नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 महासमय सुत्त

सूत्र विवेचना

यह सूत्र लोककाव्य का एक रोचक उदाहरण है। इसमें देवताओं की दुनिया पता चलती है कि कौन से देवता का क्या नाम है। इस सूत्र का मेट्रिकल विश्लेषण करने से पता चलता है कि इस उपदेश का लंबा “किर्ति गाथा” वाला हिस्सा बहुत पुराना है। जबकि परिचय देती गाथाएँ — जो संयुक्तनिकाय में भी पायी जाती हैं — बाद में जोड़े गए हैं। अर्थात, किर्ति गाथाएँ पहले रची गयी, जिसमें परिचय बहुत बाद में जोड़ा गया। दोनों एक-दूसरे से मेल नहीं खाते। विश्लेषण से यह संकेत साफ मिलता है कि किर्ति-गाथाएँ वाकई बुद्ध ने कही है।

अट्ठकथा कहती है कि आज भी देवतागण इस सूत्र को पालि में सुनना पसंद करते हैं। यह सूत्र भिक्षुओं की उस सूची में आता था, जिसमें रटकर याद रखना अनिवार्य था। कहते हैं कि इस सूत्र को विवाह के समय, और नए भवनों के लोकार्पण के समय पठन किया जाता था। आज भी, अनेक विहारों में भिक्षु इस सूत्र का नियमित पठन करते हैं।

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान शाक्यों के कपिलवस्तु के महावन में पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल भिक्षुसंघ के साथ, जिनमें सभी अरहंत थे, विहार कर रहे थे। तब, भगवान और भिक्षुसंघ का दर्शन लेने के लिए दस लोकधातु [दूसरे ब्रह्मांड या सौर्य-मंडल, या दूसरी दुनिया] के बहुत से देवतागण एकत्र हुए थे।

तब शुद्धवास ब्रह्मलोक के चार देवताओं को लगा, “भगवान शाक्यों के कपिलवस्तु के महावन में पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल भिक्षुसंघ के साथ, जिनमें सभी अरहंत थे, विहार कर रहे हैं। और, भगवान और भिक्षुसंघ का दर्शन लेने के लिए दस लोकधातु के बहुत से देवतागण एकत्र हुए हैं। क्यों न हम भगवान के पास जाएँ, और भगवान के पास जाकर हर कोई गाथा बोलें?”

तब, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, शुद्धवास ब्रह्मलोक के देवता विलुप्त हुए, और भगवान के आगे प्रकट हुए। तब उन देवताओं ने भगवान को अभिवादन किया और एक ओर खड़े हुए। एक ओर खड़े होकर एक देवता ने भगवान के आगे यह गाथाएँ बोली:

“इस वन में महासमूह,
देवताओं का एकत्र हुआ।
इस धर्म-समूह में हम आएँ,
अजेय संघ के दर्शन के लिए।”

तब दूसरे देवता ने भगवान के आगे यह गाथाएँ बोली:

“यहाँ भिक्षुगण समाधिस्त हैं,
अपने चित्त को सीधा कर के।
सारथी जैसे लगाम थामे,
पंडित इंद्रियों की रक्षा करते हैं।”

तब तीसरे देवता ने भगवान के आगे यह गाथाएँ बोली:

“कील तोड़, अर्गल तोड़,
इंद्र-स्तंभ उखाड़ कर, अचल,
शुद्ध, निर्मल, विचरण करते हैं।
चक्षुमान के सु-शिक्षित महान-शिशु।”

तब चौथे देवता ने भगवान के आगे यह गाथाएँ बोली:

“जो बुद्ध की शरण जाते हैं,
वे अधोगति नहीं जाते हैं।
मानव-देह को त्याग कर,
वे देवलोक को भरते हैं।”

देवताओं का मेला

तब, भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, ”भिक्षुओं, तथागत और भिक्षुसंघ का दर्शन लेने के लिए दस लोकधातु के देवतागण एकत्र हुए हैं। अतीतकाल में जो भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हुए थे, उन्हें देखने के लिए भी देवताओं का इतना बड़ा मेला लगा था, जितना इस समय मेरे लिए लगा है। भविष्यकाल में जो भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध होंगे, उन्हें देखने के लिए भी देवताओं का इतना बड़ा मेला लगेगा, जितना इस समय मेरे लिए लगा है। भिक्षुओं, मैं उन देवताओं का नाम घोषित करता हूँ। मैं उन देवताओं का नाम वर्णन करता हूँ। मैं उन देवताओं का नाम बताता हूँ। ध्यान देकर गौर से सुनों। मैं बताता हूँ।”

“ठीक है, भंते।” भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा:

“मैं किर्ति गाथा कहता हूँ,
जहाँ भूमिवासी देवता हैं,
जो पर्वतों के गर्भ में वहाँ,
निश्चयबद्ध, समाहित रहते हैं।

वे रहते अकेले सिंहों की तरह,
बिना भयभीत, रोमांचित हुए,
शुद्ध और उजालेदार मन उनके,
स्पष्टता, अविचलता से रहते हैं।

पाँच-सौ से अधिक श्रावक हैं,
कपिलवस्तु वन में, ये जानकर,
शास्ता ने उन्हें संबोधित किया,
श्रावक, जो उपदेश में रत रहते हैं।

“देवतागण आ पहुँचे हैं,
भिक्षुओं, उन्हें जान लों।”
बुद्ध की सूचना सुनकर,
तब उन्होने प्रयत्न किया।

उनमें ज्ञान प्रकट हुआ,
अमनुष्यों को देखकर,
किसी ने सैकड़ों को देखा,
किसी ने हजारों, सत्तर हजार भी।

किसी ने तो देख डाला,
एक लाख अमनुष्यों को।
तो किसी ने असंख्य देखे,
हर दिशा में फैले हुए।

और, यह सब जान कर,
कहने को चक्षुमान विवश हुए।
अतः शास्ता ने उन्हें संबोधित किया,
श्रावक, जो उपदेश में रत रहते हैं।

“देवतागण आएँ हैं,
भिक्षुओं, उन्हें जान लों।”
मैं उनकी यशकिर्ति को,
अनुक्रम के बताता हूँ।

सत्तर हजार यक्ष हैं,
भूमिवासी कपिलवस्तु में।
ऋद्धिमानी, प्रकाशमान,
सौंदर्यशाली, प्रतिष्ठावान।
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

छह हजार हिमालय से,
विविध वर्ण के यक्ष आएँ हैं।
ऋद्धिमानी, प्रकाशमान,
सौंदर्यशाली, प्रतिष्ठावान।
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

साता पर्वत [सतपुड़ा?] से तीन हजार,
विविध वर्ण के यक्ष आएँ हैं।
ऋद्धिमानी, प्रकाशमान,
सौंदर्यशाली, प्रतिष्ठावान।
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

कुल सोलह हजार, इस तरह
विविध वर्ण के यक्ष आएँ हैं।
ऋद्धिमानी, प्रकाशमान,
सौंदर्यशाली, प्रतिष्ठावान।
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

वेस्सामित्त से पाँच सौ,
विविध वर्ण के यक्ष आएँ हैं।
ऋद्धिमानी, प्रकाशमान,
सौंदर्यशाली, प्रतिष्ठावान।
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

और, राजगृह का कुम्भीर,
जो विपुल [पर्वत] का निवासी हैं,
जो एक लाख से अधिक ही,
यक्षों से सेवित होता है।
वह राजगृह का कुम्भीर,
आया है वन समिति में।

पूर्व-दिशा में राजा,
धतरट्ठ राज करते है,
गंधब्बों के अधिपति [स्वामी],
महाराज वे यशस्वी है।

पुत्र उनके बहुत हैं,
सभी इन्द्र नाम के बाहुबली,
ऋद्धिमानी, प्रकाशमान,
सौंदर्यशाली, प्रतिष्ठावान।
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

दक्षिण-दिशा में राजा,
विरूळ्ह राज करते है,
कुंभण्डों के अधिपति,
महाराज वे यशस्वी है।

पुत्र उनके बहुत हैं,
सभी इन्द्र नाम के बाहुबली,
ऋद्धिमानी, प्रकाशमान,
सौंदर्यशाली, प्रतिष्ठावान।
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

पश्चिम-दिशा में राजा,
विरूपक्ख राज करते है,
नागों के अधिपति,
महाराज वे यशस्वी है।

पुत्र उनके बहुत हैं,
सभी इन्द्र नाम के बाहुबली,
ऋद्धिमानी, प्रकाशमान,
सौंदर्यशाली, प्रतिष्ठावान।
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

उत्तर-दिशा में राजा,
कुवेर राज करते है,
यक्षों के अधिपति,
महाराज वे यशस्वी है।

पुत्र उनके बहुत हैं,
सभी इन्द्र नाम के बाहुबली,
ऋद्धिमानी, प्रकाशमान,
सौंदर्यशाली, प्रतिष्ठावान।
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

पूर्व दिशा में धतरट्ठ,
दक्षिण में विरूळ्हक
पश्चिम में विरूपक्ख
कुवेर उत्तर दिशा में।

चार ये महाराजा हैं,
सभी चार दिशाओं में,
चकाचौंध करते खड़े हैं,
कपिलवस्तु के वन में।

मायावी दास भी आएँ हैं,
जो ठग और शठ अपराधी हैं,
माया, कुटेण्डु, विटेण्डु,
विटु और विटुट के साथ।

चन्दन और कामसेट्ठ,
किन्निघण्डु और निघण्डु तक,
पनाद और ओपमञ्ञ भी,
देव रथ-सारथी मातलि भी।

चित्तसेन गंधब्ब भी आया है,
नळ राजा, जनता के वृषभ।
पञ्चशिख भी आया है,
तिम्बरू और सूरियवच्छसा।

ये और दूसरे राजा,
गंधब्ब अपने राजा के साथ,
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

तब, नाभस के नाग आएँ हैं,
वैशाली और तक्षशिला से,
कम्बल और अस्सतरस आएँ हैं,
प्रयाग से अपने परिवार सह।

यमुना और धतरट्ठ से,
यशस्वी नाग भी आएँ हैं,
एरावण महानाग भी,
आया है वन समिति में।

नागराजों को दबोचने वाले [गरुड],
विशुद्ध-चक्षु, द्वीज, दिव्य पक्षी,
बीच वन में आकाश से झपट्टा मारते,
चित्रा, सुपर्णा उनके नाम हैं।

[किन्तु] नागराजों को अभय प्राप्त है,
बुद्ध ने सुरक्षा दी सुपर्णों से,
मैत्री संवाद आपस में अब करते हैं,
बुद्ध की शरण ले नाग सुपर्णों ने।

वजिरहत्थ से पराजित हो,
असुर समुद्र में रहते हैं।
वे वासव [देवराज इन्द्र] के भाई हैं,
ऋद्धिमानी और यशस्वी हैं।

कालकञ्च महाभयानक हैं,
जो घस असुर के दानव हैं,
वेपचित्ति और सुचित्ति,
पहाराद और नमुची सह।

और, बलि के सौ पुत्र हैं,
सभी वेरोचन नाम के,
बलिसेना सज-धजकर,
भाग्यशाली राहु के पास गए,
“श्रीमान, उचित यह काल है,
भिक्षुओं की वन समिति में।”

जल और पृथ्वी के देवता,
अग्नि और वायु के आएँ हैं।
वरुण और वारण देवता,
सोम, यश के साथ आएँ हैं।

मेत्ता, करुणा काया वाले,
यशस्वी देवता भी आएँ हैं।
दस लोक से दस काया वाले,
सभी के विविध वर्ण हैं।

ऋद्धिमानी, प्रकाशमान,
सौंदर्यशाली, प्रतिष्ठावान।
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

वेन्डु [विष्णु] और सहलि देवता,
जुड़वा यम जो एक जैसे नहीं।
चाँद पर रहते देवता,
चाँद के पीछे से आएँ हैं।

सूर्य पर रहते देवता,
सूर्य के पीछे से आएँ हैं।
और, बादलों के देवता,
नक्षत्रों के पीछे से आएँ हैं।

वसु-श्रेष्ठ वासव आया है,
सक्क, जो पहला दानी है।
दस लोक से दस काया वाले,
सभी के विविध वर्ण हैं।

ऋद्धिमानी, प्रकाशमान,
सौंदर्यशाली, प्रतिष्ठावान।
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

सहभू देवता भी आएँ हैं,
अग्निलौ जैसे जलते हुए,
अरिट्ठक और रोजा भी,
जो उमापुष्प जैसे नीले हैं।

वरुण और सहधम्मा,
अच्चुत और अनेजक,
सूलेय्य और रुचिरा भी,
वासवनेसि देवता आएँ हैं।
दस लोक से दस काया वाले,
सभी के विविध वर्ण हैं।

ऋद्धिमानी, प्रकाशमान,
सौंदर्यशाली, प्रतिष्ठावान।
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

समान और महासमान
मनुष्य और उत्तम-मनुष्य,
[परगृही मनुष्य और सुपरमैन?]
क्रीडा से प्रदूषित देवता,
मन-प्रदूषित भी आएँ हैं।

फिर आएँ हरे देवता, [बुध गृह के?]
और लाल-वासी [मंगल गृह के?]
पारग और महापारग,
यशस्वी देवता आएँ हैं।
दस लोक से दस काया वाले,
सभी के विविध वर्ण हैं।

ऋद्धिमानी, प्रकाशमान,
सौंदर्यशाली, प्रतिष्ठावान।
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

शुक्र, नवजात, अरुण देवता
शनि के साथ आएँ हैं।
सफ़ेद-गृह के प्रमुख देवता,
चमकीले देवता आएँ हैं।

सदामत्त और हारगज,
यशस्वी के साथ मिलकर,
गरजते हुए पज्जुन्न भी आया,
जो सभी ओर वर्षा कराता है।

दस लोक से दस काया वाले,
सभी के विविध वर्ण हैं।
ऋद्धिमानी, प्रकाशमान,
सौंदर्यशाली, प्रतिष्ठावान।
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

खेमिय, तुषित और यामा
कट्ठक यशस्वी देवता भी,
लम्बितक और लामश्रेष्ठ,
जोतिनाम और आसव भी,
निर्माणरति देवता आएँ,
और आएँ परनिर्मित भी।
दस लोक से दस काया वाले,
सभी के विविध वर्ण हैं।

ऋद्धिमानी, प्रकाशमान,
सौंदर्यशाली, प्रतिष्ठावान।
प्रसन्न होकर वे आएँ हैं,
भिक्षुओं की वन समिति में।

ये साठ गुटों के देवता,
सभी के विविध वर्ण हैं।
नाम-क्रम से आएँ हैं,
ये और दूसरे सोचते हैं,
“जो जन्म-प्रक्रिया गिरा चुके,
बाढ़ लाँघ, अनास्रव, परे गए,
उन्हें तारने वाला सर्वश्रेष्ठ भी देखेंगे,
जैसे वे अँधेरे से निकलते चाँद हो।”

सुब्रह्मा और परमत्त आएँ,
अपने ऋद्धिमानी पुत्रों के साथ,
सनङ्कुमार और तिष्य ब्रह्मा भी,
आएँ हैं वन समिति में।

एक हजार ब्रह्मलोक में,
महाब्रह्मा ऊपर खड़े है।
जो प्रकाशमान उत्पन्न हुए,
यशस्वी भीष्म-कायिक है।

दस ईश्वर भी आएँ हैं,
उनमें हर कोई वशवर्ती हैं।
और आया उनके बीच में,
परिवार के साथ हारित भी।

जब वे सभी आ गए,
इन्द्र, देवता, ब्रह्म भी,
मार सेना भी पहुँच गयी,
कान्हा की मूर्खता देखो।

”आओ, पकड़ों इन्हें, बांध लो,
वे राग से जकड़ जाएँ,
सभी ओर से घेर लो,
कोई भी न छुट पाएँ!”

वहाँ है उनका महासेनापति,
कान्हा ने अपनी सेना भेजा।
हाथ से भूमि ठोक कर,
शोर भयंकर खड़ा किया।
जैसे वर्षा में बादल आते हैं,
गरजते और बिजली कड़कते,
किन्तु क्रुद्ध होकर पीछे हट गया,
जब उसके वश न कोई आया।

और, यह सब जान कर,
कहने को चक्षुमान विवश हुए।
अतः शास्ता ने उन्हें संबोधित किया,
श्रावक, जो उपदेश में रत रहते हैं।

“मार सेना आ पहुँची है,
भिक्षुओं, उन्हें जान लों।”
बुद्ध की सूचना सुनकर,
तब उन्होने प्रयत्न किया।
वीतरागीयों से [हार] भाग गए,
एक रोम भी न हिला सकें।

“सभी संग्राम विजयी हैं,
भय के परे, यशस्वी हैं।
प्रसन्न हुए सत्वों के साथ,
श्रावक जो जन-प्रसिद्ध हैं।”

महासमय सुत्र समाप्त।

Pali

३३१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति कपिलवत्थुस्मिं महावने महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि सब्बेहेव अरहन्तेहि; दसहि च लोकधातूहि देवता येभुय्येन सन्निपतिता होन्ति भगवन्तं दस्सनाय भिक्खुसङ्घञ्च। अथ खो चतुन्नं सुद्धावासकायिकानं देवतानं [देवानं (सी॰ स्या॰ पी॰)] एतदहोसि – ‘‘अयं खो भगवा सक्केसु विहरति कपिलवत्थुस्मिं महावने महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि सब्बेहेव अरहन्तेहि; दसहि च लोकधातूहि देवता येभुय्येन सन्निपतिता होन्ति भगवन्तं दस्सनाय भिक्खुसङ्घञ्च। यंनून मयम्पि येन भगवा तेनुपसङ्कमेय्याम; उपसङ्कमित्वा भगवतो सन्तिके पच्चेकं गाथं [पच्चेकगाथं (सी॰ स्या॰ पी॰), पच्चेकगाथा (क॰ सी॰)] भासेय्यामा’’ति।

३३२. अथ खो ता देवता सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य, एवमेव सुद्धावासेसु देवेसु अन्तरहिता भगवतो पुरतो पातुरहेसुं। अथ खो ता देवता भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठंसु। एकमन्तं ठिता खो एका देवता भगवतो सन्तिके इमं गाथं अभासि –

‘‘महासमयो पवनस्मिं, देवकाया समागता।

आगतम्ह इमं धम्मसमयं, दक्खिताये अपराजितसङ्घ’’न्ति॥

अथ खो अपरा देवता भगवतो सन्तिके इमं गाथं अभासि –

‘‘तत्र भिक्खवो समादहंसु, चित्तमत्तनो उजुकं अकंसु [उजुकमकंसु (सी॰ स्या॰ पी॰)]।

सारथीव नेत्तानि गहेत्वा, इन्द्रियानि रक्खन्ति पण्डिता’’ति॥

अथ खो अपरा देवता भगवतो सन्तिके इमं गाथं अभासि –

‘‘छेत्वा खीलं छेत्वा पलिघं, इन्दखीलं ऊहच्च [उहच्च (क॰)] मनेजा।

ते चरन्ति सुद्धा विमला, चक्खुमता सुदन्ता सुसुनागा’’ति॥

अथ खो अपरा देवता भगवतो सन्तिके इमं गाथं अभासि –

‘‘येकेचि बुद्धं सरणं गतासे, न ते गमिस्सन्ति अपायभूमिं।

पहाय मानुसं देहं, देवकायं परिपूरेस्सन्ती’’ति॥

देवतासन्निपाता

३३३. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘येभुय्येन, भिक्खवे, दससु लोकधातूसु देवता सन्निपतिता होन्ति [( ) सी॰ इपोत्थकेसु नत्थि], तथागतं दस्सनाय भिक्खुसङ्घञ्च। येपि ते, भिक्खवे, अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, तेसम्पि भगवन्तानं एतंपरमायेव [एतपरमायेव (सी॰ स्या॰ पी॰)] देवता सन्निपतिता अहेसुं सेय्यथापि मय्हं एतरहि। येपि ते, भिक्खवे, भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, तेसम्पि भगवन्तानं एतंपरमायेव देवता सन्निपतिता भविस्सन्ति सेय्यथापि मय्हं एतरहि। आचिक्खिस्सामि, भिक्खवे, देवकायानं नामानि; कित्तयिस्सामि, भिक्खवे, देवकायानं नामानि; देसेस्सामि, भिक्खवे, देवकायानं नामानि। तं सुणाथ, साधुकं मनसिकरोथ, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं।

३३४. भगवा एतदवोच –

‘‘सिलोकमनुकस्सामि, यत्थ भुम्मा तदस्सिता।

ये सिता गिरिगब्भरं, पहितत्ता समाहिता॥

‘‘पुथूसीहाव सल्लीना, लोमहंसाभिसम्भुनो।

ओदातमनसा सुद्धा, विप्पसन्नमनाविला’’ [विप्पसन्नामनाविला (पी॰ क॰)]॥

भिय्यो पञ्चसते ञत्वा, वने कापिलवत्थवे।

ततो आमन्तयी सत्था, सावके सासने रते॥

‘‘देवकाया अभिक्कन्ता, ते विजानाथ भिक्खवो’’।

ते च आतप्पमकरुं, सुत्वा बुद्धस्स सासनं॥

तेसं पातुरहु ञाणं, अमनुस्सानदस्सनं।

अप्पेके सतमद्दक्खुं, सहस्सं अथ सत्तरिं॥

सतं एके सहस्सानं, अमनुस्सानमद्दसुं।

अप्पेकेनन्तमद्दक्खुं, दिसा सब्बा फुटा अहुं॥

तञ्च सब्बं अभिञ्ञाय, ववत्थित्वान [ववक्खित्वान (सी॰ स्या॰ पी॰), अवेक्खित्वान (टीका)] चक्खुमा।

ततो आमन्तयी सत्था, सावके सासने रते॥

‘‘देवकाया अभिक्कन्ता, ते विजानाथ भिक्खवो।

ये वोहं कित्तयिस्सामि, गिराहि अनुपुब्बसो॥

३३५.‘‘सत्तसहस्सा ते यक्खा, भुम्मा कापिलवत्थवा।

इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

‘‘छसहस्सा हेमवता, यक्खा नानत्तवण्णिनो।

इद्धिमन्तो जुतीमन्तो [जुतीमन्तो (सी॰ पी॰)], वण्णवन्तो यसस्सिनो।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

‘‘सातागिरा तिसहस्सा, यक्खा नानत्तवण्णिनो।

इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

‘‘इच्चेते सोळससहस्सा, यक्खा नानत्तवण्णिनो।

इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

‘‘वेस्सामित्ता पञ्चसता, यक्खा नानत्तवण्णिनो।

इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

‘‘कुम्भीरो राजगहिको, वेपुल्लस्स निवेसनं।

भिय्यो नं सतसहस्सं, यक्खानं पयिरुपासति।

कुम्भीरो राजगहिको, सोपागा समितिं वनं॥

३३६.‘‘पुरिमञ्च दिसं राजा, धतरट्ठो पसासति।

गन्धब्बानं अधिपति, महाराजा यसस्सिसो॥

‘‘पुत्तापि तस्स बहवो, इन्दनामा महब्बला।

इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

‘‘दक्खिणञ्च दिसं राजा, विरूळ्हो तं पसासति [तप्पसासति (स्या॰)]।

कुम्भण्डानं अधिपति, महाराजा यसस्सिसो॥

‘‘पुत्तापि तस्स बहवो, इन्दनामा महब्बला।

इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

‘‘पच्छिमञ्च दिसं राजा, विरूपक्खो पसासति।

नागानञ्च अधिपति, महाराजा यसस्सिसो॥

‘‘पुत्तापि तस्स बहवो, इन्दनामा महब्बला।

इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

‘‘उत्तरञ्च दिसं राजा, कुवेरो तं पसासति।

यक्खानञ्च अधिपति, महाराजा यसस्सिसो॥

‘‘पुत्तापि तस्स बहवो, इन्दनामा महब्बला।

इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

‘‘पुरिमं दिसं धतरट्ठो, दक्खिणेन विरूळ्हको।

पच्छिमेन विरूपक्खो, कुवेरो उत्तरं दिसं॥

‘‘चत्तारो ते महाराजा, समन्ता चतुरो दिसा।

दद्दल्लमाना [दद्दळ्हमाना (क॰)] अट्ठंसु, वने कापिलवत्थवे॥

३३७.‘‘तेसं मायाविनो दासा, आगुं [आगू (स्या॰), आगु (सी॰ पी॰) एवमुपरिपि] वञ्चनिका सठा।

माया कुटेण्डु विटेण्डु [वेटेण्डु (सी॰ स्या॰ पी॰)], विटुच्च [विटू च (स्या॰)] विटुटो सह॥

‘‘चन्दनो कामसेट्ठो च, किन्निघण्डु [किन्नुघण्डु (सी॰ स्या॰ पी॰)] निघण्डु च।

पनादो ओपमञ्ञो च, देवसूतो च मातलि॥

‘‘चित्तसेनो च गन्धब्बो, नळोराजा जनेसभो [जनोसभो (स्या॰)]।

आगा पञ्चसिखो चेव, तिम्बरू सूरियवच्चसा [सुरियवच्चसा (सी॰ पी॰)]॥

‘‘एते चञ्ञे च राजानो, गन्धब्बा सह राजुभि।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

३३८.‘‘अथागुं नागसा नागा, वेसाला सहतच्छका।

कम्बलस्सतरा आगुं, पायागा सह ञातिभि॥

‘‘यामुना धतरट्ठा च, आगू नागा यसस्सिनो।

एरावणो महानागो, सोपागा समितिं वनं॥

‘‘ये नागराजे सहसा हरन्ति, दिब्बा दिजा पक्खि विसुद्धचक्खू।

वेहायसा [वेहासया (सी॰ पी॰)] ते वनमज्झपत्ता, चित्रा सुपण्णा इति तेस नामं॥

‘‘अभयं तदा नागराजानमासि, सुपण्णतो खेममकासि बुद्धो।

सण्हाहि वाचाहि उपव्हयन्ता, नागा सुपण्णा सरणमकंसु बुद्धं॥

३३९.‘‘जिता वजिरहत्थेन, समुद्दं असुरासिता।

भातरो वासवस्सेते, इद्धिमन्तो यसस्सिनो॥

‘‘कालकञ्चा महाभिस्मा [कालकञ्जा महाभिंसा (सी॰ पी॰)], असुरा दानवेघसा।

वेपचित्ति सुचित्ति च, पहारादो नमुची सह॥

‘‘सतञ्च बलिपुत्तानं, सब्बे वेरोचनामका।

सन्नय्हित्वा बलिसेनं [बलीसेनं (स्या॰)], राहुभद्दमुपागमुं।

समयोदानि भद्दन्ते, भिक्खूनं समितिं वनं॥

३४०.‘‘आपो च देवा पथवी, तेजो वायो तदागमुं।

वरुणा वारणा [वारुणा (स्या॰)] देवा, सोमो च यससा सह॥

‘‘मेत्ता करुणा कायिका, आगुं देवा यसस्सिनो।

दसेते दसधा काया, सब्बे नानत्तवण्णिनो॥

‘‘इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

‘‘वेण्डुदेवा सहलि च [वेण्हूच देवा सहलीच (सी॰ पी॰)], असमा च दुवे यमा।

चन्दस्सूपनिसा देवा, चन्दमागुं पुरक्खत्वा॥

‘‘सूरियस्सूपनिसा [सुरियस्सूपनिसा (सी॰ स्या॰ पी॰)] देवा, सूरियमागुं पुरक्खत्वा।

नक्खत्तानि पुरक्खत्वा, आगुं मन्दवलाहका॥

‘‘वसूनं वासवो सेट्ठो, सक्कोपागा पुरिन्ददो।

दसेते दसधा काया, सब्बे नानत्तवण्णिनो॥

‘‘इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

‘‘अथागुं सहभू देवा, जलमग्गिसिखारिव।

अरिट्ठका च रोजा च, उमापुप्फनिभासिनो॥

‘‘वरुणा सहधम्मा च, अच्चुता च अनेजका।

सूलेय्यरुचिरा आगुं, आगुं वासवनेसिनो।

दसेते दसधा काया, सब्बे नानत्तवण्णिनो॥

‘‘इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

‘‘समाना महासमना, मानुसा मानुसुत्तमा।

खिड्डापदोसिका आगुं, आगुं मनोपदोसिका॥

‘‘अथागुं हरयो देवा, ये च लोहितवासिनो।

पारगा महापारगा, आगुं देवा यसस्सिनो।

दसेते दसधा काया, सब्बे नानत्तवण्णिनो॥

‘‘इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

‘‘सुक्का करम्भा [करुम्हा (सी॰ स्या॰ पी॰)] अरुणा, आगुं वेघनसा सह।

ओदातगय्हा पामोक्खा, आगुं देवा विचक्खणा॥

‘‘सदामत्ता हारगजा, मिस्सका च यसस्सिनो।

थनयं आग पज्जुन्नो, यो दिसा अभिवस्सति॥

‘‘दसेते दसधा काया, सब्बे नानत्तवण्णिनो।

इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

‘‘खेमिया तुसिता यामा, कट्ठका च यसस्सिनो।

लम्बीतका लामसेट्ठा, जोतिनामा च आसवा।

निम्मानरतिनो आगुं, अथागुं परनिम्मिता॥

‘‘दसेते दसधा काया, सब्बे नानत्तवण्णिनो।

इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो।

मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं॥

‘‘सट्ठेते देवनिकाया, सब्बे नानत्तवण्णिनो।

नामन्वयेन आगच्छुं [आगञ्छुं (सी॰ स्या॰ पी॰)], ये चञ्ञे सदिसा सह॥

‘‘‘पवुट्ठजातिमखिलं [पवुत्थजातिं अखिलं (सी॰ पी॰)], ओघतिण्णमनासवं।

दक्खेमोघतरं नागं, चन्दंव असितातिगं’॥

३४१.‘‘सुब्रह्मा परमत्तो च [परमत्थो च (क॰)], पुत्ता इद्धिमतो सह।

सनङ्कुमारो तिस्सो च, सोपाग समितिं वनं॥

‘‘सहस्सं ब्रह्मलोकानं, महाब्रह्माभितिट्ठति।

उपपन्नो जुतिमन्तो, भिस्माकायो यसस्सिसो॥

‘‘दसेत्थ इस्सरा आगुं, पच्चेकवसवत्तिनो।

तेसञ्च मज्झतो आग, हारितो परिवारितो॥

३४२.‘‘ते च सब्बे अभिक्कन्ते, सइन्दे [सिन्दे (स्या॰)] देवे सब्रह्मके।

मारसेना अभिक्कामि, पस्स कण्हस्स मन्दियं॥

‘‘‘एथ गण्हथ बन्धथ, रागेन बद्धमत्थु वो।

समन्ता परिवारेथ, मा वो मुञ्चित्थ कोचि नं’॥

‘‘इति तत्थ महासेनो, कण्हो सेनं अपेसयि।

पाणिना तलमाहच्च, सरं कत्वान भेरवं॥

‘‘यथा पावुस्सको मेघो, थनयन्तो सविज्जुको। +

तदा सो पच्चुदावत्ति, सङ्कुद्धो असयंवसे [असयंवसी (सी॰ पी॰)]॥

३४३. तञ्च सब्बं अभिञ्ञाय, ववत्थित्वान चक्खुमा।

ततो आमन्तयी सत्था, सावके सासने रते॥

‘‘मारसेना अभिक्कन्ता, ते विजानाथ भिक्खवो।

ते च आतप्पमकरुं, सुत्वा बुद्धस्स सासनं।

वीतरागेहि पक्कामुं, नेसं लोमापि इञ्जयुं॥

‘‘‘सब्बे विजितसङ्गामा, भयातीता यसस्सिनो।

मोदन्ति सह भूतेहि, सावका ते जनेसुता’’ति॥

महासमयसुत्तं निट्ठितं सत्तमं।