समय के साथ धर्म का मूल सार और उद्देश्य धीरे-धीरे जनता की नजरों से ओझल होने लगता है। ऐसे में समाज में कट्टरता, कर्मकांड और अंधविश्वास की जड़ें गहरी होती जाती हैं। आज भी वैदिक परंपरा में कई ऐसे अनुष्ठान प्रचलित हैं, जिन्हें लोग बिना उनके सार को समझे और बिना तर्क की कसौटी पर कसे, पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाते चले आ रहे हैं — जैसे गंगा में पाप धोने की धारणा, गंगा का तथाकथित अमृतजल पीना, अग्निसेवा करना, दिशाओं की पूजा करना आदि। लोग इन्हें अपने धर्म और कर्तव्य का अभिन्न अंग मानते हैं।
बुद्ध ने ऐसे ही एक तरुण को दिशाओं की पारंपरिक वंदना करते देखा और उसकी इस अंधपरंपरा की निरर्थकता उजागर कर उसे एक नए अर्थ में परिवर्तित कर दिया। उन्होंने सिखाया कि सच्ची पूजा दिशाओं की नहीं, बल्कि अपने जीवन में निभाए जाने वाले नैतिक और सामाजिक कर्तव्यों की होती है, जिनका दिशाएँ मात्र प्रतीकात्मक संकेत देती हैं। यह केवल एक व्यक्ति को दी गई शिक्षा नहीं थी, बल्कि एक सामाजिक क्रांति की शुरुआत थी—जिसमें बुद्ध ने पुरानी, अर्थहीन धारणाओं को चुनौती देकर नैतिक जिम्मेदारियों की महत्ता स्थापित की।
हर व्यक्ति की कुछ नैतिक और धार्मिक जिम्मेदारियाँ होती हैं, जिनमें उसे अपने परिवार की देखभाल करना, रिश्तेदारों और मित्रों की सहायता करना, गुरुजनों और संन्यासियों से मार्गदर्शन लेना, नौकरों और सेवकों पर उपकार करना शामिल है। बल्कि उसकी अनेक जिम्मेदारियाँ स्वयं के प्रति भी होती है। यही गृहस्थ जीवन के वास्तविक व्रत होते हैं। यहाँ भगवान ने कर्मकांड पर आधारित धर्मांधता को त्यागकर व्यावहारिक नैतिकता को धर्म का केंद्र बना दिया। इस सुत्त में समाज के सभी महत्वपूर्ण संबंधों को दिशा-पूजन के नए रूप में पुनर्परिभाषित किया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि सच्ची पूजा आचरण की पवित्रता और कर्तव्यों की निष्ठा में निहित है।
व्रत की महत्ता संन्यास ग्रहण करने के बाद भी बनी रहती है, बल्कि यह सब्रह्मचारियों के प्रति भी लागू होती है। इसलिए भगवान ने भिक्षु-संघ को भी विनय के माध्यम से सैकड़ों की संख्या में व्रत प्रदान किए। विनयपिटक में इसे अत्यधिक महत्व देकर कहा गया है कि — “जो अपने सब्रह्मचारियों के प्रति व्रत का पालन नहीं करता, उसके शील अधूरे रह जाते हैं।” नैतिकता किसी बाहरी अनुष्ठान पर निर्भर नहीं होती, बल्कि व्यक्ति के आंतरिक विकास और समाज में उसके आचरण से परिभाषित होती है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह के वेलुवन के गिलहरियों की खाद्यभूमि [कलन्दकनिवाप] में विहार कर रहे थे। उस समय गृहस्थपुत्र श्रृंगालक प्रातः उठ, राजगृह से निकल कर भीगे वस्त्र, भीगे केश, दिशाओं को हाथ जोड़कर नमन कर रहा था — पूर्व दिशा में, दक्षिण दिशा में, पश्चिम दिशा में, उत्तर दिशा में, निचली दिशा में, फिर ऊपरी दिशा में। 1
तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर राजगृह में भिक्षाटन के लिए प्रवेश किया। वहाँ भगवान को गृहस्थपुत्र श्रृंगालक प्रातः उठ, राजगृह से निकल कर भीगे वस्त्र, भीगे केश, दिशाओं को हाथ जोड़कर नमन करते हुए दिखा। भगवान ने कहा, “गृहस्थपुत्र, दिशाओं को इस तरह नमन क्यों कर रहे हो?”
“भन्ते! मेरे पिता ने मुझसे मरते हुए कहा था, ‘प्रिय! दिशाओं को नमन करना!’ इसलिए पिता के शब्दों का आदर रखते हुए, सत्कार करते हुए, मानते हुए, पूजते हुए — मैं प्रातः उठ राजगृह से निकल कर भीगे वस्त्र, भीगे केश, हाथ जोड़कर पूर्व-दिशा, दक्षिण-दिशा, पश्चिम-दिशा, उत्तर-दिशा, निचली-दिशा एवं ऊपरी-दिशा को नमन कर रहा हूँ।”
“किंतु गृहस्थपुत्र, आर्यविनय में छह दिशाओं को इस तरह नमन नहीं करते है।”
“तब भन्ते, आर्यविनय में छह दिशाओं को कैसे नमन करते है? अच्छा होगा भन्ते, जो भगवान मुझे धर्मदेशना दें! मुझे कृपा कर बताएँ।”
“तब, गृहस्थपुत्र! ध्यान देकर गौर से सुनो। मैं बताता हूँ।”
“हाँ, भन्ते!”
“गृहस्थपुत्र, आर्यश्रावक चार ‘दूषित कर्म’ त्यागते हैं, चार ‘आधार पर पापकर्म’ नहीं करते हैं, तथा छह तरह से ‘भोगसंपत्ति बर्बादी में शामिल’ नहीं होते हैं। जब वे इस तरह कुल चौदह पापकृत्यों को पीछे छोड़ दें — तब छह दिशाएँ सुआच्छादित होती हैं, लोक-परलोक दोनों के विजयपथ पर चला जाता है, तथा वे लोक-परलोक में यशस्वी होते हैं। और वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में भी उपजते हैं।"
“वे कौन से चार दूषित कर्मों [“कम्मकिलेस”] को त्यागते हैं?
गृहस्थपुत्र, जीवहत्या दूषित कर्म होता है। चोरी दूषित कर्म होता है। व्यभिचार दूषित कर्म होता है। झूठ बोलना दूषित कर्म होता है। इन चार दूषित कर्मों को वे त्यागते हैं।”
भगवान ने ऐसा कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा:
वे कौन से चार आधार पर पापकर्म नहीं करते हैं?
कोई चाहत [“छन्द”] के मारे पाप करता है। द्वेष के मारे पाप करता है। भ्रम के मारे पाप करता है। भय के मारे पाप करता है। गृहस्थपुत्र, कोई आर्यश्रावक न चाहत के मारे पाप करता है, न द्वेष के मारे पाप करता है, न भ्रम के मारे पाप करता है, न ही भय के मारे पाप करता है। इन चार आधार पर वे पापकर्म नहीं करते हैं।"
भगवान ने ऐसा कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा:
“वे कौन से छह भोगसंपत्ति के पतन-द्वार [=संपत्ति बर्बादी] में शामिल नहीं होते हैं?
(१) शराब, मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते का लुत्फ़ उठाना, गृहस्थपुत्र, भोगसंपत्ति का पतन-द्वार है।
(२) बेसमय [रात-बेरात] रास्ते-गलियारें घूमने का लुत्फ़ उठाना भोगसंपत्ति का पतन-द्वार है।
(३) मेला-समारोह घूमने [या पार्टी] का लुत्फ़ उठाना भोगसंपत्ति का पतन-द्वार है।
(४) जुआ आदि मदहोश करने वाले खेलों का लुत्फ़ उठाना भोगसंपत्ति का पतन-द्वार है।
(५) पापमित्रों का लुत्फ़ उठाना भोगसंपत्ति का पतन-द्वार है।
(६) आलस्य का लुत्फ़ उठाना भोगसंपत्ति का पतन-द्वार है।
गृहस्थपुत्र, शराब, मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं —
(१) तुरंत धनसंपत्ति बर्बाद होती है।
(२) कलह [=झगड़ा, फसाद] की संभावना बढ़ती है।
(३) रोग होने की संभावना बढ़ती है।
(४) बदनामी होती है।
(५) अशोभनीय [=अभद्र, अश्लील] प्रकट होता है।
(६) अंतर्ज्ञान [=प्रज्ञा] दुर्बल होता है।
इस तरह, गृहस्थपुत्र, शराब, मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं।
गृहस्थपुत्र, बेसमय रास्ते-गलियारें घूमने का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं।
(१) वह स्वयं न सुरक्षित, न ही संरक्षित होता है।
(२) उसकी संतान और पत्नी न सुरक्षित, न संरक्षित होते हैं।
(३) उसकी संपत्ति न सुरक्षित, न संरक्षित होती है।
(४) उस पर पाप की शंका होती है।
(५) उसके साथ झूठी ख़बर [=अफ़वाह] जुड़ जाती है।
(६) उसका अनेक कष्टों से सामना होता है।
इस तरह, गृहस्थपुत्र, बेसमय रास्ते-गलियारें घूमने का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं।
गृहस्थपुत्र, मेला-समारोह घूमने का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं —
(१) [सदैव ढूंढते रहता है] “नृत्य कहाँ हो रहा है? (२) गीत कहाँ हो रहा है? (३) वाद्यसंगीत कहाँ बज रहा है? (४) भाषण कहाँ हो रहा है? (५) तालियां कहाँ बज रही हैं? (६) ढ़ोल कहाँ बज रहा है?”
इस तरह, गृहस्थपुत्र, मेला-समारोह घूमने का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं।
गृहस्थपुत्र, जुआ आदि मदहोश करने वाले खेलों का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं —
(१) विजेता होकर [किसी को] शत्रु बनाता है।
(२) पराजित होकर वित्तहानि के मारे विलाप करता है।
(३) अभी संपत्ति बर्बाद करता है।
(४) सभाओं में उसकी बातों पर भरोसा नहीं किया जाता हैं।
(५) मित्र-सहजन घृणा करने लगते हैं।
(६) विवाह के लिए माँग नहीं होती है, [कहते हैं] “जुआरी पुरुष, पत्नी पालने में असमर्थ होता है!”
इस तरह, गृहस्थपुत्र, जुआ आदि मदहोश करने वाले खेलों का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं।
गृहस्थपुत्र, पापमित्रों का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं —
(१) उसके मित्र-सहकर्मी कोई जुआरी होता है। (२) तो कोई भुक्कड़ होता है। (३) तो कोई पियक्कड़ होता है। (४) तो कोई धोखेबाज होता है। (५) तो कोई ठग होता है। (६) तो कोई गुंडा होता है।
इस तरह, गृहस्थपुत्र, पापमित्रों का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं।
गृहस्थपुत्र, आलस्य का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं —
(१) “बड़ी ठंडी है!” [कहते हुए] कार्य नहीं करता है।
(२) “बड़ी गर्मी है!” [कहते हुए] कार्य नहीं करता है।
(३) “अभी देर है!” [कहते हुए] कार्य नहीं करता है।
(४) “देर हो गई!” [कहते हुए] कार्य नहीं करता है।
(५) “अभी भूखा हूँ!” [कहते हुए] कार्य नहीं करता है।
(६) “बहुत खा लिया!” [कहते हुए] कार्य नहीं करता है।
कार्य न करने के इतने सारे बहाने बनाकर रहने से उसकी अप्राप्त संपत्ति प्राप्त नहीं होती, और प्राप्त हो चुकी संपत्ति भी खत्म होने लगती है। इस तरह, गृहस्थपुत्र, आलस्य का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं।”
भगवान ने ऐसा कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा:
गृहस्थपुत्र, चार [व्यक्तियों] को मित्रवेष में अमित्र [=मित्र नहीं] समझना चाहिए —
(१) बटोरू को मित्रवेष में अमित्र समझना चाहिए।
(२) बातूनी को मित्रवेष में अमित्र समझना चाहिए।
(३) चाटुकार को मित्रवेष में अमित्र समझना चाहिए।
(४) उड़ाऊ को मित्रवेष में अमित्र समझना चाहिए।
गृहस्थपुत्र, तुम्हें बटोरु को चार तरह से मित्रवेष में अमित्र समझना चाहिए —
इस चार तरह से, गृहस्थपुत्र, तुम्हें बटोरु को मित्रवेष में अमित्र समझना चाहिए।
गृहस्थपुत्र, तुम्हें बातुनी को चार तरह से मित्रवेष में अमित्र समझना चाहिए —
(१) अतीत में [किया] उपकार बताता है।
(२) भविष्य में [करेगा] उपकार बताता है।
(३) [वर्तमान में] निरर्थक उपकार करता है।
(४) अभी ज़रूरत में दुर्भाग्य [असमर्थता] बताता है।
इस चार तरह से, गृहस्थपुत्र, तुम्हें बातुनी को मित्रवेष में अमित्र समझना चाहिए।
गृहस्थपुत्र, तुम्हें चाटुकार को चार तरह से मित्रवेष में अमित्र समझना चाहिए —
(१) पापकृत्य में सहमत होता है।
(२) कल्याण-कृत्य में भी सहमत होता है।
(३) सम्मुख [=सामने] प्रशंसा करता है।
(४) [पीठ] पीछे निंदा करता है।
इस चार तरह से, गृहस्थपुत्र, तुम्हें चाटुकार को मित्रवेष में अमित्र समझना चाहिए।
गृहस्थपुत्र, तुम्हें उड़ाऊ को चार तरह से मित्रवेष में अमित्र समझना चाहिए —
(१) शराब, मद्य आदि मदहोश करने वाला नशापता करने में सहायक हो।
(२) बेसमय रास्ते-गलियारें घूमने में सहायक हो।
(३) मेला-समारोह घूमने में सहायक हो।
(४) जुआ आदि मदहोश करने वाले खेलों में सहायक हो।
इस चार तरह से, गृहस्थपुत्र, तुम्हें उड़ाऊ को मित्रवेष में अमित्र समझना चाहिए।"
भगवान ने ऐसा कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा:
“गृहस्थपुत्र, चार [व्यक्तियों] को सच्चे हृदय का मित्र समझना चाहिए —
(१) उपकारी मित्र को सच्चे हृदय का समझना चाहिए।
(२) सुख-दुःख में समान रहने वाले मित्र को सच्चे हृदय का समझना चाहिए।
(३) हितकारी मित्र को सच्चे हृदय का समझना चाहिए।
(४) दयालु मित्र को सच्चे हृदय का समझना चाहिए।
गृहस्थपुत्र, चार तरह से उपकारी मित्र को सच्चे हृदय का समझना चाहिए —
(१) बेपरवाह [या मदहोश] हो तो आपकी देखभाल करता है।
(२) बेपरवाह हो तो आपकी संपत्ति की देखभाल करता है।
(३) भयभीत हो तो आपकी शरण [रक्षक] बनता है।
(४) ज़रूरत हो तो दुगनी मदद करता है।
इन चार तरह से, गृहस्थपुत्र, उपकारी मित्र को सच्चे हृदय का समझना चाहिए।
चार तरह से सुख-दुःख में समान मित्र को सच्चे हृदय का समझना चाहिए —
(१) अपनी गोपनीय बातें बताता हो।
(२) आपकी गोपनीय बातें गुप्त रखता हो।
(३) आपदा में साथ न छोड़ता हो।
(४) आपको बचाने के लिए स्वयं को लुटाता हो।
इन चार तरह से, गृहस्थपुत्र, सुख-दुःख में समान मित्र को सच्चे हृदय का समझना चाहिए।
चार तरह से हितकारी मित्र को सच्चे हृदय का समझना चाहिए —
(१) आपको पाप करने से रोकता है।
(२) कल्याण करने में समर्थन करता है।
(३) अनसुनी बातें बताता है।
(४) स्वर्ग का मार्ग दिखाता है।
इन चार तरह से, गृहस्थपुत्र, हितकारी मित्र को सच्चे हृदय का समझना चाहिए।
चार तरह से दयालु मित्र को सच्चे हृदय का समझना चाहिए —
(१) आपके दुर्भाग्य में आनंदित नहीं होता है।
(२) आपके सौभाग्य में आनंदित होता है।
(३) आपके खिलाफ़ बुरा बोलने वाले को रोकता है।
(४) आपके प्रति अच्छा बोलने वाले की प्रशंसा करता है।
इन चार तरह से, गृहस्थपुत्र, दयालु मित्र को सच्चे हृदय का समझना चाहिए।”
भगवान ने ऐसा कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा:
“और, गृहस्थपुत्र, आर्यविनय में छह दिशाओं को नमन कैसे करते है?
आर्यविनय में, गृहस्थपुत्र, छह दिशाएँ इस तरह जानी जाती हैं —
(१) पूर्व-दिशा माता-पिता के लिए जानी जाती है।
(२) दक्षिण-दिशा गुरुजनों के लिए जानी जाती है।
(३) पश्चिम-दिशा पत्नी एवं संतान के लिए जानी जाती है।
(४) उत्तर-दिशा मित्र-सहचारियों के लिए जानी जाती है।
(५) निचली-दिशा दास, नौकर एवं श्रमिकों के लिए जानी जाती है।
(६) तथा ऊपरी-दिशा श्रमण-ब्राह्मणों के लिए जानी जाती है।
गृहस्थपुत्र, कोई पुत्र पाँच तरह से पूर्व-दिशासूचक माता-पिता की सेवा करता है —
(१) [सोचते हुए] “मैं पला, अब उनका भरण-पोषण करूँगा!”
(२) “उनके प्रति कर्तव्य पूर्ण करूँगा!”
(३) “कुलवंश चलाऊँगा!”
(४) “विरासत की देखभाल करूँगा!”
(५) “मरणोपरांत प्रेत के नाम दानदक्षिणा करूँगा!”
इस तरह सेवा पाकर, गृहस्थपुत्र, माता-पिता अपनी संतान पर पाँच तरह से उपकार करते हैं —
(१) उसे पाप करने से रोकते हैं।
(२) कल्याण करने में समर्थन करते हैं।
(३) [कमाने का] हुनर सिखाते हैं।
(४) उपयुक्त पत्नी ढूंढ देते हैं।
(५) तथा समय आने पर अपनी विरासत सौंपते हैं।
इस तरह सेवा पाकर, गृहस्थपुत्र, माता-पिता अपनी संतान पर उपकार करते हैं। इस तरह पूर्व-दिशा सुआच्छादित होती है, शान्त होकर भयमुक्त होती है।
गृहस्थपुत्र, कोई शिष्य पाँच तरह से दक्षिण-दिशासूचक गुरुजनों की सेवा करता है —
(१) [उनके सम्मानार्थ] खड़ा होता है।
(२) उनके लिए प्रतीक्षा करता है।
(३) उनका ध्यान रखता है।
(४) उनकी सेवा करता है।
(५) उनसे हुनर सीखकर पारंगत होता है।
इस तरह सेवा पाकर, गृहस्थपुत्र, गुरुजन अपने शिष्य पर छह तरह से उपकार करते हैं —
(१) उसे भलीभांति पढ़ाते हैं।
(२) उसका अभ्यास कराते हैं।
(३) समझाने वाली शिक्षाओं को समझाते हैं।
(४) सभी कलाओं में भलीभांति स्थापित करते हैं।
(५) मित्र-सहचारियों को सिफ़ारिश करते हैं।
(६) तथा सभी-दिशाओं में सुरक्षा प्रदान करते हैं।
इस तरह सेवा पाकर, गृहस्थपुत्र, गुरुजन अपने शिष्य पर छह तरह से उपकार करते हैं। इस तरह दक्षिण-दिशा सुआच्छादित होती है, शान्त होकर भयमुक्त होती है।
गृहस्थपुत्र, कोई पति पाँच तरह से पश्चिम-दिशासूचक पत्नी की सेवा करता है —
(१) उसे सम्मान देता है।
(२) उसे अपमानित नहीं करता है।
(३) निष्ठाहीन [=बेवफ़ा] नहीं होता।
(४) ऐश्वर्य [=प्रभुत्व, स्वामित्व] उस पर छोड़ता है।
(५) गहने-अलंकार प्रदान करता है।
इस तरह सेवा पाकर, गृहस्थपुत्र, पत्नी अपने पति पर पाँच तरह से उपकार करती है —
(१) [कर्तव्य] कार्यों को सही अंजाम देती है।
(२) परिजनों को साथ लेकर चलती है।
(३) निष्ठाहीन नहीं होती।
(४) भंडार सामग्री की देखभाल करती है।
(५) सभी कार्यों में अनालसी हो [बिना आलस किए] निपुण बनती है।
इस तरह सेवा पाकर, गृहस्थपुत्र, पत्नी अपने पति पर पाँच तरह से उपकार करती है। इस तरह पश्चिम-दिशा सुआच्छादित होती है, शान्त होकर भयमुक्त होती है।
गृहस्थपुत्र, कोई कुलपुत्र पाँच तरह से उत्तर-दिशासूचक मित्र-सहचारियों की सेवा करता है —
(१) दान उपहार से।
(२) प्रिय वचनों से।
(३) हितकारक देखभाल [या उपकार] करने से।
(४) समानता के बर्ताव से।
(५) निष्ठा और ईमानदारी [बिना छलकपट] से।
इस तरह सेवा पाकर, गृहस्थपुत्र, मित्र-सहचारी कुलपुत्र पर पाँच तरह से उपकार करते हैं —
(१) बेपरवाह [या मदहोश] हो तो देखभाल करते हैं।
(२) बेपरवाह हो तो संपत्ति की देखभाल करते हैं।
(३) भयभीत हो तो शरण [रक्षक] बनते हैं।
(४) आपदा में छोड़ नहीं देते।
(५) उसकी संतानों पर कृपादृष्टि रखते हैं।
इस तरह सेवा पाकर, गृहस्थपुत्र, मित्र-सहचारी कुलपुत्र पर पाँच तरह से उपकार करते हैं। इस तरह उत्तर-दिशा सुआच्छादित होती है, शान्त होकर भयमुक्त होती है।
गृहस्थपुत्र, कोई स्वामी पाँच तरह से निचली-दिशासूचक दास-नौकरों पर उपकार करता है —
(१) सामर्थ्य देखकर कार्य देता है।
(२) भोजन और वेतन देता है।
(३) रोग में देखभाल करता है।
(४) ख़ास व्यंजन बांटता है।
(५) समय पर छुट्टी देता है।
इस तरह सेवा पाकर, गृहस्थपुत्र, दास-नौकर स्वामी की पाँच तरह से सेवा करते हैं —
(१) पहले उठते हैं।
(२) पश्चात सोते हैं।
(३) चुराते नहीं हैं।
(४) भलीभांति कार्य करते हैं।
(५) उसकी यशकीर्ति फैलाते हैं।
इस तरह सेवा पाकर, गृहस्थपुत्र, दास-नौकर स्वामी की पाँच तरह से सेवा करते हैं। इस तरह निचली-दिशा सुआच्छादित होती है, शान्त होकर भयमुक्त होती है।
गृहस्थपुत्र, कोई कुलपुत्र पाँच तरह से ऊपरी-दिशासूचक श्रमण-ब्राह्मणों की सेवा करता है —
(१) उनके प्रति सद्भावपूर्ण काया-कर्म करता है।
(२) उनके प्रति सद्भावपूर्ण वाणी-कर्म करता है।
(३) उनके प्रति सद्भावपूर्ण मनो-कर्म करता है।
(४) उनके लिए अपना घर खुला करता है।
(५) उनकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
इस तरह सेवा पाकर, गृहस्थपुत्र, श्रमण-ब्राह्मण कुलपुत्र पर छह तरह से उपकार करते हैं —
(१) उसे पाप करने से रोकते हैं।
(२) कल्याण करने में समर्थन करते हैं।
(३) मन से कल्याणकारी उपकार करते [कृपादृष्टि रखते] हैं।
(४) अनसुना [धर्म] सुनाते हैं।
(५) सुने [धर्म] को स्पष्ट करते हैं।
(६) स्वर्ग का मार्ग दिखाते हैं।
इस तरह सेवा पाकर, गृहस्थपुत्र, श्रमण-ब्राह्मण कुलपुत्र पर छह तरह से उपकार करते हैं। इस तरह ऊपरी-दिशा सुआच्छादित होती है, शान्त होकर भयमुक्त होती है।”
भगवान ने ऐसा कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा:
ऐसा कहे जाने पर गृहस्थपुत्र श्रृंगालक कह पड़ा, “अतिउत्तम, भन्ते! अतिउत्तम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि अच्छी आँखोंवाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म एवं संघ की! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
ब्राह्मणों के शास्त्र “शतपथ ब्राह्मण” ५.५.१ बताता है कि पूर्व-दिशा में अग्नि को, दक्षिण में इन्द्र या सोम को, पश्चिम दिशा में सभी देवताओं को, उत्तर दिशा में मित्र और वरुण को, और मध्य दिशा में बृहस्पति को नमन और दक्षिणा दी जाती है। बृहदारण्यक उपनिषद ४.१.५ में लिखा है कि सभी दिशाएँ दिव्य होती है, क्योंकि कोई उस दिशा में कितना भी चले, वह खत्म नहीं होती। अथर्व वेद १२.३.७ में उल्लेख किया गया है कि गृहस्थों ने उन दिशाओं की पुजा कैसे करनी चाहिए। किन्तु इस शास्त्र में दक्षिण दिशा को यम और मृतपूर्वजों की दिशा बताया गया है, पश्चिम को सोम से जोड़ा गया है, और बाकी दिशाओं को देवताओं से नहीं जोड़ा गया, जो शतपथ ब्राह्मण के विपरीत जाती है। मैत्री उपनिषद ७.१ छह दिशाओं का आध्यात्मिक वर्णन किया गया है। बौद्ध धर्म में भी चारों दिशाओं के चार महाराजा बताए जाते हैं। ↩︎
२४२. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति वेळुवने कलन्दकनिवापे। तेन खो पन समयेन सिङ्गालको [सिगालको (सी॰)] गहपतिपुत्तो कालस्सेव उट्ठाय राजगहा निक्खमित्वा अल्लवत्थो अल्लकेसो पञ्जलिको पुथुदिसा [पुथुद्दिसा (सी॰ स्या॰ पी॰)] नमस्सति – पुरत्थिमं दिसं दक्खिणं दिसं पच्छिमं दिसं उत्तरं दिसं हेट्ठिमं दिसं उपरिमं दिसं।
२४३. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय राजगहं पिण्डाय पाविसि। अद्दसा खो भगवा सिङ्गालकं गहपतिपुत्तं कालस्सेव वुट्ठाय राजगहा निक्खमित्वा अल्लवत्थं अल्लकेसं पञ्जलिकं पुथुदिसा नमस्सन्तं – पुरत्थिमं दिसं दक्खिणं दिसं पच्छिमं दिसं उत्तरं दिसं हेट्ठिमं दिसं उपरिमं दिसं। दिस्वा सिङ्गालकं गहपतिपुत्तं एतदवोच – ‘‘किं नु खो त्वं, गहपतिपुत्त, कालस्सेव उट्ठाय राजगहा निक्खमित्वा अल्लवत्थो अल्लकेसो पञ्जलिको पुथुदिसा नमस्ससि – पुरत्थिमं दिसं दक्खिणं दिसं पच्छिमं दिसं उत्तरं दिसं हेट्ठिमं दिसं उपरिमं दिस’’न्ति? ‘‘पिता मं, भन्ते, कालं करोन्तो एवं अवच – ‘दिसा, तात, नमस्सेय्यासी’ति। सो खो अहं, भन्ते, पितुवचनं सक्करोन्तो गरुं करोन्तो मानेन्तो पूजेन्तो कालस्सेव उट्ठाय राजगहा निक्खमित्वा अल्लवत्थो अल्लकेसो पञ्जलिको पुथुदिसा नमस्सामि – पुरत्थिमं दिसं दक्खिणं दिसं पच्छिमं दिसं उत्तरं दिसं हेट्ठिमं दिसं उपरिमं दिस’’न्ति।
छ दिसा
२४४. ‘‘न खो, गहपतिपुत्त, अरियस्स विनये एवं छ दिसा [छद्दिसा (सी॰ पी॰)] नमस्सितब्बा’’ति। ‘‘यथा कथं पन, भन्ते, अरियस्स विनये छ दिसा [छद्दिसा (सी॰ पी॰)] नमस्सितब्बा? साधु मे, भन्ते, भगवा तथा धम्मं देसेतु, यथा अरियस्स विनये छ दिसा [छद्दिसा (सी॰ पी॰)] नमस्सितब्बा’’ति।
‘‘तेन हि, गहपतिपुत्त सुणोहि साधुकं मनसिकरोहि भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो सिङ्गालको गहपतिपुत्तो भगवतो पच्चस्सोसि। भगवा एतदवोच –
‘‘यतो खो, गहपतिपुत्त, अरियसावकस्स चत्तारो कम्मकिलेसा पहीना होन्ति, चतूहि च ठानेहि पापकम्मं न करोति, छ च भोगानं अपायमुखानि न सेवति, सो एवं चुद्दस पापकापगतो छद्दिसापटिच्छादी [पटिच्छादी होति (स्या॰)] उभोलोकविजयाय पटिपन्नो होति। तस्स अयञ्चेव लोको आरद्धो होति परो च लोको। सो कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जति।
चत्तारोकम्मकिलेसा
२४५. ‘‘कतमस्स चत्तारो कम्मकिलेसा पहीना होन्ति? पाणातिपातो खो, गहपतिपुत्त, कम्मकिलेसो, अदिन्नादानं कम्मकिलेसो, कामेसुमिच्छाचारो कम्मकिलेसो, मुसावादो कम्मकिलेसो। इमस्स चत्तारो कम्मकिलेसा पहीना होन्ती’’ति। इदमवोच भगवा, इदं वत्वान [इदं वत्वा (सी॰ पी॰) एवमीदिसेसु ठानेसु] सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था –
‘‘पाणातिपातो अदिन्नादानं, मुसावादो च वुच्चति।
परदारगमनञ्चेव, नप्पसंसन्ति पण्डिता’’ति॥
चतुट्ठानं
२४६. ‘‘कतमेहि चतूहि ठानेहि पापकम्मं न करोति? छन्दागतिं गच्छन्तो पापकम्मं करोति, दोसागतिं गच्छन्तो पापकम्मं करोति, मोहागतिं गच्छन्तो पापकम्मं करोति, भयागतिं गच्छन्तो पापकम्मं करोति। यतो खो, गहपतिपुत्त, अरियसावको नेव छन्दागतिं गच्छति, न दोसागतिं गच्छति, न मोहागतिं गच्छति, न भयागतिं गच्छति; इमेहि चतूहि ठानेहि पापकम्मं न करोती’’ति। इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था –
‘‘छन्दा दोसा भया मोहा, यो धम्मं अतिवत्तति।
निहीयति यसो तस्स [तस्स येसो (बहूसु, विनयेपि)], काळपक्खेव चन्दिमा॥
‘‘छन्दा दोसा भया मोहा, यो धम्मं नातिवत्तति।
आपूरति यसो तस्स [तस्स येसो (बहूसु, विनयेपि)], सुक्कपक्खेव [जुण्हपक्खेव (क॰)] चन्दिमा’’ति॥
छ अपायमुखानि
२४७. ‘‘कतमानि छ भोगानं अपायमुखानि न सेवति? सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठानानुयोगो खो, गहपतिपुत्त, भोगानं अपायमुखं, विकालविसिखाचरियानुयोगो भोगानं अपायमुखं, समज्जाभिचरणं भोगानं अपायमुखं, जूतप्पमादट्ठानानुयोगो भोगानं अपायमुखं, पापमित्तानुयोगो भोगानं अपायमुखं, आलस्यानुयोगो [आलसानुयोगो (सी॰ स्या॰ पी॰)] भोगानं अपायमुखं।
सुरामेरयस्स छ आदीनवा
२४८. ‘‘छ खोमे, गहपतिपुत्त, आदीनवा सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठानानुयोगे। सन्दिट्ठिका धनजानि [धनञ्जानि (सी॰ पी॰)], कलहप्पवड्ढनी, रोगानं आयतनं, अकित्तिसञ्जननी, कोपीननिदंसनी, पञ्ञाय दुब्बलिकरणीत्वेव छट्ठं पदं भवति। इमे खो, गहपतिपुत्त, छ आदीनवा सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठानानुयोगे।
विकालचरियाय छ आदीनवा
२४९. ‘‘छ खोमे, गहपतिपुत्त, आदीनवा विकालविसिखाचरियानुयोगे। अत्तापिस्स अगुत्तो अरक्खितो होति, पुत्तदारोपिस्स अगुत्तो अरक्खितो होति, सापतेय्यंपिस्स अगुत्तं अरक्खितं होति, सङ्कियो च होति पापकेसु ठानेसु [तेसु तेसु ठानेसु (स्या॰)], अभूतवचनञ्च तस्मिं रूहति, बहूनञ्च दुक्खधम्मानं पुरक्खतो होति। इमे खो, गहपतिपुत्त, छ आदीनवा विकालविसिखाचरियानुयोगे।
समज्जाभिचरणस्स छ आदीनवा
२५०. ‘‘छ खोमे, गहपतिपुत्त, आदीनवा समज्जाभिचरणे। क्व [कुवं (क॰ सी॰ पी॰)] नच्चं, क्व गीतं, क्व वादितं, क्व अक्खानं, क्व पाणिस्सरं, क्व कुम्भथुनन्ति। इमे खो, गहपतिपुत्त, छ आदीनवा समज्जाभिचरणे।
जूतप्पमादस्स छ आदीनवा
२५१. ‘‘छ खोमे, गहपतिपुत्त, आदीनवा जूतप्पमादट्ठानानुयोगे। जयं वेरं पसवति, जिनो वित्तमनुसोचति, सन्दिट्ठिका धनजानि, सभागतस्स [सभाये तस्स (क॰)] वचनं न रूहति, मित्तामच्चानं परिभूतो होति, आवाहविवाहकानं अपत्थितो होति – ‘अक्खधुत्तो अयं पुरिसपुग्गलो नालं दारभरणाया’ति। इमे खो, गहपतिपुत्त, छ आदीनवा जूतप्पमादट्ठानानुयोगे।
पापमित्तताय छ आदीनवा
२५२. ‘‘छ खोमे, गहपतिपुत्त, आदीनवा पापमित्तानुयोगे। ये धुत्ता, ये सोण्डा, ये पिपासा, ये नेकतिका, ये वञ्चनिका, ये साहसिका। त्यास्स मित्ता होन्ति ते सहाया। इमे खो, गहपतिपुत्त, छ आदीनवा पापमित्तानुयोगे।
आलस्यस्स छ आदीनवा
२५३. ‘‘छ खोमे, गहपतिपुत्त, आदीनवा आलस्यानुयोगे। अतिसीतन्ति कम्मं न करोति, अतिउण्हन्ति कम्मं न करोति, अतिसायन्ति कम्मं न करोति, अतिपातोति कम्मं न करोति, अतिछातोस्मीति कम्मं न करोति, अतिधातोस्मीति कम्मं न करोति। तस्स एवं किच्चापदेसबहुलस्स विहरतो अनुप्पन्ना चेव भोगा नुप्पज्जन्ति, उप्पन्ना च भोगा परिक्खयं गच्छन्ति। इमे खो, गहपतिपुत्त, छ आदीनवा आलस्यानुयोगे’’ति। इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था –
‘‘होति पानसखा नाम,
होति सम्मियसम्मियो।
यो च अत्थेसु जातेसु,
सहायो होति सो सखा॥
‘‘उस्सूरसेय्या परदारसेवना,
वेरप्पसवो [वेरप्पसङ्गो (सी॰ स्या॰ पी॰)] च अनत्थता च।
पापा च मित्ता सुकदरियता च,
एते छ ठाना पुरिसं धंसयन्ति॥
‘‘पापमित्तो पापसखो,
पापआचारगोचरो।
अस्मा लोका परम्हा च,
उभया धंसते नरो॥
‘‘अक्खित्थियो वारुणी नच्चगीतं,
दिवा सोप्पं पारिचरिया अकाले।
पापा च मित्ता सुकदरियता च,
एते छ ठाना पुरिसं धंसयन्ति॥
‘‘अक्खेहि दिब्बन्ति सुरं पिवन्ति,
यन्तित्थियो पाणसमा परेसं।
निहीनसेवी न च वुद्धसेवी [वुद्धिसेवी (स्या॰), बुद्धिसेवी (क॰)],
निहीयते काळपक्खेव चन्दो॥
‘‘यो वारुणी अद्धनो अकिञ्चनो,
पिपासो पिवं पपागतो [पिपासोसि अत्थपागतो (स्या॰), पिपासोपि समप्पपागतो (क॰)]।
उदकमिव इणं विगाहति,
अकुलं [आकुलं (स्या॰ क॰)] काहिति खिप्पमत्तनो॥
‘‘न दिवा सोप्पसीलेन, रत्तिमुट्ठानदेस्सिना [रत्तिनुट्ठानदस्सिना (सी॰ पी॰), रत्तिनुट्ठानसीलिना (?)]।
निच्चं मत्तेन सोण्डेन, सक्का आवसितुं घरं॥
‘‘अतिसीतं अतिउण्हं, अतिसायमिदं अहु।
इति विस्सट्ठकम्मन्ते, अत्था अच्चेन्ति माणवे॥
‘‘योध सीतञ्च उण्हञ्च, तिणा भिय्यो न मञ्ञति।
करं पुरिसकिच्चानि, सो सुखं [सुखा (सब्बत्थ) अट्ठकथा ओलोकेतब्बा] न विहायती’’ति॥
मित्तपतिरूपका
२५४. ‘‘चत्तारोमे, गहपतिपुत्त, अमित्ता मित्तपतिरूपका वेदितब्बा। अञ्ञदत्थुहरो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो, वचीपरमो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो, अनुप्पियभाणी अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो, अपायसहायो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो।
२५५. ‘‘चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि अञ्ञदत्थुहरो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो।
‘‘अञ्ञदत्थुहरो होति, अप्पेन बहुमिच्छति।
भयस्स किच्चं करोति, सेवति अत्थकारणा॥
‘‘इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि अञ्ञदत्थुहरो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो।
२५६. ‘‘चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि वचीपरमो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो। अतीतेन पटिसन्थरति [पटिसन्धरति (क॰)], अनागतेन पटिसन्थरति, निरत्थकेन सङ्गण्हाति, पच्चुप्पन्नेसु किच्चेसु ब्यसनं दस्सेति। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि वचीपरमो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो।
२५७. ‘‘चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि अनुप्पियभाणी अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो। पापकंपिस्स [पापकम्मंपिस्स (स्या॰)] अनुजानाति, कल्याणंपिस्स अनुजानाति, सम्मुखास्स वण्णं भासति, परम्मुखास्स अवण्णं भासति। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि अनुप्पियभाणी अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो।
२५८. ‘‘चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि अपायसहायो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो। सुरामेरय मज्जप्पमादट्ठानानुयोगे सहायो होति, विकाल विसिखा चरियानुयोगे सहायो होति, समज्जाभिचरणे सहायो होति, जूतप्पमादट्ठानानुयोगे सहायो होति। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि अपायसहायो अमित्तो मित्तपतिरूपको वेदितब्बो’’ति।
२५९. इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था –
‘‘अञ्ञदत्थुहरो मित्तो, यो च मित्तो वचीपरो [वचीपरमो (स्या॰)]।
अनुप्पियञ्च यो आह, अपायेसु च यो सखा॥
एते अमित्ते चत्तारो, इति विञ्ञाय पण्डितो।
आरका परिवज्जेय्य, मग्गं पटिभयं यथा’’ति॥
सुहदमित्तो
२६०. ‘‘चत्तारोमे, गहपतिपुत्त, मित्ता सुहदा वेदितब्बा। उपकारो [उपकारको (स्या॰)] मित्तो सुहदो वेदितब्बो, समानसुखदुक्खो मित्तो सुहदो वेदितब्बो, अत्थक्खायी मित्तो सुहदो वेदितब्बो, अनुकम्पको मित्तो सुहदो वेदितब्बो।
२६१. ‘‘चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि उपकारो मित्तो सुहदो वेदितब्बो। पमत्तं रक्खति, पमत्तस्स सापतेय्यं रक्खति, भीतस्स सरणं होति, उप्पन्नेसु किच्चकरणीयेसु तद्दिगुणं भोगं अनुप्पदेति। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि उपकारो मित्तो सुहदो वेदितब्बो।
२६२. ‘‘चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि समानसुखदुक्खो मित्तो सुहदो वेदितब्बो। गुय्हमस्स आचिक्खति, गुय्हमस्स परिगूहति, आपदासु न विजहति, जीवितंपिस्स अत्थाय परिच्चत्तं होति। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि समानसुखदुक्खो मित्तो सुहदो वेदितब्बो।
२६३. ‘‘चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि अत्थक्खायी मित्तो सुहदो वेदितब्बो। पापा निवारेति, कल्याणे निवेसेति, अस्सुतं सावेति, सग्गस्स मग्गं आचिक्खति। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि अत्थक्खायी मित्तो सुहदो वेदितब्बो।
२६४. ‘‘चतूहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि अनुकम्पको मित्तो सुहदो वेदितब्बो। अभवेनस्स न नन्दति, भवेनस्स नन्दति, अवण्णं भणमानं निवारेति, वण्णं भणमानं पसंसति। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, चतूहि ठानेहि अनुकम्पको मित्तो सुहदो वेदितब्बो’’ति।
२६५. इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था –
‘‘उपकारो च यो मित्तो, सुखे दुक्खे [सुखदुक्खो (स्या॰ क॰)] च यो सखा [यो च मित्तो सुखे दुक्खे (सी॰ पी॰)]।
अत्थक्खायी च यो मित्तो, यो च मित्तानुकम्पको॥
‘‘एतेपि मित्ते चत्तारो, इति विञ्ञाय पण्डितो।
सक्कच्चं पयिरुपासेय्य, माता पुत्तं व ओरसं।
पण्डितो सीलसम्पन्नो, जलं अग्गीव भासति॥
‘‘भोगे संहरमानस्स, भमरस्सेव इरीयतो।
भोगा सन्निचयं यन्ति, वम्मिकोवुपचीयति॥
‘‘एवं भोगे समाहत्वा [समाहरित्वा (स्या॰)], अलमत्तो कुले गिही।
चतुधा विभजे भोगे, स वे मित्तानि गन्थति॥
‘‘एकेन भोगे भुञ्जेय्य, द्वीहि कम्मं पयोजये।
चतुत्थञ्च निधापेय्य, आपदासु भविस्सती’’ति॥
छद्दिसापटिच्छादनकण्डं
२६६. ‘‘कथञ्च, गहपतिपुत्त, अरियसावको छद्दिसापटिच्छादी होति? छ इमा, गहपतिपुत्त, दिसा वेदितब्बा। पुरत्थिमा दिसा मातापितरो वेदितब्बा, दक्खिणा दिसा आचरिया वेदितब्बा, पच्छिमा दिसा पुत्तदारा वेदितब्बा, उत्तरा दिसा मित्तामच्चा वेदितब्बा, हेट्ठिमा दिसा दासकम्मकरा वेदितब्बा, उपरिमा दिसा समणब्राह्मणा वेदितब्बा।
२६७. ‘‘पञ्चहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि पुत्तेन पुरत्थिमा दिसा मातापितरो पच्चुपट्ठातब्बा – भतो ने [नेसं (बहूसु)] भरिस्सामि, किच्चं नेसं करिस्सामि, कुलवंसं ठपेस्सामि, दायज्जं पटिपज्जामि, अथ वा पन पेतानं कालङ्कतानं दक्खिणं अनुप्पदस्सामीति। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि पुत्तेन पुरत्थिमा दिसा मातापितरो पच्चुपट्ठिता पञ्चहि ठानेहि पुत्तं अनुकम्पन्ति। पापा निवारेन्ति, कल्याणे निवेसेन्ति, सिप्पं सिक्खापेन्ति, पतिरूपेन दारेन संयोजेन्ति, समये दायज्जं निय्यादेन्ति [निय्यातेन्ति (क॰ सी॰)]। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि पुत्तेन पुरत्थिमा दिसा मातापितरो पच्चुपट्ठिता इमेहि पञ्चहि ठानेहि पुत्तं अनुकम्पन्ति। एवमस्स एसा पुरत्थिमा दिसा पटिच्छन्ना होति खेमा अप्पटिभया।
२६८. ‘‘पञ्चहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि अन्तेवासिना दक्खिणा दिसा आचरिया पच्चुपट्ठातब्बा – उट्ठानेन उपट्ठानेन सुस्सुसाय पारिचरियाय सक्कच्चं सिप्पपटिग्गहणेन [सिप्पं पटिग्गहणेन (स्या॰), सिप्पउग्गहणेन (क॰)]। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि अन्तेवासिना दक्खिणा दिसा आचरिया पच्चुपट्ठिता पञ्चहि ठानेहि अन्तेवासिं अनुकम्पन्ति – सुविनीतं विनेन्ति, सुग्गहितं गाहापेन्ति, सब्बसिप्पस्सुतं समक्खायिनो भवन्ति, मित्तामच्चेसु पटियादेन्ति [पटिवेदेन्ति (स्या॰)], दिसासु परित्ताणं करोन्ति। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि अन्तेवासिना दक्खिणा दिसा आचरिया पच्चुपट्ठिता इमेहि पञ्चहि ठानेहि अन्तेवासिं अनुकम्पन्ति। एवमस्स एसा दक्खिणा दिसा पटिच्छन्ना होति खेमा अप्पटिभया।
२६९. ‘‘पञ्चहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि सामिकेन पच्छिमा दिसा भरिया पच्चुपट्ठातब्बा – सम्माननाय अनवमाननाय [अविमाननाय (स्या॰ पी॰)] अनतिचरियाय इस्सरियवोस्सग्गेन अलङ्कारानुप्पदानेन। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि सामिकेन पच्छिमा दिसा भरिया पच्चुपट्ठिता पञ्चहि ठानेहि सामिकं अनुकम्पति – सुसंविहितकम्मन्ता च होति, सङ्गहितपरिजना [सुसङ्गहितपरिजना (सी॰ स्या॰ पी॰)] च, अनतिचारिनी च, सम्भतञ्च अनुरक्खति, दक्खा च होति अनलसा सब्बकिच्चेसु। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि सामिकेन पच्छिमा दिसा भरिया पच्चुपट्ठिता इमेहि पञ्चहि ठानेहि सामिकं अनुकम्पति। एवमस्स एसा पच्छिमा दिसा पटिच्छन्ना होति खेमा अप्पटिभया।
२७०. ‘‘पञ्चहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि कुलपुत्तेन उत्तरा दिसा मित्तामच्चा पच्चुपट्ठातब्बा – दानेन पेय्यवज्जेन [वियवज्जेन (स्या॰ क॰)] अत्थचरियाय समानत्तताय अविसंवादनताय। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि कुलपुत्तेन उत्तरा दिसा मित्तामच्चा पच्चुपट्ठिता पञ्चहि ठानेहि कुलपुत्तं अनुकम्पन्ति – पमत्तं रक्खन्ति, पमत्तस्स सापतेय्यं रक्खन्ति, भीतस्स सरणं होन्ति, आपदासु न विजहन्ति, अपरपजा चस्स पटिपूजेन्ति। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि कुलपुत्तेन उत्तरा दिसा मित्तामच्चा पच्चुपट्ठिता इमेहि पञ्चहि ठानेहि कुलपुत्तं अनुकम्पन्ति। एवमस्स एसा उत्तरा दिसा पटिच्छन्ना होति खेमा अप्पटिभया।
२७१. ‘‘पञ्चहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि अय्यिरकेन [अयिरकेन (सी॰ स्या॰ पी॰)] हेट्ठिमा दिसा दासकम्मकरा पच्चुपट्ठातब्बा – यथाबलं कम्मन्तसंविधानेन भत्तवेतनानुप्पदानेन गिलानुपट्ठानेन अच्छरियानं रसानं संविभागेन समये वोस्सग्गेन। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि अय्यिरकेन हेट्ठिमा दिसा दासकम्मकरा पच्चुपट्ठिता पञ्चहि ठानेहि अय्यिरकं अनुकम्पन्ति – पुब्बुट्ठायिनो च होन्ति, पच्छा निपातिनो च, दिन्नादायिनो च, सुकतकम्मकरा च, कित्तिवण्णहरा च। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि अय्यिरकेन हेट्ठिमा दिसा दासकम्मकरा पच्चुपट्ठिता इमेहि पञ्चहि ठानेहि अय्यिरकं अनुकम्पन्ति। एवमस्स एसा हेट्ठिमा दिसा पटिच्छन्ना होति खेमा अप्पटिभया।
२७२. ‘‘पञ्चहि खो, गहपतिपुत्त, ठानेहि कुलपुत्तेन उपरिमा दिसा समणब्राह्मणा पच्चुपट्ठातब्बा – मेत्तेन कायकम्मेन मेत्तेन वचीकम्मेन मेत्तेन मनोकम्मेन अनावटद्वारताय आमिसानुप्पदानेन। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि कुलपुत्तेन उपरिमा दिसा समणब्राह्मणा पच्चुपट्ठिता छहि ठानेहि कुलपुत्तं अनुकम्पन्ति – पापा निवारेन्ति, कल्याणे निवेसेन्ति, कल्याणेन मनसा अनुकम्पन्ति, अस्सुतं सावेन्ति, सुतं परियोदापेन्ति, सग्गस्स मग्गं आचिक्खन्ति। इमेहि खो, गहपतिपुत्त, पञ्चहि ठानेहि कुलपुत्तेन उपरिमा दिसा समणब्राह्मणा पच्चुपट्ठिता इमेहि छहि ठानेहि कुलपुत्तं अनुकम्पन्ति। एवमस्स एसा उपरिमा दिसा पटिच्छन्ना होति खेमा अप्पटिभया’’ति।
२७३. इदमवोच भगवा। इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था –
‘‘मातापिता दिसा पुब्बा, आचरिया दक्खिणा दिसा।
पुत्तदारा दिसा पच्छा, मित्तामच्चा च उत्तरा॥
‘‘दासकम्मकरा हेट्ठा, उद्धं समणब्राह्मणा।
एता दिसा नमस्सेय्य, अलमत्तो कुले गिही॥
‘‘पण्डितो सीलसम्पन्नो, सण्हो च पटिभानवा।
निवातवुत्ति अत्थद्धो, तादिसो लभते यसं॥
‘‘उट्ठानको अनलसो, आपदासु न वेधति।
अच्छिन्नवुत्ति मेधावी, तादिसो लभते यसं॥
‘‘सङ्गाहको मित्तकरो, वदञ्ञू वीतमच्छरो।
नेता विनेता अनुनेता, तादिसो लभते यसं॥
‘‘दानञ्च पेय्यवज्जञ्च, अत्थचरिया च या इध।
समानत्तता च धम्मेसु, तत्थ तत्थ यथारहं।
एते खो सङ्गहा लोके, रथस्साणीव यायतो॥
‘‘एते च सङ्गहा नास्सु, न माता पुत्तकारणा।
लभेथ मानं पूजं वा, पिता वा पुत्तकारणा॥
‘‘यस्मा च सङ्गहा [सङ्गहे (क॰) अट्ठकथायं इच्छितपाठो] एते, सम्मपेक्खन्ति [समवेक्खन्ति (सी॰ पी॰ क॰)] पण्डिता।
तस्मा महत्तं पप्पोन्ति, पासंसा च भवन्ति ते’’ति॥
२७४. एवं वुत्ते, सिङ्गालको गहपतिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भन्ते! अभिक्कन्तं, भन्ते! सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’ति। एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसंघञ्च। उपासकं मं भगवा धारेतु, अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति।
सिङ्गालसुत्तं [सिङ्गालोवादसुत्तन्तं (पी॰)] निट्ठितं अट्ठमं।