नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 देवराज इंद्र के प्रश्न

सूत्र विवेचना

प्राचीन बौद्ध साहित्य के अनेक सूत्रों में हास्य छिपे हैं। देवराज इन्द्र भगवान को प्रसन्न करने के लिए पञ्चशिख, एक लोकप्रिय गंधब्ब कलाकार, को भेजते है। और वह बावला मजनू अपनी गंधब्बी के लिए, अपनी कामुक इरादों को धार्मिक भावनाओं में डुबोकर, ऐसा बेजोड़ गाना गाता है, जिसे शायद कोई भगवान के आगे नहीं गा पाता। पञ्चशिख का गाना अनुवाद करते हुए मुझे बहुत लज्जा आयी। किन्तु, मैंने इस बात से सांत्वना ली कि भगवान ने मुस्कान रोकते हुए भिक्षुओं को पश्चात बताया होगा।

खैर। देवराज इन्द्र के रोचक प्रश्न, देवताओं के चित्त से ही उपजे लगते हैं, संघ के मिलावटी तत्वों से नहीं। और, उनका समाधान बुद्ध के अलावा और कोई दूसरा ऋषिमुनि, श्रमण- ब्राह्मण नहीं कर सकता। क्योंकि इतने धार्मिक देवताओं के आगे, अँधेरे में तीर चलाने से बात नहीं बनेगी, जैसे भोले मानवों के आगे शायद बन जाती हो। देवताओं का खुला चित्त अन्तर्ज्ञान की गहराई को तुरंत भाँप लेता है। यही कारण है कि देवराज इन्द्र के अनेक पूर्व प्रयास विफल हुए थे, जिसमें वह दूसरे ऋषि-मुनियों से प्रश्न पुछने जाता था, और बेचारे को खुद ही उत्तर देकर आना पड़ता था।

हालाँकि, भगवान के उत्तर साधारण नहीं लगते। वे अपने उत्तरों को अत्यंत सरल और प्रासंगिक बनाते है। मसलन, जब बुद्ध इन्द्र को ‘वेदना कर्मष्ठान’ देते है, तो उसमें ‘शारीरिक’ सुख-दुःख-तटस्थता की बात नहीं करते, केवल मानसिक अनुभूतियों की बात करते है। उसका एक कारण है कि अधिकांश देवताओं को भिन्न शारीरिक अनुभूतियाँ होती है, किन्तु दर्द महसूस नहीं होता। दूसरी ओर, भगवान पातिमोक्ष-सँवर और इंद्रिय-सँवर को जिस तरह दो प्रकारों में विभाजित कर परिभाषित करते हैं, वह देवताओं के लिए अत्यंत सरल, प्रासंगिक और यादगार है।

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान मगध में प्राचीन राजगृह के अम्बसण्डा नामक ब्राह्मण गाँव के उत्तर-दिशा में वेदियक पर्वत की इंद्रशाल-गुफा में विहार कर रहे थे। उस समय, देवराज इंद्र सक्क [=सक्षम] को भगवान का दर्शन लेने की उत्सुकता हुई। देवराज इंद्र सक्क को लगा, “इस समय भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध कहाँ विहार कर रहे है?”

तब देवराज इंद्र सक्क ने देखा कि भगवान मगध में प्राचीन राजगृह के अम्बसण्डा नामक ब्राह्मण गाँव के उत्तर-दिशा में वेदियक पर्वत की इंद्रशाल-गुफा में विहार कर रहे है। तब ऐसा देखकर, तैतीस देवताओं को संबोधित किया, “महाशयों, भगवान मगध में प्राचीन राजगृह के अम्बसण्डा नामक ब्राह्मण गाँव के उत्तर-दिशा में वेदियक पर्वत की इंद्रशाल-गुफा में विहार कर रहे है। क्यों न हम दर्शन लेने के लिए भगवान अरहंत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के पास जाएँ?”

“ठीक है, भदन्त।” उन तैतीस देवताओं ने देवराज इंद्र सक्क को उत्तर दिया। तब देवराज इंद्र सक्क ने गंधब्बपुत्र पञ्चशिख को संबोधित किया, “प्रिय पञ्चशिख, भगवान मगध में प्राचीन राजगृह के अम्बसण्डा नामक ब्राह्मण गाँव के उत्तर-दिशा में वेदियक पर्वत की इंद्रशाल-गुफा में विहार कर रहे है। क्यों न हम दर्शन लेने के लिए भगवान अरहंत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के पास जाएँ?”

“ठीक है, भदन्त।” गंधब्बपुत्र पञ्चशिख ने देवराज इंद्र सक्क को उत्तर दिया, और जर्द बेल से बनी वीणा लेकर देवराज इंद्र सक्क के अनुचारी की भांति गया।

तब देवराज इंद्र सक्क, तैतीस देवताओं और गंधब्बपुत्र पञ्चशिख को घिरा हुआ, आगे बढ़ते हुए — जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले — उसी तरह, तैतीस देवलोक से विलुप्त हुआ, और मगध में प्राचीन राजगृह के अम्बसण्डा नामक ब्राह्मण गाँव के उत्तर-दिशा में वेदियक पर्वत पर प्रकट हुआ।

उस समय वेदियक पर्वत और अम्बसण्डा ब्राह्मण-गाँव में बहुत उजाला उत्पन्न हुआ, जैसे देवताओं के देव-प्रभाव से होता ही है। चारों ओर गाँव के लोगों को भयपूर्ण उत्तेजना और रोमांच हुआ, उन्हें लगा, “वेदियक पर्वत को आग लग गयी है! आज वेदियक पर्वत धधक रहा है, जल रहा है! क्यों वेदियक पर्वत को आग लग गयी है? क्यों भला आज वेदियक पर्वत धधक रहा है, जल रहा है?”

तब देवराज इंद्र सक्क ने गंधब्बपुत्र पञ्चशिख को संबोधित किया, “प्रिय पञ्चशिख, मेरे जैसा कोई तथागत के पास सीधा नहीं चला जाता, जब वे एकांतवास लेकर समाधि में लीन, ध्यानमग्न हो। किन्तु, यदि तुम, प्रिय पञ्चशिख, पहले भगवान को प्रसन्न करो। तो, पहले तुम्हारे प्रसन्न करने के पश्चात, फिर हम भगवान अरहंत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध के पास दर्शन लेने के लिए आएँगे।”

“ठीक है, भदन्त।” गंधब्बपुत्र पञ्चशिख ने देवराज इंद्र सक्क को उत्तर दिया, और जर्द बेल से बनी वीणा लेकर इंद्रशाल-गुफा के पास गया। और, जाकर एक ओर खड़ा हुआ, [सोचते हुए,] “यहाँ इस जगह मैं भगवान से बहुत दूर नहीं, और पास भी नहीं हूँ। यही मैं अपनी आवाज सुनाऊँगा।”

१. पञ्चशिख का गीत

एक ओर खड़ा होकर, गंधब्बपुत्र पञ्चशिख अपनी जर्द बेल से बनी वीणा बजाने लगा, और ऐसी गाथाएँ गाने लगा, जो बुद्ध से संबंधित, धर्म से संबंधित, संघ से संबंधित, अरहंत से संबंधित, और कामुकता से संबंधित थी:

“ओ भद्दा सूरियवच्छसा!
[=भद्रा या प्यारी, सूर्यउज्ज्वला!]
प्रणाम तुम्हारे पिता तिम्बरु को।
जिससे जन्मी, तुम कल्याणी,
मेरे लिए तुम आनंद जननी।

पसीनेबाज के लिए तुम पवन,
किसी प्यासे के लिए पानी हो।
मुझे दीप्तिमानी, तुम इतनी प्रिय,
जैसे अरहंतों के लिए धर्म हो।

आतुर के लिए जैसे तुम दवा,
किसी भूखे के लिए भोजन हो।
बुझा दो, प्यारी, तुम मुझ को,
पानी छिड़क कर, जलते को।

जैसे शीतल जल पुष्करणी में,
पुष्प-रेणु, पंखुड़ियों से भरी हुई,
हाथी डुबकी ले, बेहाल गर्मी से,
वैसे डुबूँ मैं, तुम्हारे स्तनों में।

जैसे अंकुश तोड़ा हाथी हो,
बेफिक्र भाला, बरछी से,
जानता नहीं हूँ मैं कारण,
क्यों बावला हूँ तेरी सुडौल जाँघों से।

तेरे लिए, मेरा चित्त लुब्ध,
मन मेरा पूरा बदल चुका।
अब मैं पलट नहीं सकता,
जैसे काँटा निगली मछली हो।

आलिंगन दो, भद्दा, सु-जाँघों वाली।
आलिंगन दो, मन्द-आँखों वाली।
बाहों में भर लो, कल्याणी।
यही मेरी अंतिम चाहत है।

पहले, कामना मेरी छोटी थी,
ओ कामुक, घुँघराले केश वाली।
अब जो कई गुना बढ़ गयी,
जैसे अरहंतों को दी दक्षिणा।

जो भी मैंने पुण्य किया,
अरहंतों के लिए जैसा,
ओ मेरी सब्बङ्ग कल्याणी,
तेरे साथ के लिए वह फलश्रुत हो।

जैसे शाक्यपुत्र ने ध्यान से,
एकाग्र, सचेत, स्मृतिमान रहे।
जैसे अमृत के लिए मुनि तड़पे,
वैसे सूरियवच्छसा, मैं तेरे लिए।

जैसे मुनि हर्षित होता है,
उत्तम संबोधी प्राप्त कर,
वैसे हर्षित होऊँगा, कल्याणी,
तुमसे मिलकर जुड़ जाने पर।

जो सक्क मुझे वरदान दे,
जो तैतीसों के ईश्वर है,
भद्दा तुम ही मेरा वर होगी,
ऐसी दृढ़ मेरी कामुकता है।

जैसे अभी खिला शालवृक्ष हो,
वैसे तुम्हारे पिता सुमेध को,
वंदन करूँ, नमन करूँ मैं,
जिनकी तेरे जैसी संतान हो।”

जब ऐसा गाया गया, तब भगवान ने गंधब्बपुत्र पञ्चशिख से कहा, “पञ्चशिख, तुम्हारे [वीणा के] तार का सुर, गीत-स्वर से अनुकूल हैं। और तुम्हारे गीत का सुर, तार-स्वर से अनुकूल हैं। तुम्हारे तार का सुर, गीत-स्वर से अलग नहीं जाता है, और तुम्हारे गीत का सुर, तार-स्वर से अलग नहीं जाता है। कब रचा तुमने इस गीत को, पञ्चशिख, जो बुद्ध से संबंधित, धर्म से संबंधित, संघ से संबंधित, अरहंत से संबंधित, और कामुकता से संबंधित है?”

“जिस समय, भंते, भगवान उरुवेला में अभी-अभी सम्बुद्ध बने थे, और नेरञ्जरा नदी के तट पर अजपाल वटवृक्ष के नीचे विहार कर रहे थे। तब मैं भद्दा सूर्यवच्छसा [भद्रा या प्यारी, सूर्यउज्ज्वला] नामक गंधब्बों के राजा तिम्बरु की पुत्री पर प्रेमासक्त था। किन्तु, भंते, वह बहन [“भगिनी!”] किसी दूसरे को चाहती थी। वह बहन [देवराज इन्द्र के] रथ-सारथी मातलि के पुत्र शिखंडी पर प्रेमासक्त थी। और, भंते, जब मैं किसी भी तरीके से उस बहन को न पा सका, तब मैंने अपनी जर्द बेल से बनी वीणा लेकर गंधब्बों के राजा तिम्बरु के घर गया। और जाकर, वीणा बजाकर इस गीत को गाने लगा, जो बुद्ध से संबंधित, धर्म से संबंधित, संघ से संबंधित, अरहंत से संबंधित, और कामुकता से संबंधित है —

“ओ भद्दा सूर्यवच्छसा!
प्रणाम तुम्हारे पिता तिम्बरु को।
...
वंदन करूँ, नमन करूँ मैं,
जिनकी तेरे जैसी संतान हो।”

जब ऐसा गाया गया, तब भद्दा सूर्यवच्छसा ने मुझसे कहा, “महाशय, मैंने उन भगवान को प्रत्यक्ष नहीं देखा है। किन्तु, मैंने उन भगवान के बारे में सुना था, जब मैं तैतीस देवताओं की सुधम्म सभा में नृत्य करने के लिए गयी थी। चूँकि, तुम भगवान का किर्तिगान करते हो, तो आओ, महाशय, आज हम समागम करें।” तब, भंते, मेरा उस बहन के साथ समागम हुआ। और, उसके पश्चात कभी नहीं हुआ!”

२. सक्क का आगमन

तब, देवराज इन्द्र सक्क को लगा, “अब भगवान प्रसन्न होकर गंधब्बपुत्र पञ्चशिख के साथ बातें कर रहे है।” तब, देवराज इन्द्र सक्क ने गंधब्बपुत्र पञ्चशिख को संबोधित किया, “प्रिय पञ्चशिख,भगवान को मेरी ओर से अभिवादन करो! [कहते हुए,] ‘भंते, देवराज इन्द्र सक्क, अपने मंत्रियों और परिजनों के साथ, भगवान के चरणों में सिर रखकर वंदन करते हैं।’”

“ठीक है, भदन्त।” गंधब्बपुत्र पञ्चशिख ने देवराज इन्द्र सक्क को उत्तर दिया, और भगवान को अभिवादन करते हुए कहा, “भंते, देवराज इन्द्र सक्क, अपने मंत्रियों और परिजनों के साथ, भगवान के चरणों में सिर रखकर वंदन करते हैं।”

“तब, पञ्चशिख, देवराज इन्द्र सक्क और उसके मंत्रीगण और परिजन, सुखी हो। सभी सुख की कामना करते देवता, मनुष्य, असुर, नाग, गंधब्ब हो, या विभिन्न काया वाले सत्व हो, सुखी हो!” इस तरह तथागत इतने महासक्षम यक्षों को आशीर्वाद देते है।

भगवान से आशीर्वाद पाकर, देवराज इन्द्र ने इन्द्रशाल गुफा में प्रवेश किया, और भगवान को अभिवादन कर एक ओर खड़ा हुआ। फिर, तैतीस देवताओं ने इन्द्रशाल गुफा में प्रवेश किया, और भगवान को अभिवादन कर एक ओर खड़े हुए। फिर, गंधब्बपुत्र पञ्चशिख ने भी इन्द्रशाल गुफा में प्रवेश किया, और भगवान को अभिवादन कर एक ओर खड़ा हुआ।

उस समय देवताओं के देव-प्रभाव से इन्द्रशाल-गुफा की [टेढ़ी-मेढ़ी] विषमता सम हो गयी, संकीर्णता विस्तृत हो गयी, गुफा का अंधकार मिट गया और उजाला उत्पन्न हुआ। तब, भगवान ने देवराज इन्द्र सक्क से कहा, “आश्चर्य है, आयुष्मान कोसिय [=इंद्र का दूसरा नाम], अद्भुत है आयुष्मान कोसिय कि जिसे इतने काम, इतने कर्तव्य होते हैं, वह यहाँ आए।”

“बहुत लंबे काल से, भंते, मैं भगवान के दर्शन के लिए आना चाहता था। किन्तु, तैतीस देवताओं के कोई न कोई काम और कर्तव्य में घिरा रहा, और भगवान के दर्शन के लिए नहीं आ सका। एक समय, भंते, भगवान श्रावस्ती में सलळ [=लोहबान-वृक्ष] की कुटी में विहार कर रहे थे। तब मैं श्रावस्ती में भगवान के दर्शनार्थ आया था। किन्तु, उस समय, भंते, भगवान किसी समाधि में बैठे थे, और ‘भुजति’ नाम की वेस्सवण महाराज की [यक्षिणी] सेविका वहाँ उपस्थित थी, जो भगवान को हाथ जोड़कर नमन करते हुए खड़ी थी।

तब मैंने भुजति से कहा, ‘बहन, भगवान को मेरी ओर से अभिवादन करो, और उनसे कहो, ‘भंते, देवराज इंद्र सक्क, अपने मंत्रियों और परिजनों के साथ, भगवान के चरणों में सिर रखकर वंदन करता है।’

जब ऐसा कहा गया, भंते, तब भुजति ने मुझे कहा, ‘महाशय, भगवान के दर्शन का यह अनुचित समय है। भगवान एकांतवास में है।’

‘ठीक है, बहन। जब भगवान समाधि से उठ जाएँगे, तब भगवान को मेरी ओर से अभिवादन करना, और कहना, ‘भंते, देवराज इंद्र सक्क, अपने मंत्रियों और परिजनों के साथ, भगवान के चरणों में सिर रखकर वंदन करता है।’

भंते, क्या उस बहन ने भगवान को अभिवादन किया था? क्या भगवान उस बहन की कही बातों का स्मरण करते है?”

“हाँ, देवराज इंद्र, उस बहन ने अभिवादन किया था। मुझे उस बहन की कही बातों का स्मरण है। बल्कि आयुष्मान के रथ के शोर से मैं उस समाधि से उठा था।”

“भंते, जो देवता तैतीस देवलोक के मुझसे पहले उत्पन्न हुए थे, मैंने उनके मुख से सुना है, उनके सम्मुख ग्रहण किया है कि ‘जब इस लोक में तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट होते हैं, तब देवलोक भर जाता है, असुरलोक क्षीण होता है। और, भंते, मैंने अपनी आँखों से साक्षात देखा कि जब इस लोक में तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट होते हैं, तब देवलोक भर जाता है, असुरलोक क्षीण होता है।’”

२.१ गोपिका कथा

“भंते, यही कपिलवस्तु में गोपिका नामक शाक्यपुत्री थी, जिसकी बुद्ध पर आस्था, धर्म पर आस्था, संघ पर आस्था थी, और जो शील परिपूर्ण करती थी। उसका स्त्रीत्व से विराग हुआ और पुरुषत्व विकसित हुआ। वह मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति हो, स्वर्ग लोक में उत्पन्न हुई। बल्कि वह तैतीस देवताओं में मेरा पुत्र बनकर जन्मी। वहाँ उसे ‘गोपक देवपुत्र, गोपक देवपुत्र’ कह कर पहचानते थे। किन्तु, भंते, तीन भिक्षु भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करने पर हीन गंधब्बलोक में उत्पन्न हुए। तब वे पाँच कामभोग में लिप्त होकर, समर्पित होकर, सेवित होकर मेरे पास सेवक और नौकर के रूप में आने लगे।

जब वे मेरे सेवक और नौकर के रूप में आने लगे, तब गोपक देवपुत्र ने उन्हें डाँट लगायी, “तुम लोगों का मुँह कहाँ रहता था, श्रीमानों, जब भगवान का धर्म सुनते थे? क्योंकि मैं तो उस समय एक स्त्री थी, जिसकी बुद्ध पर आस्था, धर्म पर आस्था, संघ पर आस्था थी, और जो शील परिपूर्ण करती थी। मेरा स्त्रीत्व से विराग हुआ और पुरुषत्व विकसित हुआ। और मैं मरणोपरांत, काया छूटने पर सद्गति होकर, स्वर्ग लोक में उत्पन्न हुई। बल्कि मैं तैतीस देवताओं में देवराज इंद्र सक्क का पुत्र बनकर जन्मी। यहाँ मुझे ‘गोपक देवपुत्र, गोपक देवपुत्र’ कहकर पहचानते हैं। किन्तु, श्रीमानों, तुम लोग भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करने पर भी हीन गंधब्बलोक में उत्पन्न हुए। अरे, ऐसी दुर्दशा देखी नहीं जाती! मुझसे ये देखा नहीं जाता कि मेरे सहधार्मिक लोग हीन गंधब्बलोक में उत्पन्न हुए!”

इस तरह, भंते, गोपक देवपुत्र के डाँटने पर, उनमें से दो देवताओं की तुरंत उसी जगह स्मृति लौट ब्रह्म-पुरोहित काया प्राप्त हुई। किन्तु, एक देवता कामुकता में ही पड़ा रहा।

“चक्षुमान की मैं उपासिका थी,
'गोपिका' मेरा नाम था।
आस्था मेरी बुद्ध, धर्म पर,
प्रसन्न-चित्त से संघसेवा की।

बुद्ध के उस श्रेष्ठ सुधर्म से,
महाप्रभावशाली सक्क का पुत्र हूँ।
महातेजस्वी तैतीस में उपजा हूँ।
यहाँ 'गोपक' मुझे कहते हैं।

तब मैंने परिचित भिक्षु देखे,
वश से गंधब्बलोक प्राप्त हुए।
वे गोतम के श्रावक थे,
जब मैं पहले मानव था।

मैंने अन्न-पान से उनकी सेवा की थी,
उनके पैर अपने घर धोएँ थे।
कहाँ इनका मुँह रह गया,
बुद्ध का धर्म ग्रहण करते हुए।

प्रत्येक को धर्म स्वानुभाव करना है,
चक्षुमान बुद्ध द्वारा सु-उपदेशित है।
मैं तुम्हारी उपासना करती थी,
आर्यों की भली बात सुनकर।

महाप्रभावशाली सक्क का पुत्र हूँ।
महातेजस्वी तैतीस में उपजा हूँ।
किन्तु तुमने श्रेष्ठ की उपासना की,
अनुत्तर ब्रह्मचर्य पालन किया।

तब भी हीन काया में गिर पड़े,
अनुपयुक्त उत्पत्ति में उत्पन्न हुए।
ऐसी दुर्दशा नहीं देखी जाती,
सहधार्मिक हीन काया में उपजे।

गंधब्ब काया में जन्में,
देवताओं की सेवा के लिए,
जबकि मैं घर में रहती थी,
तब भी मेरी विशेषता देखो।

स्त्री होकर अब मैं पुरुष देव हूँ।
दिव्य कामभोग में समर्पित हूँ,
गोतम के श्रावक डाँट खाकर,
संवेग जागा, गोपक को सुनकर।

“चलो, मेहनत, परिश्रम करें।
अब परसेवा नहीं करें।”
किया दो ने वीर्य आरंभ,
कर गोतम-सीख का अनुस्मरण।

तुरंत चित्त विराग हुआ,
कामुकता की खामियाँ दिखी।
कामुकता संयोजन के बंधन,
पापी की बेड़ियाँ तोड़ना दुर्लभ।

उखाड़ी बेड़ियाँ, हाथी जैसे,
लाँघा तैतीस देवताओं को,
इंद्र, देवतागण, प्रजापति,
सभी एकत्र थे सुधम्म सभा में।

उन बैठे देवों को लाँघ कर,
वे वीर वैरागी निर्मल हुए।
देख संवेग हुआ वासव को,
देवताओं में देव-अभिभू बोले।

“उपजे थे वे हीन काया में,
अब तैतीसों को लाँघ दिया!”
संवेग जगाते वचन सुनकर,
गोपक ने वासव से कहा,

“मानवलोक में बुद्ध ‘जनेन्द्र’ [जनता के इन्द्र] है।
कामुकता कुचलने वाले को ‘शाक्यमुनि’ कहते हैं।
उनके पुत्रों को विस्मरण हुआ था।
मेरे डाँट लगाने पर उन्हें स्मरण हुआ।”

उन तीन में से एक बच गया,
वश से गंधब्बलोक प्राप्त कर।
दो को हुआ संबोधि-पथ अनुस्मरण,
समाहित हुए, वे दैवत्व ठुकरा कर।

ऐसा ही धर्म का प्रकाशन होता,
किसी श्रावक को किंचित शंका नहीं।
बाढ़ तरने वाले ने संदेह काट दिए,
नमन है उस जनेन्द्र, विजेता बुद्ध को।

धर्म को वे यहाँ समझकर,
विशेषत्व को प्राप्त करते हैं,
ब्रह्म पुरोहित लोक में,
दो विशेष लोग बसते हैं।

उस धर्म को प्राप्त करने,
गुरुजी, हम यहाँ आएँ हैं।
भगवान जो मुझे अवसर दे,
प्रश्न पूछूंगा मैं गुरुजी को ।”

तब, भगवान को लगा, “दीर्घकाल से यह यक्ष विशुद्ध है। जो भी यह प्रश्न पुछेगा, सब अर्थपूर्ण ही पुछेगा, अनर्थपूर्ण नहीं। और, पुछने पर मैं जो इसे बताऊँगा, वह तुरंत समझ लेगा।”

तब, भगवान ने देवराज इन्द्र सक्क को गाथाओं में कहा:

“पुछो, वासव, प्रश्न मुझे
जो भी मन की इच्छा हो।
मैं तुम्हारे प्रश्नों का,
यही अन्त कर दूँगा।”

तब, देवराज इन्द्र सक्क को भगवान से अवसर मिलने पर, उसने भगवान से पहला प्रश्न पूछा:

“गुरुजी, कौन-से संयोजन [=बंधन] हैं, जो देवताओं, मनुष्यों, असुरों, नागों, गंधब्बों और दूसरे विभिन्न काया वाले सत्वों को बाँधते हैं? क्योंकि भले ही वे चाहते हो कि “हम निर्बैर, निरस्त्र, बिना शत्रु और बिना दुर्भावना के निर्बैर रहें’, किन्तु तब भी, क्यों वे बैर-पूर्ण, शस्त्रों के साथ, शत्रुता और दुर्भावना के साथ बैर-पूर्ण होकर रहते हैं?”

इस तरह, देवराज इन्द्र सक्क ने भगवान से प्रश्न पूछा। तब भगवान ने उस प्रश्न का उत्तर दिया:

ईर्ष्या और कंजूसी का संयोजन है, देवराज इन्द्र, जो देवताओं, मनुष्यों, असुरों, नागों, गंधब्बों, और दूसरे विभिन्न काया वाले सत्वों को बाँधते हैं। भले ही वे चाहते हो कि “हम निर्बैर, निरस्त्र, बिना शत्रु और बिना दुर्भावना के निर्बैर रहें’, किन्तु तब भी, वे बैर-पूर्ण, शस्त्रों के साथ, शत्रुता और दुर्भावना के साथ बैर-पूर्ण होकर रहते हैं।”

इस तरह, भगवान ने देवराज इन्द्र सक्क को उत्तर दिया। हर्षित होकर देवराज इंद्र सक्क ने भगवान की बात का अभिनंदन और अनुमोदन किया, “ऐसा ही है, भगवान! ऐसा ही है, सुगत! भगवान का स्पष्टीकरण सुनकर मेरी शंका मिट गयी, उलझन खत्म हुई।” इस तरह, देवराज इंद्र सक्क ने भगवान की बात का अभिनंदन और अनुमोदन कर अगला प्रश्न पूछा:

“किन्तु, गुरुजी, ईर्ष्या और कंजूसी का क्या स्त्रोत है, उनकी उत्पत्ति कैसे होती हैं, वे कैसे पैदा होते हैं, वे कैसे बनते हैं? क्या [बात] होने से ईर्ष्या और कंजूसी होने लगती हैं, और क्या नहीं होने से ईर्ष्या और कंजूसी नहीं होती?”

“ईर्ष्या और कंजूसी का स्त्रोत, देवराज इन्द्र, प्रिय-अप्रिय [=पसंद-नापसंद] है, प्रिय-अप्रिय के साथ उनकी उत्पत्ति होती है, प्रिय-अप्रिय से पैदा होते हैं , प्रिय-अप्रिय से ही बनते हैं। अर्थात, प्रिय-अप्रिय हो तो ईर्ष्या और कंजूसी होने लगती है, और प्रिय-अप्रिय न हो तो ईर्ष्या और कंजूसी नहीं होती।”

“किन्तु, गुरुजी, प्रिय-अप्रिय का क्या स्त्रोत है, उनकी उत्पत्ति कैसे होती हैं, वे कैसे पैदा होते हैं, वे कैसे बनते हैं? क्या होने से प्रिय-अप्रिय होने लगता हैं, और क्या नहीं होने से प्रिय-अप्रिय नहीं होता?”

“प्रिय-अप्रिय का स्त्रोत, देवराज इन्द्र, चाहत [“छन्द”] है, चाहत के साथ उनकी उत्पत्ति होती है, चाहत से पैदा होते हैं, चाहत से ही बनते हैं। अर्थात, चाहत हो तो प्रिय-अप्रिय होने लगता है, और चाहत न हो तो प्रिय-अप्रिय नहीं होता।”

“किन्तु, गुरुजी, चाहत का क्या स्त्रोत है, उसकी उत्पत्ति कैसे होती है, वह कैसे पैदा होती है, वह कैसे बनती है? क्या होने से चाहत होने लगती है, और क्या नहीं होने से चाहत नहीं होती?”

“चाहत का स्त्रोत, देवराज इन्द्र, विचार [“वितक्क”] है, विचार के साथ उसकी उत्पत्ति होती है, विचार से पैदा होती है, विचार से ही बनती है। अर्थात, विचार हो तो चाहत होने लगती है, और विचार न हो तो चाहत नहीं होती।”

“किन्तु, गुरुजी, विचार का क्या स्त्रोत है, उसकी उत्पत्ति कैसे होती है, वह कैसे पैदा होती है, वह कैसे बनती है? क्या होने से विचार होने लगता है, और क्या नहीं होने से विचार नहीं होता?”

“विचार के स्त्रोत, देवराज इन्द्र, बहुरूपी नजरिए और मूल्यांकन [“पपञ्चसञ्ञासङ्खा” = वैचारिक विस्तार, बुद्धि-विलास] हैं, बहुरूपी नजरिए और मूल्यांकन के साथ उसकी उत्पत्ति होती है, बहुरूपी नजरिए और मूल्यांकन से पैदा होते है, बहुरूपी नजरिए और मूल्यांकन से ही बनते है। अर्थात, बहुरूपी नजरिए और मूल्यांकन हो तो विचार होने लगता है, और बहुरूपी नजरिए और मूल्यांकन न हो तो विचार नहीं होता।”

“किन्तु, गुरुजी, कोई भिक्षु बहुरूपी नजरिए और मूल्यांकन का सटीक निरोध करने की साधना कैसे करता है?”

२.२ वेदना कर्मष्ठान

“देवराज इन्द्र, मैं कहता हूँ, हर्ष [“सोमनस्स” = मानसिक खुशी] दो प्रकार का होता है — सेवन [=ग्रहण] करने योग्य, और सेवन न करने योग्य। व्यथा [“दोमनस्स” = मानसिक नाखुशी] भी दो प्रकार की होती है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य। और, तटस्थता [“उपेक्खा”] भी दो प्रकार की होती है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य।”

और, देवराज इन्द्र, मैंने ऐसा क्यों कहा कि ‘हर्ष दो प्रकार का होता है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य’? जिस हर्ष के बारे में पता चले कि “इस प्रकार का हर्ष सेवन करने पर अकुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और कुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं” — उस प्रकार का हर्ष सेवन करने योग्य नहीं है। जबकि, [उसके विपरीत] जिस हर्ष के बारे में पता चले कि “इस प्रकार का हर्ष सेवन करने पर कुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और अकुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं” — उस प्रकार का हर्ष सेवन करने योग्य है। और, वह सोच-विचार के साथ हो सकता है, या बिना सोच-विचार के। बिना सोच-विचार वाला [हर्ष] बेहतर होता है। इसलिए, देवराज इन्द्र, मैंने ऐसा कहा कि ‘हर्ष दो प्रकार का होता है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य।’

और, देवराज इन्द्र, मैंने ऐसा क्यों कहा कि ‘व्यथा दो प्रकार की होती है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य’? जिस व्यथा के बारे में पता चले कि “इस प्रकार की व्यथा सेवन करने पर अकुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और कुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं” — उस प्रकार की व्यथा सेवन करने योग्य नहीं है। जबकि, [उसके विपरीत] जिस व्यथा के बारे में पता चले कि “इस प्रकार की व्यथा सेवन करने पर कुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और अकुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं” — उस प्रकार की व्यथा सेवन करने योग्य है। और, वह सोच-विचार के साथ हो सकती है, या बिना सोच-विचार के। बिना सोच-विचार वाली वाली [व्यथा] बेहतर होती है। इसलिए, देवराज इन्द्र, मैंने ऐसा कहा कि ‘व्यथा दो प्रकार की होती है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य।’

और, देवराज इन्द्र, मैंने ऐसा क्यों कहा कि ‘तटस्थता दो प्रकार की होती है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य’? जिस तटस्थता के बारे में पता चले कि “इस प्रकार की तटस्थता सेवन करने पर अकुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और कुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं” — उस प्रकार की तटस्थता सेवन करने योग्य नहीं है। जबकि, [उसके विपरीत] जिस तटस्थता के बारे में पता चले कि “इस प्रकार की तटस्थता सेवन करने पर कुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और अकुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं” — उस प्रकार की तटस्थता सेवन करने योग्य है। और, वह सोच-विचार के साथ हो सकती है, या बिना सोच-विचार के। बिना सोच-विचार वाली वाली [तटस्थता] बेहतर होती है। इसलिए, देवराज इन्द्र, मैंने ऐसा कहा कि ‘तटस्थता दो प्रकार की होती है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य।’

इस तरह, देवराज इन्द्र, कोई भिक्षु बहुरूपी नजरिए और मूल्यांकन का सटीक निरोध करने की साधना करता है।”

इस तरह, भगवान ने देवराज इन्द्र सक्क को उत्तर दिया। हर्षित होकर देवराज इंद्र सक्क ने भगवान की बात का अभिनंदन और अनुमोदन किया, “ऐसा ही है, भगवान! ऐसा ही है, सुगत! भगवान का स्पष्टीकरण सुनकर मेरी शंका मिट गयी, उलझन खत्म हुई।”

२.३ पातिमोक्ष सँवर

तब, देवराज इंद्र सक्क ने भगवान की बात का अभिनंदन और अनुमोदन कर, अगला प्रश्न पूछा:

“किन्तु, गुरुजी, कैसे कोई भिक्षु पातिमोक्ष-सँवर की साधना करता है?”

“देवराज इन्द्र, मैं कहता हूँ, शारीरिक आचरण दो प्रकार का होता है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य। वाणी आचरण दो प्रकार का होता है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य। [इंद्रिय-विषयों की] खोज दो प्रकार की होती है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य।

और, देवराज इन्द्र, मैंने ऐसा क्यों कहा कि ‘शारीरिक आचरण दो प्रकार का होता है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य’? जिस शारीरिक आचरण के बारे में पता चले कि “इस प्रकार का शारीरिक आचरण सेवन करने पर अकुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और कुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं” — उस प्रकार का शारीरिक आचरण सेवन करने योग्य नहीं है। जबकि, [उसके विपरीत] जिस शारीरिक आचरण के बारे में पता चले कि “इस प्रकार का शारीरिक आचरण सेवन करने पर कुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और अकुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं” — उस प्रकार का शारीरिक आचरण सेवन करने योग्य है। इसलिए, देवराज इन्द्र, मैंने ऐसा कहा कि ‘शारीरिक आचरण दो प्रकार का होता है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य।’

और, देवराज इन्द्र, मैंने ऐसा क्यों कहा कि ‘वाणी आचरण दो प्रकार का होता है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य’? जिस वाणी आचरण के बारे में पता चले कि “इस प्रकार का वाणी आचरण सेवन करने पर अकुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और कुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं” — उस प्रकार का वाणी आचरण सेवन करने योग्य नहीं है। जबकि, [उसके विपरीत] जिस वाणी आचरण के बारे में पता चले कि “इस प्रकार का वाणी आचरण सेवन करने पर कुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और अकुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं” — उस प्रकार का वाणी आचरण सेवन करने योग्य है। इसलिए, देवराज इन्द्र, मैंने ऐसा कहा कि ‘वाणी आचरण दो प्रकार का होता है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य।’

और, देवराज इन्द्र, मैंने ऐसा क्यों कहा कि ‘खोज दो प्रकार की होती है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य’? जिस खोज के बारे में पता चले कि “इस प्रकार की खोज सेवन करने पर अकुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और कुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं” — उस प्रकार की खोज सेवन करने योग्य नहीं है। जबकि, [उसके विपरीत] जिस खोज के बारे में पता चले कि “इस प्रकार की खोज सेवन करने पर कुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और अकुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं” — उस प्रकार की खोज सेवन करने योग्य है। इसलिए, देवराज इन्द्र, मैंने ऐसा कहा कि ‘खोज दो प्रकार की होती है — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य।’

इस तरह, देवराज इन्द्र, कोई भिक्षु पातिमोक्ष-सँवर की साधना करता है।”

इस तरह, भगवान ने देवराज इन्द्र सक्क को उत्तर दिया। हर्षित होकर देवराज इंद्र सक्क ने भगवान की बात का अभिनंदन और अनुमोदन किया, “ऐसा ही है, भगवान! ऐसा ही है, सुगत! भगवान का स्पष्टीकरण सुनकर मेरी शंका मिट गयी, उलझन खत्म हुई।”

२.३ इंद्रिय सँवर

तब, देवराज इंद्र सक्क ने भगवान की बात का अभिनंदन और अनुमोदन कर, अगला प्रश्न पूछा:

“किन्तु, गुरुजी, कैसे कोई भिक्षु इंद्रिय-सँवर की साधना करता है?”

“देवराज इन्द्र, मैं कहता हूँ, आँखों से दिखायी देते रूप दो प्रकार के होते हैं — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य। कानों से सुनायी देती आवाज़े दो प्रकार की होती हैं — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य। नाक से सुँघाई देती गन्ध दो प्रकार की होती हैं — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य। जीभ से चखायी देते स्वाद दो प्रकार के होते हैं — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य। काया से अनुभव होते संस्पर्श दो प्रकार के होते हैं — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य। मन से पता चलते स्वभाव [=बातें] दो प्रकार के होते हैं — सेवन करने योग्य, और सेवन न करने योग्य।

जब ऐसा कहा गया, तब देवराज इन्द्र सक्क ने भगवान से कहा, “भंते, मैं भगवान की संक्षिप्त बात का इस तरह विस्तार से अर्थ समझता हूँ। आँखों से दिखायी देते जिस रूप के सेवन करने पर अकुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और कुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं — उस प्रकार के रूप सेवन करने योग्य नहीं है। जबकि, आँखों से दिखायी देते जिस रूप के सेवन करने पर कुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और अकुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं — उस प्रकार के रूप सेवन करने योग्य है। कानों से सुनायी देती जिस आवाज… नाक से सुँघाई देती जिस गन्ध… जीभ से चखायी देते जिस स्वाद… काया से अनुभूति होते जिस संस्पर्श… मन से पता चलते जिस स्वभाव के सेवन करने पर अकुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और कुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं — उस प्रकार के [इंद्रिय-विषय] सेवन करने योग्य नहीं है। जबकि, [इंद्रियों के] जिस [विषय] का सेवन करने पर कुशल-स्वभाव बढ़ने लगते हैं और अकुशल-स्वभाव कम होने लगते हैं — उस प्रकार के [इंद्रिय-विषय] सेवन करने योग्य है। इस तरह, भंते, मैं भगवान की संक्षिप्त बात का विस्तार से अर्थ समझा हूँ। भगवान का स्पष्टीकरण सुनकर मेरी शंका मिट गयी, उलझन खत्म हुई।”

तब, देवराज इंद्र सक्क ने भगवान की बात का अभिनंदन और अनुमोदन कर, अगला प्रश्न पूछा:

“किन्तु, गुरुजी, क्या सभी श्रमण और ब्राह्मणों की एक ही धारणा [=सिद्धान्त], एक ही शील [नैतिक आचरण], एक ही चाहत, एक ही लक्ष्य होता है?”

“नहीं, देवराज इन्द्र, सभी श्रमण और ब्राह्मणों की एक ही धारणा, एक ही शील, एक ही चाहत, एक ही लक्ष्य नहीं होता है।”

“किन्तु, ऐसा क्यों, भंते?”

“यह लोक, देवराज इन्द्र, अनेक धातुओं, विविध धातुओं का है। जो भी सत्व, इस लोक के अनेक धातुओं, विविध धातुओं में से किसी धातु का आधार लेता है, तो वह उसे ही हठपूर्वक, दृढ़तापूर्वक पकड़ लेता है, उसी पर आधारित हो जाता है, कहते हुए, ‘बस यही सच है, बाकी सब फालतू है!’ इसलिए, सभी श्रमण और ब्राह्मणों की एक ही धारणा, एक ही शील, एक ही चाहत, एक ही लक्ष्य नहीं होता है।”

“किन्तु, गुरुजी, क्या सभी श्रमण और ब्राह्मण अत्यंत परिपूर्ण, अत्यंत बंधन-सुरक्षा पाएँ, अत्यंत ब्रह्मचारी, अत्यंत खोज-संपन्न होते हैं?”

“नहीं, देवराज इन्द्र, सभी श्रमण और ब्राह्मण अत्यंत परिपूर्ण, अत्यंत बंधन-सुरक्षा पाएँ, अत्यंत ब्रह्मचारी, अत्यंत खोज-संपन्न नहीं होते हैं।”

“किन्तु, क्यों नहीं, भंते?”

“देवराज इन्द्र, केवल जो भिक्षु तृष्णा का क्षय कर विमुक्त होता है, वही अत्यंत परिपूर्ण, अत्यंत बंधन-सुरक्षा पाया, अत्यंत ब्रह्मचारी, अत्यंत खोज-संपन्न होता है। इसलिए सभी श्रमण और ब्राह्मण अत्यंत परिपूर्ण, अत्यंत बंधन-सुरक्षा पाएँ, अत्यंत ब्रह्मचारी, अत्यंत खोज-संपन्न नहीं होते हैं।”

इस तरह, भगवान ने देवराज इन्द्र सक्क को उत्तर दिया। हर्षित होकर देवराज इंद्र सक्क ने भगवान की बात का अभिनंदन और अनुमोदन किया, “ऐसा ही है, भगवान! ऐसा ही है, सुगत! भगवान का स्पष्टीकरण सुनकर मेरी शंका मिट गयी, उलझन खत्म हुई।”

तब, देवराज इंद्र सक्क ने भगवान की बात का अभिनंदन और अनुमोदन कर, अगला प्रश्न पूछा:

“चंचलता, भंते, रोग है, चंचलता फोड़ा है, चंचलता तीर है। चंचलता ही किसी पुरुष को इस या उस पुनर्जन्म के अस्तित्व में खींच लेती है। इसीलिए कोई पुरुष ऊँची या निचली अवस्थाओं में उत्पन्न होता है। भंते, दूसरे बाहरी श्रमण-ब्राह्मणों ने मुझे प्रश्न पुछने का अवसर तक नहीं दिया, जिनका भगवान ने उत्तर दिया। दीर्घकाल तक मुझ में संदेह और उलझन का तीर घुसा हुआ था, जिसे भगवान ने खींच कर बाहर निकाला है।”

“क्या इसी प्रश्न को, देवराज इन्द्र, अन्य श्रमण-ब्राह्मण को पूछा जाना याद है?”

“हाँ, भन्ते! हमें याद है।”

“यदि देवराज इन्द्र को परेशानी न हो, तो बताएँगे? उन्होने कैसे उत्तर दिया था?”

“भन्ते, जब प्रत्यक्ष भगवान या भगवान जैसा ही कोई सामने बैठा हो, तब कोई परेशानी नहीं है।”

“तो बताएँ, देवराज इन्द्र!”

“जिन्हें, भंते, मैं श्रमण-ब्राह्मण मानता था, जो अरण्य-निवासी, दूर एकान्त स्थल पर रहते थे, उनके पास मैं ये प्रश्न पुछने गया। वे मेरे प्रश्नों से स्तब्ध हुए। बल्कि वे मुझ से ही प्रतिप्रश्न पुछने लगे, ‘आयुष्मान का नाम क्या है?’ ऐसे पुछे जाने पर मैं उत्तर दिया, ‘गुरुजी, मैं देवराज इन्द्र सक्क हूँ।’ तब मुझ से अगला प्रतिप्रश्न पूछा, ‘किन्तु, आयुष्मान, देवराज इन्द्र को यह अवस्था भला कौन-से कर्मों से प्राप्त हुई?’ तब, मैंने उन्हें धर्म-देशना की, जैसे मैंने सुनी थी, जैसे याद थी। वे उसी से प्रसन्न हो गए, ‘अरे! हमने देवराज इन्द्र सक्क को देख लिया! अरे! हमने उसे प्रश्न किया! अरे! उसने उत्तर दिया!’ तब, मैं उनका श्रावक बनने के बजाय, वे ही मेरे श्रावक बन गए। किन्तु, भंते, मैं भगवान का श्रावक हूँ, श्रोतापन्न हूँ, अ-पतन स्वभाव का, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर!”

२.५ खुशी पाना

“देवराज इन्द्र, क्या तुम्हें पहले इतनी खुशी अनुभव होना स्मरण है?”

“हाँ, भंते। मुझे पहले इतनी खुशी अनुभव होना स्मरण है।”

“किस तरह, देवराज इन्द्र, तुम्हें पहले इतनी खुशी अनुभव होना स्मरण है?”

“बहुत पहले, भंते, देव-असुरों में संग्राम छिड़ा था। उस संग्राम में देवता जीत गए, असुर पराजित हुए। तब, भंते, उस संग्राम में महाविजयी हो, संग्राम-विजेता के तौर पर, मुझे लगा, ‘अब, दिव्य-ओज हो या असुर-ओज, दोनों देवता ही खाएँगे।’ किन्तु, भंते, वह खुशी पाने की अनुभूति दण्ड-श्रेणी में आती थी, शस्त्र-श्रेणी में आती थी, और न मोहभंग कराती थी, न विराग, न निरोध, न रोकथाम कराती थी, न प्रत्यक्ष-ज्ञान, न संबोधि, न निर्वाण दिलाती थी। किन्तु, भंते, भगवान ने धर्म सुनकर खुशी पाने की जो अनुभूति है, वह दण्ड-श्रेणी, शस्त्र-श्रेणी में नहीं आती थी। बल्कि, वह मोहभंग कराती है, विराग, निरोध, रोकथाम कराती है, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण दिलाती है।”

“किन्तु, देवराज इन्द्र, क्या अर्थ देखकर इतनी खुशी की अनुभूति बता रहे हो?”

“छह अर्थ देखकर, भंते, मैं इतनी खुशी की अनुभूति बता रहा हूँ।

यही पर ठहरे हुए,
देव-अवस्था में रह कर,
आयु मैंने पुनः प्राप्त की,
यह, गुरुजी, जान कर।

यह पहला अर्थ देखकर, भंते, मैं इतनी खुशी की अनुभूति बता रहा हूँ।

च्युत होकर दिव्य काया से,
अमानवीय-आयु पीछे त्याग कर,
गर्भ में जाऊँगा बिना बेहोशी के,
जहाँ भी लगेगा मेरा मन।

यह दूसरा अर्थ देखकर, भंते, मैं इतनी खुशी की अनुभूति बता रहा हूँ।

जो होशपूर्ण अन्तर्ज्ञानी है,
रत रह कर उसकी सीख में,
व्यवस्थित विहार करूँगा मैं,
रहकर सचेत और स्मरणशील ।

यह तिसरा अर्थ देखकर, भंते, मैं इतनी खुशी की अनुभूति बता रहा हूँ।

व्यवस्थित चर्या करते हुए,
जो संबोधि मुझे प्राप्त हो,
विहार करूँगा प्रत्यक्ष-ज्ञान से,
और वैसे ही मेरा अन्त हो।

यह चौथा अर्थ देखकर, भंते, मैं इतनी खुशी की अनुभूति बता रहा हूँ।

च्युत होकर मानुष काया से,
मानवीय-आयु त्याग कर,
देवता बनूँगा पुनः मैं,
सर्वोत्तम देवलोक में।

यह पाँचवा अर्थ देखकर, भंते, मैं इतनी खुशी की अनुभूति बता रहा हूँ।

जो देवता बेहतरीन हैं,
जो यशस्वी अ-कनिट्ठ हैं,
जब तक अंतिम जीवन रहे,
वही मेरा निवास रहे।

यह छठा अर्थ देखकर, भंते, मैं इतनी खुशी की अनुभूति बता रहा हूँ। और, भंते, यही छह अर्थ देखकर मैं इतनी खुशी की अनुभूति बता रहा हूँ।

मेरे संकल्प अपूर्ण थे,
संदेह और उलझन में घिरे,
भटकता रहा दीर्घकाल तक,
ढूँढते हुए तथागत को।

जिन्हें श्रमण मैं समझता,
जो दूर एकांत में रहते,
उन्हें सम्बुद्ध मान कर,
उनके पास जाकर बैठता।

“सफलता कैसे मिलती है?
विफलता कैसे मिलती है?”
मेरे प्रश्नों से वे स्तब्ध होते,
साधना मार्ग के बारे मैं।

जब वे जान लेते कि
देवताओं से है सक्क आया।
वे ही प्रश्न मुझसे करते,
“क्या कर्मों से पाए अवस्था?”

जैसा धर्म था मैंने सुना,
बता दिया, जनता से सुना।
उसी पर वे खुश हुए,
“वासव देख लिया हमने!”

मैंने भी बुद्ध देख लिया,
संदेह से जिसने तार दिया।
हम भी है आज वीत-भय!
जब से हम सम्बुद्ध से मिलें।

तृष्णा-तीर के अंतकारक,
बुद्ध का कोई मुक़ाबला नहीं।
उस महावीर को वंदन करूँ,
बुद्ध, सूर्य के रिश्तेदार जो!

जैसे ब्रह्म पुजा जाए,
महाशय हम देवों से।
आज आप को पूज लें,
आओ, हम आप को पूजें।

आप इकलौते सम्बुद्ध है,
आप शास्ता अनुत्तर है।
देवताओं से भरे लोक में,
आपका कोई मुक़ाबला नहीं।”

तब, देवराज इन्द्र सक्क ने गंधब्बपुत्र पञ्चशिख को संबोधित किया, “तुम्हारे बहुत उपकार हुए, प्रिय पञ्चशिख। तुमने ही पहले भगवान को प्रसन्न किया। तुम्हारे द्वारा प्रसन्न होने पर ही, प्रिय, मैं भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का दर्शन के लिए आ पाया। मैं तुम्हें तुम्हारे पिता के स्थान पर स्थापित करूँगा। तुम गंधब्बों के राजा होंगे। और मैं तुम्हें भद्दा सूरियवच्छसा को सौपूंगा। वह भी तुम्हें बहुत चाहती है।”

तब देवराज इन्द्र सक्क ने भूमि को हाथ से छूकर, तीन बार उद्गार निकाले, “नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स! नमन है उस भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध को! नमन है उस भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध को!”

और जब यह स्पष्टीकरण दिया जा रहा था, तब देवराज इन्द्र सक्क को धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!” अस्सी हजार अन्य देवताओं के साथ।

इस तरह, देवराज इन्द्र सक्क ने भगवान से प्रश्न पूछा। तब भगवान ने उन प्रश्नों का उत्तर दिया। इसलिए इस उपदेश का नाम “सक्क के प्रश्न” पुकारा जाता है।

सक्कपञ्ह सुत्त समाप्त।

Pali

३४४. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा मगधेसु विहरति, पाचीनतो राजगहस्स अम्बसण्डा नाम ब्राह्मणगामो, तस्सुत्तरतो वेदियके पब्बते इन्दसालगुहायं। तेन खो पन समयेन सक्कस्स देवानमिन्दस्स उस्सुक्कं उदपादि भगवन्तं दस्सनाय। अथ खो सक्कस्स देवानमिन्दस्स एतदहोसि – ‘‘कहं नु खो भगवा एतरहि विहरति अरहं सम्मासम्बुद्धो’’ति? अद्दसा खो सक्को देवानमिन्दो भगवन्तं मगधेसु विहरन्तं पाचीनतो राजगहस्स अम्बसण्डा नाम ब्राह्मणगामो, तस्सुत्तरतो वेदियके पब्बते इन्दसालगुहायं। दिस्वान देवे तावतिंसे आमन्तेसि – ‘‘अयं, मारिसा, भगवा मगधेसु विहरति, पाचीनतो राजगहस्स अम्बसण्डा नाम ब्राह्मणगामो, तस्सुत्तरतो वेदियके पब्बते इन्दसालगुहायं। यदि पन, मारिसा, मयं तं भगवन्तं दस्सनाय उपसङ्कमेय्याम अरहन्तं सम्मासम्बुद्ध’’न्ति? ‘‘एवं भद्दन्तवा’’ति खो देवा तावतिंसा सक्कस्स देवानमिन्दस्स पच्चस्सोसुं।

३४५. अथ खो सक्को देवानमिन्दो पञ्चसिखं गन्धब्बदेवपुत्तं [गन्धब्बपुत्तं (स्या॰)] आमन्तेसि – ‘‘अयं, ता त पञ्चसिख, भगवा मगधेसु विहरति पाचीनतो राजगहस्स अम्बसण्डा नाम ब्राह्मणगामो, तस्सुत्तरतो वेदियके पब्बते इन्दसालगुहायं। यदि पन, तात पञ्चसिख, मयं तं भगवन्तं दस्सनाय उपसङ्कमेय्याम अरहन्तं सम्मासम्बुद्ध’’न्ति? ‘‘एवं भद्दन्तवा’’ति खो पञ्चसिखो गन्धब्बदेवपुत्तो सक्कस्स देवानमिन्दस्स पटिस्सुत्वा बेलुवपण्डुवीणं आदाय सक्कस्स देवानमिन्दस्स अनुचरियं उपागमि।

३४६. अथ खो सक्को देवानमिन्दो देवेहि तावतिंसेहि परिवुतो पञ्चसिखेन गन्धब्बदेवपुत्तेन पुरक्खतो सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य; एवमेव देवेसु तावतिंसेसु अन्तरहितो मगधेसु पाचीनतो राजगहस्स अम्बसण्डा नाम ब्राह्मणगामो, तस्सुत्तरतो वेदियके पब्बते पच्चुट्ठासि। तेन खो पन समयेन वेदियको पब्बतो अतिरिव ओभासजातो होति अम्बसण्डा च ब्राह्मणगामो यथा तं देवानं देवानुभावेन। अपिस्सुदं परितो गामेसु मनुस्सा एवमाहंसु – ‘‘आदित्तस्सु नामज्ज वेदियको पब्बतो झायतिसु [झायतस्सु (स्या॰), पज्झायितस्सु (सी॰ पी॰)] नामज्ज वेदियको पब्बतो जलतिसु [जलतस्सु (स्या॰), जलितस्सु (सी॰ पी॰)] नामज्ज वेदियको पब्बतो किंसु नामज्ज वेदियको पब्बतो अतिरिव ओभासजातो अम्बसण्डा च ब्राह्मणगामो’’ति संविग्गा लोमहट्ठजाता अहेसुं।

३४७. अथ खो सक्को देवानमिन्दो पञ्चसिखं गन्धब्बदेवपुत्तं आमन्तेसि – ‘‘दुरुपसङ्कमा खो, तात पञ्चसिख, तथागता मादिसेन, झायी झानरता, तदन्तरं [तदनन्तरं (सी॰ स्या॰ पी॰ क॰)] पटिसल्लीना। यदि पन त्वं, तात पञ्चसिख, भगवन्तं पठमं पसादेय्यासि, तया, तात, पठमं पसादितं पच्छा मयं तं भगवन्तं दस्सनाय उपसङ्कमेय्याम अरहन्तं सम्मासम्बुद्ध’’न्ति। ‘‘एवं भद्दन्तवा’’ति खो पञ्चसिखो गन्धब्बदेवपुत्तो सक्कस्स देवानमिन्दस्स पटिस्सुत्वा बेलुवपण्डुवीणं आदाय येन इन्दसालगुहा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ‘‘एत्तावता मे भगवा नेव अतिदूरे भविस्सति नाच्चासन्ने, सद्दञ्च मे सोस्सती’’ति एकमन्तं अट्ठासि।

पञ्चसिखगीतगाथा

३४८. एकमन्तं ठितो खो पञ्चसिखो गन्धब्बदेवपुत्तो बेलुवपण्डुवीणं [वेळुवपण्डुवीणं आदाय (स्या॰)] अस्सावेसि, इमा च गाथा अभासि बुद्धूपसञ्हिता धम्मूपसञ्हिता सङ्घूपसञ्हिता अरहन्तूपसञ्हिता कामूपसञ्हिता –

‘‘वन्दे ते पितरं भद्दे, तिम्बरुं सूरियवच्छसे।

येन जातासि कल्याणी, आनन्दजननी मम॥

‘‘वातोव सेदतं कन्तो, पानीयंव पिपासतो।

अङ्गीरसि पियामेसि, धम्मो अरहतामिव॥

‘‘आतुरस्सेव भेसज्जं, भोजनंव जिघच्छतो।

परिनिब्बापय मं भद्दे, जलन्तमिव वारिना॥

‘‘सीतोदकं पोक्खरणिं, युत्तं किञ्जक्खरेणुना।

नागो घम्माभितत्तोव, ओगाहे ते थनूदरं॥

‘‘अच्चङ्कुसोव नागोव, जितं मे तुत्ततोमरं।

कारणं नप्पजानामि, सम्मत्तो लक्खणूरुया॥

‘‘तयि गेधितचित्तोस्मि, चित्तं विपरिणामितं।

पटिगन्तुं न सक्कोमि, वङ्कघस्तोव अम्बुजो॥

‘‘वामूरु सज मं भद्दे, सज मं मन्दलोचने।

पलिस्सज मं कल्याणि, एतं मे अभिपत्थितं॥

‘‘अप्पको वत मे सन्तो, कामो वेल्लितकेसिया।

अनेकभावो समुप्पादि, अरहन्तेव दक्खिणा॥

‘‘यं मे अत्थि कतं पुञ्ञं, अरहन्तेसु तादिसु।

तं मे सब्बङ्गकल्याणि, तया सद्धिं विपच्चतं॥

‘‘यं मे अत्थि कतं पुञ्ञं, अस्मिं पथविमण्डले।

तं मे सब्बङ्गकल्याणि, तया सद्धिं विपच्चतं॥

‘‘सक्यपुत्तोव झानेन, एकोदि निपको सतो।

अमतं मुनि जिगीसानो [जिगिंसानो (सी॰ स्या॰ पी॰)], तमहं सूरियवच्छसे॥

‘‘यथापि मुनि नन्देय्य, पत्वा सम्बोधिमुत्तमं।

एवं नन्देय्यं कल्याणि, मिस्सीभावं गतो तया॥

‘‘सक्को चे मे वरं दज्जा, तावतिंसानमिस्सरो।

ताहं भद्दे वरेय्याहे, एवं कामो दळ्हो मम॥

‘‘सालंव न चिरं फुल्लं, पितरं ते सुमेधसे।

वन्दमानो नमस्सामि, यस्सा सेतादिसी पजा’’ति॥

३४९. एवं वुत्ते भगवा पञ्चसिखं गन्धब्बदेवपुत्तं एतदवोच – ‘‘संसन्दति खो ते, पञ्चसिख, तन्तिस्सरो गीतस्सरेन, गीतस्सरो च तन्तिस्सरेन; न च पन [नेव पन (स्या॰)] ते पञ्चसिख, तन्तिस्सरो गीतस्सरं अतिवत्तति, गीतस्सरो च तन्तिस्सरं। कदा संयूळ्हा पन ते, पञ्चसिख, इमा गाथा बुद्धूपसञ्हिता धम्मूपसञ्हिता सङ्घूपसञ्हिता अरहन्तूपसञ्हिता कामूपसञ्हिता’’ति? ‘‘एकमिदं, भन्ते, समयं भगवा उरुवेलायं विहरति नज्जा नेरञ्जराय तीरे अजपालनिग्रोधे पठमाभिसम्बुद्धो। तेन खो पनाहं, भन्ते, समयेन भद्दा नाम सूरियवच्छसा तिम्बरुनो गन्धब्बरञ्ञो धीता, तमभिकङ्खामि। सा खो पन, भन्ते, भगिनी परकामिनी होति; सिखण्डी नाम मातलिस्स सङ्गाहकस्स पुत्तो, तमभिकङ्खति। यतो खो अहं, भन्ते, तं भगिनिं नालत्थं केनचि परियायेन। अथाहं बेलुवपण्डुवीणं आदाय येन तिम्बरुनो गन्धब्बरञ्ञो निवेसनं तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा बेलुवपण्डुवीणं अस्सावेसिं, इमा च गाथा अभासिं बुद्धूपसञ्हिता धम्मूपसञ्हिता सङ्घूपसञ्हिता अरहन्तूपसञ्हिता कामूपसञ्हिता –

‘‘वन्दे ते पितरं भद्दे, तिम्बरुं सूरियवच्छसे।

येन जातासि कल्याणी, आनन्दजननी मम॥ …पे॰…

सालंव न चिरं फुल्लं, पितरं ते सुमेधसे।

वन्दमानो नमस्सामि, यस्सा सेतादिसी पजा’’ति॥

‘‘एवं वुत्ते, भन्ते, भद्दा सूरियवच्छसा मं एतदवोच – ‘न खो मे, मारिस, सो भगवा सम्मुखा दिट्ठो अपि च सुतोयेव मे सो भगवा देवानं तावतिंसानं सुधम्मायं सभायं उपनच्चन्तिया। यतो खो त्वं, मारिस, तं भगवन्तं कित्तेसि, होतु नो अज्ज समागमो’ति। सोयेव नो, भन्ते, तस्सा भगिनिया सद्धिं समागमो अहोसि। न च दानि ततो पच्छा’’ति।

सक्कूपसङ्कम

३५०. अथ खो सक्कस्स देवानमिन्दस्स एतदहोसि – ‘‘पटिसम्मोदति पञ्चसिखो गन्धब्बदेवपुत्तो भगवता, भगवा च पञ्चसिखेना’’ति। अथ खो सक्को देवानमिन्दो पञ्चसिखं गन्धब्बदेवपुत्तं आमन्तेसि – ‘‘अभिवादेहि मे त्वं, तात पञ्चसिख, भगवन्तं – ‘सक्को, भन्ते, देवानमिन्दो सामच्चो सपरिजनो भगवतो पादे सिरसा वन्दती’ति’’। ‘‘एवं भद्दन्तवा’’ति खो पञ्चसिखो गन्धब्बदेवपुत्तो सक्कस्स देवानमिन्दस्स पटिस्सुत्वा भगवन्तं अभिवादेति – ‘‘सक्को, भन्ते, देवानमिन्दो सामच्चो सपरिजनो भगवतो पादे सिरसा वन्दती’’ति। ‘‘एवं सुखी होतु, पञ्चसिख, सक्को देवानमिन्दो सामच्चो सपरिजनो; सुखकामा हि देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा ये चञ्ञे सन्ति पुथुकाया’’ति।

३५१. एवञ्च पन तथागता एवरूपे महेसक्खे यक्खे अभिवदन्ति। अभिवदितो सक्को देवानमिन्दो भगवतो इन्दसालगुहं पविसित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि। देवापि तावतिंसा इन्दसालगुहं पविसित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठंसु। पञ्चसिखोपि गन्धब्बदेवपुत्तो इन्दसालगुहं पविसित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि।

तेन खो पन समयेन इन्दसालगुहा विसमा सन्ती समा समपादि, सम्बाधा सन्ती उरुन्दा [उरुद्दा (क॰)] समपादि, अन्धकारो गुहायं अन्तरधायि, आलोको उदपादि यथा तं देवानं देवानुभावेन।

३५२. अथ खो भगवा सक्कं देवानमिन्दं एतदवोच – ‘‘अच्छरियमिदं आयस्मतो कोसियस्स, अब्भुतमिदं आयस्मतो कोसियस्स ताव बहुकिच्चस्स बहुकरणीयस्स यदिदं इधागमन’’न्ति। ‘‘चिरपटिकाहं, भन्ते, भगवन्तं दस्सनाय उपसङ्कमितुकामो; अपि च देवानं तावतिंसानं केहिचि केहिचि [केहिचि (स्या॰)] किच्चकरणीयेहि ब्यावटो; एवाहं नासक्खिं भगवन्तं दस्सनाय उपसङ्कमितुं। एकमिदं, भन्ते, समयं भगवा सावत्थियं विहरति सलळागारके। अथ ख्वाहं, भन्ते, सावत्थिं अगमासिं भगवन्तं दस्सनाय। तेन खो पन, भन्ते, समयेन भगवा अञ्ञतरेन समाधिना निसिन्नो होति, भूजति [भुञ्जती च (सी॰ पी॰), भुजगी (स्या॰)] च नाम वेस्सवणस्स महाराजस्स परिचारिका भगवन्तं पच्चुपट्ठिता होति, पञ्जलिका नमस्समाना तिट्ठति। अथ ख्वाहं, भन्ते, भूजतिं एतदवोचं – ‘अभिवादेहि मे त्वं, भगिनि, भगवन्तं – ‘‘सक्को, भन्ते, देवानमिन्दो सामच्चो सपरिजनो भगवतो पादे सिरसा वन्दती’’ति। एवं वुत्ते, भन्ते, सा भूजति मं एतदवोच – ‘अकालो खो, मारिस, भगवन्तं दस्सनाय; पटिसल्लीनो भगवा’ति। ‘तेन ही, भगिनि, यदा भगवा तम्हा समाधिम्हा वुट्ठितो होति, अथ मम वचनेन भगवन्तं अभिवादेहि – ‘‘सक्को, भन्ते, देवानमिन्दो सामच्चो सपरिजनो भगवतो पादे सिरसा वन्दती’’ति। कच्चि मे सा, भन्ते, भगिनी भगवन्तं अभिवादेसि? सरति भगवा तस्सा भगिनिया वचन’’न्ति? ‘‘अभिवादेसि मं सा, देवानमिन्द, भगिनी, सरामहं तस्सा भगिनिया वचनं। अपि चाहं आयस्मतो नेमिसद्देन [चक्कनेमिसद्देन (स्या॰)] तम्हा समाधिम्हा वुट्ठितो’’ति। ‘‘ये ते, भन्ते, देवा अम्हेहि पठमतरं तावतिंसकायं उपपन्ना, तेसं मे सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं – ‘यदा तथागता लोके उप्पज्जन्ति अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, दिब्बा काया परिपूरेन्ति, हायन्ति असुरकाया’ति। तं मे इदं, भन्ते, सक्खिदिट्ठं यतो तथागतो लोके उप्पन्नो अरहं सम्मासम्बुद्धो, दिब्बा काया परिपूरेन्ति, हायन्ति असुरकायाति।

गोपकवत्थु

३५३. ‘‘इधेव, भन्ते, कपिलवत्थुस्मिं गोपिका नाम सक्यधीता अहोसि बुद्धे पसन्ना धम्मे पसन्ना सङ्घे पसन्ना सीलेसु परिपूरकारिनी। सा इत्थित्तं [इत्थिचित्तं (स्या॰)] विराजेत्वा पुरिसत्तं [पुरिसचित्तं (स्या॰)] भावेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना। देवानं तावतिंसानं सहब्यतं अम्हाकं पुत्तत्तं अज्झुपगता। तत्रपि नं एवं जानन्ति – ‘गोपको देवपुत्तो, गोपको देवपुत्तो’ति। अञ्ञेपि, भन्ते, तयो भिक्खू भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा हीनं गन्धब्बकायं उपपन्ना। ते पञ्चहि कामगुणेहि समप्पिता समङ्गीभूता परिचारयमाना अम्हाकं उपट्ठानं आगच्छन्ति अम्हाकं पारिचरियं। ते अम्हाकं उपट्ठानं आगते अम्हाकं पारिचरियं गोपको देवपुत्तो पटिचोदेसि – ‘कुतोमुखा नाम तुम्हे, मारिसा, तस्स भगवतो धम्मं अस्सुत्थ [आयुहित्थ (स्या॰)] – अहञ्हि नाम इत्थिका समाना बुद्धे पसन्ना धम्मे पसन्ना सङ्घे पसन्ना सीलेसु परिपूरकारिनी इत्थित्तं विराजेत्वा पुरिसत्तं भावेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना, देवानं तावतिंसानं सहब्यतं सक्कस्स देवानमिन्दस्स पुत्तत्तं अज्झुपगता। इधापि मं एवं जानन्ति ‘‘गोपको देवपुत्तो गोपको देवपुत्तो’ति। तुम्हे पन, मारिसा, भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा हीनं गन्धब्बकायं उपपन्ना। दुद्दिट्ठरूपं वत, भो, अद्दसाम, ये मयं अद्दसाम सहधम्मिके हीनं गन्धब्बकायं उपपन्ने’ति। तेसं, भन्ते, गोपकेन देवपुत्तेन पटिचोदितानं द्वे देवा दिट्ठेव धम्मे सतिं पटिलभिंसु कायं ब्रह्मपुरोहितं, एको पन देवो कामे अज्झावसि।

३५४.‘‘‘उपासिका चक्खुमतो अहोसिं,

नामम्पि मय्हं अहु ‘गोपिका’ति।

बुद्धे च धम्मे च अभिप्पसन्ना,

सङ्घञ्चुपट्ठासिं पसन्नचित्ता॥

‘‘‘तस्सेव बुद्धस्स सुधम्मताय,

सक्कस्स पुत्तोम्हि महानुभावो।

महाजुतीको तिदिवूपपन्नो,

जानन्ति मं इधापि ‘गोपको’ति॥

‘‘‘अथद्दसं भिक्खवो दिट्ठपुब्बे,

गन्धब्बकायूपगते वसीने।

इमेहि ते गोतमसावकासे,

ये च मयं पुब्बे मनुस्सभूता॥

‘‘‘अन्नेन पानेन उपट्ठहिम्हा,

पादूपसङ्गय्ह सके निवेसने।

कुतोमुखा नाम इमे भवन्तो,

बुद्धस्स धम्मानि पटिग्गहेसुं [बुद्धस्स धम्मं न पटिग्गहेसुं (स्या॰)]॥

‘‘‘पच्चत्तं वेदितब्बो हि धम्मो,

सुदेसितो चक्खुमतानुबुद्धो।

अहञ्हि तुम्हेव उपासमानो,

सुत्वान अरियान सुभासितानि॥

‘‘‘सक्कस्स पुत्तोम्हि महानुभावो,

महाजुतीको तिदिवूपपन्नो।

तुम्हे पन सेट्ठमुपासमाना,

अनुत्तरं ब्रह्मचरियं चरित्वा॥

‘‘‘हीनं कायं उपपन्ना भवन्तो,

अनानुलोमा भवतूपपत्ति।

दुद्दिट्ठरूपं वत अद्दसाम,

सहधम्मिके हीनकायूपपन्ने॥

‘‘‘गन्धब्बकायूपगता भवन्तो,

देवानमागच्छथ पारिचरियं।

अगारे वसतो मय्हं,

इमं पस्स विसेसतं॥

‘‘‘इत्थी हुत्वा स्वज्ज पुमोम्हि देवो,

दिब्बेहि कामेहि समङ्गिभूतो’।

ते चोदिता गोतमसावकेन,

संवेगमापादु समेच्च गोपकं॥

‘‘‘हन्द वियायाम [विगायाम (स्या॰), वितायाम (पी॰)] ब्यायाम [वियायमाम (सी॰ पी॰)],

मा नो मयं परपेस्सा अहुम्हा’।

तेसं दुवे वीरियमारभिंसु,

अनुस्सरं गोतमसासनानि॥

‘‘इधेव चित्तानि विराजयित्वा,

कामेसु आदीनवमद्दसंसु।

ते कामसंयोजनबन्धनानि,

पापिमयोगानि दुरच्चयानि॥

‘‘नागोव सन्नानि गुणानि [सन्दानगुणानि (सी॰ पी॰), सन्तानि गुणानि (स्या॰)] छेत्वा,

देवे तावतिंसे अतिक्कमिंसु।

सइन्दा देवा सपजापतिका,

सब्बे सुधम्माय सभायुपविट्ठा॥

‘‘तेसं निसिन्नानं अभिक्कमिंसु,

वीरा विरागा विरजं करोन्ता।

ते दिस्वा संवेगमकासि वासवो,

देवाभिभू देवगणस्स मज्झे॥

‘‘‘इमेहि ते हीनकायूपपन्ना,

देवे तावतिंसे अभिक्कमन्ति’।

संवेगजातस्स वचो निसम्म,

सो गोपको वासवमज्झभासि॥

‘‘‘बुद्धो जनिन्दत्थि मनुस्सलोके,

कामाभिभू सक्यमुनीति ञायति।

तस्सेव ते पुत्ता सतिया विहीना,

चोदिता मया ते सतिमज्झलत्थुं॥

‘‘‘तिण्णं तेसं आवसिनेत्थ [अवसीनेत्थ (पी॰)] एको,

गन्धब्बकायूपगतो वसीनो।

द्वे च सम्बोधिपथानुसारिनो,

देवेपि हीळेन्ति समाहितत्ता॥

‘‘‘एतादिसी धम्मप्पकासनेत्थ,

न तत्थ किंकङ्खति कोचि सावको।

नितिण्णओघं विचिकिच्छछिन्नं,

बुद्धं नमस्साम जिनं जनिन्दं’॥

‘‘यं ते धम्मं इधञ्ञाय,

विसेसं अज्झगंसु [अज्झगमंसु (स्या॰)] ते।

कायं ब्रह्मपुरोहितं,

दुवे तेसं विसेसगू॥

‘‘तस्स धम्मस्स पत्तिया,

आगतम्हासि मारिस।

कतावकासा भगवता,

पञ्हं पुच्छेमु मारिसा’’ति॥

३५५. अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘दीघरत्तं विसुद्धो खो अयं यक्खो [सक्को (सी॰ स्या॰ पी॰)], यं किञ्चि मं पञ्हं पुच्छिस्सति, सब्बं तं अत्थसञ्हितंयेव पुच्छिस्सति, नो अनत्थसञ्हितं। यञ्चस्साहं पुट्ठो ब्याकरिस्सामि, तं खिप्पमेव आजानिस्सती’’ति।

३५६. अथ खो भगवा सक्कं देवानमिन्दं गाथाय अज्झभासि –

‘‘पुच्छ वासव मं पञ्हं, यं किञ्चि मनसिच्छसि।

तस्स तस्सेव पञ्हस्स, अहं अन्तं करोमि ते’’ति॥

पठमभाणवारो निट्ठितो।

३५७. कतावकासो सक्को देवानमिन्दो भगवता इमं भगवन्तं [देवानमिन्दो भगवन्तं इमं (सी॰ पी॰)] पठमं पञ्हं अपुच्छि –

‘‘किं संयोजना नु खो, मारिस, देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा ये चञ्ञे सन्ति पुथुकाया, ते – ‘अवेरा अदण्डा असपत्ता अब्यापज्जा विहरेमु अवेरिनो’ति इति च नेसं होति, अथ च पन सवेरा सदण्डा ससपत्ता सब्यापज्जा विहरन्ति सवेरिनो’’ति? इत्थं सक्को देवानमिन्दो भगवन्तं पञ्हं [इमं पठमं पञ्हं (सी॰ पी॰)] अपुच्छि। तस्स भगवा पञ्हं पुट्ठो ब्याकासि –

‘‘इस्सामच्छरियसंयोजना खो, देवानमिन्द, देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा ये चञ्ञे सन्ति पुथुकाया, ते – ‘अवेरा अदण्डा असपत्ता अब्यापज्जा विहरेमु अवेरिनो’ति इति च नेसं होति, अथ च पन सवेरा सदण्डा ससपत्ता सब्यापज्जा विहरन्ति सवेरिनो’’ति। इत्थं भगवा सक्कस्स देवानमिन्दस्स पञ्हं पुट्ठो ब्याकासि। अत्तमनो सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दि अनुमोदि – ‘‘एवमेतं, भगवा, एवमेतं, सुगत। तिण्णा मेत्थ कङ्खा विगता कथंकथा भगवतो पञ्हवेय्याकरणं सुत्वा’’ति।

३५८. इतिह सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा भगवन्तं उत्तरिं [उत्तरिं (सी॰ स्या॰ पी॰)] पञ्हं अपुच्छि –

‘‘इस्सामच्छरियं पन, मारिस, किंनिदानं किंसमुदयं किंजातिकं किंपभवं; किस्मिं सति इस्सामच्छरियं होति; किस्मिं असति इस्सामच्छरियं न होती’’ति? ‘‘इस्सामच्छरियं खो, देवानमिन्द, पियाप्पियनिदानं पियाप्पियसमुदयं पियाप्पियजातिकं पियाप्पियपभवं; पियाप्पिये सति इस्सामच्छरियं होति, पियाप्पिये असति इस्सामच्छरियं न होती’’ति।

‘‘पियाप्पियं खो पन, मारिस, किंनिदानं किंसमुदयं किंजातिकं किंपभवं; किस्मिं सति पियाप्पियं होति; किस्मिं असति पियाप्पियं न होती’’ति? ‘‘पियाप्पियं खो, देवानमिन्द, छन्दनिदानं छन्दसमुदयं छन्दजातिकं छन्दपभवं; छन्दे सति पियाप्पियं होति; छन्दे असति पियाप्पियं न होती’’ति।

‘‘छन्दो खो पन, मारिस, किंनिदानो किंसमुदयो किंजातिको किंपभवो; किस्मिं सति छन्दो होति; किस्मिं असति छन्दो न होती’’ति? ‘‘छन्दो खो, देवानमिन्द, वितक्कनिदानो वितक्कसमुदयो वितक्कजातिको वितक्कपभवो; वितक्के सति छन्दो होति; वितक्के असति छन्दो न होती’’ति।

‘‘वितक्को खो पन, मारिस, किंनिदानो किंसमुदयो किंजातिको किंपभवो; किस्मिं सति वितक्को होति; किस्मिं असति वितक्को न होती’’ति? ‘‘वितक्को खो, देवानमिन्द, पपञ्चसञ्ञासङ्खानिदानो पपञ्चसञ्ञासङ्खासमुदयो पपञ्चसञ्ञासङ्खाजातिको पपञ्चसञ्ञासङ्खापभवो; पपञ्चसञ्ञासङ्खाय सति वितक्को होति; पपञ्चसञ्ञासङ्खाय असति वितक्को न होती’’ति।

‘‘कथं पटिपन्नो पन, मारिस, भिक्खु पपञ्चसञ्ञासङ्खानिरोधसारुप्पगामिनिं पटिपदं पटिपन्नो होती’’ति?

वेदनाकम्मट्ठानं

३५९. ‘‘सोमनस्संपाहं [पहं (सी॰ पी॰), चाहं (स्या॰ कं॰)], देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि। दोमनस्संपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि। उपेक्खंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि।

३६०. ‘‘सोमनस्संपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति इति खो पनेतं वुत्तं, किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं? तत्थ यं जञ्ञा सोमनस्सं ‘इमं खो मे सोमनस्सं सेवतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ती’ति, एवरूपं सोमनस्सं न सेवितब्बं। तत्थ यं जञ्ञा सोमनस्सं ‘इमं खो मे सोमनस्सं सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ती’ति, एवरूपं सोमनस्सं सेवितब्बं। तत्थ यं चे सवितक्कं सविचारं, यं चे अवितक्कं अविचारं, ये अवितक्के अविचारे, ते [से (सी॰ पी॰)] पणीततरे। सोमनस्संपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति। इति यं तं वुत्तं, इदमेतं पटिच्च वुत्तं।

३६१. ‘‘दोमनस्संपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति। इति खो पनेतं वुत्तं, किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं? तत्थ यं जञ्ञा दोमनस्सं ‘इमं खो मे दोमनस्सं सेवतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ती’ति, एवरूपं दोमनस्सं न सेवितब्बं। तत्थ यं जञ्ञा दोमनस्सं ‘इमं खो मे दोमनस्सं सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ती’ति, एवरूपं दोमनस्सं सेवितब्बं। तत्थ यं चे सवितक्कं सविचारं, यं चे अवितक्कं अविचारं, ये अवितक्के अविचारे, ते पणीततरे। दोमनस्संपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पी’ति इति यं तं वुत्तं, इदमेतं पटिच्च वुत्तं।

३६२. ‘‘उपेक्खंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति इति खो पनेतं वुत्तं, किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं? तत्थ यं जञ्ञा उपेक्खं ‘इमं खो मे उपेक्खं सेवतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ती’ति, एवरूपा उपेक्खा न सेवितब्बा। तत्थ यं जञ्ञा उपेक्खं ‘इमं खो मे उपेक्खं सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ती’ति, एवरूपा उपेक्खा सेवितब्बा। तत्थ यं चे सवितक्कं सविचारं, यं चे अवितक्कं अविचारं, ये अवितक्के अविचारे, ते पणीततरे। उपेक्खंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति इति यं तं वुत्तं, इदमेतं पटिच्च वुत्तं।

३६३. ‘‘एवं पटिपन्नो खो, देवानमिन्द, भिक्खु पपञ्चसञ्ञासङ्खानिरोधसारुप्पगामिनिं पटिपदं पटिपन्नो होती’’ति। इत्थं भगवा सक्कस्स देवानमिन्दस्स पञ्हं पुट्ठो ब्याकासि। अत्तमनो सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दि अनुमोदि – ‘‘एवमेतं, भगवा, एवमेतं, सुगत, तिण्णा मेत्थ कङ्खा विगता कथंकथा भगवतो पञ्हवेय्याकरणं सुत्वा’’ति।

पातिमोक्खसंवरो

३६४. इतिह सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा भगवन्तं उत्तरिं पञ्हं अपुच्छि –

‘‘कथं पटिपन्नो पन, मारिस, भिक्खु पातिमोक्खसंवराय पटिपन्नो होती’’ति? ‘‘कायसमाचारंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि। वचीसमाचारंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि। परियेसनंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्ब’’म्पि।

‘‘कायसमाचारंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि असेवितब्बम्पीति इति खो पनेतं वुत्तं, किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं? तत्थ यं जञ्ञा कायसमाचारं ‘इमं खो मे कायसमाचारं सेवतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ती’ति, एवरूपो कायसमाचारो न सेवितब्बो। तत्थ यं जञ्ञा कायसमाचारं ‘इमं खो मे कायसमाचारं सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ती’ति, एवरूपो कायसमाचारो सेवितब्बो। कायसमाचारंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति इति यं तं वुत्तं, इदमेतं पटिच्च वुत्तं।

‘‘वचीसमाचारंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पी’ति। इति खो पनेतं वुत्तं, किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं? तत्थ यं जञ्ञा वचीसमाचारं ‘इमं खो मे वचीसमाचारं सेवतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ती’ति, एवरूपो वचीसमाचारो न सेवितब्बो। तत्थ यं जञ्ञा वचीसमाचारं ‘इमं खो मे वचीसमाचारं सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ती’ति, एवरूपो वचीसमाचारो सेवितब्बो। वचीसमाचारंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति इति यं तं वुत्तं, इदमेतं पटिच्च वुत्तं।

‘‘परियेसनंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति इति खो पनेतं वुत्तं, किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं? तत्थ यं जञ्ञा परियेसनं ‘इमं खो मे परियेसनं सेवतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ती’ति, एवरूपा परियेसना न सेवितब्बा। तत्थ यं जञ्ञा परियेसनं ‘इमं खो मे परियेसनं सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ती’ति, एवरूपा परियेसना सेवितब्बा। परियेसनंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति इति यं तं वुत्तं, इदमेतं पटिच्च वुत्तं।

‘‘एवं पटिपन्नो खो, देवानमिन्द, भिक्खु पातिमोक्खसंवराय पटिपन्नो होती’’ति। इत्थं भगवा सक्कस्स देवानमिन्दस्स पञ्हं पुट्ठो ब्याकासि। अत्तमनो सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दि अनुमोदि – ‘‘एवमेतं, भगवा, एवमेतं, सुगत। तिण्णा मेत्थ कङ्खा विगता कथंकथा भगवतो पञ्हवेय्याकरणं सुत्वा’’ति।

इन्द्रियसंवरो

३६५. इतिह सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा भगवन्तं उत्तरिं पञ्हं अपुच्छि –

‘‘कथं पटिपन्नो पन, मारिस, भिक्खु इन्द्रियसंवराय पटिपन्नो होती’’ति? ‘‘चक्खुविञ्ञेय्यं रूपंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि। सोतविञ्ञेय्यं सद्दंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि। घानविञ्ञेय्यं गन्धंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि। जिव्हाविञ्ञेय्यं रसंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि। कायविञ्ञेय्यं फोट्ठब्बंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि। मनोविञ्ञेय्यं धम्मंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि – सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पी’’ति।

एवं वुत्ते, सक्को देवानमिन्दो भगवन्तं एतदवोच –

‘‘इमस्स खो अहं, भन्ते, भगवता सङ्खित्तेन भासितस्स एवं वित्थारेन अत्थं आजानामि। यथारूपं, भन्ते, चक्खुविञ्ञेय्यं रूपं सेवतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ति, एवरूपं चक्खुविञ्ञेय्यं रूपं न सेवितब्बं। यथारूपञ्च खो, भन्ते, चक्खुविञ्ञेय्यं रूपं सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति, एवरूपं चक्खुविञ्ञेय्यं रूपं सेवितब्बं। यथारूपञ्च खो, भन्ते, सोतविञ्ञेय्यं सद्दं सेवतो…पे॰… घानविञ्ञेय्यं गन्धं सेवतो… जिव्हाविञ्ञेय्यं रसं सेवतो… कायविञ्ञेय्यं फोट्ठब्बं सेवतो… मनोविञ्ञेय्यं धम्मं सेवतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ति, एवरूपो मनोविञ्ञेय्यो धम्मो न सेवितब्बो। यथारूपञ्च खो, भन्ते, मनोविञ्ञेय्यं धम्मं सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति, एवरूपो मनोविञ्ञेय्यो धम्मो सेवितब्बो।

‘‘इमस्स खो मे, भन्ते, भगवता सङ्खित्तेन भासितस्स एवं वित्थारेन अत्थं आजानतो तिण्णा मेत्थ कङ्खा विगता कथंकथा भगवतो पञ्हवेय्याकरणं सुत्वा’’ति।

३६६. इतिह सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा भगवन्तं उत्तरिं पञ्हं अपुच्छि –

‘‘सब्बेव नु खो, मारिस, समणब्राह्मणा एकन्तवादा एकन्तसीला एकन्तछन्दा एकन्तअज्झोसाना’’ति? ‘‘न खो, देवानमिन्द, सब्बे समणब्राह्मणा एकन्तवादा एकन्तसीला एकन्तछन्दा एकन्तअज्झोसाना’’ति।

‘‘कस्मा पन, मारिस, न सब्बे समणब्राह्मणा एकन्तवादा एकन्तसीला एकन्तछन्दा एकन्तअज्झोसाना’’ति? ‘‘अनेकधातु नानाधातु खो, देवानमिन्द, लोको। तस्मिं अनेकधातुनानाधातुस्मिं लोके यं यदेव सत्ता धातुं अभिनिविसन्ति, तं तदेव थामसा परामासा अभिनिविस्स वोहरन्ति – ‘इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति। तस्मा न सब्बे समणब्राह्मणा एकन्तवादा एकन्तसीला एकन्तछन्दा एकन्तअज्झोसाना’’ति।

‘‘सब्बेव नु खो, मारिस, समणब्राह्मणा अच्चन्तनिट्ठा अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसाना’’ति? ‘‘न खो, देवानमिन्द, सब्बे समणब्राह्मणा अच्चन्तनिट्ठा अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसाना’’ति।

‘‘कस्मा पन, मारिस, न सब्बे समणब्राह्मणा अच्चन्तनिट्ठा अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसाना’’ति? ‘‘ये खो, देवानमिन्द, भिक्खू तण्हासङ्खयविमुत्ता ते अच्चन्तनिट्ठा अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसाना। तस्मा न सब्बे समणब्राह्मणा अच्चन्तनिट्ठा अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसाना’’ति।

इत्थं भगवा सक्कस्स देवानमिन्दस्स पञ्हं पुट्ठो ब्याकासि। अत्तमनो सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दि अनुमोदि – ‘‘एवमेतं, भगवा, एवमेतं, सुगत। तिण्णा मेत्थ कङ्खा विगता कथंकथा भगवतो पञ्हवेय्याकरणं सुत्वा’’ति।

३६७. इतिह सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा भगवन्तं एतदवोच –

‘‘एजा, भन्ते, रोगो, एजा गण्डो, एजा सल्लं, एजा इमं पुरिसं परिकड्ढति तस्स तस्सेव भवस्स अभिनिब्बत्तिया। तस्मा अयं पुरिसो उच्चावचमापज्जति। येसाहं, भन्ते, पञ्हानं इतो बहिद्धा अञ्ञेसु समणब्राह्मणेसु ओकासकम्मम्पि नालत्थं, ते मे भगवता ब्याकता। दीघरत्तानुसयितञ्च पन [दीघरत्तानुपस्सता, यञ्च पन (स्या॰), दीघरत्तानुसयिनो, यञ्च पन (सी॰ पी॰)] मे विचिकिच्छाकथंकथासल्लं, तञ्च भगवता अब्बुळ्ह’’न्ति।

‘‘अभिजानासि नो त्वं, देवानमिन्द, इमे पञ्हे अञ्ञे समणब्राह्मणे पुच्छिता’’ति? ‘‘अभिजानामहं, भन्ते, इमे पञ्हे अञ्ञे समणब्राह्मणे पुच्छिता’’ति। ‘‘यथा कथं पन ते, देवानमिन्द, ब्याकंसु? सचे ते अगरु भासस्सू’’ति। ‘‘न खो मे, भन्ते, गरु यत्थस्स भगवा निसिन्नो भगवन्तरूपो वा’’ति। ‘‘तेन हि, देवानमिन्द, भासस्सू’’ति। ‘‘येस्वाहं [येसाहं (सी॰ स्या॰ पी॰)], भन्ते, मञ्ञामि समणब्राह्मणा आरञ्ञिका पन्तसेनासनाति, त्याहं उपसङ्कमित्वा इमे पञ्हे पुच्छामि, ते मया पुट्ठा न सम्पायन्ति, असम्पायन्ता ममंयेव पटिपुच्छन्ति – ‘को नामो आयस्मा’ति? तेसाहं पुट्ठो ब्याकरोमि – ‘अहं खो, मारिस, सक्को देवानमिन्दो’ति। ते ममंयेव उत्तरि पटिपुच्छन्ति – ‘किं पनायस्मा, देवानमिन्द [देवानमिन्दो (सी॰ पी॰)], कम्मं कत्वा इमं ठानं पत्तो’ति? तेसाहं यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं देसेमि। ते तावतकेनेव अत्तमना होन्ति – ‘सक्को च नो देवानमिन्दो दिट्ठो, यञ्च नो अपुच्छिम्हा, तञ्च नो ब्याकासी’ति। ते अञ्ञदत्थु ममंयेव सावका सम्पज्जन्ति, न चाहं तेसं। अहं खो पन, भन्ते, भगवतो सावको सोतापन्नो अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो’’ति।

सोमनस्सपटिलाभकथा

३६८. ‘‘अभिजानासि नो त्वं, देवानमिन्द, इतो पुब्बे एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभ’’न्ति? ‘‘अभिजानामहं, भन्ते, इतो पुब्बे एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभ’’न्ति। ‘‘यथा कथं पन त्वं, देवानमिन्द, अभिजानासि इतो पुब्बे एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभ’’न्ति?

‘‘भूतपुब्बं, भन्ते, देवासुरसङ्गामो समुपब्यूळ्हो [समूपब्बुळ्हो (सी॰ पी॰)] अहोसि। तस्मिं खो पन, भन्ते, सङ्गामे देवा जिनिंसु, असुरा पराजयिंसु [पराजिंसु (सी॰ पी॰)]। तस्स मय्हं, भन्ते, तं सङ्गामं अभिविजिनित्वा विजितसङ्गामस्स एतदहोसि – ‘या चेव दानि दिब्बा ओजा या च असुरा ओजा, उभयमेतं [उभयमेत्थ (स्या॰)] देवा परिभुञ्जिस्सन्ती’ति। सो खो पन मे, भन्ते, वेदपटिलाभो सोमनस्सपटिलाभो सदण्डावचरो ससत्थावचरो न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति। यो खो पन मे अयं, भन्ते, भगवतो धम्मं सुत्वा वेदपटिलाभो सोमनस्सपटिलाभो, सो अदण्डावचरो असत्थावचरो एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तती’’ति।

३६९. ‘‘किं पन त्वं, देवानमिन्द, अत्थवसं सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेसी’’ति? ‘‘छ खो अहं, भन्ते, अत्थवसे सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि।

‘‘इधेव तिट्ठमानस्स, देवभूतस्स मे सतो।

पुनरायु च मे लद्धो, एवं जानाहि मारिस॥

‘‘इमं खो अहं, भन्ते, पठमं अत्थवसं सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि।

‘‘चुताहं दिविया काया, आयुं हित्वा अमानुसं।

अमूळ्हो गब्भमेस्सामि, यत्थ मे रमती मनो॥

‘‘इमं खो अहं, भन्ते, दुतियं अत्थवसं सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि।

‘‘स्वाहं अमूळ्हपञ्ञस्स [अमूळ्हपञ्हस्स (?)], विहरं सासने रतो।

ञायेन विहरिस्सामि, सम्पजानो पटिस्सतो॥

‘‘इमं खो अहं, भन्ते, ततियं अत्थवसं सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि।

‘‘ञायेन मे चरतो च, सम्बोधि चे भविस्सति।

अञ्ञाता विहरिस्सामि, स्वेव अन्तो भविस्सति॥

‘‘इमं खो अहं, भन्ते, चतुत्थं अत्थवसं सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि।

‘‘चुताहं मानुसा काया, आयुं हित्वान मानुसं।

पुन देवो भविस्सामि, देवलोकम्हि उत्तमो॥

‘‘इमं खो अहं, भन्ते, पञ्चमं अत्थवसं सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि।

‘‘ते [ये (?)] पणीततरा देवा, अकनिट्ठा यसस्सिनो।

अन्तिमे वत्तमानम्हि, सो निवासो भविस्सति॥

‘‘इमं खो अहं, भन्ते, छट्ठं अत्थवसं सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि।

‘‘इमे खो अहं, भन्ते, छ अत्थवसे सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि।

३७०.‘‘अपरियोसितसङ्कप्पो, विचिकिच्छो कथंकथी।

विचरिं दीघमद्धानं, अन्वेसन्तो तथागतं॥

‘‘यस्सु मञ्ञामि समणे, पविवित्तविहारिनो।

सम्बुद्धा इति मञ्ञानो, गच्छामि ते उपासितुं॥

‘‘‘कथं आराधना होति, कथं होति विराधना’।

इति पुट्ठा न सम्पायन्ति [सम्भोन्ति (स्या॰)], मग्गे पटिपदासु च॥

‘‘त्यस्सु यदा मं जानन्ति, सक्को देवानमागतो।

त्यस्सु ममेव पुच्छन्ति, ‘किं कत्वा पापुणी इदं’॥

‘‘तेसं यथासुतं धम्मं, देसयामि जने सुतं [जनेसुत (क॰ सी॰)]।

तेन अत्तमना होन्ति, ‘दिट्ठो नो वासवोति च’॥

‘‘यदा च बुद्धमद्दक्खिं, विचिकिच्छावितारणं।

सोम्हि वीतभयो अज्ज, सम्बुद्धं पयिरुपासिय [पयिरुपासयिं (स्या॰ क॰)]॥

‘‘तण्हासल्लस्स हन्तारं, बुद्धं अप्पटिपुग्गलं।

अहं वन्दे महावीरं, बुद्धमादिच्चबन्धुनं॥

‘‘यं करोमसि ब्रह्मुनो, समं देवेहि मारिस।

तदज्ज तुय्हं कस्साम [दस्साम (स्या॰ क॰)], हन्द सामं करोम ते॥

‘‘त्वमेव असि [तुवमेवसि (पी॰)] सम्बुद्धो, तुवं सत्था अनुत्तरो।

सदेवकस्मिं लोकस्मिं, नत्थि ते पटिपुग्गलो’’ति॥

३७१. अथ खो सक्को देवानमिन्दो पञ्चसिखं गन्धब्बपुत्तं आमन्तेसि – ‘‘बहूपकारो खो मेसि त्वं, तात पञ्चसिख, यं त्वं भगवन्तं पठमं पसादेसि। तया, तात, पठमं पसादितं पच्छा मयं तं भगवन्तं दस्सनाय उपसङ्कमिम्हा अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं। पेत्तिके वा ठाने ठपयिस्सामि, गन्धब्बराजा भविस्ससि, भद्दञ्च ते सूरियवच्छसं दम्मि, सा हि ते अभिपत्थिता’’ति।

अथ खो सक्को देवानमिन्दो पाणिना पथविं परामसित्वा तिक्खत्तुं उदानं उदानेसि – ‘‘नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्सा’’ति।

इमस्मिञ्च पन वेय्याकरणस्मिं भञ्ञमाने सक्कस्स देवानमिन्दस्स विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – ‘‘यं किञ्चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्म’’न्ति। अञ्ञेसञ्च असीतिया देवतासहस्सानं, इति ये सक्केन देवानमिन्देन अज्झिट्ठपञ्हा पुट्ठा, ते भगवता ब्याकता। तस्मा इमस्स वेय्याकरणस्स सक्कपञ्हात्वेव अधिवचनन्ति।

सक्कपञ्हसुत्तं निट्ठितं अट्ठमं।