नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 प्रभावशाली

सूत्र विवेचना

तथागत ने अपने जीवन के अंतिम समय तक धर्म-विनय को पूर्ण रूप से स्पष्ट और स्थापित कर दिया था। उनके इस धर्म-विनय को उनके श्रावक और श्राविकाओं ने अत्यधिक निष्ठा और श्रद्धा के साथ अपनाया। महावीर जैन के देहावसान के पश्चात् उनके जैन संघ में जो विशाल अशांति और विघटन हुआ, उसे देखकर भगवान बुद्ध ने यह महसूस किया कि संघ के भविष्य के लिए कुछ अत्यावश्यक और स्पष्ट धर्म-निर्देशों का समावेश करना अनिवार्य है। इसी संदर्भ में उन्होंने “३७ बोधिपक्खिय धम्म” का प्रतिपादन किया और अपने मुख्य उपदेशों का सार प्रस्तुत किया।

भगवान ने संघ को ऐसे मार्गदर्शन प्रदान किए, जिनसे वे परधार्मिक संन्यासियों के तीखे प्रश्नों का सामना कर सकें, और सहधार्मिक समुदाय के साथ समन्वय स्थापित कर सकें। साथ ही, धर्म के मूल सिद्धांतों को बनाए रखते हुए, भविष्य में किसी भी संकट का सामना करने में सक्षम हो सकें। इस सूत्र में उनका धर्म-विनय सामान्य श्रेणी से उठकर असाधारण या आर्य श्रेणी में अकेला खड़ा दिखाई देता है, जहाँ दूर-दूर तक दूसरा कोई उसकी समानता नहीं कर पाता।

हालाँकि, इसमें वर्णित घटनाएँ यह स्पष्ट करती हैं कि भिक्षुसंघ में आंतरिक विकारों और विचलनों को नियंत्रित करने के लिए अनुशासन कितना आवश्यक है। बुद्ध ने संघ को अपने आचरण में आदर्श और सज्जनता बनाए रखने के लिए स्पष्ट और दृढ़ निर्देश दिए, और साथ ही साथ, महत्वपूर्ण धर्म उपदेशों का समावेश करने के लिए प्रेरित भी किया, ताकि धर्म-विनय लंबे काल तक चिरस्थायी बना रहे। यह प्रोत्साहन हमें अन्य सूत्रों में भी देखने को मिलता है, जैसे महापरिनिर्वाण सूत्र आदि। इस प्रेरणा से ही, शायद, आयुष्मान सारिपुत्त भंते ने “सम्पसादनीयसुत्त” और “संगीतिसुत्त” का उपदेश दिया।

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान शाक्यों के साथ वेधञ्ञा नामक शाक्यों के आमवन महल में रह रहे थे। उस समय निगण्ठ नाटपुत्र [=जैन महावीर] की पावा में हाल ही में मौत हुई थी। उनकी मौत होने पर निगण्ठ दो पक्षों में बंटकर लड़ाई, कलह और विवाद करते हुए एक-दूसरे को शब्द-बाणों से घायल कर रहे थे — “तुम इस धर्म-विनय को नहीं जानते, मैं इस धर्म-विनय को जानता हूँ, तुम भला क्या इस धर्म-विनय को जानोगे? तुम्हारी साधना मिथ्या है, मेरी साधना सम्यक। मेरी बात सार्थक है, तुम्हारी निरर्थक। पहले कहने-योग्य बात को अंत में बताते हो, और अंत में कहने-योग्य बात को पहले। तुम्हारी परिकल्पना उलट गयी, तुम्हारी धारणा खंडित हुई, जाओ, बचाओ अपनी धारणा को। तुम इसमें फँस गए, हिम्मत है तो निकलो इससे।” ऐसा लग रहा था, मानो निगण्ठ नाटपुत्रों में कत्लेआम मचा था।

और, जो निगण्ठ नाटपुत्र के श्रावक श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ थे, उनकी निगण्ठ नाटपुत्रों के प्रति मोहभंगिमा हो रही थी, विरक्ति हो रही थी, निराशा हो रही थी। और साथ ही उस धर्म-विनय के प्रति भी — जो अस्पष्ट बताया, दुर्घोषित, न तारने वाला, न परमशान्ति प्रदानकर्ता, न सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित, टूटे स्तूप का, बिना शरण वाला था।

तब, श्रामणेर चुन्द ने पावा में वर्षावास कर सामगाँव जाकर, आयुष्मान आनन्द के पास गया, और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर श्रामणेर चुन्द ने आयुष्मान आनन्द से कहा, “भंते, निगण्ठ नाटपुत्र की पावा में हाल ही में मौत हुई है। उनकी मौत होने पर निगण्ठ दो पक्षों में बंटकर लड़ाई, कलह और विवाद… मानो, कत्लेआम मचा है… श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ… की मोहभंगिमा… विरक्ति… निराशा हो रही है… और उस धर्म-विनय के प्रति भी… जो बिना शरण वाला है।”

ऐसा कहे जाने पर, आयुष्मान आनन्द ने श्रामणेर चुन्द से कहा, “मित्र चुन्द, इस बात पर भगवान का दर्शन लेना चाहिए। आओ, मित्र चुन्द, भगवान के पास जाए, और जाकर भगवान को यह बात बताए।”

“ठीक है, भंते।” श्रामणेर चुन्द ने आयुष्मान आनन्द को उत्तर दिया।

तब आयुष्मान आनन्द और श्रामणेर चुन्द भगवान के पास गए, और जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “भंते, ये श्रामणेर चुन्द कहता है कि ‘भंते, निगण्ठ नाटपुत्र की पावा में हाल ही में मौत हुई है। उनकी मौत होने पर निगण्ठ दो पक्षों में बंटकर लड़ाई, कलह और विवाद… मानो, कत्लेआम मचा है… श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ… की मोहभंगिमा… विरक्ति… निराशा हो रही है… और उस धर्म-विनय के प्रति भी… जो बिना शरण वाला है।’”

१. अ-सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित धर्मविनय

“ऐसा ही होता है, चुन्द, जब धर्म-विनय अस्पष्ट बताया, दुर्घोषित हो, न तारने वाला, न परमशान्ति प्रदानकर्ता, बल्कि अ-सम्यकसम्बुद्ध द्वारा विदित हो।

(१) ऐसा होता है, चुन्द, कि कोई शास्ता अ-सम्यक-सम्बुद्ध होता है। उसका बताया धर्म अस्पष्ट, दुर्घोषित, न तारने वाला, न परमशान्ति प्रदानकर्ता, अ-सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित होता है। और, उसके धर्म में श्रावक न धर्मानुसार धर्मसाधना कर विहार करते हैं, न उचित मार्ग पर चलते हैं, न धर्म का अनुसरण ही करते हैं, बल्कि धर्म को पीछे छोड़, आगे बढ़ जाते हैं। उन्हें ऐसा कहना चाहिए, “मित्र, आप का लाभ है, सुलाभ है, जो आप के शास्ता सम्यक-सम्बुद्ध नहीं है, और उनका बताया धर्म अस्पष्ट, दुर्घोषित, न तारने वाला, न परमशान्ति प्रदानकर्ता, अ-सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित है। किन्तु आप उसके धर्म में न धर्मानुसार धर्मसाधना कर विहार करते है, न उचित मार्ग पर चलते है, न धर्म का अनुसरण ही करते है, बल्कि धर्म को पीछे छोड़, आगे बढ़ जाते है।” ऐसा हो, चुन्द, तो शास्ता निंदनीय है, वह धर्म निंदनीय है, किन्तु जो ऐसे श्रावक हो, वे प्रशंसनीय हैं।

चुन्द, यदि कोई ऐसे श्रावक से कहे, “आओ, आयुष्मान, जिस तरह शास्ता ने धर्म बताया है, वर्णन किया है, उस तरह साधना करो।” इस तरह जो प्रेरित करता है, जिसे प्रेरित करता है, और प्रेरित होकर जो साधना करता है — सभी बहुत अपुण्य कमाते हैं। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए होता है, चुन्द, क्योंकि वह धर्म-विनय अस्पष्ट, दुर्घोषित, न तारने वाला, न परमशान्ति प्रदानकर्ता, अ-सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित है।

(२) ऐसा होता है, चुन्द, कि कोई शास्ता अ-सम्यक-सम्बुद्ध होता है। उसका बताया धर्म अस्पष्ट, दुर्घोषित, न तारने वाला, न परमशान्ति प्रदानकर्ता, अ-सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित होता है। और, उसके धर्म में श्रावक धर्मानुसार धर्मसाधना कर विहार करते हैं, उचित मार्ग पर चलते हैं, धर्म का अनुसरण करते हैं, धर्म को धारण कर आचरण करते हैं। उन्हें ऐसा कहना चाहिए, “मित्र, आप का लाभ नहीं है, दुर्लाभ है, जो आप के शास्ता सम्यक-सम्बुद्ध नहीं है, और उनका बताया धर्म अस्पष्ट, दुर्घोषित, न तारने वाला, न परमशान्ति प्रदानकर्ता, अ-सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित है। किन्तु आप उसके धर्म में धर्मानुसार धर्मसाधना कर विहार करते है, उचित मार्ग पर चलते है, धर्म का अनुसरण करते है, धर्म को धारण कर आचरण करते है।” ऐसा हो, चुन्द, तो शास्ता निंदनीय है, वह धर्म निंदनीय है, और जो ऐसे श्रावक हो, वे भी निंदनीय हैं।

चुन्द, यदि कोई ऐसे श्रावक से कहे, “आयुष्मान निश्चित ही व्यवस्थित रूप से साधना करते है, और व्यवस्थित रूप से यशस्वी होंगे।” इस तरह जो प्रेरित करता है, जिसे प्रेरित करता है, और प्रेरित होकर जो और अधिक वीर्य लगाता है — सभी बहुत अपुण्य कमाते हैं। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए होता है, चुन्द, क्योंकि वह धर्म-विनय अस्पष्ट, दुर्घोषित, न तारने वाला, न परमशान्ति प्रदानकर्ता, अ-सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित है।

२. सम्यकसम्बुद्ध द्वारा विदित

(१) ऐसा होता है, चुन्द, कि कोई शास्ता सम्यकसम्बुद्ध होता है। उसका बताया धर्म स्पष्ट, सुघोषित, तारने वाला, परमशान्ति प्रदानकर्ता, सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित होता है। और, उसके धर्म में श्रावक न धर्मानुसार धर्मसाधना कर विहार करते हैं, न उचित मार्ग पर चलते हैं, न धर्म का अनुसरण ही करते हैं, बल्कि धर्म को पीछे छोड़, आगे बढ़ जाते हैं। उन्हें ऐसा कहना चाहिए, “मित्र, आप का लाभ नहीं है, दुर्लाभ है, जो आप के शास्ता सम्यक-सम्बुद्ध है, और उनका बताया धर्म स्पष्ट, सुघोषित, तारने वाला, परमशान्ति प्रदानकर्ता, सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित है। किन्तु आप उसके धर्म में न धर्मानुसार धर्मसाधना कर विहार करते है, न उचित मार्ग पर चलते है, न धर्म का अनुसरण ही करते है, बल्कि धर्म को पीछे छोड़, आगे बढ़ जाते है।” ऐसा हो, चुन्द, तो शास्ता प्रशंसनीय है, वह धर्म प्रशंसनीय है, किन्तु जो ऐसे श्रावक हो, वे निंदनीय हैं।

चुन्द, यदि कोई ऐसे श्रावक से कहे, “आओ, आयुष्मान, जिस तरह शास्ता ने धर्म बताया है, वर्णन किया है, उस तरह साधना करो।” इस तरह जो प्रेरित करता है, जिसे प्रेरित करता है, और प्रेरित होकर जो साधना करता है — सभी बहुत पुण्य कमाते हैं। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए होता है, चुन्द, क्योंकि वह धर्म-विनय स्पष्ट, सुघोषित, तारने वाला, परमशान्ति प्रदानकर्ता, सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित है।

(२) ऐसा होता है, चुन्द, कि कोई शास्ता सम्यकसम्बुद्ध होता है। उसका बताया धर्म स्पष्ट, सुघोषित, तारने वाला, परमशान्ति प्रदानकर्ता, सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित होता है। और, उसके धर्म में श्रावक धर्मानुसार धर्मसाधना कर विहार करते हैं, उचित मार्ग पर चलते हैं, धर्म का अनुसरण करते हैं, धर्म को धारण कर आचरण करते हैं। उन्हें ऐसा कहना चाहिए, “मित्र, आप का लाभ है, सुलाभ है, जो आप के शास्ता सम्यक-सम्बुद्ध है, और उनका बताया धर्म स्पष्ट, सुघोषित, तारने वाला, परमशान्ति प्रदानकर्ता, सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित है। और, आप उसके धर्म में धर्मानुसार धर्मसाधना कर विहार करते है, उचित मार्ग पर चलते है, धर्म का अनुसरण करते है, धर्म को धारण कर आचरण करते है।” ऐसा हो, चुन्द, तो शास्ता प्रशंसनीय है, वह धर्म प्रशंसनीय है, किन्तु जो ऐसे श्रावक हो, वे प्रशंसनीय हैं।

चुन्द, यदि कोई ऐसे श्रावक से कहे, “आयुष्मान निश्चित ही व्यवस्थित रूप से साधना करते है, और व्यवस्थित रूप से यशस्वी होंगे।” इस तरह जो प्रेरित करता है, जिसे प्रेरित करता है, और प्रेरित होकर जो और अधिक वीर्य लगाता है — सभी बहुत पुण्य कमाते हैं। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए होता है, चुन्द, क्योंकि वह धर्म-विनय स्पष्ट, सुघोषित, तारने वाला, परमशान्ति प्रदानकर्ता, सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित है।

३. श्रावकों का पश्चाताप

(१) कभी ऐसा हो, चुन्द, कि इस लोक में कोई शास्ता ‘अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ प्रकट हो, जिसका बताया धर्म स्पष्ट, सुघोषित, तारने वाला, परमशान्ति प्रदानकर्ता, सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित हो। किन्तु, श्रावक उस सद्धर्म में अनजान बने रहे, जिन्हें न उस परिपूर्ण और परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ का पता चले, न उसका सीधा खुलासा हो, और वह समस्त अंगों और पदों के साथ देव-मनुष्यों में न सुप्रकट हो, न सुप्रकाशित हो। और, इसी दौरान शास्ता विलुप्त हो जाए। जब, चुन्द, इस तरह का कोई शास्ता गुजर जाता है, तब श्रावकों को पछतावा होता हैं। ऐसा क्यों?

क्योंकि, [वे सोचते हैं,] “इस लोक में शास्ता ‘अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ प्रकट हुए, जिनका बताया धर्म स्पष्ट, सुघोषित, तारने वाला, परमशान्ति प्रदानकर्ता, सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित था। किन्तु, हम श्रावक उस सद्धर्म में अनजान बने रहे, जिन्हें न उस परिपूर्ण और परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ का पता चला, न उसका सीधा खुलासा हुआ, और वह समस्त अंगों और पदों के साथ देव-मनुष्यों में न सुप्रकट हुआ, न सुप्रकाशित हुआ। और, इसी दौरान शास्ता भी विलुप्त हो गए।” इस तरह, चुन्द, जब कोई शास्ता गुजरता है, तब श्रावकों को पछतावा होता हैं।

(२) किन्तु, चुन्द, कभी ऐसा हो कि इस लोक में कोई शास्ता ‘अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ प्रकट हो, जिसका बताया धर्म स्पष्ट, सुघोषित, तारने वाला, परमशान्ति प्रदानकर्ता, सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित हो। और श्रावक उस सद्धर्म में समझदारी प्राप्त करें, जिन्हें उस परिपूर्ण और परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ का पता चले, उसका सीधा खुलासा हो, और वह समस्त अंगों और पदों के साथ देव-मनुष्यों में सुप्रकट हो, सुप्रकाशित हो। और, इसी दौरान शास्ता विलुप्त हो जाए। जब, चुन्द, इस तरह का कोई शास्ता गुजर जाता है, तब श्रावकों को पछतावा नहीं होता हैं। ऐसा क्यों?

क्योंकि, [वे सोचते हैं,] “इस लोक में शास्ता ‘अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ प्रकट हुए, जिनका बताया धर्म स्पष्ट, सुघोषित, तारने वाला, परमशान्ति प्रदानकर्ता, सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित था। और हम श्रावकों ने उस सद्धर्म में समझदारी प्राप्त की, जिन्हें उस परिपूर्ण और परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ का पता चला, उसका सीधा खुलासा हुआ, और वह समस्त अंगों और पदों के साथ देव-मनुष्यों में सुप्रकट और सुप्रकाशित हुआ। और, इसी दौरान शास्ता विलुप्त हो गए।” इस तरह, चुन्द, जब कोई शास्ता गुजरता है, तब श्रावकों को पछतावा नहीं होता हैं।

४. ब्रह्मचर्य की परिपूर्णता

(१) कभी ऐसा हो, चुन्द, कि अंगों से संपन्न ब्रह्मचर्य हो, किन्तु शास्ता न वरिष्ठ [=थेर], न बहुत अनुभवी, न चिरकाल से संन्यास ग्रहण किया वयोवृद्ध, न जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त हो। तो, उस अंग से ब्रह्मचर्य अधूरा रहता है।

किन्तु, चुन्द, जब ऐसा हो कि अंगों से संपन्न ब्रह्मचर्य हो, और शास्ता वरिष्ठ, बहुत अनुभवी, चिरकाल से संन्यास ग्रहण किया वयोवृद्ध, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त हो। तो, उस अंग से ब्रह्मचर्य परिपूर्ण होता है।

(२) और, चुन्द, कभी ऐसा हो कि अंगों से संपन्न ब्रह्मचर्य हो, और शास्ता वरिष्ठ, बहुत अनुभवी, चिरकाल से संन्यास ग्रहण किया वयोवृद्ध, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त भी हो। किन्तु, उसके वरिष्ठ भिक्षु [=दस या अधिक वर्षीय] श्रावक न सक्षम हो, न शिक्षित हो, न आश्वस्त हो, न बंधन-योग से राहत प्राप्त हो, जो उस सद्धर्म को भलीभाँति स्पष्ट कर सके, या उत्पन्न पराई धारणा को धर्मानुसार खंडित कर सके, धर्म का प्रकटीकरण कर के उपदेश करें। ऐसा हो तो उस अंग से ब्रह्मचर्य अधूरा रहता है।

किन्तु, चुन्द, जब ऐसा हो कि अंगों से संपन्न ब्रह्मचर्य हो, और शास्ता वरिष्ठ, बहुत अनुभवी, चिरकाल से संन्यास ग्रहण किया वयोवृद्ध, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त हो। और उसके वरिष्ठ भिक्षु श्रावक सक्षम हो, शिक्षित हो, आश्वस्त हो, बंधन-योग से राहत प्राप्त हो, जो उस सद्धर्म को भलीभाँति स्पष्ट कर सके, या उत्पन्न पराई धारणा को धर्मानुसार खंडित कर सके, धर्म का प्रकटीकरण कर के उपदेश करें। ऐसा हो तो उस अंग से ब्रह्मचर्य परिपूर्ण होता है।

(३) और, चुन्द, कभी ऐसा हो कि अंगों से संपन्न ब्रह्मचर्य हो, और शास्ता वरिष्ठ, बहुत अनुभवी, चिरकाल से संन्यास ग्रहण किया वयोवृद्ध, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त हो। और उसके वरिष्ठ भिक्षु श्रावक सक्षम हो, शिक्षित हो, आश्वस्त हो, बंधन-योग से राहत प्राप्त हो, जो उस सद्धर्म को भलीभाँति स्पष्ट कर सके, या उत्पन्न पराई धारणा को धर्मानुसार खंडित कर सके, धर्म का प्रकटीकरण कर के उपदेश करें। किन्तु, उसके मध्यम भिक्षु [पाँच से दस वर्षीय] श्रावक सक्षम न हो… [या] मध्यम भिक्षु सक्षम हो, किन्तु नवक भिक्षु [पाँच वर्ष से छोटे] श्रावक सक्षम न हो… [या] किन्तु वरिष्ठ भिक्षुणी श्राविका सक्षम न हो… [या] किन्तु मध्यम भिक्षुणी श्राविका सक्षम न हो… [या] किन्तु नवक भिक्षुणी श्राविका सक्षम न हो… [या] किन्तु श्वेत-वस्त्रधारी ब्रह्मचारी उपासक गृहस्थ श्रावक सक्षम न हो… [या] किन्तु श्वेत-वस्त्रधारी कामभोगी उपासक गृहस्थ श्रावक सक्षम न हो… [या] किन्तु श्वेत-वस्त्रधारी ब्रह्मचारी उपासिका गृहिणी श्राविका सक्षम न हो… [या] किन्तु श्वेत-वस्त्रधारी कामभोगी उपासिका गृहिणी श्राविका सक्षम न हो… [या] किन्तु ब्रह्मचर्य सफल, समृद्ध, विस्तृत, लोकप्रिय और देव-मानवों में प्रचारित और सुप्रकाशित न हो… [या] किन्तु सर्वोच्च लाभ और सर्वोच्च यश प्राप्ति न हो। ऐसा हो तो उस अंग से ब्रह्मचर्य अधूरा रहता है।

किन्तु, चुन्द, जब ऐसा हो कि अंगों से संपन्न ब्रह्मचर्य हो, और शास्ता वरिष्ठ, बहुत अनुभवी, चिरकाल से संन्यास ग्रहण किया वयोवृद्ध, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त हो। और उसके वरिष्ठ भिक्षु श्रावक सक्षम हो, शिक्षित हो, आश्वस्त हो, बंधन-योग से राहत प्राप्त हो, जो उस सद्धर्म को भलीभाँति स्पष्ट कर सके, या उत्पन्न पराई धारणा को धर्मानुसार खंडित कर सके, धर्म का प्रकटीकरण कर के उपदेश करें… और [साथ ही] मध्यम भिक्षु… नवक भिक्षु… वरिष्ठ भिक्षुणी… मध्यम भिक्षुणी… नवक भिक्षुणी… श्वेत-वस्त्रधारी ब्रह्मचारी उपासक… श्वेत-वस्त्रधारी कामभोगी उपासक… श्वेत-वस्त्रधारी ब्रह्मचारी उपासिका… श्वेत-वस्त्रधारी कामभोगी उपासिका श्राविका सक्षम हो, शिक्षित हो, आश्वस्त हो, बंधन-योग से राहत प्राप्त हो, जो उस सद्धर्म को भलीभाँति स्पष्ट कर सके, या उत्पन्न पराई धारणा को धर्मानुसार खंडित कर सके, धर्म का प्रकटीकरण कर के उपदेश करें… और ब्रह्मचर्य सफल, समृद्ध, विस्तृत, लोकप्रिय और देव-मानवों में प्रचारित और सुप्रकाशित हो… और सर्वोच्च लाभ और सर्वोच्च यश प्राप्ति भी हो। ऐसा हो तो उस अंग से ब्रह्मचर्य परिपूर्ण होता है।

चुन्द, मैं इस लोक में शास्ता ‘अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ प्रकट हुआ हूँ। मेरा बताया धर्म स्पष्ट, सुघोषित, तारने वाला, परमशान्ति प्रदानकर्ता, सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित है। और मेरे श्रावकों ने इस सद्धर्म में समझदारी प्राप्त की हैं, जिन्हें उस परिपूर्ण और परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ का पता चला, उसका सीधा खुलासा हुआ, और वह समस्त अंगों और पदों के साथ देव-मनुष्यों में सुप्रकट और सुप्रकाशित हुआ है।

और, चुन्द, आज मैं शास्ता [के रूप में] वरिष्ठ, बहुत अनुभवी, चिरकाल से संन्यास ग्रहण किया वयोवृद्ध, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त हूँ। और मेरे वरिष्ठ भिक्षु श्रावक सक्षम हैं, शिक्षित हैं, आश्वस्त हैं, बंधन-योग से राहत प्राप्त हैं, जो उस सद्धर्म को भलीभाँति स्पष्ट कर सके, या उत्पन्न पराई धारणा को धर्मानुसार खंडित कर सके, धर्म का प्रकटीकरण कर के उपदेश करें… और [साथ ही] मध्यम भिक्षु… नवक भिक्षु… वरिष्ठ भिक्षुणी… मध्यम भिक्षुणी… नवक भिक्षुणी… श्वेत-वस्त्रधारी ब्रह्मचारी उपासक… श्वेत-वस्त्रधारी कामभोगी उपासक… श्वेत-वस्त्रधारी ब्रह्मचारी उपासिका… श्वेत-वस्त्रधारी कामभोगी उपासिका श्राविका सक्षम हैं, शिक्षित हैं, आश्वस्त हैं, बंधन-योग से राहत प्राप्त हैं, जो उस सद्धर्म को भलीभाँति स्पष्ट कर सके, या उत्पन्न पराई धारणा को धर्मानुसार खंडित कर सके, धर्म का प्रकटीकरण कर के उपदेश करें। और, चुन्द, मेरा ब्रह्मचर्य मार्ग सफल, समृद्ध, विस्तृत, लोकप्रिय और देव-मानवों में प्रचारित और सुप्रकाशित हैं।

और, चुन्द, जितने शास्ता अभी इस लोक में उत्पन्न हुए हैं, मैं किसी एक की भी उतनी सर्वोच्च लाभ और सर्वोच्च यश प्राप्ति नहीं देखता हूँ, जितनी मुझे प्राप्त है। और, जितने भी संघ और समुदाय अभी इस लोक में उत्पन्न हुए हैं, मैं किसी एक की भी उतनी सर्वोच्च लाभ और सर्वोच्च यश प्राप्ति नहीं देखता हूँ, जितनी भिक्षुसंघ को प्राप्त है। और, चुन्द, यदि सही मायने में कहा जाएँ कि ‘कोई सर्वगुण-संपन्न, सर्वगुण-परिपूर्ण, न कम न अधिक, स्पष्ट बताया, ऐसा सर्व-परिपूर्ण ब्रह्मचर्य सुप्रकाशित हुआ है।’ तो वह इसी ब्रह्मचर्य के बारे में सही मायने में कहा जा सकता है कि ‘यही सर्वगुण-संपन्न, सर्वगुण-परिपूर्ण, न कम न अधिक, स्पष्ट बताया, ऐसा सर्व-परिपूर्ण ब्रह्मचर्य सुप्रकाशित हुआ है।’

चुन्द, उदक रामपुत्त ऐसा कहता था कि ‘देखते हुए नहीं देखता है।’ क्या देखते हुए नहीं देखता है? अच्छे से तेज किए छुरे के फल [=ब्लेड] को देखता है, किन्तु धार को नहीं। इसलिए कहा गया, ‘देखते हुए नहीं देखता है।’ किन्तु, चुन्द, उदक रामपुत्त का कहना हीन, देहाती, जन-साधारण, अनार्य, और अनर्थकारी था, जो छुरे को लेकर है। किन्तु, यदि वाकई कोई सही मायने में कहें, ‘देखते हुए नहीं देखता है।’ तो वह इसे लेकर कहना सही होगा, ‘देखते हुए नहीं देखता है।’ क्या देखते हुए नहीं देखता है?

यही देखता है — सर्वगुण-संपन्न, सर्वगुण-परिपूर्ण, न कम न अधिक, स्पष्ट बताया, ऐसा सर्व-परिपूर्ण ब्रह्मचर्य सुप्रकाशित हुआ है।’ इससे कुछ निकाला जाए, तब वह परिशुद्ध होगा — ऐसा दिखायी नहीं देता है। इसमें कुछ जोड़ा जाए, तब वह परिपूर्ण होगा — ऐसा दिखायी नहीं देता है। इसलिए, चुन्द, कहा गया, ‘देखते हुए नहीं देखता है।’ इस तरह, चुन्द, यदि सही मायने में कहा जाएँ कि ‘कोई सर्वगुण-संपन्न, सर्वगुण-परिपूर्ण, न कम न अधिक, स्पष्ट बताया, ऐसा सर्व-परिपूर्ण ब्रह्मचर्य सुप्रकाशित हुआ है।’ तो वह इसी ब्रह्मचर्य के बारे में सही मायने में कहा जा सकता है कि ‘यही सर्वगुण-संपन्न, सर्वगुण-परिपूर्ण, न कम न अधिक, स्पष्ट बताया, ऐसा सर्व-परिपूर्ण ब्रह्मचर्य सुप्रकाशित हुआ है।’

५. धर्म संगायन

अतः, चुन्द, जिस धर्म को मैंने प्रत्यक्ष जानकर तुम्हें बताया है, उसे तुम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर, अर्थ से अर्थ मिलाकर, वाक्य से वाक्य मिलाकर संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, ताकि यह ब्रह्मचर्य [दूर-दराज] यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे, जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा।

और, चुन्द, वे कौन-से धर्म हैं, जिनको मैंने प्रत्यक्ष जानकर तुम्हें बताया है…? यही — चार स्मृति-प्रस्थान, चार सम्यक-प्रधान, चार ऋद्धिपद, पाँच इंद्रिय, पाँच बल, सात बोधि-अंग, और आर्य अष्टांगिक मार्ग! ये ही वे [३७ बोधिपक्खिय] धर्म हैं, चुन्द, जिनको मैंने प्रत्यक्ष जानकर तुम्हें बताया है, जिसे तुम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर, अर्थ से अर्थ मिलाकर, वाक्य से वाक्य मिलाकर संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, ताकि यह ब्रह्मचर्य यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे, जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा।

६. सहमति की विधि

(१) और, चुन्द, इस तरह सभी मिलकर, सहमत होकर, विवाद न कर, साधना करते हुए, यदि संघ में कोई सब्रह्मचारी धर्म कहे। जिस पर तुम्हें लगे, “इस आयुष्मान ने [धर्म] अर्थ को मिथ्या तरह से ग्रहण किया है, वाक्यों को मिथ्या तरह से रोपण किया है।” तब तुम्हें उसके कहे को न स्वीकार करना चाहिए, न ही दुत्कार। बल्कि बिना स्वीकारे, बिना दुत्कारे, उसे कहना चाहिए, “इस अर्थ में, मित्र, ऐसा या वैसा वाक्य होता है। इनमें कौन-सा [वाक्य] योग्य है? अथवा, इस वाक्य में ऐसा या वैसा अर्थ होता है। इनमें कौन-सा [अर्थ] योग्य है?” 1

यदि वे कहे, “मित्र, [जैसा मैंने पहले कहा था,] इस अर्थ में यही वाक्य बेहतर और योग्य है, अथवा उस वाक्य में वही अर्थ बेहतर और योग्य है!” तब, तुम्हें उसे न बढ़ा-चढ़ाना चाहिए, न नीचे गिराना चाहिए। बल्कि, बिना बढ़ा-चढ़ाए, बिना नीचे गिराए, उसे अर्थ और वाक्य की जाँच करना अच्छे-से समझाना चाहिए।

(२) और, चुन्द, यदि संघ में कोई सब्रह्मचारी धर्म कहे। जिस पर तुम्हें लगे, “इस आयुष्मान ने अर्थ को मिथ्या तरह से ग्रहण किया है, किन्तु वाक्यों को सही तरह से रोपण किया है।” तब तुम्हें उसके कहे को न स्वीकार करना चाहिए, न ही दुत्कार। बल्कि बिना स्वीकारे, बिना दुत्कारे, उसे कहना चाहिए, “इस वाक्य में, मित्र, ऐसा या वैसा अर्थ होता है। इनमें कौन-सा योग्य है?”

यदि वे कहे, “मित्र, [जैसा मैंने पहले कहा था,] इस वाक्य में यही अर्थ बेहतर और योग्य है!” तब, तुम्हें उसे न बढ़ा-चढ़ाना चाहिए, न नीचे गिराना चाहिए। बल्कि, बिना बढ़ा-चढ़ाए, बिना नीचे गिराए, उसे अर्थ की जाँच करना अच्छे-से समझाना चाहिए।

(३) और, चुन्द, यदि संघ में कोई सब्रह्मचारी धर्म कहे। जिस पर तुम्हें लगे, “इस आयुष्मान ने अर्थ को सही तरह से ग्रहण किया है, किन्तु वाक्यों को गलत तरह से रोपण किया है।” तब तुम्हें उसके कहे को न स्वीकार करना चाहिए, न ही दुत्कार। बल्कि बिना स्वीकारे, बिना दुत्कारे, उसे कहना चाहिए, “इस अर्थ में, मित्र, ऐसा या वैसा वाक्य होता है। इनमें कौन-सा योग्य है?”

यदि वे कहे, “मित्र, [जैसा मैंने पहले कहा था,] इस अर्थ में यही वाक्य बेहतर और योग्य है!” तब, तुम्हें उसे न बढ़ा-चढ़ाना चाहिए, न नीचे गिराना चाहिए। बल्कि, बिना बढ़ा-चढ़ाए, बिना नीचे गिराए, उसे वाक्य की जाँच करना अच्छे-से समझाना चाहिए।

(४) और, चुन्द, यदि संघ में कोई सब्रह्मचारी धर्म कहे। जिस पर तुम्हें लगे, “इस आयुष्मान ने अर्थ को सही तरह से ग्रहण किया है, और वाक्यों को भी सही तरह से रोपण किया है।” तब तुम्हें “साधू!” कहते हुए उसका अभिनंदन और अनुमोदन करना चाहिए। और “साधू!” कहकर उसका अभिनंदन और अनुमोदन कर, ऐसा कहना चाहिए, “हम लाभी हैं, मित्र, हम सौभाग्यशाली हैं, जो हमें तुम जैसा आयुष्मान सब्रह्मचारी दिखा है, जो अर्थ और वाक्य को गहराई से समझा हो।”

७. आवश्यकताओं की अनुमति

चुन्द, मैं केवल इसी लोक [जीवन] में आस्रव से संवर का धर्म नहीं बताता हूँ। और, न ही मैं केवल परलोक में आस्रव से बचने का धर्म बताता हूँ। बल्कि, मैं इस लोक में आस्रव से संवर का, और साथ ही परलोक में आस्रव से बचने का [दोनों] धर्म बताता हूँ।

(१) इसलिए, चुन्द, मैंने तुम्हारे लिए चीवर की अनुमति दी है — जो केवल सर्दी से बचने के लिए, गर्मी से बचने के लिए, मक्खियाँ, मच्छर, हवा, धूप, बिच्छु और साँप के संस्पर्श से बचने के लिए, और लज्जांगो को ढ़कने के लिए है।

(२) मैंने तुम्हारे लिए भिक्षान्न की अनुमति दी है — जो न मज़े के लिए, न मदहोशी के लिए, न सुडौलता के लिए, न ही सौंदर्य के लिए है। बल्कि केवल काया को टिकाए रखने के लिए है। उसकी [भूख] पीड़ाएँ समाप्त करने के लिए, और ब्रह्मचर्य के लिए है। [सोचते हुए] ‘पुरानी पीड़ा ख़त्म करूँगा! [अधिक खाकर] नई पीड़ा नहीं उत्पन्न करूँगा! मेरी जीवनयात्रा निर्दोष रहेगी, और राहत से रहूँगा!’

(३) मैंने तुम्हारे लिए निवास की अनुमति दी है — जो केवल सर्दी से बचने के लिए, गर्मी से बचने के लिए, मक्खियाँ, मच्छर, हवा, धूप, बिच्छु और साँप के संस्पर्श से बचने के लिए, ऋतु की पीड़ा से बचने के लिए, और एकांतवास का उपयोग करने के लिए है।

(४) मैंने तुम्हारे लिए रोगावश्यक औषधि और भैषज्य की अनुमति दी है — जो केवल रोग से उत्पन्न पीड़ाओं से बचने के लिए, और रोग से अधिकाधिक दूर रहने के लिए है।

८. सुखभोग

अब ऐसा हो सकता है, चुन्द, कि परधार्मिक घुमक्कड़ कहे, “शाक्यपुत्र श्रमण सुखों में लिप्त और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हैं।” ऐसा कहे जाने पर, चुन्द, उन परधार्मिक घुमक्कड़ों से कहो, “मित्र, यह सुखों में लिप्त होना क्या होता है? क्योंकि, विभिन्न तरह के, नाना तरह के सुखों में लिप्तता होती है।”

चुन्द, चार तरह से सुखों में लिप्त होना — हीन, देहाती, जन-साधारण, अनार्य, और अनर्थकारी होता है, जो न मोहभंग, न विराग, न निरोध, न रोकथाम कराते हैं, और न प्रत्यक्ष-ज्ञान, न संबोधि, न ही निर्वाण तक ले जाते हैं। कौन-से चार?

(१) चुन्द, यहाँ कोई मूर्ख प्राणियों का वध कर-कर के आत्मसुखी और संतुष्ट होता है। यह पहली सुखों में लिप्तता है।

(२) फिर, यहाँ कोई चोरी कर-कर के आत्मसुखी और संतुष्ट होता है। यह दूसरी सुखों में लिप्तता है।

(३) फिर, यहाँ कोई झूठ बोल-बोल के आत्मसुखी और संतुष्ट होता है। यह तीसरी सुखों में लिप्तता है।

(४) फिर, यहाँ कोई पाँच कामभोग में लिप्त होकर, समर्पित होकर रहता है। यह चौथी सुखों में लिप्तता है।

चुन्द, इन्हीं चार सुखों में लिप्त होना — हीन, देहाती, जन-साधारण, अनार्य, और अनर्थकारी होता है, जो न मोहभंग, न विराग, न निरोध, न रोकथाम कराते हैं, और न प्रत्यक्ष-ज्ञान, न संबोधि, न ही निर्वाण तक ले जाते हैं।

अब ऐसा हो सकता है, चुन्द, कि परधार्मिक घुमक्कड़ कहे, “शाक्यपुत्र श्रमण इन्हीं चार सुखों में लिप्त और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हैं।” तब उन्हें कहना चाहिए, “ऐसा नहीं है।” तुम्हारे बारे में ऐसा कहना सही नहीं, बल्कि तथ्यहीन और मिथ्या-वर्णन होगा।

चुन्द, चार तरह से सुखों में लिप्त होना — मोहभंग, विराग, निरोध, और रोकथाम कराते हैं, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण तक ले जाते हैं। कौन-से चार?

(१) चुन्द, यहाँ कोई भिक्षु कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यह पहली सुखों में लिप्तता है।

(२) आगे, कोई भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यह दूसरी सुखों में लिप्तता है।

(३) आगे, कोई भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यह तीसरी सुखों में लिप्तता है।

(४) आगे, कोई भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यह चौथी सुखों में लिप्तता है।

चुन्द, इन्हीं चार सुखों में लिप्त होना — मोहभंग, विराग, निरोध, और रोकथाम कराते हैं, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण तक ले जाते हैं।

अब ऐसा हो सकता है, चुन्द, कि परधार्मिक घुमक्कड़ कहे, “शाक्यपुत्र श्रमण इन्हीं चार सुखों में लिप्त और संकल्पबद्ध होकर विहार करते हैं।” तब उन्हें कहना चाहिए, “ऐसा ही है।” तुम्हारे बारे में ऐसा कहना सही होगा, तथ्यहीन या मिथ्या-वर्णन नहीं होगा।

९. सुख-लिप्तता के पुरस्कार

ऐसा हो सकता है, चुन्द, कि परधार्मिक घुमक्कड़ कहे, “किन्तु, मित्र, इन चार सुखों में लिप्त होकर संकल्पबद्ध विहार करने से कितने फल, कितने पुरस्कार मिलने की आशंका होती है?”

ऐसा कहे जाने पर, चुन्द, उन परधार्मिक घुमक्कड़ों को कहना चाहिए, “इन चार सुखों में लिप्त होकर संकल्पबद्ध विहार करने से चार फल, चार पुरस्कार मिलने की आशंका होती है। कौन-से चार?”

(१) मित्र, यहाँ कोई भिक्षु तीन संयोजन तोड़कर श्रोतापन्न होता है, अ-पतन स्वभाव का, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर। यह पहला फल, पहला पुरस्कार है।

(२) आगे, कोई भिक्षु तीन संयोजन तोड़कर, राग-द्वेष-मोह को दुर्बल कर, सकृदागामी होता है, जो इस लोक में दुबारा लौटकर अपने दुःखों का अन्त करता है। यह दूसरा फल, दूसरा पुरस्कार है।

(३) आगे, कोई भिक्षु निचले पाँच संयोजन तोड़कर [शुद्धवास ब्रह्मलोक में] स्वप्रकट [“ओपपातिक”] होता है, वही परिनिर्वाण प्राप्त करता है, अब इस लोक में नहीं लौटता। यह तीसरा फल, तीसरा पुरस्कार है।

(४) आगे, कोई भिक्षु आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार करता है। यह चौथा फल, चौथा पुरस्कार है।

इस तरह, मित्र, इन चार सुखों में लिप्त होकर संकल्पबद्ध विहार करने से चार फल, चार पुरस्कार मिलने की आशंका होती है।”

१०. क्षीणास्रव के लिए असंभव

ऐसा हो सकता है, चुन्द, कि परधार्मिक घुमक्कड़ कहे, “शाक्यपुत्र श्रमण अस्थिर धर्म के विहार करते हैं।” 2

ऐसा कहे जाने पर, चुन्द, उन परधार्मिक घुमक्कड़ों को कहना चाहिए, “मित्रों, वे भगवान जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, वे अपने श्रावकों को ऐसा धर्म बताते है, समझाते है, जिसका अतिक्रमण जीवित रहने तक नहीं करना होता। जैसे कोई इन्द्रस्तंभ या लोहस्तंभ हो, जो गहराई में गड़ा, अच्छे से धँसा, अचल, और अडिग हो। उसी तरह, मित्रों, वे भगवान जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, वे अपने श्रावकों को ऐसा धर्म बताते है, समझाते है, जिसका अतिक्रमण जीवित रहने तक नहीं करना होता।

मित्रों, जो भिक्षु अरहंत होते हैं, आस्रव खत्म करते हैं, ब्रह्मचर्य परिपूर्ण करते हैं, कर्तव्य समाप्त करते हैं, बोझ को नीचे रखते हैं, परम-ध्येय प्राप्त करते हैं, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ देते हैं, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त होते हैं, वे इन नौ बातों का उल्लंघन नहीं करते हैं —

(१) यह असंभव है कि कोई क्षीणास्रव भिक्षु जान-बूझकर किसी जीवित के प्राण ले।

(२) यह असंभव है कि कोई क्षीणास्रव भिक्षु चुराने की चेतना से [वस्तु] उठाए।

(३) यह असंभव है कि कोई क्षीणास्रव भिक्षु मैथुन-धर्म का सेवन करे।

(४) यह असंभव है कि कोई क्षीणास्रव भिक्षु जान-बूझकर झूठ बोले।

(५) यह असंभव है कि कोई क्षीणास्रव भिक्षु संचित भोग वस्तुओं का उपभोग करे, जैसे पहले गृहस्थ रहते हुए करता था।

(६) यह असंभव है कि कोई क्षीणास्रव भिक्षु चाहत के मार्ग पर चले।

(७) यह असंभव है कि कोई क्षीणास्रव भिक्षु द्वेष के मार्ग पर चले।

(८) यह असंभव है कि कोई क्षीणास्रव भिक्षु भ्रम के मार्ग पर चले।

(९) यह असंभव है कि कोई क्षीणास्रव भिक्षु भय के मार्ग पर चले।

इस तरह, मित्रों, जो भिक्षु अरहंत होते हैं, आस्रव खत्म करते हैं, ब्रह्मचर्य परिपूर्ण करते हैं, कर्तव्य समाप्त करते हैं, बोझ को नीचे रखते हैं, परम-ध्येय प्राप्त करते हैं, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ देते हैं, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त होते हैं, वे इन नौ बातों का उल्लंघन नहीं करते हैं।

११. प्रश्नोत्तर

ऐसा हो सकता है, चुन्द, कि परधार्मिक घुमक्कड़ कहे, “अतीतकाल को लेकर श्रमण गौतम असीम ज्ञान-दर्शन प्रकट करते है। किन्तु भविष्यकाल को लेकर श्रमण गौतम असीम ज्ञान-दर्शन प्रकट नहीं करते है। यह क्या है, और ऐसा कैसे?” वे परधार्मिक घुमक्कड़, मूर्ख और अनजान की तरह, एक प्रकार के ज्ञानदर्शन को दूसरे प्रकार के ज्ञानदर्शन से ज्ञात करना मानते हैं। 3

चुन्द, अतीतकाल को लेकर तथागत को स्मृति के अनुसार ज्ञान होता है। वह जितना चाहे, उतना अनुस्मरण करते है। भविष्यकाल को लेकर तथागत को बोधि से ज्ञान उत्पन्न होता है, “यह मेरा अंतिम जन्म है, अब पुनर्भव नहीं होगा!” 4

चुन्द, यदि अतीतकाल की बात तथ्यहीन, असत्य या अनर्थकारी हो, तब तथागत उसे नहीं बताते है। यदि अतीतकाल की बात तथ्यपूर्ण और सच्ची हो, किन्तु अनर्थकारी हो, तब भी तथागत उसे नहीं बताते है। और, यदि अतीतकाल की बात तथ्यपूर्ण, सच्ची और अर्थपूर्ण हो, तब तथागत को उसे बताने की समय-सुचकता ज्ञात है।

उसी तरह, चुन्द, यदि भविष्यकाल की बात… यदि वर्तमानकाल की बात तथ्यहीन, असत्य या अनर्थकारी हो, तब तथागत उसे नहीं बताते है। यदि वर्तमानकाल की बात तथ्यपूर्ण और सच्ची हो, किन्तु अनर्थकारी हो, तब भी तथागत उसे नहीं बताते है। और, यदि वर्तमानकाल की बात तथ्यपूर्ण, सच्ची और अर्थपूर्ण हो, तब तथागत को उसे बताने की समय-सुचकता ज्ञात है।

इस तरह, चुन्द, भूत-भविष्य-वर्तमान की बातों में तथागत समयानुकूल बोलते है, तथ्यात्मक बोलते है, अर्थपूर्ण बोलते है, धर्मानुकूल बोलते है, विनयानुकूल बोलते है। इसलिए उन्हे “तथागत” कहते हैं। और, इस लोक के देवता, मार, ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, राजा और मानवों ने जो भी देखा हो, सुना हो, अनुभूति की हो, समझा हो, प्राप्त किया हो, खोज की हो, या मन से चिंतन किया हो, सबका तथागत ने बोध किया है। इसलिए उन्हे “तथागत” कहते हैं।

और, जिस रात को तथागत अनुत्तर सम्यक-संबोधि को जागृत हुए, से लेकर जिस रात को वे निर्वाणधातु में बिना अवशेष रहे परिनिवृत होंगे, वे जो बोलते है, कहते है, दर्शाते है, सब उसी तरह होता है, अन्यथा नहीं। इसलिए उन्हे “तथागत” कहते हैं। और, तथागत जैसे बोलते है, वैसे करते है। और जैसे करते है, वैसे बोलते है। इस तरह, जैसी कथनी वैसी करनी, जैसी करनी वैसी कथनी होती है, इसलिए उन्हे “तथागत” कहते हैं।

और, देवता, मार, और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में तथागत विजेता, अजेय, सर्वदृष्टा, वशवर्ती होते है। इसलिए उन्हे “तथागत” कहते हैं।

१२. अव्याकृत बातें

अब ऐसा हो सकता है, चुन्द, कि परधार्मिक घुमक्कड़ कहे, “मित्र, क्या मरणोपरांत तथागत [अस्तित्व में] रहते है? बस यही सच है, बाकी निरर्थक?” ऐसा कहे जाने पर, चुन्द, उन परधार्मिक घुमक्कड़ों को कहना चाहिए, “मित्रों, इसे भगवान ने अघोषित रखा है कि ‘क्या मरणोपरांत तथागत रहते है? बस यही सच है, बाकी निरर्थक।’”

आगे हो सकता है, चुन्द, कि परधार्मिक घुमक्कड़ कहे, “मित्र, क्या मरणोपरांत तथागत नहीं रहते है? बस यही सच है, बाकी निरर्थक?” ऐसा कहे जाने पर, चुन्द, उन परधार्मिक घुमक्कड़ों को कहना चाहिए, “मित्रों, इसे भी भगवान ने अघोषित रखा है कि ‘क्या मरणोपरांत तथागत नहीं रहते है? बस यही सच है, बाकी निरर्थक।’”

आगे हो सकता है, चुन्द, कि परधार्मिक घुमक्कड़ कहे, “मित्र, क्या मरणोपरांत तथागत रहते भी है और नहीं भी? बस यही सच है, बाकी निरर्थक?” ऐसा कहे जाने पर, चुन्द, उन परधार्मिक घुमक्कड़ों को कहना चाहिए, “मित्रों, इसे भी भगवान ने अघोषित रखा है कि ‘क्या मरणोपरांत तथागत रहते भी है और नहीं भी? बस यही सच है, बाकी निरर्थक।’”

आगे हो सकता है, चुन्द, कि परधार्मिक घुमक्कड़ कहे, “मित्र, क्या मरणोपरांत तथागत नहीं रहते है, और नहीं भी नहीं रहते? बस यही सच है, बाकी निरर्थक?” ऐसा कहे जाने पर, चुन्द, उन परधार्मिक घुमक्कड़ों को कहना चाहिए, “मित्रों, इसे भी भगवान ने अघोषित रखा है कि ‘क्या मरणोपरांत तथागत नहीं रहते है, और नहीं भी नहीं रहते? बस यही सच है, बाकी निरर्थक।’”

तब हो सकता है, चुन्द, कि परधार्मिक घुमक्कड़ कहे, “किन्तु क्यों, मित्र, श्रमण गौतम ने इसे अघोषित रखा है?” ऐसा कहे जाने पर, चुन्द, उन परधार्मिक घुमक्कड़ों को कहना चाहिए, “क्योंकि, मित्रों, वह बात न ध्येय [अर्थ] से संबंधित है, न धर्म से संबंधित है, न ही ब्रह्मचर्य के मूल से। उस बात से न मोहभंग होता है, न विराग होता है, न निरोध होता है, न प्रशान्ति मिलती है, न प्रत्यक्ष ज्ञान मिलता है, न संबोधि मिलती है, न ही निर्वाण मिलता है। इसलिए भगवान ने उसे अघोषित रखा है।”

१३. व्याकृत बातें

तब हो सकता है, चुन्द, कि परधार्मिक घुमक्कड़ कहे, “तब, भला श्रमण गौतम ने क्या घोषित किया है?” ऐसा कहे जाने पर, चुन्द, उन परधार्मिक घुमक्कड़ों को कहना चाहिए, “मित्रों, ‘ऐसा दुःख है’, यह भगवान ने घोषित किया है। ‘ऐसी दुःख की उत्पत्ति है’, यह भगवान ने घोषित किया है। ‘ऐसा दुःख का निरोध है’, यह भगवान ने घोषित किया है। ‘ऐसा दुःख निरोधकर्ता मार्ग है’, यह भगवान ने घोषित किया है।”

तब हो सकता है, चुन्द, कि परधार्मिक घुमक्कड़ कहे, “किन्तु, मित्र, उसे भला श्रमण गौतम ने क्यों घोषित किया है?” ऐसा कहे जाने पर, चुन्द, उन परधार्मिक घुमक्कड़ों को कहना चाहिए, “क्योंकि, मित्रों, वह बात ध्येय [अर्थ] से संबंधित, धर्म से संबंधित, ब्रह्मचर्य के मूल से संबंधित है। उस बात से मोहभंग होता है, विराग होता है, निरोध होता है। उससे प्रशान्ति मिलती है, प्रत्यक्ष ज्ञान मिलता है, संबोधि मिलती है, और निर्वाण मिलता है। इसलिए भगवान ने उसे घोषित किया है।”

१४. पूर्वान्त से जुड़ी दृष्टि आधार

और, चुन्द, जो पूर्वान्त [=अतीत में हुई शुरुवात] से जुड़े दृष्टियों के आधार हैं, मैंने उसे भी तुम्हें बताया है, जिस तरह बताया जाने चाहिए था। अब जिस तरह नहीं बताया जाना चाहिए था, क्या मैं तुम्हें उस तरह बताऊँ? और, जो भविष्य से जुड़े दृष्टियों के आधार हैं, मैंने उसे भी तुम्हें बताया है, जिस तरह बताया जाने चाहिए था। अब जिस तरह नहीं बताया जाना चाहिए था, क्या मैं तुम्हें उस तरह बताऊँ? 5

चुन्द, पूर्वान्त से जुड़े दृष्टियों के आधार कौन-से हैं, जिन्हें मैंने तुम्हें बताया है… (१) चुन्द, कई श्रमण और ब्राह्मणों की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि होती हैं — ‘आत्मा और लोक शाश्वत हैं। बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक।’ (२) आगे, कई श्रमण और ब्राह्मणों की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि होती हैं — ‘आत्मा और लोक अशाश्वत हैं… (३) ‘आत्मा और लोक शाश्वत भी है, और अशाश्वत भी… (४) ‘आत्मा और लोक न शाश्वत है, न ही अशाश्वत। बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक।’

(५) आगे, कई श्रमण और ब्राह्मणों की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि होती हैं — ‘आत्मा और लोक स्वयंकृत [स्वयं से बनी] हैं। बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक।’ (६) ‘आत्मा और लोक परंकृत [दूसरे ने बनायी] हैं’… (७) ‘आत्मा और लोक स्वयंकृत भी है, और परंकृत भी… (८) ‘आत्मा और लोक न स्वयंकृत है, न परंकृत, बल्कि अकस्मात [=अचानक अकारण] उत्पत्ति हुई है । बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक।’

(९) आगे, कई श्रमण और ब्राह्मणों की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि होती हैं — ‘सुख और दुःख शाश्वत हैं। बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक।’ (१०) ‘सुख और दुःख अशाश्वत हैं… (११) ‘सुख और दुख शाश्वत भी है, और अशाश्वत भी… (१२) ‘सुख और दुःख न शाश्वत है, न ही अशाश्वत। बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक।’ (१३) ‘सुख और दुःख स्वयंकृत हैं… (१४) ‘सुख और दुःख परंकृत हैं… (१५) ‘सुख और दुःख स्वयंकृत भी है और परंकृत भी… (१६) ‘सुख और दुःख न स्वयंकृत है, न परंकृत, बल्कि अकस्मात उत्पत्ति हुई है । बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक।’

तब, चुन्द, जो श्रमण और ब्राह्मणों की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि होती हैं — ‘आत्मा और लोक शाश्वत हैं। बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक’, मैं उनके पास जाकर कहता हूँ, “मित्रों, क्या तुम ऐसा कहते हो कि ‘आत्मा और लोक शाश्वत हैं। बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक?’” किन्तु, जब वे कहते हैं, “हाँ, बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक”, तब मैं उसे स्वीकार नहीं करता। ऐसा क्यों? क्योंकि ऐसे सत्व होते हैं, जो उससे भिन्न नजरिया रखते हैं। और, चुन्द, जब इस सिद्धान्त को लेकर मैं किसी को अपने समान स्तर पर भी नहीं देखता हूँ, तो बढ़कर कैसे देखुंगा? बल्कि, इस सिद्धान्त को लेकर मैं ही श्रेष्ठ हूँ।

तब, चुन्द, जो श्रमण और ब्राह्मणों की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि होती हैं — ‘आत्मा और लोक अशाश्वत हैं… ‘आत्मा और लोक शाश्वत भी है, और अशाश्वत भी… ‘आत्मा और लोक न शाश्वत है, न ही अशाश्वत… ‘आत्मा और लोक स्वयंकृत हैं… ‘आत्मा और लोक परंकृत हैं’… ‘आत्मा और लोक स्वयंकृत भी है, और परंकृत भी… ‘आत्मा और लोक न स्वयंकृत है, न परंकृत, बल्कि अकस्मात उत्पत्ति हुई है… ‘सुख और दुःख शाश्वत हैं… ‘सुख और दुःख अशाश्वत हैं… ‘सुख और दुख शाश्वत भी है, और अशाश्वत भी… ‘सुख और दुःख न शाश्वत है, न ही अशाश्वत… ‘सुख और दुःख स्वयंकृत हैं… ‘सुख और दुःख परंकृत हैं… ‘सुख और दुःख स्वयंकृत भी है और परंकृत भी… ‘सुख और दुःख न स्वयंकृत है, न परंकृत, बल्कि अकस्मात उत्पत्ति हुई है । बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक’ — मैं उनके पास जाकर कहता हूँ, “मित्रों, क्या तुम ऐसा कहते हो… किन्तु, जब वे कहते हैं, “हाँ, बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक”, तब मैं उसे स्वीकार नहीं करता। ऐसा क्यों? क्योंकि ऐसे सत्व होते हैं, जो उससे भिन्न नजरिया रखते हैं। और, चुन्द, जब इस सिद्धान्त को लेकर मैं किसी को अपने समान स्तर पर भी नहीं देखता हूँ, तो बढ़कर कैसे देखुंगा? बल्कि, इस सिद्धान्त को लेकर मैं ही श्रेष्ठ हूँ।

और, चुन्द, यही पूर्वान्त से जुड़े दृष्टियों के आधार हैं, जिन्हें मैंने तुम्हें बताया है, जिस तरह बताया जाने चाहिए था। अब जिस तरह नहीं बताया जाना चाहिए था, क्या मैं तुम्हें उस तरह बताऊँ?”

१५. अपरान्त से जुड़ी दृष्टि आधार

और, चुन्द, जो भविष्य से जुड़े दृष्टियों के आधार हैं, मैंने उसे भी तुम्हें बताया है, जिस तरह बताया जाने चाहिए था। अब जिस तरह नहीं बताया जाना चाहिए था, क्या मैं तुम्हें उस तरह बताऊँ?

चुन्द, भविष्य से जुड़े दृष्टियों के आधार कौन-से हैं, जिन्हें मैंने तुम्हें बताया है… (१) चुन्द, कई श्रमण और ब्राह्मणों की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि होती हैं — ‘मरणोपरान्त आत्मा निरोगी होती है, और रूपयुक्त होती है। बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक’। (२) आगे, कई श्रमण और ब्राह्मणों की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि होती हैं — ‘मरणोपरान्त आत्मा निरोगी होती है, और अरूप होती है… (३) ‘रूपयुक्त और अरूप [दोनों] होती है… (४) ‘न रूपयुक्त, न ही अरूप होती है… (५) ‘बोधगम्य [=संज्ञापूर्ण] होती है… (६) ‘अबोधगम्य [संज्ञारहित] होती है… (७) ‘न बोधगम्य न अबोधगम्य होती है… (८) ‘मरणोपरांत आत्मा का उच्छेद होता है, विनाश होता है, नहीं बचती। बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक’।

तब, चुन्द, जो श्रमण और ब्राह्मणों की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि होती हैं — ‘मरणोपरान्त आत्मा निरोगी होती है, और रूपयुक्त होती है। बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक’, मैं उनके पास जाकर कहता हूँ, “मित्रों, क्या तुम ऐसा कहते हो…?” किन्तु, जब वे कहते हैं, “हाँ, बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक”, तब मैं उसे स्वीकार नहीं करता। ऐसा क्यों? क्योंकि ऐसे सत्व होते हैं, जो उससे भिन्न नजरिया रखते हैं। और, चुन्द, जब इस सिद्धान्त को लेकर मैं किसी को अपने समान स्तर पर भी नहीं देखता हूँ, तो बढ़कर कैसे देखुंगा? बल्कि, इस सिद्धान्त को लेकर मैं ही श्रेष्ठ हूँ।

तब, चुन्द, जो श्रमण और ब्राह्मणों की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि होती हैं — ‘मरणोपरान्त आत्मा निरोगी होती है, और अरूप होती है… ‘रूपयुक्त और अरूप होती है… ‘न रूपयुक्त, न ही अरूप होती है… ‘बोधगम्य होती है… (६) ‘अबोधगम्य होती है… ‘न बोधगम्य न अबोधगम्य होती है… ‘मरणोपरांत आत्मा का उच्छेद होता है, विनाश होता है, नहीं बचती। बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक’, मैं उनके पास जाकर कहता हूँ, “मित्रों, क्या तुम ऐसा कहते हो…?” किन्तु, जब वे कहते हैं, “हाँ, बस यही सच है, बाकी सब निरर्थक”, तब मैं उसे स्वीकार नहीं करता। ऐसा क्यों? क्योंकि ऐसे सत्व होते हैं, जो उससे भिन्न नजरिया रखते हैं। और, चुन्द, जब इस सिद्धान्त को लेकर मैं किसी को अपने समान स्तर पर भी नहीं देखता हूँ, तो बढ़कर कैसे देखुंगा? बल्कि, इस सिद्धान्त को लेकर मैं ही श्रेष्ठ हूँ।

और, चुन्द, यही अपरान्त [भविष्य] से जुड़े दृष्टियों के आधार हैं, जिन्हें मैंने तुम्हें बताया है, जिस तरह बताया जाने चाहिए था। अब जिस तरह नहीं बताया जाना चाहिए था, क्या मैं तुम्हें उस तरह बताऊँ?

चुन्द, इन पूर्वान्त और अपरान्त से जुड़े दृष्टियों के आधार को त्यागने के लिए, लाँघने के लिए, मैंने चार स्मृतिप्रस्थान बताए और दर्शाए है। कौन-से चार?

यहाँ, भिक्षुओं, कोई भिक्षु दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, काया को काया देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। वह दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। वह दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, चित्त को चित्त देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। वह दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील।

मैंने पूर्वान्त और अपरान्त से जुड़े दृष्टियों के आधार को त्यागने के लिए, लाँघने के लिए, ये चार स्मृतिप्रस्थान बताए और दर्शाए है।”

तब, उस समय आयुष्मान उपवाण, भगवान के पीठ पीछे खड़े थे, भगवान को पंखा झलते हुए। आयुष्मान उपवाण ने भगवान से कहा, “आश्चर्य है, भंते, अद्भुत है! प्रभावशाली है, भंते, यह धर्म उपदेश! सुप्रभावशाली है, भंते, यह धर्म उपदेश! क्या नाम है इस धर्म उपदेश का?”

“ठीक है, उपवाण, तुम इस धर्म उपदेश को “प्रभावशाली” के नाम से धारण करो।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान उपवाण ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

पासादिक सुत्त समाप्त!


  1. अर्थ और वाक्य-रचना [“अत्थ ब्यञ्जन”] एक दूसरे का आधार लेकर सही संदर्भ प्रस्तुत करते हैं। अक्सर देखा जाता है कि यदि वाक्य-रचना ढीली हो, तो उसका नया और गलत अर्थ निकल सकता है। इसलिए सावधानी बरतनी आवश्यक है। भगवान सुझाव देते है — (१) वाक्य-रचना का आधार लेकर, उसके संदर्भ में सटीक अर्थ निकाला जाना चाहिए, अथवा (२) अर्थ का आधार लेकर, उसके संदर्भ में सटीक वाक्य बोला जाना चाहिए। ↩︎

  2. अट्ठितधम्मा या अस्थिर-धर्मा का अर्थ है, जो ठीक से स्थापित न हो, बल्कि हिलते-डुलते रहे। अंगुत्तरनिकाय ८.१९ में “समुद्र” को स्थित-धर्मा बोला गया है, क्योंकि उसके तट, उसकी सीमाएँ स्थित होती हैं। लगता है, परधार्मिक घुमक्कड़ों के द्वारा यह आरोप लगता रहा होगा कि बौद्ध आचरण और विनय अच्छे से स्थापित नहीं, बल्कि बदलता रहता है। भगवान के सामने जिस तरह परिस्थिति उत्पन्न होती थी, उस तरह भगवान ने भिक्षुओं के लिए विनय बनाया। और, परिस्थिति बदलने पर कई नियमों को बदल दिया या पूरी तरह से हटा भी दिया। लेकिन धर्म के मूलसिद्धांत और विनय के मूलनियम कभी नहीं बदले। ↩︎

  3. अर्थात, ज्ञानदर्शन में अतीतकाल का स्मरण किया जा सकता है। किन्तु भविष्यकाल के लिए सीधी-सीधी भविष्यवाणी करना दुर्लभ है, और बहुत सीमित अवसर पर ही संभव है। क्योंकि लोगों को अपना मार्ग और अपने कर्म बदलने की आजादी होती है, इसलिए उनका भविष्यकाल पर पड़ने वाला प्रभाव भी लगातार बदलते रहता है। ऊपर से, अधिकांश कर्मों के फल सभी को एक-जैसे नहीं मिलते हैं। बल्कि, वर्तमान क्षण में चित्त-अवस्था पर निर्भर करते हैं। इसलिए भगवान ने बहुत सीमित अवसरों पर ही भविष्यवाणी की है। खास तौर पर तभी, जब किसी के खास कर्म पक चुके हो। ↩︎

  4. अर्थात, भगवान यहाँ भविष्यवाणी करने का दावा नहीं प्रस्तुत करते है। किन्तु उन्हें अपने भविष्य की सबसे आवश्यक बात पता है, जो उन्हें बुद्ध बनने के समय पता चली। ↩︎

  5. दीघनिकाय १: ब्रह्मजाल सुत्त में पूर्वान्त और अपरान्त से जुड़े दृष्टियों के आधार विस्तार से बताए गए हैं। वही उन दृष्टियों के उत्पन्न होने के तमाम कारण बड़े विवरण के साथ बताए गए हैं। कृपया उन्हें पढ़कर ठीक से धारण करें। ↩︎

Pali

१६४. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति वेधञ्ञा नाम सक्या, तेसं अम्बवने पासादे।

निगण्ठनाटपुत्तकालङ्किरिया

तेन खो पन समयेन निगण्ठो नाटपुत्तो [नाथपुत्तो (सी॰ पी॰)] पावायं अधुनाकालङ्कतो होति। तस्स कालङ्किरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिकजाता भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना अञ्ञमञ्ञं मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरन्ति – ‘‘न त्वं इमं धम्मविनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजानामि, किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि? मिच्छापटिपन्नो त्वमसि, अहमस्मि सम्मापटिपन्नो। सहितं मे, असहितं ते। पुरेवचनीयं पच्छा अवच, पच्छावचनीयं पुरे अवच। अधिचिण्णं ते विपरावत्तं, आरोपितो ते वादो, निग्गहितो त्वमसि, चर वादप्पमोक्खाय, निब्बेठेहि वा सचे पहोसी’’ति। वधोयेव खो [वधोयेवेको (क॰)] मञ्ञे निगण्ठेसु नाटपुत्तियेसु वत्तति [अनुवत्तति (स्या॰ क॰)]। येपि निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स सावका गिही ओदातवसना, तेपि [ते तेसु (क॰)] निगण्ठेसु नाटपुत्तियेसु निब्बिन्नरूपा [निब्बिन्दरूपा (क॰)] विरत्तरूपा पटिवानरूपा, यथा तं दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते भिन्नथूपे अप्पटिसरणे।

१६५. अथ खो चुन्दो समणुद्देसो पावायं वस्संवुट्ठो [वस्संवुत्थो (सी॰ स्या॰ पी॰)] येन सामगामो, येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो चुन्दो समणुद्देसो आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच – ‘‘निगण्ठो, भन्ते, नाटपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो। तस्स कालङ्किरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिकजाता…पे॰… भिन्नथूपे अप्पटिसरणे’’ति।

एवं वुत्ते, आयस्मा आनन्दो चुन्दं समणुद्देसं एतदवोच – ‘‘अत्थि खो इदं, आवुसो चुन्द, कथापाभतं भगवन्तं दस्सनाय। आयामावुसो चुन्द, येन भगवा तेनुपसङ्कमिस्साम; उपसङ्कमित्वा एतमत्थं भगवतो आरोचेस्सामा’’ति [आरोचेय्यामाति (स्या॰)]। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो चुन्दो समणुद्देसो आयस्मतो आनन्दस्स पच्चस्सोसि।

अथ खो आयस्मा च आनन्दो चुन्दो च समणुद्देसो येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु। एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अयं, भन्ते, चुन्दो समणुद्देसो एवमाह, ‘निगण्ठो, भन्ते, नाटपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो, तस्स कालङ्किरियाय भिन्ना निगण्ठा…पे॰… भिन्नथूपे अप्पटिसरणे’’’ति।

असम्मासम्बुद्धप्पवेदितधम्मविनयो

१६६. ‘‘एवं हेतं, चुन्द, होति दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते। इध, चुन्द, सत्था च होति असम्मासम्बुद्धो, धम्मो च दुरक्खातो दुप्पवेदितो अनिय्यानिको अनुपसमसंवत्तनिको असम्मासम्बुद्धप्पवेदितो, सावको च तस्मिं धम्मे न धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरति न सामीचिप्पटिपन्नो न अनुधम्मचारी, वोक्कम्म च तम्हा धम्मा वत्तति। सो एवमस्स वचनीयो – ‘तस्स ते, आवुसो, लाभा, तस्स ते सुलद्धं, सत्था च ते असम्मासम्बुद्धो, धम्मो च दुरक्खातो दुप्पवेदितो अनिय्यानिको अनुपसमसंवत्तनिको असम्मासम्बुद्धप्पवेदितो। त्वञ्च तस्मिं धम्मे न धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरसि, न सामीचिप्पटिपन्नो, न अनुधम्मचारी, वोक्कम्म च तम्हा धम्मा वत्तसी’ति। इति खो, चुन्द, सत्थापि तत्थ गारय्हो, धम्मोपि तत्थ गारय्हो, सावको च तत्थ एवं पासंसो। यो खो, चुन्द, एवरूपं सावकं एवं वदेय्य – ‘एतायस्मा तथा पटिपज्जतु, यथा ते सत्थारा धम्मो देसितो पञ्ञत्तो’ति। यो च समादपेति [समादापेति (सी॰ ट्ठ॰)], यञ्च समादपेति, यो च समादपितो [समादापितो (सी॰ ट्ठ॰)] तथत्ताय पटिपज्जति। सब्बे ते बहुं अपुञ्ञं पसवन्ति। तं किस्स हेतु? एवं हेतं, चुन्द, होति दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते।

१६७. ‘‘इध पन, चुन्द, सत्था च होति असम्मासम्बुद्धो, धम्मो च दुरक्खातो दुप्पवेदितो अनिय्यानिको अनुपसमसंवत्तनिको असम्मासम्बुद्धप्पवेदितो, सावको च तस्मिं धम्मे धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरति सामीचिप्पटिपन्नो अनुधम्मचारी, समादाय तं धम्मं वत्तति। सो एवमस्स वचनीयो – ‘तस्स ते, आवुसो, अलाभा, तस्स ते दुल्लद्धं, सत्था च ते असम्मासम्बुद्धो, धम्मो च दुरक्खातो दुप्पवेदितो अनिय्यानिको अनुपसमसंवत्तनिको असम्मासम्बुद्धप्पवेदितो। त्वञ्च तस्मिं धम्मे धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरसि सामीचिप्पटिपन्नो अनुधम्मचारी, समादाय तं धम्मं वत्तसी’ति। इति खो, चुन्द, सत्थापि तत्थ गारय्हो, धम्मोपि तत्थ गारय्हो, सावकोपि तत्थ एवं गारय्हो। यो खो, चुन्द, एवरूपं सावकं एवं वदेय्य – ‘अद्धायस्मा ञायप्पटिपन्नो ञायमाराधेस्सती’ति। यो च पसंसति, यञ्च पसंसति, यो च पसंसितो भिय्योसो मत्ताय वीरियं आरभति। सब्बे ते बहुं अपुञ्ञं पसवन्ति। तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, चुन्द, होति दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते।

सम्मासम्बुद्धप्पवेदितधम्मविनयो

१६८. ‘‘इध पन, चुन्द, सत्था च होति सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो, सावको च तस्मिं धम्मे न धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरति, न सामीचिप्पटिपन्नो, न अनुधम्मचारी, वोक्कम्म च तम्हा धम्मा वत्तति। सो एवमस्स वचनीयो – ‘तस्स ते, आवुसो, अलाभा, तस्स ते दुल्लद्धं, सत्था च ते सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो। त्वञ्च तस्मिं धम्मे न धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरसि, न सामीचिप्पटिपन्नो, न अनुधम्मचारी, वोक्कम्म च तम्हा धम्मा वत्तसी’ति। इति खो, चुन्द, सत्थापि तत्थ पासंसो, धम्मोपि तत्थ पासंसो, सावको च तत्थ एवं गारय्हो। यो खो, चुन्द, एवरूपं सावकं एवं वदेय्य – ‘एतायस्मा तथा पटिपज्जतु यथा ते सत्थारा धम्मो देसितो पञ्ञत्तो’ति। यो च समादपेति, यञ्च समादपेति, यो च समादपितो तथत्ताय पटिपज्जति। सब्बे ते बहुं पुञ्ञं पसवन्ति। तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, चुन्द, होति स्वाक्खाते धम्मविनये सुप्पवेदिते निय्यानिके उपसमसंवत्तनिके सम्मासम्बुद्धप्पवेदिते।

१६९. ‘‘इध पन, चुन्द, सत्था च होति सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो, सावको च तस्मिं धम्मे धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरति सामीचिप्पटिपन्नो अनुधम्मचारी, समादाय तं धम्मं वत्तति। सो एवमस्स वचनीयो – ‘तस्स ते, आवुसो, लाभा, तस्स ते सुलद्धं, सत्था च ते [सत्था च ते अरहं (स्या॰)] सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो। त्वञ्च तस्मिं धम्मे धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरसि सामीचिप्पटिपन्नो अनुधम्मचारी, समादाय तं धम्मं वत्तसी’ति। इति खो, चुन्द, सत्थापि तत्थ पासंसो, धम्मोपि तत्थ पासंसो, सावकोपि तत्थ एवं पासंसो। यो खो, चुन्द, एवरूपं सावकं एवं वदेय्य – ‘अद्धायस्मा ञायप्पटिपन्नो ञायमाराधेस्सती’ति। यो च पसंसति, यञ्च पसंसति, यो च पसंसितो [पसत्थो (स्या॰)] भिय्योसो मत्ताय वीरियं आरभति। सब्बे ते बहुं पुञ्ञं पसवन्ति। तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, चुन्द, होति स्वाक्खाते धम्मविनये सुप्पवेदिते निय्यानिके उपसमसंवत्तनिके सम्मासम्बुद्धप्पवेदिते।

सावकानुतप्पसत्थु

१७०. ‘‘इध पन, चुन्द, सत्था च लोके उदपादि अरहं सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो, अविञ्ञापितत्था चस्स होन्ति सावका सद्धम्मे, न च तेसं केवलं परिपूरं ब्रह्मचरियं आविकतं होति उत्तानीकतं सब्बसङ्गाहपदकतं सप्पाटिहीरकतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं। अथ नेसं सत्थुनो अन्तरधानं होति। एवरूपो खो, चुन्द, सत्था सावकानं कालङ्कतो अनुतप्पो होति। तं किस्स हेतु? सत्था च नो लोके उदपादि अरहं सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो, अविञ्ञापितत्था चम्ह सद्धम्मे, न च नो केवलं परिपूरं ब्रह्मचरियं आविकतं होति उत्तानीकतं सब्बसङ्गाहपदकतं सप्पाटिहीरकतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं। अथ नो सत्थुनो अन्तरधानं होतीति। एवरूपो खो, चुन्द, सत्था सावकानं कालङ्कतो अनुतप्पो होति।

सावकाननुतप्पसत्थु

१७१. ‘‘इध पन, चुन्द, सत्था च लोके उदपादि अरहं सम्मासम्बुद्धो। धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो। विञ्ञापितत्था चस्स होन्ति सावका सद्धम्मे, केवलञ्च तेसं परिपूरं ब्रह्मचरियं आविकतं होति उत्तानीकतं सब्बसङ्गाहपदकतं सप्पाटिहीरकतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं। अथ नेसं सत्थुनो अन्तरधानं होति। एवरूपो खो, चुन्द, सत्था सावकानं कालङ्कतो अननुतप्पो होति। तं किस्स हेतु? सत्था च नो लोके उदपादि अरहं सम्मासम्बुद्धो। धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो। विञ्ञापितत्था चम्ह सद्धम्मे, केवलञ्च नो परिपूरं ब्रह्मचरियं आविकतं होति उत्तानीकतं सब्बसङ्गाहपदकतं सप्पाटिहीरकतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं। अथ नो सत्थुनो अन्तरधानं होतीति। एवरूपो खो, चुन्द, सत्था सावकानं कालङ्कतो अननुतप्पो होति।

ब्रह्मचरियअपरिपूरादिकथा

१७२. ‘‘एतेहि चेपि, चुन्द, अङ्गेहि समन्नागतं ब्रह्मचरियं होति, नो च खो सत्था होति थेरो रत्तञ्ञू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो। एवं तं ब्रह्मचरियं अपरिपूरं होति तेनङ्गेन।

‘‘यतो च खो, चुन्द, एतेहि चेव अङ्गेहि समन्नागतं ब्रह्मचरियं होति, सत्था च होति थेरो रत्तञ्ञू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो। एवं तं ब्रह्मचरियं परिपूरं होति तेनङ्गेन।

१७३. ‘‘एतेहि चेपि, चुन्द, अङ्गेहि समन्नागतं ब्रह्मचरियं होति, सत्था च होति थेरो रत्तञ्ञू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, नो च ख्वस्स थेरा भिक्खू सावका होन्ति वियत्ता विनीता विसारदा पत्तयोगक्खेमा। अलं समक्खातुं सद्धम्मस्स, अलं उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेहि सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेतुं। एवं तं ब्रह्मचरियं अपरिपूरं होति तेनङ्गेन।

‘‘यतो च खो, चुन्द, एतेहि चेव अङ्गेहि समन्नागतं ब्रह्मचरियं होति, सत्था च होति थेरो रत्तञ्ञू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, थेरा चस्स भिक्खू सावका होन्ति वियत्ता विनीता विसारदा पत्तयोगक्खेमा। अलं समक्खातुं सद्धम्मस्स, अलं उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेहि सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेतुं। एवं तं ब्रह्मचरियं परिपूरं होति तेनङ्गेन।

१७४. ‘‘एतेहि चेपि, चुन्द, अङ्गेहि समन्नागतं ब्रह्मचरियं होति, सत्था च होति थेरो रत्तञ्ञू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, थेरा चस्स भिक्खू सावका होन्ति वियत्ता विनीता विसारदा पत्तयोगक्खेमा। अलं समक्खातुं सद्धम्मस्स, अलं उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेहि सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेतुं। नो च ख्वस्स मज्झिमा भिक्खू सावका होन्ति…पे॰… मज्झिमा चस्स भिक्खू सावका होन्ति, नो च ख्वस्स नवा भिक्खू सावका होन्ति…पे॰… नवा चस्स भिक्खू सावका होन्ति, नो च ख्वस्स थेरा भिक्खुनियो साविका होन्ति…पे॰… थेरा चस्स भिक्खुनियो साविका होन्ति, नो च ख्वस्स मज्झिमा भिक्खुनियो साविका होन्ति…पे॰… मज्झिमा चस्स भिक्खुनियो साविका होन्ति, नो च ख्वस्स नवा भिक्खुनियो साविका होन्ति…पे॰… नवा चस्स भिक्खुनियो साविका होन्ति, नो च ख्वस्स उपासका सावका होन्ति गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो…पे॰… उपासका चस्स सावका होन्ति गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो, नो च ख्वस्स उपासका सावका होन्ति गिही ओदातवसना कामभोगिनो…पे॰… उपासका चस्स सावका होन्ति गिही ओदातवसना कामभोगिनो, नो च ख्वस्स उपासिका साविका होन्ति गिहिनियो ओदातवसना ब्रह्मचारिनियो…पे॰… उपासिका चस्स साविका होन्ति गिहिनियो ओदातवसना ब्रह्मचारिनियो, नो च ख्वस्स उपासिका साविका होन्ति गिहिनियो ओदातवसना कामभोगिनियो…पे॰… उपासिका चस्स साविका होन्ति गिहिनियो ओदातवसना कामभोगिनियो, नो च ख्वस्स ब्रह्मचरियं होति इद्धञ्चेव फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजञ्ञं पुथुभूतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं…पे॰… ब्रह्मचरियञ्चस्स होति इद्धञ्चेव फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजञ्ञं पुथुभूतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं, नो च खो लाभग्गयसग्गप्पत्तं। एवं तं ब्रह्मचरियं अपरिपूरं होति तेनङ्गेन।

‘‘यतो च खो, चुन्द, एतेहि चेव अङ्गेहि समन्नागतं ब्रह्मचरियं होति, सत्था च होति थेरो रत्तञ्ञू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, थेरा चस्स भिक्खू सावका होन्ति वियत्ता विनीता विसारदा पत्तयोगक्खेमा। अलं समक्खातुं सद्धम्मस्स, अलं उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेहि सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेतुं। मज्झिमा चस्स भिक्खू सावका होन्ति…पे॰… नवा चस्स भिक्खू सावका होन्ति…पे॰… थेरा चस्स भिक्खुनियो साविका होन्ति…पे॰… मज्झिमा चस्स भिक्खुनियो साविका होन्ति…पे॰… नवा चस्स भिक्खुनियो साविका होन्ति…पे॰… उपासका चस्स सावका होन्ति…पे॰… गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो। उपासका चस्स सावका होन्ति गिही ओदातवसना कामभोगिनो…पे॰… उपासिका चस्स साविका होन्ति गिहिनियो ओदातवसना ब्रह्मचारिनियो…पे॰… उपासिका चस्स साविका होन्ति गिहिनियो ओदातवसना कामभोगिनियो…पे॰… ब्रह्मचरियञ्चस्स होति इद्धञ्चेव फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजञ्ञं पुथुभूतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं, लाभग्गप्पत्तञ्च यसग्गप्पत्तञ्च। एवं तं ब्रह्मचरियं परिपूरं होति तेनङ्गेन।

१७५. ‘‘अहं खो पन, चुन्द, एतरहि सत्था लोके उप्पन्नो अरहं सम्मासम्बुद्धो। धम्मो च स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो। विञ्ञापितत्था च मे सावका सद्धम्मे, केवलञ्च तेसं परिपूरं ब्रह्मचरियं आविकतं उत्तानीकतं सब्बसङ्गाहपदकतं सप्पाटिहीरकतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं। अहं खो पन, चुन्द, एतरहि सत्था थेरो रत्तञ्ञू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो।

‘‘सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि थेरा भिक्खू सावका होन्ति वियत्ता विनीता विसारदा पत्तयोगक्खेमा। अलं समक्खातुं सद्धम्मस्स, अलं उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेहि सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेतुं। सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि मज्झिमा भिक्खू सावका…पे॰… सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि नवा भिक्खू सावका…पे॰… सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि थेरा भिक्खुनियो साविका…पे॰… सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि मज्झिमा भिक्खुनियो साविका…पे॰… सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि नवा भिक्खुनियो साविका…पे॰… सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि उपासका सावका गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो…पे॰… सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि उपासका सावका गिही ओदातवसना कामभोगिनो…पे॰… सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि उपासिका साविका गिहिनियो ओदातवसना ब्रह्मचारिनियो…पे॰… सन्ति खो पन मे, चुन्द, एतरहि उपासिका साविका गिहिनियो ओदातवसना कामभोगिनियो…पे॰… एतरहि खो पन मे, चुन्द, ब्रह्मचरियं इद्धञ्चेव फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजञ्ञं पुथुभूतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं।

१७६. ‘‘यावता खो, चुन्द, एतरहि सत्थारो लोके उप्पन्ना, नाहं, चुन्द, अञ्ञं एकसत्थारम्पि समनुपस्सामि एवंलाभग्गयसग्गप्पत्तं यथरिवाहं। यावता खो पन, चुन्द, एतरहि सङ्घो वा गणो वा लोके उप्पन्नो; नाहं, चुन्द, अञ्ञं एकं संघम्पि समनुपस्सामि एवंलाभग्गयसग्गप्पत्तं यथरिवायं, चुन्द, भिक्खुसङ्घो। यं खो तं, चुन्द, सम्मा वदमानो वदेय्य – ‘सब्बाकारसम्पन्नं सब्बाकारपरिपूरं अनूनमनधिकं स्वाक्खातं केवलं परिपूरं ब्रह्मचरियं सुप्पकासित’न्ति। इदमेव तं सम्मा वदमानो वदेय्य – ‘सब्बाकारसम्पन्नं…पे॰… सुप्पकासित’न्ति।

‘‘उदको [उद्दको (सी॰ स्या॰ पी॰)] सुदं, चुन्द, रामपुत्तो एवं वाचं भासति – ‘पस्सं न पस्सती’ति। किञ्च पस्सं न पस्सतीति? खुरस्स साधुनिसितस्स तलमस्स पस्सति, धारञ्च ख्वस्स न पस्सति। इदं वुच्चति – ‘पस्सं न पस्सती’ति। यं खो पनेतं, चुन्द, उदकेन रामपुत्तेन भासितं हीनं गम्मं पोथुज्जनिकं अनरियं अनत्थसंहितं खुरमेव सन्धाय। यञ्च तं [यञ्चेतं (स्या॰ क॰)], चुन्द, सम्मा वदमानो वदेय्य – ‘पस्सं न पस्सती’ति, इदमेव तं [इदमेवेतं (क॰)] सम्मा वदमानो वदेय्य – ‘पस्सं न पस्सती’ति। किञ्च पस्सं न पस्सतीति? एवं सब्बाकारसम्पन्नं सब्बाकारपरिपूरं अनूनमनधिकं स्वाक्खातं केवलं परिपूरं ब्रह्मचरियं सुप्पकासितन्ति, इति हेतं पस्सति [सुप्पकासितं, इति हेतं न पस्सतीति (स्या॰ क॰)]। इदमेत्थ अपकड्ढेय्य, एवं तं परिसुद्धतरं अस्साति, इति हेतं न पस्सति [न पस्सतीति (स्या॰ क॰)]। इदमेत्थ उपकड्ढेय्य, एवं तं परिपूरं [परिसुद्धतरं (स्या॰ क॰), परिपूरतरं (?)] अस्साति, इति हेतं न पस्सति। इदं वुच्चति चुन्द – ‘पस्सं न पस्सती’ति। यं खो तं, चुन्द, सम्मा वदमानो वदेय्य – ‘सब्बाकारसम्पन्नं…पे॰… ब्रह्मचरियं सुप्पकासित’न्ति। इदमेव तं सम्मा वदमानो वदेय्य – ‘सब्बाकारसम्पन्नं सब्बाकारपरिपूरं अनूनमनधिकं स्वाक्खातं केवलं परिपूरं ब्रह्मचरियं सुप्पकासित’न्ति।

सङ्गायितब्बधम्मो

१७७. तस्मातिह, चुन्द, ये वो मया धम्मा अभिञ्ञा देसिता, तत्थ सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं ब्यञ्जनेन ब्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। कतमे च ते, चुन्द, धम्मा मया अभिञ्ञा देसिता, यत्थ सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं ब्यञ्जनेन ब्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं? सेय्यथिदं – चत्तारो सतिपट्ठाना, चत्तारो सम्मप्पधाना, चत्तारो इद्धिपादा, पञ्चिन्द्रियानि, पञ्च बलानि, सत्त बोज्झङ्गा, अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो। इमे खो ते, चुन्द, धम्मा मया अभिञ्ञा देसिता। यत्थ सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं ब्यञ्जनेन ब्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं।

सञ्ञापेतब्बविधि

१७८. ‘‘तेसञ्च वो, चुन्द, समग्गानं सम्मोदमानानं अविवदमानानं सिक्खतं [सिक्खितब्बं (बहूसु)] अञ्ञतरो सब्रह्मचारी सङ्घे धम्मं भासेय्य। तत्र चे तुम्हाकं एवमस्स – ‘अयं खो आयस्मा अत्थञ्चेव मिच्छा गण्हाति, ब्यञ्जनानि च मिच्छा रोपेती’ति। तस्स नेव अभिनन्दितब्बं न पटिक्कोसितब्बं, अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा सो एवमस्स वचनीयो – ‘इमस्स नु खो, आवुसो, अत्थस्स इमानि वा ब्यञ्जनानि एतानि वा ब्यञ्जनानि कतमानि ओपायिकतरानि, इमेसञ्च [इमेसं वा (स्या॰ पी॰ क॰), इमेसं (सी॰)] ब्यञ्जनानं अयं वा अत्थो एसो वा अत्थो कतमो ओपायिकतरो’ति? सो चे एवं वदेय्य – ‘इमस्स खो, आवुसो, अत्थस्स इमानेव ब्यञ्जनानि ओपायिकतरानि, या चेव [यञ्चेव (सी॰ क॰), टीका ओलोकेतब्बा] एतानि; इमेसञ्च [इमेदं (सब्बत्थ)] ब्यञ्जनानं अयमेव अत्थो ओपायिकतरो, या चेव [यञ्चेव (सी॰ क॰), टीका ओलोकेतब्बा] एसो’ति। सो नेव उस्सादेतब्बो न अपसादेतब्बो, अनुस्सादेत्वा अनपसादेत्वा स्वेव साधुकं सञ्ञापेतब्बो तस्स च अत्थस्स तेसञ्च ब्यञ्जनानं निसन्तिया।

१७९. ‘‘अपरोपि चे, चुन्द, सब्रह्मचारी सङ्घे धम्मं भासेय्य। तत्र चे तुम्हाकं एवमस्स – ‘अयं खो आयस्मा अत्थञ्हि खो मिच्छा गण्हाति ब्यञ्जनानि सम्मा रोपेती’ति। तस्स नेव अभिनन्दितब्बं न पटिक्कोसितब्बं, अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा सो एवमस्स वचनीयो – ‘इमेसं नु खो, आवुसो, ब्यञ्जनानं अयं वा अत्थो एसो वा अत्थो कतमो ओपायिकतरो’ति? सो चे एवं वदेय्य – ‘इमेसं खो, आवुसो, ब्यञ्जनानं अयमेव अत्थो ओपायिकतरो, या चेव एसो’ति। सो नेव उस्सादेतब्बो न अपसादेतब्बो, अनुस्सादेत्वा अनपसादेत्वा स्वेव साधुकं सञ्ञापेतब्बो तस्सेव अत्थस्स निसन्तिया।

१८०. ‘‘अपरोपि चे, चुन्द, सब्रह्मचारी सङ्घे धम्मं भासेय्य। तत्र चे तुम्हाकं एवमस्स – ‘अयं खो आयस्मा अत्थञ्हि खो सम्मा गण्हाति ब्यञ्जनानि मिच्छा रोपेती’ति। तस्स नेव अभिनन्दितब्बं न पटिक्कोसितब्बं; अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा सो एवमस्स वचनीयो – ‘इमस्स नु खो, आवुसो, अत्थस्स इमानि वा ब्यञ्जनानि एतानि वा ब्यञ्जनानि कतमानि ओपायिकतरानी’ति? सो चे एवं वदेय्य – ‘इमस्स खो, आवुसो, अत्थस्स इमानेव ब्यञ्जनानि ओपयिकतरानि, यानि चेव एतानी’ति। सो नेव उस्सादेतब्बो न अपसादेतब्बो; अनुस्सादेत्वा अनपसादेत्वा स्वेव साधुकं सञ्ञापेतब्बो तेसञ्ञेव ब्यञ्जनानं निसन्तिया।

१८१. ‘‘अपरोपि चे, चुन्द, सब्रह्मचारी सङ्घे धम्मं भासेय्य। तत्र चे तुम्हाकं एवमस्स – ‘अयं खो आयस्मा अत्थञ्चेव सम्मा गण्हाति ब्यञ्जनानि च सम्मा रोपेती’ति। तस्स ‘साधू’ति भासितं अभिनन्दितब्बं अनुमोदितब्बं; तस्स ‘साधू’ति भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा सो एवमस्स वचनीयो – ‘लाभा नो आवुसो, सुलद्धं नो आवुसो, ये मयं आयस्मन्तं तादिसं सब्रह्मचारिं पस्साम एवं अत्थुपेतं ब्यञ्जनुपेत’न्ति।

पच्चयानुञ्ञातकारणं

१८२. ‘‘न वो अहं, चुन्द, दिट्ठधम्मिकानंयेव आसवानं संवराय धम्मं देसेमि। न पनाहं, चुन्द, सम्परायिकानंयेव आसवानं पटिघाताय धम्मं देसेमि। दिट्ठधम्मिकानं चेवाहं, चुन्द, आसवानं संवराय धम्मं देसेमि; सम्परायिकानञ्च आसवानं पटिघाताय। तस्मातिह, चुन्द, यं वो मया चीवरं अनुञ्ञातं, अलं वो तं – यावदेव सीतस्स पटिघाताय, उण्हस्स पटिघाताय, डंसमकसवातातपसरीसप [सिरिंसप (स्या॰)] सम्फस्सानं पटिघाताय, यावदेव हिरिकोपीनपटिच्छादनत्थं। यो वो मया पिण्डपातो अनुञ्ञातो, अलं वो सो यावदेव इमस्स कायस्स ठितिया यापनाय विहिंसूपरतिया ब्रह्मचरियानुग्गहाय, इति पुराणञ्च वेदनं पटिहङ्खामि, नवञ्च वेदनं न उप्पादेस्सामि, यात्रा च मे भविस्सति अनवज्जता च फासुविहारो च [चाति (बहूसु)]। यं वो मया सेनासनं अनुञ्ञातं, अलं वो तं यावदेव सीतस्स पटिघाताय, उण्हस्स पटिघाताय, डंसमकसवातातपसरीसपसम्फस्सानं पटिघाताय, यावदेव उतुपरिस्सयविनोदन पटिसल्लानारामत्थं। यो वो मया गिलानपच्चयभेसज्ज परिक्खारो अनुञ्ञातो, अलं वो सो यावदेव उप्पन्नानं वेय्याबाधिकानं वेदनानं पटिघाताय अब्यापज्जपरमताय [अब्यापज्झपरमतायाति (सी॰ स्या॰ पी॰), अब्याबज्झपरमताय (?)]।

सुखल्लिकानुयोगो

१८३. ‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘सुखल्लिकानुयोगमनुयुत्ता समणा सक्यपुत्तिया विहरन्ती’ति। एवंवादिनो [वदमाना (स्या॰)], चुन्द, अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया – ‘कतमो सो, आवुसो, सुखल्लिकानुयोगो? सुखल्लिकानुयोगा हि बहू अनेकविहिता नानप्पकारका’ति।

‘‘चत्तारोमे, चुन्द, सुखल्लिकानुयोगा हीना गम्मा पोथुज्जनिका अनरिया अनत्थसंहिता न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तन्ति। कतमे चत्तारो?

‘‘इध, चुन्द, एकच्चो बालो पाणे वधित्वा वधित्वा अत्तानं सुखेति पीणेति। अयं पठमो सुखल्लिकानुयोगो।

‘‘पुन चपरं, चुन्द, इधेकच्चो अदिन्नं आदियित्वा आदियित्वा अत्तानं सुखेति पीणेति। अयं दुतियो सुखल्लिकानुयोगो।

‘‘पुन चपरं, चुन्द, इधेकच्चो मुसा भणित्वा भणित्वा अत्तानं सुखेति पीणेति। अयं ततियो सुखल्लिकानुयोगो।

‘‘पुन चपरं, चुन्द, इधेकच्चो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति। अयं चतुत्थो सुखल्लिकानुयोगो।

‘‘इमे खो, चुन्द, चत्तारो सुखल्लिकानुयोगा हीना गम्मा पोथुज्जनिका अनरिया अनत्थसंहिता न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तन्ति।

‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘‘इमे चत्तारो सुखल्लिकानुयोगे अनुयुत्ता समणा सक्यपुत्तिया विहरन्ती’ति। ते वो [ते (सी॰ पी॰)] ‘माहेवं’ तिस्सु वचनीया। न ते वो सम्मा वदमाना वदेय्युं, अब्भाचिक्खेय्युं असता अभूतेन।

१८४. ‘‘चत्तारोमे, चुन्द, सुखल्लिकानुयोगा एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तन्ति। कतमे चत्तारो?

‘‘इध, चुन्द, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति। अयं पठमो सुखल्लिकानुयोगो।

‘‘पुन चपरं, चुन्द, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा…पे॰… दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति। अयं दुतियो सुखल्लिकानुयोगो।

‘‘पुन चपरं, चुन्द, भिक्खु पीतिया च विरागा…पे॰… ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति। अयं ततियो सुखल्लिकानुयोगो।

‘‘पुन चपरं, चुन्द, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना…पे॰… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति। अयं चतुत्थो सुखल्लिकानुयोगो।

‘‘इमे खो, चुन्द, चत्तारो सुखल्लिकानुयोगा एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तन्ति।

‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘‘इमे चत्तारो सुखल्लिकानुयोगे अनुयुत्ता समणा सक्यपुत्तिया विहरन्ती’ति। ते वो ‘एवं’ तिस्सु वचनीया। सम्मा ते वो वदमाना वदेय्युं, न ते वो अब्भाचिक्खेय्युं असता अभूतेन।

सुखल्लिकानुयोगानिसंसो

१८५. ‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘इमे पनावुसो, चत्तारो सुखल्लिकानुयोगे अनुयुत्तानं विहरतं कति फलानि कतानिसंसा पाटिकङ्खा’ति? एवंवादिनो, चुन्द, अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया – ‘इमे खो, आवुसो, चत्तारो सुखल्लिकानुयोगे अनुयुत्तानं विहरतं चत्तारि फलानि चत्तारो आनिसंसा पाटिकङ्खा। कतमे चत्तारो? इधावुसो, भिक्खु तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्नो होति अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो। इदं पठमं फलं, पठमो आनिसंसो। पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामी होति, सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करोति। इदं दुतियं फलं, दुतियो आनिसंसो। पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको होति, तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका। इदं ततियं फलं, ततियो आनिसंसो। पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। इदं चतुत्थं फलं चतुत्थो आनिसंसो। इमे खो, आवुसो, चत्तारो सुखल्लिकानुयोगे अनुयुत्तानं विहरतं इमानि चत्तारि फलानि, चत्तारो आनिसंसा पाटिकङ्खा’’ति।

खीणासवअभब्बठानं

१८६. ‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘अट्ठितधम्मा समणा सक्यपुत्तिया विहरन्ती’ति। एवंवादिनो, चुन्द, अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया – ‘अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सावकानं धम्मा देसिता पञ्ञत्ता यावजीवं अनतिक्कमनीया। सेय्यथापि, आवुसो, इन्दखीलो वा अयोखीलो वा गम्भीरनेमो सुनिखातो अचलो असम्पवेधी। एवमेव खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सावकानं धम्मा देसिता पञ्ञत्ता यावजीवं अनतिक्कमनीया। यो सो, आवुसो, भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञा विमुत्तो, अभब्बो सो नव ठानानि अज्झाचरितुं। अभब्बो, आवुसो, खीणासवो भिक्खु सञ्चिच्च पाणं जीविता वोरोपेतुं; अभब्बो खीणासवो भिक्खु अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियितुं; अभब्बो खीणासवो भिक्खु मेथुनं धम्मं पटिसेवितुं; अभब्बो खीणासवो भिक्खु सम्पजानमुसा भासितुं; अभब्बो खीणासवो भिक्खु सन्निधिकारकं कामे परिभुञ्जितुं सेय्यथापि पुब्बे आगारिकभूतो; अभब्बो खीणासवो भिक्खु छन्दागतिं गन्तुं; अभब्बो खीणासवो भिक्खु दोसागतिं गन्तुं; अभब्बो खीणासवो भिक्खु मोहागतिं गन्तुं; अभब्बो खीणासवो भिक्खु भयागतिं गन्तुं। यो सो, आवुसो, भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञा विमुत्तो, अभब्बो सो इमानि नव ठानानि अज्झाचरितु’’न्ति।

पञ्हाब्याकरणं

१८७. ‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘अतीतं खो अद्धानं आरब्भ समणो गोतमो अतीरकं ञाणदस्सनं पञ्ञपेति, नो च खो अनागतं अद्धानं आरब्भ अतीरकं ञाणदस्सनं पञ्ञपेति, तयिदं किंसु तयिदं कथंसू’ति? ते च अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका अञ्ञविहितकेन ञाणदस्सनेन अञ्ञविहितकं ञाणदस्सनं पञ्ञपेतब्बं मञ्ञन्ति यथरिव बाला अब्यत्ता। अतीतं खो, चुन्द, अद्धानं आरब्भ तथागतस्स सतानुसारि ञाणं होति; सो यावतकं आकङ्खति तावतकं अनुस्सरति। अनागतञ्च खो अद्धानं आरब्भ तथागतस्स बोधिजं ञाणं उप्पज्जति – ‘अयमन्तिमा जाति, नत्थिदानि पुनब्भवो’ति। ‘अतीतं चेपि, चुन्द, होति अभूतं अतच्छं अनत्थसंहितं, न तं तथागतो ब्याकरोति। अतीतं चेपि, चुन्द, होति भूतं तच्छं अनत्थसंहितं, तम्पि तथागतो न ब्याकरोति। अतीतं चेपि चुन्द, होति भूतं तच्छं अत्थसंहितं, तत्र कालञ्ञू तथागतो होति तस्स पञ्हस्स वेय्याकरणाय। अनागतं चेपि, चुन्द, होति अभूतं अतच्छं अनत्थसंहितं, न तं तथागतो ब्याकरोति…पे॰… तस्स पञ्हस्स वेय्याकरणाय। पच्चुप्पन्नं चेपि, चुन्द, होति अभूतं अतच्छं अनत्थसंहितं, न तं तथागतो ब्याकरोति। पच्चुप्पन्नं चेपि, चुन्द, होति भूतं तच्छं अनत्थसंहितं, तम्पि तथागतो न ब्याकरोति। पच्चुप्पन्नं चेपि, चुन्द, होति भूतं तच्छं अत्थसंहितं, तत्र कालञ्ञू तथागतो होति तस्स पञ्हस्स वेय्याकरणाय।

१८८. ‘‘इति खो, चुन्द, अतीतानागतपच्चुप्पन्नेसु धम्मेसु तथागतो कालवादी [कालवादी सच्चवादी (स्या॰)] भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी, तस्मा ‘तथागतो’ति वुच्चति। यञ्च खो, चुन्द, सदेवकस्स लोकस्स समारकस्स सब्रह्मकस्स सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय दिट्ठं सुतं मुतं विञ्ञातं पत्तं परियेसितं अनुविचरितं मनसा, सब्बं तथागतेन अभिसम्बुद्धं, तस्मा ‘तथागतो’ति वुच्चति। यञ्च, चुन्द, रत्तिं तथागतो अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झति, यञ्च रत्तिं अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बायति, यं एतस्मिं अन्तरे भासति लपति निद्दिसति। सब्बं तं तथेव होति नो अञ्ञथा, तस्मा ‘तथागतो’ति वुच्चति। यथावादी, चुन्द, तथागतो तथाकारी, यथाकारी तथावादी। इति यथावादी तथाकारी, यथाकारी तथावादी, तस्मा ‘तथागतो’ति वुच्चति। सदेवके लोके, चुन्द, समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय तथागतो अभिभू अनभिभूतो अञ्ञदत्थुदसो वसवत्ती, तस्मा ‘तथागतो’ति वुच्चति।

अब्याकतट्ठानं

१८९. ‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘किं नु खो, आवुसो, होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति? एवंवादिनो, चुन्द, अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया – ‘अब्याकतं खो, आवुसो, भगवता – ‘‘होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति।

‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘किं पनावुसो, न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति? एवंवादिनो, चुन्द, अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया – ‘एतम्पि खो, आवुसो, भगवता अब्याकतं – ‘‘न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति।

‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘किं पनावुसो, होति च न च होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति? एवंवादिनो, चुन्द, अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया – ‘अब्याकतं खो एतं, आवुसो, भगवता – ‘‘होति च न च होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति।

‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘किं पनावुसो, नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति? एवंवादिनो, चुन्द, अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया – ‘एतम्पि खो, आवुसो, भगवता अब्याकतं – ‘‘नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति।

‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘कस्मा पनेतं, आवुसो, समणेन गोतमेन अब्याकत’न्ति? एवंवादिनो, चुन्द, अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया – ‘न हेतं, आवुसो, अत्थसंहितं न धम्मसंहितं न आदिब्रह्मचरियकं न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति, तस्मा तं भगवता अब्याकत’न्ति।

ब्याकतट्ठानं

१९०. ‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘किं पनावुसो, समणेन गोतमेन ब्याकत’न्ति? एवंवादिनो, चुन्द, अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया – ‘इदं दुक्खन्ति खो, आवुसो, भगवता ब्याकतं, अयं दुक्खसमुदयोति खो, आवुसो, भगवता ब्याकतं, अयं दुक्खनिरोधोति खो, आवुसो, भगवता ब्याकतं, अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति खो, आवुसो, भगवता ब्याकत’न्ति।

‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति, यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘कस्मा पनेतं, आवुसो, समणेन गोतमेन ब्याकत’न्ति? एवंवादिनो, चुन्द, अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवमस्सु वचनीया – ‘एतञ्हि, आवुसो, अत्थसंहितं, एतं धम्मसंहितं, एतं आदिब्रह्मचरियकं एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति। तस्मा तं भगवता ब्याकत’न्ति।

पुब्बन्तसहगतदिट्ठिनिस्सया

१९१. ‘‘येपि ते, चुन्द, पुब्बन्तसहगता दिट्ठिनिस्सया, तेपि वो मया ब्याकता, यथा ते ब्याकातब्बा। यथा च ते न ब्याकातब्बा, किं वो अहं ते तथा [तत्थ (स्या॰ क॰)] ब्याकरिस्सामि? येपि ते, चुन्द, अपरन्तसहगता दिट्ठिनिस्सया, तेपि वो मया ब्याकता, यथा ते ब्याकातब्बा। यथा च ते न ब्याकातब्बा, किं वो अहं ते तथा ब्याकरिस्सामि? कतमे च ते, चुन्द, पुब्बन्तसहगता दिट्ठिनिस्सया, ये वो मया ब्याकता, यथा ते ब्याकातब्बा। (यथा च ते न ब्याकातब्बा, किं वो अहं ते तथा ब्याकरिस्सामि) [(यथा च ते न ब्याकातब्बा) सब्बत्थ]? सन्ति खो, चुन्द, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘सस्सतो अत्ता च लोको च, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति। सन्ति पन, चुन्द, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘असस्सतो अत्ता च लोको च…पे॰… सस्सतो च असस्सतो च अत्ता च लोको च… नेव सस्सतो नासस्सतो अत्ता च लोको च… सयंकतो अत्ता च लोको च… परंकतो अत्ता च लोको च… सयंकतो च परंकतो च अत्ता च लोको च… असयंकारो अपरंकारो अधिच्चसमुप्पन्नो अत्ता च लोको च, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति। सस्सतं सुखदुक्खं… असस्सतं सुखदुक्खं… सस्सतञ्च असस्सतञ्च सुखदुक्खं… नेवसस्सतं नासस्सतं सुखदुक्खं… सयंकतं सुखदुक्खं… परंकतं सुखदुक्खं… सयंकतञ्च परंकतञ्च सुखदुक्खं… असयंकारं अपरंकारं अधिच्चसमुप्पन्नं सुखदुक्खं, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति।

१९२. ‘‘तत्र, चुन्द, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘सस्सतो अत्ता च लोको च, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति। त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि – ‘अत्थि नु खो इदं, आवुसो, वुच्चति – ‘‘सस्सतो अत्ता च लोको चा’’ति? यञ्च खो ते एवमाहंसु – ‘इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति। तं तेसं नानुजानामि। तं किस्स हेतु? अञ्ञथासञ्ञिनोपि हेत्थ, चुन्द, सन्तेके सत्ता। इमायपि खो अहं, चुन्द, पञ्ञत्तिया नेव अत्तना समसमं समनुपस्सामि कुतो भिय्यो। अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो यदिदं अधिपञ्ञत्ति।

१९३. ‘‘तत्र, चुन्द, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘असस्सतो अत्ता च लोको च…पे॰… सस्सतो च असस्सतो च अत्ता च लोको च… नेवसस्सतो नासस्सतो अत्ता च लोको च… सयंकतो अत्ता च लोको च… परंकतो अत्ता च लोको च… सयंकतो च परंकतो च अत्ता च लोको च… असयंकारो अपरंकारो अधिच्चसमुप्पन्नो अत्ता च लोको च… सस्सतं सुखदुक्खं… असस्सतं सुखदुक्खं… सस्सतञ्च असस्सतञ्च सुखदुक्खं… नेवसस्सतं नासस्सतं सुखदुक्खं… सयंकतं सुखदुक्खं… परंकतं सुखदुक्खं… सयंकतञ्च परंकतञ्च सुखदुक्खं… असयंकारं अपरंकारं अधिच्चसमुप्पन्नं सुखदुक्खं, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति। त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि – ‘अत्थि नु खो इदं, आवुसो, वुच्चति – ‘‘असयंकारं अपरंकारं अधिच्चसमुप्पन्नं सुखदुक्ख’’’न्ति? यञ्च खो ते एवमाहंसु – ‘इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति। तं तेसं नानुजानामि। तं किस्स हेतु? अञ्ञथासञ्ञिनोपि हेत्थ, चुन्द, सन्तेके सत्ता। इमायपि खो अहं, चुन्द, पञ्ञत्तिया नेव अत्तना समसमं समनुपस्सामि कुतो भिय्यो। अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो यदिदं अधिपञ्ञत्ति। इमे खो ते, चुन्द, पुब्बन्तसहगता दिट्ठिनिस्सया, ये वो मया ब्याकता, यथा ते ब्याकातब्बा। यथा च ते न ब्याकातब्बा, किं वो अहं ते तथा ब्याकरिस्सामीति [ब्याकरिस्सामीति (सी॰ क॰)]?

अपरन्तसहगतदिट्ठिनिस्सया

१९४. ‘‘कतमे च ते, चुन्द, अपरन्तसहगता दिट्ठिनिस्सया, ये वो मया ब्याकता, यथा ते ब्याकातब्बा। (यथा च ते न ब्याकातब्बा, किं वो अहं ते तथा ब्याकरिस्सामी) [( ) एत्थन्तरे पाठो सब्बत्थपि परिपुण्णो दिस्सति]? सन्ति, चुन्द, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘रूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति। सन्ति पन, चुन्द, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘अरूपी अत्ता होति…पे॰… रूपी च अरूपी च अत्ता होति… नेवरूपी नारूपी अत्ता होति… सञ्ञी अत्ता होति… असञ्ञी अत्ता होति… नेवसञ्ञीनासञ्ञी अत्ता होति… अत्ता उच्छिज्जति विनस्सति न होति परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति। तत्र, चुन्द, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘रूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति। त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि – ‘अत्थि नु खो इदं, आवुसो, वुच्चति – ‘‘रूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा’’’ति? यञ्च खो ते एवमाहंसु – ‘इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति। तं तेसं नानुजानामि। तं किस्स हेतु? अञ्ञथासञ्ञिनोपि हेत्थ, चुन्द, सन्तेके सत्ता। इमायपि खो अहं, चुन्द, पञ्ञत्तिया नेव अत्तना समसमं समनुपस्सामि कुतो भिय्यो। अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो यदिदं अधिपञ्ञत्ति।

१९५. ‘‘तत्र, चुन्द, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘अरूपी अत्ता होति…पे॰… रूपी च अरूपी च अत्ता होति… नेवरूपीनारूपी अत्ता होति… सञ्ञी अत्ता होति… असञ्ञी अत्ता होति… नेवसञ्ञीनासञ्ञी अत्ता होति… अत्ता उच्छिज्जति विनस्सति न होति परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति। त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि – ‘अत्थि नु खो इदं, आवुसो, वुच्चति – ‘‘अत्ता उच्छिज्जति विनस्सति न होति परं मरणा’’’ति? यञ्च खो ते, चुन्द, एवमाहंसु – ‘इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति। तं तेसं नानुजानामि। तं किस्स हेतु? अञ्ञथासञ्ञिनोपि हेत्थ, चुन्द, सन्तेके सत्ता। इमायपि खो अहं, चुन्द, पञ्ञत्तिया नेव अत्तना समसमं समनुपस्सामि, कुतो भिय्यो। अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो यदिदं अधिपञ्ञत्ति। इमे खो ते, चुन्द, अपरन्तसहगता दिट्ठिनिस्सया, ये वो मया ब्याकता, यथा ते ब्याकातब्बा। यथा च ते न ब्याकातब्बा, किं वो अहं ते तथा ब्याकरिस्सामीति [ब्याकरिस्सामीति (सी॰ क॰)]?

१९६. ‘‘इमेसञ्च, चुन्द, पुब्बन्तसहगतानं दिट्ठिनिस्सयानं इमेसञ्च अपरन्तसहगतानं दिट्ठिनिस्सयानं पहानाय समतिक्कमाय एवं मया चत्तारो सतिपट्ठाना देसिता पञ्ञत्ता। कतमे चत्तारो? इध, चुन्द, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। वेदनासु वेदनानुपस्सी…पे॰… चित्ते चित्तानुपस्सी… धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। इमेसञ्च चुन्द, पुब्बन्तसहगतानं दिट्ठिनिस्सयानं इमेसञ्च अपरन्तसहगतानं दिट्ठिनिस्सयानं पहानाय समतिक्कमाय। एवं मया इमे चत्तारो सतिपट्ठाना देसिता पञ्ञत्ता’’ति।

१९७. तेन खो पन समयेन आयस्मा उपवाणो भगवतो पिट्ठितो ठितो होति भगवन्तं बीजयमानो। अथ खो आयस्मा उपवाणो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते! पासादिको वतायं, भन्ते, धम्मपरियायो; सुपासादिको वतायं भन्ते, धम्मपरियायो, को नामायं भन्ते धम्मपरियायो’’ति? ‘‘तस्मातिह त्वं, उपवाण, इमं धम्मपरियायं ‘पासादिको’ त्वेव नं धारेही’’ति। इदमवोच भगवा। अत्तमनो आयस्मा उपवाणो भगवतो भासितं अभिनन्दीति।

पासादिकसुत्तं निट्ठितं छट्ठं।