नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 महापुरुष लक्षण

सूत्र विवेचना

भगवान बुद्ध के समय, वेदों में “बत्तीस महापुरुष लक्षणों” का उल्लेख प्रतिष्ठित था, जिसे ब्राह्मण वर्ग द्वारा व्यापक रूप से पढ़ा और धारण किया जाता था। तब, जब एक ऐसा ही व्यक्ति प्रकट हुआ, जिसमें वेदों में वर्णित ये सभी लक्षण स्पष्ट रूप से विद्यमान थे, उसने धर्मचक्र प्रवर्तन कर संपूर्ण जम्बूद्वीप में धम्म का प्रचार किया। जब उसकी ख्याति फैलने लगी, तो सत्य को परखने के लिए अनेक ब्राह्मण शास्त्री स्वयं भगवान के पास आए। भारत के लगभग सभी प्रमुख और प्रभावशाली ब्राह्मणों ने न केवल बुद्ध के बत्तीस महापुरुष लक्षणों को प्रत्यक्ष देखा और स्वीकार किया, बल्कि उनके धर्म को भी अपनाया।

स्वाभाविक रूप से, इसके बाद कुछ ब्राह्मणों में असुरक्षा की भावना जागी। समय बीतने के साथ, यह ऐतिहासिक तथ्य इतना स्थापित हो चुका था कि इसे पूरी तरह मिटाना असंभव प्रतीत हुआ। संभवतः इसी कारण, बाद में वेदों से ही बत्तीस महापुरुष लक्षणों का उल्लेख हटा दिया गया, ताकि आगे चलकर कोई भी सच्चा ब्राह्मण वेदों के अध्ययन के माध्यम से बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित न हो जाए। यह विडंबनापूर्ण भी है और हास्यास्पद भी कि उन्होंने अपने लाभ की चिंता में इस परमकल्याणी सत्य को अपने ही शास्त्रों से मिटा दिया।

फिर भी, भगवान बुद्ध ने स्पष्ट किया कि वेदों में वर्णित “बत्तीस महापुरुष लक्षण” पूर्वजन्मों के सत्कर्मों का प्रतिफल हैं। इन्हें जानकर कोई भी व्यक्ति सद्गुणों को अपनाकर चक्रवर्ती सम्राट बन सकता है। इन लक्षणों के संदर्भ में यह प्रतीत होता है कि जैसे पाप का संचय अंततः नरकों की पीड़ा का कारण बनता है, वैसे ही पुण्य का संचय भी अपने समय पर किसी भी सद्गति लोक में फलित होता है। जब पुण्य अपने चरम पर पहुँचता है, तो वह या तो स्वर्ग में उच्च पद प्रदान करता है, या मनुष्यलोक में जन्म देकर चक्रवर्ती सम्राट बना देता है। किंतु यदि कोई इस महापुण्य के भोग को त्यागकर संन्यास ग्रहण कर ले, तो वही व्यक्ति आगे चलकर सम्यक-सम्बुद्ध बनता है।

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के जेतवन-आश्रम में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं को आमंत्रित किया, “भिक्षुओं!”

“भदंत!” कहकर भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया।

भगवान ने कहा, “भिक्षुओं, महापुरुष में बत्तीस महापुरुष लक्षण होते हैं, जिनसे युक्त उस महापुरुष की दो ही गतियाँ होती है, तीसरी नहीं। यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है, चार दिशाओं का विजेता, दूर-दराज के इलाकों तक स्थिर शासन, और सप्त रत्नों से सम्पन्न। उसके लिए सात रत्न प्रकट होते हैं — चक्ररत्न, हाथीरत्न, अश्वरत्न, मणिरत्न, स्त्रीरत्न, गृहस्थरत्न, और सातवाँ, सलाहकाररत्न। उसे एक हजार से अधिक पुत्र होते हैं — सभी शूर, वीर, शत्रुओं की सेना की धज्जियाँ उड़ाने वाले। और वह समुद्र तक भूमि पर, बिना दण्ड और शस्त्र के, केवल धर्म से जीत कर शासन करता है। किन्तु, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है।

भिक्षुओं, कौन-से बत्तीस महापुरुष लक्षणों से युक्त महापुरुष की दो ही गतियाँ होती है, तीसरी नहीं… (१) महापुरुष के समतल पैर होते हैं। भिक्षुओं, समतल पैर होना महापुरुष के महापुरुष लक्षणों में से एक हैं। (२) महापुरुष के पैरों के तलवे में चक्र मौजूद होते हैं — हजार तीली के साथ, नेमी के साथ, नाभी के साथ, अपने सम्पूर्ण आकार की परिपूर्णता के साथ। भिक्षुओं, पैरों के तलवे में चक्र मौजूद होना महापुरुष के महापुरुष लक्षणों में से एक हैं। (३) महापुरुष की लंबी एड़ियाँ होती है।… (४) महापुरुष की लंबी उँगलियाँ होती हैं।… (५) महापुरुष के हाथ-पैर मृदु होते हैं।… (६) महापुरुष के हाथ-पैर जालीदार होते हैं।… (७) महापुरुष के पैर [ऊपर से] वक्राकार होते हैं।… (८) महापुरुष की मृग-जाँघें होती हैं।…

(९) महापुरुष की हथेलियाँ बिना झुके सीधा खड़ा होने पर भी घुटनों को छूती हैं।… (१०) महापुरुष की पुरुष-इंद्रिय चमड़े से ढकी होती है।… (११) महापुरुष स्वर्ण-रंग के होते है, त्वचा स्वर्ण जैसी चमकती है।… (१२) महापुरुष की सूक्ष्म त्वचा होती है, इतनी सूक्ष्म कि उस पर मैल और धूल भी जमती नहीं है।… (१३) महापुरुष एकेकलोमो होते है, अर्थात, उनके एक-एक रोमछिद्र में केवल एक-एक रोम उगते हैं।… (१४) महापुरुष उद्धग्गलोमो है, अर्थात, उनके रोम खड़े होते हैं, अंजन जैसे नीले हैं, और घूमकर दायी-ओर से कुंडली (clockwise) मारते हैं।… (१५) महापुरुष की काया लंबी और अंग सीधा होता है।… (१६) महापुरुष सात अंगों से उभरी हुई होती है [=मांसल काया?]…

(१७) महापुरुष की ऊपरी काया [छाती, गला इत्यादि] सिंह जैसे होती है।… (१८) महापुरुष के कंधे भरे हुए होते हैं।… (१९) महापुरुष वटवृक्ष-परिमंडल जैसे होते है, जितनी शरीर की ऊँचाई उतनी ही [हाथ फैलाने पर] चौड़ाई होती है, जितनी शरीर की चौड़ाई उतनी ही लंबाई होती है।… (२०) महापुरुष का धड़ बेलनाकार होता है।… (२१) महापुरुष की स्वाद कलिकाएँ शिराओं वाली होती हैं।… (२२) महापुरुष का जबड़ा सिंह के जैसा होता है।… (२३) महापुरुष के चालीस दाँत होते हैं।… (२४) महापुरुष के दाँत सम होते हैं।…

(२५) महापुरुष के अविरल दाँत [=दाँतों के बीच गैप न होना] होते हैं।… (२६) महापुरुष के दाँत शुभ्र सफ़ेद होते हैं।… (२७) महापुरुष की जीभ लंबी होती है।… (२८) महापुरुष की आवाज ब्रह्मस्वर होता है, कोयल पक्षी की तरह।… (२९) महापुरुष की आँखें नीली होती हैं।… (३०) महापुरुष की पलकें गाय के जैसी होती हैं।… (३१) महापुरुष की भौहों के बीच श्वेत और मृदु कपास के जैसे बाल उगते हैं। और, (३२) महापुरुष का सिर पगड़ी जैसा उभरा होता है। भिक्षुओं, सिर पगड़ी जैसा उभरा होना भी महापुरुष के महापुरुष लक्षणों में से एक हैं।

इस तरह, भिक्षुओं, महापुरुष बत्तीस महापुरुष लक्षणों से युक्त होता है, जिनसे युक्त उस महापुरुष की दो ही गतियाँ होती है, तीसरी नहीं। यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है, चार दिशाओं का विजेता, दूर-दराज के इलाकों तक स्थिर शासन, और सप्त रत्नों से सम्पन्न। उसके लिए सात रत्न प्रकट होते हैं — चक्ररत्न, हाथीरत्न, अश्वरत्न, मणिरत्न, स्त्रीरत्न, गृहस्थरत्न, और सातवाँ, सलाहकाररत्न। उसे एक हजार से अधिक पुत्र होते हैं — सभी शूर, वीर, शत्रुओं की सेना की धज्जियाँ उड़ाने वाले। और वह समुद्र तक भूमि पर, बिना दण्ड और शस्त्र के, केवल धर्म से जीत कर शासन करता है। किन्तु, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है।

अब, भिक्षुओं, बाहर [धर्म] के जो ऋषि हैं, वे भी महापुरुष के बत्तीस महापुरुष-लक्षण जानते हैं। किन्तु वे यह नहीं जानते हैं कि ‘कौन-सा कर्म करने पर कौन-सा लक्षण प्राप्त होता है?’

१. समतल पैर

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर कुशल-धर्मों को दृढ़ता के साथ अंगीकार किया था, कड़ाई के साथ अंगीकार किया था — जैसे काया से सदाचार करना, वाणी से सदाचार करना, मन से सदाचार करना, दान और संविभाग करना, शील अंगीकार करना, उपोसथ-व्रत पालन करना, माता की सेवा करना, पिता की सेवा करना, श्रमणों की सेवा करना, ब्राह्मणों की सेवा करना, कुल-परिवार के ज्येष्ठ लोगों का सम्मान करना, और ऐसे ही अन्य ऊँचे कुशल-धर्म। 1

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए। वहाँ वे अन्य देवताओं की तुलना में दस बातों से बेहतर हुए — दिव्य आयु, दिव्य सौंदर्य, दिव्य सुख, दिव्य यश, दिव्य प्रभुत्व, दिव्य रूप, दिव्य आवाज, दिव्य गंध, दिव्य स्वाद, और दिव्य संस्पर्श। और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे महापुरुष-लक्षण का लाभ हुआ। उनके पैर समतल हुए। वे पैरों को भूमि पर समतल रखते है, समतल उठाते है, पैरों के संपूर्ण तलवे से ही भूमि को समतल स्पर्श करते है।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है, चार दिशाओं का विजेता, दूर-दराज के इलाकों तक स्थिर शासन, और सप्त रत्नों से सम्पन्न। उसके लिए सात रत्न प्रकट होते हैं — चक्ररत्न, हाथीरत्न, अश्वरत्न, मणिरत्न, स्त्रीरत्न, गृहस्थरत्न, और सातवाँ, सलाहकाररत्न। उसे एक हजार से अधिक पुत्र होते हैं — सभी शूर, वीर, शत्रुओं की सेना की धज्जियाँ उड़ाने वाले। और वह समुद्र तक भूमि पर, बिना दण्ड और शस्त्र के, केवल धर्म से जीत कर शासन करता है। राजा होने पर क्या पाता है? वह किसी भी मानवीय शत्रु या दुश्मन से डिगाए नहीं जा सकता। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? वे किसी भी शत्रु या दुश्मन से डिगाए नहीं जा सकते — चाहे आंतरिक हो या बाहरी, राग हो, या द्वेष हो, या भ्रम हो, या श्रमण हो, या ब्राह्मण हो, या देवता हो, या मार हो, या ब्रह्मा हो, या इस लोक में कोई भी हो। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“सच्चाई, धर्म, काबू, संयम,
पवित्रता, शील, और उपोसथ पालन,
दान, अहिंसा, रत अ-दुस्साहस में,
अपनाया दृढ़ता से, सम-आचरण किए।

तब उन कर्मों से दिव्य स्वर्ग गए,
सुख और क्रीडा रत अनुभव किए।
वहाँ से च्युत अब यहाँ लौट आए,
समतल पैरों से अब वसुंधरा छूए।

एकत्र हो ज्योतिषी भविष्यवाणी किए,
डिगाया न जाए इस समतल पैरवाले को।
चाहे गृहस्थी रहे या संन्यासी हो,
यह लक्षण इसी बात का द्योतक हो।

घर रहते हुए उसे न डिगाया जाए,
शत्रुओं को पराभूत करे, कुचला न जाए।
भले ही कोई भी मानव आ जाए,
इस कर्मफल से न डिगा पाए।

यदि वह ऐसा प्रवज्जित हो जाए,
संन्यास चाहत में रुचि, स्पष्ट देखे,
तब अग्रणी भी न डिगा पाता,
यही उस उत्तम नर की धर्मता।”

२. पैरों में चक्र

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर बहुजनों तक सुख ढ़ोकर पहुँचाया, उनके आतंक, ख़तरे और भय को मिटाया, उन्हें धर्मानुसार रक्षा, बचाव और संरक्षण दिया, और उस परिवार के साथ दान दिया।

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे महापुरुष-लक्षण का लाभ हुआ। उनके पैर के तलवों में चक्र जन्मा — हजार तीली के साथ, नेमी के साथ, नाभी के साथ, अपने सम्पूर्ण आकार की परिपूर्णता के साथ।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? उसका विराट परिवार होता है। उसके विराट परिवार में ब्राह्मण और गृहस्थ, निगम और देहातों की प्रजा, वित्त-महामंत्री, सेनापति, द्वारपाल, परिषद के मंत्रीगण और सलाहकार, अधीनस्थ राजा और राजकुमार होते हैं। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? उनका विराट परिवार होता है। उनके विराट परिवार में भिक्षुगण, भिक्षुणियाँ, उपासकगण, उपासिकाएँ, देवतागण, मानव, असुर, नाग और गंधब्ब होते हैं। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“बहुत पहले पुराने जन्मों में
मानव होकर बहुजनों को सुख पहुँचाए।
आतंक, ख़तरे और उनके भय मिटाए,
उत्सुकता से रक्षा, बचाव, आरक्षण दिए।

तब उन कर्मों से दिव्य स्वर्ग गए,
सुख और क्रीडा रत अनुभव किए।
वहाँ से च्युत अब यहाँ लौट आए,
दोनों पैर के तलवों में अब चक्र दिखे।

समस्त नेमी और साथ हजार तीली के,
एकत्र हो ज्योतिषी भविष्यवाणी किए,
देखकर सौ पुण्य-लक्षण कुमार के,
होगा परिवार बड़ा, कुचल कर शत्रुओं को।

इसलिए चक्र है साथ समस्त नेमी के,
यदि न हो वह ऐसा संन्यासी,
चक्र घुमाकर पृथ्वी पर शासन करे,
क्षत्रिय अधीन होते हैं उसके,
महायशस्वी, साथ परिवार के।

यदि वह ऐसा प्रवज्जित हो जाए,
संन्यास चाहत में रुचि, स्पष्ट देखे,
देवता, मानव, असुर, सक्क, राक्षस,
गंधब्ब, नाग, पक्षी, चारपद भी
अनुत्तर वह, पूजित हो देव-मानवों से,
महायशस्वी, साथ परिवार के।”

३-५ लंबी और सीधी एड़ियाँ, उँगलियाँ, और काया

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर जीवहत्या त्यागकर जीवहत्या से विरत रहे, डंडा और शस्त्र फेंक चुके, शर्मिले और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी विहार किया।

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे तीन महापुरुष-लक्षणों का लाभ हुआ। उनकी एड़ियाँ लंबी हुई, उनकी उँगलियाँ लंबी हुई, उनकी काया लंबी हुई और अंग सीधा हुआ।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? वह दीर्घायु होता है, चिरस्थायी बने रहता है, लंबे समय तक जीवित रहता है, और उसका काल पूर्ण होने से पहले कोई शत्रु या दुश्मन उसकी जान नहीं ले सकता। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? वे दीर्घायु होते है, चिरस्थायी बने रहते है, लंबे समय तक जीवित रहते है, और उनका काल पूर्ण होने से पहले कोई शत्रु या दुश्मन उनकी जान नहीं ले सकते, चाहे वह श्रमण हो, या ब्राह्मण हो, या देवता हो, या मार हो, या ब्रह्मा हो, या इस लोक में कोई भी हो। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“मृत्यु, वध, भय का बोध कर के
पराए को मारने से विरत हुए,
उस सदाचार से फिर स्वर्ग गए
सुकृत्यों के फल के लुत्फ उठाए।

वहाँ से च्युत यहाँ लौट आने पर,
तीन लक्षणों का लाभ यहाँ किए।
उनकी एड़ियाँ हुई बड़ी और लंबी,
ब्रह्म की भाँति सीधे, सुंदर, लंबे अंग हुए।

सुंदर, तरुण भुजा, सुडौल, सुजात हुए,
मृदु, मुलायम उँगलियाँ और लंबी हुई,
श्रेष्ठ पुरुष के इन तीन लक्षणों से,
राजकुमार का जीवन दीर्घायु बताया गया।

‘गृहस्थी रहे तो दीर्घकाल जिएगा,
उससे भी दीर्घकाल, संन्यास लेकर।
ऋद्धिवश की साधना से और लंबा जिएगा।
अतः यह संकेत है दीर्घायुता का।’”

६. सात अंगों से उभरी

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर उत्तम और स्वादिष्ट खाद्य, भोज्य, स्वाद्य, रस-पान पेय के दाता थे।

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे महापुरुष लक्षण का लाभ हुआ। सप्तंगों से [मांसल काया] उभरे, सात अंगों में भरे हुए हुए। दोनों हाथ उभरे हुए, दोनों पैर उभरे हुए, दोनों कंधे उभरे हुए, धड़ [छाती] उभरा हुआ।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? उसे उत्तम और स्वादिष्ट खाद्य, भोज्य, स्वाद्य, रस-पान पेय का लाभ होता है। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? उन्हे उत्तम और स्वादिष्ट खाद्य, भोज्य, स्वाद्य, रस-पान पेय का लाभ होता है। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“खाद्य, भोज्य, पेय, स्वाद्य,
उत्तम अग्र रसपान दायक थे।
उस सुआचरण कर्म से दीर्घकाल,
नन्दन [स्वर्ग] में प्रमुदित रहे।

यहाँ आने पर सप्तंगों से उभरे,
हाथ और पैर अब मृदु लगते,
घोषित किया चतुर ज्योतिषियों ने,
‘लाभ होगा खाद्य, भोज्य, रसपान का ।

गृहस्थ होकर लाभी होगा,
प्रवज्जित हो तब भी लाभी होगा।
सर्वोत्तम खाद्य, भोज्य, रसपान में,
सभी बंधन तोड़कर गृहस्थी के।’”

७-८. मृदु

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर, जोड़ने वाली इन चार बातों से जनसंग्रह किया [=ढ़ेर सारे मित्र बनाए] — दान से, प्रिय वचनों से, परोपकार से, समानता के बर्ताव से। 2

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे महापुरुष लक्षण का लाभ हुआ। उनके हाथ और पैर मृदु और जालीदार हुए।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? उसके परिजन सुसंग्रहित [=सभी मिल-जुलकर मधुरता से उसके साथ-साथ बने] रहते हैं। ब्राह्मण और गृहस्थ, निगम और देहातों की प्रजा, वित्त-महामंत्री, सेनापति, द्वारपाल, परिषद के मंत्रीगण और सलाहकार, अधीनस्थ राजा और राजकुमार, सभी सुसंग्रहित रहते हैं। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? उनके परिजन सुसंग्रहित रहते हैं। भिक्षुगण और भिक्षुणियाँ, उपासकगण, उपासिकाएँ, देवतागण, मनुष्य, असुर, नाग और गंधब्ब, सभी सुसंग्रहित रहते हैं। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“दान देकर या परोपकार से,
प्रिय वचन बोल या समानता से।
बहुतों को सुसंग्रहित कर ऐसे आचरण से,
वे स्वर्ग गए इस सम्मानित गुण से।

च्युत होकर जब फिर यहाँ लौटे,
हाथ-पैर मृदु और जालीदार हुए।
अति प्रिय, सुंदर और दर्शनीय,
तरुण, शिशु कुमार को प्राप्त हुए।

परिजन सच्चे, आज्ञाकारी हो,
विराट स्थलों पर भी सुसंग्रहित रहे,
प्रिय बोलते, हित-सुख देखते,
अत्यंत अनुकूल गुण से आचरण करते।

यदि वह सब कामभोग त्याग दे,
विजेता वह जनता को धर्म बताए,
सुनकर आस्था पाए उसके शब्दों में,
वे धर्मानुसार धर्म का आचरण करे।”

९-१० वक्राकार पैर और खड़े लोम

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर अर्थपूर्ण [=कल्याणकारी] और धार्मिक बातें बोली थी, बहुत लोगों को निर्देशित किया था, प्राणियों को हित और सुख पहुँचाते हुए धार्मिक सुझाव दिए थे।

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे दो महापुरुष लक्षणों का लाभ हुआ। उनके पैर [ऊपर से] वक्राकार हुए, और उनके रोम खड़े हुए।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? वह कामभोगियों में सबसे अग्रणी, श्रेष्ठ, प्रमुख, उत्तम और बेहतरीन होता है। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? वे सभी सत्वों में सबसे अग्रणी, श्रेष्ठ, प्रमुख, उत्तम और बेहतरीन होते है। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“बातें करते अर्थपूर्ण व धार्मिक पहले,
बहुजनों को निर्देशित करते।
प्राणियों को हित और सुख पहुँचाते,
धार्मिक सुझाव देते, बिना कंजूसी के।

उन सु-आचरण कर्म के करने से,
सद्गति हुई, स्वर्ग में प्रमुदित हुए।
यहाँ आने पर दो लक्षण उभरे,
जो उत्तम व प्रमुख में पाए जाते।

उसके रोम खड़े ही रहते हैं,
पैरों की एड़ियाँ अच्छी दिखती।
माँस-रक्त से फूलकर ढकी त्वचा से,
शोभा पैरों की बढ़ाती हैं।

गृहस्थी में ही रहे यदि वह
अग्रणी हो जाए कामभोगियों में।
उससे बेहतर और कोई न दिखें,
जो जम्बूद्वीप जीतकर चलता है।

जो हो प्रवज्जित, संन्यासियों में अनुपम,
अग्रणी हो जाए सभी सत्वों में।
उससे बेहतर और कोई न दिखें,
सभी लोक को जीतकर चलता है।”

११ मृग-जाँघें

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर शिल्पकला, विद्या, आचरण और कर्मों को सत्कारपूर्वक सिखाते थे, “कैसे वे इसे शीघ्र ही जान ले, शीघ्र आत्मसात करे, देर तक हैरान न हो।”

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे महापुरुष लक्षण का लाभ हुआ। उनकी मृग जैसी जांघे हुई।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? राजा के योग्य, राजा के अनुकूल राजभोग का शीघ्र लाभ होता है। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? श्रमण के योग्य, श्रमण के अनुकूल श्रमणभोग का शीघ्र ही लाभ होता है। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“शिल्प में, विद्या व आचरण कर्मों में,
चाहता कि वे तुरंत कैसे जान ले।
किसी को जिसमें न कष्ट हो कोई,
जल्द सिखाता, हैरान रखता नहीं।

कर के उन कुशल सुखदायी कर्मों को,
पाता है परिपूर्ण और सुडौल जाँघे।
गोल, सुजात, उतार-चढ़ाव वाले जो,
रोम खड़े रहे, सूक्ष्म चर्म को घेरे हुए।

मृग-जांघ उसे लोग कहते हैं,
संपत्ति शीघ्र पाने का लक्षण है,
जो गृहस्थी की आकांक्षा रखे,
बिना संन्यास, शीघ्र ही पाता है।

किन्तु यदि प्रवज्जित ऐसा हो जाए,
संन्यास चाहत में रुचि, स्पष्ट देखे,
अनुपम संन्यासी, जल्द ही पा जाए,
जो [संन्यास के] योग्य और अनुकूल हो।”

१२. सूक्ष्म त्वचा

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर श्रमण और ब्राह्मण के पास जाकर पूछा, ‘भन्ते! क्या कुशल होता है? क्या अकुशल होता है? क्या दोषपूर्ण होता है? क्या निर्दोष होता है? क्या [स्वभाव] विकसित करना चाहिए? क्या विकसित नहीं करना चाहिए? किस तरह के कर्म मुझे दीर्घकालीन अहित एवं दुःख की ओर ले जाएँगे? और किस तरह के कर्म मुझे दीर्घकालीन हित एवं सुख की ओर ले जाएँगे?’’

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे महापुरुष लक्षण का लाभ हुआ। उनकी सूक्ष्म त्वचा हुई, इतनी सूक्ष्म कि उस पर मैल और धूल भी नहीं जमती है।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? महाप्रज्ञ [=गहरा अंतर्ज्ञानी] होता है। कामभोगियों में कोई उसके समान या उससे बेहतर अंतर्ज्ञानी नहीं होता है। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? सभी सत्वों में कोई उनके समान या उनसे बेहतर अंतर्ज्ञानी नहीं होता है। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“बहुत पहले पुराने जन्मों में
ज्ञान को आतुर, प्रश्न पुछते।
उपासना कर प्रवज्जितों की, सीखना चाहते,
अर्थपूर्ण बात सुन, अर्थभेद पर गौर करते।

उस कर्म से लाभ हुआ बड़े अन्तर्ज्ञान का।
मनुष्य होकर सूक्ष्म त्वचा का प्राप्त किया।
घोषित किया तब चतुर ज्योतिषियों ने,
‘सूक्ष्म अर्थ तुरंत समझने में दक्ष होगा।

यदि न हो वह ऐसा संन्यासी,
चक्र घुमाकर पृथ्वी पर शासन करेगा।
अर्थलाभी सुशिक्षितों में कोई उसके,
न समान दिखेगा, न बेहतर उससे।

किन्तु जो वह ऐसा प्रवज्जित हो जाए,
संन्यास चाहत में रुचि, स्पष्ट देखे,
विशिष्ट अनुत्तर अन्तर्ज्ञान प्राप्त करे,
महाउज्ज्वल श्रेष्ठ बोधि प्राप्त करे।’”

१३. स्वर्ण त्वचा

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर न क्रोधी रहते थे, न ही बड़े व्याकुल होते थे — बड़ी बात पर भी न क्रोधित होते, न कुपित होते, न विद्रोह करते, न ही विरोध करते थे। न गुस्सा, न द्वेष, और न ही खीज प्रकट करते थे। और, उन्होने बिछाने और ओढ़ने के लिए सूक्ष्म और मृदु सूक्ष्म-अलसी, सूक्ष्म-कपास, सूक्ष्म-रेशम और सूक्ष्म-ऊन का दान किया था।

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे महापुरुष लक्षण का लाभ हुआ। उनकी स्वर्णिम रंगरूप हुआ, उनकी त्वचा चमकीले स्वर्ण की तरह चमकती।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? बिछाने और ओढ़ने के लिए सूक्ष्म और मृदु सूक्ष्म-अलसी, सूक्ष्म-कपास, सूक्ष्म-रेशम और सूक्ष्म-ऊन की प्राप्ति होती है। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? बिछाने और ओढ़ने के लिए सूक्ष्म और मृदु सूक्ष्म-अलसी, सूक्ष्म-कपास, सूक्ष्म-रेशम और सूक्ष्म-ऊन की प्राप्ति होती है। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“क्रोधहीनता का अधिष्ठान कर,
सूक्ष्म कोमल वस्त्रों के दान को।
बहुत दिया पहले के जन्मों में,
जैसे वर्षा कराए सुर महाभूमि पर।

वैसा कर के च्युत हो स्वर्ग गए,
उपजे सुकृत्य-फलों का अनुभव किया।
यहाँ रूप है स्वर्णिम कनक-सा,
सुरों में सर्वश्रेष्ठ इन्द्र जैसा।

वह नर यदि अप्रवज्जित गृहस्थ रहे,
महती पृथ्वी को जीतकर शासन करे।
सप्तरत्नों के साथ अत्याधिक वस्त्रों को,
साफ निर्मल सूक्ष्म त्वचा भी प्राप्त करे।

लाभी हो बिछाने-ओढ़ने के सुंदर वस्त्रों का,
यदि बेघर होकर संन्यास जीवन ले।
अनुभव करता पूर्वकृत्यों के फलों का,
क्योंकि किए का लोप नहीं होता।’”

१४. कोषिय पुरुषेन्द्रिय

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर चिरकाल से खोए, चिरकाल से बिछड़े हुए रिश्तेदारों, मित्रों, प्रेम करने वालों, और साथियों का मिलन कराया। उन्होने माँ को पुत्र से मिलाया, पुत्र को माँ से मिलाया। पिता को पुत्र से मिलाया, पुत्र को पिता से मिलाया। भाई को भाई से मिलाया, भाई को बहन से मिलाया। बहन को भाई से मिलाया, बहन को बहन से मिलाया। और उन्हें एक साथ लाकर बहुत प्रसन्न हुआ।

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे महापुरुष लक्षण का लाभ हुआ। उनकी कोषिय [=चमड़ी से ढकी] पुरुषेन्द्रिय हुई।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? उसके बहुत पुत्र होते हैं, एक हजार से अधिक, जो सभी शूर, वीर, शत्रुओं की सेना की धज्जियाँ उड़ाने वाले होते हैं। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? उनके बहुत पुत्र [=श्रावक] होते हैं, कई हजार से अधिक, जो सभी शूर, वीर, शत्रुओं की सेना की धज्जियाँ उड़ाने वाले होते हैं। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“बहुत पहले पुराने जन्मों में,
चिरकाल से खोए, चिरकाल से बिछड़े हुए,
रिशतेदारों, प्रेम करने वालों, साथियों को मिलाता,
उन्हें एक कर अनुमोदित होता।

तब उन कर्मों से दिव्य स्वर्ग गए,
सुख और क्रीडा रत अनुभव किए।
वहाँ से च्युत अब यहाँ लौट आए,
पुरुषेन्द्रिय अब चमड़ी से ढकी है।

ऐसे उसके पुत्र बहुत होते हैं,
एक हजार से भी अधिक वंशज हो।
शूर, वीर, शत्रुओं की धज्जियाँ उड़ाते हैं,
गृहस्थ की प्रीति, प्रिय बोलनेवाले हो।

उससे भी अधिक प्रवज्जित होकर,
आज्ञाकारी पुत्र कई हजार हो।
चाहे गृहस्थी रहे या संन्यासी हो,
यह लक्षण इसी बात का द्योतक हो।’”

१५-१६. परिमंडल और घुटने छूना

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर बड़ी जनता के इकट्ठा होने पर उनमें समानताएँ पहचानते, और उनमें विशिष्टताएँ पहचानते। वे प्रत्येक व्यक्ति को जान लेते और उन व्यक्ति-व्यक्ति की विशेषताएँ भी जान लेते। ‘यह व्यक्ति इसके योग्य है, वह व्यक्ति उसके योग्य है’, इस तरह व्यक्ति-व्यक्ति की विशेषताएँ जानते थे।

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे दो महापुरुष लक्षणों का लाभ हुआ। वटवृक्ष-परिमंडल जैसे होते है [=जितनी शरीर की ऊँचाई उतनी ही [हाथ फैलाने पर] चौड़ाई होती है, जितनी शरीर की चौड़ाई उतनी ही लंबाई होती है।] और बिना झुके सीधा खड़ा होने पर भी हथेलियाँ घुटनों को छूती हैं।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? वह संपत्तिशाली, महाधनी, महाभोगशाली होता है, बहुत स्वर्ण, चाँदी का स्वामी, विशाल वित्तमुद्राकोष का धारक, बहुत धन-धान्य सामग्री का मालिक, परिपूर्ण भरे कोष और भंडारों का स्वामी। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? वे संपत्तिशाली, महाधनी, महाभोगशाली होते है। उनकी संपत्ति इस प्रकार की होती है, श्रद्धा-संपत्ति, शील-संपत्ति, लज्जा-संपत्ति, संकोच-संपत्ति, श्रुत-संपत्ति, त्याग-संपत्ति, और प्रज्ञा-संपत्ति। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“तुलना, विश्लेषण चिंतन कर के,
इकट्ठा हुई बड़ी भीड़ को जाँचते,
‘यह योग्य है इसके-इसके।’
व्यक्ति-विशेषता में भेद करते।

अब खड़ा होकर बिना झुके,
दोनों हथेलियों से घुटने छूते।
हुए विराट वृक्ष-परिमंडल जैसे,
सदाचार के बचे कर्म-फल से।

लोगों के बहुत से विविध निमित्त,
लक्षण बताते अतिनिपुण विशेषज्ञ ।
‘बहुत से विविध गृहस्थ-योग्य गुण,
प्राप्त होंगे तरुण शिशु कुमार को।’

यहाँ राजा होकर कामभोगियों का,
गृहस्थ-योग्य भोग बहुत होते हैं।
किन्तु त्याग दे जो सब कामभोग को,
अनुत्तर उत्तम संपत्ति पाते है।”

१७-१९. सिंह जैसी ऊपरी काया इत्यादि

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर बहुजनों की अर्थकांक्षी [=भलाई चाहने वाला], हितकांक्षी, सुखकांक्षी, मंगलकांक्षी थे, [सोचते हुए,] ‘कैसे इनकी श्रद्धा बढ़े, शील बढ़े, श्रुत [=धार्मिक ज्ञान] बढ़े, त्याग बढ़े, धर्म बढ़े, प्रज्ञा बढ़े, धन-धान्य बढ़े, खेत और जमीन-जायदाद बढ़े, द्विपाद-चतुर्पाद [पशुप्राणी] बढ़े, संतान और पत्नियाँ बढ़े, दास, नौकर, कर्मचारी बढ़े, रिश्तेदार बढ़े, मित्र बढ़े, बंधुभाव बढ़े।’

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे तीन महापुरुष लक्षणों का लाभ हुआ। उनकी ऊपरी काया [=गला, छाती इत्यादि] सिंह जैसी हुई, कंधे भरे हुए हुए, और धड़ बेलनाकार हुआ।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? अपरिहानी-स्वभाव के होते है। न कभी उनके धन-धान्य की हानि होती है, न कभी खेत और जमीन-जायदाद की हानि होती है, न कभी द्विपाद-चतुर्पाद [पशुप्राणी] की हानि होती है, न कभी संतान और पत्नियों की हानि होती है, न कभी दास, नौकर, कर्मचारियों की हानि होती है, न कभी रिश्तेदारों की हानि होती है, न कभी मित्रों और बंधुओं की हानि होती है। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? अपरिहानी-स्वभाव के होते है। न कभी उनके श्रद्धा की, न शील की, न श्रुत की, न त्याग की, न प्रज्ञा की हानि होती है। सभी प्रकार के सम्पत्तियों में से किसी की हानि नहीं होती। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“श्रद्धा, शील, श्रुत, बुद्धि,
त्याग, धर्म, बहुत भलाइयाँ,
धन-धान्य और खेत-खलिहान,
संतान, पत्नियाँ, और पशु,
रिश्तेदार, मित्र, बंधुगण,
बल से, सौंदर्य और सुख दोनों,
पराए की कैसे न हानि हो’ — इच्छा करता,
उनकी भलाई की आकांक्षा करता।

सिंह जैसी ऊपरी-काया सुडौल,
कंधे भरे हुए, धड़ बेलनाकार।
पहले के अच्छे-कर्म को कर,
पूर्व-निमित्त दिखे, न हानि हो।

गृहस्थ होने पर धन-धन्य बढ़े,
संतान, पत्नी, और पशु भी।
धनत्यागी प्रवज्जित हो जाने पर,
अपरिहान-धर्म अनुत्तर बोधि प्राप्त हो।’”

२०. शिराओं वाली स्वाद कलिकाएँ

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर जीवों को प्रताड़ित नहीं किया, न हाथ से, न पत्थर से, न डंडे से, न ही शस्त्र से।

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे महापुरुष लक्षण का लाभ हुआ। उनकी [जीभ पर] शिराओं वाली स्वाद कलिकाएँ [रस-वाहिनी] हुई। उभरी हुई स्वाद कलिकाएँ गले से लेकर समान-रूप से फैली होती है।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? वह निरोगी और स्वस्थ बने रहते है, पाचन-शक्ति भी सम बनी रहती है, न बहुत शीतल न बहुत उष्ण। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? निरोगी और स्वस्थ बने रहते है, पाचन-शक्ति भी सम बनी रहती है, न बहुत शीतल न बहुत उष्ण, साधना के अनुकूल मध्यम। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“न हाथ से, न पत्थर से, न डंडे से,
न शस्त्र से, पीटकर न वध करे।
न गुलाम करे, न धमकी से,
जनता में किसी को न चोट पहुँचाए।

उस से सद्गति होकर प्रसन्न हुए,
सुख-फल प्राप्त कर सुखी हुए।
रस-वाहिनी उभरी हुई, सुडौल,
यहाँ प्राप्त हुई शिराएँ वाली स्वाद-कलिकाएँ।

इसलिए अतिनिपुण ज्योतिषी कहे,
‘इस नर को बहुत सुख प्राप्त होगा,
गृहस्थ रहे या प्रवज्जित हो जाए,
यह लक्षण इसी बात का द्योतक हो।’”

२१-२२. नीली आँखें, गो-पलकें

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर [किसी से बात करते हुए] न घूरते, न तिरछी नजर से देखते, न आँखें ही फेरते। बल्कि सीधे होकर, सीधे मन से, बहुजनों को प्रिय नजर से देखते थे।

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे दो महापुरुष लक्षणों का लाभ हुआ। नीली आँखें हुई, और गाय-जैसी [लंबी] पलकें हुई।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? बहुजन उसे प्रिय नजर से देखते हैं। वह सबका प्रिय और पसंदीदा होता है — ब्राह्मणों और गृहस्थों का, निगम और देहातों की प्रजा का, वित्त-महामंत्री का , सेनापतियों का, द्वारपाल का, परिषद के मंत्रीगण और सलाहकारों का, अधीनस्थ राजाओं और भोगी राजकुमारों का। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? बहुजन उन्हे प्रिय नजर से देखते हैं। वे सबके प्रिय और पसंदीदा होते है — भिक्षुओं और भिक्षुणीयों के, उपासक और उपासिकाओं के, देवताओं और मनुष्यों के, असुरों, नागों और गंधब्बों के। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“न घूरते, न तिरछा देखते,
न ही अपनी आँखें फेरते,
सीधे हो, सीधे मन से,
बहुजनों को प्रिय नजर से देखते।

सद्गति होकर फल-विपाक को,
अनुभव किया, प्रमुदित हुए।
यहाँ उनकी गो-पलकें हुई,
नेत्र नीले, सुदर्शनीय हुए।

निपुण अभियोगी [=ज्योतिषी],
लक्षणों देखने में चतुर अनेक,
आँखों के सूक्ष्म-विशेषज्ञ मानव [बताए],
‘लोगों के लिए होंगे प्रिय दर्शनीय।

गृहस्थ रहे तो प्रिय दर्शनीय होंगे,
बहुजनों के अत्यंत प्रिय होंगे,
किन्तु गृहस्थी छोड़ श्रमण बने तो,
बहुतों के प्रिय, शोक नाशक होंगे।’”

२३. सिर पगड़ी जैसा उभरा

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर कुशल-धर्मों करने में — जैसे, काया से सदाचार, वाणी से सदाचार, मन से सदाचार, दान और संविभाग, शील अंगीकार करना, उपोसथ व्रत धारण करना, माता की सेवा, पिता की सेवा, श्रमणों की सेवा, ब्राह्मणों की सेवा, कुल-परिवार के ज्येष्ठ लोगों का सम्मान — और ऐसे ही अन्य ऊँचे कुशल-धर्म करने में बहुजनों के अगुआ, बहुजनों के प्रधान थे।

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे महापुरुष लक्षण का लाभ हुआ। उनका सिर पगड़ी जैसा उभरा।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? उसके बहुत अनुयायी होते हैं, जैसे ब्राह्मण और गृहस्थ, निगम और देहातों की प्रजा, वित्त-महामंत्री, सेनापति, द्वारपाल, परिषद के मंत्रीगण और सलाहकार, अधीनस्थ राजा और भोगी राजकुमार। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? उनके बहुत अनुयायी होते हैं, जैसे भिक्षुगण, भिक्षुणियाँ, उपासकगण, उपासिकाएँ, देवतागण, मानव, असुर, नाग और गंधब्ब। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“अगुआ थे सदाचारियों के,
धर्मानुसार धर्मचर्या में रत रहते।
अनुयायी उनके बहुत हुए,
स्वर्ग में पुण्यफल अनुभव किए।

सदाचार के फल अनुभव कर,
सिर पर पगड़ी जैसा मुकुट पाया।
संकेत-विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की,
‘बहुजनों का ये अगुआ होंगे।

यहाँ चढ़ावा चढ़ाते मानवों में,
पहले उसके पास ले जाते हैं।
यदि बने क्षत्रिय जमीनदार,
बहुजनों से सेवा पाता है।

किन्तु यदि वह प्रवज्जित हो,
धर्म-शिक्षा में प्रवीण होता है।
उसके अनुशासन-गुण में रत हो,
बहुजन अनुयायी बनते हैं।’”

२४-२५. एकेकलोमो ऊर्णा

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहते थे — सत्यवादी, सत्य के पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद थे, दुनिया को [बातों से] ठगते नहीं थे।

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे दो महापुरुष लक्षणों का लाभ हुआ। उनके एक-एक [रोमछिद्र में केवल एक-एक] रोम उगते हैं, और भौहों के बीच श्वेत और मृदु कपास के जैसे बाल [=ऊर्णा] उगती है।

उन लक्षणों से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? उसके बहुजन करीबी होते हैं, जैसे ब्राह्मण और गृहस्थ, निगम और देहातों की प्रजा, वित्त-महामंत्री, सेनापति, द्वारपाल, परिषद के मंत्रीगण और सलाहकार, अधीनस्थ राजा और भोगी राजकुमार। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? उनके बहुजन करीबी होते हैं, जैसे भिक्षुगण, भिक्षुणियाँ, उपासकगण, उपासिकाएँ, देवतागण, मानव, असुर, नाग और गंधब्ब। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“पहले जन्मों में सत्य के प्रतिज्ञ,
झूठ त्याग, दोहरी बात न करते।
न किसी को शब्दों से ठगते।
जो सत्य तथ्य हो वही बोलते।

इतना श्वेत जैसा मृदु कपास हो,
ऊर्णा उगती है बीच भौहों के।
कभी न दो रोम, बस एक उगे,
उनके एक-एक रोमछिद्रों में।

लक्षणों में जो विशेषज्ञ थे अनेक,
कह दिया उन चतुर ज्योतिषियों ने,
‘ऊर्णा और रोम जिसके सुंदर ऐसे,
बहुजन होंगे बहुत करीबी उसके।

गृहस्थी होकर भी जनता करीबी,
होगी उसके पुराने कर्मों से,
किन्तु अनुत्तर प्रवज्जित जो हो जाए,
जनता बुद्ध के पीछे अनुवर्तन करे।’”

२६-२७. चालीस अविरल दाँत

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर विभाजित करने वाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहते थे। यहाँ से सुनकर वहाँ नहीं बताते, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ से सुनकर यहाँ नहीं बताते, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वे बटे हुए लोगों का मेल कराते, साथ रहते लोगों को जोड़ते, एकता चाहते, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होते थे; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलते थे।

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे दो महापुरुष लक्षणों का लाभ हुआ। उनके चालीस दाँत हुए, और अविरल [=बिना गैप के] दाँत हुए।

उन लक्षणों से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? उनकी अभेद्य-परिषद होती है, दरबार में फूट नहीं पड़ती। चाहे ब्राह्मण और गृहस्थ हो, निगम और देहातों की प्रजा हो, वित्त-महामंत्री, सेनापति, द्वारपाल हो, परिषद के मंत्रीगण और सलाहकार हो, अधीनस्थ राजा या भोगी राजकुमार हो। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? उनकी अभेद्य-परिषद होती है, परिषद में फूट नहीं पड़ती। चाहे भिक्षुगण, भिक्षुणियाँ हो, उपासकगण, उपासिकाएँ हो, देवतागण, मानव, असुर, नाग और गंधब्ब हो। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“न बोलते वे ऐसी बात, एकता तोड़ती जो,
या विवादास्पद हो, फूट बढ़ाती जो,
या अकृत्यकारी हो, कलह बढ़ाती जो,
साथियों में भेद पड़े, वे ऐसी बात न बोलते।

बोलते भली बात वे, अविवाद [=सामंजस्यता] बढ़ाती जो,
बटें हुए को साथ लाती बात हो,
जन-कलह खत्म कर, जोड़ती बात हो,
तब एकता में आनंदित प्रमुदित होते वो।

सद्गति में उन फल-विपाकों को
अनुभव कर मुदित हुए वहाँ।
हुए दाँत अविरल चिपके यहाँ,
सु-गठित चालीस मुख में खड़े।

यदि वे क्षत्रिय जमीनदार हुए,
अभेद्य परिषद उनकी होती है,
जो श्रमण हो धुलरहित, निर्मल,
परिषद अचल पीछे चलती है।

२८-२९. लंबी जीभ और ब्रह्मस्वर

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहते थे। वह ऐसे मीठे बोल बोलते थे — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे।

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे दो महापुरुष लक्षणों का लाभ हुआ। उनकी जीभ लंबी हुई, और उनका ब्रह्मस्वर [=मधुर आवाज] हुआ, कोयल पक्षी की तरह।

उन लक्षणों से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? उनकी वाणी बहुत अनुकूल [=स्वीकार्य, मधुर] होती है। उनकी बातें सभी को अनुकूल लगती है, चाहे ब्राह्मण और गृहस्थ हो, निगम और देहातों की प्रजा हो, वित्त-महामंत्री, सेनापति, द्वारपाल हो, परिषद के मंत्रीगण और सलाहकार हो, अधीनस्थ राजा या भोगी राजकुमार हो। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? उनकी वाणी बहुत अनुकूल होती है। उनकी बातें सभी को अनुकूल लगती है, चाहे भिक्षुगण, भिक्षुणियाँ हो, उपासकगण, उपासिकाएँ हो, देवतागण, मानव, असुर, नाग और गंधब्ब हो। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“आक्रोशपूर्ण, कर्कश, झगड़ालु,
पीड़ादायक, बहुजनों को जो कुचलती हो,
ऐसी कटु तीखी वाणी कभी न बोलते,
बोलते वे मधुर, विनम्र, कल्याणकारी ही।

जो प्रिय लगती मन को, जाती हो सीधी हृदय में,
सुख देती जो कानों को, ऐसी वाणी बोलते।
भले वचन के फलों का अनुभव किया,
लुत्फ उठाया पुण्यफलों का स्वर्ग में।

उस सदाचार फलों का अनुभव कर,
यहाँ लौटकर ब्रह्मस्वर को प्राप्त किया।
लंबी और चौड़ी जीभ हुई,
अनुकूल वाणी वचन हुए।

गृहस्थ होकर बोल सौभाग्यशाली हुए,
किन्तु यदि वह प्रवज्जित हो जाए,
अनुकूल वाणी से अक्सर बहुजन,
उनके भले वचनों से प्रेरित होते हैं।

३०. सिंह जैसा जबड़ा

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहते थे। वे समयानुकूल बोलते, तथ्यात्मक बोलते, अर्थपूर्ण बोलते, धर्मानुकूल बोलते, विनयानुकूल बोलते; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वे बोलते थे — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ।

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए… और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे महापुरुष लक्षण का लाभ हुआ। उनका सिंह जैसा जबड़ा हुआ।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है… राजा होने पर क्या पाता है? उसका विध्वंस कोई भी मानवीय शत्रु या दुश्मन नहीं कर सकता। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? उनका विध्वंस कोई भी शत्रु या दुश्मन नहीं कर सकता — चाहे आंतरिक हो या बाहरी, राग हो, या द्वेष हो, या भ्रम हो, या श्रमण हो, या ब्राह्मण हो, या देवता हो, या मार हो, या ब्रह्मा हो, या इस लोक में कोई भी हो। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“न बकवास बोलते न मूर्खतापूर्ण,
अ-संयत वचन उनके न कभी होते।
अ-हितकारक बातें खत्म कर वे,
बहुजनों के हित-सुखकारक बोलते।

ऐसा कर च्युत होकर स्वर्ग में उपजे,
सुकृत्यों के फल विपाक का अनुभव किया,
वहाँ से च्युत होकर यहाँ लौटे,
पशुओं में श्रेष्ठ जैसा जबड़ा पाया।

राजा होकर जिसका विध्वंस हो नहीं,
मानवों में अजेय, मानव-शासक, महाशक्तिशाली
तैतीस देवलोक में सर्व श्रेष्ठ के समान,
वे सुरों में सर्वश्रेष्ठ इन्द्र के समान हुए।

यदि वह ऐसे शरीर का बनता हो,
वह दिशा, उपदिशा, विदिशाओं के
गंधब्ब, असुर, यक्ष, या राक्षस हो,
या सुर भी विध्वंस न कर सके।

३१-३२. सम और शुभ्र दाँत

भिक्षुओं, तथागत ने अपने पहले के कुछ पूर्वजन्मों में, पूर्व-भव में, पूर्व-निवासों में मनुष्य होकर मिथ्या जीविका त्यागकर सम्यक जीविका से जीवन यापन करते थे। जैसे, वे भ्रामक तराज़ू, नाप या मानदंडों द्वारा ठगना, घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट, हाथ-पैर काटने, पीटने, बाँधने, लूट, डाका, या हिंसा करने से विरत रहते थे।

उस तरह के कर्मों को कर, संचय कर, ढ़ेर खड़ा कर, विपुल बना कर, वे मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुए। वहाँ वे अन्य देवताओं की तुलना में दस बातों से बेहतर हुए — दिव्य आयु, दिव्य सौंदर्य, दिव्य सुख, दिव्य यश, दिव्य प्रभुत्व, दिव्य रूप, दिव्य आवाज, दिव्य गंध, दिव्य स्वाद, और दिव्य संस्पर्श। और, वहाँ से च्युत होकर यहाँ आने पर, उन्हे दो महापुरुष लक्षणों का लाभ हुआ। उनके दाँत सम और श्वेत-शुभ्र हुए।

इस लक्षण से युक्त होकर यदि वह गृहस्थी बना रहे तो धार्मिक धर्मराज चक्रवर्ती सम्राट बनता है, चार दिशाओं का विजेता, दूर-दराज के इलाकों तक स्थिर शासन, और सप्त रत्नों से सम्पन्न। उसके लिए सात रत्न प्रकट होते हैं — चक्ररत्न, हाथीरत्न, अश्वरत्न, मणिरत्न, स्त्रीरत्न, गृहस्थरत्न, और सातवाँ, सलाहकाररत्न। उसे एक हजार से अधिक पुत्र होते हैं — सभी शूर, वीर, शत्रुओं की सेना की धज्जियाँ उड़ाने वाले। और वह समुद्र तक भूमि पर, बिना दण्ड और शस्त्र के, केवल धर्म से जीत कर शासन करता है। राजा होने पर क्या पाता है? उसका परिवार पवित्र होता है। उसका परिवार, चाहे ब्राह्मण और गृहस्थ हो, निगम और देहातों की प्रजा हो, वित्त-महामंत्री, सेनापति, द्वारपाल हो, परिषद के मंत्रीगण और सलाहकार हो, अधीनस्थ राजा या भोगी राजकुमार हो, पवित्र होता है। राजा होने पर यह पाता है।

और, यदि वह घर से बेघर होकर संन्यास ग्रहण करता है, तो इस संसार को बेपर्दा कर अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बनता है। बुद्ध होने पर क्या पाते है? उनका परिवार पवित्र होता है। उनके परिवार, चाहे भिक्षुगण, भिक्षुणियाँ हो, उपासकगण, उपासिकाएँ हो, देवतागण, मानव, असुर, नाग और गंधब्ब हो, पवित्र होता है। बुद्ध होने पर यह पाते है।

भगवान ने इस अर्थ से कहा। उस पर ऐसा कहा जाता है:

“वे मिथ्या जीविका से विरत रहकर,
जनहित में सम, पवित्र, धार्मिक वृत्ति धारण किया,
अहितकारक को खत्म कर के,
बहुजनों के हित-सुख में आचरण किया।

उस नर ने फिर स्वर्ग में सुखफलों को अनुभव किया,
निपुण, विद्वानों द्वारा प्रशंसित कार्य कर,
तैतीस देवताओं में सर्वश्रेष्ठ के समान,
रतिक्रीडा में लिप्त हो, आनंदित रहते है।

फिर वहाँ से च्युत होकर भी,
मनुष्यत्व पाकर शेष बचे कर्म जो,
प्राप्त किया उन सुकृत्य फलविपाकों से,
सम, चमकते, शुक्ल दाँतों को ।

लक्षणों को देखने में चतुर अनेक,
बताते निपुण द्वारा सम्मत मानव,
परिवारगण पवित्र उनका होता,
द्विज [=दो-बार पैदा होने वाले] सम, शुक्ल,
स्वच्छ दाँत शोभित मुख में होते हैं।

राजा होने पर बहुजनों के,
पवित्र बड़े परिवार अनुशासन करते,
न जबरन न जन-पीड़ा देकर,
बहुजनों के हित-सुख में आचरण करते।

किन्तु यदि निष्पाप प्रवज्जित हो,
राग छांटा, पर्दा उठा, श्रमण हो जाए,
तनाव और थकान से विगत होकर,
इस लोक और परलोक को देखता है।

जो गृहस्थ या प्रवज्जित उसकी सुने,
निंदनीय अपवित्रता पाप धो देते हैं।
उससे घिर पवित्र लोग त्यागते हैं,
मल, कील, पाप और क्लेशों को।

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

लक्खण सुत्त समाप्त।


  1. अन्य धर्मों में कई लोग इस तरह के कुशल कर्म करते ही हैं। किन्तु, यहाँ ध्यान देने योग्य शब्द हैं, “दृढ़ता के साथ” और “कड़ाई के साथ”। ↩︎

  2. भगवान ने लोगों को अपने साथ जोड़ने के चार अद्भुत तरीके बताए हैं, जो विभिन्न सूत्रों में उल्लेखित हैं। यह तरीके बहुत प्राचीन और इतने अत्यंत प्रभावशाली हैं कि उनका पालन अनेक गृहस्थ उपासक भी करते थे। इन चार तरीकों के माध्यम से, सभी प्रकार के लोगों को अपना मित्र बनाया जा सकता हैं। मुझे लगता है कि ये चार तरीके अलग-अलग धातुओं पर आधारित व्यक्तियों पर भी प्रभावी रूप से लागू होते हैं। जैसे, वायु धातु-विशेष व्यक्तियों को उपहार या दान देकर मित्र बनाना आसान होता है। जल धातु-विशेष लोगों को प्रिय और मधुर शब्दों से अपने साथ जोड़ा जा सकता है। पृथ्वी धातु-विशेष व्यक्तियों से परोपकार करके उन्हें अपने निकट लाया जा सकता है, जबकि अग्नि धातु-विशेष लोगों को समानता और समान बर्ताव से मित्र बनाया जाता है। ↩︎

Pali

द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि

१९८. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति। ‘‘भद्दन्ते’’ति [भदन्तेति (सी॰ स्या॰ पी॰)] ते भिक्खू भगवतो पच्‍चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –

१९९. ‘‘द्वत्तिंसिमानि, भिक्खवे, महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणानि, येहि समन्‍नागतस्स महापुरिसस्स द्वेव गतियो भवन्ति अनञ्‍ञा। सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्‍नागतो। तस्सिमानि सत्त रतनानि भवन्ति; सेय्यथिदं, चक्‍करतनं हत्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं परिणायकरतनमेव सत्तमं। परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना। सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसति। सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवट्टच्छदो [विवटच्छदो (स्या॰ क॰), विवत्तच्छदो (सी॰ पी॰)]।

२००. ‘‘कतमानि च तानि, भिक्खवे, द्वत्तिंस महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणानि, येहि समन्‍नागतस्स महापुरिसस्स द्वेव गतियो भवन्ति अनञ्‍ञा? सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवट्टच्छदो।

‘‘इध, भिक्खवे, महापुरिसो सुप्पतिट्ठितपादो होति। यम्पि, भिक्खवे, महापुरिसो सुप्पतिट्ठितपादो होति, इदम्पि, भिक्खवे, महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, महापुरिसस्स हेट्ठापादतलेसु चक्‍कानि जातानि होन्ति सहस्सारानि सनेमिकानि सनाभिकानि सब्बाकारपरिपूरानि [सब्बाकारपरिपूरानि सुविभत्तन्तरानि (सी॰ पी॰)]। यम्पि, भिक्खवे, महापुरिसस्स हेट्ठापादतलेसु चक्‍कानि जातानि होन्ति सहस्सारानि सनेमिकानि सनाभिकानि सब्बाकारपरिपूरानि, इदम्पि, भिक्खवे, महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, महापुरिसो आयतपण्हि होति…पे॰… दीघङ्गुलि होति… मुदुतलुनहत्थपादो होति… जालहत्थपादो होति… उस्सङ्खपादो होति… एणिजङ्घो होति… ठितकोव अनोनमन्तो उभोहि पाणितलेहि जण्णुकानि परिमसति परिमज्‍जति… कोसोहितवत्थगुय्हो होति… सुवण्णवण्णो होति कञ्‍चनसन्‍निभत्तचो… सुखुमच्छवि होति, सुखुमत्ता छविया रजोजल्‍लं काये न उपलिम्पति… एकेकलोमो होति, एकेकानि लोमानि लोमकूपेसु जातानि… उद्धग्गलोमो होति, उद्धग्गानि लोमानि जातानि नीलानि अञ्‍जनवण्णानि कुण्डलावट्टानि [कुण्डलावत्तानि (बहूसु)] दक्खिणावट्टकजातानि [दक्खिणावत्तकजातानि (सी॰ स्या॰ पी॰)] … ब्रह्मुजुगत्तो होति… सत्तुस्सदो होति… सीहपुब्बद्धकायो होति… चितन्तरंसो [पितन्तरंसो (स्या॰)] होति… निग्रोधपरिमण्डलो होति, यावतक्‍वस्स कायो तावतक्‍वस्स ब्यामो यावतक्‍वस्स ब्यामो तावतक्‍वस्स कायो… समवट्टक्खन्धो होति… रसग्गसग्गी होति… सीहहनु होति… चत्तालीसदन्तो होति … समदन्तो होति… अविरळदन्तो होति… सुसुक्‍कदाठो होति… पहूतजिव्हो होति… ब्रह्मस्सरो होति करवीकभाणी… अभिनीलनेत्तो होति… गोपखुमो होति… उण्णा भमुकन्तरे जाता होति, ओदाता मुदुतूलसन्‍निभा। यम्पि, भिक्खवे, महापुरिसस्स उण्णा भमुकन्तरे जाता होति, ओदाता मुदुतूलसन्‍निभा, इदम्पि, भिक्खवे, महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति।

‘‘पुन चपरं, भिक्खवे, महापुरिसो उण्हीससीसो होति। यम्पि, भिक्खवे, महापुरिसो उण्हीससीसो होति, इदम्पि, भिक्खवे, महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति।

‘‘इमानि खो तानि, भिक्खवे, द्वत्तिंस महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणानि, येहि समन्‍नागतस्स महापुरिसस्स द्वेव गतियो भवन्ति अनञ्‍ञा। सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवट्टच्छदो।

‘‘इमानि खो, भिक्खवे, द्वत्तिंस महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणानि बाहिरकापि इसयो धारेन्ति, नो च खो ते जानन्ति – ‘इमस्स कम्मस्स कटत्ता इदं लक्खणं पटिलभती’ति।

(१) सुप्पतिट्ठितपादतालक्खणं

२०१. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो दळ्हसमादानो अहोसि कुसलेसु धम्मेसु, अवत्थितसमादानो कायसुचरिते वचीसुचरिते मनोसुचरिते दानसंविभागे सीलसमादाने उपोसथुपवासे मत्तेय्यताय पेत्तेय्यताय सामञ्‍ञताय ब्रह्मञ्‍ञताय कुले जेट्ठापचायिताय अञ्‍ञतरञ्‍ञतरेसु च अधिकुसलेसु धम्मेसु। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता उपचितत्ता उस्सन्‍नत्ता विपुलत्ता कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्‍जति। सो तत्थ अञ्‍ञे देवे दसहि ठानेहि अधिग्गण्हाति दिब्बेन आयुना दिब्बेन वण्णेन दिब्बेन सुखेन दिब्बेन यसेन दिब्बेन आधिपतेय्येन दिब्बेहि रूपेहि दिब्बेहि सद्देहि दिब्बेहि गन्धेहि दिब्बेहि रसेहि दिब्बेहि फोट्ठब्बेहि। सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति। सुप्पतिट्ठितपादो होति। समं पादं भूमियं निक्खिपति, समं उद्धरति, समं सब्बावन्तेहि पादतलेहि भूमिं फुसति।

२०२. ‘‘सो तेन लक्खणेन समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्‍नागतो। तस्सिमानि सत्त रतनानि भवन्ति; सेय्यथिदं, चक्‍करतनं हत्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं परिणायकरतनमेव सत्तमं। परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना। सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अखिलमनिमित्तमकण्टकं इद्धं फीतं खेमं सिवं निरब्बुदं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसति। राजा समानो किं लभति? अक्खम्भियो [अविक्खम्भियो (सी॰ पी॰)] होति केनचि मनुस्सभूतेन पच्‍चत्थिकेन पच्‍चामित्तेन। राजा समानो इदं लभति। ‘‘सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवट्टच्छदो। बुद्धो समानो किं लभति? अक्खम्भियो होति अब्भन्तरेहि वा बाहिरेहि वा पच्‍चत्थिकेहि पच्‍चामित्तेहि रागेन वा दोसेन वा मोहेन वा समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मिं। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२०३. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘सच्‍चे च धम्मे च दमे च संयमे,

सोचेय्यसीलालयुपोसथेसु च।

दाने अहिंसाय असाहसे रतो,

दळ्हं समादाय समत्तमाचरि [समन्तमाचरि (स्या॰ क॰)]॥

‘‘सो तेन कम्मेन दिवं समक्‍कमि [अपक्‍कमि (स्या॰ क॰)],

सुखञ्‍च खिड्डारतियो च अन्वभि [अंन्वभि (टीका)]।

ततो चवित्वा पुनरागतो इध,

समेहि पादेहि फुसी वसुन्धरं॥

‘‘ब्याकंसु वेय्यञ्‍जनिका समागता,

समप्पतिट्ठस्स न होति खम्भना।

गिहिस्स वा पब्बजितस्स वा पुन [पन (स्या॰)],

तं लक्खणं भवति तदत्थजोतकं॥

‘‘अक्खम्भियो होति अगारमावसं,

पराभिभू सत्तुभि नप्पमद्दनो।

मनुस्सभूतेनिध होति केनचि,

अक्खम्भियो तस्स फलेन कम्मुनो॥

‘‘सचे च पब्बज्‍जमुपेति तादिसो,

नेक्खम्मछन्दाभिरतो विचक्खणो।

अग्गो न सो गच्छति जातु खम्भनं,

नरुत्तमो एस हि तस्स धम्मता’’ति॥

(२) पादतलचक्‍कलक्खणं

२०४. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो बहुजनस्स सुखावहो अहोसि, उब्बेगउत्तासभयं अपनुदिता, धम्मिकञ्‍च रक्खावरणगुत्तिं संविधाता, सपरिवारञ्‍च दानं अदासि। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता उपचितत्ता उस्सन्‍नत्ता विपुलत्ता कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्‍जति…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति। हेट्ठापादतलेसु चक्‍कानि जातानि होन्ति सहस्सारानि सनेमिकानि सनाभिकानि सब्बाकारपरिपूरानि सुविभत्तन्तरानि।

‘‘सो तेन लक्खणेन समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? महापरिवारो होति; महास्स होन्ति परिवारा ब्राह्मणगहपतिका नेगमजानपदा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका अमच्‍चा पारिसज्‍जा राजानो भोगिया कुमारा। राजा समानो इदं लभति। सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवट्टच्छदो। बुद्धो समानो किं लभति? महापरिवारो होति; महास्स होन्ति परिवारा भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२०५. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘पुरे पुरत्था पुरिमासु जातिसु,

मनुस्सभूतो बहुनं सुखावहो।

उब्भेगउत्तासभयापनूदनो,

गुत्तीसु रक्खावरणेसु उस्सुको॥

‘‘सो तेन कम्मेन दिवं समक्‍कमि,

सुखञ्‍च खिड्डारतियो च अन्वभि।

ततो चवित्वा पुनरागतो इध,

चक्‍कानि पादेसु दुवेसु विन्दति॥

‘‘समन्तनेमीनि सहस्सरानि च,

ब्याकंसु वेय्यञ्‍जनिका समागता।

दिस्वा कुमारं सतपुञ्‍ञलक्खणं,

परिवारवा हेस्सति सत्तुमद्दनो॥

तथा ही चक्‍कानि समन्तनेमिनि,

सचे न पब्बज्‍जमुपेति तादिसो।

वत्तेति चक्‍कं पथविं पसासति,

तस्सानुयन्ताध [तस्सानुयुत्ता इध (सी॰ पी॰), तस्सानुयन्ता इध (स्या॰ क॰)] भवन्ति खत्तिया॥

‘‘महायसं संपरिवारयन्ति नं,

सचे च पब्बज्‍जमुपेति तादिसो।

नेक्खम्मछन्दाभिरतो विचक्खणो,

देवामनुस्सासुरसक्‍करक्खसा [सत्तरक्खसा (क॰) सी॰ स्याअट्ठकथा ओलोकेतब्बा]॥

‘‘गन्धब्बनागा विहगा चतुप्पदा,

अनुत्तरं देवमनुस्सपूजितं।

महायसं संपरिवारयन्ति न’’न्ति॥

(३-५) आयतपण्हितादितिलक्खणं

२०६. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो अहोसि निहितदण्डो निहितसत्थो लज्‍जी दयापन्‍नो, सब्बपाणभूतहितानुकम्पी विहासि। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता उपचितत्ता उस्सन्‍नत्ता विपुलत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि तीणि महापुरिसलक्खणानि पटिलभति। आयतपण्हि च होति, दीघङ्गुलि च ब्रह्मुजुगत्तो च।

‘‘सो तेहि लक्खणेहि समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? दीघायुको होति चिरट्ठितिको, दीघमायुं पालेति, न सक्‍का होति अन्तरा जीविता वोरोपेतुं केनचि मनुस्सभूतेन पच्‍चत्थिकेन पच्‍चामित्तेन। राजा समानो इदं लभति… बुद्धो समानो किं लभति? दीघायुको होति चिरट्ठितिको, दीघमायुं पालेति, न सक्‍का होति अन्तरा जीविता वोरोपेतुं पच्‍चत्थिकेहि पच्‍चामित्तेहि समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मिं। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२०७. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘मारणवधभयत्तनो [मरणवधभयत्तनो (सी॰ पी॰ क॰), मरणवधभयमत्तनो (स्या॰)] विदित्वा,

पटिविरतो परं मारणायहोसि।

तेन सुचरितेन सग्गमगमा [तेन सो सुचरितेन सग्गमगमासि (स्या॰)],

सुकतफलविपाकमनुभोसि॥

‘‘चविय पुनरिधागतो समानो,

पटिलभति इध तीणि लक्खणानि।

भवति विपुलदीघपासण्हिको,

ब्रह्माव सुजु सुभो सुजातगत्तो॥

‘‘सुभुजो सुसु सुसण्ठितो सुजातो,

मुदुतलुनङ्गुलियस्स होन्ति।

दीघा तीभि पुरिसवरग्गलक्खणेहि,

चिरयपनाय [चिरयापनाय (स्या॰)] कुमारमादिसन्ति॥

‘‘भवति यदि गिही चिरं यपेति,

चिरतरं पब्बजति यदि ततो हि।

यापयति च वसिद्धिभावनाय,

इति दीघायुकताय तं निमित्त’’न्ति॥

(६) सत्तुस्सदतालक्खणं

२०८. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो दाता अहोसि पणीतानं रसितानं खादनीयानं भोजनीयानं सायनीयानं लेहनीयानं पानानं। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति, सत्तुस्सदो होति, सत्तस्स उस्सदा होन्ति; उभोसु हत्थेसु उस्सदा होन्ति, उभोसु पादेसु उस्सदा होन्ति, उभोसु अंसकूटेसु उस्सदा होन्ति, खन्धे उस्सदो होति।

‘‘सो तेन लक्खणेन समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? लाभी होति पणीतानं रसितानं खादनीयानं भोजनीयानं सायनीयानं लेहनीयानं पानानं। राजा समानो इदं लभति… बुद्धो समानो किं लभति? लाभी होति पणीतानं रसितानं खादनीयानं भोजनीयानं सायनीयानं लेहनीयानं पानानं। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२०९. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘खज्‍जभोज्‍जमथ लेय्य सायियं,

उत्तमग्गरसदायको अहु।

तेन सो सुचरितेन कम्मुना,

नन्दने चिरमभिप्पमोदति॥

‘‘सत्त चुस्सदे इधाधिगच्छति,

हत्थपादमुदुतञ्‍च विन्दति।

आहु ब्यञ्‍जननिमित्तकोविदा,

खज्‍जभोज्‍जरसलाभिताय नं॥

‘‘यं गिहिस्सपि [न तं गिहिस्सापि (स्या॰)] तदत्थजोतकं,

पब्बज्‍जम्पि च तदाधिगच्छति।

खज्‍जभोज्‍जरसलाभिरुत्तमं,

आहु सब्बगिहिबन्धनच्छिद’’न्ति॥

(७-८) करचरणमुदुजालतालक्खणानि

२१०. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो चतूहि सङ्गहवत्थूहि जनं सङ्गाहको अहोसि – दानेन पेय्यवज्‍जेन [पियवाचेन (स्या॰ क॰)] अत्थचरियाय समानत्तताय। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति। मुदुतलुनहत्थपादो च होति जालहत्थपादो च।

‘‘सो तेहि लक्खणेहि समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? सुसङ्गहितपरिजनो होति, सुसङ्गहितास्स होन्ति ब्राह्मणगहपतिका नेगमजानपदा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका अमच्‍चा पारिसज्‍जा राजानो भोगिया कुमारा। राजा समानो इदं लभति… बुद्धो समानो किं लभति? सुसङ्गहितपरिजनो होति, सुसङ्गहितास्स होन्ति भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२११. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘दानम्पि चत्थचरियतञ्‍च [दानम्पि च अत्थचरियतम्पि च (सी॰ पी॰)],

पियवादितञ्‍च समानत्ततञ्‍च [पियवदतञ्‍च समानछन्दतञ्‍च (सी॰ पी॰)]।

करियचरियसुसङ्गहं बहूनं,

अनवमतेन गुणेन याति सग्गं॥

‘‘चविय पुनरिधागतो समानो,

करचरणमुदुतञ्‍च जालिनो च।

अतिरुचिरसुवग्गुदस्सनेय्यं,

पटिलभति दहरो सुसु कुमारो॥

‘‘भवति परिजनस्सवो विधेय्यो,

महिमं आवसितो सुसङ्गहितो।

पियवदू हितसुखतं जिगीसमानो [जिगिं समानो (सी॰ स्या॰ पी॰)],

अभिरुचितानि गुणानि आचरति॥

‘‘यदि च जहति सब्बकामभोगं,

कथयति धम्मकथं जिनो जनस्स।

वचनपटिकरस्साभिप्पसन्‍ना,

सुत्वान धम्मानुधम्ममाचरन्ती’’ति॥

(९-१०) उस्सङ्खपादउद्धग्गलोमतालक्खणानि

२१२. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो [समानो बहुनो जनस्स (सी॰ पी॰)] अत्थूपसंहितं धम्मूपसंहितं वाचं भासिता अहोसि, बहुजनं निदंसेसि, पाणीनं हितसुखावहो धम्मयागी। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति। उस्सङ्खपादो च होति, उद्धग्गलोमो च।

‘‘सो तेहि लक्खणेहि समन्‍नागतो, सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? अग्गो च होति सेट्ठो च पामोक्खो च उत्तमो च पवरो च कामभोगीनं। राजा समानो इदं लभति… बुद्धो समानो किं लभति? अग्गो च होति सेट्ठो च पामोक्खो च उत्तमो च पवरो च सब्बसत्तानं। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२१३. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘अत्थधम्मसहितं [अत्थधम्मसंहितं (क॰ सी॰ पी॰), अत्थधम्मुपसंहितं (क॰)] पुरे गिरं,

एरयं बहुजनं निदंसयि।

पाणिनं हितसुखावहो अहु,

धम्मयागमयजी [धम्मयागं अस्सजि (क॰)] अमच्छरी॥

‘‘तेन सो सुचरितेन कम्मुना,

सुग्गतिं वजति तत्थ मोदति।

लक्खणानि च दुवे इधागतो,

उत्तमप्पमुखताय [उत्तमसुखताय (स्या॰), उत्तमपमुक्खताय (क॰)] विन्दति॥

‘‘उब्भमुप्पतितलोमवा ससो,

पादगण्ठिरहु साधुसण्ठिता।

मंसलोहिताचिता तचोत्थता,

उपरिचरणसोभना [उपरिजानुसोभना (स्या॰), उपरि च पन सोभना (सी॰ पी॰)] अहु॥

‘‘गेहमावसति चे तथाविधो,

अग्गतं वजति कामभोगिनं।

तेन उत्तरितरो न विज्‍जति,

जम्बुदीपमभिभुय्य इरियति॥

‘‘पब्बजम्पि च अनोमनिक्‍कमो,

अग्गतं वजति सब्बपाणिनं।

तेन उत्तरितरो न विज्‍जति,

सब्बलोकमभिभुय्य विहरती’’ति॥

(११) एणिजङ्घलक्खणं

२१४. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो सक्‍कच्‍चं वाचेता अहोसि सिप्पं वा विज्‍जं वा चरणं वा कम्मं वा – ‘किं तिमे खिप्पं विजानेय्युं, खिप्पं पटिपज्‍जेय्युं, न चिरं किलिस्सेय्यु’’न्ति। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति। एणिजङ्घो होति।

‘‘सो तेन लक्खणेन समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? यानि तानि राजारहानि राजङ्गानि राजूपभोगानि राजानुच्छविकानि तानि खिप्पं पटिलभति। राजा समानो इदं लभति… बुद्धो समानो किं लभति? यानि तानि समणारहानि समणङ्गानि समणूपभोगानि समणानुच्छविकानि, तानि खिप्पं पटिलभति। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२१५. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘सिप्पेसु विज्‍जाचरणेसु कम्मेसु [कम्मसु (सी॰ पी॰)],

कथं विजानेय्युं [विजानेय्य (सी॰ पी॰), विजानेय्यु (स्या॰)] लहुन्ति इच्छति।

यदूपघाताय न होति कस्सचि,

वाचेति खिप्पं न चिरं किलिस्सति॥

‘‘तं कम्मं कत्वा कुसलं सुखुद्रयं [सुखिन्द्रियं (क॰)],

जङ्घा मनुञ्‍ञा लभते सुसण्ठिता।

वट्टा सुजाता अनुपुब्बमुग्गता,

उद्धग्गलोमा सुखुमत्तचोत्थता॥

‘‘एणेय्यजङ्घोति तमाहु पुग्गलं,

सम्पत्तिया खिप्पमिधाहु [खिप्पमिदाहु (?)] लक्खणं।

गेहानुलोमानि यदाभिकङ्खति,

अपब्बजं खिप्पमिधाधिगच्छति [खिप्पमिदाधिगच्छति (?)]॥

‘‘सचे च पब्बज्‍जमुपेति तादिसो,

नेक्खम्मछन्दाभिरतो विचक्खणो।

अनुच्छविकस्स यदानुलोमिकं,

तं विन्दति खिप्पमनोमविक्‍कमो [निक्‍कमो (सी॰ स्या॰ पी॰)]’’ति॥

(१२) सुखुमच्छविलक्खणं

२१६. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो समणं वा ब्राह्मणं वा उपसङ्कमित्वा परिपुच्छिता अहोसि – ‘‘किं, भन्ते, कुसलं, किं अकुसलं, किं सावज्‍जं, किं अनवज्‍जं, किं सेवितब्बं, किं न सेवितब्बं, किं मे करीयमानं दीघरत्तं अहिताय दुक्खाय अस्स, किं वा पन मे करीयमानं दीघरत्तं हिताय सुखाय अस्सा’’ति। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति। सुखुमच्छवि होति, सुखुमत्ता छविया रजोजल्‍लं काये न उपलिम्पति।

‘‘सो तेन लक्खणेन समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? महापञ्‍ञो होति, नास्स होति कोचि पञ्‍ञाय सदिसो वा सेट्ठो वा कामभोगीनं। राजा समानो इदं लभति… बुद्धो समानो किं लभति? महापञ्‍ञो होति पुथुपञ्‍ञो हासपञ्‍ञो [हासुपञ्‍ञो (सी॰ पी॰)] जवनपञ्‍ञो तिक्खपञ्‍ञो निब्बेधिकपञ्‍ञो, नास्स होति कोचि पञ्‍ञाय सदिसो वा सेट्ठो वा सब्बसत्तानं। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२१७. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘पुरे पुरत्था पुरिमासु जातिसु,

अञ्‍ञातुकामो परिपुच्छिता अहु।

सुस्सूसिता पब्बजितं उपासिता,

अत्थन्तरो अत्थकथं निसामयि॥

‘‘पञ्‍ञापटिलाभगतेन [पञ्‍ञापटिलाभकतेन (सी॰ पी॰) टीका ओलोकेतब्बा] कम्मुना,

मनुस्सभूतो सुखुमच्छवी अहु।

ब्याकंसु उप्पादनिमित्तकोविदा,

सुखुमानि अत्थानि अवेच्‍च दक्खिति॥

‘‘सचे न पब्बज्‍जमुपेति तादिसो,

वत्तेति चक्‍कं पथविं पसासति।

अत्थानुसिट्ठीसु परिग्गहेसु च,

न तेन सेय्यो सदिसो च विज्‍जति॥

‘‘सचे च पब्बज्‍जमुपेति तादिसो,

नेक्खम्मछन्दाभिरतो विचक्खणो।

पञ्‍ञाविसिट्ठं लभते अनुत्तरं,

पप्पोति बोधिं वरभूरिमेधसो’’ति॥

(१३) सुवण्णवण्णलक्खणं

२१८. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो अक्‍कोधनो अहोसि अनुपायासबहुलो, बहुम्पि वुत्तो समानो नाभिसज्‍जि न कुप्पि न ब्यापज्‍जि न पतित्थीयि, न कोपञ्‍च दोसञ्‍च अप्पच्‍चयञ्‍च पात्वाकासि। दाता च अहोसि सुखुमानं मुदुकानं अत्थरणानं पावुरणानं [पापुरणानं (सी॰ स्या॰ पी॰)] खोमसुखुमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखुमानं कम्बलसुखुमानं। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता उपचितत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति। सुवण्णवण्णो होति कञ्‍चनसन्‍निभत्तचो।

‘‘सो तेन लक्खणेन समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? लाभी होति सुखुमानं मुदुकानं अत्थरणानं पावुरणानं खोमसुखुमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखुमानं कम्बलसुखुमानं। राजा समानो इदं लभति… बुद्धो समानो किं लभति? लाभी होति सुखुमानं मुदुकानं अत्थरणानं पावुरणानं खोमसुखुमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखुमानं कम्बलसुखुमानं। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२१९. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘अक्‍कोधञ्‍च अधिट्ठहि अदासि [अदासि च (सी॰ पी॰)],

दानञ्‍च वत्थानि सुखुमानि सुच्छवीनि।

पुरिमतरभवे ठितो अभिविस्सजि,

महिमिव सुरो अभिवस्सं॥

‘‘तं कत्वान इतो चुतो दिब्बं,

उपपज्‍जि [उपपज्‍ज (सी॰ पी॰)] सुकतफलविपाकमनुभुत्वा।

कनकतनुसन्‍निभो इधाभिभवति,

सुरवरतरोरिव इन्दो॥

‘‘गेहञ्‍चावसति नरो अपब्बज्‍ज,

मिच्छं महतिमहिं अनुसासति [पसासति (स्या॰)]।

पसय्ह सहिध सत्तरतनं [पसय्ह अभिवसन-वरतरं (सी॰ पी॰)],

पटिलभति विमल [विपुल (स्या॰), विपुलं (सी॰ पी॰)] सुखुमच्छविं सुचिञ्‍च॥

‘‘लाभी अच्छादनवत्थमोक्खपावुरणानं,

भवति यदि अनागारियतं उपेति।

सहितो [सुहित (स्या॰), स हि (सी॰ पी॰)] पुरिमकतफलं अनुभवति,

न भवति कतस्स पनासो’’ति॥

(१४) कोसोहितवत्थगुय्हलक्खणं

२२०. यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो चिरप्पनट्ठे सुचिरप्पवासिनो ञातिमित्ते सुहज्‍जे सखिनो समानेता अहोसि। मातरम्पि पुत्तेन समानेता अहोसि, पुत्तम्पि मातरा समानेता अहोसि, पितरम्पि पुत्तेन समानेता अहोसि, पुत्तम्पि पितरा समानेता अहोसि, भातरम्पि भातरा समानेता अहोसि, भातरम्पि भगिनिया समानेता अहोसि, भगिनिम्पि भातरा समानेता अहोसि, भगिनिम्पि भगिनिया समानेता अहोसि, समङ्गीकत्वा [समग्गिं कत्वा (सी॰ स्या॰ पी॰)] च अब्भनुमोदिता अहोसि। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति – कोसोहितवत्थगुय्हो होति।

‘‘सो तेन लक्खणेन समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? पहूतपुत्तो होति, परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना। राजा समानो इदं लभति… बुद्धो समानो किं लभति? पहूतपुत्तो होति, अनेकसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२२१. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘पुरे पुरत्था पुरिमासु जातिसु,

चिरप्पनट्ठे सुचिरप्पवासिनो।

ञाती सुहज्‍जे सखिनो समानयि,

समङ्गिकत्वा अनुमोदिता अहु॥

‘‘सो तेन [स तेन (क॰)] कम्मेन दिवं समक्‍कमि,

सुखञ्‍च खिड्डारतियो च अन्वभि।

ततो चवित्वा पुनरागतो इध,

कोसोहितं विन्दति वत्थछादियं॥

‘‘पहूतपुत्तो भवती तथाविधो,

परोसहस्सञ्‍च [परोसहस्सस्स (सी॰ पी॰)] भवन्ति अत्रजा।

सूरा च वीरा च [सूरा च वीरङ्गरूपा (क॰)] अमित्ततापना,

गिहिस्स पीतिंजनना पियंवदा॥

‘‘बहूतरा पब्बजितस्स इरियतो,

भवन्ति पुत्ता वचनानुसारिनो।

गिहिस्स वा पब्बजितस्स वा पुन,

तं लक्खणं जायति तदत्थजोतक’’न्ति॥

पठमभाणवारो निट्ठितो।

(१५-१६) परिमण्डलअनोनमजण्णुपरिमसनलक्खणानि

२२२. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो महाजनसङ्गहं [महाजनसङ्गाहकं (क॰)] समेक्खमानो [समपेक्खमानो (क॰)] समं जानाति सामं जानाति, पुरिसं जानाति पुरिसविसेसं जानाति – ‘अयमिदमरहति अयमिदमरहती’ति तत्थ तत्थ पुरिसविसेसकरो अहोसि। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति। निग्रोध परिमण्डलो च होति, ठितकोयेव च अनोनमन्तो उभोहि पाणितलेहि जण्णुकानि परिमसति परिमज्‍जति।

‘‘सो तेहि लक्खणेहि समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? अड्ढो होति महद्धनो महाभोगो पहूतजातरूपरजतो पहूतवित्तूपकरणो पहूतधनधञ्‍ञो परिपुण्णकोसकोट्ठागारो। राजा समानो इदं लभति…पे॰… बुद्धो समानो किं लभति? अड्ढो होति महद्धनो महाभोगो। तस्सिमानि धनानि होन्ति, सेय्यथिदं, सद्धाधनं सीलधनं हिरिधनं ओत्तप्पधनं सुतधनं चागधनं पञ्‍ञाधनं। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२२३. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘तुलिय पटिविचय चिन्तयित्वा,

महाजनसङ्गहनं [महाजनं सङ्गाहकं (क॰)] समेक्खमानो।

अयमिदमरहति तत्थ तत्थ,

पुरिसविसेसकरो पुरे अहोसि॥

‘‘महिञ्‍च पन [समा च पन (स्या॰), स हि च पन (सी॰ पी॰)] ठितो अनोनमन्तो,

फुसति करेहि उभोहि जण्णुकानि।

महिरुहपरिमण्डलो अहोसि,

सुचरितकम्मविपाकसेसकेन॥

‘‘बहुविविधनिमित्तलक्खणञ्‍ञू,

अतिनिपुणा मनुजा ब्याकरिंसु।

बहुविविधा गिहीनं अरहानि,

पटिलभति दहरो सुसु कुमारो॥

‘‘इध च महीपतिस्स कामभोगी,

गिहिपतिरूपका बहू भवन्ति।

यदि च जहति सब्बकामभोगं,

लभति अनुत्तरं उत्तमधनग्ग’’न्ति॥

(१७-१९) सीहपुब्बद्धकायादितिलक्खणं

२२४. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो बहुजनस्स अत्थकामो अहोसि हितकामो फासुकामो योगक्खेमकामो – ‘किन्तिमे सद्धाय वड्ढेय्युं, सीलेन वड्ढेय्युं, सुतेन वड्ढेय्युं [सुतेन वड्ढेय्युं, बुद्धिया वड्ढेय्युं (स्या॰)], चागेन वड्ढेय्युं, धम्मेन वड्ढेय्युं, पञ्‍ञाय वड्ढेय्युं, धनधञ्‍ञेन वड्ढेय्युं, खेत्तवत्थुना वड्ढेय्युं, द्विपदचतुप्पदेहि वड्ढेय्युं, पुत्तदारेहि वड्ढेय्युं, दासकम्मकरपोरिसेहि वड्ढेय्युं, ञातीहि वड्ढेय्युं, मित्तेहि वड्ढेय्युं, बन्धवेहि वड्ढेय्यु’न्ति। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि तीणि महापुरिसलक्खणानि पटिलभति। सीहपुब्बद्धकायो च होति चितन्तरंसो च समवट्टक्खन्धो च।

‘‘सो तेहि लक्खणेहि समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? अपरिहानधम्मो होति, न परिहायति धनधञ्‍ञेन खेत्तवत्थुना द्विपदचतुप्पदेहि पुत्तदारेहि दासकम्मकरपोरिसेहि ञातीहि मित्तेहि बन्धवेहि, न परिहायति सब्बसम्पत्तिया। राजा समानो इदं लभति… बुद्धो समानो किं लभति? अपरिहानधम्मो होति, न परिहायति सद्धाय सीलेन सुतेन चागेन पञ्‍ञाय, न परिहायति सब्बसम्पत्तिया। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२२५. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘सद्धाय सीलेन सुतेन बुद्धिया,

चागेन धम्मेन बहूहि साधुहि।

धनेन धञ्‍ञेन च खेत्तवत्थुना,

पुत्तेहि दारेहि चतुप्पदेहि च॥

‘‘ञातीहि मित्तेहि च बन्धवेहि च,

बलेन वण्णेन सुखेन चूभयं।

कथं न हायेय्युं परेति इच्छति,

अत्थस्स मिद्धी च [इदं समिद्धञ्‍च (क॰), अद्धं समिद्धञ्‍च (स्या॰)] पनाभिकङ्खति॥

‘‘स सीहपुब्बद्धसुसण्ठितो अहु,

समवट्टक्खन्धो च चितन्तरंसो।

पुब्बे सुचिण्णेन कतेन कम्मुना,

अहानियं पुब्बनिमित्तमस्स तं॥

‘‘गिहीपि धञ्‍ञेन धनेन वड्ढति,

पुत्तेहि दारेहि चतुप्पदेहि च।

अकिञ्‍चनो पब्बजितो अनुत्तरं,

पप्पोति बोधिं असहानधम्मत’’न्ति [सम्बोधिमहानधम्मतन्ति (स्या॰ क॰) टीका ओलोकेतब्बा]॥

(२०) रसग्गसग्गितालक्खणं

२२६. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो सत्तानं अविहेठकजातिको अहोसि पाणिना वा लेड्डुना वा दण्डेन वा सत्थेन वा। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता उपचितत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति, रसग्गसग्गी होति, उद्धग्गास्स रसहरणीयो गीवाय जाता होन्ति समाभिवाहिनियो [समवाहरसहरणियो (स्या॰)]।

‘‘सो तेन लक्खणेन समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? अप्पाबाधो होति अप्पातङ्को, समवेपाकिनिया गहणिया समन्‍नागतो नातिसीताय नाच्‍चुण्हाय। राजा समानो इदं लभति… बुद्धो समानो किं लभति? अप्पाबाधो होति अप्पातङ्को समवेपाकिनिया गहणिया समन्‍नागतो नातिसीताय नाच्‍चुण्हाय मज्झिमाय पधानक्खमाय। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२२७. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘न पाणिदण्डेहि पनाथ लेड्डुना,

सत्थेन वा मरणवधेन [मारणवधेन (क॰)] वा पन।

उब्बाधनाय परितज्‍जनाय वा,

न हेठयी जनतमहेठको अहु॥

‘‘तेनेव सो सुगतिमुपेच्‍च मोदति,

सुखप्फलं करिय सुखानि विन्दति।

समोजसा [सम्पज्‍जसा (सी॰ पी॰), पामुञ्‍जसा (स्या॰), सामञ्‍च सा (क॰)] रसहरणी सुसण्ठिता,

इधागतो लभति रसग्गसग्गितं॥

‘‘तेनाहु नं अतिनिपुणा विचक्खणा,

अयं नरो सुखबहुलो भविस्सति।

गिहिस्स वा पब्बजितस्स वा पुन [पन (स्या॰)],

तं लक्खणं भवति तदत्थजोतक’’न्ति॥

(२१-२२) अभिनीलनेत्तगोपखुमलक्खणानि

२२८. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो न च विसटं, न च विसाचि [न च विसाचितं (सी॰ पी॰), न च विसावि (स्या॰)], न च पन विचेय्य पेक्खिता, उजुं तथा पसटमुजुमनो, पियचक्खुना बहुजनं उदिक्खिता अहोसि। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति। अभिनीलनेत्तो च होति गोपखुमो च।

‘‘सो तेहि लक्खणेहि समन्‍नागतो, सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? पियदस्सनो होति बहुनो जनस्स, पियो होति मनापो ब्राह्मणगहपतिकानं नेगमजानपदानं गणकमहामत्तानं अनीकट्ठानं दोवारिकानं अमच्‍चानं पारिसज्‍जानं राजूनं भोगियानं कुमारानं। राजा समानो इदं लभति…पे॰… बुद्धो समानो किं लभति? पियदस्सनो होति बहुनो जनस्स, पियो होति मनापो भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं देवानं मनुस्सानं असुरानं नागानं गन्धब्बानं। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२२९. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘न च विसटं न च विसाचि [विसाचितं (सी॰ पी॰), विसावि (स्या॰)], न च पन विचेय्यपेक्खिता।

उजुं तथा पसटमुजुमनो, पियचक्खुना बहुजनं उदिक्खिता॥

‘‘सुगतीसु सो फलविपाकं,

अनुभवति तत्थ मोदति।

इध च पन भवति गोपखुमो,

अभिनीलनेत्तनयनो सुदस्सनो॥

‘‘अभियोगिनो च निपुणा,

बहू पन निमित्तकोविदा।

सुखुमनयनकुसला मनुजा,

पियदस्सनोति अभिनिद्दिसन्ति नं॥

‘‘पियदस्सनो गिहीपि सन्तो च,

भवति बहुजनपियायितो।

यदि च न भवति गिही समणो होति,

पियो बहूनं सोकनासनो’’ति॥

(२३) उण्हीससीसलक्खणं

२३०. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो बहुजनपुब्बङ्गमो अहोसि कुसलेसु धम्मेसु बहुजनपामोक्खो कायसुचरिते वचीसुचरिते मनोसुचरिते दानसंविभागे सीलसमादाने उपोसथुपवासे मत्तेय्यताय पेत्तेय्यताय सामञ्‍ञताय ब्रह्मञ्‍ञताय कुले जेट्ठापचायिताय अञ्‍ञतरञ्‍ञतरेसु च अधिकुसलेसु धम्मेसु। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति – उण्हीससीसो होति।

‘‘सो तेन लक्खणेन समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? महास्स जनो अन्वायिको होति, ब्राह्मणगहपतिका नेगमजानपदा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका अमच्‍चा पारिसज्‍जा राजानो भोगिया कुमारा। राजा समानो इदं लभति… बुद्धो समानो किं लभति? महास्स जनो अन्वायिको होति, भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२३१. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘पुब्बङ्गमो सुचरितेसु अहु,

धम्मेसु धम्मचरियाभिरतो।

अन्वायिको बहुजनस्स अहु,

सग्गेसु वेदयित्थ पुञ्‍ञफलं॥

‘‘वेदित्वा सो सुचरितस्स फलं,

उण्हीससीसत्तमिधज्झगमा।

ब्याकंसु ब्यञ्‍जननिमित्तधरा,

पुब्बङ्गमो बहुजनं हेस्सति॥

‘‘पटिभोगिया मनुजेसु इध,

पुब्बेव तस्स अभिहरन्ति तदा।

यदि खत्तियो भवति भूमिपति,

पटिहारकं बहुजने लभति॥

‘‘अथ चेपि पब्बजति सो मनुजो,

धम्मेसु होति पगुणो विसवी।

तस्सानुसासनिगुणाभिरतो,

अन्वायिको बहुजनो भवती’’ति॥

(२४-२५) एकेकलोमताउण्णालक्खणानि

२३२. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो मुसावादं पहाय मुसावादा पटिविरतो अहोसि, सच्‍चवादी सच्‍चसन्धो थेतो पच्‍चयिको अविसंवादको लोकस्स। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता उपचितत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति। एकेकलोमो च होति, उण्णा च भमुकन्तरे जाता होति ओदाता मुदुतूलसन्‍निभा।

‘‘सो तेहि लक्खणेहि समन्‍नागतो, सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? महास्स जनो उपवत्तति, ब्राह्मणगहपतिका नेगमजानपदा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका अमच्‍चा पारिसज्‍जा राजानो भोगिया कुमारा। राजा समानो इदं लभति… बुद्धो समानो किं लभति? महास्स जनो उपवत्तति, भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२३३. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘सच्‍चप्पटिञ्‍ञो पुरिमासु जातिसु,

अद्वेज्झवाचो अलिकं विवज्‍जयि।

न सो विसंवादयितापि कस्सचि,

भूतेन तच्छेन तथेन भासयि [तोसयि (सी॰ पी॰)]॥

‘‘सेता सुसुक्‍का मुदुतूलसन्‍निभा,

उण्णा सुजाता [उण्णास्स जाता (क॰ सी॰)] भमुकन्तरे अहु।

न लोमकूपेसु दुवे अजायिसुं,

एकेकलोमूपचितङ्गवा अहु॥

‘‘तं लक्खणञ्‍ञू बहवो समागता,

ब्याकंसु उप्पादनिमित्तकोविदा।

उण्णा च लोमा च यथा सुसण्ठिता,

उपवत्तती ईदिसकं बहुज्‍जनो॥

‘‘गिहिम्पि सन्तं उपवत्तती जनो,

बहु पुरत्थापकतेन कम्मुना।

अकिञ्‍चनं पब्बजितं अनुत्तरं,

बुद्धम्पि सन्तं उपवत्तति जनो’’ति॥

(२६-२७) चत्तालीसअविरळदन्तलक्खणानि

२३४. ‘‘यम्पि, भिक्खवे तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो पिसुणं वाचं पहाय पिसुणाय वाचाय पटिविरतो अहोसि। इतो सुत्वा न अमुत्र अक्खाता इमेसं भेदाय, अमुत्र वा सुत्वा न इमेसं अक्खाता अमूसं भेदाय, इति भिन्‍नानं वा सन्धाता, सहितानं वा अनुप्पदाता, समग्गारामो समग्गरतो समग्गनन्दी समग्गकरणिं वाचं भासिता अहोसि। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति। चत्तालीसदन्तो च होति अविरळदन्तो च।

‘‘सो तेहि लक्खणेहि समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? अभेज्‍जपरिसो होति, अभेज्‍जास्स होन्ति परिसा, ब्राह्मणगहपतिका नेगमजानपदा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका अमच्‍चा पारिसज्‍जा राजानो भोगिया कुमारा। राजा समानो इदं लभति … बुद्धो समानो किं लभति? अभेज्‍जपरिसो होति, अभेज्‍जास्स होन्ति परिसा, भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२३५. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘वेभूतियं सहितभेदकारिं,

भेदप्पवड्ढनविवादकारिं।

कलहप्पवड्ढनआकिच्‍चकारिं,

सहितानं भेदजननिं न भणि॥

‘‘अविवादवड्ढनकरिं सुगिरं,

भिन्‍नानुसन्धिजननिं अभणि।

कलहं जनस्स पनुदी समङ्गी,

सहितेहि नन्दति पमोदति च॥

‘‘सुगतीसु सो फलविपाकं,

अनुभवति तत्थ मोदति।

दन्ता इध होन्ति अविरळा सहिता,

चतुरो दसस्स मुखजा सुसण्ठिता॥

‘‘यदि खत्तियो भवति भूमिपति,

अविभेदियास्स परिसा भवति।

समणो च होति विरजो विमलो,

परिसास्स होति अनुगता अचला’’ति॥

(२८-२९) पहूतजिव्हाब्रह्मस्सरलक्खणानि

२३६. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो फरुसं वाचं पहाय फरुसाय वाचाय पटिविरतो अहोसि। या सा वाचा नेला कण्णसुखा पेमनीया हदयङ्गमा पोरी बहुजनकन्ता बहुजनमनापा, तथारूपिं वाचं भासिता अहोसि। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता उपचितत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति। पहूतजिव्हो च होति ब्रह्मस्सरो च करवीकभाणी।

‘‘सो तेहि लक्खणेहि समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? आदेय्यवाचो होति, आदियन्तिस्स वचनं ब्राह्मणगहपतिका नेगमजानपदा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका अमच्‍चा पारिसज्‍जा राजानो भोगिया कुमारा। राजा समानो इदं लभति… बुद्धो समानो किं लभति? आदेय्यवाचो होति, आदियन्तिस्स वचनं भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२३७. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘अक्‍कोसभण्डनविहेसकारिं,

उब्बाधिकं [उब्बाधकरं (स्या॰)] बहुजनप्पमद्दनं।

अबाळ्हं गिरं सो न भणि फरुसं,

मधुरं भणि सुसंहितं [सुसहितं (स्या॰)] सखिलं॥

‘‘मनसो पिया हदयगामिनियो,

वाचा सो एरयति कण्णसुखा।

वाचासुचिण्णफलमनुभवि,

सग्गेसु वेदयथ [वेदयति (?) टीका ओलोकेतब्बा] पुञ्‍ञफलं॥

‘‘वेदित्वा सो सुचरितस्स फलं,

ब्रह्मस्सरत्तमिधमज्झगमा।

जिव्हास्स होति विपुला पुथुला,

आदेय्यवाक्यवचनो भवति॥

‘‘गिहिनोपि इज्झति यथा भणतो,

अथ चे पब्बजति सो मनुजो।

आदियन्तिस्स वचनं जनता,

बहुनो बहुं सुभणितं भणतो’’ति॥

(३०) सीहहनुलक्खणं

२३८. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो सम्फप्पलापं पहाय सम्फप्पलापा पटिविरतो अहोसि कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी, निधानवतिं वाचं भासिता अहोसि कालेन सापदेसं परियन्तवतिं अत्थसंहितं। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता…पे॰… सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमं महापुरिसलक्खणं पटिलभति, सीहहनु होति।

‘‘सो तेन लक्खणेन समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती…पे॰… राजा समानो किं लभति? अप्पधंसियो होति केनचि मनुस्सभूतेन पच्‍चत्थिकेन पच्‍चामित्तेन। राजा समानो इदं लभति… बुद्धो समानो किं लभति? अप्पधंसियो होति अब्भन्तरेहि वा बाहिरेहि वा पच्‍चत्थिकेहि पच्‍चामित्तेहि, रागेन वा दोसेन वा मोहेन वा समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मिं। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२३९. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘न सम्फप्पलापं न मुद्धतं [बुद्धतन्ति (क॰)],

अविकिण्णवचनब्यप्पथो अहोसि।

अहितमपि च अपनुदि,

हितमपि च बहुजनसुखञ्‍च अभणि॥

‘‘तं कत्वा इतो चुतो दिवमुपपज्‍जि,

सुकतफलविपाकमनुभोसि।

चविय पुनरिधागतो समानो,

द्विदुगमवरतरहनुत्तमलत्थ॥

‘‘राजा होति सुदुप्पधंसियो,

मनुजिन्दो मनुजाधिपति महानुभावो।

तिदिवपुरवरसमो भवति,

सुरवरतरोरिव इन्दो॥

‘‘गन्धब्बासुरयक्खरक्खसेभि [सुरसक्‍करक्खसेभि (स्या॰)],

सुरेहि न हि भवति सुप्पधंसियो।

तथत्तो यदि भवति तथाविधो,

इध दिसा च पटिदिसा च विदिसा चा’’ति॥

(३१-३२) समदन्तसुसुक्‍कदाठालक्खणानि

२४०. ‘‘यम्पि, भिक्खवे, तथागतो पुरिमं जातिं पुरिमं भवं पुरिमं निकेतं पुब्बे मनुस्सभूतो समानो मिच्छाजीवं पहाय सम्माआजीवेन जीविकं कप्पेसि, तुलाकूट कंसकूट मानकूट उक्‍कोटन वञ्‍चन निकति साचियोग छेदन वध बन्धन विपरामोस आलोप सहसाकारा [साहसाकारा (सी॰ स्या॰ पी॰)] पटिविरतो अहोसि। सो तस्स कम्मस्स कटत्ता उपचितत्ता उस्सन्‍नत्ता विपुलत्ता कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्‍जति। सो तत्थ अञ्‍ञे देवे दसहि ठानेहि अधिगण्हाति दिब्बेन आयुना दिब्बेन वण्णेन दिब्बेन सुखेन दिब्बेन यसेन दिब्बेन आधिपतेय्येन दिब्बेहि रूपेहि दिब्बेहि सद्देहि दिब्बेहि गन्धेहि दिब्बेहि रसेहि दिब्बेहि फोट्ठब्बेहि। सो ततो चुतो इत्थत्तं आगतो समानो इमानि द्वे महापुरिसलक्खणानि पटिलभति, समदन्तो च होति सुसुक्‍कदाठो च।

‘‘सो तेहि लक्खणेहि समन्‍नागतो सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्‍कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्‍नागतो। तस्सिमानि सत्त रतनानि भवन्ति, सेय्यथिदं – चक्‍करतनं हत्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं परिणायकरतनमेव सत्तमं। परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना। सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अखिलमनिमित्तमकण्टकं इद्धं फीतं खेमं सिवं निरब्बुदं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसति। राजा समानो किं लभति? सुचिपरिवारो होति सुचिस्स होन्ति परिवारा ब्राह्मणगहपतिका नेगमजानपदा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका अमच्‍चा पारिसज्‍जा राजानो भोगिया कुमारा। राजा समानो इदं लभति।

‘‘सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवट्टच्छदो। बुद्धो समानो किं लभति? सुचिपरिवारो होति, सुचिस्स होन्ति परिवारा, भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा। बुद्धो समानो इदं लभति’’। एतमत्थं भगवा अवोच।

२४१. तत्थेतं वुच्‍चति –

‘‘मिच्छाजीवञ्‍च अवस्सजि समेन वुत्तिं,

सुचिना सो जनयित्थ धम्मिकेन।

अहितमपि च अपनुदि,

हितमपि च बहुजनसुखञ्‍च अचरि॥

‘‘सग्गे वेदयति नरो सुखप्फलानि,

करित्वा निपुणेभि विदूहि सब्भि।

वण्णितानि तिदिवपुरवरसमो,

अभिरमति रतिखिड्डासमङ्गी॥

‘‘लद्धानं मानुसकं भवं ततो,

चवित्वान सुकतफलविपाकं।

सेसकेन पटिलभति लपनजं,

सममपि सुचिसुसुक्‍कं [लद्धान मनुस्सकं भवं ततो चविय, पुन सुकतफलविपाकसेसकेन। पटिलभति लपनजं सममपि, सुचि च सुविसुद्धसुसुक्‍कं (स्या॰)]॥

‘‘तं वेय्यञ्‍जनिका समागता बहवो,

ब्याकंसु निपुणसम्मता मनुजा।

सुचिजनपरिवारगणो भवति,

दिजसमसुक्‍कसुचिसोभनदन्तो॥

‘‘रञ्‍ञो होति बहुजनो,

सुचिपरिवारो महतिं महिं अनुसासतो।

पसय्ह न च जनपदतुदनं,

हितमपि च बहुजनसुखञ्‍च चरन्ति॥

‘‘अथ चे पब्बजति भवति विपापो,

समणो समितरजो विवट्टच्छदो।

विगतदरथकिलमथो,

इममपि च परमपि च [इमम्पि च परम्पि च (पी॰), परंपि परमंपि च (स्या॰)] पस्सति लोकं॥

‘‘तस्सोवादकरा बहुगिही च पब्बजिता च,

असुचिं गरहितं धुनन्ति पापं।

स हि सुचिभि परिवुतो भवति,

मलखिलकलिकिलेसे पनुदेही’’ति [तस्सोवादकरा बहुगिही च, पब्बजिता च असुचिविगरहित। पनुदिपापस्स हि सुचिभिपरिवुतो, भवति मलखिलककिलेसे पनुदेति (स्या॰)]॥

इदमवोच भगवा। अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति।

लक्खणसुत्तं निट्ठितं सत्तमं।