नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

“मानव शरीर लालसा और आसक्ति का एक प्रमुख कारण है। इसका महत्वपूर्ण परिणाम है — दुख। शरीर को देखो! यह मांस और खून का एक ढेर है, लगभग दो फीट चौड़ा और छह फीट लंबा, जो हर पल बदल रहा है।”

शरीर चिंतन

जब मे ची क्यु फू फान के उस विहार में पहुँचीं, तो उन्होंने वहाँ के मुख्य भवन में अजान कोंगमा से मुलाक़ात की। सम्मान प्रकट करने के बाद उन्होंने अपनी उन उलझनों और बेचैनी के बारे में बताया, जो उनके ध्यान और आंतरिक शांति में बाधा बन रही थीं। अजान खम्फान के वस्त्र त्यागने की घटना के बाद से उनका ध्यान पहले जैसा नहीं रहा था, और उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्यों।

अजान कोंगमा ने सहज रूप से समझ लिया कि मे ची क्यु का ध्यान अब बाहरी घटनाओं और रूप के प्रति आसक्ति की ओर भटक रहा है। उन्होंने कहा कि अब समय है कि वे अपनी चेतना को भीतर की ओर मोड़ें और अपने अस्तित्व की गहराई से जांच करें। चूँकि उनके पिछले शिक्षक काम-वासना के जाल में फँस गए थे, इसलिए अजान कोंगमा ने सुझाव दिया कि वे शरीर के प्रति एक विशेष प्रकार का ध्यान अभ्यास शुरू करें—जिसमें शरीर की अशुद्धताओं और उसकी असली प्रकृति पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।

अभ्यास की शुरुआत सिर के बालों, शरीर के बालों, नाखूनों, दाँतों और त्वचा से होती है, फिर धीरे-धीरे मांस, नसें, हड्डियाँ, मज्जा, गुर्दे, हृदय, आंतें, मल-मूत्र, खून, पसीना, लार आदि सभी अंगों और द्रवों की ओर बढ़ना होता है। उनका निर्देश था कि मे ची क्यु बाहरी दुनिया की ओर देखने के बजाय, पूरी ऊर्जा के साथ भीतर की भौतिक सच्चाई को समझने का प्रयास करें—उस शरीर की जिसे वे ‘मैं’ मानती हैं।

मे ची क्यु ने यह सलाह सम्मानपूर्वक स्वीकार तो कर ली, लेकिन मन से संतुष्ट नहीं थीं। उनके लिए ध्यान का मतलब था – “बुद्धो” शब्द को दोहराना, जिससे उनका मन एक शांत स्थिति में प्रवेश करता था। यह तरीका उन्हें वर्षों पहले अजान मुन ने सिखाया था, और वह उससे जुड़ी हुई थीं। उन्हें लगता था कि वही तरीका सही है, और वे उसे छोड़ने को तैयार नहीं थीं। इस वजह से उन्होंने अजान कोंगमा की बात को पूरी गंभीरता से नहीं अपनाया।

उन्होंने अपने पुराने अभ्यास को ही जारी रखा, हालांकि अब वह उन्हें पहले जैसी शांति नहीं दे पा रहा था। समय बीतता गया, लेकिन उनका ध्यान गहराई नहीं पकड़ सका। अजान कोंगमा की बात को टालने की वजह से, उनका मन एकाग्र नहीं हो पा रहा था। हठ ने उनके ध्यान को स्थिर होने से रोक दिया और महीनों तक वे मानसिक संघर्ष में उलझी रहीं।

मे ची क्यु अपनी ध्यान-प्रक्रिया में हो रही प्रगति की कमी से बहुत निराश हो गई थीं। उन्हें लगने लगा कि जैसे उनमें बुद्धि या समझ ही नहीं बची हो। एक रात, जब वे ध्यान के लिए बैठीं, तो उन्होंने अपने भीतर की जिद और अहंकार को कठोर शब्दों में फटकारना शुरू कर दिया। बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी, लेकिन उन्होंने आश्रय लेने से इनकार कर दिया। उन्हें लगा कि अब समय आ गया है कि वे खुद को एक गहरा सबक सिखाएं।

वह पूरी रात लगातार बारिश में टहलती रहीं—भीगती हुई, कांपती हुई, लेकिन अपने निश्चय में अडिग। उन्होंने बार-बार अपने मन से सवाल किया कि उनका रवैया इतना हठी और अभिमानी क्यों हो गया है। उन्होंने अपनी पुरानी गलतियों की गंभीरता से जांच की और देखा कि ध्यान की राह में अटक्यु का कारण बाहर नहीं, भीतर ही है। उन्हें यह भी साफ़ दिखने लगा कि अजान कोंगमा ने उन्हें ध्यान में आगे बढ़ने के लिए हर संभव अवसर और अनुकूल वातावरण दिया था, लेकिन फिर भी वे स्वयं हार मानने को तैयार नहीं थीं।

उन्होंने खुद से गंभीरता से पूछा—“जब मेरा अपना मन ही भ्रमित है, तो मैं सत्य को कैसे पहचान सकती हूँ?” इस सवाल ने उनके भीतर की कठोरता को तोड़ा।

अगले दिन, उन्होंने पूरे मन से अपनी गलतियों को स्वीकार किया और संकल्प लिया कि अब वे अपने पुराने हठ को छोड़ देंगी। उन्होंने बुद्ध के समक्ष विनम्रता से वंदन (नमन) किया और अजान कोंगमा से हृदय से क्षमा माँगी। फिर, अपने मन को अशुभ भावना पर मन को केंद्रित कर, उन्होंने गंभीरता से शरीर के विषय पर चिंतन का अभ्यास शुरू किया।

मे ची क्यु ने इस ध्यान में शरीर की स्वाभाविक अशुद्धियों और उसकी असली प्रकृति पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने देखा कि शरीर वास्तव में कितना अस्थिर और पीड़ादायक है—नाक हमेशा बलगम से भरी रहती है, कानों में मैल जमा होता है, त्वचा से पसीना और चिकनाई निकलती रहती है, मल-मूत्र लगातार बाहर आता रहता है, और अगर लगातार साफ़-सफ़ाई न हो, तो शरीर से दुर्गंध फैलती है और असहजता बढ़ती है।

इस तरह, उन्होंने शरीर को आकर्षण की वस्तु नहीं, बल्कि उसकी सच्ची प्रकृति—अशुद्ध और क्षणभंगुर—के रूप में देखना शुरू कर दिया। यही उनकी आंतरिक यात्रा में एक नए चरण की शुरुआत थी।

निरंतर अभ्यास करते हुए मे ची क्यु यह साफ़ समझने लगीं कि उनका अधिकांश असंतोष इस वजह से था कि वे शरीर को अपने अस्तित्व का मूल मानती थीं — जैसे यही ‘मैं’ हूँ, यही मेरी पहचान है। ये बात उन्हें पहले इतनी स्पष्ट नहीं थी, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें एहसास हुआ कि यह गहरी और मूलभूत धारणा उनके मन के गहरे, अचेतन स्तर पर लगातार सक्रिय थी। वे जब कुछ भी करतीं, तो उस हर क्रिया में ‘मैं’ की एक मज़बूत भावना जुड़ी होती थी — मानो हर कार्य में एक अलग व्यक्तित्व जताना ज़रूरी हो।

उन्होंने यह भी महसूस किया कि एक इंसान का जीवन अकसर शरीर से जुड़ी इच्छाओं के अनुसार ही ढलता है — जैसे दिखने में कैसा लग रहा हूँ, कौन-से कपड़े पहनूं, लोग क्या सोचेंगे, आराम कैसा हो, आदि। ये सारी बातें सीधे-सीधे शरीर से जुड़ी हुई हैं।

लेकिन जब उन्होंने नियमित रूप से शरीर की अशुद्ध और अस्थिर प्रकृति पर ध्यान लगाना शुरू किया, तो उनका दृष्टिकोण बदलने लगा। शरीर अब उन्हें आकर्षित करने वाली वस्तु की तरह नहीं लगता था, बल्कि वह उन्हें स्वाभाविक रूप से असुंदर और अस्थिर लगने लगा — कुछ ऐसा जो लालसा नहीं, बल्कि विरक्ति पैदा करता है।

हर दिन के ध्यान में वे शरीर को मानसिक रूप से टुकड़ों में बाँटती थीं — परत दर परत उसकी जांच करती थीं। जब वे त्वचा पर ध्यान केंद्रित करतीं, तो उन्हें यह समझ में आया कि यह तो बस एक पतली-सी परत है जो मांस और अंगों को ढकती है। पहली नज़र में यह भले ही साफ-सुथरी लगे, लेकिन असल में यह झुर्रीदार, चिपचिपी और पसीने-तेल से भरी हुई होती है। बार-बार धोने और साफ़ करने से ही यह कुछ समय के लिए सहन करने योग्य बनती है।

उन्हें समझ आया कि बालों को चाहे जितना सुंदर बना लिया जाए, अगर वही बाल किसी के खाने की थाली में गिर जाएँ, तो भूख खत्म हो जाती है। इसका मतलब है कि बाल स्वाभाविक रूप से गंदे होते हैं — यही बात शरीर के अन्य हिस्सों पर भी लागू होती है। कोई भी चीज़ जो शरीर के संपर्क में आती है, वह अधिक समय तक साफ़ नहीं रह सकती, क्योंकि शरीर का स्वभाव ही ऐसा है। कपड़े, बिस्तर, यहां तक कि भोजन भी शरीर के संपर्क में आने के बाद अपवित्र हो जाता है।

इस तरह उन्होंने देखा कि शरीर के हर हिस्से में एक जैसी ही घृणित और असुंदर विशेषताएं मौजूद हैं। यही गहरी समझ उन्हें शरीर से जुड़ी आसक्ति से मुक्त कर रही थी।

मे ची क्यु ने जब शरीर की बाहरी गंदगी पर गहराई से विचार कर लिया, तो फिर उन्होंने ध्यान को शरीर के भीतर की ओर मोड़ा — उसके अंगों, स्रावों और गंदे उत्सर्जनों की ओर। बाल, नाखून, दांत और त्वचा जैसे हिस्सों की सावधानीपूर्वक जांच करने के बाद, उन्होंने मानसिक रूप से मानो शरीर की त्वचा को हटा दिया और भीतर के मांस को देखा — वह कच्चा, खून से लथपथ, चिपचिपा और चमकदार था। इस दृश्य को देखकर उन्हें गहरी घृणा का अनुभव हुआ, जैसे उल्टी आने वाली हो। यह कोई असामान्य चीज़ नहीं थी, बल्कि उसी शरीर की सच्चाई थी जिसमें वे अब तक जीती आ रही थीं।

उन्होंने ध्यान के माध्यम से नसों, हड्डियों और अंदरूनी अंगों की ओर गहराई से देखा। उन्होंने कल्पना की कि मांस की परतें हड्डियों से चिपकी हुई हैं, और हृदय, यकृत, गुर्दे, तिल्ली, फेफड़े, पेट और आँतें शरीर के भीतर की चिपचिपी सुरंगों में घूम रही हैं। ये सभी अंग बलगम और खून से सने हुए हैं, और पतली झिल्लियों के सहारे अपनी जगह पर टिके हैं।

हर अंग की उन्होंने अलग-अलग जांच की — वे सभी चर्बी, रक्त और चिपचिपे स्रावों से घिरे हुए थे। उनमें सड़ी हुई चीजें भरी थीं, जो शरीर से बाहर निकलने की प्रतीक्षा कर रही थीं। मे ची क्यु ने अपने ध्यान की शक्ति से जब शरीर की आंतरिक बनावट को इस तरह से देखा, तो उन्हें पहली बार बहुत गहरी और भेदक अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई। उन्होंने स्पष्ट रूप से जाना कि यह सब कुछ — यह पूरा शरीर — वास्तव में घृणित, अस्थिर और आत्म-रहित है।

इस अंतर्दृष्टि ने उनके भीतर एक गहरा परिवर्तन ला दिया। अब वह जान गई थीं कि शरीर में कोई स्थायी, संतोष देने वाला सार नहीं है — सिर्फ परिवर्तनशील, गंदे तत्वों का अस्थायी ढेर है। और जैसे ही यह गहरी समझ उनके भीतर पूरी तरह से स्पष्ट हुई, उनके मन में एक शांत झलक पैदा हुई — जैसे किसी अंधेरे में एक छोटा-सा प्रकाश का बिंदु धीरे-धीरे टिमटिमाने लगा हो, जो अब भीतर से उन्हें आलोकित करने लगा।

भोर के समय, मे ची क्यु ध्यान से उठीं और अपने सुबह के काम पूरे किए। अब उनके हर कदम में एक नई स्थिरता और एकता की भावना समाई हुई थी। उनके आचरण में जो पहले झिझक और अनिश्चितता थी, वह पूरी तरह से गायब हो गई थी। जब वे भिक्षुओं को सुबह का भोजन दे रही थीं, तो उनके चेहरे पर एक शांत, प्रसन्न मुस्कान थी।

उनके इस गहरे और शांतिपूर्ण परिवर्तन को देखकर अजान कोंगमा ने सभी को संबोधित करते हुए कहा, “मे ची क्यु, अब तुम सही मार्ग पर हो। अपने अभ्यास में अडिग रहो!”

अब जब उनका ध्यान फिर से सच्चे मार्ग पर लौट आया था, तो मे ची क्यु ने कई और महीनों तक अजान कोंगमा के साथ रहकर ध्यान की गहराई और अंतर्दृष्टि की शक्ति को और मजबूत किया। एक योग्य गुरु का साथ पाकर उन्होंने अपने अभ्यास को दृढ़ता से स्थापित किया। अब उन्हें स्पष्ट रूप से समझ आ गया था कि अजान खम्फान का ध्यान क्यों असफल हुआ — वह साधारण कामनाओं और रूप के प्रति आसक्ति से परे नहीं जा पाए थे।

मे ची क्यु अब कामवासना की शक्तिशाली पकड़ को समझती थीं — और वह यह भी जानती थीं कि इससे मुक्त कैसे हुआ जा सकता है।

जब उन्हें विश्वास हो गया कि उन्होंने अपनी साधना की नींव को मज़बूती से स्थापित कर लिया है, तो उन्होंने बान हुआई साई के ननरी में लौटने का निर्णय लिया। वहाँ की ननों को अब भी एक भरोसेमंद मार्गदर्शक की आवश्यकता थी। उन्हें विश्वास था कि अब वे वह सहायता दे सकती हैं — और उस भूमिका को निभा सकती हैं, जो उन्हें आत्मिक रूप से सौंपा गया था।


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