“शरीर से आसक्ति के कारण होने वाले कष्ट को देखना ही वह प्रारंभिक अंतर्दृष्टि है जो मन को धम्म पर केन्द्रित करती है। जो लोग शरीर को स्पष्ट रूप से देखते हैं, वे धम्म को जल्दी समझ लेते हैं।”
उस शाम जब मे ची क्यु ननरी लौट रही थीं, तो उनका तन और मन दोनों हल्के, उज्ज्वल और आनंद से भरे हुए थे। जैसे ही शाम ढली, वह अपनी छोटी सी झोपड़ी में पहुँचीं और हमेशा की तरह ध्यान में बैठ गईं। ध्यान में बैठते ही उन्होंने अपने अब तक के किये अभ्यास की गहराई से समीक्षा की।
मे ची क्यु को ध्यान की गहराई यानी समाधि में जाना हमेशा आसान लगता था। उनका मन स्वाभाविक रूप से एकाग्रता और स्थिरता की ओर झुकता था। केवल ऐसा एकीकृत और शांत मन ही उस सूक्ष्म और विशाल चेतना की दुनिया को छू सकता है, जिसका अनुभव वह बार-बार करती थीं।
जब उनकी चेतना अपने स्वाभाविक केंद्र की ओर मुड़ी, तो उन्होंने थोड़े समय के लिए मन के सच्चे स्वरूप को छुआ। लेकिन यह अनुभव क्षणिक था—मन फिर अपनी पुरानी गति में लौट आया। इस संक्षिप्त अनुभव ने उन्हें यह भ्रम दे दिया कि उन्होंने सब कुछ जान लिया है। उन्होंने उस अनुभव की गहराई में जाने के बजाय, अपने विचारों और कल्पनाओं को उस पर अर्थ थोपने दिया।
इस तरह, मे ची क्यु उस शुद्ध अनुभव से कट गईं। अब उसका मन सतही और व्यक्तिगत विचारों से भर गया था, जिससे उनकी धारणाएँ भावनात्मक रूप से रंगीन हो गईं और उन्हें वास्तविक समझ से दूर कर दिया। उनका चेतन मन अपनी आदतों में इतना डूब गया कि ऐसा लगा मानो वह उनके असली स्वरूप से अलग होकर खुद में ही एक स्वतंत्र सत्ता बन गया हो।
लेकिन फिर अजान महाबुवा का दृढ़ और करुणामय हस्तक्षेप आया। उसके बाद जब मे ची क्यु ने ध्यान किया, तो उनकी चेतना फिर से अपने केंद्र की ओर लौट आई। वह फिर से उस निर्मल और शुद्ध जागरूकता में विलीन हो गईं, जहाँ केवल परम शांति थी।
उस अवस्था में शरीर और चेतना दोनों का बोध लुप्त हो गया। बस एक सूक्ष्म, शब्दों से परे जागरूकता बची रही—बिल्कुल शांत, बिना किसी हलचल के। चेतना की कोई लहर नहीं उठी। कुछ समय तक उनका मन इस पूर्ण शांति में डूबा रहा।
फिर एक क्षण आया जब चेतना में हल्की सी लहर उठी—बिना किसी प्रयास के, स्वतः ही। वह लहर उठी और फिर शांत हो गई। थोड़ी-थोड़ी हलचल के बाद, चेतना फिर से स्थिर हो गई। ऐसा कई बार हुआ—हलचल और ठहराव का क्रम। धीरे-धीरे यह आवृत्ति बढ़ने लगी, और अंततः चेतना फिर अपनी सामान्य स्थिति में लौट आई।
हालाँकि उसे फिर से अपने आस-पास की चीज़ों का अहसास होने लगा था, लेकिन उसका मन अब भी सामान्य तरीके से सोचने में सक्षम नहीं था। उसकी चेतना एक शांत और सहज स्थिति में थी, जहाँ जानने की गहराई, सोचने की सामान्य आदतों से आगे निकल गई थी। इस स्थिति में उसकी जागरूकता बहुत विस्तृत थी, और साथ ही वह अपने अनुभवों को बहुत बारीकी से महसूस कर पा रही थी। इससे वह अपने मन और शरीर को बहुत गहराई से समझ सकी।
उसे स्वाभाविक रूप से यह समझ में आ गया था कि किसी चीज़ की सच्ची समझ पाने के लिए, जब वह किसी घटना का ध्यान से निरीक्षण करे, तो उसका ध्यान इस गहरे स्तर पर टिका रहना चाहिए। अब उसके पुराने सोचने के ढंग उसकी समझ में रुक्युट नहीं डाल रहे थे, और वह सीधे, साफ़ अंतर्ज्ञान से चीज़ों को जान पा रही थी।
जब वह रात के अंतिम समय में गहरी समाधि की शांति से बाहर आई, तो उसने अपनी चेतना को धीरे-धीरे अपने पूरे शरीर में फैलते हुए महसूस किया। जैसे ही यह चेतना पूरे शरीर में पहुँच गई, उसने अपने पूरे शरीर को एक साथ देखा। वह अपने शरीर को बिल्कुल उसी रूप में देख रही थी जैसा वह था—एक स्थिर, बैठा हुआ शरीर। उसके मन में शरीर को लेकर कोई पूर्वधारणा नहीं थी। वह बस शरीर को वैसे ही देख रही थी जैसे वह वास्तव में था।
उसकी गहराई से जागरूक चेतना ने यह समझ लिया कि यह शरीर लगातार क्षय यानी टूटने-बिखरने की प्रक्रिया में है, जो अंत में मृत्यु और विघटन तक पहुँचेगी। उसकी मानसिक स्पष्टता इतनी थी कि वह इस क्षय की प्रक्रिया को महसूस कर सकी और उसे वैसा ही देखने लगी जैसे वह स्वाभाविक रूप से घट रही थी।
यह क्षय शरीर के अंदर की गहराइयों से शुरू हुआ और धीरे-धीरे पूरे शरीर में फैलने लगा। उसने न तो इसके बारे में कोई कल्पना की और न ही कोई विचार—बस देखा और इस प्रक्रिया को अपनी चेतना में उभरने दिया। धीरे-धीरे शरीर के टूटने की यह प्रक्रिया, जो एक मृत शरीर में स्वाभाविक रूप से होती है, उसकी जागरूकता में एक सहज गति की तरह बहने लगी।
सिर से शुरू करते हुए, मे ची क्यु ने बहुत ध्यान से अपने शव के हर हिस्से पर ध्यान केंद्रित किया। जैसे-जैसे उसका ध्यान गहराता गया, शरीर के सड़ने की तस्वीरें उसके सामने साफ़ और स्पष्ट होती चली गईं। उसकी अंतर्ज्ञान शक्ति अब पूरी तरह मृत्यु और विघटन की समझ में डूबी हुई थी, इसलिए उसके मन में दृश्य अपने आप बदलते चले गए।
उसे महसूस हुआ कि उसका शव अंदर से फूलने लगा है। शरीर का रंग बदलने लगा—पहले पीला, फिर नीला और धीरे-धीरे काला। फूलती हुई त्वचा खिंचने लगी और अंत में फटकर पीछे की ओर मुड़ गई। अंदर से सड़ता हुआ मांस और बदबूदार तरल बाहर आने लगे, जिससे तुरंत मक्खियाँ आ गईं। मक्खियों ने अंडे दिए, और जल्दी ही कीड़े निकलकर उन फटे हुए हिस्सों में भरने लगे। ये कीड़े एक रेंगती हुई परत बनाकर पूरे शव पर फैल गए।
धीरे-धीरे जब कीड़ों ने सारा सड़ा हुआ मांस खा लिया, तब तक शरीर के अंदर के अंग और मांसपेशियाँ लगभग खत्म हो चुकी थीं। अब शरीर को जोड़कर रखने वाला ऊतक भी खत्म हो गया, और कंकाल अलग-अलग होकर बिखरने लगा। अब वहाँ सिर्फ कुछ गंदी, मांस के चिपचिपे टुकड़ों से सनी हड्डियाँ बची थीं, जो आपस में कुछ तंतु और उपास्थियों से जुड़ी थीं।
समय बीतता गया। बारिश, हवा और धूप ने धीरे-धीरे इन हड्डियों को भी बदल दिया। जो मांस और कण्डरे (जो मांस और हड्डियो को बांधने का काम करते हैं) बचे थे, वे बह गए। अब केवल सफेद, धूप से फीकी हुई हड्डियाँ रह गईं। फिर एक समय आया जब हड्डियाँ भी टूटने लगीं, बिखर गईं—कहीं खोपड़ी, कहीं श्रोणि की हड्डी। अंत में ये टुकड़े भी घिसते-घिसते मिट्टी में समा गए, जैसे कि वे उसी धरती का हिस्सा हों जहाँ से वे कभी बने थे।
और फिर, अचानक, वह धरती भी गायब हो गई।
मे ची क्यु रोज़ाना इसी तरह ध्यान करती थीं। हर दिन वह अपने अंदर के शव पर ध्यान लगातीं, बार-बार उस पर मन टिकातीं, जब तक कि मृत्यु और विघटन की छवि उसके मन की आदत में नहीं बस गई। अब जब भी वह ध्यान करतीं, तो उनका शरीर उन्हें मानसिक रूप से टूटता-बिखरता दिखाई देने लगता।
हर ध्यान सत्र में, मे ची क्यु की भीतर की दृष्टि बड़े शांत और साफ़ भाव से इस विघटन की प्रक्रिया को देखती। धीरे-धीरे, शरीर के इस लगातार टूटते हुए रूप ने उनका ध्यान शरीर की असली प्रकृति की ओर खींचा। उन्होंने सोचना शुरू किया कि यह शरीर तो चार तत्वों से ही बना है—पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु।
उन्होंने देखा कि मांस, हड्डियाँ, दाँत, नाखून और बाल पृथ्वी तत्व से बने होते हैं क्योंकि वे ठोस होते हैं। खून, मूत्र, बलगम और अन्य तरल पदार्थों में पानी के गुण होते हैं। अग्नि शरीर की गर्मी, ऊर्जा और जीवन शक्ति के रूप में मौजूद रहती है। और वायु श्वास, रक्त संचार और शरीर की हरकतों में दिखाई देती है।
मे ची क्यु ने साफ़ देखा कि जब शरीर विघटित होता है, तो इन तत्वों को एक साथ बाँधने वाला ढाँचा टूट जाता है, और ये तत्व फिर अपनी मूल अवस्था में लौटने लगते हैं। जैसे ही मृत्यु आती है और चेतना शरीर को छोड़ देती है, अग्नि और वायु तत्व भी स्वतंत्र हो जाते हैं और लौट जाते हैं अपनी स्वाभाविक स्थिति में।
उसने यह भी देखा कि शरीर के तरल पदार्थ या तो ज़मीन में रिस गए या हवा में उड़ गए। जब ये तरल गायब हो गए, तो शरीर के अंग सूखने लगे, पानी की कमी से वे धीरे-धीरे सख़्त हो गए, और अंत में केवल हड्डियाँ ही बचीं। फिर वे भी टूटकर बिखरने लगीं, और आखिर में धूल बनकर मिट्टी में मिल गईं। इस तरह शरीर पूरी तरह से पृथ्वी तत्व में लौट गया।
मे ची क्यु ने देखा कि कैसे हड्डियाँ धीरे-धीरे मिट्टी में मिल गईं। वे इस तरह विलीन हुईं जैसे कभी अलग थीं ही नहीं—जैसे दोनों शुरू से ही एक ही चीज़ थीं। जब हड्डियों का आखिरी अंश भी अपनी मूल अवस्था में लौट आया, तब मे ची क्यु के भीतर एक गहरा अनुभव जागा—एक सच्चा अहसास कि यह शरीर, जिसे हम इतना वास्तविक मानते हैं, असल में एक भ्रम है।
उसके भीतर गहराई से यह समझ उत्पन्न हुई कि यह शरीर केवल चार तत्वों—पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु—का एक अस्थायी मेल है। और जब इनका मेल टूटता है, तो वे फिर अपनी-अपनी प्रकृति में लौट जाते हैं। अचानक, उसे महसूस हुआ कि जैसे धरती ही उसकी चेतना से गायब हो गई हो। चारों ओर की दुनिया एक चमकती हुई रौशनी में डूब गई। फिर एक क्षण में उसकी चेतना एक अत्यंत गहरे, अद्वितीय अनुभव में डूब गई—एक ऐसी एकता की स्थिति जिसे उसने पहले कभी नहीं जाना था।
इस अनुभव के साथ ही वह रौशनी भी लुप्त हो गई। बस बचा तो केवल एक अवर्णनीय शून्य—एक ऐसी पूर्ण एकता, जिसमें कोई द्वैत नहीं था। वहाँ सिर्फ शुद्ध जागरूकता थी—एक ऐसी गहन शांति और सन्नाटा, जो किसी भी विशेषता से परे था। यह मन के सच्चे स्वरूप की जीवंत शून्यता थी—पूर्ण और निर्दोष।
हर बार जब मे ची क्यु ने इस शरीर की प्रकृति का निरीक्षण किया, तो उसे स्पष्ट रूप से दिखाई दिया कि यह सिर्फ धरती, पानी, आग और हवा के तत्वों का मेल है। और ये तत्व कभी नहीं मरते। बाल, नाखून, दाँत, त्वचा, मांस और हड्डियाँ—जब टूटकर बिखरती हैं, तो बस अपने मूल रूप में लौट जाती हैं।
क्या कभी धरती तत्व मरा है? जब शरीर टूटता है, तब वह कहाँ जाता है? वह फिर से उन्हीं चार तत्वों में बदल जाता है। कुछ भी नष्ट नहीं होता। बस यह हुआ कि वे तत्व एक बार इकट्ठे हुए, एक शरीर का रूप लिया, जिसमें चेतना ने प्रवेश किया और उसे जीवन दिया। और फिर—
मन कभी नहीं मरता। उसमें बस लगातार बदलाव होता रहता है। हर एक चेतन पल में जन्म और मृत्यु होती है — विचार आते हैं और चले जाते हैं, लगातार एक के बाद एक। जब मे ची क्यु ने ध्यान से चार तत्वों — पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु — का निरीक्षण किया, तो उसने देखा कि ये भी अपने गुणों में बदलते रहते हैं। इस निरीक्षण से मन और साफ़-साफ़ सामने आने लगा। फिर मृत्यु कहां थी? और मरता क्या है? चारों तत्व नहीं मरते। और मन — वह कैसे मर सकता है?
इस गहरी समझ से उसका मन और भी सजग, जागरूक और भीतर तक देखने वाला बन गया।
लेकिन परम शांति को अनुभव करने के बाद, मे ची क्यु ने शरीर और उसके गहरे अर्थों पर विचार किया। उसने देखा कि शरीर को लेकर जो उसकी पहचान थी, वह असल में एक भ्रम था। यह भ्रम पुराने कर्मों की वजह से बना था, जो उसे बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्र में बाँधते थे। उसने महसूस किया कि शरीर की अशुद्धता सिर्फ उसकी बनावट तक सीमित नहीं है — यह उन विचारों और कार्यों तक फैली है जो शरीर पर आधारित हैं और अक्सर बहुत नुकसानदायक होते हैं।
अहंकार, वासना, यौन हिंसा और शारीरिक क्रूरता — ये सब मन की गहराई में छुपी हुई कुरूपता के रूप हैं। इन सबकी जड़ शरीर से जुड़ी हुई पहचान में थी, जो मन को दुनिया में बाँध देती है।
मे ची क्यु ने जाना कि अगर वह इस शारीरिक आसक्ति को जड़ से खत्म करना चाहती है, तो उसे उन अशुद्ध विचारों और भावनाओं की जाँच करनी होगी, और उस चेतना के प्रवाह को समझना होगा, जहाँ से ये सब जन्म लेते हैं।