नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 उदुम्बरिका में दहाड़

सूत्र विवेचना

भगवान इस सूत्र में घुमक्कड़ संन्यासियों को उनके घुमक्कड़ धर्म के बारे में गहरे और विस्तृत उपदेश देते हैं, जिसे वे अपनी पुरानी परंपराओं से सुनकर भूल चुके थे। घुमक्कड़ों को लगता है जैसे उन्हें ‘घुमक्कड़ धर्म’ का सार मिल लिया। लेकिन भगवान उन्हें सार समझाने के लिए उनका ध्यान बाहरी तपस्या और कठोरता के दिखावे से हटाकर उनके अंतर्मन की अशुद्धियों पर केंद्रित करते हैं, जहाँ हर घुमक्कड़ अपने दोषों से ग्रस्त दिखाई देता है। यह सूत्र बाहरी आडंबर और भीतरी सत्य के संघर्ष को समझने और सुलझाने का मार्ग बताता है।

यह सन्देश आज भी उन संन्यासियों (और कुछ भिक्षुओं) पर लागू होता है, जो कठोर तपस्या या धुतांग व्रतों को ही ब्रह्मचर्य का सार मानकर, चित्त विमुक्ति के असली उद्देश्य को भूल जाते हैं। कुछ लोग तपस्या से आत्मशुद्धि प्राप्त करते हैं, जबकि दूसरों पर इसका विपरीत असर पड़ता है, जैसे अहंकार का जागरण और अन्य दोषों का जन्म, जिनका वर्णन भगवान ने इस सूत्र में किया है। यह स्पष्ट है कि कठोर तपस्या केवल एक मार्ग है, अंतिम मंज़िल नहीं।

इस सूत्र में भगवान की सिंह जैसी दहाड़ सुनाई देती है, साथ ही उनकी असीम करुणा भी प्रकट होती है, जिसमें उन्हें कोई अपने या पराए न दिखे, बल्कि केवल उनके दुःख और दुःख-मुक्ति के अवसर दिखायी दे। भगवान अपनी करुणा में उन घुमक्कड़ों के समक्ष केवल “एक सप्ताह का” ऐसा अवसर प्रस्तुत करते हैं, जिसे कोई मूर्ख भी नकार नहीं सकता — जब तक उसे पापी मार न छु लें।

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

Hindi

१. निग्रोध घुमक्कड़

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह के गृद्धकूट पर्वत पर विहार कर रहे थे। उस समय निग्रोध घुमक्कड़ उदुम्बरिका के घुमक्कड़-आश्रम में तीन हजार घुमक्कड़ों की महापरिषद के साथ रह रहा था। तब सन्धान गृहस्थ भगवान के दर्शनार्थ दिन के समय राजगृह से निकला। किन्तु उस सन्धान गृहस्थ को लगा, “भगवान के दर्शन करने का यह समय उचित नहीं है। भगवान एकांतवास में होंगे। मन विकसित करने में लगे भिक्षुओं का दर्शन करने का भी यह समय उचित नहीं है। वे एकांतवास में मन विकसित करने में लगे होंगे। क्यों न मैं उदुम्बरिका के घुमक्कड़-आश्रम जाकर निग्रोध घुमक्कड़ के पास जाऊँ?” तब सन्धान गृहस्थ उदुम्बरिका के घुमक्कड़-आश्रम गया।

उस समय निग्रोध घुमक्कड़ घुमक्कड़ों की बड़ी परिषद के साथ चीखते-चिल्लाते शोर मचाते हुए, नाना-तरह की व्यर्थ चर्चाओं में लगा हुआ था। जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें।

तब निग्रोध घुमक्कड़ ने सन्धान गृहस्थ को दूर से आते हुए देखा, और अपनी परिषद को चुप कराया, “शान्त हो जाओ, श्रीमानों! आवाज मत करों! यहाँ सन्धान गृहस्थ आ रहा है। इन आयुष्मान को शान्ति पसंद है, धीमा बोलने की सिफ़ारिश करते है। संभव है, अपनी परिषद शान्त देख यहाँ आए।”

ऐसा कहा जाने पर घुमक्कड़ चुप हो गए।

तब सन्धान गृहस्थ निग्रोध घुमक्कड़ के पास गया। और जाकर निग्रोध घुमक्कड़ से हालचाल पूछा, और मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर वह एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर सन्धान गृहस्थ ने निग्रोध घुमक्कड़ से कहा, “श्रीमान, परधार्मिक घुमक्कड़ों की बात अलग हैं — जो मिलकर एकत्र आने पर चीखते-चिल्लाते शोर मचाते हुए, नाना-तरह की व्यर्थ चर्चाओं में लग जाते हैं। जैसे, राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें… । जबकि भगवान की बात बिलकुल अलग है — जो भीड़ से दूर, मानव-बस्ती से दूर, शोर-शराबे से दूर, जंगल या निर्जन वन में शान्त एकान्तवास लेते हैं।”

जब ऐसा कहा गया, तो निग्रोध घुमक्कड़ ने सन्धान गृहस्थ से कहा, “गृहस्थ, तुम्हें पता होना चाहिए कि श्रमण गौतम आखिर किस के साथ बात ही करते है, किस से साथ चर्चा ही करते है, किस के साथ प्रज्ञा स्पष्ट करते है? निर्जन स्थलों पर रहने से श्रमण गौतम की प्रज्ञा मर गयी है। सभाओं में न जाने से श्रमण गौतम संवाद तक नहीं कर सकते। बस किसी किनारे पड़े रहते है। जैसे कोई [एक-आँख वाली] कानी गाय किनारे भटकती या पड़ी रहती है। उसी तरह, निर्जन स्थलों पर रहने से श्रमण गौतम की प्रज्ञा मर गयी है। सभाओं में न जाने से श्रमण गौतम संवाद तक नहीं कर सकते। बस किसी किनारे पड़े रहते है। सुन लो, गृहस्थ। यदि श्रमण गौतम इस परिषद में आए तो मैं उन्हे एक ही प्रश्न से डूबा दूँगा, खाली घड़े की तरह कस दूँगा।”

तब ऐसा हुआ कि भगवान ने अपने निर्मल हो चुके अलौकिक दिव्य-श्रोतधातु से सन्धान गृहस्थ और निग्रोध घुमक्कड़ के बीच हो रही बातों को सुन लिया। तब भगवान गृद्धकूट पर्वत से उतर कर सुमागधा नदी के तट पर मोर-क्षेत्र में गए। वहाँ सुमागधा नदी के तट पर मोर-क्षेत्र में जाकर खुले आकाश के नीचे चक्रमण [चलित-ध्यान] करने लगे।

तब निग्रोध घुमक्कड़ ने भगवान को सुमागधा नदी के तट पर मोर-क्षेत्र में खुले आकाश के नीचे चक्रमण करते देखा। देखकर उसने अपनी परिषद को चुप कराया, “शान्त हो जाओ, श्रीमानों! आवाज मत करों! श्रमण गौतम सुमागधा नदी के तट पर मोर-क्षेत्र में खुले आकाश के नीचे चक्रमण कर रहे है। इन आयुष्मान को शान्ति पसंद है, वह कम बोलने की सिफ़ारिश करते है। संभव है, अपनी परिषद को शान्त देखकर यहाँ आए। यदि वाकई श्रमण गौतम इस परिषद में आए, तो मैं उन्हें प्रश्न पूछूंगा, ‘भंते, भगवान का वह कौन-सा धर्म है, जिसे वे अपने श्रावकों को सिखाते है, जिसे सीखकर भगवान के श्रावक ब्रह्मचर्य-ध्येय में आश्वासन प्राप्त करते है?’”

ऐसा कहे जाने पर घुमक्कड़ चुप हो गए।

२. घृणा-तप

तब भगवान निग्रोध घुमक्कड़ के पास गए। निग्रोध घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “आईये भंते, भगवान! स्वागत है भंते, भगवान! बहुत दिन बीतें, भंते, जो भगवान ने यहाँ आने का अवसर लिया! बैठिए, भंते, भगवान, ये आसन तयार है।”

भगवान बिछे आसन पर बैठ गए। निग्रोध घुमक्कड़ ने अपना आसन नीचे बिछाया और एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे निग्रोध घुमक्कड़ को भगवान ने कहा, “यहाँ बैठकर अभी क्या चर्चा चल रही थी, निग्रोध? कौन-सी चर्चा अधूरी रह गई?”

ऐसा कहे जाने पर निग्रोध घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “भंते, मैंने भगवान को सुमागधा नदी के तट पर मोर-क्षेत्र में खुले आकाश के नीचे चक्रमण करते देखा। देखकर मैंने कहा, ‘यदि वाकई श्रमण गौतम इस परिषद में आए, तो मैं उन्हें प्रश्न पूछूंगा, ‘भंते, भगवान का वह कौन-सा धर्म है, जिसे वे अपने श्रावकों को सिखाते है, जिसे सीखकर भगवान के श्रावक ब्रह्मचर्य-ध्येय में आश्वासन प्राप्त करते है?’ यहाँ बैठकर, भंते, यही चर्चा चल रही थी, जो अधूरी रह गई।"

“जो मेरे श्रावक सीखते हैं, जिसे सीखकर मेरे श्रावक ब्रह्मचर्य-ध्येय में आश्वासन प्राप्त करते हैं, वह जानना तुम्हारे लिए कठिन है, निग्रोध, जिसकी कोई दूसरी दृष्टि, दूसरी धारणा, दूसरी रुचि, दूसरी उपासना, दूसरा गुरु हो। इसलिए, निग्रोध, मुझे तुम अपनी ही गुरु-परंपरा में सिखायी ऊँची घृणा पर प्रश्न पुछो: ‘क्या होने से घृणा-तप परिपूर्ण होता है, भंते, और कैसे अधूरा रहता है?’”

जब ऐसा कहा गया, तो घुमक्कड़ चीखने-चिल्लाने, शोर मचाने लगे, [कहते हुए,] “आश्चर्य है, श्रीमान, अद्भुत है श्रमण गौतम की महाशक्ति, महाप्रभाव! अपनी धारणा को एक-ओर रख, वे दूसरे की धारणा [पर चर्चा] का [चुनौतीपूर्ण] आमंत्रण दे रहे है!”

तब, निग्रोध घुमक्कड़ ने उन घुमक्कड़ों को चुप कराया और भगवान से कहा, “भंते, हम घृणा-तप की धारणा मानते हैं, घृणा-तप को [हमारी शिक्षाओं का] सार मानते हैं, और हम घृणा-तप में ही तल्लीन रहकर विहार करते हैं। तब, भंते, क्या होने से घृणा-तप परिपूर्ण होता है, और कैसे अधूरा रहता है?”

“निग्रोध, कोई तपस्वी निर्वस्त्र रहता है, [सामाजिक आचरण से] मुक्त रहता है, हाथ चाटता है, बुलाने पर नहीं जाता, रोकने पर नहीं रुकता, अपने लिए लायी भिक्षा को नहीं लेता, अपने लिए पकाये भोज को नहीं लेता, निमंत्रण भोज पर नहीं जाता। [भोजन पकाये] हाँडी से भिक्षा नहीं लेता, [भोजन पकाये] बर्तन से भिक्षा नहीं लेता, द्वार के अंतराल से भिक्षा नहीं लेता, डंडे के अंतराल से भिक्षा नहीं लेता, मूसल के अंतराल से भिक्षा नहीं लेता। दो भोजन साथ करने वालों से भिक्षा नहीं लेता, गर्भिणी स्त्री से भिक्षा नहीं लेता, दूध पिलाती स्त्री से भिक्षा नहीं लेता, पुरुष के पास गयी स्त्री से भिक्षा नहीं लेता, संग्रहीत किए भिक्षा को नहीं लेता, कुत्ता खड़े स्थान से भिक्षा नहीं लेता, भिनभिनाती मक्खियों के स्थान से भिक्षा नहीं लेता, माँस नहीं लेता, मछली नहीं लेता, कच्ची शराब नहीं लेता, पक्की शराब नहीं लेता, चावल की शराब नहीं पीता। भिक्षाटन के लिए केवल एक घर जाकर एक निवाला लेता है, अथवा दो घर जाकर दो निवाले लेता है… अथवा सात घर जाकर सात निवाले लेता है। केवल एक ही कलछी पर यापन करता है, अथवा दो कलछी पर यापन करता है… अथवा सात कलछी पर यापन करता है। दिन में एक बार आहार लेता है, दो दिनों में एक बार आहार लेता है… एक सप्ताह में एक बार आहार लेता है। और ऐसे ही आधे-आधे महीने के स्थिर अंतराल में एक ही बार आहार लेते हुए विहार करता है।

और, [केवल] साग खाकर रहता है, अथवा जंगली बाजरा खाकर रहता है, अथवा लाल चावल खाकर रहता है, अथवा चमड़े के टुकड़े खाकर रहता है, अथवा शैवाल [=जल के पौधे] खाकर रहता है, अथवा कणिक [=टूटा चावल] खाकर रहता है, अथवा काँजी [=उबले चावल का पानी] पीकर रहता है, अथवा तिल खाकर रहता है, अथवा घास खाकर रहता है, अथवा गोबर खाकर रहता है, अथवा जंगल के कन्द-मूल या गिरे हुए फल खाकर यापन करता है।

और, [केवल] सन के रूखे वस्त्र पहनता है, अथवा सन में मिलावट किए रूखे वस्त्र पहनता है, अथवा फेंके लाश के वस्त्र पहनता है, अथवा चिथड़े सिला वस्त्र पहनता है, अथवा लोध्र के वस्त्र पहनता है, अथवा हिरण-खाल पूर्ण पहनता है, अथवा हिरण-खाल के टुकड़े पहनता है, अथवा कुशघास के वस्त्र पहनता है, अथवा वृक्षछाल के वस्त्र पहनता है, अथवा लकड़ी के छिलके का वस्त्र पहनता है, अथवा [मनुष्य के] केश का कंबल पहनता है, अथवा घोड़े की पूँछ के बाल का कंबल पहनता है, अथवा उल्लू के पंखों का वस्त्र पहनता है। सिर-दाढ़ी के बाल नोचकर निकालता है, बाल नोचकर निकालने के प्रति संकल्पबद्ध रहता है। बैठना त्यागकर सदा खड़े ही रहता है, अथवा उकड़ूँ बैठकर सदा उकड़ूँ ही बैठता है, अथवा काँटों की चटाई पर लेटता है और काँटों की चटाई को ही अपना बिस्तर बनाता है, अथवा सदा तख़्ते पर सोता है, अथवा सदा जमीन पर सोता है, अथवा सदा एक ही करवट सोता है। शरीर पर धूल और गंदगी लपेटे रहता है। सदा खुले आकाश के तले रहता है। जहाँ चटाई बिछाएँ वही सोता है। गंदगी खाता है और गंदगी खाने के प्रति संकल्पबद्ध रहता है। कभी पानी नहीं पीता, पानी न पीने के प्रति संकल्पबद्ध रहता है। शरीर को सुबह-दोपहर-शाम तीन बार जल में डुबोता है, शरीर को तीन बार डुबोने के प्रति संकल्पबद्ध रहता है।

तो, तुम्हें क्या लगता है, निग्रोध? जब ऐसा तप हो तो घृणा-तप परिपूर्ण होता है, या अधूरा रहता है?”

“निश्चित ही, भंते, जब ऐसा तप हो तो घृणा-तप परिपूर्ण होता है, अधूरा नहीं रहता है।”

“इस तरह परिपूर्ण होने पर भी, निग्रोध, मैं कहता हूँ कि घृणा-तप में अनेक तरह के उपक्लेश [=दोष, मैल, बाधा] रह जाते हैं।”

२.१ उपक्लेश

“किन्तु इस तरह परिपूर्ण होने पर भी, भंते, भगवान कैसे कह रहे है कि घृणा-तप में अनेक तरह के दोष रह जाते हैं?”

(१) “निग्रोध, कोई तपस्वी तप को अंगीकार कर खुश हो जाता है, उसका संकल्प जो पूरा हुआ। इस तरह, निग्रोध, तपस्वी का तप को अंगीकार कर संकल्प पूरा होने से खुश हो जाना — यह उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(२) आगे, कोई तपस्वी तप को अंगीकार कर, उस तप से स्वयं को श्रेष्ठ मानता है, दूसरे को हीन। इस तरह, निग्रोध, तपस्वी का तप को अंगीकार कर, उस तप से स्वयं को श्रेष्ठ मानना, दूसरे को हीन — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(३) आगे, कोई तपस्वी तप को अंगीकार कर, उस तप से मदहोश हो जाता है, बेहोश हो जाता है, प्रमाद [=बेसुध, लापरवाही] में गिर पड़ता है। इस तरह, निग्रोध, तपस्वी तप को अंगीकार कर, उस तप से मदहोश हो जाना, बेहोश हो जाना, प्रमाद में गिर पड़ना — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(४) आगे, कोई तपस्वी तप को अंगीकार कर, उस तप से ‘लाभ, सत्कार और किर्ति’ खड़ी करता है, और उस लाभ, सत्कार और किर्ति से खुश हो जाता है, उसका संकल्प जो पूरा हुआ। इस तरह, निग्रोध, तपस्वी का तप को अंगीकार कर, लाभ, सत्कार और किर्ति खड़ी कर, संकल्प पूरा होने से उस लाभ, सत्कार और किर्ति से खुश हो जाना — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(५) आगे, कोई तपस्वी तप को अंगीकार कर, उस तप से ‘लाभ, सत्कार और किर्ति’ खड़ी करता है, और उस लाभ, सत्कार और किर्ति से स्वयं को श्रेष्ठ मानता है, दूसरे को हीन। इस तरह, निग्रोध, तपस्वी का तप को अंगीकार कर, उस तप से लाभ, सत्कार और किर्ति खड़ी कर, उनसे स्वयं को श्रेष्ठ मानना, दूसरे को हीन — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(६) आगे, कोई तपस्वी तप को अंगीकार कर, उस तप से ‘लाभ, सत्कार और किर्ति’ खड़ी करता है, और उस लाभ, सत्कार और किर्ति से मदहोश हो जाता है, बेहोश हो जाता है, प्रमाद में गिर पड़ता है। इस तरह, निग्रोध, तपस्वी तप को अंगीकार कर, उस तप से लाभ, सत्कार और किर्ति खड़ी कर, उनसे मदहोश हो जाना, बेहोश हो जाना, प्रमाद में गिर पड़ना — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(७) आगे, कोई तपस्वी भोजन को लेकर नकचढ़ा होता है, ‘अमुक स्वीकार्य है! अमुक स्वीकार्य नहीं!’ जो स्वीकार्य न हो, उसे चाहते हुए भी त्यागता है। किन्तु जो स्वीकार्य हो, उससे बंधकर, बेहोश होकर, लालसा के साथ, दुष्परिणाम न देखते हुए, निकलने का तरीका न समझते हुए खाता है… — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(८) आगे, कोई तपस्वी ‘लाभ, सत्कार और किर्ति’ की चाह में तप को अंगीकार करता है, [सोचते हुए,] “राजा, राजमहामंत्री, क्षत्रिय, ब्राह्मण, और गृहस्थ मेरा सत्कार करेंगे”… — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(९) आगे, कोई तपस्वी किसी श्रमण या ब्राह्मण को नीचा दिखाता है, “यह क्या विलासितापूर्ण जीवन जी रहा है? इस श्रमण की धारणा के अनुसार, सारे बीज और पौधे — चाहे, वे जड़ से उगते हो, डंठल से उगते हो, जोड़ से उगते हो, कली से उगते हो, या बीज से अंकुरित होते हो — सब दाँतो में भर के कूटने का खाना ही है” … — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(१०) आगे, कोई तपस्वी किसी श्रमण या ब्राह्मण को कुल-परिवारों के द्वारा सत्कार होते, सम्मान होते, माने जाते, पूजे जाते देखता है। ऐसा देखकर उसे लगता है, “ये कुल-परिवार क्या विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले का सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं, मानते हैं, पूजते हैं? जबकि मेरे जैसा तपस्वी, जो रूखा जीवन जीता है, उसका ये कुल-परिवार न सत्कार करते हैं, न सम्मान करते हैं, न मानते हैं, न पूजते हैं।” इस तरह कुल-परिवारों के प्रति वह ईर्ष्या और कंजूसी उत्पन्न करता है … — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(११) आगे, कोई तपस्वी [जहाँ सब को दिखायी दें, ऐसे] आवागमन स्थान पर अपना आसन लगाता है… — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(१२) आगे, कोई तपस्वी अपनी असलियत न दिखाकर कुल-परिवारों में जाता है, “ऐसा मेरा तप है, वैसा मेरा तप है”… — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(१३) आगे, कोई तपस्वी कुछ-कुछ वस्तु छिपाकर सेवन करता है। “क्या यह वस्तु स्वीकार्य है?” पुछे जाने पर, अस्वीकार्य होने पर भी कहता है, “हाँ, यह स्वीकार्य है।” अथवा स्वीकार्य होने पर भी कहता है, “नहीं, यह अस्वीकार्य है।” इस तरह, वह जान-बूझकर झूठ बोलता है… — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(१४) आगे, कोई तपस्वी तथागत या तथागत के श्रावक के द्वारा धर्म बताने पर, प्रशंसनीय बात पर भी असहमत रहता है… — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(१५) आगे, कोई तपस्वी क्रोधी और शत्रुतापूर्ण [=गुस्सा पकड़े रखने वाला] होता है… — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(१६) आगे, कोई तपस्वी खारिज करने वाला और विरोधी होता है… — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(१७) आगे, कोई तपस्वी ईर्ष्यालु और स्वार्थी होता है… — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(१८) आगे, कोई तपस्वी धूर्त और पाखंडी होता है… — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(१९) आगे, कोई तपस्वी ढीठ और अहंकारी होता है… — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(२०) आगे, कोई तपस्वी पाप-इच्छुक और पाप-इच्छाओं के वशीभूत होता है… — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(२१) आगे, कोई तपस्वी मिथ्या-धारणा वाला होता है, अतिवादी दृष्टिकोण पकड़े रहता है… — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

(२२) आगे, कोई तपस्वी हठधर्मी [=अपनी ही दृष्टि से चिपका हुआ], दुराग्रही, ज़िद न छोड़ने वाला होता है… — यह भी उस तपस्वी का यह दोष होता है।

तो, तुम्हें क्या लगता है, निग्रोध? क्या ये घृणा-तप के उपक्लेश ही हैं, अथवा उपक्लेश नहीं हैं?”

“निश्चित ही, भंते, ये घृणा-तप के उपक्लेश ही हैं। उपक्लेश नहीं, ऐसा नहीं हैं। और, ऐसा भी संभव है कि किसी तपस्वी में इनमें से कोई एक या दो नहीं, बल्कि ये सभी तरह के उपक्लेश मौजूद हो।”

२.२ परिशुद्ध छाल

(१) “निग्रोध, कोई तपस्वी तप को अंगीकार कर खुश नहीं हो जाता, जो उसका संकल्प पूरा नहीं हुआ। इस तरह, निग्रोध, तपस्वी का तप को अंगीकार कर संकल्प पूरा न होने से खुश नहीं हो जाना — इस बात से वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(२) आगे, कोई तपस्वी तप को अंगीकार कर, उस तप से स्वयं को श्रेष्ठ नहीं मानता है, दूसरे को हीन नहीं मानता है। इस तरह, निग्रोध, तपस्वी का तप को अंगीकार कर, उस तप से स्वयं को श्रेष्ठ न मान, दूसरे को हीन न मानना — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(३) आगे, कोई तपस्वी तप को अंगीकार कर, उस तप से मदहोश नहीं हो जाता, बेहोश नहीं हो जाता, प्रमाद में नहीं गिर पड़ता। इस तरह, निग्रोध, तपस्वी तप को अंगीकार कर, उस तप से मदहोश न हो जाना, बेहोश न हो जाना, प्रमाद में न गिर पड़ना — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(४) आगे, कोई तपस्वी तप को अंगीकार कर, उस तप से ‘लाभ, सत्कार और किर्ति’ खड़ी नहीं करता है, और उस लाभ, सत्कार और किर्ति से खुश नहीं हो जाता, उसका संकल्प जो पूरा नहीं हुआ। इस तरह, निग्रोध, तपस्वी का तप को अंगीकार कर, लाभ, सत्कार और किर्ति खड़ी न कर, संकल्प पूरा न होने से उस लाभ, सत्कार और किर्ति से खुश नहीं हो जाना — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(५) आगे, कोई तपस्वी तप को अंगीकार कर, उस तप से ‘लाभ, सत्कार और किर्ति’ खड़ी नहीं करता है, और उस लाभ, सत्कार और किर्ति से स्वयं को श्रेष्ठ नहीं मानता है, दूसरे को हीन नहीं। इस तरह, निग्रोध, तपस्वी का तप को अंगीकार कर, उस तप से लाभ, सत्कार और किर्ति खड़ी न कर, उनसे स्वयं को श्रेष्ठ न मानना, दूसरे को हीन न मानना — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(६) आगे, कोई तपस्वी तप को अंगीकार कर, उस तप से ‘लाभ, सत्कार और किर्ति’ खड़ी नहीं करता है, और उस लाभ, सत्कार और किर्ति से मदहोश नहीं हो जाता, बेहोश नहीं हो जाता, प्रमाद में नहीं गिर पड़ता। इस तरह, निग्रोध, तपस्वी तप को अंगीकार कर, उस तप से लाभ, सत्कार और किर्ति खड़ी न कर, उनसे मदहोश न हो जाना, बेहोश न हो जाना, प्रमाद में न गिर पड़ना — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(७) आगे, कोई तपस्वी भोजन को लेकर नकचढ़ा नहीं होता है, ‘अमुक स्वीकार्य है! अमुक स्वीकार्य नहीं!’ जो स्वीकार्य न हो, उसे चाहते हुए भी त्यागता नहीं है। किन्तु जो स्वीकार्य हो, उससे बिना बंधकर, बिना बेहोश होकर, बिना लालसा के साथ, दुष्परिणाम देखते हुए, निकलने का तरीका समझते हुए खाता है… — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(८) आगे, कोई तपस्वी ‘लाभ, सत्कार और किर्ति’ की चाह में तप को अंगीकार नहीं करता है, [सोचते हुए,] “राजा, राजमहामंत्री, क्षत्रिय, ब्राह्मण, और गृहस्थ मेरा सत्कार करेंगे”… — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(९) आगे, कोई तपस्वी किसी श्रमण या ब्राह्मण को नीचा नहीं दिखाता है, “यह क्या विलासितापूर्ण जीवन जी रहा है? इस श्रमण की धारणा के अनुसार, सारे बीज और पौधे — चाहे, वे जड़ से उगते हो, डंठल से उगते हो, जोड़ से उगते हो, कली से उगते हो, या बीज से अंकुरित होते हो — सब दाँतो में भर के कूटने का खाना ही है” … — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(१०) आगे, कोई तपस्वी किसी श्रमण या ब्राह्मण को कुल-परिवारों के द्वारा सत्कार होते, सम्मान होते, माने जाते, पूजे जाते देखता है। ऐसा देखकर उसे ऐसा नहीं लगता है, “ये कुल-परिवार क्या विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले का सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं, मानते हैं, पूजते हैं? जबकि मेरे जैसा तपस्वी, जो रूखा जीवन जीता है, उसका ये कुल-परिवार न सत्कार करते हैं, न सम्मान करते हैं, न मानते हैं, न पूजते हैं।” इस तरह कुल-परिवारों के प्रति वह ईर्ष्या और कंजूसी उत्पन्न नहीं करता है … — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(११) आगे, कोई तपस्वी [जहाँ सब को दिखायी दें, ऐसे] आवागमन स्थान पर अपना आसन नहीं लगाता है… — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(१२) आगे, कोई तपस्वी अपनी असलियत छिपाकर कुल-परिवारों में नहीं जाता, “ऐसा मेरा तप है, वैसा मेरा तप है”… — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(१३) आगे, कोई तपस्वी कुछ-कुछ वस्तु छिपाकर सेवन नहीं करता है। “क्या यह वस्तु स्वीकार्य है?” पुछे जाने पर, अस्वीकार्य होने पर कहता है, “नहीं, यह अस्वीकार्य है।” अथवा स्वीकार्य होने पर कहता है, “हाँ, यह स्वीकार्य है।” इस तरह, वह जान-बूझकर झूठ नहीं बोलता है… — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(१४) आगे, कोई तपस्वी तथागत या तथागत के श्रावक के द्वारा धर्म बताने पर, प्रशंसनीय बात पर सहमत रहता है… — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(१५) आगे, कोई तपस्वी क्रोधी [या चिड़चिड़ा] नहीं होता है, गुस्सा [या बैर] पकड़े नहीं रखता है… — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(१६) आगे, कोई तपस्वी आक्रमक और तिरस्कारपूर्ण नहीं होता है… — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(१७) आगे, कोई तपस्वी ईर्ष्यापूर्ण और कंजूस नहीं होता है… — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(१८) आगे, कोई तपस्वी धूर्त और धोखेबाज नहीं होता है… — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(१९) आगे, कोई तपस्वी ढीठ और अहंकारी नहीं होता है… — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(२०) आगे, कोई तपस्वी पाप-इच्छुक और पाप-इच्छाओं के वशीभूत नहीं होता है… — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(२१) आगे, कोई तपस्वी मिथ्या-धारणा वाला नहीं होता है, अतिवादी दृष्टिकोण पकड़े नहीं रहता है… — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

(२२) आगे, कोई तपस्वी अपनी ही दृष्टि को न पकड़े हुए, हठपूर्वक दुराग्रह नहीं करते है, ज़िद छोड़ देते है… — इस बात से भी वह तपस्वी परिशुद्ध है।

तो, तुम्हें क्या लगता है, निग्रोध? क्या ये घृणा-तप की परिशुद्धता ही हैं, अथवा नहीं?”

“निश्चित ही, भंते, ये घृणा-तप की परिशुद्धता ही हैं, अपरिशुद्धता नहीं। यह घृणा-तप अग्रता-प्राप्त, सार-प्राप्त है!”

“नहीं, निग्रोध। यह घृणा-तप अग्रता-प्राप्त, सार-प्राप्त नहीं, बल्कि केवल ‘छिलका’ है।”

२.३ परिशुद्ध पत्तियाँ

“किन्तु, भंते, क्या करने से घृणा-तप अग्रणी और सार्थक होता है? अच्छा होगा, भंते, जो भगवान मुझे घृणा-तप के अग्रणी और सार्थक होने के बारे में बताएँ।”

“निग्रोध, कोई तपस्वी चार आयाम में संवर कर संवृत रहता है। कैसे?

(१) कोई तपस्वी किसी प्राणी की न [स्वयं] हत्या करता है, न [दूसरे से] हत्या करवाता है, न हत्या का अनुमोदन करता [या स्वीकृति देता] है।

(२) कोई तपस्वी न चुराता है, न चुरवाता है, न चुराने का अनुमोदन करता है।

(३) कोई तपस्वी न झूठ बोलता है, न झूठ बुलवाता है, न झूठ का अनुमोदन करता है।

(४) कोई तपस्वी न उपजे भोग की आस लगाता है, न आस लगवाता है, न आस लगाने का अनुमोदन करता है।

इस तरह, निग्रोध, कोई तपस्वी इन चार आयाम में संवर कर संवृत रहता है। और जब कोई तपस्वी इन चार आयाम में संवर कर संवृत रहता है, तब यही उसकी तपस्या होती है। वे उसमें ऊँचा उठता है, नीचे नहीं गिरता है। तब एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।

वह दुनिया के प्रति लालसा हटाकर लालसाविहीन चित्त से रहता है। अपने चित्त से लालसा को साफ़ करता है। वह भीतर से दुर्भावना और द्वेष हटाकर दुर्भावनाविहीन चित्त से रहता है — समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। अपने चित्त से दुर्भावना और द्वेष को साफ़ करता है। वह भीतर से सुस्ती और तंद्रा हटाकर सुस्ती और तंद्राविहीन चित्त से रहता है — उजाला देखने वाला, स्मरणशील और सचेत। अपने चित्त से सुस्ती और तंद्रा को साफ़ करता है। वह भीतर से बेचैनी और पश्चाताप हटाकर बिना व्याकुलता के रहता है; भीतर से शान्त चित्त। अपने चित्त से बेचैनी और पश्चाताप को साफ़ करता है। वह अनिश्चितता हटाकर उलझन को लाँघता है; कुशल स्वभावों के प्रति संभ्रमता के बिना। अपने चित्त से अनिश्चितता को साफ़ करता है।

वह पाँच अवरोध [“नीवरण”] जो चित्त के उपक्लेश हैं, जो अन्तर्ज्ञान को दुर्बल बनाते हैं, उन्हें त्यागकर सद्भावना-भरे चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में। उसी तरह तीसरी-दिशा में। उसी तरह चौथी-दिशा में। उसी तरह वह ऊपर, नीचे, आड़े, तिरछे, तत्र-सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में ऐसा ‘विस्तृत, विराट, असीम, निर्बैर, निर्द्वेष, सद्भावना-भरा’ चित्त फैलाकर व्याप्त करता है।

आगे, वह करुणा-भरे चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में। उसी तरह तीसरी-दिशा में। उसी तरह चौथी-दिशा में। उसी तरह वह ऊपर, नीचे, आड़े, तिरछे, तत्र-सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में ऐसा ‘विस्तृत, विराट, असीम, निर्बैर, निर्द्वेष, करुणा-भरा’ चित्त फैलाकर व्याप्त करता है।

आगे, वह प्रसन्नता-भरे चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में। उसी तरह तीसरी-दिशा में। उसी तरह चौथी-दिशा में। उसी तरह वह ऊपर, नीचे, आड़े, तिरछे, तत्र-सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में ऐसा ‘विस्तृत, विराट, असीम, निर्बैर, निर्द्वेष, प्रसन्नता-भरा’ चित्त फैलाकर व्याप्त करता है।

आगे, वह तटस्थता-भरे चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में। उसी तरह तीसरी-दिशा में। उसी तरह चौथी-दिशा में। उसी तरह वह ऊपर, नीचे, आड़े, तिरछे, तत्र-सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में ऐसा ‘विस्तृत, विराट, असीम, निर्बैर, निर्द्वेष, तटस्थता-भरा’ चित्त फैलाकर व्याप्त करता है।

तो, तुम्हें क्या लगता है, निग्रोध? क्या ये घृणा-तप की परिशुद्धता हैं, अथवा नहीं?”

“निश्चित ही, भंते, ये घृणा-तप की परिशुद्धता हैं, अपरिशुद्धता नहीं। यह घृणा-तप अग्रता-प्राप्त, सार-प्राप्त है!”

“नहीं, निग्रोध। यह घृणा-तप अग्रता-प्राप्त, सार-प्राप्त नहीं, बल्कि केवल ‘पत्तियाँ’ हैं।”

२.४ परिशुद्ध मृदु टहनियाँ

“किन्तु, भंते, क्या करने से घृणा-तप अग्रणी और सार्थक होता है? अच्छा होगा, भंते, जो भगवान मुझे घृणा-तप के अग्रणी और सार्थक होने के बारे में बताएँ।”

“निग्रोध, जब कोई तपस्वी चार आयाम में संवर कर संवृत रहता है… एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले… भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है… दुनिया के प्रति लालसा हटाकर… दुर्भावना और द्वेष हटाकर… सुस्ती और तंद्रा हटाकर… बेचैनी और पश्चाताप हटाकर… अनिश्चितता हटाकर… पाँच अवरोध, जो चित्त के उपक्लेश हैं, जो अन्तर्ज्ञान को दुर्बल बनाते हैं, उन्हें त्यागकर सद्भावना-भरे चित्त को… करुणा-भरे चित्त को… प्रसन्नता-भरे चित्त को… तटस्थता-भरे चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में। उसी तरह तीसरी-दिशा में। उसी तरह चौथी-दिशा में। उसी तरह वह ऊपर, नीचे, आड़े, तिरछे, तत्र-सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में ऐसा ‘विस्तृत, विराट, असीम, निर्बैर, निर्द्वेष, तटस्थता-भरा’ चित्त फैलाकर व्याप्त करता है।

तब, उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।

तो, तुम्हें क्या लगता है, निग्रोध? क्या ये घृणा-तप की परिशुद्धता हैं, अथवा नहीं?”

“निश्चित ही, भंते, ये घृणा-तप की परिशुद्धता हैं, अपरिशुद्धता नहीं। यह घृणा-तप अग्रता-प्राप्त, सार-प्राप्त है!”

“नहीं, निग्रोध। यह घृणा-तप अग्रता-प्राप्त, सार-प्राप्त नहीं, बल्कि केवल ‘मृदु टहनियाँ’ हैं।”

३. अग्रता और सार की प्राप्ति

“किन्तु, भंते, क्या करने से घृणा-तप अग्रणी और सार्थक होता है? अच्छा होगा, भंते, जो भगवान मुझे घृणा-तप के अग्रणी और सार्थक होने के बारे में बताएँ।”

“निग्रोध, जब कोई तपस्वी चार आयाम में संवर कर संवृत रहता है… पाँच अवरोध त्यागकर सद्भावना-भरे चित्त को… करुणा-भरे चित्त को… प्रसन्नता-भरे चित्त को… तटस्थता-भरे चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में। उसी तरह तीसरी-दिशा में। उसी तरह चौथी-दिशा में। उसी तरह वह ऊपर, नीचे, आड़े, तिरछे, तत्र-सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में ऐसा ‘विस्तृत, विराट, असीम, निर्बैर, निर्द्वेष, तटस्थता-भरा’ चित्त फैलाकर व्याप्त करता है। तथा, उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म… इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।

तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।

तो, तुम्हें क्या लगता है, निग्रोध? क्या ये घृणा-तप की परिशुद्धता हैं, अथवा नहीं?”

“निश्चित ही, भंते, ये घृणा-तप की परिशुद्धता हैं, अपरिशुद्धता नहीं। यह घृणा-तप अग्रता-प्राप्त, सार-प्राप्त है!”

“इस स्थान पर, निग्रोध, घृणा-तप अग्रता-प्राप्त, सार-प्राप्त होती है। क्या तुम्हें याद है, निग्रोध, तुमने मुझसे पूछा था कि ‘भंते, भगवान का वह कौन-सा धर्म है, जिसे वे अपने श्रावकों को सिखाते है, जिसे सीखकर भगवान के श्रावक ब्रह्मचर्य-ध्येय में आश्वासन प्राप्त करते है?’ क्योंकि, निग्रोध, इस स्थान से अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम [धर्म] है, जिसे मैं अपने श्रावकों को सिखाता हूँ, जिसे सीखकर मेरे श्रावक ब्रह्मचर्य-ध्येय में आश्वासन प्राप्त करते हैं।”

जब ऐसा कहा गया, तो घुमक्कड़ चीखने-चिल्लाने, शोर मचाने लगे, [कहते हुए,] “ऐसा हो तो हम बर्बाद हैं, अपनी गुरु-परंपरा के साथ! क्योंकि हमें इससे अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम कुछ नहीं पता।”

४. निग्रोध का पश्चाताप

तब सन्धान गृहस्थ ने समझा, ‘अब ये परधार्मिक घुमक्कड़ भगवान की बात सुनेंगे, कान देंगे, समझने के लिए मन लगाएँगे।’ तब उसने निग्रोध घुमक्कड़ से कहा, “आदरणीय निग्रोध जी, याद है आपने मुझसे कहा था कि ‘गृहस्थ, तुम्हें पता होना चाहिए कि श्रमण गौतम आखिर किस के साथ बात ही करते है, किस से साथ चर्चा ही करते है, किस के साथ प्रज्ञा स्पष्ट करते है? निर्जन स्थलों पर रहने से श्रमण गौतम की प्रज्ञा मर गयी है। सभाओं में न जाने से श्रमण गौतम संवाद तक नहीं कर सकते। बस किसी किनारे पड़े रहते है। जैसे कोई [एक-आँख वाली] कानी गाय किनारे भटकती या पड़ी रहती है। उसी तरह, निर्जन स्थलों पर रहने से श्रमण गौतम की प्रज्ञा मर गयी है। सभाओं में न जाने से श्रमण गौतम संवाद तक नहीं कर सकते। बस किसी किनारे पड़े रहते है। सुन लो, गृहस्थ। यदि श्रमण गौतम इस परिषद में आए तो मैं उन्हे एक ही प्रश्न से डूबा दूँगा, खाली घड़े की तरह कस दूँगा।’ तो लीजिए, अब भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध यहाँ आ गए है। अब आप उन्हें कानी गाय की तरह इस परिषद से भेज दीजिए! एक ही प्रश्न से डूबा दीजिए, खाली घड़े की तरह कस दीजिए!”

जब ऐसा कहा गया, तो निग्रोध घुमक्कड़ चुप हो गया, और पश्चाताप की ग्लानि में उत्तर न सुझने पर कंधे गिराकर, मुँह नीचे कर निरुत्साहित बैठा रहा।

भगवान ने देखा कि निग्रोध घुमक्कड़ चुप हो गया है, और पश्चाताप की ग्लानि में उत्तर न सुझने पर कंधे गिराकर, मुँह नीचे कर निरुत्साहित बैठा है। तब भगवान ने उसे कहा, “क्या यह सच है, निग्रोध? क्या तुमने ऐसा बोला था?”

“ये सच है, भंते। मैंने ऐसा ही बोला था, इतने मूर्ख जैसे, इतने मूढ़ जैसे, इतने अकुशल तरह से!”

“क्या लगता है, निग्रोध? क्या कभी तुमने अपने वृद्ध और उम्रदराज घुमक्कड़ आचार्य-प्राचार्यों से सुना है कि ‘जब अतीतकाल में अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हुए, तब वे भगवान मिलकर एकत्र होने पर इसी तरह चीखते-चिल्लाते शोर मचाते हुए नाना-तरह की व्यर्थ चर्चाओं में लगते थे, जिस तरह तुम अपने गुरु-परंपरा में करते हो, जैसे राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें…? अथवा उन्होने कहा कि ‘वे भगवान भीड़ से दूर, मानव-बस्ती से दूर, शोर-शराबे से दूर, जंगल या निर्जन वन में शान्त एकान्तवास लेते थे?’ जैसा कि इस समय मैं करता हूँ?”

“मैंने सुना है, भंते। वृद्ध और उम्रदराज घुमक्कड़ आचार्य-प्राचार्य कहते थे कि ‘जब अतीतकाल में अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हुए, तब वे भगवान मिलकर एकत्र होने पर इसी तरह चीखते-चिल्लाते शोर मचाते हुए नाना-तरह की व्यर्थ चर्चाओं में नहीं लगते थे, जिस तरह हम अपनी गुरु-परंपरा में करते हैं, जैसे राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें… बल्कि उन्होने कहा था कि ‘वे भगवान भीड़ से दूर, मानव-बस्ती से दूर, शोर-शराबे से दूर, जंगल या निर्जन वन में शान्त एकान्तवास लेते थे’, जैसा कि इस समय भगवान करते है।”

“निग्रोध, क्या तुम जैसे समझदार और उम्रदराज को ऐसा नहीं लगा कि ‘बुद्ध होकर भगवान बोध कराने के लिए धर्म बताते है, आत्म-संयत होकर भगवान आत्म-संयम के लिए धर्म बताते है, निश्चल होकर भगवान निश्चलता के लिए धर्म बताते है, पार हो चुके भगवान पार कराने के लिए धर्म बताते है, परिनिवृत होकर भगवान परिनिर्वाण के लिए धर्म बताते है’?”

५. ब्रह्मचर्य समाप्ति का साक्षात्कार

जब ऐसा कहा गया, तब निग्रोध घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “मुझसे गलती हो गयी, भंते, जो मैंने इतने मूर्ख जैसे, इतने मूढ़ जैसे, इतने अकुशल तरह से भगवान के लिए दुर्वचन निकाले। भंते, भगवान मेरी गलती को गलती की तरह स्वीकारे, ताकि मैं भविष्य में संवर कर के रहूँ।”

“वाकई, निग्रोध, तुमसे गलती हो गयी, जो तुमने इतने मूर्ख जैसे, इतने मूढ़ जैसे, इतने अकुशल तरह से मेरे लिए दुर्वचन निकाले। चूँकि तुम अपनी गलती को ‘गलती’ के तौर पर देखते हो और उसे धर्मानुसार निपटाते हो, अतः मैं उसे स्वीकार करता हूँ। क्योंकि अपनी गलती को गलती देखकर उसे धर्मानुसार निपटाना, और भविष्य में संवर कर के रहना — इसे आर्य-विनय में ‘प्रगति’ माना जाता है।

निग्रोध, मैं तो ऐसा कहता हूँ — कोई समझदार पुरुष आए, जो न धूर्त हो, न धोखेबाज, बल्कि सीधा हो, तो मैं उसे धर्म बताऊँगा। और मेरे सिखाएँ अनुसार वह साधना करे, तो जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रव्रजित होते हैं, उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर, प्रत्यक्ष-ज्ञान पाकर, साक्षात्कार कर, वे इसी जीवन में ७ वर्ष में स्थित होकर विहार करेंगे।

७ वर्ष छोड़ो, निग्रोध! कोई समझदार पुरुष आए, जो न धूर्त हो, न धोखेबाज, बल्कि सीधा हो, तो मैं उसे धर्म बताऊँगा। और मेरे सिखाएँ अनुसार वह साधना करे, तो जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रव्रजित होते हैं, उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर, प्रत्यक्ष-ज्ञान पाकर, साक्षात्कार कर, वे इसी जीवन में ६ वर्ष… ५ वर्ष… ४ वर्ष… ३ वर्ष… २ वर्ष… १ वर्ष… में स्थित होकर विहार करेंगे।

१ वर्ष भी छोड़ो, निग्रोध! कोई समझदार पुरुष आए, जो न धूर्त हो, न धोखेबाज, बल्कि सीधा हो, तो मैं उसे धर्म बताऊँगा। और मेरे सिखाएँ अनुसार वह साधना करे, तो जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रव्रजित होते हैं, उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर, प्रत्यक्ष-ज्ञान पाकर, साक्षात्कार कर, वे इसी जीवन में ७ महीने… ६ महीने… ५ महीने… ४ महीने… ३ महीने… २ महीने… १ महीने… आधे महिने में स्थित होकर विहार करेंगे।

आधा महिना भी छोड़ो, निग्रोध! कोई समझदार पुरुष आए, जो न धूर्त हो, न धोखेबाज, बल्कि सीधा हो, तो मैं उसे धर्म बताऊँगा। और मेरे सिखाएँ अनुसार वह साधना करे, तो जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रव्रजित होते हैं, उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर, प्रत्यक्ष-ज्ञान पाकर, साक्षात्कार कर, वे इसी जीवन में एक सप्ताह में स्थित होकर विहार करेंगे।”

६. घुमक्कड़ों की हताशा

“निग्रोध, यदि तुम्हें ऐसा लगे कि ‘शिष्य चाहिए, इसलिए श्रमण गौतम इस तरह कहते है।’ किन्तु, तुम्हें इस तरह नहीं देखना चाहिए। जो तुम्हारे आचार्य हो, वे ही आचार्य बने रहे।

यदि तुम्हें ऐसा लगे कि ‘उद्देश्य से च्युत करना है, इसलिए श्रमण गौतम इस तरह कहते है।’ किन्तु, तुम्हें इस तरह नहीं देखना चाहिए। जो तुम्हारे उद्देश्य हो, वे ही उद्देश्य बने रहे।

यदि तुम्हें ऐसा लगे कि ‘आजीविका छुड़ाना है, इसलिए श्रमण गौतम इस तरह कहते है।’ किन्तु, तुम्हें इस तरह नहीं देखना चाहिए। जो तुम्हारी आजीविका हो, वही आजीविका बनी रहे।

यदि तुम्हें ऐसा लगे कि ‘हमारी परंपरा में जो बात ‘अकुशल’ मानी और समझी जाती है, वैसी किसी अकुशल बात में स्थापित कराना है, इसलिए श्रमण गौतम इस तरह कहते है।’ किन्तु, तुम्हें इस तरह नहीं देखना चाहिए। जो तुम्हारी परंपरा में अकुशल बात मानी जाती, समझी जाती हो, वह अकुशल बात भी बने रहे।

यदि तुम्हें ऐसा लगे कि ‘हमारी परंपरा में जो बात ‘कुशल’ मानी और समझी जाती है, वैसी किसी कुशल बात को छुड़ाना है, इसलिए श्रमण गौतम इस तरह कहते है।’ किन्तु, तुम्हें इस तरह नहीं देखना चाहिए। जो तुम्हारी परंपरा में कुशल बात मानी जाती, समझी जाती हो, वह कुशल बात भी बने रहे।

निग्रोध, मुझे शिष्य चाहिए, इसलिए मैं इस तरह नहीं कहता हूँ। मुझे [तुम्हें] उद्देश्य से च्युत करना है, इसलिए मैं इस तरह नहीं कहता हूँ। मुझे [तुम्हारी] आजीविका छुड़ाना है, इसलिए मैं इस तरह नहीं कहता हूँ। मुझे तुम्हारी परंपरा में जो बात ‘अकुशल’ मानी और समझी जाती है, वैसी किसी अकुशल बात में स्थापित कराना है, इसलिए मैं इस तरह नहीं कहता हूँ। मुझे तुम्हारी परंपरा में जो बात ‘कुशल’ मानी और समझी जाती है, वैसी किसी कुशल बात को छुड़ाना है, इसलिए मैं इस तरह नहीं कहता हूँ।

बल्कि, निग्रोध, ऐसे अकुशल धर्म हैं — जो त्यागे नहीं गए हैं, मैल बढ़ाते हैं, पुनः उत्पत्ति कराते हैं, पीड़ा देते हैं, परिणामस्वरूप दुःख देते हैं, जन्म, बुढ़ापा और मृत्यु लाते हैं — वैसे धर्मों को छुड़ाने के लिए मैं धर्म बताता हूँ।

यदि तुम उस तरह साधना करो, तो मैल बढ़ाते धर्म छूट जाएँगे, पवित्रता बढ़ाते धर्म बढ़ेंगे, और अन्तर्ज्ञान परिपूर्ण हो, विपुलता प्राप्त कर, तुम प्रत्यक्ष-ज्ञान पाकर, साक्षात्कार कर, इसी जीवन में स्थित होकर विहार करोगे।”

जब ऐसा कहा गया, तब वे घुमक्कड़ चुप हो गए, पश्चाताप की ग्लानि में उत्तर न सुझने पर कंधे गिराकर, मुँह नीचे कर निरुत्साहित बैठे रहे, मानो, जैसे मार ने उनके चित्त को वशीभूत किया हो।

तब भगवान को लगा, “इन सभी नालायकों को पापी ने छू लिया है। इसलिए किसी एक को भी ऐसा नहीं लगता कि ‘आओ, हम ज्ञान प्राप्त करने के लक्ष्य से श्रमण गौतम का ब्रह्मचर्य पालन करें। एक सप्ताह भला क्या करेगा?’”

तब भगवान ने उदुम्बरिका के घुमक्कड़-आश्रम में सिंह-दहाड़ जैसी गर्जना कर, आकाश में ऊपर उड़कर गृद्धकूट पर्वत पर लौट आए। सन्धान गृहस्थ भी तब राजगृह लौट गया।

उदुम्बरिक सुत्त समाप्त!

Pali

निग्रोधपरिब्बाजकवत्थु

४९. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति गिज्झकूटे पब्बते। तेन खो पन समयेन निग्रोधो परिब्बाजको उदुम्बरिकाय परिब्बाजकारामे पटिवसति महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं तिंसमत्तेहि परिब्बाजकसतेहि। अथ खो सन्धानो गहपति दिवा दिवस्स [दिवादिवस्सेव (सी॰ स्या॰ पी॰)] राजगहा निक्खमि भगवन्तं दस्सनाय। अथ खो सन्धानस्स गहपतिस्स एतदहोसि – ‘‘अकालो खो भगवन्तं दस्सनाय। पटिसल्लीनो भगवा। मनोभावनीयानम्पि भिक्खूनं असमयो दस्सनाय। पटिसल्लीना मनोभावनीया भिक्खू। यंनूनाहं येन उदुम्बरिकाय परिब्बाजकारामो, येन निग्रोधो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमेय्य’’न्ति। अथ खो सन्धानो गहपति येन उदुम्बरिकाय परिब्बाजकारामो, तेनुपसङ्कमि।

५०. तेन खो पन समयेन निग्रोधो परिब्बाजको महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं निसिन्नो होति उन्नादिनिया उच्चासद्दमहासद्दाय अनेकविहितं तिरच्छानकथं कथेन्तिया। सेय्यथिदं – राजकथं चोरकथं महामत्तकथं सेनाकथं भयकथं युद्धकथं अन्नकथं पानकथं वत्थकथं सयनकथं मालाकथं गन्धकथं ञातिकथं यानकथं गामकथं निगमकथं नगरकथं जनपदकथं इत्थिकथं सूरकथं विसिखाकथं कुम्भट्ठानकथं पुब्बपेतकथं नानत्तकथं लोकक्खायिकं समुद्दक्खायिकं इतिभवाभवकथं इति वा।

५१. अद्दसा खो निग्रोधो परिब्बाजको सन्धानं गहपतिं दूरतोव आगच्छन्तं। दिस्वा सकं परिसं सण्ठापेसि – ‘‘अप्पसद्दा भोन्तो होन्तु, मा भोन्तो सद्दमकत्थ। अयं समणस्स गोतमस्स सावको आगच्छति सन्धानो गहपति। यावता खो पन समणस्स गोतमस्स सावका गिही ओदातवसना राजगहे पटिवसन्ति, अयं तेसं अञ्ञतरो सन्धानो गहपति। अप्पसद्दकामा खो पनेते आयस्मन्तो अप्पसद्दविनीता, अप्पसद्दस्स वण्णवादिनो। अप्पेव नाम अप्पसद्दं परिसं विदित्वा उपसङ्कमितब्बं मञ्ञेय्या’’ति। एवं वुत्ते ते परिब्बाजका तुण्ही अहेसुं।

५२. अथ खो सन्धानो गहपति येन निग्रोधो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा निग्रोधेन परिब्बाजकेन सद्धिं सम्मोदि। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो सन्धानो गहपति निग्रोधं परिब्बाजकं एतदवोच – ‘‘अञ्ञथा खो इमे भोन्तो अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका सङ्गम्म समागम्म उन्नादिनो उच्चासद्दमहासद्दा अनेकविहितं तिरच्छानकथं अनुयुत्ता विहरन्ति। सेय्यथिदं – राजकथं…पे॰… इतिभवाभवकथं इति वा। अञ्ञथा खो [च (सी॰ पी॰)] पन सो भगवा अरञ्ञवनपत्थानि पन्तानि सेनासनानि पटिसेवति अप्पसद्दानि अप्पनिग्घोसानि विजनवातानि मनुस्सराहस्सेय्यकानि पटिसल्लानसारुप्पानी’’ति।

५३. एवं वुत्ते निग्रोधो परिब्बाजको सन्धानं गहपतिं एतदवोच – ‘‘यग्घे गहपति, जानेय्यासि, केन समणो गोतमो सद्धिं सल्लपति, केन साकच्छं समापज्जति, केन पञ्ञावेय्यत्तियं समापज्जति? सुञ्ञागारहता समणस्स गोतमस्स पञ्ञा अपरिसावचरो समणो गोतमो नालं सल्लापाय। सो अन्तमन्तानेव सेवति [अन्तपन्तानेव (स्या॰)]। सेय्यथापि नाम गोकाणा परियन्तचारिनी अन्तमन्तानेव सेवति। एवमेव सुञ्ञागारहता समणस्स गोतमस्स पञ्ञा; अपरिसावचरो समणो गोतमो; नालं सल्लापाय। सो अन्तमन्तानेव सेवति। इङ्घ, गहपति, समणो गोतमो इमं परिसं आगच्छेय्य, एकपञ्हेनेव नं संसादेय्याम [संहरेय्याम (क॰)], तुच्छकुम्भीव नं मञ्ञे ओरोधेय्यामा’’ति।

५४. अस्सोसि खो भगवा दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय सन्धानस्स गहपतिस्स निग्रोधेन परिब्बाजकेन सद्धिं इमं कथासल्लापं। अथ खो भगवा गिज्झकूटा पब्बता ओरोहित्वा येन सुमागधाय तीरे मोरनिवापो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा सुमागधाय तीरे मोरनिवापे अब्भोकासे चङ्कमि। अद्दसा खो निग्रोधो परिब्बाजको भगवन्तं सुमागधाय तीरे मोरनिवापे अब्भोकासे चङ्कमन्तं। दिस्वान सकं परिसं सण्ठापेसि – ‘‘अप्पसद्दा भोन्तो होन्तु, मा भोन्तो सद्दमकत्थ, अयं समणो गोतमो सुमागधाय तीरे मोरनिवापे अब्भोकासे चङ्कमति। अप्पसद्दकामो खो पन सो आयस्मा, अप्पसद्दस्स वण्णवादी। अप्पेव नाम अप्पसद्दं परिसं विदित्वा उपसङ्कमितब्बं मञ्ञेय्य। सचे समणो गोतमो इमं परिसं आगच्छेय्य, इमं तं पञ्हं पुच्छेय्याम – ‘को नाम सो, भन्ते, भगवतो धम्मो, येन भगवा सावके विनेति, येन भगवता सावका विनीता अस्सासप्पत्ता पटिजानन्ति अज्झासयं आदिब्रह्मचरिय’न्ति? एवं वुत्ते ते परिब्बाजका तुण्ही अहेसुं।

तपोजिगुच्छावादो

५५. अथ खो भगवा येन निग्रोधो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमि। अथ खो निग्रोधो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘एतु खो, भन्ते, भगवा, स्वागतं, भन्ते, भगवतो। चिरस्सं खो, भन्ते, भगवा इमं परियायमकासि यदिदं इधागमनाय। निसीदतु, भन्ते, भगवा, इदमासनं पञ्ञत्त’’न्ति। निसीदि भगवा पञ्ञत्ते आसने। निग्रोधोपि खो परिब्बाजको अञ्ञतरं नीचासनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो निग्रोधं परिब्बाजकं भगवा एतदवोच – ‘‘काय नुत्थ, निग्रोध, एतरहि कथाय सन्निसिन्ना, का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता’’ति? एवं वुत्ते, निग्रोधो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच, ‘‘इध मयं, भन्ते, अद्दसाम भगवन्तं सुमागधाय तीरे मोरनिवापे अब्भोकासे चङ्कमन्तं, दिस्वान एवं अवोचुम्हा – ‘सचे समणो गोतमो इमं परिसं आगच्छेय्य, इमं तं पञ्हं पुच्छेय्याम – को नाम सो, भन्ते, भगवतो धम्मो, येन भगवा सावके विनेति, येन भगवता सावका विनीता अस्सासप्पत्ता पटिजानन्ति अज्झासयं आदिब्रह्मचरिय’न्ति? अयं खो नो, भन्ते, अन्तराकथा विप्पकता; अथ भगवा अनुप्पत्तो’’ति।

५६. ‘‘दुज्जानं खो एतं, निग्रोध, तया अञ्ञदिट्ठिकेन अञ्ञखन्तिकेन अञ्ञरुचिकेन अञ्ञत्रायोगेन अञ्ञत्राचरियकेन, येनाहं सावके विनेमि, येन मया सावका विनीता अस्सासप्पत्ता पटिजानन्ति अज्झासयं आदिब्रह्मचरियं। इङ्घ त्वं मं, निग्रोध, सके आचरियके अधिजेगुच्छे पञ्हं पुच्छ – ‘कथं सन्ता नु खो, भन्ते, तपोजिगुच्छा परिपुण्णा होति, कथं अपरिपुण्णा’ति? एवं वुत्ते ते परिब्बाजका उन्नादिनो उच्चासद्दमहासद्दा अहेसुं – ‘‘अच्छरियं वत भो, अब्भुतं वत भो, समणस्स गोतमस्स महिद्धिकता महानुभावता, यत्र हि नाम सकवादं ठपेस्सति, परवादेन पवारेस्सती’’ति।

५७. अथ खो निग्रोधो परिब्बाजको ते परिब्बाजके अप्पसद्दे कत्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘मयं खो, भन्ते, तपोजिगुच्छावादा [तरोजिगुच्छंसारोदा (क॰)] तपोजिगुच्छासारा तपोजिगुच्छाअल्लीना विहराम। कथं सन्ता नु खो, भन्ते, तपोजिगुच्छा परिपुण्णा होति, कथं अपरिपुण्णा’’ति?

‘‘इध, निग्रोध, तपस्सी अचेलको होति मुत्ताचारो, हत्थापलेखनो [हत्थावलेखनो (स्या॰)], न एहिभद्दन्तिको, न तिट्ठभद्दन्तिको, नाभिहटं, न उद्दिस्सकतं, न निमन्तनं सादियति, सो न कुम्भिमुखा पटिग्गण्हाति, न कळोपिमुखा पटिग्गण्हाति, न एळकमन्तरं, न दण्डमन्तरं, न मुसलमन्तरं, न द्विन्नं भुञ्जमानानं, न गब्भिनिया, न पायमानाय, न पुरिसन्तरगताय, न सङ्कित्तीसु, न यत्थ सा उपट्ठितो होति, न यत्थ मक्खिका सण्डसण्डचारिनी, न मच्छं, न मंसं, न सुरं, न मेरयं, न थुसोदकं पिवति, सो एकागारिको वा होति एकालोपिको, द्वागारिको वा होति द्वालोपिको, सत्तागारिको वा होति सत्तालोपिको, एकिस्सापि दत्तिया यापेति, द्वीहिपि दत्तीहि यापेति, सत्तहिपि दत्तीहि यापेति; एकाहिकम्पि आहारं आहारेति, द्वीहिकम्पि [द्वाहिकंपि (सी॰ स्या॰)] आहारं आहारेति, सत्ताहिकम्पि आहारं आहारेति, इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरति। सो साकभक्खो वा होति, सामाकभक्खो वा होति, नीवारभक्खो वा होति, दद्दुलभक्खो वा होति, हटभक्खो वा होति, कणभक्खो वा होति, आचामभक्खो वा होति, पिञ्ञाकभक्खो वा होति, तिणभक्खो वा होति, गोमयभक्खो वा होति; वनमूलफलाहारो यापेति पवत्तफलभोजी। सो साणानिपि धारेति, मसाणानिपि धारेति, छवदुस्सानिपि धारेति, पंसुकूलानिपि धारेति, तिरीटानिपि धारेति, अजिनम्पि धारेति, अजिनक्खिपम्पि धारेति, कुसचीरम्पि धारेति, वाकचीरम्पि धारेति, फलकचीरम्पि धारेति, केसकम्बलम्पि धारेति, वाळकम्बलम्पि धारेति, उलूकपक्खम्पि धारेति, केसमस्सुलोचकोपि होति केसमस्सुलोचनानुयोगमनुयुत्तो, उब्भट्ठकोपि [उभट्ठकोपि (स्या॰), उब्भट्ठिकोपि (क॰)] होति आसनपटिक्खित्तो, उक्कुटिकोपि होति उक्कुटिकप्पधानमनुयुत्तो, कण्टकापस्सयिकोपि होति कण्टकापस्सये सेय्यं कप्पेति, फलकसेय्यम्पि कप्पेति, थण्डिलसेय्यम्पि कप्पेति, एकपस्सयिकोपि होति रजोजल्लधरो, अब्भोकासिकोपि होति यथासन्थतिको, वेकटिकोपि होति विकटभोजनानुयोगमनुयुत्तो, अपानकोपि होति अपानकत्तमनुयुत्तो, सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरति। तं किं मञ्ञसि, निग्रोध, यदि एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिपुण्णा वा होति अपरिपुण्णा वा’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिपुण्णा होति, नो अपरिपुण्णा’’ति। ‘‘एवं परिपुण्णायपि खो अहं, निग्रोध, तपोजिगुच्छाय अनेकविहिते उपक्किलेसे वदामी’’ति।

उपक्किलेसो

५८. ‘‘यथा कथं पन, भन्ते, भगवा एवं परिपुण्णाय तपोजिगुच्छाय अनेकविहिते उपक्किलेसे वदती’’ति? ‘‘इध, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो। यम्पि, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो। अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा अत्तानुक्कंसेति परं वम्भेति। यम्पि, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा अत्तानुक्कंसेति परं वम्भेति। अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा मज्जति मुच्छति पमादमापज्जति [मदमापज्जति (स्या॰)]। यम्पि, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा मज्जति मुच्छति पमादमापज्जति। अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

५९. ‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो। यम्पि, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन अत्तमनो होति परिपुण्णसङ्कप्पो। अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन अत्तानुक्कंसेति परं वम्भेति। यम्पि, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन अत्तानुक्कंसेति परं वम्भेति। अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन मज्जति मुच्छति पमादमापज्जति। यम्पि, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन मज्जति मुच्छति पमादमापज्जति। अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

६०. ‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी भोजनेसु वोदासं आपज्जति – ‘इदं मे खमति, इदं मे नक्खमती’ति। सो यञ्च [यं हि (सी॰ पी॰)] ख्वस्स नक्खमति, तं सापेक्खो पजहति। यं पनस्स खमति, तं गधितो [गथितो (सी॰ पी॰)] मुच्छितो अज्झापन्नो अनादीनवदस्सावी अनिस्सरणपञ्ञो परिभुञ्जति…पे॰… अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति लाभसक्कारसिलोकनिकन्तिहेतु – ‘सक्करिस्सन्ति मं राजानो राजमहामत्ता खत्तिया ब्राह्मणा गहपतिका तित्थिया’ति…पे॰… अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

६१. ‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी अञ्ञतरं समणं वा ब्राह्मणं वा अपसादेता [अपसारेता (क॰)] होति – ‘किं पनायं सम्बहुलाजीवो [बहुलाजीवो (सी॰ पी॰)] सब्बं संभक्खेति। सेय्यथिदं – मूलबीजं खन्धबीजं फळुबीजं अग्गबीजं बीजबीजमेव पञ्चमं, असनिविचक्कं दन्तकूटं, समणप्पवादेना’ति…पे॰… अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी पस्सति अञ्ञतरं समणं वा ब्राह्मणं वा कुलेसु सक्करियमानं गरुकरियमानं मानियमानं पूजियमानं। दिस्वा तस्स एवं होति – ‘इमञ्हि नाम सम्बहुलाजीवं कुलेसु सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति। मं पन तपस्सिं लूखाजीविं कुलेसु न सक्करोन्ति न गरुं करोन्ति न मानेन्ति न पूजेन्ती’ति, इति सो इस्सामच्छरियं कुलेसु उप्पादेता होति…पे॰… अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

६२. ‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी आपाथकनिसादी होति…पे॰… अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी अत्तानं अदस्सयमानो कुलेसु चरति – ‘इदम्पि मे तपस्मिं इदम्पि मे तपस्मि’न्ति…पे॰… अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी किञ्चिदेव पटिच्छन्नं सेवति। सो ‘खमति ते इद’न्ति पुट्ठो समानो अक्खममानं आह – ‘खमती’ति। खममानं आह – ‘नक्खमती’ति। इति सो सम्पजानमुसा भासिता होति…पे॰… अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तथागतस्स वा तथागतसावकस्स वा धम्मं देसेन्तस्स सन्तंयेव परियायं अनुञ्ञेय्यं नानुजानाति…पे॰… अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

६३. ‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी कोधनो होति उपनाही। यम्पि, निग्रोध, तपस्सी कोधनो होति उपनाही। अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी मक्खी होति पळासी [पलासी (सी॰ स्या॰ पी॰)] …पे॰… इस्सुकी होति मच्छरी… सठो होति मायावी… थद्धो होति अतिमानी… पापिच्छो होति पापिकानं इच्छानं वसं गतो… मिच्छादिट्ठिको होति अन्तग्गाहिकाय दिट्ठिया समन्नागतो… सन्दिट्ठिपरामासी होति आधानग्गाही दुप्पटिनिस्सग्गी। यम्पि, निग्रोध, तपस्सी सन्दिट्ठिपरामासी होति आधानग्गाही दुप्पटिनिस्सग्गी। अयम्पि खो, निग्रोध, तपस्सिनो उपक्किलेसो होति।

‘‘तं किं मञ्ञसि, निग्रोध, यदिमे तपोजिगुच्छा [तपोजिगुच्छाय (?)] उपक्किलेसा वा अनुपक्किलेसा वा’’ति? ‘‘अद्धा खो इमे, भन्ते, तपोजिगुच्छा [तपोजिगुच्छाय (?)] उपक्किलेसा [उपक्किलेसा होति (क॰)], नो अनुपक्किलेसा। ठानं खो पनेतं, भन्ते, विज्जति यं इधेकच्चो तपस्सी सब्बेहेव इमेहि उपक्किलेसेहि समन्नागतो अस्स; को पन वादो अञ्ञतरञ्ञतरेना’’ति।

परिसुद्धपपटिकप्पत्तकथा

६४. ‘‘इध, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा न अत्तमनो होति न परिपुण्णसङ्कप्पो। यम्पि, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा न अत्तमनो होति न परिपुण्णसङ्कप्पो। एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा न अत्तानुक्कंसेति न परं वम्भेति…पे॰… एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा न मज्जति न मुच्छति न पमादमापज्जति…पे॰… एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

६५. ‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तमनो होति न परिपुण्णसङ्कप्पो…पे॰… एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न अत्तानुक्कंसेति न परं वम्भेति…पे॰… एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तपं समादियति, सो तेन तपसा लाभसक्कारसिलोकं अभिनिब्बत्तेति, सो तेन लाभसक्कारसिलोकेन न मज्जति न मुच्छति न पमादमापज्जति…पे॰… एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

६६. ‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी भोजनेसु न वोदासं आपज्जति – ‘इदं मे खमति, इदं मे नक्खमती’ति। सो यञ्च ख्वस्स नक्खमति, तं अनपेक्खो पजहति। यं पनस्स खमति, तं अगधितो अमुच्छितो अनज्झापन्नो आदीनवदस्सावी निस्सरणपञ्ञो परिभुञ्जति…पे॰… एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी न तपं समादियति लाभसक्कारसिलोकनिकन्तिहेतु – ‘सक्करिस्सन्ति मं राजानो राजमहामत्ता खत्तिया ब्राह्मणा गहपतिका तित्थिया’ति…पे॰… एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

६७. ‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी अञ्ञतरं समणं वा ब्राह्मणं वा नापसादेता होति – ‘किं पनायं सम्बहुलाजीवो सब्बं संभक्खेति। सेय्यथिदं – मूलबीजं खन्धबीजं फळुबीजं अग्गबीजं बीजबीजमेव पञ्चमं, असनिविचक्कं दन्तकूटं, समणप्पवादेना’ति…पे॰… एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी पस्सति अञ्ञतरं समणं वा ब्राह्मणं वा कुलेसु सक्करियमानं गरु करियमानं मानियमानं पूजियमानं। दिस्वा तस्स न एवं होति – ‘इमञ्हि नाम सम्बहुलाजीवं कुलेसु सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति। मं पन तपस्सिं लूखाजीविं कुलेसु न सक्करोन्ति न गरुं करोन्ति न मानेन्ति न पूजेन्ती’ति, इति सो इस्सामच्छरियं कुलेसु नुप्पादेता होति…पे॰… एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

६८. ‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी न आपाथकनिसादी होति…पे॰… एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी न अत्तानं अदस्सयमानो कुलेसु चरति – ‘इदम्पि मे तपस्मिं, इदम्पि मे तपस्मि’न्ति…पे॰… एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी न कञ्चिदेव पटिच्छन्नं सेवति, सो – ‘खमति ते इद’न्ति पुट्ठो समानो अक्खममानं आह – ‘नक्खमती’ति। खममानं आह – ‘खमती’ति। इति सो सम्पजानमुसा न भासिता होति…पे॰… एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी तथागतस्स वा तथागतसावकस्स वा धम्मं देसेन्तस्स सन्तंयेव परियायं अनुञ्ञेय्यं अनुजानाति…पे॰… एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

६९. ‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी अक्कोधनो होति अनुपनाही। यम्पि, निग्रोध, तपस्सी अक्कोधनो होति अनुपनाही एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

‘‘पुन चपरं, निग्रोध, तपस्सी अमक्खी होति अपळासी…पे॰… अनिस्सुकी होति अमच्छरी… असठो होति अमायावी… अत्थद्धो होति अनतिमानी… न पापिच्छो होति न पापिकानं इच्छानं वसं गतो… न मिच्छादिट्ठिको होति न अन्तग्गाहिकाय दिट्ठिया समन्नागतो… न सन्दिट्ठिपरामासी होति न आधानग्गाही सुप्पटिनिस्सग्गी। यम्पि, निग्रोध, तपस्सी न सन्दिट्ठिपरामासी होति न आधानग्गाही सुप्पटिनिस्सग्गी। एवं सो तस्मिं ठाने परिसुद्धो होति।

‘‘तं किं मञ्ञसि, निग्रोध, यदि एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा वा होति अपरिसुद्धा वा’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा होति नो अपरिसुद्धा, अग्गप्पत्ता च सारप्पत्ता चा’’ति। ‘‘न खो, निग्रोध, एत्तावता तपोजिगुच्छा अग्गप्पत्ता च होति सारप्पत्ता च; अपि च खो पपटिकप्पत्ता [पप्पटिकपत्ता (क॰)] होती’’ति।

परिसुद्धतचप्पत्तकथा

७०. ‘‘कित्तावता पन, भन्ते, तपोजिगुच्छा अग्गप्पत्ता च होति सारप्पत्ता च? साधु मे, भन्ते, भगवा तपोजिगुच्छाय अग्गञ्ञेव पापेतु, सारञ्ञेव पापेतू’’ति। ‘‘इध, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति। कथञ्च, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति? इध, निग्रोध, तपस्सी न पाणं अतिपातेति [अतिपापेति (क॰ सी॰ पी॰ क॰)], न पाणं अतिपातयति, न पाणमतिपातयतो समनुञ्ञो होति। न अदिन्नं आदियति, न अदिन्नं आदियापेति, न अदिन्नं आदियतो समनुञ्ञो होति। न मुसा भणति, न मुसा भणापेति, न मुसा भणतो समनुञ्ञो होति। न भावितमासीसति [न भावितमासिं सति (सी॰ स्या॰ पी॰)], न भावितमासीसापेति, न भावितमासीसतो समनुञ्ञो होति। एवं खो, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति।

‘‘यतो खो, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति, अदुं चस्स होति तपस्सिताय। सो अभिहरति नो हीनायावत्तति। सो विवित्तं सेनासनं भजति अरञ्ञं रुक्खमूलं पब्बतं कन्दरं गिरिगुहं सुसानं वनपत्थं अब्भोकासं पलालपुञ्जं। सो पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो निसीदति पल्लङ्कं आभुजित्वा उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा। सो अभिज्झं लोके पहाय विगताभिज्झेन चेतसा विहरति, अभिज्झाय चित्तं परिसोधेति। ब्यापादप्पदोसं पहाय अब्यापन्नचित्तो विहरति सब्बपाणभूतहितानुकम्पी, ब्यापादप्पदोसा चित्तं परिसोधेति। थिनमिद्धं [थीनमिद्धं (सी॰ स्या॰ पी॰)] पहाय विगतथिनमिद्धो विहरति आलोकसञ्ञी सतो सम्पजानो, थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति। उद्धच्चकुक्कुच्चं पहाय अनुद्धतो विहरति अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो, उद्धच्चकुक्कुच्चा चित्तं परिसोधेति। विचिकिच्छं पहाय तिण्णविचिकिच्छो विहरति अकथंकथी कुसलेसु धम्मेसु, विचिकिच्छाय चित्तं परिसोधेति।

७१. ‘‘सो इमे पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति। तथा दुतियं। तथा ततियं। तथा चतुत्थं। इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति। करुणासहगतेन चेतसा…पे॰… मुदितासहगतेन चेतसा…पे॰… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति। तथा दुतियं। तथा ततियं। तथा चतुत्थं। इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति।

‘‘तं किं मञ्ञसि, निग्रोध। यदि एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा वा होति अपरिसुद्धा वा’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा होति नो अपरिसुद्धा, अग्गप्पत्ता च सारप्पत्ता चा’’ति। ‘‘न खो, निग्रोध, एत्तावता तपोजिगुच्छा अग्गप्पत्ता च होति सारप्पत्ता च; अपि च खो तचप्पत्ता होती’’ति।

परिसुद्धफेग्गुप्पत्तकथा

७२. ‘‘कित्तावता पन, भन्ते, तपोजिगुच्छा अग्गप्पत्ता च होति सारप्पत्ता च? साधु मे, भन्ते, भगवा तपोजिगुच्छाय अग्गञ्ञेव पापेतु, सारञ्ञेव पापेतू’’ति। ‘‘इध, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति। कथञ्च, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति…पे॰… यतो खो, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति, अदुं चस्स होति तपस्सिताय। सो अभिहरति नो हीनायावत्तति। सो विवित्तं सेनासनं भजति…पे॰… सो इमे पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे मेत्तासहगतेन चेतसा…पे॰… करुणासहगतेन चेतसा…पे॰… मुदितासहगतेन चेतसा…पे॰… उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति। सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्ञासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकेपि संवट्टकप्पे अनेकेपि विवट्टकप्पे अनेकेपि संवट्टविवट्टकप्पे – ‘अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं, तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो’ति। इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति।

‘‘तं किं मञ्ञसि, निग्रोध, यदि एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा वा होति अपरिसुद्धा वा’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा होति, नो अपरिसुद्धा, अग्गप्पत्ता च सारप्पत्ता चा’’ति। ‘‘न खो, निग्रोध, एत्तावता तपोजिगुच्छा अग्गप्पत्ता च होति सारप्पत्ता च; अपि च खो फेग्गुप्पत्ता होती’’ति।

परिसुद्धअग्गप्पत्तसारप्पत्तकथा

७३. ‘‘कित्तावता पन, भन्ते, तपोजिगुच्छा अग्गप्पत्ता च होति सारप्पत्ता च? साधु मे, भन्ते, भगवा तपोजिगुच्छाय अग्गञ्ञेव पापेतु, सारञ्ञेव पापेतू’’ति। ‘‘इध, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति। कथञ्च, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति…पे॰… यतो खो, निग्रोध, तपस्सी चातुयामसंवरसंवुतो होति, अदुं चस्स होति तपस्सिताय। सो अभिहरति नो हीनायावत्तति। सो विवित्तं सेनासनं भजति…पे॰… सो इमे पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे मेत्तासहगतेन चेतसा…पे॰… उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति। सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो…पे॰… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते, यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति – ‘इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्चरितेन समन्नागता वचीदुच्चरितेन समन्नागता मनोदुच्चरितेन समन्नागता अरियानं उपवादका मिच्छादिट्ठिका मिच्छादिट्ठिकम्मसमादाना। ते कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्ना। इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्नागता वचीसुचरितेन समन्नागता मनोसुचरितेन समन्नागता अरियानं अनुपवादका सम्मादिट्ठिका सम्मादिट्ठिकम्मसमादाना। ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना’ति। इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते, यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति।

‘‘तं किं मञ्ञसि, निग्रोध, यदि एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा वा होति अपरिसुद्धा वा’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तपोजिगुच्छा परिसुद्धा होति नो अपरिसुद्धा, अग्गप्पत्ता च सारप्पत्ता चा’’ति।

७४. ‘‘एत्तावता खो, निग्रोध, तपोजिगुच्छा अग्गप्पत्ता च होति सारप्पत्ता च। इति खो, निग्रोध [इति निग्रोध (स्या॰)], यं मं त्वं अवचासि – ‘को नाम सो, भन्ते, भगवतो धम्मो, येन भगवा सावके विनेति, येन भगवता सावका विनीता अस्सासप्पत्ता पटिजानन्ति अज्झासयं आदिब्रह्मचरिय’न्ति। इति खो तं, निग्रोध, ठानं उत्तरितरञ्च पणीततरञ्च, येनाहं सावके विनेमि, येन मया सावका विनीता अस्सासप्पत्ता पटिजानन्ति अज्झासयं आदिब्रह्मचरिय’’न्ति।

एवं वुत्ते, ते परिब्बाजका उन्नादिनो उच्चासद्दमहासद्दा अहेसुं – ‘‘एत्थ मयं अनस्साम साचरियका, न मयं इतो भिय्यो उत्तरितरं पजानामा’’ति।

निग्रोधस्स पज्झायनं

७५. यदा अञ्ञासि सन्धानो गहपति – ‘‘अञ्ञदत्थु खो दानिमे अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका भगवतो भासितं सुस्सूसन्ति, सोतं ओदहन्ति, अञ्ञाचित्तं उपट्ठापेन्ती’’ति। अथ [अथ नं (क॰)] निग्रोधं परिब्बाजकं एतदवोच – ‘‘इति खो, भन्ते निग्रोध, यं मं त्वं अवचासि – ‘यग्घे, गहपति, जानेय्यासि, केन समणो गोतमो सद्धिं सल्लपति, केन साकच्छं समापज्जति, केन पञ्ञावेय्यत्तियं समापज्जति, सुञ्ञागारहता समणस्स गोतमस्स पञ्ञा, अपरिसावचरो समणो गोतमो नालं सल्लापाय, सो अन्तमन्तानेव सेवति; सेय्यथापि नाम गोकाणा परियन्तचारिनी अन्तमन्तानेव सेवति। एवमेव सुञ्ञागारहता समणस्स गोतमस्स पञ्ञा, अपरिसावचरो समणो गोतमो नालं सल्लापाय; सो अन्तमन्तानेव सेवति; इङ्घ, गहपति, समणो गोतमो इमं परिसं आगच्छेय्य, एकपञ्हेनेव नं संसादेय्याम, तुच्छकुम्भीव नं मञ्ञे ओरोधेय्यामा’ति। अयं खो सो, भन्ते, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो इधानुप्पत्तो, अपरिसावचरं पन नं करोथ, गोकाणं परियन्तचारिनिं करोथ, एकपञ्हेनेव नं संसादेथ, तुच्छकुम्भीव नं ओरोधेथा’’ति। एवं वुत्ते, निग्रोधो परिब्बाजको तुण्हीभूतो मङ्कुभूतो पत्तक्खन्धो अधोमुखो पज्झायन्तो अप्पटिभानो निसीदि।

७६. अथ खो भगवा निग्रोधं परिब्बाजकं तुण्हीभूतं मङ्कुभूतं पत्तक्खन्धं अधोमुखं पज्झायन्तं अप्पटिभानं विदित्वा निग्रोधं परिब्बाजकं एतदवोच – ‘‘सच्चं किर, निग्रोध, भासिता ते एसा वाचा’’ति? ‘‘सच्चं, भन्ते, भासिता मे एसा वाचा, यथाबालेन यथामूळ्हेन यथाअकुसलेना’’ति। ‘‘तं किं मञ्ञसि, निग्रोध। किन्ति ते सुतं परिब्बाजकानं वुड्ढानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं – ‘ये ते अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, एवं सु ते भगवन्तो संगम्म समागम्म उन्नादिनो उच्चासद्दमहासद्दा अनेकविहितं तिरच्छानकथं अनुयुत्ता विहरन्ति। सेय्यथिदं – राजकथं चोरकथं…पे॰… इतिभवाभवकथं इति वा। सेय्यथापि त्वं एतरहि साचरियको। उदाहु, एवं सु ते भगवन्तो अरञ्ञवनपत्थानि पन्तानि सेनासनानि पटिसेवन्ति अप्पसद्दानि अप्पनिग्घोसानि विजनवातानि मनुस्सराहस्सेय्यकानि पटिसल्लानसारुप्पानि, सेय्यथापाहं एतरही’ति।

‘‘सुतं मेतं, भन्ते। परिब्बाजकानं वुड्ढानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं – ‘ये ते अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, न एवं सु [नास्सु (सी॰ पी॰)] ते भगवन्तो संगम्म समागम्म उन्नादिनो उच्चासद्दमहासद्दा अनेकविहितं तिरच्छानकथं अनुयुत्ता विहरन्ति। सेय्यथिदं – राजकथं चोरकथं…पे॰… इतिभवाभवकथं इति वा, सेय्यथापाहं एतरहि साचरियको। एवं सु ते भगवन्तो अरञ्ञवनपत्थानि पन्तानि सेनासनानि पटिसेवन्ति अप्पसद्दानि अप्पनिग्घोसानि विजनवातानि मनुस्सराहस्सेय्यकानि पटिसल्लानसारुप्पानि, सेय्यथापि भगवा एतरही’’’ति।

‘‘तस्स ते, निग्रोध, विञ्ञुस्स सतो महल्लकस्स न एतदहोसि – ‘बुद्धो सो भगवा बोधाय धम्मं देसेति, दन्तो सो भगवा दमथाय धम्मं देसेति, सन्तो सो भगवा समथाय धम्मं देसेति, तिण्णो सो भगवा तरणाय धम्मं देसेति, परिनिब्बुतो सो भगवा परिनिब्बानाय धम्मं देसेती’’’ति?

ब्रह्मचरियपरियोसानसच्छिकिरिया

७७. एवं वुत्ते, निग्रोधो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्चयो मं, भन्ते, अच्चगमा यथाबालं यथामूळ्हं यथाअकुसलं, य्वाहं एवं भगवन्तं अवचासिं। तस्स मे, भन्ते, भगवा अच्चयं अच्चयतो पटिग्गण्हातु आयतिं संवराया’’ति। ‘‘तग्घ त्वं [तं (सी॰ स्या॰ पी॰)], निग्रोध, अच्चयो अच्चगमा यथाबालं यथामूळ्हं यथाअकुसलं, यो मं त्वं एवं अवचासि। यतो च खो त्वं, निग्रोध, अच्चयं अच्चयतो दिस्वा यथाधम्मं पटिकरोसि, तं ते मयं पटिग्गण्हाम। वुद्धि हेसा, निग्रोध, अरियस्स विनये, यो अच्चयं अच्चयतो दिस्वा यथाधम्मं पटिकरोति आयतिं संवरं आपज्जति। अहं खो पन, निग्रोध, एवं वदामि –

‘एतु विञ्ञू पुरिसो असठो अमायावी उजुजातिको, अहमनुसासामि अहं धम्मं देसेमि। यथानुसिट्ठं तथा [यथानुसिट्ठं (?)] पटिपज्जमानो, यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति, तदनुत्तरं ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति सत्तवस्सानि। तिट्ठन्तु, निग्रोध, सत्त वस्सानि। एतु विञ्ञू पुरिसो असठो अमायावी उजुजातिको, अहमनुसासामि अहं धम्मं देसेमि। यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमानो, यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति, तदनुत्तरं ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति छ वस्सानि। पञ्च वस्सानि… चत्तारि वस्सानि… तीणि वस्सानि… द्वे वस्सानि… एकं वस्सं। तिट्ठतु, निग्रोध, एकं वस्सं। एतु विञ्ञू पुरिसो असठो अमायावी उजुजातिको अहमनुसासामि अहं धम्मं देसेमि। यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमानो, यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति, तदनुत्तरं ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति सत्त मासानि। तिट्ठन्तु, निग्रोध, सत्त मासानि… छ मासानि… पञ्च मासानि … चत्तारि मासानि… तीणि मासानि… द्वे मासानि… एकं मासं… अड्ढमासं। तिट्ठतु, निग्रोध, अड्ढमासो। एतु विञ्ञू पुरिसो असठो अमायावी उजुजातिको, अहमनुसासामि अहं धम्मं देसेमि। यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमानो, यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति, तदनुत्तरं ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति सत्ताहं’।

परिब्बाजकानं पज्झायनं

७८. ‘‘सिया खो पन ते, निग्रोध, एवमस्स – ‘अन्तेवासिकम्यता नो समणो गोतमो एवमाहा’ति। न खो पनेतं, निग्रोध, एवं दट्ठब्बं। यो एव वो [ते (सी॰ स्या॰)] आचरियो, सो एव वो आचरियो होतु। सिया खो पन ते, निग्रोध, एवमस्स – ‘उद्देसा नो चावेतुकामो समणो गोतमो एवमाहा’ति। न खो पनेतं, निग्रोध, एवं दट्ठब्बं। यो एव वो उद्देसो सो एव वो उद्देसो होतु। सिया खो पन ते, निग्रोध, एवमस्स – ‘आजीवा नो चावेतुकामो समणो गोतमो एवमाहा’ति। न खो पनेतं, निग्रोध, एवं दट्ठब्बं। यो एव वो आजीवो, सो एव वो आजीवो होतु। सिया खो पन ते, निग्रोध, एवमस्स – ‘ये नो धम्मा अकुसला अकुसलसङ्खाता साचरियकानं, तेसु पतिट्ठापेतुकामो समणो गोतमो एवमाहा’ति। न खो पनेतं, निग्रोध, एवं दट्ठब्बं। अकुसला चेव वो ते धम्मा [वोधम्मा (क॰), ते धम्मा (स्या॰)] होन्तु अकुसलसङ्खाता च साचरियकानं। सिया खो पन ते, निग्रोध, एवमस्स – ‘ये नो धम्मा कुसला कुसलसङ्खाता साचरियकानं, तेहि विवेचेतुकामो समणो गोतमो एवमाहा’ति। न खो पनेतं, निग्रोध, एवं दट्ठब्बं। कुसला चेव वो ते धम्मा होन्तु कुसलसङ्खाता च साचरियकानं। इति ख्वाहं, निग्रोध, नेव अन्तेवासिकम्यता एवं वदामि, नपि उद्देसा चावेतुकामो एवं वदामि, नपि आजीवा चावेतुकामो एवं वदामि, नपि ये वो धम्मा [नपि ये खो धम्मा (सी॰), नपि ये ते धम्मा (स्या॰), नपि ये च वो धम्मा (क॰)] अकुसला अकुसलसङ्खाता साचरियकानं, तेसु पतिट्ठापेतुकामो एवं वदामि, नपि ये वो धम्मा [नपि ये खो धम्मा (सी॰), नपि ये ते धम्मा (स्या॰), नपि ये च वो धम्मा (क॰)] कुसला कुसलसङ्खाता साचरियकानं, तेहि विवेचेतुकामो एवं वदामि। सन्ति च खो, निग्रोध, अकुसला धम्मा अप्पहीना संकिलेसिका पोनोब्भविका [पोनोभविका (क॰)] सदरा [सद्दरा (पी॰ क॰), सदरथा (स्या॰ क॰)] दुक्खविपाका आयतिं जातिजरामरणिया, येसाहं पहानाय धम्मं देसेमि। यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानीया धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’’ति।

७९. एवं वुत्ते, ते परिब्बाजका तुण्हीभूता मङ्कुभूता पत्तक्खन्धा अधोमुखा पज्झायन्ता अप्पटिभाना निसीदिंसु यथा तं मारेन परियुट्ठितचित्ता। अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘सब्बे पिमे मोघपुरिसा फुट्ठा पापिमता। यत्र हि नाम एकस्सपि न एवं भविस्सति – ‘हन्द मयं अञ्ञाणत्थम्पि समणे गोतमे ब्रह्मचरियं चराम, किं करिस्सति सत्ताहो’’’ति? अथ खो भगवा उदुम्बरिकाय परिब्बाजकारामे सीहनादं नदित्वा वेहासं अब्भुग्गन्त्वा गिज्झकूटे पब्बते पच्चुपट्ठासि [पच्चुट्ठासि (सी॰ स्या॰ पी॰)]। सन्धानो पन गहपति तावदेव राजगहं पाविसीति।

उदुम्बरिकसुत्तं निट्ठितं दुतियं।