नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 महासुदर्शन जातक

सूत्र विवेचना

यह सूत्र वास्तव में पिछले महापरिनिर्वाण सूत्र से शुरू होता है, जब भगवान कुशीनगर में जुड़वा शाल वृक्षों के बीच परिनिर्वाण के पूर्व विहार कर रहे थे। आयुष्मान आनंद ने भगवान से विनती की थी कि वे ऐसे जंगली स्थान पर परिनिर्वाण न लें, बल्कि किसी बड़े महानगर में इसका चयन करें, ताकि उनके शक्तिशाली उपासक उनकी अंतक्रिया कर सकें। इस पर भगवान ने कुशीनगर को चुनने का असली कारण बताया।

यह सूत्र संवेग जगाने वाला और हृदय को छू लेने वाला है। इस कथा का वर्णन एक ओर जहाँ दुनिया से परे सुंदर प्रतीत होता है, वहीं यह अत्यंत वास्तविक भी है। भगवान इस जातक कथा को तेज गति से शिखर पर ले जाते हैं और फिर उसी गति से समाप्त कर देते हैं। जिस तरह यह कथा समाप्त होती है, उसे कोई भी आसानी से नहीं भुला सकता। आइए, सुनते हैं भगवान की अत्यंत रोचक जातक कथा।

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान कुसिनारा में मल्लों के शालवन के उपवत्तन में जुड़वा शालवृक्षों के बीच परिनिर्वाण के समय विहार कर रहे थे। तब आयुष्मान आनन्द भगवान के पास गए, और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक-ओर बैठकर आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “भंते, भगवान ऐसे शूद्र नगर में, ऐसे जंगली नगर में, ऐसे शाखा नगर में परिनिवृत न हो। बल्कि दूसरे महानगर हैं, भंते, जैसे चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कौशांबी, वाराणसी; वहाँ भगवान परिनिवृत हो। वहाँ बहुत से महासंपत्तिशाली क्षत्रिय हैं, महासंपत्तिशाली ब्राह्मण हैं, महासंपत्तिशाली गृहस्थ [=वैश्य] हैं, जिनकी तथागत पर अटूट आस्था हैं। वे तथागत के [पार्थिव] शरीर की पुजा [=अन्तक्रिया] करेंगे।”

“ऐसा मत कहो, आनन्द। ऐसा मत कहो कि यह शूद्र नगर है, जंगली नगर है, शाखा नगर है।”

१. कुशावती राजधानी

“बहुत पहले, आनन्द, महासुदर्शन नामक क्षत्रिय राजा हुए थे — राज-तिलक हुए नरेश, चार-दिशाओं के विजेता, दूर-दराज के इलाकों तक स्थिर शासन प्राप्त। उस राजा महासुदर्शन की राजधानी कुसिनारा ही थी, जो उस समय कुशावती नाम से प्रसिद्ध थी। पूर्व और पश्चिम दिशा से बारह योजन, उत्तर और दक्षिण दिशा से सात योजन तक विस्तार फैला हुआ था। कुशावती बड़ी ही शक्तिशाली और समृद्ध राजधानी थी — घनी आबादी वाली, मनुष्यों से भरी हुई, धन-धान्य से भरी हुई। जिस तरह, आनन्द, देवताओं की राजधानी आळकमन्दा बड़ी ही शक्तिशाली और समृद्ध राजधानी है, घनी आबादी वाली, यक्षों से भरी हुई, धन-धान्य से भरी हुई। उसी तरह, कुशावती बड़ी ही शक्तिशाली और समृद्ध राजधानी थी, घनी आबादी वाली, मनुष्यों से भरी हुई, धन-धान्य से भरी हुई। कुशावती राजधानी में, दिन हो या रात, दस तरह की आवाजों से खाली नहीं रहती थी — हाथियों की आवाज, घोड़ों की आवाज, रथ की आवाज, ढ़ोल की आवाज, मृदंग की आवाज, वीणा की आवाज, गीतों की आवाज, शंख की आवाज, स्नेहपूर्वक [या मँजीरे की] आवाज, और “खाओ, पियो, ऐश करो” की आवाज़े!

आनन्द, कुशावती राजधानी सात दीवारों से घिरी थी। एक दीवार स्वर्ण की थी, एक चाँदी की, एक वैदूर्य [=बेशकीमती पत्थर, लापिस लजुली] की, एक स्फटिक [=क्रिस्टल] की, एक पद्मराग [=रूबी] की, एक पन्ना [=एमराल्ड] की, और एक सभी [बेशकीमती] रत्नों से बनी थी।

कुशावती राजधानी के चार रंग के चार द्वार थे। एक स्वर्ण का था, एक चाँदी का, एक वैदूर्य का, और एक स्फटिक का। प्रत्येक द्वार पर सात स्तंभ गड़े थे — तीन पोरसा [=१ पोरसा = पाँच हाथ लंबा] गहरे, तीन पोरसा ऊँचे, कुल बारह पोरसा लंबे। एक स्तंभ स्वर्ण का बना था, एक चाँदी का, एक वैदूर्य का, एक स्फटिक का, एक पद्मराग का, एक पन्ना का, और एक सभी रत्नों से बना था।

कुशावती राजधानी सात ताड़-पंक्तियों से घिरी थी। एक ताड़ स्वर्ण का बना था, एक चाँदी का, एक वैदूर्य का, एक स्फटिक का, एक पद्मराग का, एक पन्ना का, और एक सभी रत्नों से बना था। स्वर्ण ताड़ का तना स्वर्ण से बना था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल चाँदी के थे। चाँदी ताड़ का तना चाँदी से बना था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल स्वर्ण के थे। वैदूर्य ताड़ का तना वैदूर्य से बना था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल स्फटिक के थे। स्फटिक ताड़ का तना स्फटिक से बना था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल वैदूर्य के थे। पद्मराग ताड़ का तना पद्मराग से बना था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल पन्ना के थे। पन्ना ताड़ का तना पन्ना से बना था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल पद्मराग के थे। सभी रत्नों का ताड़ का तना सभी रत्नों से बना था, और पत्तियाँ और फ़ल भी सभी रत्नों के थे।

और, आनन्द, पवन के झोंके से हिलने पर ताड़-पंक्तियाँ से अत्यंत मधुर, आकर्षक, शांतिपूर्ण, और मोह लेने वाली आवाज निकलती थी। जैसे पंचक-वाद्य बजाने में अत्यंत निपुण संगीतकार, सुर-ताल पकड़ने में सुअभ्यस्त और कुशल, अपने वाद्यों से अत्यंत मधुर, आकर्षक, शांतिपूर्ण, और मोह लेनेवाली आवाज निकालते हैं। उसी तरह, आनन्द, पवन के झोंके से हिलने पर ताड़-पंक्तियाँ से अत्यंत मधुर, आकर्षक, शांतिपूर्ण, और मोह लेने वाली आवाज निकलती थी। और, उस समय कुशावती राजधानी के धूर्त, नशेड़ी और शराबी उसी हिलती ताड़-पंक्तियों की आवाज में मस्त होते थे।”

२. सात रत्न

(चक्ररत्न)

“आनन्द, राजा महासुदर्शन सात-रत्नों और चार-ऋद्धियों से संपन्न था। कौन-से सात रत्न?

राजा महासुदर्शन पूर्णिमा उपोसथ के दिन सिर धोकर महल के ऊपरी उपोसथ-कक्ष में गया, तो वहाँ दिव्य चक्ररत्न प्रादुर्भुत हुआ — हजार तीली के साथ, नेमी के साथ, नाभी के साथ, अपने सम्पूर्ण आकार की परिपूर्णता के साथ! उसे देखकर राजा महासुदर्शन को लगा, “मैने यह सुना है कि जब कोई क्षत्रिय राजा, राजतिलक हुआ नरेश, पूर्णिमा उपोसथ के दिन सिर धोकर महल के ऊपरी उपोसथकक्ष में जाए, और यदि वहाँ दिव्य चक्ररत्न प्रादुर्भुत हो — हजार तीली के साथ, नेमी के साथ, नाभी के साथ, अपने सम्पूर्ण आकार की परिपूर्णता के साथ — तब वह राजा ‘चक्रवर्ती सम्राट’ बनता है। तब, क्या मैं चक्रवर्ती सम्राट बनूँगा?”

तब राजा महासुदर्शन ने आसन से उठकर, बाए हाथ में जलपात्र ले, दाएँ हाथ से उस चक्ररत्न पर जल छिड़कते हुए कहा, “प्रवर्तन करो, श्री चक्ररत्न! सर्वविजयी हो, श्री चक्ररत्न!”

तब वह चक्ररत्न प्रवर्तित होते पूर्व-दिशा में आगे बढ़ने लगा। और राजा महासुदर्शन ने अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उसका पीछा किया। वह चक्ररत्न जिस प्रदेश में थम गया, वहाँ राजा महासुदर्शन ने अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ आवास लिया। तब पूर्व-दिशा के विरोधी राजाओं ने आकर राजा महासुदर्शन को कहा, “आईयें, महाराज! स्वागत है, महाराज! आज्ञा करें, महाराज! आदेश दें, महाराज!”

राजा महासुदर्शन ने कहा, “जीवहत्या ना करें! चोरी ना करें! व्यभिचार ना करें! झूठ ना बोलें! मद्य ना पिएँ! [इसके अलावा] जो खाते हैं, वो खाएँ!” तब पूर्व-दिशा के विरोधी राजाओं ने राजा महासुदर्शन के आगे समर्पण किया।

इस तरह, चक्ररत्न आगे बढ़ते हुए पूर्वी-महासमुद्र में डुबकी लगाकर पुनः उबरा, और प्रवर्तित होते दक्षिण-दिशा में आगे बढ़ने लगा। और राजा महासुदर्शन ने अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उसका पीछा किया… तब दक्षिण-दिशा के विरोधी राजाओं ने राजा महासुदर्शन के आगे समर्पण किया। तब चक्ररत्न आगे बढ़ते हुए दक्षिण महासमुद्र में डुबकी लगाकर पुनः उबरा, और प्रवर्तित होते पश्चिम-दिशा में आगे बढ़ने लगा। और राजा महासुदर्शन ने अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उसका पीछा किया… तब पश्चिम-दिशा के विरोधी राजाओं ने राजा महासुदर्शन के आगे समर्पण किया। तब चक्ररत्न आगे बढ़ते हुए पश्चिम महासमुद्र में डुबकी लगाकर पुनः उबरा, और प्रवर्तित होते उत्तर-दिशा में आगे बढ़ने लगा। और राजा महासुदर्शन ने अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उसका पीछा किया। वह चक्ररत्न जिस प्रदेश में थम गया, वहाँ राजा महासुदर्शन ने अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ आवास लिया। तब उत्तर-दिशा के विरोधी राजाओं ने आकर राजा महासुदर्शन को कहा, “आईयें, महाराज! स्वागत है, महाराज! आज्ञा करें, महाराज! आदेश दें, महाराज!”

राजा महासुदर्शन ने कहा, “जीवहत्या ना करें! चोरी ना करें! व्यभिचार ना करें! झूठ ना बोलें! मद्य ना पिएँ! जो खाते हैं, वो खाएँ!” तब उत्तर-दिशा के विरोधी राजाओं ने राजा महासुदर्शन के आगे समर्पण किया।

और, तब चक्ररत्न पृथ्वी पर महासमुद्रों तक सर्वविजयी होकर कुशावती राजधानी लौट आया, और राजा महासुदर्शन के राजमहल अंतःपुर द्वार के ऊपर अक्ष लगाकर थम गया, जैसे अंतःपुर द्वार की शोभा बढ़ा रहा हो। आनन्द, ऐसा था चक्ररत्न, जो राजा महासुदर्शन के लिए प्रादुर्भूत हुआ था।”

(हाथीरत्न)

“और फिर, आनन्द, राजा महासुदर्शन के लिए हाथीरत्न प्रादुर्भुत हुआ — संपूर्ण सफ़ेद, सात तरह से प्रतिस्थापित, ऋद्धिमानी, आकाश से भ्रमण करने वाला, ‘उपोसथ’ नामक हाथीराज!

उसे देखते ही राजा महासुदर्शन के चित्त में विश्वास प्रकट हुआ, “बहुत शुभ होगी इस हाथी की सवारी, जो यह काबू में आए!” तब हाथीरत्न काबू में आ गया, जैसे कोई उत्कृष्ट जाति का राजसी हाथी दीर्घकाल तक भलीभांति काबू में रहा हो।

और, बहुत पहले ऐसा हुआ, आनन्द, राजा महासुदर्शन हाथीरत्न को परखने के लिए सुबह उस पर सवार हुआ, और संपूर्ण पृथ्वी का महासमुद्र तक भ्रमण कर प्रातः आहार के समय तक कुशावती राजधानी लौट आया। आनन्द, ऐसा था हाथीरत्न, जो राजा महासुदर्शन के लिए प्रादुर्भूत हुआ था।”

(अश्वरत्न)

“और फिर, आनन्द, राजा महासुदर्शन के लिए अश्वरत्न प्रादुर्भुत हुआ — संपूर्ण सफ़ेद, चमकता काला सिर, मूंजघास जैसे अयाल [गर्दन के बाल], ऋद्धिमानी, आकाश से भ्रमण करने वाला, ‘वलाहक’ [=गर्जनमेघ] नामक अश्वराज!

उसे देखते ही राजा महासुदर्शन के चित्त में विश्वास प्रकट हुआ, “बहुत शुभ होगी इस घोड़े की सवारी, जो यह काबू में आए!” तब अश्वरत्न काबू में आ गया, जैसे कोई उत्कृष्ट जाति का राजसी घोड़ा दीर्घकाल तक भलीभांति काबू में रहा हो।

और, बहुत पहले ऐसा हुआ, आनन्द, राजा महासुदर्शन अश्वरत्न को परखने के लिए सुबह उस पर सवार हुआ, और संपूर्ण पृथ्वी का महासमुद्र तक भ्रमण कर प्रातः आहार के समय तक कुशावती राजधानी में लौट आया। आनन्द, ऐसा था अश्वरत्न, जो राजा महासुदर्शन के लिए प्रादुर्भूत हुआ था।”

(मणिरत्न)

“और फिर, आनन्द, राजा महासुदर्शन के लिए मणिरत्न प्रादुर्भुत हुआ — वैदुर्य मणि, शुभ जाति का, अष्टपहलु, सुपरिष्कृत! उस मणिरत्न की आभा एक योजन [लगभग १६ किलोमीटर] तक फैलती थी।

और, बहुत पहले ऐसा हुआ, आनन्द, राजा महासुदर्शन मणिरत्न को परखने के लिए उसे राजध्वज के शीर्ष पर नियुक्त कर, रात के घोर अंधकार में अपनी चार अंगोवाली सेना की व्यूहरचना में आगे बढ़ने लगा। तब उस मणि की आभा को दिन समझते हुए आसपास के सभी गांवों की जनता ने दिवसकार्य शुरू कर दिया। आनन्द, ऐसा था मणिरत्न, जो राजा महासुदर्शन के लिए प्रादुर्भूत हुआ था।”

(स्त्रीरत्न)

“और फिर, आनन्द, राजा महासुदर्शन के लिए स्त्रीरत्न प्रादुर्भुत हुआ — अत्यंत रुपमती, सुहावनी, सजीली, परमवर्ण और परमसौंदर्य से संपन्न! न बहुत लंबी, न बहुत नाटी, न बहुत पतली, न बहुत मोटी, न बहुत साँवली, न बहुत गोरी! मानव-सौंदर्यता लांघ चुकी, किंतु दिव्य-सौंदर्यता को प्राप्त न की!

उस स्त्रीरत्न का काया स्पर्श ऐसा लगता है, जैसे रूई या रेशम का गुच्छा हो! उस स्त्रीरत्न के अंग शीतकाल में उष्ण रहते हैं और उष्णकाल में शीतल! उस स्त्रीरत्न की काया से चंदन-सी गन्ध आती है, तथा मुख से कमलपुष्प-सी गन्ध। वह स्त्रीरत्न राजा महासुदर्शन के पूर्व उठती, पश्चात सोती, सेवा के लिए लालायित रहती, मनचाहा आचरण करती, तथा प्रिय बातें करती है।

वह स्त्रीरत्न मन से भी राजा महासुदर्शन के प्रति निष्ठा [वफ़ा] का उल्लंघन नहीं करती, तो काया से कैसे करेगी? आनन्द, ऐसा था स्त्रीरत्न, जो राजा महासुदर्शन के लिए प्रादुर्भूत हुआ था।”

(गृहस्थरत्न)

“और फिर, आनन्द, राजा महासुदर्शन के लिए गृहस्थरत्न प्रादुर्भुत हुआ — जिसे पूर्व कर्म के फ़लस्वरूप दिव्यचक्षु प्राप्त हुआ था, जिससे वह छिपे हुए खज़ाने, मालकियत अथवा बिना मालकियत वाले, देख पाता था। उस गृहस्थरत्न ने राजा महासुदर्शन के पास जाकर कहा, “महाराज, आप निश्चिंत रहें! मैं आपके धनदौलत की देखभाल करूँगा!”

और, बहुत पहले ऐसा हुआ, आनन्द, राजा महासुदर्शन ने गृहस्थरत्न को परखने के लिए उसे नांव में साथ लेकर गंगा नदी की सैर पर निकला, और बीच नदी में कहा, “गृहस्थ, मुझे स्वर्णचांदी का ढेर चाहिए!”

“महाराज! तब नांव को एक किनारे लगने दें!”

“दरअसल, गृहस्थ, मुझे स्वर्णचांदी का ढेर ‘अभी इसी जगह’ चाहिए!”

तब गृहस्थरत्न ने अपने दोनों हाथों को जल में डुबोया, स्वर्णचांदी से भरी हाँडी निकाला, और राजा महासुदर्शन को कहा, “महाराज, इतना पर्याप्त है? क्या इतना करना पर्याप्त है? क्या इतनी अर्पित मात्रा पर्याप्त है?”

“इतना पर्याप्त है, गृहस्थ! इतना करना पर्याप्त है! इतनी अर्पित मात्रा पर्याप्त है!” आनन्द, ऐसा था गृहस्थरत्न, जो राजा महासुदर्शन के लिए प्रादुर्भूत हुआ था।”

(सेनापतिरत्न)

“और फिर, आनन्द, राजा महासुदर्शन के लिए सेनापतिरत्न प्रादुर्भुत हुआ — विद्वान, ज्ञानी, मेधावी, सक्षम! वह राजा महासुदर्शन को आगे बढ़ने-योग्य अवसर में आगे बढ़ाता, छोड़ने-योग्य अवसर में छुड़वाता, स्थापित-योग्य अवसर में स्थापित कराता था।

उस सेनापतिरत्न ने राजा महासुदर्शन के पास जाकर कहा, “महाराज, आप निश्चिंत रहें! मैं निर्देशित करूँगा!” आनन्द, ऐसा था सेनापतिरत्न, जो राजा महासुदर्शन के लिए प्रादुर्भूत हुआ था। और, आनन्द, राजा महासुदर्शन ऐसे सप्तरत्नों से संपन्न था।”

३. चार ऋद्धियाँ

आनन्द, राजा महासुदर्शन चार ऋद्धियों से संपन्न था। कौन-सी चार ऋद्धियाँ?

(१) राजा महासुदर्शन अत्यंत रूपवान, आकर्षक, सजीला, परमवर्ण से संपन्न था, अन्य किसी भी मनुष्य से परे! यह राजा महासुदर्शन की प्रथम ऋद्धि थी।

(२) राजा महासुदर्शन दीर्घायु था, दीर्घकाल तक बने रहा, अन्य किसी भी मनुष्य से परे! यह राजा महासुदर्शन की द्वितीय ऋद्धि थी।

(३) राजा महासुदर्शन निरोगी रहता था, रोगमुक्त और पाचनक्रिया सम रहती थी, न बहुत शीतल, न बहुत उष्ण, अन्य किसी भी मनुष्य से परे! यह राजा महासुदर्शन की तृतीय ऋद्धि थी।

(४) और, राजा महासुदर्शन ब्राह्मणों और [वैश्य] गृहस्थों का प्रिय और पसंदीदा था। जैसे संतान के लिए पिता प्रिय और पसंदीदा होता है, उसी तरह राजा महासुदर्शन ब्राह्मणों और गृहस्थों के लिए प्रिय और पसंदीदा था। ब्राह्मण और गृहस्थ भी राजा महासुदर्शन के लिए प्रिय और पसंदीदा थे। जैसे पिता के लिए संतान प्रिय और पसंदीदा होते हैं, उसी तरह ब्राह्मण और गृहस्थ भी राजा महासुदर्शन के लिए प्रिय और पसंदीदा थे।

और, बहुत पहले ऐसा हुआ, आनन्द, राजा महासुदर्शन अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उद्यानभूमि से गुज़र रहा था। तब ब्राह्मणों और गृहस्थों ने राजा महासुदर्शन के पास जाकर कहा, “महाराज, मंद गति से गुज़रे! ताकि हम आपको देर तक देख सकें!” तब राजा महासुदर्शन अपने रथसारथी को आदेश दिया, “सारथी, मंद गति से चलो! ताकि हमें ब्राह्मण और गृहस्थ देर तक देख सकें!” यह राजा महासुदर्शन की चतुर्थ ऋद्धि थी।

और, आनन्द, राजा महासुदर्शन इन चार ऋद्धियों से संपन्न था।"

४. धर्म-महल में पुष्करणी

तब, आनन्द, राजा महासुदर्शन को लगा, “क्यों न मैं ताड़ [वृक्षों] के बीच सौ-सौ धनुष [१ धनुष = ४०० हाथ] की दूरी पर पुष्करणीयाँ [=कमलपुष्प से भरे तालाब] बनवाऊँ?” तब, आनन्द, राजा महासुदर्शन ने ताड़ के बीच सौ-सौ धनुष की दूरी पर पुष्करणीयाँ बनवाई।

प्रत्येक पुष्करणी चार रंगों की ईटों से बनायी गयी — एक ईंट स्वर्ण की बनी थी, एक चाँदी की, एक वैदूर्य की, और एक स्फटिक की। और, उन पुष्करणीयों में उतरने के लिए चार दिशाओं में चार रंगों की चार सीढ़ियाँ थी — एक सीढ़ी स्वर्ण की बनी थी, एक चाँदी की, एक वैदूर्य की, और एक स्फटिक की। स्वर्ण की सीढ़ी में स्वर्ण का स्तंभ था, जबकि जंगला [=रेलिंग] और शिखर चाँदी का था। चाँदी की सीढ़ी में चाँदी का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर स्वर्ण का था। वैदूर्य की सीढ़ी में वैदूर्य का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर स्फटिक का था। स्फटिक की सीढ़ी में स्फटिक का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर वैदूर्य का था। आनन्द, वे पुष्करणीयाँ दो कटघरों [=ग्रिल] से घिरी हुई थी — एक स्वर्ण से बनी, तो दूसरी चाँदी से। स्वर्ण के कटघरे में स्वर्ण का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर चाँदी का था। चाँदी के कटघरे में चाँदी का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर स्वर्ण का था।

तब, आनन्द, राजा महासुदर्शन को लगा, “क्यों न मैं इन पुष्करणीयों में वर्ष-भर खिलने वाले कमलपुष्प रोपूँ, जैसे रक्त-कमल, पीत-कमल, नील-कमल, और श्वेत-कमल, और उन्हें सब तरह की आम जनता के लिए खुला कर दूँ?” तब राजा महासुदर्शन ने उन पुष्करणीयों में वर्ष-भर खिलने वाले कमलपुष्प रोप दिये, जैसे रक्त-कमल, पीत-कमल, नील-कमल, और श्वेत-कमल, और उन्हें सब तरह की आम जनता के लिए खुला कर दिया।

तब, आनन्द, राजा महासुदर्शन को लगा, “क्यों न मैं इन पुष्करणीयों के तट पर नहलाने वाले पुरुषों को नियुक्त करूँ, जो आगन्तुक [=आने वाली] आम जनता को नहलाएँ?” तब राजा राजा महासुदर्शन ने उन पुष्करणीयों के तट पर नहलाने वाले पुरुषों को नियुक्त किया, जो आगन्तुक आम जनता को नहलाते थे।

तब, आनन्द, राजा महासुदर्शन को लगा, “क्यों न मैं इन पुष्करणीयों के तट पर आम जनता के लिए दान स्थापित करवाऊँ, ताकि खाना चाहते लोगों को खाना मिले, पेय चाहते लोगों के लिए पेय मिले, वस्त्र चाहते लोगों को वस्त्र मिले, गाड़ी चाहते लोगों को गाड़ी मिले, बिस्तर [=सज्जा-सामग्री] चाहते लोगों को बिस्तर मिले, स्त्री चाहते लोगों को स्त्री मिले, हिरण्य [=बिना गढ़ा हुआ स्वर्ण] चाहते लोगों को हिरण्य मिले, और सुवर्ण [=गढ़ा हुआ स्वर्ण] चाहते लोगों को सुवर्ण मिले?” तब राजा महासुदर्शन ने उन पुष्करणीयों के तट पर आम जनता के लिए दान स्थापित करवाया, ताकि खाना चाहते लोगों को खाना मिले, पेय चाहते लोगों के लिए पेय मिले, वस्त्र चाहते लोगों को वस्त्र मिले, गाड़ी चाहते लोगों को गाड़ी मिले, बिस्तर चाहते लोगों को बिस्तर मिले, स्त्री चाहते लोगों को स्त्री मिले, हिरण्य चाहते लोगों को हिरण्य मिले, और सुवर्ण चाहते लोगों को सुवर्ण मिले।

तब, आनन्द, ब्राह्मण और [वैश्य] गृहस्थ जनता ने अपनी विराट धन-संपत्ति लेकर राजा महासुदर्शन के पास आएँ, और कहा, “महाराज, ये विराट धन-संपत्ति राजा महासुदर्शन के लिए ही लायी है! कृपा कर महाराज ग्रहण करें!”

“बहुत हुआ, श्रीमानों! मेरे पास धर्म के बल से विराट धन-संपत्ति एकत्रित हुई है। तो, यह धन-संपत्ति आप ही की है। बल्कि, मेरे पास से भी और ले जाएँ।”

जब राजा ने ग्रहण नहीं किया, तो जनता ने एक-ओर जाकर विमर्श किया, “यह उचित नहीं होगा कि इस धन-संपत्ति को हम पुनः अपने घरों में ले जाएँ। क्यों न राजा महासुदर्शन के लिए महल का निर्माण करें?” तब वे राजा महासुदर्शन के पास गए और कहा, “महाराज, हम निवास-महल बनाएँगे!” तब, आनन्द, राजा महासुदर्शन ने मौन रहकर स्वीकृति दी।

और आनन्द, तब, देवराज इन्द्र सक्क ने राजा महासुदर्शन के चित्त की बात अपने चित्त से जान ली, और देवपुत्र विश्वकर्म को संबोधित किया, “जाओ, प्रिय विश्वकर्म, राजा महासुदर्शन के लिए “धर्म” नामक निवास-महल बना दो!”

“ठीक है, भदन्त!” देवपुत्र विश्वकर्म ने देवराज इन्द्र सक्क को उत्तर दिया। तब, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, देवपुत्र विश्वकर्म तैतीस देवलोक से विलुप्त हुआ, और राजा महासुदर्शन के आगे प्रकट हुआ। और तब, आनन्द, देवपुत्र विश्वकर्म ने राजा महासुदर्शन से कहा, “महाराज, मैं आप के लिए धर्म नामक निवास-महल बना दूँगा।” तब, आनन्द, राजा महासुदर्शन ने मौन रहकर स्वीकृति दी।

और, तब देवपुत्र विश्वकर्म ने राजा महासुदर्शन के लिए धर्म नामक निवास-महल बना दिया। वह धर्म महल, आनन्द, पूर्व से पश्चिम तक एक योजन [=बारह से सोलह किलोमीटर] लंबा, और उत्तर से दक्षिण तक आधा योजन चौड़ा था। वह धर्म महल तीन पोरसा ऊँचा, और चार रंगों की ईंटों से बना था — एक ईंट स्वर्ण की थी, एक चाँदी की, एक वैदूर्य की, और एक स्फटिक की। वह धर्म महल, आनन्द, चौरासी हजार स्तभों पर आधारित था, जो चार रंगों से बने थे — एक स्तंभ स्वर्ण का था, एक चाँदी का, एक वैदूर्य का, और एक स्फटिक का। उस धर्म महल में चार रंगों के फ़लक लगे थे — एक फ़लक स्वर्ण का था, एक चाँदी का, एक वैदूर्य का, और एक स्फटिक का।

उस धर्म महल में, आनन्द, चौबीस सीढ़ियाँ थी, जो चार रंगों से बनी थी — एक सीढ़ी स्वर्ण की थी, एक चाँदी की, एक वैदूर्य की, और एक स्फटिक की। स्वर्ण की सीढ़ी में स्वर्ण का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर चाँदी का था। चाँदी की सीढ़ी में चाँदी का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर स्वर्ण का था। वैदूर्य की सीढ़ी में वैदूर्य का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर स्फटिक का था। स्फटिक की सीढ़ी में स्फटिक का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर वैदूर्य का था।

उस धर्म महल में, आनन्द, चौरासी हजार कक्ष थे, जो चार रंगों से बने थे — एक कमरा स्वर्ण का था, एक चाँदी का, एक वैदूर्य का, और एक स्फटिक का। स्वर्ण कक्ष में चाँदी का पलंग बिछा था। चाँदी के कक्ष में स्वर्ण का पलंग बिछा था। वैदूर्य कक्ष में स्फटिक का पलंग बिछा था। स्फटिक के कक्ष में वैदूर्य का पलंग बिछा था। स्वर्ण के कक्ष में द्वार पर चाँदी का ताड़ [वृक्ष] लगा था, जिसका तना चाँदी का था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल स्वर्ण के थे। चाँदी के कक्ष में द्वार पर स्वर्ण का ताड़ लगा था, जिसका तना स्वर्ण का था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल चाँदी के थे। वैदूर्य के कक्ष में द्वार पर स्फटिक का ताड़ लगा था, जिसका तना स्फटिक का था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल वैदूर्य के थे। स्फटिक के कक्ष में द्वार पर वैदूर्य का ताड़ लगा था, जिसका तना वैदूर्य का था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल स्फटिक के थे।

तब राजा महासुदर्शन को लगा, “क्यों न मैं महाव्यूह कक्ष के द्वार पर स्वर्ण से बना ताड़-वन बनाऊँ, जहाँ दिन का समय व्यतीत करूँ?” तब, आनन्द, राजा महासुदर्शन ने महाव्यूह कक्ष के द्वार पर स्वर्ण से बना ताड़-वन बनाया, जहाँ दिन का समय व्यतीत करता था।

वह धर्म महल, आनन्द, दो कटघरों से घिरा हुआ था — एक स्वर्ण से बना, तो दूसरी चाँदी से। स्वर्ण के कटघरे में स्वर्ण का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर चाँदी का था। चाँदी के कटघरे में चाँदी का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर स्वर्ण का था।

वह धर्म महल, आनन्द, दो घंटियों के जाल घिरा हुआ था — एक स्वर्ण से बना, तो दूसरी चाँदी से। स्वर्ण के जाल में चाँदी की घंटी थी। और चाँदी के जाल में स्वर्ण की घंटी थी। पवन के झोंके से हिलने पर घंटियों से अत्यंत मधुर, आकर्षक, शांतिपूर्ण, और मोह लेने वाली आवाज निकलती थी। जैसे पंचक-वाद्य बजाने में अत्यंत निपुण संगीतकार, सुर-ताल पकड़ने में सुअभ्यस्त और कुशल, अपने वाद्यों से अत्यंत मधुर, आकर्षक, शांतिपूर्ण, और मोह लेनेवाली आवाज निकालते हैं। उसी तरह, आनन्द, पवन के झोंके से हिलने पर घंटियों से अत्यंत मधुर, आकर्षक, शांतिपूर्ण, और मोह लेने वाली आवाज निकलती थी। और, उस समय कुशावती राजधानी के धूर्त, नशेड़ी और शराबी उसी हिलती घंटियों की आवाज में मस्त होते थे।

और, आनन्द, जब धर्म महल बनकर तैयार हुआ, तब तेज चमक के कारण उसे देख पाना कठिन हुआ। जैसे, आनन्द, वर्षाऋतु के महीने समाप्त होने पर, शरदऋतु के आरंभ होने पर, जब बादल-रहित आकाश में सूरज चढ़ते हुए, तेज चमक के कारण उसे देख पाना कठिन होता है। उसी तरह, आनन्द, जब धर्म महल बनकर तैयार हुआ, तब तेज चमक के कारण उसे देख पाना कठिन हुआ।

तब राजा महासुदर्शन को लगा, “क्यों न मैं धर्म महल के आगे धर्म नामक पुष्करणी बनाऊँ?” तब राजा महासुदर्शन ने धर्म महल के आगे ‘धर्म’ नामक पुष्करणी बनवाईं। वह धर्म नामक पुष्करणी पूर्व से पश्चिम तक एक योजन लंबी, और उत्तर से दक्षिण तक आधा योजन चौड़ी थी। वह धर्म नामक पुष्करणी चार रंगों की ईंटों से बनी थी — एक ईंट स्वर्ण की थी, एक चाँदी की, एक वैदूर्य की, और एक स्फटिक की।

और, आनंद, उस पुष्करणी में उतरने के लिए चौबीस सीढ़ियाँ थी, जो चार रंगों से बनी थी — एक सीढ़ी स्वर्ण की थी, एक चाँदी की, एक वैदूर्य की, और एक स्फटिक की। स्वर्ण की सीढ़ी में स्वर्ण का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर चाँदी का था। चाँदी की सीढ़ी में चाँदी का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर स्वर्ण का था। वैदूर्य की सीढ़ी में वैदूर्य का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर स्फटिक का था। स्फटिक की सीढ़ी में स्फटिक का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर वैदूर्य का था।

वह धर्म नामक पुष्करणी दो कटघरों से घिरी हुई थी — एक स्वर्ण से बनी, तो दूसरी चाँदी से। स्वर्ण के कटघरे में स्वर्ण का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर चाँदी का था। चाँदी के कटघरे में चाँदी का स्तंभ था, जबकि जंगला और शिखर स्वर्ण का था।

और, आनंद, वह धर्म नामक पुष्करणी सात ताड़-पंक्तियों से घिरी थी। एक ताड़ स्वर्ण का बना था, एक चाँदी का, एक वैदूर्य का, एक स्फटिक का, एक पद्मराग का, एक पन्ना का, और एक सभी रत्नों से बना था। स्वर्ण ताड़ का तना स्वर्ण से बना था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल चाँदी के थे। चाँदी ताड़ का तना चाँदी से बना था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल स्वर्ण के थे। वैदूर्य ताड़ का तना वैदूर्य से बना था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल स्फटिक के थे। स्फटिक ताड़ का तना स्फटिक से बना था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल वैदूर्य के थे। पद्मराग ताड़ का तना पद्मराग से बना था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल पन्ना के थे। पन्ना ताड़ का तना पन्ना से बना था, जबकि पत्तियाँ और फ़ल पद्मराग के थे। सभी रत्नों का ताड़ का तना सभी रत्नों से बना था, और पत्तियाँ और फ़ल भी सभी रत्नों के थे।

और, आनन्द, पवन के झोंके से हिलने पर ताड़-पंक्तियाँ से अत्यंत मधुर, आकर्षक, शांतिपूर्ण, और मोह लेने वाली आवाज निकलती थी। जैसे पंचक-वाद्य बजाने में अत्यंत निपुण संगीतकार, सुर-ताल पकड़ने में सुअभ्यस्त और कुशल, अपने वाद्यों से अत्यंत मधुर, आकर्षक, शांतिपूर्ण, और मोह लेनेवाली आवाज निकालते हैं। उसी तरह, आनन्द, पवन के झोंके से हिलने पर ताड़-पंक्तियाँ से अत्यंत मधुर, आकर्षक, शांतिपूर्ण, और मोह लेने वाली आवाज निकलती थी। और, उस समय कुशावती राजधानी के धूर्त, नशेड़ी और शराबी उसी हिलती ताड़-पंक्तियों की आवाज में मस्त होते थे।

और, आनंद, जब धर्म महल और धर्म पुष्करणी खड़ी हो गयी, तब राजा महासुदर्शन ने उस समय के श्रमणों में सच्चे श्रमण और ब्राह्मणों में सच्चे ब्राह्मणों की सभी तरह की इच्छाओं को तृप्त कर धर्म महल में प्रवेश किया।"

५. झान-संपत्ति

“तब, आनंद, राजा महासुदर्शन को लगा, “यह मेरे कौन-से कर्म का फल है, कौन-से कर्म का परिणाम है, जो मैं अब इतना महाबलशाली, महाप्रभावशाली हूँ?”

तब राजा महासुदर्शन को लगा, “यह मेरे तीन कर्मों के फल हैं, तीन कर्मों के परिणाम हैं, जो मैं अब इतना महाबलशाली, महाप्रभावशाली हूँ — दान, स्वयं पर काबू, और संयम!”

तब, आनन्द, राजा महासुदर्शन ने महाव्यूह कक्ष के पास आया, और महाव्यूह कक्ष के द्वार पर खड़ा होकर सहज ही बोल पड़ा, “रुक जाओ, कामुक विचार! रुक जाओ, दुर्भावनापूर्ण विचार! रुक जाओ, हिंसापूर्ण विचार! बहुत हुआ कामुक विचार! बहुत हुआ, दुर्भावनापूर्ण विचार! बहुत हुआ, हिंसापूर्ण विचार!” 1

तब, आनंद, राजा महासुदर्शन ने महाव्यूह कक्ष में प्रवेश किया, और स्वर्ण के पलंग में बैठकर, कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा।

आगे सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा।

आगे उसने प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस किया। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा।

और आगे, सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा।

तब, आनन्द, राजा महासुदर्शन महाव्यूह कक्ष से निकला, और स्वर्ण के कक्ष में प्रवेश कर चांदी के पलंग पर बैठ गया। और, सद्भावपूर्ण [मेत्ता] चित्त को एक-दिशा में फैलाकर विहार किया। तब, दूसरी-दिशा में, फिर तीसरी-दिशा में, और फिर चौथी-दिशा में। तब ऊपर, नीचे, तत्र सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर निर्द्वेष, विस्तृत विराट असीम सद्भावपूर्ण चित्त फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त किया।

फिर, करुणापूर्ण चित्त को… फिर प्रसन्न [मुदिता] चित्त को… और, फिर तटस्थ [उपेक्खा] चित्त को एक-दिशा में फैलाकर विहार किया। तब, दूसरी-दिशा में, फिर तीसरी-दिशा में, और फिर चौथी-दिशा में। तब ऊपर, नीचे, तत्र सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर निर्द्वेष, विस्तृत विराट असीम तटस्थ चित्त फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त किया।”

६. चौरासी हजार नगर

“आनन्द, राजा महासुदर्शन के चौरासी हजार नगर थे, जिन सभी में कुशावती राजधानी सर्वप्रमुख थी। चौरासी हजार महल थे, जिन सभी में ‘धर्म’ महल सर्वप्रमुख था। चौरासी हजार कक्ष थे, जिन सभी में महाव्यूह कमरा सर्वप्रमुख था। चौरासी हजार बैठक-आसन [=सोफा] थे, स्वर्ण से बने, चांदी से बने, हाथी-दाँत से बने, लकड़ी से बने — लंबे ऊन से आच्छादित, सफ़ेद ऊन से आच्छादित, कढ़ाईकार्य [एँब्रॉयडरी] से आच्छादित, कदली मृगखाल के गलिचों के साथ प्रत्येक पर छत्र एवं दोनों ओर लाल तकिए रखे हुए।

चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत हाथी थे — स्वर्ण पताका एवं स्वर्ण-रेशों के बुने जाल से आच्छादित, जिन सभी में ‘उपोसथ’ नामक हाथी [रत्न] सर्वप्रमुख था। चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत घोड़े थे — स्वर्ण पताका एवं स्वर्ण-रेशों के बुने जाल से आच्छादित, जिन सभी में ‘वलाहक’ नामक अश्व [रत्न] सर्वप्रमुख था। चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत रथ थे — सिंहखाल से बिछे, बाघखाल से बिछे, तेंदुआखाल से बिछे, भगवा कंबलों से बिछे, स्वर्ण पताका एवं स्वर्ण-रेशों के बुने जाल से आच्छादित, जिन सभी में ‘वैजयंत’ नामक रथ सर्वप्रमुख था।

चौरासी हजार मणि थे, जिन सभी में ‘मणिरत्न’ सर्वप्रमुख था। चौरासी हजार स्त्रियाँ थी, जिन सभी में महारानी सुभद्दा सर्वप्रमुख थी। चौरासी हजार वैश्य गृहस्थ थे, जिन सभी में गृहस्थरत्न सर्वप्रमुख था। चौरासी हजार क्षत्रिय थे, जिन सभी में सेनापति-रत्न सर्वप्रमुख था। चौरासी हजार धेनु [दुग्ध] गाएँ थी — उत्तम जूटरस्सी से बंधी, तांबे की दुग्ध बाल्टियों के साथ। चौरासी हजार लंबे वस्त्र थे — सर्वोत्तम लिनन के, सर्वोत्तम कपास के, सर्वोत्तम ऊन के, सर्वोत्तम रेशम के। और, आनन्द, राजा महासुदर्शन के पास चौरासी हजार पकवानों की थालियाँ थी, जो उसे प्रतिदिन सुबह और शाम अर्पित की जाती थी।

अब, उस समय, आनन्द, राजा महासुदर्शन के चौरासी हजार हाथी प्रतिदिन सुबह और शाम की सेवा में हाजिर हुए। तब राजा महासुदर्शन को लगा, “ये चौरासी हजार हाथी प्रतिदिन सुबह और शाम की सेवा में हाजिर हुए हैं। क्यों न प्रत्येक सौ वर्ष बीतने पर इन चौरासी हजार हाथियों में से आधे, बयालीस हजार, हाथी मेरे लिए एक बार सेवा में हाजिर हो?” तब राजा महासुदर्शन ने अपने सेनापति-रत्न को संबोधित किया, “प्रिय सेनापति-रत्न, मैं सोच रहा था कि ये चौरासी हजार हाथी प्रतिदिन सुबह और शाम मेरी सेवा में हाजिर होते हैं। क्यों न प्रत्येक सौ वर्ष बीतने पर इन चौरासी हजार हाथियों में से आधे, बयालीस हजार, हाथी मेरी एक बार सेवा में हाजिर हो?”

“ठीक है, महाराज।” सेनापति-रत्न ने राजा महासुदर्शन को उत्तर दिया। और, प्रत्येक सौ वर्ष बीतने पर इन चौरासी हजार हाथियों में से आधे, बयालीस हजार, हाथी राजा महासुदर्शन की सेवा में हाजिर किए जाने लगे।”

७. सुभद्दा देवी का आगमन

“तब, आनन्द, सुभद्दा देवी [=महारानी] को कई वर्षों के पश्चात, कई सैकड़ों वर्षों के पश्चात, कई हजारों वर्षों के पश्चात लगा, “राजा महासुदर्शन को देखे बहुत समय बीता। क्यों न मैं राजा महासुदर्शन को देखने के लिए उनके पास जाऊँ?”

तब सुभद्दा देवी ने अंतःपुर की स्त्रियॉं को संबोधित किया, “आप लोग सिर धोकर पीले वस्त्र परिधान करें। राजा महासुदर्शन को देखे बहुत समय बीता। हम राजा महासुदर्शन को देखने के लिए उनके पास जाएँगे।”

“ठीक है, आर्ये [=महारानी]।” अंतःपुर की स्त्रियॉं ने सुभद्दा देवी को उत्तर दिया, और सिर धोकर पीले वस्त्र परिधान कर सुभद्दा देवी के पास गयी। तब सुभद्दा देवी ने सेनापति-रत्न को संबोधित किया, “प्रिय सेनापति-रत्न, चार-अंगों वाली सेना को तैयार करो। राजा महासुदर्शन को देखे बहुत समय बीता। हम राजा महासुदर्शन को देखने के लिए उनके पास जाएँगे।”

“ठीक है, देवी।” सेनापति-रत्न ने सुभद्दा देवी को उत्तर दिया, और चार-अंगों वाली सेना को तैयार कर सुभद्दा देवी को सूचित किया, “चार-अंगों वाली सेना तैयार है, देवी। आप जो समय उचित समझे।”

तब सुभद्दा देवी चार-अंगों वाली सेना के साथ, अंतःपुर की स्त्रियॉं के साथ धर्म महल के पास गयी। और जाकर धर्म महल में प्रवेश कर महाव्यूह कक्ष के पास गयी। और, वहाँ महाव्यूह कक्ष के द्वार की चौखट के सहारे खड़ी हुई।

तब, आनन्द, राजा महासुदर्शन ने आवाज सुनी, [सोचते हुए,] “यह कैसी बड़ी भीड़ का आवाज है?” राजा महासुदर्शन महाव्यूह कक्ष से बाहर आया और सुभद्दा देवी को द्वार की चौखट के सहारे खड़ा देखा। देखकर सुभद्दा देवी से कहा, “यही रुको, देवी, भीतर प्रवेश मत करना।”

और राजा महासुदर्शन ने किसी पुरुष को संबोधित किया, “यहाँ आओ, पुरुष, और महाव्यूह कक्ष से स्वर्ण पलंग को लेकर सर्वत्र स्वर्ण ताड़-वन में लगाओ।”

“ठीक है, महाराज।” उस पुरुष ने राजा महासुदर्शन को उत्तर दिया, और महाव्यूह कक्ष से स्वर्ण पलंग को लेकर सर्वत्र स्वर्ण ताड़-वन में लगा दिया। तब, राजा महासुदर्शन दक्षिण की ओर सिर रखकर, सिंह-शैय्या में पैर के ऊपर पैर रखकर, स्मरणशील और सचेत लेट गए। तब सुभद्दा देवी को लगा, “राजा महासुदर्शन की इंद्रियाँ स्पष्ट और प्रसन्न हैं, उनकी त्वचा परिशुद्द और उजालेदार है। कहीं राजा महासुदर्शन की मौत न हो जाएँ!” 2

तब सुभद्दा देवी ने राजा महासुदर्शन से कहा, “महाराज, आप के चौरासी हजार नगर हैं, जिनमें राजधानी कुशावती सर्वप्रमुख है। उनके लिए चाहत उत्पन्न करिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में सोचिए! आप के चौरासी हजार महल हैं, महाराज, जिनमें धर्म महल सर्वप्रमुख है। उनके लिए चाहत उत्पन्न करिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में सोचिए! आप के चौरासी हजार कक्ष हैं, महाराज, जिनमें महाव्यूह कमरा सर्वप्रमुख है। उनके लिए चाहत उत्पन्न करिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में सोचिए!

आप के चौरासी हजार बैठक-आसन हैं, महाराज, स्वर्ण से बने, चांदी से बने, हाथी-दाँत से बने, लकड़ी से बने — लंबे ऊन से आच्छादित, सफ़ेद ऊन से आच्छादित, कढ़ाईकार्य [एँब्रॉयडरी] से आच्छादित, कदली मृगखाल के गलिचों के साथ प्रत्येक पर छत्र एवं दोनों ओर लाल तकिए रखे हुए। उनके लिए चाहत उत्पन्न करिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में सोचिए!

आप के चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत हाथी हैं, महाराज, स्वर्ण पताका एवं स्वर्ण-रेशों के बुने जाल से आच्छादित, जिन सभी में ‘उपोसथ’ नामक हाथी [रत्न] सर्वप्रमुख है। उनके लिए चाहत उत्पन्न करिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में सोचिए!

आप के चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत घोड़े हैं, महाराज, स्वर्ण पताका एवं स्वर्ण-रेशों के बुने जाल से आच्छादित, जिन सभी में ‘वलाहक’ नामक अश्व [रत्न] सर्वप्रमुख है। उनके लिए चाहत उत्पन्न करिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में सोचिए!

आप के चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत रथ हैं, महाराज, सिंहखाल से बिछे, बाघखाल से बिछे, तेंदुआखाल से बिछे, भगवा कंबलों से बिछे, स्वर्ण पताका एवं स्वर्ण-रेशों के बुने जाल से आच्छादित, जिन सभी में ‘वैजयंत’ नामक रथ सर्वप्रमुख है। उनके लिए चाहत उत्पन्न करिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में सोचिए!

आप के चौरासी हजार मणि हैं, महाराज, जिन सभी में ‘मणिरत्न’ सर्वप्रमुख है। उनके लिए चाहत उत्पन्न करिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में सोचिए! आप के चौरासी हजार स्त्रियाँ हैं, महाराज, जिन सभी में स्त्री-रत्न सर्वप्रमुख है। उनके लिए चाहत उत्पन्न करिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में सोचिए! आप के चौरासी हजार वैश्य गृहस्थ हैं, महाराज, जिन सभी में गृहस्थरत्न सर्वप्रमुख है। उनके लिए चाहत उत्पन्न करिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में सोचिए!

आप के चौरासी हजार क्षत्रिय हैं, महाराज, जिन सभी में सेनापति-रत्न सर्वप्रमुख है। उनके लिए चाहत उत्पन्न करिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में सोचिए! आप के चौरासी हजार धेनु गाएँ हैं, महाराज, उत्तम जूटरस्सी से बंधी, तांबे की दुग्ध बाल्टियों के साथ। उनके लिए चाहत उत्पन्न करिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में सोचिए! आप के चौरासी हजार लंबे वस्त्र हैं, महाराज, सर्वोत्तम लिनन के, सर्वोत्तम कपास के, सर्वोत्तम ऊन के, सर्वोत्तम रेशम के। उनके लिए चाहत उत्पन्न करिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में सोचिए! और, आप के चौरासी हजार पकवानों की थालियाँ हैं, महाराज, जो महाराज को प्रतिदिन सुबह और शाम अर्पित की जाती हैं। उनके लिए चाहत उत्पन्न करिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में सोचिए!”

जब ऐसा कहा गया, तब राजा महासुदर्शन ने सुभद्दा देवी से कहा, “दीर्घकाल तक, देवी, आप ने मेरे साथ सुखद, मोहक, प्रिय, और मनचाहा बर्ताव किया है। किन्तु, मेरे अंतिम काल में आप मेरे साथ असुखद, अमोहक, अप्रिय, और अनचाहा बर्ताव कर रही है।”

“तब, मैं कैसे बर्ताव करूँ, महाराज?”

“मेरे साथ, देवी, इस तरह [बोल कर] बर्ताव करो — “महाराज, अन्ततः हमें सभी प्रिय और मनचाहे लोगों से अलग होना होता है, उनके बिना होना होता है, उनके अलावा होना होता है। इसलिए, महाराज, मरते हुए चिंतित न हो! चिंतित के लिए मौत पीड़ादायक होती है। चिंतित होकर मरने की आलोचना होती है। महाराज, आप के चौरासी हजार नगर हैं, जिनमें राजधानी कुशावती सर्वप्रमुख है। उनके लिए चाहत त्याग दीजिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में मत सोचिए! आप के चौरासी हजार महल… चौरासी हजार कक्ष… चौरासी हजार बैठक-आसन… चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत हाथी… चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत घोड़े… चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत रथ… चौरासी हजार मणि… चौरासी हजार स्त्रियाँ… चौरासी हजार गृहस्थ… चौरासी हजार क्षत्रिय… चौरासी हजार धेनु गाएँ… चौरासी हजार लंबे वस्त्र… चौरासी हजार पकवानों की थालियाँ हैं, जो महाराज को प्रतिदिन सुबह और शाम अर्पित की जाती हैं। उनके लिए चाहत त्याग दीजिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में मत सोचिए!”

जब ऐसा कहा गया, आनन्द, तब सुभद्दा देवी रो पड़ी, आँसू बहाने लगी। तब, अंततः सुभद्दा देवी ने अपने आँसू पोछे, और राजा महासुदर्शन से कहा, “महाराज, अन्ततः हमें सभी प्रिय और मनचाहे लोगों से अलग होना होता है, उनके बिना होना होता है, उनके अलावा होना होता है। इसलिए, महाराज, मरते हुए चिंतित न हो! चिंतित के लिए मौत पीड़ादायक होती है। चिंतित होकर मरने की आलोचना होती है। महाराज, आप के चौरासी हजार नगर हैं, जिनमें राजधानी कुशावती सर्वप्रमुख है। उनके लिए चाहत त्याग दीजिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में मत सोचिए! आप के चौरासी हजार महल… चौरासी हजार कक्ष… चौरासी हजार बैठक-आसन… चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत हाथी… चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत घोड़े… चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत रथ… चौरासी हजार मणि… चौरासी हजार स्त्रियाँ… चौरासी हजार गृहस्थ… चौरासी हजार क्षत्रिय… चौरासी हजार धेनु गाएँ… चौरासी हजार लंबे वस्त्र… चौरासी हजार पकवानों की थालियाँ हैं, जो महाराज को प्रतिदिन सुबह और शाम अर्पित की जाती हैं। उनके लिए चाहत त्याग दीजिए, महाराज, जीवित रहने के बारे में मत सोचिए!””

८. ब्रह्मलोक में गति

“तब, आनन्द, राजा महासुदर्शन की जल्द ही मृत्यु हो गयी। और, जैसे, किसी गृहस्थ या गृहस्थ का पुत्र मनोहर भोजन खाकर, भोजन के पश्चात तंद्रा [=हल्की नींद] आती है, उसी तरह, आनन्द, राजा महासुदर्शन को मृत्यु के समय महसूस हुआ। और मरणोपरांत राजा महासुदर्शन की सद्गति होकर, वह ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ।

आनन्द, राजा महासुदर्शन ने चौरासी हजार वर्ष बच्चों के खेल खेले [=बचपना]। चौरासी हजार वर्ष उपराज [=राज प्रतिनिधित्व] किया। चौरासी हजार वर्ष राज किया। चौरासी हजार वर्ष गृहस्थ होकर धर्म महल में रहते हुए ब्रह्मचर्य पालन किया। 3 और चार ब्रह्मविहार को विकसित कर, मरणोपरांत काया छूटने पर ब्रह्मलोक गया।

अब, आनन्द, हो सकता है तुम्हें लगे कि ‘निश्चित ही उस समय राजा महासुदर्शन कोई और होगा।’ किन्तु, तुम्हें ऐसा नहीं देखना चाहिए। मैं ही उस समय राजा महासुदर्शन था।

मेरे ही, आनन्द, चौरासी हजार नगर थे, जिन सभी में राजधानी कुशावती सर्वप्रमुख थी। मेरे ही चौरासी हजार महल थे, जिन सभी में ‘धर्म’ महल सर्वप्रमुख था। मेरे ही चौरासी हजार कक्ष थे, जिन सभी में महाव्यूह कमरा सर्वप्रमुख था। मेरे ही चौरासी हजार बैठक-आसन… चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत हाथी… चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत घोड़े… चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत रथ… चौरासी हजार मणि… चौरासी हजार स्त्रियाँ… चौरासी हजार गृहस्थ… चौरासी हजार क्षत्रिय… चौरासी हजार धेनु गाएँ… चौरासी हजार लंबे वस्त्र… चौरासी हजार पकवानों की थालियाँ थी, जो मुझे प्रतिदिन सुबह और शाम अर्पित की जाती थी।

किन्तु, आनन्द, मैं उस समय उन चौरासी हजार नगरों में से एकमेव नगर, राजधानी कुशावती, में ही रहता था। मैं उस समय उन चौरासी हजार महलों में से एकमेव महल, धर्म महल, में ही रहता था। मैं उस समय उन चौरासी हजार कमरों में से एकमेव कमरा, महाव्यूह कक्ष, में ही रहता था। मैं उस समय उन चौरासी हजार बैठक-आसनों में से एकमेव आसन, स्वर्ण से बने, चांदी से बने, हाथी-दाँत से बने, लकड़ी से बने, में ही बैठता था। मैं उस समय उन चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत हाथियों में से एकमेव हाथी, ‘उपोसथ’ नामक हाथी-रत्न, की सवारी ही करता था। मैं उस समय उन चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत घोड़ों में से एकमेव अश्व, ‘वलाहक’ नामक अश्व-रत्न, की सवारी ही करता था। मैं उस समय उन चौरासी हजार स्वर्ण-अलंकृत रथों में से एकमेव रथ, ‘वैजयंत’ नामक रथ, की सवारी ही करता था। मैं उस समय उन चौरासी हजार स्त्रियॉं में से एकमेव स्त्री, क्षत्रिय या वैश्य स्त्री, से ही सेवा पाता था। मैं उस समय उन चौरासी हजार लंबे वस्त्रों में से एकमेव जोड़ी वस्त्र, लिनन, कपास, ऊन, या रेशम, ही परिधान करता था। मैं उस समय उन चौरासी हजार पकवानों की थालियों में से एकमेव थाली, एक कटोरा चावल और कोई अनुरूप सूप, ही भोजन करता था।

देखो, आनन्द, सभी रचनाएँ बीत गयी, खत्म हुई, बदल गयी। कितनी अनित्य हैं रचनाएँ! कितनी अस्थिर हैं रचनाएँ! कितनी धोखेबाज हैं रचनाएँ! इतना ही, आनन्द, सभी रचनाओं के प्रति मोहभंग होने के लिए पर्याप्त है, विराग होने के लिए पर्याप्त है, विमुक्ति पाने के लिए पर्याप्त है। मुझे छह बार इसी स्थल पर शरीर त्यागना याद हैं। चक्रवर्ती सम्राट, धार्मिक, धर्मराज, चार-दिशाओं के विजेता, दूर-दराज के इलाकों तक स्थिर शासन प्राप्त, सात रत्नों से संपन्न, के रूप में ही मैंने शरीर त्यागा है। और, यह सातवी बार होगा। किन्तु, अब इसके बाद, आनन्द, मैं देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण, ब्राह्मण, राजा और जनता से भरे इस लोक में कोई स्थल नहीं देखता हूँ, जहाँ तथागत आठवी बार शरीर त्यागेंगे।”

भगवान ने ऐसा कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा:

“अनिच्चा वत सङ्खारा,
उप्पादवयधम्मिनो;
उप्पज्जित्वा निरुज्झन्ति,
तेसं वूपसमो सुखो।”

रचनाएँ अनित्य हैं,
उत्पाद और व्यय ही स्वभाव है।
उपजने पर रुक जाए तो,
उनका रुक जाना सुखद है।



महासुदस्सन सुत्र समाप्त।


  1. तीन प्रकार के विचार — कामुक, दुर्भावनापूर्ण, और हिंसक विचारों को मिथ्या-संकल्प कहा जाता है। जब मन गलत दिशा में झुकता है, तब इस गलत झुकाव के परिणामस्वरूप गलत संकल्प उत्पन्न होते हैं। इस स्थिति में व्यक्ति अकुशल बातें बोलता है, पापी कर्म करता है, और अनैतिक आजीविका अपनाता है। इन विचारों और प्रवृत्तियों को त्यागना ही सम्यक-संकल्प कहलाता है, जो ब्रह्मचर्यपूर्ण, सद्भावनापूर्ण और अहिंसक विचारों को अपनाने का एक प्रयास है। जिसका मन इस प्रकार सही दिशा में झुकता है, वह सच्ची बातें बोलता है, नैतिक कर्म करता है, और उचित आजीविका अपनाता है। राजा महासुदर्शन का मन जब सम्यक दिशा में झुका, तब उसे सम्यक-समाधि की चार ध्यान अवस्थाएँ प्राप्त हुईं। इस प्रक्रिया में, वह स्वाभाविक रूप से ब्रह्मविहार में प्रवेश करता है और मरणोपरांत ब्रह्मलोक में सद्गति प्राप्त करता है। ↩︎

  2. मुझे लगता है कि उस समय के संदर्भ में यह अवलोकन स्वाभाविक होगा जब किसी की इंद्रियाँ असाधारण रूप से स्पष्ट और प्रसन्न दिखाई दें, और उसकी त्वचा परिशुद्ध और चमकदार हो। ऐसे संकेतों से यह आभास होता है कि उसका अंतकाल निकट है। इसे आजकल टर्मिनल लूसिडिटी (Terminal Lucidity) कहा जाता है। यह एक दिलचस्प और रहस्यमयी स्थिति है, जिसमें एक व्यक्ति, जो लंबे समय से गंभीर रूप से बीमार या मानसिक रूप से कमजोर है, अचानक कुछ समय के लिए पूरी तरह से स्पष्ट और जागरूक हो जाता है।

    यह आमतौर पर मृत्यु से कुछ ही समय पहले होता है। इस दौरान, लंबे समय तक कोमा में रहने वाले या ब्रेन-डेड मरीज भी अपने प्रियजनों के साथ अद्भुत संवाद करते हैं, भूली-बिसरी यादें साझा करते हैं, और अपनी अंतिम इच्छाएँ व्यक्त करते हैं। यह अनुभव अक्सर परिवार और दोस्तों के लिए चकित करने वाला और भावनात्मक होता है, क्योंकि यह मृत्यु से पहले एक अंतिम और खुले मिलन की तरह महसूस होता है।

    इस स्थिति का महत्व इसलिए है क्योंकि यह मानव चैतन्य (consciousness) की प्रकृति पर ऐसे सवाल उठाता है, जिसका उत्तर आधुनिक मेडिकल साइन्स नहीं दे सकता है। पारंपरिक दृष्टिकोण के अनुसार, मानव चैतन्य मस्तिष्क की क्रियाओं से उत्पन्न होती है। लेकिन टर्मिनल लूसिडिटी के उदाहरण हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या चेतना केवल मस्तिष्क की कार्यप्रणाली का परिणाम है, या क्या इसके पीछे कुछ गहरा और रहस्यमय है। जब एक व्यक्ति गंभीर रोग की वजह से मस्तिष्क की कार्यक्षमता हमेशा के लिए खो देता है, वह भी मृत्यु के करीब होते हुए अभूतपूर्व स्पष्टता प्राप्त करता है, तो यह संकेत देता है कि संभवतः चेतना का कोई अन्य स्तर या आयाम हो सकता है, जो मृत्यु के बाद भी अस्तित्व में रह सकता है।

    इस पर आज के आधुनिक मेडिकल साइन्स का लेख पढ़ें: https://www.psychologytoday.com/intl/blog/out-of-the-darkness/202406/terminal-lucidity?msockid=22d987fbaa186d0a1b5a92a4ab4a6c30 ↩︎

  3. राजा महासुदर्शन का बचपना ८४ हजार वर्षों का, जवानी में राजकुंवर रहते हुए राजधर्म ८४ हजार वर्षों तक सीखना, ८४ हजार वर्षों तक चक्रवर्ती सम्राट बने रहना, और अंतिम ८४ हजार वर्षों तक ब्रह्मचर्य पालन करना। इस तरह, राजा महासुदर्शन की कुल आयु ३,३६,००० वर्षों की रही होगी। ↩︎

Pali

२४१. और मे सुतं – एकं समयं भगवा कुसिनारायं विहरति उपवत्तने मल्लानं सालवने अन्तरेन यमकसालानं परिनिब्बानसमये। अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘मा, भन्ते, भगवा इमस्मिं खुद्दकनगरके उज्जङ्गलनगरके साखानगरके परिनिब्बायि। सन्ति, भन्ते, अञ्ञानि महानगरानि। सेय्यथिदं – चम्पा, राजगहं, सावत्थि, साकेतं, कोसम्बी, बाराणसी; एत्थ भगवा परिनिब्बायतु। एत्थ बहू खत्तियमहासाला ब्राह्मणमहासाला गहपतिमहासाला तथागते अभिप्पसन्ना, ते तथागतस्स सरीरपूजं करिस्सन्ती’’ति।

२४२. ‘‘मा हेवं, आनन्द, अवच; मा हेवं, आनन्द, अवच – खुद्दकनगरकं उज्जङ्गलनगरकं साखानगरक’’न्ति।

कुशावतीराजधानी

‘‘भूतपुब्बं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो नाम अहोसि खत्तियो मुद्धावसित्तो [खत्तियो मुद्धाभिसित्तो (क॰), चक्कवत्तीधम्मिको धम्मराजा (महापरिनिब्बानसुत्त)] चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो। रञ्ञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स अयं कुसिनारा कुशावती नाम राजधानी अहोसि। पुरत्थिमेन च पच्छिमेन च द्वादसयोजनानि आयामेन, उत्तरेन च दक्खिणेन च सत्तयोजनानि वित्थारेन। कुशावती, आनन्द, राजधानी इद्धा चेव अहोसि फीता च बहुजना च आकिण्णमनुस्सा च सुभिक्खा च। सेय्यथापि, आनन्द, देवानं आळकमन्दा नाम राजधानी इद्धा चेव होति फीता च [इद्धा चेव अहोसि फीता च (स्या॰)] बहुजना च आकिण्णयक्खा च सुभिक्खा च; एवमेव खो, आनन्द, कुशावती राजधानी इद्धा चेव अहोसि फीता च बहुजना च आकिण्णमनुस्सा च सुभिक्खा च। कुशावती, आनन्द, राजधानी दसहि सद्देहि अविवित्ता अहोसि दिवा चेव रत्तिञ्च, सेय्यथिदं – हत्थिसद्देन अस्ससद्देन रथसद्देन भेरिसद्देन मुदिङ्गसद्देन वीणासद्देन गीतसद्देन सङ्खसद्देन सम्मसद्देन पाणिताळसद्देन ‘अस्नाथ पिवथ खादथा’ति दसमेन सद्देन।

‘‘कुशावती, आनन्द, राजधानी सत्तहि पाकारेहि परिक्खित्ता अहोसि। एको पाकारो सोवण्णमयो, एको रूपियमयो, एको वेळुरियमयो, एको फलिकमयो, एको लोहितङ्कमयो [लोहितङ्गमयो (क॰), लोहितकमयो (ब्याकरणेसु)], एको मसारगल्लमयो, एको सब्बरतनमयो। कुसावतिया, आनन्द, राजधानिया चतुन्नं वण्णानं द्वारानि अहेसुं। एकं द्वारं सोवण्णमयं, एकं रूपियमयं, एकं वेळुरियमयं, एकं फलिकमयं। एकेकस्मिं द्वारे सत्त सत्त एसिका निखाता अहेसुं तिपोरिसङ्गा तिपोरिसनिखाता द्वादसपोरिसा उब्बेधेन। एका एसिका सोवण्णमया, एका रूपियमया, एका वेळुरियमया, एका फलिकमया, एका लोहितङ्कमया, एका मसारगल्लमया, एका सब्बरतनमया। कुशावती, आनन्द, राजधानी सत्तहि तालपन्तीहि परिक्खित्ता अहोसि। एका तालपन्ति सोवण्णमया, एका रूपियमया, एका वेळुरियमया, एका फलिकमया, एका लोहितङ्कमया, एका मसारगल्लमया, एका सब्बरतनमया। सोवण्णमयस्स तालस्स सोवण्णमयो खन्धो अहोसि, रूपियमयानि पत्तानि च फलानि च। रूपियमयस्स तालस्स रूपियमयो खन्धो अहोसि, सोवण्णमयानि पत्तानि च फलानि च। वेळुरियमयस्स तालस्स वेळुरियमयो खन्धो अहोसि, फलिकमयानि पत्तानि च फलानि च। फलिकमयस्स तालस्स फलिकमयो खन्धो अहोसि, वेळुरियमयानि पत्तानि च फलानि च। लोहितङ्कमयस्स तालस्स लोहितङ्कमयो खन्धो अहोसि, मसारगल्लमयानि पत्तानि च फलानि च। मसारगल्लमयस्स तालस्स मसारगल्लमयो खन्धो अहोसि, लोहितङ्कमयानि पत्तानि च फलानि च। सब्बरतनमयस्स तालस्स सब्बरतनमयो खन्धो अहोसि, सब्बरतनमयानि पत्तानि च फलानि च। तासं खो पनानन्द, तालपन्तीनं वातेरितानं सद्दो अहोसि वग्गु च रजनीयो च खमनीयो [कमनीयो (सी॰ स्या॰ पी॰)] च मदनीयो च। सेय्यथापि, आनन्द, पञ्चङ्गिकस्स तूरियस्स सुविनीतस्स सुप्पटिताळितस्स सुकुसलेहि समन्नाहतस्स सद्दो होति वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च, एवमेव खो, आनन्द, तासं तालपन्तीनं वातेरितानं सद्दो अहोसि वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च। ये खो पनानन्द, तेन समयेन कुसावतिया राजधानिया धुत्ता अहेसुं सोण्डा पिपासा, ते तासं तालपन्तीनं वातेरितानं सद्देन परिचारेसुं।

चक्करतनं

२४३. ‘‘राजा, आनन्द, महासुदस्सनो सत्तहि रतनेहि समन्नागतो अहोसि चतूहि च इद्धीहि। कतमेहि सत्तहि? इधानन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स तदहुपोसथे पन्नरसे सीसंन्हातस्स उपोसथिकस्स उपरिपासादवरगतस्स दिब्बं चक्करतनं पातुरहोसि सहस्सारं सनेमिकं सनाभिकं सब्बाकारपरिपूरं। दिस्वा रञ्ञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि – ‘सुतं खो पनेतं – ‘‘यस्स रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धावसित्तस्स तदहुपोसथे पन्नरसे सीसंन्हातस्स उपोसथिकस्स उपरिपासादवरगतस्स दिब्बं चक्करतनं पातुभवति सहस्सारं सनेमिकं सनाभिकं सब्बाकारपरिपूरं, सो होति राजा चक्कवत्ती’’ति। अस्सं नु खो अहं राजा चक्कवत्ती’ति।

२४४. ‘‘अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो उट्ठायासना एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा वामेन हत्थेन सुवण्णभिङ्कारं गहेत्वा दक्खिणेन हत्थेन चक्करतनं अब्भुक्किरि – ‘पवत्ततु भवं चक्करतनं, अभिविजिनातु भवं चक्करतन’न्ति। अथ खो तं, आनन्द, चक्करतनं पुरत्थिमं दिसं पवत्ति [पवत्तति (स्या॰ क॰)], अन्वदेव [अनुदेव (स्या॰)] राजा महासुदस्सनो सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय, यस्मिं खो पनानन्द, पदेसे चक्करतनं पतिट्ठासि, तत्थ राजा महासुदस्सनो वासं उपगच्छि सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय। ये खो पनानन्द, पुरत्थिमाय दिसाय पटिराजानो, ते राजानं महासुदस्सनं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु – ‘एहि खो महाराज, स्वागतं ते महाराज, सकं ते महाराज, अनुसास महाराजा’ति। राजा महासुदस्सनो एवमाह – ‘पाणो न हन्तब्बो, अदिन्नं न आदातब्बं, कामेसु मिच्छा न चरितब्बा, मुसा न भणितब्बा, मज्जं न पातब्बं, यथाभुत्तञ्च भुञ्जथा’ति। ये खो पनानन्द, पुरत्थिमाय दिसाय पटिराजानो, ते रञ्ञो महासुदस्सनस्स अनुयन्ता अहेसुं। अथ खो तं, आनन्द, चक्करतनं पुरत्थिमं समुद्दं अज्झोगाहेत्वा पच्चुत्तरित्वा दक्खिणं दिसं पवत्ति…पे॰… दक्खिणं समुद्दं अज्झोगाहेत्वा पच्चुत्तरित्वा पच्छिमं दिसं पवत्ति…पे॰… पच्छिमं समुद्दं अज्झोगाहेत्वा पच्चुत्तरित्वा उत्तरं दिसं पवत्ति, अन्वदेव राजा महासुदस्सनो सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय। यस्मिं खो पनानन्द, पदेसे चक्करतनं पतिट्ठासि, तत्थ राजा महासुदस्सनो वासं उपगच्छि सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय। ये खो पनानन्द, उत्तराय दिसाय पटिराजानो, ते राजानं महासुदस्सनं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु – ‘एहि खो महाराज, स्वागतं ते महाराज, सकं ते महाराज, अनुसास महाराजा’ति। राजा महासुदस्सनो एवमाह – ‘पाणो न हन्तब्बो, अदिन्नं न आदातब्बं, कामेसु मिच्छा न चरितब्बा, मुसा न भणितब्बा, मज्जं न पातब्बं, यथाभुत्तञ्च भुञ्जथा’ति। ये खो पनानन्द, उत्तराय दिसाय पटिराजानो, ते रञ्ञो महासुदस्सनस्स अनुयन्ता अहेसुं।

२४५. ‘‘अथ खो तं, आनन्द, चक्करतनं समुद्दपरियन्तं पथविं अभिविजिनित्वा कुसावतिं राजधानिं पच्चागन्त्वा रञ्ञो महासुदस्सनस्स अन्तेपुरद्वारे अत्थकरणपमुखे अक्खाहतं मञ्ञे अट्ठासि रञ्ञो महासुदस्सनस्स अन्तेपुरं उपसोभयमानं। रञ्ञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स एवरूपं चक्करतनं पातुरहोसि।

हत्थिरतनं

२४६. ‘‘पुन चपरं, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स हत्थिरतनं पातुरहोसि सब्बसेतो सत्तप्पतिट्ठो इद्धिमा वेहासङ्गमो उपोसथो नाम नागराजा। तं दिस्वा रञ्ञो महासुदस्सनस्स चित्तं पसीदि – ‘भद्दकं वत भो हत्थियानं, सचे दमथं उपेय्या’ति। अथ खो तं, आनन्द, हत्थिरतनं – सेय्यथापि नाम गन्धहत्थाजानियो दीघरत्तं सुपरिदन्तो, एवमेव दमथं उपगच्छि। भूतपुब्बं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तमेव हत्थिरतनं वीमंसमानो पुब्बण्हसमयं अभिरुहित्वा समुद्दपरियन्तं पथविं अनुयायित्वा कुसावतिं राजधानिं पच्चागन्त्वा पातरासमकासि। रञ्ञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स एवरूपं हत्थिरतनं पातुरहोसि।

अस्सरतनं

२४७. ‘‘पुन चपरं, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स अस्सरतनं पातुरहोसि सब्बसेतो काळसीसो मुञ्जकेसो इद्धिमा वेहासङ्गमो वलाहको नाम अस्सराजा। तं दिस्वा रञ्ञो महासुदस्सनस्स चित्तं पसीदि – ‘भद्दकं वत भो अस्सयानं सचे दमथं उपेय्या’ति। अथ खो तं, आनन्द, अस्सरतनं सेय्यथापि नाम भद्दो अस्साजानियो दीघरत्तं सुपरिदन्तो, एवमेव दमथं उपगच्छि। भूतपुब्बं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तमेव अस्सरतनं वीमंसमानो पुब्बण्हसमयं अभिरुहित्वा समुद्दपरियन्तं पथविं अनुयायित्वा कुसावतिं राजधानिं पच्चागन्त्वा पातरासमकासि। रञ्ञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स एवरूपं अस्सरतनं पातुरहोसि।

मणिरतनं

२४८. ‘‘पुन चपरं, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स मणिरतनं पातुरहोसि। सो अहोसि मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अट्ठंसो सुपरिकम्मकतो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो सब्बाकारसम्पन्नो। तस्स खो पनानन्द, मणिरतनस्स आभा समन्ता योजनं फुटा अहोसि। भूतपुब्बं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तमेव मणिरतनं वीमंसमानो चतुरङ्गिनिं सेनं सन्नय्हित्वा मणिं धजग्गं आरोपेत्वा रत्तन्धकारतिमिसाय पायासि। ये खो पनानन्द, समन्ता गामा अहेसुं, ते तेनोभासेन कम्मन्ते पयोजेसुं दिवाति मञ्ञमाना। रञ्ञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स एवरूपं मणिरतनं पातुरहोसि।

इत्थिरतनं

२४९. ‘‘पुन चपरं, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स इत्थिरतनं पातुरहोसि अभिरूपा दस्सनीया पासादिका परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागता नातिदीघा नातिरस्सा नातिकिसा नातिथूला नातिकाळिका नाच्चोदाता अतिक्कन्ता मानुसिवण्णं [मानुस्सिवण्णं (स्या॰)] अप्पत्ता दिब्बवण्णं। तस्स खो पनानन्द, इत्थिरतनस्स एवरूपो कायसम्फस्सो होति, सेय्यथापि नाम तूलपिचुनो वा कप्पासपिचुनो वा। तस्स खो पनानन्द, इत्थिरतनस्स सीते उण्हानि गत्तानि होन्ति, उण्हे सीतानि। तस्स खो पनानन्द, इत्थिरतनस्स कायतो चन्दनगन्धो वायति, मुखतो उप्पलगन्धो। तं खो पनानन्द, इत्थिरतनं रञ्ञो महासुदस्सनस्स पुब्बुट्ठायिनी अहोसि पच्छानिपातिनी किङ्कारपटिस्साविनी मनापचारिनी पियवादिनी। तं खो पनानन्द, इत्थिरतनं राजानं महासुदस्सनं मनसापि नो अतिचरि [अतिचरी (क॰), अतिचारी (सी॰ स्या॰ पी॰)], कुतो पन कायेन। रञ्ञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स एवरूपं इत्थिरतनं पातुरहोसि।

गहपतिरतनं

२५०. ‘‘पुन चपरं, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स गहपतिरतनं पातुरहोसि। तस्स कम्मविपाकजं दिब्बचक्खु पातुरहोसि येन निधिं पस्सति सस्सामिकम्पि अस्सामिकम्पि। सो राजानं महासुदस्सनं उपसङ्कमित्वा एवमाह – ‘अप्पोस्सुक्को त्वं, देव, होहि, अहं ते धनेन धनकरणीयं करिस्सामी’ति। भूतपुब्बं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तमेव गहपतिरतनं वीमंसमानो नावं अभिरुहित्वा मज्झे गङ्गाय नदिया सोतं ओगाहित्वा गहपतिरतनं एतदवोच – ‘अत्थो मे, गहपति, हिरञ्ञसुवण्णेना’ति। ‘तेन हि, महाराज, एकं तीरं नावा उपेतू’ति। ‘इधेव मे, गहपति, अत्थो हिरञ्ञसुवण्णेना’ति। अथ खो तं, आनन्द, गहपतिरतनं उभोहि हत्थेहि उदकं ओमसित्वा पूरं हिरञ्ञसुवण्णस्स कुम्भिं उद्धरित्वा राजानं महासुदस्सनं एतदवोच – ‘अलमेत्तावता महाराज, कतमेत्तावता महाराज, पूजितमेत्तावता महाराजा’ति? राजा महासुदस्सनो एवमाह – ‘अलमेत्तावता गहपति, कतमेत्तावता गहपति, पूजितमेत्तावता गहपती’ति। रञ्ञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स एवरूपं गहपतिरतनं पातुरहोसि।

परिणायकरतनं

२५१. ‘‘पुन चपरं, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स परिणायकरतनं पातुरहोसि पण्डितो वियत्तो मेधावी पटिबलो राजानं महासुदस्सनं उपयापेतब्बं उपयापेतुं, अपयापेतब्बं अपयापेतुं, ठपेतब्बं ठपेतुं। सो राजानं महासुदस्सनं उपसङ्कमित्वा एवमाह – ‘अप्पोस्सुक्को त्वं, देव, होहि, अहमनुसासिस्सामी’ति। रञ्ञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स एवरूपं परिणायकरतनं पातुरहोसि।

‘‘राजा, आनन्द, महासुदस्सनो इमेहि सत्तहि रतनेहि समन्नागतो अहोसि।

चतुइद्धिसमन्नागतो

२५२. ‘‘राजा, आनन्द, महासुदस्सनो चतूहि इद्धीहि समन्नागतो अहोसि। कतमाहि चतूहि इद्धीहि? इधानन्द, राजा महासुदस्सनो अभिरूपो अहोसि दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो अतिविय अञ्ञेहि मनुस्सेहि। राजा, आनन्द, महासुदस्सनो इमाय पठमाय इद्धिया समन्नागतो अहोसि।

‘‘पुन चपरं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो दीघायुको अहोसि चिरट्ठितिको अतिविय अञ्ञेहि मनुस्सेहि। राजा, आनन्द, महासुदस्सनो इमाय दुतियाय इद्धिया समन्नागतो अहोसि।

‘‘पुन चपरं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो अप्पाबाधो अहोसि अप्पातङ्को समवेपाकिनिया गहणिया समन्नागतो नातिसीताय नाच्चुण्हाय अतिविय अञ्ञेहि मनुस्सेहि। राजा, आनन्द, महासुदस्सनो इमाय ततियाय इद्धिया समन्नागतो अहोसि।

‘‘पुन चपरं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो ब्राह्मणगहपतिकानं पियो अहोसि मनापो। सेय्यथापि, आनन्द, पिता पुत्तानं पियो होति मनापो, एवमेव खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो ब्राह्मणगहपतिकानं पियो अहोसि मनापो। रञ्ञोपि, आनन्द, महासुदस्सनस्स ब्राह्मणगहपतिका पिया अहेसुं मनापा। सेय्यथापि, आनन्द, पितु पुत्ता पिया होन्ति मनापा, एवमेव खो, आनन्द, रञ्ञोपि महासुदस्सनस्स ब्राह्मणगहपतिका पिया अहेसुं मनापा।

‘‘भूतपुब्बं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो चतुरङ्गिनिया सेनाय उय्यानभूमिं निय्यासि। अथ खो, आनन्द, ब्राह्मणगहपतिका राजानं महासुदस्सनं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु – ‘अतरमानो, देव, याहि, यथा तं मयं चिरतरं पस्सेय्यामा’ति। राजापि, आनन्द, महासुदस्सनो सारथिं आमन्तेसि – ‘अतरमानो, सारथि, रथं पेसेहि, यथा अहं ब्राह्मणगहपतिके चिरतरं पस्सेय्य’न्ति। राजा, आनन्द, महासुदस्सनो इमाय चतुत्थिया [चतुत्थाय (स्या॰)] इद्धिया समन्नागतो अहोसि। राजा, आनन्द, महासुदस्सनो इमाहि चतूहि इद्धीहि समन्नागतो अहोसि।

धम्मपासादपोक्खरणी

२५३. ‘‘अथ खो, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि – ‘यंनूनाहं इमासु तालन्तरिकासु धनुसते धनुसते पोक्खरणियो मापेय्य’न्ति।

‘‘मापेसि खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तासु तालन्तरिकासु धनुसते धनुसते पोक्खरणियो। ता खो पनानन्द, पोक्खरणियो चतुन्नं वण्णानं इट्ठकाहि चिता अहेसुं – एका इट्ठका सोवण्णमया, एका रूपियमया, एका वेळुरियमया, एका फलिकमया।

‘‘तासु खो पनानन्द, पोक्खरणीसु चत्तारि चत्तारि सोपानानि अहेसुं चतुन्नं वण्णानं, एकं सोपानं सोवण्णमयं एकं रूपियमयं एकं वेळुरियमयं एकं फलिकमयं। सोवण्णमयस्स सोपानस्स सोवण्णमया थम्भा अहेसुं, रूपियमया सूचियो च उण्हीसञ्च। रूपियमयस्स सोपानस्स रूपियमया थम्भा अहेसुं, सोवण्णमया सूचियो च उण्हीसञ्च। वेळुरियमयस्स सोपानस्स वेळुरियमया थम्भा अहेसुं, फलिकमया सूचियो च उण्हीसञ्च। फलिकमयस्स सोपानस्स फलिकमया थम्भा अहेसुं, वेळुरियमया सूचियो च उण्हीसञ्च। ता खो पनानन्द, पोक्खरणियो द्वीहि वेदिकाहि परिक्खित्ता अहेसुं एका वेदिका सोवण्णमया, एका रूपियमया। सोवण्णमयाय वेदिकाय सोवण्णमया थम्भा अहेसुं, रूपियमया सूचियो च उण्हीसञ्च। रूपियमयाय वेदिकाय रूपियमया थम्भा अहेसुं, सोवण्णमया सूचियो च उण्हीसञ्च। अथ खो, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि – ‘यंनूनाहं इमासु पोक्खरणीसु एवरूपं मालं रोपापेय्यं उप्पलं पदुमं कुमुदं पुण्डरीकं सब्बोतुकं सब्बजनस्स अनावट’न्ति। रोपापेसि खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तासु पोक्खरणीसु एवरूपं मालं उप्पलं पदुमं कुमुदं पुण्डरीकं सब्बोतुकं सब्बजनस्स अनावटं।

२५४. ‘‘अथ खो, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि – ‘यंनूनाहं इमासं पोक्खरणीनं तीरे न्हापके पुरिसे ठपेय्यं, ये आगतागतं जनं न्हापेस्सन्ती’ति। ठपेसि खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तासं पोक्खरणीनं तीरे न्हापके पुरिसे, ये आगतागतं जनं न्हापेसुं।

‘‘अथ खो, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि – ‘यंनूनाहं इमासं पोक्खरणीनं तीरे एवरूपं दानं पट्ठपेय्यं – अन्नं अन्नट्ठिकस्स [अन्नत्थितस्स (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰), और सब्बत्थ पकभिरूपेनेव दिस्सति], पानं पानट्ठिकस्स, वत्थं वत्थट्ठिकस्स, यानं यानट्ठिकस्स, सयनं सयनट्ठिकस्स, इत्थिं इत्थिट्ठिकस्स, हिरञ्ञं हिरञ्ञट्ठिकस्स, सुवण्णं सुवण्णट्ठिकस्सा’ति। पट्ठपेसि खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तासं पोक्खरणीनं तीरे एवरूपं दानं – अन्नं अन्नट्ठिकस्स, पानं पानट्ठिकस्स, वत्थं वत्थट्ठिकस्स, यानं यानट्ठिकस्स, सयनं सयनट्ठिकस्स, इत्थिं इत्थिट्ठिकस्स, हिरञ्ञं हिरञ्ञट्ठिकस्स, सुवण्णं सुवण्णट्ठिकस्स।

२५५. ‘‘अथ खो, आनन्द, ब्राह्मणगहपतिका पहूतं सापतेय्यं आदाय राजानं महासुदस्सनं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु – ‘इदं, देव, पहूतं सापतेय्यं देवञ्ञेव उद्दिस्स आभतं, तं देवो पटिग्गण्हतू’ति। ‘अलं भो, ममपिदं पहूतं सापतेय्यं धम्मिकेन बलिना अभिसङ्खतं, तञ्च वो होतु, इतो च भिय्यो हरथा’ति। ते रञ्ञा पटिक्खित्ता एकमन्तं अपक्कम्म और समचिन्तेसुं – ‘न खो एतं अम्हाकं पतिरूपं, यं मयं इमानि सापतेय्यानि पुनदेव सकानि घरानि पटिहरेय्याम। यंनून मयं रञ्ञो महासुदस्सनस्स निवेसनं मापेय्यामा’ति। ते राजानं महासुदस्सनं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु – ‘निवेसनं ते देव, मापेस्सामा’ति। अधिवासेसि खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तुण्हीभावेन।

२५६. ‘‘अथ खो, आनन्द, सक्को देवानमिन्दो रञ्ञो महासुदस्सनस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्ञाय विस्सकम्मं [विसुकम्मं (क॰)] देवपुत्तं आमन्तेसि – ‘एहि त्वं, सम्म विस्सकम्म, रञ्ञो महासुदस्सनस्स निवेसनं मापेहि धम्मं नाम पासाद’न्ति। ‘और भद्दन्तवा’ति खो, आनन्द, विस्सकम्मो देवपुत्तो सक्कस्स देवानमिन्दस्स पटिस्सुत्वा सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य, एवमेव देवेसु तावतिंसेसु अन्तरहितो रञ्ञो महासुदस्सनस्स पुरतो पातुरहोसि। अथ खो, आनन्द, विस्सकम्मो देवपुत्तो राजानं महासुदस्सनं एतदवोच – ‘निवेसनं ते देव, मापेस्सामि धम्मं नाम पासाद’न्ति। अधिवासेसि खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तुण्हीभावेन।

‘‘मापेसि खो, आनन्द, विस्सकम्मो देवपुत्तो रञ्ञो महासुदस्सनस्स निवेसनं धम्मं नाम पासादं। धम्मो, आनन्द, पासादो पुरत्थिमेन पच्छिमेन च योजनं आयामेन अहोसि। उत्तरेन दक्खिणेन च अड्ढयोजनं वित्थारेन। धम्मस्स, आनन्द, पासादस्स तिपोरिसं उच्चतरेन वत्थु चितं अहोसि चतुन्नं वण्णानं इट्ठकाहि – एका इट्ठका सोवण्णमया, एका रूपियमया, एका वेळुरियमया, एका फलिकमया।

‘‘धम्मस्स, आनन्द, पासादस्स चतुरासीति थम्भसहस्सानि अहेसुं चतुन्नं वण्णानं – एको थम्भो सोवण्णमयो, एको रूपियमयो, एको वेळुरियमयो, एको फलिकमयो। धम्मो, आनन्द, पासादो चतुन्नं वण्णानं फलकेहि सन्थतो अहोसि – एकं फलकं सोवण्णमयं, एकं रूपियमयं, एकं वेळुरियमयं, एकं फलिकमयं।

‘‘धम्मस्स, आनन्द, पासादस्स चतुवीसति सोपानानि अहेसुं चतुन्नं वण्णानं – एकं सोपानं सोवण्णमयं, एकं रूपियमयं, एकं वेळुरियमयं, एकं फलिकमयं। सोवण्णमयस्स सोपानस्स सोवण्णमया थम्भा अहेसुं रूपियमया सूचियो च उण्हीसञ्च। रूपियमयस्स सोपानस्स रूपियमया थम्भा अहेसुं सोवण्णमया सूचियो च उण्हीसञ्च। वेळुरियमयस्स सोपानस्स वेळुरियमया थम्भा अहेसुं फलिकमया सूचियो च उण्हीसञ्च। फलिकमयस्स सोपानस्स फलिकमया थम्भा अहेसुं वेळुरियमया सूचियो च उण्हीसञ्च।

‘‘धम्मे, आनन्द, पासादे चतुरासीति कूटागारसहस्सानि अहेसुं चतुन्नं वण्णानं – एकं कूटागारं सोवण्णमयं, एकं रूपियमयं, एकं वेळुरियमयं, एकं फलिकमयं। सोवण्णमये कूटागारे रूपियमयो पल्लङ्को पञ्ञत्तो अहोसि, रूपियमये कूटागारे सोवण्णमयो पल्लङ्को पञ्ञत्तो अहोसि, वेळुरियमये कूटागारे दन्तमयो पल्लङ्को पञ्ञत्तो अहोसि, फलिकमये कूटागारे सारमयो पल्लङ्को पञ्ञत्तो अहोसि। सोवण्णमयस्स कूटागारस्स द्वारे रूपियमयो तालो ठितो अहोसि, तस्स रूपियमयो खन्धो सोवण्णमयानि पत्तानि च फलानि च। रूपियमयस्स कूटागारस्स द्वारे सोवण्णमयो तालो ठितो अहोसि, तस्स सोवण्णमयो खन्धो, रूपियमयानि पत्तानि च फलानि च। वेळुरियमयस्स कूटागारस्स द्वारे फलिकमयो तालो ठितो अहोसि, तस्स फलिकमयो खन्धो, वेळुरियमयानि पत्तानि च फलानि च। फलिकमयस्स कूटागारस्स द्वारे वेळुरियमयो तालो ठितो अहोसि, तस्स वेळुरियमयो खन्धो, फलिकमयानि पत्तानि च फलानि च।

२५७. ‘‘अथ खो, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि – ‘यंनूनाहं महावियूहस्स कूटागारस्स द्वारे सब्बसोवण्णमयं तालवनं मापेय्यं, यत्थ दिवाविहारं निसीदिस्सामी’ति। मापेसि खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो महावियूहस्स कूटागारस्स द्वारे सब्बसोवण्णमयं तालवनं, यत्थ दिवाविहारं निसीदि। धम्मो, आनन्द, पासादो द्वीहि वेदिकाहि परिक्खित्तो अहोसि, एका वेदिका सोवण्णमया, एका रूपियमया। सोवण्णमयाय वेदिकाय सोवण्णमया थम्भा अहेसुं, रूपियमया सूचियो च उण्हीसञ्च। रूपियमयाय वेदिकाय रूपियमया थम्भा अहेसुं, सोवण्णमया सूचियो च उण्हीसञ्च।

२५८. ‘‘धम्मो, आनन्द, पासादो द्वीहि किङ्किणिकजालेहि [किङ्कणिकजालेहि (स्या॰ क॰)] परिक्खित्तो अहोसि – एकं जालं सोवण्णमयं एकं रूपियमयं। सोवण्णमयस्स जालस्स रूपियमया किङ्किणिका अहेसुं, रूपियमयस्स जालस्स सोवण्णमया किङ्किणिका अहेसुं। तेसं खो पनानन्द, किङ्किणिकजालानं वातेरितानं सद्दो अहोसि वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च। सेय्यथापि, आनन्द, पञ्चङ्गिकस्स तूरियस्स सुविनीतस्स सुप्पटिताळितस्स सुकुसलेहि [कुसलेहि (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] समन्नाहतस्स सद्दो होति, वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च, एवमेव खो, आनन्द, तेसं किङ्किणिकजालानं वातेरितानं सद्दो अहोसि वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च। ये खो पनानन्द, तेन समयेन कुसावतिया राजधानिया धुत्ता अहेसुं सोण्डा पिपासा, ते तेसं किङ्किणिकजालानं वातेरितानं सद्देन परिचारेसुं। निट्ठितो खो पनानन्द, धम्मो पासादो दुद्दिक्खो अहोसि मुसति चक्खूनि। सेय्यथापि, आनन्द, वस्सानं पच्छिमे मासे सरदसमये विद्धे विगतवलाहके देवे आदिच्चो नभं अब्भुस्सक्कमानो [अब्भुग्गममानो (सी॰ पी॰ क॰)] दुद्दिक्खो [दुदिक्खो (पी॰)] होति मुसति चक्खूनि; एवमेव खो, आनन्द, धम्मो पासादो दुद्दिक्खो अहोसि मुसति चक्खूनि।

२५९. ‘‘अथ खो, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि – ‘यंनूनाहं धम्मस्स पासादस्स पुरतो धम्मं नाम पोक्खरणिं मापेय्य’न्ति। मापेसि खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो धम्मस्स पासादस्स पुरतो धम्मं नाम पोक्खरणिं। धम्मा, आनन्द, पोक्खरणी पुरत्थिमेन पच्छिमेन च योजनं आयामेन अहोसि, उत्तरेन दक्खिणेन च अड्ढयोजनं वित्थारेन। धम्मा, आनन्द, पोक्खरणी चतुन्नं वण्णानं इट्ठकाहि चिता अहोसि – एका इट्ठका सोवण्णमया, एका रूपियमया, एका वेळुरियमया, एका फलिकमया।

‘‘धम्माय, आनन्द, पोक्खरणिया चतुवीसति सोपानानि अहेसुं चतुन्नं वण्णानं – एकं सोपानं सोवण्णमयं, एकं रूपियमयं, एकं वेळुरियमयं, एकं फलिकमयं। सोवण्णमयस्स सोपानस्स सोवण्णमया थम्भा अहेसुं रूपियमया सूचियो च उण्हीसञ्च। रूपियमयस्स सोपानस्स रूपियमया थम्भा अहेसुं सोवण्णमया सूचियो च उण्हीसञ्च। वेळुरियमयस्स सोपानस्स वेळुरियमया थम्भा अहेसुं फलिकमया सूचियो च उण्हीसञ्च। फलिकमयस्स सोपानस्स फलिकमया थम्भा अहेसुं वेळुरियमया सूचियो च उण्हीसञ्च।

‘‘धम्मा, आनन्द, पोक्खरणी द्वीहि वेदिकाहि परिक्खित्ता अहोसि – एका वेदिका सोवण्णमया, एका रूपियमया। सोवण्णमयाय वेदिकाय सोवण्णमया थम्भा अहेसुं रूपियमया सूचियो च उण्हीसञ्च। रूपियमयाय वेदिकाय रूपियमया थम्भा अहेसुं सोवण्णमया सूचियो च उण्हीसञ्च।

‘‘धम्मा, आनन्द, पोक्खरणी सत्तहि तालपन्तीहि परिक्खित्ता अहोसि – एका तालपन्ति सोवण्णमया, एका रूपियमया, एका वेळुरियमया, एका फलिकमया, एका लोहितङ्कमया, एका मसारगल्लमया, एका सब्बरतनमया। सोवण्णमयस्स तालस्स सोवण्णमयो खन्धो अहोसि रूपियमयानि पत्तानि च फलानि च। रूपियमयस्स तालस्स रूपियमयो खन्धो अहोसि सोवण्णमयानि पत्तानि च फलानि च। वेळुरियमयस्स तालस्स वेळुरियमयो खन्धो अहोसि फलिकमयानि पत्तानि च फलानि च। फलिकमयस्स तालस्स फलिकमयो खन्धो अहोसि वेळुरियमयानि पत्तानि च फलानि च। लोहितङ्कमयस्स तालस्स लोहितङ्कमयो खन्धो अहोसि मसारगल्लमयानि पत्तानि च फलानि च। मसारगल्लमयस्स तालस्स मसारगल्लमयो खन्धो अहोसि लोहितङ्कमयानि पत्तानि च फलानि च। सब्बरतनमयस्स तालस्स सब्बरतनमयो खन्धो अहोसि, सब्बरतनमयानि पत्तानि च फलानि च। तासं खो पनानन्द, तालपन्तीनं वातेरितानं सद्दो अहोसि, वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च। सेय्यथापि, आनन्द, पञ्चङ्गिकस्स तूरियस्स सुविनीतस्स सुप्पटिताळितस्स सुकुसलेहि समन्नाहतस्स सद्दो होति वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च, एवमेव खो, आनन्द, तासं तालपन्तीनं वातेरितानं सद्दो अहोसि वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च। ये खो पनानन्द, तेन समयेन कुसावतिया राजधानिया धुत्ता अहेसुं सोण्डा पिपासा, ते तासं तालपन्तीनं वातेरितानं सद्देन परिचारेसुं।

‘‘निट्ठिते खो पनानन्द, धम्मे पासादे निट्ठिताय धम्माय च पोक्खरणिया राजा महासुदस्सनो ‘ये [ये को पनानन्द (स्या॰ क॰)] तेन समयेन समणेसु वा समणसम्मता ब्राह्मणेसु वा ब्राह्मणसम्मता’, ते सब्बकामेहि सन्तप्पेत्वा धम्मं पासादं अभिरुहि।

पठमभाणवारो।

झानसम्पत्ति

२६०. ‘‘अथ खो, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि – ‘किस्स नु खो मे इदं कम्मस्स फलं किस्स कम्मस्स विपाको, येनाहं एतरहि औरमहिद्धिको औरमहानुभावो’ति? अथ खो, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि – ‘तिण्णं खो मे इदं कम्मानं फलं तिण्णं कम्मानं विपाको, येनाहं एतरहि औरमहिद्धिको औरमहानुभावो, सेय्यथिदं दानस्स दमस्स संयमस्सा’ति।

‘‘अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो येन महावियूहं कूटागारं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा महावियूहस्स कूटागारस्स द्वारे ठितो उदानं उदानेसि – ‘तिट्ठ, कामवितक्क, तिट्ठ, ब्यापादवितक्क, तिट्ठ, विहिंसावितक्क। एत्तावता कामवितक्क, एत्तावता ब्यापादवितक्क, एत्तावता विहिंसावितक्का’ति।

२६१. ‘‘अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो महावियूहं कूटागारं पविसित्वा सोवण्णमये पल्लङ्के निसिन्नो विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहासि। वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहासि। पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहासि, सतो च सम्पजानो सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेसि, यं तं अरिया आचिक्खन्ति – ‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहासि। सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहासि।

२६२. ‘‘अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो महावियूहा कूटागारा निक्खमित्वा सोवण्णमयं कूटागारं पविसित्वा रूपियमये पल्लङ्के निसिन्नो मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहासि। तथा दुतियं तथा ततियं तथा चतुत्थं। इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहासि। करुणासहगतेन चेतसा…पे॰… मुदितासहगतेन चेतसा…पे॰… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहासि तथा दुतियं तथा ततियं तथा चतुत्थं। इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहासि।

चतुरासीति नगरसहस्सादि

२६३. ‘‘रञ्ञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स चतुरासीति नगरसहस्सानि अहेसुं कुशावतीराजधानिप्पमुखानि; चतुरासीति पासादसहस्सानि अहेसुं धम्मपासादप्पमुखानि; चतुरासीति कूटागारसहस्सानि अहेसुं महावियूहकूटागारप्पमुखानि; चतुरासीति पल्लङ्कसहस्सानि अहेसुं सोवण्णमयानि रूपियमयानि दन्तमयानि सारमयानि गोनकत्थतानि पटिकत्थतानि पटलिकत्थतानि कदलिमिगपवरपच्चत्थरणानि सउत्तरच्छदानि उभतोलोहितकूपधानानि; चतुरासीति नागसहस्सानि अहेसुं सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि उपोसथनागराजप्पमुखानि; चतुरासीति अस्ससहस्सानि अहेसुं सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वलाहकअस्सराजप्पमुखानि; चतुरासीति रथसहस्सानि अहेसुं सीहचम्मपरिवारानि ब्यग्घचम्मपरिवारानि दीपिचम्मपरिवारानि पण्डुकम्बलपरिवारानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वेजयन्तरथप्पमुखानि; चतुरासीति मणिसहस्सानि अहेसुं मणिरतनप्पमुखानि; चतुरासीति इत्थिसहस्सानि अहेसुं सुभद्दादेविप्पमुखानि; चतुरासीति गहपतिसहस्सानि अहेसुं गहपतिरतनप्पमुखानि; चतुरासीति खत्तियसहस्सानि अहेसुं अनुयन्तानि परिणायकरतनप्पमुखानि; चतुरासीति धेनुसहस्सानि अहेसुं दुहसन्दनानि [दुकूलसन्दनानि(पी॰)] दुकूलसन्दानानि [दुकूलसन्दनानि (पी॰) दुकूलसन्दानानि (सं॰ नि॰ ३.९६)] कंसूपधारणानि; चतुरासीति वत्थकोटिसहस्सानि अहेसुं खोमसुखुमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखुमानं कम्बलसुखुमानं; (रञ्ञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स) [( ) सी॰ इपोत्थकेसु नत्थि] चतुरासीति थालिपाकसहस्सानि अहेसुं सायं पातं भत्ताभिहारो अभिहरियित्थ।

२६४. ‘‘तेन खो पनानन्द, समयेन रञ्ञो महासुदस्सनस्स चतुरासीति नागसहस्सानि सायं पातं उपट्ठानं आगच्छन्ति। अथ खो, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि – ‘इमानि खो मे चतुरासीति नागसहस्सानि सायं पातं उपट्ठानं आगच्छन्ति, यंनून वस्ससतस्स वस्ससतस्स अच्चयेन द्वेचत्तालीसं द्वेचत्तालीसं नागसहस्सानि सकिं सकिं उपट्ठानं आगच्छेय्यु’न्ति। अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो परिणायकरतनं आमन्तेसि – ‘इमानि खो मे, सम्म परिणायकरतन, चतुरासीति नागसहस्सानि सायं पातं उपट्ठानं आगच्छन्ति, तेन हि, सम्म परिणायकरतन, वस्ससतस्स वस्ससतस्स अच्चयेन द्वेचत्तालीसं द्वेचत्तालीसं नागसहस्सानि सकिं सकिं उपट्ठानं आगच्छन्तू’ति। ‘और, देवा’ति खो, आनन्द, परिणायकरतनं रञ्ञो महासुदस्सनस्स पच्चस्सोसि। अथ खो, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स अपरेन समयेन वस्ससतस्स वस्ससतस्स अच्चयेन द्वेचत्तालीसं द्वेचत्तालीसं नागसहस्सानि सकिं सकिं उपट्ठानं आगमंसु।

सुभद्दादेविउपसङ्कमनं

२६५. ‘‘अथ खो, आनन्द, सुभद्दाय देविया बहुन्नं वस्सानं बहुन्नं वस्ससतानं बहुन्नं वस्ससहस्सानं अच्चयेन एतदहोसि – ‘चिरं दिट्ठो खो मे राजा महासुदस्सनो। यंनूनाहं राजानं महासुदस्सनं दस्सनाय उपसङ्कमेय्य’न्ति। अथ खो, आनन्द, सुभद्दा देवी इत्थागारं आमन्तेसि – ‘एथ तुम्हे सीसानि न्हायथ पीतानि वत्थानि पारुपथ। चिरं दिट्ठो नो राजा महासुदस्सनो, राजानं महासुदस्सनं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सामा’ति। ‘और, अय्ये’ति खो, आनन्द, इत्थागारं सुभद्दाय देविया पटिस्सुत्वा सीसानि न्हायित्वा पीतानि वत्थानि पारुपित्वा येन सुभद्दा देवी तेनुपसङ्कमि। अथ खो, आनन्द, सुभद्दा देवी परिणायकरतनं आमन्तेसि – ‘कप्पेहि, सम्म परिणायकरतन, चतुरङ्गिनिं सेनं, चिरं दिट्ठो नो राजा महासुदस्सनो, राजानं महासुदस्सनं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सामा’ति। ‘और, देवी’ति खो, आनन्द, परिणायकरतनं सुभद्दाय देविया पटिस्सुत्वा चतुरङ्गिनिं सेनं कप्पापेत्वा सुभद्दाय देविया पटिवेदेसि – ‘कप्पिता खो, देवि, चतुरङ्गिनी सेना, यस्सदानि कालं मञ्ञसी’ति। अथ खो, आनन्द, सुभद्दा देवी चतुरङ्गिनिया सेनाय सद्धिं इत्थागारेन येन धम्मो पासादो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा धम्मं पासादं अभिरुहित्वा येन महावियूहं कूटागारं तेनुपसङ्कमि। उपसङ्कमित्वा महावियूहस्स कूटागारस्स द्वारबाहं आलम्बित्वा अट्ठासि। अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो सद्दं सुत्वा – ‘किं नु खो महतो विय जनकायस्स सद्दो’ति महावियूहा कूटागारा निक्खमन्तो अद्दस सुभद्दं देविं द्वारबाहं आलम्बित्वा ठितं, दिस्वान सुभद्दं देविं एतदवोच – ‘एत्थेव, देवि, तिट्ठ मा पाविसी’ति। अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो अञ्ञतरं पुरिसं आमन्तेसि – ‘एहि त्वं, अम्भो पुरिस, महावियूहा कूटागारा सोवण्णमयं पल्लङ्कं नीहरित्वा सब्बसोवण्णमये तालवने पञ्ञपेही’ति। ‘और, देवा’ति खो, आनन्द, सो पुरिसो रञ्ञो महासुदस्सनस्स पटिस्सुत्वा महावियूहा कूटागारा सोवण्णमयं पल्लङ्कं नीहरित्वा सब्बसोवण्णमये तालवने पञ्ञपेसि। अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो दक्खिणेन पस्सेन सीहसेय्यं कप्पेसि पादे पादं अच्चाधाय सतो सम्पजानो।

२६६. ‘‘अथ खो, आनन्द, सुभद्दाय देविया एतदहोसि – ‘विप्पसन्नानि खो रञ्ञो महासुदस्सनस्स इन्द्रियानि, परिसुद्धो छविवण्णो परियोदातो, मा हेव खो राजा महासुदस्सनो कालमकासी’ति राजानं महासुदस्सनं एतदवोच –

‘इमानि ते, देव, चतुरासीति नगरसहस्सानि कुशावतीराजधानिप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि। इमानि ते, देव, चतुरासीति पासादसहस्सानि धम्मपासादप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि। इमानि ते, देव, चतुरासीति कूटागारसहस्सानि महावियूहकूटागारप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि। इमानि ते, देव, चतुरासीति पल्लङ्कसहस्सानि सोवण्णमयानि रूपियमयानि दन्तमयानि सारमयानि गोनकत्थतानि पटिकत्थतानि पटलिकत्थतानि कदलिमिगपवरपच्चत्थरणानि सउत्तरच्छदानि उभतोलोहितकूपधानानि। एत्थ, देव, छन्दं जनेहि, जीविते अपेक्खं करोहि। इमानि ते, देव, चतुरासीति नागसहस्सानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि उपोसथनागराजप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि। इमानि ते, देव, चतुरासीति अस्ससहस्सानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वलाहकअस्सराजप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि। इमानि ते, देव चतुरासीति रथसहस्सानि सीहचम्मपरिवारानि ब्यग्घचम्मपरिवारानि दीपिचम्मपरिवारानि पण्डुकम्बलपरिवारानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वेजयन्तरथप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि। इमानि ते, देव, चतुरासीति मणिसहस्सानि मणिरतनप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि। इमानि ते, देव, चतुरासीति इत्थिसहस्सानि इत्थिरतनप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि। इमानि ते, देव, चतुरासीति गहपतिसहस्सानि गहपतिरतनप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि। इमानि ते, देव, चतुरासीति खत्तियसहस्सानि अनुयन्तानि परिणायकरतनप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि। इमानि ते, देव, चतुरासीति धेनुसहस्सानि दुहसन्दनानि कंसूपधारणानि। एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि। इमानि ते, देव, चतुरासीति वत्थकोटिसहस्सानि खोमसुखुमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखुमानं कम्बलसुखुमानं। एत्थ, देव, छन्दं जनेहि, जीविते अपेक्खं करोहि। इमानि ते, देव, चतुरासीति थालिपाकसहस्सानि सायं पातं भत्ताभिहारो अभिहरियति। एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोही’ति।

२६७. ‘‘और वुत्ते, आनन्द, राजा महासुदस्सनो सुभद्दं देविं एतदवोच –

‘दीघरत्तं खो मं त्वं, देवि, इट्ठेहि कन्तेहि पियेहि मनापेहि समुदाचरित्थ; अथ च पन मं त्वं पच्छिमे काले अनिट्ठेहि अकन्तेहि अप्पियेहि अमनापेहि समुदाचरसी’ति। ‘कथं चरहि तं, देव, समुदाचरामी’ति? ‘और खो मं त्वं, देवि, समुदाचर – ‘‘सब्बेहेव, देव, पियेहि मनापेहि नानाभावो विनाभावो अञ्ञथाभावो, मा खो त्वं, देव, सापेक्खो कालमकासि, दुक्खा सापेक्खस्स कालङ्किरिया, गरहिता च सापेक्खस्स कालङ्किरिया। इमानि ते, देव, चतुरासीति नगरसहस्सानि कुशावतीराजधानिप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति पासादसहस्सानि धम्मपासादप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति कूटागारसहस्सानि महावियूहकूटागारप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति पल्लङ्कसहस्सानि सोवण्णमयानि रूपियमयानि दन्तमयानि सारमयानि गोनकत्थतानि पटिकत्थतानि पटलिकत्थतानि कदलिमिगपवरपच्चत्थरणानि सउत्तरच्छदानि उभतोलोहितकूपधानानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति नागसहस्सानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि उपोसथनागराजप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति अस्ससहस्सानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वलाहकअस्सराजप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति रथसहस्सानि सीहचम्मपरिवारानि ब्यग्घचम्मपरिवारानि दीपिचम्मपरिवारानि पण्डुकम्बलपरिवारानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वेजयन्तरथप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति मणिसहस्सानि मणिरतनप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति इत्थिसहस्सानि सुभद्दादेविप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति गहपतिसहस्सानि गहपतिरतनप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति खत्तियसहस्सानि अनुयन्तानि परिणायकरतनप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति धेनुसहस्सानि दुहसन्दनानि कंसूपधारणानि। एत्थ देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति वत्थकोटिसहस्सानि खोमसुखुमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखुमानं कम्बलसुखुमानं। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते देव चतुरासीति थालिपाकसहस्सानि सायं पातं भत्ताभिहारो अभिहरियति। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासी’’’ति।

२६८. ‘‘और वुत्ते, आनन्द, सुभद्दा देवी परोदि अस्सूनि पवत्तेसि। अथ खो, आनन्द, सुभद्दा देवी अस्सूनि पुञ्छित्वा [पमज्जित्वा (सी॰ स्या॰ पी॰), पुञ्जित्वा (क॰)] राजानं महासुदस्सनं एतदवोच –

‘सब्बेहेव, देव, पियेहि मनापेहि नानाभावो विनाभावो अञ्ञथाभावो, मा खो त्वं, देव, सापेक्खो कालमकासि, दुक्खा सापेक्खस्स कालङ्किरिया, गरहिता च सापेक्खस्स कालङ्किरिया। इमानि ते, देव, चतुरासीति नगरसहस्सानि कुशावतीराजधानिप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति पासादसहस्सानि धम्मपासादप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति कूटागारसहस्सानि महावियूहकूटागारप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति पल्लङ्कसहस्सानि सोवण्णमयानि रूपियमयानि दन्तमयानि सारमयानि गोनकत्थतानि पटिकत्थतानि पटलिकत्थतानि कदलिमिगपवरपच्चत्थरणानि सउत्तरच्छदानि उभतोलोहितकूपधानानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति नागसहस्सानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि उपोसथनागराजप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति अस्ससहस्सानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वलाहकअस्सराजप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह, जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति रथसहस्सानि सीहचम्मपरिवारानि ब्यग्घचम्मपरिवारानि दीपिचम्मपरिवारानि पण्डुकम्बलपरिवारानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वेजयन्तरथप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति मणिसहस्सानि मणिरतनप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति इत्थिसहस्सानि इत्थिरतनप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह, जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति गहपतिसहस्सानि गहपतिरतनप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति खत्तियसहस्सानि अनुयन्तानि परिणायकरतनप्पमुखानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति धेनुसहस्सानि दुहसन्दनानि कंसूपधारणानि। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति वत्थकोटिसहस्सानि खोमसुखुमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखुमानं कम्बलसुखुमानं। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि। इमानि ते, देव, चतुरासीति थालिपाकसहस्सानि सायं पातं भत्ताभिहारो अभिहरियति। एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासी’ति।

ब्रह्मलोकूपगमं

२६९. ‘‘अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो नचिरस्सेव कालमकासि। सेय्यथापि, आनन्द, गहपतिस्स वा गहपतिपुत्तस्स वा मनुञ्ञं भोजनं भुत्ताविस्स भत्तसम्मदो होति, एवमेव खो, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स मारणन्तिका वेदना अहोसि। कालङ्कतो च, आनन्द, राजा महासुदस्सनो सुगतिं ब्रह्मलोकं उपपज्जि। राजा, आनन्द, महासुदस्सनो चतुरासीति वस्ससहस्सानि कुमारकीळं [कीळितं (क॰), कीळिकं (सी॰ पी॰)] कीळि। चतुरासीति वस्ससहस्सानि ओपरज्जं कारेसि। चतुरासीति वस्ससहस्सानि रज्जं कारेसि। चतुरासीति वस्ससहस्सानि गिहिभूतो [गिहीभूतो (सी॰ पी॰)] धम्मे पासादे ब्रह्मचरियं चरि [ब्रह्मचरियमचरि (क॰)]। सो चत्तारो ब्रह्मविहारे भावेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा ब्रह्मलोकूपगो अहोसि।

२७०. ‘‘सिया खो पनानन्द, एवमस्स – ‘अञ्ञो नून तेन समयेन राजा महासुदस्सनो अहोसी’ति, न खो पनेतं, आनन्द, और दट्ठब्बं। अहं तेन समयेन राजा महासुदस्सनो अहोसिं। मम तानि चतुरासीति नगरसहस्सानि कुशावतीराजधानिप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति पासादसहस्सानि धम्मपासादप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति कूटागारसहस्सानि महावियूहकूटागारप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति पल्लङ्कसहस्सानि सोवण्णमयानि रूपियमयानि दन्तमयानि सारमयानि गोनकत्थतानि पटिकत्थतानि पटलिकत्थतानि कदलिमिगपवरपच्चत्थरणानि सउत्तरच्छदानि उभतोलोहितकूपधानानि, मम तानि चतुरासीति नागसहस्सानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि उपोसथनागराजप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति अस्ससहस्सानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वलाहकअस्सराजप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति रथसहस्सानि सीहचम्मपरिवारानि ब्यग्घचम्मपरिवारानि दीपिचम्मपरिवारानि पण्डुकम्बलपरिवारानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वेजयन्तरथप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति मणिसहस्सानि मणिरतनप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति इत्थिसहस्सानि सुभद्दादेविप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति गहपतिसहस्सानि गहपतिरतनप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति खत्तियसहस्सानि अनुयन्तानि परिणायकरतनप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति धेनुसहस्सानि दुहसन्दनानि कंसूपधारणानि, मम तानि चतुरासीति वत्थकोटिसहस्सानि खोमसुखुमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखुमानं कम्बलसुखुमानं, मम तानि चतुरासीति थालिपाकसहस्सानि सायं पातं भत्ताभिहारो अभिहरियित्थ।

२७१. ‘‘तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिनगरसहस्सानं एकञ्ञेव तं नगरं होति, यं तेन समयेन अज्झावसामि यदिदं कुशावती राजधानी। तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिपासादसहस्सानं एकोयेव सो पासादो होति, यं तेन समयेन अज्झावसामि यदिदं धम्मो पासादो। तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिकूटागारसहस्सानं एकञ्ञेव तं कूटागारं होति, यं तेन समयेन अज्झावसामि यदिदं महावियूहं कूटागारं। तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिपल्लङ्कसहस्सानं एकोयेव सो पल्लङ्को होति, यं तेन समयेन परिभुञ्जामि यदिदं सोवण्णमयो वा रूपियमयो वा दन्तमयो वा सारमयो वा। तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिनागसहस्सानं एकोयेव सो नागो होति, यं तेन समयेन अभिरुहामि यदिदं उपोसथो नागराजा। तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिअस्ससहस्सानं एकोयेव सो अस्सो होति, यं तेन समयेन अभिरुहामि यदिदं वलाहको अस्सराजा। तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिरथसहस्सानं एकोयेव सो रथो होति, यं तेन समयेन अभिरुहामि यदिदं वेजयन्तरथो। तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिइत्थिसहस्सानं एकायेव सा इत्थी होति, या तेन समयेन पच्चुपट्ठाति खत्तियानी वा वेस्सिनी [वेस्सायिनी (स्या॰), वेलामिकानी (क॰ सी॰ पी॰) वेलामिका (सं॰ नि॰ ३.९६)] वा। तेसं खो पनानन्द, वा। तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिवत्थकोटिसहस्सानं एकंयेव तं दुस्सयुगं होति, यं तेन समयेन परिदहामि खोमसुखुमं वा कप्पासिकसुखुमं वा कोसेय्यसुखुमं वा कम्बलसुखुमं वा। तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिथालिपाकसहस्सानं एकोयेव सो थालिपाको होति, यतो नाळिकोदनपरमं भुञ्जामि तदुपियञ्च सूपेय्यं।

२७२. ‘‘पस्सानन्द, सब्बेते सङ्खारा अतीता निरुद्धा विपरिणता। और अनिच्चा खो, आनन्द, सङ्खारा; और अद्धुवा खो, आनन्द, सङ्खारा; और अनस्सासिका खो, आनन्द, सङ्खारा! यावञ्चिदं, आनन्द, अलमेव सब्बसङ्खारेसु निब्बिन्दितुं, अलं विरज्जितुं, अलं विमुच्चितुं।

‘‘छक्खत्तुं खो पनाहं, आनन्द, अभिजानामि इमस्मिं पदेसे सरीरं निक्खिपितं, तञ्च खो राजाव समानो चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियपत्तो सत्तरतनसमन्नागतो, अयं सत्तमो सरीरनिक्खेपो। न खो पनाहं, आनन्द, तं पदेसं समनुपस्सामि सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय यत्थ तथागतो अट्ठमं सरीरं निक्खिपेय्या’’ति। इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था –

‘‘अनिच्चा वत सङ्खारा, उप्पादवयधम्मिनो।

उप्पज्जित्वा निरुज्झन्ति, तेसं वूपसमो सुखो’’ति॥

महासुदस्सनसुत्तं निट्ठितं चतुत्थं।