“एक बिलकुल शांत और साफ़ पानी के तालाब में हम सब कुछ साफ़-साफ़ देख सकते हैं। वैसे ही, जब दिल पूरी तरह शांत होता है, तो वह स्थिर रहता है। जब दिल स्थिर होता है, तब बुद्धि आसानी से प्रकट होती है, सहज रूप से बहती है। और जब बुद्धि बहती है, तब समझ भी साफ़ और स्पष्ट हो जाती है।”
कई महीने बीत गए और मे ची क्यु का जीवन अब शांति और ध्यान में डूबा हुआ था। वह हर दिन ध्यान की सख्ती और एकाग्रता के साथ एक स्थिर मार्ग पर चल रही थी। सुबह का भोजन करने के बाद वह अपनी झोपड़ी में लौट जाती और बाकी सुबह ध्यान में बिताती।
जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाने की कोशिश में ध्यान का रास्ता उसके लिए एक पवित्र युद्ध जैसा बन गया था। वह ध्यान में इतनी गहराई से डूबी रहती कि उसे अपने शरीर की स्थिति या ज़मीन पर नंगे पांव चलने का अहसास भी नहीं होता। उसका ध्यान भीतर की चेतना में इतना मग्न होता कि कभी-कभी वह पथ से हटकर झाड़ियों की ओर बढ़ जाती, लेकिन ध्यान भटके बिना ही खुद को फिर से रास्ते पर ले आती।
वह रास्ता ऊँचे-ऊँचे पेड़ों और धनुष की तरह झुकी बांस की पत्तियों से ढका हुआ था। उस रास्ते के एक छोर पर एक लंबा, पतला फयोम का पेड़ था। उसकी छाया में मे ची क्यु ने बांस का एक छोटा सा मंच बनाया था जहाँ वह दोपहर के समय विश्राम और ध्यान करती थी।
फयोम पेड़ वर्षावन की एक खास किस्म थी — इसकी लकड़ी मजबूत होती थी और इसकी शोभा उसके चमकीले पीले फूलों से थी, जो मौसम में हरे पत्तों पर बिखर जाते थे और धीरे-धीरे मे ची क्यु के ध्यान स्थल को सुंदर पंखुड़ियों से ढक देते थे।
फयोम पेड़ में कठोरता और सुंदरता दोनों का मेल था — जैसे मे ची क्यु का मन: वह एक ओर सख्त साधना में रमा हुआ था, और दूसरी ओर गहरे आंतरिक सौंदर्य से भरा हुआ।
एक शाम मे ची क्यु ने एक अद्भुत सपना देखा। उसने देखा कि उसके सामने एक विशाल तालाब फैला हुआ है, जो सुनहरे कमल के फूलों से भरा हुआ है। ये फूल इतने बड़े थे जैसे बैलगाड़ी के पहिये, और उनकी पतली, चमकीली पंखुड़ियाँ हवा में हौले-हौले फड़फड़ा रही थीं। कुछ फूल पूरी तरह खिले थे, तो कुछ बंद थे, उनके सिर ऊपर की ओर थे, जैसे सोने के गुंबद वाले मंदिर पानी पर खड़े हों। कुछ फूल तालाब के साफ़ ठंडे पानी के नीचे झलक रहे थे, उनकी सुनहरी आभा पानी में चमक रही थी। पानी इतना साफ़ था कि नीचे की मुलायम मिट्टी तक साफ़ दिखाई दे रही थी।
कुछ पंखुड़ियाँ अपने तनों से अलग होकर सतह पर तैर रही थीं — गीली, चमकीली और बहुत ही सुगंधित। मे ची क्यु मंत्रमुग्ध होकर यह दृश्य देख रही थी। तभी उसने देखा कि एक छोटी सी सुनहरी बत्तख आकाश से नीचे आई और तालाब की सतह पर उतरकर कमल के फूलों के बीच खेलने लगी। वह तैरती हुई पंखुड़ियों को चोंच से उठाकर खाने लगी, हर पंखुड़ी को खाने से पहले उसके चारों ओर घूमती थी जैसे कोई नृत्य कर रही हो। जब उसने चार पंखुड़ियाँ खा लीं, तो वह शांत होकर रुक गई, पूरी तरह संतुष्ट।
तालाब के किनारे खड़ी मे ची क्यु यह सब देख रही थी, तभी उसे लगा कि उसका शरीर ऊपर उठ रहा है, और वह बादल की तरह पानी के ऊपर तैरने लगी। जब वह सुनहरी बत्तख के पास पहुँची, तो उसे लगा जैसे उसके पैर फैल गए हैं और वह उसकी पीठ पर बैठ गई है। लेकिन अगले ही पल उसे एहसास हुआ कि वह खुद वही बत्तख बन चुकी है। उसी क्षण उसका ध्यान टूटा और वह वापस सामान्य चेतना में लौट आई।
इसके बाद कई दिनों तक मे ची क्यु इस रहस्यमय सपने के अर्थ को समझने की कोशिश करती रही। एक सुनहरी बत्तख, जो कमल के फूल खा रही थी — कमल, जो कि धम्म (धर्म) की श्रद्धा का प्रतीक है। उसने जाना कि जिन चार पंखुड़ियों को बत्तख ने खाया, वे चार आर्य सत्य के रास्ते के चार चरणों का प्रतीक थीं — जो बोधि की राह के चार प्रमुख पड़ाव हैं।
सपने के गहरे अर्थ को समझते हुए मे ची क्यु के मन में ज्ञान की रोशनी फैल गई। उसे यह स्पष्ट हो गया कि वह इस जीवन में निश्चित रूप से उस महान मार्ग को पूरा करेगी — आर्य मार्ग की यात्रा को सफलतापूर्वक पूर्ण करेगी।
मे ची क्यु जानती थी कि चेतना हर जागरूक क्षण में मौजूद रहती है — चाहे ध्यान भीतर की ओर हो या बाहर की ओर। जो कुछ भी उसने अनुभव किया, वह चेतना के दायरे से कभी बाहर नहीं था। चूँकि हम जो भी देखते, महसूस करते और समझते हैं, वह चेतन मन के ज़रिए ही होता है, इसलिए चीज़ों का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। इसी वजह से, शरीर के प्रति जागरूकता भी चेतना की एक क्रिया ही थी।
सीधे शब्दों में कहें, तो मे ची क्यु शरीर की एक मानसिक छवि को देख रही थी, जो संवेदनाओं पर आधारित थी। चेतना पूरे शरीर में फैली हुई होती है, इंद्रियों को सक्रिय करती है और अनुभव को संभव बनाती है। “मैं शरीर हूँ” — यह अनुभव असल में मन में बनने वाली छवियों और संवेदनाओं का मेल था, जो रूप और “मैं” की भावना से जुड़ी गहरी आसक्ति से रंगी हुई थीं।
इस सबको समझते हुए मे ची क्यु ने शरीर को एक मानसिक कल्पना के रूप में देखना शुरू किया — एक ऐसी चीज़ जो मन की रचना है। उसने सोचा, अगर शरीर तो केवल चार तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु) का अस्थायी मेल है, तो यह “मैं इसी शरीर हूँ” की भावना कहां से आई? और जब यह शरीर धीरे-धीरे टूटता है, बूढ़ा होता है या नष्ट होता है — तो उससे जुड़ी कुरूपता या घृणा जैसी भावनाएं मन में क्यों आती हैं?
जब मे ची क्यु ने शरीर के विघटन से जुड़ी आंतरिक छवियों पर ध्यान किया, तो उसने खास तौर पर उन विचारों और भावनाओं पर ध्यान दिया जो शरीर को सुंदर या भद्दा, स्वीकार्य या अस्वीकार्य ठहराते हैं। वह एक शांत, अलग और निष्पक्ष साक्षी बनकर मन को खुलकर देखने लगी — कि कैसे वह पहले विचार बनाता है और फिर उनकी व्याख्या करता है।
वह जानती थी कि शरीर के बारे में उसका अनुभव इंद्रियों और मन की अवधारणाओं के मेल से बनता है। लेकिन तब वह इन अवधारणाओं को अच्छा-बुरा, सुंदर-कुरूप के रूप में देखती थी। अब उसका ध्यान इस बात पर गया कि मन ऐसी छवियाँ क्यों बनाता है, और उन्हें किस तरह अर्थ देता है।
यही खोज उसकी साधना का केंद्र बन गई — जानना कि चेतना और मन मिलकर कैसे “मैं” और “मेरा” की भावना रचते हैं।
इस अवस्था में मे ची क्यु ने यह समझना शुरू किया कि जब वह शरीर के बारे में सोचती है, तो उसके मन में उठने वाली भावनाओं की प्रतिक्रिया कितनी गहरी और स्वाभाविक होती है। उसने ध्यान के अभ्यास से अपने मन की गति को पहचानना और उसे उसकी जड़ — मूल स्रोत — की ओर मोड़ना सीख लिया था। अब वह उसी विधि का उपयोग कर रही थी: विचार और भावना की धारा को उलट देना, और उन्हें उनके आरंभ बिंदु पर वापस ले जाना।
एक बार उसने ध्यानपूर्वक शरीर के पूरी तरह टूट-फूट जाने की कल्पना की। उसने इस छवि को बिना किसी सोच या निर्णय के एक ही बार में पूरी तरह से अनुभव किया। उसकी सहज जागरूकता और सूक्ष्म ध्यान ने देखा कि एक घृणा की लहर उसके भीतर से उठी और उस छवि में समा गई। उसने उस छवि को तब तक अपनी चेतना में रखा जब तक कि देखने वाली (वह स्वयं) और देखी जाने वाली छवि में कोई भेद नहीं रहा। उसी क्षण वह छवि और घृणा की भावना धीरे-धीरे सिमटने लगीं और अंदर की ओर लौटकर चेतन मन में विलीन हो गईं — फिर दोनों गायब हो गईं।
फिर उसने फिर से उसी छवि और उससे जुड़ी भावना पर ध्यान लगाया। उसने देखा कि मन किस तरह छवि को भावनाओं से रंगता है, और फिर कैसे वह भावनाएँ धीरे-धीरे चेतना के केंद्र में लौट जाती हैं और फिर अंततः शांत हो जाती हैं। जितना अधिक वह इस अभ्यास को दोहराती, यह प्रक्रिया उतनी ही स्वाभाविक और सरल होती जाती।
धीरे-धीरे ऐसा होने लगा कि बिना किसी प्रयास के ही वे छवियाँ और उनसे जुड़ी भावनाएँ अपने-आप ही उठतीं और फिर अपने मूल स्रोत — चेतना — में लौटकर लुप्त हो जातीं।
अब मे ची क्यु का ध्यान शरीर के चिंतन के एक बहुत ही निर्णायक मोड़ पर पहुँच गया था। उसने गहराई से यह देखा कि मन ही वह कारण है जो शरीर से लगाव और उसके प्रति घृणा पैदा करता है। यह मन ही था जिसने सुंदरता और कुरूपता के विचार बनाए। वे गुण वस्तुओं में नहीं थे — मन ने ही उन गुणों को चीज़ों पर लाद दिया और फिर स्वयं यह मान लिया कि वे वास्तव में वहाँ मौजूद हैं।
असल में, चेतना का प्रवाह लगातार कल्पनाओं और भावनाओं से भरा रहता है — यह मन ही है जो हर समय छवियाँ बनाता है, खुद की भी और दुनिया की भी। फिर वह उन्हीं छवियों को सच मान लेता है, और उसी भ्रम में जीता है।
मे ची क्यु ने इस गहरे बोध के साथ देखना शुरू किया कि जब तक मन की यह आदत नहीं टूटती, तब तक सच्चा ज्ञान नहीं आता — और यह भी कि यह आदत धीरे-धीरे ध्यान से ही ढीली की जा सकती है।
उस अवस्था में मे ची क्यु का मन बहुत गहराई और सूक्ष्मता से जागरूक था — जैसे कोई अनंत आकाश हो, जिसमें हर चीज़ स्पष्ट दिख रही हो। अब मन की बनाई हुई छवियाँ, जो पहले ठोस और स्थिर लगती थीं, धीरे-धीरे टूटने लगीं। चेतना की निरंतर बहती धारा में असंख्य अस्पष्ट और अधूरी आकृतियाँ उभरतीं, फिर आपस में मिलतीं और तुरंत ही बिखर जातीं — मानो किसी लहर की तरह जो बनते ही मिट जाती है।
जैसे ही शरीर की कोई कल्पना मन में आती, वह तुरंत गायब हो जाती। इससे पहले कि कोई इच्छा या भावना पूरी तरह बन पाती, गहरी जागरूकता उसे अपने भीतर समेट लेती और वह शून्यता में विलीन हो जाती। शरीर और मन से जुड़ी हर संभावित पहचान एक के बाद एक उठती, लेकिन फिर एक-एक करके गायब भी हो जातीं। मन के भीतर जो भी पुराने विचार या आदतें खुद को व्यक्त करना चाहतीं, वह उन्हें पूरी तरह उभरने से पहले ही देख लेती और वे स्वतः ही नष्ट हो जातीं।
छवियाँ इतनी तेज़ी से उठतीं और गिरतीं कि अब यह सोचना ही बेकार हो गया था कि वे “भीतर” से आ रही हैं या “बाहर” से — अब उस अंतर का कोई मतलब ही नहीं रह गया था। अंततः, वे आकृतियाँ बस चमकतीं और बुझ जातीं — इतनी तेज़ी से कि उनका कोई स्पष्ट अर्थ भी नहीं रह गया। हर बार जब कोई छवि मिटती, मन के भीतर एक गहरी, शांत शून्यता महसूस होती — कल्पना से मुक्त, और हर रूप से अनासक्त।
इसी शून्यता के बीच, एक बहुत ही शुद्ध और कोमल ज्ञान का अनुभव हुआ — जो किसी सोच या छवि पर आधारित नहीं था, बल्कि सीधी अनुभूति थी। हर बार जब कोई नई छवि आती और मिटती, मन उस मौन और खालीपन को और अधिक गहराई से महसूस करता गया।
और तब मे ची क्यु का मन एक नई अवस्था में पहुँच गया — वह भीतर से एकदम शांत, खाली और पारदर्शी हो गया था। शरीर तो अब भी था, लेकिन मन में कोई भी छवि, विचार या भावना नहीं बची थी। वह बस एक शुद्ध जागरूकता बन चुकी थी।
इस गहरी समझ ने मे ची क्यु के पूरे अस्तित्व में एक क्रांतिकारी बदलाव ला दिया। अब वह पूर्ण निश्चितता के साथ सत्य को समझ चुकी थी — कि चेतना के प्रवाह से उठने वाली कल्पनाएँ ही आकर्षण और प्रतिकर्षण की भावनाओं को जन्म देती हैं। उसने देखा कि ये भावनाएँ दरअसल शरीर और रूप के बारे में बनी हुई बहुत पुरानी, गहराई में जमी और लगभग अनजानी धारणाओं की वजह से थीं, जिनका आधार भ्रम में था।
जब इन धारणाओं की सच्चाई सामने आई और उनका झूठा आधार उजागर हुआ, तो उनके पास टिकने की कोई वजह नहीं बची। संसार का जो बाहरी दिखावा था, वह जैसे ढह गया — और उसके प्रति जो मोह था, वह भी अपने आप खत्म हो गया। जब मन ने स्वयं रची हुई छवियों को बनाना बंद कर दिया, तो रूप के प्रति लगाव भी खत्म हो गया।
अब उसका मन पूरी तरह से कामनाओं और इंद्रिय सुखों से दूर हो गया था। उसके भीतर एक ऐसी शांति फैल गई जो बहुत गहरी और व्यापक थी — जैसे पूरे मानसिक जीवन को समेट ले। अब उसके मन में कोई भी शरीर से जुड़ी छवि नहीं थी, यहाँ तक कि कोई सामान्य रूप भी नहीं। इस कारण मे ची क्यु को पूर्ण विश्वास हो गया कि अब वह कभी भी रूप के संसार में, शरीर के किसी भी रूप में, पुनर्जन्म नहीं लेगी।
अवतार या “मैं यह शरीर हूँ” की सामान्य भावना पूरी तरह मिट चुकी थी। उसे ऐसा अनुभव हुआ कि जैसे वह धीरे-धीरे विलीन हो रही है — अपनी सीमाओं से बाहर निकल रही है, और ब्रह्मांड की हर चीज़ में समा रही है। वह हर चीज़ के साथ एक हो चुकी थी। उसके भीतर अब एक परम विश्रांति थी — जो पूरी तरह स्वतंत्र थी, किसी भी चीज़ पर निर्भर नहीं, और साथ ही पूर्ण रूप से स्पष्ट, चमकदार और स्थिर।