बौद्ध धर्म के मार्ग पर पहला कदम त्रिशरण ग्रहण करना है। इन तीन शरणों का आशय है, बुद्ध, धर्म, और संघ, इन तीन रत्नों में शरण लेना। यह व्यक्ति के जीवन में एक महत्वपूर्ण क्षण होता है, जब वह आश्वस्त होकर धर्म के प्रति समर्पित होता है। फलस्वरूप, उसे एक भीतरी स्थिरता और सुरक्षा महसूस होती है।
बुद्धं सरणं गच्छामि।
धम्मं सरणं गच्छामि।
सङ्घं सरणं गच्छामि।
अर्थात —
बुद्ध से हमें प्रेरणा, धर्म से ज्ञान, और संघ से समर्थन मिलता है। ये तीनों तत्व हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करते हैं। जब हम त्रिशरण लेते हैं, तो हम अपनी पूर्व धारणाओं, व्यर्थ मान्यताओं और अहंकार को त्यागते हैं। हमारे हृदय नए विचारों और सत्य के लिए खुल जाते हैं। यह प्रक्रिया हमें विनम्र बनाती है और धर्म के प्रति समर्पण भाव जगाती है। इससे हमारा उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है कि अब हमारा मार्गदर्शक बुद्ध का धर्म है—न कि मन या अहंकार की आवाज़।
हमारी दुनिया की कई धारणाएँ अज्ञान से जन्म लेती हैं। हम इन्हें अपनी नासमझी में अपनाते हैं, और उनके लिए दूसरों से लड़ते हैं। यही बचावात्मक रवैया हमें अंतिम सत्य से दूर करता है। इसीलिए हम बार-बार उन्हीं दुःखों में फँस जाते हैं, जिनसे निकलना अपेक्षाकृत सरल है। बुद्ध हमें इस अहंकारी अज्ञान के दलदल से बाहर निकालते हैं। वे हमें ऐसे सिद्धांतों और साधनाओं से अवगत कराते हैं, जो हमारी अवचेतन प्रवृत्तियों को उजागर कर दें। त्रिशरण लेना इसलिए अनिवार्य है, ताकि हम अपने अहंकारपूर्ण अज्ञान को त्यागकर बुद्ध के सीधे और सच्चे ज्ञान को समझ पाएँ, और उसे अपने जीवन में धारण कर पाएँ।
जब हम अपनी पुरानी अज्ञानता का त्याग करते हैं और अपने अनुभवों को आर्यसत्य की दृष्टि से देखते हैं, तब दुःख का चक्र रुक जाता है। वही दुःखचक्र, जो पहले हमें अज्ञानता और पीड़ा की ओर धकेल रहा था, अब धर्मचक्र बनकर विपरीत दिशा में घूमने लगता है—और हमें दुःख मुक्ति की ओर ले जाता है।
भगवान बुद्ध के अनुसार जीवन में पाँच-शील अत्यावश्यक हैं, जिनका हर समय, हर परिस्थिति में पालन करना चाहिए। ये शील केवल कोई सामाजिक या नैतिक मान्यता नहीं, बल्कि सृष्टि के नियम हैं। इसे धारण करने से दूसरों पर उपकार नहीं, स्वयं पर होता है। क्योंकि हमारे दुष्कर्मों से दूसरे आहत हो न हो, हम स्वयं अवश्य होते हैं। पाँच शील हमें इसी आहत होने की प्रक्रिया से बचाते हैं और हमें वर्तमान और भविष्य के दुःखों से दूर रखते हैं। ये हमारी आत्मरक्षा का प्रबल साधन हैं। सदाचार के ये पाँच आचरण इस प्रकार हैं —
(१) “कोई व्यक्ति हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा एवं शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला एवं दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी।
(२) वह ‘न सौंपी चीज़ें’ त्यागकर चुराने से विरत रहता है। गांव या जंगल से न दी गई, न सौंपी, पराई वस्तु चोरी की इच्छा से नहीं उठाता, नहीं लेता है। बल्कि मात्र सौंपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी चुपके नहीं।
(३) वह कामुक मिथ्याचार त्यागकर व्यभिचार से विरत रहता है। वह उनसे संबन्ध नहीं बनाता है — जो माता से संरक्षित हो, पिता से संरक्षित हो, भाई से संरक्षित हो, बहन से संरक्षित हो, रिश्तेदार से संरक्षित हो, गोत्र से संरक्षित हो, धर्म से संरक्षित हो, जिसका पति [या पत्नी] हो, जिससे संबन्ध दण्डनिय हो, अथवा जिसे अन्य पुरुष ने फूल से नवाजा [=सगाई या प्रेमसंबन्ध] हो।
(४) वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ व भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं। जब उसे नगरबैठक, गुटबैठक, रिश्तेदारों की सभा, अथवा किसी संघ या न्यायालय में बुलाकर गवाही देने कहा जाए, “आईये! बताएँ श्रीमान! आप क्या जानते है?” तब यदि न जानता हो तो कहता है “मैं नहीं जानता!” यदि जानता हो तो कहता है “मैं जानता हूँ!” यदि उसने न देखा हो तो कहता है “मैंने नहीं देखा!” यदि देखा हो तो कहता है “मैंने ऐसा देखा!” इस तरह वह आत्महित में, परहित में, अथवा ईनाम की चाह में झूठ नहीं बोलता है।
(५) वह शराब मद्य आदि त्यागकर, मदहोश करने वाले नशेपते से विरत रहता है।
जब किसी को भीतर से लोभ, द्वेष या मोह जकड़ लेता है, तो वह उनसे वशीभूत होकर बेकाबू हो जाता है, और पाँच प्रकार के पाप करता है। वही पाप उसके दीर्घकालिक दुःख, अहित और असुरक्षा का कारण बनते हैं। इसके विपरीत, पंचशील का पालन व्यक्ति के चंचल जीवन में नैतिकता, शुद्धता और स्थिरता लाता है। यह आचरण आत्मविश्वास, आत्मनियंत्रण और आत्मसम्मान को बढ़ावा देता है। यही मार्ग उसे दीर्घकालिक सुख, हित और सुरक्षा की ओर ले जाता है।
वह पंचशील का पालन कर असंख्य सत्वों को ख़तरे से मुक्ति, शत्रुता से मुक्ति, और पीड़ा से मुक्ति प्रदान करता है। इस तरह असंख्य सत्वों को ख़तरे, शत्रुता, और पीड़ा से मुक्ति प्रदान कर, वह स्वयं ख़तरे, शत्रुता एवं पीड़ा से असीम मुक्ति में भागीदार बनता है।
“वह आर्यपसंद शील से संपन्न होता है — जो अखंडित रहें, अछिद्रित रहें, बेदाग रहें, बेधब्बा रहें, निष्कलंक रहें, विद्वानों द्वारा प्रशंसित हो, छुटकारा दिलाते हो, और समाधि की ओर बढ़ाते हो।”
इस प्रकार, अपने शील को सर्वोपरि रखें और शरीर, वाणी और मन के दुष्कर्मों का परित्याग करते जाएँ। उनमें समय-समय पर परिशोधन करें और आचरण शुद्ध करते जाएँ। किसी भी कर्म को करने से पहले, करते समय, और करने के बाद आत्म-चिंतन करें — “क्या यह कर्म पीड़ादायक है? क्या इससे मुझे या किसी और को कष्ट होगा?” इस तरह, अपनी चेतना और उसके परिणाम पर भी ध्यान देते रहें।
यदि पुरानी बुरी आदत हावी हो, तो पुनः त्रिशरण और पंचशील लें। बुरी आदत छोड़ने या शील पालन में कठिनाई महसूस होने पर संघ की सहायता लें और उचित मार्गदर्शन प्राप्त करें। संघ के सामूहिक अनुभव और ज्ञान से आपको रचनात्मक उपाय मिल सकते हैं, जो शील का पालन करने में मददगार होंगे। किसी सच्चे व्यक्ति का आधार लेकर अपना आत्मबल बढ़ाएँ।
सांसारिक जीवन में जमापूँजी करते हुए व्यक्ति का लालच और स्वार्थ बढ़ना स्वाभाविक है। लालच और स्वार्थ के मारे व्यक्ति जीवन के अंतिम सत्यों को नकारने लगता है, और धर्म से दूर होकर दुःख उत्पन्न करने लगता है। इस अकुशल धर्म को काटने के लिए भगवान बुद्ध त्याग धर्म की आवश्यकता रेखांकित करते हैं।
“वह घर रहते हुए दानी होता है — कंजूसी के मल से छूटा, साफ़ चित्त का, मुक्त त्यागी, खुले हृदय का, उदारता में रत होता, याचनाओं का पूर्णकर्ता, दान-संविभाग में रत रहता है।”
जीवन में अपनी कमायी हुई वस्तु का उपभोग करने का एक सुख है। लेकिन उसे स्वेच्छा से त्याग देने का सुख, हमेशा उससे सोलह गुना बड़ा होता है। अपने उपभोग को पराए के लिए त्यागना दान कहलाता है। जबकि अपने उपभोग का हिस्सा करके औरों के साथ बाँटना संविभाग। इस दान और संविभाग से हमारा हृदय खुलकर विशाल हो जाता है। स्वार्थ के बजाय हमारा ध्यान दूसरों की जरूरतों पर आने लगता है। उनका तात्कालिक कल्याण करने के साथ हमारा परमार्थ कल्याण होता है।
दान के कुछ मामूली पुरस्कार इसी जीवन में दिखायी देते हैं, जैसे दानी व्यक्ति को हर जगह पसंद किया जाता है, सम्मानित किया जाता है। लोग उसकी पीठ-पीछे प्रशंसा करते हैं और उसकी किर्ति दूर-दूर तक फैलती है। उसे संतोष और राहत मिलती है, आत्मविश्वास बढ़ता है, और उसका मन स्वच्छ और स्वस्थ रहता है। दान से पापी वृत्तियों में जकड़ा हुआ व्यक्ति भी पुण्य धर्म में प्रवेश करता है। लेकिन दान के असली पुरस्कार, दरअसल, अगले जीवन में मिलना प्रारंभ होते हैं।
दान और संविभाग अनेक तरह से किया जाता है — अपने आमिष (=वस्तु या रुपए) का, सेवा (=समय और ऊर्जा) का, अपने अंगों का (=रक्तदान, किडनीदान इत्यादि, या मरणोपरांत आँखें, हृदय या पूर्ण शरीर दान), और धर्म का। जब दान निस्वार्थ भाव से, शुद्ध और जागरूक मन से किया जाए, तो उसके फलों की मिठास, व्यापकता और भव्यता भी उतनी ही बढ़ने लगती है। इसलिए बौद्ध उपासक या उपासिका भी दान करने की कला सीखते हैं, उसमें निपुणता और कुशलता लाते हैं, और विश्व में बढ़-चढ़कर सुख और खुशियाँ फैलाते हैं।
धर्म की सच्चाई उसके ऊँचे दावों से नहीं, उसके उपजने वाले परिणामों से सिद्ध होती है। इस धर्म की कसकर परीक्षा लेनी चाहिए और उसके दावों को चुनौती देने का प्रयास करना चाहिए। लेकिन इस परीक्षण की शुरुवात करने से पहले धर्म को ठीक से धारण करना अनिवार्य है। बुद्ध के अनुसार, धर्म का प्रथम श्रोतापति फल चखने के लिए इन चार घटकों को पूर्ण करना आवश्यक है:
धर्म की धारा में बहने के लिए, पहले एक सच्चे धार्मिक व्यक्ति से जुड़ना आवश्यक है। बुद्ध के अनुसार, ऐसा व्यक्ति श्रद्धा, शील, त्याग और अन्तर्ज्ञान से संपन्न होना चाहिए। उसका चरित्र और आचरण शुद्ध हो, और वह धर्म के सिद्धांतों के अनुसार जीवन व्यतीत करता हो।
अर्थात, उसकी त्रिरत्नों में आस्था दृढ़ हो, और वह पंचशील का सच्चा पालक हो, उदार हृदय वाला दानी हो, और अंतर्ज्ञानी हो। धर्म उसकी अनुभूति में उतरा हो। उसकी गहरी बातों में धर्म की सूक्ष्मता झलकती हो। बुद्ध ऐसे सत्पुरुष के गुण आगे बताते हैं कि उसमें कृतज्ञता और सभ्यता भी झलकती हो। वह अपने दुर्गुणों को छिपाए बिना, अपने सद्गुणों पर गर्व न करे, जबकि दूसरों के दुर्गुणों को छिपाकर उनके सद्गुणों को उभारता हो।
बुद्ध का सुझाव है कि ऐसा सत्पुरुष मिलने पर, भले ही उसकी उम्र अधिक हो या कम, उससे मित्रता करनी चाहिए। उससे वार्तालाप कर, धर्म के प्रश्नोत्तर कर के अपनी सभी शंकाओं का समाधान करना चाहिए। उससे श्रद्धा, शील, त्याग और अन्तर्ज्ञान सीखकर अपनी धर्म संपन्नता बढ़ानी चाहिए।
धर्म का परीक्षण करने के लिए, प्रामाणिक और वैध धर्म को सुनना अनिवार्य है। यदि आपने धर्म के नाम पर विभिन्न मान्यताओं के मिश्रण को अपनाया है, तो आप इस परीक्षण के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
जैसे एक वैज्ञानिक अपने प्रयोग से पहले उस सिद्धांत के वैध और प्रामाणिक पहलुओं को जानता है, तब वह परीक्षण आरंभ करता है। उसके परीक्षण का आधार प्रतिपादित और प्रमाणित सिद्धांत होते हैं, झूठी अफवाहें नहीं। इसी प्रकार, आपको केवल सच्चा और प्रामाणिक धर्म सुनने की आवश्यकता है—जो पूर्णतः शुद्ध और अप्रदूषित हो, और केवल बुद्ध द्वारा प्रतिपादित किया गया हो, न कि किसी अन्य व्यक्ति द्वारा।
अक्सर हमारा ध्यान ऐसी बाहरी या आंतरिक बातों पर केंद्रित होता है, जो चित्त को अनावश्यक रूप से दूषित कर देती हैं। लेकिन जब हम संयम बरतते हैं, तो हमारा चित्त शान्त, स्थिर, और एकाग्र बना रह सकता है। इसलिए बुद्ध हमें सलाह देते हैं कि हमें संयम का पालन करना चाहिए। हमें उन अकुशल बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए जो कामुकता, बेहोशी, या अस्तित्व की चिंता को बढ़ावा देती हैं। इसके साथ ही, हमें व्यर्थ और अनुचित चिंतन से भी बचना चाहिए, जो मिथ्या दृष्टि को जन्म दे सकती हैं।
इसके बजाय, बुद्ध हमें कुशल विचारों पर ध्यान केंद्रित करने का सुझाव देते हैं, जो कामुकता, बेहोशी, या अस्तित्व की चिंता मिटा दें। साथ ही, इस तरह की उचित बातों पर चिंतन करना चाहिए — ऐसा दुःख का स्वरूप (पाँच उपादान से आसक्ति) होता है… ऐसी उसकी उत्पत्ति (तृष्णा से) होती है… ऐसा उसका निरोध (तृष्णा का त्याग) होता है… और ऐसा उसके निरोध का (आर्य अष्टांगिक) मार्ग है। इस तरह के उचित चिंतन से अंतर्दृष्टि गहराने लगती है।
कुछ लोग धर्म सुनने के बावजूद अपने ही मार्ग पर चलते हैं और अपने ईजाद किए हुए तरीकों से साधना करते हैं। कुछ अन्य किसी दूसरे गुरु द्वारा प्रस्तुत साधना का अभ्यास करते हैं। जबकि कई लोग अपनी पसंद की साधना को ही वर्षों तक दोहराते रहते हैं, आवश्यक साधनाओं की ओर ध्यान नहीं देते। कुछ लोग साधना को अधूरा छोड़ देते हैं।
हालांकि, जो साधना आपके लिए वास्तव में उपयुक्त और आवश्यक है, उसे बुद्ध द्वारा बताए गए सटीक तरीके से करना फलदायी होता है। इसलिए, धर्मानुसार धर्म की साधना करना ही सफलता की कुंजी है।
बुद्ध बताते हैं कि जब किसी व्यक्ति में ये चार घटक पूर्ण हो जाते हैं, तब वह धर्म की धारा में प्रवेश कर श्रोतापति फल प्राप्त करता है और निर्वाण की ओर प्रवाहित होने लगता है।
भावना का अर्थ है अपने मन के भीतर हितकारी भावनाओं को बढ़ावा देना। ये भावनाएँ जैसे सद्भावना, करुणा, शांति, एकाग्रता, और अंतर्ज्ञान हो सकती हैं। ये हमारी पुरानी अकुशल प्रवृत्तियों को संतुलित या समाप्त करती हैं, और हमारी शांति, स्थिरता, और समझदारी बनाए रखती हैं।
हमें इन भावनाओं को केवल बुद्धि के स्तर तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि उन्हें गहराई से आत्मसात करना चाहिए — विशेषकर उस अवचेतन स्तर पर, जहाँ दुःखों की उत्पत्ति होती है। ध्यान साधना से हम अंतर्ज्ञान प्राप्त करते हैं, जो हमारे अवचेतन मन में ऐसा तंत्र विकसित करता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी हमारा होश बना रहे।
जब हम इन कुशल भावनाओं को विकसित करने का संकल्प लेते हैं और लगातार प्रयास करते हैं, तब निश्चित रूप से हमें सफलता मिलती है।
भगवान बुद्ध ने सद्भावना (मेत्ता) के मार्ग को कई सूत्रों में विस्तार से बताया है। हमने प्रयास किया है कि इन शिक्षाओं को संक्षेप में प्रस्तुत करें, ताकि आप सहजता से उनका अनुसरण कर सकें।
सद्भावना विकसित करने से पहले एक महत्वपूर्ण मानसिक तैयारी आवश्यक है, जो इस प्रकार है—
अपने आप को शान्त, सीधा और स्पष्टवादी बनाएँ। अहंकार छोड़ कर विनम्र, धैर्यवान, सौम्य और मृदु बने। अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखते हुए संतोषी, सहज और अल्पेच्छुक जीवनशैली अपनाएं। परिवार और अन्य संबंधों में आसक्ति को कम करें। ऐसा कोई कार्य न करें जिसे विवेकशील और समझदार लोग अनुचित मानें।
फिर एकांत में जाकर, आराम से पालथी मारकर, काया सीधी रखते हुए बैठ जाएँ। शांति और स्थिरता पाकर इस प्रकार से सद्भावना का अभ्यास प्रारंभ करें:
• “मैं सभी के प्रति शत्रुता और बैरभाव का त्याग करता हूँ। मैं पूर्णतः निर्बैर हो जाऊँ।”
पहले इस वाक्य को मन में पूरी तल्लीनता और गहराई से दोहराएं, ताकि यह आपके विचारों और भावनाओं में पूर्ण रूप से व्याप्त हो जाए। फिर धीरे-धीरे इसे अपनी वास्तविकता में उतारने का प्रयास करें। यह केवल एक विचार या वाक्य तक सीमित न रहे, बल्कि आपके मन और हृदय में यह भावना सजीव और प्रबल बन जाए। आगे चलकर, यह आपके आचरण और दृष्टिकोण में स्पष्ट रूप से झलके, जिससे आपके जीवन में इस भाव का स्वाभाविक विस्तार हो।
• “मैं सभी के प्रति द्वेष और दुर्भावना का त्याग करता हूँ। मैं पूर्णतः निर्द्वेष हो जाऊँ।”
आप इसे अपने प्रियजनों से शुरू कर सकते हैं, जहाँ इस भावना को जागृत करना सहज हो। जैसे-जैसे यह भाव आपके भीतर मजबूत होता जाएगा, इसे धीरे-धीरे सभी लोगों, समुदायों और जीवों तक फैलाते जाएँ।
इसके बाद, इसी प्रकार निम्नलिखित भावों के लिए भी अभ्यास करें। हर भाव को गहराई से अनुभव करते हुए उसे अपनी वास्तविकता में उतारने का प्रयास करें, और उसी तरह धीरे-धीरे सभी लोगों, समुदायों और जीवों तक फैलाते जाएँ:
• “मैं सभी के प्रति घृणा और नाराज़गी का त्याग करता हूँ। मैं पूर्णतः घृणारहित और पीड़ारहित हो जाऊँ।”
• “मैं सभी को उनके द्वारा किए गए बुरे कर्मों के लिए क्षमा करता हूँ—चाहे वे शारीरिक हों, वाणी से हों या मन से। मैं सभी को क्षमा करता हूँ।”
• “मैं अपने बुरे कर्मों के लिए सभी से क्षमा चाहता हूँ—चाहे वे शारीरिक हों, वाणी से हों या मन से। मैं सभी से क्षमा चाहता हूँ।”
• “मेरे जीवन के कष्ट दूर हों। मैं सुखी होऊँ। मैं शांत और स्वस्थ रहूँ। मैं सुरक्षित रहूँ।”
• “सभी प्राणियों के कष्ट दूर हों। सभी सुखी हों। सभी शांत और स्वस्थ रहें। सभी सुरक्षित रहें।”
• “इस ब्रह्मांड के सभी जीव—चाहे वे दुर्बल हों या बलवान, लंबे हों या छोटे, दृश्य हों या अदृश्य, समीप हों या दूर, जन्मे हों या जन्म-प्रतीक्षारत—सभी के कष्ट दूर हों। सभी सुखी और सुरक्षित रहें।”
• “कोई भी प्राणी किसी के प्रति हिंसा न करे। न क्रोध हो, न घृणा, न लालच, न धोखाधड़ी, न हानि पहुंचाए। किसी के प्रति दुःख कामना न करे। सभी अपने दुःखों से मुक्ति पाएं और सद्गति प्राप्त करें।”
• “सभी प्राणी पुण्य करें, शांति प्राप्त करें, और उज्जवल मार्ग की ओर बढ़ें। सभी का कल्याण हो।”
जैसे एक माँ अपने इकलौते पुत्र के प्रति असीम प्रेम और सुरक्षा का भाव रखती है, उसी प्रकार सभी प्राणियों के प्रति असीम और निष्काम सद्भावना उत्पन्न करें। आप चाहें तो अन्य शुभ वाक्यों का भी प्रयोग कर सकते हैं।
जब आपकी सद्भावना गहरी और प्रबल हो जाए, और शरीर में ऊर्जा की तरह प्रवाहित होने लगे, तब उसे सभी दिशाओं में फैलाएं। जैसे कोई बलशाली व्यक्ति शंखनाद कर सभी दिशाओं में संदेश देता है, वैसे ही अपनी सद्भावना को पूर्व दिशा में फैलाएं—
• “पूर्व दिशा के सभी मानव और अमानवीय प्राणी सुखी हों, निर्बैर हों, स्वस्थ हों, सुरक्षित हों, और सभी बाधाएं समाप्त हों।”
• “दक्षिण दिशा के सभी सत्व… पश्चिम दिशा के सभी सत्व… उत्तर दिशा के सभी सत्व… ऊपरी दिशा के सभी सत्व… निचली दिशाओं के सभी सत्व सुखी हों, सुरक्षित रहें, स्वस्थ हों और शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करें। दुनिया में मित्रता, प्रेम और सहयोग की भावना प्रबल हो। विश्व में शांति स्थापित हो।”
इसी प्रकार आप करुणा भाव, मुदिता भाव (अन्य की खुशी में आनंद) और उपेक्षा भाव (तटस्थता) भावों को भी सभी दिशाओं में फैला सकते हैं। इन चारों भावों का सम्यक् रूप से अभ्यास करने से ब्रह्मविहार परिपूर्ण होता है, और असीम पुण्य का संचय होता है।
भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को प्रेरित किया कि वे इच्छुक उपासकों को स्मृतिप्रस्थान की साधना सिखाएँ। उनका संदेश था कि इस स्मरणशीलता के अभ्यास द्वारा हम आत्मरक्षा करते हुए दूसरों को बचाते हैं। और सहनशीलता, अहिंसा और सद्भावना से दूसरों की रक्षा करते हुए, हम स्वयं की भी रक्षा करते हैं। स्मृतिप्रस्थान का अभ्यास मुख्यतः चार प्रकार से होता है —
काया को [मात्र] काया देखते हुए रहना — तत्पर सचेत और स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाते हुए। संवेदना को [मात्र] संवेदना देखते हुए रहना… चित्त को [मात्र] चित्त देखते हुए रहना… स्वभाव को [मात्र] स्वभाव देखते हुए रहना — तत्पर सचेत और स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाते हुए।
इन चारों में से ‘आनापानसति,’ यानी साँस के प्रति स्मरणशीलता का अभ्यास, काया को काया देखते हुए रहने के अंतर्गत आता है। भगवान बुद्ध ने आनापान के लघु और दीर्घ दोनों तरीकों का उपदेश दिया है। लघु साधना चार चरणों में होती है, जबकि दीर्घ साधना सोलह चरणों में विस्तार पाती है।
एकांत में जाकर, आराम से पालथी मारकर, काया सीधी रखते हुए बैठ जाएँ। स्मरणशील होकर साँस लें और स्मरणशील होकर साँस छोड़ें। पहले साँस की लंबाई पर गौर करें।
(१) “वह दीर्घ साँस लेते हुए जानता है कि ‘मैं दीर्घ साँस ले रहा हूँ।’ वह दीर्घ साँस छोड़ते हुए जानता है कि ‘मैं दीर्घ साँस छोड़ रहा हूँ।’”
यदि साँस लंबी हो, तो स्पष्ट रूप से पता चलना चाहिए कि साँस ‘इस तरह और इतनी’ लंबी आ रही है। उसी तरह, साँस छूटते हुए भी पता चलना चाहिए भी ‘इस तरह और इतनी’ लंबी साँस छुट रही है। प्रत्येक साँस की लंबाई को ध्यानपूर्वक पहचानते रहें।
यदि संभव हो, तो साँस की गहराई और उसका भार भी अनुभव करें। जब साँस गहरी या भारी हो, तो यह पता चलें कि साँस ‘इस तरह और इतनी’ गहरी/भारी आ रही है। साँस छोड़ते समय भी यह महसूस करें कि साँस ‘इस तरह और इतनी’ गहरी/भारी छूट रही है। अगर ध्यान भटकने लगे, तो एक गहरी साँस लें और फिर से साँस पर अपना ध्यान केंद्रित करें।
(२) “वह हृस्व साँस लेते हुए जानता है कि ‘मैं हृस्व साँस ले रहा हूँ।’ वह हृस्व साँस छोड़ते हुए जानता है कि ‘मैं हृस्व साँस छोड़ रहा हूँ।’”
यदि साँस छोटी हो, तो पता चलना चाहिए कि साँस ‘इस तरह और इतनी’ छोटी आने लगी है। उसी तरह, साँस छूटते हुए भी पता चलना चाहिए कि ‘इस तरह और इतनी’ छोटी साँस छुट रही है।
यदि संभव हो, तो फ़िर साँस की गहराई और उसका भार अनुभव करने का प्रयास करें। यदि साँस छिछली/हल्की/धीमे आने लगी हो, तो पता चलना चाहिए कि साँस ‘इस तरह और इतनी’ छिछली/हल्की/धीमे आ रही है। उसी तरह, साँस छूटते हुए भी पता चलना चाहिए भी ‘इस तरह और इतनी’ छिछली/हल्की/जल्दी साँस छुट रही है।
हो सकता है कि साँस फ़िर से लंबी, भारी, या जल्दी-जल्दी आने लगे, और कुछ समय बाद फ़िर हल्की, छोटी, या धीमी हो जाएँ। प्रत्येक साँस पर ध्यान लगाकर जानते रहें। इन बीच यदि विचार या नींद आने लगे, तो फ़िर एक गहरी साँस लेकर दुबारा साँस पर ध्यान टिकाएँ।
(३) “वह संपूर्ण काया को महसूस करते हुए साँस लेना सीखता है। वह संपूर्ण काया को महसूस करते हुए साँस छोड़ना सीखता है।”
अब हमें इस अभ्यास को और गहराई से करना है, ताकि हम पूरे शरीर को महसूस करते हुए साँस लेना और छोड़ना सीख सकें। इसके कई तरीकों में से एक तरीका यह है कि साँस लेते और छोड़ते समय यह पहचानें कि शरीर का कौन-सा हिस्सा आपको सबसे अधिक स्पष्ट रूप से महसूस हो रहा है। धीरे-धीरे अपने चित्त को और शांत करें, और साँस के हर क्षण को गहराई से अनुभव करने का प्रयास करें।
किसी को साँस के साथ पेट और छाती का हल्का फूलना और सिकुड़ना महसूस हो सकता है। किसी को कंधों और बाहों की हल्की हरकत का अनुभव हो सकता है। कुछ लोगों को भीतर, नाक, गले या फेफड़ों में साँस का भरना और गुजरना महसूस होता है। किसी को साँस के साथ शरीर में तनाव या खिंचाव का एहसास हो सकता है।
पहचानें कि आपको साँस कहाँ सबसे अधिक महसूस हो रही है। शरीर का कौन-सा हिस्सा सबसे अधिक संवेदनशील और जागरूक प्रतीत हो रहा है। अगर ध्यान भटकने लगे, तो फिर से एक गहरी साँस लेकर, ध्यान को साँस पर टिकाएँ। जब आपको साँस के साथ एक हिस्सा स्पष्ट रूप से महसूस होने लगे, तो उसके नज़दीक का हिस्सा भी ध्यान में लेने का प्रयास करें। धीरे-धीरे इसे विस्तार दें और पूरे शरीर को इस अनुभूति में शामिल करें।
उदाहरण के लिए, यदि आपको साँस के साथ छाती का फूलना स्पष्ट रूप से महसूस हो रहा हो, तो ध्यान दें कि पेट का फूलना भी इसी अनुभव में शामिल हो। थोड़ी देर में गले से साँस गुजरने की जानकारी भी इस क्रम में जोड़ें। फिर कंधों, सिर, बाहों और शरीर के निचले हिस्सों को भी एक-एक करके इस अनुभव में शामिल करते जाएँ। धीरे-धीरे पूरे शरीर को साँस के साथ संवेदनशील और जागरूक बनाते चले जाएँ।
समय के साथ, जब साँस के साथ अधिकांश शरीर स्पष्ट रूप से महसूस होने लगे, तो उन हिस्सों पर ध्यान दें जिन्हें अभी तक महसूस नहीं कर पाए हैं। उन्हें भी ध्यानपूर्वक इस अनुभूति में शामिल करें। एक ऐसा समय आएगा जब आपको साँस लेते हुए भी पूरा शरीर महसूस होगा और साँस छोड़ते हुए भी पूरा शरीर जागरूक और संवेदनशील लगेगा।
(४) “वह कायिक-रचना शान्त करते हुए साँस लेना सीखता है। वह कायिक-रचना शान्त करते हुए साँस छोड़ना सीखता है।”
अब हमें अपनी शारीरिक ऊर्जा को शांत करते हुए साँस लेना और छोड़ना सीखना है। इसका अर्थ यह है कि जब आपको लंबी और गहरी साँस के साथ पूरा शरीर महसूस होने लगे, तब आप शरीर को और अधिक शांत करते हुए साँस लें और छोड़ें। हर साँस के साथ धीरे-धीरे शांति बढ़ाते जाएँ, बिना जल्दबाजी किए। ध्यान रहे, शरीर को शांत करने से उसकी संवेदनशीलता कम नहीं होनी चाहिए, बल्कि और बढ़नी चाहिए। इसका मतलब है कि अब आप अपने शरीर में छिपी बेचैनी, उद्वेग और चंचलता को भीतर से शांत करने का प्रयास कर रहे हैं, और यह कार्य शरीर की बढ़ती संवेदनशीलता के साथ किया जा रहा है। धीरे-धीरे, कदम दर कदम, शारीरिक ऊर्जा को शांत करते जाएँ।
जैसे-जैसे आप इस प्रक्रिया में आगे बढ़ेंगे, शरीर की स्थूल संवेदनाएँ सूक्ष्म होने लगेंगी। भारीपन, दबाव, गर्माहट, या चंचलता धीरे-धीरे हल्कापन, खुलापन, या स्थिरता में बदलने लगेंगी। शरीर की तनावपूर्ण ऊर्जा धीरे-धीरे शांत हो जाएगी, जिससे तनावमुक्ति और विश्रांति का अनुभव होगा।
यदि इस दौरान नींद या आलस आने लगे, तो गहरी और लंबी साँसें जल्दी-जल्दी लेने लगें। जैसे एक फुटबॉल से हवा निकालने पर वह उछलता नहीं है, लेकिन उसमें हवा भरने पर वह फिर से उछलने लगता है। इसी तरह, अगर नींद या आलस अधिक महसूस हो रहा हो, तो शरीर की ऊर्जा बढ़ाने के लिए जल्दी-जल्दी लंबी और गहरी साँस लें। जब आपको लगे कि ऊर्जा पर्याप्त हो गई है, तो स्वाभाविक साँस पर लौट आएँ और साधना को आगे बढ़ाएँ।
दूसरी ओर, अगर बेचैनी या चंचलता अधिक महसूस हो, तो छिछली साँस लें और उसे लंबे समय तक धीरे-धीरे छोड़ें। जैसे कि एक फुटबॉल में अधिक हवा भरने पर वह जरूरत से ज्यादा उछलने लगता है, तब उसकी थोड़ी हवा निकालनी पड़ती है ताकि वह संतुलित रहे। उसी तरह, बेचैनी और चंचलता की स्थिति में शरीर की ऊर्जा घटाने के लिए साँस को धीरे-धीरे और लंबी अवधि तक छोड़ते रहें। उदाहरण के तौर पर, २ पल तक छिछली साँस लें और उसे ६ पल तक धीरे-धीरे छोड़ते रहें। जब बेचैनी कम हो जाए, तो फिर स्वाभाविक साँस पर लौट आएँ और साधना को आगे बढ़ाएँ।
ध्यान से उठने से पहले तय करें कि आप काफी देर तक साँस के साथ जुड़े रहेंगे और शरीर की संवेदनशीलता को बनाए रखेंगे। जो शांति, स्थिरता, स्पष्टता और एकाग्रता आपको महसूस हो रही है, उसे लंबे समय तक स्थिर रखने का प्रयास करें।
जब आप तैयार हों, तो धीरे-धीरे साँस के साथ आँखें खोलें। थोड़ी देर तक शांति का अनुभव करते रहें। आप चाहें तो इस साधना से प्राप्त शांति और सकारात्मक ऊर्जा को किसी विशेष व्यक्ति या पूरी दुनिया को समर्पित कर सकते हैं।
ध्यान से उठने के बाद भी, जब भी आपकी ऊर्जा असंतुलित हो, तब साँस के सहारे उसे संतुलित करने का अभ्यास करें। इस कदम के ज़रिए आप अपनी शारीरिक ऊर्जा को संतुलित करना सीखते हैं। नियमित ध्यान अभ्यास से आपको इसके और भी उपाय स्वतः समझ में आने लगेंगे। इसे अपनी दिनचर्या में भी अक्सर प्रयोग करते रहें।