“मेरी इंद्रियाँ लगातार मुझ पर असर डालती हैं—आँखें रूपों को देखती हैं, कान आवाज़ें सुनते हैं, नाक खुशबू लेती है, जीभ स्वाद महसूस करती है, और शरीर स्पर्श को जानता है। मैं इन सब चीज़ों को ध्यान से देखती और समझती हूँ। इस तरह, मेरी हर इंद्रिय मेरे लिए एक शिक्षक बन जाती है।”
तापई को यह व्यस्त और उलझी हुई दुनिया पसंद नहीं थी, लेकिन वह चुपचाप सब कुछ सहती रही। उसका सच्चा सहारा हमेशा विहार, धार्मिक समारोह और आध्यात्मिक अभ्यास ही रहा था। लेकिन अब, उसका पति भी उसमें रुक्युट बन गया था। उसे लगता था कि औरत की जगह सिर्फ घर और परिवार के बीच होती है—बाहर की दुनिया में नहीं, और आध्यात्मिक जीवन में तो बिल्कुल नहीं।
फू ताई समाज में पहले से ही ये मान्यताएँ थीं—ऊँच-नीच, पुरुष-महिला जैसे भेद—और तापई इन्हीं सोच के बीच पली-बढ़ी थी। उसका पति उसे ज़्यादा स्वतंत्रता नहीं देता था। विहार जाना भी मना था, और उसका आध्यात्मिक अभ्यास बस सुबह भिक्षुओं को भोजन देने और रात में परित्तस पढ़ने तक सीमित था। तापई ने यह सब चुपचाप स्वीकार कर लिया, क्योंकि उसके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था।
धीरे-धीरे, घर और खेत का काम ही उसका ध्यान बन गया। वह काम करते हुए ध्यान की तरह एकाग्रता साधने लगी। दिन लंबे और थका देने वाले होते थे, लेकिन वह कोशिश करती कि ऊब को एकाग्रता में बदल दे। जब उसे अपने पति पर ग़ुस्सा आता, तो वह उस भावना को करुणा और प्रेम में बदलने की कोशिश करती। जब वह दूसरों से ईर्ष्या महसूस करती, तो त्यागी जीवन और अजान मुन के उस वादे को याद करती—कि एक दिन वह सफेद वस्त्र पहनकर संन्यासिनी बनेगी।
तापई को भीतर से गहरा अनुभव था कि सच्चा ध्यान क्या होता है। लेकिन जब तक वह समय नहीं आया, उसने साधारण जीवन की हर दिन की गतिविधियों को ही अपना साधना बना लिया।
कर्तव्य भावना के साथ तापई ने अपने सभी काम पूरे किए, लेकिन उसके दिल में संतोष नहीं था। वह अपने जीवन की सीमाओं को गहराई से महसूस करने लगी—विवाह के बंधन जैसे दीवारें बनकर उसे चारों ओर से घेर रही थीं। जो कुछ वह देखती, सुनती या महसूस करती, वह असंतोष ही था। सत्रह साल की उम्र में शादी करने के बाद देखते-देखते वह सत्ताईस की हो गई, और हर साल उसे एक जैसे दुख और थकान का दोहराव लगता रहा।
वह धीरे-धीरे फिर से अपने ध्यान और आत्मचिंतन की ओर लौटने लगी। उसने कोशिश की कि रोज़ की छोटी-छोटी चीज़ों में भी कोई पवित्रता देख सके। अब वह लगातार इस बारे में सोचने लगी थी कि वह इस दुनिया को छोड़ दे, साधारण वस्त्र पहने और भिक्षुणी का शांत जीवन अपनाए। यह विचार उसके भीतर धीरे-धीरे लेकिन गहराई से बसने लगा।
आख़िरकार, एक शाम खाने के बाद वह अपने पति के पास घुटनों के बल बैठी। उसने कोशिश की कि वह अपने दिल की बात कह सके—कैसे वह घरेलू कामों से मुक्त होना चाहती है, कैसे उसका मन धर्म के रास्ते पर चलने को पुकार रहा है। लेकिन उसके पति ने ठंडेपन से उसकी बात को ठुकरा दिया। उसने कोई चर्चा नहीं की, कोई रास्ता नहीं छोड़ा। तापई ने चुपचाप, बिना कुछ कहे, सिर झुकाकर उसकी बात मान ली—और अपने जीवन को उसी रास्ते पर आगे बढ़ा दिया।
तापई का जीवन हर दिन एक जैसा ही चलता रहा। वह शांत और उम्मीद से भरी रही, अपने समय का इंतज़ार करती रही। कुछ हफ्ते बाद, जब उसने अपने पति को अच्छे मूड में देखा, तो उसने फिर से अपनी आज़ादी की बात की। लेकिन इस बार भी उसके पति ने मना कर दिया। उसने कहा कि अगर वह तापई को नन बनने देगा, तो लोग बातें बनाएँगे—कहेंगे कि उसने उसे इसलिए छोड़ दिया क्योंकि वह अच्छा पति नहीं था, या क्योंकि वह उसे संतान नहीं दे सका।
तापई को समझ नहीं आया कि क्या कहे। यह सच था कि वे दोनों पिछले दस साल से बिना किसी बच्चे के साथ रह रहे थे। उनका रिश्ता मजबूत था, और दोनों के बड़े परिवार थे, लेकिन उनका अपना कोई बच्चा नहीं था। शायद यह उसके पिछले किसी अच्छे कर्म का फल था, जो अब उसे संसार छोड़ने में मदद कर सकता था। लेकिन अब यही बात उसके पति के लिए उसे रोकने का बहाना बन गई थी।
उसने फिर से समझाने की कोशिश की, आपसी सहमति से बात को हल करने की कोशिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उसका जवाब साफ था—नहीं।
फू ताई परिवारों में आमतौर पर बहुत से बच्चे होते थे। हर बच्चे का जन्म एक तरह से परिवार की ताकत माना जाता था। बच्चे बड़े होकर खेतों में काम करते, घर का बोझ संभालते और फिर बुढ़ापे में अपने माता-पिता की सेवा करते। इतने सालों तक संतान न होने के कारण, तापई की मौसी और रिश्तेदारों को उसकी चिंता होने लगी थी—जब वह बूढ़ी हो जाएगी, तो उसका ध्यान कौन रखेगा?
इसलिए जब उसकी एक चचेरी बहन—जिसके पहले से ही कई बच्चे थे—फिर से गर्भवती हुई, तो यह तय हुआ कि उसका बच्चा तापई को पालने के लिए दे दिया जाएगा। पहले से ही बहन से बात हो चुकी थी, और जब एक स्वस्थ बच्ची का जन्म हुआ, तो तापई ने उसे प्यार से अपनी गोद में लिया और घर ले आई।
तापई ने बच्ची का नाम “क्यु” रखा, जिसका मतलब था उसकी “छोटी प्यारी”। जब लोगों ने देखा कि तापई इस बच्ची के साथ कितनी खुश है, और उसका स्नेह कितना गहरा और मातृवत है—हमेशा ध्यान देने वाली, देखभाल करने वाली—तो लोग उसे “मे क्यु” यानी “क्यु की माँ” कहने लगे। यह नाम इतना स्वाभाविक लगा कि सबने यही कहना शुरू कर दिया, और तब से वह मे क्यु के नाम से जानी जाने लगी।
छोटी क्यु बड़ी होकर एक चतुर और जिज्ञासु लड़की बनी। उसने मे क्यु के साथ घर के सारे कामों को सीखने में दिलचस्पी ली, उसकी तेज़-तर्रार गतिविधियों की नकल की और अपने शरीर को उसी लय में ढाल लिया, जैसे यह सब उसकी आदत में शामिल हो गया हो।
मे क्यु को खुद अपनी मां की जल्दी मौत के कारण बहुत कम उम्र में ये सब सीखना पड़ा था। इसी वजह से वह चाहती थी कि उसकी बेटी भी वही लगन और समर्पण सीखे, जो उसने अपने अनुभवों से सीखा था।
बेटी की परवरिश मे क्यु के लिए एक चंचल और सुखद अनुभव बन गई। यह उसके जीवन की सीमाओं से उसका ध्यान हटा देती थी, और कम से कम कुछ समय के लिए, उसे उसकी नीरस दिनचर्या से राहत देती थी। वह अपनी आध्यात्मिक इच्छाओं को किसी के साथ बाँटना चाहती थी, लेकिन क्यु अभी बहुत छोटी थी—मासूम, निश्चिंत, और इस दुनिया के दुखों से अनजान।
मे क्यु के लिए, जिसने बहुत पहले ही जीवन के दुख-दर्द को महसूस कर लिया था, गाँव के लोगों की तकलीफ़ें उसके भीतर गहरे उतर जाती थीं, जैसे सीने में कोई तीखा और भारी घाव। उसने देखा कि कैसे साधारण लोग कठोर जीवन जीते थे—हर दिन मेहनत करते, संघर्ष करते। उनका पूरा जीवन—जवानी से लेकर बुढ़ापे और फिर मृत्यु तक—काम करते हुए ही बीत जाता था।
एक खुशी आती, फिर कोई दुख। एक साल जब उसने क्यु को गोद लिया, उसी साल उसके पिता चल बसे। पहले हँसी, फिर आँसू। उस साल बारिश भी नहीं हुई और चावल की फसल पूरी तरह नष्ट हो गई। कभी बाढ़ आती, तो कभी सूखा।
मे क्यु ने जाना कि जीवन में सुख-दुख हमेशा साथ-साथ चलते हैं, जैसे गाड़ी के दो पहिए—एक के बिना दूसरा नहीं। वे मिलकर इंसान को मृत्यु की ओर ले जाते हैं, और फिर एक नए जन्म की ओर, जहाँ यह चक्र फिर से शुरू हो जाता है।
उसने देखा कि इस दुनिया में बदलाव और दुख ही सबसे स्थायी सत्य हैं—सब कुछ बदलता है, और कोई भी दुख से नहीं बच सकता।
सुख-दुख और बदलते मौसमों के बीच, मे क्यु ने कभी भी अपने दिल की सच्ची चाह को नहीं छोड़ा। वह चाह, जो दिखने में चुप थी, मगर भीतर गहराई से जमी हुई थी। उसके जीवन में त्याग सिर्फ एक विचार नहीं था, बल्कि उसका स्थायी उद्देश्य बन गया था। वह अक्सर खुद को वाट नॉन्ग नॉन्ग की ननों के साथ कल्पना करती—सिर मुंडवाए हुए, सादे सफेद वस्त्र पहने, चुपचाप और सादगी से जीते हुए, बिना किसी विघ्न के ध्यान में लीन।
उसके लिए त्याग सिर्फ कुछ छोड़ देने का नाम नहीं था, बल्कि जीवन जीने का एक तरीका था। इतने वर्षों से उसने खुद को इस दुनिया में उलझने के लिए नहीं, बल्कि अपने भीतर की बेचैनी को पहचानने और उसे शांति में बदलने के लिए तैयार किया था। सुख और दुख—ये दोनों ही अवस्थाएँ उसके लिए स्थायी नहीं थीं। ये वे लहरें थीं जो मन को भ्रम में डाल देती थीं, और उसे अपने असली लक्ष्य से भटका देती थीं।
जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, जिम्मेदारियाँ भी बढ़ती गईं। और उनके साथ शांति कहीं खोने लगी—उस गहरी निराशा में, जो तब आती है जब कुछ भीतर से अधूरा लगता है। एक तृप्त न हो पाने वाली प्यास की तरह।
अजान मुन का वह वादा, कि एक दिन वह अपने सपने को पूरा करेगी, उसके बेचैन दिल को हमेशा ढाढ़स देता रहा। लेकिन अब, जब उसकी गोद में एक बेटी थी, जिसे वह पाल रही थी, तो वह सपना, दीक्षा लेने का सपना, पहले से कहीं ज़्यादा दूर लगता था।
फिर भी, अगर पूरा जीवन त्याग के साथ नहीं जिया जा सकता था, तो शायद थोड़े समय का एकांतवास ही सही। आखिर गाँव के युवा पुरुष भी तो कुछ समय के लिए भिक्षु बन जाते थे—विशेष रूप से वर्षा ऋतु के दौरान। यह एक परंपरा थी, एक सम्मानजनक संस्कार। यहाँ तक कि शादीशुदा पुरुष भी कुछ महीनों के लिए संसार से अलग होकर ध्यान और साधना में लग जाते थे, फिर वापस आकर अपने जीवन को नई ऊर्जा के साथ आगे बढ़ाते थे।
तो फिर वह क्यों नहीं कर सकती थी? उसे अपनी बेटी का ध्यान रखना था, यह सच था। लेकिन आठ साल की क्यु अब काफी समझदार और सक्षम थी। वह घर के ज़रूरी काम कर सकती थी, और तीन महीने तक अपने पिता की देखभाल भी। मे क्यु अपनी चचेरी बहनों की मदद पर भी भरोसा कर सकती थी।
वह पहले से योजना बना सकती थी—सारे भारी काम, जैसे हल चलाना और चावल की बुवाई, एकांतवास से पहले ही पूरे करवा सकती थी। और फिर वह ध्यानपूर्वक समय का चुनाव करके, फसल कटाई से पहले घर लौट सकती थी।
उसका पति पहले ही साफ कह चुका था कि वह उसे पूरी तरह आध्यात्मिक मार्ग पर नहीं चलने देगा। लेकिन शायद, थोड़ी समझदारी और सावधानी से, कोई रास्ता निकल सकता था—एक तरह की सहमति, एक समझौता।
थोड़ी सी आज़ादी, बिल्कुल भी आज़ादी न होने से कहीं बेहतर थी। रास्ते पर कुछ कदम चल लेना, जीवन भर उसी जगह अटके रहने से तो अच्छा ही था।
तो मे क्यु ने एक बार फिर वही विनम्रता और धैर्य अपनाया जो उसने दस साल पहले अपनाया था। वह अपने पति के सामने झुकी और दिल से बात की—अपने जीवन में बस एक छोटा-सा कोना माँगा, जहाँ थोड़ी-सी आज़ादी की हवा चल सके। उसने माना कि उसका स्थान घर और परिवार ही था, लेकिन उसने यह भी कहा कि वह सिर्फ तीन महीने का समय चाहती है, एक छोटा सा अध्याय, जो उसका अपना हो।
उसने विस्तार से बताया कि वह किस तरह से घर की व्यवस्था करेगी, कैसे उसकी अनुपस्थिति में भी सब कुछ ठीक से चलता रहेगा, और कैसे वह तीन महीने के अंत में लौट आएगी। वह कोई बोझ नहीं छोड़ेगी—बस एक मौका चाहती थी, अपने भीतर की पुकार को सुनने का।
उसका पति चुपचाप बैठा रहा, बिना कोई भाव दिखाए, उसकी बात पूरी होने तक सीधे आगे देखता रहा। जब मे क्यु चुप हुई, तो उसने उसकी तरफ देखा, पहले से ही सिर हिलाते हुए, और बस एक झटके में कह दिया—“ऑर्डिनेशन को भूल जाओ। तुम्हारे पास एक पति है जिसकी देखभाल करनी है, और एक बेटी है जिसे पालना है—और ये ही तुम्हारा पूरा समय ले लेंगे।”
वह अब मे क्यु के सपनों के बारे में कुछ भी सुनना नहीं चाहता था।
मे क्यु चुपचाप अपने जीवन के उसी तंग और सीमित कोने में लौट आई। उसने खुद को फिर से धैर्य के घूँट पिलाए। उसने अपने पति के विरोध को, उस पर लगाए गए बंधनों को स्वीकार तो किया, लेकिन दिल से उन्हें कभी अपना नहीं सकी।
वह अपनी बेटी से प्यार करती थी, और उसकी जरूरतों को समझती थी। उसने अपने पति की भूमिका को भी स्वीकार किया। मगर उसने अपने सपनों को मरने नहीं दिया। आशा उसके लिए अब सिर्फ एक भावना नहीं थी, बल्कि एक जीवनदायिनी शक्ति बन चुकी थी।
इसलिए जब अगला वर्ष आया, और फिर से वर्षा ऋतु के एकांतवास का समय पास आने लगा, तो उसने फिर से कोशिश की। उसने एक बार और अपने पति से बात करने की हिम्मत जुटाई—धीरे, समझदारी से, सावधानी के साथ।
इस बार उसका पति उतना कठोर नहीं था। उसका लहजा कुछ नरम था, जवाब उतना सीधा नहीं, न उतना कटु। लेकिन न ही उसमें कोई स्वीकृति थी, न कोई सच्ची उम्मीद। उसका “न” इस बार भी वही था—थोड़ा मुलायम, पर उतना ही निराशाजनक।
उसकी स्थिति अब कोई निजी बात नहीं रही थी। परिवार के दोनों पक्षों को उसकी इच्छाओं और उस पर लगे प्रतिबंधों की जानकारी थी। लोग बातें करने लगे थे—कुछ सहानुभूतिपूर्वक, तो कुछ आलोचनात्मक रूप से। तभी एक बुज़ुर्ग चाचा को, जिन्हें सभी उनकी बुद्धिमत्ता और निष्पक्ष सोच के लिए मानते थे, बीच-बचाव के लिए बुलाया गया।
वे मे क्यु को बचपन से जानते थे—जब वह एक छोटी बच्ची थी और अपने पिता के साथ अजान मुन के पास जाया करती थी। उन्हें मे क्यु की भावना सच्ची लगी, और वे उसके पक्ष में खड़े हो गए। उन्होंने तय किया कि वह इस बहस को उसके हाल ही में दिवंगत पिता की स्मृति को सम्मान देकर एक सकारात्मक दिशा में मोड़ने की कोशिश करेंगे।
उन्होंने मे क्यु के पति से अकेले में बात की। धार्मिक अभ्यास के महत्व की बात की, और उसे थोड़ा नरम पड़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने समझदारी और इंसाफ की अपील की, और धीरे-धीरे उस पर थोड़ा-सा समझौता करने का दबाव डाला।
आख़िरकार, एक सहमति बनी। बनमा तैयार हुआ कि मे क्यु वर्षा ऋतु के तीन महीनों के लिए संन्यास ले सकती है—लेकिन एक दिन भी ज़्यादा नहीं। इस समझौते के हिस्से के रूप में, उसने वादा किया कि वह इस दौरान बेटी की देखभाल करेगा और परिवार में किसी तरह की कमी नहीं आने देगा। साथ ही, उसे इस अवधि में संयम बरतने के लिए भी राज़ी किया गया—हिंसा, चोरी, झूठ, व्यभिचार और नशे से दूर रहते हुए, पाँच नैतिक नियमों का पालन करके।
ये नियम साधारण धार्मिक आचरण का हिस्सा थे, लेकिन अब तक उसने शायद ही कभी इनका पालन किया हो।
मे क्यु इस अचानक बदले घटनाक्रम से आश्चर्यचकित थी—थोड़ी हक्की-बक्की, थोड़ी खुश। उसने श्रद्धा से अपने माथे पर हाथ रखा और मन ही मन आभार व्यक्त किया। अजान मुन की बीस साल पुरानी भविष्यवाणी अब जाकर सच हो रही थी।
एक क्षण के लिए वह पूरी तरह भीतर की ओर मुड़ गई। उसने ठान लिया कि अब, जब यह मौका मिला है, वह इसे पूरी सच्चाई से जिएगी। ध्यान अब उसके लिए सिर्फ एक अभ्यास नहीं था, बल्कि अधूरे जीवन की पूर्णता थी—एक रुकी हुई यात्रा, जो अब फिर से चलने को तैयार थी।
इतनी लंबी प्रतीक्षा, इतनी ठुकराई हुई उम्मीदों के बाद, अब वह खुद को पीछे नहीं हटने देगी।