वाभाविक नहीं, बल्कि गढ़ी हुई, बनाई गई या बदली हुई चीज़ होती है।
रचना या संस्कार दो रूपों में होते हैं — एक प्रक्रिया के रूप में (रचना, जो लगातार चल रही होती है) और एक परिणाम के रूप में (रचना जो अब बन चुकी है)। संस्कार के तीन प्रकार हैं:
फस्स या इंद्रिय संपर्क के कारण रचना संग्रह प्रादुर्भूत होता है।
साधारण व्यक्ति के लिए काया, वाणी और चित्त की रचनाएँ पृष्ठभूमि में लगातार चलती रहती हैं। ये तभी रुकने लगती हैं जब वह सचेत होकर उन्हें रोकने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई अपने मन के विचारों को रोकना चाहे, तो द्वितीय ध्यान में विचार पूरी तरह थम जाते हैं। चतुर्थ ध्यान में सांस का आवागमन रुक जाता है, जिससे काया की रचना ठहर जाती है। और निरोध अवस्था में सभी संज्ञाएँ और संवेदनाएँ निरुद्ध हो जाती हैं, तभी चित्त की रचना भी रुकती है।
खन्ध का मतलब है “समूह” या “ढेर”। यह पाँच तरह के मानसिक और शारीरिक अनुभवों का समूह है, जिनके आधार पर हम “मैं” या “मेरा” का बोध करते हैं। ये अनुभव ही हमारे जीवन की पूरी प्रक्रिया बनाते हैं। पाँच स्कन्ध होते हैं:
रूप स्कन्ध का सरल अर्थ है “भौतिक” शरीर।
भगवान ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा, “रुप्पती’ति रूपं!” अर्थात, “पीड़ित” होता है, इसलिए उसे “रूप” कहते है। किससे पीड़ित होता है? ठंड से, गर्मी से, भूख से, प्यास से, मक्खी, मच्छर, पवन, धूप, रेंगनेवाले जीवों के स्पर्शों से पीड़ित होता है।
ये रूप “चार महाभूत” (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु धातु) से बनते हैं। और, दुनिया के जितने भी रूप हो — भूत, भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप के — वे सब मिलकर “रूपखन्ध” (=रूप समूह) कहलाते हैं।
इस विशाल रूप-समूह में से जिसे जिनके प्रति “चाहत या दिलचस्पी” (छन्दराग) हो, वे उसके “रूप उपादानखन्ध” (कुछ रूपों के प्रति आसक्ति) हैं।
वेदना स्कन्ध का अर्थ है “अनुभूति”, “महसूस होना”, या संवेदना। जब कोई चीज़ संपर्क में आती है, जैसे कोई दृश्य या आवाज इत्यादि, तो उसके साथ सुख, दुःख, या दोनों नहीं – इन तीन में से कोई एक प्रकार की अनुभूति होती है।
भगवान ने कहा, “वेदयती’ति वेदना!” अर्थात, “अनुभूति” होती है, उसे “वेदना” कहते हैं। क्या अनुभूति होती है? सुख, दुख, न सुख न दुख की अनुभूति होती है। फस्स या इंद्रिय संपर्क के कारण संवेदना संग्रह प्रादुर्भूत होता है।
जो शारीरिक या मानसिक अनुभूति सुखद और अच्छी लगती है, उसे “सुख” कहते हैं। जो दर्दभरी और बुरी लगती है, उसे “दुख” कहते हैं। और, जो न अच्छी, न ही बुरी लगती है, उसे “न सुख न दर्द” कहते हैं।
सुख बने रहने में सुखद है, किंतु बदल जाने में दुखद है। दर्द बने रहने में दुखद है, किंतु बदल जाने में सुखद है। न सुख न दर्द ज्ञान से जुड़ी हो [=पता चले] तो सुखद है, किंतु ज्ञान से जुड़ी न हो [=पता न चले] तब दुखद है।
दुनिया के जितने भी अनुभूतियाँ हो — भूत, भविष्य या वर्तमान की, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप की — वे सब मिलकर “वेदनाखन्ध” (=संवेदना समूह) कहलाते हैं।
इस विशाल वेदना समूह में से जिसे जिनके प्रति “चाहत या दिलचस्पी” हो, वे उसके “वेदना उपादानखन्ध” (कुछ अनुभूतियों के प्रति आसक्ति) हैं।
इसका सरल अर्थ है “पहचानना”, किसी खास “नजरिए” से देखना, या मानसिक लेबल लगाना। जैसे कोई फल देखकर उसे “सेब” कहना, या किसी आवाज़ को “घंटी” समझना। यह चीज़ों की पहचान करने वाला भाग है।
भगवान ने कहा, “सञ्जानाती’ति सञ्ञा!” अर्थात, [जिस तरह जानते] “पहचानते” है, उसे “नज़रिया” कहते है! क्या पहचानते है? नीला पहचानते है, पीला पहचानते है, लाल पहचानते है, सफ़ेद पहचानते है। नजरिए भी फस्स या इंद्रिय संपर्क के कारण प्रादुर्भूत होते हैं।
दुनिया के जितने भी नजरिए हो — भूत, भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप के — वे सब मिलकर “सञ्ञाखन्ध” (=नजरियों का समूह) कहलाते हैं।
इस विशाल नजरिया-समूह में से जिसे जिनके प्रति “चाहत या दिलचस्पी” हो, वे उसके “सञ्ञा उपादानखन्ध” (कुछ नजरियों के प्रति आसक्ति) हैं।
इसका अर्थ भौतिक या मानसिक रचना करने से है। इसके बारे में गहराई से पढ़ें संस्कार।
भगवान कहते हैं, “सङखतमभिसङखरोन्ती’ति सङखारा!” अर्थात, रचने योग्य (वस्तुओँ) को रचते हैं, उसे “रचना” कहते है।
क्या रचते है? रूपत्व [=भौतिकता] के लिए रूप रचते हैं। वेदत्व [=महसूस करने] के लिए “संवेदना” रचते है। संज्ञत्व [=पहचानने] के लिए “नज़रिया” रचते है। संस्कृत्व [=रचने] के लिए “रचना” रचते है। और, विज्ञत्व [=जानने] के लिए “चैतन्य” रचते है।
दुनिया के जितने भी रचनाएँ हो — भूत, भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप के — वे सब मिलकर “सङ्खारखन्ध” (=रचनाओं का समूह) कहलाते हैं। फस्स या इंद्रिय संपर्क के कारण रचना संग्रह प्रादुर्भूत होता है।
इस विशाल रचना-समूह में से जिसे जिनके प्रति “चाहत या दिलचस्पी” हो, वे उसके “सङ्खार उपादानखन्ध” (कुछ रचनाओं के प्रति आसक्ति) हैं।
चैतन्य या चेतना, यानी किसी इन्द्रिय के माध्यम से अनुभव का जानना। जैसे आँख के द्वारा रूप को जानना, कान से ध्वनि को जानना, आदि। यह केवल इंद्रियों से “जानने” की प्रक्रिया है, न कि जानने वाला “स्व”।
भगवान कहते हैं, “विजानाती’ति विञ्ञाण!” अर्थात, जो जानता है, उसे “चैतन्य” कहते हैं। क्या जानता है? क्या खट्टा है, क्या कड़वा है, क्या तीख़ा है, क्या मीठा है, क्या खारा है, क्या खारा नहीं है, क्या नमकीन है, क्या नमकीन नहीं है।
दुनिया के जितने भी चैतन्य हो — भूत, भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप के — वे सब मिलकर “विञ्ञाणखन्ध” (=चैतन्य समूह) कहलाते हैं। नाम-रूप के कारण चैतन्य संग्रह प्रादुर्भूत होता है।
इस विशाल रचना-समूह में से जिसे जिनके प्रति “चाहत या दिलचस्पी” हो, वे उसके “विञ्ञाण उपादानखन्ध” (किसी चैतन्य के प्रति आसक्ति) हैं।
अरहंत का शाब्दिक अर्थ है, “काबिल” व्यक्ति। अर्थात, जो दसों बेड़ियाँ यही इसी लोक में तोड़ देता है, उसे वाकई काबिल या अरहंत माना जाता हैं। ऐसे व्यक्ति के सभी दुःखों का अन्त हो जाता है, और वह जन्म-मरण के भटकन से आज़ाद हो जाता है।
“कोई भिक्षु आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार करता है।”
— दीघनिकाय १६: महापरिनिब्बानसुत्त
अरहंत का शील-स्कन्ध और समाधि-स्कन्ध के साथ, प्रज्ञा-स्कन्ध भी परिपूर्ण हो जाता है। उसकी संपूर्ण अविद्या नष्ट होती है, और वह जाग जाता है।
वह, दस धर्मों से परिपूर्ण होता है — आर्य अष्टांगिक मार्ग के आठ अंग — सम्यक-दृष्टि… सम्यक-समाधि, और सम्यक-ज्ञान और सम्यक-विमुक्ति।
अर्थात, ऐसा आर्य व्यक्ति जिसने धर्म का साक्षात्कार इतनी गहराई से कर लिया हो कि उसके कामलोक के सभी बंधन टूट जाए। तब, ऐसा व्यक्ति मरने के बाद पुनः इस लोक में कभी नहीं लौटता। बल्कि मरने के बाद सबसे ऊँचे सुद्धवास ब्रह्मलोक में सचेत प्रकट [“ओपपातिक”] होता है, और वही अंतिम ‘अरहंत’ अवस्था प्राप्त कर परिनिवृत होता है।
“कोई आर्यश्रावक निचले पाँच संयोजन तोड़कर स्वप्रकट होगा, वही परिनिर्वाण प्राप्त करेगा, अब इस लोक में नहीं लौटेगा।”
— दीघनिकाय २८: सम्पसादनीयसुत्त
वह पहली पाँच बेड़ियाँ ["संयोजन"] — आत्मीयता धारणा, उलझन, कर्मकाण्ड और व्रत में अटकाव, कामेच्छा, और दुर्भावना — मानवलोक में तोड़ देता हैं, और अगली पाँच ब्रह्मलोक में तोड़ता है।
उसका समाधि-स्कन्ध परिपूर्ण होता है। अर्थात, वह चार ध्यान-अवस्थाओं को बड़ी आसानी से प्राप्त कर सकता है। सम्यक-समाधि में उसे निपुणता हासिल होती है।
किन्तु, उसे ऊपरी पाँच संयोजन बाधित करते हैं। अर्थात, उसे भौतिक-रूपता में और अरूपता में दिलचस्पी होती है। वह अहंभाव, बेचैनी, और अविद्या से बाधित होता है।
अनागामी व्यक्तियों के पाँच प्रकार होते हैं:
“पाँच अनागामी होते हैं —
- [इस लोक और परलोक के] बीच में परिनिवृत होने वाला,
- [शुद्धवास] पहुँचने पर परिनिवृत होने वाला,
- बिना [प्रयास की] रचना किए परिनिवृत होने वाला,
- [प्रयास की] रचना के साथ परिनिवृत होने वाला,
- चढ़ती धारा में [सर्वोच्च लोक] ‘अकनिट्ठ’ जाने वाला।”
— दीघनिकाय ३३: संगीति सुत्त
अर्थात, जो केवल एक बार और इस लोक में जन्म लेकर अपने दुःखों का अन्त करे।
“कोई आर्यश्रावक तीन संयोजन तोड़कर, राग-द्वेष-मोह को दुर्बल कर सकृदागामी बनता है, जो इस लोक में दुबारा लौटकर अपने दुःखों का अन्त करता है।”
— दीघनिकाय १६: महापरिनिब्बानसुत्त
अर्थात, जो अपने अगले जन्म में निश्चित परिनिर्वाण को प्राप्त करता है। वह दस में से पहली तीन बेड़ियाँ — आत्मीयता धारणा, उलझन, और कर्मकाण्ड और व्रत में अटकाव — तोड़ता है। साथ ही, कामुकता और दुर्भावना को दुर्बल बनाता है, उनको स्थूल से सूक्ष्म बनाता है। अर्थात, उसे क्रोध और कामुकता उतनी तीव्रता से नहीं जागती है, जितनी किसी साधारण मानव को जागती है।
अर्थात, जो धर्म के श्रोत (=धारा) में पड़ गया हो। जिसे अब धर्म की धारा बहाते हुए परममुक्ति निर्वाण तक ले जाएगी। वह श्रोत या धर्म की धारा ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ को कहते हैं। इसलिए श्रोतापन्न को ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग सम्पन्न’ कहा जाता है।
“कोई आर्यश्रावक तीन संयोजन तोड़कर श्रोतापन्न बनता है — अ-पतन स्वभाव का, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर।”
— दीघनिकाय १६: महापरिनिब्बानसुत्त
श्रोतापतिफल दस में से तीन बेड़ियाँ — आत्मीयता धारणा, उलझन, और कर्मकाण्ड और व्रत में अटकाव — तोड़ने पर मिलता हैं। यह आर्य-अवस्था प्राप्त होते ही, व्यक्ति हमेशा के लिए दुर्गति (नर्क, प्रेतलोक या पशुयोनि) से छूट जाता है।
श्रोतापन्न के प्रमुख लक्षण होते हैं। उसकी बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति अटूट आस्था होती है, महादानी होता है, और अंतर्ज्ञानी होता है। सूत्रों के अनुसार, उसका शील-स्कन्ध परिपूर्ण होता है। अर्थात, यदि वह गृहस्थ हो तो उसके पाँच शील अटूट होते हैं, भिक्षु हो तो भिक्षुओं के प्रमुख पातिमोक्ख शील अटूट होते हैं।
श्रोतापन्न तीन तरह के होते हैं —
जब कोई मार्ग ऊबड़-खाबड़ और कठिन होता है, तो यात्रियों को कष्ट उठाना पड़ता है। जब संगीत बेसुरा और बेताल होता है, तो सुनने वालों को बेचैनी होती है। जब कोई गाड़ी असंतुलित होकर झटके खाती है, तो सवार को परेशानी होती है। इसी तरह, जब कोई व्यक्ति विषम आचरण करता है—असंगत विचार, असंयमित वाणी और अनियमित जीवनशैली अपनाता है—तो वह न केवल स्वयं दुखी रहता है, बल्कि दूसरों के लिए भी पीड़ा का कारण बनता है। मरणोपरांत वह विषम लोक में गिरता है।
इसके विपरीत, सम होना सहजता, सुगमता और कल्याण का प्रतीक है। जैसे एक समतल, सुंदर मार्ग पर चलना सुखद अनुभव होता है, वैसे ही समचित्त व्यक्ति के साथ रहना भी शांति देता है। जैसे सुरीला, तालबद्ध संगीत मन को आनंदित करता है, वैसे ही सम आचरण से समाज में सौहार्द और संतुलन बना रहता है। और अगले जन्मों में भी, सम जीवन जीने वाला सम लोक में जाता है।
श्रमण का व्यावहारिक अर्थ है भिक्षु या संन्यासी। ऐसे लोग जिन्होंने ब्राह्मणी नीतियों, चतुर्वर्ण की सामाजिक-रचना, और सांस्कृतिक पहचान को त्याग दिया है, और जो किसी भिन्न मार्ग पर चल रहे हैं। चूँकि ‘समण’ शब्द सम से बनता है, यह स्पष्ट है कि वे लोग ब्राह्मणी मार्ग को ‘विषम’ मानते होंगे।
श्रामण्यता का अर्थ है जीवन को संतुलित और सामंजस्यपूर्ण बनाना। बुद्ध ने अपने पुत्र राहुल को बताया कि झूठ बोलने से जीवन की श्रामण्यता नष्ट होती है। इसका अर्थ है कि व्यक्ति का आंतरिक संतुलन और समता बिगड़ने के साथ-साथ बाहरी समंजस्य और स्पष्टता भी खत्म हो जाती है।
उदाहरण के लिए, एक साज़िंदे को लें; जब वह अपने वाद्य यंत्र को सही सुर में लाने के लिए ट्यून करता है, तो वह वाद्य के आंतरिक संतुलन के साथ बाहरी श्रोताओं के साथ भी मधुर संतुलन बनाता है। इसी तरह, श्रमण अपने कर्मों को सृष्टि के नियमों के अनुसार ढालता है, जिससे उसकी भीतरी और बाहरी जीवनधारा में शांति, स्थिरता, मधुरता, संतुलन और समंजस्यता स्थापित होती है। इस प्रकार, श्रमण का जीवन केवल उसके व्यक्तिगत विकास को ही नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता को भी बढ़ावा देता है।
भगवान बुद्ध के समय में भारत में कई प्रमुख श्रमण परंपराएँ विद्यमान थीं, जो ब्राह्मण धर्म और वेदों से अलग एक स्वतंत्र दृष्टिकोण प्रस्तुत करती थीं। इन परंपराओं का मुख्य उद्देश्य आत्ममुक्ति की खोज करना था, और ये पारंपरिक ब्राह्मणवादी कर्मकांडों या वेदों पर आधारित धर्म के प्रति संदेह रखते थे। श्रमणों ने सत्य की खोज में संन्यास, तपस्या, और व्यक्तिगत अनुभव को प्रमुख मानते हुए धर्म को धार्मिक अनुष्ठानों के बजाय व्यक्तिगत अंतर्दृष्टि में देखा।
श्रमण परंपराएँ बौद्धिक और दार्शनिक रूप से अत्यंत प्रगतिशील थीं, जिन्होंने निष्पक्षता और तर्क पर आधारित नए सिद्धांत विकसित किए। इन परंपराओं ने वेदों की संप्रभुता और ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती दी, यज्ञ और हवन जैसे कर्मकांडों के बजाय आत्मा की शुद्धि और ज्ञान की ओर ध्यान केंद्रित किया। उनका यह साहसिक दृष्टिकोण तत्कालीन भारत के धार्मिक और बौद्धिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित कर रहा था, जहाँ वे व्यक्तिगत सत्य को सर्वोच्च मानते थे। इस प्रकार, श्रमण परंपराओं ने भारत के समाज और दर्शन में एक गहरा बदलाव लाने की शुरुआत की, जो बुद्ध के समय में और भी सशक्त रूप से उभरा। यहाँ कुछ प्रमुख श्रमण परंपराओं का उल्लेख है:
१. जैन (निगंठ): जैन श्रमण परंपरा उस समय की प्रमुख परंपराओं में से एक थी। भगवान महावीर, जो जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर माने जाते हैं, इस परंपरा के संस्थापक थे। जैन धर्म अहिंसा और कठोर तपस्या पर बल देता था, जिसमें उपवास, आत्मपीड़ा और आत्मसंयम की कठोर साधनाएँ शामिल थीं।
२. आजीवक: आजीवक परंपरा का नेतृत्व मक्खलि गोसाल कर रहे थे। आजीवकों का विश्वास नियतिवाद (नियति) पर आधारित था, जिसमें यह कहा गया था कि जीवन की हर घटना पूर्व-निर्धारित है और मनुष्य के पास अपने कर्मों का कोई नियंत्रण नहीं है।
३. लोकायत: लोकायत या चार्वाक परंपरा भोगवादी और नास्तिक थी। इस परंपरा ने पुनर्जन्म, कर्म, और आत्मा के अस्तित्व को नकारा। उनका मानना था कि भौतिक जगत ही एकमात्र वास्तविकता है और जीवन का मुख्य उद्देश्य इंद्रिय-सुख की प्राप्ति है।
४. अज्ञेयवाद: अज्ञेय संप्रदाय के लोग संशयवादी या अज्ञेयवादी थे, जो किसी भी ज्ञान के दावे को अस्वीकार करते थे। संजय बेलट्ठिपुत्त इस परंपरा के प्रमुख प्रतिनिधि थे। वे किसी भी दार्शनिक या धार्मिक प्रश्न पर निश्चित उत्तर देने से इनकार करते थे, और कहते थे कि कुछ भी निश्चित रूप से नहीं जाना जा सकता।
५. पूरण कश्यप का संप्रदाय: पूरण कश्यप ने नैतिकता और कर्म के सिद्धांत को नकारा। उनका मानना था कि अच्छे या बुरे कर्मों का कोई नैतिक परिणाम नहीं होता (अक्रियावाद)।
६. पकुध कच्चायन का संप्रदाय: पकुध कच्चायन ने सात शाश्वत तत्वों की धारणा प्रस्तुत की, जिनमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सुख, दुःख और जीवन शामिल थे। उनका मानना था कि ये तत्व शाश्वत और अटल हैं, और इनके बीच कोई वास्तविक अंतःक्रिया नहीं होती। उन्होंने नैतिकता और आचार के महत्व को भी खारिज कर दिया।
७. बौद्ध धर्म: स्वयं बुद्ध, जिन्हें ‘महाश्रमण’ कहा जाता था, ने एक श्रमण परंपरा का नेतृत्व किया, जिसने अतितपस्या और इंद्रिय-सुख की अति के बीच एक मध्यम मार्ग प्रस्तुत किया। बौद्ध धर्म का केंद्रबिंदु चार आर्य सत्य और आर्य अष्टांगिक मार्ग है, जो व्यक्ति को निर्वाण की ओर ले जाता है।
भगवान बुद्ध के पश्चात भी अनेक श्रमण परंपराएँ चलती रहीं। इन परंपराओं ने भारतीय बौद्धिक और आध्यात्मिक जीवन पर गहरा प्रभाव डाला —
१. कबीरपंथ: कबीर ने वेदों और कुरान दोनों की आलोचना की और धार्मिक कर्मकांडों का विरोध करते हुए एक सीधा, व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण का मार्ग बताया। उन्होंने ज्ञान, भक्ति और समता का संदेश दिया और जाति-पाति, धार्मिक आडंबर और सामाजिक असमानता की कड़ी आलोचना की।
२. सिख धर्म: गुरु नानक ने भी ब्राह्मणवादी कर्मकांडों और सामाजिक बंधनों का विरोध किया। उन्होंने एक निराकार ईश्वर के प्रति भक्ति और साधारण जीवन में सत्य, सेवा, और समानता के सिद्धांतों पर जोर दिया। सिख धर्म व्यक्तिगत आध्यात्मिकता और सामाजिक सेवा के संयुक्त मार्ग पर आधारित है, जो श्रमण परंपराओं की स्वतंत्रता और तर्कशीलता के तत्वों से प्रभावित है।
३. सूफीवाद: सूफी संत, इस्लाम के भीतर एक आध्यात्मिक आंदोलन का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो बाहरी धार्मिक नियमों से अधिक आंतरिक प्रेम, अनुभव, और भक्ति पर जोर देते हैं। सूफियों ने समाज में एकता और प्रेम का संदेश फैलाया, और धार्मिक सीमाओं को तोड़ते हुए ईश्वर के साथ सीधे अनुभव के महत्व को बताया। भारत में सूफी संतों, जैसे कि निज़ामुद्दीन औलिया और मुईनुद्दीन चिश्ती, ने आध्यात्मिक प्रेम और भक्ति का व्यापक प्रभाव छोड़ा।
४. संत परंपरा (रैदास, तुलसीदास, मीराबाई): संत परंपरा में कई कवि-संत हुए जिन्होंने भक्ति, सामाजिक समानता, और धर्म के आडंबर से परे एक सरल और व्यक्तिगत ईश्वरभक्ति की ओर लोगों को प्रेरित किया। इनमें भी कर्मकांडों और जातिगत बंधनों का विरोध दिखता है।
५. नाथपंथ (गोरखनाथ): नाथ संप्रदाय हठयोग और ध्यान के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का रास्ता दिखाता है। इसका श्रेय गोरखनाथ को दिया जाता है, जिन्होंने श्रमण परंपराओं की धारा को आगे बढ़ाया और तपस्या और ध्यान के जरिए मुक्ति की खोज को प्रमुख रूप से रखा।
६. ओशो: ओशो रजनीश एक आधुनिक गुरु और दार्शनिक थे, जिनका जीवन विवादों से घिरा रहा। उन्होंने पारंपरिक धार्मिक आडंबरों को चुनौती देते हुए व्यक्तिवाद को प्राथमिकता दी और विवादास्पद ध्यान की तकनीकों के माध्यम से लोगों को अपनी आंतरिक स्थिति को समझने में मदद की।
इन सभी परंपराओं में हम देखते हैं कि वे पारंपरिक धर्म के कर्मकांडों को अस्वीकार करते हुए एक नया, व्यक्तिगत और अनुभववादी आध्यात्मिक मार्ग अपनाते हैं।
दुनिया भर में ऐसे घुमक्कड़ मिलते हैं, जो अपनी स्थानीय सीमाओं से परे जाकर दूसरे देशों की सभ्यता, संस्कृति और दर्शन को समझने के लिए यात्रा करते रहते हैं। प्राचीन जम्बूद्वीप में इन्हें “परिव्राजक” कहा जाता था, जबकि आधुनिक पश्चिमी दुनिया में इन्हें “हिप्पी” के रूप में पहचाना जाता है। इनकी जीवनशैली सामान्य सामाजिक नियमों से हटकर होती है। भारतीय परंपरा में राहुल सांकृत्यायन जैसे घुमक्कड़ विद्वान इसी प्रवृत्ति के उदाहरण थे, जो ज्ञान की खोज में यात्रा करते रहे।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से, ऐसे घुमक्कड़ों का मानसिक स्वभाव प्रवाही और विद्रोही होता है। वे पारंपरिक ढाँचों और समाज द्वारा स्थापित स्थिरता को अस्वीकार करते हैं, क्योंकि उनकी आत्मा स्वतंत्रता और आत्म-अभिव्यक्ति की ओर उन्मुख होती है। यह विद्रोही मानसिकता उन्हें समाज के हर अनुशासन को चुनौती देने के लिए प्रेरित करती है, कभी-कभी उनके अपने भीतर के बंधनों को भी।
वे तात्कालिक अनुभवों और क्षणिक इच्छाओं की ओर आकर्षित होते हैं, जिससे दीर्घकालिक स्थायित्व उनके लिए अप्रासंगिक हो जाता है। उनकी विद्रोही ऊर्जा उन्हें रचनात्मक और अनूठा बनाती है, लेकिन यह अस्थिरता और गहरे संबंधों की कमी का कारण भी बन सकती है। ऐसे दिमाग को नियंत्रित करने और दिशा देने में केवल गहरे बोध वाले गुरु ही सफल हो सकते हैं, जैसा कि ओशो रजनीश ने अपने शिष्यों के साथ किया।
सूत्रों में सुनने मिलता है कि बुद्ध ऐसे ही घुमक्कड़ों को धर्म बताने का प्रयास करते हैं। उन घुमक्कड़ों को ठोस और निर्णायक मार्ग के बारे में सुनना रोचक और प्रेरणादायक तो लगता है, लेकिन उनके प्रवाही और विद्रोही स्वभाव के कारण, वे अक्सर इस मार्ग पर चलने से कतराते हैं या भटक जाते हैं।
समथ का अर्थ है — चित्त की स्थिरता और निश्चल एकाग्रता। यह अभ्यास मन को विक्षेप और चंचलता से मुक्त कर, एक निःशब्द और टिकाऊ स्थिति में लाता है — जैसे साँस या शरीर की अनुभूति पर निरंतर टिकना। जब चित्त एक ही आधार पर स्थिर होता है, तो उसमें सुख, सहजता और प्रफुल्लता उत्पन्न होती है। यही है समथ, जो चित्त को भीतर टिकने योग्य बनाता है।
समथ का अभ्यास समाधि के रूप में जाना जाता है, जिसका चरम रूप है — झान, यानी ध्यान की गहन अवस्थाएँ। बिना इस मानसिक स्थिरता के, विपस्सना गहराई नहीं पकड़ सकती। यह टिकाव चित्त को उस स्थायित्व में पहुँचाता है, जहाँ से वह अनित्य अनुभवों को स्पष्ट रूप से देख सकता है — बिना उलझे, बिना डगमगाए।
यद्यपि समथ और विपस्सना को कभी-कभी अलग पथ माना जाता है, प्रारंभिक सूत्रों में ये एक ही मार्ग के दो चरण माने गए हैं। जैसे चलने के लिए एक पैर से सहारा लेकर दूसरा आगे बढ़ता है — उसी तरह समथ चित्त को टिकाता है, और विपस्सना उस टिके हुए चित्त से यथार्थ को देखती है। एक को छोड़े बिना दूसरा संभव नहीं।
बुद्ध ने बताया कि जैसे सीढ़ी चढ़ते समय एक पायदान पर पैर टिकाकर दूसरा ऊपर रखा जाता है — वैसे ही समथ और विपस्सना एक-दूसरे को सहारा देते हुए चित्त को ऊपर उठाते हैं। समथ स्थिरता देता है, जिससे विपस्सना गहराई पाती है। फिर समथ और ऊपर उठाता है, जिससे और गहरी अंतर्दृष्टि संभव होती है।
इस तरह, समथ केवल मानसिक शांति नहीं, बल्कि मुक्ति का आधार है। यह चित्त को इतना परिष्कृत करता है कि वह अपने बंधनों को पहचानकर, उन्हें धीरे-धीरे छोड़ सके। इसलिए समथ कोई साधारण ध्यान तकनीक नहीं, बल्कि निर्वाण की ओर बढ़ने वाली अनिवार्य नींव है।
विपस्सना का अर्थ है — चीज़ों को वैसे देखना, जैसे वे वास्तव में हैं। यह देखने का ऐसा ढंग है जो बनावट, भ्रम और मान्यताओं के आवरण को हटाकर अनुभव की मूल प्रकृति को उजागर करता है। शरीर और मन की जो भी प्रक्रियाएँ हैं — वे किसी-न-किसी संयोग, शर्त या संस्कार के आधार पर घटती हैं; और उनमें “मैं” या “मेरा” जैसी कोई स्थायी सत्ता नहीं होती।
विपस्सना कोई चलन या केवल तकनीक नहीं, बल्कि एक दृष्टि है — जो सजगता, प्रज्ञा और सूक्ष्मता से पनपती है। जब चित्त “समथ” के आधार पर स्थिर हो जाता है, तभी वह इस दृष्टि को गहराई से साध पाता है। यह अभ्यास जागरूक होकर देखना सिखाता है कि अनुभव (संस्कार या मानसिक रचनाएँ) कैसे जन्म लेते हैं, कैसे टिकते हैं, और कैसे समाप्त हो जाते हैं — और उन्हें अनावश्यक रूप से पकड़ने की प्रवृत्ति कैसे दुख को जन्म देती है।
इस अभ्यास का लक्ष्य केवल निरीक्षण नहीं, बल्कि वैराग्य है — वह शीतल अंतर्ज्ञान जिससे चित्त आसक्ति छोड़ देता है। जब साधक अनुभवों को अनित्य, दुःख और अनात्म रूप में बार-बार देखता है, तब उनके प्रति मोह ढीला होने लगता है, भंग होने लगता है। और यही ढीलापन धीरे-धीरे मुक्ति का द्वार खोलता है — वह अवस्था, जहाँ चित्त न किसी चीज़ से बँधता है, न किसी अनुभव में उलझता है।
विपस्सना का मार्ग — कारण और परिणाम (इदप्पच्चयता) को जानने का अभ्यास है। “जब यह होता है, तब वह होता है। जब यह नहीं होता, तब वह भी नहीं होता।” — इस सीधे साक्षात्कार के आधार पर चित्त को यह समझ आता है कि दुःख किन प्रक्रियाओं से बँधा है, और कौन-सी प्रवृत्तियाँ उसे दोहराती हैं। इस समझ से धीरे-धीरे वे संस्कार निरुद्ध होते हैं, जो दुःख को जन्म देते थे। यही है बोध, और यही है विमुक्ति की राह।
संसार का अर्थ है — संसरण या सतत भ्रमण, अर्थात् बार-बार जन्म-मरण में भटकना। यह कोई तय यात्रा नहीं, बल्कि चेतना की वासनापूर्ण गति है — जो अनादिकाल से आरम्भ होकर तृष्णा और उपादान के कारण निरंतर चलती रहती है। बुद्ध ने संसार को केवल “जीवनों की श्रृंखला” नहीं कहा, बल्कि दुःख क्षेत्र बताया, जहाँ कोई स्थायी समाधान नहीं है, कोई अंतिम ठहराव नहीं है। यह भ्रमण किसी “आत्म-खोज” के रूप में नहीं, बल्कि अज्ञान के मारे भटकना है।
संसार केवल भविष्य में पुनर्जन्म की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि वर्तमान क्षण में भी चलता है — जब चित्त किसी विचार, भावना या पहचान में रम जाता है। इसीलिए बौद्ध परंपरा में संसार से मुक्ति का अर्थ है — भीतर की यात्रा शुरू करना, और देखना कि कैसे चित्त बार-बार ‘मैं’ और ‘मेरा’ के भ्रम में उलझ कर नया संसार रचता है। संसार से निकलने का मार्ग है — इस प्रक्रिया को देखना, समझना और उसे रोक देना। और उस विराम का नाम है: निर्वाण।
संवेग का अर्थ है — वह भीतर की हिलावट जो जीवन की अनित्यता, संसार की असारता, और सांसारिक जीवन की व्यर्थता का साक्षात्कार करते हुए उपजती है। यह केवल दुःख नहीं, बल्कि एक जाग्रत बेचैनी है, जो मन को झकझोर कर कहती है: “यह जीवन यूँ ही नहीं गँवाना चाहिए।” यह वह क्षण होता है जब साधक को जन्म-मरण के चक्र की निरर्थकता स्पष्ट दिखने लगती है — और यहीं से धम्म की ओर उसकी यात्रा आरंभ होती है।
अनेक साधकों को संवेग जागने पर ही वे सांसारिक जीवन त्यागकर धर्ममार्ग अपनाते हैं। संवेग जब प्रज्ञा और श्रद्धा से जुड़ता है, तो केवल मानसिक व्याकुलता नहीं रह जाता — बल्कि मुक्ति की ओर ले जाने वाला शक्ति-स्रोत बन जाता है। पर यदि इस जागरण में कोई दिशा न हो, तो यह भाव निराशा या अवसाद में बदल सकता है। इसलिए संवेग के साथ आवश्यक है — पसाद।
पालि शब्द “पसाद” का अर्थ है — श्रद्धा से उत्पन्न हुई आंतरिक स्पष्टता, संतुलन और विश्वास। यह वह निर्मल भाव है जो बुद्ध, धम्म और संघ के प्रति एक गहरी आस्था से उत्पन्न होता है, जो साधक को यह बोध कराता है कि मुक्ति सम्भव है। संवेग भीतर से जगाता है, और पसाद उस जगे हुए चित्त को संभालता है। इसलिए पालि सूत्रों में दोनों का उल्लेख साथ-साथ आता है — जैसे आँख में आँसू हो, और उसी में प्रकाश भी। ये दोनों भाव मिलकर साधक को जगाकर मार्ग पर आगे बढ़ाते हैं।
विनय का अर्थ है — “हटाना” या “दूर करना”, यानी व्यवहार से दोषों को दूर करना।
जब कोई साधक उपसंपदा लेकर भिक्षु बनता है, तो वह अपने मन को नम्रता, अनुशासन और जागरूकता के साथ प्रशिक्षित करता है। यही संघ की रीढ़ है। विनय सिर्फ बाहरी नियम नहीं, बल्कि संघ में संयम, ईमानदारी और पारस्परिक सम्मान से रहने का आधार है। इसका मकसद सज़ा देना नहीं, बल्कि आचरण को शुद्ध और मजबूत बनाना है।
विनय-पिटक भिक्षुओं और भिक्षुणियों के आचरण और अनुशासन की पूरी व्यवस्था है — जिसमें नियम, संघ की कार्यप्रणालियाँ, और गलती होने पर उसके समाधान की विधियाँ शामिल हैं। यह पिटक आज छह खंडों में सुरक्षित है। इसमें भिक्षुओं के लिए २२७ नियम और भिक्षुणियों के लिए ३११ नियम बताए गए हैं। ये नियम किसी न किसी खास घटना के उत्तर में बने — इसलिए विनय सिर्फ नियमों की सूची नहीं, बल्कि संघ के इतिहास, भिक्षु जीवन के अनुभवों और बुद्ध की व्यावहारिक समझ का जीवित साहित्य भी है।
आचार्य शब्द का शाब्दिक अर्थ है — “जो आचार (=आचरण) सिखाता है”। इसका सामान्य अर्थ है — ऐसा शिक्षक या गुरु जो धम्म, विनय या ध्यान-साधना में दूसरों का मार्गदर्शन करता है।
प्रारंभिक भिक्षु-संघ में इस भूमिका के लिए प्रचलित शब्द था “उपज्झाय” — जो “उपाध्याय” का पालि रूप है। उपज्झाय वह होता था जो किसी प्रव्रजित व्यक्ति को श्रावक-संघ में दीक्षा देता, उसे धम्म और विनय के अनुरूप जीवन में स्थिर करता, और आचार, अनुशासन व अभ्यास में उसका मार्गदर्शक व संरक्षक बनता।
वह न केवल प्रव्रज्या (सामणेर दीक्षा) या उपसंपदा (भिक्षु दीक्षा) प्रदान करता, बल्कि दीक्षित शिष्य के संपूर्ण ब्रह्मचर्य जीवन की निगरानी और प्रशिक्षण का उत्तरदायित्व भी ग्रहण करता। यही कारण है कि उपज्झाय की भूमिका को विनय में अत्यंत गंभीर और उत्तरदायी माना गया है।
जैसे भारत में बाद के काल में “गुरु” शब्द अधिक प्रचलित हुआ, उसी प्रकार थाईलैंड, लाओस, कम्बोडिया आदि देशों में पालि “आचार्य” से निकला हुआ शब्द “अजाह्न” प्रचलन में आया — जो आज भी वहाँ के ध्यानगुरुओं और वरिष्ठ भिक्षुओं के लिए आदरपूर्वक प्रयुक्त होता है।
इस प्रकार, चाहे वह उपज्झाय हो, आचार्य हो, या अजाह्न — इन सबका उद्देश्य एक ही है: धम्म और विनय के मार्ग पर दूसरों को स्थिर करना।
उपोसथ का शाब्दिक अर्थ है — “निकट आना”, अर्थात “धम्म-विनय” के समीप आकर चित्त शुद्धि करना। यह विशेष साधना-दिन होता है, जो पूर्णिमा, अमावस्या, और दोनों अष्टमी तिथियों (चतुर्दशी/अष्टमी) पर आता है, अर्थात, महीने में चार। इसकी परंपरा बुद्धपूर्व काल में भी थी, किंतु बुद्ध ने इसे धर्मानुकूल रूप देकर, गृहस्थों और भिक्षुओं, दोनों के लिए विशुद्धि का अवसर बना दिया।
उपासक-उपासिकाएँ इस दिन “अष्टशील” ग्रहण कर संयमित दिनचर्या अपनाते हैं। उपोसथ का उद्देश्य केवल व्रत या दिनचर्या नहीं, बल्कि अरहंत की तरह एक दिन निकालने की साधना है। यह धर्म के प्रति नया संकल्प, आचरण में विशुद्धि, और ध्यान में गहराई लाने का दिन है। यह दिन आत्मपरीक्षण, काय-मन-वचन की शुद्धि, दान-पुण्य, और धर्म की ऊर्जा से युक्त होता है। यही कारण है कि स्वयं बुद्ध ने गृहस्थों को यह दिवस मनाने की प्रेरणा दी, और भिक्षुओं के लिए इसे अनिवार्य कर्तव्य बनाया।
“भिक्षुओं, आठ अंगों से युक्त उपोसथ को धारण करना महाफलदायी, महापुरस्कारी, महाज्योतिमान, महाव्यापक होता है।”
— अंगुत्तरनिकाय ८:४१
भिक्षुसंघ के लिए उपोसथ का विशेष महत्त्व है। पूर्णिमा और अमावस्या को संघ एकत्र होकर पातिमोक्ख का पाठ करता है — जो कि भिक्षु-विनय के २२७ नियमों की सामूहिक स्वीकृति और आत्मावलोकन की प्रक्रिया है। यदि कोई भिक्षु अपराध करता है, तो वह इस सभा में उसे स्वीकार करता है, और संघ के प्रति आत्मशुद्धि की प्रक्रिया पूरी करता है। इसे “उपोसथ-सङ्घकम्म” कहा जाता है, और यह संघ की शुद्धता बनाए रखने का मूल आधार है।
धुतांग का अर्थ हैं, ऐसा अभ्यास जो हिला-हिलाकर [क्लेष, मल] निकाल दें। ये तेरह विशिष्ट तपस्वी आचार होते हैं, जिन्हें भिक्षु स्वेच्छा से एक या अधिक धुतांग के रूप में अपनाते हैं, ताकि चित्त के मैल (क्लेश) और सांसारिक आवश्यकताओं के प्रति आसक्ति को कम किया जा सके। इनका मूल उद्देश्य संयम, संतोष और आत्मसंयम का विकास करना है। तेरह धुतांग अभ्यास निम्नलिखित हैं:
धुतांग साधनाएँ विशेष रूप से उन भिक्षुओं और उपासकों के लिए लाभकारी मानी जाती हैं, जो अपने क्लेशों से विमुक्त होने और संसार से पूर्ण वैराग्य की ओर बढ़ने के इच्छुक हैं। महायान परंपरा में इन्हें अत्यंत कठिन माना गया है, लेकिन थेरवाद में आज भी कई भिक्षु इनका अभ्यास करते हैं। आयुष्मान महाकश्यप को धुतांग जीवन का आदर्श उदाहरण और अग्रणी माना जाता है।
ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि तेरह में से किसी भी धुतांग को अपनाने पर गोपनीयता बनाए रखना आवश्यक होता है—यहाँ तक कि अपने रक्त-संबंधी भिक्षु भाई से भी इसे छिपाकर रखना चाहिए। किंतु कभी-कभी कुछ भिक्षु विनय नियमों की अवहेलना कर सार्वजनिक रूप से धुतांग धारण करते हैं, जिससे उनके क्लेश समाप्त होने के बजाय बढ़ सकते हैं। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि भिक्षुओं के लिए विनय का पालन अनिवार्य है, जबकि धुतांग साधना पूरी तरह से ऐच्छिक होती है।
नाग — बौद्ध परंपरा में एक ऐसा सत्व जिसे प्राणी-योनि में जन्मा माना गया है, परंतु जिसकी शक्तियाँ देवताओं जैसी मानी जाती हैं। वे साँप या अजगर की तरह दीर्घाकार होते हैं, परंतु उनमें मानव रूप धारण करने की क्षमता भी होती है। उनकी प्रकृति सामान्य पशु-जैसी न होकर चमत्कारी और दिव्य होती है। इसलिए उन्हें अक्सर देवताओं के समकक्ष, या उनके अधीन दिखाया जाता है।
नागों का उल्लेख प्राचीन सूत्रों में विशेष स्थानों पर हुआ है — जैसे सिद्धार्थ गोतम को संबोधि मिलने पर “मुचलिन्द” नागराज ने वर्षा से उनकी रक्षा की थी, या अप्पलाल नाग जो कालांतर में उपासक बन गया। नाग प्रायः जलाशयों, झीलों, या पर्वतीय गुफाओं में निवास करते हैं, और उन्हें अपने निवास-स्थान की रक्षा करने वाला माना जाता है। वे कभी-कभी क्रुद्ध और अहंकारी भी हो सकते हैं, परंतु जब उनमें श्रद्धा जागती है, तो वे विनीत, धर्मपरायण और बुद्ध के प्रति समर्पित बन जाते हैं।
नागों का प्रयोग कभी-कभी रूपक में भी होता है। पालि साहित्य में “महान व्यक्ति” या “अरहंत” के लिए भी ‘नाग’ शब्द का प्रयोग किया गया है — जैसे कहा जाता है कि “जहाँ नाग विचरते हैं, वहाँ सर्प नहीं टिक सकते” — अर्थात जहाँ अरहंत रहते हैं, वहाँ अधर्मी विचार नहीं टिक सकते। इस दृष्टि से, ‘नाग’ शारीरिक से अधिक मानसिक और नैतिक शक्ति का प्रतीक बन जाता है।
दुनिया के लगभग सभी देशों में नागों को “ड्रैगन” के रूप में जाना जाता है। इस प्रकार, नाग न केवल एक अद्भुत जीव हैं, बल्कि सभी परंपराओं में ऋद्धि, शक्ति, और परिवर्तन के प्रतीक भी हैं।
पवारणा — वर्षावास के समापन पर किया जाने वाला एक विशिष्ट भिक्षु-संस्कार है, जो आश्विन पूर्णिमा (अक्टूबर की पूर्णिमा) को संपन्न होता है। यह आत्मनिरीक्षण और पारस्परिक संवाद का अवसर होता है, जहाँ प्रत्येक भिक्षु, संघ के समक्ष स्वयं को प्रस्तुत कर यह निमंत्रण देता है: “यदि आपने मेरे आचरण में कोई दोष देखा, सुना, या संदेह किया हो, तो कृपया बताएं — मैं उसे सुधारने को तैयार हूँ।”
यह परंपरा केवल अनुशासन का औपचारिक रूप नहीं, बल्कि संघ की पारदर्शिता, विनम्रता और शुद्धि की संस्कृति को दर्शाती है। पवारणा के माध्यम से भिक्षु एक-दूसरे के प्रति खुलापन और दायित्व निभाते हैं — बिना द्वेष, केवल कल्याण की भावना से। यह आयोजन संघ के भीतर भरोसे, मैत्री और शील के सामूहिक अभ्यास का प्रतीक है।
प्रेत — वे सत्व जो मृत्यु के उपरांत असंतुष्ट वासनाओं, अतृप्त इच्छाओं या पापकर्मों के कारण पीड़ा और भूख की योनियों में जन्मते हैं। ‘प्रेत’ का शाब्दिक अर्थ है — “गया हुआ” या “छूट गया”, और यह शब्द बौद्ध साहित्य में ऐसे प्राणियों के लिए आता है जो इच्छा के जाल में फंसे रह जाते हैं, और शारीरिक मृत्यु के बाद भी उस मानसिक भूख से मुक्त नहीं हो पाते।
प्रेत योनि की अवस्था को दुर्गतिपूर्ण और दुःखद कहा गया है — जहाँ सत्व को भयंकर भूख-प्यास, भीषण भय, और दूसरों की दया पर निर्भर रहकर जीना पड़ता है। कुछ प्रेत बहुत छोटे होते हैं, जो दिखाई नहीं देते; कुछ विकराल रूप में प्रकट होते हैं, जैसे — जलती हुई आँतों वाला, काँटों से भरा मुँह, या निरंतर चीखता हुआ जीव। ये रूप उनके मानसिक संस्कारों और कर्मानुसार भिन्न-भिन्न होते हैं।
बुद्ध ने कहा कि प्रेत योनि में जन्म मुख्यतः लोभ, द्वेष और मिथ्याचरण के कारण होता है — विशेषकर लोभ और संग्रहवृत्ति। कुछ प्रेत पूर्व जीवन में दान न देने वाले, या अपने परिजनों को वंचित करने वाले होते हैं। बाद के सम्मिलित किए गए बौद्ध ग्रंथ, जैसे “पेतवत्थु” में बताया गया है कि दान-पुण्य प्रेतों को समर्पित कर उन्हें राहत दी जा सकती है। भगवान ने गृहस्थों को बताया कि अपने पूर्वजों के नाम पर श्रमणों और ब्राह्मणों को अन्न आदि दान देना — प्रेत योनि में गए प्रियजनों के लिए हितकारी हो सकता है।
भव का शाब्दिक अर्थ है — अस्तित्व “होना” या “बनाना”। लेकिन बौद्ध दर्शन में यह एक सूक्ष्म कर्म-प्रक्रिया है, जिसके द्वारा कोई सत्व किसी विशेष प्रकार के अस्तित्व में प्रवेश करता है। त्रिविध तृष्णा में से “भव तृष्णा” — सबसे गहरी है: यह वह तृष्णा है जो किसी के होने, बनने, या किसी पहचान को थामने की ओर ले जाती है। यह केवल मृत्यु के बाद अगला जन्म तय नहीं करती, बल्कि हर क्षण चित्त जिस अवस्था को पकड़ता है, वही भव बन जाता है।
तीन प्रकार के “भव” बताए गए हैं:
भव का मूल है: “मैं यह हूँ”, या “मैं यह बनना चाहता हूँ” की धारणा। यही धारणा चित्त को बांधती है — और हर “भव” अगली “जाति” (=जन्म) बन जाती है। जब यह “भव तृष्णा” का क्षय हो जाए, तब चित्त किसी बनने की ओर नहीं जाता — और वहीं संसार रुक जाता है।
“संसार” बाहर की गति है — जन्म, मृत्यु, और पुनर्जन्म का चक्र। जबकि “भव” भीतर की गति है — चित्त की प्रवृत्ति जो उस चक्र को चलाती है।
भिक्षु का परंपरागत अर्थ है, जो भिक्षा मांगकर जीवन यापन करता है।
इस अर्थ को गहराई से समझने के लिए हमें कुछ अन्य शब्दों पर ध्यान देना होगा। प्रवज्जा का अर्थ है, घर से बेघर होकर संन्यास लेना। प्रवज्जित वह व्यक्ति होता है, जिसने अपने परिवार, संपत्ति, व्यवसाय, कामभोगी जीवन, सांसारिक ध्येय और संसरण का त्याग कर बौद्ध धर्म के अनुसार संन्यास लिया हो; ऐसे व्यक्ति को श्रामणेर कहा जाता है। बौद्ध धर्म में प्रवज्जा प्राप्त करने के लिए न्यूनतम ७ वर्ष की उम्र होना आवश्यक है। प्रवज्जित व्यक्ति को त्रिशरण के साथ दस शीलों को धारण करना होता है।
यदि कोई व्यक्ति संघ में भिक्षु बनना चाहता है, तो उसकी कई पूर्व-आवश्यकताएँ होती हैं, जैसे न्यूनतम और अधिकतम उम्र, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, और उसके पूर्व कर्म (जैसे हत्या, कर्ज, या राजसेवा) आदि। यदि ये सभी आवश्यकताएँ पूरी होती हैं, तो भिक्षुसंघ मिलकर उसकी उपसंपदा करता है, और तभी उसे भिक्षु के रूप में मान्यता दी जाती है।
भगवान ने किसी को भिक्षु बनाने से पहले कई शर्तें बताई हैं। यदि इनमें से कोई भी शर्त पूरी न हो, तो उसे भिक्षु उपसंपदा नहीं दी जा सकती। विशेषकर, उसे पातिमोक्ष के २२७ प्रमुख नियमों के अलावा कई छोटे-बड़े नियमों का पालन करना होता है, जिन्हें भगवान बुद्ध ने स्थापित किया है। यदि वह चार बड़े अपराध करता है, तो उसे भिक्षु-जीवन से निकाल दिया जाता है, और उसे फिर कभी भिक्षु नहीं बनाया जा सकता।
अट्ठकथा में बुद्धघोष भंते उदारता से बताते हैं कि चूँकि सतिपट्ठान की साधना कोई भी कर सकता है, इसलिए जब भगवान ने इस विशेष सूत्र को भिक्षुओं के लिए संबोधित किया, तो इसकी परिभाषा में सामान्य साधक को भी शामिल किया जा सकता है। इस विवादास्पद परिभाषा का विरोध भी हुआ और दुरुपयोग भी।
भगवान के समय अनेक गृहस्थ साधक अनागामी थे। उदाहरण के तौर पर, चित्त गहपति नामक गृहस्थ, जो समाधि-स्कन्ध में परिपूर्ण होकर भिक्षुओं के प्रश्नों को सुलझाते थे। लेकिन वे अनागामी गृहस्थ भी स्वयं को भिक्षु नहीं मानते थे, या स्वयं को भिक्षु से श्रेष्ठ नहीं मानते थे। दूसरी ओर, आजकल के कुछ गृहस्थ जो ध्यानसाधना करते हैं, वे अब केवल स्वयं को भिक्षु ही नहीं मानते, बल्कि साधारण भिक्षुओं से भी श्रेष्ठ समझते हैं। साधना का वास्तविक उद्देश्य अंतर्दृष्टि को बढ़ाना है, न कि अहंकार।
ब्रह्मविहार का अर्थ है — चित्त की ऐसी अवस्था या भावदृष्टि, जिसे यदि इस प्रकार विकसित किया जाए कि वह सभी जीवों तक असीमित फैले, तो वह एक अत्यंत शुद्ध, शक्तिशाली और उच्च चेतना की अवस्था बनती है। यह विकसित चित्त-अवस्था किसी को ब्रह्मलोक में पुनर्जन्म के योग्य बनाती है।
ये चार हैं, जिन्हें सम्मिलित रूप से “चार ब्रह्मविहार” कहा जाता है:
ये चारों स्वभाव केवल सामाजिक गुण नहीं, बल्कि आध्यात्मिक दायित्व भी हैं, जो न केवल दूसरों को सुख और राहत पहुँचाती हैं, बल्कि साधक को विमुक्ति के समीप भी ले जाती हैं।
ब्राह्मण का सरल अर्थ है, जो ब्रह्म से सुर मिलाकर, सामंजस्यता बिठाकर उसी के नियमों से चलता है।
ब्राह्मण परंपरा वेदों और शास्त्रों पर आधारित थी, जिसमें ब्राह्मण मुख्यतः यज्ञ, अनुष्ठान और धार्मिक रीति-रिवाजों में विश्वास करते थे। वेदों का अध्ययन करना ब्राह्मणों का मुख्य उद्देश्य था, जो उन्हें समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करता था। धार्मिक समारोहों में उनकी प्रधान भूमिका होती थी, और उनका जीवन वैदिक सिद्धांतों और सामाजिक नियमों के अनुसार संचालित होता था।
ब्राह्मणों के लिए जाति, चतुर्वर्ण व्यवस्था और परंपराओं का पालन अनिवार्य था। उससे उन्हें सामाजिक स्थिरता और धार्मिक अनुशासन को बनाए रखने में सहायता मिलती थी। हालांकि, ब्राह्मण वादी लोग अक्सर वेदों की सीमित चौखट में रहकर पक्षपाती ढंग से उनका बचाव करते थे, और उन पर प्रश्नचिन्ह उठाने वालों को अक्सर बदनाम करते थे। जिससे यह स्पष्ट होता था कि उनका दृष्टिकोण धार्मिक के बजाय सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनाओं के प्रति अधिक समर्पित था।
विशेषज्ञों का कहना है कि पालि में ‘ब्राह्मण’ शब्द संस्कृतिकरण के प्रभाव से आया है। मूल शब्द वास्तव में बामन होना चाहिए, जो प्राकृत या शुरुआती लोकभाषाओं में प्रयोग होता था। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के दौरान कई स्थानों पर भाषाई परिवर्तन हुए, जिनमें न को ण में परिवर्तित करना प्रमुख है। इस परिवर्तन का उद्देश्य भाषा को अधिक शास्त्रीय और संस्कृत के निकट बनाना था, ताकि धर्म और परंपराओं का प्राचीनतम रूप से संबंध दिखाया जा सके।
वेदों ने कर्म का सिद्धांत प्रस्तुत किया, लेकिन उसका महत्व सीमित और वर्णन में अर्थहीन था। वे कहते थे कि उचित कर्म मरणोपरांत अगले जीवन में सुख देते हैं, लेकिन ये उचित कर्म केवल वेद-मान्य कर्मकांड थे, जैसे यज्ञ, हवन, और बलि। केवल ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा दी जाती थी और उनसे ही कर्मकांड कराए जाते थे। उनके अनुसार, कर्मकांड सही ढंग से करना अत्यावश्यक था, जिसके लिए विशेष मैनुअल और सूत्र बनाए गए थे। इस प्रकार, ब्राह्मणों के कर्म सिद्धांत का अर्थ केवल सामाजिक स्तर पर की गई शारीरिक क्रियाओं तक सीमित था।
बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध ने ‘ब्राह्मण’ शब्द का पुनर्परिभाषा की, जिसमें उन्होंने आंतरिक शुद्धता, नैतिकता और आत्म-ज्ञान को प्राथमिकता दी। बुद्ध ने यह बताया कि केवल जन्म के आधार पर ब्राह्मण होना पर्याप्त नहीं है; बल्कि सच्चे ब्राह्मण वे हैं, जो अपने कार्यों और विचारों से शुद्धता प्राप्त करते हैं। इस दृष्टिकोण ने ब्राह्मण परंपरा को चुनौती दी और व्यक्तिगत आचार-विचार को महत्वपूर्ण माना, जिससे एक नए आध्यात्मिक विमर्श की शुरुआत हुई। बुद्ध के इस विचार ने समाज में ब्राह्मणों की पारंपरिक छवि को फिर से परिभाषित किया और आत्मिक विकास को केंद्रीय महत्व दिया।
मण्डल एक सूक्ष्म जगत का प्रतीकात्मक चित्र होता है, जिसका उपयोग तांत्रिक बौद्ध समुदाय में शक्तिचक्र, ध्यान और अनुष्ठानों के लिए किया जाता है। इसे ब्रह्मांडीय व्यवस्था, आत्मशुद्धि और आध्यात्मिक जागृति का प्रतीक माना जाता है। मंडल जटिल ज्यामितीय संरचनाओं से बना होता है, जो ब्रह्मांड और आंतरिक चेतना के बीच के गहरे संबंध को दर्शाता है।
ध्यान और अनुष्ठानों में, साधक मंडल का उपयोग एकाग्रता बढ़ाने और आत्मबोध को गहराने के लिए करते हैं। इसे देखने और चिंतन करने से चित्त स्थिर होता है, आंतरिक विक्षेप कम होते हैं, और व्यक्ति आध्यात्मिक उन्नति की ओर बढ़ता है। तांत्रिक बौद्ध परंपरा में, रेत से बने अस्थायी मंडल अनित्यता के सिद्धांत को भी दर्शाते हैं, जिन्हें अंत में विसर्जित कर दिया जाता है।
मार का सरल अर्थ है, वह “जो अंततः मृत्यु का कारण बनता है” अथवा “जो अमृत धर्म (निर्वाण) से वंचित रखता है।”
प्राचीन सुत्तों में पाँच प्रकार के मार बताए गए हैं:
मार का उद्देश्य है, सभी को इस संसार में बांधकर रखना। क्योंकि सभी यदि मुक्त होने लगे, तो वह सत्ता किस पर चलाएगा? इसलिए वह सभी सत्वों के विराग धर्ममार्ग में बाधा उत्पन्न करता है, तथा उन्हें फुसलाकर पुनः हिंसा तथा वासना के मिथ्याधर्म में प्रतिष्ठित करता है। कहते हैं कि मार का सूक्ष्म वश महाब्रह्म तक नहीं पहचान पाते। किंतु वह बुद्ध की आँखों से नहीं बच पाता। भगवान बुद्ध उस कृष्णप्रवृत्ति के मार को “कान्हा” अर्थात् काला भी पुकारते हैं।
बौद्ध साहित्य में यक्षों का उल्लेख विविध रूपों में होता है। वे चातुर्महाराजिक देवलोक के अधीन सत्व हैं, जो जम्बूद्वीप के उत्तर में स्थित “उत्तरकुरु” नामक अदृश्य क्षेत्र में निवास करते हैं, जिसकी राजधानी आलकमंदा है। उनके अधिपति “वेस्सवण” (=वैष्णव) या कुबेर हैं, जो यक्षों के महाशक्तिशाली राजा माने जाते हैं।
कुछ यक्ष मानवों के आसपास के वनों, वृक्षों, श्मशानों या निर्जन स्थलों में भी रहते हैं। वे अदृश्य सत्व होते हैं — कभी मानवीय सुलभता से भरे, तो कभी भयावह और विक्षुब्ध। उनका स्वभाव द्वैतपूर्ण होता है: कुछ यक्ष सहायक और धर्मरक्षक होते हैं, तो कुछ हिंसक और विघ्नकारी।
उनकी स्थिति कभी-कभी “देव-योनि” और “प्रेत-योनि” के बीच की मानी गई है। वे विशेष स्थानों के रक्षक माने जाते हैं, और कुछ स्थलों पर स्थानीय देवता के रूप में पूजे भी जाते हैं — लेकिन बौद्ध धम्म में यह पूजा श्रद्धा या भय से नहीं, बल्कि सम्मान और शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व के भाव से होती है।
कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि यक्ष एक “अदृश्य” भौतिक अवस्था भी होती है। जब कोई भी सत्व, चाहे वह देवराज इन्द्र हो, दूसरे भले देवता हो, या “मार”, एक विशेष अवस्था में आकर भगवान से मिलते थे, तो भगवान उन्हें “यक्ष” ही कहते हैं।
तंत्रयान बौद्ध परंपरा के “महामायूरीविद्याराज्ञी” सूत्र में यक्षों की एक विस्तृत सूची दी गई है, जो भारत के विभिन्न नगरों में निवास करते हैं और बुद्धधर्म की रक्षा करते हैं। उदाहरणस्वरूप, राजगृह में वकुल यक्ष, वैदिशा में वासव यक्ष, और अलकावती में वेस्सवण यक्ष का निवास बताया गया है। इन यक्षों को धर्मरक्षक और करुणासम्पन्न माना गया है।
लोकधर्म आठ होते हैं — लाभ-हानि, यश-अपयश, निंदा-प्रशंसा, और सुख-दुःख।
भगवान के अनुसार ये आठ लोकधर्म दुनिया के गोल-गोल घूमते हैं, और दुनिया भी इन्हीं आठ लोकधर्मों के गोल-गोल चक्कर काटती है।
अदृश्य सुमेरु पर्वत, तथाकथित तौर पर संसार के लौकिक केंद्र में स्थित एक दिव्य पर्वत है — जो चारों दिशाओं में समान रूप से फैले विशाल समुद्रों, महाद्वीपों और लोकों के बीच ऊँचा उठता है। इसे ही लोक का अक्ष कहते हैं, जिसके चारों ओर चक्रवाला सागर और जम्बूद्वीप, उत्तरकुरु, पूर्वविहान, और अप्परगोयाण जैसे महाद्वीप स्थित हैं।
सुमेरु की रचना दिव्य धातुओं, जैसे स्वर्ण, रजत, रत्न और कांचन से मानी जाती है, और इसकी चोटी पर तैतीस (तावतिंस) लोक है — जहाँ देवराज इन्द्र (सक्क) का निवास है। इससे ऊपर अंतरिक्ष में ऊपर के देवलोक हैं, और नीचे के स्तरों में चातुमहाराजिक, असुर, नाग, यक्ष, और प्रेत आदि योनियों का स्थान है।
सुमेरु संसार की संरचना को समझाने वाला प्रतीक भी है — जो यह दर्शाता है कि जीवों की अवस्थाएँ उनके कर्म और चित्त की ऊर्जाओं के अनुसार ऊँचाई या नीचाई में स्थित होती हैं। यह पर्वत उस मध्यबिंदु का रूपक है, जिसके चारों ओर संस्कारित संसार चलता है — और जहाँ से ऊपर चढ़ने का मार्ग “धर्म” है, और नीचे गिरने का कारण “तृष्णा और अज्ञान”।
गंधर्व शब्द के दो प्रमुख अर्थ हैं:
उदाहरणस्वरूप, पञ्चशिख नामक गंधब्ब पालि साहित्य में प्रसिद्ध हैं — वे वीणा बजाते और मधुर गीत गाते हुए चित्रित किए जाते हैं। इसी तरह, धतरट्ठ (धृतराष्ट्र) को गंधब्बों का अधिपति तथा पूर्व दिशा का अधिदेवता माना गया है।
वहीं दूसरी ओर, कुछ सूत्रों में यह उल्लेख मिलता है कि जब कोई ऋतुमती स्त्री पुरुष के साथ सहवास करे और उस क्षण गंधब्ब की उपस्थिति भी हो, तभी गर्भधारण संभव होता है — अन्यथा नहीं। इस सन्दर्भ में ‘गंधब्ब’ जन्म-जागृति की उस सूक्ष्म मध्यावस्था को भी सूचित करता है, जो जीवन के एक लोक से दूसरे लोक में जाने के बीच होती है।
देव का अर्थ है — ऐसे दीप्तिमान सत्व, जो पुण्य के फलस्वरूप सामान्य मनुष्यों से कहीं अधिक आयु, सुख और सामर्थ्य से युक्त होते हैं। यह कोई परम स्थिति नहीं, बल्कि एक दिव्य, परंतु अस्थायी अवस्था है — जैसे यक्ष, तावतिंस, तुषित, ब्रह्मा आदि लोक के देवता।
बुद्ध ने कहा: जो व्यक्ति श्रद्धा, शील, दान और ध्यान में कुशल होता है, वह मरणोपरांत देवयोनि को प्राप्त कर सकता है — किन्तु यह निर्वाण नहीं। देवता भी अनित्य हैं, और उनके चित्त में भोग और अशुद्धि के अंश शेष बचे रहते हैं। इसलिए बुद्ध ने देव-स्थिति को स्वीकार किया, पर उससे वैराग्य की प्रेरणा दी।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा दिए गए २२ प्रतिज्ञाओं में एक है कि — “मैं हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा नहीं करूँगा।” कुछ नवबौद्ध लोग इस प्रतिज्ञा को इस रूप में लेते हैं कि जैसे देवता होते ही नहीं हैं, सब अंधविश्वास है। लेकिन यह दृष्टिकोण स्वयं बाबासाहब की मूल भावना से मेल नहीं खाता। उनकी प्रतिज्ञा हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तिपूजा और कर्मकांड पर आधारित भक्ति की अस्वीकृति थी, न कि बौद्ध परंपरा में उल्लेखित देवों के अस्तित्व को ही नकार देना।
यदि किसी नेत्रवान ने कुएँ का गंदा पानी न पीने की सलाह दी है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि पानी पीना ही छोड़ देना चाहिए — बल्कि शुद्ध जलस्रोत ढूँढना चाहिए। समझें कि यहाँ देवों के “अस्तित्व” का नकार नहीं, “विकृति” का है।
बौद्ध धर्म में देवता और मनुष्य दोनों त्रिरत्नों की शरण जाते हैं। इसलिए पुजा और उपासना के विषय न देव हैं, न ही मनुष्य — बल्कि धर्म का अभ्यास है, जिससे दैवत्व तो क्या, निर्वाण की राह खुलती है।
याद रखें कि देवों और स्वर्ग को नकारना न बुद्ध-वाणी है, न आंबेडकर-विचार। यह विचार मूल बौद्ध धम्म और आंबेडकर-मत दोनों के ही साथ अन्याय है।