नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

सम्मादिट्ठी | कम्म | इदप्पच्चयता | पटिच्च समुप्पाद | अरियसच्च

बौद्ध सिद्धान्त

सम्यकदृष्टि

भगवान बुद्ध ने संबोधि प्राप्त करने के बाद सात सप्ताह तक विमुक्ति सुख को महसूस करते हुए बिताएँ। इसके बाद उन्होंने दूसरों को इस असीम सुख का मार्ग दिखाने का निर्णय लिया। उनकी शिक्षाएँ उन्हीं तीन अंतर्दृष्टियों पर आधारित रही, जिनसे उनकी मुक्ति संभव हो सकी थी। अब, उन्हें ऐसे कर्म पता चल चुके थे, जो सुखी और अनुकूल पुनर्जन्म प्रदान करते थे। और साथ ही, उन्होने ऐसे भी कर्म ढूँढ निकाले थे, जो पुनर्जन्म के दुष्चक्र से आज़ाद करते थे। तब बुद्ध ने श्रोताओं को इन दोनों के ही बारे में खुलकर बताया।

बुद्ध ने कर्म की पहली सूची को लोकिय सम्यकदृष्टि कहा, और उसे इस तरह व्यक्त किया —

“दान होता है; चढ़ावा होता है; आहुति होती है। अच्छे या बुरे कर्मों के फल-परिणाम होते हैं। लोक होता है; परलोक होता है। माता होती है; पिता होते है। स्वयं से उत्पन्न सत्व होते हैं। और ऐसे श्रमण-ब्राह्मण होते हैं, जो सम्यक-साधना कर, सम्यक-प्रगति करते हुए विशिष्ट-ज्ञान का साक्षात्कार कर, लोक-परलोक होने की घोषणा करते हैं।”

—मज्झिमनिकाय ११७ : महाचत्तारीसक सुत्त

इसका सहज तात्पर्य है — “दानी स्वभाव और उदार चित्त से सुखों की शुरुवात होती है। नैतिकता केवल कोई सामाजिक परंपरा नहीं, बल्कि इस सृष्टि का नियम है। भलाई करने से देर-सवेर सुखद फल आते हैं, जबकि बुराई के घोर परिणाम प्रतीक्षा करते हैं। जिसके जैसे कर्म और वृत्ति हो, उसका मृत्यु के बाद उस विशेष लोक में पुनर्जन्म होता है। माता-पिता के प्रति एक विशेष नैतिक ऋण होता है। दुनिया में कुछ ऐसे अंतर्ज्ञानी लोग होते हैं, जो ब्रह्मचर्य धारण कर सम्यक-साधना करते हैं। और जब उन्हें सच्चा और प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त हो, तो वे लोगों को बताते हैं।” जीवन में इस तरह का दृष्टिकोण और विश्वास रहना ऐसी न्यूनतम शर्त है, जो पुनर्जन्म के चक्र में बार-बार सुखद परिणाम लाती है। किन्तु, इस सूची में से कोई बात भ्रष्ट हो जाए, तो सुखों की गारंटी खत्म होती है। इस तरह, सुखी पुनर्जन्म के उद्देश्य से यह सम्यकदृष्टि होना अनिवार्य है।

और, बुद्ध ने कर्म की दूसरी सूची को लोकुत्तर सम्यकदृष्टि कहा, और उसे कुछ इस तरह व्यक्त किया —

  • दुःख का ज्ञान,
  • दुःख उत्पत्ति का ज्ञान,
  • दुःख निरोध का ज्ञान,
  • दुःख निरोधकर्ता मार्ग का ज्ञान।

— दीघनिकाय २२ : महासतिपट्ठान सुत्त

इन्हें चार आर्यसत्य कहते हैं। जो पुनर्जन्म के दुष्चक्र से मुक्त होना चाहता है, उसे यह समयकदृष्टि होना अनिवार्य है।

जिस तरह तीसरी अंतर्दृष्टि पहले दो अंतर्दृष्टियों से विकसित हुई, उसी तरह, लोकुत्तर सम्यकदृष्टि भी लोकिय से विकसित हुई है। यदि किसी में नैतिकता न हो, और वह जीवन में सुविधानुसार अच्छे और बुरे, दोनों ही कर्मों की खिचड़ी बनाता हो, तो चाहे वह कितनी भी कठोर साधना करे, उसे लोकुत्तर सम्यकदृष्टि का फल मिलना असंभव है। लोकिय और लोकुत्तर दोनों ही स्तर मिलकर कर्म के सिद्धान्त की एक पूर्ण और पूरक तस्वीर प्रदान करते हैं। पहला स्तर कर्म को, ज़ूम-आउट कर के, दूर से जीवनकथा और पात्र के रूप में दिखाता है। जबकि दूसरा स्तर उसे, ज़ूम कर के, बहुत पास से वर्तमान के क्षण में दिखाता है, जहाँ कथा और पात्र नजर नहीं आते; बल्कि केवल घटनाएँ और उनके घटकों की उत्पत्ति और निरोध होते हुए दिखता है ।

बुद्ध का धर्म उपदेश भी अक्सर इसी क्रमबद्ध तरीके से होता था। पहले वे जीवन को ज़ूम-आउट कर के दान, अच्छे-बुरे कर्म (=शील), स्वर्ग, कामभोग के दुष्परिणाम और संन्यास के लाभ उजागर करते। इसके बाद, यदि श्रोता आश्वस्त और प्रसन्न दिखता, तब ज़ूम कर के आर्यसत्य का बोध कराते। इस तरह, लोकिय से होकर ही लोकुत्तर मार्ग निकलता है। किसी को पहले ही कदम में अमूर्त चार आर्यसत्य प्रासंगिक नहीं लग सकते। उन्हें उचित लोकिय संदर्भ में समझाना आवश्यक होता है। बुद्ध उपदेश में क्रमबद्धता का उद्देश्य प्रासंगिकता और संदर्भ की भावना प्रदान करता था।

सम्यकदृष्टि की लोकिय शुरुवात करते हुए, बुद्ध अच्छे कर्मों का वर्णन दो गुणों से करते हैं — उदारता और सदाचार। इन दोनों में सभी प्रकार की भलाई — चाहे काया, वाणी और मन से हो, समाहित होती है। उदारता केवल भौतिक दान-दक्षिणा-उपहार देना ही नहीं है, बल्कि अपने समय, ऊर्जा और ज्ञान देने के साथ-साथ मैत्री-करुणा, कृतज्ञता और क्षमा देना भी होता है। सदाचार की शुरुआत जीवहत्या, चोरी, अनैतिक यौन-संबंध, झूठ बोलने और नशे-पते का सेवन त्यागकर होती है। और अग्रवर्ती स्तर पर छह और अकुशल कर्मों को त्यागना होता है — फूट डालती वाणी, कटु वाणी, निरर्थक बातें, लालच, दुर्भावना और मिथ्यादृष्टि। साथ ही, ये पाँच की बिक्री कर आजीविका कमाने का घोर परिणाम बताया गया हैं — गुलाम, नशीले पदार्थ, जहर, हथियार और प्राणी।

बुद्ध ने बुरे कर्मों को त्यागने के, और उदारता-सदाचार में लगने के अनेक पुरस्कार गिनाए है, जो सृष्टि के संविधान के तहत मिलते हैं। ये पुरस्कार इसी जीवन में और मरणोपरांत अगले जीवन में देखे जा सकते हैं। बौद्ध साहित्य में पुण्यशाली कर्मों से मिले स्वर्गीय सुखों का शानदार वर्णन दर्ज है। वहीं, पापकारी कर्मों से मिले नारकीय दंडों का भी वर्णन है। चूँकि सीमित चित्त के कर्म अनंतकाल तक फल-परिणाम नहीं दे सकते, कोई स्वर्गिक रचना नित्य और शाश्वत नहीं है। इसलिए, बुद्ध का उपदेश अगले चरण की ओर आगे बढ़ता है — इंद्रिय-सुखों में खामियाँ और दुष्परिणाम।

संसार के भवचक्र में दुःखों के साथ अनेक सुख भी हैं। किन्तु कोई सुख स्थायी नहीं हैं, नित्य नहीं है। शक्तिशाली पुण्य भी क्षीण होते-होते उत्पन्न सुखों को समाप्त करने लगते हैं। कर्म करने के पीछे चित्त की परिवर्तनशीलता होती हैं। अक्सर चित्त सुखों में लिप्त होकर मदहोश होने लगता है, उसे विस्मरण होने लगता है। इसलिए पुनर्जन्म हमेशा ऊँचाई पर ही टिका नहीं रहता, बुरी तरह गिर भी पड़ता है। इसलिए पुनर्जन्म में भटकते हुए जीवन की दिशा अनिश्चित और भ्रामक होती है। तब बुद्ध इससे बचने का उपाय अपने उपदेश के अगले चरण में बताते हैं — संन्यास के लाभ।

जाहिर है कि संसरण करते हुए सुखों की क्षणभंगुरता का अहसास होने पर, श्रोता त्याग और विमुक्ति के मार्ग पर विचार करने के लिए तैयार हो जाता है। इसकी उपमा स्वच्छ धुले वस्त्र के रंग पकड़ने से होती है। तब उसके बाद, बुद्ध श्रोता के चित्त को लोकिय स्तर से उठाकर लोकुत्तर पर ज़ूम करते हैं — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, और मार्ग। ये सत्य दरअसल तीन बुद्ध-विशेष सिद्धांतों से जुड़ी हुई है — इदप्पच्चयता, पटिच्च समुप्पाद, और चतु अरियसच्च। इन तीनों सिद्धांतों को जानने पर ही बौद्ध सिद्धांतों का पूर्ण चित्र उभरता है।