नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

आवाहन

लेखक: भिक्खु कश्यप
(दिसंबर २०२३)

दुनिया ने अचानक एक बड़ा मोड़ लिया है और उत्क्रांति के नए चरण में प्रवेश किया है। अब तेजी से आ रहे बदलाव नाटकीय स्तर पर हैं — कल्पना से परे। अब जलवायु परिवर्तन के प्रमाण झुठलाए नहीं जा सकते, जो दुनिया के कोने-कोने में साफ़ उभर आए हैं।

चिलचिलाती गर्मी की लहरें अब लंबे समय तक आती हैं, और नगरों को तपती भट्टी में तब्दील कर सहनशक्ति की परीक्षा लेती हैं। वर्षा बिना सूचना दिए बादल फाड़कर बरसती है, और नदियां हमारे नगरों में घुसकर रौद्र रूप प्रकट करती हैं। तब मानव तथा उनके घर, वाहन और संसाधन भी माचिस की तीलियों की तरह बह जाते हैं। कहीं वर्षा सूचना देकर भी नहीं बरसती। तब कुपोषित नदियां हमें संसाधन जुटाने के लिए संघर्ष का कारण देती हैं। कहीं प्रचण्ड तूफान समुद्रतटों पर कहर बरपा रहे हैं, तो कहीं जंगल के वन नारकीय आग में धधकते हुए नष्ट हो रहे हैं, तो कहीं भूकंप तबाही मचा रहे हैं।

ऐसे में सामाजिक उन्माद और द्वेष भी सीमाएँ लांघते हुए नए रिकॉर्ड छू रहे हैं। पक्ष और विपक्ष दोनों में ही तीखे कड़क अंदाज़ वाले सज्जनों की, तथा भड़काऊ कटु बोलने वाले महानुभावों की बड़ी मांग है। ऐसे समय क्रूर नफ़रती नेताओं की लोकप्रियता बढ़ना आम बात है, जो मात्र अपने समुदाय विशेष की बात करते हैं। पुरानी-सी लगती बातें, जैसे "नम्रता आदर संयम, राहत शान्ति संतुष्टी, उदारता समावेशिता एकता" का आकर्षण दुनिया भर में कम ही नहीं हुआ, बल्कि प्रचलन से बाहर हो चुकी हैं। अब वैसी बात करने वाले को लल्लू-पंजू समझा जाता है। यहाँ तक कि "धर्म, न्याय और सत्य" के खरीददार भी अधिक नहीं बचे हैं। जबकि सनकी दुष्प्रचार का कारोबार दिन-दूना-रात-चौगुना तरक्की कर रहा है, जिसमें बड़े पैमाने पर भर्तियां निकलती हैं। सभ्य संवाद खत्म हो रहे हैं। अब तो टकराने पर उतारू वहशी भोले हुंकार भर रहे हैं, उकसा रहे हैं, लड़ने के बहाने ढूंढ रहे हैं।

“धर्म पर मंडराता सबसे बड़ा ख़तरा दरअसल ‘धार्मिक-राष्ट्रवाद’ है। जिन अभागे लोगों के हृदय से धर्म का रंग उतर जाता है, तब उनकी विचारधारा ‘धार्मिक-राष्ट्रवाद’ की ओर झुकती है। ‘धार्मिक-राष्ट्रवाद’ की जीत ही धर्म की हार बनती है। और अंततः ‘धार्मिक-राष्ट्रवाद’ ही धर्म का अन्त करता है।”

— आशिस नन्दी

देश-दुनिया और समाज के बिखरने के साथ-साथ अब घर-परिवार में भी दरारें पड़ चुकी हैं। दीर्घकाल तक साथ रहे लोग भी धैर्य खोने लगे हैं। आपसी संबंध बदल गए हैं। अधिकांश रिश्तों में मधुरता नहीं रही है, जो मात्र लेन-देन के रह गए हैं। जिन करीबियों से उम्मीद थी, लगता है जैसे वे ही नहीं समझते हैं, और मन के पूर्ण विपरीत व्यवहार करते हैं। दूसरी ओर, हमसे भी अनायास ही अति-प्रतिक्रिया निकलती है और करीबी आहत हो जाते हैं। साथ रहते हुए मानो एक द्वंद-सा चलता है, जो दूर जाने पर बेतुका और अनावश्यक लगता है। मानो, वातावरण में ऐसा रसायन-सा घुल गया हो, जो गलतफहमी और टकराव बढ़ा रहा है।

स्मरणशक्ति धुंधली हो गई है। साधारण बातें याद नहीं रहती हैं। पहले ही खोए-खोए से रहते हैं। ऊपर से शेष ध्यान चमकती स्क्रीनों द्वारा चुरा लिया जाता है। भीतर एक बेचैनी बनी रहती है। अक्सर असहाय, अकेलापन और फंसा हुआ-सा लगता है। कई लोगों को दिन भर थकान और कमजोरी महसूस होती है, जबकि दिन ढल जाने पर ताकत और उत्साह से भर जाते हैं। जैसे आकाशझूले में बैठा कोई ऊपर-नीचे ऊपर-नीचे चक्कर काटे, वैसे ही जीवन उल्लास-निराशा या उत्साह-अवसाद में झूलता हुआ लगता है। स्वास्थ्य एवं व्यवहार दोनों को अपनी मुट्ठी में रखना कठिन हो गया है। ‘विश्वास और सम्मान’ दूसरों पर से कम हुआ सो हुआ, स्वयं के प्रति भी न्यूनता छू रहा है। घटती श्रद्धा और बढ़ता रक्तचाप का अब नया सामान्य स्तर प्रकट हुआ है। कोई मोटापे से लड़ रहा है तो किसी का शरीर सिकुड़ते जा रहा है। कोई नींद न आने से परेशान है तो कोई अत्याधिक नींद से।

यह दिलचस्प है कि इनमें से कोई भी समस्या आपकी निजी नहीं है, बल्कि वह हाल के दिनों में दुनिया में फैली नकारात्मक ऊर्जा है, जिसे भीतर सोख लिया गया है। विकसित देश हो अथवा विकासशील, अधिकांश जगह स्वस्थ और सभ्य जीवन अब सरल नहीं रहा। अप्रत्याशित तकनीकी उन्नति के साथ अप्रत्याशित मानवीय पतन जारी है।

जैसे मीठे जलाशय की मछली को समुद्रजल में डाला जाए, तो उसका दम घुटने लगता है। क्योंकि शुद्धजल हल्का, कम घनत्व का होता है, जबकि खारा समुद्रजल भारी, अधिक घनत्व का। उसी तरह यूं कहें कि दुनिया भी खारी और भारी होते जा रही है, और उसका घनत्व बढ़ते जा रहा है। जो जीव ‘मीठे खुले और हल्के’ वातावरण में पनपने वाले हो, वे विलुप्त हो रहे हैं। तथा जो जीव ‘निष्ठुर कसे और भारी’ वातावरण के लिए उपयुक्त हो, वे अवतर रहे हैं (जैसे कोरोना वायरस)।

कुछ समुद्रतटों पर अचानक किसी दिन हजारों मछलियाँ या दर्जनों व्हेल्स मृत बहकर साथ जमा हो जाती हैं, तो रिहायशी इलाकों में दहशत फैलती है। कुछ इलाकों में सैकड़ों पशु या पक्षी अचानक मृत 1 पड़े मिलते हैं, तो चकित विशेषज्ञ भी कारण ढूंढते रह जाते हैं। देश-विदेश में खेलते बच्चे, हष्टपुष्ट जवान और स्वस्थ लोग अचानक हृदय या सांस रुकने से मृत गिरते हैं, तो षड्यंत्र कथाएँ फैल जाती है। ऐसा लगता है मानो मीठी दुनिया सिमट रही हो, और सभी भीतर ही भीतर कसते जा रहे हो।

भगवान भविष्यवाणी करते हैं कि जब मानवलोक में कुछ तरह के पाप एक सीमा लांघते हैं, तब इसी तरह संपूर्ण पृथ्वी पर व्यापक असर पड़ता है, और दुनिया बदल जाती है। परिणामतः मनुष्यों की आयु घटती है, नए रोग उत्पन्न होते हैं, स्वास्थ्य बदतर हो जाता है, मानवीय सौंदर्यता विद्रूप होने लगती है (जैसे मोटापा या नाटापन बढ़ना)। तब सामान्य सुख-राहत खो जाती है, और टकराव एवं संघर्ष (युद्ध) बढ़ जाते हैं। भीतर से कसता हुआ मानवीय हृदय संकुचित और संकीर्ण होते जाता है। और मानव अधिक लोभी, उतावला और नफ़रती बनता है। तब एक नए पापी एवं हिंसक युग की शुरुआत होती है, जो तेज़ रफ़्तार में बुरे से बदतर होते चला जाता है। जैसे पहाड़ की चोटी पर से गोलाकार चट्टान खिसक पड़े, तो नीचे-नीचे टकराते-कुचलते लुढ़कते ही चली जाती है, जिसे थामना सरल नहीं होता। कुछ उसी तरह एक बार मानवलोक जो असंतुलित होकर लुढ़क पड़े, तो उसे थामना सरल नहीं होता। भगवान के अनुसार अच्छे दिन बीत गए। ऐसे युग-परिवर्तन के दौर में धर्म सुनना और पुण्य करना, निश्चित ही एक क्रांतिकारी कदम है।

"मैं बताता हूँ कैसे,
जागा संवेग मुझे।
छटपटाती दिखी जनता,
गड्ढे में मछलियों जैसे।
— विरुद्ध एक-दूसरे के,
देख भय लगा मुझे।
सारहीन पूर्णतः दुनिया,
दिशाएँ बिखरी ऐसे-तैसे।

इच्छा करते भवन की,
न मिला कुछ बिना पूर्वदावेदारी के।
न दिखा कुछ, बजाय स्पर्धा,
असंतुष्टि महसूस की मैंने।
अंततः दिखा मुझे—एक तीर,
जिसके दर्शन दुर्लभ बड़े।
हृदय बसते उस तीर से वशीभूत,
सभी दिशाएँ आप भागते।
किंतु खिंच तीर बाहर,
आप न भागते, न ही डूबते।"

— सुत्तनिपात ४:१५ : अत्तदण्डसुत्त

यदि कोई बुद्धिमान तमाम धर्मों की समीक्षा मात्र लोकिय-स्तर पर ही करे, तो उसे पता चलेगा कि किसी भी धर्म का लेनदेन अंततः स्वयं से ही है। धर्म का कार्यक्षेत्र ‘अध्यात्म’ ही है। जो करना है, भीतर ही करना है। जो बाहर करना है, वह भी इसलिए कि अंततः भीतर झाँकने के काम आयेगा। धर्म सत्य में है, शान्ति में है, स्थिरता में है, अंतर्ज्ञान में है, मुक्ति में है। धर्मों की मंज़िल भले ही भिन्न-भिन्न हो, किंतु सभी रास्ते ‘सद्भावना, करुणा एवं अहिंसा’ से ही होकर गुजरते हैं।

उदाहरण के लिए, पैगंबर ‘मूसा’ ने आज से तक़रीबन साढ़े तीन हज़ार वर्ष पूर्व दस ईश्वरीय आज्ञाएँ बताई थीं:

“१. मैं प्रभु तुम्हारा परमेश्वर हूँ। मेरे अलावा किसी दूसरे को ईश्वर न मानना।

२. अपने परमेश्वर का नाम व्यर्थ न लेना [दुरूपयोग न करना।]

३. धार्मिक दिवस [जैसे उपोसथ व्रत] का पालन करना।

४. माता-पिता का आदर करना।

५. मनुष्य की हत्या न करना।

६. व्यभिचार न करना।

७. चोरी न करना।

८. झूठी गवाही न देना। [झूठ न बोलना]

९. पर-स्त्री की लालसा न करना।

१०. पराए धन, संपत्ति की लालसा न करना।"

— यहूदी बाईबल : निर्गमन : अध्याय २०

कोई दोराय नहीं है कि अब्राहमी धर्मों (यहूदी, ईसाई एवं इस्लाम) के साथ-साथ अन्य धर्मपंथ भी दस ईश्वरीय आज्ञाओं का सम्मान करते हैं। ईश्वरीय आज्ञाएँ नहीं पालन करना चाहिए, ऐसा कोई क्यों कहेगा? किंतु प्रश्न है कि कौन उनका पालन करना चाहता है? कौन खुद पर लगाम कसना चाहता है? जाहिर है, भले ही ईश्वर प्रकट होकर कड़े शब्दों में आज्ञाएँ भी दें, किंतु मानव समय पाकर उससे बच निकलने के बहाने और उपाय ढूंढ ही लेता है।

उदाहरणार्थ, कुछ धर्मगुरु कहते हैं कि ‘काल और स्थिति’ देखकर शील-सदाचार ताक पर रखे जा सकते हैं, और पाप को जायज़ ठहराया जा सकता है। जैसे कोई अपनों के प्राण बचाने या ‘व्यापक भलाई’ के लिए हत्या करे या झूठ बोले, तो पाप नहीं होता। ज़ाहिर है यह सुनकर भीतर पाप पालकर रखने वाले लोग राहत महसूस करते हैं, और उनके भक्त बन जाते हैं। क्योंकि अब उन्हें धर्मानुसार ही छूट मिलती है कि आप जो पाप चाहे करे, बस उसे पश्चात किसी तरह सही साबित करे। अब यही चलन बन गया है। जितना चालबाज वक्ता हो, उतना ही भावपूर्ण तर्क देकर साबित करेगा। दुनिया के तमाम सिरफिरे इसी से प्रेरणा लेते हैं, और तिकड़म बुद्धि का उपयोग कर अपने पापों को ‘धार्मिक कार्य’ साबित करते हैं। कुछ कथाएँ तो सनकी और हिंसक व्यभिचारियों तक को ‘कठोर कदम उठानेवाला धर्मवीर’ दिखाकर खूब लोकप्रियता बटोरते हैं।

किंतु भगवान सीधे साफ़ अंदाज़ में कहते हैं कि बात आत्महित में हो, या परहित में, या पूर्णतः सभी के हित में — पञ्चशील तोड़ना पाप है तो पाप है! उसमें न ‘किंतु परंतु’ है, न ही कोई छूट! भगवान ने पञ्चशील तोड़ने का उपयुक्त अवसर किसी सूत्र में नहीं बताया, और न ही ऐसी कोई ‘काल या स्थिति’ उचित बताई। अर्थात्, जैसा भी भला कारण हो, पञ्चशील तोड़ना पाप है, और उस पाप से विरत रहना शील! अफ़सोस कि पापियों को कोई राहत नहीं! सुनकर मज़ा न आए, तो जाएँ किसी और का भक्त बने! वैसे भी भगवान का धर्म अवसरवादी और सुविधा देखने वाले के लिए नहीं है।

यदि कोई महानुभाव स्पष्टीकरण देते हुए कहे कि “अरे भाई! धर्म को पुनर्स्थापित करने के लिए पहले ‘हिंसा, नफ़रत और कपट’ से ही होकर गुजरना पड़ता है। तभी पश्चात आपका ‘धर्म, शान्ति और प्रेम’ स्थापित होता है।” — तो शायद वह उस धर्म की बात नहीं कर रहा है, जिसकी बात सत्पुरुष महापुरुष करते हैं। कैसे? भगवान एक दिव्यप्रसंग द्वारा इन धर्मों में भेद करते हुए बताते हैं —

“एक समय की बात है, भिक्षुओं। आपसी संग्राम के लिए देवता और असुर तैनात किए गए थे। तब असुर राज वेपचित्ति ने जाकर देवराज इंद्र से कहा, “चलों देवराज! [इस संग्राम में वाकस्पर्धा करें, और] जो सुभाषित हो [अच्छा बोले], वह जीतें!”

देवराज इंद्र ने उत्तर दिया, “ठीक है वेपचित्ति! जो सुभाषित हो, वह जीतें!”

तब देव-असुरों ने परिषद बिठाई, [सोचते हुए] ‘यह लोग सुभाषित या दुर्भाषित होने का निर्णय करेंगे।’ तब असुर राज वेपचित्ति ने कहा, “चलों देवराज! गाथा बोलो।” देवराज इंद्र ने कहा, “आप वरिष्ठ देव है, वेपचित्ति। आप गाथा बोलें।” तब असुर राज वेपचित्ति ने गाथा कही —

"मूर्ख उठते हैं भड़क कर,
रोकने वाला जो न हो।
तो कड़ा डंडा थाम कर,
रोकें धैर्यवान मूर्ख को।"

जब वेपचित्ति ने यह गाथा कही, तब असुरों ने तालियां पीटीं, जबकि देवता मौन रहें। वेपचित्ति ने कहा, “देवराज, अब तुम गाथा बोलो।” तब देवराज इंद्र ने गाथा कही —

"मूर्ख को रोकने के लिए,
ऐसा लगता है मुझे,
पराए को कुपित देख,
स्मृतिमान शान्त हो लें।"

जब देवराज इंद्र ने यह गाथा कही, तब देवताओं ने तालियां पीटीं, जबकि असुर मौन रहें। इंद्र ने कहा, “वेपचित्ति, अब आप गाथा कहें।” तब असुरराज वेपचित्ति ने गाथा कही—

"ऐसे अति धैर्य में,
वासव, मैं गलती देखूं।
सोचे मूर्ख, "भयभीत हो,
धैर्य यह दिखा रहा।
बेवकूफ फिर सिर चढ़े,
जैसे दौड़ाता सांड हो।"

जब वेपचित्ति ने यह गाथा कही, तब असुरों ने तालियां पीटीं, जबकि देवता मौन रहें। वेपचित्ति ने कहा, “देवराज, अब तुम गाथा बोलो।” तब देवराज इंद्र ने गाथाएँ कही —

"भले सोचते रहे मूर्ख,
'भयभीत हो धैर्य दिखा रहा।'
सदात्महित ही परमार्थ है,
धैर्य से बढ़कर कुछ नहीं।
धैर्य दिखाकर दुर्बल को,
बलवान जो शान्त रहे,
उसे कहते परमधैर्य!
दुर्बल तो सदैव शान्त ही रहे!

बल तो वह है अबल,
जो बल है मूर्ख का बल।
धर्मरक्षा करता बलवान,
उल्टापुल्टा न बोलता।
जो क्रुद्ध को कुपित करे,
उससे बड़ा पाप करे।
क्रुद्ध को अक्रुद्ध रख,
दुर्गम संग्राम जीत ले।

आपसी हित में चलता,
आत्म और पराए के,
पराए को कुपित देख,
स्मृतिमान शान्त हो ले।
जो आपसी इलाज करे,
आत्म और पराए का,
जो जनता उसे मूर्ख कहें,
कुछ धर्म न वह जाने।"

जब देवराज इंद्र ने यह गाथा कही, तब देवताओं ने खूब तालियां पीटीं, जबकि असुर मौन रहें। तब देव-असुर परिषद ने कहा, “असुर राज वेपचित्ति ने जो गाथाएँ कही — वे दण्डश्रेणी में आती हैं, शस्त्रश्रेणी में आती हैं, झगड़ा विवाद एवं कलह पूर्ण हैं। जबकि देवराज इंद्र ने जो गाथाएँ कही — वे न दण्डश्रेणी में आती हैं, न शस्त्रश्रेणी में आती हैं, न झगड़ा, न विवाद, न ही कलह पूर्ण हैं। इसलिए सुभाषित होने की जीत देवराज इंद्र को मिलती है।”

और इस तरह भिक्षुओं, देवराज इंद्र सुभाषित होने से विजयी हुआ।”

— संयुत्तनिकाय ११:५ : सुभासितजयसुत्त

अर्थात्, भले ही किसी महानुभाव का ध्येय कमाल का हो और उसकी मंज़िल प्रशंसनीय, किंतु जो पहले ‘हिंसा नफ़रत और कपट’ से होकर गुजरे, तो वह भी दण्डश्रेणी शस्त्रश्रेणी में आएगा, तथा झगड़ा विवाद एवं कलहपूर्ण होगा — जो असुर धर्म है। प्रत्येक युग में सत्ता छीनने के लिए कुछ महानुभाव आते हैं, और विचित्र तर्क दे-देकर जनता को आपस में लड़ाते हैं। धर्म के ही नाम पर वे जनता से बेहिसाब ‘अधर्मचर्या विषमचर्या’ कराते हैं, और अपना असुरधर्म स्थापित कर उन्ही पर तानाशाही करते हैं। उनके राह पर चलते असंख्य भक्त अंततः असुरलोक अथवा नर्क पहुँचने पर भौंचक्का रह जाते हैं। जैसे भोला गंगामय्या देखने गंगोत्री जाना चाहे, और कपटी उसे गंगानगर (राजस्थान) की टिकट बेचकर भेज दे। आदिकाल से ही यह धोखा जनता के साथ होता रहा है।

मानव में सुर-असुर दोनों प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। रक्षक-भक्षक दोनों धर्मस्वभाव विद्यमान दिखते हैं। कोई बेसुध सज्जन किसी भी धर्मसमुदाय से हो या किसी भी जाति वर्ण से, जो मात्र अपने बावले मन की सुनता चला जाए, उस पर अमल करता जाए, तो कोई पाप अकृत न छोड़े। वह स्वयं ही अंधेरी दुनिया में खो जाए, और निचले-निचले दुर्गतिलोक में गिरता चला जाए। उसके दो प्रमुख कारण हैं। प्रथम कारण है हमारा नैसर्गिक झुकाव। दीर्घकाल तक ‘राग द्वेष और मोह’ के स्वभाव-शिकंजे में फंसे हम मानवों को विषम रास्ता ही लुभाता है, सरल स्वाभाविक लगता है जिसमे मेहनत नहीं लगती, जो तुरंत ‘असत्य एवं हिंसा’ से गुजरकर मंज़िल तक पहुँचा देता है। और दूसरा कारण है कि हो सकता आपके मन के विचार दरअसल आपके न हो। थोड़ा धैर्य से समझें।

जैसे आप के पास टीवी मोबाइल या रेडियो हो, उस पर चलते चलचित्र या संगीत आप ने स्वयं निर्मित नहीं किए होते। हम जानते हैं कि कोई पराया उन्हें दूर से प्रसारित कर रहा है। वे उपकरण केवल एक माध्यम है, जो पराए का सिग्नल पकड़कर उसे आप के आगे दृश्य या ध्वनि में प्रकट करते हैं। उसी तरह इस मन को भले ही आप स्वयं का मानते हो, किंतु उस पर आते प्रत्येक विचार, उमड़ते प्रत्येक स्वभाव, क्रौंधते प्रत्येक संकल्प आप के नहीं होते। संभव है उन्हें भी शायद कोई दूर से प्रसारित कर रहा हो। एक सूत्र से समझें —

“तब पापी मार दूसी2 को लगा, “इस संघ के भिक्षु शीलवान हैं, कल्याणकारी धर्मस्वभाव के है, किंतु [वे समाहित होने से] मुझे उनका आना-जाना [चित्त का स्टेशन] पता नहीं चलता। क्यों न मैं गांव के ब्राह्मण गृहस्थों का मन वश में करूँ, और तब शायद जानने का मौका मिले?”

तब मार दूसी द्वारा वश किए जाने पर ब्राह्मण गृहस्थों ने भिक्षुसंघ को क्रोध-आक्रोश दिखाते हुए खूब गाली-गलौच और अपमान-परेशान किया। तब भगवान ककुसन्ध ने भिक्षुसंघ से कहा, “भिक्षुओं! पापी मार दूसी ने ब्राह्मण गृहस्थों का मन वश में किया है, ताकि [आपका चित्त विचलित होने पर] उसे आप का आना-जाना पता चलें। इसलिए भिक्षुओं, निर्बैर निर्द्वेष रहकर, विस्तृत विराट असीम सद्भाव चित्त... करुण चित्त... प्रसन्न चित्त... तटस्थ चित्त को तमाम दिशाओं में फैलाकर, संपूर्ण ब्रह्मांड में परिपूर्णतः व्याप्त करें।”

[तब भिक्षुसंघ ने वैसा ही किया। और मार दूसी का प्रयास विफल रहा।] किंतु उन ब्राह्मण गृहस्थों में अधिकांश लोग मरणोपरांत पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजे।

तब पापी मार दूसी को लगा, “अब क्यों न मैं गांव के भिन्न ब्राह्मण गृहस्थों का मन वश में करूँ, और तब शायद जानने का मौका मिले?”

तब मार दूसी द्वारा वश किए जाने पर भिन्न ब्राह्मण गृहस्थों ने श्रद्धा से भावविभोर होकर भिक्षुसंघ का खूब आदर-सम्मान वंदन-पूजन किया। तब भगवान ककुसन्ध ने भिक्षुसंघ से कहा, “भिक्षुओं! पापी मार दूसी ने पुनः ब्राह्मण गृहस्थों का मन वश में किया है, ताकि [चित्त विचलित होने पर] उसे आप का आना-जाना पता चलें। इसलिए भिक्षुओं, अब काया का अनाकर्षक-पहलु देखें, आहार के प्रति विपरीत नज़रिया रखें, सभी लोक के प्रति निरस नज़रिया रखें, सभी रचनाओं का अनित्य-पहलू देखें, तथा मौत-नज़रिया प्रतिष्ठित करें।”

[तब भिक्षुसंघ ने वैसा ही किया। और मार दूसी का द्वितीय प्रयास भी विफल हुआ।] किंतु उन ब्राह्मण गृहस्थों में से अधिकांश लोग मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे।

तब अगली सुबह, मार दूसी ने एक लड़के का मन वश में किया, जिसने पत्थर उठाकर भगवान के पीछे चलते अग्रश्रावक भन्ते विधुर के सिर पर दे मारा। उनका सिर फटकर रक्त बहने लगा। तब भगवान ककुसन्ध पलटकर पीछे मुड़े, और दूसी को ‘हाथी की नज़र’ से देखा [सोचते हुए], “यह मार दूसी मर्यादा नहीं जानता!” तब उस नज़र के साथ ही मार दूसी उसी समय उसी जगह पतन होकर महानर्क में गिर पड़ा, और लाखों वर्षों तक जलते रहा।”

— मज्झिमनिकाय ५० : मारतज्जनीयसुत्त

कहते हैं कि यदि कोई अलौकिक दिव्यचक्षु से ब्रह्मांड का ‘एक्स रे’ करे, तो पता चलेगा कि दुनिया में दो तरह की महाशक्तियां कार्यरत हैं। वे एक-दूसरे के सर्वथा विपरीत एवं विरुद्ध होकर एक-दूसरे को संतुलित करती हैं। उनमें एक द्वंद चलता है। एक महाशक्ति सत्वों का आध्यात्मिक स्तर ऊँचा उठाने में जुटी है; जबकि दूसरी गिराने में। एक भीतरी कल्याणकारी प्रवृत्ति बढ़ाती है, तो दूसरी पापकारी। एक उजाले की ओर उठाती है, तो दूसरी अंधेरे की ओर दबाती। एक हृदय खोलती, शान्त करती, त्याग एवं प्रेम बढ़ाती है। जबकि दूसरी हृदय कसती, व्याकुल बनाती, स्वार्थ एवं अविश्वास बढ़ाती है। कई बार मन में भले और बुरे विचारों के बीच द्वंद-सा चलता है। अच्छाई या बुराई चुनने में उलझन होती है। तब संभव है कोई सत्व आप को समझाने या बहकाने का प्रयास कर रहा हो।

भोला को अपने मन के विचार जानते हुए लगेगा, मानो वह स्वयं ही सोच रहा है, और जीवन उसकी मुट्ठी में है। किंतु भोला का मन तो जैसे मंदिर का घंटा है, जिसे बार-बार कोई भी आकर बजा देता है। और उसका जीवन जैसे फुटबॉल है, जिसे लात मारकर कोई भी इस या उस गोलपोस्ट में भेज देता है। अर्थात् हमारे इस लोक में पापी मार के अलावा भी असंख्य सत्व मौजूद हैं, जो भोला के मन को कल्याणकारी या दुष्ट विचारों से भर सकते हैं, भले या बुरे संकल्पों से प्रेरित कर सकते हैं, तथा उसे स्वर्ग या नर्क भेज सकते हैं। द्वंद करती वह महाशक्तियां भोला के फुटबॉलरूपी जीवन को एक-दूसरे से छीनते हुए, आपसी खिलाड़ियों में पास करते हुए, इस या उस लोक में ले जाने का प्रयास करते हैं। जब तक यह खेल छिपकर अदृश्य रूप में होता है, तब तक ही चलता है। पर्दा उठ दृश्यमान हो जाने पर भला कौन वशीभूत होगा? यही कारण है कि सत्ता की असली बागडोर वाकई जिसके हाथों में हो, वे अक्सर आगे नहीं आते। वे छिपकर पीछे से डोर खिंचते रहते हैं, और गुलाम जनता नाचती रहती है।

तब मन से गहरा तादात्म्य भाव स्थापित करता, भोला ‘भोला’ नहीं रह पाता। वह मन में उमड़ते उल्टे-सीधे तर्क सुनते हुए, आत्महित एवं आत्मसुरक्षा के नाम पर अंधा बन — ‘हत्या लूट और बलात्कार’ में पीछे नहीं रहता, ‘झूठ, फूट डालने और कटु बोलने’ में नहीं हिचकिचाता, तथा नफ़रत और लालच करना भी न्यायसंगत मानता है। तब जान लें कि आड़ा-तिरछा चलता भोला, शैतान के वशीभूत हो, अब पापधर्म या ‘असुर धर्म’ पालन करता है।

दूसरी ओर, सतर्क मेधावी मन को ‘टीवी रेडियो या मोबाइल’ जैसा एक उपकरण मानता है। और उस पर टकराते विचार, स्वभाव एवं संकल्प को पराया सिग्नल! वह मन में दूषित कार्यक्रम चल पड़ते ही चैनल बदलकर ‘संस्कारी’ चैनल लगाने का प्रयास करता है। वह न बावले मन की सुनता है, न उस पर अमल करता है। बल्कि वह सद्धर्म सुनता है, सन्त अर्हंत एवं सत्पुरुष की सुनता है। अगर सुनी बात हिंसात्मक या अहितकारक हो तो उन्हें भी त्याग देता है। मन पर संयम, स्वयं पर काबू और हृदय को स्वच्छ करता है। बिना ऊँच-नीच का भेदभाव किए जनसेवा करता है। कोई बहाना न बनाते हुए लालच और द्वेष तुरंत त्यागता है, और सभी के साथ ‘स्नेह सद्भाव एवं करुणा’ से बर्ताव करता है। तब जान लें कि सीधा चलता वह मेधावी, देवताओं से रक्षित हो, अब वाकई कल्याणधर्म या ‘सुर धर्म’ पालन करता है।

खैर, कुछ महानुभाव धर्म का स्वांग नहीं करते। वे खुलकर मानते हैं कि नैतिकता एक कमजोरी है। चूंकि वे लक्ष्य पाने के लिए या मंजिल पर पहुँचने के लिए जो चाहे बेलगाम, बिना रोकटोक करना चाहते हैं, तथा अपनी काली भक्षकप्रवृत्ति का बेहिसाब उपयोग करना चाहते हैं। इसलिए नैतिकता उन्हें तर्कहीन अर्थहीन सी लगती हैं, एक अनावश्यक भार-सा लगता है। नीच कर्मों में मज़ा लेते हुए उन्हें न लज्जा थामती है, न भय रोकता है। बल्कि उन्हें अपनी छलकपट, षड्यंत्रकला और दुष्टशक्ति का अहंकार होता है। अपना पतन भी उन्हें ‘पहुँच’ जैसा दिखता है।

जबकि सत्यनिष्ठ लोग आत्मभूति से जानते हैं कि नैतिकता वाकई एक सर्वशक्तिशाली बल है। भगवान ‘हिरी ओतप्प’ को ‘लोकपाल’ का दर्जा देते हैं। अर्थात् लज्जा एवं भय, जो दरअसल संपूर्ण दुनिया का रक्षण करती है, आधार देती है। वही पाप का रोकथाम करती है, और मदहोश होते भले लोगों को एक स्तर के नीचे गिरने से थाम लेती हैं। वही कर्मों के कुछ ख़ास द्वार बंद करती है, जो निचले लोक में खुलते हो। लज्जा एवं भय से संपन्न लोग, अपना लक्ष्य पाने या मंज़िल पर पहुँचने के लिए तो छोड़िए, आत्मबचाव में भी बेलगाम होकर दूसरों का अहित नहीं करते।

भगवान एक उदाहरण देते हैं —

“एक समय की बात है, भिक्षुओं। देव-असुरों में संग्राम छिड़ा था, जिसमे असुर विजयी हुए और देवता पराजित। पराजित देवतागण [देवराज इंद्र के पीछे हजारों रथों में] उत्तर-दिशा में पलायन करने लगे, और असुर उनका पीछा करने लगे। [तब रथों की भागदौड़ से रेशमवन के घोसलों में पंछियों का कोलाहल मचा।] तब देवराज इंद्र ने सारथी मातलि से गाथाओं में कहा,

"रथ की फाल से, ओ मातलि
रेशमवन के घोंसले उधेड़ो ना।
असुरों को मैं प्राण सौंप दूं।
बजाय पंछियों को बेघर करूँ।"

“ठीक है, महामहिम!” कह कर मातलि ने रथ को घुमाकर विपरीत दिशा में दौड़ाया। हजारों अश्वरथों में भागते देवतागण भी उनके पीछे हो लिए।

यह देख असुरों को लगा, “देवराज इंद्र ने अपने रथ के साथ हजारों रथों को घुमा दिया हैं। अब देवताओं से दोबारा संग्राम होगा!” भयभीत असुर तुरंत विपरीत घूमकर पलायन करते हुए असुरलोक लौट गए। और इस तरह भिक्षुओं, देवराज इंद्र ‘कर्तव्य’ का पालन करने से विजयी हुआ।”

— संयुत्तनिकाय ११:६ : कुलावकसुत्त

भगवान का दिया उदाहरण आज के बुलडोज़र-युग (और इसराइली दृष्टिकोण) में विसंगत लगता है, और असुरों को खटकता है। किंतु यह सच है कि भले ही देवतागण युद्ध जैसी आपातकाल स्थिति में हो, और बुरी तरह पराजित होकर पलायन कर रहे हो, तब भी वे आत्मबचाव के नाम पर निरपराध को कुचलना तो छोड़िए, पंछियों का घोंसला तक उजड़ने नहीं देते — चाहे जान ही क्यों न चली जाए! इसे देवप्रवृत्ति कहते हैं!

जो स्वयं निष्पाप हो, उसे ही मासूम से सहानुभूति होगी। जिसकी अंतरात्मा जीवित हो, उसे ही जीवन की कीमत समझेगी। जिसके हृदय में सच्चाई हो, उसे ही निरपराध की पीड़ा महसूस होगी। और वही पशुता लांघ कर ‘मानवीय’ कर्तव्य निभाएगा। जो उसे देखकर समर्थन करे, वह भी उसके कल्याणकारी पुण्य में परोक्ष-रूप से भागीदार बनता है। संभव है, वह भी देवप्रवृत्ति से जुड़कर देवलोक जाए। क्योंकि यही धर्म की नियमितता है कि उच्च धातु का उच्च धातु से समागम होता है।

जबकि दूसरी ओर, अपनी भड़ास निकालने में किसी के पाप की सज़ा किसी और को देना — राक्षसी कदम है! एक का कृत्य पूर्ण जमात पर मढ़ना, और सभी को सामूहिक दण्ड देना — विनाशकाले विपरीत बुद्धि है! इसे असुरप्रवृत्ति कहते है।

जो स्वयं पापी हो, उसे पापी कदम ही न्यायसंगत लगेगा। जिसकी अंतरात्मा मर चुकी हो, उसे मासूम को दण्ड देने में रूह नहीं कापेगी। जिसके हृदय में झूठ हो, नफ़रत और हिंसा भरी हो, उसे निरपराध की पीड़ा में संतुष्टि मिलेगी। जो परपीड़न देखकर समर्थन करे, वह भी उसके राक्षसी पाप में परोक्ष-रूप से भागीदार बनता है। संभव है, वह भी असुरप्रवृत्ति से जुड़कर नर्क या असुरलोक जाए। क्योंकि यही धर्म की नियमितता है कि नीच धातु का नीच धातु से समागम होता है।

उन देवप्रवृत्ति और असुरप्रवृत्ति के लोगों में भेद कैसे करें? कैसे उन्हें पहचाने?

मेरी मातृभाषा मराठी में, सन्त तुकाराम का अमर अभंग सैकड़ों वर्षों से मार्गदर्शन कर रहा है:

"जे का रंजले गांजले,
त्यासी म्हणे जो आपुलें
तोचि साधु ओळखावा,
देव तेथेंची जाणावा.
मृदु सबाह्य नवनीत,
तैसे सज्जनांचे चित्त
ज्यासी आपंगिता नाही,
त्यासी धरी जो हृदयी.
दया करणें जें पुत्रासी,
तेची दासा आणि दासी
तुका म्हणे सांगू किती,
त्याची भगवंताच्या मूर्ति."

— सन्त तुकाराम

अर्थात,

"जो दबे-कुचले पीड़ित हो,
उन्हें जो अपना माने,
उसे ही सत्पुरुष मानें,
उसमें ही ईश्वर जानें।
भीतर-बाहर मृदु मक्खन,
वैसा सत्पुरुष का चित्त
जिनका नहीं कही कोई,
उन्हें हृदय से लगाएँ वही।
जो दयाभाव संतान प्रति,
वही दास-दासी प्रति।
तुका कहे कितना बताऊँ,
वही भगवान की मूर्ति।"

अर्थात्, भले लोग हमेशा असहाय, दबे-कुचले पीड़ित की ओर से खड़े दिखेंगे, तथा ‘समानता, स्वतंत्रता एवं बंधुता’ की आवाज़ बुलंद करेंगे। उन्हें किसी भी तरह की ‘विषमता’ अन्यायपूर्ण लगती है, चाहे वह सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक हो। विवाद खड़ा होने पर वे एक-तरफा बातें सुनकर दूसरे को धिक्कारने नहीं लगते, बल्कि दोनों ही पक्षों की दलील बड़े धैर्य से सुनते हैं, गहराई से समझते हैं, और तब उस पर निष्पक्ष रूप से शांतिपूर्ण समाधान निकालते हैं। वे अक्सर सांसारिक रूप से महत्वाकांक्षी नहीं होते, तथा अपनी मंज़िल पर पहुँचने के लिए कभी विषम रास्ता नहीं अपनाते। वे स्वयं के कृत्यों पर अधिक चिंतन करते हैं, और अपनी भूल को नम्रता से स्वीकारते हैं। ऐसे दुर्लभ, देवप्रवृत्ति के लोग भरोसेमंद होते हैं। उन्हीं के आधार पर दुनिया अब भी टिकी हुई है।

दूसरी ओर, महानुभाव हमेशा सत्ताधारी या निर्दयी उत्पीड़क का समर्थन करते दिखेंगे। वे ऊँचे तबके के साधनसंपन्न लोगों के साथ खड़े होकर ‘भेदभाव, गुटबाजी एवं बहिष्कार’ की आवाज़ बुलंद करते हैं। वे अपना मंसूबा पूरा करने के लिए नीचता की कोई सीमा लांघने से नहीं कतराते, तथा मंज़िल पर पहुँचने के लिए कोई भी विषममार्ग अपनाते हैं। उनकी कथनी और करनी में एक विचित्र-सा अंतर दिखता है, बातों में विरोधाभास और दोहरा मापदंड दिखता है। कहने के लिए वे हिंसा, असमानता आदि दुष्ट प्रवृत्तियों का अस्वीकार ही करेंगे, किंतु पश्चात कोई कुतर्क देकर उसे किसी तरह उचित साबित भी करेंगे। पोल खुलने पर मुद्दा भटका देंगे या आक्रमक हो जाएँगे। न वे अपने कृत्यों की ज़िम्मेदारी लेते हैं, न जवाबदेह होते हैं, और न ही उन्हें कभी पछतावा होता है। भले ही वे किसी का अहित करते हुए दिख भी पड़ें, तब भी उसे पीड़ित के ही मत्थे फोड़ते हैं। उनके अनुसार उत्पीड़क की कोई भूल नहीं होती, सारी गलती पीड़ित की ही होती है, जिसने ज़रूर उसे अपना उत्पीड़न करवाने के लिए उकसाया होगा।

“यदि आप सतर्क न रहें, तो अख़बार और मीडिया आपको उन लोगों से नफ़रत करने पर मजबूर कर देगी, जिन पर अत्याचार हो रहा है। और उन लोगों से प्रेम करने पर विवश कर देगी, जो अत्याचार कर रहे हैं।”

— मैल्कम एक्स

मेरे भाई ने बचपन में एक दिन मज़ाक से कहा था, “गरीबी मिटाने का सरल उपाय है, गरीबों को मिटाओ। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।” दुर्भाग्यवश अब यही दुष्ट मज़ाक कुछ सरकारों की नीति बन गई है। गरीब, पीड़ित या हाशिए पर रहने वाले समुदायों के प्रति जनता की सहानुभूति ख़त्म करने के लिए उन्हें ‘नक्सली, आतंकी या देशद्रोही’ उत्पीड़क बताया जा रहा है। दूसरी ओर ऊँचे तबके के साधनसंपन्न उत्पीड़क स्वयं को ही पीड़ित बता रहे हैं। उनकी अगुवाई में जनता की पापी वृत्तियां उफान पर है, और उसी आँच पर सत्ता की रोटियां सेकी जा रही है। ऐसा होता है राक्षसी-उपाय! ऐसे महानुभावों की बातों पर विश्वास न रख, मात्र उनके कृत्य तथा उपजे परिणाम देखना चाहिए। संभवतः उनसे दूर रहना चाहिए, तथा उन्हें सत्ता से भी दूर रखना चाहिए। वर्ना सामूहिक विनाश दूर नहीं रहता। भगवान एक प्रसंग बताते हैं —

“एक समय की बात है, भिक्षुओं! एक कुरूप, भद्दा-सा यक्ष आकर देवराज इंद्र के राजआसन पर बैठ गया। तब तैतीस देवतागण रूठकर, चिढ़कर, शिकायत करने लगे, “कमाल है, श्रीमान! आश्चर्य है! कैसे यह कुरूप, भद्दा-सा यक्ष आकर देवराज इंद्र के राजआसन पर बैठ गया!” किंतु जैसे-जैसे देवतागण रूठकर, चिढ़कर, अधिक शिकायत करने लगे, वैसे-वैसे वह यक्ष अधिक रूपवान, आकर्षक और विश्वसनीय दिखने लगा।

तब तैतीस देवतागण देवराज इंद्र के पास गए और कहा, “अभी अभी श्रीमान, एक कुरूप, भद्दा-सा यक्ष आकर आपके राजआसन पर बैठ गया। तब हम देवतागण रूठकर, चिढ़कर, शिकायत करने लगे। किंतु जैसे-जैसे हम देवतागण रूठकर, चिढ़कर, अधिक शिकायत करने लगे, वैसे-वैसे वह यक्ष अधिक रूपवान, आकर्षक और विश्वसनीय दिखने लगा।”

देवराज इंद्र ने कहा, “तब श्रीमानों! ज़रूर वह क्रोधभक्षी यक्ष होगा!”

तब देवराज इंद्र उस क्रोधभक्षी यक्ष के पास गया और पहुँच कर बाहरी वस्त्र को एक कंधे पर ले, भूमि पर एक घुटना टिका, हाथ जोड़कर अंजलिबद्ध मुद्रा में, अत्यंत नम्रतापूर्ण तीन बार अपना नाम घोषित किया, “श्रीमान, मैं देवेन्द्र सक्क (अर्थात् ‘सक्षम’, इंद्र का व्यक्तिगत नाम) हूँ! श्रीमान, मैं देवेन्द्र सक्क हूँ! श्रीमान, मैं देवेन्द्र सक्क हूँ!” जैसे-जैसे देवराज इंद्र ने अत्यंत नम्रतापूर्ण स्वयं का नाम घोषित किया, वैसे-वैसे वह यक्ष पुनः कुरूप, भद्दा दिखने लगा। अंततः वह विकृत होते-होते विलुप्त हो गया।

तब देवराज इंद्र अपने राजआसन पर विराजमान हुआ, और उस अवसर पर, तैतीस देवतागण को संतुष्ट करती गाथाएँ बोली,

"तुरंत क्रोध-चित्त न होता मैं,
न भंवर में खींचा जाता हूँ।
दीर्घकाल न क्रुद्ध होता मैं,
न क्रोध बनाए रखता हूँ।
क्रुद्ध हो, न कटु बोलता मैं,
न स्वधर्म की बढ़ाई करता हूँ।
काबू में स्वयं को रखता मैं,
आत्महित भी देखता हूँ।"

—संयुत्तनिकाय ११:२२ : दुब्बण्णियसुत्त

तैतीस देवलोक की इस घटना से भले मानव सीख ले सकते हैं। आप जितना अधिक रूठेंगे, चिढ़ेंगे, हवा में हाथ उछाल-उछाल कर शिकायत करेंगे, उतना ही राजआसन पर बैठा वह कुरूप भद्दा-सा पापी — अधिक रूपवान, आकर्षक और विश्वसनीय दिखने लगेगा, अधिक शक्तिशाली और अपराजेय होने लगेगा। क्योंकि दरअसल भीतर से वह एक क्रोधभक्षी यक्ष ही है। क्रोध और नकारात्मक भाव ही उसका मुख्य आहार है, जो वह दिन में दो किलो खाता है। जितनी गालियां दो, उतना चमकता है। उसे देवराज इंद्र जैसे उसके आहार से वंचित रखें। और तब उस पर पुरानी अप्रचलित बातें — जैसे ‘नम्रता आदर संयम, राहत शान्ति संतुष्टी, उदारता समावेशिता एकता’ की तब तक बौछार करते रहें, जब तक वह परास्त होकर विलुप्त नहीं हो जाता। कंबख्त पर वही दवा असर करती है, और आपका पुण्य भी खूब होता है। ऐसा होता है देव-उपाय! साँप भी मरे और लाठी भी न टूटे।

असुरधर्म जब भी इस धरती पर घने कोहरे की तरह उतरता है, तो सच्चे धर्म के साथ-साथ इतिहास और सामान्य ज्ञान को भी ढक देता है। तब जनता के आगे धार्मिक तथा ऐतिहासिक घटनाओं का विकृत स्वरूप प्रस्तुत किया जाता है, ताकि सच्चाई पर से उनका विश्वास उठ जाए। बुद्ध और सच्चे सन्तों के सिद्धांतों को झुठला कर, उनके पवित्र स्थानों पर कब्ज़ा कर, उनके प्रतीकों का स्वरूप बदल दिया जाता है। असुरी शक्तियों को दैवी शक्तियों के रूप में दिखाया जाता है। राक्षसी आचरण को देव आचरण का आदर्श बताया जाता है। सच्चे धार्मिक-राजाओं और नेताओं की बदनामी की जाती है। और बड़ी चपलता से कथाएं गढ़कर देवराज इंद्र के व्यक्तित्व को असुरराज से बदल दिया जाता है। इस मास्टरस्ट्रोक से जनता की दृष्टि उलट जाती है, धर्म-अधर्म का सारा भेद मिट जाता है, और लोगों के आराध्य देव असुरों से बदल जाते हैं।

अंततः ऐसी व्यवस्था तैयार होती है कि भोला को महाब्रह्म या देवराज इंद्र पर श्रद्धा नहीं जागती। कैसे जागेगी, जब वे अनैतिक और बदचलन दिखे? या बेचारा अंधश्रद्धा में उनका नाम जपने पर भी नीच असुरलोक ही पहुँचे! नाम में क्या रखा है जब हृदय का समागम नीच धातु से हो?

कुछ दिनों पूर्व दिल्ली और हरियाणा में मुसलमान परिवारों पर हुए हमलों के दौरान, चंद सिख भाइयों ने उन्हें अपनी जान पर खेलकर बचाया। बीबीसी द्वारा पूछे जाने पर कि उन्होंने “ऐसा क्यों किया”, तो जवाब मिला, “हमें सिर्फ़ ये पता था कि जान बचाना हमारा सबसे बड़ा कर्तव्य है। हम बस अपने धर्म का पालन कर रहे थे।”

यह पढ़कर मेरी बड़ी बहन बोल पड़ी, “भला हो सिख लोगों का! असली हीरो हैं वे! कितनी प्रेरणा दी है! कितना पुण्यशाली कर्म किया है! लेकिन भन्ते, दूसरी ओर हमारे (बहुसंख्यक) भाईयों की दया आती है। हे भगवान! क्या हाल हो गया है उनका! बेचारे अभागे, कितना उलझा दिए गए हैं! धर्म-अधर्म का सारा भेद मिटा दिया गया। खिचड़ी हो गई! अब हाथ को हाथ नहीं सूझता! अब तो कोई आकर दोबारा सीधा-सीधा बताएँ कि पुण्य क्या होता है, पाप क्या होता है? वर्ना अन्त में नर्क जाने वाली भोली जनता की लम्म्बी बारात निकलेगी।”

एक प्रसंग ईसा मसीह ने बताया था — “एक भला सामरी”

“एक बार की बात है, एक आदमी धार्मिक तीर्थयात्रा कर अपने गांव लौट रहा था। रास्ते में उसे लुटेरों ने लूट लिया और मार-पीट कर अधमरा छोड़ दिया।

तब एक पुजारी वहाँ से गुजरा और उस आदमी को पड़ा देखा, लेकिन वह दूसरी ओर से निकल गया। फिर एक संन्यासी वहाँ से गुजरा और उस आदमी को पड़ा देखा, लेकिन वह भी दूसरी ओर से निकल गया।

तब एक (अल्पसंख्यक) सामरी वहाँ से गुजरा और उसने उस आदमी को देखा, और उसे दया आई। उसने उस आदमी के घावों पर पट्टी बांधी, अपने गधे पर बैठाया, और एक धर्मशाला में ले गया। उसने आदमी की तब तक देखभाल की, जब तक कि वह ठीक नहीं हो गया, और फिर उसने धर्मशाला के मालिक को पैसे दिए और अपने रास्ते पर चल पड़ा।”

— पवित्र बाईबल : लूक १०:२५--३७

ईसा मसीह कहते है कि “ईश्वर का असली बंदा वह सामरी था, न कि पुजारी या संन्यासी। उसने इंसानियत दिखाकर सच्चा धर्म निभाया।” उस समय बहुसंख्यक यहुदियों के मन में अल्पसंख्यक सामरियों के प्रति वैसी ही नफ़रत थी, जैसे आज दुनिया भर में अल्पसंख्यकों के प्रति फैली है। किंतु उस सामरी के दयालु कृत्य ने उस समय बहिष्कार और उत्पीड़न झेल रहें सामरियों का नाम सदा के लिए अमर कर दिया। वह सामरी कौन था, आज कोई नहीं जानता। किंतु आज भी जब पश्चिमी देशों में कोई अजनबी की मदद करता है, तो लोग तुरंत कह पड़ते हैं, “S/He's a good Samaritan!” “भला सामरी है!” हजारों वर्षों से यह कहानी मानवता को प्रेरित करती रही है कि हमें सभी के प्रति दयालु होना चाहिए, उनकी रक्षा करनी चाहिए। अपने दुश्मनों की भी। बहिष्कार, उत्पीड़न और नरसंहार का खतरा झेल रहे अल्पसंख्यकों के प्रति हमें अपनी बुरी सोच, बुरा नज़रिया त्यागकर, मानव को मानव की तरह देखना चाहिए। इंसानियत के नाते हर जरूरतमंद की मदद करना हमारा कर्तव्य है, जिसके लिए हमें सदैव तैयार रहना चाहिए।

कुछ वर्षों पूर्व फासीवाद पर अनुसंधान करते मनोवैज्ञानिक जर्मनी पहुँचे। वहां वे ऐसे बूढ़े नागरिकों से मिले, जो उस समय नाज़ी समर्थक थे। उन्होंने स्वयं हिंसा तो नहीं की थी, किंतु राष्ट्रप्रेम के मारे बतौर नागरिक, उत्पीड़क सत्ताधारियों को मुफ़्त सेवाएँ दी थी। ऐसे अनेक साक्षात्कार में कह पड़े, “हे ईश्वर! ये हम क्या कर बैठें! ऐसा (यहुदियों का नरसंहार) हमने कैसे होने दिया? पता नही, उस समय सभी में क्या घुस गया था! तब हिटलर युगपुरुष लगता था, देवता का अवतार लगता था। उसकी सारी ही बातें सही लगती थी! आज सोचता हूँ तो यकीन नहीं आता! शायद वह एक सामूहिक पागलपन का दौर था!”

ऐसे ही उन्मादी युद्ध समाप्त हो जाने पश्चात उसमे शामिल अनेक फ़ौजी पश्चाताप से भर जाते हैं, और गहरे अवसाद में गिर जाते हैं। उनमें कई पागल हो जाते हैं, कोई गोलीबारी कर हत्याएं करते हैं, तो कई आत्महत्या कर बैठते हैं। ऐसा ही एक पराक्रमी फ़ौजी जिसे अनेक चक्रों से नवाज़ा गया था, वर्षों पश्चात आकर उसने एक भन्ते से कहा, “भन्ते! एक दिन (उस युद्ध में) थकान के मारे मैने संयम खोकर एक १३-१४ साल की बच्ची पर गोली चला दी थी। दशक बीत चुके हैं लेकिन उसकी चीख नहीं भुला पा रहा हूँ। आज भी आँखें बंद करता हूँ तो उसी की मासूम, मृत आँखें दिखती है।” उसने कुछ देर के लिए आँखें बंद की और तब अचानक फूट-फूटकर रो पड़ा, “भन्ते! अपनी सारी धनदौलत लुटा दूं! सब कुछ सौंप दूं! कोई मुझे उस लम्हें में दोबारा ले जाए, और मैं खुद को ट्रिगर दबाने से रोक दूं!”

अफ़सोस, ऐसा नहीं होता! बीता समय लौट नहीं आता! चलाया तीर वापस नहीं होता। हमें अपने कर्मों के साथ ही जीना पड़ता है, और परलोक के लिए तैयार होना पड़ता है — यही दर्दनाक सच्चाई है। इसलिए इलाज से बेहतर रोकथाम है। अर्थात्, बेहतर यही है कि अहित करने पूर्व रुक जाना, निरस्त्र हो जाना। ऐसे सामूहिक पागलपन और उन्माद के दौर में हमें पञ्चशील डूबने से बचाती है। मेधावी उसे लाइफ़-जैकेट की भांति कसकर पहन लेता है और किसी कीमत पर नहीं उतारता। इस तरह पररक्षा करते हुए वह आत्मबचाव करता है, और भविष्य के अनन्त दुःखों से बचता है।

छिप-छिप कर हिंसा या नफ़रत करने के बजाय, छिप-छिप कर करुणा या सद्भावना करना उचित है। कोई नफ़रती वीडियो देखते हुए आप चाहे जितना बुरा देख ले या सुन ले, किंतु याद रखें कि आप वहाँ मौजूद नहीं थे, और उन तस्वीरों के पीछे की सच्चाई आप स्वयं नहीं जानते। मात्र संदेह के आधार पर किसी को दण्डित करना सर्वथा अन्याय होगा। तब ‘बेनिफिट ऑफ द डाउट’ देकर छोड़ देना उचित होगा। वैसे भी पापियों को उनके पाप की सज़ा पश्चात मिलती ही हैं। इस लोक में कोई छूट भी जाए, परलोक में छूटना असंभव है। आप को जल्लाद बनने की ज़रूरत नहीं है।

और एक आख़िरी बात। आजकल बहुत से सज्जन स्वधर्म के अहंकार में परधर्म, उनके धर्मगुरुओं या समुदाय का अनादर या अपमान करने से परहेज नहीं करते। भले ही आप ही का धर्म सद्धर्म हो, और दूसरे का नितांत अधर्म, तब भी आपको थोड़ा सतर्क रहना चाहिए। भगवान चेताते हुए कहते हैं,

“ब्राह्मण धम्मिक! बहुत समय पूर्व, सुनेत्र... मूगपक्खो... अरनेमि... कुद्दालक... हत्थीपाल... जोतीपाल नामक गुरु थे, अन्य धर्म समुदायों के संस्थापक, जो वीतरागी थे। उन गुरु के कई सैकड़ों श्रावक थे। वह अपने श्रावकों को ब्रह्मलोक के साथ संवास करने का धर्म सिखाते थे। जब वह ऐसा धर्म सिखा रहे थे, तो जिन्होंने उन पर विश्वास नहीं रखा, वे मरणोपरांत पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजे। किंतु जिन्होंने विश्वास रखा, पश्चात सद्गति हो स्वर्ग में उपजे।

तो क्या लगता है, ब्राह्मण धम्मिक? यह छह गुरु, धर्म समुदायों के संस्थापक, जो काम वीतरागी थे, जिनके हजारों श्रावक थे, यदि कोई दूषित चित्त से उनका या उनके श्रावकसंघ का अनादर या अपमान करे, तो क्या उसका बहुत अपुण्य [पाप] इकट्ठा होगा?”

“हाँ, भन्ते!”

“निश्चित ही, ब्राह्मण धम्मिक! यदि कोई दूषित चित्त से उन छह गुरुओं या उनके श्रावकसंघ का अनादर या अपमान करे, तो उसका बहुत अपुण्य इकट्ठा होगा।

सुनेत्र, मूगपक्ख, अरनेमि थे ब्राह्मण।
कुद्दालक एवं हत्थीपाल गुरु थे तरुण।
जोतीपाल गोविन्द, सात के राजपुरोहित।
— छह गुरु कीर्तिमान थे, वे अहिंसक अतीत।
निःदुर्गंधी, कामबन्धन त्यागी, करुणा-अधिमुक्त।
कामराग थे मिटा चुके, जाने वाले ब्रह्मलोक।

श्रावक उनके भी अनेक, कई सैकड़ों में।
निःदुर्गंधी, कामबन्धन त्यागी, करुणा-अधिमुक्त।
कामराग थे मिटा चुके, जाने वाले ब्रह्मलोक।
ऐसे बाहरी ऋषियों का, वीतरागी समाहित का,
द्वेषचित्त से संकल्प कर, जो उनका अपमान करे,
स्वयं के लिए अपार अपुण्य उत्पन्न भी वो करे।"

— अंगुत्तरनिकाय ६:५४ : धम्मिकसुत्त

जब समाज की नसों में नफ़रत का ज़हर इस क़दर फैल जाए, तो उसका अन्त कभी सुखद नहीं होता! ऐसे विस्फोटक माहौल में स्थिति किसी भी समय विकट हो सकती है। तब दुष्ट लोग रक्त के प्यासे बनेंगे, तथा भले लोग अपनी जान की आहुति देकर निरपराध लोगों का बचाव करेंगे। अच्छा होगा जो बीच में फंसे बहुसंख्यक सामान्यजन निर्णय लें कि उन्हें क्या करना हैं। शानदार पुण्य कमाने का ऐसा भव्य अवसर हमेशा नहीं मिलता है। कहते हैं कि सच्चे पुण्यशाली की सत्यक्रिया से गंगा भी विपरीत दिशा में बहने लगती है। अपनी अध्यात्मिक शक्ति पहचानें। भले ही दुनिया एक-ओर झुक चुकी हो, किंतु अब भी चंद भले लोगों के आधार पर बनी हुई है। आप दान, शील और भावना से हृदय खोलने की एक नई शुरुवात कर सकते है। इस दुनिया को शानदार पुण्य के धक्के देकर पुनः संतुलित करने का दायित्व पूरा कर सकते है। संतुलित हो तो अच्छा, वर्ना कोई बात नहीं — पुण्य मुबारक!

"कितना सुखद हम जीते हैं,
बैरियों में न बैर किए।
शत्रुता से भरे मनुष्यों में,
निर्बैर जो हम रहते हैं।

कितना सुखद हम जीते हैं,
बेचैनों में न बेचैन हुए।
व्याकुलता से भरे मनुष्यों में,
निर्व्याकुल जो हम रहते हैं।

कितना सुखद हम जीते हैं,
उन्मादियों में न उन्माद किए।
उत्तेजना से भरे मनुष्यों में,
निरुत्तेजित जो हम रहते हैं।"

— धम्मपद १९७ - १९९ : सुखवग्गो

भवतु सब्ब मङगलं!

  1. पिछले कुछ वर्षों से ऐसी घटनाएं आम हो रही हैं, जिन्हें विशेषज्ञ Mass Mortality Event (MME) कहते हैं। अर्थात्, किसी जीव-प्रजाति की सामुहिक मौत की घटना। दुनिया भर के विशेषज्ञ ख़ूब जाँच-पड़ताल करने के पश्चात भी आज-तक उनका सटीक कारण पता नहीं लगा पाए हैं। ↩︎

  2. इस कल्प के प्रथम अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध — भगवान ‘ककुसन्ध’ थे। उस समय ‘दूसी’ नामक सत्व ‘मार’ बना था। मार का अर्थ है, वह “जो अंततः मृत्यु का कारण बनता है” अथवा “जो अमृत धर्म (निर्वाण) से वंचित रखता है।” यह एक देवलोक में प्राप्त होने वाला पद है, जो उस पुण्यशाली यक्ष को मिलता है, जिसे कुछ विशेष महाऋद्धियां प्राप्त होती हैं। जिनसे वह तमाम सत्वों का मन पढ़कर उनकी निजी कमज़ोरियां जान लेता है। वह मन में विचार डालकर या शरीर में विशेष आस्रव ऊर्जा प्रवाहित कर, किसी को भी प्रेरित, प्रभावित तथा नियंत्रित कर सकता है। ऐसी महाशक्ति प्राप्त कर उसका चित्त दूषित हो जाता है, तथा उसे सत्ता की हवस जागती है। तब वह राजद्रोह कर अपनी शैतानी गैंग बनाता है, और ऐश्वर्यशाली महाब्रह्म के समानांतर अपनी काली सत्ता चलाने लगता है। मार का उद्देश्य है, सभी को इस संसार में बांधकर रखना। क्योंकि सभी यदि मुक्त होने लगे, तो वह सत्ता किस पर चलाएगा? इसलिए वह सभी सत्वों के विराग धर्ममार्ग में बाधा उत्पन्न करता है, तथा उन्हें फुसलाकर पुनः हिंसा तथा वासना के मिथ्याधर्म में प्रतिष्ठित करता है। कहते हैं कि मार का सूक्ष्म वश महाब्रह्म तक नहीं पहचान पाते। किंतु वह बुद्ध की आँखों से नहीं बच पाता। भगवान बुद्ध उस कृष्णप्रवृत्ति के मार को "कान्हा" अर्थात् काला भी पुकारते हैं। ↩︎