नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

“सिर्फ़ खाना, पीना और सोना ही मत — जैसे आम जानवर करते हैं। यह याद रखें कि यह जीवन हमेशा नहीं रहेगा। इसलिए संसार से थोड़ा विराग रखें और अगले जन्मों के बारे में समझदारी से सोचें। अपने जीवन में जो दुख और परेशानियाँ हैं, उन पर ध्यान रखें और चुपचाप बैठे न रहें — कुछ अच्छा और सही करते रहें।”

जंगली सूअर

मे ची क्यु ने हृदय की उस भाषा का उपयोग किया जिसे शब्दों की ज़रूरत नहीं होती — यह वही मौन भाषा है जिसे सभी संवेदनशील प्राणी समझ सकते हैं। जब कोई अभौतिक (शरीर रहित) प्राणी किसी से बात करता है, तो उसके विचार और भावनाएँ एक अर्थ और उद्देश्य के साथ प्रवाहित होती हैं — जैसे हम जब बोलते हैं तो हमारी बातों में भाव और मतलब होता है।

जब एक चेतन विचार किसी दूसरी चेतना से जुड़ता है, तो वह सीधे उस तक एक साफ़, पूरा और समझने योग्य संदेश पहुँचा देता है। इसी तरह, मे ची क्यु ने भी उन अदृश्य मेहमानों से सवाल पूछे, उनके अतीत को जाना और उनकी कहानियाँ सुनीं। वह उनकी सहायता करना चाहती थीं, लेकिन सबसे अधिक उन्होंने अपने ध्यान की शक्ति और आध्यात्मिक जीवन की पवित्रता उनके साथ साझा की। यह उन आत्माओं पर निर्भर था कि वे इसे कितना समझती हैं और कितना लाभ उठाती हैं।

भैंस के साथ उनका संवाद पहले ही बहुत अद्भुत था, लेकिन उससे भी ज़्यादा अनोखी घटना तब घटी जब एक मरे हुए जंगली सूअर की चेतना उनके ध्यान में एक शांत छवि के रूप में प्रकट हुई। यह सूअर रात के समय फू गाओ पर्वत के एक दूरस्थ हिस्से में अकेले भोजन की तलाश में भटक रहा था, तभी एक शिकारी ने, जो पानी के पास छिपा हुआ था, उसे मार डाला।

भोर से पहले, ध्यान में बैठी मे ची क्यु को अचानक एक जंगली सूअर की भूत-सी छवि दिखाई दी। उन्हें इस तरह की आत्माओं के दर्शन की आदत थी, इसलिए उन्होंने शांत मन से अपनी चेतना को उस ओर मोड़ा और पूछा, “तुम यहाँ क्यों आए हो?”

सूअर ने रुक-रुक कर, जैसे किसी गहरे सदमे में हो, जवाब दिया। उसने बताया कि जब वह पानी पीने जा रहा था, तब उसे डम नामक एक शिकारी ने गोली मार दी। मे ची क्यु को हैरानी हुई कि सूअर जैसे सतर्क जानवर से इतनी बड़ी चूक कैसे हो गई।

सूअर ने नम्रता से समझाया, “मैं हमेशा सतर्क रहता था, हर आहट पर चौकन्ना। मेरा जीवन इसी पर टिका था। लेकिन जंगल का जीवन बहुत कठिन होता है। हमें मौसम की मार भी झेलनी होती है और हर पल मौत का डर भी। शिकारी, जाल, और दूसरे जानवर – सब हमारी जान के दुश्मन होते हैं।”

अपनी सावधानी के बावजूद, सूअर कई सालों तक पहाड़ों में जीवित रहा, लेकिन अंत में एक गोली से उसका अंत हो गया।

अब, वह आत्मा बहुत दुखी थी। उसने कहा, “मैं दोबारा जानवर बनकर जन्म नहीं लेना चाहता। वह जीवन डर, पीड़ा और असहायता से भरा होता है। मैं हमेशा कांपता रहता था, कभी चैन से नहीं जी पाया।”

वह मे ची क्यु के पास एक खास विनती लेकर आया था — “मुझे अपने कुछ पुण्य दे दीजिए। शायद इससे मुझे अगला जन्म इंसान के रूप में मिल सके। मेरे पास आपको देने को कुछ नहीं है… बस मेरा ताज़ा मरा हुआ शरीर है। कृपया उसका थोड़ा मांस खा लीजिए। इससे आपको बल मिलेगा और मुझे थोड़ा पुण्य भी मिल जाएगा।”

यह बात उसने बड़े ही विनम्र और दयनीय भाव से कही।

जंगली सूअर ने उत्सुकता से मे ची क्यु को बताया कि अगली सुबह शिकारी का परिवार उसका मांस विहार में भेंट स्वरूप लाने वाला है। उसने मे ची से विनती की कि कृपया वह उस मांस को स्वीकार करें और खाएँ, ताकि इस दान से उसे मनुष्य के रूप में जन्म लेने के लिए ज़रूरी पुण्य मिल सके।

सूअर चाहता था कि मे ची को उसके शरीर का सबसे अच्छा हिस्सा मिले। लेकिन उसे डर था कि शायद शिकारी का परिवार सबसे अच्छे टुकड़े अपने पास रख ले और विहार को बस कमतर मांस दे।

मे ची क्यु इस निवेदन से बहुत प्रभावित हुईं। वर्षों के ध्यान और साधना में उन्होंने कभी ऐसा अनुभव नहीं किया था, जहाँ किसी मृत जानवर की आत्मा ने अपने शरीर का मांस देकर पुण्य कमाने की कोशिश की हो। सूअर की विवशता देखकर उनका दिल भर आया। उन्होंने प्रेम और करुणा से उसकी बात स्वीकार कर ली।

मे ची ने सूअर को दान की महिमा बताई, और उसे यह सिखाया कि अच्छे कर्म करना गर्व की बात होती है। उन्होंने उसे समझाया कि अगर वह अगला जन्म मनुष्य के रूप में लेना चाहता है, तो पाँच नैतिक नियमों को अपनाना ज़रूरी है — जैसे किसी को नुकसान न पहुँचाना, चोरी न करना, झूठ न बोलना आदि। ये नियम शरीर, वाणी और मन को संयमित करते हैं।

फिर उन्होंने अपना पुण्य उसके साथ बाँटने का संकल्प लिया, इस आशा से कि सूअर को मनुष्य के रूप में जन्म मिले। मे ची की करुणा और आशीर्वाद से उत्साहित होकर सूअर ने उन्हें प्रणाम किया और शांत मन से चला गया।

अगले दिन सूरज निकलने के बाद मे ची क्यु ने विहार की मुख्य शाला में सब भिक्षुओं और भिक्षुणियों को यह अनोखी घटना बताई। उन्होंने सूअर की पूरी कहानी साझा की, ताकि सभी इसकी गहराई को समझ सकें। उन्होंने अनुरोध किया कि अगर शिकारी का परिवार सच में मांस लेकर आए, तो कृपया उसे दया और सम्मान से स्वीकार करें। यह एक मृत प्राणी की आखिरी विनती थी — शायद इससे उसे मनुष्य के रूप में जन्म लेने का अवसर मिल सके।

उस सुबह, कुछ देर बाद, शिकारी श्री दम की पत्नी विहार में आई। वह आदरपूर्वक कुछ भुना हुआ सूअर का मांस लेकर आई और उसे अजान खम्फान और अन्य भिक्षुओं को भेंट किया। जब भिक्षुओं ने उससे पूछा कि यह मांस कहाँ से आया है, तो उसके जवाब ने मे ची क्यु की सूअर से हुई सारी बातचीत की पुष्टि कर दी — वह सब कुछ सच था, यहाँ तक कि सबसे छोटी बात भी।

भिक्षु और भिक्षुणियाँ चुपचाप उस मांस को खा गए। उनके मन में यह भावना थी कि शायद इस दयालुता से उस दुखी प्राणी की आत्मा को कुछ शांति मिले और उसका बोझ थोड़ा हल्का हो जाए।

इस घटना से मे ची क्यु ने गहरी बातें समझीं — मृत्यु, पुनर्जन्म और वह लालसा (तृष्णा)जो इन दोनों को जोड़ती है। यही तृष्णा जीवन को एक अंतहीन दुःख और पीड़ा की श्रृंखला में बाँध देती है। उन्होंने देखा कि कैसे प्राणी लालच, क्रोध और अपने ही कर्मों के बोझ तले दबे होते हैं, और मोह (भ्रम) के समुद्र में बिना दिशा के भटकते हैं।

निचली योनि में फंसे प्राणियों के पास कोई आत्मिक गुण नहीं होता, न ही ऐसा कुछ जिस पर वे भरोसा कर सकें। जब वे पहले कभी इंसान के रूप में जन्मे थे, तब उन्होंने न तो दान की आदत डाली और न ही नैतिकता के नियमों को अपनाया। इस वजह से वे पुण्य नहीं कमा पाए, और मरने के बाद उनकी चेतना अंधेरे लोकों में चली गई, जहाँ पुण्य अर्जित करना लगभग असंभव होता है।

ऐसी भटकी हुई आत्माएँ अपने उद्धार के लिए दूसरों पर निर्भर हो जाती हैं। अगर मनुष्यों में कोई ऐसा पुण्यवान व्यक्ति न हो जो उनके लिए कुछ अच्छा कर सके — कोई भिक्षु, साधक या दयालु हृदय — तो वे बिलकुल अकेले रह जाते हैं, और उन्हें बस इंतज़ार करना पड़ता है, जब तक उनके कर्मों का असर धीरे-धीरे खत्म न हो जाए।

मे ची क्यु ने इन आत्माओं को ऐसे देखा जैसे वे बेसहारा जानवर हों — जो एक बंजर और डरावने परिदृश्य में लक्ष्यहीन भटक रहे हों, कोई उन्हें अपनाने वाला न हो, न कोई सहारा देने वाला।

उन्होंने जाना कि बुरे कर्मों से ग्रस्त प्राणी चाहे किसी भी योनि में जन्म लें, उनका दुःख बना रहता है — क्योंकि दुःख की जड़ उनके भीतर के कर्मों में ही होती है।


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