“क्या मानव अपने भाग्य का गुलाम है, या विधाता?"
“क्या जीवन में दुःख भोगना अनिवार्य है, या वैकल्पिक?"
“क्या हमारे अच्छे या बुरे कर्म हमारे भविष्य का निर्माण करते हैं?"
“क्या हम अपने स्वभाव के विरुद्ध जाकर कर्म चुनने के लिए स्वतंत्र है?"
— ये ऐसे गहरे प्रश्न हैं, जो अनुभव की गहराई से उत्पन्न होते हैं और हमें बार-बार सोचने पर मजबूर करते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर न केवल हमारी मानसिकता और दृष्टिकोण को गढ़ते हैं, बल्कि यह भी तय करते हैं कि हम अपने जीवन को किस दिशा में लेकर जाते हैं। ये प्रश्न हमारे जीवन के आधार और उद्देश्य की नींव रखते हैं। इसी के साथ, यह भी निर्धारित करते हैं कि हम सुख और शांति की तलाश कहाँ करें — अपने भीतरी अंतर्मन में, बाहरी दुनिया में, या फिर अपने भाग्य को कोसते हुए उससे उम्मीदें छोड़ दें।
इन्हीं बुनियादी प्रश्नों ने सिद्धार्थ गौतम को भी सताया। उन्होंने इस खोज में अपना जीवन दाँव पर लगा दिया, और अंततः मुक्तिमार्ग का बोध किया। उन्हें पता चला कि मानव जीवन सार्थक है — क्योंकि यदि कोई सही दिशा में प्रयास करें, तो वह अपने पीड़ादायी भाग्य से मुक्त हो सकता है। वह संसार के प्रतिबंधों को लाँघ कर, जीवन की सीमाओं से मुक्त होकर, अमर्त्य सुख, शान्ति और राहत को प्राप्त कर सकता है।
इसी अन्वेषण के परिणामस्वरूप ‘कर्म का सिद्धांत’ प्रकट हुआ, जो बौद्ध धर्म की आधारशिला बना। यह सिद्धांत हमें सिखाता है कि हमारे कर्म ही हमारे जीवन की दशा और दिशा तय करते हैं, और इन्हीं के माध्यम से हम अपने भाग्य के गुलाम बनने या विधाता बनने का चुनाव करते हैं।
कर्म का सरल अर्थ है — चेतनापूर्वक किए गए कृत्य, या इरादे से की गई हरकतें। ये कर्म जाने-अनजाने में तनाव पैदा कर सकते हैं या राहत दे सकते हैं, और कभी-कभी इनका मिला-जुला असर भी होता है। इनका प्रभाव हम पर, दूसरों पर, या दुनिया पर प्रत्यक्ष रूप से पड़ सकता है, या अप्रत्यक्ष रूप से। कर्मों का यह प्रभाव सकारात्मक और लाभदायक हो सकता है, अथवा नकारात्मक और हानिकारक साबित हो सकता है। जैसी चेतना और जितना प्रभाव हो, उसी के अनुसार कर्म का परिणाम उपजता है।
यह परिणाम तुरंत महसूस हो सकता है, कुछ समय बाद इसी जीवन में सामने आ सकता है, या फिर अगले जन्मों में प्रकट हो सकता है। कर्म की यह प्रक्रिया जटिल और विस्तृत है, लेकिन सरलता से कहा जाए तो हमारे इरादे और कार्य ही हमारे भविष्य और अनुभवों को आकार देते हैं।
बुद्ध कहते हैं —
“सब्बे सत्ता कम्मस्सका कम्मदायादा कम्मयोनि कम्मबन्धु कम्मप्पटिसरणा। यं कम्मं करिस्सन्ति—कल्याणं वा पापकं वा—तस्स दायादा भविस्सन्ती।”
— अंगुत्तरनिकाय ५:५७ : अभिण्हपच्चवेक्खितब्बठान सुत्त
अर्थात, सभी सत्व अपने कर्म के कर्ता, कर्म के वारिस, कर्म से जन्में, कर्म से बंधें, और कर्म के शरणागत हैं। वे जो भी कर्म करेंगे — कल्याणकारी या पापपूर्ण — उसी के उत्तराधिकारी बनेंगे।
कर्म तीन स्तरों पर होते हैं — (१) शारीरिक क्रियाओं से, (२) वाणी के शब्दों से, और (३) मन के सोच-विचार से। चाहे कर्म दूषित मन से किए गए हों, भले मन से किए गए हों, या भ्रमित अवस्था में हुए हों — हर कर्म का परिणाम उसके अनुसार ही होता है।
यदि कोई बुरा कर्म करता है, तो उसके परिणाम हानिकारक और दुःखदायी होते हैं। इसके विपरीत, भले कर्म का परिणाम लाभदायक और सुखदायी होता है। इस प्रकार, हमारे हर कर्म का एक निश्चित प्रभाव होता है, और हम अपने विचारों, शब्दों, और कार्यों के द्वारा अपने भविष्य को ढालते हैं।
बुद्ध कहते हैं —
"मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया,
मनसा चे पदुट्ठेन, भासति वा करोति वा,
ततो नं दुक्खमन्वेति, चक्कंव वहतो पदं!"— धम्मपद यमकवग्ग १
"मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया,
मनसा चे पसन्नेन, भासति वा करोति वा,
ततो नं सुखमन्वेति, छायाव अनपायिनी!"— धम्मपद यमकवग्ग २
अर्थात, दूषित मन से किए गए कर्म अकुशल होते हैं, जिनका परिणाम कड़वा और पीड़ादायक होता है। जबकि स्वच्छ मन से किए गए कर्म कुशल होते हैं, जिनका फल मीठा और सुखदायी होता है।
मन की दूषितता लोभ, द्वेष, या भ्रम के कारण उत्पन्न होती है, जिन्हें “अकुशल मूल” कहा जाता है। दूसरी ओर, स्वच्छ चित्त वे अवस्थाएँ हैं, जिनमें निर्लोभ, निर्द्वेष, और निर्मोह होते हैं, और इन्हें “कुशल मूल” कहा जाता है।
भगवान ब्राह्मणों को सिखाते हुए पुछते हैं —
“क्या लगता है, कालामों? जब किसी व्यक्ति के भीतर लोभ उपजता हो, तो वह उसके हित के लिए उत्पन्न होगा अथवा अहित के लिए?”
“अहित के लिए, भन्ते!”
“और कोई लालची, लोभ के वशीभूत, लोभचित्त से बेकाबू होकर — जीवहत्या करे, चोरी करे, पराई औरत के पीछे जाए, झूठ बोले, और यह दुसरों से भी करवाए, तो क्या वह उसके दीर्घकालीन अहित और दुःख के लिए होगा?”
“हाँ, भन्ते!”
“और कालामों! जब किसी व्यक्ति के भीतर द्वेष उपजता हो… या भ्रम उपजता हो, तो वह उसके हित के लिए उत्पन्न होगा अथवा अहित के लिए?”
“अहित के लिए, भन्ते!”
“और कोई दुष्ट, द्वेष के वशीभूत, द्वेषचित्त से बेकाबू होकर… या कोई मूढ़, भ्रम के वशीभूत, भ्रमित चित्त से बेकाबू होकर — जीवहत्या करे, चोरी करे, पराई औरत के पीछे जाए, झूठ बोले, और यह दुसरों से भी करवाए, तो क्या वह उसके दीर्घकालीन अहित और दुःख के लिए होगा?”
“हाँ, भन्ते!”
“क्या लगता है, कालामों? यह स्वभाव कुशल हैं अथवा अकुशल?”
“अकुशल, भन्ते!”
“दोषपूर्ण है अथवा निर्दोष?”
“दोषपूर्ण, भन्ते!”
“ज्ञानियों द्वारा निंदित है अथवा प्रशंसित?”
“निंदित, भन्ते!”
“उसे मानने से, उस पर चलने से अहित होता है, दुःख आता है अथवा नहीं? या क्या लगता है?”
“उसे मानने से, उस पर चलने से अहित होता है, भन्ते! दुःख आता है। ऐसा ही हमें लगता है।”
“इसलिए मैं कहता हूँ कि — न सुनी-सुनाई बात मानो, न परंपरागत बात मानो, न अटकलेबाजी मानो, न शास्त्र-ग्रंथों की बात मानो, न तर्कसंगत कारण मानो, न अनुमानित कारण मानो, न समतुल्य परिस्थिति में लागू होती बात मानो, न अपनी धारणा से मेल खाती बात मानो, न संभावित बात मानो, न श्रमण गुरु के सम्मानार्थ मानो। बल्कि, जब तुम्हें स्वयं पता चले कि — ‘यह स्वभाव अकुशल है। यह स्वभाव दोषपूर्ण है। यह स्वभाव ज्ञानियों द्वारा निंदित है। यह स्वभाव मानने से, उस पर चलने से अहित होता है, दुःख आता है’ — तब तुम्हें वह स्वभाव त्याग देना चाहिए।
और कालामों! जब तुम्हें स्वयं पता चले — ‘यह स्वभाव कुशल है। यह स्वभाव निर्दोष है। यह स्वभाव ज्ञानियों द्वारा प्रशंसित है। यह स्वभाव मानने से, उस पर चलने से हित होता है, सुख आता है’ — तब तुम्हें वह स्वभाव धारण कर उसी में रहना चाहिए।
क्या लगता है, कालामों? जब किसी व्यक्ति के भीतर निर्लोभता उपजती हो… निर्द्वेषता उपजती हो… निर्भ्रमता उपजती हो, तो वह उसके हित के लिए उत्पन्न होगी अथवा अहित के लिए?”
“हित के लिए, भन्ते!”
“और कोई निर्लोभी न लोभ के वशीभूत, न लोभचित्त से बेकाबू होकर… [अथवा] कोई निर्द्वेषी न द्वेष के वशीभूत, न द्वेषचित्त से बेकाबू होकर… [अथवा] कोई निर्भ्रमी न भ्रम के वशीभूत, न भ्रमचित्त से बेकाबू होकर — जीवहत्या न करे, चोरी न करे, पराई औरत के पीछे न जाए, झूठ न बोले, और न ही दुसरों से करवाए, तो क्या वह उसके दीर्घकालीन हित और सुख के लिए होगा?”
“हाँ, भन्ते!”
“और क्या लगता है, कालामों? यह स्वभाव कुशल है अथवा अकुशल?”
“कुशल, भन्ते!”
“दोषपूर्ण है अथवा निर्दोष?”
“निर्दोष, भन्ते!”
“ज्ञानियों द्वारा निंदित है अथवा प्रशंसित?”
“प्रशंसित, भन्ते!”
“उसे मानने से, उस पर चलने से हित होता है, सुख आता है अथवा नहीं? या क्या लगता है?”
“उसे मानने से, उस पर चलने से हित होता है, भन्ते! सुख आता है। ऐसा ही हमें लगता है।”
““इसलिए मैं कहता हूँ कि — न सुनी-सुनाई बात मानो, न परंपरागत बात मानो, न अटकलेबाजी मानो, न शास्त्र-ग्रंथों की बात मानो, न तर्कसंगत कारण मानो, न अनुमानित कारण मानो, न समतुल्य परिस्थिति में लागू होती बात मानो, न अपनी धारणा से मेल खाती बात मानो, न संभावित बात मानो, न श्रमण गुरु के सम्मानार्थ मानो। बल्कि, जब तुम्हें स्वयं पता चले कि — ‘यह स्वभाव कुशल है। यह स्वभाव निर्दोष है। यह स्वभाव ज्ञानियों द्वारा प्रशंसित है। यह स्वभाव मानने से, उस पर चलने से हित होता है, सुख आता है’ — तब तुम्हें वह स्वभाव धारण कर उसी में रहना चाहिए।
—अंगुत्तरनिकाय ३:६६ : केसमुत्तिसुत्त
अर्थात, मानव अपने कर्मों को चुनने के लिए स्वतंत्र है। हमारे वर्तमान जीवन की परिस्थितियाँ हमारे पिछले कर्मों का फल हैं, और साथ ही वर्तमान कर्मों से भी प्रभावित होती हैं। हम अपने वर्तमान कर्मों से अपने भविष्य को प्रभावित कर सकते हैं। मानव कर्म करके अपना भाग्य स्वयं रचता है, और परिणाम भुगतता है। उसका जन्म भी कर्म से होता है, और मौत भी। कर्म से वह जीवन में सुख-दुःख का अनुभव करता है। कर्म की गंभीरता से तय होता है कि उनके परिणाम तत्काल समाप्त होंगे, अथवा दीर्घकाल तक चलते रहेंगे। कोई कर्म अनंतकाल तक फल नहीं दे सकता।
कर्म का सिद्धांत यह नहीं कहता कि सब कुछ पूर्व-निर्धारित है। पिछले कर्मों के कारण परिस्थितियाँ ज़रूर उपजती हैं, किन्तु हमारे पास वर्तमान कर्मों को चुनने की स्वतंत्रता है।
यदि आप चलते हुए एक मोड़ पर आएँ, जहाँ से तीन रास्ते निकलते हों, तो आपको उनमें से एक रास्ता चुनना होगा। हो सकता है कि एक भले रास्ते पर घनी छाया प्रदान करते पेड़ हों, शीतल जल की व्यवस्था हो, और सुखद विश्रामगृह हो। दूसरा रास्ता बंजर ऊबड़-खाबड़ इलाके से गुज़रता हो, जहाँ चोर-लुटेरे घात लगाकर बैठे हों। जबकि तीसरा रास्ता जंगल के एकांत से गुज़रता हो।
आप जो रास्ता चुनेंगे, उसके फल भुगतेंगे और उसकी मंज़िल पर पहुँचेंगे। किन्तु, तब भी तीनों रास्तों का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार अलग-अलग होगा।
किन्तु, व्यक्ति की आज की परिस्थिति भी कर्मों के परिणामों की तीव्रता को कम या अधिक कर सकती है। उदाहरण के तौर पर, यदि कोई व्यक्ति भोग-संसार में लिप्त रहता है, तो उसे अपने पूर्व-कर्मों के फल एक विशेष प्रकार से प्राप्त होते हैं। वहीं, यदि वह धर्म का पालन करता है, तो वही कर्म के फल भिन्न रूप में प्रकट होते हैं। और यदि वह व्यक्ति बुरे कर्मों में डूब चुका हो, तो वही फल उसे एक और अधिक कष्टदायक रूप में मिलते हैं।
इसी प्रकार, भोग-संसार में डूबे व्यक्ति के आज के कर्म भविष्य में एक विशेष ढंग से परिणाम देंगे। जबकि, धर्म का पालन करने वाले या दुष्ट व्यक्ति के वही कर्म भविष्य में भिन्न-भिन्न रूपों में फलित होंगे। कर्मों के प्रभाव का तरीका और अनुभव व्यक्ति के वर्तमान आचरण और मनोदशा पर निर्भर करता है। भगवान उपमा देकर बताते हैं —
जैसे किसी बकरी-चोर के पकड़े जाने पर, कसाई को छूट मिलती है कि वह उसे पीटे, बांधे, काटे या जैसा चाहे करे। उसी तरह, कोई पुरुष निर्धन, ग़रीब, अल्पसंपन्न होता है। इस तरह के बकरी-चोर के पकड़े जाने पर, कसाई को छूट मिलती है कि वह उसे पीटे, बांधे, काटे या जैसा चाहे करे।
किन्तु, किसी दूसरे बकरी-चोर के पकड़े जाने पर कसाई को छूट नहीं होती कि वह उसे पीटे, बांधे, काटे या जैसा चाहे करे। उसी तरह, कोई पुरुष महाधनी, महासंपत्तिशाली एवं महाभोगसंपदा का स्वामी, राजा अथवा राजमंत्री होता है। इस तरह के बकरी-चोर के पकड़े जाने पर कसाई को छूट नहीं होती है। अधिकतम वह यही कर सकता है कि हृदय के आगे हाथ जोड़कर याचना करें: “साहब, कृपा कर मेरी बकरी या उसकी कीमत ही दे दीजिए!”
उसी तरह, कोई व्यक्ति काया में अविकसित रहता है, शील में अविकसित रहता है, चित्त में अविकसित रहता है, तथा अंतर्ज्ञान में अविकसित रहता है — संकीर्ण सोच, संकुचित हृदय वाला व्यक्ति, जो पीड़ित रहता हो। इस तरह के व्यक्ति का छोटा-सा पापकर्म उसे नर्क ले जाता है।
जबकि कोई व्यक्ति काया में सुविकसित रहता है, शील में सुविकसित रहता है, चित्त में सुविकसित रहता है, तथा अन्तर्ज्ञान में सुविकसित रहता है — खुले मन, उदार हृदय वाला व्यक्ति, जो ‘विस्तृत, विशाल, असीम मानस’ से रहता हो। इस तरह के व्यक्ति का छोटा-सा पापकर्म उसे इसी जीवन में मात्र क्षणभर महसूस होता है।
—अंगुत्तरनिकाय ३:१०१ : लोणकपल्लसुत्त
कर्म केवल सजा या इनाम नहीं है, बल्कि एक प्राकृतिक नियम है जो कारण और प्रभाव पर आधारित है। इसलिए बुद्ध बताते हैं कि हमें अपने कर्मों के प्रति सचेत रहना चाहिए, बुरे कर्मों को त्यागना चाहिए, अच्छे कर्मों को धरण करना चाहिए, और चित्त को स्वच्छ करते रहना चाहिए। जिससे हमें, दूसरों को, या सभी को दीर्घकालीन लाभ होगा।
कर्म का सिद्धांत पूर्णतः समझना सरल नहीं है। समय की धारा में उपजे विविध कर्मों के विविध परिणाम जानना जटिल कार्य है। इसलिए, भगवान उसे सरल बनाकर कहते हैं —
"सब्बपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा,
सचित्तपरियोदपनं, एतं बुद्धान सासनं।"— धम्मपद बुद्धवग्गो १८३
पालि साहित्य के अनुसार, बुद्ध ने संबोधि पाने के बाद पहले सात सप्ताह विमुक्ति सुख को महसूस करते हुए बिताएँ। इसके बाद उन्होंने दूसरों को इस सुख का मार्ग दिखाने का निर्णय लिया। उनकी शिक्षाएँ उन्हीं तीन अंतर्दृष्टियों पर आधारित रही, जिनसे उनकी मुक्ति संभव हो सकी थी। अब, उन्हें ऐसे कर्म पता चल चुके थे, जो सुखी और अनुकूल पुनर्जन्म प्रदान करते थे। और साथ ही, उन्होने ऐसे भी कर्म ढूँढ निकाले थे, जो पुनर्जन्म के दुष्चक्र से आज़ाद करते थे। तब बुद्ध ने श्रोताओं को इन दोनों के ही बारे में खुलकर बताया।
बुद्ध ने कर्म की पहली सूची को लोकिय सम्यकदृष्टि कहा, और उसे इस तरह व्यक्त किया —
“दान होता है; चढ़ावा होता है; आहुति होती है। अच्छे या बुरे कर्मों के फल-परिणाम होते हैं। लोक होता है; परलोक होता है। माता होती है; पिता होते है। स्वयं से उत्पन्न सत्व होते हैं। और ऐसे श्रमण-ब्राह्मण होते हैं, जो सम्यक-साधना कर, सम्यक-प्रगति करते हुए विशिष्ट-ज्ञान का साक्षात्कार कर, लोक-परलोक होने की घोषणा करते हैं।”
—मज्झिमनिकाय ११७ : महाचत्तारीसक सुत्त
इसका सहज तात्पर्य है — “दानी स्वभाव और उदार चित्त से सुखों की शुरुवात होती है। नैतिकता केवल कोई सामाजिक परंपरा नहीं, बल्कि इस सृष्टि का नियम है। भलाई करने से देर-सवेर सुखद फल आते हैं, जबकि बुराई के घोर परिणाम प्रतीक्षा करते हैं। जिसके जैसे कर्म और वृत्ति हो, उसका मृत्यु के बाद उस विशेष लोक में पुनर्जन्म होता है। माता-पिता के प्रति एक विशेष नैतिक ऋण होता है। दुनिया में कुछ ऐसे अंतर्ज्ञानी लोग होते हैं, जो ब्रह्मचर्य धारण कर सम्यक-साधना करते हैं। और जब उन्हें सच्चा और प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त हो, तो वे लोगों को बताते हैं।” जीवन में इस तरह का दृष्टिकोण और विश्वास रहना ऐसी न्यूनतम शर्त है, जो पुनर्जन्म के चक्र में बार-बार सुखद परिणाम लाती है। किन्तु, इस सूची में से कोई बात भ्रष्ट हो जाए, तो सुखों की गारंटी खत्म होती है। इस तरह, सुखी पुनर्जन्म के उद्देश्य से यह सम्यकदृष्टि होना अनिवार्य है।
और, बुद्ध ने कर्म की दूसरी सूची को लोकुत्तर सम्यकदृष्टि कहा, और उसे कुछ इस तरह व्यक्त किया —
“दुःख का ज्ञान, दुःख उत्पत्ति का ज्ञान, दुःख निरोध का ज्ञान, और दुःख निरोधकर्ता मार्ग का ज्ञान।”
—दीघनिकाय २२ : महासतिपट्ठान सुत्त
इन्हें चार आर्यसत्य कहते हैं। जो पुनर्जन्म के दुष्चक्र से मुक्त होना चाहता है, उसे यह समयकदृष्टि होना अनिवार्य है।
जिस तरह तीसरी अंतर्दृष्टि पहले दो अंतर्दृष्टियों से विकसित हुई, उसी तरह, लोकुत्तर सम्यकदृष्टि भी लोकिय से विकसित हुई है । यदि किसी में नैतिकता न हो, और वह जीवन में सुविधानुसार अच्छे और बुरे, दोनों ही कर्मों की खिचड़ी बनाता हो, तो चाहे वह कितनी भी कठोर साधना करे, उसे लोकुत्तर सम्यकदृष्टि का फल मिलना असंभव है। लोकिय और लोकुत्तर दोनों ही स्तर मिलकर कर्म के सिद्धान्त की एक पूर्ण और पूरक तस्वीर प्रदान करते हैं। पहला स्तर कर्म को, ज़ूम-आउट कर के, दूर से जीवनकथा और पात्र के रूप में दिखाता है। जबकि दूसरा स्तर उसे, ज़ूम कर के, बहुत पास से वर्तमान के क्षण में दिखाता है, जहाँ कथा और पात्र नजर नहीं आते; बल्कि केवल घटनाएँ और उनके घटकों की उत्पत्ति और निरोध होते हुए दिखता है ।
बुद्ध का धर्म उपदेश भी अक्सर इसी क्रमबद्ध तरीके से होता था। पहले वे जीवन को ज़ूम-आउट कर के दान, अच्छे-बुरे कर्म (=शील), स्वर्ग, कामभोग के दुष्परिणाम और संन्यास के लाभ उजागर करते। इसके बाद, यदि श्रोता आश्वस्त और प्रसन्न दिखता, तब ज़ूम कर के आर्यसत्य का बोध कराते। इस तरह, लोकिय से होकर ही लोकुत्तर मार्ग निकलता है। किसी को पहले ही कदम में अमूर्त चार आर्यसत्य प्रासंगिक नहीं लग सकते। उन्हें उचित लोकिय संदर्भ में समझाना आवश्यक होता है। बुद्ध उपदेश में क्रमबद्धता का उद्देश्य प्रासंगिकता और संदर्भ की भावना प्रदान करता था।
सम्यकदृष्टि की लोकिय शुरुवात करते हुए, बुद्ध अच्छे कर्मों का वर्णन दो गुणों से करते हैं — उदारता और सदाचार। इन दोनों में सभी प्रकार की भलाई — चाहे काया, वाणी और मन से हो, समाहित होती है। उदारता केवल भौतिक दान-दक्षिणा-उपहार देना ही नहीं है, बल्कि अपने समय, ऊर्जा और ज्ञान देने के साथ-साथ मैत्री-करुणा, कृतज्ञता और क्षमा देना भी होता है। सदाचार की शुरुआत जीवहत्या, चोरी, अनैतिक यौन-संबंध, झूठ बोलने और नशे-पते का सेवन त्यागकर होती है। और अग्रवर्ती स्तर पर छह और अकुशल कर्मों को त्यागना होता है — फूट डालती वाणी, कटु वाणी, निरर्थक बातें, लालच, दुर्भावना और मिथ्यादृष्टि । साथ ही, ये पाँच की बिक्री कर आजीविका कमाने का घोर परिणाम बताया गया हैं — गुलाम, नशीले पदार्थ, जहर, हथियार और प्राणी।
बुद्ध ने बुरे कर्मों को त्यागने के, और उदारता-सदाचार में लगने के अनेक पुरस्कार गिनाए है, जो सृष्टि के संविधान के तहत मिलते हैं। ये पुरस्कार इसी जीवन में और मरणोपरांत अगले जीवन में देखे जा सकते हैं। बौद्ध साहित्य में पुण्यशाली कर्मों से मिले स्वर्गीय सुखों का शानदार वर्णन दर्ज है। वहीं, पापकारी कर्मों से मिले नारकीय दंडों का भी वर्णन है। चूँकि सीमित चित्त के कर्म अनंतकाल तक फल-परिणाम नहीं दे सकते, कोई स्वर्गिक रचना नित्य और शाश्वत नहीं है। इसलिए, बुद्ध का उपदेश अगले चरण की ओर आगे बढ़ता है — इंद्रिय-सुखों में खामियाँ और दुष्परिणाम।
संसार के भवचक्र में दुःखों के साथ अनेक सुख भी हैं। किन्तु कोई सुख स्थायी नहीं हैं, नित्य नहीं है। शक्तिशाली पुण्य भी क्षीण होते-होते उत्पन्न सुखों को समाप्त करने लगते हैं। कर्म करने के पीछे चित्त की परिवर्तनशीलता होती हैं। अक्सर चित्त सुखों में लिप्त होकर मदहोश होने लगता है, उसे विस्मरण होने लगता है। इसलिए पुनर्जन्म हमेशा ऊँचाई पर ही टिका नहीं रहता, बुरी तरह गिर भी पड़ता है। इसलिए पुनर्जन्म में भटकते हुए जीवन की दिशा अनिश्चित और भ्रामक होती है। तब बुद्ध इससे बचने का उपाय अपने उपदेश के अगले चरण में बताते हैं — संन्यास के लाभ।
जाहिर है कि संसरण करते हुए सुखों की क्षणभंगुरता का अहसास होने पर, श्रोता त्याग और विमुक्ति के मार्ग पर विचार करने के लिए तैयार हो जाता है। इसकी उपमा स्वच्छ धुले वस्त्र के रंग पकड़ने से होती है। तब उसके बाद, बुद्ध श्रोता के चित्त को लोकिय स्तर से उठाकर लोकुत्तर पर ज़ूम करते हैं — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, और मार्ग । ये सत्य दरअसल तीन बुद्ध-विशेष सिद्धांतों से जुड़ी हुई है — इदप्पच्चयता, पटिच्च समुप्पाद, और चतु अरियसच्च। इन तीनों सिद्धांतों को जानने पर ही बौद्ध सिद्धांतों का पूर्ण चित्र उभरता है।
संबोधि की खोज करते हुए, बुद्ध को इस “कारण कार्य” सिद्धांत का पता चला, जो दरअसल एक जटिल चक्र है। बुद्ध ने इसे “इदप्पच्चयता” कहा, क्योंकि यह अनुभवों का ‘यह’ या ‘वह’ शब्दों में तत्कालिक वर्णन करता है। उन्होंने इस सिद्धांत को एक सामान्य सूत्र में व्यक्त किया —
“(१) जब यह है, तब वह है।
(२) इसके उत्पन्न होने से वह उत्पन्न होने लगता है।
(३) जब यह नहीं है, तब वह भी नहीं है।
(४) इसके अन्त होने से उसका भी अन्त होने लगता है।”
—अंगुत्तरनिकाय १०:९२ : वेर सुत्त
इस सूत्र की व्याख्या कई तरीके से हो सकती हैं। उनमें एक तरीका कारण-कार्य संबंध की जटिलता को भलीभाँति समझाता है। इसे दो भिन्न प्रणालियों — कालक्रमिकता और तत्कालता — के आपसी गठजोड़ में देखा जाता है।
उदाहरण के लिए, बीज बोते ही आपको तत्काल फल नहीं मिलता। बीज को उचित परिस्थिति मिलनी चाहिए, जैसे नम भूमि, उर्वरक इत्यादि। तब समय पाकर वह अंकुरित होता है, पौधा बनता है, और तब कुछ वर्षों के बाद बड़ा होकर फ़ल देने लगता है। इस तरह, यह प्रक्रिया कालक्रमिक हुई। दूसरी-ओर, कुछ प्रक्रिया तत्काल परिणाम देती है। जैसे अग्नि में हाथ डालने पर प्रतिक्षा करनी नहीं पड़ती, तत्काल असर दिखता है। उसी तरह, कालक्रमिकता और तत्कालता दोनों मिलकर एक अनोखी ‘अ-क्रमिक प्रणाली’ बनाते हैं।
बुद्ध के दर्शाए सरल सूत्र में (१) और (३) को एक तत्काल जोड़ी के रूप में देखा जा सकता है। अर्थात, “जब यह है, तब वह है; जब यह नहीं है, तब वह भी नहीं है” — ये दोनों वर्तमान के क्षण में तत्काल परिणाम दिखाती हैं। दूसरी-ओर, (२) और (४) को कालक्रमिक जोड़ी के रूप में देखा जा सकता है। अर्थात, “इसके उत्पन्न होने से वह उत्पन्न होने लगता है; इसके अन्त होने से उसका भी अन्त होने लगता है” — ये दो कुछ समय लेकर भविष्य में परिणाम दिखाती हैं।
सरल शब्दों में बताया जाएँ, तो हमारे कर्म तत्काल वर्तमान में कुछ फ़ल देते हैं, और समय पाकर भविष्यकाल में भी कुछ कालक्रमिक फ़ल देते हैं। उसी तरह, आज वर्तमान की परिस्थिति वर्तमान के तत्काल कर्मों से प्रभावित हुई है, और साथ ही अतीत के कालक्रमिक कर्मों से भी उपजी है। उसी तरह, भविष्यकाल में जो परिस्थिति होगी, वह भविष्य के तत्काल कर्मों के साथ-साथ हमारे आज वर्तमान के कालक्रमिक कर्मों से भी उपजेगी। हमारे प्रत्येक कर्म का प्रभाव वर्तमान क्षण पर पड़ता है, और उसकी प्रतिध्वनि भविष्य में भी सुनायी देती है। कर्म की तीव्रता, उसके भारी या हल्केपन पर निर्भर करता है कि ये प्रतिध्वनियाँ कितने समय तक गूँजती रहेगी।
यह सिद्धांत ऊपरी-ऊपरी तौर पर अतिसरल प्रतीत होता है, किन्तु ‘कालक्रमिकता और तत्कालता’ का आपसी गठजोड़ अत्यंत जटिल होने लगता है, जिसमें अनेक चक्र चलने लगते हैं। प्रत्येक घटना एक संदर्भ में घटती है, जो कालचक्र की पिछली घटनाओं और वर्तमान कर्मों के मिलाप से प्रभावित होती है। ये प्रभाव एक-दूसरे को उग्र बना सकते हैं, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में रह सकते हैं, अथवा एक-दूसरे को रद्द भी कर सकते हैं। इस प्रकार, भले ही यह अनुमान लगाना संभव है कि एक विशेष प्रकार का कर्म एक निश्चित परिणाम देगा, किन्तु यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि वह परिणाम कब और कहाँ महसूस होगा।
यह जटिलता और अधिक बढ़ती है, जब दोनों प्रणालियों का मिलाप चित्त के अनुशय में होता हैं। मन अपनी सोच और इरादे से इन दोनों प्रणालियों को जीवित और सक्रिय बनाए रखने का कार्य करता है। हम अपने ही द्वारा चलायी गयी प्रक्रियाओं को महसूस कर व्याकुल होते रहते हैं। चूँकि हम अपने वर्तमान कर्मों से उपजते परिणामों पर प्रतिक्रिया भी देते रहते हैं, इसलिए कर्मों का चक्र चलते रहता है। हमारी प्रतिक्रियाएँ दुष्चक्र चला सकती हैं, जो हमारे वर्तमान के कर्म इनपुट और उसके उपजते परिणामों को अधिक उग्र बनाकर व्याकुलता बढ़ा सकती हैं। अथवा, हमारी प्रतिक्रियाएँ अच्छा सुचक्र भी चला सकती हैं, जो दोनों को रद्द करते हुए शान्ति बढ़ा सकती हैं।
उदाहरण के लिए, कोई गुस्से में आकर कर्म करे, तो उसे तत्काल बेचैनी और व्याकुलता का अनुभव होगा। इसलिए, हो सकता है कि वह और अधिक गुस्से में आकर प्रतिक्रिया दे। इस तरह, दुष्चक्र चलने लगता है, जो बुरे से बदतर होकर उसका गुस्सा अनियंत्रित कर सकता है। किन्तु, किसी दूसरे को वही बेचैनी और व्याकुलता का अनुभव हो, तो वह तुरंत ब्रेक लगाकर दुष्चक्र को रद्द कर, शान्त हो सकता है। याद रहे कि कर्मों के परिणाम उनके पूरे संदर्भ से निर्धारित होते हैं। अर्थात, किसी कर्म को करने से पहले क्या मनःस्थिति थी, करते समय क्या थी, और करने के पश्चात क्या हुई। ये और कई अन्य घटक मिलकर निर्धारित करते हैं कि उसका परिणाम कब, कहाँ और कितनी उग्रता से महसूस होगा।
इस तरह, कालक्रमिकता और तत्कालता के मेलमिलाप से कर्म सिद्धान्त अत्यंत जटिल और अक्रमिक बनता है। किन्तु इसी मेलमिलाप से कारण मुक्तिद्वार खुलने की संभावना भी बनती है। यदि वह केवल कालक्रमिक होता, तो सृष्टि नियतिवाद सिद्धान्त से यंत्रवत चलती, और दुनिया की तमाम घटनाओं की सटीक भविष्यवाणी करना संभव होता। दूसरी-ओर, यदि वह केवल तत्काल होता, तो एक क्षण का दूसरे से कोई संबंध न रहता, और दुनिया पूर्णतः अराजक और अकस्मात चलती। लेकिन दोनों का मेलमिलाप होने से ही, कोई अतीत में देखी प्रक्रियाओं से सीख सकता है, और उस सीख को वर्तमान में चल रही प्रक्रिया पर लागू कर के रोक सकता है। यदि अन्तर्ज्ञान सच्चा हो तो वह उस प्रक्रिया से हमेशा के लिए मुक्त हो सकता है। आर्य अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करके, कोई अपने कर्म को बेहतर और सूक्ष्म बनाते हुए, अंततः कर्म के पूर्ण चक्र से ही मुक्ति पा सकता है।
इसके अलावा, इदप्पच्चयता की अ-क्रमिकता यह भी दर्शाती है कि किसी एक पैमाने पर हो रही प्रक्रिया, दूसरे छोटे या बड़े पैमाने पर भी समान-रूप से होती है। यदि किसी बड़े अक्रमिक पैमाने को समझना हो, तो उसी के जैसे किसी छोटे पैमाने पर ध्यान देना होगा। क्योंकि उस छोटे पैमाने का पैटर्न बड़े पैमाने पर भी लागू होगा। उदाहरण के तौर पर, कोई अपने भीतर चार महाभूत — पृथ्वी, अग्नि, जल और वायु का पैटर्न समझ ले, तो उसे सम्पूर्ण ब्रह्मांड का भौतिक पैटर्न समझ में आता है। क्योंकि छोटे या बड़े पैमाने पर धातुएँ एक-सा व्यवहार करती हैं। इसी कारण से कहा जाता हैं कि “स्वयं को जान लो तो दुनिया जान जाओगे।” उसी तरह, यदि कोई वर्तमान क्षण में ध्यान लगाकर अपना कर्म रोक देता हो, तो उसे मुक्ति से साथ-साथ भूत-भविष्य-वर्तमान का त्रिकाल ज्ञान भी बोनस में मिलता है।
यह इदप्पच्चयता से जुड़ा धर्म का अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसका अर्थ है “पटिच्च” (=निर्भर होना) और “समुप्पाद” (=उत्पन्न होना)। इसका तात्पर्य है कि कोई भी घटना या वस्तु स्वतंत्र रूप से मौजूद नहीं है, बल्कि अन्य कारकों पर निर्भर करती है। संसार की सभी घटनाएँ और वस्तुएँ एक दूसरे पर निर्भर होकर ही उत्पन्न होती है, या विलुप्त भी होती हैं। एक घटना दूसरी घटना का कारण बनती है, जो फिर तीसरी घटना का कारण बनती है, और इस तरह यह १२ कड़ियों की श्रृंखला चलती रहती है। यह सिद्धांत बताता है कि सब परिवर्तनशील है और कुछ भी स्थायी नहीं है। इससे आत्मा के होने की या ना होने की चर्चा अप्रासंगिक बन जाती है।
यह सिद्धांत उस सटीक कड़ी पर प्रकाश डालता है, जिस कड़ी को तोड़कर कर्मचक्र से मुक्ति संभव हो सकती है। उस कड़ी को तोड़ने के लिए हमें वर्तमान के क्षण में मिलने वाले अवसर को पहचानना होता है। इसलिए कर्म के प्रभाव और उसके दुष्चक्र को समझने के लिए हमें अत्यंत स्वच्छ, स्थिर और एकाग्र चित्त की आवश्यकता होती है, जो सूक्ष्मता से उस कड़ी पर ध्यान केन्द्रित कर पाए।
इस सिद्धांत को १२ कड़ियों की श्रृंखला में बताया जाता है —
अविद्या (अज्ञानता)
रचना (कायिक, वाचिक और चेतसिक रचना)
चैतन्य
नाम-रूप (संस्पर्श+वेदना+नजरिया+चेतना+मनन+चार महाभूत)
छह आयाम (छह इंद्रियों की संभावना)
संस्पर्श (इंद्रियों पर उनके विषय टकराना)
संवेदना (अनुभूति)
तृष्णा
आसक्ति (उपादान=आधार=ईंधन)
भव (अस्तित्व बनना या बनाना)
जन्म
बुढ़ापा और मौत
हालाँकि यह कड़ियाँ एक क्रमिक प्रणाली की तरह लग सकती हैं, लेकिन ये भी कई अक्रमिक दुश्चक्रों (फीडबैक लूप) से भरी होकर छोटे-बड़े पैमाने पर चलती रहती हैं, जब तक रोकी न जाएँ। जैसे, जन्म की प्रक्रिया दो पैमानों पर घटती हैं — भौतिक जन्म, और चित्त में स्व-अस्तित्व का अनुभव पैदा होना। इन्हीं कड़ियों में बुद्ध का कर्म और पुनर्जन्म को लेकर गहरा विश्लेषण छिपा है।
जैसे, कर्म, जो नाम-रूप के तहत ‘चेतना’ घटक में शामिल है, अपनी कड़ी में आसक्ति और भव के जरिये किसी विशेष लोक में जन्म लेने के लिए जिम्मेदार है। कर्म ही पाँच स्कंधों (रूप, संवेदना, नजरिया, रचना और चैतन्य) को उत्पन्न करता है, जो तृष्णा और आसक्ति उत्पन्न कराते हैं। जैसे ही आसक्ति उत्पन्न हो, वैसे ही उस लोक में भव के तहत अस्तित्व बनना शुरू हो जाता है — चाहे वह कामलोक हो, ब्रह्मलोक हो या अरूप आयाम हो। ये लोक संसार के विविध स्तरों पर छिपी दुनिया ही नहीं, बल्कि चित्त-अवस्थाओं के विविध स्तर भी दर्शाते हैं। जैसे हमारी कुछ चित्त-अवस्थाएँ कामसुख ढूँढती हैं, कुछ ब्रह्मसुख में स्थिर होती हैं, तो कुछ अरूप आयाम में ब्रह्मांड में फैलती हैं।
‘भव और जन्म लेने’ की कड़ी को दर्शाने के लिए ‘नींद आकर स्वप्न देखने’ की उपमा दी जाती है। जिस तरह, चित्त पर तंद्रा की चादर बिछकर, जागृत-अवस्था से संपर्क टूटता है, और फिर किसी अन्य ‘स्थान और काल’ का चित्र प्रकट होकर स्वप्न चलने लगता है। उसी तरह, कोई कल्पना चित्र प्रकट होना भव-प्रक्रिया है। स्वप्न जैसे, उस चित्र में प्रवेश कर कोई भूमिका अदा करने लगना, जन्म लेकर जिम्मेदारियाँ अदा करने की प्रक्रिया हैं। पालि अट्ठकथाएँ ज़ोर देकर कहती हैं कि ‘भव और जन्म’ की कड़ी ‘सो कर स्वप्न’ देखने की प्रक्रिया जैसी ही है। इस उपमा से पता चलता है कि भवचक्र से मुक्ति को ‘जागृती’ से क्यों जोड़ा जाता है।
किसी सत्व का किसी लोक में जन्म हो, तब ‘नाम-रूप और चैतन्य’ की कड़ी उसके अस्तित्व को बनाएँ रखती है। चैतन्य के बिना सत्व की भौतिकता-मानसिकता (नामरूप) बच नहीं सकती, और उसके छह इंद्रियों की संभावनाएँ भी खत्म हो जाती है। दूसरी-ओर, भौतिकता-मानसिकता के सिवा चैतन्य और कही आधार नहीं ले सकता। और यही कड़ी कर्म कौशलता को भी विकसित करती है, और इस सम्पूर्ण दुश्चक्र को तोड़ने का कार्य भी करती है । नाम-स्कन्ध के सभी पाँच घटक उस प्रक्रिया में हिस्सा लेते हैं।
सबसे पहले कौशलता बढ़ाने की चेतना (इरादा) होनी चाहिए। उसकी चेतना जो परिणाम देगी, वह लोभ, द्वेष या भ्रम में लिप्त चेतना से बहुत भिन्न होगा। कोई कहाँ ध्यान देता है—उचित या अनुचित जगह पर—उसे ‘मनसिकार’ या मनन करना कहते हैं, जो घूमकर चेतना को प्रभावित करता है। उदाहरणार्थ, कोई कामुकता से जुड़ी अनुचित बात पर ध्यान दे, तो काम-संस्पर्श टकरा कर काम-नजरिया और काम-संवेदना उत्पन्न होंगे, जो घूमकर उसकी चेतना को कामराग में दूषित कर सकते हैं। दूसरी-ओर, यदि कोई कामुकता के दुष्परिणाम पर ध्यान दे, तो यही चक्र उल्टा घूमकर विराग चित्त की कुशल चेतना उत्पन्न होगी, जो राहत का संवेदना महसूस कराएगी। यदि नाम-स्कन्ध के सभी घटक दूषित और अनुचित प्रभाव से छूटते हों, तो रूप-स्कन्ध पर असर पड़ता है, चैतन्य पर असर पड़ता है, और आगे की कड़ियों पर असर पड़ता है। इस तरह, कर्म की कौशलता परिणामों में उत्तमता और सूक्ष्मता लाती है।
हम जिस नजरिए पर ध्यान दें, उस तरह का चक्र घूमने लगता है और परिणामों में अंतर आने लगता है। यदि कोई केवल मुक्ति की चेतना जगाएँ, तब उस कर्म से भी चक्र घूमते रहता है, रुकता नही। हमें यह जानना जरूरी है कि चैतन्य सभी ग्यारहों कड़ियों के साथ लगातार जुड़ा रहकर प्रभावित होते रहता है। कर्म के इस चक्रव्युह को तोड़ने के लिए अक्रिया नहीं, बल्कि कर्म की प्रक्रिया पर सूक्ष्म से सूक्ष्मतम ध्यान देना आवश्यक है। जब हमारा सूक्ष्मतम, स्थिर और एकाग्र ध्यान कर्म की प्रक्रियाओं में कौशलता प्राप्त कर पारंगत हो जाता है, तब उसे मुक्ति का अनोखा अवसर दिखाई देता है, जिसे अतम्मय अवस्था कहते हैं, जिसमें कर्म की किसी भी प्रक्रिया में चैतन्य हिस्सा नहीं लेता, और कुछ भी न रचने से अरचित-अवस्था का साक्षात्कार करता है। जिस तरह पका हुआ फल पेड़ से स्वयं गिर पड़ता है, उसी तरह उन्नत और पका हुआ चित्त कर्म-प्रक्रिया से छुटकर मुक्त हो जाता है।
तब पता चलता है कि मुक्तिमार्ग में सबसे बड़ा अवरोध ‘अविद्या’ है, जो ध्यान को पूर्णतः सचेत और जागरूक नहीं होने देती। अविद्या-रूपी बेहोशी में लगातार चित्त रचनाएँ बनती रहती हैं, और उनसे फूटती व्याकुलता की लहरें टकरा-टकराकर शान्ति भंग करती रहती हैं। उस अविद्या को खत्म करने की विद्या चार आर्यसत्यों से व्यक्त होती है। जब अविद्या खत्म हो तो अनेक अंगों-घटकों पर चिपकी हुई तृष्णा बलहीन हो-होकर गिर पड़ती है, और दुष्चक्र थम जाता है।
भगवान बुद्ध के उपदेशों की सबसे आम और व्यापक रूप से जानी जाने वाली प्रस्तुति उनके पहले उपदेश में दी गई चार आर्य सत्य की शिक्षा है। बुद्ध ने कहा कि ये सत्य मुक्ति के मार्ग पर चलने के लिए आवश्यक सभी जानकारी का सार प्रस्तुत करते हैं। जिस प्रकार हाथी के विशाल पदचिह्न में अन्य सभी जानवरों के पदचिह्न समाहित हो जाते हैं, उसी प्रकार चार आर्य सत्य अपनी व्यापकता के कारण सभी कल्याणकारी और लाभकारी शिक्षाओं को अपने भीतर समाहित करते हैं।
जबकि कई व्याख्याकार इन चार सत्य के वास्तविक विषय पर ध्यान केंद्रित करते हैं, अक्सर यह भूल जाते हैं कि इन्हें ‘आर्य सत्य’ क्यों कहा जाता है। दरअसल, ‘आर्य’ शब्द इस बात का खुलासा करता है कि बुद्ध ने अपनी शिक्षा को इस विशेष ढांचे में क्यों ढाला और यह शब्द हमें बोध कराता है कि कैसे पूरी धम्म और विनय की शिक्षा एक अनूठे और अपूर्व ध्येय से जुड़ी है।
‘आर्य’ शब्द का प्रयोग बुद्ध ने विशेष प्रकार के व्यक्तियों के लिए किया है, जिनका निर्माण उनके उपदेशों के अभ्यास से होता है। बुद्ध ने अपने उपदेशों में इंसानों को दो व्यापक श्रेणियों में बांटा है। एक ओर ‘पुथुज्जन’ हैं, अर्थात वे सामान्य लोग जो अभी भी कलुष और अज्ञानता के आवरण में फंसे हुए हैं। दूसरी ओर ‘आर्य’ हैं, अर्थात वे विशेष व्यक्ति जो अपने आंतरिक चरित्र की महानता से आर्य माने जाते हैं, न कि जन्म, सामाजिक दर्जे या किसी धार्मिक पदवी के कारण।
ये दो श्रेणियाँ पूरी तरह से अलग-अलग और स्थिर नहीं हैं, बल्कि अज्ञानता और अहंकार में जकड़े हुए अंधकारमय दुनिया के इंसान से लेकर पवित्र और ज्ञानवान व्यक्तियों तक, एक श्रेणी से दूसरी श्रेणी तक का मार्ग दिखाई देता है। इस मार्ग के उच्चतम शिखर पर अर्हंत हैं, जिन्होंने सत्य का इतना गहन अनुभव कर लिया है कि उनके सारे दोषों का अंत हो चुका है और इसी के साथ वे सभी दुखों से मुक्त हो गए हैं।
हालाँकि, यह मार्ग क्रमिक अभ्यास और प्रगति से पार किया जाता है, इसमें हर एक कदम समान रूप से नहीं होता। एक विशेष बिंदु पर, जो दुनिया के साधारण इंसान और एक आर्य के बीच का विभाजन है, एक छलांग लगानी पड़ती है। यह छलांग चार आर्य सत्यों को आत्मसात करने से होती है। इस कारण से बुद्ध द्वारा प्रकट किए गए चार सत्य आर्य कहलाते हैं। जब हम इन सत्यों को पूरी तरह समझ लेते हैं, तो हम साधारण इंसान के दर्जे से निकलकर आर्यों की श्रेणी में शामिल हो जाते हैं, और इस विशिष्ट दृष्टि के साथ बुद्ध के शिष्य समुदाय का हिस्सा बन जाते हैं।
सत्यों की इस गहरी समझ से पहले, चाहे हम कितनी भी आध्यात्मिक गुणों से संपन्न क्यों न हों, हम पूरी तरह से सुरक्षित नहीं होते। हमारी साधारण इंसान के रूप में अर्जित पुण्य क्षीण हो सकता है, जिससे हम जीवन के चक्र में ऊपर-नीचे होते रहते हैं। लेकिन एक बार जब हमने सत्यों को समझ लिया, तो हम इस दुनिया के साधारण जनों की श्रेणी से उठकर आर्यों की पंक्ति में शामिल हो जाते हैं। तब सत्य की दृष्टि हमारे सामने प्रकट होती है और भले ही अंतिम लक्ष्य अभी प्राप्त न हुआ हो, लेकिन मुक्ति का मार्ग स्पष्ट हो जाता है।
चार आर्य सत्यों का यह पूर्ण अनुभव हमारे जीवन में चार मुख्य कार्यों को सामने लाता है:
पहला आर्य सत्य - दुख: इसे पूरी तरह से समझना होता है। आर्यजन जीवन की धारा में बहने के बजाय इसके सार को गहराई से समझने का प्रयास करते हैं। हमें भी अपने जीवन पर गहराई से चिंतन करना होगा, और बुद्ध द्वारा बताए गए सभी दुखों के स्वरूप को समझना होगा।
दूसरा आर्य सत्य - दुख का कारण: इसे त्यागना होता है। आर्यजन अपनी अशुद्धियों को जड़ से खत्म करने की प्रक्रिया शुरू करते हैं। हम भी यदि आर्य बनना चाहते हैं, तो अपनी तृष्णा और कलुष का सामना करना सीखना होगा और इन्हें धीरे-धीरे त्यागना होगा।
तीसरा आर्य सत्य - दुख का निरोध: इसे साकार करना होता है। यद्यपि निर्वाण का अनुभव केवल आर्य ही कर सकते हैं, हम सभी अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य को समझ सकते हैं और सभी अस्थायी चीज़ों से मुक्ति की आकांक्षा को अपने जीवन का ध्येय बना सकते हैं।
चौथा आर्य सत्य - आर्य अष्टांगिक मार्ग: इसे विकसित करना होता है। बुद्ध के मार्गदर्शन से हम इस मार्ग पर चल सकते हैं, जो हमें अज्ञानता के अंधकार से निकालकर ज्ञान और निर्वाण की ओर ले जाता है।
इन सत्यों का गहन अनुसंधान ही हमें आर्य बनने का रास्ता दिखाता है। जब हमने इन्हें समझ लिया, तब जीवन का अंतिम लक्ष्य हमारे सामने स्पष्ट हो जाता है - और वह है दुख का अंत, पूर्ण मुक्ति, और अर्हंतत्व की प्राप्ति।
संसार के भवचक्र को चार आर्यसत्यों के निगाहों से देखने पर अविद्या और तृष्णा विलुप्त हो जाती है। इसलिए बुद्ध इन्हें लोकुत्तर सम्यकदृष्टि की श्रेणी में रखते है। ये आर्यसत्य कर्म के प्रश्नों को उसी तनाव-व्याकुलता पर केंद्रित करते हैं, जो लोगों को अपने जीवन में सीधे दिखायी दें, प्रासंगिक लगे, और उनके अनुभवों के केंद्र में हो। जब बोधिसत्व को अपने पूर्वजन्म याद आए, तो उनकी हर यादों में उस जीवन में हुआ सुख-दुख का अनुभव शामिल था। उसी तरह, जब अधिकांश लोग अपनी जिंदगी की बात करते हैं, तो वे भी स्वाभाविक रूप से इन्हीं मुद्दों के आस-पास की बातें करते हैं।
हालाँकि चार आर्यसत्य केवल सुख-दुःख की कहानियों तक सीमित नहीं हैं। वे उस पर एक ऐसा स्थायी इलाज प्रस्तुत करते हैं, जिसके बाद वह दुःख दुबारा हमारे मत्थे न पड़े। वे हमें इसे समस्या-समाधान के दृष्टिकोण से देखना सिखाते हैं, जैसे कोई व्यक्ति कौशलता बढ़ाने में प्रयासरत हो। ध्यानसाधना करने वाले केवल सतही और निष्क्रिय अवलोकन से इसे पूरी तरह नहीं समझ सकते। बल्कि उन्हें अधिक संवेदनशील होकर स्मृति, समाधि और प्रज्ञा को विकसित करने की प्रक्रिया में सक्रिय-रूप से भाग लेना आवश्यक हैं। और एक ऐसी व्यावहारिक कौशलता प्राप्त करना आवश्यक है, जो चित्त-घटकों का कारण-कार्य संबंध गहराई से समझ पाएँ। कर्म कौशलता को बढ़ाते हुए चरम स्तर तक ले जाने से ही इस दुष्चक्र को रोकने की विद्या पता चलती है।
इदप्पच्चयता, पटिच्च समुप्पाद, और चार आर्यसत्य की गहरी समझ ने बुद्ध को एक सर्वोपरि पुरस्कार से सम्मानित किया। और वह था, निर्वाण। निर्वाण उनकी कर्म कौशलता की परिपूर्णता को दर्शाता है। जब कौशलता पूर्ण रूप से विकसित हो जाती है, तो अरचित-अवस्था की ओर ले जाती है, जो लोक-परलोक के अनुभव से परे होता है। और जब वहाँ से इस लोक में लौटा जाता है, तो दिखता है कि यह लोक पूरी तरह से पूर्व-कर्मों के परिणामस्वरूप ही उपजा है। जब नया कर्म जुड़ता नहीं, तो ब्रह्मांड का अनुभव खत्म हो जाता है। तब, इस बात की पुष्टि होती है कि कर्म ही ब्रह्मांड के अनुभव को आकार देने में प्रमुख भूमिका निभाता है। इस प्रकार, बुद्ध की भी कर्म-कौशलता वर्तमान क्षण पर केंद्रित थी, लेकिन परिणामी संबोधि से पता चला कि उसी में त्रिकाल ज्ञान छिपा है।
कर्म बौद्ध धर्म का एक मूलभूत सिद्धान्त है, और इस पर आस्था रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है। कर्म पर सीख, चाहे कथात्मक रूप में हो या सैद्धान्तिक रूप में, साधना को दिशा और तात्कालिकता देता है। यह संसार कर्म के नियमों से ही संचालित होता है। इन नियमों को समझने से ही सुख और राहत स्थायी-रूप में मिल सकती है। पुण्य हो या पाप, चेतना से बनते हैं, और लोक-परलोक के अनुभव को कायम रखते हैं। इस पर महारत हासिल करने से ही, अंततः कर्मचक्र को थामा जा सकता है।
बौद्ध साधना में “शून्य अवस्था” का बड़ा महत्व है, जिसमें कर्म की प्रक्रियाओं पर बिना सवाल उठाएँ कि “उसके पीछे कोई आत्मा है या नहीं”, उन पर निष्पक्ष और तटस्थ ध्यान केंद्रित करना होता है । ध्यान केन्द्रित करने और उसका विश्लेषण करने के लिए स्मृति, समाधि और प्रज्ञा को ऊँचे स्तर तक विकसित करना होता है। जब प्रज्ञा पूर्णतः विकसित होकर परिपूर्ण हो जाती है, तब कर्म प्रक्रिया से जुड़े सभी घटकों का विश्लेषण भी अंततः खत्म हो जाता है। तब अंततः प्रज्ञाचक्षु के आगे दो ही अंतिम कर्म बचते हैं — ध्यान देना और विश्लेषण करना। उन दोनों ही बची प्रक्रियाओं का शॉर्ट सर्किट होकर मुक्तिद्वार खुलता है।
कोई व्यक्ति कर्म सिद्धांत पर विश्वास रखे बिना भी बौद्धसाधना के कुछ अंगों को धारण कर सकारात्मक परिणाम पा सकता है। किन्तु, मंजिल पर पहुँच कर साधना खत्म करने के लिए इस सिद्धांत में अडिग विश्वास अनिवार्य है। यह विश्वास धैर्य, प्रतिबद्धता और विवेक को बनाए रखने में मदद करता है, जो समग्र अभ्यास के लिए महत्वपूर्ण हैं। साधना पथ पर अग्रसर होते हुए, कर्म सिद्धांत के प्रति श्रद्धा बढ़ती जाती है। क्योंकि उसके परिणाम पुष्टि करते रहते हैं।
कर्म में आस्था उचित मार्गदर्शन और प्रोत्साहन देता है। एक-ओर लोकीय पुण्य करते हुए, वह सुखी भविष्य की ओर बढ़ता है, जबकि दूसरी-ओर लोकुत्तर मुक्तिसाधना करते हुए, वह सुखी वर्तमान में जीने लगता है। और एक समय आता है जब दोनों ही एक होकर व्यक्ति को त्रिकाल बंधनों से मुक्ति प्रदान कर स्थायी सुख में डुबोते हैं।