पिछली सदी में समाज के उत्थान के लिए लोकतांत्रिक राजनीति और तकनीकी उन्नति को महत्वपूर्ण माना जाता था। उनसे ही मानव आयु, वर्ण, सुख, भोग, और बल बढ़ाने की आशा रखी जाती थी। लेकिन पिछले दशक में विश्वभर के “लोकतांत्रिक और तकनीकी” नेताओं ने ही उग्र राष्ट्रवाद और तानाशाही का एक विकृत चेहरा प्रस्तुत किया। ऊपर से वैश्विक उष्णता के मारे तेजी से बदलती परिस्थितियों ने पिछले सभी समीकरण तोड़ दिए हैं। अब पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी लोग संभ्रमित और हताश हैं। वे असहाय और दिशाहीन महसूस करते हुए, इतिहास के पन्ने पलट-पलटकर, “नई विश्व व्यवस्था” का नया आधार खोज रहे हैं। लेकिन, उथल-पुथल होती दुनिया में उन्हें उम्मीद की किरण दिखना कठिन हो गया है।
ऐसी सदी में, भगवान का यह अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व का उपदेश, ऐसी राहत लेकर आता है, जो अमृत से कम महसूस नहीं होती। भगवान इस सूत्र में मानव समाज के गति-विज्ञान को उजागर करते है। इसमें लोकतांत्रिक और तकनीकी उन्नति के विपरीत कुछ भिन्न घटक हैं, जो मानव समाज के आयु, वर्ण, सुख, भोग और बल को प्रभावित करते हैं। भगवान के अनुसार, मानव पतन की शुरुवात, प्रशासन में बैठे ऊपर के लोगों से और उनके मूर्ख निर्णयों से जरूर होती है। लेकिन मानव अस्तित्व बचना और उसका पुनरुत्थान होना, नीचे के आप और मेरे जैसे व्यक्तिगत लोगों से होता है।
कुशल कर्म केवल बौद्ध शिक्षापद नहीं, बल्कि समाज के स्वास्थ्य का सूचक है। हमारे कर्म हमारे स्वयं के भविष्य के साथ-ही-साथ, इस दुनिया का भविष्य भी निर्धारित करते हैं। लोगों के द्वारा “कुशल" कर्मों का धारण किया जाना सुनिश्चित करता है कि मानव-समाज की वृद्धि होगी, अथवा पतन? हमारे कुशल कर्म ही मानव अस्तित्व के बचे रहने और समाज के सुचारु रूप से चलते रहने की अनिवार्यता है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान मगध के मातुला में विहार कर रहे थे।वहाँ भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं!”
“भदन्त!” कहकर भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया।
भगवान ने कहा, “भिक्षुओं, स्वयं अपना द्वीप [या दीपक] बनो! स्वयं अपनी शरण बनो! अन्य शरण न हो! धर्म को अपना द्वीप बनाओं! धर्म को अपनी शरण बनाओ! अन्य शरण न हो! और, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु स्वयं अपना द्वीप बने, स्वयं अपनी शरण बने, अन्य शरण न हो, धर्म को अपना द्वीप बनाए, धर्म को अपनी शरण बनाए, अन्य शरण न हो?
यहाँ कोई भिक्षु, भिक्षुओं, दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, काया को काया देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। वह दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। वह दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, चित्त को चित्त देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। वह दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु स्वयं अपना द्वीप बनता है, स्वयं अपनी शरण बनता है, अन्य शरण नहीं बनाता, धर्म को अपना द्वीप बनाता है, धर्म को अपनी शरण बनाता है, अन्य शरण नहीं बनाता है।
भिक्षुओं, तुम्हें अपने ही पैतृक [=विरासत में मिले] परिसर के भीतर टहलना चाहिए। यदि तुम अपने ही पैतृक परिसर के भीतर टहलते हो, तो मार को अवसर नहीं मिलेगा, पकड़ने का आधार नहीं मिलेगा। भिक्षुओं, कुशल स्वभावों के स्त्रोत से ही पुण्य बढ़ता है।”
“बहुत पहले, भिक्षुओं, दळ्हनेमि [=दृढ़ नेमी] नामक राजा हुआ था, जो चक्रवर्ती, धार्मिक, धर्मराज, चार-दिशाओं का विजेता, दूर-दराज के इलाकों तक स्थिर शासन, और सप्त रत्नों से सम्पन्न था। उसके लिए सात रत्न प्रकट हुए थे — चक्ररत्न, हाथीरत्न, अश्वरत्न, मणिरत्न, स्त्रीरत्न, गृहस्थरत्न, और सातवाँ, सेनापतिरत्न। उसे एक हजार से अधिक पुत्र थे — सभी शूर, वीर, शत्रुओं की सेना की धज्जियाँ उड़ाने वाले। और उसने समुद्र तक भूमि पर, बिना दण्ड और शस्त्र के, केवल धर्म से जीत कर शासन किया।
तब, भिक्षुओं, उस राजा दळ्हनेमि ने कई वर्ष बीतने के बाद, कई सैकड़ों वर्ष बीतने के बाद, कई हजार वर्ष बीतने के बाद, किसी पुरुष को संबोधित किया, “सुनो, पुरुष, जब तुम दिव्य चक्ररत्न को अपने स्थान से खिसक कर च्युत हुए देखो, तो मुझे आकर सूचित करना।”
“ठीक है, महाराज!” उस पुरुष ने राजा दळ्हनेमि को उत्तर दिया। तब, कई वर्ष बीतने के बाद, कई सैकड़ों वर्ष बीतने के बाद, कई हजार वर्ष बीतने के बाद, उस पुरुष ने दिव्य चक्ररत्न को अपने स्थान से खिसक कर च्युत हुए देखा। देखकर, वह राजा दळ्हनेमि के पास गया और कहा, “महाराज जान ले कि दिव्य चक्ररत्न अपने स्थान से खिसक कर च्युत हो गया है।”
तब, भिक्षुओं, राजा दळ्हनेमि ने अपने ज्येष्ठ राजकुमार को आमंत्रित किया और कहा, “प्रिय राजकुमार, दिव्य चक्ररत्न अपने स्थान से खिसक कर च्युत हो गया है। ऐसा मैंने सुना है कि जब दिव्य चक्ररत्न अपने स्थान से खिसक कर च्युत हो जाता है, तब वह राजा अधिक समय तक जीवित नहीं रहता। मैंने मानवीय कामभोग को लुत्फ उठाया है। अब समय आ गया है दिव्य कामभोग का लुत्फ उठाने का। आओ, प्रिय राजकुमार, समुद्रा तक इस पृथ्वी पर राजशासन करो। अब मैं केश-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय-वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करूँगा।”
और, तब भिक्षुओं, राजा दळ्हनेमि ने अपने ज्येष्ठ राजकुमार को अच्छे से राजत्व में अनुशासित कर केश-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय-वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण किया। और संन्यास का एक सप्ताह बीतने पर, भिक्षुओं, राजश्री दिव्य चक्ररत्न विलुप्त हो गया। तब, कोई पुरुष उस राजतिलक किए क्षत्रिय राजा के पास गया, और कहा, “महाराज जान ले कि दिव्य चक्ररत्न विलुप्त हो गया है।”
तब, भिक्षुओं, वह राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा अप्रसन्न हुआ, और उसने हताशा महसूस की। तब वह राजर्षि के पास गया, और कहा, “[ऋषि] महाराज जान ले कि दिव्य चक्ररत्न विलुप्त हो गया है।”
जब ऐसा कहा गया, भिक्षुओं, तो राजर्षि ने उस राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा को कहा, “दिव्य चक्ररत्न के विलुप्त होने पर अप्रसन्न मत हो जाओ, प्रिय, हताशा महसूस मत करो। वह दिव्य चक्ररत्न तुम्हें पैतृक विरासत में नहीं मिला था। सुनो, प्रिय, आर्य चक्रवर्ती व्रत का पालन करो। संभव है कि यदि तुम ‘आर्य चक्रवर्ती व्रत’ का पालन करोगे, तो पूर्णिमा उपोसथ के दिन सिर धोकर महल के ऊपरी उपोसथ-कक्ष में जाने पर वहाँ दिव्य चक्ररत्न प्रादुर्भुत हो — हजार तीली के साथ, नेमी के साथ, नाभी के साथ, अपने सम्पूर्ण आकार की परिपूर्णता के साथ!”
“किन्तु, महाराज, ये ‘आर्य चक्रवर्ती व्रत’ होता क्या है?”
“ऐसा करो, प्रिय, धर्म मात्र का निश्रय [=आधार] लेकर — धर्म का सत्कार करते हुए, धर्म का सम्मान करते हुए, धर्म को मानते हुए, धर्म को पूजते हुए, धर्म पर आस्था रखते हुए, धर्म-ध्वज, धर्म-पताका, धर्माधिपति होकर — अपने राज-दरबारियों, सैनिकों, क्षत्रियों, जागीरदारों, ब्राह्मणों, गृहस्थों, दूर-दराज के देहातियों, श्रमण-ब्राह्मणों, पशु-पक्षियों को धर्मानुसार बचाव, सुरक्षा और आरक्षण दो। और, प्रिय, राज्य में किसी अधर्मकारी को जीतने मत दो। राज्य में जो निर्धन हो, उन्हें धन दो।
और, प्रिय, राज्य में जो श्रमण और ब्राह्मण मदहोशी और लापरवाही से विरत हो, क्षांति [=धैर्य, क्षमाशील, सहनशील] और विनम्रता में स्थिर हो, जिन्होने स्वयं को बिलकुल काबू में कर लिया हो, बिलकुल शान्त कर दिया हो, बिलकुल बुझा दिया हो, उनके पास समय-समय पर जाकर पूछकर ग्रहण करना चाहिये — ‘भन्ते! क्या कुशल होता है? क्या अकुशल होता है? क्या दोषपूर्ण होता है? क्या निर्दोष होता है? क्या [स्वभाव] विकसित करना चाहिए? क्या विकसित नहीं करना चाहिए? किस तरह के कर्म मुझे दीर्घकालीन अहित और दुःख की ओर ले जाएँगे? और किस तरह के कर्म मुझे दीर्घकालीन हित और सुख की ओर ले जाएँगे?’
उन्हें सुनकर अकुशल का त्याग करना चाहिए और कुशल को धारण कर उसका पालन करना चाहिए। यही, प्रिय, आर्य चक्रवर्ती व्रत होते हैं।”
“ठीक है, महाराज!” राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा ने राजर्षि को उत्तर दिया, और आर्य चक्रवर्ती व्रतों का पालन करने लगा। और, वह आर्य चक्रवर्ती व्रतों का पालन करते हुए पूर्णिमा उपोसथ के दिन सिर धोकर महल के ऊपरी उपोसथ-कक्ष में गया। तब, वहाँ दिव्य चक्ररत्न प्रादुर्भुत हुआ — हजार तीली के साथ, नेमी के साथ, नाभी के साथ, अपने सम्पूर्ण आकार की परिपूर्णता के साथ!
उसे देखकर राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा को लगा, “मैने यह सुना है कि जब कोई क्षत्रिय राजा, राजतिलक हुआ नरेश, पूर्णिमा उपोसथ के दिन सिर धोकर महल के ऊपरी उपोसथकक्ष में जाए, और यदि वहाँ दिव्य चक्ररत्न प्रादुर्भुत हो — हजार तीली के साथ, नेमी के साथ, नाभी के साथ, अपने सम्पूर्ण आकार की परिपूर्णता के साथ — तब वह राजा ‘चक्रवर्ती सम्राट’ बनता है। तब, क्या मैं चक्रवर्ती सम्राट बनूँगा?”
तब राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा ने आसन से उठकर, बाए हाथ में जलपात्र ले, दाएँ हाथ से उस चक्ररत्न पर जल छिड़कते हुए कहा, “प्रवर्तन करो, श्री चक्ररत्न! सर्वविजयी हो, श्री चक्ररत्न!”
तब वह चक्ररत्न प्रवर्तित होते पूर्व-दिशा में आगे बढ़ने लगा। और चक्रवर्ती सम्राट ने अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उसका पीछा किया। वह चक्ररत्न जिस प्रदेश में थम गया, वहाँ चक्रवर्ती सम्राट ने अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ आवास लिया। तब पूर्व-दिशा के विरोधी राजाओं ने आकर चक्रवर्ती सम्राट को कहा, “आईयें, महाराज! स्वागत है, महाराज! आज्ञा करें, महाराज! आदेश दें, महाराज!”
चक्रवर्ती सम्राट ने कहा, “जीवहत्या ना करें! चोरी ना करें! व्यभिचार ना करें! झूठ ना बोलें! मद्य ना पिएँ! [इसके अलावा] जो खाते हैं, वो खाएँ!” तब पूर्व-दिशा के विरोधी राजाओं ने चक्रवर्ती सम्राट के आगे समर्पण किया।
इस तरह, चक्ररत्न आगे बढ़ते हुए पूर्वी-महासमुद्र में डुबकी लगाकर पुनः उबरा, और प्रवर्तित होते दक्षिण-दिशा में आगे बढ़ने लगा। और चक्रवर्ती सम्राट ने अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उसका पीछा किया… तब दक्षिण-दिशा के विरोधी राजाओं ने चक्रवर्ती सम्राट के आगे समर्पण किया। तब चक्ररत्न आगे बढ़ते हुए दक्षिण महासमुद्र में डुबकी लगाकर पुनः उबरा, और प्रवर्तित होते पश्चिम-दिशा में आगे बढ़ने लगा। और चक्रवर्ती सम्राट ने अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उसका पीछा किया… तब पश्चिम-दिशा के विरोधी राजाओं ने चक्रवर्ती सम्राट के आगे समर्पण किया। तब चक्ररत्न आगे बढ़ते हुए पश्चिम महासमुद्र में डुबकी लगाकर पुनः उबरा, और प्रवर्तित होते उत्तर-दिशा में आगे बढ़ने लगा। और चक्रवर्ती सम्राट ने अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उसका पीछा किया। वह चक्ररत्न जिस प्रदेश में थम गया, वहाँ चक्रवर्ती सम्राट ने अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ आवास लिया। तब उत्तर-दिशा के विरोधी राजाओं ने आकर चक्रवर्ती सम्राट को कहा, “आईयें, महाराज! स्वागत है, महाराज! आज्ञा करें, महाराज! आदेश दें, महाराज!”
चक्रवर्ती सम्राट ने कहा, “जीवहत्या ना करें! चोरी ना करें! व्यभिचार ना करें! झूठ ना बोलें! मद्य ना पिएँ! जो खाते हैं, वो खाएँ!” तब उत्तर-दिशा के विरोधी राजाओं ने चक्रवर्ती सम्राट के आगे समर्पण किया।
और, तब चक्ररत्न पृथ्वी पर महासमुद्रों तक सर्वविजयी होकर कुशावती राजधानी लौट आया, और चक्रवर्ती सम्राट के राजमहल अंतःपुर द्वार के ऊपर अक्ष लगाकर थम गया, जैसे अंतःपुर द्वार की शोभा बढ़ा रहा हो।”
फिर दूसरी बार, भिक्षुओं, चक्रवर्ती सम्राट…
फिर तीसरी बार, भिक्षुओं, चक्रवर्ती सम्राट…
फिर चौथी बार, भिक्षुओं, चक्रवर्ती सम्राट…
फिर पाँचवी बार, भिक्षुओं, चक्रवर्ती सम्राट…
फिर छठी बार, भिक्षुओं, चक्रवर्ती सम्राट…
और फिर, सातवी बार, भिक्षुओं, चक्रवर्ती सम्राट ने कई वर्ष बीतने के बाद, कई सैकड़ों वर्ष बीतने के बाद, कई हजार वर्ष बीतने के बाद, किसी पुरुष को संबोधित किया, “सुनो, पुरुष, जब तुम दिव्य चक्ररत्न को अपने स्थान से खिसक कर च्युत हुए देखो, तो मुझे आकर सूचित करना।”
“ठीक है, महाराज!” उस पुरुष ने चक्रवर्ती सम्राट को उत्तर दिया। तब, कई वर्ष बीतने के बाद, कई सैकड़ों वर्ष बीतने के बाद, कई हजार वर्ष बीतने के बाद, उस पुरुष ने दिव्य चक्ररत्न को अपने स्थान से खिसक कर च्युत हुए देखा। देखकर, वह चक्रवर्ती सम्राट के पास गया और कहा, “महाराज जान ले कि दिव्य चक्ररत्न अपने स्थान से खिसक कर च्युत हो गया है।”
तब, भिक्षुओं, चक्रवर्ती सम्राट ने अपने ज्येष्ठ राजकुमार को आमंत्रित किया और कहा, “प्रिय राजकुमार, दिव्य चक्ररत्न अपने स्थान से खिसक कर च्युत हो गया है। ऐसा मैंने सुना है कि जब दिव्य चक्ररत्न अपने स्थान से खिसक कर च्युत हो जाता है, तब वह राजा अधिक समय तक जीवित नहीं रहता। मैंने मानवीय कामभोग को लुत्फ उठाया है। अब समय आ गया है दिव्य कामभोग का लुत्फ उठाने का। आओ, प्रिय राजकुमार, समुद्रा तक इस पृथ्वी पर राजशासन करो। अब मैं केश-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय-वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करूँगा।”
और, तब भिक्षुओं, चक्रवर्ती सम्राट ने अपने ज्येष्ठ राजकुमार को अच्छे से राजत्व में अनुशासित कर केश-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय-वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण किया। और संन्यास का एक सप्ताह बीतने पर, भिक्षुओं, राजश्री दिव्य चक्ररत्न विलुप्त हो गया। तब, कोई पुरुष उस राजतिलक किए क्षत्रिय राजा के पास गया, और कहा, “महाराज जान ले कि दिव्य चक्ररत्न विलुप्त हो गया है।”
तब, भिक्षुओं, वह राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा अप्रसन्न हुआ, और उसने हताशा महसूस की। किन्तु उसने राजर्षि के पास जाकर आर्य चक्रवर्ती व्रत के बारे में नहीं पूछा। बल्कि उसने अपनी मर्जी के अनुसार प्रशासन चलाया। उस तरह प्रशासन चलाने पर राज्य की वैसी उन्नति नहीं हुई, जिस तरह पहले आर्य चक्रवर्ती-व्रत पालनकर्ता राजाओं के राज्य में हुई थी।
तब, भिक्षुओं, उस राज्य के मंत्रीगण, सभासद, वित्त-महामंत्री, सेनापति, द्वारपाल, और सलाहकार जीविका वाले एकत्र होकर राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा के पास गए, और कहा, “महाराज, आपकी मर्जी के अनुसार प्रशासन चलाने पर राज्य की वैसी उन्नति नहीं हो रही है, जिस तरह पहले ‘आर्य चक्रवर्ती-व्रत’ पालनकर्ता राजाओं के राज्य में हुई थी। महाराज, आपके राज्य में हम और ऐसे दूसरे मंत्रीगण, सभासद, वित्त-महामंत्री, सेनापति, द्वारपाल, और सलाहकार जीविका वाले लोग पाए जाते हैं, जिन्हें ‘आर्य चक्रवर्ती-व्रत’ स्मरण है। महाराज आएँ और हमसे ‘आर्य चक्रवर्ती-व्रत’ पुछे। ‘आर्य चक्रवर्ती-व्रत’ पुछे जाने पर हम बताएँगे।”
तब, उस राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा ने अपने राज्य के एकत्र हुए मंत्रीगण, सभासद, वित्त-महामंत्री, सेनापति, द्वारपाल, और सलाहकार जीविका वाले लोगों से ‘आर्य चक्रवर्ती-व्रत’ पूछा। तब उन्होने ‘आर्य चक्रवर्ती-व्रत’ बताया। उन्हें सुनकर उसने धर्मानुसार बचाव, संरक्षण और आरक्षण तो दिया, किन्तु राज्य के निर्धन लोगों को धन नहीं दिया। निर्धन लोगों को धन न देने से राज्य में दरिद्रता बढ़ती गयी। और जब राज्य में दरिद्रता बढ़ती गयी, तब किसी पुरुष ने चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठा ली।
उसे गिरफ्तार किया गया, और राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा के सामने लाया गया, “महाराज, इस पुरुष ने चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठा ली।”
जब ऐसा कहा गया, तो राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा ने उस पुरुष से कहा, “क्या यह सच है, प्रिय पुरुष, तुमने चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठा ली?”
“सच है, महाराज!”
“किस कारण से?”
“महाराज, मेरी जीविका नहीं चलती।”
तब, भिक्षुओं, राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा ने उस पुरुष को धन दिया, “सुनो, पुरुष, इस धन से अपनी जीविका चलाओ, माता और पिता का पालो, संतान और पत्नी को पालो, जीविका का कार्य करो, और श्रमण-ब्राह्मणों के लिए दान-दक्षिणा का आयोजन करो, जो सुखद फल दे, स्वर्ग का द्वार खोले, और स्वर्ग ले जाए।”
“ठीक है, महाराज।” उस पुरुष ने राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा को उत्तर दिया।
तब, भिक्षुओं, दूसरे पुरुष ने चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठा ली।
उसे भी गिरफ्तार किया गया, और राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा के सामने लाया गया, “महाराज, इस पुरुष ने चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठा ली।”
जब ऐसा कहा गया, तो राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा ने उस पुरुष से कहा, “क्या यह सच है, प्रिय पुरुष, तुमने चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठा ली?”
“सच है, महाराज!”
“किस कारण से?”
“महाराज, मेरी जीविका नहीं चलती।”
तब, भिक्षुओं, राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा ने उस पुरुष को धन दिया, “सुनो, पुरुष, इस धन से अपनी जीविका चलाओ, माता और पिता का पालो, संतान और पत्नी को पालो, जीविका का कार्य करो, और श्रमण-ब्राह्मणों के लिए दान-दक्षिणा का आयोजन करो, जो सुखद फल दे, स्वर्ग का द्वार खोले, और स्वर्ग ले जाए।”
“ठीक है, महाराज।” उस पुरुष ने राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा को उत्तर दिया।
तब, भिक्षुओं, लोगों ने सुना, “यह वाकई सच है, श्रीमान! जो भी चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठाता है, उसे राजा धन देता है।”
ऐसा सुनकर उन्हें लगा, “क्यों न हम भी चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठा लें?”
तब, भिक्षुओं, किसी अन्य पुरुष ने चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठा ली। उसे गिरफ्तार किया गया, और राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा के सामने लाया गया, “महाराज, इस पुरुष ने चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठा ली।”
जब ऐसा कहा गया, तो राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा ने उस पुरुष से कहा, “क्या यह सच है, प्रिय पुरुष, तुमने चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठा ली?”
“सच है, महाराज!”
“किस कारण से?”
“महाराज, मेरी जीविका नहीं चलती।”
तब, भिक्षुओं, राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा को लगा, “यदि मैं प्रत्येक चुराने वाले को धन देते रहूँ, तो चोरियाँ बढ़ जाएगी। क्यों न इस पुरुष पर रोक लगा दूँ, बड़े अच्छे से रोक लगा दूँ, इसकी जड़ ही काट दूँ, इसका सिर कटवा दूँ?”
तब, भिक्षुओं, उस राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा ने अपने पुरुषों को आदेश दिया, “ठीक है, इस पुरुष की बाहों को पीछे कर रूखी रस्सी से कसकर बांध दो। और उसका सिर मुंडवा कर तेज नगाड़े की आवाज में गली-गली, मार्ग-मार्ग घुमाकर दक्षिण-द्वार से बाहर निकाल, नगर के दक्षिण में वध-स्थल पर ले जाकर उसका सिर काट दो।”
“ठीक है, महाराज।” उन पुरुषों ने राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा को उत्तर दिया, और उस पुरुष की बाहों को पीछे कर रूखी रस्सी से कसकर बांध दिया। और उसका सिर मुंडवा कर तेज नगाड़े की आवाज में गली-गली, मार्ग-मार्ग घुमाकर दक्षिण-द्वार से बाहर निकाल, नगर के दक्षिण में वध-स्थल पर ले जाकर उसका सिर काट दिया।"
तब, भिक्षुओं, लोगों ने सुना, “ऐसा लगता है, श्रीमान, कि जो चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठाता है, उस पर राजा रोक लगाता है, बड़े अच्छे से रोक लगाता है, उसी जड़ ही काट देता है, उसका सिर कटवा देता है।”
ऐसा सुनकर उन्हें लगा, “क्यों न हम तीक्ष्ण शस्त्र बनवाएँ? तीक्ष्ण शस्त्र के होने पर, जब चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठाएंगे तो उस पर रोक लगाएंगे, बड़े अच्छे से रोक लगाएंगे, उसकी जड़ काट देंगे, उसका सिर काट देंगे।”
तब, उन्होने तीक्ष्ण शस्त्र बनवाएँ, और उन्हें लेकर गाँवों में घात लगाने का उपक्रम करने लगे, निगमों में घात लगाने का उपक्रम करने लगे, नगरों में घात लगाने का उपक्रम करने लगे, मार्गों में हमला करने का उपक्रम करने लगे। और, वे लोग जिस पराए की वस्तु चुराते, उस पर रोक लगाते, बड़े अच्छे से रोक लगाते, उसकी जड़ काट देते, उसका सिर काट देते। 1
और, भिक्षुओं, तब निर्धन लोगों को धन न देने से दरिद्रता बढ़ती गयी। दरिद्रता के बढ़ने पर चोरियाँ बढ़ते गयी। चोरियाँ बढ़ने पर शस्त्रों का उपयोग बढ़ते गया। शस्त्रों का उपयोग बढ़ने पर जीवहत्या बढ़ते गयी। जीवहत्या के बढ़ने पर सत्वों की आयु [=उम्र] का पतन हुआ, वर्ण [=सौंदर्य] का पतन हुआ। इस तरह, आयु का पतन होने पर, वर्ण का पतन होने पर, अस्सी हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की [अर्ध] चालीस हजार वर्ष आयु हुई।
• और, भिक्षुओं, जो चालीस हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों में किसी पुरुष ने चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठा ली। उसे गिरफ्तार किया गया, और राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा के सामने लाया गया, “महाराज, इस पुरुष ने चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठा ली।”
जब ऐसा कहा गया, तो राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा ने उस पुरुष से कहा, “क्या यह सच है, प्रिय पुरुष, तुमने चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठा ली?”
“नहीं, महाराज!” उसने जान-बूझकर झूठ बोला।
और, इस तरह, भिक्षुओं, निर्धन लोगों को धन न देने से दरिद्रता बढ़ती गयी। दरिद्रता के बढ़ने पर चोरियाँ बढ़ते गयी। चोरियाँ बढ़ने पर शस्त्रों का उपयोग बढ़ते गया। शस्त्रों का उपयोग बढ़ने पर जीवहत्या बढ़ते गयी। जीवहत्या के बढ़ने पर झूठ बोलना बढ़ते गया। और झूठ बोलना बढ़ने पर सत्वों की आयु का पुनः पतन हुआ, वर्ण का पुनः पतन हुआ। इस तरह, आयु का पतन होने पर, वर्ण का पतन होने पर, चालीस हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की [अर्ध] बीस हजार वर्ष आयु हुई।
• और, भिक्षुओं, जो बीस हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों में किसी पुरुष ने चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठा ली। तब, किसी दूसरे पुरुष ने राजतिलक हुए क्षत्रिय राजा को सूचित किया, “महाराज, अमुक-अमुक नाम के पुरुष ने चुराने की चेतना से पराए की वस्तु उठा ली।” इस तरह, चुगली [=फूट डालने वाली बातें] की।
और, इस तरह, भिक्षुओं, निर्धन लोगों को धन न देने से दरिद्रता बढ़ती गयी। दरिद्रता के बढ़ने पर चोरियाँ बढ़ते गयी। चोरियाँ बढ़ने पर शस्त्रों का उपयोग बढ़ते गया। शस्त्रों का उपयोग बढ़ने पर जीवहत्या बढ़ते गयी। जीवहत्या के बढ़ने पर झूठ बोलना बढ़ते गया। और झूठ बोलना बढ़ने पर फूट डालने वाली बातें बढ़ती गयी। फूट डालने वाली बातें बढ़ने पर सत्वों की आयु का पुनः पतन हुआ, वर्ण का पुनः पतन हुआ। इस तरह, आयु का पतन होने पर, वर्ण का पतन होने पर, बीस हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की [अर्ध] दस हजार वर्ष आयु हुई।
• और, भिक्षुओं, दस हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों में कोई रूपवान थे, तो कोई कुरूप। जो सत्व कुरूप थे, वे रूपवान सत्वों की लालसा करते हुए पराए की पत्नियों के साथ व्यभिचार किया।
और, इस तरह, भिक्षुओं, निर्धन लोगों को धन न देने से दरिद्रता बढ़ती गयी। दरिद्रता के बढ़ने पर चोरियाँ बढ़ते गयी। चोरियाँ बढ़ने पर शस्त्रों का उपयोग बढ़ते गया। शस्त्रों का उपयोग बढ़ने पर जीवहत्या बढ़ते गयी। जीवहत्या के बढ़ने पर झूठ बोलना बढ़ते गया। और झूठ बोलना बढ़ने पर फूट डालने वाली बातें बढ़ती गयी। फूट डालने वाली बातें बढ़ने पर कामुक व्यभिचार बढ़ने लगा। कामुक व्यभिचार बढ़ने पर सत्वों की आयु का पुनः पतन हुआ, वर्ण का पुनः पतन हुआ। इस तरह, आयु का पतन होने पर, वर्ण का पतन होने पर, दस हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की [अर्ध] पाँच हजार वर्ष आयु हुई।
• और, भिक्षुओं, पाँच हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों में दो स्वभाव बढ़ते गए — कटु वचन और निरर्थक बातें [=बकवास]।
इन दो स्वभावों के बढ़ने पर सत्वों की आयु का पुनः पतन हुआ, वर्ण का पुनः पतन हुआ। इस तरह, आयु का पतन होने पर, वर्ण का पतन होने पर, पाँच हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की [अर्ध] अढ़ाई हजार वर्ष आयु हुई।
• और, भिक्षुओं, पाँच हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों में लालसा और दुर्भावना बढ़ते गयी।
लालसा और दुर्भावना के बढ़ने पर सत्वों की आयु का पुनः पतन हुआ, वर्ण का पुनः पतन हुआ। इस तरह, आयु का पतन होने पर, वर्ण का पतन होने पर, अढ़ाई हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की एक हजार वर्ष आयु हुई।
• और, भिक्षुओं, एक हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि बढ़ते गयी।
मिथ्यादृष्टि के बढ़ने पर सत्वों की आयु का पुनः पतन हुआ, वर्ण का पुनः पतन हुआ। इस तरह, आयु का पतन होने पर, वर्ण का पतन होने पर, एक हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की पाँच सौ वर्ष आयु हुई।
• और, भिक्षुओं, पाँच सौ वर्ष आयु वाले मनुष्यों में तीन स्वभाव बढ़ते गए — अधार्मिक वासना, विषम लोभ, और मिथ्या धर्म। 2
इन तीन स्वभावों के बढ़ने पर सत्वों की आयु का पुनः पतन हुआ, वर्ण का पुनः पतन हुआ। इस तरह, आयु का पतन होने पर, वर्ण का पतन होने पर, पाँच सौ वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की अढ़ाई सौ वर्ष आयु हुई।
• और, भिक्षुओं, अढ़ाई सौ वर्ष आयु वाले मनुष्यों में ये स्वभाव बढ़ते गए — माता के प्रति आदर का अभाव, पिता के प्रति आदर का अभाव, श्रमण और ब्राह्मण के प्रति आदर का अभाव, परिवार के ज्येष्ठ [=बड़े] लोगों का सम्मान न करना।
और, इस तरह, भिक्षुओं, निर्धन लोगों को धन न देने से दरिद्रता बढ़ती गयी। दरिद्रता के बढ़ने पर चोरियाँ बढ़ते गयी। चोरियाँ बढ़ने पर शस्त्रों का उपयोग बढ़ते गया। शस्त्रों का उपयोग बढ़ने पर जीवहत्या बढ़ते गयी। जीवहत्या के बढ़ने पर झूठ बोलना बढ़ते गया। और झूठ बोलना बढ़ने पर फूट डालने वाली बातें बढ़ती गयी। फूट डालने वाली बातें बढ़ने पर कामुक व्यभिचार बढ़ने लगा। कामुक व्यभिचार बढ़ने पर दो स्वभाव बढ़ते गए — कटु वचन और निरर्थक बातें। इन दो स्वभावों के बढ़ने पर लालसा और दुर्भावना बढ़ते गयी। लालसा और दुर्भावना के बढ़ने पर मिथ्यादृष्टि बढ़ते गयी। मिथ्यादृष्टि के बढ़ने पर तीन स्वभाव बढ़ते गए — अधार्मिक वासना, विषम लोभ, और मिथ्या धर्म। ये तीन स्वभावों के बढ़ने पर ये स्वभाव बढ़ते गए — माता के प्रति आदर का अभाव, पिता के प्रति आदर का अभाव, श्रमण और ब्राह्मण के प्रति आदर का अभाव, परिवार के ज्येष्ठ लोगों का सम्मान न करना।
इन स्वभावों के बढ़ने पर सत्वों की आयु का पुनः पतन हुआ, वर्ण का पुनः पतन हुआ। इस तरह, आयु का पतन होने पर, वर्ण का पतन होने पर, अढ़ाई सौ वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की सौ वर्ष आयु हुई।"
“और, भिक्षुओं, एक समय आएगा जब मनुष्यों के पुत्र दस वर्ष की आयु वाले हो जाएँगे। दस वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में पाँच वर्ष की कुमारी ससुराल जाने योग्य 3 हो जाएगी। दस वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में ये स्वाद विलुप्त हो जाएँगे — घी, मक्खन, तेल, मधु, गुड़, और नमक। दस वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में सबसे श्रेष्ठ भोजन ‘कुदृस’ होगा। जैसे इस समय, भिक्षुओं, माँस मिला चावल [बिरयानी?] श्रेष्ठ भोजन है। उसी तरह, भिक्षुओं, दस वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में सबसे श्रेष्ठ भोजन ‘कुदृस’ होगा। 4
भिक्षुओं, दस वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में दस कुशल कर्मपथ में सभी के सभी विलुप्त हो जाएँगे, और दस अकुशल कर्मपथ [ज्वालामुखी की भाँति] फट पड़ेंगे। दस वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में, भिक्षुओं, “कुशल” नाम का शब्द भी नहीं होगा, तो भला कोई क्या “कुशल” करेगा? दस वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में, भिक्षुओं, जो भी माता का अनादर, पिता का अनादर, श्रमण और ब्राह्मण का अनादर, परिवार के ज्येष्ठ लोगों का अपमान करेगा, उसे पुजा जाएगा, उसकी प्रशंसा होगी।
जैसे इस समय, भिक्षुओं, जो भी माता, पिता, श्रमण, ब्राह्मण, परिवार के ज्येष्ठ लोगों का आदर-सम्मान करता है, उसे पुजा जाता है, उसकी प्रशंसा होती है। उसी तरह, दस वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में जो भी माता, पिता, श्रमण, ब्राह्मण, परिवार के ज्येष्ठ लोगों का अनादर और अपमान करेगा, उसे पुजा जाएगा, उसकी प्रशंसा होगी।
भिक्षुओं, दस वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में माँ, मौसी, मामी, और आचार्यगुरु या सम्मानित लोगों की पत्नियाँ भी कुछ नहीं होगी। उस लोक में सभी एक-दूसरे के साथ जाएँगे [=संबंध बनाएँगे], जैसे भेड़-बकरियाँ, मुर्गी-सूअर, कुत्ते-सियार हो।
भिक्षुओं, दस वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में एक दूसरे के प्रति बहुत तीव्र नफरत, तीव्र दुर्भावना, तीव्र दुष्टता, तीव्र हत्यारा-चित्त स्थापित होगा। यहाँ तक कि माँ को अपने पुत्र के प्रति, और पुत्र को अपने माँ के प्रति; पिता को अपने पुत्र के प्रति, और पुत्र को अपने पिता के प्रति; भाई को अपने बहन के प्रति, बहन को अपने भाई के प्रति बहुत तीव्र नफरत, तीव्र दुर्भावना, तीव्र दुष्टता, तीव्र हत्यारा-चित्त स्थापित होगा। जैसे, भिक्षुओं, शिकारी को पशु दिखते ही तीव्र नफरत, तीव्र दुर्भावना, तीव्र दुष्टता, तीव्र हत्यारा-चित्त स्थापित होता है। उसी तरह दस वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में एक दूसरे के प्रति बहुत तीव्र नफरत, तीव्र दुर्भावना, तीव्र दुष्टता, तीव्र हत्यारा-चित्त स्थापित होगा। यहाँ तक कि माँ को अपने पुत्र के प्रति…।
भिक्षुओं, दस वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में एक सप्ताह का शस्त्र युगांतर आएगा, जिसमें उन्हें एक दूसरे के प्रति “जानवर-संज्ञा” स्थापित होगा। उनके हाथों में तीक्ष्ण शस्त्र प्रकट होंगे। और “ये जानवर है, ये जानवर है”, कहते हुए, वे उन तीक्ष्ण शस्त्रों से एक दूसरे की जान ले लेंगे। 5
तब उनमें, भिक्षुओं, कुछ सत्व होते हैं, [जो सोचते हैं,] “न मुझे किसी से लेनदेन,न किसी को मुझसे! क्यों न हम घनी घास, घने वन, घने वृक्ष, दुर्गम नदी, या विषम पर्वत में प्रवेश जाकर कन्दमूल और फल खाकर जीवन यापन करें?” तब उन्होने घनी घास, घने वन, घने वृक्ष, दुर्गम नदी, या विषम पर्वत में प्रवेश जाकर कन्दमूल और फल खाकर जीवन यापन किया। और एक सप्ताह बीतने पर घनी घास, घने वन, घने वृक्ष, दुर्गम नदी, या विषम पर्वत से निकलकर, एक-दूसरे को आलिंगन देकर, एक साथ मिलकर एक आवाज में रोते हुए कहेंगे, “अरे, लोग जीवित दिख रहे हैं! अरे, लोग जीवित दिख रहे हैं!”
तब, भिक्षुओं, उन सत्वों को लगेगा, “अकुशल-धर्मों में लिप्त होने के कारण ही, हमारा इस प्रकार जाति-विनाश हुआ। क्यों न हम कुशल करें? क्या कुशल करें? क्यों न हम जीवहत्या से विरत रहें, इस कुशल धर्म को अंगीकार कर इसका पालन करें।”
तब वे जीवहत्या से विरत होंगे, उस कुशल धर्म को अंगीकार कर उसका पालन करेंगे। और, उस कुशल धर्म को अंगीकार करने के कारण उनकी आयु बढ़ने लगेगी, वर्ण [=सौंदर्य] बढ़ने लगेगा। इस तरह, आयु के बढ़ने पर, वर्ण के बढ़ने पर, दस वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की आयु बीस वर्ष होगी।
तब, भिक्षुओं, उन सत्वों को लगेगा, “कुशल धर्म को अंगीकार करने के कारण ही हमारी आयु बढ़ने लगी है, वर्ण बढ़ने लगा है। क्यों न हम और भी बहुत से कुशल करें? क्या कुशल करें? क्यों न हम चुराने से विरत रहे… कामुक-व्यभिचार से विरत रहे… झूठ बोलने से विरत रहे… विभाजित करने वाली बातों से विरत रहे… कटु बातों से विरत रहे… निरथक बातों से विरत रहे… लालसा को त्याग दे… दुर्भावना को त्याग दे… मिथ्यादृष्टि को त्याग दे… इन तीन स्वभावों को त्याग दे — अधार्मिक वासना, विषम लोभ, और मिथ्याधर्म… क्यों न हम माँ का आदर, पिता का आदर, श्रमण-ब्राह्मणों का आदर, परिवार के ज्येष्ठ का सत्कार करे, इन कुशल धर्म को अंगीकार कर इसका पालन करें।”
तब वे माँ का आदर, पिता का आदर, श्रमण-ब्राह्मणों का आदर, परिवार के ज्येष्ठ का सत्कार कर, उस कुशल धर्म को अंगीकार कर उसका पालन करेंगे। और, उस कुशल धर्म को अंगीकार करने के कारण उनकी आयु बढ़ने लगेगी, वर्ण बढ़ने लगेगा। इस तरह, आयु के बढ़ने पर, वर्ण के बढ़ने पर, बीस वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की आयु चालीस वर्ष होगी… चालीस वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की आयु अस्सी वर्ष होगी… अस्सी वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की आयु एक सौ साठ वर्ष होगी… एक सौ साठ वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की आयु तीन सौ बीस वर्ष होगी… तीन सौ बीस वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की आयु छह सौ चालीस वर्ष होगी… छह सौ चालीस वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की आयु दो हजार वर्ष होगी… दो हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की आयु चार हजार वर्ष होगी… चार हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की आयु आठ हजार वर्ष होगी… आठ हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की आयु बीस हजार वर्ष होगी… बीस हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की आयु चालीस हजार वर्ष होगी… चालीस हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों के पुत्रों की आयु अस्सी हजार वर्ष होगी…
और, भिक्षुओं, उन अस्सी हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों में कुमारियाँ पाँच सौ वर्ष की आयु में ससुराल जाने योग्य बनेगी।
भिक्षुओं, उन अस्सी हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों को केवल तीन ही कष्ट होंगे — इच्छा, भूख और बुढ़ापा। उन अस्सी हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों में जम्बूद्वीप शक्तिशाली और समृद्ध होगा, जिसके गाँव, निगम, नगर और राजधानी ‘मुर्गी की उड़ान’ भरने लायक [पास-पास] रहेंगे। उन अस्सी हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों में जम्बूद्वीप इतना जन-आबादी से भर जाएगा, मानो नरकट या सरकंडे का वन हो। उन अस्सी हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों में राजधानी बाराणसी का नाम ‘केतुमती’ हो जाएगा, जो शक्तिशाली, समृद्ध होगी, और घनी आबादी के साठ लोगों और धन-धान्य से भर जाएगी।
और, भिक्षुओं, उन अस्सी हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों में जम्बूद्वीप में चौरासी हजार नगर होंगे, जिनमें केतुमती राजधानी प्रमुख होगी। उन अस्सी हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों में केतुमती राजधानी में शंख नाम का राजा उत्पन्न होगा, जो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा — धार्मिक, धर्मराज, चार-दिशाओं का विजेता, दूर-दराज के देहातों तक स्थिर शासन, सात रत्नो से सम्पन्न। उसके लिए सात रत्न प्रकट होंगे — चक्ररत्न, हाथीरत्न, अश्वरत्न, मणिरत्न, स्त्रीरत्न, गृहस्थरत्न, और सातवाँ, सेनापतिरत्न। उसे एक हजार से अधिक पुत्र होंगे — सभी शूर, वीर, शत्रुओं की सेना की धज्जियाँ उड़ाने वाले। और, वह समुद्र तक भूमि पर, बिना दण्ड और शस्त्र के, केवल धर्म से जीत कर शासन करेगा।
और, भिक्षुओं, उन अस्सी हजार वर्ष आयु वाले मनुष्यों में मेत्तेय्य नाम के भगवान इस लोक में उत्पन्न होगे — अरहंत, सम्यक-सम्बुद्ध, विद्या और आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त! जैसे, इस समय मैं इस लोक में उत्पन्न हुआ हूँ — अरहंत, सम्यक-सम्बुद्ध, विद्या और आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!
वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर उसे इस लोक में प्रकट करेंगे, जो देव, मार, ब्रह्म, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरा हुआ है। उनका धर्म आरंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, और अन्त में कल्याणकारी होगा। वे परिपूर्ण और परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ को अर्थ और विस्तार के साथ प्रकाशित करेंगे। जैसे, इस समय मैं धर्म देता हूँ, जो आरंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, और अन्त में कल्याणकारी है। ऐसे परिपूर्ण और परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ को अर्थ और विस्तार के साथ प्रकाशित करता हूँ।
वे कई हजारो के भिक्षुसंघ का नेतृत्व करेंगे, जैसे इस समय मैं अनेक सैकड़ों के भिक्षुसंघ का नेतृत्व करता हूँ। तब, भिक्षुओं, राजा शंख यज्ञस्तंभ 6 खड़ा करता है, जिसे महापनाद राजा ने बनवाया था। वह उस यज्ञस्तंभ में निवास कर, फिर उसे विसर्जित और दान कर के श्रमण, ब्राह्मण, ग़रीब, घुमक्कड़, कंगाल तथा भिखारियों के लिए दान का आयोजन कर, मेत्तेय भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध की उपस्थिती में सिर-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर, प्रव्रजित हो जाएगा। और प्रवज्जित होकर अधिक समय नहीं बीतेगा, जब वह निर्लिप्त-एकांतवास लेकर फ़िक्रमन्द, सचेत और दृढ़निश्चयी होकर रहते हुए, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रव्रजित होते हैं, उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर स्थित हो जाएगा।
भिक्षुओं, स्वयं अपना द्वीप [या दीपक] बनो! स्वयं अपनी शरण बनो! अन्य शरण न हो! धर्म को अपना द्वीप बनाओं! धर्म को अपनी शरण बनाओ! अन्य शरण न हो! और, भिक्षुओं, कैसे कोई भिक्षु स्वयं अपना द्वीप बने, स्वयं अपनी शरण बने, अन्य शरण न हो, धर्म को अपना द्वीप बनाए, धर्म को अपनी शरण बनाए, अन्य शरण न हो?
यहाँ कोई भिक्षु, भिक्षुओं, दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, काया को काया देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। वह दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। वह दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, चित्त को चित्त देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। वह दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। इस तरह, भिक्षुओं, कोई भिक्षु स्वयं अपना द्वीप बनता है, स्वयं अपनी शरण बनता है, अन्य शरण नहीं बनाता, धर्म को अपना द्वीप बनाता है, धर्म को अपनी शरण बनाता है, अन्य शरण नहीं बनाता है।”
“भिक्षुओं, तुम्हें अपने ही पैतृक परिसर के भीतर टहलना चाहिए। यदि तुम अपने ही पैतृक परिसर के भीतर टहलते हो, तो तुम्हारी आयु बढ़ने लगेगी, वर्ण बढ़ने लगेगा, सुख बढ़ने लगेगा, भोग बढ़ने लगेगा, बल बढ़ने लगेगा।
• भिक्षुओं, भिक्षुओं की आयु क्या है? यहाँ, भिक्षुओं, कोई भिक्षु चाहत और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है। वह ऊर्जा और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है। वह चित्त और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है। वह विमर्श और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है। जो भिक्षुओं इन चार ऋद्धिपद को विकसित करता है, बहुत अभ्यास करता है, वह चाहे तो कल्प तक, या शेष बचे कल्प तक, बना रह सकता है। यही, भिक्षुओं, भिक्षुओं की आयु होती है।
• और, भिक्षुओं, भिक्षुओं का वर्ण [सौंदर्य] क्या है? यहाँ, भिक्षुओं, कोई भिक्षु शीलवान होता है, पातिमोक्ष-संवर से संवृत होकर विहार करता है, [आर्य] आचरण और जीवनशैली से संपन्न होकर रहता है। वह [धर्म-विनय] शिक्षापदों को सीख कर धारण करता है, अल्प पाप में भी ख़तरा देखता है। यही, भिक्षुओं, भिक्षुओं का वर्ण होता है।
• और, भिक्षुओं, भिक्षुओं का सुख क्या है? यहाँ, भिक्षुओं, कोई भिक्षु कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। आगे, भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। आगे, भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। आगे, भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यही, भिक्षुओं, भिक्षुओं का सुख होता है।
• और, भिक्षुओं, भिक्षुओं का भोग क्या है? यहाँ, भिक्षुओं, कोई भिक्षु [मेत्ता] सद्भाव-चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह, दूसरी-दिशा में, उसी तरह, तीसरी-दिशा में, उसी तरह, चौथी-दिशा में, ऊपर, नीचे, तत्र सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम सद्भाव-चित्त फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। आगे, भिक्षु [करुणा] करुण-चित्त को… [मुदिता] प्रसन्न-चित्त को… [उपेक्खा] तटस्थ-चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता। उसी तरह, दूसरी-दिशा में, उसी तरह, तीसरी-दिशा में, उसी तरह, चौथी-दिशा में, ऊपर, नीचे, तत्र सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर निर्द्वेष, विस्तृत, विराट, असीम तटस्थ-चित्त फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। यही, भिक्षुओं, भिक्षुओं का भोग होता है।
• और, भिक्षुओं, भिक्षुओं का बल क्या है? यहाँ, भिक्षुओं, कोई भिक्षु आस्रवों का क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार करता है। यही, भिक्षुओं, भिक्षुओं का बल होता है।
और, मैं इसके अलावा और कोई अन्य बल नहीं देखता हूँ, भिक्षुओं, जो मार के बल जैसे परास्त करने में कठिन बल को भी परास्त कर सके। भिक्षुओं, कुशल स्वभावों के स्त्रोत से ही पुण्य बढ़ता है।”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
इससे पता चलता है कि पतन की शुरुवात ऊपर से होती है। जब राजा या सरकार अपने प्रजा के प्रति कर्तव्य नहीं निभाते हैं, उनके जीविका का ख्याल नहीं रखते, निर्धन को धन नहीं देते, बल्कि हिंसक और कठोर सजाएँ देते हैं, तब जनता को भी हथियार उठाकर हिंसक बनने में देर नहीं लगती। ↩︎
अधम्मराग या अधार्मिक वासना का अर्थ, शायद उस प्रकार की अवैध वासना हो, जिसे अधार्मिक या मान-मर्यादा का उल्लंघन माना जाता हैं। जैसे, पारिवारिक अनाचार (incest), बाल यौन-शोषण, कुमारियों का बलात्कार, पशुओं के साथ संभोग, इत्यादि। विषम लोभ अर्थात, जो लोभ “सम” न हो, बल्कि, अत्याधिक, असंतुलित और व्यसनपूर्ण हो, जिसमें किसी को पर्याप्त मिल जाने पर भी लोभ कम न होता हो, प्यास बुझती न हो। मिथ्या धर्म का अर्थ, शायद ऐसी परंपराओं के उपजने से हैं, जो अनैतिकता, दुष्शीलता, या लोभ-द्वेष-मोह को उचित मानती हो और बढ़ावा देती हो। हालाँकि, अट्ठकथा के अनुसार, “अधार्मिक वासना और विषम लोभ” इन दोनों ही शब्दों का अर्थ “पराए वस्तु के लिए लालसा करना” हैं, जो मेरी राय में गलत है। और, अट्ठकथा “मिथ्या धर्म” का अर्थ “समलैंगिकता” बताती है, अर्थात, पुरुष का पुरुष से, और स्त्री का स्त्री से लैंगिक संबंध । लेकिन मुझे लगता है कि यह भी गलत है। क्योंकि प्राचीन पालि साहित्य में, खास तौर पर विनयपिटक में, समलैंगिकता के ढ़ेर सारे उदाहरण मिलते हैं, किन्तु उन्हें कभी “मिथ्या-धर्मी” नहीं पुकारा गया, या ऐसा कोई ईशारा तक नहीं दिया गया कि वे किसी “मिथ्या धर्म” का पालन करते हो। ↩︎
यहाँ भगवान ने दिल दहलाने वाली भविष्यवाणी की है, जिसमें मनुष्यों की आयु दस वर्ष की हो जाएगी। पिछली सदी में अंग्रेज़ो के अधीन भारतीय उपमहाखण्ड के अलावा कई आशियाई और अफ्रीकी देशों में मानवीय प्रत्याशित आयु ३० से ४० के बीच दर्ज की गई थी। हालाँकि उन राष्ट्रों के स्वतंत्र होने के पश्चात वह बढ़कर सत्तर पार हो गयी। किन्तु, २०२० में कोविड-१९ के आगमन के पश्चात मानव-आरोग्य में हैरतअंगेज बदलाव दर्ज किए जा रहे हैं। जैसे, विश्वभर के बच्चों में तारुण्यता की आगमन-आयु [Puberty Onset Age] गिरते जा रही है, और कुछ मामलों में पाँच भी दर्ज हुई है। दूसरी ओर, मध्यम-आयु के लोगों में प्रजनन दर [Fertility Rate] चिंताजनक रूप से गिरते जा रही है। ↩︎
कुदृस को कोदो, कोदरा, या भगर के चावल भी कहते हैं। भारत और नेपाल के रूखे पर्वतीय इलाके के अलावा, कुछ आशियाई और अफ्रीकी देशों में, जहाँ वर्षा के अभाव में चावल की उपज नहीं हो पाती, वहाँ कोदो उगाया जाता है। ग्लोबल वार्मिंग या वैश्विक उष्णता के बढ़ने पर विश्वभर में चावल का उत्पादन प्रभावित हो रहा है। इसलिए यूनाइटेड नेशन्स [UN] के द्वारा २०२३ वर्ष को “अंतर्राष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष” घोषित किया गया, ताकि बाजरा, रागी और कोदो के उपज को बढ़ावा मिले, जो भविष्य में चावल का स्थान ले पाएँ। ↩︎
शस्त्र युगांतर का सप्ताह एक डरावने स्वप्न या हॉलीवुड की ज़ॉम्बी फिल्मों जैसा प्रतीत होता है। मानव का मानव को “जानवर” के रूप में देखना, इतिहास में कई बार दर्ज हुआ है। विश्वभर में जब-जब मानवों ने मानवों का नरसंहार किया, हर बार यही “जानवर” का लेबल देखा गया। प्रसिद्ध Genocide Watch Group ने भी नरसंहार के पहले घटने वाले विभिन्न चरणों में से “अमानवीकरण” या “मानव को जानवर के रूप में देखना” को सबसे महत्वपूर्ण माना है। इस प्रक्रिया के दौरान, बहुसंख्यक समाज की सहानुभूति को समाप्त करने के लिए “जानवर-संज्ञा” का इस्तेमाल किया जाता है, और फिर नरसंहार की राह तैयार होती है। यदि हम आज के चुने हुए लोकतांत्रिक नेताओं की तुलना करें, तो बजाए “आर्य चक्रवर्ती व्रत” का अनुसरण करने के, वे निर्धन अल्पसंख्यकों को “दीमक”, “पिल्ला”, “घुसपैठिए”, “गद्दार” आदि संज्ञाओं से पुकार कर नरसंहार की राह आसान बनाते हैं। ↩︎
अट्ठकथा में यूप को “महल” बताया गया है, जो सुनने पर तार्किक भी लगता है। किन्तु, यह घटना थेरगाथा २:२२ में भद्दजी [=भद्रजीत भिक्षु] के द्वारा विस्तार से बतायी गयी है, जिसे जातक २६४ में भी कथा के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। भद्दजी अपनी गाथाओं में यूप को स्पष्ट तौर पर “बलिस्तंभ” या “यज्ञस्तंभ” बताते है, जिससे अश्व या कोई पशु बांधा जाए। जाहिर है, बलिस्तंभ के अलावा भी यहाँ विशाल राज-आवास बनाया जाता है, जिसमें तमाम राजसी लोग आकर रह सके। यह अश्वमेध यज्ञ का ही एक चित्रण प्रस्तुत करता है, जिससे किसी चक्रवर्ती राजा की साम्राज्यवादी शक्ति प्रदर्शित हो। हालाँकि चक्रवर्ती सम्राट इस बलिस्तंभ का उपयोग एक मानक के तौर पर करेंगे, जिसमें किसी अश्व की वाकई बलि नहीं दी जाएगी। ↩︎
अत्तदीपसरणता
८०. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा मगधेसु विहरति मातुलायं। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति। ‘‘भद्दन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच – ‘‘अत्तदीपा, भिक्खवे, विहरथ अत्तसरणा अनञ्ञसरणा, धम्मदीपा धम्मसरणा अनञ्ञसरणा। कथञ्च पन, भिक्खवे, भिक्खु अत्तदीपो विहरति अत्तसरणो अनञ्ञसरणो, धम्मदीपो धम्मसरणो अनञ्ञसरणो? इध, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। वेदनासु वेदनानुपस्सी…पे॰… चित्ते चित्तानुपस्सी…पे॰… धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु अत्तदीपो विहरति अत्तसरणो अनञ्ञसरणो, धम्मदीपो धम्मसरणो अनञ्ञसरणो।
‘‘गोचरे, भिक्खवे, चरथ सके पेत्तिके विसये। गोचरे, भिक्खवे, चरतं सके पेत्तिके विसये न लच्छति मारो ओतारं, न लच्छति मारो आरम्मणं [आरमणं (?)]। कुसलानं, भिक्खवे, धम्मानं समादानहेतु एवमिदं पुञ्ञं पवड्ढति।
दळ्हनेमिचक्कवत्तिराजा
८१. ‘‘भूतपुब्बं, भिक्खवे, राजा दळ्हनेमि नाम अहोसि चक्कवत्ती [चक्कवत्ति (स्या॰ पी॰)] धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो। तस्सिमानि सत्त रतनानि अहेसुं सेय्यथिदं – चक्करतनंउ हत्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं परिणायकरतनमेव सत्तमं। परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता अहेसुं सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना। सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन [धम्मेन समेन (स्या॰ क॰)] अभिविजिय अज्झावसि।
८२. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, राजा दळ्हनेमि बहुन्नं वस्सानं बहुन्नं वस्ससतानं बहुन्नं वस्ससहस्सानं अच्चयेन अञ्ञतरं पुरिसं आमन्तेसि – ‘यदा त्वं, अम्भो पुरिस, पस्सेय्यासि दिब्बं चक्करतनं ओसक्कितं ठाना चुतं, अथ मे आरोचेय्यासी’ति। ‘एवं, देवा’ति खो, भिक्खवे, सो पुरिसो रञ्ञो दळ्हनेमिस्स पच्चस्सोसि। अद्दसा खो, भिक्खवे, सो पुरिसो बहुन्नं वस्सानं बहुन्नं वस्ससतानं बहुन्नं वस्ससहस्सानं अच्चयेन दिब्बं चक्करतनं ओसक्कितं ठाना चुतं, दिस्वान येन राजा दळ्हनेमि तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा राजानं दळ्हनेमिं एतदवोच – ‘यग्घे, देव, जानेय्यासि, दिब्बं ते चक्करतनं ओसक्कितं ठाना चुत’न्ति। अथ खो, भिक्खवे, राजा दळ्हनेमि जेट्ठपुत्तं कुमारं आमन्तापेत्वा [आमन्तेत्वा (स्या॰ क॰)] एतदवोच – ‘दिब्बं किर मे, तात कुमार, चक्करतनं ओसक्कितं ठाना चुतं। सुतं खो पन मेतं – यस्स रञ्ञो चक्कवत्तिस्स दिब्बं चक्करतनं ओसक्कति ठाना चवति, न दानि तेन रञ्ञा चिरं जीवितब्बं होतीति। भुत्ता खो पन मे मानुसका कामा, समयो दानि मे दिब्बे कामे परियेसितुं। एहि त्वं, तात कुमार, इमं समुद्दपरियन्तं पथविं पटिपज्ज। अहं पन केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामी’ति।
८३. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, राजा दळ्हनेमि जेट्ठपुत्तं कुमारं साधुकं रज्जे समनुसासित्वा केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजि। सत्ताहपब्बजिते खो पन, भिक्खवे, राजिसिम्हि दिब्बं चक्करतनं अन्तरधायि।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, अञ्ञतरो पुरिसो येन राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो [मुद्धावसित्तो (सी॰ स्या॰ पी॰) एवमुपरिपि] तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा राजानं खत्तियं मुद्धाभिसित्तं एतदवोच – ‘यग्घे, देव, जानेय्यासि, दिब्बं चक्करतनं अन्तरहित’न्ति। अथ खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो दिब्बे चक्करतने अन्तरहिते अनत्तमनो अहोसि, अनत्तमनतञ्च पटिसंवेदेसि। सो येन राजिसि तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा राजिसिं एतदवोच – ‘यग्घे, देव, जानेय्यासि, दिब्बं चक्करतनं अन्तरहित’न्ति। एवं वुत्ते, भिक्खवे, राजिसि राजानं खत्तियं मुद्धाभिसित्तं एतदवोच – ‘मा खो त्वं, तात, दिब्बे चक्करतने अन्तरहिते अनत्तमनो अहोसि, मा अनत्तमनतञ्च पटिसंवेदेसि, न हि ते, तात, दिब्बं चक्करतनं पेत्तिकं दायज्जं। इङ्घ त्वं, तात, अरिये चक्कवत्तिवत्ते वत्ताहि। ठानं खो पनेतं विज्जति, यं ते अरिये चक्कवत्तिवत्ते वत्तमानस्स तदहुपोसथे पन्नरसे सीसंन्हातस्स [सीसं नहातस्स (सी॰ पी॰), सीसन्हातस्स (स्या॰)] उपोसथिकस्स उपरिपासादवरगतस्स दिब्बं चक्करतनं पातुभविस्सति सहस्सारं सनेमिकं सनाभिकं सब्बाकारपरिपूर’न्ति।
चक्कवत्तिअरियवत्तं
८४. ‘‘‘कतमं पन तं, देव, अरियं चक्कवत्तिवत्त’न्ति? ‘तेन हि त्वं, तात, धम्मंयेव निस्साय धम्मं सक्करोन्तो धम्मं गरुं करोन्तो [गरुकरोन्तो (सी॰ स्या॰ पी॰)] धम्मं मानेन्तो धम्मं पूजेन्तो धम्मं अपचायमानो धम्मद्धजो धम्मकेतु धम्माधिपतेय्यो धम्मिकं रक्खावरणगुत्तिं संविदहस्सु अन्तोजनस्मिं बलकायस्मिं खत्तियेसु अनुयन्तेसु [अनुयुत्तेसु (सी॰ पी॰)] ब्राह्मणगहपतिकेसु नेगमजानपदेसु समणब्राह्मणेसु मिगपक्खीसु। मा च ते, तात, विजिते अधम्मकारो पवत्तित्थ। ये च ते, तात, विजिते अधना अस्सु, तेसञ्च धनमनुप्पदेय्यासि [धनमनुप्पदज्जेय्यासि (सी॰ स्या॰ पी॰)]। ये च ते, तात, विजिते समणब्राह्मणा मदप्पमादा पटिविरता खन्तिसोरच्चे निविट्ठा एकमत्तानं दमेन्ति, एकमत्तानं समेन्ति, एकमत्तानं परिनिब्बापेन्ति, ते कालेन कालं उपसङ्कमित्वा परिपुच्छेय्यासि परिग्गण्हेय्यासि – ‘‘किं, भन्ते, कुसलं, किं अकुसलं, किं सावज्जं, किं अनवज्जं, किं सेवितब्बं, किं न सेवितब्बं, किं मे करीयमानं दीघरत्तं अहिताय दुक्खाय अस्स, किं वा पन मे करीयमानं दीघरत्तं हिताय सुखाय अस्सा’’ति? तेसं सुत्वा यं अकुसलं तं अभिनिवज्जेय्यासि, यं कुसलं तं समादाय वत्तेय्यासि। इदं खो, तात, तं अरियं चक्कवत्तिवत्त’न्ति।
चक्करतनपातुभावो
८५. ‘‘‘एवं, देवा’ति खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो राजिसिस्स पटिस्सुत्वा अरिये चक्कवत्तिवत्ते [अरियं चक्कवत्तिवत्तं (क॰)] वत्ति। तस्स अरिये चक्कवत्तिवत्ते वत्तमानस्स तदहुपोसथे पन्नरसे सीसंन्हातस्स उपोसथिकस्स उपरिपासादवरगतस्स दिब्बं चक्करतनं पातुरहोसि सहस्सारं सनेमिकं सनाभिकं सब्बाकारपरिपूरं। दिस्वान रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स एतदहोसि – ‘सुतं खो पन मेतं – यस्स रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स तदहुपोसथे पन्नरसे सीसंन्हातस्स उपोसथिकस्स उपरिपासादवरगतस्स दिब्बं चक्करतनं पातुभवति सहस्सारं सनेमिकं सनाभिकं सब्बाकारपरिपूरं, सो होति राजा चक्कवत्ती’ति। अस्सं नु खो अहं राजा चक्कवत्तीति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो उट्ठायासना एकंसं उतरासङ्गं करित्वा वामेन हत्थेन भिङ्कारं गहेत्वा दक्खिणेन हत्थेन चक्करतनं अब्भुक्किरि – ‘पवत्ततु भवं चक्करतनं, अभिविजिनातु भवं चक्करतन’न्ति।
‘‘अथ खो तं, भिक्खवे, चक्करतनं पुरत्थिमं दिसं पवत्ति, अन्वदेव राजा चक्कवत्ती सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय। यस्मिं खो पन, भिक्खवे, पदेसे चक्करतनं पतिट्ठासि, तत्थ राजा चक्कवत्ती वासं उपगच्छि सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय। ये खो पन, भिक्खवे, पुरत्थिमाय दिसाय पटिराजानो, ते राजानं चक्कवत्तिं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु – ‘एहि खो, महाराज, स्वागतं ते [सागतं (सी॰ पी॰)] महाराज, सकं ते, महाराज, अनुसास, महाराजा’ति। राजा चक्कवत्ती एवमाह – ‘पाणो न हन्तब्बो, अदिन्नं नादातब्बं, कामेसुमिच्छा न चरितब्बा, मुसा न भासितब्बा, मज्जं न पातब्बं, यथाभुत्तञ्च भुञ्जथा’ति। ये खो पन, भिक्खवे, पुरत्थिमाय दिसाय पटिराजानो, ते रञ्ञो चक्कवत्तिस्स अनुयन्ता [अनुयुत्ता (सी॰ पी॰)] अहेसुं।
८६. ‘‘अथ खो तं, भिक्खवे, चक्करतनं पुरत्थिमं समुद्दं अज्झोगाहेत्वा [अज्झोगहेत्वा (सी॰ स्या॰ पी॰)] पच्चुत्तरित्वा दक्खिणं दिसं पवत्ति…पे॰… दक्खिणं समुद्दं अज्झोगाहेत्वा पच्चुत्तरित्वा पच्छिमं दिसं पवत्ति, अन्वदेव राजा चक्कवत्ती सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय। यस्मिं खो पन, भिक्खवे, पदेसे चक्करतनं पतिट्ठासि, तत्थ राजा चक्कवत्ती वासं उपगच्छि सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय। ये खो पन, भिक्खवे, पच्छिमाय दिसाय पटिराजानो, ते राजानं चक्कवत्तिं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु – ‘एहि खो, महाराज, स्वागतं ते, महाराज, सकं ते, महाराज, अनुसास, महाराजा’ति। राजा चक्कवत्ती एवमाह – ‘पाणो न हन्तब्बो, अदिन्नं नादातब्बं, कामेसुमिच्छा न चरितब्बा, मुसा न भासितब्बा, मज्जं न पातब्बं, यथाभुत्तञ्च भुञ्जथा’ति। ये खो पन, भिक्खवे, पच्छिमाय दिसाय पटिराजानो, ते रञ्ञो चक्कवत्तिस्स अनुयन्ता अहेसुं।
८७. ‘‘अथ खो तं, भिक्खवे, चक्करतनं पच्छिमं समुद्दं अज्झोगाहेत्वा पच्चुत्तरित्वा उत्तरं दिसं पवत्ति, अन्वदेव राजा चक्कवत्ती सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय। यस्मिं खो पन, भिक्खवे, पदेसे चक्करतनं पतिट्ठासि, तत्थ राजा चक्कवत्ती वासं उपगच्छि सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय। ये खो पन, भिक्खवे, उत्तराय दिसाय पटिराजानो, ते राजानं चक्कवत्तिं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु – ‘एहि खो, महाराज, स्वागतं ते, महाराज, सकं ते, महाराज, अनुसास, महाराजा’ति। राजा चक्कवत्ती एवमाह – ‘पाणो न हन्तब्बो, अदिन्नं नादातब्बं, कामेसुमिच्छा न चरितब्बा, मुसा न भासितब्बा, मज्जं न पातब्बं, यथाभुत्तञ्च भुञ्जथा’ति। ये खो पन, भिक्खवे, उत्तराय दिसाय पटिराजानो, ते रञ्ञो चक्कवत्तिस्स अनुयन्ता अहेसुं।
‘‘अथ खो तं, भिक्खवे, चक्करतनं समुद्दपरियन्तं पथविं अभिविजिनित्वा तमेव राजधानिं पच्चागन्त्वा रञ्ञो चक्कवत्तिस्स अन्तेपुरद्वारे अत्थकरणपमुखे [अड्डकरणपमुखे (क॰)] अक्खाहतं मञ्ञे अट्ठासि रञ्ञो चक्कवत्तिस्स अन्तेपुरं उपसोभयमानं।
दुतियादिचक्कवत्तिकथा
८८. ‘‘दुतियोपि खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती…पे॰… ततियोपि खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती… चतुत्थोपि खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती… पञ्चमोपि खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती… छट्ठोपि खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती… सत्तमोपि खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती बहुन्नं वस्सानं बहुन्नं वस्ससतानं बहुन्नं वस्ससहस्सानं अच्चयेन अञ्ञतरं पुरिसं आमन्तेसि – ‘यदा त्वं, अम्भो पुरिस, पस्सेय्यासि दिब्बं चक्करतनं ओसक्कितं ठाना चुतं, अथ मे आरोचेय्यासी’ति। ‘एवं, देवा’ति खो, भिक्खवे, सो पुरिसो रञ्ञो चक्कवत्तिस्स पच्चस्सोसि। अद्दसा खो, भिक्खवे, सो पुरिसो बहुन्नं वस्सानं बहुन्नं वस्ससतानं बहुन्नं वस्ससहस्सानं अच्चयेन दिब्बं चक्करतनं ओसक्कितं ठाना चुतं। दिस्वान येन राजा चक्कवत्ती तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा राजानं चक्कवत्तिं एतदवोच – ‘यग्घे, देव, जानेय्यासि, दिब्बं ते चक्करतनं ओसक्कितं ठाना चुत’न्ति?
८९. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती जेट्ठपुत्तं कुमारं आमन्तापेत्वा एतदवोच – ‘दिब्बं किर मे, तात कुमार, चक्करतनं ओसक्कितं, ठाना चुतं, सुतं खो पन मेतं – यस्स रञ्ञो चक्कवत्तिस्स दिब्बं चक्करतनं ओसक्कति, ठाना चवति, न दानि तेन रञ्ञा चिरं जीवितब्बं होतीति। भुत्ता खो पन मे मानुसका कामा, समयो दानि मे दिब्बे कामे परियेसितुं, एहि त्वं, तात कुमार, इमं समुद्दपरियन्तं पथविं पटिपज्ज। अहं पन केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामी’ति।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, राजा चक्कवत्ती जेट्ठपुत्तं कुमारं साधुकं रज्जे समनुसासित्वा केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजि। सत्ताहपब्बजिते खो पन, भिक्खवे, राजिसिम्हि दिब्बं चक्करतनं अन्तरधायि।
९०. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, अञ्ञतरो पुरिसो येन राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा राजानं खत्तियं मुद्धाभिसित्तं एतदवोच – ‘यग्घे, देव, जानेय्यासि, दिब्बं चक्करतनं अन्तरहित’न्ति? अथ खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो दिब्बे चक्करतने अन्तरहिते अनत्तमनो अहोसि। अनत्तमनतञ्च पटिसंवेदेसि; नो च खो राजिसिं उपसङ्कमित्वा अरियं चक्कवत्तिवत्तं पुच्छि। सो समतेनेव सुदं जनपदं पसासति। तस्स समतेन जनपदं पसासतो पुब्बेनापरं जनपदा न पब्बन्ति, यथा तं पुब्बकानं राजूनं अरिये चक्कवत्तिवत्ते वत्तमानानं।
‘‘अथ खो, भिक्खवे, अमच्चा पारिसज्जा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका मन्तस्साजीविनो सन्निपतित्वा राजानं खत्तियं मुद्धाभिसित्तं एतदवोचुं – ‘न खो ते, देव, समतेन (सुदं) जनपदं पसासतो पुब्बेनापरं जनपदा पब्बन्ति, यथा तं पुब्बकानं राजूनं अरिये चक्कवत्तिवत्ते वत्तमानानं। संविज्जन्ति खो ते, देव, विजिते अमच्चा पारिसज्जा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका मन्तस्साजीविनो मयञ्चेव अञ्ञे च [अञ्ञे च पण्डिते समणब्राह्मणे पुच्छेय्यासि (क॰)] ये मयं अरियं चक्कवत्तिवत्तं धारेम। इङ्घ त्वं, देव, अम्हे अरियं चक्कवत्तिवत्तं पुच्छ। तस्स ते मयं अरियं चक्कवत्तिवत्तं पुट्ठा ब्याकरिस्सामा’ति।
आयुवण्णादिपरियानिकथा
९१. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो अमच्चे पारिसज्जे गणकमहामत्ते अनीकट्ठे दोवारिके मन्तस्साजीविनो सन्निपातेत्वा अरियं चक्कवत्तिवत्तं पुच्छि। तस्स ते अरियं चक्कवत्तिवत्तं पुट्ठा ब्याकरिंसु। तेसं सुत्वा धम्मिकञ्हि खो रक्खावरणगुत्तिं संविदहि, नो च खो अधनानं धनमनुप्पदासि। अधनानं धने अननुप्पदियमाने दालिद्दियं वेपुल्लमगमासि। दालिद्दिये वेपुल्लं गते अञ्ञतरो पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियि। तमेनं अग्गहेसुं। गहेत्वा रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स दस्सेसुं – ‘अयं, देव, पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियी’ति। एवं वुत्ते, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो तं पुरिसं एतदवोच – ‘सच्चं किर त्वं, अम्भो पुरिस, परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियी’ति [आदियसीति (स्या॰)]? ‘सच्चं, देवा’ति। ‘किं कारणा’ति? ‘न हि, देव, जीवामी’ति। अथ खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो तस्स पुरिसस्स धनमनुप्पदासि – ‘इमिना त्वं, अम्भो पुरिस, धनेन अत्तना च जीवाहि, मातापितरो च पोसेहि, पुत्तदारञ्च पोसेहि, कम्मन्ते च पयोजेहि, समणब्राह्मणेसु [समणेसु ब्राह्मणेसु (बहूसु)] उद्धग्गिकं दक्खिणं पतिट्ठापेहि सोवग्गिकं सुखविपाकं सग्गसंवत्तनिक’न्ति। ‘एवं, देवा’ति खो, भिक्खवे, सो पुरिसो रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स पच्चस्सोसि।
‘‘अञ्ञतरोपि खो, भिक्खवे, पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियि। तमेनं अग्गहेसुं। गहेत्वा रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स दस्सेसुं – ‘अयं, देव, पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियी’ति। एवं वुत्ते, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो तं पुरिसं एतदवोच – ‘सच्चं किर त्वं, अम्भो पुरिस, परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियी’ति? ‘सच्चं, देवा’ति। ‘किं कारणा’ति? ‘न हि, देव, जीवामी’ति। अथ खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो तस्स पुरिसस्स धनमनुप्पदासि – ‘इमिना त्वं, अम्भो पुरिस, धनेन अत्तना च जीवाहि, मातापितरो च पोसेहि, पुत्तदारञ्च पोसेहि, कम्मन्ते च पयोजेहि, समणब्राह्मणेसु उद्धग्गिकं दक्खिणं पतिट्ठापेहि सोवग्गिकं सुखविपाकं सग्गसंवत्तनिक’न्ति। ‘एवं, देवा’ति खो, भिक्खवे, सो पुरिसो रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स पच्चस्सोसि।
९२. ‘‘अस्सोसुं खो, भिक्खवे, मनुस्सा – ‘ये किर, भो, परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियन्ति, तेसं राजा धनमनुप्पदेती’ति। सुत्वान तेसं एतदहोसि – ‘यंनून मयम्पि परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियेय्यामा’ति। अथ खो, भिक्खवे, अञ्ञतरो पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियि। तमेनं अग्गहेसुं। गहेत्वा रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स दस्सेसुं – ‘अयं, देव, पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियी’ति। एवं वुत्ते, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो तं पुरिसं एतदवोच – ‘सच्चं किर त्वं, अम्भो पुरिस, परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियी’ति? ‘सच्चं, देवा’ति। ‘किं कारणा’ति? ‘न हि, देव, जीवामी’ति। अथ खो, भिक्खवे, रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स एतदहोसि – ‘सचे खो अहं यो यो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियिस्सति, तस्स तस्स धनमनुप्पदस्सामि, एवमिदं अदिन्नादानं पवड्ढिस्सति। यंनूनाहं इमं पुरिसं सुनिसेधं निसेधेय्यं, मूलघच्चं [मूलघच्छं (स्या॰), मूलछेज्ज (क॰)] करेय्यं, सीसमस्स छिन्देय्य’न्ति। अथ खो, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो पुरिसे आणापेसि – ‘तेन हि, भणे, इमं पुरिसं दळ्हाय रज्जुया पच्छाबाहं [पच्छाबाहुं (स्या॰)] गाळ्हबन्धनं बन्धित्वा खुरमुण्डं करित्वा खरस्सरेन पणवेन रथिकाय रथिकं सिङ्घाटकेन सिङ्घाटकं परिनेत्वा दक्खिणेन द्वारेन निक्खमित्वा दक्खिणतो नगरस्स सुनिसेधं निसेधेथ, मूलघच्चं करोथ, सीसमस्स छिन्दथा’ति। ‘एवं, देवा’ति खो, भिक्खवे, ते पुरिसा रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स पटिस्सुत्वा तं पुरिसं दळ्हाय रज्जुया पच्छाबाहं गाळ्हबन्धनं बन्धित्वा खुरमुण्डं करित्वा खरस्सरेन पणवेन रथिकाय रथिकं सिङ्घाटकेन सिङ्घाटकं परिनेत्वा दक्खिणेन द्वारेन निक्खमित्वा दक्खिणतो नगरस्स सुनिसेधं निसेधेसुं, मूलघच्चं अकंसु, सीसमस्स छिन्दिंसु।
९३. ‘‘अस्सोसुं खो, भिक्खवे, मनुस्सा – ‘ये किर, भो, परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियन्ति, ते राजा सुनिसेधं निसेधेति, मूलघच्चं करोति, सीसानि तेसं छिन्दती’ति। सुत्वान तेसं एतदहोसि – ‘यंनून मयम्पि तिण्हानि सत्थानि कारापेस्साम [कारापेय्याम (स्या॰ पी॰) कारापेय्यामाति (क॰ सी॰)], तिण्हानि सत्थानि कारापेत्वा येसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियिस्साम, ते सुनिसेधं निसेधेस्साम, मूलघच्चं करिस्साम, सीसानि तेसं छिन्दिस्सामा’ति। ते तिण्हानि सत्थानि कारापेसुं, तिण्हानि सत्थानि कारापेत्वा गामघातम्पि उपक्कमिंसु कातुं, निगमघातम्पि उपक्कमिंसु कातुं, नगरघातम्पि उपक्कमिंसु कातुं, पन्थदुहनम्पि [पन्थदूहनंपि (सी॰ स्या॰ पी॰)] उपक्कमिंसु कातुं। येसं ते अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियन्ति, ते सुनिसेधं निसेधेन्ति, मूलघच्चं करोन्ति, सीसानि तेसं छिन्दन्ति।
९४. ‘‘इति खो, भिक्खवे, अधनानं धने अननुप्पदियमाने दालिद्दियं वेपुल्लमगमासि, दालिद्दिये वेपुल्लं गते अदिन्नादानं वेपुल्लमगमासि, अदिन्नादाने वेपुल्लं गते सत्थं वेपुल्लमगमासि, सत्थे वेपुल्लं गते पाणातिपातो वेपुल्लमगमासि, पाणातिपाते वेपुल्लं गते तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि। तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं असीतिवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं चत्तारीसवस्ससहस्सायुका पुत्ता अहेसुं।
‘‘चत्तारीसवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु अञ्ञतरो पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियि। तमेनं अग्गहेसुं। गहेत्वा रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स दस्सेसुं – ‘अयं, देव, पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियी’ति। एवं वुत्ते, भिक्खवे, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो तं पुरिसं एतदवोच – ‘सच्चं किर त्वं, अम्भो पुरिस, परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियी’ति? ‘न हि, देवा’ति सम्पजानमुसा अभासि।
९५. ‘‘इति खो, भिक्खवे, अधनानं धने अननुप्पदियमाने दालिद्दियं वेपुल्लमगमासि। दालिद्दिये वेपुल्लं गते अदिन्नादानं वेपुल्लमगमासि, अदिन्नादाने वेपुल्लं गते सत्थं वेपुल्लमगमासि। सत्थे वेपुल्लं गते पाणातिपातो वेपुल्लमगमासि, पाणातिपाते वेपुल्लं गते मुसावादो वेपुल्लमगमासि, मुसावादे वेपुल्लं गते तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि। तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं चत्तारीसवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं वीसतिवस्ससहस्सायुका पुत्ता अहेसुं।
‘‘वीसतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु अञ्ञतरो पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियि। तमेनं अञ्ञतरो पुरिसो रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धाभिसित्तस्स आरोचेसि – ‘इत्थन्नामो, देव, पुरिसो परेसं अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियी’ति पेसुञ्ञमकासि।
९६. ‘‘इति खो, भिक्खवे, अधनानं धने अननुप्पदियमाने दालिद्दियं वेपुल्लमगमासि। दालिद्दिये वेपुल्लं गते अदिन्नादानं वेपुल्लमगमासि, अदिन्नादाने वेपुल्लं गते सत्थं वेपुल्लमगमासि, सत्थे वेपुल्लं गते पाणातिपातो वेपुल्लमगमासि, पाणातिपाते वेपुल्लं गते मुसावादो वेपुल्लमगमासि, मुसावादे वेपुल्लं गते पिसुणा वाचा वेपुल्लमगमासि, पिसुणाय वाचाय वेपुल्लं गताय तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि। तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं वीसतिवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं दसवस्ससहस्सायुका पुत्ता अहेसुं।
‘‘दसवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु एकिदं सत्ता वण्णवन्तो होन्ति, एकिदं सत्ता दुब्बण्णा। तत्थ ये ते सत्ता दुब्बण्णा, ते वण्णवन्ते सत्ते अभिज्झायन्ता परेसं दारेसु चारित्तं आपज्जिंसु।
९७. ‘‘इति खो, भिक्खवे, अधनानं धने अननुप्पदियमाने दालिद्दियं वेपुल्लमगमासि। दालिद्दिये वेपुल्लं गते…पे॰… कामेसुमिच्छाचारो वेपुल्लमगमासि, कामेसुमिच्छाचारे वेपुल्लं गते तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि। तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं दसवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं पञ्चवस्ससहस्सायुका पुत्ता अहेसुं।
९८. ‘‘पञ्चवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु द्वे धम्मा वेपुल्लमगमंसु – फरुसावाचा सम्फप्पलापो च। द्वीसु धम्मेसु वेपुल्लं गतेसु तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि। तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं पञ्चवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं अप्पेकच्चे अड्ढतेय्यवस्ससहस्सायुका, अप्पेकच्चे द्वेवस्ससहस्सायुका पुत्ता अहेसुं।
९९. ‘‘अड्ढतेय्यवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु अभिज्झाब्यापादा वेपुल्लमगमंसु। अभिज्झाब्यापादेसु वेपुल्लं गतेसु तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि। तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं अड्ढतेय्यवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं वस्ससहस्सायुका पुत्ता अहेसुं।
१००. ‘‘वस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु मिच्छादिट्ठि वेपुल्लमगमासि। मिच्छादिट्ठिया वेपुल्लं गताय तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि। तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं वस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं पञ्चवस्ससतायुका पुत्ता अहेसुं।
१०१. ‘‘पञ्चवस्ससतायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु तयो धम्मा वेपुल्लमगमंसु। अधम्मरागो विसमलोभो मिच्छाधम्मो। तीसु धम्मेसु वेपुल्लं गतेसु तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि। तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं पञ्चवस्ससतायुकानं मनुस्सानं अप्पेकच्चे अड्ढतेय्यवस्ससतायुका, अप्पेकच्चे द्वेवस्ससतायुका पुत्ता अहेसुं।
‘‘अड्ढतेय्यवस्ससतायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु इमे धम्मा वेपुल्लमगमंसु। अमत्तेय्यता अपेत्तेय्यता असामञ्ञता अब्रह्मञ्ञता न कुले जेट्ठापचायिता।
१०२. ‘‘इति खो, भिक्खवे, अधनानं धने अननुप्पदियमाने दालिद्दियं वेपुल्लमगमासि। दालिद्दिये वेपुल्लं गते अदिन्नादानं वेपुल्लमगमासि। अदिन्नादाने वेपुल्लं गते सत्थं वेपुल्लमगमासि। सत्थे वेपुल्लं गते पाणातिपातो वेपुल्लमगमासि। पाणातिपाते वेपुल्लं गते मुसावादो वेपुल्लमगमासि। मुसावादे वेपुल्लं गते पिसुणा वाचा वेपुल्लमगमासि। पिसुणाय वाचाय वेपुल्लं गताय कामेसुमिच्छाचारो वेपुल्लमगमासि। कामेसुमिच्छाचारे वेपुल्लं गते द्वे धम्मा वेपुल्लमगमंसु, फरुसा वाचा सम्फप्पलापो च। द्वीसु धम्मेसु वेपुल्लं गतेसु अभिज्झाब्यापादा वेपुल्लमगमंसु। अभिज्झाब्यापादेसु वेपुल्लं गतेसु मिच्छादिट्ठि वेपुल्लमगमासि। मिच्छादिट्ठिया वेपुल्लं गताय तयो धम्मा वेपुल्लमगमंसु, अधम्मरागो विसमलोभो मिच्छाधम्मो। तीसु धम्मेसु वेपुल्लं गतेसु इमे धम्मा वेपुल्लमगमंसु, अमत्तेय्यता अपेत्तेय्यता असामञ्ञता अब्रह्मञ्ञता न कुले जेट्ठापचायिता। इमेसु धम्मेसु वेपुल्लं गतेसु तेसं सत्तानं आयुपि परिहायि, वण्णोपि परिहायि। तेसं आयुनापि परिहायमानानं वण्णेनपि परिहायमानानं अड्ढतेय्यवस्ससतायुकानं मनुस्सानं वस्ससतायुका पुत्ता अहेसुं।
दसवस्सायुकसमयो
१०३. ‘‘भविस्सति, भिक्खवे, सो समयो, यं इमेसं मनुस्सानं दसवस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति। दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु पञ्चवस्सिका [पञ्चमासिका (क॰ सी॰)] कुमारिका अलंपतेय्या भविस्सन्ति। दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु इमानि रसानि अन्तरधायिस्सन्ति, सेय्यथिदं, सप्पि नवनीतं तेलं मधु फाणितं लोणं। दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु कुद्रूसको अग्गं भोजनानं [अग्गभोजनं (स्या॰)] भविस्सति। सेय्यथापि, भिक्खवे, एतरहि सालिमंसोदनो अग्गं भोजनानं; एवमेव खो, भिक्खवे, दसवस्सायुकेसु मनुस्सेसु कुद्रूसको अग्गं भोजनानं भविस्सति।
‘‘दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु दस कुसलकम्मपथा सब्बेन सब्बं अन्तरधायिस्सन्ति, दस अकुसलकम्मपथा अतिब्यादिप्पिस्सन्ति [अतिविय दिप्पिस्सन्ति (स्या॰ पी॰), अतिव्यादिप्पिस्सन्ति (सी॰)]। दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु कुसलन्तिपि न भविस्सति, कुतो पन कुसलस्स कारको। दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु ये ते भविस्सन्ति अमत्तेय्या अपेत्तेय्या असामञ्ञा अब्रह्मञ्ञा न कुले जेट्ठापचायिनो, ते पुज्जा च भविस्सन्ति पासंसा च। सेय्यथापि, भिक्खवे, एतरहि मत्तेय्या पेत्तेय्या सामञ्ञा ब्रह्मञ्ञा कुले जेट्ठापचायिनो पुज्जा च पासंसा च; एवमेव खो, भिक्खवे, दसवस्सायुकेसु मनुस्सेसु ये ते भविस्सन्ति अमत्तेय्या अपेत्तेय्या असामञ्ञा अब्रह्मञ्ञा न कुले जेट्ठापचायिनो, ते पुज्जा च भविस्सन्ति पासंसा च।
‘‘दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु न भविस्सति माताति वा मातुच्छाति वा मातुलानीति वा आचरियभरियाति वा गरूनं दाराति वा। सम्भेदं लोको गमिस्सति यथा अजेळका कुक्कुटसूकरा सोणसिङ्गाला [सोणसिगाला (सी॰ पी॰)]।
‘‘दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु तेसं सत्तानं अञ्ञमञ्ञम्हि तिब्बो आघातो पच्चुपट्ठितो भविस्सति तिब्बो ब्यापादो तिब्बो मनोपदोसो तिब्बं वधकचित्तं। मातुपि पुत्तम्हि पुत्तस्सपि मातरि; पितुपि पुत्तम्हि पुत्तस्सपि पितरि; भातुपि भगिनिया भगिनियापि भातरि तिब्बो आघातो पच्चुपट्ठितो भविस्सति तिब्बो ब्यापादो तिब्बो मनोपदोसो तिब्बं वधकचित्तं। सेय्यथापि, भिक्खवे, मागविकस्स मिगं दिस्वा तिब्बो आघातो पच्चुपट्ठितो होति तिब्बो ब्यापादो तिब्बो मनोपदोसो तिब्बं वधकचित्तं; एवमेव खो, भिक्खवे, दसवस्सायुकेसु मनुस्सेसु तेसं सत्तानं अञ्ञमञ्ञम्हि तिब्बो आघातो पच्चुपट्ठितो भविस्सति तिब्बो ब्यापादो तिब्बो मनोपदोसो तिब्बं वधकचित्तं। मातुपि पुत्तम्हि पुत्तस्सपि मातरि; पितुपि पुत्तम्हि पुत्तस्सपि पितरि; भातुपि भगिनिया भगिनियापि भातरि तिब्बो आघातो पच्चुपट्ठितो भविस्सति तिब्बो ब्यापादो तिब्बो मनोपदोसो तिब्बं वधकचित्तं।
१०४. ‘‘दसवस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु सत्ताहं सत्थन्तरकप्पो भविस्सति। ते अञ्ञमञ्ञम्हि मिगसञ्ञं पटिलभिस्सन्ति। तेसं तिण्हानि सत्थानि हत्थेसु पातुभविस्सन्ति। ते तिण्हेन सत्थेन ‘एस मिगो एस मिगो’ति अञ्ञमञ्ञं जीविता वोरोपेस्सन्ति।
‘‘अथ खो तेसं, भिक्खवे, सत्तानं एकच्चानं एवं भविस्सति – ‘मा च मयं कञ्चि [किञ्चि (क॰)], मा च अम्हे कोचि, यंनून मयं तिणगहनं वा वनगहनं वा रुक्खगहनं वा नदीविदुग्गं वा पब्बतविसमं वा पविसित्वा वनमूलफलाहारा यापेय्यामा’ति। ते तिणगहनं वा वनगहनं वा रुक्खगहनं वा नदीविदुग्गं वा पब्बतविसमं वा [ते तिणगहनं वनगहनं रुक्खगहनं नदीविदुग्गं पब्बतविसमं (सी॰ पी॰)] पविसित्वा सत्ताहं वनमूलफलाहारा यापेस्सन्ति। ते तस्स सत्ताहस्स अच्चयेन तिणगहना वनगहना रुक्खगहना नदीविदुग्गा पब्बतविसमा निक्खमित्वा अञ्ञमञ्ञं आलिङ्गित्वा सभागायिस्सन्ति समस्सासिस्सन्ति – ‘दिट्ठा, भो, सत्ता जीवसि, दिट्ठा, भो, सत्ता जीवसी’ति।
आयुवण्णादिवड्ढनकथा
१०५. ‘‘अथ खो तेसं, भिक्खवे, सत्तानं एवं भविस्सति – ‘मयं खो अकुसलानं धम्मानं समादानहेतु एवरूपं आयतं ञातिक्खयं पत्ता। यंनून मयं कुसलं करेय्याम। किं कुसलं करेय्याम? यंनून मयं पाणातिपाता विरमेय्याम, इदं कुसलं धम्मं समादाय वत्तेय्यामा’ति। ते पाणातिपाता विरमिस्सन्ति, इदं कुसलं धम्मं समादाय वत्तिस्सन्ति। ते कुसलानं धम्मानं समादानहेतु आयुनापि वड्ढिस्सन्ति, वण्णेनपि वड्ढिस्सन्ति। तेसं आयुनापि वड्ढमानानं वण्णेनपि वड्ढमानानं दसवस्सायुकानं मनुस्सानं वीसतिवस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति।
‘‘अथ खो तेसं, भिक्खवे, सत्तानं एवं भविस्सति – ‘मयं खो कुसलानं धम्मानं समादानहेतु आयुनापि वड्ढाम, वण्णेनपि वड्ढाम। यंनून मयं भिय्योसोमत्ताय कुसलं करेय्याम। किं कुसलं करेय्याम? यंनून मयं अदिन्नादाना विरमेय्याम… कामेसुमिच्छाचारा विरमेय्याम… मुसावादा विरमेय्याम… पिसुणाय वाचाय विरमेय्याम… फरुसाय वाचाय विरमेय्याम… सम्फप्पलापा विरमेय्याम… अभिज्झं पजहेय्याम… ब्यापादं पजहेय्याम… मिच्छादिट्ठिं पजहेय्याम… तयो धम्मे पजहेय्याम – अधम्मरागं विसमलोभं मिच्छाधम्मं… यंनून मयं मत्तेय्या अस्साम पेत्तेय्या सामञ्ञा ब्रह्मञ्ञा कुले जेट्ठापचायिनो, इदं कुसलं धम्मं समादाय वत्तेय्यामा’ति। ते मत्तेय्या भविस्सन्ति पेत्तेय्या सामञ्ञा ब्रह्मञ्ञा कुले जेट्ठापचायिनो, इदं कुसलं धम्मं समादाय वत्तिस्सन्ति।
‘‘ते कुसलानं धम्मानं समादानहेतु आयुनापि वड्ढिस्सन्ति, वण्णेनपि वड्ढिस्सन्ति। तेसं आयुनापि वड्ढमानानं वण्णेनपि वड्ढमानानं वीसतिवस्सायुकानं मनुस्सानं चत्तारीसवस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति… चत्तारीसवस्सायुकानं मनुस्सानं असीतिवस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति… असीतिवस्सायुकानं मनुस्सानं सट्ठिवस्ससतायुका पुत्ता भविस्सन्ति… सट्ठिवस्ससतायुकानं मनुस्सानं वीसतितिवस्ससतायुका पुत्ता भविस्सन्ति… वीसतितिवस्ससतायुकानं मनुस्सानं चत्तारीसछब्बस्ससतायुका पुत्ता भविस्सन्ति। चत्तारीसछब्बस्ससतायुकानं मनुस्सानं द्वेवस्ससहस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति… द्वेवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं चत्तारिवस्ससहस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति… चत्तारिवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं अट्ठवस्ससहस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति… अट्ठवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं वीसतिवस्ससहस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति… वीसतिवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं चत्तारीसवस्ससहस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति… चत्तारीसवस्ससहस्सायुकानं मनुस्सानं असीतिवस्ससहस्सायुका पुत्ता भविस्सन्ति… असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु पञ्चवस्ससतिका कुमारिका अलंपतेय्या भविस्सन्ति।
सङ्खराजउप्पत्ति
१०६. ‘‘असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु तयो आबाधा भविस्सन्ति, इच्छा, अनसनं, जरा। असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु अयं जम्बुदीपो इद्धो चेव भविस्सति फीतो च, कुक्कुटसम्पातिका गामनिगमराजधानियो [गामनिगमजनपदा राजधानियो (क॰)]। असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु अयं जम्बुदीपो अवीचि मञ्ञे फुटो भविस्सति मनुस्सेहि, सेय्यथापि नळवनं वा सरवनं [सारवनं (स्या॰)] वा। असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु अयं बाराणसी केतुमती नाम राजधानी भविस्सति इद्धा चेव फीता च बहुजना च आकिण्णमनुस्सा च सुभिक्खा च। असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु इमस्मिं जम्बुदीपे चतुरासीतिनगरसहस्सानि भविस्सन्ति केतुमतीराजधानीपमुखानि। असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु केतुमतिया राजधानिया सङ्खो नाम राजा उप्पज्जिस्सति चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो। तस्सिमानि सत्त रतनानि भविस्सन्ति, सेय्यथिदं, चक्करतनं हत्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं परिणायकरतनमेव सत्तमं। परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भविस्सन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना। सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसिस्सति।
मेत्तेय्यबुद्धुप्पादो
१०७. ‘‘असीतिवस्ससहस्सायुकेसु, भिक्खवे, मनुस्सेसु मेत्तेय्यो नाम भगवा लोके उप्पज्जिस्सति अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा। सेय्यथापाहमेतरहि लोके उप्पन्नो अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा। सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेस्सति, सेय्यथापाहमेतरहि इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेमि। सो धम्मं देसेस्सति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेस्सति; सेय्यथापाहमेतरहि धम्मं देसेमि आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेमि। सो अनेकसहस्सं [अनेकसतसहस्सं (क॰)] भिक्खुसंघं परिहरिस्सति, सेय्यथापाहमेतरहि अनेकसतं भिक्खुसंघं परिहरामि।
१०८. ‘‘अथ खो, भिक्खवे, सङ्खो नाम राजा यो सो यूपो रञ्ञा महापनादेन कारापितो। तं यूपं उस्सापेत्वा अज्झावसित्वा तं दत्वा विस्सज्जित्वा समणब्राह्मणकपणद्धिकवणिब्बकयाचकानं दानं दत्वा मेत्तेय्यस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सन्तिके केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सति। सो एवं पब्बजितो समानो एको वूपकट्ठो अप्पमत्तो आतापी पहितत्तो विहरन्तो नचिरस्सेव यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति, तदनुत्तरं ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति।
१०९. ‘‘अत्तदीपा, भिक्खवे, विहरथ अत्तसरणा अनञ्ञसरणा, धम्मदीपा धम्मसरणा अनञ्ञसरणा। कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु अत्तदीपो विहरति अत्तसरणो अनञ्ञसरणो धम्मदीपो धम्मसरणो अनञ्ञसरणो? इध, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। वेदनासु वेदनानुपस्सी…पे॰… चित्ते चित्तानुपस्सी…पे॰… धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु अत्तदीपो विहरति अत्तसरणो अनञ्ञसरणो धम्मदीपो धम्मसरणो अनञ्ञसरणो।
भिक्खुनोआयुवण्णादिवड्ढनकथा
११०. ‘‘गोचरे, भिक्खवे, चरथ सके पेत्तिके विसये। गोचरे, भिक्खवे, चरन्ता सके पेत्तिके विसये आयुनापि वड्ढिस्सथ, वण्णेनपि वड्ढिस्सथ, सुखेनपि वड्ढिस्सथ, भोगेनपि वड्ढिस्सथ, बलेनपि वड्ढिस्सथ।
‘‘किञ्च, भिक्खवे, भिक्खुनो आयुस्मिं? इध, भिक्खवे, भिक्खु छन्दसमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति, वीरियसमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति, चित्तसमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति, वीमंसासमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति। सो इमेसं चतुन्नं इद्धिपादानं भावितत्ता बहुलीकतत्ता आकङ्खमानो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा। इदं खो, भिक्खवे, भिक्खुनो आयुस्मिं।
‘‘किञ्च, भिक्खवे, भिक्खुनो वण्णस्मिं? इध, भिक्खवे, भिक्खु सीलवा होति, पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति आचारगोचरसम्पन्नो, अणुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्सावी, समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु। इदं खो, भिक्खवे, भिक्खुनो वण्णस्मिं।
‘‘किञ्च, भिक्खवे, भिक्खुनो सुखस्मिं? इध, भिक्खवे, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति। वितक्कविचारानं वूपसमा…पे॰… दुतियं झानं…पे॰… ततियं झानं…पे॰… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति। इदं खो, भिक्खवे, भिक्खुनो, सुखस्मिं।
‘‘किञ्च, भिक्खवे, भिक्खुनो भोगस्मिं? इध, भिक्खवे, भिक्खु मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति तथा दुतियं। तथा ततियं। तथा चतुत्थं। इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति। करुणासहगतेन चेतसा…पे॰… मुदितासहगतेन चेतसा…पे॰… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति। तथा दुतियं। तथा ततियं। तथा चतुत्थं। इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति। इदं खो, भिक्खवे, भिक्खुनो भोगस्मिं।
‘‘किञ्च, भिक्खवे, भिक्खुनो बलस्मिं? इध, भिक्खवे, भिक्खु आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। इदं खो, भिक्खवे, भिक्खुनो बलस्मिं।
‘‘नाहं, भिक्खवे, अञ्ञं एकबलम्पि समनुपस्सामि यं एवं दुप्पसहं, यथयिदं, भिक्खवे, मारबलं। कुसलानं, भिक्खवे, धम्मानं समादानहेतु एवमिदं पुञ्ञं पवड्ढती’’ति। इदमवोच भगवा। अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति।
चक्कवत्तिसुत्तं निट्ठितं ततियं।