नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 जनवसभ यक्ष

सूत्र विवेचना

यह सूत्र भी महापरिनिर्वाण सूत्र से प्रारंभ होता है, जब भगवान बुद्ध को आयुष्मान आनन्द ने नातिका में भिक्षुओं, भिक्षुणियों, उपासक और उपासिकाओं की मरणोपरांत गति के बारे में पूछा। भगवान ने उनकी गति के बारे में बताया और तथागत को परेशान न करने के लिए धर्म दर्पण की शिक्षा भी दी। लेकिन इस सूत्र में आयुष्मान आनन्द और भगवान के बीच का संवाद असामान्य प्रतीत होता है, जो किसी प्राचीन सूत्र से मेल नहीं खाता।

यह संभव है कि यह सूत्र उन अंशों में से एक हो जो बाद में सूत्रपिटक में जबरन जोड़े गए हैं। इसकी शब्दावली और वाक्य संरचना प्राचीन सूत्रों से भिन्न हैं, जो इसे संदिग्ध बनाती हैं। कृपया सभी फुटनोट्स का ध्यानपूर्वक अध्ययन करें।

Hindi

१. नातिका में दिव्य गति की घोषणा

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान नातिका में ईंटों से बनी कुटी में विहार कर रहे थे। उस समय भगवान सभी दिशाओं के राज्यों में भ्रमण करते हुए गुजर चुके सेवकों 1 की पुनरुत्पत्ति के बारे में बता रहे थे — काशी और कोसल में, वज्जि और मल्ल में, चेति और वच्छ में, कुरु और पंचाल में, मच्छ और सूरसेन में 2 — “अमुक यहाँ उत्पन्न हुआ है, अमुक वहाँ उत्पन्न हुआ है। नातिका के पचास से अधिक सेवक गुजरने पर निचले पाँच संयोजन तोड़कर स्वप्रकट [=ओपपातिक] हुए हैं, जो वही [शुद्धवास ब्रह्मलोक में] परिनिर्वाण प्राप्त करेंगे, अब इस लोक में नहीं लौटेंगे। नातिका में नब्बे से अधिक सेवक गुजरने पर तीन संयोजन तोड़कर, राग-द्वेष-मोह को दुर्बल कर, सकृदागामी बने हैं, जो इस लोक में दुबारा लौटकर अपने दुःखों का अन्त करेंगे। नातिका में पाँच-सौ से अधिक सेवक गुजरने पर तीन संयोजन तोड़कर श्रोतापन्न बने हैं, अ-पतन स्वभाव के, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर। 3

और, नातिका के सेवकों ने सुना कि “भगवान सभी दिशाओं के राज्यों में भ्रमण करते हुए गुजर चुके सेवकों की पुनरुत्पत्ति के बारे में बता रहे है… “अमुक यहाँ उत्पन्न हुआ है, अमुक वहाँ उत्पन्न हुआ है। नातिका के पचास से अधिक सेवक गुजरने पर निचले पाँच संयोजन तोड़कर अनागामी… नातिका में नब्बे से अधिक सेवक गुजरने पर तीन संयोजन तोड़कर सकृदागामी… नातिका में पाँच-सौ से अधिक सेवक गुजरने पर तीन संयोजन तोड़कर श्रोतापन्न बने हैं, अ-पतन स्वभाव के, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर।” तब भगवान का ऐसा कथन सुनकर नातिका के सेवक प्रसन्न और प्रमुदित हुए, प्रफुल्लता और सुख-सौमन्यस्य से भर गए।

तब, आयुष्मान आनन्द से सुना कि “भगवान सभी दिशाओं के राज्यों में भ्रमण करते हुए गुजर चुके सेवकों की पुनरुत्पत्ति के बारे में बता रहे है… और, भगवान का ऐसा कथन सुनकर नातिका के सेवक प्रसन्न और प्रमुदित हुए, प्रफुल्लता और सुख-सौमन्यस्य से भर गए हैं।”

२. आनन्द का सुझाव

तब, आयुष्मान आनन्द को लगा, “किन्तु, दीर्घकाल से मगध में भी बहुत से सेवक थे, जो गुजर चुके हैं। लगता है मानो, अंग और मगध में गुजर चुका कोई सेवक था ही नहीं। 4 किन्तु, उनकी भी तो बुद्ध पर आस्था थी, धर्म पर आस्था थी, संघ पर आस्था थी। वे भी तो शीलों को परिपूर्ण करते थे। भगवान ने उनकी पुनरुत्पत्ति के बारे में घोषित नहीं किया। ऐसी घोषणा बहुत अच्छी होगी, जिससे बहुजनों की आस्था बढ़ेगी और वे सद्गति प्राप्त करेंगे।

मगध के राजा सेनिय बिम्बीसार भी तो धार्मिक और धर्मराज थे, जो ब्राह्मणों, [वैश्य] गृहस्थों, और दूर-दराज के इलाकों की देहाती जनता के प्रति हितकारक थे। लोग अब भी उनकी प्रशंसा करते रहते हैं, ‘ऐसे धार्मिक धर्मराज हमें सुख देकर चल बसे। उस धार्मिक धर्मराज के राज में हम बड़ी राहत से रहते थे।’ 5 उन्हें भी बुद्ध पर आस्था थी, धर्म पर आस्था थी, संघ पर आस्था थी। वह भी तो शीलों को परिपूर्ण करते थे। लोग कहते हैं कि ‘मगधराज सेनिय बिम्बीसार मरते हुए भी भगवान की प्रशंसा ही करते हुए मरा।’ भगवान ने उनकी पुनरुत्पत्ति के बारे में घोषित नहीं किया। ऐसी घोषणा बहुत अच्छी होगी, जिससे बहुजनों की आस्था बढ़ेगी और वे सद्गति प्राप्त करेंगे। मगध में ही भगवान ने संबोधि भी प्राप्त की। जब मगध में ही भगवान ने संबोधि भी प्राप्त की, तब भगवान ने मगध के सेवकों की पुनरुत्पत्ति के बारे में क्यों नहीं घोषित किया? यदि भगवान मगध के सेवकों की पुनरुत्पत्ति के बारे में घोषित नहीं करते, तो मगध के सेवकों के मन खिन्न हो जाएँगे। जब मगध के सेवकों के मन खिन्न हो, तो भला भगवान उनके बारे में क्यों घोषित नहीं करते हैं?”

इस तरह, आयुष्मान आनन्द ने एकांतवास में अकेले रहते हुए मगध के सेवकों के बारे में सोच-विचार किया, और रात बीतने पर भगवान के पास गए। भगवान के पास जाकर अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान आनन्द ने भगवान से [सब कुछ] कहा, “भगवान सभी दिशाओं के राज्यों में भ्रमण करते हुए गुजर चुके सेवकों की पुनरुत्पत्ति के बारे में बता रहे है… और, भगवान का ऐसा कथन सुनकर नातिका के सेवक प्रसन्न और प्रमुदित हुए, प्रफुल्लता और सुख-सौमन्यस्य से भर गए हैं। किन्तु, दीर्घकाल से मगध में भी बहुत से सेवक थे, जो गुजर चुके हैं। लगता है मानो, अंग और मगध में गुजर चुका कोई सेवक था ही नहीं… मगध के राजा सेनिय बिम्बीसार भी तो धार्मिक और धर्मराज थे… जब मगध के सेवकों के मन खिन्न हो, तो भला भगवान उनके बारे में क्यों घोषित नहीं करते हैं?” 6

इस तरह, आयुष्मान आनन्द ने भगवान के सम्मुख मगध के सेवकों के बारे में सुझाव देकर अपने आसन से उठे, और भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर चले गए। तब आयुष्मान आनन्द को जाकर अधिक समय नहीं हुआ था, जब सुबह होने पर भगवान अपना पात्र और चीवर लेकर नातिका में भिक्षाटन के लिए गए। नातिका में भिक्षाटन कर भोजन करने के पश्चात, पैर धोकर ईंटों से बनी कुटी में प्रवेश कर, मगध के सेवकों पर अपना सारा चित्त लगाकर ध्यान देकर गौर किया 7, और बिछे आसन पर बैठ गए, [सोचते हुए,] “मैं उनकी भावी पुनर्जन्म की गति पता लगाऊँगा। आख़िर वे भावी पुनर्जन्म में कहाँ जन्में हैं।” और, तब भगवान ने मगध के सेवकों को देखा, “ओ! तो यहाँ उन्होने भावी पुनर्जन्म लिया हैं।”

तब भगवान सायंकाल के समय एकांतवास से उठ, ईंटों से बनी कुटी से निकले, और विहार के पीछे छाया में बिछे आसन पर बैठ गए। तब आयुष्मान आनन्द भगवान के पास गए, और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “भंते, भगवान बहुत ही शान्त दिखायी दे रहे है, इंद्रियाँ प्रसन्न होकर चेहरे का रंग उजालेदार दिखायी दे रहा है। भंते, क्या भगवान ने आज शान्तिपूर्वक विहार किया?”

“आनन्द, जब तुमने मेरे सम्मुख मगध के सेवकों के बारे में सुझाव देकर अपने आसन से उठे, तब सुबह होने पर मैंने अपना पात्र और चीवर लेकर नातिका में भिक्षाटन के लिए गया। नातिका में भिक्षाटन कर भोजन करने के पश्चात, पैर धोकर ईंटों से बनी कुटी में प्रवेश कर, मगध के सेवकों पर अपना सारा चित्त लगाकर ध्यान देकर गौर किया, और बिछे आसन पर बैठ गया, [सोचते हुए,] “मैं उनकी भावी पुनर्जन्म की गति पता लगाऊँगा। आख़िर वे भावी पुनर्जन्म में कहाँ जन्में हैं।” और, तब मैंने मगध के सेवकों को देखा, “ओ! तो यहाँ उन्होने भावी पुनर्जन्म लिया हैं।”

३. यक्ष जनवसभ

“और, आनन्द, तब एक अदृश्य यक्ष ने पुकारा, “भगवान, मैं जनवसभ हूँ! सुगत, मैं जनवसभ हूँ! आनन्द, क्या तुमने पहले ऐसा कोई ‘जनवसभ’ नाम सुना है?” 8

“नहीं, भंते। मैंने पहले ऐसा कोई ‘जनवसभ’ नाम नहीं सुना। भंते, किन्तु जनवसभ का नाम सुनते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए हैं। मुझे लगता है, भंते, यह कोई साधारण यक्ष नहीं होगा, जो ‘जनवसभ’ जैसा ऊँचा नाम धारण करता है।”

“विलुप्त रहकर 9 आवाज सुनाने के पश्चात, आनन्द, एक बहुत ही सुंदर यक्ष मेरे सम्मुख प्रकट हुआ। और दूसरी बार अपनी आवाज सुनायी, ‘मैं बिम्बीसार हूँ, भगवान!’ मैं बिम्बीसार हूँ, सुगत! मैं, भंते, यह सातवी बार वेस्सवण महाराज [चार महाराज देवता में से एक, यक्षों का महाराज वैष्णव या कुबेर] के साथ उत्पन्न हुआ हूँ। मैं यहाँ से गुजरने पर पुनः मनुष्यों में राजा बनूँगा।”

यहाँ से सात, वहाँ से सात,
चौदह जन्मों का संसरण
अपने जन्मों को जानता हूँ
जहाँ भी मैं जीया हूँ।

दीर्घकाल से, भंते, मैं जानता हूँ कि मैं [अधोगति में नहीं गिरने वाला] अ-पतन स्वभाव का हूँ, किन्तु मैं सकृदागामी होने की आस लगा कर हूँ।”

“आश्चर्य है, आयुष्मान जनवसभ यक्ष! अद्भुत है, आयुष्मान जनवसभ यक्ष! जो कहते हो कि ‘दीर्घकाल से, भंते, मैं जानता हूँ कि मैं अ-पतन स्वभाव का हूँ, किन्तु मैं सकृदागामी होने की आस लगा कर हूँ।’ किन्तु, किस स्त्रोत से, आयुष्मान जनवसभ यक्ष, जानते हो कि तुम्हें ऐसी ऊँची और विशेष अवस्था प्राप्त है?” 10

“और कोई दूसरा नहीं, भगवान, आप ही की सूचना से! और कोई दूसरा नहीं, सुगत, आप ही की सूचना से। जब से, भंते, भगवान पर अटूट आस्था आयी है, तब दीर्घकाल से ही, भंते, मैं जानता हूँ कि मैं अ-पतन स्वभाव का हूँ। किन्तु मैं सकृदागामी होने की आस लगा कर हूँ। भंते, अभी मुझे वेस्सवण महाराज ने विरूळ्हक [चार महाराज देवता में से दूसरा, कुंभण्ड देवताओं का महाराज] महाराज के पास किसी कार्य से भेजा है। तब, बीच रास्ते में मुझे भगवान दिखायी दिए, ईंटों से बनी कुटी में मगध के सेवकों पर अपना सारा चित्त लगाकर ध्यान देकर गौर करते हुए, बिछे आसन पर बैठकर[सोचते हुए,] “मैं उनकी भावी पुनर्जन्म की गति पता लगाऊँगा। आख़िर वे भावी पुनर्जन्म में कहाँ जन्में हैं।” और, भंते, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि मैंने वेस्सवण महाराज के परिषद में उनके मुख से, उनके सम्मुख यह ग्रहण किया है कि उनका भावी पुनर्जन्म क्या हुआ है। तब मुझे लगा, “मैं भगवान का दर्शन लूँगा, और भगवान को सूचित भी कर दूँगा।” इन्ही दो कारणों से, भंते, मैं भगवान के दर्शन के लिए आया हूँ।”

४. देव-सभा

“भंते, कुछ ही दिनों पहले वर्षा शुरू होने के समय [वैशाख] पुर्णिमा-उपोसथ की रात, तैतीस देवतागण सुधम्म सभा में एकत्र होकर बैठे थे। सभी ओर बहुत बड़ी दिव्य-परिषद बैठी थी। चार-दिशाओं के चार महाराज देवता भी बैठे थे। पूर्व-दिशा के [गंधब्ब] महाराज धतरट्ठ [धृतराष्ट्र] पश्चिम की ओर मुख कर के पूर्व में बैठे थे। दक्षिण-दिशा के [कुंभण्ड] महाराज विरूळ्हक [विरुल्हक] उत्तर की ओर मुख कर के दक्षिण में बैठे थे। पश्चिम-दिशा के [नाग] महाराज विरूपक्ख [विरूपाक्ष] पूर्व की ओर मुख कर के पश्चिम में बैठे थे। और, उत्तर-दिशा के [यक्ष] महाराज वेस्सवण [वैष्णव, कुबेर] दक्षिण की ओर मुख कर के उत्तर में बैठे थे। भंते, जब भी तैतीस देवतागण सुधम्म सभा में एकत्र होकर बैठते हैं, सभी ओर बहुत बड़ी दिव्य-परिषद बैठती है, तब इसी तरह चार-दिशाओं के चार महाराज देवता भी बैठते हैं। उनके पीछे हमारा आसन होता हैं।

भंते, जो भी देवतागण भगवान का ब्रह्मचर्य पालन कर के हाल ही में तैतीस देवलोक में उत्पन्न हुए हैं, वे वर्ण [=सौंदर्य] और यश [=प्रभाव] में दूसरे देवताओं को फीका करते हैं। इस पर तैतीस देवतागण प्रसन्न और प्रमुदित हुए, प्रफुल्लता और सुख-सौमन्यस्य से भर गए, [कहते हुए,] “देवलोक भर गया है! असुरलोक क्षीण हो गया है!” तब, देवराज इन्द्र सक्क [=सक्षम] ने उन देवताओं की प्रसन्नता देखकर इन गाथाओं से अनुमोदन किया:

"प्रसन्न हुए देवता महाशय,
इन्द्र के साथ तैतीस देवतागण,
तथागत को नमन करते हैं,
और उनके धर्म की सुधर्मता को।

नए देवताओं को देखकर,
इतने सौंदर्यवान और प्रभावशाली,
सुगत का ब्रह्मचर्य पालन कर,
जो यहाँ पर आ गए।

वे दूसरों को फीका करते हैं,
सौंदर्य, प्रभाव, और आयु में।
विराट प्रज्ञावान [=बुद्ध] के जो श्रावक,
यहाँ विशेष-अवस्था प्राप्त हैं।

यह देखकर आनंदित होते,
इन्द्र के साथ तैतीस देवतागण।
तथागत को नमन करते हैं,
और उनके धर्म की सुधर्मता को।"

तब, उस पर तैतीस देवतागण और भी अधिक प्रसन्न और प्रमुदित हुए, प्रफुल्लता और सुख-सौमन्यस्य से भर गए, [कहते हुए,] “देवलोक भर गया है! असुरलोक क्षीण हो गया है!” तब, भंते, जिस कार्य से तैतीस देवतागण सुधम्म सभा में एकत्र होकर बैठे थे, उस उद्देश्य पर ध्यान केन्द्रित कर, उस उद्देश्य की चर्चा कर, उस विषय में चार महाराज देवताओं को आदेश दिया। उस विषय पर चार महाराज देवताओं ने भी अपनी बात कही और समर्थन किया। तब, हर कोई चले न जाकर अपने आसन पर खड़ा हुआ।

महाराजा अपनी बात कहकर,
मिले आदेशों को ग्रहण किया।
फिर प्रसन्न और शांत मन से,
अपने आसन पर खड़े हुए।

तब, भंते, उत्तर-दिशा में देवताओं के दिव्य-तेज से भी परे एक बड़ा तेज उत्पन्न हुआ। तब देवराज इन्द्र सक्क ने देवताओं को संबोधित किया, “श्रीमानों, जब इस तरह संकेत दिखते हैं — प्रकाश होता है, उजाला होता है, तब ब्रह्मा प्रकट होता है। चूँकि ये ही ब्रह्मा के प्रकट होने के पूर्व-संकेत हैं — प्रकाश होना, उजाला होना, तब ब्रह्मा प्रकट होना!”

जब ऐसे संकेत दिखते हैं,
तब ब्रह्मा प्रकट होता है।
ब्रह्मा के ये संकेत हैं,
बड़ा विपुल उजाला होता है।

५. सनङ्कुमार ब्रह्मा

“तब, भंते, तैतीस देवता अपने आसन पर बैठ गए, [कहते हुए,] “हम इस उजाले का कारण जान कर, इसका फल देखकर, साक्षात्कार कर के ही जाएँगे।” तब चार महाराज देवता भी अपने आसन पर बैठ गए, [कहते हुए,] “हम इस उजाले का कारण जान कर, इसका फल देखकर, साक्षात्कार कर के ही जाएँगे।” जब ऐसा कहा गया, तो अन्य तैतीस देवतागण ने भी एकता में हामी भरी, “हम इस उजाले का कारण जान कर, इसका फल देखकर, साक्षात्कार कर के ही जाएँगे।”

तब, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार [सनत्कुमार=जो सदैव युवा दिखता है] तैतीस देवताओं में प्रकट हुआ, स्वयं को स्थूल आत्मभाव में अभिनिर्मित कर, प्रकट हुआ। क्योंकि, भंते, ब्रह्मा का प्राकृतिक वर्ण तैतीस देवताओं की आँखों के लिए दिखना असाध्य है। 11 और, जब ब्रह्मा सनङ्कुमार तैतीस देवताओं में प्रकट हुआ, उसने वर्ण और यश में तैतीस देवताओं को फीका कर दिया। जैसे, भंते, कोई स्वर्णिम मूर्ति मानवीय मूर्ति को फीका कर देती है। उसी तरह, जब ब्रह्मा सनङ्कुमार तैतीस देवताओं में प्रकट हुआ, उसने वर्ण और यश में तैतीस देवताओं को फीका कर दिया।

भंते, जब ब्रह्मा सनङ्कुमार तैतीस देवताओं में प्रकट हुआ, तब उस परिषद का कोई भी देवता अभिवादन करने के लिए खड़ा नहीं हुआ, बैठने के लिए अपना आसन नहीं दिया। सभी मौन होकर अपने बैठक-आसन पर हाथ-जोड़कर बैठे रहें, [सोचते हुए,] “ब्रह्मा सनङ्कुमार जिस देवता के बैठक-आसन की इच्छा करेगा, उस देवता के बैठक-आसन पर जाकर बैठेगा।” और, ब्रह्मा सनङ्कुमार जिस देवता के बैठक-आसन पर बैठा, उस देवता को बहुत ऊँची अनुभूति होती है, अत्याधिक खुशी मिलती है। जैसे, भंते, किसी क्षत्रिय राजा को राज-तिलक लगाकर राज्याभिषेक किया जा रहा हो, तो उसे जिस तरह बहुत ऊँची अनुभूति होती है, अत्याधिक खुशी मिलती है। उसी तरह, ब्रह्मा सनङ्कुमार जिस देवता के बैठक-आसन पर बैठता है, उस देवता को बहुत ऊँची अनुभूति होती है, अत्याधिक खुशी मिलती है।

तब, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने स्वयं को स्थूल आत्मभाव में अभिनिर्मित कर, युवावर्ण पञ्चशिख [एक रूपवान और मस्तमौला गंधब्ब] के रूप में तैतीस देवताओं के आगे प्रकट हुआ। वह आकाश में ऊपर उठकर अन्तरिक्ष में पालथी मार बैठ गया। जैसे, कोई बलवान पुरुष सुप्रतिष्ठित बैठक-आसन पर, या समतल भूमि पर, पालथी मार कर बैठ जाए। उसी तरह, ब्रह्मा सनङ्कुमार आकाश में ऊपर उठकर अन्तरिक्ष में पालथी मार बैठ गया। और, तैतीस देवताओं को संतुष्ट करने वाली गाथाओं से अनुमोदन किया:

"प्रसन्न हुए देवता महाशय,
इन्द्र के साथ तैतीस देवतागण,
तथागत को नमन करते हैं,
और उनके धर्म की सुधर्मता को।

नए देवताओं को देखकर,
इतने सौंदर्यवान और प्रभावशाली,
सुगत का ब्रह्मचर्य पालन कर,
जो यहाँ पर आ गए।

वे दूसरों को फीका करते हैं,
सौंदर्य, प्रभाव, और आयु में।
विराट प्रज्ञावान के जो श्रावक,
यहाँ विशेष-अवस्था प्राप्त हैं।

यह देखकर आनंदित होते,
इन्द्र के साथ तैतीस देवतागण।
तथागत को नमन करते हैं,
और उनके धर्म की सुधर्मता को।"

इसी अर्थ के साथ, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने अपनी बात कही। और, जब ब्रह्मा सनङ्कुमार ने इसी अर्थ के साथ अपनी बात कही, तब उसका निकला स्वर आठ अंगों से संपन्न था — (१) स्पष्ट, (२) समझने में सरल, (३) आकर्षक, (४) सुनने योग्य, (५) ठोस, (६) अविकृत, (७) गहरी, और (८) गूँजने वाली। और, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार का स्वर ठीक परिषद की सीमा तक समझा जाता था। उसका घोष परिषद के बाहर नहीं जाता था। भंते, जब किसी का स्वर इन आठ अंगों से संपन्न हो, तो उसका ब्रह्मस्वर कहा जाता हैं।

तब ब्रह्मा सनङ्कुमार ने स्वयं को तैतीस आत्मभाव में अभिनिर्मित कर, तैतीस देवताओं के प्रत्येक बैठक-आसन पर बैठकर तैतीस देवताओं को संबोधित किया, “क्या लगता है आप को, तैतीस देव महाशय? क्या भगवान बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए है? 12 जो भी बुद्ध की शरण गए हैं, धर्म की शरण गए हैं, और संघ की शरण गए हैं, जिन्होने शीलों को परिपूर्ण किया हैं, मरणोपरांत काया छूटने पर, उनमें से कई परनिर्मित वशवर्ती देवताओं के साथ उपजते हैं, कई निर्माणरति देवताओं के साथ उपजते हैं, कई तुषित देवताओं के साथ उपजते हैं, कई याम देवताओं के साथ उपजते हैं, कई तैतीस देवताओं के साथ उपजते हैं, कई चार महाराज देवताओं के साथ उपजते हैं। और उनमें से सबसे हीन काया प्राप्त करने वाले गंधब्ब-लोक को भरते हैं।”

इसी अर्थ के साथ, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने अपनी बात कही। और, ब्रह्मा सनङ्कुमार की बात सुनकर सभी देवताओं को लग रहा था, मानो, “मेरे ही बैठक-आसन पर बैठा अकेला बात कर रहा है।”

जब अकेला बात करता है,
सभी निर्मित रूप बात करते हैं।
जब अकेला मौन बैठता है,
तब सभी मौन हो जाते हैं।

इन्द्र के साथ सभी तैतीस
देवताओं को ऐसा लगा, मानो,
उनके बैठक पर बैठा ही,
अकेला बात करता है।

तब, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने स्वयं को एक ही आत्मभाव में समेट लिया। स्वयं को एक ही आत्मभाव में समेट कर देवराज इन्द्र सक्क के बैठक-आसन पर बैठकर तैतीस देवताओं को संबोधित किया:

६. ऋद्धिपद का विकास

“तो, क्या लगता हैं आप को, तैतीस देवता महाशय? भगवान, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, जो जानते है और देखते है, चार ऋद्धिपदों का कितने बेहतरीन अंदाज में वर्णन किया है, जो ऋद्धियों का विस्तार, ऋद्धियों की वृद्धि, और ऋद्धियों के रूपान्तरण प्रदर्शन के लिए सिखाए गए हैं। कौन-से चार?

• जब कोई भिक्षु चाहत और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल विकसित करता है।

• ऊर्जा और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल विकसित करता है।

• चित्त और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल विकसित करता है।

• विमर्श और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल विकसित करता है।

भगवान, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, जो जानते है और देखते है, ने ये चार ऋद्धिपद सिखाए है, ऋद्धियों का विस्तार, ऋद्धियों की वृद्धि, और ऋद्धियों के रूपान्तरण प्रदर्शन के लिए । जितने भी श्रमण और ब्राह्मण अतीतकाल में हुए, जो अनेक तरह से विविध ऋद्धियों को सिद्ध किया था, उन सभी ने इन्हीं चार ऋद्धिपदों को विकसित कर के, बार-बार कर के ही सिद्ध किया हैं। जितने भी श्रमण और ब्राह्मण भविष्यकाल में होंगे, जो अनेक तरह से विविध ऋद्धियों को सिद्ध करेंगे, वे सभी इन्हीं चार ऋद्धिपदों को विकसित कर के, बार-बार कर के ही सिद्ध करेंगे। जितने भी श्रमण और ब्राह्मण वर्तमानकाल में हुए हैं, जो अनेक तरह से विविध ऋद्धियों को सिद्ध करते हैं, वे सभी इन्हीं चार ऋद्धिपदों को विकसित कर के, बार-बार कर के ही सिद्ध करते हैं। क्या तैतीस देवता महाशय मुझ में ऐसा ऋद्धिबल देखते हैं?”

“हाँ, महाब्रह्म!”

“मैं भी इन्ही चार ऋद्धिपदों को विकसित कर, बार-बार कर, इतना महाऋद्धिमानी और महाप्रभावशाली बना हूँ।”

इसी अर्थ के साथ, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने अपनी बात कही। और फिर, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने तैतीस देवताओं को संबोधित किया:

७. तीन अवसर

“तो, क्या लगता हैं आप को, तैतीस देवता महाशय? भगवान, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, जो जानते है और देखते है, सुख प्राप्त करने के तीन अवसर 13 कितना अच्छे से समझते है? कौन-से तीन?

• ऐसा होता है कि कोई कामुकता में लिप्त होकर, अकुशल स्वभाव में लिप्त होकर 14 रहता है। तब कुछ समय पश्चात, वह आर्यधर्म सुनता है, उचित जगह ध्यान देता है, धर्म के अनुसार धर्म पर चलता है। तब, आर्यधर्म को सुनकर, उचित जगह ध्यान देकर, धर्म के अनुसार धर्म पर चलकर, वह कामुकता से निर्लिप्त होकर, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त होकर रहता है। तब कामुकता से निर्लिप्त होने पर, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त होने पर, उसे सुख उत्पन्न होता है, बहुत सुख और खुशी उत्पन्न होती है।

जैसे, प्रसन्नता से हर्ष उत्पन्न होता है। उसी तरह, महाशयों, कामुकता से निर्लिप्त होने पर, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त होने पर, उसे सुख उत्पन्न होता है, बहुत सुख और खुशी उत्पन्न होती है। यह सुख प्राप्त करने का प्रथम अवसर है, जिसे भगवान, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, जो जानते है और देखते है, ने समझा है।

• आगे, ऐसा होता है कि किसी की स्थूल कायिक-रचनाएँ प्रशान्त नहीं होती हैं, स्थूल वाणी-रचनाएँ प्रशान्त नहीं होती हैं, स्थूल चित्त-रचनाएँ प्रशान्त नहीं होती हैं। 15 तब कुछ समय पश्चात, वह आर्यधर्म सुनता है, उचित जगह ध्यान देता है, धर्म के अनुसार धर्म पर चलता है। तब, आर्यधर्म को सुनकर, उचित जगह ध्यान देकर, धर्म के अनुसार धर्म पर चलकर, उसकी स्थूल कायिक-रचनाएँ प्रशान्त हो जाती हैं, स्थूल वाणी-रचनाएँ प्रशान्त हो जाती हैं, स्थूल चित्त-रचनाएँ प्रशान्त हो जाती हैं। उसकी स्थूल कायिक-रचनाएँ प्रशान्त हो जाने पर, स्थूल वाणी-रचनाएँ प्रशान्त हो जाने पर, स्थूल चित्त-रचनाएँ प्रशान्त हो जाने पर, उसे सुख उत्पन्न होता है, बहुत सुख और खुशी उत्पन्न होती है।

जैसे, प्रसन्नता से हर्ष उत्पन्न होता है। उसी तरह, महाशयों, स्थूल कायिक-रचनाएँ प्रशान्त हो जाने पर, स्थूल वाणी-रचनाएँ प्रशान्त हो जाने पर, स्थूल चित्त-रचनाएँ प्रशान्त हो जाने पर, उसे सुख उत्पन्न होता है, बहुत सुख और खुशी उत्पन्न होती है। यह सुख प्राप्त करने का द्वितीय अवसर है, जिसे भगवान, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, जो जानते है और देखते है, ने समझा है।

• आगे, ऐसा होता है कि कोई ‘यह बात कुशल है,’ इस तरह यथास्वरूप नहीं जानता है, ‘यह बात अकुशल है,’ इस तरह यथास्वरूप नहीं जानता है। ‘यह बात निंदनीय है, यह अनिंदनीय है, यह बात ग्रहण करने लायक है, यह बात ग्रहण करने लायक नहीं है, यह बात हीन है, यह बात उत्तम है, यह बात काले-पक्ष में है, यह बात उजले-पक्ष में है,’ इस तरह यथास्वरूप नहीं जानता है। तब कुछ समय पश्चात, वह आर्यधर्म सुनता है, उचित जगह ध्यान देता है, धर्म के अनुसार धर्म पर चलता है। तब, आर्यधर्म को सुनकर, उचित जगह ध्यान देकर, धर्म के अनुसार धर्म पर चलकर, उसे ‘यह बात कुशल है,’ इस तरह यथास्वरूप जानने लगता है, ‘यह बात अकुशल है,’ इस तरह यथास्वरूप जानने लगता है। ‘यह बात निंदनीय है, यह अनिंदनीय है, यह बात ग्रहण करने लायक है, यह बात ग्रहण करने लायक नहीं है, यह बात हीन है, यह बात उत्तम है, यह बात काले-पक्ष में है, यह बात उजले-पक्ष में है,’ इस तरह यथास्वरूप जानने लगता है। इस तरह जान कर, इस तरह देख कर, उसकी अविद्या छुट जाती है, विद्या उत्पन्न होती है। तब अविद्या के विराग होने पर, और विद्या के उत्पाद होने पर, उसे सुख उत्पन्न होता है, बहुत सुख और खुशी उत्पन्न होती है।

जैसे, प्रसन्नता से हर्ष उत्पन्न होता है। उसी तरह, महाशयों, अविद्या के विराग होने पर, और विद्या के उत्पाद होने पर, उसे सुख उत्पन्न होता है, बहुत सुख और खुशी उत्पन्न होती है। यह सुख प्राप्त करने का तृतीय अवसर है, जिसे भगवान, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, जो जानते है और देखते है, ने समझा है।

इसी अर्थ के साथ, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने अपनी बात कही। और फिर, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने तैतीस देवताओं को संबोधित किया:

८. चार सतिपट्ठान

“तो, क्या लगता हैं आप को, तैतीस देवता महाशय? भगवान, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, जो जानते है और देखते है, कुशलता प्राप्त करने के लिए स्मरणशीलता स्थापित के चार तरीके कितना अच्छे से वर्णन 16 करते है? कौन-से चार?

• यहाँ कोई भिक्षु भीतरी काया को काया देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत, और स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाते हुए। जब वह भीतरी काया को काया देखते हुए रहता है, तब वह सम्यक रूप से समाहित होता है, सम्यक रूप से निर्मल-उजला [“विप्पसीदति”] होता है। तब वह सम्यक रूप से समाहित होकर, सम्यक रूप से निर्मल-उजला होकर, बाहर से दूसरे की काया का ज्ञान-दर्शन उत्पन्न कर, उसे ग्रहण करता है। 17

• आगे, कोई भिक्षु भीतरी संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत, और स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाते हुए। जब वह भीतरी संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है, तब वह सम्यक रूप से समाहित होता है, सम्यक रूप से निर्मल-उजला होता है। तब वह सम्यक रूप से समाहित होकर, सम्यक रूप से निर्मल-उजला होकर, बाहर से दूसरे की संवेदना का ज्ञान-दर्शन उत्पन्न कर, उसे ग्रहण करता है।

• आगे, कोई भिक्षु भीतरी चित्त को चित्त देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत, और स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाते हुए। जब वह भीतरी चित्त को चित्त देखते हुए रहता है, तब वह सम्यक रूप से समाहित होता है, सम्यक रूप से निर्मल-उजला होता है। तब वह सम्यक रूप से समाहित होकर, सम्यक रूप से निर्मल-उजला होकर, बाहर से दूसरे के चित्त का ज्ञान-दर्शन उत्पन्न कर, उसे ग्रहण करता है।

• आगे, कोई भिक्षु भीतरी स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत, और स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाते हुए। जब वह भीतरी स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहता है, तब वह सम्यक रूप से समाहित होता है, सम्यक रूप से निर्मल-उजला होता है। तब वह सम्यक रूप से समाहित होकर, सम्यक रूप से निर्मल-उजला होकर, बाहर से दूसरे के स्वभाव का ज्ञान-दर्शन उत्पन्न कर, उसे ग्रहण करता है।

कुशलता प्राप्त करने के लिए स्मरणशीलता स्थापित के ये चार तरीके, भगवान, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, जो जानते है और देखते है, ने वर्णन किया है।

इसी अर्थ के साथ, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने अपनी बात कही। और फिर, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने तैतीस देवताओं को संबोधित किया:

९. समाधि की सात पूर्व-आवश्यकताएँ

“तो, क्या लगता हैं आप को, तैतीस देवता महाशय? भगवान, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, जो जानते है और देखते है, सम्यक-समाधि की साधना, और सम्यक-समाधि की परिपूर्णता प्राप्त करने के लिए, समाधि की सात पूर्व-आवश्यकताएँ कितना अच्छे से वर्णन 18 करते है? कौन-से सात?

सम्यक-दृष्टि, सम्यक-संकल्प, सम्यक-वचन, सम्यक-कार्य, सम्यक-जीविका, सम्यक-मेहनत, और सम्यक-स्मृति। इन सात अंगों से उपजी चित्त की एकाग्रता को, महाशयों, “आर्य सम्यक-समाधि” कहते हैं, उसकी आधारशिला के साथ, और उसकी पूर्व-आवश्यकताओं के साथ।

सम्यक-दृष्टि से सम्यक-संकल्प उपजते हैं। सम्यक-संकल्प से सम्यक-वचन उपजते हैं। सम्यक-वचन से सम्यक-कार्य उपजते हैं। सम्यक-कार्य से सम्यक-जीविका उपजती है। सम्यक-जीविका से सम्यक-मेहनत उपजती है। सम्यक-मेहनत से सम्यक-स्मृति उपजती है। सम्यक-स्मृति से सम्यक-समाधि उपजती है। सम्यक-समाधि से सम्यक-ज्ञान उपजता है। सम्यक-ज्ञान से सम्यक-विमुक्ति उपजती है।

यदि, महाशयों, कोई सही तरह से कहें कि “वाकई भगवान का धर्म — स्पष्ट बताया है, तुरंत दिखता है, सर्वकालिक है, आजमाने योग्य है, प्रासंगिक है, समझदार द्वारा स्वानुभूति योग्य, अमृत का द्वार खोलने वाला है!” तब कोई इसी तरह सही कहेगा। क्योंकि, महाशयों, वाकई भगवान का धर्म — स्पष्ट बताया है, तुरंत दिखता है, सर्वकालिक है, आजमाने योग्य है, प्रासंगिक है, समझदार द्वारा स्वानुभूति योग्य, अमृत का द्वार खोलने वाला है!

महाशयों, जो बुद्ध पर अटूट आस्था से संपन्न हैं, धर्म पर अटूट आस्था से संपन्न हैं, संघ पर अटूट आस्था से संपन्न हैं, आर्य-पसंदीदा शीलों से संपन्न हैं, जो स्वयं से प्रकट [ओपपातिक] हुए हैं, जो धर्म से अनुशासित हैं, ऐसे मगध के चौबीस लाख से अधिक सेवक गुजरने पर तीन संयोजन तोड़कर श्रोतापन्न बने हैं, अ-पतन स्वभाव के, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर। 19 और, यहाँ सकृदागामी भी हैं।

और जो जनता बच गयी,
जो, मेरे ख्याल से पुण्य में भागीदार थे,
झूठ बोलने के डर से,
मैं उनकी संख्या भी नहीं बता सकता।"

20


इसी अर्थ के साथ, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने अपनी बात कही। और, जब ब्रह्मा सनङ्कुमार अपनी बात कह रहा था, तब वेस्सवण महाराज के चित्त में ऐसा विचार आया, “आश्चर्य है, श्रीमान! अद्भुत है, श्रीमान, कि इतने बेहतरीन शास्ता हुए है, और इतने बेहतरीन तरह से धर्म बताया गया है, और ऐसी बेहतरीन और विशेष-अवस्थाएँ प्राप्त की जा सकती हैं।”

तब, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने अपने चित्त से वेस्सवण महाराज के चित्त में चल रहे विचारों को जान लिया, और वेस्सवण महाराज से कहा, “तुम्हें क्या लगता है, वेस्सवण महाराज? अतीतकाल में भी इतने बेहतरीन शास्ता हुए थे, और इतने बेहतरीन तरह से धर्म बताया गया था, और ऐसी बेहतरीन और विशेष-अवस्थाएँ प्राप्त की जा सकती थी। भविष्यकाल में भी इतने बेहतरीन शास्ता होंगे, और इतने बेहतरीन तरह से धर्म बताया जाएगा, और ऐसी बेहतरीन और विशेष-अवस्थाएँ प्राप्त की जा सकेंगी।”

इसी अर्थ के साथ, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने तैतीस देवताओं से बात की। और, तब वेस्सवण महाराज ने ब्रह्मा सनङ्कुमार के मुख से सुनकर, सम्मुख ग्रहण कर, अपनी परिषद में भी घोषित किया। 21 और, तब जनवसभ यक्ष ने वेस्सवण महाराज की परिषद में उनके मुख से सुनकर, सम्मुख ग्रहण कर, भगवान के सामने घोषित किया। और, तब भगवान ने जनवसभ यक्ष के मुख से सुनकर, सम्मुख ग्रहण कर, आयुष्मान आनन्द के सामने घोषित किया। और, तब आयुष्मान आनन्द ने भगवान के मुख से सुनकर, सम्मुख ग्रहण कर, भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक और उपासिकाओं के सामने घोषित किया। और, इस तरह, ब्रह्मचर्य यशस्वी, समृद्ध, विस्तारित, प्रचारित और प्रसारित होकर सामान्यजन, बहुजन, देवताओं और मनुष्यों में सुप्रकाशित हुआ। 22

जनवसभ सूत्र समाप्त।


  1. परिचारक या सेवक वह व्यक्ति होता है जो बुद्ध धर्म और संघ के प्रति श्रद्धा रखते हुए उनकी सेवा करता है। श्रावक को परिचारक या ‘सेवक’ कहने से यह स्पष्ट होता है कि यह सूत्र बाद में जोड़ा गया है। इसी विषय पर ‘महापरिनिर्वाण सूत्र’ के “नातिका में मृत्यु” अंश में भी उल्लेख मिलता है, लेकिन वहाँ ‘परिचारक’ शब्द का उपयोग नहीं किया गया; बल्कि ‘भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक और उपासिका’ शब्दों का प्रयोग किया गया है। परिचारक शब्द का ऐसा प्रयोग केवल दो अन्य स्थलों पर मिलता है: सुत्तनिपात ५:१८:१.२ और खुद्दकनिकाय १:२२.१४.८ में। यह सामान्य रूप से माना जाता है कि ये दोनों सूत्र सुत्तपिटक में बाद में जोड़े गए हैं। ↩︎

  2. राज्यों की यह सूची केवल इसी सूत्र में पाई जाती है, जो निश्चित रूप से सूत्रपिटक में बहुत बाद में जोड़ी गई है। प्राचीन पालि सूत्रों में सोलह जनपदों का उल्लेख है, जिसमें दक्षिण में ‘अवन्ति’ और ‘अस्सक’, उत्तर-पश्चिम में ‘गन्धार’ और ‘कम्बोज’ शामिल हैं। स्पष्ट है कि प्रथम बौद्ध संगीति के बाद, जम्बूद्वीप के सोलह जनपदों में युद्धों के कारण भू-राजनीतिक स्तर पर परिवर्तन हुए थे। ↩︎

  3. नातिका की यह सूची भी महापरिनिर्वाण सूत्र से मेल नहीं खाती। इस सूत्र की शब्दावली और वाक्य संरचना भी प्राचीन सूत्रों से भिन्न हैं। ↩︎

  4. यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि पुराने महापरिनिर्वाण सूत्र में इनमें से किसी राज्य का उल्लेख नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह पूरा संदर्भ केवल मगध राज्य के बौद्ध महत्व को लेकर जबरन लिखा गया है, जहां महाराज अजातशत्रु का बौद्धों के साथ एक अजीब संबंध था। एक ओर, अजातशत्रु ने पापी देवदत्त के कहने पर अपने पिता, मगधराज बिम्बीसार, जो एक प्रमुख बौद्ध उपासक थे, की हत्या की। दूसरी ओर, वह एक हिंसक, क्रूर, और महत्वाकांक्षी राजा था। यद्यपि बाद में उसने बुद्ध के प्रति श्रद्धा प्रकट की, यह श्रद्धा बहुत सीमित थी। हालांकि, उसे प्रथम बौद्ध संगीति आयोजित करने का श्रेय भी दिया जाता है। मुझे संदेह है कि शायद यह पूरा सूत्र भगवान के परिनिर्वाण के बहुत बाद में सूत्रपिटक में जोड़ दिया गया है। ↩︎

  5. यहाँ अजातशत्रु के शासनकाल की परोक्ष जानकारी मिलती है। स्पष्ट है कि जनता राजा बिम्बीसार के राज को सुखपूर्वक स्मरण करती है, जिससे यह संकेत मिलता है कि अजातशत्रु के शासनकाल में सामाजिक और राजनीतिक स्थिति अच्छी नहीं रही होगी। त्रिपिटक में उनके द्वारा किए गए अनेक युद्धों का उल्लेख मिलता है, जो दर्शाता है कि अपनी अतिमहत्वाकांक्षा के कारण उन्होंने आसपास के राज्यों में युद्ध, तबाही, और अराजकता फैलाई। इस अनुच्छेद से यह भी प्रतीत होता है कि आयुष्मान आनन्द अत्यधिक सांसारिक स्तर पर विचार कर रहे हैं, जो उनके प्राचीन सूत्रों में वर्णित व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता। ↩︎

  6. आयुष्मान आनन्द, प्राचीन सूत्रों में वर्णित अपने प्रसिद्ध व्यक्तित्व के विपरीत, उसी मुद्दे पर भगवान को ‘दबावपूर्ण’ सुझाव दे रहे हैं, जिस पर भगवान ने उन्हें परेशान न करने के लिए पहले ही चेताया था। महापरिनिर्वाण सूत्र में भगवान ने आनन्द से कहा था कि “आनन्द, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि कोई मानव बनने पर गुजर जाते हैं। किन्तु यदि प्रत्येक मौत पर तुम तथागत के पास आकर पुछने लगो तो तथागत को परेशानी होगी। इसलिए, आनन्द, मैं तुम्हें ‘धर्म दर्पण’ नाम का धर्म-उपदेश देता हूँ…” ↩︎

  7. “ध्यान लगाकर गौर करना” यह वाक्य भगवान तब ही उपयोग करते थे जब वे किसी को महत्वपूर्ण धर्म की शिक्षा देने वाले होते। प्राचीन पालि सूत्रों में यह वाक्य हमेशा धर्म बताने वाले के मुख से प्रकट होता है। लेकिन यहाँ, भगवान ने मगध के सेवकों पर “अपना सारा चित्त लगाकर ध्यान देकर गौर किया,” जो अतिशयोक्तिपूर्ण और पूरी तरह से नकली प्रतीत होता है। कई सूत्रों में वर्णित है कि भगवान लोगों की गति को तुरंत पहचान लेते थे, जिसके लिए उन्हें “अपना सारा चित्त लगाकर ध्यान देने” की आवश्यकता नहीं होती थी। ↩︎

  8. जनवसभ का शब्दार्थ है जनता में वृषभ! अर्थात, लोगों का सरदार, मुखिया, सिर, अगुआ, नायक, प्रधान। भगवान को ‘नरासभ’, अर्थात, नरों में वृषभ पुकारते थे। ↩︎

  9. भगवान के समक्ष किसी यक्ष या देवता का “विलुप्त रहकर आवाज सुनाना” विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता और यह प्राचीन सूत्रों के प्रतिकूल है। अनेक प्राचीन ग्रंथों में उल्लेखित है कि भगवान के सामने सबसे शक्तिशाली ब्रह्मा या अत्यधिक सूक्ष्म रूप वाले “मार” भी विलुप्त नहीं रह सकते। भगवान की तीक्ष्ण दृष्टि किसी भी छिपे हुए सत्व को तुंरत पहचान लेती है। यहाँ तक कि “बकब्रह्मा” ने भगवान को चुनौती दी और ऐसा सूक्ष्म रूप धारण किया कि जिसे संसार का कोई प्राणी न देख सके। फिर भी, वह भगवान की दृष्टि से बच नहीं पाया। दूसरी ओर, पापी मार यक्ष के रूप में बकब्रह्मा समेत सभी की आंखों से ओझल रहता है, लेकिन भगवान उसे तुरंत पहचान कर उसके नाम से पुकारते हैं। ↩︎

  10. विनयपिटक में उल्लेख है कि भगवान का उपदेश सुनने पर मगधराज सेनिय बिम्बीसार को, अपनी एक लाख बीस हजार लोगों की प्रजा के साथ, धर्मचक्षु खुले थे। किन्तु, यहाँ वह कहता है कि वह सकृदागामी होने की आस लगा कर है। ऐसा दावा पहले किसी सूत्र में किसी सत्व ने नहीं किया है, और विश्वसनीय नहीं लगता। ↩︎

  11. “पकतिवण्ण” अर्थात, प्राकृतिक वर्ण, “अनभिसम्भवनीय” अर्थात, असाध्य , और “चक्खुपथस्मिं”, अर्थात, आँखों के [रास्ते के] लिए। ये सभी शब्द संपूर्ण पालि त्रिपिटक में इस सूत्र के अलावा और कही उपयोग नहीं हुए हैं। जबकि यही परिस्थिति कई सूत्रों में आयी है। ↩︎

  12. जो भी ब्रह्मा सनङ्कुमार जैसा बड़ा ब्रह्मा कह रहा है, सब कुछ अजीब-सा लगता है। केवल शब्दों के आडंबर लगते हैं। जिन वाक्यों का भगवान बुद्ध ने बहुत सीमित और विशेष जगह उपयोग किया है, उन्हीं को ब्रह्मा सनङ्कुमार, बिना किसी विशेष संदर्भ के, बिना किसी दिशा के, केवल दोहराते हुए नजर आता है। वह देवताओं को जो पूछ रहा है, उसका कोई विशेष अर्थ या महत्व नजर नहीं आता। यदि ऐसी अर्थहीन-सी बातें केवल एक-दो जगह तक सीमित होती, तब भी शायद स्वीकार्य होती। किन्तु, इस सूत्र में लगभग हर जगह ऐसी ही विचित्र, निरर्थक और सस्ती बातें प्रकट होती हैं, और शब्दों के आडंबर में खोकर, बड़े-बड़े उद्घोष करते हुए, प्रसिद्ध और शक्तिशाली बुद्ध-वचनों को बिना-संदर्भ और बिना-दिशा के दोहराते हुए आगे बढ़ती हैं। जाहिर है, व्यक्तिगत तौर पर मुझे इस बनावटी सूत्र से बहुत निराशा हुई है। जैसे-तैसे, बड़ी मुश्किल से, मैं इस सूत्र का अनुवाद पूर्ण कर पाया। ↩︎

  13. विचित्र बात है कि “सुख प्राप्त करने के इन तीन अवसरों” का संपूर्ण त्रिपिटक में और किसी भी जगह उल्लेख नहीं है। ↩︎

  14. लगता है, जैसे इस वाक्य को प्रथम-ध्यान के वाक्य रचना के ठीक विपरीत ढाला गया है। त्रिपिटक में यह बात दुर्लभ है, जिसमें ध्यान-अवस्थाओं के वर्णन के साथ इस तरह खेला गया हो। ↩︎

  15. “स्थूल कायिक, वाचिक और चैतसिक रचनाएँ प्रशान्त नहीं होना” इस तरह की वाक्य-संरचना और बातों को रखना भी त्रिपिटक में और किसी भी जगह मौजूद नहीं है। ↩︎

  16. प्राचीन सूत्रों में उल्लेख होता है कि भगवान ने चार सतिपट्ठान — “सत्वों की विशुद्धि के लिए, शोक और विलाप लाँघने के लिए, दर्द और व्यथा विलुप्त करने के लिए, सही तरीक़ा पाने के लिए, निर्वाण का साक्षात्कार करने के लिए” सिखाया। किन्तु, यहाँ इस सूत्र में सतिपट्ठान साधना करने का बहुत ही भिन्न कारण बताया जाता है, जिसका उद्देश्य लोकुत्तर न होकर, बहुत ही मानवीय और साधारण-सा लगता है। ↩︎

  17. यहाँ भी बहुत ही भिन्न और अजीब तरह से सतिपट्ठान का उद्देश्य और तरीका बताया गया है। सतिपट्ठान के प्रमुख लोकुत्तर उद्देश्य को छोड़कर, यहाँ उसके लोकिय ऋद्धि ज्ञान का उपयोग बताया गया है, जो हीन और निराशाजनक है। ↩︎

  18. आखिरकार, ये बात अजीब नहीं है। ये सात बातें अंगुत्तरनिकाय ७:४५ में भी पायी जाती है। हालाँकि, भगवान ने अनेक सूत्रों में चार सम्यक-प्रधान को सम्यक-समाधि की चार पूर्व-आवश्यकताएँ बतायी है। खैर, यह तथाकथित ब्रह्मा अंततः लोकीय स्तर छोड़कर लोकुत्तर पक्ष में खत्म करता है। ↩︎

  19. मगध से उत्पन्न चौबीस लाख श्रोतापन्नों का आँकड़ा, मेरी व्यक्तिगत राय में, अत्यंत ही अतिशयोक्ति पूर्ण है। हमें इतिहास में इतना निश्चित पता चलता है कि भगवान के परिनिर्वाण के ढाई-सौ वर्षों पश्चात, सम्राट अशोक के समय, पाटलिग्राम के राजधानी पाटलिपुत्र बनने के बाद उसका पच्चीस वर्ग किलोमीटर का क्षेत्रफल और लगभग ढाई लाख जनसंख्या थी, जो उस समय के लिए बहुत ही अधिक थी। मगध सेनिय बिम्बीसार ने मगध के एक लाख बीस हजार की प्रजा के साथ श्रोतापन्न बना था। ऐसे में चौबीस लाख श्रोतापन्नों का आँकड़ा ऐतिहासिक तौर पर विश्वसनीय नहीं लगता। ↩︎

  20. इस पर अट्ठ्कथा आकर विचित्र तरह से कहती है कि ये बात दरअसल अनागामियों की हो रही है। किन्तु, जो जनता बच गयी, जो “पुण्य में भागीदार” हुई, ऐसी बहुत बड़ी संख्या का वर्णन सुनकर साधारण तौर पर लगता है कि यह संख्या उनकी हो सकती है, जो विमुक्ति के बजाय सद्गति पाने के लिए पुण्य में भागीदार हुए थे। अर्थात, निश्चित तौर पर यह आँकड़ा श्रोतापन्नों के तुलना में बड़ा ही होना चाहिए। दुर्लभ अनागामियों का आँकड़ा श्रोतापन्नों और सकृदागामियों की तुलना में बहुत कम होना चाहिए। महापरिनिर्वाण सूत्र में आए नातिका के अंश में भी यही अनुपात दिखायी देता है। हालाँकि, यही गाथा संयुत्तनिकाय ६:१३:७.१ में भी आयी है। किन्तु उस जगह पर अट्ठकथा अनागामियों का कोई जिक्र नहीं करती है। अट्ठकथा का इस तरह का बेहिसाब रवैय्या और वर्णन स्वयं की विश्वसनीयता पर ही बहुत समय प्रश्नचिन्ह उपस्थित करता है। ↩︎

  21. कमाल की बात है कि यह सूत्र अपना स्त्रोत “ब्रह्मा” बताता है। ठीक, जैसे ब्राह्मणी वैदिक सूत्र होते हैं (जैसे बृहदारण्यक उपनिषद ६:५.४)। जरूर, ब्रह्मा ने बुद्ध से ही अपनी सीख ली है, किन्तु इस तरह “ब्रह्मा के मुख से सुनकर, सम्मुख ग्रहण कर, धर्म घोषित करना”, निश्चित तौर पर ब्राह्मणी तरीका ही है। ↩︎

  22. इस विशेष अंदाज में सूत्र की समाप्ति और किसी सूत्र की नहीं हुई। इस तरह, यह सूत्र स्पष्ट संकेत देता है कि इसे बाकी सूत्रों के जैसे भिक्षुओं द्वारा बोला नहीं गया, और याद नहीं किया गया। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात मगध राज्य में धर्म का इस तरह प्रचार प्रसार करने की नौबत आयी होगी कि जिसमें उनके उपासकों के लिए एक विशेष सूत्र को रचा गया, ताकि उन्हें खुश किया जा सके। किन्तु, यह निराशाजनक सूत्र धर्म में कुछ भी मूल्यवान नहीं जोड़ता है, और भगवान और आनन्द के चरित्र को अत्यंत साधारण, बेतुका और लोकिय बनाता है। ↩︎

Pali

नातिकियादिब्याकरणं

२७३. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा नातिके [नादिके (सी॰ स्या॰ पी॰)] विहरति गिञ्जकावसथे। तेन खो पन समयेन भगवा परितो परितो जनपदेसु परिचारके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु ब्याकरोति कासिकोसलेसु वज्जिमल्लेसु चेतिवंसेसु [चेतियवंसेसु (क॰)] कुरुपञ्चालेसु मज्झसूरसेनेसु [मच्छसुरसेनेसु (स्या॰), मच्छसूरसेनेसु (सी॰ पी॰)] – ‘‘असु अमुत्र उपपन्नो, असु अमुत्र उपपन्नो [उपपन्नोति (क॰)]। परोपञ्ञास नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनो अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका। साधिका नवुति नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामिनो, सकिदेव [सकिंदेव (क॰)] इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति। सातिरेकानि पञ्चसतानि नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा’’ति।

२७४. अस्सोसुं खो नातिकिया परिचारका – ‘‘भगवा किर परितो परितो जनपदेसु परिचारके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु ब्याकरोति कासिकोसलेसु वज्जिमल्लेसु चेतिवंसेसु कुरुपञ्चालेसु मज्झसूरसेनेसु – ‘असु अमुत्र उपपन्नो, असु अमुत्र उपपन्नो। परोपञ्ञास नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनो अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका। साधिका नवुति नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामिनो सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति। सातिरेकानि पञ्चसतानि नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा’ति। तेन च नातिकिया परिचारका अत्तमना अहेसुं पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता भगवतो पञ्हवेय्याकरणं [पञ्हावेय्याकरणं (स्या॰ क॰)] सुत्वा।

२७५. अस्सोसि खो आयस्मा आनन्दो – ‘‘भगवा किर परितो परितो जनपदेसु परिचारके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु ब्याकरोति कासिकोसलेसु वज्जिमल्लेसु चेतिवंसेसु कुरुपञ्चालेसु मज्झसूरसेनेसु – ‘असु अमुत्र उपपन्नो, असु अमुत्र उपपन्नो। परोपञ्ञास नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनो अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका। साधिका नवुति नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामिनो सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति। सातिरेकानि पञ्चसतानि नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा’ति। तेन च नातिकिया परिचारका अत्तमना अहेसुं पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता भगवतो पञ्हवेय्याकरणं सुत्वा’’ति।

आनन्दपरिकथा

२७६. अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि – ‘‘इमे खो पनापि अहेसुं मागधका परिचारका बहू चेव रत्तञ्ञू च अब्भतीता कालङ्कता। सुञ्ञा मञ्ञे अङ्गमगधा अङ्गमागधकेहि [अङ्गमागधिकेहि (स्या॰)] परिचारकेहि अब्भतीतेहि कालङ्कतेहि। ते खो पनापि [तेन खो पनापि (स्या॰)] अहेसुं बुद्धे पसन्ना धम्मे पसन्ना सङ्घे पसन्ना सीलेसु परिपूरकारिनो। ते अब्भतीता कालङ्कता भगवता अब्याकता; तेसम्पिस्स साधु वेय्याकरणं, बहुजनो पसीदेय्य, ततो गच्छेय्य सुगतिं। अयं खो पनापि अहोसि राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो धम्मिको धम्मराजा हितो ब्राह्मणगहपतिकानं नेगमानञ्चेव जानपदानञ्च। अपिस्सुदं मनुस्सा कित्तयमानरूपा विहरन्ति – ‘एवं नो सो धम्मिको धम्मराजा सुखापेत्वा कालङ्कतो, एवं मयं तस्स धम्मिकस्स धम्मरञ्ञो विजिते फासु [फासुकं (स्या॰)] विहरिम्हा’ति। सो खो पनापि अहोसि बुद्धे पसन्नो धम्मे पसन्नो सङ्घे पसन्नो सीलेसु परिपूरकारी। अपिस्सुदं मनुस्सा एवमाहंसु – ‘याव मरणकालापि राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो भगवन्तं कित्तयमानरूपो कालङ्कतो’ति। सो अब्भतीतो कालङ्कतो भगवता अब्याकतो। तस्सपिस्स साधु वेय्याकरणं बहुजनो पसीदेय्य, ततो गच्छेय्य सुगतिं। भगवतो खो पन सम्बोधि मगधेसु। यत्थ खो पन भगवतो सम्बोधि मगधेसु, कथं तत्र भगवा मागधके परिचारके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु न ब्याकरेय्य। भगवा चे खो पन मागधके परिचारके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु न ब्याकरेय्य, दीनमना [निन्नमना (स्या॰), दीनमाना (सी॰ पी॰)] तेनस्सु मागधका परिचारका; येन खो पनस्सु दीनमना मागधका परिचारका कथं ते भगवा न ब्याकरेय्या’’ति?

२७७. इदमायस्मा आनन्दो मागधके परिचारके आरब्भ एको रहो अनुविचिन्तेत्वा रत्तिया पच्चूससमयं पच्चुट्ठाय येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सुतं मेतं, भन्ते – ‘भगवा किर परितो परितो जनपदेसु परिचारके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु ब्याकरोति कासिकोसलेसु वज्जिमल्लेसु चेतिवंसेसु कुरुपञ्चालेसु मज्झसूरसेनेसु – ‘‘असु अमुत्र उपपन्नो, असु अमुत्र उपपन्नो। परोपञ्ञास नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनो अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका। साधिका नवुति नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामिनो, सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति। सातिरेकानि पञ्चसतानि नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणाति। तेन च नातिकिया परिचारका अत्तमना अहेसुं पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता भगवतो पञ्हवेय्याकरणं सुत्वा’’ति। इमे खो पनापि, भन्ते, अहेसुं मागधका परिचारका बहू चेव रत्तञ्ञू च अब्भतीता कालङ्कता। सुञ्ञा मञ्ञे अङ्गमगधा अङ्गमागधकेहि परिचारकेहि अब्भतीतेहि कालङ्कतेहि। ते खो पनापि, भन्ते, अहेसुं बुद्धे पसन्ना धम्मे पसन्ना सङ्घे पसन्ना सीलेसु परिपूरकारिनो, ते अब्भतीता कालङ्कता भगवता अब्याकता। तेसम्पिस्स साधु वेय्याकरणं, बहुजनो पसीदेय्य, ततो गच्छेय्य सुगतिं। अयं खो पनापि, भन्ते, अहोसि राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो धम्मिको धम्मराजा हितो ब्राह्मणगहपतिकानं नेगमानञ्चेव जानपदानञ्च। अपिस्सुदं मनुस्सा कित्तयमानरूपा विहरन्ति – ‘एवं नो सो धम्मिको धम्मराजा सुखापेत्वा कालङ्कतो। एवं मयं तस्स धम्मिकस्स धम्मरञ्ञो विजिते फासु विहरिम्हा’ति। सो खो पनापि, भन्ते, अहोसि बुद्धे पसन्नो धम्मे पसन्नो सङ्घे पसन्नो सीलेसु परिपूरकारी। अपिस्सुदं मनुस्सा एवमाहंसु – ‘याव मरणकालापि राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो भगवन्तं कित्तयमानरूपो कालङ्कतो’ति। सो अब्भतीतो कालङ्कतो भगवता अब्याकतो; तस्सपिस्स साधु वेय्याकरणं, बहुजनो पसीदेय्य, ततो गच्छेय्य सुगतिं। भगवतो खो पन, भन्ते, सम्बोधि मगधेसु। यत्थ खो पन, भन्ते, भगवतो सम्बोधि मगधेसु, कथं तत्र भगवा मागधके परिचारके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु न ब्याकरेय्य? भगवा चे खो पन, भन्ते, मागधके परिचारके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु न ब्याकरेय्य दीनमना तेनस्सु मागधका परिचारका; येन खो पनस्सु दीनमना मागधका परिचारका कथं ते भगवा न ब्याकरेय्या’’ति। इदमायस्मा आनन्दो मागधके परिचारके आरब्भ भगवतो सम्मुखा परिकथं कत्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि।

२७८. अथ खो भगवा अचिरपक्कन्ते आयस्मन्ते आनन्दे पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय नातिकं पिण्डाय पाविसि। नातिके पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो पादे पक्खालेत्वा गिञ्जकावसथं पविसित्वा मागधके परिचारके आरब्भ अट्ठिं कत्वा [अट्ठिकत्वा (सी॰ स्या॰ पी॰)] मनसिकत्वा सब्बं चेतसा [सब्बचेतसा (पी॰)] समन्नाहरित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि – ‘‘गतिं नेसं जानिस्सामि अभिसम्परायं, यंगतिका ते भवन्तो यंअभिसम्पराया’’ति। अद्दसा खो भगवा मागधके परिचारके ‘‘यंगतिका ते भवन्तो यंअभिसम्पराया’’ति। अथ खो भगवा सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो गिञ्जकावसथा निक्खमित्वा विहारपच्छायायं पञ्ञत्ते आसने निसीदि।

२७९. अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘उपसन्तपदिस्सो [उपसन्तपतिसो (क॰)] भन्ते भगवा भातिरिव भगवतो मुखवण्णो विप्पसन्नत्ता इन्द्रियानं। सन्तेन नूनज्ज भन्ते भगवा विहारेन विहासी’’ति? ‘‘यदेव खो मे त्वं, आनन्द, मागधके परिचारके आरब्भ सम्मुखा परिकथं कत्वा उट्ठायासना पक्कन्तो, तदेवाहं नातिके पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो पादे पक्खालेत्वा गिञ्जकावसथं पविसित्वा मागधके परिचारके आरब्भ अट्ठिं कत्वा मनसिकत्वा सब्बं चेतसा समन्नाहरित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदिं – ‘गतिं नेसं जानिस्सामि अभिसम्परायं, यंगतिका ते भवन्तो यंअभिसम्पराया’ति। अद्दसं खो अहं, आनन्द, मागधके परिचारके ‘यंगतिका ते भवन्तो यंअभिसम्पराया’’’ति।

जनवसभयक्खो

२८०. ‘‘अथ खो, आनन्द, अन्तरहितो यक्खो सद्दमनुस्सावेसि – ‘जनवसभो अहं भगवा; जनवसभो अहं सुगता’ति। अभिजानासि नो त्वं, आनन्द, इतो पुब्बे एवरूपं नामधेय्यं सुतं [सुत्वा (पी॰)] यदिदं जनवसभो’’ति?

‘‘न खो अहं, भन्ते, अभिजानामि इतो पुब्बे एवरूपं नामधेय्यं सुतं यदिदं जनवसभोति, अपि च मे, भन्ते, लोमानि हट्ठानि ‘जनवसभो’ति नामधेय्यं सुत्वा। तस्स मय्हं, भन्ते, एतदहोसि – ‘न हि नून सो ओरको यक्खो भविस्सति यदिदं एवरूपं नामधेय्यं सुपञ्ञत्तं यदिदं जनवसभो’’ति। ‘‘अनन्तरा खो, आनन्द, सद्दपातुभावा उळारवण्णो मे यक्खो सम्मुखे पातुरहोसि। दुतियम्पि सद्दमनुस्सावेसि – ‘बिम्बिसारो अहं भगवा; बिम्बिसारो अहं सुगताति। इदं सत्तमं खो अहं, भन्ते, वेस्सवणस्स महाराजस्स सहब्यतं उपपज्जामि, सो ततो चुतो मनुस्सराजा भवितुं पहोमि [सो ततो चुतो मनुस्सराजा, अमनुस्सराजा दिवि होमि (सी॰ पी॰)]।

इतो सत्त ततो सत्त, संसारानि चतुद्दस।

निवासमभिजानामि, यत्थ मे वुसितं पुरे॥

२८१. ‘दीघरत्तं खो अहं, भन्ते, अविनिपातो अविनिपातं सञ्जानामि, आसा च पन मे सन्तिट्ठति सकदागामिताया’ति। ‘अच्छरियमिदं आयस्मतो जनवसभस्स यक्खस्स, अब्भुतमिदं आयस्मतो जनवसभस्स यक्खस्स। ‘‘दीघरत्तं खो अहं, भन्ते, अविनिपातो अविनिपातं सञ्जानामी’’ति च वदेसि, ‘‘आसा च पन मे सन्तिट्ठति सकदागामिताया’’ति च वदेसि, कुतोनिदानं पनायस्मा जनवसभो यक्खो एवरूपं उळारं विसेसाधिगमं सञ्जानातीति? न अञ्ञत्र, भगवा, तव सासना, न अञ्ञत्र [अञ्ञत्थ (सी॰ पी॰)], सुगत, तव सासना; यदग्गे अहं, भन्ते, भगवति एकन्तिकतो [एकन्ततो (स्या॰), एकन्तगतो (पी॰)] अभिप्पसन्नो, तदग्गे अहं, भन्ते, दीघरत्तं अविनिपातो अविनिपातं सञ्जानामि, आसा च पन मे सन्तिट्ठति सकदागामिताय। इधाहं, भन्ते, वेस्सवणेन महाराजेन पेसितो विरूळ्हकस्स महाराजस्स सन्तिके केनचिदेव करणीयेन अद्दसं भगवन्तं अन्तरामग्गे गिञ्जकावसथं पविसित्वा मागधके परिचारके आरब्भ अट्ठिं कत्वा मनसिकत्वा सब्बं चेतसा समन्नाहरित्वा निसिन्नं – ‘‘गतिं नेसं जानिस्सामि अभिसम्परायं, यंगतिका ते भवन्तो यंअभिसम्पराया’’ति। अनच्छरियं खो पनेतं, भन्ते, यं वेस्सवणस्स महाराजस्स तस्सं परिसायं भासतो सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं – ‘‘यंगतिका ते भवन्तो यंअभिसम्पराया’’ति। तस्स मय्हं, भन्ते, एतदहोसि – भगवन्तञ्च दक्खामि, इदञ्च भगवतो आरोचेस्सामीति। इमे खो मे, भन्ते, द्वेपच्चया भगवन्तं दस्सनाय उपसङ्कमितुं’।

देवसभा

२८२. ‘पुरिमानि, भन्ते, दिवसानि पुरिमतरानि तदहुपोसथे पन्नरसे वस्सूपनायिकाय पुण्णाय पुण्णमाय रत्तिया केवलकप्पा च देवा तावतिंसा सुधम्मायं सभायं सन्निसिन्ना होन्ति सन्निपतिता। महती च दिब्बपरिसा [दिब्बा परिसा (सी॰ पी॰)] समन्ततो निसिन्ना होन्ति [निसिन्ना होति (सी॰), सन्निसिन्ना होन्ति सन्निपतिता (क॰)], चत्तारो च महाराजानो चतुद्दिसा निसिन्ना होन्ति। पुरत्थिमाय दिसाय धतरट्ठो महाराजा पच्छिमाभिमुखो [पच्छाभिमुखो (क॰)] निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा; दक्खिणाय दिसाय विरूळ्हको महाराजा उत्तराभिमुखो निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा; पच्छिमाय दिसाय विरूपक्खो महाराजा पुरत्थाभिमुखो निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा; उत्तराय दिसाय वेस्सवणो महाराजा दक्खिणाभिमुखो निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा। यदा, भन्ते, केवलकप्पा च देवा तावतिंसा सुधम्मायं सभायं सन्निसिन्ना होन्ति सन्निपतिता, महती च दिब्बपरिसा समन्ततो निसिन्ना होन्ति, चत्तारो च महाराजानो चतुद्दिसा निसिन्ना होन्ति। इदं नेसं होति आसनस्मिं; अथ पच्छा अम्हाकं आसनं होति। ये ते, भन्ते, देवा भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा अधुनूपपन्ना तावतिंसकायं, ते अञ्ञे देवे अतिरोचन्ति वण्णेन चेव यससा च। तेन सुदं, भन्ते, देवा तावतिंसा अत्तमना होन्ति पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता ‘‘दिब्बा वत भो काया परिपूरेन्ति, हायन्ति असुरकाया’’ति। अथ खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवानं तावतिंसानं सम्पसादं विदित्वा इमाहि गाथाहि अनुमोदि –

‘‘मोदन्ति वत भो देवा, तावतिंसा सहिन्दका [सइन्दका (सी॰)]।

तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मतं॥

नवे देवे च पस्सन्ता, वण्णवन्ते यसस्सिने [यसस्सिनो (स्या॰)]।

सुगतस्मिं ब्रह्मचरियं, चरित्वान इधागते॥

ते अञ्ञे अतिरोचन्ति, वण्णेन यससायुना।

सावका भूरिपञ्ञस्स, विसेसूपगता इध॥

इदं दिस्वान नन्दन्ति, तावतिंसा सहिन्दका।

तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मत’’न्ति॥

‘तेन सुदं, भन्ते, देवा तावतिंसा भिय्योसोमत्ताय अत्तमना होन्ति पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता ‘‘दिब्बा वत, भो, काया परिपूरेन्ति, हायन्ति असुरकाया’’ति। अथ खो, भन्ते, येनत्थेन देवा तावतिंसा सुधम्मायं सभायं सन्निसिन्ना होन्ति सन्निपतिता, तं अत्थं चिन्तयित्वा तं अत्थं मन्तयित्वा वुत्तवचनापि तं [वुत्तवचना नामिदं (क॰)] चत्तारो महाराजानो तस्मिं अत्थे होन्ति। पच्चानुसिट्ठवचनापि तं [पच्चानुसिट्ठवचना नामिदं (क॰)] चत्तारो महाराजानो तस्मिं अत्थे होन्ति, सकेसु सकेसु आसनेसु ठिता अविपक्कन्ता [अधिपक्कन्ता (क॰)]।

ते वुत्तवाक्या राजानो, पटिग्गय्हानुसासनिं।

विप्पसन्नमना सन्ता, अट्ठंसु सम्हि आसनेति॥

२८३. ‘अथ खो, भन्ते, उत्तराय दिसाय उळारो आलोको सञ्जायि, ओभासो पातुरहोसि अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं। अथ खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवे तावतिंसे आमन्तेसि – ‘‘यथा खो, मारिसा, निमित्तानि दिस्सन्ति, उळारो आलोको सञ्जायति, ओभासो पातुभवति, ब्रह्मा पातुभविस्सति। ब्रह्मुनो हेतं पुब्बनिमित्तं पातुभावाय यदिदं आलोको सञ्जायति ओभासो पातुभवतीति।

‘‘यथा निमित्ता दिस्सन्ति, ब्रह्मा पातुभविस्सति।

ब्रह्मुनो हेतं निमित्तं, ओभासो विपुलो महा’’ति॥

सनङ्कुमारकथा

२८४. ‘अथ खो, भन्ते, देवा तावतिंसा यथासकेसु आसनेसु निसीदिंसु – ‘‘ओभासमेतं ञस्साम, यंविपाको भविस्सति, सच्छिकत्वाव नं गमिस्सामा’’ति। चत्तारोपि महाराजानो यथासकेसु आसनेसु निसीदिंसु – ‘‘ओभासमेतं ञस्साम यंविपाको भविस्सति, सच्छिकत्वाव नं गमिस्सामा’’ति। इदं सुत्वा देवा तावतिंसा एकग्गा समापज्जिंसु – ‘‘ओभासमेतं ञस्साम, यंविपाको भविस्सति, सच्छिकत्वाव नं गमिस्सामा’’ति।

‘यदा, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो देवानं तावतिंसानं पातुभवति, ओळारिकं अत्तभावं अभिनिम्मिनित्वा पातुभवति। यो खो पन, भन्ते, ब्रह्मुनो पकतिवण्णो अनभिसम्भवनीयो सो देवानं तावतिंसानं चक्खुपथस्मिं। यदा, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो देवानं तावतिंसानं पातुभवति, सो अञ्ञे देवे अतिरोचति वण्णेन चेव यससा च। सेय्यथापि, भन्ते, सोवण्णो विग्गहो मानुसं विग्गहं अतिरोचति; एवमेव खो, भन्ते, यदा ब्रह्मा सनङ्कुमारो देवानं तावतिंसानं पातुभवति, सो अञ्ञे देवे अतिरोचति वण्णेन चेव यससा च। यदा, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो देवानं तावतिंसानं पातुभवति, न तस्सं परिसायं कोचि देवो अभिवादेति वा पच्चुट्ठेति वा आसनेन वा निमन्तेति। सब्बेव तुण्हीभूता पञ्जलिका पल्लङ्केन निसीदन्ति – ‘‘यस्सदानि देवस्स पल्लङ्कं इच्छिस्सति ब्रह्मा सनङ्कुमारो, तस्स देवस्स पल्लङ्के निसीदिस्सती’’ति।

‘यस्स खो पन, भन्ते, देवस्स ब्रह्मा सनङ्कुमारो पल्लङ्के निसीदति, उळारं सो लभति देवो वेदपटिलाभं; उळारं सो लभति देवो सोमनस्सपटिलाभं। सेय्यथापि, भन्ते, राजा खत्तियो मुद्धावसित्तो अधुनाभिसित्तो रज्जेन, उळारं सो लभति वेदपटिलाभं, उळारं सो लभति सोमनस्सपटिलाभं। एवमेव खो, भन्ते, यस्स देवस्स ब्रह्मा सनङ्कुमारो पल्लङ्के निसीदति, उळारं सो लभति देवो वेदपटिलाभं, उळारं सो लभति देवो सोमनस्सपटिलाभं। अथ, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो ओळारिकं अत्तभावं अभिनिम्मिनित्वा कुमारवण्णी [कुमारवण्णो (स्या॰ क॰)] हुत्वा पञ्चसिखो देवानं तावतिंसानं पातुरहोसि। सो वेहासं अब्भुग्गन्त्वा आकासे अन्तलिक्खे पल्लङ्केन निसीदि। सेय्यथापि, भन्ते, बलवा पुरिसो सुपच्चत्थते वा पल्लङ्के समे वा भूमिभागे पल्लङ्केन निसीदेय्य; एवमेव खो, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो वेहासं अब्भुग्गन्त्वा आकासे अन्तलिक्खे पल्लङ्केन निसीदित्वा देवानं तावतिंसानं सम्पसादं विदित्वा इमाहि गाथाहि अनुमोदि –

‘‘मोदन्ति वत भो देवा, तावतिंसा सहिन्दका।

तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मतं॥

‘‘नवे देवे च पस्सन्ता, वण्णवन्ते यसस्सिने।

सुगतस्मिं ब्रह्मचरियं, चरित्वान इधागते॥

‘‘ते अञ्ञे अतिरोचन्ति, वण्णेन यससायुना।

सावका भूरिपञ्ञस्स, विसेसूपगता इध॥

‘‘इदं दिस्वान नन्दन्ति, तावतिंसा सहिन्दका।

तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मत’’न्ति॥

२८५. ‘इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो भासित्थ; इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मुनो सनङ्कुमारस्स भासतो अट्ठङ्गसमन्नागतो सरो होति विस्सट्ठो च विञ्ञेय्यो च मञ्जु च सवनीयो च बिन्दु च अविसारी च गम्भीरो च निन्नादी च। यथापरिसं खो पन, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो सरेन विञ्ञापेति; न चस्स बहिद्धा परिसाय घोसो निच्छरति। यस्स खो पन, भन्ते, एवं अट्ठङ्गसमन्नागतो सरो होति, सो वुच्चति ‘‘ब्रह्मस्सरो’’ति।

‘अथ खो, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो तेत्तिंसे अत्तभावे अभिनिम्मिनित्वा देवानं तावतिंसानं पच्चेकपल्लङ्केसु पल्लङ्केन [पच्चेकपल्लङ्केन (क॰)] निसीदित्वा देवे तावतिंसे आमन्तेसि – ‘‘तं किं मञ्ञन्ति, भोन्तो देवा तावतिंसा, यावञ्च सो भगवा बहुजनहिताय पटिपन्नो बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। ये हि केचि, भो, बुद्धं सरणं गता धम्मं सरणं गता सङ्घं सरणं गता सीलेसु परिपूरकारिनो ते कायस्स भेदा परं मरणा अप्पेकच्चे परनिम्मितवसवत्तीनं देवानं सहब्यतं उपपज्जन्ति, अप्पेकच्चे निम्मानरतीनं देवानं सहब्यतं उपपज्जन्ति, अप्पेकच्चे तुसितानं देवानं सहब्यतं उपपज्जन्ति, अप्पेकच्चे यामानं देवानं सहब्यतं उपपज्जन्ति, अप्पेकच्चे तावतिंसानं देवानं सहब्यतं उपपज्जन्ति, अप्पेकच्चे चातुमहाराजिकानं देवानं सहब्यतं उपपज्जन्ति। ये सब्बनिहीनं कायं परिपूरेन्ति, ते गन्धब्बकायं परिपूरेन्ती’’’ति।

२८६. ‘इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो भासित्थ; इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मुनो सनङ्कुमारस्स भासतो घोसोयेव देवा मञ्ञन्ति – ‘‘य्वायं मम पल्लङ्के स्वायं एकोव भासती’’ति।

एकस्मिं भासमानस्मिं, सब्बे भासन्ति निम्मिता।

एकस्मिं तुण्हिमासीने, सब्बे तुण्ही भवन्ति ते॥

तदासु देवा मञ्ञन्ति, तावतिंसा सहिन्दका।

य्वायं मम पल्लङ्कस्मिं, स्वायं एकोव भासतीति॥

‘अथ खो, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो एकत्तेन अत्तानं उपसंहरति, एकत्तेन अत्तानं उपसंहरित्वा सक्कस्स देवानमिन्दस्स पल्लङ्के पल्लङ्केन निसीदित्वा देवे तावतिंसे आमन्तेसि –

भावितइद्धिपादो

२८७. ‘‘‘तं किं मञ्ञन्ति, भोन्तो देवा तावतिंसा, याव सुपञ्ञत्ता चिमे तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो इद्धिपादा पञ्ञत्ता इद्धिपहुताय [इद्धिबहुलीकताय (स्या॰)] इद्धिविसविताय [इद्धिविसेविताय (स्या॰)] इद्धिविकुब्बनताय। कतमे चत्तारो? इध भो भिक्खु छन्दसमाधिप्पधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति। वीरियसमाधिप्पधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति। चित्तसमाधिप्पधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति। वीमंसासमाधिप्पधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति। इमे खो, भो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो इद्धिपादा पञ्ञत्ता इद्धिपहुताय इद्धिविसविताय इद्धिविकुब्बनताय।

‘‘‘ये हि केचि भो अतीतमद्धानं समणा वा ब्राह्मणा वा अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोसुं, सब्बे ते इमेसंयेव चतुन्नं इद्धिपादानं भावितत्ता बहुलीकतत्ता। येपि हि केचि भो अनागतमद्धानं समणा वा ब्राह्मणा वा अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोस्सन्ति, सब्बे ते इमेसंयेव चतुन्नं इद्धिपादानं भावितत्ता बहुलीकतत्ता। येपि हि केचि भो एतरहि समणा वा ब्राह्मणा वा अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोन्ति, सब्बे ते इमेसंयेव चतुन्नं इद्धिपादानं भावितत्ता बहुलीकतत्ता। पस्सन्ति नो भोन्तो देवा तावतिंसा ममपिमं एवरूपं इद्धानुभाव’’न्ति? ‘‘एवं महाब्रह्मे’’ति। ‘‘अहम्पि खो भो इमेसंयेव चतुन्नञ्च इद्धिपादानं भावितत्ता बहुलीकतत्ता एवं महिद्धिको एवंमहानुभावो’’ति। इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो भासित्थ। इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो भासित्वा देवे तावतिंसे आमन्तेसि –

तिविधो ओकासाधिगमो

२८८. ‘‘‘तं किं मञ्ञन्ति, भोन्तो देवा तावतिंसा, यावञ्चिदं तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन तयो ओकासाधिगमा अनुबुद्धा सुखस्साधिगमाय। कतमे तयो? इध भो एकच्चो संसट्ठो विहरति कामेहि संसट्ठो अकुसलेहि धम्मेहि। सो अपरेन समयेन अरियधम्मं सुणाति, योनिसो मनसि करोति, धम्मानुधम्मं पटिपज्जति। सो अरियधम्मस्सवनं आगम्म योनिसोमनसिकारं धम्मानुधम्मप्पटिपत्तिं असंसट्ठो विहरति कामेहि असंसट्ठो अकुसलेहि धम्मेहि। तस्स असंसट्ठस्स कामेहि असंसट्ठस्स अकुसलेहि धम्मेहि उप्पज्जति सुखं, सुखा भिय्यो सोमनस्सं। सेय्यथापि, भो, पमुदा पामोज्जं [पामुज्जं (पी॰ क॰)] जायेथ, एवमेव खो, भो, असंसट्ठस्स कामेहि असंसट्ठस्स अकुसलेहि धम्मेहि उप्पज्जति सुखं, सुखा भिय्यो सोमनस्सं। अयं खो, भो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन पठमो ओकासाधिगमो अनुबुद्धो सुखस्साधिगमाय।

‘‘‘पुन चपरं, भो, इधेकच्चस्स ओळारिका कायसङ्खारा अप्पटिप्पस्सद्धा होन्ति, ओळारिका वचीसङ्खारा अप्पटिप्पस्सद्धा होन्ति, ओळारिका चित्तसङ्खारा अप्पटिप्पस्सद्धा होन्ति। सो अपरेन समयेन अरियधम्मं सुणाति, योनिसो मनसि करोति, धम्मानुधम्मं पटिपज्जति। तस्स अरियधम्मस्सवनं आगम्म योनिसोमनसिकारं धम्मानुधम्मप्पटिपत्तिं ओळारिका कायसङ्खारा पटिप्पस्सम्भन्ति, ओळारिका वचीसङ्खारा पटिप्पस्सम्भन्ति, ओळारिका चित्तसङ्खारा पटिप्पस्सम्भन्ति। तस्स ओळारिकानं कायसङ्खारानं पटिप्पस्सद्धिया ओळारिकानं वचीसङ्खारानं पटिप्पस्सद्धिया ओळारिकानं चित्तसङ्खारानं पटिप्पस्सद्धिया उप्पज्जति सुखं, सुखा भिय्यो सोमनस्सं। सेय्यथापि, भो, पमुदा पामोज्जं जायेथ, एवमेव खो भो ओळारिकानं कायसङ्खारानं पटिप्पस्सद्धिया ओळारिकानं वचीसङ्खारानं पटिप्पस्सद्धिया ओळारिकानं चित्तसङ्खारानं पटिप्पस्सद्धिया उप्पज्जति सुखं, सुखा भिय्यो सोमनस्सं। अयं खो, भो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन दुतियो ओकासाधिगमो अनुबुद्धो सुखस्साधिगमाय।

‘‘‘पुन चपरं, भो, इधेकच्चो ‘इदं कुसल’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति, ‘इदं अकुसल’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति। ‘इदं सावज्जं इदं अनवज्जं, इदं सेवितब्बं इदं न सेवितब्बं, इदं हीनं इदं पणीतं, इदं कण्हसुक्कसप्पटिभाग’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति। सो अपरेन समयेन अरियधम्मं सुणाति, योनिसो मनसि करोति, धम्मानुधम्मं पटिपज्जति। सो अरियधम्मस्सवनं आगम्म योनिसोमनसिकारं धम्मानुधम्मप्पटिपत्तिं, ‘इदं कुसल’न्ति यथाभूतं पजानाति, ‘इदं अकुसल’न्ति यथाभूतं पजानाति। इदं सावज्जं इदं अनवज्जं, इदं सेवितब्बं इदं न सेवितब्बं, इदं हीनं इदं पणीतं, इदं कण्हसुक्कसप्पटिभाग’न्ति यथाभूतं पजानाति। तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो अविज्जा पहीयति, विज्जा उप्पज्जति। तस्स अविज्जाविरागा विज्जुप्पादा उप्पज्जति सुखं, सुखा भिय्यो सोमनस्सं। सेय्यथापि, भो, पमुदा पामोज्जं जायेथ, एवमेव खो, भो, अविज्जाविरागा विज्जुप्पादा उप्पज्जति सुखं, सुखा भिय्यो सोमनस्सं। अयं खो, भो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन ततियो ओकासाधिगमो अनुबुद्धो सुखस्साधिगमाय। इमे खो, भो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन तयो ओकासाधिगमा अनुबुद्धा सुखस्साधिगमाया’’ति। इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो भासित्थ, इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो भासित्वा देवे तावतिंसे आमन्तेसि –

चतुसतिपट्ठानं

२८९. ‘‘‘तं किं मञ्ञन्ति, भोन्तो देवा तावतिंसा, याव सुपञ्ञत्ता चिमे तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो सतिपट्ठाना पञ्ञत्ता कुसलस्साधिगमाय। कतमे चत्तारो? इध, भो, भिक्खु अज्झत्तं काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। अज्झत्तं काये कायानुपस्सी विहरन्तो तत्थ सम्मा समाधियति, सम्मा विप्पसीदति। सो तत्थ सम्मा समाहितो सम्मा विप्पसन्नो बहिद्धा परकाये ञाणदस्सनं अभिनिब्बत्तेति। अज्झत्तं वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति…पे॰… बहिद्धा परवेदनासु ञाणदस्सनं अभिनिब्बत्तेति। अज्झत्तं चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति…पे॰… बहिद्धा परचित्ते ञाणदस्सनं अभिनिब्बत्तेति। अज्झत्तं धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। अज्झत्तं धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरन्तो तत्थ सम्मा समाधियति, सम्मा विप्पसीदति। सो तत्थ सम्मा समाहितो सम्मा विप्पसन्नो बहिद्धा परधम्मेसु ञाणदस्सनं अभिनिब्बत्तेति। इमे खो, भो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो सतिपट्ठाना पञ्ञत्ता कुसलस्साधिगमाया’’ति। इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो भासित्थ। इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो भासित्वा देवे तावतिंसे आमन्तेसि –

सत्त समाधिपरिक्खारा

२९०. ‘‘‘तं किं मञ्ञन्ति, भोन्तो देवा तावतिंसा, याव सुपञ्ञत्ता चिमे तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सत्त समाधिपरिक्खारा सम्मासमाधिस्स परिभावनाय सम्मासमाधिस्स पारिपूरिया। कतमे सत्त? सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा सम्माकम्मन्तो सम्माआजीवो सम्मावायामो सम्मासति। या खो, भो, इमेहि सत्तहङ्गेहि चित्तस्स एकग्गता परिक्खता, अयं वुच्चति, भो, अरियो सम्मासमाधि सउपनिसो इतिपि सपरिक्खारो इतिपि। सम्मादिट्ठिस्स भो, सम्मासङ्कप्पो पहोति, सम्मासङ्कप्पस्स सम्मावाचा पहोति, सम्मावाचस्स सम्माकम्मन्तो पहोति। सम्माकम्मन्तस्स सम्माआजीवो पहोति, सम्माआजीवस्स सम्मावायामो पहोति, सम्मावायामस्स सम्मासति पहोति, सम्मासतिस्स सम्मासमाधि पहोति, सम्मासमाधिस्स सम्माञाणं पहोति, सम्माञाणस्स सम्माविमुत्ति पहोति। यञ्हि तं, भो, सम्मा वदमानो वदेय्य – ‘स्वाक्खातो भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विञ्ञूहि अपारुता अमतस्स द्वारा’ति इदमेव तं सम्मा वदमानो वदेय्य। स्वाक्खातो हि, भो, भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको, अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विञ्ञूहि अपारुता अमतस्स द्वारा [द्वाराति (स्या॰ क॰)]।

‘‘‘ये हि केचि, भो, बुद्धे अवेच्चप्पसादेन समन्नागता, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागता, सङ्घे अवेच्चप्पसादेन समन्नागता, अरियकन्तेहि सीलेहि समन्नागता, ये चिमे ओपपातिका धम्मविनीता सातिरेकानि चतुवीसतिसतसहस्सानि मागधका परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा। अत्थि चेवेत्थ सकदागामिनो।

‘‘अत्थायं [अथायं (सी॰ स्या॰)] इतरा पजा, पुञ्ञाभागाति मे मनो।

सङ्खातुं नोपि सक्कोमि, मुसावादस्स ओत्तप्प’’न्ति॥

२९१. ‘इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो भासित्थ, इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मुनो सनङ्कुमारस्स भासतो वेस्सवणस्स महाराजस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि – ‘‘अच्छरियं वत भो, अब्भुतं वत भो, एवरूपोपि नाम उळारो सत्था भविस्सति, एवरूपं उळारं धम्मक्खानं, एवरूपा उळारा विसेसाधिगमा पञ्ञायिस्सन्ती’’ति। अथ, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो वेस्सवणस्स महाराजस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्ञाय वेस्सवणं महाराजानं एतदवोच – ‘‘तं किं मञ्ञति भवं वेस्सवणो महाराजा अतीतम्पि अद्धानं एवरूपो उळारो सत्था अहोसि, एवरूपं उळारं धम्मक्खानं, एवरूपा उळारा विसेसाधिगमा पञ्ञायिंसु। अनागतम्पि अद्धानं एवरूपो उळारो सत्था भविस्सति, एवरूपं उळारं धम्मक्खानं, एवरूपा उळारा विसेसाधिगमा पञ्ञायिस्सन्ती’’’ति।

२९२. ‘‘‘इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो देवानं तावतिंसानं अभासि, इममत्थं वेस्सवणो महाराजा ब्रह्मुनो सनङ्कुमारस्स देवानं तावतिंसानं भासतो सम्मुखा सुतं [सुत्वा (सी॰ पी॰)] सम्मुखा पटिग्गहितं सयं परिसायं आरोचेसि’’।

इममत्थं जनवसभो यक्खो वेस्सवणस्स महाराजस्स सयं परिसायं भासतो सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं [पटिग्गहेत्वा (सी॰ पी॰)] भगवतो आरोचेसि। इममत्थं भगवा जनवसभस्स यक्खस्स सम्मुखा सुत्वा सम्मुखा पटिग्गहेत्वा सामञ्च अभिञ्ञाय आयस्मतो आनन्दस्स आरोचेसि, इममत्थमायस्मा आनन्दो भगवतो सम्मुखा सुत्वा सम्मुखा पटिग्गहेत्वा आरोचेसि भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं। तयिदं ब्रह्मचरियं इद्धञ्चेव फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजञ्ञं पुथुभूतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितन्ति।

जनवसभसुत्तं निट्ठितं पञ्चमं।