जब कोई भगवान बुद्ध को, उनके धर्म रास्ते को, और उनके रास्ते पर चल रहें शिष्यों के प्रति आस्था जगाता है, और उन्हें अपने मुख्य मार्गदर्शक के रूप में अपनाने का संकल्प लेता है, तो उसे शरण जाना कहते हैं। लेकिन ऐसे संकल्प को “शरण” क्यों कहते हैं? इसे जानने के लिए इतिहास से नज़र दौड़ानी होगी।
प्राचीन भारत में, खतरे में पड़े लोग किसी स्वामी या रक्षक की शरण लेते थे, और उसके प्रति उपकार और निष्ठा भाव व्यक्त करते थे। ज़ाहिर है कि उन्हें उसके बदले में सुरक्षा की अपेक्षा होती थी। जैसे, ‘समय आने पर स्वामी हमें बचा लेगा!’ बुद्ध के प्रारंभिक शिष्यों ने भी इस शरण की प्रथा को अपनाया। लेकिन बौद्ध संदर्भ में इसे एक नया और गहरा अर्थ मिला।
बौद्ध धर्म को एक आस्तिक धर्म नहीं माना जाता है। 1 बुद्ध को ‘ईश्वर’ या ‘देवता’ के रूप में नहीं देखा जाता। इसलिए बुद्ध की शरण लेने का अर्थ यह नहीं हैं कि आप ईश्वर से सुरक्षा की गुहार लगा रहे हो। बुद्ध की शिक्षा यह है कि मानव ‘लोभ, द्वेष और भ्रम’ के भीतरी शत्रुओं से पछाड़ा हुआ है। इसलिए, शरण जाना धर्म का पहला कदम है, जिसका उद्देश्य इन भीतरी शत्रुओं से मुक्ति पाना है।
क्योंकि मन ही उन शत्रुओं का और उनसे मुक्ति का भी स्रोत है। इसलिए शरण के दो स्तर होते हैं: बाहरी और भीतरी शरण! बाहरी शरण हमें मार्गदर्शन और आदर्श प्रदान करते हैं। जबकि भीतरी शरण, यानी वे पवित्र गुण जिन्हें हमें अपने भीतर विकसित करना हैं, हमें सुरक्षा और शांति प्रदान करते हैं। पहले-पहल बाहरी शरण हमें प्रेरित करती हैं, जीवन में सही मार्ग दिखाती हैं। लेकिन जब हम चलना सीख ले, तब सच्ची शरण भीतरी गुणों में ही पाई जाती है।
हालाँकि शरण लेने की परंपरा प्राचीन है, लेकिन आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। क्योंकि हम आज भी उन्हीं भीतरी शत्रुओं से लढते हैं, जिनसे सच्चे लोग भूतकाल में लढते थे। हम आज भी अपने जीवन में उन्हीं शत्रुओं से उत्पन्न खतरों का सामना करते हैं, जैसे भविष्य के सच्चे लोग सामना करेंगे। जब कोई बुद्ध की शरण लेता है, तो वह दरअसल कर्म के सिद्धांत में विश्वास रखता है। कुशल और नेक इरादों से किए गए कर्म सुख की ओर ले जाते हैं, जबकि अकुशल और पापी इरादों से किए गए कर्म दुःख का कारण बनते हैं। शरण लेना इस सिद्धांत के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को प्रकट करना है, ताकि व्यक्ति सदाचार का पालन करें, और उसके आधार पर दुःख से बच सके। इस तरह, शरण लेना अंततः अपने पवित्र इरादों में शरण लेना है।
बौद्ध धर्म में बाहरी और भीतरी शरणस्थल तीन हैं — ‘बुद्ध, धम्म और संघ’, जिन्हें ‘त्रिरत्न’ कहा जाता हैं। इन्हें ‘रत्न’ इसलिए कहते हैं क्योंकि वे अनमोल हैं। और प्राचीन काल से रत्नों को सुरक्षा कवच देने वाला माना जाता था। लेकिन त्रिरत्न उन तिलिस्मी रत्नों से अधिक प्रभावी होते हैं, क्योंकि वे हमें सभी तरह की संपत्तियों से संपन्न करते हैं, सभी तरह की हानि और खतरों से सुरक्षा देते हैं, और यह केवल उसी जन्म तक सीमित नहीं रहता। बल्कि जब तक हमें परम-मुक्ति हासिल नहीं होती, तब तक जन्मों-जन्म उनका प्रभाव चलते रहता है। और अंततः वे ही हमें जीवन की सबसे बड़ी पीड़ाएँ — ‘बुढ़ापा, रोग और मृत्यु’ — के अत्याचार से हमेशा के लिए मुक्त कराते हैं, उसके परे की ‘निर्वाण संपत्ति’ प्रदान कर, परमसुखद अमृत चखाते हैं।
"बहुं वे सरणं यन्ति, पब्बतानि वनानि च,
आरामरुक्खचेत्यानि, मनुस्सा भयतज्जिता।"
नेतं खो सरणं खेमं, नेतं सरणमुत्तमं,
नेतं सरणमागम्म, सब्बदुक्खा पमुच्चति।"
अर्थात —
( खतरों से भयभीत हो, मानव लेते शरण अनेक,
वन, पर्वत या उद्यान हो, चैत्य हो या वृक्ष अनेक।
न शरण वह सर्वोत्तम है, न ही वह सुरक्षित है,
जिसकी लेकर शरण कोई, सब दुःखों से छूट जाएँ। )
"यो च बुद्धञ्च धम्मञ्च, सङ्घञ्च सरणं गतो,
चत्तारि अरियसच्चानि, सम्मप्पञ्ञाय पस्सति।
दुक्खं दुक्खसमुप्पादं, दुक्खस्स च अतिक्कमं,
अरियं चट्ठङ्गिकं मग्गं, दुक्खूपसमगामिनं।
( किन्तु बुद्ध, धर्म और संघ की, जब कोई शरण लेता है,
उसे चार आर्यसत्यों का, सम्यक दर्शन होता हैं।
दुःख और दुःख उत्पत्ति, और दुःख को लाँघना,
चार-अंगी आर्यमार्ग पर, चलने से दुःख का रुक जाना। )
"एतं खो सरणं खेमं, एतं सरणमुत्तमं,
एतं सरणमागम्म, सब्बदुक्खा पमुच्चति।"
( यह शरण सर्वोत्तम है, यही शरण सुरक्षित है,
जिसकी लेकर शरण कोई, सब दुःखों से छूटता है। )
— धम्मपद १४ बुद्धवग्ग : १८२ - १९२
बुद्ध का बाहरी स्तर पर अर्थ है — ‘सिद्धार्थ गौतम’, जो शाक्य राजकुमार थे, जिन्होंने अपनी सत्ता को त्याग कर संन्यास लिया, और ध्यान-साधना कर संपूर्ण संबोधि प्राप्त की। बुद्ध की शरण लेने का अर्थ उस व्यक्ति में शरण नहीं, बल्कि उसकी संबोधि की सच्चाई में शरण लेना है। इस तथ्य पर विश्वास रखना हैं कि बुद्ध ने आर्यसत्य का साक्षात्कार किया और अपने समस्त दुःखों से मुक्ति पायी। वे ऐसा इसलिए कर पाएँ, क्योंकि उन्होने अपने भीतर ऐसे कुशल गुणों को विकसित किया, जिन्हें हम भी अपने भीतर विकसित कर सकते हैं। उन्होने ऐसे परमसत्यों को साक्षात्कार किया, जिनका हम भी साक्षात्कार कर सकते हैं। उनके चले मार्ग और पहुँची मंज़िल को हम भी अपना सकते हैं। इस तरह बुद्ध हमारे जीवन के मार्गदर्शक और शरण बनते हैं।
धम्म का बाहरी स्तर पर अर्थ है ‘बुद्ध की शिक्षा’। ये तीन भागों में बँटी हैं: उनके मूल उपदेश (परियत्ति), उन्हें धारण करने की साधना (पटिपत्ति), और उसके फ़लस्वरूप प्राप्त अन्तर्ज्ञान (पटिवेधन)। यह भी एक मार्ग जैसा है, जिसके प्रथम चरण ‘परियत्ति’ में धर्म की शिक्षाओं को सुनना, समझना और सीखना होता है। दूसरे चरण ‘पटिपत्ति’ में धर्म के उन पवित्र गुणों को धारण करना होता है, जिन्हें स्वयं बुद्ध ने धारण किए। और तीसरे चरण ‘पटिवेधन’ में मन में पल रहे शत्रुओं से मुक्त होना होता है, जिनसे स्वयं बुद्ध मुक्त हुए। इस तरह, धम्म का यह तीन-तरफा विभाजन एक मार्गदर्शिका की तरह है, जो हमें यह तरीका सिखाती है कि बाहरी शरण को भीतरी स्तर पर कैसे अपनाया जाए।
संघ के बाहरी स्तर पर दो वर्ग हैं: आर्य संघ और परंपरागत संघ। आर्य संघ में वे दुर्लभ लोग शामिल हैं जिन्होंने अमृत की झलक पा ली है। जबकि परंपरागत संघ में भिक्षु और भिक्षुणी संघ शामिल हैं, जो इस मार्ग पर अभी चल रहें हैं। दोनों संघ एक-दूसरे में समाविष्ट ज़रूर होते हैं, लेकिन वे एक नहीं हैं। आर्य संघ में कई लोग संन्यास लेकर चीवर धारण नहीं करते। जबकि कई चीवर-धारी अमृत का अनुभव नहीं कर पाते।
संघ की शरण लेना दोनों प्रकार के संघ की शरण लेना है। लेकिन दोनों शरणें अलग-अलग स्तर की हैं। परंपरागत संघ ने २६०० वर्षों से बुद्ध की शिक्षाओं को एक-तरफा संरक्षित रखा है। उनके बिना, हमें बुद्ध और उनके उपदेशों का अस्तित्व भी पता न चलता। लेकिन यह सच है कि परंपरागत संघ के सभी सदस्य एक महान आदर्श पेश नहीं करते। इसलिए, हमें मार्गदर्शन और प्रेरणा के लिए ‘आर्य संघ’ की ओर देखना पड़ता हैं, जिन्होंने वाकई बोधि का साक्षात्कार किया हो। उनके उदाहरण के बिना, हमें पता ही नहीं चलता कि संबोधि सभी के लिए खुली है, और कैसे प्रकट होती है।
जो भी बुद्ध, धम्म और संघ की शरण जाता है, वह बुद्ध के इस परंपरागत संघ का सदस्य बनता है। भगवान ने संघ की चार परिषद बतायी थी: भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक और उपासिका परिषद। हालाँकि, आम तौर पर यह माना जाता हैं कि दुनिया के सभी बौद्ध अनुयायी संघ के सदस्य हैं। लेकिन उनके वर्गिकरण में मिली प्रधानता के कारण केवल चीवर-धारी भिक्षुओं को ही परंपरागत संघ माना जाता हैं। त्रिपिटक के लगभग सभी सूत्रों में यही एकमेव संदर्भ आता हैं। जब कोई भगवान के आगे अथवा उनके पश्चात शरण जाता था, तो कहता था “मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और भिक्षुसंघ की!” इस मायने में ऐतिहासिक तौर पर परंपरागत संघ ‘भिक्षुसंघ’ को ही कहते हैं, भिक्षुणी, उपासक या उपासिका-संघ को नहीं! इस तरह, जो तीनों रत्नों की शरण ले, वह बौद्ध कहलाता है।
आध्यात्मिक स्तर पर तीनों ही रत्न कुशलता के उच्चतम स्तर हैं, जिन्हें हमें अपने भीतर बढ़ाते जाना हैं। उदाहरण के लिए, बुद्ध ज्ञान, पवित्रता और करुणा के प्रतीक हैं। जब हम इन गुणों को अपने भीतर बढ़ाते हैं, तो वे भीतरी स्तर पर हमारी शरणस्थली बन जाते हैं। बुद्ध ने संबोधि पाने के लिए श्रद्धा, संकल्प, सतर्कता, एकाग्रता और अन्तर्ज्ञान का विकास किया। यदि उसी तरह हम भी उन गुणों को उसी स्तर तक विकसित करें कि हमें भी संबोधि प्राप्त हो जाए, तो वह ‘संबोधि’ ही हमारा अंतिम आश्रय, हमारी अंतिम शरण बन जाता है। इसी बात पर तीनों रत्न एक हो जाते हैं, और ‘लोभ, द्वेष और भ्रम’ से संपूर्ण मुक्ति मिलती हैं, और शत्रुओं से संपूर्ण सुरक्षा प्राप्त होती है। इसी बात पर हम ‘आर्यसंघ’ के सदस्य बनते हैं और दूसरों के लिए भी एक आदर्श बनते हैं।
तो अंततः सवाल उठता हैं कि क्या तीनों रत्नों की शरण जाना अनिवार्य है? अथवा एक या दो से भी बात बन जाएगी?
इसका संक्षिप्त उत्तर ये है कि दो रत्नों से ही बात जाती, यदि बुद्ध आज जनता के लिए उपलब्ध होते। और जब तीसरा रत्न मौजूद हो, तब उसे हीन देखकर, नज़रअंदाज़ करने का कर्म ‘कुशल’ नहीं कहा जा सकता। अकुशल करते हुए आपकी मुक्ति संभव नहीं है। इसलिए तीनों रत्नों की शरण जाना अनिवार्य है।
इसे गहराई से समझे। जब भगवान का संघ अभी बना नहीं था, तब ‘तपस्सु और भल्लिक’ नामक दो व्यक्तियों ने केवल ‘बुद्ध और धम्म’ इन द्विरत्नों की ही शरण ली थी। और वे ही प्रथम उपासक के तौर पर प्रसिद्ध हैं। लेकिन जब बुद्ध ने धर्मचक्र प्रवर्तन कर तीसरे रत्न को उत्पन्न किया, तब से त्रिपिटक साहित्य में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जिसमें किसी ने उस तीसरे रत्न को छोड़ कर, केवल दो रत्नों की ही शरण ली हो।
हालाँकि आधुनिक इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जो भिक्षुसंघ की शरण जाने में उत्सुक नहीं थे। उनमें बाबासाहेब डॉ॰ भीमराव आंबेडकर का जिक्र आता हैं, और आजकल के अनेक विपस्सना साधकों के बारे में भी सुनने मिलता हैं। ज़ाहिर हैं कि उन्हें परंपरागत संघ के अधिकांश भिक्षुओं में कोई महान आदर्श नहीं दिखता था। मैं स्वयं एक भिक्षु होने के नाते, इसे हमारे भिक्षुसंघ की एक बड़ी विफलता मानता हूँ, जिसे स्वीकारा और सुधारा जाना चाहिए। ताकि सभी भिक्षुगण बुद्ध के बताएँ विनय के अनुसार आचरण करें, और गृहस्थियों की श्रद्धा न टूटें।
लेकिन याद रखें कि कोई व्यक्ति चीवर धारण करने मात्र से संबोधि प्राप्त नहीं करता। उसे त्याग करते हुए सम्यक-परिश्रम करना होता है, जो अक्सर लंबे समय तक चलता है। वह ऐसा व्यक्ति होता है, जो मार्ग पर अभी चल रहा है, लेकिन अंतिम मंज़िल तक पहुँचा नहीं। उसी तरह, जो शरण जाना चाहता है, ज़ाहिर है कि उसे भी उसी मार्ग पर चलना है। तब भले ही उसके लिए अंतिम मंज़िल पर पहुँच चुके ‘आर्य भिक्षु’ उपलब्ध न हो, लेकिन जो परंपरागत भिक्षु दिखाई देते हैं, वे उसी मार्ग के अनुभवी यात्री हैं, जो अपनी गति से चल रहे हैं। हो सकता हैं कि उनमें कोई आगे पहुँच चुके हो, तो कोई न भी हो। आप निश्चित नहीं बता सकते। किन्तु उनके पास बुद्ध के उपदेशों का खजाना है, धर्म मार्ग की जानकारी है, और उन्होने न जाने कितने ही आर्य गुणों को विकसित किया है। यदि कोई बिना पूर्णतः जाने, केवल अपने अनुमान से, उन्हें हीन समझे, तो यह कोई कुशल कर्म नहीं, बल्कि उसकी अज्ञानता और अहंकार हैं।
याद रहें कि उस तीसरे रत्न के कारण ही हमें दो रत्नों के बारे में आज पता हैं। आदिकाल से भिक्षुसंघ ही जनता के लिए उन दो रत्नों का दर्शन दिखाती खिड़की के जैसे रहे हैं, अथवा उन रत्नों में प्रवेश कराते द्वार जैसे रहे हैं। उनकी महत्ता को ‘हीन’ मानना न सिर्फ एहसान-फरामोशी है, बल्कि भगवान के अनुसार ‘असत्पुरुष’ और दुष्ट लक्षणों में से एक हैं।
बुद्ध कहते थे —
“जो मुझे देखता हैं, वह धर्म को देखता हैं। जो धर्म को देखता हैं, उसे मैं दिखाई देता हूँ!”
भगवान के परिनिर्वाण के पश्चात भी यह नियम आज भी लागू होता है। अर्थात, सच्चा व्यक्ति, जो किसी भी समुदाय से हो, जिसकी आँखें अहंकार में अंधी न हो चुकी हो, यदि वाकई धर्म देख पाता है, तो उसे बुद्ध दिखाई देते हैं। उसे उनका आदर्श और उनका सम्मानित मार्ग आकर्षित और प्रेरित करने लगता है। लेकिन मैं मानता हूँ कि उसे केवल बुद्ध ही नहीं, दुनिया के अन्य धर्म के धारक भी दिखाई देंगे। आर्यसंघ के सच्चे लोग राहत से रहते हुए दिखाई देंगे, अथवा परंपरागत संघ के सच्चे लोग सम्यक-परिश्रम करते हुए दिखाई देंगे। जो सच्चा व्यक्ति धर्ममार्ग पर चलते हुए स्वयं अकुशल का त्याग करता हैं, उसे परंपरागत संघ का त्याग भी निश्चित दिखाई देगा।
कहते हैं कि जब बाबासाहब को संघ के दोनों पहलू — परंपरागत और आर्य संघ — के बारे में बताया गया, तब वे तुरंत संघ की शरण जाने के लिए राजी हुए, और अपने लाखों अनुयायियों के साथ त्रिरत्नों की शरण लेकर पंचशील में स्थापित हुए।
जब आप अगली बार परंपरागत संघ को देखे, तो उसे हीन समझने से पहले उसकी अनमोल महत्ता याद करें, और अपने मन से श्रेष्ठता की भावना निकाल बाहर करें। याद रखें कि तीसरा रत्न — आर्य और परंपरागत — दोनों के ही उपकारी गुणों से मिलकर बना हैं। और तीनों रत्न एक-दूसरे के गुणों में घुल-मिलकर इस तरह आधारित हैं कि उन्हें बांटकर आज अलग नहीं किया जा सकता।
उस समय, जो वेदों की सर्वोच्चता को नकारते थे, उन्हें नास्तिक कहा जाता था। उसके पश्चात एक समय आया कि जब कोई ईश्वर या देवताओं की सर्वोच्च प्रभुता को नकारने लगे, उन्हें नास्तिक कहा जाने लगा। किन्तु आजकल जो देवताओं के अस्तित्व को ही नकार देते हैं, उन्हें नास्तिक कहा जाता हैं। इस परिपेक्ष्य में देखा जाएँ, तो बौद्ध धर्म देवताओं के अस्तित्व को न केवल स्वीकारता है, बल्कि जनसाधारण को देवता बनने का सटीक मार्ग भी बताता हैं। ↩︎