नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 महागोविन्द जातक

सूत्र विवेचना

एक समय, देवलोक में भगवान के सद्गुणों पर चर्चा चल रही थी, तभी अचानक महाब्रह्म प्रकट होते हैं। वह देवताओं को बुद्ध के एक पूर्वजन्म की प्रेरणादायक कथा सुनाते हैं, जिसकी सनातन गूँज न केवल अद्भुत है, बल्कि पैगंबरों की जीवन-गाथाओं से भी गहराई से जुड़ी हुई है। जैसे मूसा, ईसा मसीह और मोहम्मद, इन सभी पैगंबरों ने ब्रह्म या देवताओं से धर्म सुनकर अपने-अपने समय में दुनिया के लोगों को दिशा दिखाई हैं।

अंगुत्तरनिकाय ६:५४ धम्मिकसुत्त में भगवान उल्लेख करते हैं कि पूर्व भारत के इतिहास में कम से कम छह ब्रह्मदूत या पैगंबर हुए। उनके नाम थे सुनेत्र, मूगपक्ख, अरनेमि, कुद्दालक, हत्थीपाल और इस कथा के जोतिपाल गोविन्द। ये सभी वीतरागी ऋषि थे, जो अहिंसा, करुणा और शांति के प्रतीक माने जाते थे। उन्होंने अपने जीवन में जो सिखाया, वह आज भी हमारी सामाजिक और नैतिक मूल्यों को प्रभावित करता है।

भगवान चेताते हैं कि जो लोग इन निष्पाप पैगंबरों का अपमान करते हैं, वे अपने लिए भयानक पापों का बोझ उठाते हैं। यह सत्य है कि इन पैगंबरों का धर्म मोहभंग नहीं कराता, न ही विराग या निरोध की दिशा में ले जाता है। उनका संदेश केवल ब्रह्मलोक की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर करता है, जो गृहस्थों के लिए सुविधाजनक है।

हालांकि, जब समय बीतता है, तो लोग अंततः भगवान बुद्ध के धर्म की ओर अग्रसर होते हैं। यह धर्म न केवल मोहभंग करता है, बल्कि गहरी आंतरिक शांति, ज्ञान, और निर्वाण की ओर ले जाता है। बुद्ध का मार्ग हमें एक ऐसी गहराई में प्रवेश कराता है, जहाँ दुःख को हमेशा के लिए जड़ से मिटाना संभव हो जाता है। उसी के साथ, हम ब्रह्मलोक के परे जाकर, और सम्पूर्ण ३१ लोक को लाँघ कर, परिनिवृत होने में सक्षम बनते हैं।

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह के गृद्धकूट पर्वत पर विहार कर रहे थे। तब देर रात, गंधब्ब-पुत्र पञ्चशिख अत्याधिक कान्ति से संपूर्ण गृद्धकूट पर्वत को रौशन करते हुए, भगवान के पास गया, और अभिवादन कर एक ओर खड़ा हुआ। एक ओर खड़ा होकर गंधब्बपुत्र पञ्चशिख ने भगवान से कहा, “भंते, जो मैंने तैतीस देवताओं के मुख से सुना है, उनके सम्मुख ग्रहण किया है, उसे भगवान को बताता हूँ।”

“बताओं मुझे, पञ्चशिख।” भगवान ने कहा।

१. देव-सभा

“भंते, कुछ ही दिनों पहले पवारणा उपोसथ के समय [वर्षावास के पश्चात आश्विन माह में] पुर्णिमा की रात, तैतीस देवतागण सुधम्म सभा में एकत्र होकर बैठे थे। सभी ओर बहुत बड़ी दिव्य-परिषद बैठी थी। चार-दिशाओं के चार महाराज देवता भी बैठे थे। पूर्व-दिशा के [गंधब्ब] महाराज धतरट्ठ [धृतराष्ट्र] पश्चिम की ओर मुख कर के पूर्व में बैठे थे। दक्षिण-दिशा के [कुंभण्ड] महाराज विरूळ्हक [विरुल्हक] उत्तर की ओर मुख कर के दक्षिण में बैठे थे। पश्चिम-दिशा के [नाग] महाराज विरूपक्ख [विरूपाक्ष] पूर्व की ओर मुख कर के पश्चिम में बैठे थे। और, उत्तर-दिशा के [यक्ष] महाराज वेस्सवण [वैष्णव, कुबेर] दक्षिण की ओर मुख कर के उत्तर में बैठे थे। भंते, जब भी तैतीस देवतागण सुधम्म सभा में एकत्र होकर बैठते हैं, सभी ओर बहुत बड़ी दिव्य-परिषद बैठती है, तब इसी तरह चार-दिशाओं के चार महाराज देवता भी बैठते हैं। उनके पीछे हमारा आसन होता हैं।

भंते, जो भी देवतागण भगवान का ब्रह्मचर्य पालन कर के हाल ही में तैतीस देवलोक में उत्पन्न हुए हैं, वे वर्ण [=सौंदर्य] और यश [=प्रभाव] में दूसरे देवताओं को फीका करते हैं। इस पर तैतीस देवतागण प्रसन्न और प्रमुदित हुए, प्रफुल्लता और सुख-सौमन्यस्य से भर गए, [कहते हुए,] “देवलोक भर गया है! असुरलोक क्षीण हो गया है!” तब, देवराज इन्द्र सक्क [=सक्षम] ने उन देवताओं की प्रसन्नता देखकर इन गाथाओं से अनुमोदन किया:

"प्रसन्न हुए देवता महाशय,
इन्द्र के साथ तैतीस देवतागण,
तथागत को नमन करते हैं,
और उनके धर्म की सुधर्मता को।

नए देवताओं को देखकर,
इतने सौंदर्यवान और प्रभावशाली,
सुगत का ब्रह्मचर्य पालन कर,
जो यहाँ पर आ गए।

वे दूसरों को फीका करते हैं,
सौंदर्य, प्रभाव, और आयु में।
विराट प्रज्ञावान [=बुद्ध] के जो श्रावक,
यहाँ विशेष-अवस्था प्राप्त हैं।

यह देखकर आनंदित होते,
इन्द्र के साथ तैतीस देवतागण।
तथागत को नमन करते हैं,
और उनके धर्म की सुधर्मता को।"

तब, उस पर तैतीस देवतागण और भी अधिक प्रसन्न और प्रमुदित हुए, प्रफुल्लता और सुख-सौमन्यस्य से भर गए, [कहते हुए,] “देवलोक भर गया है! असुरलोक क्षीण हो गया है!”

२. आठ यथार्थ सद्गुण

तब, भंते, देवराज इन्द्र सक्क ने तैतीस देवताओं की प्रसन्नता देखकर तैतीस देवताओं को संबोधित किया, “महाशय, क्या तुम्हें भगवान के आठ यथार्थ सद्गुणों को सुनने की इच्छा हैं?”

“हाँ, महाशय, हमें भगवान के आठ यथार्थ सद्गुणों को सुनने की इच्छा हैं।”

तब, भंते, देवराज इन्द्र सक्क ने तैतीस देवताओं को भगवान के आठ यथार्थ सद्गुण सौंपें:

(१) “क्या लगता हैं आप को, तैतीस देवता महाशय? क्या भगवान बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए है? मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जो बहुजनों के इतने हित के लिए, बहुजनों के इतने सुख के लिए, इस दुनिया पर इतना उपकार करते हुए, देव और मानव के इतना कल्याण, हित और सुख के लिए हो।

(२) भगवान का धर्म वाकई स्पष्ट बताया है, तुरंत दिखता है, सर्वकालिक है, आजमाने योग्य है, प्रासंगिक है, समझदार द्वारा स्वानुभूति योग्य! मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जिन्होने इतना प्रासंगिक धर्म बताया हो।

(३) भगवान ने बड़े अच्छे से बताया है — “यह बात कुशल है”, “यह बात अकुशल है”, “यह बात निंदनीय है”, “यह बात अनिंदनीय है”, “यह बात ग्रहण करने लायक है”, “यह बात ग्रहण करने लायक नहीं है”, “यह बात हीन है”, “यह बात उत्तम है”, “यह बात काले-पक्ष में है”, “यह बात उजले-पक्ष में है।” मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जिन्होने कुशल/अकुशल, निंदनीय/अनिंदनीय, ग्रहणीय/अग्रहणीय, हीन/उत्तम, काले/उजले पक्ष की बात इतने स्पष्ट तरह से बतायी हो।

(४) भगवान ने अपने श्रावकों को निर्वाण ले जाता प्रगतिपथ [या साधना, “पटिपदा”] बड़े अच्छे से बताया है। निर्वाण और उसका प्रगतिपथ बिलकुल अनुकूल हैं। जैसे, गंगा-जल आकर यमुना-जल में अनुकूल मिलता है। उसी तरह, भगवान ने अपने श्रावकों को निर्वाण ले जाता प्रगतिपथ बड़े अच्छे से बताया है। निर्वाण और उसका प्रगतिपथ बिलकुल अनुकूल हैं। मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जिन्होने इतने अच्छे से निर्वाण ले जाता प्रगतिपथ बताया हो।

(५) भगवान ने बहुत लाभ [=दान-अर्पणा] संपादित किए है, बहुत यशकिर्ति संपादित की है। इतना कि लगता है, जैसे क्षत्रिय राजा के अनुरूप विहार कर रहे हो। किन्तु तब भी, भगवान अपना आहार बिना मदहोश हुए ग्रहण करते है। मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जो अपने आहार को इतना बिना मदहोशी के ग्रहण करता हो।

(६) भगवान ने अनेक सहायक प्राप्त किए है, साधना करते शिक्षार्थी और कार्य समाप्त कर चुके क्षीण-आस्रव [=अरहंत]। भगवान, उन्हें बिना दूर भेजे, एकांतवास के प्रति समर्पित होकर रहते है। मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जो एकांतवास के प्रति इतना समर्पित होकर रहता हो।

(७) भगवान जैसा बोलते है वैसा करते है, और जैसा करते है वैसा ही बोलते है। इस तरह, जैसी कथनी वैसी करनी, और जैसी करनी वैसी कथनी। मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जो [स्वयं के द्वारा बताए] धर्म के अनुसार इतना सीधा चलता हो।

(८) भगवान ने संदेह लाँघा है, उलझन के परे गए है, संकल्प पूर्ण किए है, ब्रह्मचर्य का मूल उद्देश्य पूर्ण किया है। मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जिसने इस तरह संदेह लाँघा हो, उलझन के परे गया हो, संकल्प पूर्ण किया हो, ब्रह्मचर्य का मूल उद्देश्य पूर्ण किया हो।”

“भंते, देवराज इन्द्र सक्क ने भगवान के ये आठ यथार्थ प्रशंसनीय सद्गुण तैतीस देवताओं को सौपे। तब, भगवान के ये आठ यथार्थ सद्गुण सुनकर तैतीस देवतागण और भी अधिक प्रसन्न और प्रमुदित हुए, प्रफुल्लता और सुख-सौमन्यस्य से भर गए।

तब, भंते, कुछ देवताओं को लगा, “ओ महाशय! काश, इस लोक में भगवान के जैसे चार सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट हुए होते और धर्म बताया होता! तब, वह बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए होता!”

कुछ देवताओं को लगा, “चार सम्यक-सम्बुद्ध रहने दो, महाशय! काश, इस लोक में भगवान के जैसे तीन सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट हुए होते और धर्म बताया होता! तब, वह बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए होता!”

कुछ देवताओं को लगा, “तीन सम्यक-सम्बुद्ध भी रहने दो, महाशय! काश, इस लोक में भगवान के जैसे दो सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट हुए होते और धर्म बताया होता! तब, वह बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए होता!”

जब ऐसा कहा गया, भंते, तो देवराज इन्द्र सक्क ने तैतीस देवताओं से कहा, “दुनिया में ऐसा होना असंभव है, महाशयों। एक लोकधातु [=सौर्यमंडल?] में एक समय दो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट हो, ऐसा नहीं हो सकता। ओ महाशय! भगवान निरोगी रहे, स्वस्थ रहे, लंबे समय तक जीवित रहे! तब, वह बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए होगा!”

तब, भंते, जिस कार्य से तैतीस देवतागण सुधम्म सभा में एकत्र होकर बैठे थे, उस उद्देश्य पर ध्यान केन्द्रित कर, उस उद्देश्य की चर्चा कर, उस विषय में चार महाराज देवताओं को आदेश दिया। उस विषय पर चार महाराज देवताओं ने भी अपनी बात कही और समर्थन किया। तब, हर कोई चले न जाकर अपने आसन पर खड़ा हुआ।

महाराजा अपनी बात कहकर,
मिले आदेशों को ग्रहण किया।
फिर प्रसन्न और शांत मन से,
अपने आसन पर खड़े हुए।

तब, भंते, उत्तर-दिशा में देवताओं के दिव्य-तेज से भी परे एक बड़ा तेज उत्पन्न हुआ। तब देवराज इन्द्र सक्क ने देवताओं को संबोधित किया, “श्रीमानों, जब इस तरह संकेत दिखते हैं — प्रकाश होता है, उजाला होता है, तब ब्रह्मा प्रकट होता है। चूँकि ये ही ब्रह्मा के प्रकट होने के पूर्व-संकेत हैं — प्रकाश होना, उजाला होना, तब ब्रह्मा प्रकट होना!”

जब ऐसे संकेत दिखते हैं,
तब ब्रह्मा प्रकट होता है।
ब्रह्मा के ये संकेत हैं,
बड़ा विपुल उजाला होता है।

३. सनङ्कुमार ब्रह्मा

“तब, भंते, तैतीस देवता अपने आसन पर बैठ गए, [कहते हुए,] “हम इस उजाले का कारण जान कर, इसका फल देखकर, साक्षात्कार कर के ही जाएँगे।” तब चार महाराज देवता भी अपने आसन पर बैठ गए, [कहते हुए,] “हम इस उजाले का कारण जान कर, इसका फल देखकर, साक्षात्कार कर के ही जाएँगे।” जब ऐसा कहा गया, तो अन्य तैतीस देवतागण ने भी एकता में हामी भरी, “हम इस उजाले का कारण जान कर, इसका फल देखकर, साक्षात्कार कर के ही जाएँगे।”

तब, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार [सनत्कुमार=जो सदैव युवा दिखता है] तैतीस देवताओं में प्रकट हुआ, स्वयं को स्थूल आत्मभाव में अभिनिर्मित कर, प्रकट हुआ। क्योंकि, भंते, ब्रह्मा का प्राकृतिक वर्ण तैतीस देवताओं की आँखों के लिए दिखना असाध्य है। और, जब ब्रह्मा सनङ्कुमार तैतीस देवताओं में प्रकट हुआ, उसने वर्ण और यश में तैतीस देवताओं को फीका कर दिया। जैसे, भंते, कोई स्वर्णिम मूर्ति मानवीय मूर्ति को फीका कर देती है। उसी तरह, जब ब्रह्मा सनङ्कुमार तैतीस देवताओं में प्रकट हुआ, उसने वर्ण और यश में तैतीस देवताओं को फीका कर दिया।

भंते, जब ब्रह्मा सनङ्कुमार तैतीस देवताओं में प्रकट हुआ, तब उस परिषद का कोई भी देवता अभिवादन करने के लिए खड़ा नहीं हुआ, बैठने के लिए अपना आसन नहीं दिया। सभी मौन होकर अपने बैठक-आसन पर हाथ-जोड़कर बैठे रहें, [सोचते हुए,] “ब्रह्मा सनङ्कुमार जिस देवता के बैठक-आसन की इच्छा करेगा, उस देवता के बैठक-आसन पर जाकर बैठेगा।” और, ब्रह्मा सनङ्कुमार जिस देवता के बैठक-आसन पर बैठा, उस देवता को बहुत ऊँची अनुभूति होती है, अत्याधिक खुशी मिलती है। जैसे, भंते, किसी क्षत्रिय राजा को राज-तिलक लगाकर राज्याभिषेक किया जा रहा हो, तो उसे जिस तरह बहुत ऊँची अनुभूति होती है, अत्याधिक खुशी मिलती है। उसी तरह, ब्रह्मा सनङ्कुमार जिस देवता के बैठक-आसन पर बैठता है, उस देवता को बहुत ऊँची अनुभूति होती है, अत्याधिक खुशी मिलती है।

तब, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने तैतीस देवताओं को संतुष्ट करने वाली गाथाओं से अनुमोदन किया:

"प्रसन्न हुए देवता महाशय,
इन्द्र के साथ तैतीस देवतागण,
तथागत को नमन करते हैं,
और उनके धर्म की सुधर्मता को।

नए देवताओं को देखकर,
इतने सौंदर्यवान और प्रभावशाली,
सुगत का ब्रह्मचर्य पालन कर,
जो यहाँ पर आ गए।

वे दूसरों को फीका करते हैं,
सौंदर्य, प्रभाव, और आयु में।
विराट प्रज्ञावान के जो श्रावक,
यहाँ विशेष-अवस्था प्राप्त हैं।

यह देखकर आनंदित होते,
इन्द्र के साथ तैतीस देवतागण।
तथागत को नमन करते हैं,
और उनके धर्म की सुधर्मता को।"

इसी अर्थ के साथ, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने अपनी बात कही। और, जब ब्रह्मा सनङ्कुमार ने इसी अर्थ के साथ अपनी बात कही, तब उसका निकला स्वर आठ अंगों से संपन्न था — (१) स्पष्ट, (२) समझने में सरल, (३) आकर्षक, (४) सुनने योग्य, (५) ठोस, (६) अविकृत, (७) गहरी, और (८) गूँजने वाली। और, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार का स्वर ठीक परिषद की सीमा तक समझा जाता था। उसका घोष परिषद के बाहर नहीं जाता था। भंते, जब किसी का स्वर इन आठ अंगों से संपन्न हो, तो उसका ब्रह्मस्वर कहा जाता हैं।

तब, भंते, तैतीस देवताओं ने ब्रह्मा सनङ्कुमार से कहा, “बहुत अच्छा, महाब्रह्मे! इस तरह आँकने पर हम प्रसन्न हुए! और, देवराज इन्द्र सक्क ने भगवान के आठ यथार्थ सद्गुण बताए है। उस तरह आँकने पर भी हम प्रसन्न हुए!”

४. आठ यथार्थ सद्गुण

तब, भंते, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने देवराज इन्द्र सक्क से कहा, “अच्छा होगा, देवराज इन्द्र, जो मैं भी भगवान के आठ यथार्थ सद्गुण सुनूँ।”

“ठीक है, महाब्रह्मे!” देवराज इन्द्र सक्क ने उत्तर दिया, और ब्रह्मा सनङ्कुमार को भगवान के आठ यथार्थ सद्गुण सौंपें:

(१) “क्या लगता हैं आप को, महाब्रह्मा महाशय? क्या भगवान बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित और सुख के लिए है? मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जो बहुजनों के इतने हित के लिए, बहुजनों के इतने सुख के लिए, इस दुनिया पर इतना उपकार करते हुए, देव और मानव के इतना कल्याण, हित और सुख के लिए हो।

(२) भगवान का धर्म वाकई स्पष्ट बताया है, तुरंत दिखता है, सर्वकालिक है, आजमाने योग्य है, प्रासंगिक है, समझदार द्वारा स्वानुभूति योग्य! मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जिन्होने इतना प्रासंगिक धर्म बताया हो।

(३) भगवान ने बड़े अच्छे से बताया है — “यह बात कुशल है”, “यह बात अकुशल है”, “यह बात निंदनीय है”, “यह बात अनिंदनीय है”, “यह बात ग्रहण करने लायक है”, “यह बात ग्रहण करने लायक नहीं है”, “यह बात हीन है”, “यह बात उत्तम है”, “यह बात काले-पक्ष में है”, “यह बात उजले-पक्ष में है।” मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जिन्होने कुशल/अकुशल, निंदनीय/अनिंदनीय, ग्रहणीय/अग्रहणीय, हीन/उत्तम, काले/उजले पक्ष की बात इतने स्पष्ट तरह से बतायी हो।

(४) भगवान ने अपने श्रावकों को निर्वाण ले जाता प्रगतिपथ [या साधना, “पटिपदा”] बड़े अच्छे से बताया है। निर्वाण और उसका प्रगतिपथ बिलकुल अनुकूल हैं। जैसे, गंगा-जल आकर यमुना-जल में अनुकूल मिलता है। उसी तरह, भगवान ने अपने श्रावकों को निर्वाण ले जाता प्रगतिपथ बड़े अच्छे से बताया है। निर्वाण और उसका प्रगतिपथ बिलकुल अनुकूल हैं। मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जिन्होने इतने अच्छे से निर्वाण ले जाता प्रगतिपथ बताया हो।

(५) भगवान ने बहुत लाभ [=दान-अर्पणा] संपादित किए है, बहुत यशकिर्ति संपादित की है। इतना कि लगता है, जैसे क्षत्रिय राजा के अनुरूप विहार कर रहे हो। किन्तु तब भी, भगवान अपना आहार बिना मदहोश हुए ग्रहण करते है। मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जो अपने आहार को इतना बिना मदहोशी के ग्रहण करता हो।

(६) भगवान ने अनेक सहायक प्राप्त किए है, साधना करते शिक्षार्थी और कार्य समाप्त कर चुके क्षीण-आस्रव [=अरहंत]। भगवान, उन्हें बिना दूर भेजे, एकांतवास के प्रति समर्पित होकर रहते है। मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जो एकांतवास के प्रति इतना समर्पित होकर रहता हो।

(७) भगवान जैसा बोलते है वैसा करते है, और जैसा करते है वैसा ही बोलते है। इस तरह, जैसी कथनी वैसी करनी, और जैसी करनी वैसी कथनी। मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जो [स्वयं के द्वारा बताए] धर्म के अनुसार इतना सीधा चलता हो।

(८) भगवान ने संदेह लाँघा है, उलझन के परे गए है, संकल्प पूर्ण किए है, ब्रह्मचर्य का मूल उद्देश्य पूर्ण किया है। मैंने अतीतकाल या वर्तमानकाल में भगवान के अलावा किसी दूसरे शास्ता को नहीं देखा है, जिसने इस तरह संदेह लाँघा हो, उलझन के परे गया हो, संकल्प पूर्ण किया हो, ब्रह्मचर्य का मूल उद्देश्य पूर्ण किया हो।”

“भंते, देवराज इन्द्र सक्क ने भगवान के ये आठ यथार्थ प्रशंसनीय सद्गुण ब्रह्मा सनङ्कुमार को सौपे। तब, भगवान के ये आठ यथार्थ सद्गुण सुनकर ब्रह्मा सनङ्कुमार और भी अधिक प्रसन्न और प्रमुदित हुआ, प्रफुल्लता और सुख-सौमन्यस्य से भर गया।

तब, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने स्वयं को स्थूल आत्मभाव में अभिनिर्मित कर, युवावर्ण पञ्चशिख [एक रूपवान और मस्तमौला गंधब्ब] के रूप में तैतीस देवताओं के आगे प्रकट हुआ। वह आकाश में ऊपर उठकर अन्तरिक्ष में पालथी मार बैठ गया। जैसे, कोई बलवान पुरुष सुप्रतिष्ठित बैठक-आसन पर, या समतल भूमि पर, पालथी मार कर बैठ जाए। उसी तरह, ब्रह्मा सनङ्कुमार आकाश में ऊपर उठकर अन्तरिक्ष में पालथी मार बैठ गया, और तैतीस देवताओं को संबोधित किया:

५. ब्राह्मण गोविन्द कथा

“तो, क्या लगता हैं आप को, तैतीस देवता महाशय? भगवान बहुत लंबे समय से महाप्रज्ञावान है। बहुत पहले, दिसम्पति [=दिशापति] नामक राजा हुआ था। राजा दिसम्पति का गोविन्द नामक ब्राह्मण पुरोहित था। राजा दिसम्पति का रेणु नामक राजकुमार पुत्र था। और गोविन्द ब्राह्मण का जोतिपाल नामक युवा ब्राह्मण पुत्र था। तब राजपुत्र रेणु, युवा-ब्राह्मण जोतिपाल, और अन्य छह क्षत्रिय, इसे कुल आठ मित्र बने थे।

तब, बहुत दिन बीतने पर गोविन्द ब्राह्मण गुजर गया। गोविन्द ब्राह्मण के गुजरने पर राजा दिसम्पति ने विलाप किया, “ओ श्रीमान! जिस समय मैंने गोविन्द ब्राह्मण पर अपने सारे कृत्य सौंप दिये, और मैं पाँच कामभोग में लिप्त होकर, मजे में डूबा हुआ था, उसी समय गोविन्द ब्राह्मण गुजर गया!”

ऐसा कहे जाने पर, राजपुत्र रेणु ने राजा दिसम्पति से कहा, “महाराज, गोविन्द ब्राह्मण के गुजरने पर इतना विलाप मत करिए! क्योंकि गोविन्द ब्राह्मण का युवा-ब्राह्मण पुत्र जोतिपाल, अपने पिता से बड़ा पंडित है, अपने पिता से बड़ा अर्थदर्शी [=अर्थ देखने वाला] है। जो सलाहकारी उसके पिता करते थे, वह सलाहकारी युवा-ब्राह्मण जोतिपाल भी करेगा।”

“ऐसा है, राजकुमार?”

“हाँ, महाराज!”

६. महागोविन्द कथा

तब, राजा दिसम्पति ने किसी पुरुष को संबोधित किया, “जाओ, पुरुष! युवा-ब्राह्मण जोतिपाल के पास जाओ। और, उसके पास जाकर कहो, ‘शुभमंगल हो, श्रीमान जोतिपाल! राजा दिसम्पति ने श्रीमान जोतिपाल युवा-ब्राह्मण को आमंत्रित किया है। राजा दिसम्पति श्रीमान जोतिपाल युवा-ब्राह्मण को देखना चाहते है।’”

“ठीक है, महाराज!” उस पुरुष ने राजा दिसम्पति को उत्तर दिया, और युवा-ब्राह्मण जोतिपाल के पास गया। और, उसके पास जाकर कहा, “शुभमंगल हो, श्रीमान जोतिपाल! राजा दिसम्पति ने श्रीमान जोतिपाल युवा-ब्राह्मण को आमंत्रित किया है। राजा दिसम्पति श्रीमान जोतिपाल युवा-ब्राह्मण को देखना चाहते है।”

“ठीक है, श्रीमान!” जोतिपाल युवा-ब्राह्मण ने उस पुरुष को उत्तर दिया, राजा दिसम्पति के पास गया, और राजा दिसम्पति का हालचाल लिया। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप करने के पश्चात एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे जोतिपाल युवा-ब्राह्मण से राजा दिसम्पति ने कहा, “मेरे सलाहकार बनो, श्रीमान जोतिपाल। मेरे सलाहकारी कार्य को मना मत करो, श्रीमान जोतिपाल! मैं आपके पिता के स्थान पर आप को नियुक्त करता हूँ, गोविन्द पद पर आप को अभिषिक्त करता हूँ।”

“ठीक है, श्रीमान!” जोतिपाल युवा-ब्राह्मण ने राजा दिसम्पति को उत्तर दिया। तब राजा दिसम्पति ने जोतिपाल युवा-ब्राह्मण को उसके पिता के स्थान पर नियुक्त किया, गोविन्द पद पर अभिषिक्त किया। अभिषिक्त होने पर, जोतिपाल युवा-ब्राह्मण ने गोविन्द पद पर रहकर, उन कार्यों में सलाहकारी की, जो उसके पिता करते थे, और उन कार्यों में भी सलाहकारी की, जो उसके पिता नहीं कर पाते थे। उसने वह कामकाज देखा, जो उसके पिता देखते थे, और वह भी कामकाज देखा, जो उसके पिता नहीं देख पाते थे।

तब, लोग कहने लगे, “यह ब्राह्मण तो वाकई गोविन्द है! यह ब्राह्मण तो महा-गोविन्द है!” और, इस तरह, युवा-ब्राह्मण जोतिपाल का गोविन्द पद पर रहते हुए महा-गोविन्द नाम उत्पन्न हुआ।”

६.१ राज्य विभाजन

“तब, [जोतिपाल] महागोविन्द ब्राह्मण छह [पूर्व-मित्र] क्षत्रियों के पास गया, और जाकर उन छह क्षत्रियों से कहा, “राजा दिसम्पति वृद्ध, बूढ़े, पकी उम्र के, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त हो चुके है! कौन जानता है कितना जीवित रहेंगे? ऐसा लगता है, जैसे राजा दिसम्पति के गुजरते ही राजकर्ता [=राजा बनाने वाले] लोग राजपद पर राजपुत्र रेणु का राज्याभिषेक करेंगे। तब, आओ श्रीमनों, राजपुत्र रेणु के पास जाओ। और राजपुत्र रेणु को जाकर कहो, ‘हम लोग आप श्रीमान रेणु के मित्र हैं, प्रिय हैं, मनचाहे हैं, अनुकूल हैं। आप श्रीमान के सुख हमारे सुख हैं, और आप श्रीमान के दुःख हमारे दुःख हैं। राजा दिसम्पति वृद्ध, बूढ़े, पकी उम्र के, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त हो चुके है! कौन जानता है कितना जीवित रहेंगे? ऐसा लगता है, जैसे राजा दिसम्पति के गुजरते ही राजकर्ता लोग राजपद पर श्रीमान रेणु का राज्याभिषेक करेंगे। यदि आप श्रीमान रेणु को राजपद हासिल होता है, तब वे हम लोगों के साथ राज्य संविभाग करें [बाँटें]।’”

“ठीक है, श्रीमान!” उन छह क्षत्रियों ने महागोविन्द ब्राह्मण को उत्तर दिया, और राजपुत्र रेणु के पास गए। और, जाकर कहा, “हम लोग आप श्रीमान रेणु के मित्र हैं, प्रिय हैं, मनचाहे हैं, अनुकूल हैं। आप श्रीमान के सुख हमारे सुख हैं, और आप श्रीमान के दुःख हमारे दुःख हैं। राजा दिसम्पति वृद्ध, बूढ़े, पकी उम्र के, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त हो चुके है! कौन जानता है कितना जीवित रहेंगे? ऐसा लगता है, जैसे राजा दिसम्पति के गुजरते ही राजकर्ता लोग राजपद पर श्रीमान रेणु का राज्याभिषेक करेंगे। यदि आप श्रीमान रेणु को राजपद हासिल होता है, तब वे हम लोगों के साथ राज्य संविभाग करें।”

“भला मेरे राज में आप के अलावा कौन दूसरा सुखी होगा? यदि वाकई मुझे राजपद हासिल होता है, तो मैं आप लोगों के साथ राज्य संविभाग करूँगा।”

तब, कुछ दिनों में राजा दिसम्पति गुजर गया। राजा दिसम्पति के गुजरते ही राजकर्ता लोगों ने राजपद पर श्रीमान रेणु का राज्याभिषेक किया। अभिषिक्त होकर, राजा रेणु पाँच कामभोग में लिप्त होकर मजे में डूब गया।

तब महागोविन्द ब्राह्मण उन छह क्षत्रियों के पास गया, और जाकर उन छह क्षत्रियों से कहा, “श्रीमानों, राजा दिसम्पति गुजर गए। और अभिषिक्त होकर, राजा रेणु पाँच कामभोग में लिप्त होकर मजे में डूब गया है। कौन जानता है कामभोग में मदहोशी क्या-क्या कराती है? आप, श्रीमानों, राजा रेणु के पास जाएँ और जाकर राजा रेणु से कहें, ‘श्रीमान, राजा दिसम्पति गुजर गए। क्या, अभिषिक्त होकर, राजा रेणु को अपने वचन याद है?”

“ठीक है, श्रीमान!” उन छह क्षत्रियों ने महागोविन्द ब्राह्मण को उत्तर दिया, और राजपुत्र रेणु के पास गए। और, जाकर कहा, “श्रीमान, राजा दिसम्पति गुजर गए। क्या, अभिषिक्त होकर, राजा रेणु को अपने वचन याद है?”

“मुझे याद है, श्रीमानों! किन्तु, श्रीमानों, ऐसा कौन है जो उत्तर-दिशा में इतनी चौड़ी और दक्षिण-दिशा में गाड़ी के मुख जैसी संकीर्ण इस महापृथ्वी [=प्राचीन भारत] को सात समान भागों में विभाजित कर सकता है?”

“भला महागोविन्द ब्राह्मण के अलावा और कौन दूसरा कर सकता है?”

तब रेणु राजा ने किसी पुरुष को संबोधित किया, “जाओ, पुरुष! महागोविन्द ब्राह्मण के पास जाओ। और, उसके पास जाकर कहो, ‘आदरणीय, राजा रेणु ने आप को आमंत्रित किया है।’”

“ठीक है, महाराज!” उस पुरुष ने राजा रेणु को उत्तर दिया, और महागोविन्द ब्राह्मण के पास गया। और, उसके पास जाकर कहा, “आदरणीय, राजा रेणु ने आप को आमंत्रित किया है।”

“ठीक है, श्रीमान!” महागोविन्द ब्राह्मण ने उस पुरुष को उत्तर दिया, राजा रेणु के पास गया, और राजा रेणु का हालचाल लिया। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप करने के पश्चात एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे महागोविन्द ब्राह्मण से राजा रेणु ने कहा, “आओ, श्रीमान गोविन्द, उत्तर-दिशा में इतनी चौड़ी और दक्षिण-दिशा में गाड़ी के मुख जैसी संकीर्ण इस महापृथ्वी को सात समान भागों में विभाजित करो।”

“ठीक है, श्रीमान!” महागोविन्द ब्राह्मण ने राजा रेणु को उत्तर दिया, और उत्तर-दिशा में इतनी चौड़ी और दक्षिण-दिशा में गाड़ी के मुख जैसी संकीर्ण इस महापृथ्वी को सात समान भागों में विभाजित किया। सभी [राज्य] गाड़ी के मुख जैसे संकीर्ण स्थापित हुए। सभी [राज्यों] के मध्य राजा रेणु का जनपद बना।

कलिङ्गों के लिए दन्तपुर,
अस्सकों के लिए पोतन।
महेशियों के लिए अवन्ती,
सोवीरों के लिए रोरुक।
विदेहों के लिए मिथिला,
अङ्गों के लिए चम्पा,
काशियों के लिए बाराणसी,
गोविन्द ने ऐसे बसा दिए।

1

तब, वे छह क्षत्रिय अपनी-अपनी सत्ताप्राप्ति से अत्यंत प्रसन्न हुए, उनके संकल्प परिपूर्ण [ख़्वाहिश पूरी] हुए, “जिसकी हमें इच्छा थी, आकांक्षा थी, उत्कंठा थी, लालसा थी, वही हमें प्राप्त हुआ!”

सत्तभू और ब्रह्मदत्त,
वेस्सभू और भरत;
रेणु और दो धृतराष्ट्र,
ये सात 'भारत' थे।

2


६.२ यशकिर्ति

तब, वे छह क्षत्रिय महागोविन्द ब्राह्मण के पास गए, और महागोविन्द ब्राह्मण से कहा, “जिस तरह श्रीमान गोविन्द राजा रेणु के मित्र है, प्रिय है, मनचाहे है, अनुकूल है। उसी तरह, श्रीमान गोविन्द हमारे भी मित्र है, प्रिय है, मनचाहे है, अनुकूल है। हमारे सलाहकार बनो, श्रीमान गोविन्द। हमारे सलाहकारी कार्य को मना मत करो, श्रीमान गोविन्द।”

“ठीक है, श्रीमानों!” महागोविन्द ब्राह्मण ने छह क्षत्रियों को उत्तर दिया। तब महागोविन्द ब्राह्मण ने सातों क्षत्रिय राजाओं, राजतिलक किए नरेशों की सलाहकारी की, और सात महासंपत्तिशाली ब्राह्मणों, और सात-सौ स्नातकों को मंत्र [=वेद] पढ़ाने लगे। तब, कुछ समय बीतने के बाद महागोविन्द ब्राह्मण की यशकिर्ति फैल गयी, “महागोविन्द ब्राह्मण साक्षात ब्रह्मा को देखता है! महागोविन्द ब्राह्मण साक्षात ब्रह्मा से चर्चा करता है, वार्तालाप करता है, सलाह-मशवरा करता है!”

तब, महागोविन्द ब्राह्मण को लगा, “मेरी तो यशकिर्ति फैल गयी है कि “महागोविन्द ब्राह्मण साक्षात ब्रह्मा को देखता है! महागोविन्द ब्राह्मण साक्षात ब्रह्मा से चर्चा करता है, वार्तालाप करता है, सलाह-मशवरा करता है!” किन्तु, मैं न तो ब्रह्मा को देखता हूँ, न ब्रह्मा से चर्चा करता हूँ, न वार्तालाप करता है, न सलाह-मशवरा ही करता हूँ! किन्तु, मैंने वृद्ध, पकी उम्र के ब्राह्मण आचार्य-प्राचार्यों से सुना है कि “जो भी वर्षावास के चार महीनों में एकांतवास लेता है, करुणा-ध्यान का ध्यान लगाता है, वह ब्रह्मा को देखता है, ब्रह्मा से चर्चा करता है, वार्तालाप करता है, सलाह-मशवरा करता है!” क्यों न मैं वर्षावास के चार महीनों में एकांतवास लेकर करुणा-ध्यान का ध्यान लगाऊँ?”

तब महागोविन्द ब्राह्मण राजा रेणु के पास गया, और जाकर रेणु राजा को कहा, “श्रीमान, मेरी यशकिर्ति फैल गयी है कि “महागोविन्द ब्राह्मण साक्षात ब्रह्मा को देखता है! महागोविन्द ब्राह्मण साक्षात ब्रह्मा से चर्चा करता है, वार्तालाप करता है, सलाह-मशवरा करता है!” किन्तु, मैं न तो ब्रह्मा को देखता हूँ, न ब्रह्मा से चर्चा करता हूँ, न वार्तालाप करता है, न सलाह-मशवरा ही करता हूँ! किन्तु, मैंने वृद्ध, पकी उम्र के ब्राह्मण आचार्य-प्राचार्यों से सुना है कि “जो भी वर्षावास के चार महीनों में एकांतवास लेता है, करुणा-ध्यान का ध्यान लगाता है, वह ब्रह्मा को देखता है, ब्रह्मा से चर्चा करता है, वार्तालाप करता है, सलाह-मशवरा करता है!” तो, श्रीमान, मुझे वर्षावास के चार महीनों में एकांतवास लेकर करुणा-ध्यान का ध्यान लगाने की इच्छा है। उस दौरान मेरे पास भिक्षा लाने वाले के अलावा और कोई न आएँ।”

“जो समय श्रीमान गोविन्द उचित समझे।”

तब, महागोविन्द ब्राह्मण छह क्षत्रियों के पास गया, और जाकर छह क्षत्रियों को कहा, “श्रीमान, मेरी यशकिर्ति फैल गयी है… तो, श्रीमान, मुझे वर्षावास के चार महीनों में एकांतवास लेकर करुणा-ध्यान का ध्यान लगाने की इच्छा है। उस दौरान मेरे पास भिक्षा लाने वाले के अलावा और कोई न आएँ।”

“जो समय श्रीमान गोविन्द उचित समझे।”

तब, महागोविन्द ब्राह्मण सात महासंपत्तिशाली ब्राह्मणों और सात-सौ स्नातकों के पास गया, और जाकर उनसे कहा, “श्रीमान, मेरी यशकिर्ति फैल गयी है… तो, श्रीमानों ने मंत्रों को विस्तार से जिस तरह सुना हैं, जिस तरह रटा हैं, उसी तरह पठन करें। और, एक-दूसरे को मंत्र पढ़ाएँ। मुझे वर्षावास के चार महीनों में एकांतवास लेकर करुणा-ध्यान का ध्यान लगाने की इच्छा है। उस दौरान मेरे पास भिक्षा लाने वाले के अलावा और कोई न आएँ।”

“जो समय श्रीमान गोविन्द उचित समझे।”

तब, महागोविन्द ब्राह्मण अपने चालीस पत्नियों के पास गया, और जाकर उनसे कहा, “श्रीमती, मेरी यशकिर्ति फैल गयी है… तो, श्रीमती, मुझे वर्षावास के चार महीनों में एकांतवास लेकर करुणा-ध्यान का ध्यान लगाने की इच्छा है। उस दौरान मेरे पास भिक्षा लाने वाले के अलावा और कोई न आएँ।”

“जो समय श्रीमान गोविन्द उचित समझे।”

तब, महागोविन्द ब्राह्मण ने नगर के पूर्व-दिशा में एक नया समारोह-कक्ष बनवाया, और वर्षावास के चार महीनों में एकांतवास लेकर करुणा-ध्यान का ध्यान लगाया। उस दौरान उसके पास भिक्षा लाने वाले के अलावा और कोई नहीं आया। किन्तु, महागोविन्द ब्राह्मण चार महीने बीतने पर निराश और व्याकुल हो गया, “मैंने वृद्ध, पकी उम्र के ब्राह्मण आचार्य-प्राचार्यों से सुना था कि “जो भी वर्षावास के चार महीनों में एकांतवास लेता है, करुणा-ध्यान का ध्यान लगाता है, वह ब्रह्मा को देखता है, ब्रह्मा से चर्चा करता है, वार्तालाप करता है, सलाह-मशवरा करता है!” किन्तु, मैं न तो ब्रह्मा को देखता हूँ, न ब्रह्मा से चर्चा करता हूँ, न वार्तालाप करता है, न सलाह-मशवरा ही करता हूँ!”

६.३ ब्रह्मा के साथ चर्चा

तब, ब्रह्मा सनङ्कुमार ने अपने चित्त से महागोविन्द ब्राह्मण के चित्त की बात जान ली। और, तब जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, ब्रह्मा सनङ्कुमार ब्रह्मलोक से विलुप्त हुआ, और महागोविन्द ब्राह्मण के आगे प्रकट हुआ। तब, महागोविन्द ब्राह्मण को भय और घबराहट होकर, उसके रोंगटे खड़े हुए, क्योंकि उसे ऐसा रूप पहले कभी नहीं दिखा था। तब, महागोविन्द ब्राह्मण ने भयभीत और घबराकर, रोंगटे खड़े किए, ब्रह्मा सनङ्कुमार से गाथाओं में कहा:

"इतने सुंदर और यशस्वी, श्रीमान,
कौन है आप महाशय?
अनजान, मैं आपसे पूछता,
भला, कैसे जाने आप कौन है?"

"ब्रह्मलोक में जाना जाता हूँ,
सनातन कुमार [=सदैव युवा] के नाम से।
सभी देवतागण मुझे हैं जानते,
गोविन्द, तुम वैसा ही जानो।"

"आसन, पैर धोने के जल,
और मीठे साग से, हे ब्रह्मा,
मैं अर्पित करता महाशय को,
स्वीकारे यह अतिथि सत्कार।

"ग्रहण करता हूँ अतिथि-सत्कार,
जो, गोविन्द, अर्पित करते हो।
अभी इसी जीवन के हित के लिए,
और अगले जीवन में सुख के लिए,
अवसर देता हूँ, पुछने का,
जो चाहो, पूछ सकते हो।"

तब, महागोविन्द ब्राह्मण को लगा, “ब्रह्मा सनङ्कुमार ने पुछने का अवसर दिया है। क्यों न मैं ब्रह्मा सनङ्कुमार से अभी इसी जीवन के हित के बारे में, और अगले जीवन में सुख के बारे में पुछूँ?” किन्तु, तब, महागोविन्द ब्राह्मण को लगा, “अभी इसी जीवन के हित के बारे में मैं स्वयं कुशल हूँ। [यहाँ तक कि] दूसरे लोग मुझे अभी इसी जीवन के हित के बारे में पुछते रहते हैं। क्यों न मैं ब्रह्मा सनङ्कुमार से अगले जीवन के हित के बारे में पुछूँ?” तब, महागोविन्द ब्राह्मण ने ब्रह्मा सनङ्कुमार से गाथाओं में कहा:

"सशंकित होकर, मैं पूछता हूँ,
ब्रह्मा सनङ्कुमार, शंका-रहित से,
मानव क्या सीख कर, किस के सहारे,
अमृत ब्रह्मलोक प्राप्त करता है?"

"ब्राह्मण, मानवों में आत्म-प्रेम छोड़ना,
एकांत में रहना, करुणा से ओतप्रोत होना,
बिना आमगन्ध [=सड़न, भ्रष्ट] के, संभोग से विरत,
मानव यह सीख कर, इस के सहारे,
अमृत ब्रह्मलोक प्राप्त करता है।"

आत्म-प्रेम छोड़ना, महाशय, मैं जानता हूँ। जब कोई छोटी-बड़ी धनसंपत्ति त्याग कर, छोटा-बड़ा घर-परिवार त्याग कर, सिर-दाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रव्रजित होता है। उसी को मैं ‘आत्म-प्रेम छोड़ना’ समझता हूँ।

एकांत में रहना भी, महाशय, मैं जानता हूँ। जब कोई निर्जन स्थल जाता है — जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। उसी को मैं ‘एकांत में रहना’ समझता हूँ।

करुणा से ओतप्रोत होना भी, महाशय, मैं जानता हूँ। जब कोई करुण-चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह, दूसरी-दिशा में, उसी तरह, तीसरी-दिशा में, उसी तरह, चौथी-दिशा में, ऊपर, नीचे, तत्र सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम करुण-चित्त फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। उसी को मैं ‘करुणा से ओतप्रोत होना’ समझता हूँ।

किन्तु, महाशय, आप के द्वारा बताए आमगन्ध को मैं नहीं जानता हूँ।

मानवों में आमगन्ध क्या है, ब्रह्मे?
मैं नहीं समझा, कृपया बताएँ, धैर्यवान।
किस में लिपटकर जनता, दुर्गंधित हो जाती है?
अधोगति में गिरकर, ब्रह्मलोक से बाहर होती है?"

"क्रोध, झूठ बोलना, ठगना, पाखंड,
कंजूसी, अहंकार, और ईर्ष्या,
इच्छा, लालसा, पर-पीड़ा,
लोभ, द्वेष, मदहोशी, और भ्रम,
इनसे जुड़े कोई आमगन्धी होते हैं,
अधोगति में गिरकर, ब्रह्मलोक से बाहर होते है।"

“आप के बताने से, महाशय, मैं आमगन्ध समझ गया। घर में रहकर उन्हें अच्छे से कुचलना सरल नहीं है। महाशय, मैं घर से बेघर हो, संन्यास लूँगा।”

“जो समय श्रीमान गोविन्द उचित समझे।”

६.४ राजा रेणु को बताना

तब, महागोविन्द ब्राह्मण रेणु राजा के पास गया, और जाकर रेणु राजा से कहा, “श्रीमान, अब किसी दूसरे पुरोहित की खोज करें, जो श्रीमान की राज-सलाहकारी करेगा। मेरी घर से बेघर होकर संन्यास लेने की इच्छा है। ब्रह्म से आमगन्ध के बारे में सुनकर, लगता है जैसे घर में रहकर उन्हें अच्छे से कुचलना सरल नहीं है। अतः महाशय, मैं घर से बेघर हो, संन्यास लूँगा।”

"मैं घोषित करता हूँ, राजा,
रेणु, जो भूमिपति है।
अपना राज्य देख लें,
मैं पुरोहित्व में खुश नहीं।"

"कामभोग की जो कमी रही हो,
मैं उसे परिपूर्ण करूँगा।
मैं हिंसा से बचाऊँगा।
मैं भूमि का सेनापति!
तुम पिता हो, मैं पुत्र हूँ!
गोविन्द मत जाओ छोड़कर!"

"कामभोग की मुझे कमी नहीं,
किसी से हिंसा दिखती नहीं।
अमनुष्य वाणी से सुनकर,
मैं गृहस्थी में खुश नहीं।"

"कैसी अमनुष्य की वाणी?
आप से क्या कह दिया है?
जिसे सुन, आप छोड़ जाते है,
अपनी गृहस्थी, और हम लोगों को?"

"एकांतवास से पहले,
यज्ञ कार्यों में जागरूक था,
कुश और पत्ते बिछाकर, मैं
अग्नि प्रज्वलित करता था।
तब, ब्रह्मलोक से प्रकट हुआ,
सनातन [सदैव युवा] ब्रह्मा।
मेरे प्रश्नों का उत्तर दिया,
सुनकर मैं गृहस्थी में खुश नहीं।"

"मुझे श्रद्धा है, श्रीमान,
तुम्हारी बातों में, ओ गोविन्द!
अमनुष्य की बात सुनकर,
भला, इसके अलावा, क्या करोगे?"
हम भी आप के पीछे चलेंगे,
ओ गोविन्द, हमारे शास्ता बनें।
वैदूर्य मणि की तरह,
निर्दोष, निर्मल और शुभ्र,
हम ऐसा शुद्ध आचरण करेंगे,
गोविन्द के अनुशासन में।

यदि श्रीमान गोविन्द घर से बेघर होकर संन्यास लेते है, तब हम भी घर से बेघर होकर संन्यास लेंगे। जो गति आप की होगी, वही गति हमारी भी होगी।”

६.५ छह क्षत्रियों को बताना

तब, महागोविन्द ब्राह्मण छह क्षत्रियों के पास गया, और जाकर छह क्षत्रियों से कहा, “श्रीमान, अब किसी दूसरे पुरोहित की खोज करें, जो श्रीमानों की राज-सलाहकारी करेगा। मेरी घर से बेघर होकर संन्यास लेने की इच्छा है। ब्रह्म से आमगन्ध के बारे में सुनकर, लगता है जैसे घर में रहकर उन्हें अच्छे से कुचलना सरल नहीं है। अतः महाशय, मैं घर से बेघर हो, संन्यास लूँगा।”

तब, वे छह क्षत्रिय एक ओर गए, और सोच-विचार करने लगे, “ब्राह्मण लोग धन-लोभी होते हैं। क्यों न हम महागोविन्द ब्राह्मण को धन से समझाएँ?”

तब वे महागोविन्द ब्राह्मण के पास लौटें, और कहा, “इन सात राज्यों में, श्रीमान, बेहद धनसंपत्ति विद्यमान है। जितना श्रीमान चाहेंगे, हम उतना देंगे।”

“बहुत हुआ, श्रीमानों! मेरे पास ही आप बेहद धनसंपत्ति श्रीमानों के कारण जमा है। उस सब को त्याग कर, मैं घर से बेघर होकर संन्यास लूँगा। ब्रह्म से आमगन्ध के बारे में सुनकर, लगता है जैसे घर में रहकर उन्हें अच्छे से कुचलना सरल नहीं है। अतः महाशय, मैं घर से बेघर हो, संन्यास लूँगा।”

तब, वे छह क्षत्रिय पुनः एक ओर गए, और सोच-विचार करने लगे, “ब्राह्मण लोग स्त्री-लोभी होते हैं। क्यों न हम महागोविन्द ब्राह्मण को स्त्री से समझाएँ?”

तब वे महागोविन्द ब्राह्मण के पास लौटें, और कहा, “इन सात राज्यों में, श्रीमान, बहुत स्त्रियाँ विद्यमान है। जितना श्रीमान चाहेंगे, हम उतना देंगे।”

“बहुत हुआ, श्रीमानों! मेरी ही चालीस पत्नियाँ है। उन सब को त्याग कर, मैं घर से बेघर होकर संन्यास लूँगा। ब्रह्म से आमगन्ध के बारे में सुनकर, लगता है जैसे घर में रहकर उन्हें अच्छे से कुचलना सरल नहीं है। अतः महाशय, मैं घर से बेघर हो, संन्यास लूँगा।”

“यदि श्रीमान गोविन्द घर से बेघर होकर संन्यास लेते है, तब हम भी घर से बेघर होकर संन्यास लेंगे। जो गति आप की होगी, वही गति हमारी भी होगी।”

"यदि आप कामभोग त्यागते हैं,
सामान्य-जन जिसमें फँसे हुए हैं,
दृढ़ होकर आरंभ करें,
सहनशील बल में समाहित हो।

सीधा, यह मार्ग है,
अनुत्तर, यह मार्ग है,
सद्धर्म गुणों से रक्षित है,
ब्रह्मलोक प्राप्त कराता है।"

“तब, श्रीमान गोविन्द सात वर्ष प्रतीक्षा करें। सात वर्ष बीतने पर, हम भी घर से बेघर होकर संन्यास लेंगे। जो गति आप की होगी, वही गति हमारी भी होगी।”

“सात वर्ष बहुत लंबा काल है, श्रीमानों! मैं सात वर्ष प्रतीक्षा नहीं कर सकता। भला जीवन का कौन जानता है? जब [मर के] अगले जन्म की ओर बढ़ना है, तो हमें बोधि [=जागृति] का सोचना चाहिए, कुशल कृत्य करना चाहिए, ब्रह्मचर्य आचरण करना चाहिए। क्योंकि कोई जन्मा अमर नहीं है। ब्रह्म से आमगन्ध के बारे में सुनकर, लगता है जैसे घर में रहकर उन्हें अच्छे से कुचलना सरल नहीं है। अतः महाशय, मैं घर से बेघर हो, संन्यास लूँगा।”

“तब, श्रीमान गोविन्द छह वर्ष प्रतीक्षा करें… पाँच वर्ष प्रतीक्षा करें… चार वर्ष प्रतीक्षा करें… तीन वर्ष प्रतीक्षा करें… दो वर्ष प्रतीक्षा करें… एक वर्ष प्रतीक्षा करें। एक वर्ष बीतने पर, हम भी घर से बेघर होकर संन्यास लेंगे। जो गति आप की होगी, वही गति हमारी भी होगी।”

“एक वर्ष बहुत लंबा काल है, श्रीमानों! मैं एक वर्ष भी प्रतीक्षा नहीं कर सकता। भला जीवन का कौन जानता है? जब अगले जन्म की ओर बढ़ना है, तो हमें बोधि का सोचना चाहिए, कुशल कृत्य करना चाहिए, ब्रह्मचर्य आचरण करना चाहिए। क्योंकि कोई जन्मा अमर नहीं है। ब्रह्म से आमगन्ध के बारे में सुनकर, लगता है जैसे घर में रहकर उन्हें अच्छे से कुचलना सरल नहीं है। अतः महाशय, मैं घर से बेघर हो, संन्यास लूँगा।”

“तब, श्रीमान गोविन्द छह महीने प्रतीक्षा करें… पाँच महीने प्रतीक्षा करें… चार महीने प्रतीक्षा करें… तीन महीने प्रतीक्षा करें… दो महीने प्रतीक्षा करें… एक महिना प्रतीक्षा करें… आधा महिना प्रतीक्षा करें। आधा महिना बीतने पर, हम भी घर से बेघर होकर संन्यास लेंगे। जो गति आप की होगी, वही गति हमारी भी होगी।”

“आधा महिना बहुत लंबा काल है, श्रीमानों! मैं आधा महिना भी प्रतीक्षा नहीं कर सकता। भला जीवन का कौन जानता है? जब अगले जन्म की ओर बढ़ना है, तो हमें बोधि का सोचना चाहिए, कुशल कृत्य करना चाहिए, ब्रह्मचर्य आचरण करना चाहिए। क्योंकि कोई जन्मा अमर नहीं है। ब्रह्म से आमगन्ध के बारे में सुनकर, लगता है जैसे घर में रहकर उन्हें अच्छे से कुचलना सरल नहीं है। अतः महाशय, मैं घर से बेघर हो, संन्यास लूँगा।”

“तब, श्रीमान गोविन्द एक सप्ताह प्रतीक्षा करें। एक सप्ताह बीतने पर, हम भी घर से बेघर होकर संन्यास लेंगे। जो गति आप की होगी, वही गति हमारी भी होगी।”

“एक सप्ताह बहुत लंबा काल नहीं है, श्रीमानों! मैं एक सप्ताह प्रतीक्षा कर सकता हूँ।”

६.६ महासंपत्तिशाली ब्राह्मण और स्नातकों को बताना

तब, महागोविन्द ब्राह्मण सात महासंपत्तिशाली ब्राह्मणों और सात-सौ स्नातकों के पास गया, और जाकर उनसे कहा, ““श्रीमानों, अब किसी दूसरे आचार्य की खोज करें, जो श्रीमानों को मंत्र पढ़ाएँ। मेरी घर से बेघर होकर संन्यास लेने की इच्छा है। ब्रह्म से आमगन्ध के बारे में सुनकर, लगता है जैसे घर में रहकर उन्हें अच्छे से कुचलना सरल नहीं है। अतः महाशय, मैं घर से बेघर हो, संन्यास लूँगा।”

“मत, श्रीमान गोविन्द, घर से बेघर होकर संन्यास ले। संन्यासी का प्रभाव कम ही होता है, उसे लाभ-प्राप्ति कम ही होती है। जबकि ब्राह्मण महा-प्रभावशाली होता है, उसे महा-लाभ की प्राप्ति होती है।”

“श्रीमानों, ऐसा मत कहों कि ‘संन्यासी का प्रभाव कम होता है, उसे लाभ-प्राप्ति कम होती है। जबकि ब्राह्मण महा-प्रभावशाली होता है, उसे महा-लाभ की प्राप्ति होती है।’ मेरे अलावा भला दूसरा कौन महाप्रभावशाली और महा-लाभी होगा? क्योंकि, श्रीमानों, मैं ही राजाओं पर जैसे राज करता हूँ, ब्राह्मणों के लिए जैसे ब्रह्मा हूँ, गृहस्थों के लिए जैसे देवता हूँ। उन सब को त्याग कर, मैं घर से बेघर होकर संन्यास लूँगा। ब्रह्म से आमगन्ध के बारे में सुनकर, लगता है जैसे घर में रहकर उन्हें अच्छे से कुचलना सरल नहीं है। अतः महाशय, मैं घर से बेघर हो, संन्यास लूँगा।”

“यदि श्रीमान गोविन्द घर से बेघर होकर संन्यास लेते है, तब हम भी घर से बेघर होकर संन्यास लेंगे। जो गति आप की होगी, वही गति हमारी भी होगी।”

६.७ पत्नियों को बताना

तब महागोविन्द ब्राह्मण अपने चालीस पत्नियों के पास गया, और उनसे कहा, “जो श्रीमतियों की इच्छा हो, वह करें। चाहे तो अपने कुल-परिवार [=मायके] लौट जाएँ, अथवा नये पति की खोज करें। मेरी घर से बेघर होकर संन्यास लेने की इच्छा है। ब्रह्म से आमगन्ध के बारे में सुनकर, लगता है जैसे घर में रहकर उन्हें अच्छे से कुचलना सरल नहीं है। अतः महाशय, मैं घर से बेघर हो, संन्यास लूँगा।”

“आप ही, श्रीमान गोविन्द, हमारा परिवार है। आप ही हमारे पति है। यदि श्रीमान गोविन्द घर से बेघर होकर संन्यास लेते है, तब हम भी घर से बेघर होकर संन्यास लेंगे। जो गति आप की होगी, वही गति हमारी भी होगी।”

६.८ महागोविन्द का संन्यास

तब, एक सप्ताह बीतने पर, महागोविन्द ब्राह्मण ने सिर-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर, प्रव्रजित हो गया। और, महागोविन्द ब्राह्मण के संन्यास लेते ही, सात क्षत्रिय राजा, राजतिलक किए नरेशों ने, सात महासंपत्तिशाली ब्राह्मणों और सात-सौ स्नातकों ने, चालीस पत्नियों ने, और साथ ही अनेक हजारों ब्राह्मणों ने, अनेक हजारों गृहस्थों ने, अंतःपुर की अनेक रानियों ने सिर मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, महागोविन्द ब्राह्मण के साथ घर से बेघर होकर, प्रव्रजित हो गए।

उस परिषद से घिरे, महागोविन्द ब्राह्मण गांवों, नगरों, और राजधानियों में भ्रमण करने लगे। और, उस समय, महागोविन्द ब्राह्मण जिस गाँव, नगर, या राजधानी में जाते, वहाँ के राजाओं के वह जैसे राजा होते, ब्राह्मणों के लिए जैसे ब्रह्मा होते, गृहस्थों के लिए जैसे देवता होते। उस समय, यदि कोई मनुष्य छींकता या लड़खड़ाता, तो कहता, “नमन है महागोविन्द ब्राह्मण को! नमन है सात पुरोहितों को!”

तब, महागोविन्द ब्राह्मण, [मेत्ता] सद्भाव-चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता था। उसी तरह, दूसरी-दिशा में, उसी तरह, तीसरी-दिशा में, उसी तरह, चौथी-दिशा में, ऊपर, नीचे, तत्र सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम सद्भाव-चित्त फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता था।

तब, महागोविन्द ब्राह्मण, [करुणा] करुण-चित्त को… [मुदिता] प्रसन्न-चित्त को… [उपेक्खा] तटस्थ-चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता। उसी तरह, दूसरी-दिशा में, उसी तरह, तीसरी-दिशा में, उसी तरह, चौथी-दिशा में, ऊपर, नीचे, तत्र सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम तटस्थ-चित्त फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता। और, वह अपने श्रावकों को ब्रह्मलोक में प्रकट होने का मार्ग बताता था।

और, जो श्रावकों ने उस समय महागोविन्द ब्राह्मण की सूचनाएँ पूर्ण तरह से समझ ली, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुए। और, जो श्रावकों ने उस समय महागोविन्द ब्राह्मण की सूचनाएँ पूर्ण तरह से नहीं समझी, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर परनिर्मित वशवर्ती लोक में उत्पन्न हुए। कुछ निर्माणरति देवताओं के साथ उत्पन्न हुए। कुछ तुषित देवताओं के साथ उत्पन्न हुए। कुछ यामा देवताओं के साथ उत्पन्न हुए। कुछ तैतीस देवताओं के साथ उत्पन्न हुए। कुछ चार महाराज देवताओं के साथ उत्पन्न हुए। और, सबसे पिछड़ों ने गंधब्ब-लोक भर दिये। और, इस तरह, उन सभी कुलपुत्रों का संन्यास निष्फल नहीं, बल्कि सार्थक, सफल, और उन्नत हुई। क्या भगवान को यह स्मरण है?”

“मुझे स्मरण है, पञ्चशिख। मैं ही उस समय महागोविन्द ब्राह्मण था! मैंने ही उन श्रावकों को ब्रह्मलोक में प्रकट होने का मार्ग बताया था। किन्तु, उस समय मेरा ब्रह्मचर्य न मोहभंग कराता, न विराग कराता, न निरोध कराता, न रोकथाम कराता, न प्रत्यक्ष-ज्ञान, न संबोधि, और न ही निर्वाण दिलाता था। बल्कि केवल ब्रह्मलोक की प्राप्ति कराता।

किन्तु, पञ्चशिख, इस समय मेरा ब्रह्मचर्य नितांत मोहभंग कराता है, विराग कराता है, निरोध कराता है, रोकथाम कराता है, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण दिलाता है। कौन-सा ब्रह्मचर्य, पञ्चशिख, नितांत मोहभंग कराता है, विराग कराता है, निरोध कराता है, रोकथाम कराता है, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण दिलाता है? यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग! अर्थात, सम्यक-दृष्टि, सम्यक-संकल्प, सम्यक-वचन, सम्यक-कार्य, सम्यक-जीविका, सम्यक-मेहनत, सम्यक-स्मृति, और सम्यक-समाधि। यह ब्रह्मचर्य, पञ्चशिख, नितांत मोहभंग कराता है, विराग कराता है, निरोध कराता है, रोकथाम कराता है, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण दिलाता है।

और, पञ्चशिख, जो श्रावक इस समय मेरी सूचनाएँ पूर्ण तरह से समझ लेते हैं, वे आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार करते हैं। और, जो श्रावक मेरी सूचनाएँ पूर्ण तरह से नहीं समझते, वे निचले पाँच संयोजन तोड़ कर, स्वप्रकट [=ओपपातिक] होते हैं, जो वही [शुद्धवास ब्रह्मलोक में] परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं, अब इस लोक में नहीं लौटते। और, फिर जो श्रावक मेरी सूचनाएँ पूर्ण तरह से नहीं समझते, वे तीन संयोजन तोड़ कर, राग-द्वेष-मोह को दुर्बल कर, सकृदागामी बनते हैं, जो इस लोक में दुबारा लौट कर अपने दुःखों का अन्त करते हैं। और, फिर जो श्रावक मेरी सूचनाएँ पूर्ण तरह से नहीं समझते, वे तीन संयोजन तोड़कर श्रोतापन्न बनते हैं, अ-पतन स्वभाव के, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर। और, इस तरह, पञ्चशिख, उन सभी कुलपुत्रों का संन्यास निष्फल नहीं होता, बल्कि सार्थक, सफल, और उन्नत होता हैं।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर पञ्चशिख गंधब्ब ने भगवान की बातों का अभिनंदन किया, और भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर, वहाँ से विलुप्त हो गया।

महागोविन्द सूत्र समाप्त!


  1. इन गाथाओं से पता चलता है कि ये सात राज्य कुछ इस तरह बसे थे। पूर्व-दिशा में कलिङ्ग से सूरज से खिलता था, और दक्षिण में बढ़ते हुए अङ्ग में समाप्त होते थे। उनके ठीक बीच काशियों का बाराणसी था, जो राजा रेणु का जनपद बना।

    कलिङ्गों का दन्तपुर वर्तमान में बंगाल की खाड़ी के समुद्री छोर ओड़ीशा और आन्ध्रप्रदेश से शुरू होता है। अस्सकों का पोतन कलिङ्ग के पश्चिमी छोर से वर्तमान के तेलंगाना राज्य के बोधन इलाके में आता है। महेशियों या माहिष्मतीयों की अवन्ती वर्तमान में नर्मदा नदी के किनारे मध्यप्रदेश में पड़ता है, जिसे शायद आज महेश्वर भी कहा जाता है। सोवीरों का रोरुक सिंधु नदी के निचले भाग, पाकिस्तान के सिन्ध राज्य में पड़ता है।

    विदेहों के लिए मिथिला राजधानी थी, जो वज्जियों के उत्तर-पूर्वी इलाके से सटकर हिमालय के तलहटी में थी। भगवान बुद्ध के समय मिथिला एक शक्तिशाली राज्य था, जो उपनिषद में राजा जनक का देश माना गया है। सतपथ ब्राह्मण १.४.१.१० में इस राज्य के विस्तार पाने के बारे में बताया गया है, जो पश्चिम में ब्राह्मण गोतम राहूगण के हाथो से राजा माथव विदेघ द्वारा अग्निपूजा करने से शुरू हुआ था।

    अङ्गों का चम्पा वर्तमान में बिहार राज्य के भागलपुर में चम्पापुरी नामक जगह है। अङ्गों का राज्य पश्चिम में चन्दन नदी से होकर पूर्व में राजमहल की घाटियों तक फैली थी। भगवान बुद्ध के प्रकट होने के सदियों पहले ही, उन्होने अपने राज्य को दक्षिण-पूर्वी इलाके में समुद्र तक, तो पश्चिम में मगध तक फैला दिया था। किन्तु, फिर कलिङ्ग ने उसे समुद्री किनारे से पीछे धकेला, और मगध में राजा बिम्बिसार के आने के बाद, वे अपने पुराने पुश्तैनी इलाके में सिमट गए, और अंततः मगध राज्य के विराट शासन में समर्पित हुए।

    दुनिया के सबसे प्राचीन नगरों में से एक, बाराणसी है, जो काशी लोगों के राजा काशी की राजधानी थी। भगवान बुद्ध के समय से पहले ही, वाराणसी का स्वतंत्र राज्य समाप्त हुआ और वह कोसल राज्य में मिलाया गया। वाराणसी असंख्य बौद्ध कथाओं में संदर्भित होता है, और भारतीय इतिहास में सार्वकालिक और सदाबहार रूप में महत्व रखता है। कहते हैं कि बाराणसी या बनारस ने इतिहास के अनेक महत्वपूर्ण राजाओं और महापुरुषों को अपनाया है। पुरातत्व विभाग को इसके प्राचीन अवशेष ईसापूर्व १२०० के मिले हैं। कहा जाता हैं कि यह ईसापूर्व ८०० के दौरान जम्बूद्वीप या प्राचीन भारतीय उपमहाद्वीप की राजधानी थी। इस सूत्र के अनुसार, बहुत प्राचीन काल में महागोविन्द ब्राह्मण ने ही प्राचीन भारत को इन सात प्रमुख राज्यों में बाँटा, और राजा रेणु को काशी का बाराणसी राज्य प्राप्त हुआ। ↩︎

  2. भारत का अर्थ, यहाँ “भारत के राज्य” है। वैदिक परंपरा में कहा जाता हैं कि हस्तिनापुर के राजा ‘भारत’ के नाम पर ही देश का नाम भारत पड़ा है, जो चन्द्रवंशिय होकर उन्होने संपूर्ण प्राचीन भारत पर एकछत्र राजशासन स्थापित किया था। महाभारत के सम्भवपर में यह कथा दर्ज होती है। किन्तु, यहाँ इस सूत्र के अनुसार, महगोविन्द ब्राह्मण, जो बुद्ध का एक पूर्वजन्मी था, उसी ने इस महापृथ्वी को इस तरह सात क्षत्रियों के सात राज्य में बाँट कर “भारत” बनाया। यही सात ‘भारत’ थे। ↩︎

Pali

२९३. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति गिज्झकूटे पब्बते। अथ खो पञ्चसिखो गन्धब्बपुत्तो अभिक्कन्ताय रत्तिया अभिक्कन्तवण्णो केवलकप्पं गिज्झकूटं पब्बतं ओभासेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो पञ्चसिखो गन्धब्बपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘यं खो मे, भन्ते, देवानं तावतिंसानं सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं, आरोचेमि तं भगवतो’’ति। ‘‘आरोचेहि मे त्वं, पञ्चसिखा’’ति भगवा अवोच।

देवसभा

२९४. ‘‘पुरिमानि, भन्ते, दिवसानि पुरिमतरानि तदहुपोसथे पन्नरसे पवारणाय पुण्णाय पुण्णमाय रत्तिया केवलकप्पा च देवा तावतिंसा सुधम्मायं सभायं सन्निसिन्ना होन्ति सन्निपतिता; महती च दिब्बपरिसा समन्ततो निसिन्ना होन्ति, चत्तारो च महाराजानो चतुद्दिसा निसिन्ना होन्ति; पुरत्थिमाय दिसाय धतरट्ठो महाराजा पच्छिमाभिमुखो निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा; दक्खिणाय दिसाय विरूळ्हको महाराजा उत्तराभिमुखो निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा; पच्छिमाय दिसाय विरूपक्खो महाराजा पुरत्थाभिमुखो निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा; उत्तराय दिसाय वेस्सवणो महाराजा दक्खिणाभिमुखो निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा। यदा भन्ते, केवलकप्पा च देवा तावतिंसा सुधम्मायं सभायं सन्निसिन्ना होन्ति सन्निपतिता, महती च दिब्बपरिसा समन्ततो निसिन्ना होन्ति, चत्तारो च महाराजानो चतुद्दिसा निसिन्ना होन्ति, इदं नेसं होति आसनस्मिं; अथ पच्छा अम्हाकं आसनं होति।

‘‘ये ते, भन्ते, देवा भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा अधुनूपपन्ना तावतिंसकायं, ते अञ्ञे देवे अतिरोचन्ति वण्णेन चेव यससा च। तेन सुदं, भन्ते, देवा तावतिंसा अत्तमना होन्ति पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता; ‘दिब्बा वत, भो, काया परिपूरेन्ति, हायन्ति असुरकाया’ति।

२९५. ‘‘अथ खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवानं तावतिंसानं सम्पसादं विदित्वा इमाहि गाथाहि अनुमोदि –

‘मोदन्ति वत भो देवा, तावतिंसा सहिन्दका।

तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मतं॥

नवे देवे च पस्सन्ता, वण्णवन्ते यसस्सिने।

सुगतस्मिं ब्रह्मचरियं, चरित्वान इधागते॥

ते अञ्ञे अतिरोचन्ति, वण्णेन यससायुना।

सावका भूरिपञ्ञस्स, विसेसूपगता इध॥

इदं दिस्वान नन्दन्ति, तावतिंसा सहिन्दका।

तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मत’न्ति॥

‘‘तेन सुदं, भन्ते, देवा तावतिंसा भिय्योसो मत्ताय अत्तमना होन्ति पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता; ‘दिब्बा वत, भो, काया परिपूरेन्ति, हायन्ति असुरकाया’’’ति।

अट्ठ यथाभुच्चवण्णा

२९६. ‘‘अथ खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवानं तावतिंसानं सम्पसादं विदित्वा देवे तावतिंसे आमन्तेसि – ‘इच्छेय्याथ नो तुम्हे, मारिसा, तस्स भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे सोतु’न्ति? ‘इच्छाम मयं, मारिस, तस्स भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे सोतु’न्ति। अथ खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवानं तावतिंसानं भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे पयिरुदाहासि – ‘तं किं मञ्ञन्ति, भोन्तो देवा तावतिंसा? यावञ्च सो भगवा बहुजनहिताय पटिपन्नो बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। एवं बहुजनहिताय पटिपन्नं बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता।

‘‘स्वाक्खातो खो पन तेन भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विञ्ञूहि। एवं ओपनेय्यिकस्स धम्मस्स देसेतारं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता।

‘‘इदं कुसलन्ति खो पन तेन भगवता सुपञ्ञत्तं, इदं अकुसलन्ति सुपञ्ञत्तं। इदं सावज्जं इदं अनवज्जं, इदं सेवितब्बं इदं न सेवितब्बं, इदं हीनं इदं पणीतं, इदं कण्हसुक्कसप्पटिभागन्ति सुपञ्ञत्तं। एवं कुसलाकुसलसावज्जानवज्जसेवितब्बासेवितब्बहीन-पणीतकण्हसुक्कसप्पटिभागानं धम्मानं पञ्ञपेतारं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता।

‘‘सुपञ्ञत्ता खो पन तेन भगवता सावकानं निब्बानगामिनी पटिपदा, संसन्दति निब्बानञ्च पटिपदा च। सेय्यथापि नाम गङ्गोदकं यमुनोदकेन संसन्दति समेति, एवमेव सुपञ्ञत्ता तेन भगवता सावकानं निब्बानगामिनी पटिपदा, संसन्दति निब्बानञ्च पटिपदा च। एवं निब्बानगामिनिया पटिपदाय पञ्ञपेतारं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता।

‘‘अभिनिप्फन्नो [अभिनिप्पन्नो (पी॰ क॰)] खो पन तस्स भगवतो लाभो अभिनिप्फन्नो सिलोको, याव मञ्ञे खत्तिया सम्पियायमानरूपा विहरन्ति, विगतमदो खो पन सो भगवा आहारं आहारेति। एवं विगतमदं आहारं आहरयमानं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता।

‘‘लद्धसहायो खो पन सो भगवा सेखानञ्चेव पटिपन्नानं खीणासवानञ्च वुसितवतं। ते भगवा अपनुज्ज एकारामतं अनुयुत्तो विहरति। एवं एकारामतं अनुयुत्तं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता।

‘‘यथावादी खो पन सो भगवा तथाकारी, यथाकारी तथावादी, इति यथावादी तथाकारी, यथाकारी तथावादी। एवं धम्मानुधम्मप्पटिपन्नं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता।

‘‘तिण्णविचिकिच्छो खो पन सो भगवा विगतकथंकथो परियोसितसङ्कप्पो अज्झासयं आदिब्रह्मचरियं। एवं तिण्णविचिकिच्छं विगतकथंकथं परियोसितसङ्कप्पं अज्झासयं आदिब्रह्मचरियं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता’ति।

२९७. ‘‘इमे खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवानं तावतिंसानं भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे पयिरुदाहासि। तेन सुदं, भन्ते, देवा तावतिंसा भिय्योसो मत्ताय अत्तमना होन्ति पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे सुत्वा। तत्र, भन्ते, एकच्चे देवा एवमाहंसु – ‘अहो वत, मारिसा, चत्तारो सम्मासम्बुद्धा लोके उप्पज्जेय्युं धम्मञ्च देसेय्युं यथरिव भगवा। तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’न्ति। एकच्चे देवा एवमाहंसु – ‘तिट्ठन्तु, मारिसा, चत्तारो सम्मासम्बुद्धा, अहो वत, मारिसा, तयो सम्मासम्बुद्धा लोके उप्पज्जेय्युं धम्मञ्च देसेय्युं यथरिव भगवा। तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’न्ति। एकच्चे देवा एवमाहंसु – ‘तिट्ठन्तु, मारिसा, तयो सम्मासम्बुद्धा, अहो वत, मारिसा, द्वे सम्मासम्बुद्धा लोके उप्पज्जेय्युं धम्मञ्च देसेय्युं यथरिव भगवा। तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’न्ति।

२९८. ‘‘एवं वुत्ते, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवे तावतिंसे एतदवोच – ‘अट्ठानं खो एतं, मारिसा, अनवकासो, यं एकिस्सा लोकधातुया द्वे अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा अपुब्बं अचरिमं उप्पज्जेय्युं, नेतं ठानं विज्जति। अहो वत, मारिसा, सो भगवा अप्पाबाधो अप्पातङ्को चिरं दीघमद्धानं तिट्ठेय्य। तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’न्ति। अथ खो, भन्ते, येनत्थेन देवा तावतिंसा सुधम्मायं सभायं सन्निसिन्ना होन्ति सन्निपतिता, तं अत्थं चिन्तयित्वा तं अत्थं मन्तयित्वा वुत्तवचनापि तं चत्तारो महाराजानो तस्मिं अत्थे होन्ति। पच्चानुसिट्ठवचनापि तं चत्तारो महाराजानो तस्मिं अत्थे होन्ति, सकेसु सकेसु आसनेसु ठिता अविपक्कन्ता।

ते वुत्तवाक्या राजानो, पटिग्गय्हानुसासनिं।

विप्पसन्नमना सन्ता, अट्ठंसु सम्हि आसनेति॥

२९९. ‘‘अथ खो, भन्ते, उत्तराय दिसाय उळारो आलोको सञ्जायि, ओभासो पातुरहोसि अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं। अथ खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवे तावतिंसे आमन्तेसि – ‘यथा खो, मारिसा, निमित्तानि दिस्सन्ति, उळारो आलोको सञ्जायति, ओभासो पातुभवति, ब्रह्मा पातुभविस्सति; ब्रह्मुनो हेतं पुब्बनिमित्तं पातुभावाय, यदिदं आलोको सञ्जायति ओभासो पातुभवतीति।

‘यथा निमित्ता दिस्सन्ति, ब्रह्मा पातुभविस्सति।

ब्रह्मुनो हेतं निमित्तं, ओभासो विपुलो महा’ति॥

सनङ्कुमारकथा

३००. ‘‘अथ खो, भन्ते, देवा तावतिंसा यथासकेसु आसनेसु निसीदिंसु – ‘ओभासमेतं ञस्साम, यंविपाको भविस्सति, सच्छिकत्वाव नं गमिस्सामा’ति। चत्तारोपि महाराजानो यथासकेसु आसनेसु निसीदिंसु – ‘ओभासमेतं ञस्साम, यंविपाको भविस्सति, सच्छिकत्वाव नं गमिस्सामा’ति। इदं सुत्वा देवा तावतिंसा एकग्गा समापज्जिंसु – ‘ओभासमेतं ञस्साम, यंविपाको भविस्सति, सच्छिकत्वाव नं गमिस्सामा’ति।

‘‘यदा, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो देवानं तावतिंसानं पातुभवति, ओळारिकं अत्तभावं अभिनिम्मिनित्वा पातुभवति। यो खो पन, भन्ते, ब्रह्मुनो पकतिवण्णो, अनभिसम्भवनीयो सो देवानं तावतिंसानं चक्खुपथस्मिं। यदा, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो देवानं तावतिंसानं पातुभवति, सो अञ्ञे देवे अतिरोचति वण्णेन चेव यससा च। सेय्यथापि, भन्ते, सोवण्णो विग्गहो मानुसं विग्गहं अतिरोचति, एवमेव खो, भन्ते, यदा ब्रह्मा सनङ्कुमारो देवानं तावतिंसानं पातुभवति, सो अञ्ञे देवे अतिरोचति वण्णेन चेव यससा च। यदा, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो देवानं तावतिंसानं पातुभवति, न तस्सं परिसायं कोचि देवो अभिवादेति वा पच्चुट्ठेति वा आसनेन वा निमन्तेति। सब्बेव तुण्हीभूता पञ्जलिका पल्लङ्केन निसीदन्ति – ‘यस्सदानि देवस्स पल्लङ्कं इच्छिस्सति ब्रह्मा सनङ्कुमारो, तस्स देवस्स पल्लङ्के निसीदिस्सती’ति। यस्स खो पन, भन्ते, देवस्स ब्रह्मा सनङ्कुमारो पल्लङ्के निसीदति, उळारं सो लभति देवो वेदपटिलाभं, उळारं सो लभति देवो सोमनस्सपटिलाभं। सेय्यथापि, भन्ते, राजा खत्तियो मुद्धावसित्तो अधुनाभिसित्तो रज्जेन, उळारं सो लभति वेदपटिलाभं, उळारं सो लभति सोमनस्सपटिलाभं, एवमेव खो, भन्ते, यस्स देवस्स ब्रह्मा सनङ्कुमारो पल्लङ्के निसीदति, उळारं सो लभति देवो वेदपटिलाभं, उळारं सो लभति देवो सोमनस्सपटिलाभं। अथ, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो देवानं तावतिंसानं सम्पसादं विदित्वा अन्तरहितो इमाहि गाथाहि अनुमोदि –

‘मोदन्ति वत भो देवा, तावतिंसा सहिन्दका।

तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मतं॥

‘नवे देवे च पस्सन्ता, वण्णवन्ते यसस्सिने।

सुगतस्मिं ब्रह्मचरियं, चरित्वान इधागते॥

‘ते अञ्ञे अतिरोचन्ति, वण्णेन यससायुना।

सावका भूरिपञ्ञस्स, विसेसूपगता इध॥

‘इदं दिस्वान नन्दन्ति, तावतिंसा सहिन्दका।

तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मत’न्ति॥

३०१. ‘‘इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो अभासित्थ। इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मुनो सनङ्कुमारस्स भासतो अट्ठङ्गसमन्नागतो सरो होति विस्सट्ठो च विञ्ञेय्यो च मञ्जु च सवनीयो च बिन्दु च अविसारी च गम्भीरो च निन्नादी च। यथापरिसं खो पन, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो सरेन विञ्ञापेति, न चस्स बहिद्धा परिसाय घोसो निच्छरति। यस्स खो पन, भन्ते, एवं अट्ठङ्गसमन्नागतो सरो होति, सो वुच्चति ‘ब्रह्मस्सरो’ति। अथ खो, भन्ते, देवा तावतिंसा ब्रह्मानं सनङ्कुमारं एतदवोचुं – ‘साधु, महाब्रह्मे, एतदेव मयं सङ्खाय मोदाम; अत्थि च सक्केन देवानमिन्देन तस्स भगवतो अट्ठ यथाभुच्चा वण्णा भासिता; ते च मयं सङ्खाय मोदामा’ति।

अट्ठ यथाभुच्चवण्णा

३०२. ‘‘अथ, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो सक्कं देवानमिन्दं एतदवोच – ‘साधु, देवानमिन्द, मयम्पि तस्स भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे सुणेय्यामा’ति। ‘एवं महाब्रह्मे’ति खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो ब्रह्मुनो सनङ्कुमारस्स भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे पयिरुदाहासि।

‘‘तं किं मञ्ञति, भवं महाब्रह्मा? यावञ्च सो भगवा बहुजनहिताय पटिपन्नो बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। एवं बहुजनहिताय पटिपन्नं बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता।

‘‘स्वाक्खातो खो पन तेन भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विञ्ञूहि। एवं ओपनेय्यिकस्स धम्मस्स देसेतारं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता।

‘‘इदं कुसल’न्ति खो पन तेन भगवता सुपञ्ञत्तं, ‘इदं अकुसल’न्ति सुपञ्ञत्तं, ‘इदं सावज्जं इदं अनवज्जं, इदं सेवितब्बं इदं न सेवितब्बं, इदं हीनं इदं पणीतं, इदं कण्हसुक्कसप्पटिभाग’न्ति सुपञ्ञत्तं। एवं कुसलाकुसलसावज्जानवज्जसेवितब्बासेवितब्बहीनपणीतकण्हसुक्कसप्पटिभागानं धम्मानं पञ्ञापेतारं। इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता।

‘‘सुपञ्ञत्ता खो पन तेन भगवता सावकानं निब्बानगामिनी पटिपदा संसन्दति निब्बानञ्च पटिपदा च। सेय्यथापि नाम गङ्गोदकं यमुनोदकेन संसन्दति समेति, एवमेव सुपञ्ञत्ता तेन भगवता सावकानं निब्बानगामिनी पटिपदा संसन्दति निब्बानञ्च पटिपदा च। एवं निब्बानगामिनिया पटिपदाय पञ्ञापेतारं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता।

‘‘अभिनिप्फन्नो खो पन तस्स भगवतो लाभो अभिनिप्फन्नो सिलोको, याव मञ्ञे खत्तिया सम्पियायमानरूपा विहरन्ति। विगतमदो खो पन सो भगवा आहारं आहारेति। एवं विगतमदं आहारं आहरयमानं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता।

‘‘लद्धसहायो खो पन सो भगवा सेखानञ्चेव पटिपन्नानं खीणासवानञ्च वुसितवतं, ते भगवा अपनुज्ज एकारामतं अनुयुत्तो विहरति। एवं एकारामतं अनुयुत्तं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता।

‘‘यथावादी खो पन सो भगवा तथाकारी, यथाकारी तथावादी; इति यथावादी तथाकारी, यथाकारी तथावादी। एवं धम्मानुधम्मप्पटिप्पन्नं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता।

‘‘तिण्णविचिकिच्छो खो पन सो भगवा विगतकथंकथो परियोसितसङ्कप्पो अज्झासयं आदिब्रह्मचरियं। एवं तिण्णविचिकिच्छं विगतकथंकथं परियोसितसङ्कप्पं अज्झासयं आदिब्रह्मचरियं। इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता’ति।

३०३. ‘‘इमे खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो ब्रह्मुनो सनङ्कुमारस्स भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे पयिरुदाहासि। तेन सुदं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो अत्तमनो होति पमुदितो पीतिसोमनस्सजातो भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे सुत्वा। अथ, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो ओळारिकं अत्तभावं अभिनिम्मिनित्वा कुमारवण्णी हुत्वा पञ्चसिखो देवानं तावतिंसानं पातुरहोसि। सो वेहासं अब्भुग्गन्त्वा आकासे अन्तलिक्खे पल्लङ्केन निसीदि। सेय्यथापि, भन्ते, बलवा पुरिसो सुपच्चत्थते वा पल्लङ्के समे वा भूमिभागे पल्लङ्केन निसीदेय्य, एवमेव खो, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो वेहासं अब्भुग्गन्त्वा आकासे अन्तलिक्खे पल्लङ्केन निसीदित्वा देवे तावतिंसे आमन्तेसि –

गोविन्दब्राह्मणवत्थु

३०४. ‘‘तं किं मञ्ञन्ति, भोन्तो देवा तावतिंसा, याव दीघरत्तं महापञ्ञोव सो भगवा अहोसि। भूतपुब्बं, भो, राजा दिसम्पति नाम अहोसि। दिसम्पतिस्स रञ्ञो गोविन्दो नाम ब्राह्मणो पुरोहितो अहोसि। दिसम्पतिस्स रञ्ञो रेणु नाम कुमारो पुत्तो अहोसि। गोविन्दस्स ब्राह्मणस्स जोतिपालो नाम माणवो पुत्तो अहोसि। इति रेणु च राजपुत्तो जोतिपालो च माणवो अञ्ञे च छ खत्तिया इच्चेते अट्ठ सहाया अहेसुं। अथ खो, भो, अहोरत्तानं अच्चयेन गोविन्दो ब्राह्मणो कालमकासि। गोविन्दे ब्राह्मणे कालङ्कते राजा दिसम्पति परिदेवेसि – ‘‘यस्मिं वत, भो, मयं समये गोविन्दे ब्राह्मणे सब्बकिच्चानि सम्मा वोस्सज्जित्वा पञ्चहि कामगुणेहि समप्पिता समङ्गीभूता परिचारेम, तस्मिं नो समये गोविन्दो ब्राह्मणो कालङ्कतो’’ति। एवं वुत्ते भो रेणु राजपुत्तो राजानं दिसम्पतिं एतदवोच – ‘‘मा खो त्वं, देव, गोविन्दे ब्राह्मणे कालङ्कते अतिबाळ्हं परिदेवेसि। अत्थि, देव, गोविन्दस्स ब्राह्मणस्स जोतिपालो नाम माणवो पुत्तो पण्डिततरो चेव पितरा, अलमत्थदसतरो चेव पितरा; येपिस्स पिता अत्थे अनुसासि, तेपि जोतिपालस्सेव माणवस्स अनुसासनिया’’ति। ‘‘एवं कुमारा’’ति? ‘‘एवं देवा’’ति।

महागोविन्दवत्थु

३०५. ‘‘अथ खो, भो, राजा दिसम्पति अञ्ञतरं पुरिसं आमन्तेसि – ‘‘एहि त्वं, अम्भो पुरिस, येन जोतिपालो नाम माणवो तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा जोतिपालं माणवं एवं वदेहि – ‘भवमत्थु भवन्तं जोतिपालं, राजा दिसम्पति भवन्तं जोतिपालं माणवं आमन्तयति, राजा दिसम्पति भोतो जोतिपालस्स माणवस्स दस्सनकामो’’’ति। ‘‘एवं, देवा’’ति खो, भो, सो पुरिसो दिसम्पतिस्स रञ्ञो पटिस्सुत्वा येन जोतिपालो माणवो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा जोतिपालं माणवं एतदवोच – ‘‘भवमत्थु भवन्तं जोतिपालं, राजा दिसम्पति भवन्तं जोतिपालं माणवं आमन्तयति, राजा दिसम्पति भोतो जोतिपालस्स माणवस्स दस्सनकामो’’ति। ‘‘एवं, भो’’ति खो भो जोतिपालो माणवो तस्स पुरिसस्स पटिस्सुत्वा येन राजा दिसम्पति तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा दिसम्पतिना रञ्ञा सद्धिं सम्मोदि; सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो, भो, जोतिपालं माणवं राजा दिसम्पति एतदवोच – ‘‘अनुसासतु नो भवं जोतिपालो, मा नो भवं जोतिपालो अनुसासनिया पच्चब्याहासि। पेत्तिके तं ठाने ठपेस्सामि, गोविन्दिये अभिसिञ्चिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भो’’ति खो, भो, सो जोतिपालो माणवो दिसम्पतिस्स रञ्ञो पच्चस्सोसि। अथ खो, भो, राजा दिसम्पति जोतिपालं माणवं गोविन्दिये अभिसिञ्चि, तं पेत्तिके ठाने ठपेसि। अभिसित्तो जोतिपालो माणवो गोविन्दिये पेत्तिके ठाने ठपितो येपिस्स पिता अत्थे अनुसासि तेपि अत्थे अनुसासति, येपिस्स पिता अत्थे नानुसासि, तेपि अत्थे अनुसासति; येपिस्स पिता कम्मन्ते अभिसम्भोसि, तेपि कम्मन्ते अभिसम्भोति, येपिस्स पिता कम्मन्ते नाभिसम्भोसि, तेपि कम्मन्ते अभिसम्भोति। तमेनं मनुस्सा एवमाहंसु – ‘‘गोविन्दो वत, भो, ब्राह्मणो, महागोविन्दो वत, भो, ब्राह्मणो’’ति। इमिना खो एवं, भो, परियायेन जोतिपालस्स माणवस्स गोविन्दो महागोविन्दोत्वेव समञ्ञा उदपादि।

रज्जसंविभजनं

३०६. ‘‘अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन ते छ खत्तिया तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते छ खत्तिये एतदवोच – ‘‘दिसम्पति खो, भो, राजा जिण्णो वुद्धो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, को नु खो पन, भो, जानाति जीवितं? ठानं खो पनेतं विज्जति, यं दिसम्पतिम्हि रञ्ञे कालङ्कते राजकत्तारो रेणुं राजपुत्तं रज्जे अभिसिञ्चेय्युं। आयन्तु, भोन्तो, येन रेणु राजपुत्तो तेनुपसङ्कमथ; उपसङ्कमित्वा रेणुं राजपुत्तं एवं वदेथ – ‘‘मयं खो भोतो रेणुस्स सहाया पिया मनापा अप्पटिकूला, यंसुखो भवं तंसुखा मयं, यंदुक्खो भवं तंदुक्खा मयं। दिसम्पति खो, भो, राजा जिण्णो वुद्धो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, को नु खो पन, भो, जानाति जीवितं? ठानं खो पनेतं विज्जति, यं दिसम्पतिम्हि रञ्ञे कालङ्कते राजकत्तारो भवन्तं रेणुं रज्जे अभिसिञ्चेय्युं। सचे भवं रेणु रज्जं लभेथ, संविभजेथ नो रज्जेना’’ति। ‘‘एवं भो’’ति खो, भो, ते छ खत्तिया महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा येन रेणु राजपुत्तो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा रेणुं राजपुत्तं एतदवोचुं – ‘‘मयं खो भोतो रेणुस्स सहाया पिया मनापा अप्पटिकूला; यंसुखो भवं तंसुखा मयं, यंदुक्खो भवं तंदुक्खा मयं। दिसम्पति खो, भो, राजा जिण्णो वुद्धो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, को नु खो पन भो जानाति जीवितं? ठानं खो पनेतं विज्जति, यं दिसम्पतिम्हि रञ्ञे कालङ्कते राजकत्तारो भवन्तं रेणुं रज्जे अभिसिञ्चेय्युं। सचे भवं रेणु रज्जं लभेथ, संविभजेथ नो रज्जेना’’ति। ‘‘को नु खो, भो, अञ्ञो मम विजिते सुखो भवेथ [सुखा भवेय्याथ (क॰), सुखं भवेय्याथ, सुखमेधेय्याथ (सी॰ पी॰),सुख मेधेथ (?)], अञ्ञत्र भवन्तेभि? सचाहं, भो, रज्जं लभिस्सामि, संविभजिस्सामि वो रज्जेना’’’ति।

३०७. ‘‘अथ खो, भो, अहोरत्तानं अच्चयेन राजा दिसम्पति कालमकासि। दिसम्पतिम्हि रञ्ञे कालङ्कते राजकत्तारो रेणुं राजपुत्तं रज्जे अभिसिञ्चिंसु। अभिसित्तो रेणु रज्जेन पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति। अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन ते छ खत्तिया तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते छ खत्तिये एतदवोच – ‘‘दिसम्पति खो, भो, राजा कालङ्कतो। अभिसित्तो रेणु रज्जेन पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति। को नु खो पन, भो, जानाति, मदनीया कामा? आयन्तु, भोन्तो, येन रेणु राजा तेनुपसङ्कमथ; उपसङ्कमित्वा रेणुं राजानं एवं वदेथ – दिसम्पति खो, भो, राजा कालङ्कतो, अभिसित्तो भवं रेणु रज्जेन, सरति भवं तं वचन’’’न्ति?

३०८. ‘‘‘एवं, भो’’ति खो, भो, ते छ खत्तिया महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा येन रेणु राजा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा रेणुं राजानं एतदवोचुं – ‘‘दिसम्पति खो, भो, राजा कालङ्कतो, अभिसित्तो भवं रेणु रज्जेन, सरति भवं तं वचन’’न्ति? ‘‘सरामहं, भो, तं वचनं [वचनन्ति (स्या॰ क॰)]। को नु खो, भो, पहोति इमं महापथविं उत्तरेन आयतं दक्खिणेन सकटमुखं सत्तधा समं सुविभत्तं विभजितु’’न्ति? ‘‘को नु खो, भो, अञ्ञो पहोति, अञ्ञत्र महागोविन्देन ब्राह्मणेना’’ति? अथ खो, भो, रेणु राजा अञ्ञतरं पुरिसं आमन्तेसि – ‘‘एहि त्वं, अम्भो पुरिस, येन महागोविन्दो ब्राह्मणो तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा महागोविन्दं ब्राह्मणं एवं वदेहि – ‘राजा तं, भन्ते, रेणु आमन्तेती’’’ति। ‘‘एवं देवा’’ति खो, भो, सो पुरिसो रेणुस्स रञ्ञो पटिस्सुत्वा येन महागोविन्दो ब्राह्मणो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा महागोविन्दं ब्राह्मणं एतदवोच – ‘‘राजा तं, भन्ते, रेणु आमन्तेती’’ति। ‘‘एवं, भो’’ति खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो तस्स पुरिसस्स पटिस्सुत्वा येन रेणु राजा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा रेणुना रञ्ञा सद्धिं सम्मोदि। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो, भो, महागोविन्दं ब्राह्मणं रेणु राजा एतदवोच – ‘‘एतु, भवं गोविन्दो, इमं महापथविं उत्तरेन आयतं दक्खिणेन सकटमुखं सत्तधा समं सुविभत्तं विभजतू’’ति। ‘‘एवं, भो’’ति खो महागोविन्दो ब्राह्मणो रेणुस्स रञ्ञो पटिस्सुत्वा इमं महापथविं उत्तरेन आयतं दक्खिणेन सकटमुखं सत्तधा समं सुविभत्तं विभजि। सब्बानि सकटमुखानि पट्ठपेसि [अट्ठपेसि (सी॰ पी॰)]। तत्र सुदं मज्झे रेणुस्स रञ्ञो जनपदो होति।

३०९. दन्तपुरं कलिङ्गानं [कालिङ्गानं (स्या॰ पी॰ क॰)], अस्सकानञ्च पोतनं।

महेसयं [माहिस्सति (सी॰ स्या॰ पी॰)] अवन्तीनं, सोवीरानञ्च रोरुकं॥

मिथिला च विदेहानं, चम्पा अङ्गेसु मापिता।

बाराणसी च कासीनं, एते गोविन्दमापिताति॥

३१०. ‘‘अथ खो, भो, ते छ खत्तिया यथासकेन लाभेन अत्तमना अहेसुं परिपुण्णसङ्कप्पा – ‘‘यं वत नो अहोसि इच्छितं, यं आकङ्खितं, यं अधिप्पेतं, यं अभिपत्थितं, तं नो लद्ध’’न्ति।

‘‘सत्तभू ब्रह्मदत्तो च, वेस्सभू भरतो सह।

रेणु द्वे धतरट्ठा च, तदासुं सत्त भारधा’ति॥

पठमभाणवारो निट्ठितो।

कित्तिसद्दअब्भुग्गमनं

३११. ‘‘अथ खो, भो, ते छ खत्तिया येन महागोविन्दो ब्राह्मणो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा महागोविन्दं ब्राह्मणं एतदवोचुं – ‘‘यथा खो भवं गोविन्दो रेणुस्स रञ्ञो सहायो पियो मनापो अप्पटिकूलो। एवमेव खो भवं गोविन्दो अम्हाकम्पि सहायो पियो मनापो अप्पटिकूलो, अनुसासतु नो भवं गोविन्दो; मा नो भवं गोविन्दो अनुसासनिया पच्चब्याहासी’’ति। ‘‘एवं, भो’’ति खो महागोविन्दो ब्राह्मणो तेसं छन्नं खत्तियानं पच्चस्सोसि। अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो सत्त च राजानो खत्तिये मुद्धावसित्ते रज्जे [मुद्धाभिसित्ते रज्जेन (स्या॰)] अनुसासि, सत्त च ब्राह्मणमहासाले सत्त च न्हातकसतानि मन्ते वाचेसि।

३१२. ‘‘अथ खो, भो, महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स अपरेन समयेन एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छि [अब्भुग्गञ्छि (सी॰ पी॰)] – ‘‘सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मानं पस्सति, सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मुना साकच्छेति सल्लपति मन्तेती’’ति। अथ खो, भो, महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स एतदहोसि – ‘‘मय्हं खो एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मानं पस्सति, सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मुना साकच्छेति सल्लपति मन्तेती’ति। न खो पनाहं ब्रह्मानं पस्सामि, न ब्रह्मुना साकच्छेमि, न ब्रह्मुना सल्लपामि, न ब्रह्मुना मन्तेमि। सुतं खो पन मेतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं – ‘यो वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयति, करुणं झानं झायति, सो ब्रह्मानं पस्सति ब्रह्मुना साकच्छेति ब्रह्मुना सल्लपति ब्रह्मुना मन्तेती’ति। यंनूनाहं वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयेय्यं, करुणं झानं झायेय्य’’न्ति।

३१३. ‘‘अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन रेणु राजा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा रेणुं राजानं एतदवोच – ‘‘मय्हं खो, भो, एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मानं पस्सति, सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मुना साकच्छेति सल्लपति मन्तेती’ति। न खो पनाहं, भो, ब्रह्मानं पस्सामि, न ब्रह्मुना साकच्छेमि, न ब्रह्मुना सल्लपामि, न ब्रह्मुना मन्तेमि। सुतं खो पन मेतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं – ‘यो वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयति, करुणं झानं झायति, सो ब्रह्मानं पस्सति, ब्रह्मुना साकच्छेति ब्रह्मुना सल्लपति ब्रह्मुना मन्तेती’ति। इच्छामहं, भो, वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयितुं, करुणं झानं झायितुं; नम्हि केनचि उपसङ्कमितब्बो अञ्ञत्र एकेन भत्ताभिहारेना’’ति। ‘‘यस्सदानि भवं गोविन्दो कालं मञ्ञती’’ति।

३१४. ‘‘अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन ते छ खत्तिया तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते छ खत्तिये एतदवोच – ‘‘मय्हं खो, भो, एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मानं पस्सति, सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मुना साकच्छेति सल्लपति मन्तेती’ति। न खो पनाहं, भो, ब्रह्मानं पस्सामि, न ब्रह्मुना साकच्छेमि, न ब्रह्मुना सल्लपामि, न ब्रह्मुना मन्तेमि। सुतं खो पन मेतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं, ‘यो वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयति, करुणं झानं झायति, सो ब्रह्मानं पस्सति ब्रह्मुना साकच्छेति ब्रह्मुना सल्लपति ब्रह्मुना मन्तेती’ति। इच्छामहं, भो, वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयितुं, करुणं झानं झायितुं; नम्हि केनचि उपसङ्कमितब्बो अञ्ञत्र एकेन भत्ताभिहारेना’’ति। ‘‘यस्सदानि भवं गोविन्दो कालं मञ्ञती’’’ति।

३१५. ‘‘अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन ते सत्त च ब्राह्मणमहासाला सत्त च न्हातकसतानि तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते सत्त च ब्राह्मणमहासाले सत्त च न्हातकसतानि एतदवोच – ‘‘मय्हं खो, भो, एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मानं पस्सति, सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मुना साकच्छेति सल्लपति मन्तेती’ति। न खो पनाहं, भो, ब्रह्मानं पस्सामि, न ब्रह्मुना साकच्छेमि, न ब्रह्मुना सल्लपामि, न ब्रह्मुना मन्तेमि। सुतं खो पन मेतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं – ‘यो वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयति, करुणं झानं झायति, सो ब्रह्मानं पस्सति, ब्रह्मुना साकच्छेति, ब्रह्मुना सल्लपति, ब्रह्मुना मन्तेती’ति। तेन हि, भो, यथासुते यथापरियत्ते मन्ते वित्थारेन सज्झायं करोथ, अञ्ञमञ्ञञ्च मन्ते वाचेथ; इच्छामहं, भो, वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयितुं, करुणं झानं झायितुं; नम्हि केनचि उपसङ्कमितब्बो अञ्ञत्र एकेन भत्ताभिहारेना’’ति। ‘‘यस्स दानि भवं गोविन्दो कालं मञ्ञती’’ति।

३१६. ‘‘अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन चत्तारीसा भरिया सादिसियो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा चत्तारीसा भरिया सादिसियो एतदवोच – ‘‘मय्हं खो, भोती, एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मानं पस्सति, सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मुना साकच्छेति सल्लपति मन्तेती’ति। न खो पनाहं, भोती, ब्रह्मानं पस्सामि, न ब्रह्मुना साकच्छेमि, न ब्रह्मुना सल्लपामि, न ब्रह्मुना मन्तेमि। सुतं खो पन मेतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं ‘यो वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयति, करुणं झानं झायति, सो ब्रह्मानं पस्सति, ब्रह्मुना साकच्छेति, ब्रह्मुना सल्लपति, ब्रह्मुना मन्तेतीति, इच्छामहं, भोती, वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयितुं, करुणं झानं झायितुं; नम्हि केनचि उपसङ्कमितब्बो अञ्ञत्र एकेन भत्ताभिहारेना’’ति। ‘‘यस्स दानि भवं गोविन्दो कालं मञ्ञती’’’ति।

३१७. ‘‘अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो पुरत्थिमेन नगरस्स नवं सन्धागारं कारापेत्वा वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयि, करुणं झानं झायि; नास्सुध कोचि उपसङ्कमति [उपसङ्कमि (पी॰)] अञ्ञत्र एकेन भत्ताभिहारेन। अथ खो, भो, महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स चतुन्नं मासानं अच्चयेन अहुदेव उक्कण्ठना अहु परितस्सना – ‘‘सुतं खो पन मेतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं – ‘यो वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयति, करुणं झानं झायति, सो ब्रह्मानं पस्सति, ब्रह्मुना साकच्छेति ब्रह्मुना सल्लपति ब्रह्मुना मन्तेती’ति। न खो पनाहं ब्रह्मानं पस्सामि, न ब्रह्मुना साकच्छेमि न ब्रह्मुना सल्लपामि न ब्रह्मुना मन्तेमी’’’ति।

ब्रह्मुना साकच्छा

३१८. ‘‘अथ खो, भो, ब्रह्मा सनङ्कुमारो महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्ञाय सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य, एवमेव, ब्रह्मलोके अन्तरहितो महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स सम्मुखे पातुरहोसि। अथ खो, भो, महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स अहुदेव भयं अहु छम्भितत्तं अहु लोमहंसो यथा तं अदिट्ठपुब्बं रूपं दिस्वा। अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो भीतो संविग्गो लोमहट्ठजातो ब्रह्मानं सनङ्कुमारं गाथाय अज्झभासि –

‘‘‘वण्णवा यसवा सिरिमा, को नु त्वमसि मारिस।

अजानन्ता तं पुच्छाम, कथं जानेमु तं मय’’न्ति॥

‘‘मं वे कुमारं जानन्ति, ब्रह्मलोके सनन्तनं [सनन्तिच (क॰)]।

सब्बे जानन्ति मं देवा, एवं गोविन्द जानहि’’॥

‘‘‘आसनं उदकं पज्जं, मधुसाकञ्च [मधुपाकञ्च (सी॰ स्या॰ पी॰)] ब्रह्मुनो।

अग्घे भवन्तं पुच्छाम, अग्घं कुरुतु नो भवं’’॥

‘‘पटिग्गण्हाम ते अग्घं, यं त्वं गोविन्द भाससि।

दिट्ठधम्महितत्थाय, सम्पराय सुखाय च।

कतावकासो पुच्छस्सु, यं किञ्चि अभिपत्थित’’न्ति॥

३१९. ‘‘अथ खो, भो, महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स एतदहोसि – ‘‘कतावकासो खोम्हि ब्रह्मुना सनङ्कुमारेन। किं नु खो अहं ब्रह्मानं सनङ्कुमारं पुच्छेय्यं दिट्ठधम्मिकं वा अत्थं सम्परायिकं वा’ति? अथ खो, भो, महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स एतदहोसि – ‘कुसलो खो अहं दिट्ठधम्मिकानं अत्थानं, अञ्ञेपि मं दिट्ठधम्मिकं अत्थं पुच्छन्ति। यंनूनाहं ब्रह्मानं सनङ्कुमारं सम्परायिकञ्ञेव अत्थं पुच्छेय्य’न्ति। अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मानं सनङ्कुमारं गाथाय अज्झभासि –

‘‘पुच्छामि ब्रह्मानं सनङ्कुमारं,

कङ्खी अकङ्खिं परवेदियेसु।

कत्थट्ठितो किम्हि च सिक्खमानो,

पप्पोति मच्चो अमतं ब्रह्मलोक’’न्ति॥

‘‘हित्वा ममत्तं मनुजेसु ब्रह्मे,

एकोदिभूतो करुणेधिमुत्तो [करुणाधिमुत्तो (सी॰ स्या॰ पी॰)]।

निरामगन्धो विरतो मेथुनस्मा,

एत्थट्ठितो एत्थ च सिक्खमानो।

पप्पोति मच्चो अमतं ब्रह्मलोक’’न्ति॥

३२०. ‘‘हित्वा ममत्त’न्ति अहं भोतो आजानामि। इधेकच्चो अप्पं वा भोगक्खन्धं पहाय महन्तं वा भोगक्खन्धं पहाय अप्पं वा ञातिपरिवट्टं पहाय महन्तं वा ञातिपरिवट्टं पहाय केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, ‘इति हित्वा ममत्त’न्ति अहं भोतो आजानामि। ‘एकोदिभूतो’ति अहं भोतो आजानामि। इधेकच्चो विवित्तं सेनासनं भजति अरञ्ञं रुक्खमूलं पब्बतं कन्दरं गिरिगुहं सुसानं वनपत्थं अब्भोकासं पलालपुञ्जं, इति एकोदिभूतो’ति अहं भोतो आजानामि। ‘करुणेधिमुत्तो’ति अहं भोतो आजानामि। इधेकच्चो करुणासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं। इति उद्धमधोतिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं करुणासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति। इति ‘करुणेधिमुत्तो’ति अहं भोतो आजानामि। आमगन्धे च खो अहं भोतो भासमानस्स न आजानामि।

‘‘के आमगन्धा मनुजेसु ब्रह्मे,

एते अविद्वा इध ब्रूहि धीर।

केनावटा [केनावुटा (स्या॰)] वाति पजा कुरुतु [कुरुरू (स्या॰), कुरुट्ठरू (पी॰), कुरूरु (?)],

आपायिका निवुतब्रह्मलोका’’ति॥

‘‘कोधो मोसवज्जं निकति च दुब्भो,

कदरियता अतिमानो उसूया।

इच्छा विविच्छा परहेठना च,

लोभो च दोसो च मदो च मोहो।

एतेसु युत्ता अनिरामगन्धा,

आपायिका निवुतब्रह्मलोका’’ति॥

‘‘यथा खो अहं भोतो आमगन्धे भासमानस्स आजानामि। ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता। पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारिय’’न्ति। ‘‘यस्सदानि भवं गोविन्दो कालं मञ्ञती’’ति।

रेणुराजआमन्तना

३२१. ‘‘अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन रेणु राजा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा रेणुं राजानं एतदवोच – ‘‘अञ्ञं दानि भवं पुरोहितं परियेसतु, यो भोतो रज्जं अनुसासिस्सति। इच्छामहं, भो, अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं। यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मुनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता। पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारिय’’न्ति।

‘‘आमन्तयामि राजानं, रेणुं भूमिपतिं अहं।

त्वं पजानस्सु रज्जेन, नाहं पोरोहिच्चे रमे’’॥

‘‘सचे ते ऊनं कामेहि, अहं परिपूरयामि ते।

यो तं हिंसति वारेमि, भूमिसेनापति अहं।

तुवं पिता अहं पुत्तो, मा नो गोविन्द पाजहि’’ [पाजेहि (अट्ठकथायं संवण्णितपाठन्तरं)]॥

‘‘नमत्थि ऊनं कामेहि, हिंसिता मे न विज्जति।

अमनुस्सवचो सुत्वा, तस्माहं न गहे रमे’’॥

‘‘अमनुस्सो कथंवण्णो, किं ते अत्थं अभासथ।

यञ्च सुत्वा जहासि नो, गेहे अम्हे च केवली’’॥

‘‘उपवुत्थस्स मे पुब्बे, यिट्ठुकामस्स मे सतो।

अग्गि पज्जलितो आसि, कुसपत्तपरित्थतो’’॥

‘‘ततो मे ब्रह्मा पातुरहु, ब्रह्मलोका सनन्तनो।

सो मे पञ्हं वियाकासि, तं सुत्वा न गहे रमे’’॥

‘‘सद्दहामि अहं भोतो, यं त्वं गोविन्द भाससि।

अमनुस्सवचो सुत्वा, कथं वत्तेथ अञ्ञथा॥

‘‘ते तं अनुवत्तिस्साम, सत्था गोविन्द नो भवं।

मणि यथा वेळुरियो, अकाचो विमलो सुभो।

एवं सुद्धा चरिस्साम, गोविन्दस्सानुसासने’’ति॥

‘‘‘सचे भवं गोविन्दो अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सति, मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम। अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सती’’ति।

छ खत्तियआमन्तना

३२२. ‘‘अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन ते छ खत्तिया तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते छ खत्तिये एतदवोच – ‘‘अञ्ञं दानि भवन्तो पुरोहितं परियेसन्तु, यो भवन्तानं रज्जे अनुसासिस्सति। इच्छामहं, भो, अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं। यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मुनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता। पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारिय’’न्ति। अथ खो, भो, ते छ खत्तिया एकमन्तं अपक्कम्म एवं समचिन्तेसुं – ‘‘इमे खो ब्राह्मणा नाम धनलुद्धा; यंनून मयं महागोविन्दं ब्राह्मणं धनेन सिक्खेय्यामा’’ति। ते महागोविन्दं ब्राह्मणं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु – ‘‘संविज्जति खो, भो, इमेसु सत्तसु रज्जेसु पहूतं सापतेय्यं, ततो भोतो यावतकेन अत्थो, तावतकं आहरीयत’’न्ति। ‘‘अलं, भो, ममपिदं पहूतं सापतेय्यं भवन्तानंयेव वाहसा। तमहं सब्बं पहाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामि। यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मुनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता, पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारिय’’न्ति। अथ खो, भो, ते छ खत्तिया एकमन्तं अपक्कम्म एवं समचिन्तेसुं – ‘‘इमे खो ब्राह्मणा नाम इत्थिलुद्धा; यंनून मयं महागोविन्दं ब्राह्मणं इत्थीहि सिक्खेय्यामा’’ति। ते महागोविन्दं ब्राह्मणं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु – ‘‘संविज्जन्ति खो, भो, इमेसु सत्तसु रज्जेसु पहूता इत्थियो, ततो भोतो यावतिकाहि अत्थो, तावतिका आनीयत’’न्ति। ‘‘अलं, भो, ममपिमा [ममपिता (क॰), ममपि (सी॰)] चत्तारीसा भरिया सादिसियो। तापाहं सब्बा पहाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामि। यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मुनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता, पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारियन्ति’’।

३२३. ‘‘सचे भवं गोविन्दो अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सति, मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सतीति।

‘‘सचे जहथ कामानि, यत्थ सत्तो पुथुज्जनो।

आरम्भव्हो दळ्हा होथ, खन्तिबलसमाहिता॥

‘‘एस मग्गो उजुमग्गो, एस मग्गो अनुत्तरो।

सद्धम्मो सब्भि रक्खितो, ब्रह्मलोकूपपत्तियाति॥

‘‘तेन हि भवं गोविन्दो सत्त वस्सानि आगमेतु। सत्तन्नं वस्सानं अच्चयेन मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सती’’ति।

‘‘‘अतिचिरं खो, भो, सत्त वस्सानि, नाहं सक्कोमि, भवन्ते, सत्त वस्सानि आगमेतुं। को नु खो पन, भो, जानाति जीवितानं! गमनीयो सम्परायो, मन्तायं [मन्ताय (बहूसु)] बोद्धब्बं, कत्तब्बं कुसलं, चरितब्बं ब्रह्मचरियं, नत्थि जातस्स अमरणं। यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मुनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता, पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारिय’’’न्ति। ‘‘तेन हि भवं गोविन्दो छब्बस्सानि आगमेतु…पे॰… पञ्च वस्सानि आगमेतु… चत्तारि वस्सानि आगमेतु… तीणि वस्सानि आगमेतु… द्वे वस्सानि आगमेतु… एकं वस्सं आगमेतु, एकस्स वस्सस्स अच्चयेन मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सती’’ति।

‘‘‘अतिचिरं खो, भो, एकं वस्सं, नाहं सक्कोमि भवन्ते एकं वस्सं आगमेतुं। को नु खो पन, भो, जानाति जीवितानं! गमनीयो सम्परायो, मन्तायं बोद्धब्बं, कत्तब्बं कुसलं, चरितब्बं ब्रह्मचरियं, नत्थि जातस्स अमरणं। यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मुनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता, पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारिय’’न्ति। ‘‘तेन हि भवं गोविन्दो सत्त मासानि आगमेतु, सत्तन्नं मासानं अच्चयेन मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सती’’ति।

‘‘‘अतिचिरं खो, भो, सत्त मासानि, नाहं सक्कोमि भवन्ते सत्त मासानि आगमेतुं। को नु खो पन, भो, जानाति जीवितानं। गमनीयो सम्परायो, मन्तायं बोद्धब्बं, कत्तब्बं कुसलं, चरितब्बं ब्रह्मचरियं, नत्थि जातस्स अमरणं। यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मुनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता, पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारिय’’न्ति।

‘‘‘तेन हि भवं गोविन्दो छ मासानि आगमेतु…पे॰… पञ्च मासानि आगमेतु… चत्तारि मासानि आगमेतु… तीणि मासानि आगमेतु… द्वे मासानि आगमेतु… एकं मासं आगमेतु… अद्धमासं आगमेतु, अद्धमासस्स अच्चयेन मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सती’’ति।

‘‘‘अतिचिरं खो, भो, अद्धमासो, नाहं सक्कोमि भवन्ते अद्धमासं आगमेतुं। को नु खो पन, भो, जानाति जीवितानं! गमनीयो सम्परायो, मन्तायं बोद्धब्बं, कत्तब्बं कुसलं, चरितब्बं ब्रह्मचरियं, नत्थि जातस्स अमरणं। यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मुनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता, पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारिय’’न्ति। ‘‘तेन हि भवं गोविन्दो सत्ताहं आगमेतु, याव मयं सके पुत्तभातरो रज्जेन [रज्जे (स्या॰)] अनुसासिस्साम, सत्ताहस्स अच्चयेन मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सती’’ति। ‘‘न चिरं खो, भो, सत्ताहं, आगमेस्सामहं भवन्ते सत्ताह’’न्ति।

ब्राह्मणमहासालादीनं आमन्तना

३२४. ‘‘अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन ते सत्त च ब्राह्मणमहासाला सत्त च न्हातकसतानि तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते सत्त च ब्राह्मणमहासाले सत्त च न्हातकसतानि एतदवोच – ‘‘अञ्ञं दानि भवन्तो आचरियं परियेसन्तु, यो भवन्तानं मन्ते वाचेस्सति। इच्छामहं, भो, अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं। यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मुनो आमगन्धे भासमानस्स। ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता, पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारिय’’न्ति। ‘‘मा भवं गोविन्दो अगारस्मा अनगारियं पब्बजि। पब्बज्जा, भो, अप्पेसक्खा च अप्पलाभा च; ब्रह्मञ्ञं महेसक्खञ्च महालाभञ्चा’’ति। ‘‘मा भवन्तो एवं अवचुत्थ – ‘‘पब्बज्जा अप्पेसक्खा च अप्पलाभा च, ब्रह्मञ्ञं महेसक्खञ्च महालाभञ्चा’’ति। को नु खो, भो, अञ्ञत्र मया महेसक्खतरो वा महालाभतरो वा! अहञ्हि, भो, एतरहि राजाव रञ्ञं ब्रह्माव ब्राह्मणानं [ब्रह्मानं (सी॰ पी॰ क॰)] देवताव गहपतिकानं। तमहं सब्बं पहाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामि। यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मुनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता। पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारिय’’न्ति। ‘‘सचे भवं गोविन्दो अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सति, मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सती’’ति।

भरियानं आमन्तना

३२५. ‘‘अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन चत्तारीसा भरिया सादिसियो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा चत्तारीसा भरिया सादिसियो एतदवोच – ‘‘या भोतीनं इच्छति, सकानि वा ञातिकुलानि गच्छतु अञ्ञं वा भत्तारं परियेसतु। इच्छामहं, भोती, अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं। यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मुनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता। पब्बजिस्सामहं, भोती, अगारस्मा अनगारिय’’न्ति। ‘‘त्वञ्ञेव नो ञाति ञातिकामानं, त्वं पन भत्ता भत्तुकामानं। सचे भवं गोविन्दो अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सति, मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सती’’ति।

महागोविन्दपब्बज्जा

३२६. ‘‘अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो तस्स सत्ताहस्स अच्चयेन केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजि। पब्बजितं पन महागोविन्दं ब्राह्मणं सत्त च राजानो खत्तिया मुद्धावसित्ता सत्त च ब्राह्मणमहासाला सत्त च न्हातकसतानि चत्तारीसा च भरिया सादिसियो अनेकानि च खत्तियसहस्सानि अनेकानि च ब्राह्मणसहस्सानि अनेकानि च गहपतिसहस्सानि अनेकेहि च इत्थागारेहि इत्थियो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा महागोविन्दं ब्राह्मणं अगारस्मा अनगारियं पब्बजितं अनुपब्बजिंसु। ताय सुदं, भो, परिसाय परिवुतो महागोविन्दो ब्राह्मणो गामनिगमराजधानीसु चारिकं चरति। यं खो पन, भो, तेन समयेन महागोविन्दो ब्राह्मणो गामं वा निगमं वा उपसङ्कमति, तत्थ राजाव होति रञ्ञं, ब्रह्माव ब्राह्मणानं, देवताव गहपतिकानं। तेन खो पन समयेन मनुस्सा खिपन्ति वा उपक्खलन्ति वा ते एवमाहंसु – ‘‘नमत्थु महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स, नमत्थु सत्त पुरोहितस्सा’’’ति।

३२७. ‘‘महागोविन्दो, भो, ब्राह्मणो मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहासि, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं। इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहासि। करुणासहगतेन चेतसा…पे॰… मुदितासहगतेन चेतसा…पे॰… उपेक्खासहगतेन चेतसा…पे॰… अब्यापज्जेन फरित्वा विहासि सावकानञ्च ब्रह्मलोकसहब्यताय मग्गं देसेसि।

३२८. ‘‘ये खो पन, भो, तेन समयेन महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स सावका सब्बेन सब्बं सासनं आजानिंसु। ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं ब्रह्मलोकं उपपज्जिंसु। ये न सब्बेन सब्बं सासनं आजानिंसु, ते कायस्स भेदा परं मरणा अप्पेकच्चे परनिम्मितवसवत्तीनं देवानं सहब्यतं उपपज्जिंसु; अप्पेकच्चे निम्मानरतीनं देवानं सहब्यतं उपपज्जिंसु; अप्पेकच्चे तुसितानं देवानं सहब्यतं उपपज्जिंसु; अप्पेकच्चे यामानं देवानं सहब्यतं उपपज्जिंसु; अप्पेकच्चे तावतिंसानं देवानं सहब्यतं उपपज्जिंसु; अप्पेकच्चे चातुमहाराजिकानं देवानं सहब्यतं उपपज्जिंसु; ये सब्बनिहीनं कायं परिपूरेसुं ते गन्धब्बकायं परिपूरेसुं। इति खो, भो [पन (स्या॰ क॰)], सब्बेसंयेव तेसं कुलपुत्तानं अमोघा पब्बज्जा अहोसि अवञ्झा सफला सउद्रया’’’ति।

३२९. ‘‘सरति तं भगवा’’ति? ‘‘सरामहं, पञ्चसिख। अहं तेन समयेन महागोविन्दो ब्राह्मणो अहोसिं। अहं तेसं सावकानं ब्रह्मलोकसहब्यताय मग्गं देसेसिं। तं खो पन मे, पञ्चसिख, ब्रह्मचरियं न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति, यावदेव ब्रह्मलोकूपपत्तिया।

इदं खो पन मे, पञ्चसिख, ब्रह्मचरियं एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति। कतमञ्च तं, पञ्चसिख, ब्रह्मचरियं एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति? अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो। सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा सम्माकम्मन्तो सम्माआजीवो सम्मावायामो सम्मासति सम्मासमाधि। इदं खो तं, पञ्चसिख, ब्रह्मचरियं एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति।

३३०. ‘‘ये खो पन मे, पञ्चसिख, सावका सब्बेन सब्बं सासनं आजानन्ति, ते आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरन्ति; ये न सब्बेन सब्बं सासनं आजानन्ति, ते पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका होन्ति तत्थ परिनिब्बायिनो अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका। ये न सब्बेन सब्बं सासनं आजानन्ति, अप्पेकच्चे तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामिनो होन्ति सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति [करोन्ति (सी॰ पी॰)]। ये न सब्बेन सब्बं सासनं आजानन्ति, अप्पेकच्चे तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना होन्ति अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा। इति खो, पञ्चसिख, सब्बेसंयेव इमेसं कुलपुत्तानं अमोघा पब्बज्जा [पब्बजा अहोसि (क॰)] अवञ्झा सफला सउद्रया’’ति।

इदमवोच भगवा। अत्तमनो पञ्चसिखो गन्धब्बपुत्तो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेवन्तरधायीति।

महागोविन्दसुत्तं निट्ठितं छट्ठं।