नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 दुनिया की शुरुवात

सूत्र विवेचना

क्या सभ्यता की प्रगति वास्तव में एक नैतिक पतन है? विद्वान रिचर्ड गोम्ब्रिच ने इस सुत्त को “बौद्ध साहित्य का सबसे साहसिक व्यंग्य” पुकारा है। और क्यों न हो? भगवान का यह उपदेश लगभग हर किसी की धारणा को चुनौती देकर पलटा देता है, चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो, या कुछ न मानने वाला नास्तिक ही क्यों न हो। अग्गञ्ञ सूत्र वह अनमोल मोती है, जिसमें दुनिया की शुरुवात को बेहद सरल और विश्वसनीय कथा में प्रस्तुत किया, और सभी स्थापित आदिकथाओं और धारणाओं के कमियों को उजागर कर दिया। इसमें पता चलता हैं कि समाज का निर्माण किसी “अलौकिक दैवीय शक्ति” ने नहीं किया। बल्कि यह लोगों की “नैतिक विफलताओं” का प्रतिबिंब है।

भगवान इसमें ब्राह्मणी सोच पर आघात करते है, जो स्वयं को जन्मजात श्रेष्ठ और दूसरों को नीच बताते हैं। यहाँ बुद्ध ब्राह्मणों के साथ-साथ सभी अन्य वर्णों, वर्गों और श्रमणों की असली उत्पत्ति बताते हैं। इस सूत्र में जिस तरह से दुनिया की उत्क्रांती होते बतायी गयी है, उसके समानांतर संपूर्ण दुनिया में न कोई आदिकथा पायी जाती है, न कोई सूत्र पाया जाता है, न पुराण शास्त्र में मिलाजुला उल्लेख मिलता है, न ही आज तक किसी के दिमागी रचनात्मकता ने ऐसा कुछ गढ़ा है। यकीन करना कठिन है कि इतने हजारों वर्षों के बाद भी यह कहानी इतनी अनोखी, अछूती, और सर्वथा भिन्न कैसे बच गयी?

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती के पूर्वाराम [=पूर्व-दिशा का आश्रम] में मिगार-माता महल में विहार कर रहे थे। उस समय वासेष्ठ और भारद्वाज ने भिक्षु बनने की आकांक्षा से भिक्षुओं के साथ परिवास लिया था। तब भगवान सायंकाल के समय एकांतवास से निकले और महल से उतरकर महल के पीछे खुले आकाश के नीचे चक्रमण करने लगे।

तब वासेष्ठ ने भगवान को सायंकाल के समय एकांतवास से निकलकर, महल से उतरकर महल के पीछे खुले आकाश के नीचे चक्रमण करते देखा। देखकर उसने भारद्वाज को संबोधित किया, “मित्र भारद्वाज, भगवान सायंकाल के समय एकांतवास से निकलकर, महल से उतरकर महल के पीछे खुले आकाश के नीचे चक्रमण कर रहे है। आओ, मित्र भारद्वाज, भगवान के पास जाए। हो सकता है हमें भगवान के पास धर्म-कथा सुनने का लाभ मिले।”

“ठीक है, मित्र।” भारद्वाज ने वासेष्ठ को उत्तर दिया। तब, वासेष्ठ और भारद्वाज भगवान के पास गए और भगवान को अभिवादन कर भगवान के साथ-साथ चक्रमण करने लगे।

तब भगवान ने वासेष्ठ को संबोधित किया, “वासेष्ठ, तुम दोनों ही ने ब्राह्मण कुल-परिवार में ब्राह्मण [के तौर पर] जन्म लिया हैं, और ब्राह्मण-कुल से घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुए हो। तो, वासेष्ठ, क्या ब्राह्मण तुम्हें निंदित या अपमानित नहीं करते हैं?”

“वाकई, भंते, ब्राह्मण लोग अपनी शैली में हमें परिपूर्ण तरह से निंदित और अपमानित करते हैं, अधूरे तरह से नहीं।”

“किन्तु, वासेष्ठ, ब्राह्मण लोग कैसे अपनी शैली में तुम्हें परिपूर्ण तरह से निंदित और अपमानित करते हैं, अधूरे तरह से नहीं?”

“भंते, ब्राह्मण कहते हैं कि ‘केवल ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण है, बाकी सब हीन वर्ण हैं। केवल ब्राह्मण ही उजला वर्ण है, बाकी सब काला वर्ण हैं। ब्राह्मण ही शुद्ध हैं, दूसरे नहीं। केवल ब्राह्मण ही ब्रह्मा के पुत्र हैं, उसके मुख से जन्मे, ब्रह्मा से जन्में, ब्रह्मा से निर्मित, ब्रह्मा के वारिस हैं। और तुम श्रेष्ठ-वर्ण छोड़कर हीन-वर्ण में चले गए, उन्ही मथमुण्डे, तुच्छ श्रमण, नीच जाति के, काले, ब्रह्मा के पैर से उपजे हुए के पास!’ इस तरह, भंते, ब्राह्मण लोग अपनी शैली में हमें परिपूर्ण तरह से निंदित और अपमानित करते हैं, अधूरे तरह से नहीं।”

“दरअसल, वासेष्ठ, ब्राह्मण पुराण [=पुरानी बातें] भूलने के कारण ऐसा कहते हैं कि ‘केवल ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण है, बाकी सब हीन वर्ण हैं। केवल ब्राह्मण ही उजला वर्ण है, बाकी सब काला वर्ण हैं। ब्राह्मण ही शुद्ध हैं, दूसरे नहीं। केवल ब्राह्मण ही ब्रह्मा के पुत्र हैं, उसके मुख से जन्मे, ब्रह्मा से जन्में, ब्रह्मा से निर्मित, ब्रह्मा के वारिस हैं।’

क्योंकि, वासेष्ठ, ब्राह्मणों के ब्राह्मण स्त्रियॉं को ऋतुमती होते, गर्भवती होते, जन्म देते, और दूध पिलाते देखा जाता है। वे ब्राह्मण योनि से जन्मते हुए भी कहते हैं कि ‘केवल ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण है, बाकी सब हीन…’ वे ब्रह्मा का मिथ्यावर्णन करते हैं, झूठ बोलते हैं, और बहुत अपुण्य कमाते हैं।”

१. चतुर्वर्ण शुद्धि

“वासेष्ठ, चार वर्ण हैं — क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, और शूद्र। 1 कुछ क्षत्रिय होते हैं, वासेष्ठ, जो जीवहत्या, चोरी या व्यभिचार करते हैं; झूठ, फूट डालनेवाली, कटु या निरर्थक बातें करते हैं; लालची, दुर्भावनापूर्ण, या मिथ्यादृष्टि धारण [=दस अकुशल कर्मपथ] करते हैं। वासेष्ठ, ये स्वभाव अकुशल हैं, दोषपूर्ण हैं, विकसित करने के अयोग्य हैं, अनार्य हैं, अनार्य माने जाते हैं, काले हैं, काले फल-परिणाम वाले हैं, विद्वान लोगों द्वारा निंदित हैं। इस प्रकार के स्वभाव कुछ क्षत्रियों में देखें जाते हैं… ब्राह्मणों में भी देखें जाते हैं… वैश्यों में भी देखें जाते हैं… शूद्रों में भी देखें जाते हैं।

किन्तु, कुछ क्षत्रिय होते हैं, वासेष्ठ, जो जीवहत्या, चोरी या व्यभिचार से विरत रहते हैं; झूठ, फूट डालनेवाली, कटु और निरर्थक बातों से विरत रहते हैं; न लालची, न दुर्भावनापूर्ण, बल्कि सम्यकदृष्टि धारण [=दस कुशल कर्मपथ] करते हैं । वासेष्ठ, ये स्वभाव कुशल हैं, निर्दोष हैं, विकसित करने योग्य हैं, आर्य हैं, आर्य माने जाते हैं, उजले हैं, उजले फल-परिणाम वाले हैं, विद्वान लोगों द्वारा प्रशंसित हैं। इस प्रकार के स्वभाव कुछ क्षत्रियों में देखें जाते हैं… ब्राह्मणों में भी देखें जाते हैं… वैश्यों में भी देखें जाते हैं… शूद्रों में भी देखें जाते हैं।

इस तरह, वासेट्ठ, जब चारों ही वर्णों में दोनों स्वभाव पाए जाते हो — काले भी और उजले भी, विद्वान लोगों द्वारा निंदित भी और प्रशंसित भी — तब, ब्राह्मण भला कैसे कहते हैं कि ‘केवल ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण है, बाकी सब हीन वर्ण हैं। केवल ब्राह्मण ही उजला वर्ण है, बाकी सब काला वर्ण हैं। ब्राह्मण ही शुद्ध हैं, दूसरे नहीं। केवल ब्राह्मण ही ब्रह्मा के पुत्र हैं, उसके मुख से जन्मे, ब्रह्मा से जन्में, ब्रह्मा से निर्मित, ब्रह्मा के वारिस हैं।’

विद्वान लोग ऐसा नहीं मानते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि, वासेष्ठ, चारों ही वर्णों से आकर भिक्षु अरहंत होते हैं, आस्रव खत्म करते हैं, ब्रह्मचर्य परिपूर्ण करते हैं, कर्तव्य समाप्त करते हैं, बोझ को नीचे रखते हैं, परम-ध्येय प्राप्त करते हैं, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ देते हैं, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त होते हैं, और उन्हें धर्मानुसार ‘सर्वश्रेष्ठ’ माना जाता है, अधर्म से नहीं।

क्योंकि, वासेष्ठ, धर्म ही जनता के लिए सर्वश्रेष्ठ है, इस लोक में भी और परलोक में भी। कोसल का राजा पसेनदि भी जानता है कि “श्रमण गौतम पड़ोसी शाक्य कुल से प्रवज्जित हुए है। और शाक्य लोग कोसलराज पसेनदि के अधीन [जागीरदार] हैं। शाक्य लोग कोसलराज पसेनदि के आगे झुकते हैं, उसे अभिवादन करते हैं, उसके लिए उठते हैं, उसे हाथ-जोड़कर प्रणाम करते हैं, और शिष्टाचार करते हैं। और, वासेष्ठ, कोसलराज पसेनदि मेरे आगे झुकता है, मुझे अभिवादन करता है, मेरे लिए उठता है, मुझे हाथ-जोड़कर प्रणाम करता है, और शिष्टाचार करता है।

ऐसा कोसलराज पसेनदि इसलिए नहीं करता कि “श्रमण गौतम सुजात है, मैं दुर्जात हूँ! या श्रमण गौतम बलवान है, मैं दुर्बल हूँ! या श्रमण गौतम रूपवान है, मैं कुरूप हूँ! या श्रमण गौतम महाप्रभावशाली है, मैं कम प्रभावशाली हूँ!” बल्कि, कोसलराज पसेनदि धर्म का सत्कार करते हुए, धर्म का सम्मान करते हुए, धर्म को मानते हुए, धर्म को पूजते हुए, धर्म को ऊँचा मानते हुए, तथागत के आगे झुकता है, अभिवादन करता है, उठता है, हाथ-जोड़कर प्रणाम करता है, और शिष्टाचार करता है।

और, वासेष्ठ, इस तरीके से भी जानना चाहिए कि ‘धर्म ही जनता के लिए सर्वश्रेष्ठ है, इस लोक में भी और परलोक में भी।’ विभिन्न जाति, विभिन्न नाम, विभिन्न गोत्र, विभिन्न कुल से आए, तुम लोग घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुए हो। किन्तु, जब तुमसे पूछा जाए कि “कौन हो?” तो तुम कहते हो, “हम शाक्यपुत्र श्रमण हैं!”

किन्तु, वासेष्ठ, जब किसी को तथागत पर श्रद्धा गड़ चुकी हो, [गहराई में] जड़ तक जम चुकी हो, प्रतिष्ठित हो चुकी हो, दृढ़ हो चुकी हो, जो किसी श्रमण या ब्राह्मण या देवता या मार या ब्रह्म या ब्रह्मांड के किसी से भी हिलायी न जा सकती हो, केवल उसी को ऐसा कहना चाहिए कि “मैं भगवान का पुत्र हूँ, उनके मुख से जन्मा, धर्म से जन्में, धर्म से निर्मित, धर्म का वारिस हूँ।” ऐसा क्यों? क्योंकि, वासेष्ठ, ये शब्द — ‘धर्म की काया’, ‘ब्रह्म की काया’, ‘धर्म से बना’, ‘ब्रह्म से बना’, सभी तथागत के ही पर्यायवाची शब्द हैं।

ऐसा होता है, वासेष्ठ, दीर्घकाल बीतने पर एक समय आता है जब इस लोक का संवर्त [=सिकुड़न] होता है। जब इस लोक का संवर्त होता है तब अधिकतर सत्व आभास्वर [ब्रह्मलोक] की ओर बढ़ते हैं। वे वहाँ मनोमय [=मन से रची], प्रीतिभक्षी [=समाधि से उपजी प्रफुल्लता के आहार पर जीवन व्यापन करने वाले], स्वयंप्रभा [=भीतरी प्रकाश फैलाने वाले], अन्तरिक्षचर [=अन्तरिक्ष से यात्रा करने वाले], मोहक सौंदर्यता से युक्त होकर दीर्घकाल तक रहते हैं।

तब आगे ऐसा होता है, वासेष्ठ, दीर्घकाल बीतने पर अंततः एक समय आता है जब इस लोक का विवर्त [=विस्तार] होता है। जब इस लोक का विवर्त होता है तब अधिकतर सत्व आभास्वर से च्युत होकर इस लोक में आते हैं। और यहाँ वे मनोमय, प्रीतिभक्षी, स्वयंप्रभा, अन्तरिक्षचर, मोहक सौंदर्यता से युक्त होकर दीर्घकाल तक रहते हैं।”

२. रसपृथ्वी प्रकट होना

“उस समय, वासेष्ठ, बहुत अंधकार था, और एक ही अंधकारमय जलाशय था। 2 न चाँद और सूरज पता चलते थे, न नक्षत्र और तारें पता चलते थे, न रात और दिन पता चलते थे, न महिने और अर्धमास [पक्ष] पता चलते थे, न ऋतु और वर्ष पता चलते थे, न स्त्री और पुरुष पता चलते थे। सत्वों को ‘सत्व’ से ही पहचाना जाता था।

तब, वासेष्ठ, बहुत समय बीतने पर सत्वों के लिए जल पर रसपृथ्वी जम गयी। जैसे, गरम दूध के शीतल होने पर ऊपर मलाई जमती है, उस तरह प्रकट हुई। वह बहुत सुंदर, सुगंधित, और स्वादिष्ट थी, जिसका घी या मक्खन जैसा रंग था, और शूद्र-मधु [=छोटे आकार की जंगली मधुमक्खियों के शहद] जैसी मिठास।

तब, वासेष्ठ, कोई चंचल वृत्ति का सत्व था। “ओह हो, ये क्या है?” [सोचते हुए,] रसपृथ्वी को उँगली से चाटने लगा। रसपृथ्वी को उँगली से चाटने पर उसे मजा आया, और उसमें तृष्णा उत्पन्न हुई। अन्य सत्व भी उस सत्व की देखा-देखी करते हुए रसपृथ्वी को उँगली से चाटने लगे। रसपृथ्वी को उँगली से चाटने पर उन्हें भी मजा आया, और उनमें भी तृष्णा उत्पन्न हुई।”

३. चाँद-सूरज प्रकट होना

“और, वासेष्ठ, तब वे सत्व रसपृथ्वी को हाथ से निवाले बना-बनाकर खाने लगे। किन्तु, जब वे सत्व रसपृथ्वी को हाथ से निवाले बना-बनाकर खाने लगे, तब उनकी स्वयंप्रभा विलुप्त हुई। स्वयंप्रभा के विलुप्त होने पर चाँद और सूरज प्रकट हुए। चाँद और सूरज के प्रकट होने पर नक्षत्र और तारें प्रकट हुए। नक्षत्र और तारें प्रकट होने पर रात और दिन पता चलने लगे। रात और दिन पता चलने पर महीने और अर्धमास पता चलने लगे। और, मास और अर्धमास पता चलने पर ऋतु और वर्ष पता चलने लगे। इस तरह, वासेष्ठ, इस लोक का विस्तार हुआ।

और, वासेष्ठ, वे सत्व रसपृथ्वी को खाकर, उसी का भक्षण कर, उसी का आहार लेकर दीर्घकाल तक बने रहे। किन्तु, जैसे-जैसे वे सत्व रसपृथ्वी खाकर, भक्षण कर, उसी आहार पर दीर्घकाल तक बने रहे, वैसे-वैसे उन सत्वों की काया रसपृथ्वी को खाने के कारण कठोर होती गयी, वर्ण में दुवर्णता पता चलने लगी। कोई सत्व रूपवान हुए, तो कोई कुरूप। तब, जो रूपवान सत्व थे, वे कुरूप सत्वों को देखकर अहंकार से बोलते, “हम रूपवान हैं, वे कुरूप!” उनके वर्ण अहंकार के कारण, अति अहंकार जागने के कारण रसपृथ्वी विलुप्त हो गयी। रसपृथ्वी के विलुप्त होने पर वे एकत्र होकर [शोक से] कृंदन करने लगे, “ओ, रस! ओ, रस!” उसी तरह, आज भी मानव जब कोई अच्छा रस [=स्वाद] पाते हैं, तो कहते हैं, “ओ, रस! ओ, रस!” वे उसी पुराने सर्वश्रेष्ठ कहावत का अनुस्मरण करते हैं, किन्तु उसका अर्थ नहीं जानते।”

४. भूमि-पपड़ी प्रकट होना

“और, वासेष्ठ, उन सत्वों के लिए रसपृथ्वी के विलुप्त होने पर भूमि-पपड़ी प्रकट हुई। जैसे नागफनी [=मशरूम] दिखता है, उसी तरह प्रकट हुई। वह भी बहुत सुंदर, सुगंधित, और स्वादिष्ट था, जिसका घी या मक्खन जैसा रंग था, और शूद्र-मधु जैसी मिठास। तब, वासेष्ठ, वे सत्व भूमि-पपड़ी को खाने लगे।

और, वासेष्ठ, वे सत्व भूमि-पपड़ी को खाकर, उसी का भक्षण कर, उसी का आहार लेकर दीर्घकाल तक बने रहे। किन्तु, जैसे-जैसे वे सत्व भूमि-पपड़ी खाकर, भक्षण कर, उसी आहार पर दीर्घकाल तक बने रहे, वैसे-वैसे उन सत्वों की काया भूमि-पपड़ी को खाने के कारण कठोर होती गयी, वर्ण में दुवर्णता पता चलने लगी। कोई सत्व रूपवान हुए, तो कोई कुरूप। तब, जो रूपवान सत्व थे, वे कुरूप सत्वों को देखकर पुनः अहंकार से बोलते, “हम रूपवान हैं, वे कुरूप!” उनके वर्ण अहंकार के कारण, अति अहंकार जागने के कारण भूमि-पपड़ी भी विलुप्त हो गयी।”

५. पदालता प्रकट होना

भूमि-पपड़ी के विलुप्त होने पर पदालता 3 प्रकट हुई। जैसे कलम्बुक होता है, वैसे प्रकट हुई। वह भी बहुत सुंदर, सुगंधित, और स्वादिष्ट थी, जिसका घी या मक्खन जैसा रंग था, और शूद्र-मधु जैसी मिठास। तब, वासेष्ठ, वे सत्व पदालता को खाने लगे।

और, वासेष्ठ, वे सत्व पदालता को खाकर, उसी का भक्षण कर, उसी का आहार लेकर दीर्घकाल तक बने रहे। किन्तु, जैसे-जैसे वे सत्व पदालता खाकर, भक्षण कर, उसी आहार पर दीर्घकाल तक बने रहे, वैसे-वैसे उन सत्वों की काया पदालता को खाने के कारण कठोर होती गयी, वर्ण में दुवर्णता पता चलने लगी। कोई सत्व रूपवान हुए, तो कोई कुरूप। तब, जो रूपवान सत्व थे, वे कुरूप सत्वों को देखकर पुनः अहंकार से बोलते, “हम रूपवान हैं, वे कुरूप!” उनके वर्ण अहंकार के कारण, अति अहंकार जागने के कारण पदालता भी विलुप्त हो गयी। पदालता के विलुप्त होने पर वे एकत्र होकर कृंदन करने लगे, “अरे, क्या खो दिया! अरे, क्या खो दिया पदालता!” उसी तरह, आज भी मानव जब कोई दुःख छूते हैं, तो कहते हैं, “अरे, क्या खो दिया! अरे, क्या खो दिया!” वे उसी पुराने सर्वश्रेष्ठ कहावत का अनुस्मरण करते हैं, किन्तु उसका अर्थ नहीं जानते।”

६. पके चावल का प्रकट होना

“और, वासेष्ठ, उन सत्वों के लिए पदालता विलुप्त होने पर बिना जोता, पका चावल प्रकट हुआ, जो बिना टूटा, बिना छिलके [या भूसी] का, शुद्ध, सुगंधित, चावल के दाने। वे उसे सायंकाल के समय रात्रिभोज के लिए लाते, तो वह सुबह तक फिर बढ़कर पक जाता। वे उसे सुबह प्रातःभोज के लिए लाते, तो वह सायंकाल तक फिर बढ़कर पक जाता। उसका स्त्रोत पता न चलता।

और, वासेष्ठ, वे सत्व बिना जोता, पका चावल को खाकर, उसी का भक्षण कर, उसी का आहार लेकर दीर्घकाल तक बने रहे।

७. स्त्री-पुरुष लिंग प्रकट होना

किन्तु, वासेष्ठ, जैसे-जैसे वे सत्व बिना जोता, पका चावल खाकर, भक्षण कर, उसी आहार पर दीर्घकाल तक बने रहे, वैसे-वैसे उन सत्वों की काया कठोर होती गयी, वर्ण में दुवर्णता पता चलने लगी। स्त्रियॉं में स्त्री-लिंग प्रकट हुए और पुरुषों में पुरुष-लिंग। स्त्रियाँ पुरुषों को बहुत समय तक निहारती रहती, और पुरुष स्त्रियॉं को। तब, उन्हें बहुत समय एक दूसरे को निहारने पर वासना उत्पन्न हुई, काया में [कामुक] अग्नि भड़कने लगी। और उस अग्नि के कारण उन्होने मैथुन-धर्म का सेवन [=संभोग] किया।

और, वासेष्ठ, उस समय जो सत्वों ने उन्हें मैथुन-धर्म का सेवन करते हुए देखा, वे कोई उन पर मिट्टी फेंकने लगा, कोई राख फेंकने लगा, कोई गोबर फेंकने लगा, [कहते हुए,] “चले जाओ, गंदगी! चले जाओ, गंदगी! कैसे कोई सत्व किसी सत्व के साथ ऐसा कर सकता है?” उसी तरह, आज भी किसी-किसी देश में मानव जब वधु ब्याह कर ले जाते हैं, तब कोई उन पर मिट्टी फेंकता हैं, कोई राख फेंकता हैं, कोई गोबर फेंकता हैं। 4 वे उसी पुराने सर्वश्रेष्ठ कहावत का अनुस्मरण करते हैं, किन्तु उसका अर्थ नहीं जानते।”

संभोग

“जो उस समय अधर्मपूर्ण माना जाता था, वासेष्ठ, वही इस समय धर्मपूर्ण माना जाता है। उस समय जो सत्व संभोग करते थे, उन्हें एक-दो महीने तक गाँव या निगम में प्रवेश नहीं मिलता था। और, वासेष्ठ, वे सत्व उस अनैतिकता में बहुत समय तक गिरने लगे। तब उन्होने अपने अनैतिक उपक्रमो को छिपाने के लिए घर बनाना शुरू किया।

तब, वासेष्ठ, किसी आलसी जाति के सत्व को लगा, “अरे, मैं क्यों परेशान रहूँ कि रात्रिभोज के लिए चावल लाना है, प्रातःभोज के लिए चावल लाना है। क्यों न मैं रात्रिभोज और प्रातःभोज, दोनों के लिए एक साथ चावल लाऊँ?”

और, वासेष्ठ, उस सत्व ने रात्रिभोज और प्रातःभोज, दोनों के लिए एक साथ चावल ले आया। तब कोई अन्य सत्व उस सत्व के पास आया, और कहा, “चलो, श्रीमान सत्व, 5 चावल ले आएँ।”

“रहने दो, श्रीमान सत्व, मैंने रात्रिभोज और प्रातःभोज, दोनों के लिए एक साथ चावल ले आया हूँ।”

तब, वासेष्ठ, उस सत्व ने देखा-देखी कर एक साथ दो दिन का चावल ले आया, “ये ऐसा बढ़िया है!” [सोचते हुए।]

तब कोई अन्य सत्व उस सत्व के पास आया, और कहा, “चलो, श्रीमान सत्व, चावल ले आएँ।”

“रहने दो, श्रीमान सत्व, मैंने एक साथ दो दिन का चावल ले आया हूँ।”

तब, वासेष्ठ, उस सत्व ने देखा-देखी कर एक साथ चार दिन का चावल ले आया, “ये ऐसा बढ़िया है!” [सोचते हुए।]

तब कोई अन्य सत्व उस सत्व के पास आया, और कहा, “चलो, श्रीमान सत्व, चावल ले आएँ।”

“रहने दो, श्रीमान सत्व, मैंने एक साथ चार दिन का चावल ले आया हूँ।”

तब, वासेष्ठ, उस सत्व ने देखा-देखी कर एक साथ आठ दिन का चावल ले आया, “ये ऐसा बढ़िया है!” [सोचते हुए।]

और इस तरह, वासेष्ठ, सत्वों ने चावल को जमा कर के खाने का उपक्रम शुरू किया। तब चावल के दाने टूटने [=कणिक होने] लगे, और चावल छिलके से घिरने लगा। काटने पर नहीं बढ़ता था, स्त्रोत [=चावल की जड़] पता चलने लगा, और चावल झुरमुट-झुरमुट में खड़ा होने लगा।”

९. चावल का बँटवारा

“तब, वासेष्ठ, सत्व एकत्र हुए और एकत्र होकर कृंदन करने लगे, “अरे, सत्वों में पापी धर्म प्रकट हो गए! 6 पहले हम मनोमय, प्रीतिभक्षी, स्वयंप्रभा, अन्तरिक्षचर, मोहक सौंदर्यता से युक्त होकर दीर्घकाल तक रहते थे। तब, बहुत समय बीतने पर जल पर रसपृथ्वी जम गयी। वह बहुत सुंदर, सुगंधित, और स्वादिष्ट थी। किन्तु, जब हम रसपृथ्वी को हाथ से निवाले बना-बनाकर खाने लगे, तब हमारी स्वयंप्रभा विलुप्त हुई। स्वयंप्रभा के विलुप्त होने पर चाँद और सूरज प्रकट हुए। चाँद और सूरज के प्रकट होने पर नक्षत्र और तारें प्रकट हुए। नक्षत्र और तारें प्रकट होने पर रात और दिन पता चलने लगे। रात और दिन पता चलने पर महीने और अर्धमास पता चलने लगे। और, मास और अर्धमास पता चलने पर ऋतु और वर्ष पता चलने लगे। और, हम रसपृथ्वी को खाकर, उसी का भक्षण कर, उसी का आहार लेकर दीर्घकाल तक बने रहे।

फिर, हम में पाप, अकुशल धर्म [रूप अहंकार] प्रकट होने से रसपृथ्वी विलुप्त हो गयी। रसपृथ्वी के विलुप्त होने पर भूमि-पपड़ी प्रकट हुई। वह भी बहुत सुंदर, सुगंधित, और स्वादिष्ट थी। तब हम भूमि-पपड़ी को खाने लगे। हम उस भूमि-पपड़ी को खाकर, उसी का भक्षण कर, उसी का आहार लेकर दीर्घकाल तक बने रहे। तब पुनः हम में पाप, अकुशल धर्म [रूप अहंकार] प्रकट होने से भूमि-पपड़ी भी विलुप्त हो गयी। भूमि-पपड़ी के विलुप्त होने पर पदालता प्रकट हुई। वह भी बहुत सुंदर, सुगंधित, और स्वादिष्ट थी। तब हम पदालता को खाने लगे। हम उस पदालता को खाकर, उसी का भक्षण कर, उसी का आहार लेकर दीर्घकाल तक बने रहे।

तब पुनः हम में पाप, अकुशल धर्म [रूप अहंकार] प्रकट होने से पदालता भी विलुप्त हो गयी। पदालता के विलुप्त होने पर बिना जोता, पका चावल प्रकट हुआ, बिना टूटा, बिना छिलके का, शुद्ध, सुगंधित, चावल के दाने। हम उसे सायंकाल के समय रात्रिभोज के लिए लाते, तो वह सुबह तक फिर बढ़कर पक जाता। हम उसे सुबह प्रातःभोज के लिए लाते, तो वह सायंकाल तक फिर बढ़कर पक जाता। उसका स्त्रोत पता न चलता। तब हम उस बिना जोते, पके चावल को खाकर, उसी का भक्षण कर, उसी का आहार लेकर दीर्घकाल तक बने रहे।

तब पुनः हम में पाप, अकुशल धर्म [आलस] प्रकट होने से चावल के दाने टूटने लगे, और चावल छिलके से घिरने लगा। वह काटने पर नहीं बढ़ता था, और उसका स्त्रोत पता चलने लगा, और चावल झुरमुट-झुरमुट में खड़ा होने लगा। क्यों न हम चावल का बँटवारा करें और सीमाएँ स्थापित करें?” 7

तब, वासेष्ठ, उन सत्वों ने चावल का बँटवारा किया और सीमाएँ स्थापित की। अब, किसी लालची जाति के सत्व ने अपने भाग को सुरक्षित रखा, और दूसरे के बिना-दिए भाग से चुराकर खा गया। तब उन्होने ऐसा करने वाले को पकड़ लिया और कहा, “श्रीमान सत्व, तुमने पाप किया है। तुमने अपने भाग को सुरक्षित रखा, और दूसरे के बिना-दिए भाग से चुराकर खा गए। श्रीमान सत्व, अब पुनः ऐसा मत करना।”

“ठीक है, श्रीमान।” उस सत्व ने उन सत्वों को उत्तर दिया। और दूसरी बार, फिर उसी सत्व ने… और तीसरी बार, फिर उसी सत्व ने अपने भाग को सुरक्षित रखा, और दूसरे के बिना-दिए भाग से चुराकर खा गया। तब उन्होने ऐसा करने वाले को पकड़ लिया और उसे पीटने लगे। किसी ने उसे मुक्के से पीटा, किसी ने पत्थर दे मारा, तो किसी ने डंडे से पीट दिया, और कहा, “श्रीमान सत्व, तुमने पाप किया है। तुमने अपने भाग को सुरक्षित रखा, और दूसरे के बिना-दिए भाग से चुराकर खा गए। श्रीमान सत्व, अब पुनः ऐसा मत करना।”

तब से, वासेष्ठ, चोरियाँ दिखायी देने लगी, आरोप दिखायी देने लगे, झूठ बोलना दिखायी देने लगा, और दण्डदान [=हिंसक सजाएँ] दिखायी देने लगा।”

१०. सर्व-सम्मत राजा

“तब, वासेष्ठ, सत्व एकत्र हुए और एकत्र होकर कृंदन करने लगे, “हाय, सत्वों में पापी धर्म प्रकट हो गए! अब तो चोरियाँ दिखायी देने लगी हैं, आरोप दिखायी देने लगे हैं, झूठ बोलना दिखायी देने लगा हैं, और दण्डदान भी दिखायी देने लगा हैं। क्यों न हम किसी एक सत्व को चुन लें, जो आरोपणीय को सही तरह से आरोपित करे, निंदनीय को सही तरह से निंदित करे, और निष्कासनीय को सही तरह से निष्कासित करे? हम उसे अपने चावल का एक भाग भुगतान करेंगे।" 8

और, तब वासेष्ठ, वे सत्व उस सत्वों में सबसे अधिक रूपवान, 9 सबसे अधिक दर्शनीय, सबसे अधिक सुंदर और विश्वसनीय लगने वाला, और सबसे अधिक महाप्रभावशाली सत्व के पास जाकर कहा, “सुनिए, श्रीमान सत्व, आरोपणीय को सही तरह से आरोपित करे, निंदनीय को सही तरह से निंदित करे, और निष्कासनीय को सही तरह से निष्कासित करे। और हम तुम्हें अपने चावल का एक भाग भुगतान करेंगे।”

“ठीक है, श्रीमान।” उस सत्व ने सत्वों को उत्तर देकर आरोपणीय को सही तरह से आरोपित करने लगा, निंदनीय को सही तरह से निंदित करने लगा, और निष्कासनीय को सही तरह से निष्कासित करने लगा। और उसे चावल का एक-एक भाग भुगतान होने लगा। विशाल जनता की [सर्व] सम्मति से चुना होने से, वासेष्ठ, “महासम्मत, महासम्मत” उसका पहला नाम पड़ा। क्षेत्रों [=खेतों] का अधिपति होने से, “क्षत्रिय, क्षत्रिय” उसका दूसरा नाम पड़ा। धर्म से दूसरों का रंजन [=खुश] करने से, “राजा, राजा” उसका तीसरा नाम पड़ा।

और, वासेष्ठ, इस तरह क्षत्रिय वर्ग [“मण्डल”] उस पुरातन सर्वश्रेष्ठ कहावत से निर्मित हुआ, जो उन्ही सत्वों के लिए था, दूसरों के लिए नहीं; जो उनके जैसे ही सत्वों के लिए था, दूसरों के लिए नहीं; धर्मानुसार ही था, अधर्मानुसार नहीं। इस तरह, वासेष्ठ, धर्म ही जनता के लिए सर्वश्रेष्ठ है, इस लोक में भी और परलोक में भी।

११. ब्राह्मण वर्ग

तब, वासेष्ठ, उन्हीं सत्वों में से कई सत्वों को लगा, “हाय, सत्वों में पापी धर्म प्रकट हो गए! अब तो चोरियाँ दिखायी देने लगी हैं, आरोप दिखायी देने लगे हैं, झूठ बोलना दिखायी देने लगा हैं, दण्डदान दिखायी देने लगा हैं, और निष्कासन भी दिखायी देने लगा है। क्यों न हम पाप अकुशल धर्म बाहर छोड़ दें?” तब उन्होने पाप अकुशल धर्म बाहर छोड़ दिए[“बाहेन्ति”]। पाप अकुशल धर्म बाहर छोड़ने से, वासेष्ठ, “ब्राह्मण, ब्राह्मण” उनका पहला नाम पड़ा। 10

वे जंगली इलाके में पर्णकुटी [=घासफूस से बनी झोपड़ी] बनाकर उस पर्णकुटी में ध्यान लगाते थे, बिना कुछ जलाएँ, बिना धुआँ किए, बिना मूसल में कूटे। वे शाम को रात्रिभोज के लिए और सुबह प्रातःभोज के लिए गाँव, निगम और राजधानियों में उतर कर भिक्षा के लिए आते थे। जब उन्हें भिक्षा प्राप्त होती, तो वे पुनः जंगली इलाके में लौटकर पर्णकुटी में ध्यान लगाते। जब लोगों ने देखा कि “ओह श्रीमान, ये सत्व जंगली इलाके में पर्णकुटी बनाकर उस पर्णकुटी में ध्यान लगाते हैं, बिना कुछ जलाएँ, बिना धुआँ किए, बिना मूसल में कूटे, और वे शाम को रात्रिभोज के लिए और सुबह प्रातःभोज के लिए गाँव, निगम और राजधानियों में उतर कर भिक्षा के लिए आते हैं। और जब उन्हें भिक्षा प्राप्त होती हैं, तो वे पुनः जंगली इलाके में लौटकर पर्णकुटी में ध्यान लगाते हैं।” ध्यान लगाने से, वासेष्ठ, “ध्यानी, ध्यानी” [“झायक”, ध्यापक] उनका दूसरा नाम पड़ा।

किन्तु, वासेष्ठ, उनमें से कई सत्व जंगली इलाके के पर्णकुटी में ध्यान नहीं लगा सके। तब वे गाँव और निगम के आस-पड़ोस में आकर ग्रन्थों की रचना करते हुए रहने लगे। जब लोगों ने देखा कि “ओह श्रीमान, ये सत्व जंगली इलाके के पर्णकुटी में ध्यान नहीं लगा सके। इसलिए वे गाँव और निगम के आस-पड़ोस में आकर ग्रन्थों की रचना करते हुए रहते हैं, ध्यान नहीं करते हैं।” और, वासेष्ठ, ध्यान न करने से, “अध्यानी, अध्यानी” [“अज्झायक”, अध्यापक] उनका तीसरा नाम पड़ा। जो उस समय हीन माना जाता था, वही आज श्रेष्ठ माना जाता है।

और, वासेष्ठ, इस तरह ब्राह्मण वर्ग उस पुरातन सर्वश्रेष्ठ कहावत से निर्मित हुआ, जो उन्ही सत्वों के लिए था, दूसरों के लिए नहीं; जो उनके जैसे ही सत्वों के लिए था, दूसरों के लिए नहीं; धर्मानुसार ही था, अधर्मानुसार नहीं। इस तरह, वासेष्ठ, धर्म ही जनता के लिए सर्वश्रेष्ठ है, इस लोक में भी और परलोक में भी।

१२. वैश्य वर्ग

तब, वासेष्ठ, उन्हीं सत्वों में से कई सत्व मैथुन-धर्म में लिप्त हुए और विभिन्न कार्यों में लग गए। मैथुन-धर्म में लिप्त होकर विभिन्न कार्यों में लगने से, वासेष्ठ, “वैश्य, वैश्य” उनका नाम पड़ा। 11

और, वासेष्ठ, इस तरह वैश्य वर्ग उस पुरातन सर्वश्रेष्ठ कहावत से निर्मित हुआ, जो उन्ही सत्वों के लिए था, दूसरों के लिए नहीं; जो उनके जैसे ही सत्वों के लिए था, दूसरों के लिए नहीं; धर्मानुसार ही था, अधर्मानुसार नहीं। इस तरह, वासेष्ठ, धर्म ही जनता के लिए सर्वश्रेष्ठ है, इस लोक में भी और परलोक में भी।

१३. शूद्र वर्ग

और, वासेष्ठ, उन्हीं सत्वों में से बचे हुए कई सत्व लुद्दाचार [=क्रूर और निर्दयी आचरण], शूद्र आचरण करते थे। लुद्दाचार और शूद्राचार करने से, वासेष्ठ, “शूद्र, शूद्र” उनका नाम पड़ा।

और, वासेष्ठ, इस तरह शूद्र वर्ग उस पुरातन सर्वश्रेष्ठ कहावत से निर्मित हुआ, जो उन्ही सत्वों के लिए था, दूसरों के लिए नहीं; जो उनके जैसे ही सत्वों के लिए था, दूसरों के लिए नहीं; धर्मानुसार ही था, अधर्मानुसार नहीं। इस तरह, वासेष्ठ, धर्म ही जनता के लिए सर्वश्रेष्ठ है, इस लोक में भी और परलोक में भी।

१४. श्रमण वर्ग

और, वासेष्ठ, एक समय आया जब क्षत्रिय अपने जीविका-कार्यों की निंदा करते हुए, घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुए, [सोचते हुए,] “श्रमण बनूँगा!”

और, एक समय आया, जब ब्राह्मण…. वैश्य… और शूद्र अपने जीविका-कार्यों की निंदा करते हुए, घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुए, [सोचते हुए,] “श्रमण बनूँगा!”

इन्हीं चार वर्गों से, वासेष्ठ, श्रमण-वर्ग की निर्मित हुआ, जो उन्ही सत्वों के लिए था, दूसरों के लिए नहीं; जो उनके जैसे ही सत्वों के लिए था, दूसरों के लिए नहीं; धर्मानुसार ही था, अधर्मानुसार नहीं। इस तरह, वासेष्ठ, धर्म ही जनता के लिए सर्वश्रेष्ठ है, इस लोक में भी और परलोक में भी।"

१५. दुश्चरित

“कोई क्षत्रिय भी, वासेष्ठ, काया से दुराचार कर, वाणी से दुराचार कर, मन से दुराचार कर, मिथ्यादृष्टि धारण कर, मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य कर — मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजते हैं। कोई ब्राह्मण…. वैश्य… और शूद्र भी, वासेष्ठ, काया से दुराचार कर, वाणी से दुराचार कर, मन से दुराचार कर, मिथ्यादृष्टि धारण कर, मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य कर — मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजते हैं।

कोई क्षत्रिय भी, वासेष्ठ, काया से सदाचार कर, वाणी से सदाचार कर, मन से सदाचार कर, सम्यकदृष्टि धारण कर, सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य कर — मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उपजते हैं। कोई ब्राह्मण…. वैश्य… और शूद्र भी, वासेष्ठ, काया से सदाचार कर, वाणी से सदाचार कर, मन से सदाचार कर, सम्यकदृष्टि धारण कर, सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य कर — मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उपजते हैं।

कोई क्षत्रिय भी, वासेष्ठ, काया से दोहरा आचरण [दुष्कृत्य और सुकृत्य, दोनों] कर, वाणी से दोहरा आचरण कर, मन से दोहरा आचरण कर, मिश्रित-दृष्टि धारण कर, मिश्रित-दृष्टि के प्रभाव में दोहरा आचरण कर — मरणोपरांत काया छूटने पर सुख-दुःख दोनों महसूस करते हैं। कोई ब्राह्मण…. वैश्य… और शूद्र भी, वासेष्ठ, काया से दोहरा आचरण कर, वाणी से दोहरा आचरण कर, मन से दोहरा आचरण कर, मिश्रित-दृष्टि धारण कर, मिश्रित-दृष्टि के प्रभाव में दोहरा आचरण कर — मरणोपरांत काया छूटने पर सुख-दुःख दोनों महसूस करते हैं।”

१६. बोधिपक्खिय भावना

“कोई क्षत्रिय भी, वासेष्ठ, काया से संवर कर, वाणी से संवर कर, मन से संवर कर, सात बोधिपक्खिय धर्म विकसित कर इसी जीवन में परिनिवृत होते हैं। कोई ब्राह्मण…. वैश्य… और शूद्र भी, वासेष्ठ, काया से संवर कर, वाणी से संवर कर, मन से संवर कर, सात बोधिपक्खिय धर्म विकसित कर इसी जीवन में परिनिवृत होते हैं।

इस तरह, वासेष्ठ, चारों ही वर्णों से आकर भिक्षु अरहंत होते हैं, आस्रव खत्म करते हैं, ब्रह्मचर्य परिपूर्ण करते हैं, कर्तव्य समाप्त करते हैं, बोझ को नीचे रखते हैं, परम-ध्येय प्राप्त करते हैं, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ देते हैं, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त होते हैं, और उन्हें धर्मानुसार ‘सर्वश्रेष्ठ’ माना जाता है, अधर्म से नहीं। क्योंकि, वासेष्ठ, धर्म ही जनता के लिए सर्वश्रेष्ठ है, इस लोक में भी और परलोक में भी।

और, वासेष्ठ, ब्रह्मा सनत्कुमार ने भी गाथा कही है:

“खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं,
ये गोत्तपटिसारिनो।
विज्जाचरणसम्पन्नो,
सो सेट्ठो देवमानुसे।”

क्षत्रिय श्रेष्ठ होते जनता में,
गोत्र से जो चलते हो।
विद्या-आचरण में सम्पन्न,
देव-मानव में श्रेष्ठ हो।

इस तरह, अम्बट्ठ, यह गाथा ब्रह्मा सनत्कुमार ने उचित ही गायी है, अनुचित नहीं; सही गायी है, गलत नहीं; सार्थक गायी है, निरर्थक नहीं। मैं भी उससे सहमत हूँ। मैं भी, अम्बट्ठ, यही कहता हूँ:

क्षत्रिय श्रेष्ठ होते जनता में,
गोत्र से जो चलते हो।
विद्या-आचरण में सम्पन्न,
देव-मानव में श्रेष्ठ हो।

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर वासेष्ठ और भारद्वाज ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

अग्गञ्ञ सुत्त समाप्त।


  1. जब भी भगवान चार वर्णों का उल्लेख करते थे, क्षत्रियों को क्रम में हमेशा प्रथम रखते थे। इस सूत्र से पता चलता हैं कि वे ऐसा इसलिए करते थे कि क्षत्रियों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से पहले हुई। और, उनकी नजर में क्षत्रिय ब्राह्मणों से श्रेष्ठ थे, जिसको उन्होने दीघनिकाय ३: अम्बट्ठ सूत्र में बड़े विस्तार से साबित किया। ↩︎

  2. आधुनिक भूविज्ञान मानता है कि बहुत पहले पेंथालसा नामक एक ही महासमुद्र था। फिर पेंजिया नामक एक ही महाद्वीप बना, जो आगे टेक्टोनिक प्लेट की गतिविधि के कारण कई टुकड़ों में विभाजित हुआ। तब, वे टुकड़े सभी दिशाओं में फैलते कर द्वीप और महाद्वीप बनाते चले गए। ↩︎

  3. पदालता का अर्थ निश्चित तौर पर नहीं बताया जा सकता। इसमें “लता” शब्द जरूर है, किन्तु “पदा” का अर्थ कही नहीं मिलता। अट्ठकथा इसे “भद्रलता” कहती है, जिसे अनेक पालि विद्वानों ने अस्वीकार कर दिया है, क्योंकि न वह विश्वसनीय है, न उसके ऊपर कोई स्पष्टीकरण दिया है, न ही उसका “कलम्बुक” से कोई नाता है। भिक्षु सुजातो के अनुसार पदालता शब्द “पदालन” से संबंधित हो सकता है, जिसका अर्थ “फूटना” होता है। “कलम्बुक” का अर्थ “बंबू” भी है और “कदम वृक्ष का फल” भी, जो पकने पर अनार जैसा फूटता है, तब भीतर से करीब ८००० स्वादिष्ट बीज बड़ी स्वादिष्ट होती है। किन्तु, मुझे लगता है कि पदालता गन्ने जैसा कुछ प्राचीन होना चाहिए। खैर, कुछ सत्वों के अहंकार के कारण पदालता हमेशा के लिए विलुप्त हो गयी, तो अब क्या अनुमान लगाएँ? ↩︎

  4. यह बात बहुत चौंकाने वाली है कि किस तरह इसकी शुरुवात हुई। जो उस समय अधर्म था, आज धर्म है। भगवान के अनुसार, उस समय जम्बूद्वीप के किसी-किसी राज्य में विवाह के समय मिट्टी, राख और गोबर फेंका जाता था, किन्तु आजकल चावल, पुष्प और पैसे फेंके जाते हैं। सब पलट चुका है। हालाँकि आज भी, अफ्रीका के कुछ देशों में, जैसे घाना देश में अशंती जनजाति और दक्षिण अफ्रीका के जूलु जनजाति में शादी के जोड़े पर “मिट्टी, राख और गोबर” फेंका जाता या उड़ेला जाता है। आज उस प्राचीन जनजाति के लोग भूल चुके हैं कि वे ऐसा क्यों करते हैं। पुछे जाने पर, वे उसका महत्व धरती से और पूर्वजों से जुड़े रहने का बताते हैं। ↩︎

  5. लगता है, उस समय किसी का कोई नाम नहीं रखा था। सभी एक दूसरे को “सत्व” कहकर पुकारते थे। ↩︎

  6. भगवान की इस कथा में सभी सत्व साथ मिलकर अपनी ही कथा बता-बताकर रो रहे हैं। वेद और गिलगमेष जैसे शास्त्र बहुत प्राचीन माने जाते हैं। और उनमें भी उस समय की कथाओं के बजाय ऐसी ही आदिकथाएँ बतायी गयी हैं, जो मानवीय पतन के बारे में है। अब्राहमी धर्मों के शास्त्र, जैसे यहूदियों के हिब्रू बाइबल, ईसाइयों के पवित्र बाइबल, और इस्लाम के क़ुरान में भी ऐसी ही पतन की आदिकथाएँ बतायी गई हैं। अफ्रीका, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के प्राचीन जनजातियों में भी ऐसी ही मानवीय पतन की कहानियाँ उन सभ्यताओं की विशेषता हैं। हम मानवों की सबसे पुरातन और शक्तिशाली कथाएँ पतन के ही बारे में हैं, कि “पुराने दिन कितने अच्छे थे!” सभी कहानियाँ पापी कर्म को ही पतन का कारण बताती है। किन्तु, ऐसी किसी कथा को याद रखने से उस सभ्यता के पाप नहीं रुके। इस सूत्र में भी हम यही देखते हैं। ↩︎

  7. यहाँ गौर करें कि सत्वों को चावल खाने पर स्त्री-लिंग और पुरुष-लिंग प्रकट होना याद नहीं हैं। किन्तु अब सत्वों को आलस और लोभ जागने से “अभाव” महसूस हो रहा है, और भविष्य की चिंता सता रही है। इसी चिंता ने “खेती” और “जमीनदारी” को जन्म दिया। अब तक व्यक्तिगत चुनाव से बदलाव आ रहे थे, लेकिन अब वे आपसी सहमति बनाकर कुछ पापियों के गैर-जिम्मेदाराना बर्ताव से पड़ने वाले असर को कम करने का प्रयास कर रहे हैं। पहले चावल का बँटवारा करने पर चोरी, पिटाई और झूठ बढ़ते गया। और फिर भूमि का बँटवारा होने पर आर्थिक विषमता बढ़ते गयी। ↩︎

  8. यहाँ एक और रोचक घटना हो रही है। अब तक तो सत्व अपनी सामाजिक उत्क्रांति [या पतन] के ‘निष्क्रिय’ मुकदर्शक थे। लेकिन अब वे सक्रिय होकर समाज को व्यवस्थित कर के सुचारु रूप से चलाना चाहते हैं। इसके लिए वे स्वेच्छा से चावल का टैक्स भरने को तैयार हैं। यहाँ उनका एक साथ आकर, चुनाव कर के, एक राजा को निर्वाचित करना, वह भी सर्व-सम्मत लोकतांत्रिक तरीके से, अद्भुत है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि सभी सत्व पहले एक ही वर्ग के थे। किसी ईश्वर या ब्रह्मा ने समाज में अलग वर्ग या वर्ण नहीं बनाए। बल्कि सत्वों का सर्व-सम्मति से लोकतांत्रिक चुनाव हुआ, और सत्वों ने होशो-हवास में अपने में से एक राजा को चुनकर समाज को दो वर्गों में विभाजित किया। एक राजा, जिसे अब किसानी नहीं करना है, बल्कि उसे समाज को सही-गलत की दिशा दिखाते हुए राजनीतिक शासन करना है। ↩︎

  9. उस राजा का सबसे रूपवान होना आवश्यक है। हालाँकि भगवान ने अपने दूसरे सूत्रों में (जैसे संयुक्तनिकाय २१:६) में सौंदर्यता और योग्यता का कोई नाता होने से इंकार किया है। लेकिन यहाँ वे स्वयं ही इतने रूपवान है कि चुन लिए जाते है। शायद, उन दिनों में माना जाता हो कि अधिक रूपवान होगा तो जरूर कम पापी होगा। भले ही यह अन्यायपूर्ण लगे, लेकिन सच है कि आज भी सौंदर्य की अपनी शक्ति विद्यमान है। ↩︎

  10. विशेषज्ञों का कहना है कि पालि में ‘ब्राह्मण’ शब्द संस्कृतिकरण के प्रभाव से आया है। मूल शब्द वास्तव में बामन होना चाहिए, जो प्राकृत या शुरुआती लोकभाषाओं में प्रयोग होता था, और “बाहेन्ति” क्रिया से भी जुड़ता है। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के दौरान कई स्थानों पर भाषाई परिवर्तन हुए, जिनमें ‘न’ को ‘ण’ में परिवर्तित करना प्रमुख है। इस परिवर्तन का उद्देश्य भाषा को अधिक शास्त्रीय और संस्कृत के निकट बनाना था, ताकि धर्म और परंपराओं का प्राचीनतम रूप से संबंध दिखाया जा सके। ↩︎

  11. “विसु” से “वेस्स” शब्द बना, जो हिन्दी में “वैश्य” बना। इस सूत्र में वैश्य का अर्थ उन लोगों से हैं जो जैसे थे, वैसे ही रहते हैं, जीवन में कोई नैतिक या राजनीतिक बदलाव नहीं लाते हैं, बल्कि केवल अपना भोगी जीवन जीते रहते हैं। और जीवन व्यापन करने के लिए विभिन्न तरह के कार्य-कलापों में लग जाते हैं। आम तौर पर यह माना जाता है कि वैश्य ही मूलतः खेती-बाड़ी, पशुपालन, कुम्हारी, लोहारी इत्यादि विभिन्न प्रकार के कार्य करते थे, जो कार्य फिर शूद्र करने लगे। उन्हीं विभिन्न कार्यों से शुरुवात कर, वैश्य वर्ग के लोग आगे चलकर व्यापार और दूकानदारी तक कार्य फैलाते गए। मज्झिमनिकाय ९६: एसुकारी सुत्त में भी यही बताया गया है कि वैश्य मूलतः खेती और पशुपालन ही करते थे, जिसमें बहुत पश्चात व्यापार भी जुड़ गया। ↩︎

Pali

वासेट्ठभारद्वाजा

१११. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति पुब्बारामे मिगारमातुपासादे। तेन खो पन समयेन वासेट्ठभारद्वाजा भिक्खूसु परिवसन्ति भिक्खुभावं आकङ्खमाना। अथ खो भगवा सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो पासादा ओरोहित्वा पासादपच्छायायं [पासादच्छायायं (क॰)] अब्भोकासे चङ्कमति।

११२. अद्दसा खो वासेट्ठो भगवन्तं सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितं पासादा ओरोहित्वा पासादपच्छायायं अब्भोकासे चङ्कमन्तं। दिस्वान भारद्वाजं आमन्तेसि – ‘‘अयं, आवुसो भारद्वाज, भगवा सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो पासादा ओरोहित्वा पासादपच्छायायं अब्भोकासे चङ्कमति। आयामावुसो भारद्वाज, येन भगवा तेनुपसङ्कमिस्साम; अप्पेव नाम लभेय्याम भगवतो सन्तिका [सम्मुखा (स्या॰ क॰)] धम्मिं कथं सवनाया’’ति। ‘‘एवमावुसो’’ति खो भारद्वाजो वासेट्ठस्स पच्चस्सोसि।

११३. अथ खो वासेट्ठभारद्वाजा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा भगवन्तं चङ्कमन्तं अनुचङ्कमिंसु। अथ खो भगवा वासेट्ठं आमन्तेसि – ‘‘तुम्हे ख्वत्थ, वासेट्ठ, ब्राह्मणजच्चा ब्राह्मणकुलीना ब्राह्मणकुला अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, कच्चि वो, वासेट्ठ, ब्राह्मणा न अक्कोसन्ति न परिभासन्ती’’ति? ‘‘तग्घ नो, भन्ते, ब्राह्मणा अक्कोसन्ति परिभासन्ति अत्तरूपाय परिभासाय परिपुण्णाय, नो अपरिपुण्णाया’’ति। ‘‘यथा कथं पन वो, वासेट्ठ, ब्राह्मणा अक्कोसन्ति परिभासन्ति अत्तरूपाय परिभासाय परिपुण्णाय, नो अपरिपुण्णाया’’ति? ‘‘ब्राह्मणा, भन्ते, एवमाहंसु – ‘ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीना अञ्ञे वण्णा [हीनो अञ्ञो वण्णो (सी॰ पी॰ म॰ नि॰ २ मधुरसुत्त)]। ब्राह्मणोव सुक्को वण्णो, कण्हा अञ्ञे वण्णा [कण्हो अञ्ञो वण्णो (सी॰ पी॰ म॰ नि॰ २ मधुरसुत्त)]। ब्राह्मणाव सुज्झन्ति, नो अब्राह्मणा। ब्राह्मणाव [ब्राह्मणा (स्या॰)] ब्रह्मुनो पुत्ता ओरसा मुखतो जाता ब्रह्मजा ब्रह्मनिम्मिता ब्रह्मदायादा। ते तुम्हे सेट्ठं वण्णं हित्वा हीनमत्थ वण्णं अज्झुपगता, यदिदं मुण्डके समणके इब्भे कण्हे बन्धुपादापच्चे। तयिदं न साधु, तयिदं नप्पतिरूपं, यं तुम्हे सेट्ठं वण्णं हित्वा हीनमत्थ वण्णं अज्झुपगता यदिदं मुण्डके समणके इब्भे कण्हे बन्धुपादापच्चे’ति। एवं खो नो, भन्ते, ब्राह्मणा अक्कोसन्ति परिभासन्ति अत्तरूपाय परिभासाय परिपुण्णाय, नो अपरिपुण्णाया’’ति।

११४. ‘‘तग्घ वो, वासेट्ठ, ब्राह्मणा पोराणं अस्सरन्ता एवमाहंसु – ‘ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीना अञ्ञे वण्णा; ब्राह्मणोव सुक्को वण्णो, कण्हा अञ्ञे वण्णा; ब्राह्मणाव सुज्झन्ति, नो अब्राह्मणा; ब्राह्मणाव ब्रह्मुनो पुत्ता ओरसा मुखतो जाता ब्रह्मजा ब्रह्मनिम्मिता ब्रह्मदायादा’ति। दिस्सन्ति खो पन, वासेट्ठ, ब्राह्मणानं ब्राह्मणियो उतुनियोपि गब्भिनियोपि विजायमानापि पायमानापि। ते च ब्राह्मणा योनिजाव समाना एवमाहंसु – ‘ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीना अञ्ञे वण्णा; ब्राह्मणोव सुक्को वण्णो, कण्हा अञ्ञे वण्णा; ब्राह्मणाव सुज्झन्ति, नो अब्राह्मणा; ब्राह्मणाव ब्रह्मुनो पुत्ता ओरसा मुखतो जाता ब्रह्मजा ब्रह्मनिम्मिता ब्रह्मदायादा’ति। ते [ते च (स्या॰ क॰)] ब्रह्मानञ्चेव अब्भाचिक्खन्ति, मुसा च भासन्ति, बहुञ्च अपुञ्ञं पसवन्ति।

चतुवण्णसुद्धि

११५. ‘‘चत्तारोमे, वासेट्ठ, वण्णा – खत्तिया, ब्राह्मणा, वेस्सा, सुद्दा। खत्तियोपि खो, वासेट्ठ, इधेकच्चो पाणातिपाती होति अदिन्नादायी कामेसुमिच्छाचारी मुसावादी पिसुणवाचो फरुसवाचो सम्फप्पलापी अभिज्झालु ब्यापन्नचित्तो मिच्छादिट्ठी। इति खो, वासेट्ठ, येमे धम्मा अकुसला अकुसलसङ्खाता सावज्जा सावज्जसङ्खाता असेवितब्बा असेवितब्बसङ्खाता नअलमरिया नअलमरियसङ्खाता कण्हा कण्हविपाका विञ्ञुगरहिता, खत्तियेपि ते [खो वासेट्ठ (क॰)] इधेकच्चे सन्दिस्सन्ति। ब्राह्मणोपि खो, वासेट्ठ…पे॰… वेस्सोपि खो, वासेट्ठ…पे॰… सुद्दोपि खो, वासेट्ठ, इधेकच्चो पाणातिपाती होति अदिन्नादायी कामेसुमिच्छाचारी मुसावादी पिसुणवाचो फरुसवाचो सम्फप्पलापी अभिज्झालु ब्यापन्नचित्तो मिच्छादिट्ठी। इति खो, वासेट्ठ, येमे धम्मा अकुसला अकुसलसङ्खाता…पे॰… कण्हा कण्हविपाका विञ्ञुगरहिता; सुद्देपि ते इधेकच्चे सन्दिस्सन्ति।

‘‘खत्तियोपि खो, वासेट्ठ, इधेकच्चो पाणातिपाता पटिविरतो होति, अदिन्नादाना पटिविरतो, कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतो, मुसावादा पटिविरतो, पिसुणाय वाचाय पटिविरतो, फरुसाय वाचाय पटिविरतो, सम्फप्पलापा पटिविरतो, अनभिज्झालु अब्यापन्नचित्तो, सम्मादिट्ठी। इति खो, वासेट्ठ, येमे धम्मा कुसला कुसलसङ्खाता अनवज्जा अनवज्जसङ्खाता सेवितब्बा सेवितब्बसङ्खाता अलमरिया अलमरियसङ्खाता सुक्का सुक्कविपाका विञ्ञुप्पसत्था, खत्तियेपि ते इधेकच्चे सन्दिस्सन्ति। ब्राह्मणोपि खो, वासेट्ठ…पे॰… वेस्सोपि खो, वासेट्ठ…पे॰… सुद्दोपि खो, वासेट्ठ, इधेकच्चो पाणातिपाता पटिविरतो होति…पे॰… अनभिज्झालु, अब्यापन्नचित्तो, सम्मादिट्ठी। इति खो, वासेट्ठ, येमे धम्मा कुसला कुसलसङ्खाता अनवज्जा अनवज्जसङ्खाता सेवितब्बा सेवितब्बसङ्खाता अलमरिया अलमरियसङ्खाता सुक्का सुक्कविपाका विञ्ञुप्पसत्था; सुद्देपि ते इधेकच्चे सन्दिस्सन्ति।

११६. ‘‘इमेसु खो, वासेट्ठ, चतूसु वण्णेसु एवं उभयवोकिण्णेसु वत्तमानेसु कण्हसुक्केसु धम्मेसु विञ्ञुगरहितेसु चेव विञ्ञुप्पसत्थेसु च यदेत्थ ब्राह्मणा एवमाहंसु – ‘ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीना अञ्ञे वण्णा; ब्राह्मणोव सुक्को वण्णो, कण्हा अञ्ञे वण्णा; ब्राह्मणाव सुज्झन्ति, नो अब्राह्मणा; ब्राह्मणाव ब्रह्मुनो पुत्ता ओरसा मुखतो जाता ब्रह्मजा ब्रह्मनिम्मिता ब्रह्मदायादा’ति। तं तेसं विञ्ञू नानुजानन्ति। तं किस्स हेतु? इमेसञ्हि, वासेट्ठ, चतुन्नं वण्णानं यो होति भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञाविमुत्तो, सो नेसं अग्गमक्खायति धम्मेनेव, नो अधम्मेन। धम्मो हि, वासेट्ठ, सेट्ठो जनेतस्मिं, दिट्ठे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च।

११७. ‘‘तदमिनापेतं, वासेट्ठ, परियायेन वेदितब्बं, यथा धम्मोव सेट्ठो जनेतस्मिं, दिट्ठे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च।

‘‘जानाति खो [खो पन (क॰)], वासेट्ठ, राजा पसेनदि कोसलो – ‘समणो गोतमो अनन्तरा [अनुत्तरो (बहूसु)] सक्यकुला पब्बजितो’ति। सक्या खो पन, वासेट्ठ, रञ्ञो पसेनदिस्स कोसलस्स अनुयुत्ता [अनन्तरा अनुयन्ता (स्या॰), अनन्तरा अनुयुत्ता (क॰)] भवन्ति। करोन्ति खो, वासेट्ठ, सक्या रञ्ञे पसेनदिम्हि कोसले निपच्चकारं अभिवादनं पच्चुट्ठानं अञ्जलिकम्मं सामीचिकम्मं। इति खो, वासेट्ठ, यं करोन्ति सक्या रञ्ञे पसेनदिम्हि कोसले निपच्चकारं अभिवादनं पच्चुट्ठानं अञ्जलिकम्मं सामीचिकम्मं, करोति तं राजा पसेनदि कोसलो तथागते निपच्चकारं अभिवादनं पच्चुट्ठानं अञ्जलिकम्मं सामीचिकम्मं, न नं [ननु (बहूसु)] ‘सुजातो समणो गोतमो, दुज्जातोहमस्मि। बलवा समणो गोतमो, दुब्बलोहमस्मि। पासादिको समणो गोतमो, दुब्बण्णोहमस्मि। महेसक्खो समणो गोतमो, अप्पेसक्खोहमस्मी’ति। अथ खो नं धम्मंयेव सक्करोन्तो धम्मं गरुं करोन्तो धम्मं मानेन्तो धम्मं पूजेन्तो धम्मं अपचायमानो एवं राजा पसेनदि कोसलो तथागते निपच्चकारं करोति, अभिवादनं पच्चुट्ठानं अञ्जलिकम्मं सामीचिकम्मं। इमिनापि खो एतं, वासेट्ठ, परियायेन वेदितब्बं, यथा धम्मोव सेट्ठो जनेतस्मिं, दिट्ठे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च।

११८. ‘‘तुम्हे ख्वत्थ, वासेट्ठ, नानाजच्चा नानानामा नानागोत्ता नानाकुला अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता। ‘के तुम्हे’ति – पुट्ठा समाना ‘समणा सक्यपुत्तियाम्हा’ति – पटिजानाथ। यस्स खो पनस्स, वासेट्ठ, तथागते सद्धा निविट्ठा मूलजाता पतिट्ठिता दळ्हा असंहारिया समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मिं, तस्सेतं कल्लं वचनाय – ‘भगवतोम्हि पुत्तो ओरसो मुखतो जातो धम्मजो धम्मनिम्मितो धम्मदायादो’ति। तं किस्स हेतु? तथागतस्स हेतं, वासेट्ठ, अधिवचनं ‘धम्मकायो’ इतिपि, ‘ब्रह्मकायो’ इतिपि, ‘धम्मभूतो’ इतिपि, ‘ब्रह्मभूतो’ इतिपि।

११९. ‘‘होति खो सो, वासेट्ठ, समयो यं कदाचि करहचि दीघस्स अद्धुनो अच्चयेन अयं लोको संवट्टति। संवट्टमाने लोके येभुय्येन सत्ता आभस्सरसंवत्तनिका होन्ति। ते तत्थ होन्ति मनोमया पीतिभक्खा सयंपभा अन्तलिक्खचरा सुभट्ठायिनो चिरं दीघमद्धानं तिट्ठन्ति।

‘‘होति खो सो, वासेट्ठ, समयो यं कदाचि करहचि दीघस्स अद्धुनो अच्चयेन अयं लोको विवट्टति। विवट्टमाने लोके येभुय्येन सत्ता आभस्सरकाया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छन्ति। तेध होन्ति मनोमया पीतिभक्खा सयंपभा अन्तलिक्खचरा सुभट्ठायिनो चिरं दीघमद्धानं तिट्ठन्ति।

रसपथविपातुभावो

१२०. ‘‘एकोदकीभूतं खो पन, वासेट्ठ, तेन समयेन होति अन्धकारो अन्धकारतिमिसा। न चन्दिमसूरिया पञ्ञायन्ति, न नक्खत्तानि तारकरूपानि पञ्ञायन्ति, न रत्तिन्दिवा पञ्ञायन्ति, न मासड्ढमासा पञ्ञायन्ति, न उतुसंवच्छरा पञ्ञायन्ति, न इत्थिपुमा पञ्ञायन्ति, सत्ता सत्तात्वेव सङ्ख्यं गच्छन्ति। अथ खो तेसं, वासेट्ठ, सत्तानं कदाचि करहचि दीघस्स अद्धुनो अच्चयेन रसपथवी उदकस्मिं समतनि [समतानि (बहूसु)]; सेय्यथापि नाम पयसो तत्तस्स [पयतत्तस्स (स्या॰)] निब्बायमानस्स उपरि सन्तानकं होति, एवमेव पातुरहोसि। सा अहोसि वण्णसम्पन्ना गन्धसम्पन्ना रससम्पन्ना, सेय्यथापि नाम सम्पन्नं वा सप्पि सम्पन्नं वा नवनीतं एवंवण्णा अहोसि। सेय्यथापि नाम खुद्दमधुं [खुद्दं मधुं (क॰ सी॰)] अनेळकं [अनेलकं (सी॰ पी॰)], एवमस्सादा अहोसि। अथ खो, वासेट्ठ, अञ्ञतरो सत्तो लोलजातिको – ‘अम्भो, किमेविदं भविस्सती’ति रसपथविं अङ्गुलिया सायि। तस्स रसपथविं अङ्गुलिया सायतो अच्छादेसि, तण्हा चस्स ओक्कमि। अञ्ञेपि खो, वासेट्ठ, सत्ता तस्स सत्तस्स दिट्ठानुगतिं आपज्जमाना रसपथविं अङ्गुलिया सायिंसु। तेसं रसपथविं अङ्गुलिया सायतं अच्छादेसि, तण्हा च तेसं ओक्कमि।

चन्दिमसूरियादिपातुभावो

१२१. ‘‘अथ खो ते, वासेट्ठ, सत्ता रसपथविं हत्थेहि आलुप्पकारकं उपक्कमिंसु परिभुञ्जितुं। यतो खो ते [यतो खो (सी॰ स्या॰ पी॰)], वासेट्ठ, सत्ता रसपथविं हत्थेहि आलुप्पकारकं उपक्कमिंसु परिभुञ्जितुं। अथ तेसं सत्तानं सयंपभा अन्तरधायि। सयंपभाय अन्तरहिताय चन्दिमसूरिया पातुरहेसुं। चन्दिमसूरियेसु पातुभूतेसु नक्खत्तानि तारकरूपानि पातुरहेसुं। नक्खत्तेसु तारकरूपेसु पातुभूतेसु रत्तिन्दिवा पञ्ञायिंसु। रत्तिन्दिवेसु पञ्ञायमानेसु मासड्ढमासा पञ्ञायिंसु। मासड्ढमासेसु पञ्ञायमानेसु उतुसंवच्छरा पञ्ञायिंसु। एत्तावता खो, वासेट्ठ, अयं लोको पुन विवट्टो होति।

१२२. ‘‘अथ खो ते, वासेट्ठ, सत्ता रसपथविं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा [तब्भक्खा (स्या॰)] तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठंसु। यथा यथा खो ते, वासेट्ठ, सत्ता रसपथविं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठंसु, तथा तथा तेसं सत्तानं (रसपथविं परिभुञ्जन्तानं) [( ) सी॰ स्या॰ पी॰ पोत्थकेसु नत्थि] खरत्तञ्चेव कायस्मिं ओक्कमि, वण्णवेवण्णता [वण्णवेवज्जता (टीका)] च पञ्ञायित्थ। एकिदं सत्ता वण्णवन्तो होन्ति, एकिदं सत्ता दुब्बण्णा। तत्थ ये ते सत्ता वण्णवन्तो, ते दुब्बण्णे सत्ते अतिमञ्ञन्ति – ‘मयमेतेहि वण्णवन्ततरा, अम्हेहेते दुब्बण्णतरा’ति। तेसं वण्णातिमानपच्चया मानातिमानजातिकानं रसपथवी अन्तरधायि। रसाय पथविया अन्तरहिताय सन्निपतिंसु। सन्निपतित्वा अनुत्थुनिंसु – ‘अहो रसं, अहो रस’न्ति! तदेतरहिपि मनुस्सा कञ्चिदेव सुरसं [साधुरसं (सी॰ स्या॰ पी॰)] लभित्वा एवमाहंसु – ‘अहो रसं, अहो रस’न्ति! तदेव पोराणं अग्गञ्ञं अक्खरं अनुसरन्ति, न त्वेवस्स अत्थं आजानन्ति।

भूमिपप्पटकपातुभावो

१२३. ‘‘अथ खो तेसं, वासेट्ठ, सत्तानं रसाय पथविया अन्तरहिताय भूमिपप्पटको पातुरहोसि। सेय्यथापि नाम अहिच्छत्तको, एवमेव पातुरहोसि। सो अहोसि वण्णसम्पन्नो गन्धसम्पन्नो रससम्पन्नो, सेय्यथापि नाम सम्पन्नं वा सप्पि सम्पन्नं वा नवनीतं एवंवण्णो अहोसि। सेय्यथापि नाम खुद्दमधुं अनेळकं, एवमस्सादो अहोसि।

‘‘अथ खो ते, वासेट्ठ, सत्ता भूमिपप्पटकं उपक्कमिंसु परिभुञ्जितुं। ते तं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठंसु। यथा यथा खो ते, वासेट्ठ, सत्ता भूमिपप्पटकं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठंसु, तथा तथा तेसं सत्तानं भिय्योसो मत्ताय खरत्तञ्चेव कायस्मिं ओक्कमि, वण्णवेवण्णता च पञ्ञायित्थ। एकिदं सत्ता वण्णवन्तो होन्ति, एकिदं सत्ता दुब्बण्णा। तत्थ ये ते सत्ता वण्णवन्तो, ते दुब्बण्णे सत्ते अतिमञ्ञन्ति – ‘मयमेतेहि वण्णवन्ततरा, अम्हेहेते दुब्बण्णतरा’ति। तेसं वण्णातिमानपच्चया मानातिमानजातिकानं भूमिपप्पटको अन्तरधायि।

पदालतापातुभावो

१२४. ‘‘भूमिपप्पटके अन्तरहिते पदालता [सद्दालता (सी॰)] पातुरहोसि, सेय्यथापि नाम कलम्बुका [कलम्बका (स्या॰)], एवमेव पातुरहोसि। सा अहोसि वण्णसम्पन्ना गन्धसम्पन्ना रससम्पन्ना, सेय्यथापि नाम सम्पन्नं वा सप्पि सम्पन्नं वा नवनीतं एवंवण्णा अहोसि। सेय्यथापि नाम खुद्दमधुं अनेळकं, एवमस्सादा अहोसि।

‘‘अथ खो ते, वासेट्ठ, सत्ता पदालतं उपक्कमिंसु परिभुञ्जितुं। ते तं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठंसु। यथा यथा खो ते, वासेट्ठ, सत्ता पदालतं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठंसु, तथा तथा तेसं सत्तानं भिय्योसोमत्ताय खरत्तञ्चेव कायस्मिं ओक्कमि, वण्णवेवण्णता च पञ्ञायित्थ। एकिदं सत्ता वण्णवन्तो होन्ति, एकिदं सत्ता दुब्बण्णा। तत्थ ये ते सत्ता वण्णवन्तो, ते दुब्बण्णे सत्ते अतिमञ्ञन्ति – ‘मयमेतेहि वण्णवन्ततरा, अम्हेहेते दुब्बण्णतरा’ति। तेसं वण्णातिमानपच्चया मानातिमानजातिकानं पदालता अन्तरधायि।

‘‘पदालताय अन्तरहिताय सन्निपतिंसु। सन्निपतित्वा अनुत्थुनिंसु – ‘अहु वत नो, अहायि वत नो पदालता’ति! तदेतरहिपि मनुस्सा केनचि [केनचिदेव (सी॰ स्या॰ पी॰)] दुक्खधम्मेन फुट्ठा एवमाहंसु – ‘अहु वत नो, अहायि वत नो’ति! तदेव पोराणं अग्गञ्ञं अक्खरं अनुसरन्ति, न त्वेवस्स अत्थं आजानन्ति।

अकट्ठपाकसालिपातुभावो

१२५. ‘‘अथ खो तेसं, वासेट्ठ, सत्तानं पदालताय अन्तरहिताय अकट्ठपाको सालि पातुरहोसि अकणो अथुसो सुद्धो सुगन्धो तण्डुलप्फलो। यं तं सायं सायमासाय आहरन्ति, पातो तं होति पक्कं पटिविरूळ्हं। यं तं पातो पातरासाय आहरन्ति, सायं तं होति पक्कं पटिविरूळ्हं; नापदानं पञ्ञायति। अथ खो ते, वासेट्ठ, सत्ता अकट्ठपाकं सालिं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठंसु।

इत्थिपुरिसलिङ्गपातुभावो

१२६. ‘‘यथा यथा खो ते, वासेट्ठ, सत्ता अकट्ठपाकं सालिं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठंसु, तथा तथा तेसं सत्तानं भिय्योसोमत्ताय खरत्तञ्चेव कायस्मिं ओक्कमि, वण्णवेवण्णता च पञ्ञायित्थ, इत्थिया च इत्थिलिङ्गं पातुरहोसि पुरिसस्स च पुरिसलिङ्गं। इत्थी च पुरिसं अतिवेलं उपनिज्झायति पुरिसो च इत्थिं। तेसं अतिवेलं अञ्ञमञ्ञं उपनिज्झायतं सारागो उदपादि, परिळाहो कायस्मिं ओक्कमि। ते परिळाहपच्चया मेथुनं धम्मं पटिसेविंसु।

‘‘ये खो पन ते, वासेट्ठ, तेन समयेन सत्ता पस्सन्ति मेथुनं धम्मं पटिसेवन्ते, अञ्ञे पंसुं खिपन्ति, अञ्ञे सेट्ठिं खिपन्ति, अञ्ञे गोमयं खिपन्ति – ‘नस्स असुचि [वसलि (स्या॰), वसली (क॰)], नस्स असुची’ति। ‘कथञ्हि नाम सत्तो सत्तस्स एवरूपं करिस्सती’ति! तदेतरहिपि मनुस्सा एकच्चेसु जनपदेसु वधुया निब्बुय्हमानाय [निवय्हमानाय, निग्गय्हमानाय (क॰)] अञ्ञे पंसुं खिपन्ति, अञ्ञे सेट्ठिं खिपन्ति, अञ्ञे गोमयं खिपन्ति। तदेव पोराणं अग्गञ्ञं अक्खरं अनुसरन्ति, न त्वेवस्स अत्थं आजानन्ति।

मेथुनधम्मसमाचारो

१२७. ‘‘अधम्मसम्मतं खो पन [अधम्मसम्मतं तं खो पन (स्या॰), अधम्मसम्मतं खो पन तं (?)], वासेट्ठ, तेन समयेन होति, तदेतरहि धम्मसम्मतं। ये खो पन, वासेट्ठ, तेन समयेन सत्ता मेथुनं धम्मं पटिसेवन्ति, ते मासम्पि द्वेमासम्पि न लभन्ति गामं वा निगमं वा पविसितुं। यतो खो ते, वासेट्ठ, सत्ता तस्मिं असद्धम्मे अतिवेलं पातब्यतं आपज्जिंसु। अथ अगारानि उपक्कमिंसु कातुं तस्सेव असद्धम्मस्स पटिच्छादनत्थं। अथ खो, वासेट्ठ, अञ्ञतरस्स सत्तस्स अलसजातिकस्स एतदहोसि – ‘अम्भो, किमेवाहं विहञ्ञामि सालिं आहरन्तो सायं सायमासाय पातो पातरासाय! यंनूनाहं सालिं आहरेय्यं सकिंदेव [सकिंदेव (क॰)] सायपातरासाया’ति!

‘‘अथ खो सो, वासेट्ठ, सत्तो सालिं आहासि सकिंदेव सायपातरासाय। अथ खो, वासेट्ठ, अञ्ञतरो सत्तो येन सो सत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा तं सत्तं एतदवोच – ‘एहि, भो सत्त, सालाहारं गमिस्सामा’ति। ‘अलं, भो सत्त, आहतो [आहटो (स्या॰)] मे सालि सकिंदेव सायपातरासाया’ति। अथ खो सो, वासेट्ठ, सत्तो तस्स सत्तस्स दिट्ठानुगतिं आपज्जमानो सालिं आहासि सकिंदेव द्वीहाय। ‘एवम्पि किर, भो, साधू’ति।

‘‘अथ खो, वासेट्ठ, अञ्ञतरो सत्तो येन सो सत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा तं सत्तं एतदवोच – ‘एहि, भो सत्त, सालाहारं गमिस्सामा’ति। ‘अलं, भो सत्त, आहतो मे सालि सकिंदेव द्वीहाया’ति। अथ खो सो, वासेट्ठ, सत्तो तस्स सत्तस्स दिट्ठानुगतिं आपज्जमानो सालिं आहासि सकिंदेव चतूहाय, ‘एवम्पि किर, भो, साधू’ति।

‘‘अथ खो, वासेट्ठ, अञ्ञतरो सत्तो येन सो सत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा तं सत्तं एतदवोच – ‘एहि, भो सत्त, सालाहारं गमिस्सामा’ति। ‘अलं, भो सत्त, आहतो मे सालि सकिदेव चतूहाया’ति। अथ खो सो, वासेट्ठ, सत्तो तस्स सत्तस्स दिट्ठानुगतिं आपज्जमानो सालिं आहासि सकिदेव अट्ठाहाय, ‘एवम्पि किर, भो, साधू’ति।

‘‘यतो खो ते, वासेट्ठ, सत्ता सन्निधिकारकं सालिं उपक्कमिंसु परिभुञ्जितुं। अथ कणोपि तण्डुलं परियोनन्धि, थुसोपि तण्डुलं परियोनन्धि; लूनम्पि नप्पटिविरूळ्हं, अपदानं पञ्ञायित्थ, सण्डसण्डा सालयो अट्ठंसु।

सालिविभागो

१२८. ‘‘अथ खो ते, वासेट्ठ, सत्ता सन्निपतिंसु, सन्निपतित्वा अनुत्थुनिंसु – ‘पापका वत, भो, धम्मा सत्तेसु पातुभूता। मयञ्हि पुब्बे मनोमया अहुम्हा पीतिभक्खा सयंपभा अन्तलिक्खचरा सुभट्ठायिनो, चिरं दीघमद्धानं अट्ठम्हा। तेसं नो अम्हाकं कदाचि करहचि दीघस्स अद्धुनो अच्चयेन रसपथवी उदकस्मिं समतनि। सा अहोसि वण्णसम्पन्ना गन्धसम्पन्ना रससम्पन्ना। ते मयं रसपथविं हत्थेहि आलुप्पकारकं उपक्कमिम्ह परिभुञ्जितुं, तेसं नो रसपथविं हत्थेहि आलुप्पकारकं उपक्कमतं परिभुञ्जितुं सयंपभा अन्तरधायि। सयंपभाय अन्तरहिताय चन्दिमसूरिया पातुरहेसुं, चन्दिमसूरियेसु पातुभूतेसु नक्खत्तानि तारकरूपानि पातुरहेसुं, नक्खत्तेसु तारकरूपेसु पातुभूतेसु रत्तिन्दिवा पञ्ञायिंसु, रत्तिन्दिवेसु पञ्ञायमानेसु मासड्ढमासा पञ्ञायिंसु। मासड्ढमासेसु पञ्ञायमानेसु उतुसंवच्छरा पञ्ञायिंसु। ते मयं रसपथविं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठम्हा। तेसं नो पापकानंयेव अकुसलानं धम्मानं पातुभावा रसपथवी अन्तरधायि। रसपथविया अन्तरहिताय भूमिपप्पटको पातुरहोसि। सो अहोसि वण्णसम्पन्नो गन्धसम्पन्नो रससम्पन्नो। ते मयं भूमिपप्पटकं उपक्कमिम्ह परिभुञ्जितुं। ते मयं तं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठम्हा। तेसं नो पापकानंयेव अकुसलानं धम्मानं पातुभावा भूमिपप्पटको अन्तरधायि। भूमिपप्पटके अन्तरहिते पदालता पातुरहोसि। सा अहोसि वण्णसम्पन्ना गन्धसम्पन्ना रससम्पन्ना। ते मयं पदालतं उपक्कमिम्ह परिभुञ्जितुं। ते मयं तं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठम्हा। तेसं नो पापकानंयेव अकुसलानं धम्मानं पातुभावा पदालता अन्तरधायि। पदालताय अन्तरहिताय अकट्ठपाको सालि पातुरहोसि अकणो अथुसो सुद्धो सुगन्धो तण्डुलप्फलो। यं तं सायं सायमासाय आहराम, पातो तं होति पक्कं पटिविरूळ्हं। यं तं पातो पातरासाय आहराम, सायं तं होति पक्कं पटिविरूळ्हं। नापदानं पञ्ञायित्थ। ते मयं अकट्ठपाकं सालिं परिभुञ्जन्ता तंभक्खा तदाहारा चिरं दीघमद्धानं अट्ठम्हा। तेसं नो पापकानंयेव अकुसलानं धम्मानं पातुभावा कणोपि तण्डुलं परियोनन्धि, थुसोपि तण्डुलं परियोनन्धि, लूनम्पि नप्पटिविरूळ्हं, अपदानं पञ्ञायित्थ, सण्डसण्डा सालयो ठिता। यंनून मयं सालिं विभजेय्याम, मरियादं ठपेय्यामा’ति! अथ खो ते, वासेट्ठ, सत्ता सालिं विभजिंसु, मरियादं ठपेसुं।

१२९. ‘‘अथ खो, वासेट्ठ, अञ्ञतरो सत्तो लोलजातिको सकं भागं परिरक्खन्तो अञ्ञतरं [अञ्ञस्स (?)] भागं अदिन्नं आदियित्वा परिभुञ्जि। तमेनं अग्गहेसुं, गहेत्वा एतदवोचुं – ‘पापकं वत, भो सत्त, करोसि, यत्र हि नाम सकं भागं परिरक्खन्तो अञ्ञतरं भागं अदिन्नं आदियित्वा परिभुञ्जसि। मास्सु, भो सत्त, पुनपि एवरूपमकासी’ति। ‘एवं, भो’ति खो, वासेट्ठ, सो सत्तो तेसं सत्तानं पच्चस्सोसि। दुतियम्पि खो, वासेट्ठ, सो सत्तो…पे॰… ततियम्पि खो, वासेट्ठ, सो सत्तो सकं भागं परिरक्खन्तो अञ्ञतरं भागं अदिन्नं आदियित्वा परिभुञ्जि। तमेनं अग्गहेसुं, गहेत्वा एतदवोचुं – ‘पापकं वत, भो सत्त, करोसि, यत्र हि नाम सकं भागं परिरक्खन्तो अञ्ञतरं भागं अदिन्नं आदियित्वा परिभुञ्जसि। मास्सु, भो सत्त, पुनपि एवरूपमकासी’ति। अञ्ञे पाणिना पहरिंसु, अञ्ञे लेड्डुना पहरिंसु, अञ्ञे दण्डेन पहरिंसु। तदग्गे खो, वासेट्ठ, अदिन्नादानं पञ्ञायति, गरहा पञ्ञायति, मुसावादो पञ्ञायति, दण्डादानं पञ्ञायति।

महासम्मतराजा

१३०. ‘‘अथ खो ते, वासेट्ठ, सत्ता सन्निपतिंसु, सन्निपतित्वा अनुत्थुनिंसु – ‘पापका वत भो धम्मा सत्तेसु पातुभूता, यत्र हि नाम अदिन्नादानं पञ्ञायिस्सति, गरहा पञ्ञायिस्सति, मुसावादो पञ्ञायिस्सति, दण्डादानं पञ्ञायिस्सति। यंनून मयं एकं सत्तं सम्मन्नेय्याम, यो नो सम्मा खीयितब्बं खीयेय्य, सम्मा गरहितब्बं गरहेय्य, सम्मा पब्बाजेतब्बं पब्बाजेय्य। मयं पनस्स सालीनं भागं अनुप्पदस्सामा’ति।

‘‘अथ खो ते, वासेट्ठ, सत्ता यो नेसं सत्तो अभिरूपतरो च दस्सनीयतरो च पासादिकतरो च महेसक्खतरो च तं सत्तं उपसङ्कमित्वा एतदवोचुं – ‘एहि, भो सत्त, सम्मा खीयितब्बं खीय, सम्मा गरहितब्बं गरह, सम्मा पब्बाजेतब्बं पब्बाजेहि। मयं पन ते सालीनं भागं अनुप्पदस्सामा’ति। ‘एवं, भो’ति खो, वासेट्ठ, सो सत्तो तेसं सत्तानं पटिस्सुणित्वा सम्मा खीयितब्बं खीयि, सम्मा गरहितब्बं गरहि, सम्मा पब्बाजेतब्बं पब्बाजेसि। ते पनस्स सालीनं भागं अनुप्पदंसु।

१३१. ‘‘महाजनसम्मतोति खो, वासेट्ठ, ‘महासम्मतो, महासम्मतो’ त्वेव पठमं अक्खरं उपनिब्बत्तं। खेत्तानं अधिपतीति खो, वासेट्ठ, ‘खत्तियो, खत्तियो’ त्वेव दुतियं अक्खरं उपनिब्बत्तं। धम्मेन परे रञ्जेतीति खो, वासेट्ठ, ‘राजा, राजा’ त्वेव ततियं अक्खरं उपनिब्बत्तं। इति खो, वासेट्ठ, एवमेतस्स खत्तियमण्डलस्स पोराणेन अग्गञ्ञेन अक्खरेन अभिनिब्बत्ति अहोसि तेसंयेव सत्तानं, अनञ्ञेसं। सदिसानंयेव, नो असदिसानं। धम्मेनेव, नो अधम्मेन। धम्मो हि, वासेट्ठ, सेट्ठो जनेतस्मिं दिट्ठे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च।

ब्राह्मणमण्डलं

१३२. ‘‘अथ खो तेसं, वासेट्ठ, सत्तानंयेव [तेसं येव खो वासेट्ठ सत्तानं (सी॰ पी॰)] एकच्चानं एतदहोसि – ‘पापका वत, भो, धम्मा सत्तेसु पातुभूता, यत्र हि नाम अदिन्नादानं पञ्ञायिस्सति, गरहा पञ्ञायिस्सति, मुसावादो पञ्ञायिस्सति, दण्डादानं पञ्ञायिस्सति, पब्बाजनं पञ्ञायिस्सति। यंनून मयं पापके अकुसले धम्मे वाहेय्यामा’ति। ते पापके अकुसले धम्मे वाहेसुं। पापके अकुसले धम्मे वाहेन्तीति खो, वासेट्ठ, ‘ब्राह्मणा, ब्राह्मणा’ त्वेव पठमं अक्खरं उपनिब्बत्तं। ते अरञ्ञायतने पण्णकुटियो करित्वा पण्णकुटीसु झायन्ति वीतङ्गारा वीतधूमा पन्नमुसला सायं सायमासाय पातो पातरासाय गामनिगमराजधानियो ओसरन्ति घासमेसमाना [घासमेसना (सी॰ स्या॰ पी॰)]। ते घासं पटिलभित्वा पुनदेव अरञ्ञायतने पण्णकुटीसु झायन्ति। तमेनं मनुस्सा दिस्वा एवमाहंसु – ‘इमे खो, भो, सत्ता अरञ्ञायतने पण्णकुटियो करित्वा पण्णकुटीसु झायन्ति, वीतङ्गारा वीतधूमा पन्नमुसला सायं सायमासाय पातो पातरासाय गामनिगमराजधानियो ओसरन्ति घासमेसमाना। ते घासं पटिलभित्वा पुनदेव अरञ्ञायतने पण्णकुटीसु झायन्ती’ति, झायन्तीति खो [पण्णकुटीसु झायन्ति झायन्तीति खो (सी॰ पी॰), पण्णकुटीसु झायन्तीति खो (क॰)], वासेट्ठ, ‘झायका, झायका’ त्वेव दुतियं अक्खरं उपनिब्बत्तं। तेसंयेव खो, वासेट्ठ, सत्तानं एकच्चे सत्ता अरञ्ञायतने पण्णकुटीसु तं झानं अनभिसम्भुणमाना [अनभिसंभूनमाना (कत्थचि)] गामसामन्तं निगमसामन्तं ओसरित्वा गन्थे करोन्ता अच्छन्ति। तमेनं मनुस्सा दिस्वा एवमाहंसु – ‘इमे खो, भो, सत्ता अरञ्ञायतने पण्णकुटीसु तं झानं अनभिसम्भुणमाना गामसामन्तं निगमसामन्तं ओसरित्वा गन्थे करोन्ता अच्छन्ति, न दानिमे झायन्ती’ति। न दानिमे [न दानिमे झायन्ती न दानिमे (सी॰ पी॰ क॰)] झायन्तीति खो, वासेट्ठ, ‘अज्झायका अज्झायका’ त्वेव ततियं अक्खरं उपनिब्बत्तं। हीनसम्मतं खो पन, वासेट्ठ, तेन समयेन होति, तदेतरहि सेट्ठसम्मतं। इति खो, वासेट्ठ, एवमेतस्स ब्राह्मणमण्डलस्स पोराणेन अग्गञ्ञेन अक्खरेन अभिनिब्बत्ति अहोसि तेसंयेव सत्तानं, अनञ्ञेसं सदिसानंयेव नो असदिसानं धम्मेनेव, नो अधम्मेन। धम्मो हि, वासेट्ठ, सेट्ठो जनेतस्मिं दिट्ठे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च।

वेस्समण्डलं

१३३. ‘‘तेसंयेव खो, वासेट्ठ, सत्तानं एकच्चे सत्ता मेथुनं धम्मं समादाय विसुकम्मन्ते [विस्सुतकम्मन्ते (सी॰ पी॰), विस्सुकम्मन्ते (क॰ सी॰), विसुं कम्मन्ते (स्या॰ क॰)] पयोजेसुं। मेथुनं धम्मं समादाय विसुकम्मन्ते पयोजेन्तीति खो, वासेट्ठ, ‘वेस्सा, वेस्सा’ त्वेव अक्खरं उपनिब्बत्तं। इति खो, वासेट्ठ, एवमेतस्स वेस्समण्डलस्स पोराणेन अग्गञ्ञेन अक्खरेन अभिनिब्बत्ति अहोसि तेसञ्ञेव सत्तानं अनञ्ञेसं सदिसानंयेव, नो असदिसानं, धम्मेनेव नो अधम्मेन। धम्मो हि, वासेट्ठ, सेट्ठो जनेतस्मिं दिट्ठे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च।

सुद्दमण्डलं

१३४. ‘‘तेसञ्ञेव खो, वासेट्ठ, सत्तानं ये ते सत्ता अवसेसा ते लुद्दाचारा खुद्दाचारा अहेसुं। लुद्दाचारा खुद्दाचाराति खो, वासेट्ठ, ‘सुद्दा, सुद्दा’ त्वेव अक्खरं उपनिब्बत्तं। इति खो, वासेट्ठ, एवमेतस्स सुद्दमण्डलस्स पोराणेन अग्गञ्ञेन अक्खरेन अभिनिब्बत्ति अहोसि तेसंयेव सत्तानं अनञ्ञेसं, सदिसानंयेव नो असदिसानं, धम्मेनेव, नो अधम्मेन। धम्मो हि, वासेट्ठ, सेट्ठो जनेतस्मिं दिट्ठे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च।

१३५. ‘‘अहु खो सो, वासेट्ठ, समयो, यं खत्तियोपि सकं धम्मं गरहमानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति – ‘समणो भविस्सामी’ति। ब्राह्मणोपि खो, वासेट्ठ…पे॰… वेस्सोपि खो, वासेट्ठ…पे॰… सुद्दोपि खो, वासेट्ठ, सकं धम्मं गरहमानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति – ‘समणो भविस्सामी’ति। इमेहि खो, वासेट्ठ, चतूहि मण्डलेहि समणमण्डलस्स अभिनिब्बत्ति अहोसि, तेसंयेव सत्तानं अनञ्ञेसं, सदिसानंयेव नो असदिसानं, धम्मेनेव नो अधम्मेन। धम्मो हि, वासेट्ठ, सेट्ठो जनेतस्मिं दिट्ठे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च।

दुच्चरितादिकथा

१३६. ‘‘खत्तियोपि खो, वासेट्ठ, कायेन दुच्चरितं चरित्वा वाचाय दुच्चरितं चरित्वा मनसा दुच्चरितं चरित्वा मिच्छादिट्ठिको मिच्छादिट्ठिकम्मसमादानो [इदं पदं सी॰ इपोत्थकेसु नत्थि] मिच्छादिट्ठिकम्मसमादानहेतु कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जति। ब्राह्मणोपि खो, वासेट्ठ…पे॰… वेस्सोपि खो, वासेट्ठ… सुद्दोपि खो, वासेट्ठ… समणोपि खो, वासेट्ठ, कायेन दुच्चरितं चरित्वा वाचाय दुच्चरितं चरित्वा मनसा दुच्चरितं चरित्वा मिच्छादिट्ठिको मिच्छादिट्ठिकम्मसमादानो मिच्छादिट्ठिकम्मसमादानहेतु कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जति।

‘‘खत्तियोपि खो, वासेट्ठ, कायेन सुचरितं चरित्वा वाचाय सुचरितं चरित्वा मनसा सुचरितं चरित्वा सम्मादिट्ठिको सम्मादिट्ठिकम्मसमादानो [इदं पदं सी॰ पी॰ पोत्थकेसु नत्थि] सम्मादिट्ठिकम्मसमादानहेतु कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जति। ब्राह्मणोपि खो, वासेट्ठ…पे॰… वेस्सोपि खो, वासेट्ठ… सुद्दोपि खो, वासेट्ठ… समणोपि खो, वासेट्ठ, कायेन सुचरितं चरित्वा वाचाय सुचरितं चरित्वा मनसा सुचरितं चरित्वा सम्मादिट्ठिको सम्मादिट्ठिकम्मसमादानो सम्मादिट्ठिकम्मसमादानहेतु कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जति।

१३७. ‘‘खत्तियोपि खो, वासेट्ठ, कायेन द्वयकारी, वाचाय द्वयकारी, मनसा द्वयकारी, विमिस्सदिट्ठिको विमिस्सदिट्ठिकम्मसमादानो विमिस्सदिट्ठिकम्मसमादानहेतु [विमिस्सदिट्ठिको विमिस्सकम्मसमादानो विमिस्सकम्मसमादानहेतु (स्या॰), वीतिमिस्सदिट्ठिको वीतिमिस्सदिट्ठिकम्मसमादानहेतु (सी॰ पी॰)] कायस्स भेदा परं मरणा सुखदुक्खप्पटिसंवेदी होति। ब्राह्मणोपि खो, वासेट्ठ …पे॰… वेस्सोपि खो, वासेट्ठ… सुद्दोपि खो, वासेट्ठ… समणोपि खो, वासेट्ठ, कायेन द्वयकारी, वाचाय द्वयकारी, मनसा द्वयकारी, विमिस्सदिट्ठिको विमिस्सदिट्ठिकम्मसमादानो विमिस्सदिट्ठिकम्मसमादानहेतु कायस्स भेदा परं मरणा सुखदुक्खप्पटिसंवेदी होति।

बोधिपक्खियभावना

१३८. ‘‘खत्तियोपि खो, वासेट्ठ, कायेन संवुतो वाचाय संवुतो मनसा संवुतो सत्तन्नं बोधिपक्खियानं धम्मानं भावनमन्वाय दिट्ठेव धम्मे परिनिब्बायति [परिनिब्बाति (क॰)]। ब्राह्मणोपि खो, वासेट्ठ…पे॰… वेस्सोपि खो वासेट्ठ… सुद्दोपि खो, वासेट्ठ … समणोपि खो, वासेट्ठ, कायेन संवुतो वाचाय संवुतो मनसा संवुतो सत्तन्नं बोधिपक्खियानं धम्मानं भावनमन्वाय दिट्ठेव धम्मे परिनिब्बायति।

१३९. ‘‘इमेसञ्हि, वासेट्ठ, चतुन्नं वण्णानं यो होति भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञा विमुत्तो सो नेसं अग्गमक्खायति धम्मेनेव। नो अधम्मेन। धम्मो हि, वासेट्ठ, सेट्ठो जनेतस्मिं दिट्ठे चेव धम्मे अभिसम्परायञ्च।

१४०. ‘‘ब्रह्मुना पेसा, वासेट्ठ, सनङ्कुमारेन गाथा भासिता –

‘खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं, ये गोत्तपटिसारिनो।

विज्जाचरणसम्पन्नो, सो सेट्ठो देवमानुसे’ति॥

‘‘सा खो पनेसा, वासेट्ठ, ब्रह्मुना सनङ्कुमारेन गाथा सुगीता, नो दुग्गीता। सुभासिता, नो दुब्भासिता। अत्थसंहिता, नो अनत्थसंहिता। अनुमता मया। अहम्पि, वासेट्ठ, एवं वदामि –

‘खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं, ये गोत्तपटिसारिनो।

विज्जाचरणसम्पन्नो, सो सेट्ठो देवमानुसे’ति॥

इदमवोच भगवा। अत्तमना वासेट्ठभारद्वाजा भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति।

अग्गञ्ञसुत्तं निट्ठितं चतुत्थं।