नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 आस्थावर्धक

सूत्र विवेचना

इस सूत्र को आयुष्मान सारिपुत्त भंते ने भगवान को उनके जीवन के अंतिम वर्ष में सुनाया। यह सूत्र, दरअसल, महापरिनिर्वाण सूत्र (दीघनिकाय १६) से शुरू होता है, जो आगे बढ़ते हुए भगवान के प्रति आस्था और श्रद्धा को और भी प्रगाढ़ करता है। आयुष्मान सारिपुत्त भंते, जो प्रज्ञावान भिक्षुओं में सबसे अग्रणी थे, ने स्वयं परिनिर्वाण ग्रहण करने से पहले भगवान के पास आकर अपनी गहरी आस्था प्रकट की। हालांकि, उन्होंने भगवान के सामने अपनी मर्यादा से बाहर कुछ बड़े दावे किए। भगवान ने तुरंत टोककर उन्हें चेतावनी दी, लेकिन इसके बाद सारिपुत्त भंते ने अपनी बात का विस्तार से स्पष्टीकरण दिया और भगवान के गुणों का बखान किया।

उनका यह भाव भगवान के प्रति अटूट आस्था को प्रकट करता है, और साथ ही यह भी दर्शाता है कि बौद्ध धर्म में आस्था अंधी नहीं, बल्कि गहरी अनुभूति और जागृत ज्ञान का परिणाम होती है। भगवान के टोकने पर हमें उनके चरित्र का एक अनूठा दृष्टिकोण मिलता है, जो सिखाता है कि प्रशंसा के बावजूद हमें सादगी और नम्रता के साथ आगे बढ़ना चाहिए। ब्रह्मजाल सुत्त (दीघनिकाय १) में भगवान ने भिक्षुओं को प्रशंसा और निंदा से निपटने का जो मार्ग बताया, यहाँ भगवान की सादगी और नम्रता में उसी की गूंज सुनाई देती है।

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

Hindi

१. सारिपुत्त की सिंह गर्जना

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान नालन्दा के पावारिक आमवन में विहार कर रहे थे। तब आयुष्मान सारिपुत्त भगवान के पास गए और अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान सारिपुत्त ने भगवान से कहा, “भंते, मुझे भगवान पर इतनी आस्था है कि संबोधि को लेकर भगवान के प्रत्यक्ष ज्ञान के आगे न कभी कोई अन्य श्रमण या ब्राह्मण भगवान से श्रेष्ठ हुआ था, न है, और न कभी होगा।”

“बहुत ऊँची और बड़ी बात कह रहे हो, सारिपुत्त। तुमने सिंह के जैसे एक निश्चित और निर्णायक गर्जना की है कि — ‘भंते, मुझे भगवान पर इतनी आस्था है कि संबोधि को लेकर भगवान के प्रत्यक्ष ज्ञान के आगे न कोई अन्य श्रमण या ब्राह्मण भगवान से श्रेष्ठ हुआ था, न है, और न ही होगा।’ उनके बारे में क्या, सारिपुत्त, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध अतीत में हुए? क्या तुमने उन भगवानों के चित्त को अपने चित्त से परख लिया कि ‘उन भगवानों का ऐसा शील था, ऐसा धर्म था, ऐसा अन्तर्ज्ञान था, ऐसा [चित्त] विहार था, ऐसी विमुक्ति थी?”

“नहीं, भंते।”

“और उनके बारे में क्या, सारिपुत्त, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध भविष्य में होंगे? क्या तुमने उन भगवानों के चित्त को अपने चित्त से परख लिया कि ‘उन भगवानों का ऐसा शील रहेगा, ऐसा धर्म रहेगा, ऐसा अन्तर्ज्ञान रहेगा, ऐसा [चित्त] विहार रहेगा, ऐसी विमुक्ति रहेगी?”

“नहीं, भंते।”

“और मेरे बारे में क्या, सारिपुत्त, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध अब वर्तमान में हूँ? क्या तुमने मेरे चित्त को अपने चित्त से परख लिया कि ‘यह भगवान का ऐसा शील है, ऐसा धर्म है, ऐसा अन्तर्ज्ञान है, ऐसा [चित्त] विहार है, ऐसी विमुक्ति है?”

“नहीं, भंते।”

“तब, सारिपुत्त, जब तुम्हें अतीत, भविष्य और वर्तमान के किसी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का परचित्त ज्ञान नहीं है, तब भला कैसे तुमने इतनी ऊँची और बड़ी बात कह दी। क्यों तुमने सिंह के जैसे एक निश्चित और निर्णायक गर्जना कर दी कि — ‘भंते, मुझे भगवान पर विश्वास है कि संबोधि को लेकर भगवान के प्रत्यक्ष ज्ञान के आगे न कोई अन्य श्रमण या ब्राह्मण भगवान से श्रेष्ठ हुआ था, न है, और न ही होगा।’”

“भंते, मुझे अतीत, भविष्य और वर्तमान के किसी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का परचित्त ज्ञान नहीं है। किन्तु मैं धर्म की निरंतरता जानता हूँ। जैसे, भंते, किसी राजा का सीमांत गढ़ होता है, दृढ़ प्राचीर [=गढ़ के सुरक्षार्थ चारों-ओर से घिरी मोटी दीवार, जिस पर सैनिक खड़े होकर पहरा देते हैं], दृढ़ तोरण [=मेहराब या आर्कनुमा संरचना] से घिरा हुआ, जिसका एक मात्र द्वार हो। वहाँ एक द्वारपाल पण्डित, सक्षम और मेधावी [=अक्लमंद] हो, जो अजनबियों को बाहर रख, परिचितों को प्रवेश देता हो। उसे गढ़ के संपूर्ण घेराव-मार्ग पर चलते हुए कोई छेद या दरार न दिखे, जिसमें से कोई बिल्ली भी घुस सके। तब उसे लगता है, “जितने बड़े प्राणी गढ़ में प्रवेश करते या निकलते हैं, सब इस द्वार से ही प्रवेश करते और निकलते हैं।”

उसी तरह, भंते, मैं धर्म की निरंतरता जानता हूँ — “जितने भी अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध अतीत, भविष्य और वर्तमान में होते हैं, वे सभी भगवान पाँच अवरोध [=नीवरण] का त्याग करते हैं जो चित्त मटमैला कर अन्तर्ज्ञान को दुर्बल करते हैं, वे अपने चित्त को चार स्मरणशीलता की स्थापना [=सतिपट्ठान] में सुप्रतिष्ठित करते हैं, सात संबोधि अंगों को यथास्वरूप [=जैसे किया जाता है, वैसे] विकसित करते हैं, और सर्वोपरि सम्यक-सम्बोधि को जागृत करते हैं।

और, भंते, आप भगवान ने, जो अभी वर्तमान में अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं, पाँच अवरोध का त्याग किया है जो चित्त मटमैला कर अन्तर्ज्ञान को दुर्बल करते हैं, चित्त को चार स्मरणशीलता की स्थापना में सुप्रतिष्ठित किया है, सात संबोधि अंगों को यथास्वरूप विकसित किया है, और सर्वोपरि सम्यक-सम्बोधि को जागृत किया है।

भंते, मैं एक बार भगवान के पास धर्म सुनने के लिए आया। तब, भंते, भगवान ने काले और उजले पक्षों के साथ ऊँचे से अतिऊँचा, उत्तम से अतिउत्तम धर्म उपदेश किया। जैसे-जैसे भगवान ने काले और उजले पक्षों के साथ ऊँचे से अतिऊँचा, उत्तम से अतिउत्तम धर्म उपदेश किया, वैसे-वैसे मेरी उन धर्मों को प्रत्यक्ष जानने से उन धर्मों में धर्मानुसार निष्ठा हुई, शास्ता पर आस्था हुई कि ‘वाकई, भगवान ही सम्यक-सम्बुद्ध है, भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है, भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है!’”

१.१ कुशल धर्म उपदेश

“और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान कुशल धर्मों के बारें में धर्म उपदेश करते है। वे कुशल धर्म हैं — चार स्मृति-प्रस्थान, चार सम्यक-प्रधान, चार ऋद्धिपद, पाँच इंद्रिय, पाँच बल, सात बोधि-अंग, और आर्य अष्टांगिक मार्ग। भंते, यहाँ कोई भिक्षु आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष जान कर साक्षात्कार कर रहता है। यह कुशल धर्म सर्वोत्कृष्ठ है, भंते! भगवान उसे, बिना कुछ अवशेष छोड़े, [पूर्णतः] जानते है। और, भगवान इन कुशल धर्मों को, बिना कुछ अवशेष छोड़े, जिस तरह जानते है, उससे भी श्रेष्ठ प्रत्यक्ष जानने के लिए कुछ बचा ही नहीं है, जिसे कोई दूसरा श्रमण या ब्राह्मण जानने पर भगवान से आगे बढ़ जाएगा।”

१.२ आयाम विवरण

और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान आयाम विवरण के बारें में धर्म उपदेश करते है। वे आयाम विवरण हैं — भीतरी और बाहरी आयाम। चक्षु और रूप, कान और आवाज, नाक और गंध, जीभ और स्वाद, काया और संस्पर्श, मन और स्वभाव। ये आयाम विवरण सर्वोत्कृष्ठ है, भंते! भगवान उसे, बिना कुछ अवशेष छोड़े, जानते है। और, भगवान इन आयाम विवरण को, बिना कुछ अवशेष छोड़े, जिस तरह जानते है, उससे भी श्रेष्ठ प्रत्यक्ष जानने के लिए कुछ बचा ही नहीं है, जिसे कोई दूसरा श्रमण या ब्राह्मण जानने पर भगवान से आगे बढ़ जाएगा।"

१.३ गर्भ प्रवेश

और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान [सत्वों के] गर्भ प्रवेश के बारें में धर्म उपदेश करते है। चार तरह से, भंते, गर्भ प्रवेश होता हैं —

(१) भंते, कोई बिना सचेत अपनी माँ के गर्भ में प्रवेश करते हैं, बिना सचेत अपनी माँ के गर्भ में रुकते हैं, और बिना सचेत ही अपनी माँ के गर्भ से निकलते हैं। यह पहला प्रकार है।

(२) आगे, भंते, कोई सचेत रहते अपनी माँ के गर्भ में प्रवेश करते हैं, [किन्तु फिर] बिना सचेत अपनी माँ के गर्भ में रुकते हैं, और बिना सचेत ही अपनी माँ के गर्भ से निकलते हैं। यह दूसरा प्रकार है।

(३) आगे, भंते, कोई सचेत रहते अपनी माँ के गर्भ में प्रवेश करते हैं, सचेत रहते अपनी माँ के गर्भ में रुकते हैं, [किन्तु फिर] बिना सचेत अपनी माँ के गर्भ से निकलते हैं। यह तीसरा प्रकार है।

(४) आगे, भंते, कोई सचेत रहते अपनी माँ के गर्भ में प्रवेश करते हैं, सचेत रहते अपनी माँ के गर्भ में रुकते हैं, और सचेत रहते ही अपनी माँ के गर्भ से निकलते हैं। यह चौथा प्रकार है।

ये गर्भ प्रवेश का उपदेश सर्वोत्कृष्ठ है, भंते!"

१.४ प्रदर्शन

“और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान प्रदर्शन के बारें में धर्म उपदेश करते है। चार तरह से, भंते, प्रदर्शन होता हैं —

(१) भंते, कोई निमित्त प्रदर्शित करता है, ‘ऐसा तुम्हारा मन है, तुम्हारे मन [के विचार] इस तरह का है, तुम्हारा चित्त इस प्रकार का है।’ और वे जितने बार भी प्रदर्शित करे, वाकई ठीक उसी तरह होता है, उसके अलावा नहीं। यह पहला प्रदर्शन है।

(२) आगे, भंते, कोई निमित्त प्रदर्शित नहीं करता। बल्कि मनुष्य, या अमनुष्य, या देवताओं से सुनकर प्रदर्शित करता है, ‘ऐसा तुम्हारा मन है, तुम्हारे मन इस तरह का है, तुम्हारा चित्त इस प्रकार का है।’ और वे जितने बार भी प्रदर्शित करे, वाकई ठीक उसी तरह होता है, उसके अलावा नहीं। यह दूसरा प्रदर्शन है।

(३) आगे, भंते, कोई न निमित्त प्रदर्शित करता है, न ही मनुष्य, या अमनुष्य, या देवताओं से सुनकर प्रदर्शित करता है। बल्कि वह किसी के प्रसारित होते विचार और चिंतन को वैचारिक आवाज में सुनकर प्रदर्शित करता है, ‘ऐसा तुम्हारा मन है, तुम्हारे मन इस तरह का है, तुम्हारा चित्त इस प्रकार का है।’ और वे जितने बार भी प्रदर्शित करे, वाकई ठीक उसी तरह होता है, उसके अलावा नहीं। यह तीसरा प्रदर्शन है।

(४) आगे, भंते, कोई न निमित्त प्रदर्शित करता है, न ही मनुष्य, या अमनुष्य, या देवताओं से सुनकर प्रदर्शित करता है, और न ही किसी के प्रसारित होते विचार और चिंतन को वैचारिक आवाज में सुनकर प्रदर्शित करता है। बल्कि वह बिना-सोच बिना-विचार वाली समाधि [द्वितीय ध्यान अवस्था] में स्थित हुए चित्त से पराए चित्त की बात जान लेता है, ‘इस श्रीमान में जिस तरह की मनो-रचना संचालित हो रही है, वह इस चित्त के बाद फिर उस तरह के विचार करने लगेगा।’ और वे जितने बार भी प्रदर्शित करे, वाकई ठीक उसी तरह होता है, उसके अलावा नहीं। यह चौथा प्रदर्शन है।

ये प्रदर्शन का उपदेश सर्वोत्कृष्ठ है, भंते!”

१.५ दर्शन समापत्ति

“और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान दर्शन सिद्धि के बारें में धर्म उपदेश करते है। चार तरह से, भंते, दर्शन सिद्धि होती हैं —

(१) भंते, कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्त में काया को पैर तल से ऊपर, माथे के केश से नीचे, त्वचा से ढ़की हुई, नाना प्रकार की गंदगियों से भरी हुई मनन होती है, ‘मेरी इस काया में हैं — केश, लोम, नाखून, दाँत, त्वचा; माँस, नसें, हड्डी, हड्डीमज्जा, तिल्ली; ह्रदय, कलेजा, झिल्ली, गुर्दा, फेफड़ा; आँत, छोटी-आँत, उदर, टट्टी, मस्तिष्क; पित्त, कफ, पीब, रक्त, पसीना, चर्बी; आँसू, तेल, थूक, बलगम, जोड़ो में तरल, मूत्र।’ यह पहली दर्शन सिद्धि है।

(२) आगे, भंते, कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्त में काया को पैर तल से ऊपर, माथे के केश से नीचे, त्वचा से ढ़की हुई, नाना प्रकार की गंदगियों से भरी हुई मनन होती है, ‘मेरी इस काया में हैं — केश, लोम, नाखून, दाँत, त्वचा; माँस, नसें, हड्डी, हड्डीमज्जा, तिल्ली; ह्रदय, कलेजा, झिल्ली, गुर्दा, फेफड़ा; आँत, छोटी-आँत, उदर, टट्टी, मस्तिष्क; पित्त, कफ, पीब, रक्त, पसीना, चर्बी; आँसू, तेल, थूक, बलगम, जोड़ो में तरल, मूत्र।’ और वह उसे लाँघकर [बाहरी] पुरुष को त्वचा, माँस, रक्त, और हड्डी के रूप में मनन करता है। यह दूसरी दर्शन सिद्धि है।

(३) आगे, भंते, कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए… मनन होती है, ‘मेरी इस काया में हैं — केश, लोम, नाखून, दाँत, त्वचा… मूत्र।’ और वह उसे लाँघकर पुरुष को त्वचा, माँस, रक्त, और हड्डी के रूप में मनन करता है। और वह पुरुष की चैतन्य-धारा को प्रत्यक्ष जानने लगता है, जो बिना टूटे इस लोक और परलोक दोनों में ही स्थापित हो। यह तीसरी दर्शन सिद्धि है।

(४) आगे, भंते, कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए… मनन होती है, ‘मेरी इस काया में हैं — केश, लोम, नाखून, दाँत, त्वचा… मूत्र।’ और वह उसे लाँघकर पुरुष को त्वचा, माँस, रक्त, और हड्डी के रूप में मनन करता है। और वह पुरुष की चैतन्य-धारा को प्रत्यक्ष जानने लगता है, जो बिना टूटे न इस लोक में स्थापित हो, न ही परलोक में। यह चौथी दर्शन सिद्धि है।

ये दर्शन सिद्धि का उपदेश सर्वोत्कृष्ठ है, भंते!”

१.६ व्यक्तित्व विवरण

“और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान व्यक्तित्व विवरण [“पुग्गलपण्णत्ती”] के बारें में धर्म उपदेश करते है। भंते, सात तरह के व्यक्तित्व होते हैं — (१) दोनों ओर से विमुक्त, (२) प्रज्ञाविमुक्त, (३) काय-साक्षी, (४) दृष्टि प्राप्त, (५) श्रद्धाविमुक्त, (६) धर्मानुसारी, और (७) श्रद्धानुसारी।

ये व्यक्तित्व विवरण का उपदेश सर्वोत्कृष्ठ है, भंते!”

१.७ उद्यमता

“और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान उद्यमता [“पधान”] के बारें में धर्म उपदेश करते है। भंते, सात तरह के संबोधि अंग होते हैं — (१) स्मरणशीलता संबोधि अंग, (२) धर्म विश्लेषण संबोधि अंग, (३) ऊर्जा संबोधि अंग, (४) प्रफुल्लता संबोधि अंग, (५) प्रशान्ति संबोधि अंग, (६) समाधि संबोधि अंग, और (७) तटस्थता संबोधि अंग।

ये उद्यमता का उपदेश सर्वोत्कृष्ठ है, भंते!”

१.८ प्रगतिपथ

“और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान साधना मार्ग [“पटिपदा”] के बारें में धर्म उपदेश करते है। वे चार हैं, भंते — (१) कष्टपूर्ण साधना, धीमे गहरा ज्ञान, (२) कष्टपूर्ण साधना, त्वरित गहरा ज्ञान, (३) सुखपूर्ण साधना, धीमे गहरा ज्ञान, (२) सुखपूर्ण साधना, गहरा ज्ञान।

इनमें से, भंते, ‘कष्टपूर्ण साधना धीमे गहरा ज्ञान’ दोनों ओर से हीन कहा जाता है, क्योंकि वह कष्टपूर्ण भी है, और धीमे भी। फिर, ‘कष्टपूर्ण साधना, त्वरित गहरा ज्ञान’ हीन कहा जाता है, क्योंकि वह कष्टपूर्ण है। फिर, ‘सुखपूर्ण साधना, धीमे गहरा ज्ञान’ हीन कहा जाता है, क्योंकि वह धीमा है। किन्तु, ‘सुखपूर्ण साधना, गहरा ज्ञान’ सर्वोत्तम कहा जाता है, क्योंकि वह सुखपूर्ण भी है, और त्वरित भी।

ये साधना मार्ग का उपदेश सर्वोत्कृष्ठ है, भंते!”

१.९ आचरण

“और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान वाणी आचरण के बारें में धर्म उपदेश करते है। भंते, कोई ऐसी वाणी बोलता है, जो न झूठी हो, न फूट डालने वाली हो, न चुगली हो, न जीतने के लिए उत्तेजना से भरी हो। बल्कि वह बहुत सोच-समझकर उचित समय पर अनमोल वचन ही बोलता है। ये वाणी आचरण का उपदेश सर्वोत्कृष्ठ है, भंते!

और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान पुरुष के शील आचरण के बारें में धर्म उपदेश करते है। भंते, कोई सच्चा और श्रद्धालु होता है। वह न ढोंग, न चापलूसी, न ईशारे, न अवमूल्यन करता है, न लाभ [=प्राप्त वस्तु] से लाभ [=दूसरी वस्तु] पाने के पीछे पड़ता है। बल्कि वह अपने इंद्रियो की रक्षा, मात्रा में भोजन, सम बर्ताव, जागरण के प्रति संकल्पबद्ध, अथक, उत्साही, ध्यानी, स्मृतिमान, कल्याण वाक्पटु, गतिमान, दृढ़, बुद्धिमान, कामुकता के लिए निर्लोभी, स्मरणशील और सतर्क होता है। ये पुरुष के शील आचरण का उपदेश सर्वोत्कृष्ठ है, भंते!”

१.१० आज्ञाधारक

“और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान आज्ञाधारक के बारें में धर्म उपदेश करते है। भंते, चार तरह का आज्ञा पालन होता है —

(१) भगवान उचित चिंतन कर किसी के व्यक्तित्व को जान जाते है कि ‘यह व्यक्ति आज्ञा पालन कर तीन संयोजन तोड़कर श्रोतापन्न बनेगा, अ-पतन स्वभाव का, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर।’

(२) भगवान उचित चिंतन कर किसी के व्यक्तित्व को जान जाते है कि ‘यह व्यक्ति आज्ञा पालन कर तीन संयोजन तोड़कर, राग-द्वेष-मोह को दुर्बल कर, सकृदागामी बनेगा, जो इस लोक में दुबारा लौटकर अपने दुःखों का अन्त करेगा।’

(३) भगवान उचित चिंतन कर किसी के व्यक्तित्व को जान जाते है कि ‘यह व्यक्ति आज्ञा पालन कर निचले पाँच संयोजन तोड़कर [शुद्धवास ब्रह्मलोक में] स्वप्रकट [“ओपपातिक”] होगा, वही परिनिर्वाण प्राप्त करेगा, अब इस लोक में नहीं लौटेगा।’

(४) भगवान उचित चिंतन कर किसी के व्यक्तित्व को जान जाते है कि ‘यह व्यक्ति आज्ञा पालन कर आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार करेगा।’

ये आज्ञाधारक का उपदेश सर्वोत्कृष्ठ है, भंते!”

१.११ पराए की विमुक्ति का ज्ञान

“और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान “पराए व्यक्ति के विमुक्ति के ज्ञान” के बारें में धर्म उपदेश करते है।

(१) भगवान उचित चिंतन कर किसी के व्यक्तित्व को जान जाते है कि ‘यह व्यक्ति तीन संयोजन तोड़कर श्रोतापन्न बनेगा, अ-पतन स्वभाव का, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर।’

(२) भगवान उचित चिंतन कर किसी के व्यक्तित्व को जान जाते है कि ‘यह व्यक्ति तीन संयोजन तोड़कर, राग-द्वेष-मोह को दुर्बल कर, सकृदागामी बनेगा, जो इस लोक में दुबारा लौटकर अपने दुःखों का अन्त करेगा।’

(३) भगवान उचित चिंतन कर किसी के व्यक्तित्व को जान जाते है कि ‘यह व्यक्ति निचले पाँच संयोजन तोड़कर स्वप्रकट होगा, वही परिनिर्वाण प्राप्त करेगा, अब इस लोक में नहीं लौटेगा।’

(४) भगवान उचित चिंतन कर किसी के व्यक्तित्व को जान जाते है कि ‘यह व्यक्ति आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार करेगा।’

ये पराए व्यक्ति के विमुक्ति के ज्ञान का उपदेश सर्वोत्कृष्ठ है, भंते!”

१.१२ शाश्वतवाद

“और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान “शाश्वतवाद” के बारें में धर्म उपदेश करते है। भंते, तीन तरह के शाश्वतवाद होते हैं —

(१) भंते, कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्त में विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ, एक हज़ार जन्म, कई हज़ार जन्म, एक लाख जन्म — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।

वह [इस बल पर] कहता है — “मैं अतीत के बारे में जानता हूँ, लोक का संवर्त [=सिकुड़न] हुआ था, या विवर्त [=विस्तार]। मैं भविष्य के बारे में भी जानता हूँ, लोक का संवर्त होगा, या विवर्त। आत्मा और लोक नित्य है, निष्फल है, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर है, स्तंभ की तरह अचल है। और भले ही सत्व जन्म-जन्मांतरण में दौड़ते हैं, भटकते हैं, च्युत होते हैं, पुनरुत्पन्न होते हैं, तब भी अस्तित्व नित्य है।” यह पहला शाश्वतवाद है।

(२) आगे, कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्त में विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक कल्प का संवर्त और विवर्त, दो कल्पों का संवर्त और विवर्त, पाँच कल्पों का संवर्त और विवर्त, दस कल्पों का संवर्त और विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था… उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।

वह [इस बल पर] कहता है — “मैं अतीत के बारे में जानता हूँ, लोक का संवर्त हुआ था, या विवर्त। मैं भविष्य के बारे में भी जानता हूँ, लोक का संवर्त होगा, या विवर्त। आत्मा और लोक नित्य है, निष्फल है, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर है, स्तंभ की तरह अचल है। और भले ही सत्व जन्म-जन्मांतरण में दौड़ते हैं, भटकते हैं, च्युत होते हैं, पुनरुत्पन्न होते हैं, तब भी अस्तित्व नित्य है।” यह दूसरा शाश्वतवाद है।

(३) आगे, कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्त में विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे दस कल्पों का संवर्त और विवर्त, बीस कल्पों का संवर्त और विवर्त, तीस कल्पों का संवर्त और विवर्त, चालीस कल्पों का संवर्त और विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था… उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।

वह [इस बल पर] कहता है — “मैं अतीत के बारे में जानता हूँ, लोक का संवर्त हुआ था, या विवर्त। मैं भविष्य के बारे में भी जानता हूँ, लोक का संवर्त होगा, या विवर्त। आत्मा और लोक नित्य है, निष्फल है, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर है, स्तंभ की तरह अचल है। और भले ही सत्व जन्म-जन्मांतरण में दौड़ते हैं, भटकते हैं, च्युत होते हैं, पुनरुत्पन्न होते हैं, तब भी अस्तित्व नित्य है।” यह तीसरा शाश्वतवाद है।

ये शाश्वतवाद का उपदेश सर्वोत्कृष्ठ है, भंते!”

१.१३ पूर्वजन्म स्मरणज्ञान

“और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान “पूर्वजन्मों के स्मरणज्ञान” के बारें में धर्म उपदेश करते है।

भंते, कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्त में विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ, एक हज़ार जन्म, कई हज़ार जन्म, एक लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त, कई कल्पों का लोक-विवर्त, कई कल्पों का संवर्त और विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।

ऐसे देवता हैं, भंते, जिनकी आयु की न गणना हो सकती है, न ही कोई गिनकर बता सकता है। तब भी, जिस-जिस आत्मभाव में उनका उद्भव होता है, चाहे वह रूप में, या अरूप में, या संज्ञा [बोधगम्य, होशपूर्ण] में, या असंज्ञा [अबोधगम्य, बेहोश] में, या नसंज्ञा-न असंज्ञा[न बोधगम्य न अबोधगम्य] में। वे अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करते हैं।

ये पूर्वजन्मों के स्मरणज्ञान का उपदेश सर्वोत्कृष्ठ है, भंते!”

१.१४ सत्वों की गति ज्ञान

“और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान “सत्वों की गति ज्ञान” के बारें में धर्म उपदेश करते है।

भंते, कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्त में उसे विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।

ये सत्वों की गति ज्ञान का उपदेश सर्वोत्कृष्ठ है, भंते!”

१.१५ ऋद्धियाँ

“और आगे, भंते, वह सर्वोत्कृष्ठ है जिस तरह भगवान “ऋद्धियों” के बारें में धर्म उपदेश करते है। भंते, दो तरह की ऋद्धियाँ होती हैं — (१) एक ऋद्धि आस्रवों के साथ और आसक्तियों के साथ होती है, जिसे आर्य नहीं कहते हैं। (२) एक ऋद्धि बिना आस्रवों के और बिना आसक्तियों के होती है, जिसे “आर्य” कहते हैं।

(१) और, भंते, वह ऋद्धि कैसे होती है, जो आस्रवों के साथ और आसक्तियों के साथ होती है, जिसे आर्य नहीं कहते हैं?

भंते, कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्त में वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है। यह ऋद्धि, भंते, आस्रवों के साथ और आसक्तियों के साथ होती है, जिसे आर्य नहीं कहते हैं।

(२) और, भंते, वह ऋद्धि कैसे होती है, जो बिना आस्रवों के और बिना आसक्तियों के होती है, जिसे “आर्य” कहते हैं?

भंते, यदि कोई भिक्षु चाहे, ‘मैं घिन को घिनरहित नजरिए से देखते हुए रहूँ’, तो वह उसे घिनरहित नजरिए से देखते हुए रहता है। यदि वह चाहे, ‘मैं घिनरहित को घिन नजरिए से देखते हुए रहूँ’, तो वह उसे घिन नजरिए से देखते हुए रहता है। यदि वह चाहे, ‘मैं घिन और घिनरहित, दोनों को घिनरहित नजरिए से देखते हुए रहूँ’, तो वह उन्हें घिनरहित नजरिए से देखते हुए रहता है। यदि वह चाहे, ‘मैं घिन और घिनरहित, दोनों को घिन नजरिए से देखते हुए रहूँ’, तो वह उन्हें घिन नजरिए से देखते हुए रहता है। यदि वह चाहे, ‘मैं घिन और घिनरहित, दोनों को हटाकर, तटस्थ, सचेत और स्मरणशील होकर रहूँ’, तो वह उन्हें हटाकर तटस्थ, सचेत और स्मरणशील होकर रहता है। यह ऋद्धि, भंते, बिना आस्रवों के और बिना आसक्तियों के होती है, जिसे “आर्य” कहते हैं।

ये ऋद्धियों का उपदेश सर्वोत्कृष्ठ है, भंते! भगवान उसे, बिना कुछ अवशेष छोड़े, जानते है। और, भगवान इन ऋद्धियों को, बिना कुछ अवशेष छोड़े, जिस तरह जानते है, उससे भी श्रेष्ठ प्रत्यक्ष जानने के लिए कुछ बचा ही नहीं है, जिसे कोई दूसरा श्रमण या ब्राह्मण जानने पर भगवान से आगे बढ़ जाएगा।”

१.१६ शास्ता के अन्य गुणदर्शन

“भंते, किसी श्रद्धालु कुलपुत्र को, जो ऊर्जावान और सामर्थ्यशाली हो, जो अपने पौरुष सामर्थ्य से, पौरुष वीर्य से, पौरुष पराक्रम से, भार ढ़ोने की पौरुष शक्ति से, जो प्राप्त हो सकता है, वह भगवान ने प्राप्त कर लिया है। और, भगवान कभी कामुकता के मारे कामसुख से नहीं जुड़ते हैं, जो हीन, देहाती, जन-साधारण, अनार्य, और अनर्थकारी छोर है, जो आत्मपीड़ा से जुड़ने का जो दुखदायी, अनार्य, और अनर्थकारी छोर है। बल्कि, भगवान जब चाहे, बिना परेशानी, बिना कठिनाई के चार ध्यान प्राप्त कर, चित्त ऊँचा उठाकर इसी जीवन में सुख से विहार करते है।”

१.१७ पुछे जाने पर

“यदि, भंते, मुझसे पूछा जाए, ‘मित्र सारिपुत्त, क्या अतीत में कोई श्रमण या ब्राह्मण हुए थे, जो भगवान से श्रेष्ठ संबोधि प्राप्त थे?’ तो, भंते, मैं ‘नहीं’ कहूँगा। फिर पूछा जाए, ‘किन्तु, मित्र सारिपुत्त, क्या भविष्य में कोई श्रमण या ब्राह्मण होंगे, जो भगवान से श्रेष्ठ संबोधि प्राप्त होंगे?’ तो, भंते, मैं ‘नहीं’ कहूँगा। फिर पूछा जाए, ‘किन्तु, मित्र सारिपुत्त, क्या वर्तमान में कोई श्रमण या ब्राह्मण है, जो भगवान से श्रेष्ठ संबोधि प्राप्त है?’ तो, भंते, मैं ‘नहीं’ कहूँगा।

किन्तु, यदि मुझसे पूछा जाए, ‘मित्र सारिपुत्त, क्या अतीत में कोई श्रमण या ब्राह्मण हुए थे, जो भगवान के समान संबोधि प्राप्त थे?’ तो, भंते, मैं ‘हाँ’ कहूँगा। फिर पूछा जाए, ‘‘किन्तु, मित्र सारिपुत्त, क्या भविष्य में कोई श्रमण या ब्राह्मण होंगे, जो भगवान के समान संबोधि प्राप्त होंगे?’ तो, भंते, मैं ‘हाँ’ कहूँगा। फिर पूछा जाए, ‘‘किन्तु, मित्र सारिपुत्त, क्या वर्तमान में कोई श्रमण या ब्राह्मण है, जो भगवान के समान संबोधि प्राप्त है?’ तो, भंते, मैं ‘नहीं’ कहूँगा।

किन्तु, यदि मुझसे पूछा जाए, ‘किन्तु क्यों आयुष्मान सारिपुत्त किसी को स्वीकृति देते है, तो किसी को नहीं?’ तो, भंते, मैं उत्तर दूँगा, ‘मित्र, मैंने स्वयं भगवान के मुख से सुना है, उनके सम्मुख ग्रहण किया है कि ‘अतीतकाल के अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध मेरे ही समान संबोधी प्राप्त थे।’ और, मैंने स्वयं भगवान के मुख से सुना है, उनके सम्मुख ग्रहण किया है कि ‘भविष्यकाल के अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध मेरे ही समान संबोधी प्राप्त होंगे।’ और, मैंने स्वयं भगवान के मुख से सुना है, उनके सम्मुख ग्रहण किया है कि ‘ऐसा होना असंभव है कि एक लोकधातु [=सौर्यमंडल?] में एक समय दो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट हो, ऐसा नहीं हो सकता।’

भंते, यदि पुछे जाने पर मैं ऐसा कहूँ, तो क्या वे भगवान के ही शब्द दोहराए होंगे? कही तथ्यहीन बातों से भगवान का मिथ्यावर्णन तो नहीं होगा? क्या मैं धर्मानुरूप ही बोलूँगा, ताकि किसी सहधार्मिक व्यक्ति के पास आलोचना की गुंजाइश न रहे?”

“वाकई, सारिपुत्त, यदि पुछे जाने पर तुम ऐसा कहो, तो वे मेरे ही शब्द दोहराए होंगे। वह तथ्यहीन बातों से मेरा मिथ्यावर्णन नहीं होगा। तुम धर्मानुरूप ही बोलोगे, ताकि किसी सहधार्मिक व्यक्ति के पास आलोचना की गुंजाइश न रहे।”

२. आश्चर्य अद्भुत

जब ऐसा कहा गया, तो आयुष्मान उदायी ने भगवान से कहा, “आश्चर्य है, भंते, अद्भुत है तथागत की अल्पेच्छता, संतुष्टि और सादगी! भले ही तथागत इतने महाशक्तिशाली, इतने महाप्रभावशाली है, किन्तु अपने-आप को प्रदर्शित नहीं करते है। भंते, यदि इनमें से एक भी गुण किसी परधार्मिक घुमक्कड़ों में होता, तो वे उसका पताका [=बैनर] बनाकर घूमते। आश्चर्य है, भंते, अद्भुत है तथागत की अल्पेच्छता, संतुष्टि और सादगी! भले ही तथागत इतने महाशक्तिशाली, इतने महाप्रभावशाली है, किन्तु अपने-आप को प्रदर्शित नहीं करते है।”

[आयुष्मान सारिपुत्त ने कहा:] “देखो, उदायी, तथागत की अल्पेच्छता, संतुष्टि और सादगी! भले ही तथागत इतने महाशक्तिशाली, इतने महाप्रभावशाली है, किन्तु अपने-आप को प्रदर्शित नहीं करते है। उदायी, यदि इनमें से एक भी गुण किसी परधार्मिक घुमक्कड़ों में होता, तो वे उसका पताका बनाकर घूमते। देखो, उदायी, तथागत की अल्पेच्छता, संतुष्टि और सादगी! भले ही तथागत इतने महाशक्तिशाली, इतने महाप्रभावशाली है, किन्तु अपने-आप को प्रदर्शित नहीं करते है।”

तब, भगवान ने आयुष्मान सारिपुत्त को संबोधित किया, “ठीक है, सारिपुत्त, इस धर्मगुण [उपदेश] को अक्सर भिक्षुओं, भिक्षुणीयों, उपासकों और उपासिकाओं बताओ। जिस भी नालायक को तथागत पर शंका या संदेह होगा, उनका इस धर्म-गुण को सुनकर तथागत के प्रति शंका या संदेह छुट जाएगा।”

इस प्रकार आयुष्मान सारिपुत्त ने भगवान के सम्मुख अपनी आस्था प्रकट की। और इसलिए इस धर्मचर्चा का नाम “सम्पसादनीय” [=आस्था जगाने वाला] पड़ा।

सम्पसादनीय सुत्त समाप्त।

Pali

सारिपुत्तसीहनादो

१४१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा नाळन्दायं विहरति पावारिकम्बवने। अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा सारिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘एवंपसन्नो अहं, भन्ते, भगवति, न चाहु न च भविस्सति न चेतरहि विज्जति अञ्ञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभिञ्ञतरो यदिदं सम्बोधिय’’न्ति।

१४२. ‘‘उळारा खो ते अयं, सारिपुत्त, आसभी वाचा भासिता, एकंसो गहितो, सीहनादो नदितो – ‘एवंपसन्नो अहं, भन्ते, भगवति; न चाहु न च भविस्सति न चेतरहि विज्जति अञ्ञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभिञ्ञतरो यदिदं सम्बोधिय’न्ति। किं ते [किं नु (सी॰ पी॰), किं नु खो ते (स्या॰)], सारिपुत्त, ये ते अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो चेतसा चेतो परिच्च विदिता – ‘एवंसीला ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंधम्मा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंपञ्ञा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंविहारी ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी’’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’।

‘‘किं पन ते [किं पन (सी॰ पी॰)], सारिपुत्त, ये ते भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो चेतसा चेतो परिच्च विदिता, `एवंसीला ते भगवन्तो भविस्सन्ति इतिपि, एवंधम्मा…पे॰… एवंपञ्ञा… एवंविहारी… एवंविमुत्ता ते भगवन्तो भविस्सन्ति इतिपी’’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’।

‘‘किं पन ते [किं पन (सी॰ पी॰)], सारिपुत्त, अहं एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो चेतसा चेतो परिच्च विदितो – ‘एवंसीलो भगवा इतिपि, एवंधम्मो…पे॰… एवंपञ्ञो … एवंविहारी… एवंविमुत्तो भगवा इतिपी’’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’।

‘‘एत्थ च हि ते, सारिपुत्त, अतीतानागतपच्चुप्पन्नेसु अरहन्तेसु सम्मासम्बुद्धेसु चेतोपरियञाणं नत्थि। अथ किं चरहि ते अयं, सारिपुत्त, उळारा आसभी वाचा भासिता, एकंसो गहितो, सीहनादो नदितो – ‘एवंपसन्नो अहं, भन्ते, भगवति, न चाहु न च भविस्सति न चेतरहि विज्जति अञ्ञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभिञ्ञतरो यदिदं सम्बोधिय’’’न्ति?

१४३. ‘‘न खो मे [न खो पनेतं (स्या॰ क॰)], भन्ते, अतीतानागतपच्चुप्पन्नेसु अरहन्तेसु सम्मासम्बुद्धेसु चेतोपरियञाणं अत्थि। अपि च, मे [मे भन्ते (सी॰ पी॰ क॰)] धम्मन्वयो विदितो। सेय्यथापि, भन्ते, रञ्ञो पच्चन्तिमं नगरं दळ्हुद्धापं [दळ्हुद्दापं (सी॰ पी॰ क॰)] दळ्हपाकारतोरणं एकद्वारं। तत्रस्स दोवारिको पण्डितो ब्यत्तो मेधावी अञ्ञातानं निवारेता, ञातानं पवेसेता। सो तस्स नगरस्स समन्ता अनुपरियायपथं अनुक्कममानो न पस्सेय्य पाकारसन्धिं वा पाकारविवरं वा अन्तमसो बिळारनिक्खमनमत्तम्पि। तस्स एवमस्स – ‘ये खो केचि ओळारिका पाणा इमं नगरं पविसन्ति वा निक्खमन्ति वा, सब्बे ते इमिनाव द्वारेन पविसन्ति वा निक्खमन्ति वा’ति। एवमेव खो मे, भन्ते, धम्मन्वयो विदितो। ये ते, भन्ते, अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे चतूसु सतिपट्ठानेसु सुप्पतिट्ठितचित्ता, सत्त सम्बोज्झङ्गे यथाभूतं भावेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झिंसु। येपि ते, भन्ते, भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे चतूसु सतिपट्ठानेसु सुप्पतिट्ठितचित्ता, सत्त सम्बोज्झङ्गे यथाभूतं भावेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झिस्सन्ति। भगवापि, भन्ते, एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे चतूसु सतिपट्ठानेसु सुप्पतिट्ठितचित्तो सत्त सम्बोज्झङ्गे यथाभूतं भावेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो।

१४४. ‘‘इधाहं, भन्ते, येन भगवा तेनुपसङ्कमिं धम्मस्सवनाय। तस्स मे, भन्ते, भगवा धम्मं देसेति उत्तरुत्तरं पणीतपणीतं कण्हसुक्कसप्पटिभागं। यथा यथा मे, भन्ते, भगवा धम्मं देसेसि उत्तरुत्तरं पणीतपणीतं कण्हसुक्कसप्पटिभागं, तथा तथाहं तस्मिं धम्मे अभिञ्ञा इधेकच्चं धम्मं धम्मेसु निट्ठमगमं; सत्थरि पसीदिं – ‘सम्मासम्बुद्धो भगवा, स्वाक्खातो भगवता धम्मो, सुप्पटिपन्नो सावकसङ्घो’ति।

कुसलधम्मदेसना

१४५. ‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति कुसलेसु धम्मेसु। तत्रिमे कुसला धम्मा सेय्यथिदं, चत्तारो सतिपट्ठाना, चत्तारो सम्मप्पधाना, चत्तारो इद्धिपादा, पञ्चिन्द्रियानि, पञ्च बलानि, सत्त बोज्झङ्गा, अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो। इध, भन्ते, भिक्खु आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। एतदानुत्तरियं, भन्ते, कुसलेसु धम्मेसु। तं भगवा असेसमभिजानाति, तं भगवतो असेसमभिजानतो उत्तरि अभिञ्ञेय्यं नत्थि, यदभिजानं अञ्ञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभिञ्ञतरो अस्स, यदिदं कुसलेसु धम्मेसु।

आयतनपण्णत्तिदेसना

१४६. ‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति आयतनपण्णत्तीसु। छयिमानि, भन्ते, अज्झत्तिकबाहिरानि आयतनानि। चक्खुञ्चेव रूपा [रूपानि (क॰)] च, सोतञ्चेव सद्दा च, घानञ्चेव गन्धा च, जिव्हा चेव रसा च, कायो चेव फोट्ठब्बा च, मनो चेव धम्मा च। एतदानुत्तरियं, भन्ते, आयतनपण्णत्तीसु। तं भगवा असेसमभिजानाति, तं भगवतो असेसमभिजानतो उत्तरि अभिञ्ञेय्यं नत्थि, यदभिजानं अञ्ञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभिञ्ञतरो अस्स यदिदं आयतनपण्णत्तीसु।

गब्भावक्कन्तिदेसना

१४७. ‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति गब्भावक्कन्तीसु। चतस्सो इमा, भन्ते, गब्भावक्कन्तियो। इध, भन्ते, एकच्चो असम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमति; असम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति; असम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति। अयं पठमा गब्भावक्कन्ति।

‘‘पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमति; असम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति; असम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति। अयं दुतिया गब्भावक्कन्ति।

‘‘पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमति; सम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति; असम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति। अयं ततिया गब्भावक्कन्ति।

‘‘पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमति; सम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति; सम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति। अयं चतुत्था गब्भावक्कन्ति। एतदानुत्तरियं, भन्ते, गब्भावक्कन्तीसु।

आदेसनविधादेसना

१४८. ‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति आदेसनविधासु। चतस्सो इमा, भन्ते, आदेसनविधा। इध, भन्ते, एकच्चो निमित्तेन आदिसति – ‘एवम्पि ते मनो, इत्थम्पि ते मनो, इतिपि ते चित्त’न्ति। सो बहुं चेपि आदिसति, तथेव तं होति, नो अञ्ञथा। अयं पठमा आदेसनविधा।

‘‘पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो न हेव खो निमित्तेन आदिसति। अपि च खो मनुस्सानं वा अमनुस्सानं वा देवतानं वा सद्दं सुत्वा आदिसति – ‘एवम्पि ते मनो, इत्थम्पि ते मनो, इतिपि ते चित्त’न्ति। सो बहुं चेपि आदिसति, तथेव तं होति, नो अञ्ञथा। अयं दुतिया आदेसनविधा।

‘‘पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो न हेव खो निमित्तेन आदिसति, नापि मनुस्सानं वा अमनुस्सानं वा देवतानं वा सद्दं सुत्वा आदिसति। अपि च खो वितक्कयतो विचारयतो वितक्कविप्फारसद्दं सुत्वा आदिसति – ‘एवम्पि ते मनो, इत्थम्पि ते मनो, इतिपि ते चित्त’न्ति। सो बहुं चेपि आदिसति, तथेव तं होति, नो अञ्ञथा। अयं ततिया आदेसनविधा।

‘‘पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो न हेव खो निमित्तेन आदिसति, नापि मनुस्सानं वा अमनुस्सानं वा देवतानं वा सद्दं सुत्वा आदिसति, नापि वितक्कयतो विचारयतो वितक्कविप्फारसद्दं सुत्वा आदिसति। अपि च खो अवितक्कं अविचारं समाधिं समापन्नस्स [वितक्कविचारसमाधिसमापन्नस्स (स्या॰ क॰) अ॰ नि॰ ३.६१ पस्सितब्बं] चेतसा चेतो परिच्च पजानाति – ‘यथा इमस्स भोतो मनोसङ्खारा पणिहिता। तथा इमस्स चित्तस्स अनन्तरा इमं नाम वितक्कं वितक्केस्सती’ति। सो बहुं चेपि आदिसति, तथेव तं होति, नो अञ्ञथा। अयं चतुत्था आदेसनविधा। एतदानुत्तरियं, भन्ते, आदेसनविधासु।

दस्सनसमापत्तिदेसना

१४९. ‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति दस्सनसमापत्तीसु। चतस्सो इमा, भन्ते, दस्सनसमापत्तियो। इध, भन्ते, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते इममेव कायं उद्धं पादतला अधो केसमत्थका तचपरियन्तं पूरं नानप्पकारस्स असुचिनो पच्चवेक्खति – ‘अत्थि इमस्मिं काये केसा लोमा नखा दन्ता तचो मंसं न्हारु अट्ठि अट्ठिमिञ्जं वक्कं हदयं यकनं किलोमकं पिहकं पप्फासं अन्तं अन्तगुणं उदरियं करीसं पित्तं सेम्हं पुब्बो लोहितं सेदो मेदो अस्सु वसा खेळो सिङ्घानिका लसिका मुत्त’न्ति। अयं पठमा दस्सनसमापत्ति।

‘‘पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय…पे॰… तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते इममेव कायं उद्धं पादतला अधो केसमत्थका तचपरियन्तं पूरं नानप्पकारस्स असुचिनो पच्चवेक्खति – ‘अत्थि इमस्मिं काये केसा लोमा…पे॰… लसिका मुत्त’न्ति। अतिक्कम्म च पुरिसस्स छविमंसलोहितं अट्ठिं पच्चवेक्खति। अयं दुतिया दस्सनसमापत्ति।

‘‘पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय…पे॰… तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते इममेव कायं उद्धं पादतला अधो केसमत्थका तचपरियन्तं पूरं नानप्पकारस्स असुचिनो पच्चवेक्खति – ‘अत्थि इमस्मिं काये केसा लोमा…पे॰… लसिका मुत्त’न्ति। अतिक्कम्म च पुरिसस्स छविमंसलोहितं अट्ठिं पच्चवेक्खति। पुरिसस्स च विञ्ञाणसोतं पजानाति, उभयतो अब्बोच्छिन्नं इध लोके पतिट्ठितञ्च परलोके पतिट्ठितञ्च। अयं ततिया दस्सनसमापत्ति।

‘‘पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय…पे॰… तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते इममेव कायं उद्धं पादतला अधो केसमत्थका तचपरियन्तं पूरं नानप्पकारस्स असुचिनो पच्चवेक्खति – ‘अत्थि इमस्मिं काये केसा लोमा…पे॰… लसिका मुत्त’न्ति। अतिक्कम्म च पुरिसस्स छविमंसलोहितं अट्ठिं पच्चवेक्खति। पुरिसस्स च विञ्ञाणसोतं पजानाति, उभयतो अब्बोच्छिन्नं इध लोके अप्पतिट्ठितञ्च परलोके अप्पतिट्ठितञ्च। अयं चतुत्था दस्सनसमापत्ति। एतदानुत्तरियं, भन्ते, दस्सनसमापत्तीसु।

पुग्गलपण्णत्तिदेसना

१५०. ‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति पुग्गलपण्णत्तीसु। सत्तिमे, भन्ते, पुग्गला। उभतोभागविमुत्तो पञ्ञाविमुत्तो कायसक्खी दिट्ठिप्पत्तो सद्धाविमुत्तो धम्मानुसारी सद्धानुसारी। एतदानुत्तरियं, भन्ते, पुग्गलपण्णत्तीसु।

पधानदेसना

१५१. ‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति पधानेसु। सत्तिमे, भन्ते सम्बोज्झङ्गा सतिसम्बोज्झङ्गो धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो वीरियसम्बोज्झङ्गो पीतिसम्बोज्झङ्गो पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गो समाधिसम्बोज्झङ्गो उपेक्खासम्बोज्झङ्गो। एतदानुत्तरियं, भन्ते, पधानेसु।

पटिपदादेसना

१५२. ‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति पटिपदासु। चतस्सो इमा, भन्ते, पटिपदा दुक्खा पटिपदा दन्धाभिञ्ञा, दुक्खा पटिपदा खिप्पाभिञ्ञा, सुखा पटिपदा दन्धाभिञ्ञा, सुखा पटिपदा खिप्पाभिञ्ञाति। तत्र, भन्ते, यायं पटिपदा दुक्खा दन्धाभिञ्ञा, अयं, भन्ते, पटिपदा उभयेनेव हीना अक्खायति दुक्खत्ता च दन्धत्ता च। तत्र, भन्ते, यायं पटिपदा दुक्खा खिप्पाभिञ्ञा, अयं पन, भन्ते, पटिपदा दुक्खत्ता हीना अक्खायति। तत्र, भन्ते, यायं पटिपदा सुखा दन्धाभिञ्ञा, अयं पन, भन्ते, पटिपदा दन्धत्ता हीना अक्खायति। तत्र, भन्ते, यायं पटिपदा सुखा खिप्पाभिञ्ञा, अयं पन, भन्ते, पटिपदा उभयेनेव पणीता अक्खायति सुखत्ता च खिप्पत्ता च। एतदानुत्तरियं, भन्ते, पटिपदासु।

भस्ससमाचारादिदेसना

१५३. ‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति भस्ससमाचारे। इध, भन्ते, एकच्चो न चेव मुसावादुपसञ्हितं वाचं भासति न च वेभूतियं न च पेसुणियं न च सारम्भजं जयापेक्खो; मन्ता मन्ता च वाचं भासति निधानवतिं कालेन। एतदानुत्तरियं, भन्ते, भस्ससमाचारे।

‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति पुरिससीलसमाचारे। इध, भन्ते, एकच्चो सच्चो चस्स सद्धो च, न च कुहको, न च लपको, न च नेमित्तिको, न च निप्पेसिको, न च लाभेन लाभं निजिगीसनको [जिजिगिंसनको (स्या॰), निजिगिंसिता (सी॰ पी॰)], इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो, भोजने मत्तञ्ञू, समकारी, जागरियानुयोगमनुयुत्तो, अतन्दितो, आरद्धवीरियो, झायी, सतिमा, कल्याणपटिभानो, गतिमा, धितिमा, मतिमा, न च कामेसु गिद्धो, सतो च निपको च। एतदानुत्तरियं, भन्ते, पुरिससीलसमाचारे।

अनुसासनविधादेसना

१५४. ‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति अनुसासनविधासु। चतस्सो इमा भन्ते अनुसासनविधा – जानाति, भन्ते, भगवा अपरं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा ‘अयं पुग्गलो यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमानो तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्नो भविस्सति अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो’ति। जानाति, भन्ते, भगवा परं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा – ‘अयं पुग्गलो यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमानो तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामी भविस्सति, सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सती’ति। जानाति, भन्ते, भगवा परं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा – ‘अयं पुग्गलो यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमानो पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको भविस्सति तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका’ति। जानाति, भन्ते, भगवा परं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा – ‘अयं पुग्गलो यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमानो आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सती’ति। एतदानुत्तरियं, भन्ते, अनुसासनविधासु।

परपुग्गलविमुत्तिञाणदेसना

१५५. ‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति परपुग्गलविमुत्तिञाणे। जानाति, भन्ते, भगवा परं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा – ‘अयं पुग्गलो तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्नो भविस्सति अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो’ति। जानाति, भन्ते, भगवा परं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा – ‘अयं पुग्गलो तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामी भविस्सति, सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सती’ति। जानाति, भन्ते, भगवा परं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा – ‘अयं पुग्गलो पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको भविस्सति तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका’ति। जानाति, भन्ते, भगवा परं पुग्गलं पच्चत्तं योनिसोमनसिकारा – ‘अयं पुग्गलो आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सती’ति। एतदानुत्तरियं, भन्ते, परपुग्गलविमुत्तिञाणे।

सस्सतवाददेसना

१५६. ‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति सस्सतवादेसु। तयोमे, भन्ते, सस्सतवादा। इध, भन्ते, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय…पे॰… तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। सेय्यथिदं, एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्ञासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकानिपि जातिसतानि अनेकानिपि जातिसहस्सानि अनेकानिपि जातिसतसहस्सानि, ‘अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो’ति। इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। सो एवमाह – ‘अतीतंपाहं अद्धानं जानामि – संवट्टि वा लोको विवट्टि वाति। अनागतंपाहं अद्धानं जानामि – संवट्टिस्सति वा लोको विवट्टिस्सति वाति। सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो। ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसम’न्ति। अयं पठमो सस्सतवादो।

‘‘पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय…पे॰… तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। सेय्यथिदं, एकम्पि संवट्टविवट्टं द्वेपि संवट्टविवट्टानि तीणिपि संवट्टविवट्टानि चत्तारिपि संवट्टविवट्टानि पञ्चपि संवट्टविवट्टानि दसपि संवट्टविवट्टानि, ‘अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो’ति। इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। सो एवमाह – ‘अतीतंपाहं अद्धानं जानामि संवट्टि वा लोको विवट्टि वाति। अनागतंपाहं अद्धानं जानामि संवट्टिस्सति वा लोको विवट्टिस्सति वाति। सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो। ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसम’न्ति। अयं दुतियो सस्सतवादो।

‘‘पुन चपरं, भन्ते, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय…पे॰… तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। सेय्यथिदं, दसपि संवट्टविवट्टानि वीसम्पि संवट्टविवट्टानि तिंसम्पि संवट्टविवट्टानि चत्तालीसम्पि संवट्टविवट्टानि, ‘अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो’ति। इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। सो एवमाह – ‘अतीतंपाहं अद्धानं जानामि संवट्टिपि लोको विवट्टिपीति; अनागतंपाहं अद्धानं जानामि संवट्टिस्सतिपि लोको विवट्टिस्सतिपीति। सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो। ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसम’न्ति। अयं ततियो सस्सतवादो, एतदानुत्तरियं, भन्ते, सस्सतवादेसु।

पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणदेसना

१५७. ‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणे। इध, भन्ते, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय…पे॰… तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। सेय्यथिदं, एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्ञासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकेपि संवट्टकप्पे अनेकेपि विवट्टकप्पे अनेकेपि संवट्टविवट्टकप्पे, ‘अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो’ति। इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। सन्ति, भन्ते, देवा [सत्ता (स्या॰)], येसं न सक्का गणनाय वा सङ्खानेन वा आयु सङ्खातुं। अपि च, यस्मिं यस्मिं अत्तभावे अभिनिवुट्ठपुब्बो [अभिनिवुत्थपुब्बो (सी॰ स्या॰ पी॰)] होति यदि वा रूपीसु यदि वा अरूपीसु यदि वा सञ्ञीसु यदि वा असञ्ञीसु यदि वा नेवसञ्ञीनासञ्ञीसु। इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। एतदानुत्तरियं, भन्ते, पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणे।

चुतूपपातञाणदेसना

१५८. ‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति सत्तानं चुतूपपातञाणे। इध, भन्ते, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय…पे॰… तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति – ‘इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्चरितेन समन्नागता वचीदुच्चरितेन समन्नागता मनोदुच्चरितेन समन्नागता अरियानं उपवादका मिच्छादिट्ठिका मिच्छादिट्ठिकम्मसमादाना। ते कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्ना। इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्नागता वचीसुचरितेन समन्नागता मनोसुचरितेन समन्नागता अरियानं अनुपवादका सम्मादिट्ठिका सम्मादिट्ठिकम्मसमादाना। ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना’ति। इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति। एतदानुत्तरियं, भन्ते, सत्तानं चुतूपपातञाणे।

इद्धिविधदेसना

१५९. ‘‘अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं, यथा भगवा धम्मं देसेति इद्धिविधासु। द्वेमा, भन्ते, इद्धिविधायो – अत्थि, भन्ते, इद्धि सासवा सउपधिका, ‘नो अरिया’ति वुच्चति। अत्थि, भन्ते, इद्धि अनासवा अनुपधिका ‘अरिया’ति वुच्चति। ‘‘कतमा च, भन्ते, इद्धि सासवा सउपधिका, ‘नो अरिया’ति वुच्चति? इध, भन्ते, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय…पे॰… तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोति। एकोपि हुत्वा बहुधा होति, बहुधापि हुत्वा एको होति; आविभावं तिरोभावं तिरोकुट्टं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानो गच्छति सेय्यथापि आकासे। पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करोति, सेय्यथापि उदके। उदकेपि अभिज्जमाने गच्छति, सेय्यथापि पथवियं। आकासेपि पल्लङ्केन कमति, सेय्यथापि पक्खी सकुणो। इमेपि चन्दिमसूरिये एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे पाणिना परामसति परिमज्जति। याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेति। अयं, भन्ते, इद्धि सासवा सउपधिका, ‘नो अरिया’ति वुच्चति।

‘‘कतमा पन, भन्ते, इद्धि अनासवा अनुपधिका, ‘अरिया’ति वुच्चति? इध, भन्ते, भिक्खु सचे आकङ्खति – ‘पटिकूले अप्पटिकूलसञ्ञी विहरेय्य’न्ति, अप्पटिकूलसञ्ञी तत्थ विहरति। सचे आकङ्खति – ‘अप्पटिकूले पटिकूलसञ्ञी विहरेय्य’न्ति, पटिकूलसञ्ञी तत्थ विहरति। सचे आकङ्खति – ‘पटिकूले च अप्पटिकूले च अप्पटिकूलसञ्ञी विहरेय्य’न्ति, अप्पटिकूलसञ्ञी तत्थ विहरति। सचे आकङ्खति – ‘पटिकूले च अप्पटिकूले च पटिकूलसञ्ञी विहरेय्य’न्ति, पटिकूलसञ्ञी तत्थ विहरति। सचे आकङ्खति – ‘पटिकूलञ्च अप्पटिकूलञ्च तदुभयं अभिनिवज्जेत्वा उपेक्खको विहरेय्यं सतो सम्पजानो’ति, उपेक्खको तत्थ विहरति सतो सम्पजानो। अयं, भन्ते, इद्धि अनासवा अनुपधिका ‘अरिया’ति वुच्चति। एतदानुत्तरियं, भन्ते, इद्धिविधासु। तं भगवा असेसमभिजानाति, तं भगवतो असेसमभिजानतो उत्तरि अभिञ्ञेय्यं नत्थि, यदभिजानं अञ्ञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभिञ्ञतरो अस्स यदिदं इद्धिविधासु।

अञ्ञथासत्थुगुणदस्सनं

१६०. ‘‘यं तं, भन्ते, सद्धेन कुलपुत्तेन पत्तब्बं आरद्धवीरियेन थामवता पुरिसथामेन पुरिसवीरियेन पुरिसपरक्कमेन पुरिसधोरय्हेन, अनुप्पत्तं तं भगवता। न च, भन्ते, भगवा कामेसु कामसुखल्लिकानुयोगमनुयुत्तो हीनं गम्मं पोथुज्जनिकं अनरियं अनत्थसंहितं, न च अत्तकिलमथानुयोगमनुयुत्तो दुक्खं अनरियं अनत्थसंहितं। चतुन्नञ्च भगवा झानानं आभिचेतसिकानं दिट्ठधम्मसुखविहारानं निकामलाभी अकिच्छलाभी अकसिरलाभी।

अनुयोगदानप्पकारो

१६१. ‘‘सचे मं, भन्ते, एवं पुच्छेय्य – ‘किं नु खो, आवुसो सारिपुत्त, अहेसुं अतीतमद्धानं अञ्ञे समणा वा ब्राह्मणा वा भगवता भिय्योभिञ्ञतरा सम्बोधिय’न्ति, एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, ‘नो’ति वदेय्यं। ‘किं पनावुसो सारिपुत्त, भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अञ्ञे समणा वा ब्राह्मणा वा भगवता भिय्योभिञ्ञतरा सम्बोधिय’न्ति, एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, ‘नो’ति वदेय्यं। ‘किं पनावुसो सारिपुत्त, अत्थेतरहि अञ्ञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभिञ्ञतरो सम्बोधिय’न्ति, एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, ‘नो’ति वदेय्यं।

‘‘सचे पन मं, भन्ते, एवं पुच्छेय्य – ‘किं नु खो, आवुसो सारिपुत्त, अहेसुं अतीतमद्धानं अञ्ञे समणा वा ब्राह्मणा वा भगवता समसमा सम्बोधिय’न्ति, एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, ‘एव’न्ति वदेय्यं। ‘किं पनावुसो सारिपुत्त, भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अञ्ञे समणा वा ब्राह्मणा वा भगवता समसमा सम्बोधिय’न्ति, एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, ‘‘एव’’न्ति वदेय्यं। ‘किं पनावुसो सारिपुत्त, अत्थेतरहि अञ्ञे समणा वा ब्राह्मणा वा भगवता समसमा सम्बोधिय’न्ति, एवं पुट्ठो अहं भन्ते ‘नो’ति वदेय्यं।

‘‘सचे पन मं, भन्ते, एवं पुच्छेय्य – ‘किं पनायस्मा सारिपुत्तो एकच्चं अब्भनुजानाति, एकच्चं न अब्भनुजानाती’ति, एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, एवं ब्याकरेय्यं – ‘सम्मुखा मेतं, आवुसो, भगवतो सुतं, सम्मुखा पटिग्गहितं – ‘‘अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा मया समसमा सम्बोधिय’’न्ति। सम्मुखा मेतं, आवुसो, भगवतो सुतं, सम्मुखा पटिग्गहितं – ‘‘भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा मया समसमा सम्बोधिय’’न्ति। सम्मुखा मेतं, आवुसो, भगवतो सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं – ‘‘अट्ठानमेतं अनवकासो यं एकिस्सा लोकधातुया द्वे अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा अपुब्बं अचरिमं उप्पज्जेय्युं, नेतं ठानं विज्जती’’’ति।

‘‘कच्चाहं, भन्ते, एवं पुट्ठो एवं ब्याकरमानो वुत्तवादी चेव भगवतो होमि, न च भगवन्तं अभूतेन अब्भाचिक्खामि, धम्मस्स चानुधम्मं ब्याकरोमि, न च कोचि सहधम्मिको वादानुवादो [वादानुपातो (सी॰)] गारय्हं ठानं आगच्छती’’ति? ‘‘तग्घ त्वं, सारिपुत्त, एवं पुट्ठो एवं ब्याकरमानो वुत्तवादी चेव मे होसि, न च मं अभूतेन अब्भाचिक्खसि, धम्मस्स चानुधम्मं ब्याकरोसि, न च कोचि सहधम्मिको वादानुवादो गारय्हं ठानं आगच्छती’’ति।

अच्छरियअब्भुतं

१६२. एवं वुत्ते, आयस्मा उदायी भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, तथागतस्स अप्पिच्छता सन्तुट्ठिता सल्लेखता। यत्र हि नाम तथागतो एवंमहिद्धिको एवंमहानुभावो, अथ च पन नेवत्तानं पातुकरिस्सति! एकमेकञ्चेपि इतो, भन्ते, धम्मं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका अत्तनि समनुपस्सेय्युं, ते तावतकेनेव पटाकं परिहरेय्युं। अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, तथागतस्स अप्पिच्छता सन्तुट्ठिता सल्लेखता। यत्र हि नाम तथागतो एवं महिद्धिको एवंमहानुभावो। अथ च पन नेवत्तानं पातुकरिस्सती’’ति!

‘‘पस्स खो त्वं, उदायि, ‘तथागतस्स अप्पिच्छता सन्तुट्ठिता सल्लेखता। यत्र हि नाम तथागतो एवंमहिद्धिको एवंमहानुभावो, अथ च पन नेवत्तानं पातुकरिस्सति’! एकमेकञ्चेपि इतो, उदायि, धम्मं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका अत्तनि समनुपस्सेय्युं, ते तावतकेनेव पटाकं परिहरेय्युं। पस्स खो त्वं, उदायि, ‘तथागतस्स अप्पिच्छता सन्तुट्ठिता सल्लेखता। यत्र हि नाम तथागतो एवंमहिद्धिको एवंमहानुभावो, अथ च पन नेवत्तानं पातुकरिस्सती’’’ति!

१६३. अथ खो भगवा आयस्मन्तं सारिपुत्तं आमन्तेसि – ‘‘तस्मा तिह त्वं, सारिपुत्त, इमं धम्मपरियायं अभिक्खणं भासेय्यासि भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं। येसम्पि हि, सारिपुत्त, मोघपुरिसानं भविस्सति तथागते कङ्खा वा विमति वा, तेसमिमं धम्मपरियायं सुत्वा तथागते कङ्खा वा विमति वा, सा पहीयिस्सती’’ति। इति हिदं आयस्मा सारिपुत्तो भगवतो सम्मुखा सम्पसादं पवेदेसि। तस्मा इमस्स वेय्याकरणस्स सम्पसादनीयं त्वेव अधिवचनन्ति।

सम्पसादनीयसुत्तं निट्ठितं पञ्चमं।