मूल लेख: ALL WINNERS, NO LOSERS
लेखक: थानिस्सरो भिक्खु
अनुवादक: भिक्खु कश्यप
(दिसंबर २०१९)
यदि आपका कोई बुरा करे, लेकिन आप माफ़ कर दे तो उसका बुरा-कर्म मिट नही जाता। इसलिए कुछ लोग मानते है कि बुद्ध की कर्म-शिक्षा में “माफ़ी” का कोई अस्तित्व नहीं; जो असंगत-सी लगती है। परंतु ऐसा नही है। भले ही माफ़ करने मात्र से पुराना बुरा-कर्म मिट न पाए, लेकिन “नया” बुरा-कर्म बनाना रोका जा सकता है।
पालि शब्द वेर – अर्थात वैर, शत्रुता, या दुश्मनी – जिसमें पता चलने पर कि किसीने आपका बुरा चाहा, तो आप एक ख़ास नकारात्मक-रवैया अपनाकर उससे बदला लेना चाहते है। ज़ाहिर है, सद्धर्म में ऐसे रवैये की कोई जगह नहीं। धैर्य व सहन-शीलता से वह रवैया कमज़ोर ज़रूर किया जा सकता है, लेकिन क्षमा-शीलता से ही वह पूर्ण हटाया जाता है।
धम्मपद में वेर के दो संदर्भ मिलते है; प्रथम – आपको किसी ने आघात पहुँचाया, तो पलटकर आप उसे डसना चाहते है। और द्वितीय – किसी के साथ प्रतीत-होती स्पर्धा में आपके पक्ष की हार होनेपर अभी आप “हिसाब बराबर” करना चाहते है – फ़िर वह युद्ध दो लोगों के बीच छिड़ा हो या दो परिवारों के, दो जाति-वर्णो या दो धर्म-संप्रदायों के, दो सभ्यताओं या दो देशों के।
जो भी हो, दोनों मामलों में क्षमा-शीलता ही वेर पूर्ण समाप्त करती है। आप अपने हृदय को विशाल कर हिसाब बराबर “न” करने का संकल्प करते है – भले ही उसका सही मौक़ा क्यों न आया हो। क्योंकि आपको बोध हो जाता है कि यह हिसाब दरअसल केवल बुरे-कर्मों का ही है, जिसकी स्पर्धा दोनों में छिड़ी है। यह हौड़ अधिक से अधिक नीचे जाने की, और स्वयं के पतन की है।
इसलिए दूसरे को माफ़ कर आप असलियत में स्वयं द्वारा ही अधिक-पाप इकट्ठा करने का मौक़ा हाथ से जाने देते है। आप यह नही जानते कि उस इंसान के साथ कितने जन्मों से यह कीचड़-कुश्ती चली आ रही है, लेकिन आप यह पक्का जान लेते है कि यह तभी थमेगा जब आपसी-वेर ख़त्म होगा, जिसकी शुरुवात आपके ही शुभ-हाथों से होगी। वर्ना यह सिलसिला कभी नही रुकने वाला!
“उसने मेरा अपमान किया, मारा, हराया, लूट लिया”
जो इसी में उलझे होते है, उनका वेर शान्त नही होता।
“उसने मेरा अपमान किया, मारा, हराया, लूट लिया”
जो इस में नहीं उलझते, उनका वेर शान्त हो जाता है।
वेर से वेर शान्त नही होता।
अ-वेर से वेर शान्त होता है – यही धर्म सनातन है।
(धम्मपद ३,४,५)
क्षमा करने का निर्णय आपका “एक-तरफ़ा” हो सकता है, लेकिन संभव है कि दूसरा-पक्ष आपके उदाहरण से प्रेरित होकर कीचड़ उछालना तुरंत रोक दे। ऐसा हो तो दोनों पक्षों का फ़ायदा ही होगा। हालांकि यदि अस्त्रविराम में वह तुरंत शामिल न भी हो, एक समय आएगा कि वह दिलचस्पी खो देगा, और अंततः “हिसाब” हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा।
यदि एक-तरफ़ा क्षमा करने पर आपको पीड़ा महसूस हो, तो भगवान तीन युक्तियाँ बताते है –
★ प्रथम – मरणानुसति – हम सभी मृत्यु की ओर बढ़ रहे है, इसका होश रखें, और कुशल-मृत्यु के रास्ते में वेर न आने पाए। “उसने मेरा बुरा किया, और जब तक बदला न ले लू, मुझे चैन नही मिलेगा” – मन में यह जो कहानी चल रही है, मृत्यु समीप आनेपर उसपर ध्यान नही जाना चाहिए। वर्ना वेर-उद्देश्य लेकर पुनर्जन्म होगा, जो बड़ा ही दुःखप्रद दयनीय जीवन हुआ। क्या आपके पास इससे बढ़िया काम नहीं?
★ द्वितीय – मेत्ता – अर्थात वेर-मुक्त अनन्त सद्भावना का विचार करें। यह विचार आपके चित्त को ब्रह्म-स्तर की ऊँचाई तक ऊपर उठाता है, जहाँ से “पुराना हिसाब चुकाने में संतोष” के विचार तुच्छ व घिनौने नज़र आते है।
★ तृतीय – पञ्चसील – अर्थात हत्या, चोरी, अवैध काम-संबंध, झूठ व नशापता न करना। कभी किसी क़ीमत पर नहीं! किंतु परंतु या कोई अपवाद नहीं, चाहे कुछ हो जाए! भगवान कहते है कि भले ही सामने कोई भी हो और उसने जो कुछ किया हो, लेकिन जब आप पंचशीलों का कड़ाई से पालन करते है, तब अपनी-ओर से आप सभी सत्वों को ख़तरे के बजाय “अनंत-सुरक्षा” प्रदान करते है। जब सुरक्षा अनंत दी जा रही हो, तो आपको भी उसमें हिस्सा मिलता है।
और “स्पर्धा-युद्ध में हार” पर भगवान कहते है – वेर समाप्त होकर आपको शांति तभी मिल पाएगी, जब आप हार–जीत से ख़ुद को दूर रखेंगे। विचार करें कि आप सुख कहाँ ढूँढ रहे है? यदि आप सत्ता-पॉवर व भौतिक-संपदा में ही सुख देखते है तो हार–जीत हमेशा लगी रहेगी। आप ने कमाया, तो दूसरे ने गवाया। वह जीता तो आप हारे।
जीत वेर को जन्म देती है।
और हार दुःख में डुबाती है।
(धम्मपद २०१)
लेकिन यदि आप सुख को “पूण्य” में ढूँढे – दान, शील और भावना में – तब किसी अन्य को पराजित घोषित करने की आवश्यकता नही। सभी विजयी होते है! उदाहरणार्थ, जब आप दान देते है, तो किसी का लाभ होता है – भीतर से आपको प्रचुरता व खुलापन महसूस होता है, जबकि बाहर से आदर-प्रेम मिलता है। शीलवान होकर जब आप दूसरों को हानि पहुँचाने से बचते है, तब कर्मों को लेकर आप पश्चाताप-मुक्त निर्दोष-जीवन जीते है, जबकि दूसरे भी बिना-आहत हुए सुरक्षित बचते है। जब आप ध्यान-साधना करते है तो आपके लोभ-द्वेष-मोह को कम खुली-छूट मिलती है, जिनसे कम शिकार होकर आप भी कम नुकसान उठाते है, और दूसरे भी कम पीड़ित होते हैं।
तब आगे चलकर आप को सोचना है:
हज़ारों-हज़ारों व्यक्तियों से लड़कर जीतने से बेहतर है
केवल एक व्यक्ति पर जीत हासिल करना – स्वयं पर!
दूसरों के बजाय स्वयं को जीतना बेहतर है।
जब आप स्वयं को सिखा चुके हो,
अथक आत्म-संयम में जीते हो,
तब न देव, न गंधर्व, न ही ब्रह्म के साथ मार
उस जीत को दुबारा हार में बदल सकता है।
(धम्मपद १०३, १०४, १०५)
तो अन्य तरह की जीत पलट सकती है, क्योंकि कर्म एवं पुनर्जन्म के चश्मे से देखें तो “हिसाब” कभी बराबर नहीं होता। लेकिन स्वयं के लोभ-द्वेष-मोह पर हासिल की गयी जीत *टिकती* है। यहीं एकमात्र जीत वेर उत्पन्न नहीं करती, और सदा-सलामत बचती है।
लेकिन मनमुटाव पालकर यह जीत हासिल करने की गुंजाइश नहीं। यह ऐसी दुनिया है जहाँ हम सभी इससे या उससे आहत हुए हैं, और अगर चाहें तो पुराना हिसाब बराबर करने के मौक़े हमेशा मिलते रहेंगे। लेकिन जीवन की एकमात्र सच्ची सुरक्षित जीत हासिल करने की शुरुवात *क्षमा* करने से होती है। इस तरह की क्षमा-शीलता जहाँ आप किसी की सुरक्षा में ख़तरा नहीं बनना चाहते – चाहें उसने जो भी बुरा किया हो। इसलिए क्षमा-शीलता बुद्ध-धर्म से केवल मेल ही नहीं खाती, बल्कि ज़रूरी पहला-कदम है।