“अपने मन में उठने वाले बुरे विचारों और भावनाओं को ध्यान से देखें। उनके बहकावे में जल्दी मत आइए। जब आप उन्हें पहचानना सीख जाते हैं, तो आप उनकी बुरी ताकत को अच्छी और आध्यात्मिक ऊर्जा में बदल सकते हैं।”
मे ची क्यु के साहसिक फैसले ने बान हुआई साई के करीबी समुदाय में हलचल मचा दी। परिवारों के दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी मजबूत राय रखी। स्थानीय महिलाएँ होने के कारण, वाट नोंग नोंग की ननें भी इस मामले से अछूती नहीं रह सकीं। उन्होंने मे ची क्यु के निर्णय का समर्थन किया — कई ननों ने तो उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित भी किया। लेकिन इस घटना ने उनके शांत जीवन को अनचाही नजरों में ला दिया। अब गाँव की बातें विहारवासी जीवन में घुलने लगीं, क्योंकि विहार गाँव के बहुत पास था।
इससे आध्यात्मिक शांति पर असर पड़ने लगा, और जल्द ही इस स्थिति से निपटने की ज़रूरत महसूस हुई। ननों ने विचार किया कि अगर वे इस हस्तक्षेप से बचना चाहती हैं तो शायद उन्हें किसी और जगह जाना होगा। मे ची डांग को विश्वास था कि विहारवासी जीवन को शांति से चलाने के लिए गाँव से इतनी दूरी ज़रूरी है कि वहाँ की रोज़मर्रा की हलचल यहाँ न पहुँच सके।
वाट नोंग नोंग के प्रमुख अजान खम्फान, जो अजान साओ कांतासिलो के पुराने शिष्य और एक कठोर अनुशासन वाले ध्यानशील भिक्षु थे, उन्होंने इस स्थिति में मार्गदर्शक की भूमिका निभाई। उन्होंने न केवल भिक्षुओं बल्कि भिक्षुणियों के साथ भी इस मुद्दे पर गंभीर चर्चा की। जब यह स्पष्ट हो गया कि गाँव की गतिविधियाँ विहारवासियों को प्रभावित कर रही हैं, तो उन्होंने एक नया रास्ता चुना।
अंततः, अजान खम्फान ने निर्णय लिया कि जो लोग उनके साथ चलना चाहते हैं, वे पास की एक पहाड़ी पर जाकर एक नया वन विहार स्थापित करेंगे — जहाँ वे बिना बाहरी हस्तक्षेप के अपने ध्यान और साधना को जारी रख सकें।
फु गाओ पर्वत, फु फान की तलहटी में स्थित एक छोटी-सी पहाड़ी श्रृंखला थी, जो बान हुआई साई गाँव से करीब छह मील उत्तर-पश्चिम में थी। उस समय, जब लोग पैदल या भैंसा गाड़ियों से सफर करते थे, यह ऊबड़-खाबड़ इलाका आम लोगों के लिए दूर और मुश्किल से पहुँचने वाला स्थान था।
ऊपरी हिस्से में कठोर बलुआ पत्थर की चट्टानें थीं, जो २० से ३० फीट ऊँचाई से नीचे की ओर घने बाँस और मजबूत पेड़ों के जंगलों में उतरती थीं। चट्टानों की सतह पर सूखे लाइकेन जमे हुए थे, जिससे वे गहरे भूरे रंग की दिखाई देती थीं। इन चट्टानों के नीचे प्राकृतिक गुफाएँ बनी हुई थीं, जो धूप और बारिश से बचाव देती थीं। शुरू में वहाँ रहने की कोई सुविधा नहीं थी, इसलिए भिक्षु और ननें इन गुफाओं में ही रहने लगे। उन्होंने बाँस के मजबूत और ऊँचे मचानों पर अपने छोटे-छोटे आश्रय बनाए, जहाँ वे अलग-अलग जगहों पर रहते और ध्यान करते थे।
शौचालय नहीं थे, इसलिए वे चट्टानों के किनारों का इस्तेमाल करते थे — और पास के पेड़ों से बंदरों का एक झुंड उन्हें ताकता रहता था। सबसे बड़ी चुनौती थी — पानी। सबसे नज़दीकी साफ़ पानी की जगह एक छोटी सी धारा थी, जो दो पहाड़ियों के बीच से बहती थी और वहाँ तक पहुँचने में आधा घंटा लगता था।
सबकी सहमति से तय किया गया कि छोटी ननें रोज़ सभी के लिए पानी लाएँगी। वहीं भिक्षुओं ने गाँव के किसानों की मदद से एक नए विहार की नींव रखने और ज़रूरी ढाँचों को खड़ा करने का काम शुरू किया।
हर दिन भोजन के बाद, मे ची क्यु दूसरी ननों की मदद करने के लिए उनके साथ पानी भरने जाती थी। वह दो खाली बाल्टियाँ लेती, उन्हें एक लंबे बाँस के डंडे से बाँधती और पहाड़ी पगडंडी से नीचे उतरती — वह रास्ता जो पेड़ों की जड़ों और उभरी हुई चट्टानों से भरा था — जब तक कि वह धारा तक न पहुँच जाती। वहाँ वह घुटनों के बल बैठकर ठंडे, ताजे पानी से बाल्टियाँ भरती। फिर दोनों भरी बाल्टियाँ बाँस के डंडे से बाँधकर अपने कंधे पर रखती और सावधानी से चढ़ाई चढ़ती, इस चिंता में कि कहीं पानी छलक न जाए।
गुफा तक पहुँचते-पहुँचते वह थक जाती, साँस फूल जाती, लेकिन फिर भी वह तैयार रहती एक और चक्कर लगाने के लिए। वह बाल्टियाँ खाली करती और दोबारा पानी भरने निकल पड़ती — बार-बार। यह काम बहुत थका देने वाला था।
लेकिन मे ची क्यु ने ठान लिया था कि वह इस कठिन मेहनत को आध्यात्मिक अभ्यास में बदलेगी। चलते समय वह हर कदम पर ‘बुद्’ और ‘धो’ शब्द को मन में रखेगी — एक कदम पर ‘बुद्’, दूसरे पर ‘धो’। धीरे-धीरे उसका मन शांत होता गया, और उसे लगने लगा कि बाल्टियाँ हल्की हो गई हैं। अब यह श्रम कोई बोझ नहीं रहा, बल्कि एक साधना बन गया — वर्तमान में पूरी तरह जागरूक रहकर, एक समय में बस एक कदम उठाना।
कभी-कभी मे ची क्यु के भाई उससे मिलने फु गाओ पर्वत पर आते थे। जब वे उसकी कठिन परिस्थितियाँ और जीवन की सादगी देखते, तो हैरान और दुखी हो जाते। अपनी बहन के लिए उनके मन में प्रेम था, और वे उसके मार्ग का सम्मान करते थे, इसलिए वे भी पानी भरने में मदद करने लगे — भारी बाल्टियाँ उठाकर पहाड़ी चढ़ते। लेकिन अंत में वे थक गए और उन्होंने उसे मनाने की कोशिश की कि वह उनके साथ बान हुआई साई वापस लौट चले, जहाँ वे उसका अच्छे से ध्यान रख सकते थे।
उन्होंने बताया कि उसका पति अब किसी और से शादी कर चुका है, घर बेच दिया है और दूर एक और प्रांत में बस गया है। पर मे ची क्यु का मन अब बदल चुका था। उसने निश्चय कर लिया था कि वह अजान खम्फान के साथ रहेगी और फु गाओ पर्वत पर एक साधना-पूर्ण, कठोर जीवन अपनाएगी — जो अब उसका सच्चा रास्ता था।
समय के साथ जब फु गाओ पर्वत पर विहार का निर्माण आगे बढ़ने लगा, तो एक गंभीर समस्या सामने आई — पानी की कमी। यह संकट इतना बढ़ गया कि विहार के लंबे समय तक टिके रहने पर सवाल खड़े हो गए। आस-पास पानी के किसी और स्रोत की तलाश कई बार की गई, लेकिन हर बार निराशा ही हाथ लगी।
एक शाम, इस कठिनाई से थकी हुई मे ची क्यु चुपचाप बैठ गई। उसने अपने पैरों को मोड़ा, पीठ सीधी की और मन को भीतर की ओर केंद्रित कर लिया। उसके भीतर एक गहरा संकल्प जागा — यदि वास्तव में नियति चाहती है कि वे सभी यहाँ रहें, तो उसे एक पानी का स्रोत ज़रूर मिलेगा। फिर वह अपनी साधना में डूब गई, जैसे वह हर दिन करती थी।
रात में ध्यान से उठते ही, उसे एक स्पष्ट और सहज दृश्य दिखाई दिया — बेलों और लंबी घासों से ढँके ग्यारह जलाशय, जिनमें शुद्ध पानी था। वह स्थान उसे पहचाना सा लगा, क्योंकि वह उस इलाके से पहले भी कई बार गुज़र चुकी थी। यह मुख्य गुफा से कुछ ही दूरी पर था।
सुबह होते ही, मे ची क्यु ने यह बात अजान खम्फान से साझा की। उनकी सहमति मिलते ही, भिक्षुणियों और स्थानीय ग्रामीणों ने मिलकर उस क्षेत्र की सफाई शुरू कर दी — बेलें और घास हटाईं, और तालाबों में जमा गाद को निकाला। कुछ तालाब तो बीस फीट गहरे थे।
जब यह काम पूरा हुआ, तो सभी के लिए यह किसी चमत्कार से कम नहीं था — अब उनके पास पूरे वर्ष के लिए भरपूर ताज़ा पानी था, जो भिक्षुओं और ननों की सभी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त था।