बौद्ध धर्म के मार्ग पर पहला कदम त्रिशरण ग्रहण करना है। इन तीन शरणों का आशय है, बुद्ध, धर्म, और संघ, इन तीन रत्नों में शरण लेना। यह व्यक्ति के जीवन में एक महत्वपूर्ण क्षण होता है, जब वह आश्वस्त होकर धर्म के प्रति समर्पित होता है। फलस्वरूप, उसे एक भीतरी स्थिरता और सुरक्षा महसूस होती है।
बुद्धं सरणं गच्छामि।
धम्मं सरणं गच्छामि।
सङ्घं सरणं गच्छामि।
अर्थात —
बुद्ध से हमें प्रेरणा, धर्म से ज्ञान, और संघ से समर्थन मिलता है। ये तीनों तत्व हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करते हैं।
जब हम त्रिशरण लेते हैं, तो हम अपनी पूर्व धारणाओं, व्यर्थ मान्यताओं और अहंकार को त्यागते हैं। हमारे हृदय नए विचारों और सत्य के लिए खुल जाते हैं। यह प्रक्रिया हमें विनम्र बनाती है और धर्म के प्रति समर्पण भाव जगाती है। इससे हमारा उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है कि अब हमारा मार्गदर्शक बुद्ध का धर्म है—न कि मन या अहंकार की आवाज़।
हमारी कई धारणाएँ अज्ञान से जन्म लेती हैं। हम इन्हें अपनी नासमझी में अपनाते हैं, और उनके लिए दूसरों से लड़ते हैं। यही बचावात्मक रवैया हमें अंतिम सत्य से दूर करता है। इसीलिए हम बार-बार उन्हीं दुःखों में फँस जाते हैं, जिनसे निकलना अपेक्षाकृत सरल है।
बुद्ध हमें इस अहंकारी अज्ञान के दलदल से बाहर निकालते हैं। वे हमें ऐसे सिद्धांतों और साधनाओं से अवगत कराते हैं, जो हमारी अवचेतन प्रवृत्तियों को उजागर कर दें। त्रिशरण लेना इसलिए अनिवार्य है, ताकि हम अपने अहंकारपूर्ण अज्ञान को त्यागकर बुद्ध के सीधे और सच्चे ज्ञान को समझ पाएँ, और उसे अपने जीवन में धारण कर पाएँ।
जब हम अपनी पुरानी अज्ञानता का त्याग करते हैं और अपने अनुभवों को आर्यसत्य की दृष्टि से देखते हैं, तब दुःख का चक्र रुक जाता है। वही दुःखचक्र, जो पहले हमें अज्ञानता और पीड़ा की ओर धकेल रहा था, अब धर्मचक्र बनकर विपरीत दिशा में घूमने लगता है—और हमें दुःख मुक्ति की ओर ले जाता है।