नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

बौद्ध स्थल

लुम्बिनी

लुम्बिनी वह पवित्र स्थल है जहाँ सिद्धार्थ गौतम का जन्म हुआ था। उस समय यह क्षेत्र शाक्यों का राज्य था, जिसकी राजधानी कपिलवस्तु थी। यह घटना वैशाख पूर्णिमा के दिन हुई थी, जिसे बौद्ध परंपराओं में विशेष महत्व प्राप्त है। प्राचीन सूत्रों में सिद्धार्थ के जन्म की घटनाओं का विवरण मिलता है, जहाँ यह वर्णित है कि माया देवी ने लुम्बिनी वन में एक साल वृक्ष की टहनी पकड़कर सिद्धार्थ को जन्म दिया। लुम्बिनी, जो आज नेपाल के रूपन्देही जिले में स्थित है, भारत की सीमा के पास है और इसे आधुनिक युग में भी बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल माना जाता है।

आज यह माया देवी विहार उसी जगह पर स्थित है, जहाँ सिद्धार्थ गौतम ने जन्म लिया। यह विहार बुद्ध की माता ‘माया’ को समर्पित है। यहाँ पर गर्भावस्था के दौरान माया देवी के स्वप्न में आए श्वेत हाथी और सिद्धार्थ के जन्म की घटनाओं को भव्य रूप में दर्शाया गया है।

इसके अतिरिक्त, लुम्बिनी में कई अर्हन्तों के स्तूप भी मौजूद हैं, जो प्राचीन काल में बौद्ध धर्म के महान संतों की स्मृति में बनाए गए थे। यह स्थल न केवल ऐतिहासिक महत्व रखता है, बल्कि यहाँ हर वर्ष लाखों श्रद्धालु आते हैं, जो भगवान बुद्ध के जन्म स्थल का दर्शन करके उनके जीवन और शिक्षाओं से प्रेरणा प्राप्त करते हैं।

यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी है, जिससे इसकी पवित्रता और ऐतिहासिकता और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। सम्राट अशोक ने अपनी लुम्बिनी यात्रा के दौरान यहाँ एक ऐतिहासिक स्तंभ स्थापित किया था:

यह स्तंभ उस समय की ब्रह्मी लिपि में उत्कीर्ण है, जिसमें बुद्ध के जन्मस्थान का उल्लेख किया गया है। यह स्तंभ महावंश और दीपवंश जैसी ग्रंथों में भी उल्लेखित है, और इसे थेरवाद अनुयायियों के लिए एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण माना जाता है। अशोक द्वारा स्थापित यह स्तंभ थेरवाद, महायान, और वज्रयान सभी बौद्ध अनुयायियों के लिए समान रूप से पूजनीय है।


बोधगया

बोधगया वह पवित्र स्थल है जहाँ सिद्धार्थ गौतम ने बोधि प्राप्त कर बुद्ध बने। यहाँ स्थित बोधि वृक्ष के नीचे ही बुद्ध ने निर्वाण पाया, जो आज बौद्ध शिष्यों के लिए धर्म के प्रति संपूर्ण समर्पण का प्रतीक है।

बोधि वृक्ष, एक पवित्र पीपल का पेड़, ऐतिहासिक रूप से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसे कई बार नष्ट करने की कोशिश की गई। सम्राट अशोक की पत्नी तिष्यरक्षिता ने ईर्ष्या में इसे कटवाया, लेकिन अशोक ने इसे पुनः स्थापित किया। बाद में राजा शशांक ने भी इसे नष्ट करने का प्रयास किया, पर हर बार इस वृक्ष को जीवन मिला। आज का बोधिवृक्ष उसी मूल वृक्ष की शाखा से उत्पन्न है, जिसे अशोक की सन्तान भिक्षु महेंद्र और भिक्षुणी संघमित्रा श्रीलंका ले गए थे, जहाँ इसका अंश आज भी अनुराधापुर में महाबोधि वृक्ष के रूप में पूजित है।

महाबोधि विहार बौद्ध धर्म का सबसे महत्वपूर्ण स्थल है। इसका निर्माण सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में कराया था। वर्तमान संरचना पाँचवीं-छठी शताब्दी की है, जिसमें १८० फीट ऊँचा शिखर थायलैंड के राजा द्वारा चढ़ाए गए ३०० किलो शुद्ध स्वर्ण से सुशोभित है। यह विहार भारतीय वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है और इसका धार्मिक महत्व अतुलनीय है।

हर वर्ष लाखों श्रद्धालु यहाँ बोधि वृक्ष के समक्ष ध्यान करते हैं और बुद्ध की संबोधि प्राप्ति की स्मृति में पूजा करते हैं। २००२ में इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। महाबोधि विहार में बुद्ध की ध्यानमग्न मूर्ति स्थापित है, जो ध्यान और बौद्ध शिक्षाओं के प्रति समर्पण का प्रतीक है। प्राचीनकाल से बोधगया बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए अटूट श्रद्धा और प्रेरणा का स्रोत रहा है, और आज भी यह स्थल वैश्विक तीर्थ यात्रा का केंद्र है।


सारनाथ

सारनाथ, भगवान बुद्ध की प्रथम उपदेश स्थली, बौद्ध धर्म के इतिहास में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यहाँ बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था, जिसे धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है। यही वह स्थान है जहाँ उन्होंने अपने पाँच प्रथम भिक्षुओं को शिक्षा दी और संघ की स्थापना की। इसके प्रमुख स्मारक जैसे धम्मेक स्तूप, चौखंडी स्तूप और अशोक स्तंभ इस स्थल की ऐतिहासिक और धार्मिक धरोहर को दर्शाते हैं।

धम्मेक स्तूप

धम्मेक स्तूप, जिसका नाम “धम्म” और “इक” से बना है (धर्म के चक्र को चलाना), वह प्रमुख स्थान है जहाँ बुद्ध ने अपने शिष्यों को पहला उपदेश दिया। यह स्तूप विशाल है, जिसकी ऊँचाई लगभग ४३.६ मीटर है, और व्यास २८ मीटर के आसपास है। स्तूप के निचले भाग पर सुंदर अलंकरण और खुदाई की गई है, जो ५वीं-६ठी शताब्दी की कारीगरी को दर्शाते हैं।

यह स्तूप बौद्ध अनुयायियों के लिए अत्यधिक पवित्र है, क्योंकि यही वह स्थान है जहाँ से भगवान बुद्ध की शिक्षाओं का प्रचार आरंभ हुआ, और संघ बढ़ता ही चला गया। धम्मचक्र प्रवर्तन की घटना बौद्ध धर्म के प्रारंभिक क्षणों का प्रतीक है, और इसे देखने के लिए हर साल दुनिया भर से श्रद्धालु आते हैं।

चौखंडी स्तूप

चौखंडी स्तूप वह स्थान है जहाँ भगवान बुद्ध ने अपने प्रथम शिष्यों — पञ्चवर्गीय भिक्षुओं — से पहली बार मुलाकात की थी। यह स्तूप एक ऊँचे टीले पर बना है, जो दूर से ही आकर्षित करता है। इसका शीर्ष भाग एक चौकोर मंडप के रूप में है, जिसे मुगल शासक हुमायूँ के आगमन की स्मृति में बनवाया गया था। इस स्तूप का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व अत्यधिक है, और इसकी संरचना प्राचीन बौद्ध वास्तुकला की विशिष्टता को दर्शाती है।

चौखंडी स्तूप न केवल बुद्ध के शिष्यों से पहली मुलाकात का प्रतीक है, बल्कि यह बौद्ध धर्म के प्रारंभिक चरणों की ओर भी इशारा करता है, जब उनके शिष्य संघ का हिस्सा बने थे और उनके मार्ग को अपनाया था।

अशोक स्तंभ और सिंह शीर्ष

सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को व्यापक रूप से फैलाने का कार्य किया, और सारनाथ में उनकी उपस्थिति का सबसे प्रमुख उदाहरण है अशोक स्तंभ। यह स्तंभ बौद्ध धर्म के प्रतीक के रूप में खड़ा है, और इसके शीर्ष पर चार सिंहों की प्रतिमा है, जिन्हें सिंह शीर्ष कहा जाता है। यह अशोक स्तंभ भारतीय राष्ट्रीय प्रतीक का आधार है, और यह भारत के गौरव और बौद्ध धर्म के प्रसार का प्रतीक बन गया है।

स्तंभ पर लिखी गई ब्राह्मी लिपि में अंकित शिलालेख सम्राट अशोक के धर्म प्रचार के प्रयासों और उनके धार्मिक आदर्शों की अभिव्यक्ति हैं। सिंह शीर्ष, जो आज सारनाथ संग्रहालय में सुरक्षित है, भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर का एक अमूल्य हिस्सा है।


४. कुशीनगर

परिनिर्वाण स्थल

उत्तर प्रदेश के कुशीनगर, जिसे उस समय कुसिनारा के नाम से जाना जाता था, मल्लों का प्रमुख नगर था। हिरण्यवती नदी के तट पर बसे शाल वृक्षों के उपवन में भगवान बुद्ध ने अपने जीवन के अंतिम क्षण बिताए। वैशाख पूर्णिमा की वह सुनहरी रात, जब जुड़वा शाल वृक्षों के बीच उनकी सिंह शैय्या का सिरहाना उत्तर दिशा की ओर रखा गया, एक अद्भुत दृश्य का साक्षी बनी। बुद्ध ने एक पैर दूसरे के ऊपर रखकर शांति की मुद्रा में लेटते हुए, हजारों श्रद्धालुओं को अंतिम दर्शन देना शुरू किया।

उस रात बुद्ध की काया एक दिव्य प्रकाश से जगमगा उठी। वे जुड़वा शाल वृक्ष बेमौसम खिल गए और पुष्पों की बारिश करने लगे, मानो उनकी अंतिम उपस्थिति को सम्मानित कर रहे हों। आसमान से दिव्य पुष्प और चंदन की वर्षा होने लगी, जैसे देवता अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हो। आकाश में दिव्य संगीत की मधुर ध्वनि गूंज उठी। दस चक्रवाल से देवता भगवान के अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पड़े, और आकाश में एक भी स्थान खाली नहीं रहा। सभी देवता और मानव शोक में डूबे थे, लेकिन निर्वाण प्राप्त अर्हन्तों के मन में गहरी शांति थी।

भोर से ठीक पहले, एक संन्यासी ने प्रश्न किया। बुद्ध ने उसे उत्तर देकर संतुष्ट किया और उसे अपना अंतिम शिष्य बनाया। फिर भिक्षुसंघ के बीच अंतिम संवाद हुआ, जहाँ उन्होंने सभी को शंका निवारण का लंबा अवसर दिया, लेकिन शिष्यों की आस्था इतनी अडिग थी कि किसी को कोई प्रश्न नहीं था। इसके बाद, बुद्ध ने अपने शिष्यों को अंतिम उपदेश दिया—मुक्ति के मार्ग पर चलने का आह्वान किया। विभिन्न समाधि अवस्थाओं से गुजरते हुए, भगवान बुद्ध ने अंततः महापरिनिर्वाण प्राप्त किया।

यह स्थल, जहाँ उन्होंने अंतिम सांस ली, परिनिर्वाण स्थली के रूप में अमर हो गया। कुशीनगर में उनकी यह अंतिम यात्रा और महापरिनिर्वाण का क्षण बुद्ध धर्म के इतिहास में एक अनंत महत्व का प्रतीक बन गया।

उत्खनन करने के बाद, यहाँ परिनिर्वाण विहार बनाया गया है, जो चारों ओर से अनेक प्राचीन अर्हन्तों के स्तूप से घिरा हैं। पश्चिम में विहारों का समूह है, जबकि दक्षिण में अर्धस्तंभ सज्जा वाले अलंकृत ईंटों से निर्मित छोटे स्तूपों का समूह स्थित है। पूर्व की दिशा में दो तल वाला एक बड़ा चबूतरा और छोटे-छोटे स्तूप हैं, जबकि उत्तर में मनौती के स्तूपों और विहारों के अवशेष पाए गए हैं। इन सभी संरचनाओं की तिथि तीसरी शती ई.पू. से दसवीं शती ई. तक आंकी गई है।

मुकुटबन्धन चैत्य / रामाभार स्तूप

भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद, कुशीनगर के मल्लों ने छह दिनों तक उनके शरीर की पूजा और सत्कार करते रहें। सातवें दिन, भगवान का पार्थिव शरीर कुशीनगर के पूर्व स्थित मुकुटबन्धन चैत्य के पास ले जाया गया, जो परिनिर्वाण स्थल से लगभग दो किलोमीटर पूर्व में, हिरण्यवती नदी के किनारे स्थित है। चार मल्लों ने स्नान करके नए वस्त्र धारण किए और भगवान की चिता को अग्नि देने का प्रयास किया, लेकिन वे सफल नहीं हुए। जब भंते महाकश्यप और उनके साथ पाँच सौ भिक्षु आए और उन्होने श्रद्धांजलि अर्पित की, तब चिता में स्वयं अग्नि लग गई।

धातु वितरण

अग्नि शांत होने पर उनकी अस्थियाँ अद्भुत धातुओं में परिवर्तित हो गईं, जिन्हें लेकर तत्कालीन आठ देशों के राजा आपस में विवाद करने लगे कि इनकी प्राप्ति का असली हकदार कौन है। यह बहस तीव्र होने लगी, जिसे दोण नामक एक सम्मानित ब्राह्मण ने शांत किया। सभी राजाओं को संतुष्ट करने के लिए, उसने यहाँ इस जगह पर, बुद्ध की धातुओं को आठ बराबर भागों में विभाजित किया।

धातुओं के आठ भाग उन आठ राज्यों के शासकों को दिए गए, जिन्होंने अपने-अपने राज्यों में बुद्ध के सम्मान में स्तूपों का निर्माण कराया। दोण ब्राह्मण को भी अस्थि–कलश प्राप्त हुआ, जिस पर उसने भी स्तूप बनवाया। इसके अलावा, अस्थियों की राख भी पिप्फलिवन के मौर्य लोगों द्वारा एक स्तूप में संरक्षित की गई।

इन स्तूपों का उद्देश्य केवल श्रद्धांजलि अर्पित करने तक सीमित नहीं था, बल्कि इनका मुख्य उद्देश्य यह था कि लोग यहाँ आकर भगवान बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं से प्रेरणा प्राप्त करें और उनके धम्म के मार्ग पर चलने का संकल्प लें। ऐसे स्तूपों का निर्माण बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए धम्म का अनुसरण करने और बुद्ध के प्रति अपनी असीम श्रद्धा व्यक्त करने का अवसर बना।


५. श्रावस्ती

श्रावस्ती वह स्थान है जहाँ भगवान बुद्ध ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा व्यतीत किया। यह प्राचीन कोशल राज्य की राजधानी थी, जिसके महाराज प्रसेनजित बुद्ध के प्रसिद्ध अनुयायी बने थे। बुद्ध के समय श्रावस्ती एक समृद्ध नगर था, और यहाँ उन्होंने अपने २४ वर्षावास में से १९ को बिताया, जिसमें उन्होंने अनेक प्रमुख और अतिमहत्वपूर्ण उपदेश भी दिए।

जेतवन विहार

श्रावस्ती में स्थित जेतवन विहार वह प्रमुख स्थान है जहाँ भगवान बुद्ध अक्सर निवास करते थे। जेतवन का नाम महाराज प्रसेनजित के पुत्र राजकुमार जेत के नाम पर है, जो उसका असली मालिक था। यह विहार नगर श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक उपासक द्वारा भगवान बुद्ध के लिए बनाया गया था, जिसने जेतवन को बेशकीमती सोने के सिक्कों से राजकुमार जेत से खरीदकर इसे बुद्ध को दान कर दिया था। विहार भगवान बुद्ध और उनके शिष्यों के लिए ध्यान और शिक्षा का प्रमुख स्थल बना रहा। यहाँ इसी जगह पर बुद्ध ने अपने जीवन के अधिकांश उपदेश दिए।

मूलगन्ध कुटी

मूलगन्ध कुटी ही भगवान का निवास स्थल था, जहाँ वे अक्सर ध्यानमग्न होते थे। इसका वातावरण आज भी शांत महसूस होता है। यहाँ पर बौद्ध धर्म के अनुयायी ध्यान और अपने आध्यात्मिक संकल्पों को मजबूत करने आते हैं।

अंगुलीमाल स्तूप

जेतवन से बाहर, श्रावस्ती में स्थित अंगुलीमाल स्तूप उस कुख्यात डाकू अंगुलीमाल की कथा से जुड़ा हुआ है, जिसने भगवान बुद्ध के उपदेश से अपने जीवन में परिवर्तन लाया। अंगुलीमाल ने अपने पापमय हत्यारे जीवन को त्यागकर भिक्षु का जीवन अपना लिया और अरहंत पद भी प्राप्त किया। यह स्तूप उस अद्भुत परिवर्तन और प्रेरणा का प्रतीक है, जो बौद्ध शिक्षाओं से किसी के भी जीवन में आ सकता है।

अनाथपिण्डक स्तूप (कच्ची कुटी)

कच्ची कुटी या अनाथपिण्डक स्तूप भी श्रावस्ती के महत्वपूर्ण स्थलों में से एक है। यह स्तूप उसी प्रसिद्ध बौद्ध अनुयायी अनाथपिण्डक की स्मृति में बनाया गया है, जिसने अपनी अपार धन-सम्पत्ति का उपयोग भगवान बुद्ध और उनके संघ की सेवा करने में किया था। कच्ची कुटी उपासकों के लिए प्रेरणा स्थल होने ने साथ बौद्ध धर्म के उदय के महत्वपूर्ण क्षणों का साक्षी भी है।


राजगीर

राजगीर का बौद्ध धर्म में अत्यधिक महत्व है, क्योंकि यह प्राचीन मगध साम्राज्य की राजधानी, राजगृह, थी। इस समय मगध के सम्राट बिम्बिसार थे, जिन्होंने भगवान बुद्ध को अपने राज्य में स्वागत किया और संपूर्ण संघ को राजसी सम्मान प्रदान किया। सम्राट बिम्बिसार ने न केवल अपनी प्रजा में बौद्ध धर्म को फैलाने का प्रयास किया, बल्कि तकरीबन एक लाख की संख्या में अपनी प्रजा को एक साथ लेकर उन्होंने बुद्ध के उपदेशों को सुनकर धर्म-चक्षु भी प्राप्त किया।

बिम्बिसार ने अपने मित्र राजाओं को भी बौद्ध धर्म अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया, जिससे बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार और भी विस्तृत हुआ। बाद में, बिम्बिसार का पुत्र अजातशत्रु सम्राट बना, जिसने भगवान के महापरिनिर्वाण के पश्चात पहली बौद्ध संगीति का आयोजन किया। बिम्बिसार का यह समर्थन बौद्ध संघ की नींव के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था, जिसने राजगीर को एक प्रमुख धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल के रूप में स्थापित किया।

वेणुवन विहार

वेणुवन, जिसे बांस का वन भी कहा जाता है, सम्राट बिम्बिसार द्वारा भगवान बुद्ध और भिक्षु संघ को समर्पित किया गया था। यह पहला विहार था जिसे भगवान ने दान स्वरूप स्वीकार किया। ज्ञान प्राप्त करने के आरंभिक दौर में भगवान बुद्ध ने ज्यादातर यहीं निवास किया। यहीं सारिपुत्त और मौग्गलान, जो भगवान बुद्ध के प्रमुख शिष्य थे, भिक्षु संघ में शामिल हुए। यह स्थान शांत और प्राकृतिक था, जो ध्यान के लिए आदर्श था। साथ ही, यह नगर से दूर न होने के कारण गृहस्थ लोग भी भगवान के उपदेश सुनकर लाभ उठा सकते थे।

करंदा या कलंदक झील, थेरवाद अनुयायियों के लिए एक विशेष स्थान है क्योंकि यह भगवान बुद्ध से जुड़ी कई महत्वपूर्ण घटनाओं का स्थल है। कहा जाता है कि बुद्ध इसी छोटी झील में स्नान करने के पश्चात गृद्धकूट पर्वत पर चढ़कर जाते थे, जो इसे एक पवित्र जलाशय बनाता है। यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता और धार्मिक महत्त्व इसे एक अनूठा स्थल बनाते हैं, जहाँ लोग शांति और समर्पण की अनुभूति कर सकते हैं।

गृद्धकूट पर्वत

गृद्धकूट पर्वत भगवान बुद्ध के उपदेशों से जुड़े प्रमुख स्थलों में से एक है। इसे “गृद्धकूट” इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसका आकार गिद्ध के समान है, और यहाँ कभी बहुत से गिद्धों का निवास था। देवता आमतौर पर इंसानों की भीड़ में आना पसंद नहीं करते, इसलिए यह स्थान नगर से दूर, शांत और एकांत में स्थित था। यही कारण है कि देवता भगवान बुद्ध से मिलने के लिए अक्सर यहाँ आते थे। इसी स्थल पर चार महाराज देवताओं ने भगवान को प्रसिद्ध आटानाटीय सूत्र सुनाया था, और यहाँ से आसपास के सुंदर प्राकृतिक दृश्य भी देखे जा सकते थे।

आज, गृद्धकूट पर्वत विश्वभर के बौद्धों के लिए एक प्रमुख तीर्थस्थल बन चुका है। आगंतुक यहाँ चढ़ाई कर सकते हैं और पत्थर की उन सीढ़ियों को देख सकते हैं, जिन्हें बुद्ध के समय का माना जाता है। यहाँ एक छोटा स्तूप और ध्यान स्थल भी है, जहाँ श्रद्धालु ध्यान कर सकते हैं, जैसे भगवान बुद्ध और भिक्षुओं ने किया था।

सप्तपर्णी गुफ़ा

सप्तपर्णी गुफा, अर्थात ‘सात पत्तों’ की गुफा, राजगीर से करीब दो किमी दूर स्थित है। बुद्ध ने अपने परिनिर्वाण के पूर्व इस गुफा में कुछ समय बिताया था, और उनके परिनिर्वाण के पश्चात यहाँ पाँच सौ अरहंत भिक्षुओं ने पहली बौद्ध संगीति का आयोजन किया। कहा जाता है कि इसी स्थान पर आयुष्मान महाकश्यप भंते की अध्यक्षता में आयुष्मान आनंद भंते ने ‘एवं मे सुतं’ कहते हुए सुत्तपिटक के सूत्रों को दोहराया।

इसके साथ ही, आयुष्मान उपालि भंते ने विनयपिटक को आकार देते हुए भिक्षुओं के आचार-संबंधित नियमों का पाठ किया। इस प्रकार, सप्तपर्णी गुफा ने बौद्ध धर्म के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे धर्म और विनय की भाणक परंपरा के आधार पर प्रचार-प्रसार संभव हो सका। यह स्थल आज भी थेरवाद अनुयायियों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थल बना हुआ है।


वैशाली

वैशाली का महत्व बौद्ध परंपरा के साथ-साथ जैन और वैदिक परंपरा में भी अत्यधिक है। यह लिच्छवियों की राजधानी थी, जो मुख्यतः बौद्ध उपासक थे और अपनी समृद्धि के लिए प्रसिद्ध थे। भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं से कहा था कि यदि आपके पास दिव्यचक्षु न हो, तो आप तैतीस देवताओं का दिव्य रूप नहीं देख सकते। लेकिन लिच्छवि राजकुमारों के दर्शन से आपको उनके दिव्य रूप का बोध हो सकता है। यहाँ की प्रसिद्ध नगरवधू आम्रपाली भी भिक्षुणी संघ में शामिल होकर अरहंतपद प्राप्त कर चुकी थीं। इसके अलावा, अंतिम जैन तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म भी वैशाली के निकट स्थित क्षत्रियकुंड में हुआ था। वैशाली का उल्लेख विष्णु पुराण में भी मिलता है, जिसमें 34 महाराजाओं की पीढ़ियों का उल्लेख है, जिनमें अंतिम महाराज श्रीराम के पिता दशरथ थे।

कुटागारशाला

वैशाली

भगवान बुद्ध वैशाली में कुटागारशाला विहार में निवास करते थे। यहीं उन्होंने महापरिनिर्वाण के पूर्व अपना अंतिम बड़ा उपदेश दिया, और यहीं सम्राट काल-अशोक ने द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया। महापरिनिर्वाण के बाद भगवान की अस्थिधातु को लिच्छवियों ने यहाँ के स्तूप में स्थापित किया।

अस्थिधातु

यहाँ का प्राचीन अशोक स्तंभ अपनी उत्कृष्ट अवस्था में मौजूद है, जो इस क्षेत्र के ऐतिहासिक महत्व को दर्शाता है।

अशोक स्तंभ

इसके साथ ही, प्रसिद्ध अभिषेक पुष्करिणी का धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व है; कहते हैं कि इसी पुष्करिणी के पवित्र जल से वैशाली के चुने हुए महाराज का राज्याभिषेक होता था। वैशाली की धरोहर आज भी बौद्ध शिष्यों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थल बनी हुई है, जो धार्मिक और ऐतिहासिक गहराई को संजोए हुए है।


सांची

सांची, मध्य प्रदेश में स्थित, बौद्ध धर्म के सबसे महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक स्थलों में से एक है। यहाँ की स्तूप और अन्य धार्मिक संरचनाएँ न केवल बौद्ध कला और वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती हैं, बल्कि यह बौद्ध धर्म के समृद्ध इतिहास का भी साक्षात्कार कराती हैं। यह सम्राट अशोक द्वारा तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में निर्मित किया गया था, जो आज भी लाखों श्रद्धालुओं और पर्यटकों को आकर्षित करता है। सांची को १९८६ में यूनेस्को से विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी गई।

सांची के ये स्तूप गहरी आध्यात्मिकता और शिक्षाओं के प्रतीक होने के साथ-साथ स्थापत्य कला के भी अद्भुत नमूने हैं। यहाँ की नक्काशी और चित्रण बौद्ध धर्म के विभिन्न पहलुओं को स्पष्ट करते हैं। सांची की अप्रतिम प्राकृतिक सुंदरता भी पर्यटकों को मंत्रमुग्ध कर देती है। चारों ओर हरियाली, शांत वातावरण, और ऐतिहासिक संरचनाओं का संयोजन इसे एक अद्भुत तीर्थ स्थल बनाता है।

सांची का सबसे प्रसिद्ध स्तूप १ भगवान बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं के प्रतीक के रूप में कार्य करता है। इसकी विशालता और संरचना इसे अद्वितीय बनाती है। इस स्तूप की ऊँचाई लगभग १६ मीटर है और व्यास ३६ मीटर। इसका मूल उद्देश्य बुद्ध के अस्थि-धातुओं का संरक्षण करना था। स्तूप पर उकेरे गए अद्भुत नक्काशी और चित्रण बौद्ध समुदाय की विविधताएँ और उनके समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास को दर्शाते हैं।

सारिपुत्र स्तूप या स्तूप २, जो भगवान बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में से एक सारिपुत्र भंते को समर्पित है, इस क्षेत्र की धार्मिक महत्वता को और बढ़ाता है। सारिपुत्र भंते बुद्ध के सबसे प्रज्ञावान शिष्यों में अग्र माने जाते थे। उनके योगदान ने बौद्ध धर्म के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस स्तूप का निर्माण बुद्ध के समकालीन समय में किया गया था और यह भारतीय वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है।

स्तूप ३ या मोग्गल्लान स्तूप भी बुद्ध के दूसरे अग्र शिष्य महामोग्गल्लान के सम्मान में बनाया गया है। भंते महामोग्गल्लान को उनके अद्वितीय ध्यान और ऋद्धियों के लिए जाना जाता था। यह स्तूप विशेष रूप से ध्यानसाधना और ऋद्धियों का प्रतीक है।


नालन्दा

नालन्दा महाविहार, मगध राज्य के राजगीर में स्थित, प्राचीन भारत का सबसे महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय था। इसकी स्थापना गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ने ईसवी ४५० में की थी और यह लगभग एक हजार वर्षों तक सक्रिय रहा। नालन्दा महायान बौद्ध संप्रदाय का प्रमुख केंद्र था, जहां अन्य सभी छात्र भी शिक्षा ग्रहण करते थे। इस विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का परिचायक हैं। ह्वेनसांग और इत्सिंग जैसे चीनी यात्री जिन्होंने सातवीं शताब्दी में यहाँ अध्ययन किया, ने नालन्दा के बारे में विस्तृत विवरण प्रदान किया है। यहाँ लगभग दस हजार छात्रों को पढ़ाने के लिए दो हजार शिक्षक थे, और छात्रों को तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना पड़ता था।

नालन्दा का नाम आम के बागान के बीच तालाब में रहने वाले नाग के नाम पर पड़ा था, जैसा कि ह्वेनसांग की पुस्तक में उल्लेख है। इस विश्वविद्यालय ने न केवल बौद्ध धर्म के शिक्षण को बढ़ावा दिया, बल्कि वेद, वेदांत, सांख्य, व्याकरण, दर्शन, और चिकित्साशास्त्र जैसे विषयों का भी गहन अध्ययन किया जाता था। यहाँ का पुस्तकालय, जिसमें तीन लाख से अधिक पुस्तकें थीं, “रत्नरंजक,” “रत्नोदधि,” और “रत्नसागर” नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था। यह पुस्तकालय न केवल भारत के लिए, बल्कि विदेशों के छात्रों के लिए भी ज्ञान का अनमोल स्रोत था।

नालन्दा में छात्रों के रहने के लिए तीन सौ कक्ष बनाए गए थे, और यहाँ की शिक्षा, भोजन, वस्त्र और चिकित्सा सभी निःशुल्क प्रदान की जाती थी। राज्य की ओर से दो सौ गाँव दान में मिले थे, जिनसे विश्वविद्यालय के खर्च का प्रबंधन किया जाता था। नालन्दा की प्रतिष्ठा इतनी बढ़ गई थी कि यहाँ कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस, और तुर्की से छात्र शिक्षा ग्रहण करने आते थे।

हालांकि, ११९९ में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी द्वारा इसे जलाने और नष्ट करने का दावा किया गया, लेकिन इस हमले के कोई ठोस सबूत नहीं मिले हैं। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि नालन्दा का पतन धीरे-धीरे हुआ, जिसमें हिन्दू शासकों द्वारा दान की कटौती और महायानी भिक्षुओं का उत्पीड़न शामिल था। तिब्बती इतिहासकारों का दावा है कि यहाँ ब्राह्मणों के साथ हुई हिंसक झड़प में इसे आग लगा दी गई। नालन्दा का यह इतिहास इसे बौद्ध धर्म और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक अमिट धरोहर के रूप में स्थापित करता है।


अजन्ता

अजंता, महाराष्ट्र में स्थित, एक विश्व प्रसिद्ध स्थल है जिसमें ३० गुफाएँ हैं। इन गुफाओं का निर्माण लगभग २ शताब्दी ईसा पूर्व से ६ शताब्दी ईस्वी के बीच किया गया था और ये बौद्ध धर्म के विकास का अद्भुत प्रमाण हैं। यहाँ की गुफाएँ अद्वितीय चित्रकला और वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध हैं, जिसमें चित्रण और मूर्तियों के माध्यम से बौद्ध जीवन और शिक्षाओं को दर्शाया गया है।

अजंता की गुफाएँ सुंदर चित्रण से भरी हुई हैं, जिनमें से अधिकांश महायान परंपरा से संबंधित हैं, जबकि केवल कुछ गुफाएँ थेरवाद परंपरा के अंतर्गत आती हैं। थेरवाद गुफाओं की विशेषता हैं उनका चित्ररहित और मूर्तिरहित रहना। उनमें केवल स्तूप है, जबकि महायान गुफाएँ अक्सर अधिक जटिल और विस्तृत चित्रण से भरी होती हैं। अजंता की गुफाएँ बौद्ध भिक्षुओं की ध्यान-साधना के लिए महत्वपूर्ण स्थल थीं।

एलोरा

एलोरा, जो अजंता से लगभग १०० किलोमीटर दूर है, में ३४ गुफाएँ हैं, जो बौद्ध, जैन और हिंदू धर्म की धार्मिक संरचनाओं का संगम प्रस्तुत करती हैं। एलोरा की गुफाएँ चौथी से दसवीं शताब्दी के बीच बनाई गई थीं और ये भारतीय वास्तुकला का एक अद्वितीय उदाहरण हैं। यहाँ की गुफाएँ न केवल अपने सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध हैं, बल्कि उनकी भव्यता, कलात्मकता और रहस्यता भी इसे विशेष बनाती हैं।

एलोरा में बौद्ध गुफाएँ विशेष रूप से ध्यान-साधना के लिए बनाई गई थीं। यहाँ के गुफा १, जिसे विष्णु गुफा के नाम से भी जाना जाता है, में अद्भुत नक्काशी और चित्रण हैं। यह गुफा महायान परंपरा की विशेषता को दर्शाती है, जिसमें बुद्ध की मूर्तियों के साथ-साथ कई अन्य देवी-देवताओं के चित्रण भी शामिल हैं।

एलोरा के बौद्ध गुफाओं के साथ जैन गुफाएँ भी अत्यंत खूबसूरत हैं और उनकी जटिल नक्काशी दर्शाती है कि जैन धर्म का भी यहाँ महत्वपूर्ण स्थान है। अजंता के साथ एलोरा को भी यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी गई है, जो उनकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्वता को दर्शाता है।


केसरिया स्तूप

केसरिया स्तूप, जो बिहार के पूर्वी चंपारण जिले में स्थित है, बौद्ध धर्म का एक प्रमुख तीर्थ स्थल है और इसे विश्व का सबसे बड़ा स्तूप माना जाता है। इसका व्यास लगभग १२० मीटर और ऊंचाई लगभग ३० मीटर है, जो इसे विश्व का सबसे ऊँचा उत्खनन स्तूप बनाता है। यह स्तूप भगवान बुद्ध के अवशेषों को संजोने के लिए बनाया गया था और इसे प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में निर्मित किया गया माना जाता है। केसरिया स्तूप की संरचना उसके शानदार और विस्तृत डिजाइन के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें भव्य मंडप, चित्रित दीवारें और समृद्ध कलाकृतियाँ शामिल हैं। यह स्थान न केवल बौद्ध अनुयायियों के लिए, बल्कि इतिहास प्रेमियों और पुरातत्वज्ञों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है।