“आपका शरीर, आपका मन, आपका जीवन - ये सब आपके नहीं हैं, इसलिए सच्ची खुशी पाने के लिए इन पर निर्भर न रहें।”
अजान मुन के चले जाने के बाद तापई चुपचाप और शांत रहने लगी। ध्यान छोड़ देने के बाद उसके जीवन की खुशी और उत्साह धीरे-धीरे खत्म हो गए। स्वभाव से शर्मीली तापई को लोगों से मिलना-जुलना पसंद नहीं था, इसलिए उसने खुद को पूरी तरह काम में लगा दिया, जिससे वह हमेशा व्यस्त रहने लगी।
उसके हाथ हमेशा किसी न किसी काम में लगे रहते थे, उसका शरीर हमेशा चलायमान रहता था। वह कपास उगाती, फिर उसे काढ़कर और कातकर मोटे धागों की पूलियां बनाती, जिन्हें वह कपड़े में बुनती थी। उसने नील के पेड़ भी उगाए, जिनकी पत्तियाँ काटकर और पीसकर वह गहरे नीले रंग का रस निकालती, जिससे वह कपड़ों को रंगती थी। वह करघे पर घंटों बैठकर रेशम और सूती धागों को बुनती, फिर कपड़े को सावधानी से काटती और सिलकर ढीली-ढाली स्कर्ट और कुर्तियाँ बनाती, जिन्हें सुंदर रंगों और डिज़ाइनों में रंगती।
वह अब भी शहतूत के पेड़ लगाती थी ताकि रेशम के कीड़े पाले जा सकें। वह कच्चे रेशम को कातकर मोटे कपड़े बनाती थी, जो गांव के कठिन जीवन के लिए उपयुक्त होते थे।
बांस और बेंत की टोकरी बनाते समय भी उसने अपनी कला का हुनर दिखाया — वह हल्की, मजबूत और सुंदर टोकरियाँ बनाती थी। वह तकिए और गद्दे भी सिलती थी और उन्हें नरम रुई से भरती थी। सर्दियों के लिए ऊनी कपड़े भी बुनती थी। खाली समय में वह पुराने कपड़ों की मरम्मत करती थी, बड़ी बारीकी और सधे हुए हाथों से।
वह जंगली जड़ी-बूटियों को उनके रूप और गंध से पहचानती थी। ठंडे जंगलों की लंबी सैर में वह इन्हें और साथ में जंगली सब्जियाँ भी इकट्ठा करती थी। शाम को घर लौटकर, वह इन जड़ी-बूटियों और सब्जियों को काटती और छीलती, फिर उन्हें मांस या मछली के साथ पका कर एक स्वादिष्ट और पोषक भोजन तैयार करती थी।
तापई की कई प्रतिभाओं ने फू ताई समुदाय में सभी का ध्यान खींचा। पारंपरिक कौशलों से युक्त युवतियों की बहुत सराहना होती थी और उन्हें आदर्श दुल्हन माना जाता था। इसके अलावा, तापई में कुछ और भी खूबियाँ थीं — उसकी मेहनत करने की ताक़त, भरोसेमंद स्वभाव, परिवार और परंपराओं के प्रति निष्ठा, और बड़ों के प्रति सम्मान। ज्यादा समय नहीं बीता कि उसके लिए रिश्ते आने लगे। उन्हीं में से एक, बुनमा नाम का एक लड़का, जो तापई से एक साल छोटा था और पास ही के मोहल्ले में रहता था, उसके माता-पिता से विवाह का प्रस्ताव लेकर आया।
हालाँकि तापई अब भी अजान मुन की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित थी और उसने कभी प्रेम या विवाह के बारे में गंभीरता से नहीं सोचा था, लेकिन जब उसके माता-पिता ने यह रिश्ता स्वीकार कर लिया, तो वह उनके निर्णय के खिलाफ जाने को तैयार नहीं थी। शायद अब यही उसकी सांसारिक जीवन की नियति थी — जिसे फिलहाल उसे स्वीकार करना था।
तापई और बुनमा का विवाह उसके सत्रहवें वर्ष की वर्षा ऋतु की शुरुआत में एक पारंपरिक फू ताई समारोह में हुआ। परंपरा के अनुसार, वह अपने पति के संयुक्त परिवार में रहने चली गई, जो उसके माता-पिता के घर से ज़्यादा दूर नहीं था। वहाँ वह एक ऊँचे खंभों पर बने बड़े लकड़ी के घर में रहने लगी, जिसकी छत घास की थी। एक बार फिर, वह परिवार की सबसे छोटी सदस्य थी और उस पर ही रोज़ के ज़्यादातर कामों की जिम्मेदारी डाल दी गई।
तापई का मजबूत और सहनशील स्वभाव ऐसा था कि वह कभी मेहनत से पीछे नहीं हटी। लेकिन बुनमा एक लापरवाह और मज़ाकिया किस्म का इंसान था, जिसे बातें करना अच्छा लगता था जबकि बाकी लोग काम करते थे। वह धान की खेती में मदद के लिए अक्सर गाँव की लड़कियों को काम पर रखता, और फिर उनके साथ हँसी-मज़ाक करता, यहाँ तक कि कभी-कभी तापई के बारे में उनकी पीठ पीछे चुगली भी करता। शायद वह चाहता था कि तापई ईर्ष्या करे, लेकिन उसने हमेशा अनजान बनने का नाटक किया और उसके इन व्यवहारों पर कुछ नहीं कहा।
तापई खुद को लगातार काम में डूबा हुआ पाती थी — जीने के लिए, खाना बनाने और रहने के लिए, एक युवा पत्नी के रूप में रोज़ के काम। वह सूरज निकलने से पहले उठ जाती थी और पीली मोमबत्ती की रोशनी में जल्दी-जल्दी काम शुरू कर देती थी। वह मिट्टी के छोटे चूल्हे में ढीली-ढाली जली हुई लकड़ियाँ रखती थी और तब तक फूंक मारती थी जब तक अंगारे लाल होकर चमकने न लगें। उबलते पानी से वह एक शंकु जैसी टोकरी में भाप भरती थी, जिससे उसकी गर्मी में चिपचिपा चावल पक जाता था। एक बार में पूरे दिन का चावल पकता था — उसके लिए, उसके पति के तीन समय के खाने के लिए और कुछ मेहमानों के लिए।
खेत के जानवर, जो कुछ पीछे के आँगन में और कुछ घर के नीचे मिट्टी के फर्श पर रहते थे, उन्हें चारे और पानी की ज़रूरत होती थी। पानी जुटाना सबसे मुश्किल काम था। गाँव के लोग बार-बार कुएँ और घर के बीच आते-जाते थे, बड़े-बड़े मिट्टी के घड़ों को भरने के लिए कई चक्कर लगाते थे। यह बहुत थकाने वाला काम था, लेकिन करना ज़रूरी था। पानी पीने, बर्तन धोने, कपड़े साफ करने और एक और गर्म और पसीने भरे दिन के बाद नहाने के लिए ज़रूरी था।
गाँव का जीवन चावल की खेती से पूरी तरह जुड़ा हुआ था। चावल की फसल पूरी तरह बारिश पर निर्भर थी, जो हर साल जीवन में नई ऊर्जा लाती थी। बारिश को शुभ माना जाता था और इसका स्वागत किया जाता था। लेकिन इसका मतलब बहुत सारा काम और थकाने वाला श्रम भी होता था। मई की शुरुआत में जब पहली तेज़ बारिश बंजर ज़मीन पर गिरती थी, तब जुताई शुरू होती थी। दो भारी-भरकम जल भैंसों को लकड़ी के हल से जोड़ा जाता था और उन्हें खेत के एक किनारे से दूसरे किनारे तक कई बार चलाया जाता था ताकि मिट्टी नरम हो जाए। फिर उन्हें फिर से चलाकर मिट्टी को अच्छे से रौंदा जाता था।
चावल के छोटे पौधों को पहले नर्सरी के खेतों में उगाया जाता था और उनका ध्यान रखा जाता था। अगर बारिश कम होती, तो पास की धाराओं से पानी लाया जाता। जब पौधे रोपने लायक हो जाते, तो गाँव की महिलाएँ उन्हें रोपती थीं। वे एक लाइन में, कमर झुकाकर, पीछे की ओर चलते हुए गीली मिट्टी में पौधे लगाती थीं। बरसात का मौसम गाँव के खेतों को हरे-भरे, गीले टुकड़ों में बदल देता था, जैसे आसमान से पानी की मोटी चादर बिछ गई हो। पहाड़ियों पर बांस के घने झाड़ उग आते थे, और हल्की फुहारों से पूरा नज़ारा मुलायम और शांत दिखता था।
खेतों में पानी भरा होता था, और उसमें चावल के पौधे सीधी कतारों में खड़े रहते थे। सुबहें गर्म और नम होती थीं, चारों ओर धुंध फैली होती थी। शाम होते-होते खेतों के किनारे मेंढकों की टर्र-टर्र और तालाबों से हंसों की आवाज़ें सुनाई देती थीं।
हर साल की बरसात तापई के लिए चिंता लेकर आती थी। अगस्त में जब दक्षिण-पश्चिम की हवाएं धीमी पड़ने लगती थीं, तो उसे कम बारिश का डर सताने लगता था। फिर सितंबर में जब तूफ़ान ज़मीन पर तबाही मचाते थे और तेज़ बारिश से गाँव की गलियाँ भर जाती थीं, तो बाढ़ आ जाती थी। बारिश से रास्ते कीचड़ से भर जाते थे, और बैलगाड़ियों और भैंसों के चलने से रास्ते और भी उखड़ जाते थे। इन रास्तों पर चलना इंसानों और जानवरों दोनों के लिए मुश्किल हो जाता था। कभी ज़ोर की बारिश होती, तो कभी हल्की फुहारें गिरतीं। इन सबके बीच चावल की फसल धीरे-धीरे हरी और लंबी होती जाती थी।
अक्टूबर के बीच तक चावल में फूल आ जाते थे। खेत सुनहरे रंग के झूमते गुच्छों से भर जाते थे, जो ठंडी हवा में धीरे-धीरे लहराते थे। जब कटाई का समय आता, तो तापई अपने पूरे परिवार के साथ खेत में काम करने जाती थी। कई हफ़्तों तक सब लोग तेज़ धूप में झुककर काम करते थे, जैसे-जैसे वे लाइन में आगे बढ़ते थे, उनके हाथों के ब्लेड (धन काटने का एक औजार) ऊपर-नीचे चलते रहते थे। फिर चावल के दानों से भरे हुए गुच्छों को ज़मीन पर फैला दिया जाता और अक्टूबर की धूप में सूखने के लिए छोड़ दिया जाता था।
तापई अब अपने नए परिवार की रोज़मर्रा की ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन चुकी थी। वह घर का सारा काम संभालती थी और खेतों में भी बिना कोई शिकायत किए मेहनत करती थी। कई हफ्तों तक उसने लगातार खेतों में मेहनत की — घास-फूस हटाया, मेड़ों को मजबूत किया। फसल कटने के बाद वह अपने पति के साथ खेतों के पास रुक जाती थी, ताकि नई फसल की देखरेख कर सके — वही फसल जो अगले साल खाने के लिए ज़रूरी थी। वे तब तक वहीं रहते जब तक अनाज पूरी तरह सूख न जाए और थ्रेसिंग शुरू न हो सके।
थ्रेसिंग और फटकने का काम औरतों का होता था, इसलिए तापई और बाकी महिलाओं को दिन भर के काम के बाद भी खेतों में ही खुले में सोकर ठंडी रातें गुजारनी पड़ती थीं। वे घंटों तक झुक-झुक कर अनाज को डंठलों से अलग करती थीं। फिर इन दानों को साफ करने के लिए बड़ी गोल टोकरी जैसी ट्रे में रखा जाता था, जो पतले बांस के रिबन से बुनी जाती थी। इन भारी ट्रे को बार-बार हवा में उछाला जाता था ताकि हल्का भूसा उड़ जाए और सिर्फ साफ अनाज बचे।
जब धान अच्छी तरह सूख जाता, थ्रेस और फटक (धान को साफ करने की विधि) लिया जाता, तो उसे लकड़ी की बड़ी-बड़ी गाड़ियों में भर दिया जाता था जिन्हें भैंसें खींचती थीं। ये गाड़ियाँ धान को गाँव लातीं, जहाँ उसे परिवार के छोटे खलिहानों में जमा कर दिया जाता था।