नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

भगवा | तथागत | सम्मा-सम्बुद्ध | धम्म | निब्बान | अरिय | संयोजन | सोतापन्न | सकदागामी | अनागामी | अरहंत | समण | ब्राह्मण | भिक्खु

बौद्ध शब्दावली

भगवान बुद्ध ने सिखाया कि धर्म को उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत करना चाहिए — झूठी प्रशंसा या अलंकरण की कोई ज़रूरत नहीं। धर्म का उद्देश्य है दुःख से मुक्ति, न कि उसे काव्यात्मक या आकर्षक बनाकर प्रशंसा बटोरना। यदि कोई धर्म की झूठी निंदा या तारीफ करता है, तो साफ़ और सीधे बता देना चाहिए — ‘इस धर्म में ऐसा नहीं है।’

बुद्ध के परिनिर्वाण के लगभग एक हजार वर्षों बाद, कुछ भाषाविद भिक्षुओं ने धर्म-विनय के अनेक पहलुओं को जटिल और गूढ़ बनाते हुए उसे एक नया रूप दे दिया। जिन मुद्दों पर बुद्ध मौन रहे थे, उन्हें तर्कों और नई धारणाओं से भरने का प्रयास किया। इसने लोगों को धर्म की सहज स्पष्टता से दूर कर दिया और मुक्ति के मूल उद्देश्य से भटकाव पैदा किया। ऐसे प्रयासों ने धर्म को विशेष और श्रेष्ठ दिखाने के चक्कर में साधकों को मिथ्या दृष्टियों में उलझा दिया।

यह भी समझना ज़रूरी है कि यह धर्म किसी अन्य धर्म के साथ प्रतिस्पर्धा में नहीं है — न तो सुंदरता, गहराई, या विशिष्टता के मामले में। इसकी वास्तविक प्रतिस्पर्धा अज्ञानता से है। धर्म का उद्देश्य मुक्ति का मार्ग दिखाना है, न कि दूसरों से श्रेष्ठता सिद्ध करना। धर्म की वास्तविक सुंदरता उसकी सादगी और स्पष्टता में है। हमारा प्रयास है कि धर्म को ठीक उसी रूप में प्रस्तुत किया जाए — भले ही वह गहरा लगे या सतही, लेकिन सटीक और सच्चा हो।

भगवा / भगवान

‘भगवा’ का अर्थ है ‘धन्य’, ‘पवित्र’, और ‘पूजनीय’। यह शब्द उस व्यक्ति के लिए प्रयोग होता था, जो किसी धर्म-समुदाय में सबसे अधिक पूजनीय हो। पालि शब्द ‘भग’ का संबंध ‘भाग्य’ और ‘भाग’ से भी है, जिससे ‘भगवा’ का एक अर्थ ‘भाग्यवान’ या ‘सौभाग्यशाली’ भी निकलता है—वह व्यक्ति जो अपने महान कर्मों के कारण भाग्यशाली हुआ हो।

एक अन्य दृष्टिकोण से, ‘भाग’ का अर्थ है ‘विभाजन’ या ‘साझा करने वाला’, जिससे ‘स्वामी’, ‘प्रभु’, या ‘मालिक’ का भी बोध होता है। इसे अंग्रेजी में ‘Lord’ कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि ऐसा धर्म-संपन्न व्यक्ति, जिसने करुणावश अपने धर्म का जनता में विभाजन और वितरण किया हो, वही ‘भगवा’ कहलाता है। इस तरह, उसकी उदारता और ज्ञान से जनता भी धन्य और धर्म-संपन्न हुई।

सैकड़ों वर्षों बाद, कुछ भाषाविद भिक्षुओं ने ‘भगवा’ शब्द की व्याख्या में बदलाव किया। उन्होंने इसे काव्यात्मक रूप में परिभाषित करते हुए ‘भग’ को ‘भग्ग’ से जोड़ा, और कहा कि ‘जो व्यक्ति अपने भीतर के राग, द्वेष, और मोह को भग्न करता (तोड़ देता) है, वही ‘भगवान’ है।’ हालांकि, यह व्याख्या संदिग्ध और अतिशयोक्तिपूर्ण लगती है, क्योंकि प्राचीन बौद्ध साहित्य में इस तरह की परिभाषा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। अगर यह परिभाषा मान्य होती, तो ‘भगवान’ शब्द अर्हत शिष्यों के लिए भी इस्तेमाल किया जाता।

वास्तव में, ‘भगवान’ शब्द का उपयोग बुद्ध से पहले भी होता आ रहा था। श्रमण परंपरा में जैन गुरु महावीर और अन्य समकालीन गुरुओं के लिए, ब्राह्मण परंपरा में ब्रह्मा और देवताओं के लिए, और बाद में विष्णु के अवतारों के लिए भी यह शब्द प्रयोग किया गया। हाल ही में, ओशो और नेपाली गुरु धर्म संघ जैसे आध्यात्मिक गुरुओं के लिए भी ‘भगवान’ शब्द का प्रयोग हुआ है।

तथागत

तथागत का अर्थ है “जो वास्तविकता पर आ गया” (तथ+आगत) या “जो वास्तव में पार चला गया” (तथा+गत)। यह शब्द बुद्ध द्वारा नहीं गढ़ा गया था; यह पहले से प्रचलित था। उस समय के लोग इसे ऐसे दुर्लभ व्यक्ति के लिए प्रयोग करते थे, जिसने इसी जीवन में सर्वोच्च आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त कर लिया हो और जिसके लिए कोई अगली मंजिल न बची हो।

बुद्ध ने अक्सर इस शब्द का प्रयोग अपने लिए किया। हालाँकि, बौद्ध परंपरा में यह शब्द विशेष रूप से बुद्ध के लिए ही प्रयुक्त होता है। फिर भी, भगवान कभी-कभी ‘तथागत’ शब्द को अपने अन्य अरहंत शिष्यों के लिए भी इस्तेमाल करते थे।

सम्मा-सम्बुद्ध

हालांकि प्राचीन बौद्ध साहित्य में ‘संबोधि’ का एक ही प्रकार माना जाता था। भगवान ने कई सूत्रों में स्पष्ट किया है कि उनके शिष्यों की बोधि और उनकी बोधि में कोई अंतर नहीं है। उन्होंने केवल प्रथम चार आर्यसत्य की खोज कर संबोधि पहले प्राप्त की और धर्मचक्र प्रवर्तन कर उस मार्ग को प्रदर्शित किया, इसलिए उन्हें ‘सम्मा-सम्बुद्ध’ कहा जाता है। ‘सम्मा’ का अर्थ है सम्यक, सही, सटीक, यथायोग्य, और ‘सम्बुद्ध’ का अर्थ है जिसे संबोधि प्राप्त हो। कई प्राचीन सूत्रों में यह उल्लेख मिलता है कि यह शब्द पहले से प्रचलित था, हालांकि किसी भी श्रमण-ब्राह्मण ने इसे अपने लिए नहीं अपनाया था। सिद्धार्थ गौतम पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस शब्द का प्रयोग किया।

लेकिन सैकड़ों वर्षों बाद, महायान अवधारणाओं के उदय के साथ, संबोधि की तीन संकल्पनाएं प्रचलित हुईं — सम्मा-संबोधि, प्रत्येक-बोधि, और श्रावक-बोधि। कहा गया कि प्रत्येक-बोधि ‘प्रत्येक-बुद्ध’ को, और श्रावक-बोधि बुद्ध के शिष्य को मिलती है। प्रत्येक बुद्ध वह होता है, जो स्वयं से चार आर्य सत्य को खोजता है, लेकिन संघ का निर्माण नहीं करता। इन तीनों में पारमिताओं का अंतर बताया गया, जबकि इसका प्राचीन सूत्रों में कोई उल्लेख नहीं मिलता।

धम्म / धर्म

पालि ‘धम्म’ या हिंदी ‘धर्म’ के अनेक संदर्भ और अर्थ हैं, जैसे विश्वव्यापी सत्य, अस्तित्व की वास्तविकता, विधि का विधान, सृष्टि का न्याय, आध्यात्मिक मार्ग, प्रवचन, मन का स्वभाव, गुण या घटना, चित्त की प्रवृत्ति, चैतन्य का झुकाव, दार्शनिक सिद्धांत, जीवन के उसूल, जीने की कला, आदर्श नैतिकता, और आचार-सदाचार।

बुद्ध ने अपनी मुक्ति की सच्चाई को ‘धर्म’ कहा। उन्होंने देव-मानवों को मार्ग दिखाने और सिद्धांत सिखाने को भी ‘धर्म’ का नाम दिया। किसी व्यक्ति के गुण, स्वभाव, और वृत्ति को भी ‘धर्म’ कहा गया, और उसके मन में प्रकट होने वाली बातों को भी इसी नाम से संबोधित किया गया। किसी अन्य गुरु की सीख और मार्ग को भी ‘धर्म’ माना गया।

निब्बान / निर्वाण

अग्नि को जलते रहने के लिए ईंधन या आधार की जरूरत होती है। वह न प्राप्त हो तो अग्नि बुझ जाती या ‘निवृत’ होती है। उसी तरह, किसी सत्व को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए पाँच उपादान-स्कन्ध की जरूरत होती है। यदि सर्वस्व उपादान या आधार छूट जाए तो चित्त मुक्त हो जाता है, और इस बुझने की निर्वाणिक अवस्था का साक्षात्कार करता है। वहाँ बेहोशी नहीं होती, बल्कि इंद्रियों से परे परमसुखद ‘नित्य’ का अनुभव होता है।

जिस तरह ईंधन का आधार लेकर कोई ज्वलन प्रक्रिया कष्टदायक, तनावपूर्ण और व्याकुलता से भरी होती है। उसी तरह, पाँच उपादान-स्कंधों का आधार लेकर कोई अस्तित्व प्रक्रिया पीड़ादायक, तनावपूर्ण और व्याकुलता से भरी होती है। भव-प्रक्रिया में लिप्त चित्त को भीतर ही भीतर लगातार पीड़ा, तनाव और ज्वलन महसूस होती है। अथवा वह ईंधन-रूपी आधार छोड़ देने पर अभूतपूर्व शान्ति, राहत और शीतलता महसूस होती है, और साथ ही, समस्त पीड़ा, तनाव और ज्वलन से मुक्ति होती है।

अरिय / आर्य

इस शब्द का बौद्ध परंपरा में अर्थ हैं “श्रेष्ठ!” अर्थात, ऐसी बात — जो साधारण न हो, जनसामान्य की श्रेणी में न आए। बल्कि जो ख़ास हो, विशिष्ट हो, भिन्न हो। जो ऊँची श्रेणी की हो, अगले स्तर की हो। जो सभ्य हो, भद्र हो, महान हो। जिसके मानक, जिसकी गरिमा और प्रतिष्ठा बहुत ऊँची हो। जो सभी के लिए आदर्शपूर्ण हो, सम्मान और आदर के पात्र हो।

उदाहरण के तौर पर, बुद्ध ने ‘आर्य’ शब्द को अपने चार सत्य के साथ जोड़ा। क्योंकि दुनिया के अनेक सत्य हैं, किन्तु कोई सत्य ऐसा नहीं हैं जिसे जानते ही जन्मों-जन्मों के दुःख खत्म होना शुरू हो जाएँ। जिसका साक्षात्कार होते ही परममुक्ति मिल जाएँ। बल्कि वे चार ही ऐसे सत्य हैं, जिनमें जन्म-मरण की शृंखला तोड़कर तत्काल अमृत चखाने की क्षमता हैं। इसलिए उन्हें साधारण श्रेणी के ‘सत्य’ कहना उचित नहीं हैं, बल्कि ‘आर्य सत्य’ कहना योग्य हैं।

इसी तरह, बुद्ध ने ‘आर्य’ शब्द को संघ के साथ जोड़ा। क्योंकि दुनिया में अनेक संघ हैं, किन्तु कोई संघ ऐसा नहीं हैं, जिनमें दुनिया के श्रेष्ठतम आठ प्रकार के आर्य व्यक्ति मिलते हो — श्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी, अरहंत, और इनके चार मार्गगामी। इसी तरह, बुद्ध ने आर्य विशेषण को कई ख़ास जगह उपयोग किया हैं।

किन्तु यह शब्द वंशवाद से जुड़ने के कारण विवादास्पद हो गया है। कुछ लोग इसका अर्थ निकालते हैं, ऐसा व्यक्ति, जो असाधारण तरह से रूपवान दिखता हो, जिसकी ऊँची कदकाठी हो, गोरी त्वचा हो, नीली आँखें हो, सीधी नाक हो। जैसे, जब भारतीय उपमहाद्वीप में उत्तर-पश्चिमी दिशा से लोग आने लगे, तो वे स्थानीय लोगों की तुलना में भिन्न दिखते थे, और उनके तौर-तरीके भी भिन्न थे। वे स्वयं को आर्य कहते थे, जबकि स्थानीय लोगों को अनार्य (=असभ्य)।

पिछली शताब्दी में एडोल्फ हिटलर ने इसी शब्द का प्रयोग कर जर्मनी की सत्ता छीनी, दुनिया पर राज करने की मंशा से विश्वयुद्ध छेड़ा और लाखों लोग मारे गए। जाहिर हैं, आज इस शब्द का प्रयोग होते ही जानकार लोगों के शरीर में सिरहन दौड़ती हैं।

संयोजन / बेड़ी

ऐसी बेड़ियाँ, जो किसी को जन्म-मरण की अनन्त भटकन (=संसरण) में बाँधती हैं। कुल दस बेड़ियाँ बतायी गयी हैं — (१) आत्मीयता धारणा (२) उलझन (३) कर्मकाण्ड और व्रत में अटकना (४) कामेच्छा (५) दुर्भावना (६) भौतिक-रूपता में दिलचस्पी (७) अरूपता में दिलचस्पी (८) अहंभाव, (९) बेचैनी (१०) अविद्या

पहली तीन बेड़ियाँ तोड़ने वाले को ‘सोतापन्न’ कहते हैं, चौथी और पाँचवी बेड़ी को दुर्बल करने वाले को ‘सकदागामी’, पहली पाँच बेड़ियाँ तोड़ने वाले को ‘अनागामी’, और सभी दस बेड़ियाँ तोड़ने वाले को ‘अरहंत’।

सोतापन्न / श्रोतापति

अर्थात, जो धर्म के श्रोत (=धारा) में पड़ गया। अब जिसे धर्म की धारा बहाते हुए परममुक्ति निर्वाण तक ले जाएगी। धर्म की धारा ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ को कहते हैं। इसलिए उसे आर्य अष्टांगिक मार्ग से सम्पन्न कहा जाता है। दस में से तीन बेड़ियाँ — आत्मीयता धारणा, उलझन, और कर्मकाण्ड और व्रत में अटकाव — तोड़ने पर सोतापन्न फल मिलता हैं। यह आर्य-अवस्था प्राप्त होते ही, व्यक्ति हमेशा के लिए दुर्गति (नर्क, प्रेतलोक या पशुयोनि) से छूट जाता है।

सोतापन्न के प्रमुख लक्षण होते हैं। उसकी बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति अटूट आस्था होती है, महादानी होता है, और अंतर्ज्ञानी होता है। सूत्रों के अनुसार, उसका शील-स्कन्ध परिपूर्ण होता है। अर्थात, यदि वह गृहस्थ हो तो उसके पाँच शील अटूट होते हैं, भिक्षु हो तो भिक्षुओं के प्रमुख पातिमोक्ख शील अटूट होते हैं।

तीन तरह के सोतापन्न होते हैं — (१) सत्तक्खत्तु परम, जो देव या मानवलोक में अधिक से अधिक सात बार जन्म लेकर जन्म-मरण की शृंखला तोड़ता है। (२) कोलङ्गकोल, जो ऊँचे कुलीन परिवारों में दो या तीन बार जन्म लेकर अपने दुःखों का अन्त करता है। (३) एक बीजी, जो केवल एक बार और मानवलोक में जन्म लेकर संसार से मुक्त हो जाता है।

सकदागामी / सकृदागामी

अर्थात, जो केवल एक बार और इस लोक में जन्म लेता है, और अपने दुःखों का अन्त करता है! अर्थात, जो अपने अगले जन्म में निश्चित परिनिर्वाण को प्राप्त करता है। वह दस में से पहली तीन बेड़ियाँ तोड़ता है। साथ ही, कामेच्छा और दुर्भावना को दुर्बल बनाता है, अर्थात, उनको स्थूल से सूक्ष्म बनाता है। अर्थात, उसे क्रोध और कामुकता उतनी तीव्रता से नहीं जागती है, जितनी किसी साधारण मानव को जागे।

अनागामी

अर्थात, जो इस लोक में पुनः लौटता नहीं है! बल्कि इस लोक से शरीर त्यागने पर सबसे ऊँचे शुद्धवास ब्रह्मलोक में सचेत प्रकट होता है, और वही अंतिम अरहंत अवस्था प्राप्त कर परिनिवृत होता है। वह पहली पाँच बेड़ियाँ — आत्मीयता धारणा, उलझन, कर्मकाण्ड और व्रत में अटकाव, कामेच्छा, और दुर्भावना — मानवलोक में तोड़ देता हैं, और अगली पाँच ब्रह्मलोक में तोड़ता है।

उसका समाधि-स्कन्ध परिपूर्ण होता है। अर्थात, वह चार ध्यान को बड़ी आसानी से प्राप्त कर सकता है। सम्यक-समाधि के उसकी निपुणता होती है।

अरहंत

अरहंत का शाब्दिक अर्थ है, काबिल व्यक्ति। अर्थात, जो दसों बेड़ियाँ यही इसी लोक में तोड़ देता है, उसे वाकई काबिल या अरहंत माना जाता हैं। ऐसे व्यक्ति के सभी दुःखों का अन्त हो जाता है, और वह जन्म-मरण के भटकन से आज़ाद हो जाता है।

उसका प्रज्ञा-स्कन्ध परिपूर्ण हो जाता है। और वह, दस धर्मों से परिपूर्ण होता है — आर्य अष्टांगिक मार्ग के आठ अंग, जैसे सम्यक-दृष्टि… सम्यक-समाधि, सम्यक-विमुक्ति, और सम्यक-ज्ञान।

समण / श्रमण

श्रमण का व्यावहारिक अर्थ है साधु या संन्यासी। ऐसे लोग जिन्होंने ब्राह्मणी नीतियों, चतुर्वर्ण की सामाजिक-रचना, और सांस्कृतिक पहचान को त्याग दिया है, और जो किसी भिन्न मार्ग पर चल रहे हैं। चूँकि ‘समण’ शब्द सम से बनता है, यह स्पष्ट है कि वे लोग ब्राह्मणी मार्ग को ‘विषम’ मानते होंगे। विषम का अर्थ है कि जैसे कोई स्थान या रास्ता दुर्गम और ऊबड़-खाबड़ हो, तो ऐसे विषम मार्ग पर चलने या रहने वाले को कष्ट होता है। उदाहरण के लिए, जब कोई गाड़ी सम नहीं चलकर इधर-उधर टकराते और हिचकोले खाते चलती है, तो सवार को भी कष्ट होता है। इसी तरह, जब कोई व्यक्ति समचर्या, समबर्ताव और समआचरण नहीं करता, तो समाज को भी कष्ट होता है, जिसके कई घटकों पर अन्याय होता है और विपरीत परिणाम सामने आते हैं।

श्रामण्यता का अर्थ है जीवन को संतुलित और सामंजस्यपूर्ण बनाना। बुद्ध ने अपने पुत्र राहुल को बताया कि झूठ बोलने से जीवन की श्रामण्यता नष्ट होती है। इसका अर्थ है कि व्यक्ति का आंतरिक संतुलन और समता बिगड़ने के साथ-साथ बाहरी समंजस्य और स्पष्टता भी खत्म हो जाती है। उदाहरण के लिए, एक साज़िंदे को लें; जब वह अपने वाद्य यंत्र को सही सुर में लाने के लिए ट्यून करता है, तो वह वाद्य के आंतरिक संतुलन के साथ बाहरी श्रोताओं के साथ भी मधुर संतुलन बनाता है। इसी तरह, श्रमण अपने कर्मों को सृष्टि के नियमों के अनुसार ढालता है, जिससे उसकी भीतरी और बाहरी जीवनधारा में शांति, स्थिरता, मधुरता, संतुलन और समंजस्यता स्थापित होती है। इस प्रकार, श्रमण का जीवन केवल उसके व्यक्तिगत विकास को ही नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता को भी बढ़ावा देता है।

भगवान बुद्ध के समय में भारत में कई प्रमुख श्रमण परंपराएँ विद्यमान थीं, जो ब्राह्मण धर्म और वेदों से अलग एक स्वतंत्र दृष्टिकोण प्रस्तुत करती थीं। इन परंपराओं का मुख्य उद्देश्य आत्ममुक्ति की खोज करना था, और ये पारंपरिक ब्राह्मणवादी कर्मकांडों या वेदों पर आधारित धर्म के प्रति संदेह रखते थे। श्रमणों ने सत्य की खोज में संन्यास, तपस्या, और व्यक्तिगत अनुभव को प्रमुख मानते हुए धर्म को धार्मिक अनुष्ठानों के बजाय व्यक्तिगत अंतर्दृष्टि में देखा।

श्रमण परंपराएँ बौद्धिक और दार्शनिक रूप से अत्यंत प्रगतिशील थीं, जिन्होंने निष्पक्षता और तर्क पर आधारित नए सिद्धांत विकसित किए। इन परंपराओं ने वेदों की संप्रभुता और ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती दी, यज्ञ और हवन जैसे कर्मकांडों के बजाय आत्मा की शुद्धि और ज्ञान की ओर ध्यान केंद्रित किया। उनका यह साहसिक दृष्टिकोण तत्कालीन भारत के धार्मिक और बौद्धिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित कर रहा था, जहाँ वे व्यक्तिगत सत्य को सर्वोच्च मानते थे। इस प्रकार, श्रमण परंपराओं ने भारत के समाज और दर्शन में एक गहरा बदलाव लाने की शुरुआत की, जो बुद्ध के समय में और भी सशक्त रूप से उभरा। यहाँ कुछ प्रमुख श्रमण परंपराओं का उल्लेख है:

१. जैन (निगंठ): जैन श्रमण परंपरा उस समय की प्रमुख परंपराओं में से एक थी। भगवान महावीर, जो जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर माने जाते हैं, इस परंपरा के संस्थापक थे। जैन धर्म अहिंसा और कठोर तपस्या पर बल देता था, जिसमें उपवास, आत्मपीड़ा और आत्मसंयम की कठोर साधनाएँ शामिल थीं।

२. आजीवक: आजीवक परंपरा का नेतृत्व मक्खलि गोसाल कर रहे थे। आजीवकों का विश्वास नियतिवाद (नियति) पर आधारित था, जिसमें यह कहा गया था कि जीवन की हर घटना पूर्व-निर्धारित है और मनुष्य के पास अपने कर्मों का कोई नियंत्रण नहीं है।

३. लोकायत: लोकायत या चार्वाक परंपरा भोगवादी और नास्तिक थी। इस परंपरा ने पुनर्जन्म, कर्म, और आत्मा के अस्तित्व को नकारा। उनका मानना था कि भौतिक जगत ही एकमात्र वास्तविकता है और जीवन का मुख्य उद्देश्य इंद्रिय-सुख की प्राप्ति है।

४. अज्ञेयवाद: अज्ञेय संप्रदाय के लोग संशयवादी या अज्ञेयवादी थे, जो किसी भी ज्ञान के दावे को अस्वीकार करते थे। संजय बेलट्ठिपुत्त इस परंपरा के प्रमुख प्रतिनिधि थे। वे किसी भी दार्शनिक या धार्मिक प्रश्न पर निश्चित उत्तर देने से इनकार करते थे, और कहते थे कि कुछ भी निश्चित रूप से नहीं जाना जा सकता।

५. पूरण कश्यप का संप्रदाय: पूरण कश्यप ने नैतिकता और कर्म के सिद्धांत को नकारा। उनका मानना था कि अच्छे या बुरे कर्मों का कोई नैतिक परिणाम नहीं होता (अक्रियावाद)।

६. पकुध कच्चायन का संप्रदाय: पकुध कच्चायन ने सात शाश्वत तत्वों की धारणा प्रस्तुत की, जिनमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सुख, दुःख और जीवन शामिल थे। उनका मानना था कि ये तत्व शाश्वत और अटल हैं, और इनके बीच कोई वास्तविक अंतःक्रिया नहीं होती। उन्होंने नैतिकता और आचार के महत्व को भी खारिज कर दिया।

७. बौद्ध धर्म: स्वयं बुद्ध, जिन्हें ‘महाश्रमण’ कहा जाता था, ने एक श्रमण परंपरा का नेतृत्व किया, जिसने अतितपस्या और इंद्रिय-सुख की अति के बीच एक मध्यम मार्ग प्रस्तुत किया। बौद्ध धर्म का केंद्रबिंदु चार आर्य सत्य और आर्य अष्टांगिक मार्ग है, जो व्यक्ति को निर्वाण की ओर ले जाता है।

भगवान बुद्ध के पश्चात भी अनेक श्रमण परंपराएँ चलती रहीं। इन परंपराओं ने भारतीय बौद्धिक और आध्यात्मिक जीवन पर गहरा प्रभाव डाला —

१. कबीरपंथ: कबीर ने वेदों और कुरान दोनों की आलोचना की और धार्मिक कर्मकांडों का विरोध करते हुए एक सीधा, व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण का मार्ग बताया। उन्होंने ज्ञान, भक्ति और समता का संदेश दिया और जाति-पाति, धार्मिक आडंबर और सामाजिक असमानता की कड़ी आलोचना की।

२. सिख धर्म: गुरु नानक ने भी ब्राह्मणवादी कर्मकांडों और सामाजिक बंधनों का विरोध किया। उन्होंने एक निराकार ईश्वर के प्रति भक्ति और साधारण जीवन में सत्य, सेवा, और समानता के सिद्धांतों पर जोर दिया। सिख धर्म व्यक्तिगत आध्यात्मिकता और सामाजिक सेवा के संयुक्त मार्ग पर आधारित है, जो श्रमण परंपराओं की स्वतंत्रता और तर्कशीलता के तत्वों से प्रभावित है।

३. सूफीवाद: सूफी संत, इस्लाम के भीतर एक आध्यात्मिक आंदोलन का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो बाहरी धार्मिक नियमों से अधिक आंतरिक प्रेम, अनुभव, और भक्ति पर जोर देते हैं। सूफियों ने समाज में एकता और प्रेम का संदेश फैलाया, और धार्मिक सीमाओं को तोड़ते हुए ईश्वर के साथ सीधे अनुभव के महत्व को बताया। भारत में सूफी संतों, जैसे कि निज़ामुद्दीन औलिया और मुईनुद्दीन चिश्ती, ने आध्यात्मिक प्रेम और भक्ति का व्यापक प्रभाव छोड़ा।

४. संत परंपरा (रैदास, तुलसीदास, मीराबाई): संत परंपरा में कई कवि-संत हुए जिन्होंने भक्ति, सामाजिक समानता, और धर्म के आडंबर से परे एक सरल और व्यक्तिगत ईश्वरभक्ति की ओर लोगों को प्रेरित किया। इनमें भी कर्मकांडों और जातिगत बंधनों का विरोध दिखता है।

५. नाथपंथ (गोरखनाथ): नाथ संप्रदाय हठयोग और ध्यान के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का रास्ता दिखाता है। इसका श्रेय गोरखनाथ को दिया जाता है, जिन्होंने श्रमण परंपराओं की धारा को आगे बढ़ाया और तपस्या और ध्यान के जरिए मुक्ति की खोज को प्रमुख रूप से रखा।

६. ओशो: ओशो रजनीश एक आधुनिक गुरु और दार्शनिक थे, जिनका जीवन विवादों से घिरा रहा। उन्होंने पारंपरिक धार्मिक आडंबरों को चुनौती देते हुए व्यक्तिवाद को प्राथमिकता दी और विवादास्पद ध्यान की तकनीकों के माध्यम से लोगों को अपनी आंतरिक स्थिति को समझने में मदद की।

इन सभी परंपराओं में हम देखते हैं कि वे पारंपरिक धर्म के कर्मकांडों को अस्वीकार करते हुए एक नया, व्यक्तिगत और अनुभववादी आध्यात्मिक मार्ग अपनाते हैं।

ब्राह्मण

ब्राह्मण का सरल अर्थ है, जो ब्रह्म से सुर मिलाकर, सामंजस्यता बिठाकर उसी के नियमों से चलता है। ब्राह्मण परंपरा वेदों और शास्त्रों पर आधारित थी, जिसमें ब्राह्मण मुख्यतः यज्ञ, अनुष्ठान और धार्मिक रीति-रिवाजों में विश्वास करते थे। वेदों का अध्ययन करना ब्राह्मणों का मुख्य उद्देश्य था, जो उन्हें समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करता था। धार्मिक समारोहों में उनकी प्रधान भूमिका होती थी, और उनका जीवन वैदिक सिद्धांतों और सामाजिक नियमों के अनुसार संचालित होता था। जाति, चतुर्वर्ण व्यवस्था और परंपराओं का पालन उनके लिए अनिवार्य था, जिससे सामाजिक स्थिरता और धार्मिक अनुशासन को बनाए रखने में सहायता मिलती थी। हालांकि, ब्राह्मण वादी लोग अक्सर वेदों की सीमित चौखट में रहकर पक्षपाती ढंग से उनका बचाव करते थे, और उन पर प्रश्नचिन्ह उठाने वालों को अक्सर बदनाम करते थे। जिससे यह स्पष्ट होता था कि उनका दृष्टिकोण धार्मिक के बजाय सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनाओं के प्रति अधिक समर्पित था।

विशेषज्ञों का कहना है कि पालि में ‘ब्राह्मण’ शब्द संस्कृतिकरण के प्रभाव से आया है। मूल शब्द वास्तव में बामन होना चाहिए, जो प्राकृत या शुरुआती लोकभाषाओं में प्रयोग होता था। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के दौरान कई स्थानों पर भाषाई परिवर्तन हुए, जिनमें को में परिवर्तित करना प्रमुख है। इस परिवर्तन का उद्देश्य भाषा को अधिक शास्त्रीय और संस्कृत के निकट बनाना था, ताकि धर्म और परंपराओं का प्राचीनतम रूप से संबंध दिखाया जा सके।

वेदों ने कर्म का सिद्धांत प्रस्तुत किया, लेकिन उसका महत्व सीमित और वर्णन में अर्थहीन था। वे कहते थे कि उचित कर्म मरणोपरांत अगले जीवन में सुख देते हैं, लेकिन ये उचित कर्म केवल वेद-मान्य कर्मकांड थे, जैसे यज्ञ, हवन, और बलि। केवल ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा दी जाती थी और उनसे ही कर्मकांड कराए जाते थे। उनके अनुसार, कर्मकांड सही ढंग से करना अत्यावश्यक था, जिसके लिए विशेष मैनुअल और मंत्र बनाए गए थे। इस प्रकार, ब्राह्मणों के कर्म सिद्धांत का अर्थ केवल सामाजिक स्तर पर की गई शारीरिक क्रियाओं तक सीमित था।

बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध ने ‘ब्राह्मण’ शब्द का पुनर्परिभाषा की, जिसमें उन्होंने आंतरिक शुद्धता, नैतिकता और आत्म-ज्ञान को प्राथमिकता दी। बुद्ध ने यह बताया कि केवल जन्म के आधार पर ब्राह्मण होना पर्याप्त नहीं है; बल्कि सच्चे ब्राह्मण वे हैं, जो अपने कार्यों और विचारों से शुद्धता प्राप्त करते हैं। इस दृष्टिकोण ने ब्राह्मण परंपरा को चुनौती दी और व्यक्तिगत आचार-विचार को महत्वपूर्ण माना, जिससे एक नए आध्यात्मिक विमर्श की शुरुआत हुई। बुद्ध के इस विचार ने समाज में ब्राह्मणों की पारंपरिक छवि को फिर से परिभाषित किया और आत्मिक विकास को केंद्रीय महत्व दिया।

भिक्खु / भिक्षु

भिक्षु का परंपरागत अर्थ है, जो भिक्षा मांगकर जीवन यापन करता है। इस अर्थ को गहराई से समझने के लिए हमें कुछ अन्य शब्दों पर ध्यान देना होगा। प्रवज्जा का अर्थ है, घर से बेघर होकर संन्यास लेना। प्रवज्जित वह व्यक्ति होता है, जिसने अपने परिवार, संपत्ति, व्यवसाय, कामभोगी जीवन, सांसारिक ध्येय और संसरण का त्याग कर बौद्ध धर्म के अनुसार संन्यास लिया हो; ऐसे व्यक्ति को श्रामणेर कहा जाता है। बौद्ध धर्म में प्रवज्जा प्राप्त करने के लिए न्यूनतम ७ वर्ष की उम्र होना आवश्यक है। प्रवज्जित व्यक्ति को त्रिशरण के साथ दस शीलों को धारण करना होता है।

यदि कोई व्यक्ति संघ में भिक्षु बनना चाहता है, तो उसकी कई पूर्व-आवश्यकताएँ होती हैं, जैसे न्यूनतम और अधिकतम उम्र, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, और उसके पूर्व कर्म (जैसे हत्या, कर्ज, या राजसेवा) आदि। यदि ये सभी आवश्यकताएँ पूरी होती हैं, तो भिक्षुसंघ मिलकर उसकी उपसंपदा करता है, और तभी उसे भिक्षु के रूप में मान्यता दी जाती है।

भगवान ने किसी को भिक्षु बनाने से पहले कई शर्तें बताई हैं। यदि इनमें से कोई भी शर्त पूरी न हो, तो उसे भिक्षु उपसंपदा नहीं दी जा सकती। विशेषकर, उसे पातिमोक्ष के २२७ प्रमुख नियमों के अलावा कई छोटे-बड़े नियमों का पालन करना होता है, जिन्हें भगवान बुद्ध ने स्थापित किया है। यदि वह चार बड़े अपराध करता है, तो उसे भिक्षु-जीवन से निकाल दिया जाता है, और उसे फिर कभी भिक्षु नहीं बनाया जा सकता।

अट्ठकथा में बुद्धघोष भंते उदारता से बताते हैं कि चूँकि सतिपट्ठान की साधना कोई भी कर सकता है, इसलिए जब भगवान ने इस विशेष सूत्र को भिक्षुओं के लिए संबोधित किया, तो इसकी परिभाषा में सामान्य साधक को भी शामिल किया जा सकता है। इस विवादास्पद परिभाषा का विरोध भी हुआ और दुरुपयोग भी।

भगवान के समय अनेक गृहस्थ साधक अनागामी थे। उदाहरण के तौर पर, चित्त गहपति नामक गृहस्थ, जो समाधि-स्कन्ध में परिपूर्ण होकर भिक्षुओं के प्रश्नों को सुलझाते थे। लेकिन वे अनागामी गृहस्थ भी स्वयं को भिक्षु नहीं मानते थे, या स्वयं को भिक्षु से श्रेष्ठ नहीं मानते थे। दूसरी ओर, आजकल के कुछ गृहस्थ जो ध्यानसाधना करते हैं, वे अब केवल स्वयं को भिक्षु ही नहीं मानते, बल्कि साधारण भिक्षुओं से भी श्रेष्ठ समझते हैं। साधना का वास्तविक उद्देश्य अंतर्दृष्टि को बढ़ाना है, न कि अहंकार।