नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 संगायन

सूत्र विवेचना

भगवान बुद्ध के श्रावक जब धर्म सुनते थे, तो उनके सामने एक बड़ी चुनौती होती थी — इसे याद कैसे रखा जाए? उस समय भिक्षुओं का जीवन पूरी तरह से धर्माभ्यास और ध्यानसाधना पर ही निर्भर था। भगवान ने स्पष्ट बताया था कि धर्म सुनना और उसे याद रखना भिक्षुओं के शिक्षा का अहम हिस्सा था। अपने जीवन के अंतिम काल में उन्होंने यह भी बताया था कि धर्म-विनय को चिरस्थायी बनाए रखना जरूरी है, ताकि वह आने वाली भावी पीढ़ियों तक पहुँच सकें। इसलिए स्वयं बुद्ध ने धर्म को इस तरह से प्रस्तुत किया, जिससे उसे याद करना सरल हो जाए। उन्होंने धर्म अनुक्रम से बताया, संख्यात्मक सूचियाँ बनाई, प्रभावशाली उपमाएँ दीं, और गाथाओं के रूप में ऐसी लयबद्ध रचनाएँ कीं, जिनसे वे आसानी से याद रह सकें। लेकिन अब श्रावकों पर निर्भर करता था कि वे इस धर्म-विनय को किस रूप में संकलित करेंगे, ताकि इसे आसानी से याद रखा जा सके, और दूर-दराज के इलाकों तक प्रचार-प्रसार हो सकें।

शिष्य अलग-अलग तरीकों से बुद्ध के उपदेशों को याद करते थे। कुछ शिष्य पूरे उपदेशों को याद करते, जबकि कुछ संवादों के रूप में याद करते थे, और बुद्ध के संवादकर्ताओं की कहानियाँ भी बना लेते थे। कुछ शिष्य तो धम्म के मुख्य विचारों को संख्यात्मक सूचियों में संकलित करते थे। इन सब रूपों में अपनी-अपनी ताकत और कमजोरियाँ थीं। उदाहरण के तौर पर, संवादों में शिक्षाएँ अधिक स्पष्ट और संदर्भ के साथ दी जाती थीं, जो यह दर्शाती थीं कि कौन-सी समस्याओं का समाधान उस विशेष सूत्र द्वारा किया जा रहा था। ये संवाद शिष्यों को एक जीवंत रूप में शिक्षा प्रदान करते थे। हालांकि, इन संवादों को याद करना बहुत मुश्किल था क्योंकि इसमें बहुत-सी जानकारी होती थी — जैसे कि पात्रों का विवरण, स्थान, और घटनाओं का क्रम। दूसरी ओर, संख्यात्मक सूचियों में केवल धम्म के शब्दों पर ध्यान केंद्रित किया जाता था, जिससे यह अधिक सरल और प्रभावी हो जाता था। लेकिन, इसमें संदर्भ की कमी होती थी, जिससे यह समझना मुश्किल हो जाता था कि ये शिक्षाएँ व्यक्तिगत समस्याओं या मार्ग के बड़े संदर्भ में किस प्रकार काम आती हैं।

इसी तरह, बुद्ध की शिक्षाओं को याद रखने के लिए इन सभी रूपों का उपयोग किया गया, क्योंकि उनके अलग-अलग फायदे और नुकसान थे। विशेष रूप से दीघनिकाय के दो आखिरी सुत्तों — ३३ और ३४ में ये रूप देखने को मिलते हैं। इन सुत्तों में ऐसी सूचियों का उपयोग किया गया, जिसमें न्यूनतम वर्णन के साथ पूरा धम्म प्रस्तुत हो। इस प्रकार, जो भिक्षु दीघनिकाय को याद करते थे, उनके पास उपदेश देने और अपने अभ्यास के लिए बुनियादी धर्म की सूचियाँ मौजूद थीं, जो बेहद उपयोगी साबित होती थीं। यह तरीका दीघनिकाय के अन्य साहित्यिक सुत्तों से अलग था, जो आम तौर पर बहुत अधिक वर्णनात्मक और जनता को आकर्षित करने के उद्देश्य से लिखे गए थे। इस संदर्भ में, यह कहा जा सकता है कि बुद्ध के शिष्यों ने अपने समय के अनुसार धर्म को संरक्षित करने के लिए इन सभी रूपों का इस्तेमाल किया, ताकि आने वाली भावी पीढ़ियाँ इस धर्म को समझकर अपना सकें।

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल भिक्षुसंघ के साथ मल्ल [राज्य] में भ्रमण करते हुए पावा नामक मल्ल नगर आए। जहाँ भगवान ने पावा में चुन्द कुम्हारपुत्र के आमवन में विहार किया। उस समय पावा के मल्ल रहवासियों के लिए हाल ही में ‘उब्भतक’ नामक नया सभागृह बनाया गया था, जिसमें किसी श्रमण या ब्राह्मण या किसी भी मानव ने वास नहीं किया था।

और, पावा के मल्लों ने सुना, “भगवान पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल भिक्षुसंघ के साथ भ्रमण करते हुए पावा नामक मल्ल नगर आए है, जहाँ वे चुन्द कुम्हारपुत्र के आमवन में विहार कर रहे है।”

तब पावा के रहवासी मल्ल भगवान के पास गए, और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर पावा के रहवासी मल्लों ने भगवान से कहा, “भंते, पावा के मल्ल रहवासियों के लिए हाल ही में ‘उब्भतक’ नामक नया सभागृह बनाया गया था, जिसमें किसी श्रमण या ब्राह्मण या किसी भी मानव ने वास नहीं किया है। भंते, भगवान उसका प्रथम परिभोग करे। भगवान के प्रथम परिभोग करने के पश्चात पावा के रहवासी मल्ल परिभोग करेंगे। वह पावा के रहवासी मल्लों के दीर्घकालीन हित और सुख के लिए होगा।”

भगवान ने मौन स्वीकृति दी। भगवान की स्वीकृति जान कर पावा के रहवासी मल्ल अपने आसन से उठे और भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर, नए सभागृह गए। वहाँ जाकर उन्होने सभी जगह गलीचा बिछाया, आसन लगाया, जल का मटका स्थापित किया, और तेल प्रदीप रख कर भगवान के पास लौटें। भगवान को अभिवादन करने पर एक-ओर खड़े हो पावा के रहवासी मल्लों ने भगवान से कहा, “भंते, सभागृह में सभी गलीचे बिछा दिए गए हैं, आसन लगा दिए गए हैं, जल का मटका स्थापित हो चुका है, तेल प्रदीप भी रख दिया गया है। भंते, भगवान जो समय उचित समझें।”

तब भगवान ने चीवर ओढ़ा, और पात्र और चीवर लेकर भिक्षुसंघ के साथ नए सभागृह गए। वहाँ जाकर भगवान ने पैर धोकर सभागृह में प्रवेश किया, और मध्य-स्तंभ पर पीठ टिका कर पूर्व-दिशा की ओर मुख करते हुए बैठ गए। तब भिक्षुसंघ ने पैर धोकर सभागृह में प्रवेश किया, और पश्चिमी दीवार से सटकर पूर्व-दिशा की ओर मुख करते हुए भगवान के पीठ के पीछे बैठ गए। तब पावा के रहवासी मल्लों ने पैर धोकर सभागृह में प्रवेश किया, और पूर्वी दीवार से सटकर पश्चिम-दिशा की ओर मुख करते हुए भगवान के सम्मुख बैठ गए।

भगवान ने पावा के रहवासी मल्लों को देर रात तक धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया। और, अनुमति दी, “बहुत रात हो चुकी है, वासेट्ठों। जो समय उचित समझों।”

“ठीक है, भंते।” पावा के रहवासी मल्लों ने उत्तर दिया और आसन से उठकर भगवान को अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर चले गए। पावा के रहवासी मल्लों के जाने के बाद, भगवान ने अत्यंत शांत और मौन बैठे भिक्षुसंघ का अवलोकन कर आयुष्मान सारिपुत्त को संबोधित किया, “सारिपुत्त, भिक्षुसंघ सुस्ती और तंद्रा से रहित है। भिक्षुओं को धर्म-कथा बताओ, सारिपुत्त। मेरे पीठ पीड़ा दे रही है, मैं उसे टिकाऊंगा।”

“ठीक है, भंते।” आयुष्मान सारिपुत्त ने भगवान को उत्तर दिया। तब भगवान ने अपनी संघाटि को चौपेती [=चार बार मोड़कर] बिछा दी, और भगवान दायी करवट लेकर सिंह-शैय्या में लेट गए, पैर पर पैर रखकर, स्मरणशील और सचेत होकर, उठने [के समय] को निश्चित करते हुए।

उस समय निगण्ठ नाटपुत्र [=जैन महावीर] की पावा में हाल ही में मौत हुई थी। उनकी मौत होने पर निगण्ठ दो पक्षों में बंटकर लड़ाई, कलह और विवाद करते हुए एक-दूसरे को शब्द-बाणों से घायल कर रहे थे — “तुम इस धर्म-विनय को नहीं जानते, मैं इस धर्म-विनय को जानता हूँ, तुम भला क्या इस धर्म-विनय को जानोगे? तुम्हारी साधना मिथ्या है, मेरी साधना सम्यक। मेरी बात सार्थक है, तुम्हारी निरर्थक। पहले कहने-योग्य बात को अंत में बताते हो, और अंत में कहने-योग्य बात को पहले। तुम्हारी परिकल्पना उलट गयी, तुम्हारी धारणा खंडित हुई, जाओ, बचाओ अपनी धारणा को। तुम इसमें फँस गए, हिम्मत है तो निकलो इससे।” ऐसा लग रहा था, मानो निगण्ठ नाटपुत्रों में कत्लेआम मचा था।

और, जो निगण्ठ नाटपुत्र के श्रावक श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ थे, उनकी निगण्ठ नाटपुत्रों के प्रति मोहभंगिमा हो रही थी, विरक्ति हो रही थी, निराशा हो रही थी। और साथ ही उस धर्म-विनय के प्रति भी — जो अस्पष्ट बताया, दुर्घोषित, न तारने वाला, न परमशान्ति प्रदानकर्ता, न सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित, टूटे स्तूप का, बिना शरण वाला था।

तब आयुष्मान सारिपुत्त ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “मित्रों, निगण्ठ नाटपुत्र की पावा में हाल ही में मौत हुई है। उनकी मौत होने पर निगण्ठ दो पक्षों में बंटकर लड़ाई, कलह और विवाद… मानो निगण्ठ नाटपुत्रों में कत्लेआम मचा है। और, जो निगण्ठ नाटपुत्र के श्रावक श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ हैं, उनकी निगण्ठ नाटपुत्रों के प्रति मोहभंगिमा, विरक्ति, निराशा हो रही हैं। और साथ ही उस धर्म-विनय के प्रति भी — जो अस्पष्ट बताया, दुर्घोषित, न तारने वाला, न परमशान्ति प्रदानकर्ता, न सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित, टूटे स्तूप का, बिना शरण वाला है।

ऐसा ही होता है, मित्रों, जब धर्म-विनय अस्पष्ट बताया, दुर्घोषित हो, न तारने वाला, न परमशान्ति प्रदानकर्ता, बल्कि अ-सम्यकसम्बुद्ध द्वारा विदित हो। किन्तु, मित्रों, हमारे भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है, सुघोषित है, तारने वाला है, परमशान्ति प्रदानकर्ता है, सम्यक-सम्बुद्ध द्वारा विदित है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, ताकि यह ब्रह्मचर्य [दूर-दराज] यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे, जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा।

किन्तु, मित्रों, वह क्या [धर्म] है, जो हमारे भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है, सुघोषित है… जो देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा?”

एक

“मित्रों, भगवान जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, उन्होने एक स्वभाव [=धर्म] 1 को सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, ताकि यह ब्रह्मचर्य यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे, जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा। कौन-सा एक स्वभाव?

(१) सभी सत्व आहार पर निर्भर हैं। 2

(२) सभी सत्व संस्कार [=रचना, परिस्थिति] पर निर्भर हैं। 3

ये एक स्वभाव हैं, मित्रों, जिसे भगवान, जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, ने सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, ताकि यह ब्रह्मचर्य यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे, जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा।”

दो

“आगे, मित्रों, भगवान जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, उन्होने दो स्वभाव को सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए… कौन-से दो धर्म?

(१) नाम और रूप।

(२) अविद्या [=अनभिज्ञता] और भव-तृष्णा [=अस्तित्व बनाने या बनाए रखने की तृष्णा।] 4

(३) भव-दृष्टि [=अस्तित्व पाने का दृष्टिकोण] और विभव-दृष्टि [=अस्तित्व खत्म करने का दृष्टिकोण।] 5

(४) निर्लज्जता [“अहिरी” =पाप की शर्म नहीं] और निस्संकोच [“अनोत्तप” =पाप का भय नहीं।]

(५) लज्जा [“हिरी” =शर्म] और संकोच [“ओतप्प” =परिणाम का भय सताना] 6

(६) मुंहजोरी [“दोवचस्सता” =ढीठता, नहीं सुनना] और पाप-मित्रता।

(७) आज्ञाकारिता [“सोवचस्सता” =विनम्रता, सुन लेना] और कल्याण-मित्रता।

(८) आपत्ति [=दोष समझने में] कुशलता और दोष का समाधान करने में कुशलता। 7

(९) समापत्ति [=ध्यान-अवस्था प्राप्त करने में] कुशलता और ध्यान-अवस्था से निकलने में कुशलता। 8

(१०) धातु कुशलता और चिंतन [“मनसिकार”] कुशलता। 9

(११) आयाम कुशलता और प्रतित्य-समुत्पाद कुशलता। 10

(१२) संभव कुशलता और असंभव [=क्या संभव है और क्या असंभव, यह जानने में] कुशलता। 11

(१३) सीधापन और शर्मिलापन।

(१४) क्षमाशीलता [या सहनशीलता] और सौम्यता।

(१५) स्नेहशीलता [या मित्रत्व] और अतिथि सत्कार [=मेहमान नवाज़ी]।

(१६) हानिरहितता और पवित्रता।

(१७) भुलक्कड़पन और बेहोशी।

(१८) स्मृति [=स्मरणशीलता] और सचेतता

(१९) इंद्रिय-द्वारों का रक्षा न करना और भोजन में मात्रा न जानना।

(२०) इंद्रिय-द्वारों की रक्षा और भोजन में मात्रा जानना।

(२१) मीमांसा [=जाँच-पड़ताल] बल और साधना बल। 12

(२२) स्मृति बल और समाधि बल।

(२३) समथ [=चित्त की निश्चलता] और विपस्सना [=अंतर्दृष्टि]

(२४) समथ निमित्त [=पद, स्विच] और परिश्रम निमित्त।

(२५) परिश्रम और बिना बिखरा हुआ।

(२६) शील विपत्ति [=असफलता] और दृष्टि विपत्ति।

(२७) शील संपदा और दृष्टि संपदा।

(२८) शील परिशुद्धि और दृष्टि परिशुद्धि।

(२९) दृष्टि परिशुद्धि और उस दृष्टि के अनुसार मेहनत करना।

(३०) संवेग और संवेगनीय स्थानों से संवेग जगाकर उचित मेहनत करना।

(३१) कुशल-स्वभाव से असंतुष्ट ही रहना और निरंतर मेहनत करना।

(३२) विद्या और विमुक्ति।

(३३) क्षय ज्ञान और अनुत्पाद ज्ञान।

ये दो स्वभाव हैं, मित्रों, जिसे भगवान, जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, ने सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, ताकि यह ब्रह्मचर्य यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे, जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा।”

तीन

“आगे, मित्रों, भगवान जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, उन्होने तीन स्वभाव को सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए… कौन-से तीन धर्म?

(१) तीन अकुशल मूल [=बुराइयों की जड़] हैं — लोभ अकुशल मूल, द्वेष अकुशल मूल, मोह [=भ्रम] अकुशल मूल।

(२) तीन कुशल मूल [=अच्छाईयों की जड़] हैं — अलोभ कुशल मूल, अद्वेष कुशल मूल, अमोह अकुशल मूल।

(३) तीन दुराचार हैं — काया दुराचार, वाणी दुराचार, मनो दुराचार।

(४) तीन सदाचार हैं — काया सदाचार, वाणी सदाचार, मनो सदाचार।

(५) तीन अकुशल विचार हैं — कामुक विचार, दुर्भावनापूर्ण विचार, हिंसक विचार।

(६) तीन कुशल विचार हैं — निष्काम [=संन्यास] विचार, दुर्भावना-रहित विचार, अहिंसक विचार।

(७) तीन अकुशल संकल्प हैं — कामुक संकल्प, दुर्भावनापूर्ण संकल्प, हिंसक संकल्प।

(८) तीन कुशल संकल्प हैं — निष्काम संकल्प, दुर्भावना-रहित संकल्प, अहिंसक संकल्प।

(९) तीन अकुशल नजरिए [=संज्ञा] हैं — कामुक नजरिया, दुर्भावनापूर्ण नजरिया, हिंसक नजरिया।

(१०) तीन कुशल नजरिए हैं — निष्काम नजरिया, दुर्भावना-रहित नजरिया, अहिंसक नजरिया।

(११) तीन अकुशल धातु हैं — कामुक धातु, दुर्भावनापूर्ण धातु, हिंसक धातु।

(१२) तीन कुशल धातु हैं — निष्काम धातु, दुर्भावना-रहित धातु, अहिंसक धातु।

(१३) और भी तीन धातु हैं — काम धातु, रूप धातु, अरूप धातु।

(१४) और भी तीन धातु हैं — रूप धातु, अरूप धातु, निरोध धातु।

(१५) और भी तीन धातु हैं — हीन धातु, मध्यम धातु, उत्तम धातु। 13

(१६) तीन तृष्णाएँ हैं — काम तृष्णा, भव तृष्णा, विभव तृष्णा।

(१७) और भी तीन तृष्णाएँ हैं — काम तृष्णा, रूप तृष्णा, अरूप तृष्णा।

(१८) और भी तीन तृष्णाएँ हैं — रूप तृष्णा, अरूप तृष्णा, निरोध तृष्णा।

(१९) तीन संयोजन [=बेड़ियाँ] हैं — आत्मीयता धारणा, उलझन, कर्मकाण्ड और व्रत में अटकना।

(२०) तीन आस्रव हैं — काम आस्रव, भव आस्रव, अविद्या आस्रव।

(२१) तीन भव हैं — काम भव, रूप भव, अरूप भव।

(२२) तीन खोज हैं — कामुक खोज, भव [=नए अस्तित्व] की खोज, ब्रह्मचर्य की खोज।

(२३) तीन अहंभाव हैं — ‘मैं श्रेष्ठ हूँ’ का अहंभाव, ‘मैं समान हूँ’ का अहंभाव, और ‘मैं हीन हूँ’ का अहंभाव।

(२४) तीन काल होते हैं — अतीत काल, भविष्य काल, वर्तमान काल।

(२५) तीन किनारे [“अन्त” =चरम] होते हैं — आत्मीयता [“सक्काय”] का किनारा, आत्मीयता उत्पत्ति का किनारा, आत्मीयता निरोध का किनारा। 14

(२६) तीन संवेदना हैं — सुखद संवेदना, दुखद संवेदना, न-दुखद न-सुखद संवेदना।

(२७) तीन [मानसिक] दुःख हैं — दुखद [संवेदना का] दुःख, संस्कार [=परिस्थिति में] दुःख, विपरिणाम [=विपरीत बदलाव होने का] दुःख। 15

(२८) तीन संग्रह [“रासि”] हैं — मिथ्यापन में निश्चितता का संग्रह, सम्यकता में निश्चितता का संग्रह, अनिश्चितता का संग्रह। 16

(२९) तीन अँधेरे हैं — अतीत को लेकर शंका, उलझन, दुविधा में फँसा, आश्वस्त नहीं होना; भविष्य को लेकर शंका, उलझन, दुविधा में फँसा, आश्वस्त नहीं होना; और वर्तमान को लेकर शंका, उलझन, दुविधा में फँसा, आश्वस्त नहीं होना।

(३०) तीन बातें तथागत को बचानी नहीं पड़ती — तथागत का शारीरिक आचरण परिशुद्ध होता है। तथागत में कोई शारीरिक दुराचार नहीं होता, जिसे तथागत को बचाना [=छिपाना] पड़े, ‘यह मेरे बारे में कोई दूसरा न जान ले।’ तथागत का वाणी आचरण परिशुद्ध होता है। तथागत में कोई वाणी दुराचार नहीं होता, जिसे तथागत को छिपाना पड़े, ‘यह मेरे बारे में कोई दूसरा न जान ले।’ तथागत का मानसिक आचरण परिशुद्ध होता है। तथागत में कोई मानसिक दुराचार नहीं होता, जिसे तथागत को छिपाना पड़े, ‘यह मेरे बारे में कोई दूसरा न जान ले।’ 17

(३१) तीन जुड़ाव हैं — राग जुड़ाव, द्वेष जुड़ाव, मोह जुड़ाव।

(३२) तीन अग्नि हैं — राग अग्नि, द्वेष अग्नि, मोह अग्नि।

(३३) और भी तीन अग्नि हैं — आमंत्रण-योग्य के लिए अग्नि, गृहस्थों के लिए अग्नि, दक्षिणा-योग्य के लिए अग्नि। 18

(३४) तीन तरह के रूप संग्रह होते हैं — दृश्य और प्रतिरोधी रूप, अदृश्य और प्रतिरोधी रूप, अदृश्य और अप्रतिरोधी रूप। 19

(३५) तीन रचनाएँ [=संस्कार] हैं — पुण्य की रचना [“अभिसंस्कार”], अपुण्य [=पाप] की रचना, अचलता [=अरूप आयाम में अवस्था] की रचना।

(३६) तीन व्यक्तित्व [“पुग्गल”] हैं — शिक्षार्थी [“सेक्ख”] व्यक्तित्व, अशिक्षार्थी व्यक्तित्व, न-शिक्षार्थी न-अशिक्षार्थी व्यक्तित्व। 20

(३७) तीन वरिष्ठ [=थेर] हैं — जन्म से वरिष्ठ, धर्म से वरिष्ठ, मान्यता से वरिष्ठ।

(३८) तीन पुण्यक्रिया के आधार हैं — दानमय पुण्यक्रिया आधार, शीलमय पुण्यक्रिया आधार, साधनामय पुण्यक्रिया आधार।

(३९) तीन फटकार के आधार हैं — दिखने पर, सुनने पर, संदेह पर।

(४०) तीन काम उत्पत्ति हैं।

• कुछ ऐसे सत्व हैं, मित्रों, जो वर्तमान में उत्पन्न कामभोग की कामना करते हैं, वर्तमान में उत्पन्न कामुकता के वशीभूत रहते हैं, जैसे मानव, कुछ तरह के देवता, और कुछ पतन हो चुके सत्व। यह पहली काम उत्पत्ति है।

• आगे, कुछ ऐसे सत्व हैं, जो [स्वयं] कामभोग का निर्मित करते हैं, जो निर्मित कर-कर के कामुकता के वशीभूत रहते हैं, जैसे निर्माणरति देवतागण। यह दूसरी काम उत्पत्ति है।

• आगे, कुछ ऐसे सत्व हैं, जो पराए द्वारा निर्मित कामभोग की कामना करते हैं, परनिर्मित कामुकता के वशीभूत रहते हैं, जैसे परनिर्मित वशवर्ती देवतागण। यह तीसरी काम उत्पत्ति है। 21

(४१) तीन सुख उत्पत्ति हैं।

• कुछ ऐसे सत्व हैं, मित्रों, जो उत्पाद कर-कर के सुख विहार करते हैं, जैसे ब्रह्मकायिक देवतागण। यह पहली सुख उत्पत्ति है।

• आगे, कुछ ऐसे सत्व हैं, जो सुख में डूबे, भीगे, भरे, और लथपथ होते हैं। वे कभी-कभी बोल पड़ते हैं, ‘हाय, कितना सुख! हाय, कितना सुख!’ जैसे आभास्वर देवतागण। यह दूसरी सुख उत्पत्ति है।

• आगे, कुछ ऐसे सत्व हैं, जो सुख में डूबे, भीगे, भरे, और लथपथ होते हैं। वे वाकई संतुष्ट होकर सुख की अनुभूति करते हैं, जैसे सुंदर काले देवतागण। 22

(४२) तीन अन्तर्ज्ञान [=प्रज्ञा] हैं — शिक्षार्थी का अन्तर्ज्ञान, अशिक्षार्थी का अन्तर्ज्ञान, न-शिक्षार्थी न-अशिक्षार्थी का अन्तर्ज्ञान। 23

(४३) और भी तीन अन्तर्ज्ञान हैं — चिंतनमय अन्तर्ज्ञान, श्रुतमय अन्तर्ज्ञान, भावनामय अन्तर्ज्ञान। 24

(४४) तीन हथियार हैं — श्रुत हथियार, एकांतवास हथियार, अन्तर्ज्ञान हथियार। 25

(४५) तीन इंद्रिय हैं — [अरहंत] ज्ञान निश्चित मिलेगा यह जानने वाली इंद्रिय, [अरहंत] ज्ञान की इंद्रिय, और [अरहंत] ज्ञानी की इंद्रिय। 26

(४६) तीन आँखें हैं — माँस की आँख, दिव्य आँख, अन्तर्ज्ञान की आँख।

(४७) तीन शिक्षाएँ हैं — शील ऊँचा उठाने की शिक्षा, चित्त ऊँचा उठाने की शिक्षा, अन्तर्ज्ञान ऊँचा उठाने की शिक्षा।

(४८) तीन भावना [साधना, आध्यत्मिक विकास] हैं — शारीरिक साधना, चित्त साधना, अन्तर्ज्ञान साधना। 27

(४९) तीन अनुत्तरीय [=सर्वोत्तम गुण] हैं — दर्शन अनुत्तरीय, साधना [“पटिपदा”] अनुत्तरिय, विमुक्ति अनुत्तरिय। 28

(५०) तीन समाधि हैं — [“वितक्क विचार”] विषय और चिंतन के साथ समाधि, विषय-रहित और सीमित-चिंतन के साथ समाधि, विषय-रहित और चिंतन-रहित समाधि। 29

(५०) और भी तीन समाधि हैं — शून्यता समाधि, अनिमित्त समाधि, अप्रणिहित समाधि। 8

(५१) तीन पवित्रता हैं — शारीरिक पवित्रता, वाणी पवित्रता, मानसिक पवित्रता। 30

(५२) तीन मुनित्व [=नैतिक संपूर्णता] हैं — शारीरिक मुनित्व, वाणी मुनित्व, मानसिक मुनित्व। 31

(५३) तीन कौशल्य हैं — प्रगति कौशल्य, दुर्गति कौशल्य, उपाय कौशल्य। 32

(५४) तीन नशे [=मदहोशी] हैं — आरोग्य [=चंगाई] का नशा, यौवन का नशा, जीवन का नशा।

(५५) तीन स्वामित्व हैं — आत्म स्वामित्व, लोक स्वामित्व, धर्म स्वामित्व। 33

(५६) तीन बातों के विषय हैं — अतीतकाल को लेकर बात करते हैं, “ऐसा अतीत में था।” भविष्यकाल को लेकर बात करते हैं, “ऐसा भविष्य में होगा।” वर्तमानकाल को लेकर बात करते हैं, “ऐसा वर्तमान में है।” 34

(५७) तीन विद्या हैं — पूर्वजन्मों का स्मरणज्ञान विद्या, सत्वों का गतिज्ञान विद्या, आस्रव क्षयज्ञान विद्या।

(५८) तीन विहार [ध्यान-अवस्था] हैं — दिव्य विहार, ब्रह्मा विहार, आर्य विहार। 35

(५९) तीन चमत्कार हैं — ऋद्धि चमत्कार, खुलासा चमत्कार, निर्देश चमत्कार। 36

ये तीन स्वभाव हैं, मित्रों, जिसे भगवान, जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, ने सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, ताकि यह ब्रह्मचर्य यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे, जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा।”

चार

“आगे, मित्रों, भगवान जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, उन्होने चार स्वभाव को सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए… कौन-से चार धर्म?

(१) चार स्मृतिप्रस्थान हैं।

यहाँ, भिक्षुओं, कोई भिक्षु दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, काया को काया देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। वह दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। वह दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, चित्त को चित्त देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। वह दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील।

(२) चार सम्यक प्रयास हैं।

यहाँ, भिक्षुओं, कोई भिक्षु अनुत्पन्न पाप, अकुशल स्वभाव उत्पन्न न हो — उसके लिए भिक्षु चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है। वह उत्पन्न पाप, अकुशल स्वभाव छोड़ने के लिए चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है। वह अनुत्पन्न कुशल स्वभाव उत्पन्न करने के लिए चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है। वह उत्पन्न कुशल स्वभाव टिकाए रखने, आगे लाने, वृद्धि करने, प्रचुरता लाने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।

(३) चार ऋद्धिपद हैं।

यहाँ, भिक्षुओं, कोई भिक्षु चाहत और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल विकसित करता है। वह ऊर्जा और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल विकसित करता है। वह चित्त और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल विकसित करता है। वह विमर्श और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल विकसित करता है।

(४) चार ध्यान हैं।

यहाँ भिक्षुओं, कोई भिक्षु काम से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त — सोच और विचार के साथ, निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले प्रथम-झान में प्रवेश कर रहता है। आगे, सोच और विचार रुक जाने पर भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर बिना-सोच बिना-विचार, समाधि से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले द्वितीय-झान में प्रवेश कर रहता है। तब, आगे वह प्रफुल्लता से विरक्ति ले, स्मरणशीलता और सचेतता के साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं — वह उस तृतीय-झान में प्रवेश कर रहता है। आगे, वह सुख और दर्द दोनों ही हटाकर, खुशी और परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से, अब नसुख-नदर्दवाले, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-झान में प्रवेश कर रहता है।

(५) चार समाधि भावना हैं।

मित्रों, ऐसी समाधि भावना है, जिसे विकसित करने पर, बार-बार करने पर, इस जीवन में अभी सुख-विहार बढ़ता है। ऐसी समाधि भावना है, जिसे विकसित करने पर, बार-बार करने पर, ज्ञान-दर्शन बढ़ता है। ऐसी समाधि भावना है, जिसे विकसित करने पर, बार-बार करने पर, स्मरणशील और सचेतता बढ़ती है। ऐसी समाधि भावना है, जिसे विकसित करने पर, बार-बार करने पर, वह आस्रव क्षय की ओर बढ़ती है।

• मित्रों, कौन-सी समाधि भावना है, जिसे विकसित करने पर, बार-बार करने पर, इस जीवन में अभी सुख-विहार बढ़ता है? यहाँ मित्रों, कोई भिक्षु काम से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त — सोच और विचार के साथ, निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले प्रथम-झान… द्वितीय-झान… तृतीय-झान… चतुर्थ-झान में प्रवेश कर रहता है। यही वह समाधि भावना है, मित्रों, जिसे विकसित करने पर, बार-बार करने पर, इस जीवन में अभी सुख-विहार बढ़ता है।

• और, कौन-सी समाधि भावना है, जिसे विकसित करने पर, बार-बार करने पर, ज्ञान-दर्शन बढ़ता है? यहाँ मित्रों, कोई भिक्षु उजाला नजरिए [=आलोक संज्ञा] पर गौर करता है, दिन नजरिए का अधिष्ठान करता है — जैसा दिन वैसी रात, जैसी रात वैसा दिन। इस तरह बिना ढ़के, बिना बंधे मानस से उजालेदार चित्त को विकसित करता है। यही वह समाधि भावना है, मित्रों, जिसे विकसित करने पर, बार-बार करने पर, ज्ञान-दर्शन बढ़ता है।

• और, कौन-सी समाधि भावना है, जिसे विकसित करने पर, बार-बार करने पर, स्मरणशील और सचेतता बढ़ती है? यहाँ मित्रों, भिक्षु को संवेदनाओं के उपजने पर पता चलता है, उनके ठहरने पर पता चलता है, उनके चले जाने पर पता चलता है। उसे नजरियों के उपजने पर पता चलता है, उनके ठहरने पर पता चलता है, उनके चले जाने पर पता चलता है। उसे विचारों के उपजने पर पता चलता है, उनके ठहरने पर पता चलता है, उनके चले जाने पर पता चलता है। यही वह समाधि भावना है, मित्रों, जिसे विकसित करने पर, बार-बार करने पर, स्मरणशील और सचेतता बढ़ती है।

• और, कौन-सी समाधि भावना है, जिसे विकसित करने पर, बार-बार करने पर, वह आस्रव क्षय की ओर बढ़ती है? यहाँ मित्रों, कोई भिक्षु पाँच आधार-संग्रहों [“उपादानक्खन्ध”] का उदय-व्यय देखते हुए विहार करता है। यह रूप है, यह रूप की उत्पत्ति है, यह रूप की विलुप्ति है। यह संवेदना है, यह संवेदना की उत्पत्ति है, यह संवेदना की विलुप्ति है। यह नजरिया है, यह नजरिए की उत्पत्ति है, यह नजरिए की विलुप्ति है। यह रचना [=संस्कार] है, यह रचना की उत्पत्ति है, यह रचना की विलुप्ति है। यह चैतन्य है, यह चैतन्य की उत्पत्ति है, यह चैतन्य की विलुप्ति है। यही वह समाधि भावना है, मित्रों, जिसे विकसित करने पर, बार-बार करने पर, वह आस्रव क्षय की ओर बढ़ती है।

(६) चार असीमता [=अप्रमाणता] हैं।

यहाँ मित्रों, कोई भिक्षु सद्भावपूर्ण [“मेत्ता”] चित्त को एक-दिशा में फैलाकर विहार करता है। तब, दूसरी-दिशा में, फिर तीसरी-दिशा में, और फिर चौथी-दिशा में। तब ऊपर, नीचे, तत्र सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर निर्द्वेष, विस्तृत विराट असीम सद्भावपूर्ण चित्त फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। आगे, वह करुण चित्त… प्रसन्न [“मुदिता”] चित्त… तटस्थ [“उपेक्खा”] चित्त को एक-दिशा में फैलाकर विहार करता है। तब, दूसरी-दिशा में, फिर तीसरी-दिशा में, और फिर चौथी-दिशा में। तब ऊपर, नीचे, तत्र सर्वत्र, संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर निर्द्वेष, विस्तृत विराट असीम करुण… प्रसन्न… तटस्थ चित्त फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है।

(७) चार अरूपता हैं।

यहाँ मित्रों, कोई भिक्षु रूप नजरियों को पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नजरियों के ओझल होने पर, विविध नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनन्त है’ [देखते हुए] ‘अनन्त आकाश-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। आगे, वह अनन्त आकाश-आयाम को पूर्णतः लाँघकर, ‘चैतन्य अनन्त है’ [देखते हुए] ‘अनन्त चैतन्य-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। आगे, वह अनन्त चैतन्य-आयाम को पूर्णतः लाँघकर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] ‘सूने-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। आगे, वह सूने-आयाम को पूर्णतः लाँघकर, ‘न-नजरिया-न-अनजरिया-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है।

(८) चार सहारे हैं।

यहाँ मित्रों, कोई भिक्षु मूल्यांकन कर के [वस्तु का] उपयोग करता है, मूल्यांकन कर के [किसी को] सहन करता है, मूल्यांकन कर के [किसी को] टालता है, मूल्यांकन कर के [किसी से] दूर रहता है। 37

(९) चार आर्यवंश हैं।

• यहाँ मित्रों, कोई भिक्षु जैसे तैसे [=किसी भी प्रकार के] चीवर से संतुष्ट होता है, जैसे तैसे चीवर से संतुष्ट होने की प्रशंसा करता है। वह चीवर पाने के लिए अनुचित रास्ता नहीं अपनाता। चीवर प्राप्त न होने पर परेशान नहीं होता। चीवर प्राप्त हो जाने पर उससे बिना बंधे, बिना मुग्ध हुए, बिना आसक्त हुए, बल्कि उसकी खामी देखते हुए, निकलने का मार्ग पता लगाते हुए उसका उपभोग करता है। किन्तु, वह जैसे तैसे चीवर से संतुष्ट होने पर भी न स्वयं का गुणगान करता है, न ही दूसरों को हीन मानता है। जो भी इसके प्रति दक्ष, अनालसी, सचेत, और स्मरणशील हो, उसे कहते हैं, “यह भिक्षु पुरातन प्रारंभिक आर्यवंश में स्थित है।”

• आगे, कोई भिक्षु जैसी तैसी भिक्षा से संतुष्ट होता है, जैसी तैसी भिक्षा से संतुष्ट होने की प्रशंसा करता है। वह भिक्षा पाने के लिए अनुचित रास्ता नहीं अपनाता। भिक्षा प्राप्त न होने पर परेशान नहीं होता। भिक्षा प्राप्त हो जाने पर उससे बिना बंधे, बिना मुग्ध हुए, बिना आसक्त हुए, बल्कि उसकी खामी देखते हुए, निकलने का मार्ग पता लगाते हुए उसका उपभोग करता है। किन्तु, वह जैसी तैसी भिक्षा से संतुष्ट होने पर भी न स्वयं का गुणगान करता है, न ही दूसरों को हीन मानता है। जो भी इसके प्रति दक्ष, अनालसी, सचेत, और स्मरणशील हो, उसे कहते हैं, “यह भिक्षु पुरातन प्रारंभिक आर्यवंश में स्थित है।”

• आगे, कोई भिक्षु जैसे तैसे निवास से संतुष्ट होता है, जैसे तैसे निवास से संतुष्ट होने की प्रशंसा करता है। वह निवास पाने के लिए अनुचित रास्ता नहीं अपनाता। निवास प्राप्त न होने पर परेशान नहीं होता। निवास प्राप्त हो जाने पर उससे बिना बंधे, बिना मुग्ध हुए, बिना आसक्त हुए, बल्कि उसकी खामी देखते हुए, निकलने का मार्ग पता लगाते हुए उसका उपभोग करता है। किन्तु, वह जैसे तैसे निवास से संतुष्ट होने पर भी न स्वयं का गुणगान करता है, न ही दूसरों को हीन मानता है। जो भी इसके प्रति दक्ष, अनालसी, सचेत, और स्मरणशील हो, उसे कहते हैं, “यह भिक्षु पुरातन प्रारंभिक आर्यवंश में स्थित है।”

• आगे, कोई भिक्षु त्यागने में मजा लेता है, त्यागने में रमता [=खुश होता] है। वह साधना में मजा लेता है, साधना में रमता है। किन्तु, त्यागने में मजा लेना, त्यागने में रमना, साधना में मजा लेना, साधना में रमने पर भी न स्वयं का गुणगान करता है, न ही दूसरों को हीन मानता है। जो भी इसके प्रति दक्ष, अनालसी, सचेत, और स्मरणशील हो, उसे कहते हैं, “यह भिक्षु पुरातन प्रारंभिक आर्यवंश में स्थित है।”

(१०) चार प्रयास हैं। संवर प्रयास, त्याग प्रयास, साधना प्रयास, और अनुरक्षा प्रयास।

• मित्रों, यह संवर प्रयास क्या है? यहाँ कोई भिक्षु आँखों से रूप देखकर, न उसकी छाप [“निमित्त”] ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण [=आकर्षित करनेवाली कोई दूसरी बात]। चूँकि यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे [कोई] लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, चक्षु-इंद्रिय का बचाव करता है, चक्षु-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है। वह कानों से आवाज सुनकर… नाक से गंध सूँघकर, जीभ से स्वाद चखकर, काया से संस्पर्श अनुभव कर, मन से स्वभाव जानकर न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह उन इंद्रियों पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, इंद्रियों का बचाव करता है, इंद्रियों के सँवर पर अमल करता है। इसे, मित्रों, संवर प्रयास कहते हैं।

• और, यह त्याग [=प्रहाण] प्रयास क्या है? यहाँ कोई भिक्षु उत्पन्न कामुक विचारों को बर्दाश्त नहीं करता, बल्कि उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है। वह उत्पन्न दुर्भावनापूर्ण विचारों को बर्दाश्त नहीं करता, बल्कि उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है। वह उत्पन्न हिंसक विचारों को बर्दाश्त नहीं करता, बल्कि उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है। वह उत्पन्न पाप अकुशल स्वभावों को बर्दाश्त नहीं करता, बल्कि उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है। इसे, मित्रों, त्याग प्रयास कहते हैं।

• और, यह साधना [“भावना”] प्रयास क्या है? यहाँ कोई भिक्षु स्मृति संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो। वह स्वभाव-जाँच [“धम्मविचय”] संबोधिअंग… ऊर्जा [“वीरिय”] संबोधिअंग… प्रफुल्लता [“पीति”] संबोधिअंग… प्रशान्ति [“पस्सद्धि”] संबोधिअंग… समाधि संबोधिअंग… तटस्थता [“उपेक्खा”] संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो। इसे, मित्रों, साधना प्रयास कहते हैं।

• और, यह अनुरक्षा प्रयास क्या है? यहाँ कोई भिक्षु उत्पन्न हुए भाग्यशाली समाधि निमित्तों की अनुरक्षा [बनाए और बचाए रखना] करता है — जैसे अस्थि संज्ञा [=हड्डी के नजरिए से देखना], कृमिग्रस्त [लाश] संज्ञा, [लाश की] सड़न संज्ञा, फटकर खुली हुई [लाश] संज्ञा, फुली हुई [लाश] संज्ञा। इसे, मित्रों, अनुरक्षा प्रयास कहते हैं।

(११) चार ज्ञान हैं — धर्म ज्ञान, अनुमान ज्ञान, पराया ज्ञान, सम्मति ज्ञान। 38

(१२) और भी चार ज्ञान हैं — दुःख ज्ञान, दुःख उत्पत्ति ज्ञान, दुःख निरोध ज्ञान, दुःख निरोधकर्ता मार्ग ज्ञान।

(१३) चार श्रोतापति-अंग हैं — सत्पुरुष से संगति, सद्धर्म सुनना, उचित तरह से गौर करना, धर्मानुसार धर्म की साधना करना। 39

(१४) चार श्रोतापन्न के अंग हैं।

• यहाँ मित्रों, किसी आर्यश्रावक को बुद्ध पर आस्था सत्यापित होती है कि ‘वाकई भगवान ही अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है—विद्या और आचरण से संपन्न, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान!’

• उसे धर्म पर आस्था सत्यापित होती है कि ‘वाकई भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है, तुरंत दिखता है, कालातीत है, आजमाने योग्य, परे ले जाने वाला, समझदार द्वारा अनुभव योग्य!’

• उसे संघ पर आस्था सत्यापित होती है कि ‘वाकई भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है, सीधे मार्ग पर चलता है, यथार्थ मार्ग पर चलता है, उचित मार्ग पर चलता है। चार जोड़ी में, आठ प्रकार के आर्यजन — यही भगवान का श्रावकसंघ है — उपहार योग्य, सत्कार योग्य, दक्षिणा योग्य, वंदना योग्य, दुनिया के लिए अनुत्तर पुण्यक्षेत्र!’

• वह आर्यपसंद शील से संपन्न होता है — जो अखंडित रहें, अछिद्रित रहें, बेदाग रहें, बेधब्बा रहें, निष्कलंक रहें, विद्वानों द्वारा प्रशंसित हो, छुटकारा दिलाते हो, और समाधि की ओर बढ़ाते हो।

(१५) चार श्रामण्य फल हैं — श्रोतापति फल, सकृदागामि फल, अनागामि फल, अरहंत फल।

(१६) चार धातु हैं — पृथ्वी धातु, जल धातु, अग्नि धातु, वायु धातु।

(१७) चार आहार हैं — ठोस आहार [“कबळीकार” =निवाले बना-बनाकर खाने योग्य], चाहे स्थूल हो या सूक्ष्म, दूसरा संस्पर्श [=इंद्रियों का उनके विषय से टकराना], तीसरा मनोसंचेतना, और चौथा चैतन्य। 2

(१८) चार चैतन्य की [ठहरने की] स्थितियाँ हैं।

जब भी चैतन्य ठहरता है, रूप के उपाय से ठहरता है, रूप का आलंबन लेकर रूप पर स्थापित होता है, और लुत्फ के सिंचन से बढ़ने लगता है, वृद्धि पाता है, विपुल होता है। जब भी चैतन्य ठहरता है, संवेदना… नजरिए… रचना के उपाय से ठहरता है, रचना का आलंबन लेकर रचना पर स्थापित होता है, और लुत्फ के सिंचन से बढ़ने लगता है, वृद्धि पाता है, विपुल होता है। 40

(१९) चार अगति-गमन [=मार्ग से भटकना] हैं — चाहत के मारे कोई मार्ग से भटकता है। द्वेष के मारे कोई मार्ग से भटकता है। भ्रम के मारे कोई मार्ग से भटकता है। भय के मारे कोई मार्ग से भटकता है। 41

(२०) चार तृष्णा के उत्पाद हैं — भिक्षुओं को चीवर के लिए तृष्णा उपजती है। भिक्षुओं को भिक्षा के लिए तृष्णा उपजती है। भिक्षुओं को निवास के लिए तृष्णा उपजती है। भिक्षुओं को किसी न किसी भव के लिए तृष्णा उपजती है। 42

(२१) चार साधना-मार्ग [“पटिपदा”] हैं — दर्दभरा साधना-मार्ग, किन्तु मंद गति से प्रत्यक्ष-ज्ञान [प्राप्त होना]। दर्दभरा साधना-मार्ग और तुरंत प्रत्यक्ष-ज्ञान। सुखद साधना-मार्ग, किन्तु मंद गति से प्रत्यक्ष-ज्ञान। सुखद साधना-मार्ग और तुरंत प्रत्यक्ष-ज्ञान। 43

(२२) और भी चार साधना-मार्ग हैं — असहनशील [या अधीर] साधना-मार्ग। सहनशील [या धैर्यपूर्ण] साधना-मार्ग। स्वयं पर काबू का साधना-मार्ग। सम [=संतुलित या समतल] साधना-मार्ग। 44

(२३) चार धर्मपद [=धर्म के पदमार्ग] हैं — लालसा-रहित धर्मपद। दुर्भावना-रहित धर्मपद। सम्यक-स्मृति धर्मपद, सम्यक-समाधि धर्मपद। 45

(२४) चार धर्म का अंगीकार हैं — मित्रों, ऐसा धर्म का अंगीकार है जो वर्तमान में दर्दभरा और भविष्य में दर्द परिणामी हो। ऐसा भी धर्म का अंगीकार है जो वर्तमान में दर्दभरा किन्तु भविष्य में सुख परिणामी हो। ऐसा भी धर्म का अंगीकार है जो वर्तमान में सुखद किन्तु भविष्य में दर्द परिणामी हो। और ऐसा भी धर्म का अंगीकार है जो वर्तमान में सुखद और भविष्य में सुख परिणामी हो। 46

(२५) चार धर्म के स्कन्ध [=समूह] हैं — शील स्कन्ध, समाधि स्कन्ध, अन्तर्ज्ञान स्कन्ध, विमुक्ति स्कन्ध।

(२६) चार बल हैं — ऊर्जा बल, स्मृति बल, समाधि बल, अन्तर्ज्ञान बल। 47

(२७) चार अधिष्ठान हैं — अन्तर्ज्ञान अधिष्ठान, सच्चाई अधिष्ठान, त्याग अधिष्ठान, शांति अधिष्ठान। 48

(२८) चार प्रश्नोत्तर [के तरीके] हैं — एक स्पष्ट उत्तर देने योग्य प्रश्न, प्रतिप्रश्न कर के उत्तर देने योग्य प्रश्न, विश्लेषण कर के उत्तर देने योग्य प्रश्न, एक-ओर [अनुत्तरित] रख देने योग्य प्रश्न। 49

(२९) चार कर्म हैं — मित्रों, काले कर्म होते हैं, काले परिणाम वाले। श्वेत [=सफ़ेद] कर्म होते हैं, श्वेत परिणाम वाले। काले व श्वेत [मिलेजुले] कर्म होते हैं, काले व श्वेत परिणाम वाले। और न काले न श्वेत कर्म होते हैं, न काले न श्वेत परिणाम वाले। 50

(३०) चार धर्म साक्षात्कार करना हैं — पूर्वजन्मों को स्मरण से साक्षात्कार करना है। सत्वों की गति [=मरण-पुनर्जन्म] को [दिव्य] चक्षु से साक्षात्कार करना है। काया से आठ विमोक्ष साक्षात्कार करने हैं। अन्तर्ज्ञान से आस्रवों का अंत साक्षात्कार करना है। 51

(३१) चार बाढ़ हैं — कामुकता की बाढ़, भव की बाढ़, दृष्टि की बाढ़, अविद्या की बाढ़। 52

(३२) चार योक [=जुगल, दास चिन्ह] हैं — कामुकता का योक, भव का योक, दृष्टि का योक, अविद्या का योक। 51

(३३) चार वियोक [=योक हटना, मुक्ति चिन्ह] हैं — कामुकता का योक वियोक होना, भव का योक वियोक होना, दृष्टि का योक वियोक होना, अविद्या का योक वियोक होना।

(३४) चार गाँठ हैं — लालसा की शारीरिक गाँठ। दुर्भावना की शारीरिक गाँठ। शील और व्रतों पर अटकने की शारीरिक गाँठ। ‘बस यही सच है’ के आग्रह की शारीरिक गाँठ। 53

(३५) चार आसक्ति [“उपादान”] हैं — कामुकता से आसक्ति, दृष्टि से आसक्ति, शील और व्रत से आसक्ति, आत्मवाद से आसक्ति।

(३६) चार योनि हैं — अंडे से जन्म की योनि, जरायु-नाल से जन्म की योनि, नमी से जन्म की योनि, स्वप्रकट [“ओपपातिक”] की योनि। 54

(३७) चार गर्भ प्रवेश हैं।

• यहाँ मित्रों, कोई बिना सचेत अपनी माँ के गर्भ में प्रवेश करते हैं, बिना सचेत अपनी माँ के गर्भ में रुकते हैं, और बिना सचेत ही अपनी माँ के गर्भ से निकलते हैं। यह पहला प्रकार है।

• आगे, कोई सचेत रहते अपनी माँ के गर्भ में प्रवेश करते हैं, [किन्तु फिर] बिना सचेत अपनी माँ के गर्भ में रुकते हैं, और बिना सचेत ही अपनी माँ के गर्भ से निकलते हैं। यह दूसरा प्रकार है।

• आगे, कोई सचेत रहते अपनी माँ के गर्भ में प्रवेश करते हैं, सचेत रहते अपनी माँ के गर्भ में रुकते हैं, [किन्तु फिर] बिना सचेत अपनी माँ के गर्भ से निकलते हैं। यह तीसरा प्रकार है।

• आगे, कोई सचेत रहते अपनी माँ के गर्भ में प्रवेश करते हैं, सचेत रहते अपनी माँ के गर्भ में रुकते हैं, और सचेत रहते ही अपनी माँ के गर्भ से निकलते हैं। यह चौथा प्रकार है।

(३८) चार व्यक्तित्व [“अत्तभाव”] की प्राप्ति हैं।

मित्रों, ऐसी व्यक्तित्व की प्राप्ति है जहाँ कोई स्वयं के इरादे [“सञ्चेतना”] से व्यक्तित्व की प्राप्ति करता है, पराए के इरादे से नहीं। ऐसी भी व्यक्तित्व की प्राप्ति है जहाँ कोई पराए के इरादे से व्यक्तित्व की प्राप्ति करता है, स्वयं के इरादे से नहीं। ऐसी व्यक्तित्व की प्राप्ति है जहाँ कोई स्वयं के इरादे से व्यक्तित्व की प्राप्ति करता है, और पराए के इरादे से भी। ऐसी भी व्यक्तित्व की प्राप्ति है जहाँ कोई न स्वयं के इरादे से व्यक्तित्व की प्राप्ति करता है, न ही पराए के इरादे से। 55

(३९) चार दक्षिणा शुद्धिकरण हैं।

मित्रों, ऐसी दक्षिणा है जो दायक से शुद्ध होती है, प्राप्तकर्ता से नहीं। ऐसी भी दक्षिणा है जो प्राप्तकर्ता से शुद्ध होती है, दायक से नहीं। ऐसी भी दक्षिणा है जो दायक से भी शुद्ध होती है, और प्राप्तकर्ता से भी। और, ऐसी भी दक्षिणा है जो न दायक से शुद्ध होती है, न ही प्राप्तकर्ता से। 56

(४०) चार संग्रह वस्तु [=लोगों को साथ जोड़ना] हैं — दान से, प्रिय वचन से, उपकार से, समानता के बर्ताव से। 57

(४१) चार अनार्य व्यवहार हैं — झूठ बोलना, फूट डालने वाली बात बोलना, कटु बोलना, निरर्थक बोलना।

(४२) चार आर्य व्यवहार हैं — झूठ बोलने से विरत, फूट वाली बात से विरत, कटु बोलने से विरत, निरर्थक बोलने से विरत।

(४३) और भी चार अनार्य व्यवहार हैं — बिना देखे ‘मैंने देखा’ बोलना। बिना सुने ‘मैंने सुना’ बोलना। बिना अनुभूति किए “अनुभव किया’ बोलना। बिना पता किए ‘पता है’ बोलना।

(४४) और भी चार आर्य व्यवहार हैं — बिना देखे ‘देखा नहीं’ बोलना। बिना सुने ‘सुना नहीं’ बोलना। बिना अनुभूति किए “अनुभव नहीं किया’ बोलना। बिना पता किए ‘पता नहीं’ बोलना।

(४५) और भी चार अनार्य व्यवहार हैं — देखने पर ‘देखा नहीं’ बोलना। सुनने पर ‘सुना नहीं’ बोलना। अनुभव करने पर “अनुभव नहीं किया’ बोलना। पता होने पर ‘पता नहीं’ बोलना।

(४६) और भी चार आर्य व्यवहार हैं — देखने पर ‘मैंने देखा’ बोलना। सुनने पर ‘मैंने सुना’ बोलना। अनुभव करने पर “अनुभव है’ बोलना। पता होने पर ‘पता है’ बोलना।

(४७) चार व्यक्ति हैं।

• मित्रों, कोई व्यक्ति होता है जो स्वयं को प्रताड़ित करता है, स्वयं को प्रताड़ित करने के प्रति संकल्पबद्ध होता है।

• कोई व्यक्ति होता है जो दूसरे को प्रताड़ित करता है, दूसरे को प्रताड़ित करने के प्रति संकल्पबद्ध होता है।

• कोई व्यक्ति होता है जो स्वयं को प्रताड़ित करता है, स्वयं को प्रताड़ित करने के प्रति संकल्पबद्ध होता है, और दूसरे को भी प्रताड़ित करता है, दूसरे को भी प्रताड़ित करने के प्रति संकल्पबद्ध होता है।

• कोई व्यक्ति होता है जो न स्वयं को प्रताड़ित करता है, न स्वयं को प्रताड़ित करने के प्रति संकल्पबद्ध होता है, और न ही दूसरे को प्रताड़ित करता है, न दूसरे को प्रताड़ित करने के प्रति संकल्पबद्ध होता है। वे न स्वयं को प्रताड़ित करते हैं, न दूसरों को प्रताड़ित करते हैं, बल्कि इसी जीवन में बिना चाहत के, प्यास बुझाए [=निवृत], शीतल हो चुके, ब्रह्म बनकर सुख की अनुभूति कर विहार करते हैं।

(४८) और भी चार व्यक्ति हैं।

कोई व्यक्ति होता है जो आत्महित के साधनामार्ग पर चलता है, परहित के नहीं। कोई व्यक्ति होता है जो परहित के साधनमार्ग पर चलता है, आत्महित के नहीं। कोई व्यक्ति होता है जो न आत्महित के साधनामार्ग पर चलता है, न ही परहित के। कोई व्यक्ति होता है जो आत्महित के साधनामार्ग पर चलता है, और परहित के भी।

(४९) और भी चार व्यक्ति हैं।

अँधेरे से अँधेरे की ओर बढ़ता है। अँधेरे से उजाले की ओर बढ़ता है। उजाले से अँधेरे की ओर बढ़ता है। उजाले से उजाले की ओर बढ़ता है। 58

(५०) और भी चार व्यक्ति हैं — अचल श्रमण। श्वेत-कमल श्रमण। रक्त-कमल श्रमण। श्रमणों में परिष्कृत श्रमण। 59

ये चार स्वभाव हैं, मित्रों, जिसे भगवान, जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, ने सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, ताकि यह ब्रह्मचर्य यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे, जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा।”

पाँच

“आगे, मित्रों, भगवान जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, उन्होने पाँच स्वभाव को सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए… कौन-से पाँच धर्म?

(१) पाँच स्कंध [=ढ़ेर] हैं।

रूप स्कंध। संवेदना स्कंध। नजरिया स्कंध। रचना स्कंध। चैतन्य स्कंध।

(२) पाँच उपादान-स्कंध [=आसक्तियों का ढ़ेर] हैं।

रूप आसक्ति-ढ़ेर। संवेदना आसक्ति-ढ़ेर। नजरिया आसक्ति-ढ़ेर। रचना आसक्ति-ढ़ेर। चैतन्य आसक्ति-ढ़ेर।

(३) पाँच काम-गुण [=कामभोग] हैं।

आँख से दिखायी देते रूप, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो। कान से सुनायी देती आवाज़े, जो अच्छी, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाती हो। नाक से सुँघाई देती गन्ध, जो अच्छी, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाती हो। जीभ से पता चलते स्वाद, जो अच्छे, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो। काया से पता चलते संस्पर्श, जो अच्छे, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।

(४) पाँच गतियाँ हैं — नर्क, पशुयोनि, प्रेतलोक, मानवलोक, और देवलोक। [^ga]

(५) पाँच कंजूसियाँ हैं — आवास के प्रति कंजूसी, कुल-परिवारों के प्रति कंजूसी, लाभ [=प्राप्त होते वस्तुओं] के प्रति कंजूसी, प्रतिष्ठा के प्रति कंजूसी, धर्म के प्रति कंजूसी। 60

(६) पाँच नीवरण [=व्यवधान, रुकावट] हैं — कामेच्छा व्यवधान, दुर्भावना व्यवधान, सुस्ती-तंद्रा व्यवधान, बेचैनी-पश्चाताप व्यवधान, अनिश्चितता [=उलझन] व्यवधान।

(७) पाँच निचली बेड़ियाँ [“संयोजन”] हैं — आत्मीयता [“सक्कायदिट्ठी”], अनिश्चितता, शील-व्रतों में अटकना, कामेच्छा, दुर्भावना।

(८) पाँच ऊपरी बेड़ियाँ हैं — रूप राग [रूपों में दिलचस्पी], अरूप राग [अरूप आयाम में दिलचस्पी], अहंभाव, बेचैनी, अविद्या।

(९) पाँच शिक्षापद हैं — जीवहत्या से विरत रहना, चुराने से विरत रहना, काम व्यभिचार से विरत रहना, झूठ बोलने से विरत रहना, शराब, मद्य आदि मदहोश करते नशेपते से विरत रहना।

(१०) पाँच अ-संभावनाएँ हैं।

मित्रों, यह असंभव है कि कोई क्षीणास्रव [=अरहंत] भिक्षु जान-बूझकर किसी जीवित के प्राण ले। यह असंभव है कि कोई क्षीणास्रव भिक्षु चुराने की चेतना से [वस्तु] उठाए। यह असंभव है कि कोई क्षीणास्रव भिक्षु मैथुन-धर्म का सेवन करे। यह असंभव है कि कोई क्षीणास्रव भिक्षु जान-बूझकर झूठ बोले। यह असंभव है कि कोई क्षीणास्रव भिक्षु संचित भोग वस्तुओं का उपभोग करे, जैसे पहले गृहस्थ रहते हुए करता था।

(११) पाँच क्षति [=बर्बादी] हैं — सगे-संबधियों की क्षति, भोगसंपत्ति की क्षति, बीमारी से क्षति, शील [=नैतिकता] की क्षति, दृष्टि [=धार्मिक दृष्टिकोण] की क्षति। कोई भी सत्व सगेसंबंधी, भोगसंपत्ति और बीमारी से क्षति होने के कारण मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में नहीं उपजता है। किंतु शील और दृष्टि की क्षति होने के कारण सत्व दुर्गति होकर नर्क में उपजते हैं।

(१२) पाँच संपन्नता हैं — सगे-संबधियों की संपन्नता, भोगसंपत्ति संपन्नता, आरोग्य संपन्नता, शील संपन्नता, दृष्टि संपन्नता। कोई भी सत्व सगेसंबंधी, भोगसंपत्ति और आरोग्य की संपन्नता के कारण मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति हो स्वर्ग में नहीं उपजता है। किंतु शील और दृष्टि संपन्नता के कारण सत्व सद्गति हो स्वर्ग में उपजते हैं।

(१३) दुष्शील के नैतिक-दोष की पाँच खामी हैं।

• मित्रों, दुष्शील नैतिक-दोषी को प्रमाद [=लापरवाही] के चलते बहुत संपत्ति का नुकसान होता है। यह दुष्शील के नैतिक-दोष की पहली खामी है।

• आगे, दुष्शील नैतिक-दोषी की बुरी बदनामी होती है। यह दुष्शील के नैतिक-दोष की दूसरी खामी है।

• आगे, दुष्शील नैतिक-दोषी जिस परिषद [=बैठक] में जाए, चाहे क्षत्रिय परिषद हो, या ब्राह्मण परिषद हो, या [वैश्य] गृहस्थों की परिषद हो, या श्रमण परिषद हो, शर्मिंदा रहकर, बिना आत्मविश्वास के जाता है। यह दुष्शील के नैतिक-दोष की तीसरी खामी है।

• आगे, दुष्शील नैतिक-दोषी की मृत्यु उन्माद में होती है। यह दुष्शील के नैतिक-दोष की चौथी खामी है।

• आगे, दुष्शील नैतिक-दोषी मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजता है। यह दुष्शील के नैतिक-दोष की पाँचवी खामी है।

(१४) शीलवान की शील-संपन्नता के पाँच ईनाम हैं।

• मित्रों, शीलवान शील-संपन्न अप्रमाद [=होशपूर्णता] के चलते बहुत संपत्ति एकत्र करता है। यह शीलवान के शील-संपन्नता का पहला ईनाम है।

• आगे, शीलवान शील-संपन्न की सुयश किर्ति फैलती है। यह शीलवान के शील-संपन्नता का दूसरा ईनाम है।

• आगे, शीलवान शील-संपन्न जिस परिषद में जाए, चाहे क्षत्रिय परिषद हो, या ब्राह्मण परिषद हो, या गृहस्थों की परिषद हो, या श्रमण परिषद हो, शर्मिंदा नहीं, बल्कि आत्मविश्वास के साथ जाता है। यह शीलवान के शील-संपन्नता का तीसरा ईनाम है।

• आगे, शीलवान शील-संपन्न की मृत्यु उन्माद-रहित होती है। यह शीलवान के शील-संपन्नता का चौथा ईनाम है।

• आगे, शीलवान शील-संपन्न मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति हो स्वर्ग में उपजता है। यह शीलवान के शील-संपन्नता का पाँचवा ईनाम है।

(१५) आरोपकर्ता भिक्षु को दूसरे पर आरोप करने से पहले भीतर पाँच धर्म स्थापित करना चाहिए।

सही समय पर बोलूँगा, गलत समय पर नहीं। तथ्यपूर्ण बोलूँगा, बेबुनियाद नहीं। सौम्य बोलूँगा, कटु नहीं। अर्थपूर्ण [=उपयोगी, लाभदायक] बोलूँगा, अनर्थ [=फालतू, नुकसानदेह] नहीं। सद्भाव [“मेत्ता”] चित्त से बोलूँगा, भीतरी द्वेष से नहीं। आरोपकर्ता भिक्षु को दूसरे पर आरोप करने से पहले भीतर ये पाँच धर्म स्थापित करना चाहिए। 61

(१६) प्रयास के पाँच अंग हैं।

• मित्रों, कोई भिक्षु श्रद्धालु होता है, जिसे तथागत की बोधि पर आस्था होती है — ‘वाकई भगवान ही अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है—विद्या और आचरण से संपन्न, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान!’

• वह कम ही बीमार पड़ता है, निरोगी रहता है, पाचनक्रिया सम रहती है — न बहुत शीतल, न बहुत उष्ण, बल्कि मध्यम, प्रयास करने के लिए अनुकूल।

• वह ढोंगी या पाखंडी नहीं होता। बल्कि वह स्वयं को शास्ता, समझदार, या सब्रह्मचारियों के आगे जैसा यथार्थ में हो, वैसा ही प्रकट करता है।

• वह ऊर्जा बढ़ाकर विहार करता है। अकुशल स्वभावों को त्यागने और कुशल स्वभावों को धारण करने के लिए निश्चयबद्ध, दृढ़, और पराक्रमी बने रहता है। कुशल धर्मों के प्रति कर्तव्यों से जी नहीं चुराता।

• वह प्रज्ञावान [=अंतर्ज्ञानी] होता है। वह ऐसे आर्य और भेदक अन्तर्ज्ञान से संपन्न होता है, जो उदय और अस्त होना समझ सके, और दुःखों के सम्यक-अंत की ओर ले जाए।

(१७) पाँच शुद्धवास हैं — अविहा [=कभी पतन न होने वाले], अतप्पा [=जिन्हें कोई परेशानी नहीं], सुदस्सा [=सुंदर दिखने वाले], सुदस्सी [=सुदर्शी], अकनिट्ठ [=जहाँ कोई छोटा नहीं, ब्रह्मांड के समस्त देव-ब्रह्म इत्यादि सत्वों में सर्वश्रेष्ठ] 62

(१८) पाँच अनागामी हैं — [इस लोक और परलोक के] बीच में परिनिवृत होने वाला, [शुद्धवास] पहुँचने पर परिनिवृत होने वाला, बिना [प्रयास की] रचना किए परिनिवृत होने वाला, रचना के साथ परिनिवृत होने वाला, चढ़ती धारा में अकनिट्ठ जाने वाला। 63

(१९) पाँच चेतस के कील हैं।

• मित्रों, किसी भिक्षु को शास्ता के प्रति शंका होती है, उलझन होती है। न वह दुविधा से छूटा होता है, न ही आश्वस्त। जब ऐसा हो तो उसका चित्त न तत्परता के लिए झुकता है, न संकल्पबद्धता के लिए, न निरंतर लगन के लिए, न प्रयास के लिए। यह प्रथम चेतस कील है।

• आगे, उसे धर्म के प्रति शंका…

• आगे, उसे संघ के प्रति शंका…

• आगे, उसे शिक्षा [=साधना] के प्रति शंका…

• आगे, वह सब्रह्मचारियों के प्रति कुपित और नाखुश होता है, आहत हृदय का और खिन्न। जब ऐसा हो तो उसका चित्त न तत्परता के लिए झुकता है, न संकल्पबद्धता के लिए, न निरंतर लगन के लिए, न प्रयास के लिए। यह पाँचवा चेतस कील है। 64

(२०) पाँच हृदय की बेड़ियाँ हैं।

• कोई भिक्षु कामुकता के प्रति न वीतरागी होता है, न बिना चाहत के, न बिना प्रेम के, न बिना प्यास के, न बिना तड़प के, न बिना तृष्णा के। जब ऐसा हो तो उसका चित्त न तत्परता के लिए झुकता है, न संकल्पबद्धता के लिए, न निरंतर लगन के लिए, न प्रयास के लिए। यह पहली हृदय की बेड़ी है।

• आगे, कोई भिक्षु काया के प्रति न वीतरागी…

• आगे, कोई भिक्षु रूप के प्रति न वीतरागी…

• आगे, कोई भिक्षु जितना खा सके उतना पेट भर के खाता है, और फिर नींद सुख, लेटने का सुख, तंद्रा सुख को सुपुर्द होकर विहार करता है। जब ऐसा हो तो उसका चित्त न तत्परता के लिए झुकता है, न संकल्पबद्धता के लिए, न निरंतर लगन के लिए, न प्रयास के लिए। यह चौथी हृदय की बेड़ी है।

• आगे, कोई भिक्षु किसी-न-किसी देवताओं के समूह में [जन्म लेने के ] प्रयोजन से ब्रह्मचर्य पालन करता है, [सोचते हुए], “मेरे इस शील से, व्रत से, तप से, ब्रह्मचर्य से मैं उन देवताओं के साथ देवता बनूँ।” जब ऐसा हो तो उसका चित्त न तत्परता के लिए झुकता है, न संकल्पबद्धता के लिए, न निरंतर लगन के लिए, न प्रयास के लिए। यह पाँचवी हृदय की बेड़ी है।

(२१) पाँच इंद्रिय हैं — आँख इंद्रिय, कान इंद्रिय, नाक इंद्रिय, जीभ इंद्रिय, काया इंद्रिय।

(२२) और भी पाँच इंद्रिय हैं — सुख इंद्रिय, दर्द इंद्रिय, हर्ष इंद्रिय, उदासी इंद्रिय, तटस्थता इंद्रिय।

(२३) और भी पाँच इंद्रिय हैं — श्रद्धा इंद्रिय, ऊर्जा इंद्रिय, स्मृति इंद्रिय, समाधि इंद्रिय, प्रज्ञा इंद्रिय।

(२४) पाँच निस्सरण [=बच निकलने के] धातु हैं।

• मित्रों, कोई भिक्षु जब कामुकता पर गौर करता है, तो उसका चित्त कामुकता के लिए न उछलता है, न खिलता है, न ठहरता है, न ही आज़ादी महसूस करता है। किन्तु जब वह निष्काम [=संन्यास] पर गौर करता है, तो उसका चित्त निष्काम के लिए उछलता है, खिलता है, ठहरता है, आज़ादी महसूस करता है। उसका चित्त अच्छी अवस्था में है, अच्छे से विकसित, अच्छे से उठा हुआ, अच्छे से विमुक्त; कामुकता से संलग्न नहीं। तब कामुकता के वजह से उपजने वाले जो आस्रव है, बर्बाद करने वाले, तड़पाने वाले, वह उनसे मुक्त होता है, उस वेदना को महसूस नहीं करता। इसे कामुकता से बच निकलना बताया जाता है।

• आगे, कोई भिक्षु जब दुर्भावना पर गौर करता है, तो उसका चित्त दुर्भावना के लिए न उछलता है, न खिलता है, न ठहरता है, न ही आज़ादी महसूस करता है। किन्तु जब वह दुर्भावना-रहित पर गौर करता है, तो उसका चित्त दुर्भावना-रहित के लिए उछलता है, खिलता है, ठहरता है, आज़ादी महसूस करता है। उसका चित्त अच्छी अवस्था में है, अच्छे से विकसित, अच्छे से उठा हुआ, अच्छे से विमुक्त; दुर्भावना से संलग्न नहीं। तब दुर्भावना के वजह से उपजने वाले जो आस्रव है, बर्बाद करने वाले, तड़पाने वाले, वह उनसे मुक्त होता है, उस वेदना को महसूस नहीं करता। इसे दुर्भावना से बच निकलना बताया जाता है।

• आगे, कोई भिक्षु जब हिंसा पर गौर करता है, तो उसका चित्त हिंसा के लिए न उछलता है, न खिलता है, न ठहरता है, न ही आज़ादी महसूस करता है। किन्तु जब वह अहिंसा पर गौर करता है, तो उसका चित्त अहिंसा के लिए उछलता है, खिलता है, ठहरता है, आज़ादी महसूस करता है। उसका चित्त अच्छी अवस्था में है, अच्छे से विकसित, अच्छे से उठा हुआ, अच्छे से विमुक्त; हिंसा से संलग्न नहीं। तब हिंसा के वजह से उपजने वाले जो आस्रव है, बर्बाद करने वाले, तड़पाने वाले, वह उनसे मुक्त होता है, उस वेदना को महसूस नहीं करता। इसे हिंसा से बच निकलना बताया जाता है।

• आगे, कोई भिक्षु जब रूप पर गौर करता है, तो उसका चित्त रूप के लिए न उछलता है, न खिलता है, न ठहरता है, न ही आज़ादी महसूस करता है। किन्तु जब वह अरूप पर गौर करता है, तो उसका चित्त अरूप के लिए उछलता है, खिलता है, ठहरता है, आज़ादी महसूस करता है। उसका चित्त अच्छी अवस्था में है, अच्छे से विकसित, अच्छे से उठा हुआ, अच्छे से विमुक्त; रूप से संलग्न नहीं। तब रूप के वजह से उपजने वाले जो आस्रव है, बर्बाद करने वाले, तड़पाने वाले, वह उनसे मुक्त होता है, उस वेदना को महसूस नहीं करता। इसे रूप से बच निकलना बताया जाता है।

• आगे, कोई भिक्षु जब आत्मीयता [“सक्काय”] पर गौर करता है, तो उसका चित्त आत्मीयता के लिए न उछलता है, न खिलता है, न ठहरता है, न ही आज़ादी महसूस करता है। किन्तु जब वह आत्मीयता-निरोध पर गौर करता है, तो उसका चित्त आत्मीयता-निरोध के लिए उछलता है, खिलता है, ठहरता है, आज़ादी महसूस करता है। उसका चित्त अच्छी अवस्था में है, अच्छे से विकसित, अच्छे से उठा हुआ, अच्छे से विमुक्त; आत्मीयता से संलग्न नहीं। तब आत्मीयता के वजह से उपजने वाले जो आस्रव है, बर्बाद करने वाले, तड़पाने वाले, वह उनसे मुक्त होता है, उस वेदना को महसूस नहीं करता। इसे आत्मीयता से बच निकलना बताया जाता है। 65

(२५) पाँच विमुक्ति आयाम हैं।

• मित्रों, भिक्षु को शास्ता या कोई आदरणीय सब्रह्मचारी धर्म बताता है। जैसे-जैसे भिक्षु को शास्ता या कोई आदरणीय सब्रह्मचारी धर्म बताता है, वैसे-वैसे उसे धर्म का अर्थ अनुभव होता है, [साक्षात] धर्म अनुभव होता है। अर्थ अनुभव कर, धर्म अनुभव कर, उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित [=एकाग्र+स्थिर] हो जाता है। यह पहला विमुक्ति आयाम है।

• आगे, भिक्षु को न शास्ता, न कोई आदरणीय सब्रह्मचारी ही धर्म बताता है। बल्कि जिस तरह उसने धर्म सुना हो, जिस तरह धर्माभ्यास किया हो, उसे दूसरों को विस्तार से बताता है। जैसे-जैसे… वह दूसरों को विस्तार से बताता है, वैसे-वैसे उसे धर्म का अर्थ अनुभव होता है, धर्म अनुभव होता है। अर्थ अनुभव कर, धर्म अनुभव कर, उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित हो जाता है। यह दूसरा विमुक्ति आयाम है।

• आगे, भिक्षु को न शास्ता, न कोई आदरणीय सब्रह्मचारी ही धर्म बताता है, न ही वह… दूसरों को बताता है। बल्कि जिस तरह उसने धर्म सुना हो, जिस तरह धर्माभ्यास किया हो, उसका स्वयं विस्तार से अध्ययन करता है। जैसे-जैसे… वह स्वयं विस्तार से अध्ययन करता है, वैसे-वैसे उसे धर्म का अर्थ अनुभव होता है, धर्म अनुभव होता है। अर्थ अनुभव कर, धर्म अनुभव कर, उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित हो जाता है। यह तीसरा विमुक्ति आयाम है।

• आगे, भिक्षु को न शास्ता, न कोई आदरणीय सब्रह्मचारी ही धर्म बताता है, न ही वह… दूसरों को बताता है, न ही स्वयं विस्तार से अध्ययन करता है। बल्कि जिस तरह उसने धर्म सुना हो, जिस तरह धर्माभ्यास किया हो, हृदय से सोच-विचार करता है, चिंतन करता है, मन से जाँच-पड़ताल करता है। जैसे-जैसे… वह हृदय से सोच-विचार करता है, चिंतन करता है, मन से जाँच-पड़ताल करता है, वैसे-वैसे उसे धर्म का अर्थ अनुभव होता है, धर्म अनुभव होता है। अर्थ अनुभव कर, धर्म अनुभव कर, उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित हो जाता है। यह चौथा विमुक्ति आयाम है।

• आगे, भिक्षु को न शास्ता, न कोई आदरणीय सब्रह्मचारी ही धर्म बताता है, न ही वह… दूसरों को बताता है, न स्वयं विस्तार से अध्ययन करता है, न ही हृदय से सोच-विचार, चिंतन, मन से जाँच-पड़ताल करता है। बल्कि उसे कोई एक समाधि-निमित्त अच्छे से ग्रहण होता है, अच्छे से ध्यान लगता है, अच्छे से धारण होता है, अन्तर्ज्ञान से अच्छा भेदन होता है। जैसे-जैसे उसे समाधि-निमित्त अच्छे से ग्रहण होता है, अच्छे से ध्यान लगता है, अच्छे से धारण होता है, अन्तर्ज्ञान से अच्छा भेदन होता है, वैसे-वैसे उसे धर्म का अर्थ अनुभव होता है, धर्म अनुभव होता है। अर्थ अनुभव कर, धर्म अनुभव कर, उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित हो जाता है। यह पाँचवा विमुक्ति आयाम है।

(२६) पाँच विमुक्ति में पकने वाली संज्ञा हैं — अनित्य नजरिया, अनित्य में दुःख नजरिया, दुःख में अनात्म नजरिया, त्याग नजरिया, विराग नजरिया।

ये पाँच स्वभाव हैं, मित्रों, जिसे भगवान, जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, ने सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, ताकि यह ब्रह्मचर्य यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे, जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा।”

छह

“आगे, मित्रों, भगवान जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, उन्होने छह स्वभाव को सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए… कौन-से छह धर्म?

(१) छह भीतरी आयाम हैं — आँख आयाम, कान आयाम, नाक आयाम, जीभ आयाम, काया आयाम, मन आयाम।

(२) छह बाहरी आयाम हैं — रूप आयाम, आवाज आयाम, गंध आयाम, स्वाद आयाम, संस्पर्श आयाम, स्वभाव आयाम।

(३) छह चैतन्य वर्ग हैं — आँख चैतन्य, कान चैतन्य, नाक चैतन्य, जीभ चैतन्य, काया चैतन्य, मन चैतन्य।

(४) छह स्पर्श वर्ग हैं — आँख स्पर्श, कान स्पर्श, नाक स्पर्श, जीभ स्पर्श, काया स्पर्श, मन स्पर्श।

(५) छह संवेदना वर्ग हैं — आँख के संस्पर्श से जन्मी संवेदना, कान के संस्पर्श से जन्मी संवेदना, नाक के संस्पर्श से जन्मी संवेदना, जीभ के संस्पर्श से जन्मी संवेदना, काया के संस्पर्श से जन्मी संवेदना, मन के संस्पर्श से जन्मी संवेदना।

(६) छह संज्ञा [=नजरिया] वर्ग हैं — रूप संज्ञा, आवाज संज्ञा, गंध संज्ञा, स्वाद संज्ञा, संस्पर्श संज्ञा, स्वभाव संज्ञा।

(७) छह संचेतना [=इरादा] वर्ग हैं — रूप संचेतना, आवाज संचेतना, गंध संचेतना, स्वाद संचेतना, संस्पर्श संचेतना, स्वभाव संचेतना।

(८) छह तृष्णा वर्ग हैं — रूप तृष्णा, आवाज तृष्णा, गंध तृष्णा, स्वाद तृष्णा, संस्पर्श तृष्णा, स्वभाव तृष्णा।

(९) छह अनादर हैं।

यहाँ, मित्रों, कोई भिक्षु शास्ता के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है। वह धर्म के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है। वह संघ के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है। वह शिक्षा [=सीख] के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है। वह अप्रमाद [=सतर्कता] के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है। वह अतिथि-सत्कार [“पटिसन्थार”] के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है।

(१०) छह आदर हैं।

यहाँ, मित्रों, कोई भिक्षु शास्ता के प्रति आदर और सम्मान के साथ विहार करता है। वह धर्म के प्रति आदर और सम्मान के साथ विहार करता है। वह संघ के प्रति आदर और सम्मान के साथ विहार करता है। वह शिक्षा के प्रति आदर और सम्मान के साथ विहार करता है। वह अप्रमाद के प्रति आदर और सम्मान के साथ विहार करता है। वह अतिथि-सत्कार के प्रति बिना आदर और सम्मान के साथ विहार करता है। 66

(११) छह हर्ष [“सोमनस्स”] की जाँच हैं।

आँखों से रूप देखकर हर्ष का आधार बनते रूपों को जाँचता है। कानों से आवाज सुनकर… नाक से गंध सूँघकर… जीभ से स्वाद चखकर… काया से संस्पर्श महसूस… मन से स्वभाव जानकर हर्ष का आधार बनते स्वभावों को जाँचता है।

(१२) छह व्यथा [“दोमनस्स”] की जाँच हैं।

आँखों से रूप देखकर व्यथा का आधार बनते रूपों को जाँचता है। कानों से आवाज सुनकर… नाक से गंध सूँघकर… जीभ से स्वाद चखकर… काया से संस्पर्श महसूस… मन से स्वभाव जानकर व्यथा का आधार बनते स्वभावों को जाँचता है।

(१३) छह तटस्थता [“उपेक्खा”] की जाँच हैं।

आँखों से रूप देखकर तटस्थता का आधार बनते रूपों को जाँचता है। कानों से आवाज सुनकर… नाक से गंध सूँघकर… जीभ से स्वाद चखकर… काया से संस्पर्श महसूस… मन से स्वभाव जानकर तटस्थता का आधार बनते स्वभावों को जाँचता है।

(१४) छह स्नेहभाव धर्म हैं।

• यहाँ, मित्रों, कोई भिक्षु सब्रह्मचारियों के प्रति सद्भावपूर्ण कायाकर्म में स्थापित होता है, सम्मुख भी, और पीठ पीछे भी। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।

• आगे, कोई भिक्षु सब्रह्मचारियों के प्रति सद्भावपूर्ण वाणीकर्म में स्थापित होता है, सम्मुख भी, और पीठ पीछे भी। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।

• आगे, कोई भिक्षु सब्रह्मचारियों के प्रति सद्भावपूर्ण मनोकर्म में स्थापित होता है, सम्मुख भी, और पीठ पीछे भी। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।

• आगे, कोई भिक्षु धर्मानुसार जो भी धार्मिक लाभ प्राप्त करता है, भले ही पात्र में पड़ी भिक्षा ही क्यों न हो, उसका अकेले उपभोग नहीं करता। बल्कि उसे शीलवान सब्रह्मचारियों के साथ बाँटकर समान उपभोग करता है। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।

• आगे, कोई भिक्षु ऐसे शील — जो अखंडित हो, अछिद्रित हो, बेदाग हो, बेधब्बा हो, निष्कलंक हो, विद्वानों द्वारा प्रशंसित हो, छुटकारा दिलाते हो, और समाधि की ओर बढ़ाते हो — ऐसे शीलों में सब्रह्मचारियों के शील-समानता के साथ विहार करता है, सम्मुख भी, और पीठ पीछे भी। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।

• आगे, कोई भिक्षु ऐसी दृष्टि — जो आर्य हो, पार कराती हो, साधना करने वाले को सम्यक दुःखों के अंत की ओर ले जाती हो — ऐसी दृष्टि में सब्रह्मचारियों के दृष्टि-समानता के साथ विहार करता है, सम्मुख भी, और पीठ पीछे भी। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।

(१५) विवाद की छह जड़ हैं।

• यहाँ, मित्रों, कोई भिक्षु क्रोधी और शत्रुतापूर्ण [=गुस्सा पकड़े रखने वाला] होता है। ऐसा क्रोधी और शत्रुतापूर्ण भिक्षु शास्ता के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है, धर्म के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है, संघ के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है, शिक्षा को पूरा नहीं करता है। वह संघ में विवाद पैदा करता है। ऐसा विवाद बहुजनों के हित, बहुजनों के सुख, देव और मानव के लिए अनर्थकारी, अहितकारक और पीड़ादायी होता है। मित्रों, यदि तुम्हें ऐसे विवाद की जड़ भीतर या बाहर दिखायी दे, तो तुम्हें उस पापकारी विवाद की जड़ को त्यागने का प्रयास करना चाहिए। और यदि तुम्हें ऐसे विवाद की जड़ भीतर या बाहर दिखायी न दे, तो तुम्हें उस पापकारी विवाद की जड़ को भविष्य में उत्पन्न न करने का प्रयास करना चाहिए। इस तरह पापकारी विवाद की जड़ त्यागी जाती है। इस तरह पापकारी विवाद की जड़ भविष्य में भी उत्पन्न नहीं होती है।

• आगे, कोई भिक्षु [किसी की बात को] खारिज करने वाला और विरोधी होता है… • धूर्त और पाखंडी होता है… • ईर्ष्यालु और स्वार्थी होता है… • पाप इच्छुक और मिथ्या धारणा वाला होता है… • हठधर्मी [=अपनी ही दृष्टि से चिपका हुआ], दुराग्रही, ज़िद न छोड़ने वाला होता है। ऐसा हठधर्मी, दुराग्रही, जिद न छोड़ने वाला भिक्षु शास्ता के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है, धर्म के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है, संघ के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है, शिक्षा को पूरा नहीं करता है। वह संघ में विवाद पैदा करता है। ऐसा विवाद बहुजनों के हित, बहुजनों के सुख, देव और मानव के लिए अनर्थकारी, अहितकारक और पीड़ादायी होता है। मित्रों, यदि तुम्हें ऐसे विवाद की जड़ भीतर या बाहर दिखायी दे, तो तुम्हें उस पापकारी विवाद की जड़ को त्यागने का प्रयास करना चाहिए। और यदि तुम्हें ऐसे विवाद की जड़ भीतर या बाहर दिखायी न दे, तो तुम्हें उस पापकारी विवाद की जड़ को भविष्य में उत्पन्न न करने का प्रयास करना चाहिए। इस तरह पापकारी विवाद की जड़ त्यागी जाती है। इस तरह पापकारी विवाद की जड़ भविष्य में भी उत्पन्न नहीं होती है।

(१६) छह धातुएँ हैं — पृथ्वी धातु, जल धातु, अग्नि धातु, वायु धातु, आकाश धातु, चैतन्य धातु।

(१७) छह निस्सरण [=निकास, निकलने का मार्ग] धातुएँ हैं।

• यहाँ मित्रों, जो भिक्षु ऐसा कहे, “मैंने सद्भाव [=मेत्ता] चेतोविमुक्ति की साधना किया, उसे विकसित किया, उसमें अभ्यस्त हुआ, उसे आधार बनाया, मजबूत किया, उसमें आदी हुआ, अच्छे से उपक्रम किया, तब भी दुर्भावना मेरे चित्त में कब्ज़ा कर बैठती है।” तो उसे कहे, “ऐसा नहीं है। ऐसा मत कहो। भगवान [की बात] का मिथ्या-वर्णन मत करो। भगवान का मिथ्या-वर्णन करना ठीक नहीं है। भगवान ऐसा नहीं बताते है। यह असंभव है, मित्र, ऐसा नहीं होता कि कोई सद्भाव चेतोविमुक्ति की साधना कर, विकसित कर, उसमें अभ्यस्त हो, उसे आधार बना, मजबूत कर, उसमें आदी हो, अच्छे से उपक्रम करे, तब भी दुर्भावना चित्त में कब्ज़ा कर बैठ जाए, ऐसा होना नामुमकिन है। क्योंकि, मित्र, यह सद्भाव चेतोविमुक्ति ही दुर्भावना से निकलने का मार्ग है।”

• आगे, जो भिक्षु ऐसा कहे, “मैंने करुणा चेतोविमुक्ति की साधना किया, उसे विकसित किया, उसमें अभ्यस्त हुआ, उसे आधार बनाया, मजबूत किया, उसमें आदी हुआ, अच्छे से उपक्रम किया, तब भी हिंसा मेरे चित्त में कब्ज़ा कर बैठती है।” तो उसे कहे, “ऐसा नहीं है। ऐसा मत कहो। भगवान का मिथ्या-वर्णन मत करो। भगवान का मिथ्या-वर्णन करना ठीक नहीं है। भगवान ऐसा नहीं बताते है। यह असंभव है, मित्र, ऐसा नहीं होता कि कोई करुणा चेतोविमुक्ति की साधना कर, विकसित कर, उसमें अभ्यस्त हो, उसे आधार बना, मजबूत कर, उसमें आदी हो, अच्छे से उपक्रम करे, तब भी हिंसा चित्त में कब्ज़ा कर बैठ जाए, ऐसा होना नामुमकिन है। क्योंकि, मित्र, यह करुणा चेतोविमुक्ति ही हिंसा से निकलने का मार्ग है।”

• आगे, जो भिक्षु ऐसा कहे, “मैंने मुदिता [=सहानुभूतिपूर्ण खुशी] चेतोविमुक्ति की साधना किया, उसे विकसित किया, उसमें अभ्यस्त हुआ, उसे आधार बनाया, मजबूत किया, उसमें आदी हुआ, अच्छे से उपक्रम किया, तब भी नाराजी [“अरति”] मेरे चित्त में कब्ज़ा कर बैठती है।” तो उसे कहे, “ऐसा नहीं है। ऐसा मत कहो। भगवान का मिथ्या-वर्णन मत करो। भगवान का मिथ्या-वर्णन करना ठीक नहीं है। भगवान ऐसा नहीं बताते है। यह असंभव है, मित्र, ऐसा नहीं होता कि कोई मुदिता चेतोविमुक्ति की साधना कर, विकसित कर, उसमें अभ्यस्त हो, उसे आधार बना, मजबूत कर, उसमें आदी हो, अच्छे से उपक्रम करे, तब भी नाराजी चित्त में कब्ज़ा कर बैठ जाए, ऐसा होना नामुमकिन है। क्योंकि, मित्र, यह मुदिता चेतोविमुक्ति ही नाराजी से निकलने का मार्ग है।”

• आगे, जो भिक्षु ऐसा कहे, “मैंने तटस्थता [“उपेक्खा”] चेतोविमुक्ति की साधना किया, उसे विकसित किया, उसमें अभ्यस्त हुआ, उसे आधार बनाया, मजबूत किया, उसमें आदी हुआ, अच्छे से उपक्रम किया, तब भी दिलचस्पी [“राग”] मेरे चित्त में कब्ज़ा कर बैठती है।” तो उसे कहे, “ऐसा नहीं है। ऐसा मत कहो। भगवान का मिथ्या-वर्णन मत करो। भगवान का मिथ्या-वर्णन करना ठीक नहीं है। भगवान ऐसा नहीं बताते है। यह असंभव है, मित्र, ऐसा नहीं होता कि कोई तटस्थता चेतोविमुक्ति की साधना कर, विकसित कर, उसमें अभ्यस्त हो, उसे आधार बना, मजबूत कर, उसमें आदी हो, अच्छे से उपक्रम करे, तब भी दिलचस्पी चित्त में कब्ज़ा कर बैठ जाए, ऐसा होना नामुमकिन है। क्योंकि, मित्र, यह तटस्थता चेतोविमुक्ति ही दिलचस्पी से निकलने का मार्ग है।”

• आगे, जो भिक्षु ऐसा कहे, “मैंने अनिमित्त [=लक्षणरहित शून्यता] चेतोविमुक्ति की साधना किया, उसे विकसित किया, उसमें अभ्यस्त हुआ, उसे आधार बनाया, मजबूत किया, उसमें आदी हुआ, अच्छे से उपक्रम किया, तब भी मेरा चैतन्य निमित्तों के पीछे जाता है।” तो उसे कहे, “ऐसा नहीं है। ऐसा मत कहो। भगवान का मिथ्या-वर्णन मत करो। भगवान का मिथ्या-वर्णन करना ठीक नहीं है। भगवान ऐसा नहीं बताते है। यह असंभव है, मित्र, ऐसा नहीं होता कि कोई अनिमित्त चेतोविमुक्ति की साधना कर, विकसित कर, उसमें अभ्यस्त हो, उसे आधार बना, मजबूत कर, उसमें आदी हो, अच्छे से उपक्रम करे, तब भी चैतन्य निमित्तों के पीछे जाए, ऐसा होना नामुमकिन है। क्योंकि, मित्र, यह अनिमित्त चेतोविमुक्ति ही सभी निमित्तों से निकलने का मार्ग है।”

• आगे, जो भिक्षु ऐसा कहे, “मेरा ‘मैं हूँ’ [“अस्मि” =अहंभाव] चला गया, और ‘मैं यह हूँ’ नहीं देखता हूँ, तब भी उलझन और अनिश्चितता का तीर मेरे चित्त में कब्ज़ा कर बैठता है” तो उसे कहे, “ऐसा नहीं है। ऐसा मत कहो। भगवान का मिथ्या-वर्णन मत करो। भगवान का मिथ्या-वर्णन करना ठीक नहीं है। भगवान ऐसा नहीं बताते है। यह असंभव है, मित्र, ऐसा नहीं होता कि किसी का ‘मैं हूँ’ चला जाए, और ‘मैं यह हूँ’ नहीं देखे, तब भी उलझन और अनिश्चितता का तीर चित्त में कब्ज़ा कर बैठे, ऐसा होना नामुमकिन है। क्योंकि, मित्र, यह ‘मैं हूँ’ अहंभाव को उखाड़ना ही उलझन और अनिश्चितता के तीर से निकलने का मार्ग है।”

(१८) छह अनुत्तर हैं — अनुत्तर दर्शन [=देखना], अनुत्तर श्रवण [=सुनना], अनुत्तर लाभ [=प्राप्ति], अनुत्तर शिक्षा [=प्रशिक्षण], अनुत्तर सेवा, अनुत्तर अनुस्मरण [=याद करना]। 67

(१९) छह अनुस्मृति स्थान [=आलंबन] हैं — बुद्ध की अनुस्मृति, धर्म की अनुस्मृति, संघ की अनुस्मृति, शील की अनुस्मृति, त्याग की अनुस्मृति, देवताओं की अनुस्मृति। 68

(२०) छह लगातार विहार करना हैं।

मित्रों, कोई भिक्षु आँखों से रूप देखकर न अच्छा मन बनाता है, न बुरा मन। बल्कि तटस्थ, स्मरणशील और सचेत विहार करता है। कोई भिक्षु कानों से आवाज सुनकर… नाक से गंध सूँघकर… जीभ से स्वाद चखकर… काया से संस्पर्श महसूस कर… मन से स्वभाव जानकर न अच्छा मन बनाता है, न बुरा मन। बल्कि तटस्थ, स्मरणशील और सचेत विहार करता है।

(२१) छह अभिजाति हैं।

यहाँ मित्रों, कोई काले अभिजाति में पैदा होकर काले धर्म पैदा करता है। किन्तु, कोई काले अभिजाति में पैदा होकर उजले धर्म पैदा करता है। जबकि कोई काले अभिजाति में पैदा होकर न काला न उजला निर्वाण पैदा करता है। कोई उजले अभिजाति में पैदा होकर उजले धर्म पैदा करता है। किन्तु, कोई उजले अभिजाति में पैदा होकर काले धर्म पैदा करता है। जबकि कोई उजले अभिजाति में पैदा होकर न काला न उजला निर्वाण पैदा करता है। 69

(२२) छह भेदक मददगार नजरिए हैं — अनित्य नजरिया, अनित्य में दुःख नजरिया, दुःख में अनात्म नजरिया, त्याग नजरिया, विराग नजरिया, निरोध नजरिया।

ये छह स्वभाव हैं, मित्रों, जिसे भगवान, जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, ने सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, ताकि यह ब्रह्मचर्य यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे, जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा।”

सात

“आगे, मित्रों, भगवान जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, उन्होने सात स्वभाव को सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए… कौन-से सात धर्म?

(१) सात आर्य संपत्ति हैं — श्रद्धा संपत्ति, शील संपत्ति, लज्जा संपत्ति, संकोच संपत्ति, श्रुत [=धर्म सुनना] संपत्ति, त्याग संपत्ति, प्रज्ञा संपत्ति।

(२) सात बोधि अंग हैं — स्मृति बोध्यंग, स्वभाव-जाँच बोध्यंग, ऊर्जा बोध्यंग, प्रफुल्लता बोध्यंग, प्रशांति बोध्यंग, समाधि बोध्यंग, तटस्थता बोध्यंग।

(३) सात समाधि की पूर्व-आवश्यकताएँ हैं — सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कार्य, सम्यक जीविका, सम्यक मेहनत, सम्यक स्मृति।

(४) सात सद्धर्म नहीं हैं — यहाँ कोई भिक्षु अश्रद्धालु होता है, निर्लज्ज होता है, निःसंकोची होता है, अल्पश्रुत [=धर्म न सुना] होता है, आलसी होता है, मूढ़-स्मृति [=भुलक्कड़] होता है, दुष्प्रज्ञ [=अंतर्ज्ञान नहीं] होता है।

(५) सात सद्धर्म हैं — यहाँ कोई भिक्षु श्रद्धालु होता है, शर्मिला होता है, संकोची होता है, बहुश्रुत [=बहुत धर्म सुना] होता है, ऊर्जावान होता है, उपस्थित स्मृतिमान होता है, अंतर्ज्ञानी होता है।

(६) सात सत्पुरुष धर्म हैं — यहाँ कोई भिक्षु धर्म का जानकार होता है, अर्थ का जानकार होता है, स्वयं का जानकार होता है, मात्रा का जानकार होता है, [उचित] समय का जानकार होता है, परिषदों का जानकार होता है, व्यक्तियों का जानकार होता है। 70

(७) सात प्रशंसा के आधार हैं।

यहाँ मित्रों, किसी भिक्षु को शिक्षा अंगीकार करने की तीव्र चाहत होती है, भविष्य में भी शिक्षा अंगीकार करने का प्रेम नहीं छोड़ता। उसे स्वभाव [=धर्म] निरीक्षण करने की तीव्र चाहत होती है, भविष्य में भी स्वभाव निरीक्षण करने का प्रेम नहीं छोड़ता। उसे इच्छाओं को दूर करने की तीव्र चाहत होती है, भविष्य में भी इच्छाओं को दूर करने का प्रेम नहीं छोड़ता। उसे एकांतवास करने की तीव्र चाहत होती है, भविष्य में भी एकांतवास करने का प्रेम नहीं छोड़ता। उसे ऊर्जा जागृत करने [=जोश से जुटने] की तीव्र चाहत होती है, भविष्य में भी ऊर्जा जागृत करने का प्रेम नहीं छोड़ता। उसे स्मृति और सूझ-बूझ की तीव्र चाहत होती है, भविष्य में भी स्मृति और सूझ-बुझ का प्रेम नहीं छोड़ता। उसे दृष्टि का भेदन करने की तीव्र चाहत होती है, भविष्य में भी दृष्टि का भेदन करने का प्रेम नहीं छोड़ता। 71

(८) सात नजरिए हैं — अनित्य नजरिया, अनात्म नजरिया, असुभ [=अनाकर्षक] नजरिया, आदीनव [=खामी] नजरिया, त्याग नजरिया, विराग नजरिया, निरोध नजरिया।

(९) सात बल हैं — श्रद्धा बल, ऊर्जा बल, लज्जा बल, संकोच बल, स्मृति बल, समाधि बल, प्रज्ञा बल।

(१०) सात चैतन्य स्थल [=अवस्थाएँ] हैं।

• ऐसे सत्व होते हैं, मित्रों, जिनकी विविध काया और विविध नजरिए होते हैं। जैसे, मानव, कुछ तरह के देवतागण, और कुछ तरह के निचले लोक। यह पहला चैतन्य स्थल है।

• ऐसे सत्व भी होते हैं, जिनकी विविध काया होती हैं, किन्तु एक-जैसा नजरिया होता है। जैसे, प्रथम-ध्यान से उपजे ब्रह्मकायिक देवतागण। यह दूसरा चैतन्य स्थल है।

• ऐसे सत्व भी होते हैं, जिनकी एक-जैसी काया और विभिन्न नजरिए होते हैं। जैसे, आभास्वर देवतागण। यह तीसरा चैतन्य स्थल है।

• ऐसे सत्व भी होते हैं, जिनकी एक-जैसी काया और एक-जैसा नजरिया होता है। जैसे, शुभ काले देवतागण। यह चौथा चैतन्य स्थल है।

• ऐसे सत्व भी होते हैं, जो रूप-नजरिया पूर्णतः लाँघ कर, विरोधी-नजरिए ओझल होने पर, विभिन्न-नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनंत है’ [देखते हुए] अनंत आकाश-आयाम में रहते हैं। यह पाँचवा चैतन्य स्थल है।

• ऐसे सत्व भी होते हैं, जो अनंत आकाश-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘चैतन्य अनंत है’ [देखते हुए] अनंत चैतन्य-आयाम में रहते हैं। यह छटवा चैतन्य स्थल है।

• ऐसे सत्व भी होते हैं, जो अनंत चैतन्य-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] सूने-आयाम में रहते हैं। यह सातवा चैतन्य स्थल है। 72

(११) सात दक्षिणेय [=दानयोग्य] व्यक्ति हैं — दोनों तरह से विमुक्त, प्रज्ञा विमुक्त, काया साक्षी, दृष्टि प्राप्त, श्रद्धा विमुक्त, धर्मानुचारी, श्रद्धानुचारी। 73

(१२) सात अनुशय [=सुप्त अवस्था] हैं — कामराग अनुशय, प्रतिरोध [“पटिघ” =प्रतिकर्षण या चिड़ होना] अनुशय, दृष्टि अनुशय, उलझन अनुशय, अहंभाव [“मान”] अनुशय, भवराग [=अस्तित्व पाने की दिलचस्पी] अनुशय, अविद्या अनुशय।

(१३) सात संयोजन [=बंधन, बेड़ियाँ] हैं — आकर्षण [=खिचाव] बंधन, प्रतिरोध [“पटिघ” =दुराव या प्रतिकर्षण होना] बंधन, दृष्टि बंधन, उलझन बंधन, अहंभाव [“मान”] बंधन, भवराग [=अस्तित्व पाने की दिलचस्पी] बंधन, अविद्या बंधन।

(१४) उत्पन्न या अनुत्पन्न विवादों को निपटाने के, सुलझाने के सात तरीके हैं — सम्मुख सुलझाना चाहिए। याददाश्त के अनुसार फैसला देना चाहिए, पूर्व पागलपन पर राहत देना चाहिए, स्वीकार किए के अनुसार फैसला देना चाहिए, बहुमत से फैसला देना चाहिए, [आवश्यक हो तो] अतिरिक्त दंड देना चाहिए, [संघभेद का भय हो तो] घास से ढँक देना चाहिए। 74

ये सात स्वभाव हैं, मित्रों, जिसे भगवान, जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, ने सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, ताकि यह ब्रह्मचर्य यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे, जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा।”

आठ

“आगे, मित्रों, भगवान जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, उन्होने आठ स्वभाव को सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए… कौन-से आठ धर्म?

(१) आठ मिथ्यता हैं — मिथ्या दृष्टि, मिथ्या संकल्प, मिथ्या वाणी, मिथ्या कार्य, मिथ्या जीविका, मिथ्या मेहनत, मिथ्या स्मृति, मिथ्या समाधि।

(२) आठ सम्यकता हैं — सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कार्य, सम्यक जीविका, सम्यक मेहनत, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि।

(३) आठ दक्षिणेय व्यक्ति हैं — श्रोतापन्न [=धर्म-बहाव में आ चुका], श्रोतापतिफल साक्षात्कार का साधक, सकृदागामी [=एक बार लौटने वाला], सकृदागामिफल साक्षात्कार का साधक, आनागामी [=न लौटने वाला], आनागामिफल साक्षात्कार का साधक, अरहंत [=काबिल], अरहतफल साक्षात्कार का साधक।

(४) आठ आलस के बहाने हैं।

• ऐसा होता है, मित्रों, किसी भिक्षु को कोई काम करना होता है। उसे लगता है, ‘मुझे यह काम करना है। किंतु यह काम करने पर मेरा शरीर थक जाएगा। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का पहला बहाना है।

• आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु काम कर लेता है। उसे लगता है, ‘मैंने यह काम किया। किंतु यह काम करने से मेरा शरीर थक गया। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का दूसरा बहाना है।

• आगे, ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को यात्रा करनी होती है। उसे लगता है, ‘मुझे यह यात्रा करनी है। किंतु यात्रा करने पर मेरा शरीर थक जाएगा। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का तीसरा बहाना है।

• आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु यात्रा कर लेता है। उसे लगता है, ‘मैंने यह यात्रा किया। किंतु यात्रा करने से मेरा शरीर थक गया। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का चौथा बहाना है।

• आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु गाँव या नगर में भिक्षाटन करने जाता है, तो उसे अपेक्षाकृत मात्रा से कम भोजन मिलता है। उसे लगता है, ‘आज मुझे अपेक्षाकृत मात्रा से कम भोजन मिला। मेरा शरीर थक हुआ है, काम करने के योग्य नहीं। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का पाँचवा बहाना है।

• आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु गाँव या नगर में भिक्षाटन करने जाता है, तो उसे अपेक्षाकृत मात्रा में भोजन मिलता है। उसे लगता है, ‘आज मुझे अपेक्षाकृत मात्रा में भोजन मिला। मेरा शरीर भारी है, काम करने के योग्य नहीं, जैसे दाने से [बोरे के जैसा पेट] भर गया हो। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का छठा बहाना है।

• आगे, ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को कोई हल्की बीमारी होती है। उसे लगता है, ‘मुझे हल्की बीमारी हो गई। लेटने की ज़रूरत है। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का सातवा बहाना है।

• आगे, ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को बीमारी से उबर कर अधिक समय नहीं होता। उसे लगता है, ‘मुझे बीमारी से उबर कर अधिक समय नहीं हुआ। मेरा शरीर अभी दुर्बल है, काम करने के योग्य नहीं। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का आठवा बहाना है।

(५) ऊर्जा जगाने के आठ बहाने हैं।

• ऐसा होता है, मित्रों, किसी भिक्षु को कोई काम करना होता है। उसे लगता है, ‘मुझे यह काम करना है। किंतु काम करते हुए बुद्ध निर्देश पर ध्यान देना सरल नहीं होगा। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह ऊर्जा जगाने का पहला बहाना है।

• आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु काम कर लेता है। उसे लगता है, ‘मैंने यह काम किया। किंतु काम करते हुए मैं बुद्ध निर्देश पर ध्यान नहीं दे पाया। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का दूसरा बहाना है।

• आगे, ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को यात्रा करनी होती है। उसे लगता है, ‘मुझे यह यात्रा करनी है। किंतु यात्रा करते हुए बुद्ध निर्देश पर ध्यान देना सरल नहीं होगा। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का तीसरा बहाना है।

• आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु यात्रा कर लेता है। उसे लगता है, ‘मैंने यह यात्रा किया। किंतु यात्रा करते हुए मैं बुद्ध निर्देश पर ध्यान नहीं दे पाया। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का चौथा बहाना है।

• आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु गाँव या नगर में भिक्षाटन करने जाता है, तो उसे अपेक्षाकृत मात्रा से कम भोजन मिलता है। उसे लगता है, ‘आज मुझे अपेक्षाकृत मात्रा से कम भोजन मिला। मेरा शरीर हल्का है, काम करने के योग्य। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का पाँचवा बहाना है।

• आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु गाँव या नगर में भिक्षाटन करने जाता है, तो उसे अपेक्षाकृत मात्रा में भोजन मिलता है। उसे लगता है, ‘आज मुझे अपेक्षाकृत मात्रा में भोजन मिला। मेरा शरीर हल्का है, काम करने के योग्य। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का छठा बहाना है।

• आगे, ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को कोई हल्की बीमारी होती है। उसे लगता है, ‘मुझे हल्की बीमारी हो गई। संभव है कि यह बीमारी गंभीर हो जाए। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का सातवा बहाना है।

• आगे, ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को बीमारी से उबर कर अधिक समय नहीं होता। उसे लगता है, ‘मुझे बीमारी से उबर कर अधिक समय नहीं हुआ। संभव है कि बीमारी फिर लौट आए। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह ऊर्जा जगाने का आठवा बहाना है।

(६) आठ दान के बहाने हैं।

[धन] प्राप्त होने पर दान देता है। भय से दान देता है। ‘उसने मुझे दिया था’, [सोचकर] दान देता है। ‘मुझे देगा’, [सोचकर] दान देता है। ‘हम पकाते हैं। ये नहीं पकाते। पकाने वालों ने न पकाने वालों नहीं देना सही नहीं है’, [सोचकर] दान देता है। ‘यह दान देने पर मेरी अच्छी यशकिर्ति फैलेगी’, [सोचकर] दान देता है। चित्त का गहना, चित्त की जरूरत जानकर दान देता है। 75

(७) दान से आठ उत्पत्तियाँ हैं।

• ऐसा होता है, मित्रों, कोई श्रमण या ब्राह्मणों को भोजन, पेय, वस्त्र, वाहन, माला, गन्ध, लेप, पलंग, निवास, दीपक आदि दान देता है। जो भी देता है, उसके प्रति आस लगाता है। वह किसी महासंपत्तिशाली क्षत्रिय, या महासंपत्तिशाली ब्राह्मण, या महासंपत्तिशाली [वैश्य] गृहस्थ को पाँच कामभोग में लिप्त होकर सेवन करते देखता है। उसे लगता है, “हाय! काश, मैं मरणोपरांत काया छूटने पर महासंपत्तिशाली क्षत्रिय, या महासंपत्तिशाली ब्राह्मण, या महासंपत्तिशाली गृहस्थों के साथ जन्म लूँ।” इसी में उसका चित्त स्थिर होता है, उसका चित्त संकल्पित होता है, उसका चित्त विकसित होता है। इसी हीन स्तर पर उसका चित्त मुक्त होने पर, उससे बेहतर न विकसित करने पर, उसी उत्पत्ति की ओर बढ़ता है। यह भी मैं शीलवान के लिए कहता हूँ, दुष्शील के लिए नहीं। विशुद्ध होने से शीलवान की मनोकामना पूर्ण होती है।

• आगे, कोई श्रमण या ब्राह्मणों को भोजन, पेय, वस्त्र, वाहन, माला, गन्ध, लेप, पलंग, निवास, दीपक आदि दान देता है। जो भी देता है, उसके प्रति आस लगाता है। उसने सुना होता है, ‘चार महाराजा देवतागण [=यक्ष, गंधब्ब, कुंभण्ड, और नाग] दीर्घायु, सौंदर्यशाली, और बहुत सुखी होते हैं।’ उसे लगता है, “हाय! काश, मैं मरणोपरांत काया छूटने पर चार महाराजा देवताओं के साथ जन्म लूँ।” इसी में उसका चित्त स्थिर होता है, उसका चित्त संकल्पित होता है, उसका चित्त विकसित होता है। इसी हीन स्तर पर उसका चित्त मुक्त होने पर, उससे बेहतर न विकसित करने पर, उसी उत्पत्ति की ओर बढ़ता है। यह भी मैं शीलवान के लिए कहता हूँ, दुष्शील के लिए नहीं। विशुद्ध होने से शीलवान की मनोकामना पूर्ण होती है।

आगे, कोई श्रमण या ब्राह्मणों को भोजन, पेय, वस्त्र, वाहन, माला, गन्ध, लेप, पलंग, निवास, दीपक आदि दान देता है। जो भी देता है, उसके प्रति आस लगाता है। उसने सुना होता है, ‘• तैतीस देवतागण… • याम देवतागण… • तुषित देवतागण… • निर्माणरति देवतागण… • परनिर्मित वशवर्ती देवतागण दीर्घायु, सौंदर्यशाली, और बहुत सुखी होते हैं।’ उसे लगता है, “हाय! काश, मैं मरणोपरांत काया छूटने पर परनिर्मित वशवर्ती देवताओं के साथ जन्म लूँ।” इसी में उसका चित्त स्थिर होता है, उसका चित्त संकल्पित होता है, उसका चित्त विकसित होता है। इसी हीन स्तर पर उसका चित्त मुक्त होने पर, उससे बेहतर न विकसित करने पर, उसी उत्पत्ति की ओर बढ़ता है। यह भी मैं शीलवान के लिए कहता हूँ, दुष्शील के लिए नहीं। विशुद्ध होने से शीलवान की मनोकामना पूर्ण होती है।

• आगे, कोई श्रमण या ब्राह्मणों को भोजन, पेय, वस्त्र, वाहन, माला, गन्ध, लेप, पलंग, निवास, दीपक आदि दान देता है। जो भी देता है, उसके प्रति आस लगाता है। उसने सुना होता है, ‘ब्रह्म कायिक देवतागण दीर्घायु, सौंदर्यशाली, और बहुत सुखी होते हैं।’ उसे लगता है, “हाय! काश, मैं मरणोपरांत काया छूटने पर ब्रह्म कायिक देवताओं के साथ जन्म लूँ।” इसी में उसका चित्त स्थिर होता है, उसका चित्त संकल्पित होता है, उसका चित्त विकसित होता है। इसी हीन स्तर पर उसका चित्त मुक्त होने पर, उससे बेहतर न विकसित करने पर, उसी उत्पत्ति की ओर बढ़ता है। यह भी मैं शीलवान के लिए कहता हूँ, दुष्शील के लिए नहीं; वीतरागी के लिए कहता हूँ, रागपूर्ण के लिए नहीं। विशुद्ध होने से शीलवान की मनोकामना पूर्ण होती है। 76

(८) आठ परिषद [=बैठक, सभा] हैं — क्षत्रियों की परिषद, ब्राह्मणों की परिषद, वैश्य गृहस्थों की परिषद, श्रमणों की परिषद, चार महाराजा देवताओं की परिषद, तैतीस देवताओं की परिषद, मार की परिषद, ब्रह्म की परिषद।

(९) आठ लोकधर्म हैं — लाभ [=प्राप्ति] है, अलाभ [=अप्राप्ति] है। यश है, अपयश है। निंदा है, प्रशंसा है। सुख है, दुःख है। 77

(१०) आठ प्रभुत्व आयाम हैं।

• भीतर से रूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सीमित, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का पहला आयाम है।

• भीतर से रूप-नजरिया एक होकर, बाहरी असीम, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का दूसरा आयाम है।

• भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सीमित, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का तीसरा आयाम है।

• भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी असीम, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का चौथा आयाम है।

• भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी नीले, नीले वर्ण वाले, नीले लक्षणों वाले, नीली आभा [=चमक] वाले रूप देखता है। जैसे, सन [=अलसी] का फूल होता है — नीला, नीले वर्ण वाला, नीले लक्षणों वाला, नीली आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, नीला, नीले वर्ण वाला, नीले लक्षणों वाला, नीली आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी नीले, नीले वर्ण वाले, नीले लक्षणों वाले, नीली आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का पाँचवा आयाम है।

• भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी पीले, पीले वर्ण वाले, पीले लक्षणों वाले, पीली आभा वाले रूप देखता है। जैसे, कर्णिकार का फूल होता है — पीला, पीले वर्ण वाला, पीले लक्षणों वाला, पीली आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, पीला, पीले वर्ण वाला, पीले लक्षणों वाला, पीली आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी पीले, पीले वर्ण वाले, पीले लक्षणों वाले, पीली आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का छठा आयाम है।

• भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी लाल, लाल वर्ण वाले, लाल लक्षणों वाले, लाल आभा वाले रूप देखता है। जैसे, बंधुजीवक [=अड़हल?] का फूल होता है — लाल, लाल वर्ण वाला, लाल लक्षणों वाला, लाल आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, लाल, लाल वर्ण वाला, लाल लक्षणों वाला, लाल आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी लाल, लाल वर्ण वाले, लाल लक्षणों वाले, लाल आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का सातवा आयाम है।

• भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाले, सफ़ेद लक्षणों वाले, सफ़ेद आभा वाले रूप देखता है। जैसे, शुक्र तारा [ग्रह] होता है — सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाला, सफ़ेद लक्षणों वाला, सफ़ेद आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाला, सफ़ेद लक्षणों वाला, सफ़ेद आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाले, सफ़ेद लक्षणों वाले, सफ़ेद आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का आठवा आयाम है।

(११) आठ विमोक्ष हैं।

• रूपवान होकर रूप देखना — पहला विमोक्ष है।

• भीतर से अरूप नजरिया होना और बाहरी रूप देखना — दूसरा विमोक्ष है।

• केवल अच्छाई [या सौंदर्य] देखना — तीसरा विमोक्ष है।

• रूप-नजरिया पूर्णतः लाँघ कर, विरोधी-नजरिए ओझल होने पर, विभिन्न-नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनंत है’ [देखते हुए] अनंत आकाश-आयाम में प्रवेश पाकर रहना — चौथा विमोक्ष है।

• अनंत आकाश-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘चैतन्य अनंत है’ [देखते हुए] अनंत चैतन्य-आयाम में प्रवेश पाकर रहना — पाँचवा विमोक्ष है।

• अनंत चैतन्य-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] सूने-आयाम में प्रवेश पाकर रहना — छटवा विमोक्ष है।

• सुने-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, न-संज्ञा-न-असंज्ञा [=न बोधगम्य, न अबोधगम्य] आयाम में प्रवेश पाकर रहना — सातवा विमोक्ष है।

• न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, संज्ञा और संवेदना निरोध [अवस्था] में प्रवेश पाकर रहना — आठवा विमोक्ष है।

ये आठ स्वभाव हैं, मित्रों, जिसे भगवान, जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, ने सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, ताकि यह ब्रह्मचर्य यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे, जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा।”

नौ

“आगे, मित्रों, भगवान जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, उन्होने नौ स्वभाव को सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए… कौन-से नौ धर्म?

(१) नौ रोष [“आघात” =बदला लेने की इच्छा] के आधार हैं।

“मेरा अनर्थ किया”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरा अनर्थ कर रहा है”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरा अनर्थ करेगा”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरे प्रिय मनपसंद लोगों का अनर्थ किया”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरे प्रिय मनपसंद लोगों का अनर्थ कर रहा है”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरे प्रिय मनपसंद लोगों का अनर्थ करेगा”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरे अप्रिय नापसंद लोगों का भला किया”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरे अप्रिय नापसंद लोगों का भला कर रहा है”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरे अप्रिय नापसंद लोगों का भला करेगा”, [सोचकर] रोष पकड़ता है।

(२) नौ रोष हटाने के आधार हैं।

“मेरा अनर्थ किया। [लेकिन संसार में] और क्या मिलता है?” [सोचकर] रोष हटाता है। “मेरा अनर्थ कर रहा है। और क्या मिलता है?” [सोचकर] रोष हटाता है। “मेरा अनर्थ करेगा। और क्या मिलता है?” [सोचकर] रोष हटाता है। “मेरे प्रिय मनपसंद लोगों का अनर्थ किया। और क्या मिलता है?"[सोचकर] रोष हटाता है। “मेरे प्रिय मनपसंद लोगों का अनर्थ कर रहा है। और क्या मिलता है?"[सोचकर] रोष हटाता है। “मेरे प्रिय मनपसंद लोगों का अनर्थ करेगा। और क्या मिलता है?"[सोचकर] रोष हटाता है। “मेरे अप्रिय नापसंद लोगों का भला किया। और क्या मिलता है?"[सोचकर] रोष हटाता है। “मेरे अप्रिय नापसंद लोगों का भला कर रहा है। और क्या मिलता है?"[सोचकर] रोष हटाता है। “मेरे अप्रिय नापसंद लोगों का भला करेगा। और क्या मिलता है?"[सोचकर] रोष हटाता है।

(३) नौ सत्व-वास हैं।

• मित्रों, ऐसे सत्व होते हैं, जिनकी विविध काया और विविध नजरिए होते हैं। जैसे, मानव, कुछ तरह के देवतागण, और कुछ तरह के निचले लोक। यह पहला सत्व-वास है।

• ऐसे सत्व होते हैं, जिनकी विविध काया, किन्तु एक-जैसा नजरिया होता है। जैसे, प्रथम-ध्यान से उपजे ब्रह्मकायिक देवतागण। यह दूसरा सत्व-वास है।

• ऐसे सत्व होते हैं, जिनकी एक-जैसी काया और विविध नजरिए होते हैं। जैसे, आभास्वर देवतागण। यह तीसरा सत्व-वास है।

• ऐसे सत्व होते हैं, जिनकी एक-जैसी काया और एक-जैसा नजरिया होता है। जैसे, शुभ काले देवतागण। यह चौथा सत्व-वास है।

• ऐसे सत्व होते हैं, जो असंज्ञी [=अबोधगम्य] असंवेदनशील होते हैं। जैसे, असंज्ञी सत्व देवतागण। यह पाँचवा सत्व-वास है।

• ऐसे सत्व होते हैं, जो रूप-नजरिया पूर्णतः लाँघ कर, विरोधी-नजरिए ओझल होने पर, विभिन्न-नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनंत है’ [देखते हुए] अनंत आकाश-आयाम में रहते हैं। यह छठा सत्व-वास है।

• ऐसे सत्व होते हैं, जो अनंत आकाश-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘चैतन्य अनंत है’ [देखते हुए] अनंत चैतन्य-आयाम में रहते हैं। यह सातवा सत्व-वास है।

• ऐसे सत्व होते हैं, जो अनंत चैतन्य-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] सूने-आयाम में रहते हैं। यह आठवा सत्व-वास है।

• ऐसे सत्व होते हैं, जो सूने-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, न-संज्ञा-न-असंज्ञा [=न बोधगम्य न अबोधगम्य] आयाम में रहते हैं। यह नौवा सत्व-वास है।

(४) ब्रह्मचर्य वास करने के नौ गलत-अवसर, गलत-समय हैं।

• मित्रों, कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ उत्पन्न होते है। वे ऐसा धर्म बताते है, जो प्रशांति दिलाता, परिनिर्वाण कराता, संबोधि की ओर बढ़ाता, सुगत द्वारा विदित होता है। किन्तु, कोई व्यक्ति नर्क में उत्पन्न होता है। यह ब्रह्मचर्य वास करने का पहला गलत-अवसर, गलत-समय है।

आगे, कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ उत्पन्न होते है। वे ऐसा धर्म बताते है, जो प्रशांति दिलाता, परिनिर्वाण कराता, संबोधि की ओर बढ़ाता, सुगत द्वारा विदित होता है। किन्तु, कोई व्यक्ति • पशुयोनि में उत्पन्न… • प्रेत लोक में उत्पन्न… • असुर लोक में उत्पन्न… • दीर्घायु देवताओं के समूह में उत्पन्न… • [दूर] सीमान्त इलाकों के अनभिज्ञ बर्बर लोगों में उत्पन्न होता है, जहाँ भिक्षु, भिक्षुणियाँ, उपासक, और उपासिकाएँ नहीं जाते हैं। यह ब्रह्मचर्य वास करने का छठा गलत-अवसर, गलत-समय है।

• आगे, कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ उत्पन्न होते है। वे ऐसा धर्म बताते है, जो प्रशांति दिलाता, परिनिर्वाण कराता, संबोधि की ओर बढ़ाता, सुगत द्वारा विदित होता है। और कोई व्यक्ति मध्य के प्रदेशों में जन्म लेता है, किन्तु मिथ्या दृष्टि, विपरीत दृष्टिकोण वाला होता है — ‘दान नहीं है। यज्ञ नहीं है। आहुति नहीं है। सुकृत्य या दुष्कृत्य कर्मों का फ़ल-परिणाम नहीं हैं। लोक नहीं है। परलोक नहीं है। न माता है, न पिता है, न स्वयं से प्रकट होते सत्व हैं। न ही दुनिया में ऐसे श्रमण-ब्राह्मण हैं जो सम्यक-साधना कर सम्यक-प्रगति करते हुए विशिष्ट-ज्ञान का साक्षात्कार कर लोक-परलोक होने की घोषणा करते हैं।’ यह ब्रह्मचर्य वास करने का सातवा गलत-अवसर, गलत-समय है।

• आगे, कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ उत्पन्न होते है। वे ऐसा धर्म बताते है, जो प्रशांति दिलाता, परिनिर्वाण कराता, संबोधि की ओर बढ़ाता, सुगत द्वारा विदित होता है। और कोई व्यक्ति मध्य के प्रदेशों में जन्म लेता है, किन्तु दुष्प्रज्ञ [=विवेकशून्य], मंदबुद्धि, बहरा-गूँगा होता है, भले-बुरे शब्दों के अर्थ समझने में समर्थ नहीं होता। यह ब्रह्मचर्य वास करने का आठवा गलत-अवसर, गलत-समय है।

• आगे, कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ उत्पन्न नहीं होते है। न ही वे ऐसा धर्म बताते है, जो प्रशांति दिलाता, परिनिर्वाण कराता, संबोधि की ओर बढ़ाता, सुगत द्वारा विदित होता है। तब कोई व्यक्ति मध्य के प्रदेशों में जन्म लेता है, और प्रज्ञावान, तीक्ष्ण बुद्धि, और समझदार होता है, भले-बुरे शब्दों के अर्थ समझने में समर्थ। यह ब्रह्मचर्य वास करने का नौवा गलत-अवसर, गलत-समय है।

(५) नौ अनुक्रमपूर्ण विहार हैं।

• यहाँ मित्रों, कोई भिक्षु काम से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त — सोच और विचार के साथ, निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले प्रथम-झान में प्रवेश कर रहता है।

• आगे, सोच और विचार रुक जाने पर भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर बिना-सोच बिना-विचार, समाधि से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले द्वितीय-झान में प्रवेश कर रहता है।

• तब, आगे वह प्रफुल्लता से विरक्ति ले, स्मरणशीलता और सचेतता के साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं — वह उस तृतीय-झान में प्रवेश कर रहता है।

• आगे, वह सुख और दर्द दोनों ही हटाकर, खुशी और परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से, अब नसुख-नदर्दवाले, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-झान में प्रवेश कर रहता है।

• आगे, वह रूप नजरियों को पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नजरियों के ओझल होने पर, विविध नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनन्त है’ [देखते हुए] ‘अनन्त आकाश-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है।

• आगे, वह अनन्त आकाश-आयाम को पूर्णतः लाँघकर, ‘चैतन्य अनन्त है’ [देखते हुए] ‘अनन्त चैतन्य-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है।

• आगे, वह अनन्त चैतन्य-आयाम को पूर्णतः लाँघकर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] ‘सूने-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है।

• आगे, वह सूने-आयाम को पूर्णतः लाँघकर, ‘न-नजरिया-न-अनजरिया-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है।

• आगे, वह न-नजरिया-न-अनजरिया-आयाम को पूर्णतः लाँघकर, नजरिया और संवेदना निरोध में प्रवेश कर रहता है।

(६) नौ अनुक्रमपूर्ण निरोध हैं।

• प्रथम-झान प्रवेशकर्ता के लिए काम-नजरिए निरुद्ध [=रुक] होते हैं।

• द्वितीय-झान प्रवेशकर्ता के लिए सोच-विचार [“वितक्क विचार”] निरुद्ध होते हैं।

• तृतीय-झान प्रवेशकर्ता के लिए प्रफुल्लता निरुद्ध होती है।

• चतुर्थ-झान प्रवेशकर्ता के लिए आश्वास-प्रश्वास [=साँसें] निरुद्ध होती हैं।

• आकाश-आयाम प्रवेशकर्ता के लिए रूप नजरिए निरुद्ध होते हैं।

• चैतन्य-आयाम प्रवेशकर्ता के लिए आकाश-आयाम का नजरिया निरुद्ध होता है।

• शून्य-आयाम प्रवेशकर्ता के लिए चैतन्य-आयाम का नजरिया निरुद्ध होता है।

• न-नजरिया न अ-नजरिया-आयाम प्रवेशकर्ता के लिए शून्य-आयाम का नजरिया निरुद्ध होता है।

• नजरिया-संवेदना निरोध प्रवेशकर्ता के लिए नजरिए और संवेदनाएँ निरुद्ध होते हैं। 78

ये नौ स्वभाव हैं, मित्रों, जिसे भगवान, जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, ने सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, ताकि यह ब्रह्मचर्य यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे, जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा।”

दस

“आगे, मित्रों, भगवान जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, उन्होने दस स्वभाव को सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए… कौन-से दस धर्म?

(१) दस धर्म संरक्षण करते हैं।

• मित्रों, कोई भिक्षु शीलवान होता है। वह पातिमोक्ष के अनुसार संयम से विनीत होकर, आर्य आचरण और जीवनशैली से संपन्न होकर रहता है। वह [धर्म-विनय] शिक्षापदों को सीख कर धारण करता है, अल्प पाप में भी ख़तरा देखता है। यह धर्म संरक्षण करता है।

• आगे, वह बहुत धर्म सुनता है, सुना हुआ धारण करता है, सुना हुआ संचय करता है। ऐसा धर्म, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, और अन्त में कल्याणकारी हो, ऐसे सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ को वह अर्थ और विवरण के साथ बार-बार सुनता है, याद रखता है, चर्चा करता है, संचित करता है, मन से जाँच-पड़ताल करता है, और गहराई से समझकर सम्यकदृष्टि धारण करता है। यह धर्म संरक्षण करता है।

• आगे, उसके कल्याणमित्र होते हैं, भले सहचारी होते हैं, भले साथी होते हैं। यह धर्म संरक्षण करता है।

• आगे, वह सहज संवादनीय [“सुवचो” =जिसे बोला जा डाँटा जा सके, विनम्र] होता है। वह सहज-संवादनीय धर्म से संपन्न, क्षमाशील [=सहनशील, धैर्यवान], और अनुशासन [=सूचनाओं] को आदर के साथ ग्रहण करता है। यह धर्म संरक्षण करता है।

• आगे, वह सब्रह्मचारियों के लिए जो ऊँच-नीच प्रकार के कर्तव्य होते हैं, उनमें दक्ष होता है, आलस्यरहित होता है, काम के तरीकों में प्रयोगशील होकर कार्य करता या प्रबंध करवाता है। यह धर्म संरक्षण करता है।

• आगे, वह धर्मप्रेमी होता है, संवाद करने में प्रिय होता है, ऊँचे धर्म और ऊँचे विनय [“अभिधम्म अभिविनय”] में बहुत हर्षित होता है। यह धर्म संरक्षण करता है।

• आगे, वह ऐसे-वैसे चीवर, भिक्षा, निवास, और औषधि भेषज्य आवश्यकताओं में संतुष्ट होता है। यह धर्म संरक्षण करता है।

• आगे, वह ऊर्जा बढ़ाकर विहार करता है। अकुशल स्वभावों को त्यागने और कुशल स्वभावों को धारण करने के लिए निश्चयबद्ध, दृढ़, और पराक्रमी बने रहता है। कुशल धर्मों के प्रति कर्तव्यों से जी नहीं चुराता। यह धर्म संरक्षण करता है।

• आगे, वह स्मृतिमान होता है, याददाश्त में बहुत तेज़। पूर्वकाल में की गई, पूर्वकाल में कही गई बात भी स्मरण रखता है, अनुस्मरण कर पाता है। यह धर्म संरक्षण करता है।

• आगे, वह प्रज्ञावान होता है। वह ऐसे आर्य और भेदक अन्तर्ज्ञान से संपन्न होता है, जो उदय और अस्त होना समझ सके, और दुःखों के सम्यक-अंत की ओर ले जाए। यह धर्म संरक्षण करता है।

(२) दस समग्रता [“कसिण”] के आयाम हैं।

• पृथ्वी की समग्रता पहचानता है — ऊपर, नीचे, आड़े-तिरछे, एकमात्र [=दो नहीं], असीम।

• जल की समग्रता पहचानता है — ऊपर, नीचे, आड़े-तिरछे, एकमात्र, असीम।

• अग्नि की समग्रता पहचानता है — ऊपर, नीचे, आड़े-तिरछे, एकमात्र, असीम।

• वायु की समग्रता पहचानता है — ऊपर, नीचे, आड़े-तिरछे, एकमात्र, असीम।

• नीले की समग्रता पहचानता है — ऊपर, नीचे, आड़े-तिरछे, एकमात्र, असीम।

• पीले की समग्रता पहचानता है — ऊपर, नीचे, आड़े-तिरछे, एकमात्र, असीम।

• लाल की समग्रता पहचानता है — ऊपर, नीचे, आड़े-तिरछे, एकमात्र, असीम।

• सफ़ेद की समग्रता पहचानता है — ऊपर, नीचे, आड़े-तिरछे, एकमात्र, असीम।

• आकाश की समग्रता पहचानता है — ऊपर, नीचे, आड़े-तिरछे, एकमात्र, असीम।

• चैतन्य की समग्रता पहचानता है — ऊपर, नीचे, आड़े-तिरछे, एकमात्र, असीम।

(३) दस अकुशल कर्मपथ हैं — जीवहत्या, चोरी, व्यभिचार, झूठ बोलना, फूट डालने वाली बात करना, कटु बोलना, बकवाद, लालसा, दुर्भावना, मिथ्यादृष्टि।

(४) दस कुशल कर्मपथ हैं — जीवहत्या से विरत, चोरी से विरत, व्यभिचार से विरत, झूठ बोलने से विरत, फूट डालने वाली बात करने से विरत, कटु बोलने से विरत, बकवाद से विरत, लालसारहित, दुर्भावनारहित, सम्यकदृष्टि।

(५) दस आर्यवास हैं।

मित्रों, कोई भिक्षु पाँच अंगों का त्यागी, छह अंगों से संपन्न, एक से रक्षित, चार आधार पर, अपनी मान्यताओं को त्याग चुका, खोज को पूर्णतः त्याग चुका, निर्मल संकल्प वाला, प्रशांत शारीरिक-रचना वाला, सुविमुक्त चित्त वाला, सुविमुक्त प्रज्ञा वाला।

• मित्रों, कैसे भिक्षु पाँच अंगों का त्यागी होता है? कोई भिक्षु कामेच्छा का त्यागी होता है, दुर्भावना का त्यागी होता है, सुस्ती और तंद्रा का त्यागी होता है, बेचैनी और पश्चाताप का त्यागी होता है, अनिश्चितता का त्यागी होता है। इस तरह भिक्षु पाँच अंगों का त्यागी होता है।

• कैसे भिक्षु छह अंगों से संपन्न होता है? कोई भिक्षु आँखों से रूप देखकर न अच्छा मन बनाता है, न बुरा मन। बल्कि तटस्थ, स्मरणशील और सचेत विहार करता है। कोई भिक्षु कानों से आवाज सुनकर… नाक से गंध सूँघकर… जीभ से स्वाद चखकर… काया से संस्पर्श महसूस कर… मन से स्वभाव जानकर न अच्छा मन बनाता है, न बुरा मन। बल्कि तटस्थ, स्मरणशील और सचेत विहार करता है। इस तरह, भिक्षु छह अंगों से संपन्न होता है।

• कैसे भिक्षु एक से रक्षित होता है? कोई भिक्षु स्मृति [=स्मरणशीलता] से रक्षित चित्त से संपन्न होता है। इस तरह, भिक्षु एक से रक्षित होता है।

• कैसे भिक्षु चार आधार पर होता है? कोई भिक्षु जाँच-परख कर [कुछ का] उपयोग करता है, जाँच-परख कर [कुछ को] सहता है, जाँच-परख कर [कुछ को] टालता है, जाँच-परख कर [कुछ को] छोड़ देता है। इस तरह, भिक्षु चार आधार पर होता है।

• कैसे भिक्षु अपनी मान्यताओं [“पच्चेक सच्च”] को त्यागता है? कोई भिक्षु जनसामान्य श्रमण-ब्राह्मणों की जो जनसामान्य मान्यताएँ होती हैं, उन सभी को हाँकता [=भगाता] है, खत्म करता है, फेंकता है, खंडन करता है, मुक्त करता है, छोड़ता है, जाने देता है। इस तरह, भिक्षु अपनी मान्यताओं को त्यागता है।

• कैसे भिक्षु खोज को पूर्णतः त्यागता है? कोई भिक्षु अपनी कामुक खोज का त्याग करता है, अपनी अस्तित्व की खोज का त्याग करता है, अपनी ब्रह्मचर्य की खोज को शांत करता है। इस तरह, भिक्षु खोज को पूर्णतः त्यागता है।

• कैसे भिक्षु निर्मल संकल्प वाला होता है? कोई भिक्षु कामुक संकल्पों का त्याग करता है, दुर्भावनाभरे संकल्पों का त्याग करता है, हिंसात्मक संकल्पों का त्याग करता है। इस तरह, भिक्षु निर्मल संकल्प वाला होता है।

• कैसे भिक्षु प्रशांत शारीरिक-रचना वाला होता है? कोई भिक्षु सुख और दर्द दोनों ही हटाकर, खुशी और परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से, अब नसुख-नदर्दवाले, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-झान में प्रवेश कर रहता है। इस तरह, भिक्षु प्रशांत शारीरिक-रचना वाला होता है।

• कैसे भिक्षु सुविमुक्त चित्त वाला होता है? कोई भिक्षु राग से चित्त को विमुक्त करता है, द्वेष से चित्त को विमुक्त करता है, भ्रम से चित्त को विमुक्त करता है। इस तरह, भिक्षु सुविमुक्त चित्त वाला होता है।

• कैसे भिक्षु सुविमुक्त प्रज्ञा वाला होता है? कोई भिक्षु अंतर्ज्ञान से जानता है, “मेरा राग त्याग दिया गया, जड़ उखाड़ी गयी, शीर्ष काटे ताड़ जैसा बनाया गया, अस्तित्व मिटाया गया, भविष्य में अनुत्पाद स्वभाव का कर दिया गया।” इस तरह, भिक्षु सुविमुक्त प्रज्ञा वाला होता है।

(६) दस अशैक्ष्य [=अरहंत] धर्म हैं — अशैक्ष्य सम्यक दृष्टि, अशैक्ष्य सम्यक संकल्प, अशैक्ष्य सम्यक वाणी, अशैक्ष्य सम्यक कार्य, अशैक्ष्य सम्यक जीविका, अशैक्ष्य सम्यक मेहनत, अशैक्ष्य सम्यक स्मृति, अशैक्ष्य सम्यक समाधि, अशैक्ष्य सम्यक ज्ञान, अशैक्ष्य सम्यक विमुक्ति।

ये दस स्वभाव हैं, मित्रों, जिसे भगवान, जो जानते है, जो देखते है, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है, ने सही तरह से समझाया है। उसे हम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए, ताकि यह ब्रह्मचर्य यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे, जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा।”

तब भगवान ने उठकर आयुष्मान सारिपुत्त को संबोधित किया, “साधु साधु, सारिपुत्त! तुमने बहुत अच्छा भिक्षुओं को संगीतिक्रम से बताया।”

आयुष्मान सारिपुत्त ने ऐसा कहा, और शास्ता सहमत हुए। हर्षित होकर भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त की बात का अभिनंदन किया।

सङ्गीति सुत्त समाप्त।


  1. भगवान के द्वारा बताएं महत्वपूर्ण धर्मों को किस तरह से संगठित कर के प्रस्तुत करना चाहिए, यह लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है। यहाँ आयुष्मान सारिपुत्त भंते ने सभी धर्मों को अनोखे अंगुत्तर तरीके से प्रस्तुत किया है, जो “अंगुत्तरनिकाय” का छोटा संस्करण जैसा लगता है। भगवान ने उन धर्मों को विषयानुसार जोड़कर संयुक्त तरीके से प्रस्तुत किया है, जो “संयुक्तनिकाय” से मेल खाता है। यहाँ इस सूत्र में कुछ अनोखे धर्मशब्द आते हैं, जिनका विस्तृत स्पष्टीकरण कही नहीं मिलता हैं। हो सकता है कि वे अनमोल सूत्र संगायन से छूट गए हो। ↩︎

  2. इसका उल्लेख अंगुत्तरनिकाय १०:२७, १०:२८, और खुद्दकपाठ ४.१ में मिलता है। ↩︎ ↩︎

  3. धर्म की यह बात सर्वथा अनोखी है, और इसे कही स्पष्ट नहीं किया गया है। कुछ विद्वानों का मानना है कि “संस्कार”, शायद “आहार” का ही पर्यायवाची शब्द है। किन्तु, मुझे ऐसा नहीं लगता। भगवान के अनुसार तीन तरह के संस्कार होते हैं — वाणी संस्कार, जिस तरह कोई किसी भी बात पर सोच-विचार [वितक्क-विचार] करता है और फिर उसे बोलता है। काया संस्कार, जिस तरह कोई भौतिक स्तर पर अपने शरीर को बनाता है, चाहे साँस लेकर [आनापान], व्यायाम कर, या खाकर। और चित्त संस्कार, जिस तरह कोई एक विशेष नजरिए [संज्ञा] से देखते हुए भीतर [वेदना] महसूस करता है। इसका अर्थ है कि सभी सत्व इन्हीं तीन संस्कारों पर टिके होते हैं, निर्भर होते हैं। ↩︎

  4. इसका उल्लेख अंगुत्तरनिकाय ४:२५४ में मिलता है। ↩︎

  5. इसका उल्लेख अंगुत्तरनिकाय २:९१ और संयुत्तनिकाय २२:८० में मिलता है। ↩︎

  6. हिरी और ओतप्प को नैतिक जीवन का आधार माना जाता है। दरअसल, वे आध्यात्मिक इंद्रियाँ हैं और बल भी, जिन्हें मुक्ति के मार्ग में विकसित करना होता है। भगवान ने हिरी ओतप्प को ‘लोकपाल’ का दर्जा दिया है। वह, दरअसल, संपूर्ण दुनिया का रक्षण करती है, आधार देती है, और जिसके अभाव में दुनिया पापी बनते हुए पूर्णतः नष्ट हो सकती है। लज्जा और भय, दोनों मिलकर पाप का रोकथाम करते हैं, और मदहोश होते भले लोगों को एक स्तर के नीचे गिरने से थाम लेते हैं। वे कर्मों के कुछ ख़ास द्वार बंद करते हैं, जो निचले लोक में खुलते हो। ↩︎

  7. दरअसल, यह विनय का एक गुण है, जिसे अंगुत्तरनिकाय २:९७ में बताया गया है। ↩︎

  8. इसका उल्लेख अंगुत्तरनिकाय २:१६३ में मिलता है। ↩︎ ↩︎

  9. इसका उल्लेख अंगुत्तरनिकाय २:९६ में मिलता है। ↩︎

  10. आयाम छह इंद्रियों को भी कहते हैं, और अरूप अवस्थाओं को भी। इसका उल्लेख मज्झिमनिकाय ११५:३ में मिलता है। ↩︎

  11. इसका उल्लेख भी मज्झिमनिकाय ११५:३ में मिलता है। ↩︎

  12. इसका उल्लेख अंगुत्तरनिकाय २:११ में मिलता है। ↩︎

  13. इनका उल्लेख संयुत्तनिकाय १४.१३, अंगुत्तरनिकाय ३:७६, और ३.७७ में मिलता है। ↩︎

  14. अंगुत्तरनिकाय ४.३३:२ में निरोध को “किनारा” न बोलकर “मध्यम” बोला गया है। किन्तु संयुत्तनिकाय २२.१०३ में किनारे तीन नहीं, बल्कि चार हैं। ↩︎

  15. इसका उल्लेख संयुत्तनिकाय ३८.१४, और ४५.१६५ में मिलता है। ↩︎

  16. सम्यकता का अर्थ है सीधा, सच्चा, और सटीक धर्म, जो सुख परिणामी हो, जैसे बुद्ध की शिक्षा । “सम्यकता में निश्चितता” का उल्लेख कुछ सूत्रों में आया है, जैसे अंगुत्तरनिकाय ५.१५१, ५.१५२, और ५.१५३। लेकिन “मिथ्यापन में निश्चितता” का उल्लेख प्राचीनतम सूत्रों में नहीं, केवल पश्चात के ग्रंथ साहित्य में आया है। इनका मतलब होना चाहिए कि कोई कर्म करने के पहले, किसी का चित्त “सम्यकता” में निश्चित या आश्वस्त हो सकता है, या “मिथ्यापन” में निश्चित या आश्वस्त हो सकता है, या दोनों के बीच अनिश्चित या उलझा हुआ हो सकता है। उन्हीं कर्मों का संचय या “संग्रह” होना। ↩︎

  17. इसका उल्लेख अंगुत्तरनिकाय ७.५८ में मिलता है। ↩︎

  18. इसका उल्लेख अंगुत्तरनिकाय ७.४७ में आता है। वैदिक परंपरा में “दक्षिणाग्नि” होती है, जिसमें कोई अपने मृतपूर्वजों के लिए दक्षिण-दिशा में अग्नि के साथ बलि देता है। ↩︎

  19. इसका उल्लेख प्राचीनतम सूत्रों में नहीं, केवल अभिधम्मपिटक में मिलता है। “दृश्य और प्रतिरोधी” ऐसे रूप होते हैं, जो आँखों से दिखायी दे। “अदृश्य और प्रतिरोधी” रूप आँखों से दिखायी न दे, लेकिन जो दूसरे इंद्रियों से पता चले। “अदृश्य और अप्रतिरोधी” रूप वे हैं, जो केवल मन से पता चलते हैं। ↩︎

  20. “शिक्षार्थी” उसे कहा जाता है, जो कम-से-कम श्रोतापन्न अवस्था प्राप्त हो और निर्वाण पाने के लिए प्रयासरत हो। “असेक्ख” या अशिक्षार्थी “अरहंत” को माना जाता है, जिसे सीखने के लिए कुछ बचा न हो। किन्तु न-शिक्षार्थी न-अशिक्षार्थी का प्राचीनतम सूत्रों में उल्लेख नहीं मिलता। हालांकि उसे अभिधम्म में जोड़ा गया है। इसका अर्थ शायद उस व्यक्ति से है जिसने धार्मिक प्रयास शुरू न किया हो। ↩︎

  21. इसका उल्लेख इतिवुत्तक ९५ में मिलता है। ↩︎

  22. पहला ब्रह्मकायिक देवताओं का विवरण अनोखा है। किन्तु दूसरे और तीसरे का अंगुत्तरनिकाय ५.१७० में उल्लेख हुआ है। ↩︎

  23. यह अभिधम्म का वर्गिकरण है। ↩︎

  24. अन्तर्ज्ञान का यह वर्गिकरण बहुत प्रसिद्ध है, किन्तु संपूर्ण सुत्तपिटक में केवल इसी जगह इसका उल्लेख हुआ है। जाहिर है, यह भी एक अभिधम्म का तरीका है, जिसे आगे चलकर बुद्धघोष भंते ने अपने विशुद्धिमग्ग ग्रंथ में स्पष्ट किया है। बुद्धघोष भंते के अनुसार, “चिंतनमय” वह अन्तर्ज्ञान है, जो केवल सोच-विचार करने से उत्पन्न हुआ हो, जो अनसुना भी हो, अर्थात, पहले किसी से सुना न गया हो। “श्रुतमय” वह अन्तर्ज्ञान है, जो किसी से सुनकर उत्पन्न हुआ हो। और, “भावनामय” अन्तर्ज्ञान चित्त विकसित करने से उत्पन्न होता है, जैसे ध्यान-साधना इत्यादि। यहाँ गौर करें कि चिंतनमय प्रज्ञा अनसुनी होनी चाहिए। आजकल के बहुत से लोग इसे गलत तरह से जानते हैं। उन्हें लगता हैं कि प्रज्ञा के तीन चरण होते हैं। पहले किसी से सुनना [श्रुतमय], फिर उस पर चिंतन करना [चिंतनमय], और तब उसे भावित करना [भावनामय] प्रज्ञा होती है। किन्तु, ये अन्तर्ज्ञान के तीन चरण नहीं, बल्कि तीन तरह की अनोखी प्रज्ञाएँ हैं, जो एक-दूसरे की सहयोगी नहीं हैं। ↩︎

  25. श्रुत हथियार का उल्लेख अंगुत्तरनिकाय ७.६७ में, और प्रज्ञा हथियार का उल्लेख धम्मपद ४०:३ और थेरगाथा १६.३ में आया है। ↩︎

  26. इसका उल्लेख संयुत्तनिकाय ४८.२३ और इतिवुत्तक ६२:२ में मिलता है। आगे चलकर यह अभिधम्म के मापदंड का हिस्सा बना। ↩︎

  27. काय-भावना और चित्त-भावना का उल्लेख मज्झिमनिकाय ३६ में मिलता है। ↩︎

  28. इसका उल्लेख मज्झिमनिकाय ३५ में मिलता है। ↩︎

  29. रोज़मर्रा की भाषा में वितक्क का अर्थ है, मन में आती कोई बात या कोई विषय। जबकि, विचार का अर्थ है, उसी एक विषय पर लंबी देर तक चिंतन करते रहना। किसी के चंचल मन में लगातार तरह-तरह की बातें या विषय आते रहते हैं, किन्तु मन किसी बात पर टिकता नहीं, रुकता नहीं, बल्कि दौड़ते ही रहता है। दूसरी ओर, किसी के स्थिर मन में यदि एक बात आ जाए, तो मन बड़ी देर तक उसी पर टिके रहता है, और उसका गहरा-गहरा चिंतन होते रहता है। अब, बौद्ध समाधि की भाषा में कहें, तो चित्त को साधना-संबंधी विषय (जैसे अशुभ, आनापान इत्यादि) देना ‘वितक्क’ है, और चित्त को उसी विषय पर लंबी देर तक टिकाए रखना ‘विचार’ है। विषय-चिंतन के साथ समाधि प्रथम ध्यान-अवस्था होती है, विषय-चिंतन रहित समाधि द्वितीय ध्यान-अवस्था होती है। और उन दोनों के बीच विषय-रहित सीमित-चिंतन वाली समाधि होती है। ↩︎

  30. अंगुत्तरनिकाय ३.१२१ और इतिवुत्तक ६६ देखें। ↩︎

  31. अंगुत्तरनिकाय ३.१२२ और इतिवुत्तक ६७ देखें। ↩︎

  32. अंगुत्तरनिकाय ६.७९ देखें। अभिधम्म के विभंग ग्रंथ में १६:२५९.१ में इसे स्पष्ट किया गया है। थेरगाथा २.१९ में आने के बाद, आगे चलकर “उपाय कौशल्य” बहुत प्रसिद्ध हुआ। ↩︎

  33. अंगुत्तरनिकाय ३.४० देखें। ↩︎

  34. अंगुत्तरनिकाय ३.६७ देखें। ↩︎

  35. अंगुत्तरनिकाय ३.६३ देखें। ↩︎

  36. अंगुत्तरनिकाय ३.६० देखें। ↩︎

  37. अंगुत्तरनिकाय १०.२० देखें। ↩︎

  38. पहले दो ज्ञान संयुत्तनिकाय १२.३३:१४ में आते हैं। चारों ज्ञानों को अगले सूत्र दीघनिकाय ३४ में भी बताया गया है। ↩︎

  39. संयुत्तनिकाय ५५.५० पढ़ें। ↩︎

  40. संयुत्तनिकाय २२.५४ देखें। ↩︎

  41. अंगुत्तरनिकाय ४.१८ देखें। ↩︎

  42. अंगुत्तरनिकाय ४.९ देखें। ↩︎

  43. अंगुत्तरनिकाय ४.१६३ देखें। ↩︎

  44. अंगुत्तरनिकाय ४.१६४ देखें। ↩︎

  45. अंगुत्तरनिकाय ४.२९ देखें। ↩︎

  46. मज्झिमनिकाय ४५ देखें। ↩︎

  47. अंगुत्तरनिकाय ९.५ देखें। ↩︎

  48. मज्झिमनिकाय १४० देखें। ↩︎

  49. अंगुत्तरनिकाय ३.६७ देखें। ↩︎

  50. मज्झिमनिकाय ५७:७ और अंगुत्तरनिकाय ४.२३६ देखें। ↩︎

  51. अंगुत्तरनिकाय ४.१८९ देखें। ↩︎ ↩︎

  52. संयुत्तनिकाय ३५.२३८ देखें। ↩︎

  53. संयुत्तनिकाय ४५.१७४ देखें। ↩︎

  54. मज्झिमनिकाय १२ देखें। ↩︎

  55. अंगुत्तरनिकाय ४.१७१ देखें। ↩︎

  56. अंगुत्तरनिकाय ४.७८ और मज्झिमनिकाय १४२ देखें। ↩︎

  57. अंगुत्तरनिकाय ४.३२ देखें। ↩︎

  58. अंगुत्तरनिकाय ४.८५ और संयुत्तनिकाय ३.२१ देखें। ↩︎

  59. अंगुत्तरनिकाय ४.८७ देखें। ↩︎

  60. अंगुत्तरनिकाय ५.२५४ से ५.२५९ तक देखें। ↩︎

  61. अंगुत्तरनिकाय ५.१६७ और १०.४४ देखें। ↩︎

  62. मज्झिमनिकाय १२० देखें। ↩︎

  63. अट्ठकथा पहले दो श्रेणियों को निम्नलिखित उदाहरणों से स्पष्ट करती है। विचार करें कि एक अनागामी सत्व मरणोपरांत अविहा में ओपपातिक [=स्वयं से प्रकट] होता है, जहाँ उसकी आयु १००० कल्प होती है। यदि वह पहले दिन से लेकर ४०० कल्पों तक परिनिवृत होता है, तो उसे “बीच में परिनिवृत” की श्रेणी में रखा जाएगा। वहीं, यदि वह पहले १०० कल्पों में परिनिवृत होता है, तो वह “पहुँचने पर परिनिवृत” की श्रेणी में आता है। हालांकि, यह स्पष्टीकरण अट्ठकथा का सामान्य-बुद्धि के दृष्टिकोण से भी सही प्रतीत नहीं होता।

    पहला कारण यह है कि यह सूची अनुक्रम में है, जिसमें “बीच में परिनिवृत” श्रेणी को बेहतर माना गया है और इसके बाद “पहुँचने पर परिनिवृत” आता है। ऐसे में ४०० कल्पों में परिनिवृत होने वाला व्यक्ति १०० कल्पों में परिनिवृत होने वाले से कैसे श्रेष्ठ हो सकता है? दूसरा कारण यह है कि वास्तव में ये दोनों श्रेणियाँ परस्पर अनन्य नहीं हैं। पहली श्रेणी में ही दूसरी श्रेणी भी शामिल है। अतः प्रश्न उठता है कि जो १०० कल्पों में परिनिवृत होता है, वह “बीच में परिनिवृत” के अंतर्गत आएगा या “पहुँचने पर परिनिवृत” के अंतर्गत?

    इसलिए, सामान्य-बुद्धि से यह समझना उचित होगा कि जो व्यक्ति मरणोपरांत इस लोक और परलोक के बीच में परिनिवृत होता है, वह “बीच में परिनिवृत” की सर्वोच्च श्रेणी में आता है। वहीं, जो व्यक्ति शुद्धवास में पहुँचने के तुरंत बाद परिनिवृत होता है, वह “पहुँचने पर परिनिवृत” की श्रेणी में रहेगा। अंतिम श्रेणी के अनागामी सत्व पहले अविहा में ओपपातिक होते हैं और फिर क्रमशः अतप्पा, सुदस्सा, सुदस्सी, और अंततः सर्वश्रेष्ठ अकनिट्ठ में ओपपातिक होते हैं। ↩︎

  64. अंगुत्तरनिकाय ५.२०५ पढ़ें। साथ ही अंगुत्तरनिकाय १०.१४ और मज्झिमनिकाय १६। ↩︎

  65. अंगुत्तरनिकाय ५.२०० देखें। ↩︎

  66. अंगुत्तरनिकाय ६.४० में उल्लेख आता हैं कि इन छह कारणों से बुद्ध शासन चिरस्थायी बने रहता है। ↩︎

  67. अंगुत्तरनिकाय ६.३० देखें। ↩︎

  68. अंगुत्तरनिकाय ३.७१ देखें। ↩︎

  69. अंगुत्तरनिकाय ६.५७ के अनुसार यह पुराण कश्यप के सिद्धान्त का प्रतिउत्तर है। ↩︎

  70. अंगुत्तरनिकाय ७.६८ देखें। ↩︎

  71. अंगुत्तरनिकाय ७.२० देखें। ↩︎

  72. अंगुत्तरनिकाय ७.४४ और दीघनिकाय १५ में इसका उल्लेख देखें। ↩︎

  73. मज्झिमनिकाय ७० देखें। ↩︎

  74. यह, दरअसल, भिक्षु-विनय का विषय हैं। किन्तु अंगुत्तरनिकाय ७.८४ के साथ-साथ मज्झिमनिकाय १०४ में भी स्पष्ट किया गया है। ↩︎

  75. इसके बारे में और गहराई से जानने के लिए अंगुत्तरनिकाय के चार सूत्र ८.३१, ८.३३, ५.३४, और ७.४९ पढ़ें। ↩︎

  76. अंगुत्तरनिकाय ८.३५ देखें। ↩︎

  77. अंगुत्तरनिकाय ८.६ देखें। ↩︎

  78. अंगुत्तरनिकाय ९.६१ देखें। ↩︎

Pali

२९६. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा मल्‍लेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्‍चमत्तेहि भिक्खुसतेहि येन पावा नाम मल्‍लानं नगरं तदवसरि। तत्र सुदं भगवा पावायं विहरति चुन्दस्स कम्मारपुत्तस्स अम्बवने।

उब्भतकनवसन्धागारं

२९७. तेन खो पन समयेन पावेय्यकानं मल्‍लानं उब्भतकं नाम नवं सन्धागारं [सन्थागारं (सी॰ पी॰), सण्ठागारं (स्या॰ कं॰)] अचिरकारितं होति अनज्झावुट्ठं [अनज्झावुत्थं (सी॰ स्या॰ पी॰ क॰)] समणेन वा ब्राह्मणेन वा केनचि वा मनुस्सभूतेन। अस्सोसुं खो पावेय्यका मल्‍ला – ‘‘भगवा किर मल्‍लेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्‍चमत्तेहि भिक्खुसतेहि पावं अनुप्पत्तो पावायं विहरति चुन्दस्स कम्मारपुत्तस्स अम्बवने’’ति। अथ खो पावेय्यका मल्‍ला येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु। एकमन्तं निसिन्‍ना खो पावेय्यका मल्‍ला भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘इध, भन्ते, पावेय्यकानं मल्‍लानं उब्भतकं नाम नवं सन्धागारं अचिरकारितं होति अनज्झावुट्ठं समणेन वा ब्राह्मणेन वा केनचि वा मनुस्सभूतेन। तञ्‍च खो, भन्ते, भगवा पठमं परिभुञ्‍जतु, भगवता पठमं परिभुत्तं पच्छा पावेय्यका मल्‍ला परिभुञ्‍जिस्सन्ति। तदस्स पावेय्यकानं मल्‍लानं दीघरत्तं हिताय सुखाया’’ति। अधिवासेसि खो भगवा तुण्हीभावेन।

२९८. अथ खो पावेय्यका मल्‍ला भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन सन्धागारं तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा सब्बसन्थरिं [सब्बसन्थरिं सन्थतं (क॰)] सन्धागारं सन्थरित्वा भगवतो आसनानि पञ्‍ञापेत्वा उदकमणिकं पतिट्ठपेत्वा तेलपदीपं आरोपेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठंसु। एकमन्तं ठिता खो ते पावेय्यका मल्‍ला भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘सब्बसन्थरिसन्थतं [सब्बसन्थरिं सन्थतं (सी॰ पी॰ क॰)], भन्ते, सन्धागारं, भगवतो आसनानि पञ्‍ञत्तानि, उदकमणिको पतिट्ठापितो, तेलपदीपो आरोपितो। यस्सदानि, भन्ते, भगवा कालं मञ्‍ञती’’ति।

२९९. अथ खो भगवा निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घेन येन सन्धागारं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पादे पक्खालेत्वा सन्धागारं पविसित्वा मज्झिमं थम्भं निस्साय पुरत्थाभिमुखो निसीदि। भिक्खुसङ्घोपि खो पादे पक्खालेत्वा सन्धागारं पविसित्वा पच्छिमं भित्तिं निस्साय पुरत्थाभिमुखो निसीदि भगवन्तंयेव पुरक्खत्वा। पावेय्यकापि खो मल्‍ला पादे पक्खालेत्वा सन्धागारं पविसित्वा पुरत्थिमं भित्तिं निस्साय पच्छिमाभिमुखा निसीदिंसु भगवन्तंयेव पुरक्खत्वा। अथ खो भगवा पावेय्यके मल्‍ले बहुदेव रत्तिं धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उय्योजेसि – ‘‘अभिक्‍कन्ता खो, वासेट्ठा, रत्ति। यस्सदानि तुम्हे कालं मञ्‍ञथा’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो पावेय्यका मल्‍ला भगवतो पटिस्सुत्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्‍कमिंसु।

३००. अथ खो भगवा अचिरपक्‍कन्तेसु पावेय्यकेसु मल्‍लेसु तुण्हीभूतं तुण्हीभूतं भिक्खुसंघं अनुविलोकेत्वा आयस्मन्तं सारिपुत्तं आमन्तेसि – ‘‘विगतथिनमिद्धो [विगतथीनमिद्धो (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] खो, सारिपुत्त, भिक्खुसङ्घो। पटिभातु तं, सारिपुत्त, भिक्खूनं धम्मीकथा। पिट्ठि मे आगिलायति। तमहं आयमिस्सामी’’ति [आयमेय्यामीति (स्या॰ कं॰)]। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा सारिपुत्तो भगवतो पच्‍चस्सोसि। अथ खो भगवा चतुग्गुणं सङ्घाटिं पञ्‍ञपेत्वा दक्खिणेन पस्सेन सीहसेय्यं कप्पेसि पादे पादं अच्‍चाधाय, सतो सम्पजानो उट्ठानसञ्‍ञं मनसि करित्वा।

भिन्‍ननिगण्ठवत्थु

३०१. तेन खो पन समयेन निगण्ठो नाटपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो होति। तस्स कालङ्किरियाय भिन्‍ना निगण्ठा द्वेधिकजाता [द्धेळ्हकजाता (स्या॰ कं॰)] भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्‍ना अञ्‍ञमञ्‍ञं मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरन्ति [विचरन्ति (स्या॰ कं॰)] – ‘‘न त्वं इमं धम्मविनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजानामि, किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि! मिच्छापटिपन्‍नो त्वमसि, अहमस्मि सम्मापटिपन्‍नो। सहितं मे, असहितं ते। पुरेवचनीयं पच्छा अवच, पच्छावचनीयं पुरे अवच। अधिचिण्णं ते विपरावत्तं, आरोपितो ते वादो, निग्गहितो त्वमसि, चर वादप्पमोक्खाय, निब्बेठेहि वा सचे पहोसी’’ति। वधोयेव खो मञ्‍ञे निगण्ठेसु नाटपुत्तियेसु वत्तति। येपि [येपि ते (सी॰ पी॰)] निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स सावका गिही ओदातवसना, तेपि निगण्ठेसु नाटपुत्तियेसु निब्बिन्‍नरूपा विरत्तरूपा पटिवानरूपा, यथा तं दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते भिन्‍नथूपे अप्पटिसरणे।

३०२. अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘निगण्ठो, आवुसो, नाटपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो, तस्स कालङ्किरियाय भिन्‍ना निगण्ठा द्वेधिकजाता…पे॰… भिन्‍नथूपे अप्पटिसरणे’’। ‘‘एवञ्हेतं, आवुसो, होति दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते। अयं खो पनावुसो अम्हाकं [अस्माकं (पी॰)] भगवता [भगवतो (क॰ सी॰)] धम्मो स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं, न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं।

‘‘कतमो चावुसो, अम्हाकं भगवता [भगवतो (क॰ सी॰)] धम्मो स्वाक्खातो सुप्पवेदितो निय्यानिको उपसमसंवत्तनिको सम्मासम्बुद्धप्पवेदितो; यत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं, न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं?

एककं

३०३. ‘‘अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन एको धम्मो सम्मदक्खातो। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं, न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। कतमो एको धम्मो? सब्बे सत्ता आहारट्ठितिका। सब्बे सत्ता सङ्खारट्ठितिका। अयं खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन एको धम्मो सम्मदक्खातो। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं, न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं।

दुकं

३०४. ‘‘अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन द्वे धम्मा सम्मदक्खाता। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं, न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। कतमे द्वे [द्वे धम्मो (स्या॰ कं॰) एवमुपरिपि]?

‘‘नामञ्‍च रूपञ्‍च।

‘‘अविज्‍जा च भवतण्हा च।

‘‘भवदिट्ठि च विभवदिट्ठि च।

‘‘अहिरिकञ्‍च [अहिरीकञ्‍च (कत्थचि)] अनोत्तप्पञ्‍च।

‘‘हिरी च ओत्तप्पञ्‍च।

‘‘दोवचस्सता च पापमित्तता च।

‘‘सोवचस्सता च कल्याणमित्तता च।

‘‘आपत्तिकुसलता च आपत्तिवुट्ठानकुसलता च।

‘‘समापत्तिकुसलता च समापत्तिवुट्ठानकुसलता च।

‘‘धातुकुसलता च मनसिकारकुसलता च।

‘‘आयतनकुसलता च पटिच्‍चसमुप्पादकुसलता च।

‘‘ठानकुसलता च अट्ठानकुसलता च।

‘‘अज्‍जवञ्‍च लज्‍जवञ्‍च।

‘‘खन्ति च सोरच्‍चञ्‍च।

‘‘साखल्यञ्‍च पटिसन्थारो च।

‘‘अविहिंसा च सोचेय्यञ्‍च।

‘‘मुट्ठस्सच्‍चञ्‍च असम्पजञ्‍ञञ्‍च।

‘‘सति च सम्पजञ्‍ञञ्‍च।

‘‘इन्द्रियेसु अगुत्तद्वारता च भोजने अमत्तञ्‍ञुता च।

‘‘इन्द्रियेसु गुत्तद्वारता च भोजने मत्तञ्‍ञुता च।

‘‘पटिसङ्खानबलञ्‍च [पटिसन्धानबलञ्‍च (स्या॰)] भावनाबलञ्‍च।

‘‘सतिबलञ्‍च समाधिबलञ्‍च।

‘‘समथो च विपस्सना च।

‘‘समथनिमित्तञ्‍च पग्गहनिमित्तञ्‍च।

‘‘पग्गहो च अविक्खेपो च।

‘‘सीलविपत्ति च दिट्ठिविपत्ति च।

‘‘सीलसम्पदा च दिट्ठिसम्पदा च।

‘‘सीलविसुद्धि च दिट्ठिविसुद्धि च।

‘‘दिट्ठिविसुद्धि खो पन यथा दिट्ठिस्स च पधानं।

‘‘संवेगो च संवेजनीयेसु ठानेसु संविग्गस्स च योनिसो पधानं।

‘‘असन्तुट्ठिता च कुसलेसु धम्मेसु अप्पटिवानिता च पधानस्मिं।

‘‘विज्‍जा च विमुत्ति च।

‘‘खयेञाणं अनुप्पादेञाणं।

‘‘इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन द्वे धम्मा सम्मदक्खाता। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं, न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं।

तिकं

३०५. ‘‘अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन तयो धम्मा सम्मदक्खाता। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं…पे॰… अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। कतमे तयो?

‘‘तीणि अकुसलमूलानि – लोभो अकुसलमूलं, दोसो अकुसलमूलं, मोहो अकुसलमूलं।

‘‘तीणि कुसलमूलानि – अलोभो कुसलमूलं, अदोसो कुसलमूलं, अमोहो कुसलमूलं।

‘‘तीणि दुच्‍चरितानि – कायदुच्‍चरितं, वचीदुच्‍चरितं, मनोदुच्‍चरितं।

‘‘तीणि सुचरितानि – कायसुचरितं, वचीसुचरितं, मनोसुचरितं।

‘‘तयो अकुसलवितक्‍का – कामवितक्‍को, ब्यापादवितक्‍को, विहिंसावितक्‍को।

‘‘तयो कुसलवितक्‍का – नेक्खम्मवितक्‍को, अब्यापादवितक्‍को, अविहिंसावितक्‍को।

‘‘तयो अकुसलसङ्कप्पा – कामसङ्कप्पो, ब्यापादसङ्कप्पो, विहिंसासङ्कप्पो।

‘‘तयो कुसलसङ्कप्पा – नेक्खम्मसङ्कप्पो, अब्यापादसङ्कप्पो, अविहिंसासङ्कप्पो।

‘‘तिस्सो अकुसलसञ्‍ञा – कामसञ्‍ञा, ब्यापादसञ्‍ञा, विहिंसासञ्‍ञा।

‘‘तिस्सो कुसलसञ्‍ञा – नेक्खम्मसञ्‍ञा, अब्यापादसञ्‍ञा, अविहिंसासञ्‍ञा।

‘‘तिस्सो अकुसलधातुयो – कामधातु, ब्यापादधातु, विहिंसाधातु।

‘‘तिस्सो कुसलधातुयो – नेक्खम्मधातु, अब्यापादधातु, अविहिंसाधातु।

‘‘अपरापि तिस्सो धातुयो – कामधातु, रूपधातु, अरूपधातु।

‘‘अपरापि तिस्सो धातुयो – रूपधातु, अरूपधातु, निरोधधातु।

‘‘अपरापि तिस्सो धातुयो – हीनधातु, मज्झिमधातु, पणीतधातु।

‘‘तिस्सो तण्हा – कामतण्हा, भवतण्हा, विभवतण्हा।

‘‘अपरापि तिस्सो तण्हा – कामतण्हा, रूपतण्हा, अरूपतण्हा।

‘‘अपरापि तिस्सो तण्हा – रूपतण्हा, अरूपतण्हा, निरोधतण्हा।

‘‘तीणि संयोजनानि – सक्‍कायदिट्ठि, विचिकिच्छा, सीलब्बतपरामासो।

‘‘तयो आसवा – कामासवो, भवासवो, अविज्‍जासवो।

‘‘तयो भवा – कामभवो, रूपभवो, अरूपभवो।

‘‘तिस्सो एसना – कामेसना, भवेसना, ब्रह्मचरियेसना।

‘‘तिस्सो विधा – सेय्योहमस्मीति विधा, सदिसोहमस्मीति विधा, हीनोहमस्मीति विधा।

‘‘तयो अद्धा – अतीतो अद्धा, अनागतो अद्धा, पच्‍चुप्पन्‍नो अद्धा।

‘‘तयो अन्ता – सक्‍कायो अन्तो, सक्‍कायसमुदयो अन्तो, सक्‍कायनिरोधो अन्तो।

‘‘तिस्सो वेदना – सुखा वेदना, दुक्खा वेदना, अदुक्खमसुखा वेदना।

‘‘तिस्सो दुक्खता – दुक्खदुक्खता, सङ्खारदुक्खता, विपरिणामदुक्खता।

‘‘तयो रासी – मिच्छत्तनियतो रासि, सम्मत्तनियतो रासि, अनियतो रासि।

‘‘तयो तमा [तिस्सो कङ्खा (बहूसु) अट्ठकथा ओलोकेतब्बा] – अतीतं वा अद्धानं आरब्भ कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्‍चति न सम्पसीदति, अनागतं वा अद्धानं आरब्भ कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्‍चति न सम्पसीदति, एतरहि वा पच्‍चुप्पन्‍नं अद्धानं आरब्भ कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्‍चति न सम्पसीदति।

‘‘तीणि तथागतस्स अरक्खेय्यानि – परिसुद्धकायसमाचारो आवुसो तथागतो, नत्थि तथागतस्स कायदुच्‍चरितं, यं तथागतो रक्खेय्य – ‘मा मे इदं परो अञ्‍ञासी’ति। परिसुद्धवचीसमाचारो आवुसो, तथागतो, नत्थि तथागतस्स वचीदुच्‍चरितं, यं तथागतो रक्खेय्य – ‘मा मे इदं परो अञ्‍ञासी’ति। परिसुद्धमनोसमाचारो, आवुसो, तथागतो, नत्थि तथागतस्स मनोदुच्‍चरितं यं तथागतो रक्खेय्य – ‘मा मे इदं परो अञ्‍ञासी’ति।

‘‘तयो किञ्‍चना – रागो किञ्‍चनं, दोसो किञ्‍चनं, मोहो किञ्‍चनं।

‘‘तयो अग्गी – रागग्गि, दोसग्गि, मोहग्गि।

‘‘अपरेपि तयो अग्गी – आहुनेय्यग्गि, गहपतग्गि, दक्खिणेय्यग्गि।

‘‘तिविधेन रूपसङ्गहो – सनिदस्सनसप्पटिघं रूपं [सनिदस्सनसप्पटिघरूपं (स्या॰ कं॰) एवमितरद्वयेपि], अनिदस्सनसप्पटिघं रूपं, अनिदस्सनअप्पटिघं रूपं।

‘‘तयो सङ्खारा – पुञ्‍ञाभिसङ्खारो, अपुञ्‍ञाभिसङ्खारो, आनेञ्‍जाभिसङ्खारो।

‘‘तयो पुग्गला – सेक्खो पुग्गलो, असेक्खो पुग्गलो, नेवसेक्खोनासेक्खो पुग्गलो।

‘‘तयो थेरा – जातिथेरो, धम्मथेरो, सम्मुतिथेरो [सम्मतिथेरो (स्या॰ कं॰)]।

‘‘तीणि पुञ्‍ञकिरियवत्थूनि – दानमयं पुञ्‍ञकिरियवत्थु, सीलमयं पुञ्‍ञकिरियवत्थु, भावनामयं पुञ्‍ञकिरियवत्थु।

‘‘तीणि चोदनावत्थूनि – दिट्ठेन, सुतेन, परिसङ्काय।

‘‘तिस्सो कामूपपत्तियो [कामुप्पत्तियो (सी॰), कामुपपत्तियो (स्या॰ पी॰ क॰)] – सन्तावुसो सत्ता पच्‍चुपट्ठितकामा, ते पच्‍चुपट्ठितेसु कामेसु वसं वत्तेन्ति, सेय्यथापि मनुस्सा एकच्‍चे च देवा एकच्‍चे च विनिपातिका। अयं पठमा कामूपपत्ति। सन्तावुसो, सत्ता निम्मितकामा, ते निम्मिनित्वा निम्मिनित्वा कामेसु वसं वत्तेन्ति, सेय्यथापि देवा निम्मानरती। अयं दुतिया कामूपपत्ति। सन्तावुसो सत्ता परनिम्मितकामा, ते परनिम्मितेसु कामेसु वसं वत्तेन्ति, सेय्यथापि देवा परनिम्मितवसवत्ती। अयं ततिया कामूपपत्ति।

‘‘तिस्सो सुखूपपत्तियो [सुखुपपत्तियो (स्या॰ पी॰ क॰)] – सन्तावुसो सत्ता [सत्ता सुखं (स्या॰ कं॰)] उप्पादेत्वा उप्पादेत्वा सुखं विहरन्ति, सेय्यथापि देवा ब्रह्मकायिका। अयं पठमा सुखूपपत्ति। सन्तावुसो, सत्ता सुखेन अभिसन्‍ना परिसन्‍ना परिपूरा परिप्फुटा। ते कदाचि करहचि उदानं उदानेन्ति – ‘अहो सुखं, अहो सुख’न्ति, सेय्यथापि देवा आभस्सरा। अयं दुतिया सुखूपपत्ति। सन्तावुसो, सत्ता सुखेन अभिसन्‍ना परिसन्‍ना परिपूरा परिप्फुटा। ते सन्तंयेव तुसिता [सन्तुसिता (स्या॰ कं॰)] सुखं [चित्तसुखं (स्या॰ क॰)] पटिसंवेदेन्ति, सेय्यथापि देवा सुभकिण्हा। अयं ततिया सुखूपपत्ति।

‘‘तिस्सो पञ्‍ञा – सेक्खा पञ्‍ञा, असेक्खा पञ्‍ञा, नेवसेक्खानासेक्खा पञ्‍ञा।

‘‘अपरापि तिस्सो पञ्‍ञा – चिन्तामया पञ्‍ञा, सुतमया पञ्‍ञा, भावनामया पञ्‍ञा।

‘‘तीणावुधानि – सुतावुधं, पविवेकावुधं, पञ्‍ञावुधं।

‘‘तीणिन्द्रियानि – अनञ्‍ञातञ्‍ञस्सामीतिन्द्रियं, अञ्‍ञिन्द्रियं, अञ्‍ञाताविन्द्रियं।

‘‘तीणि चक्खूनि – मंसचक्खु, दिब्बचक्खु, पञ्‍ञाचक्खु।

‘‘तिस्सो सिक्खा – अधिसीलसिक्खा, अधिचित्तसिक्खा, अधिपञ्‍ञासिक्खा।

‘‘तिस्सो भावना – कायभावना, चित्तभावना, पञ्‍ञाभावना।

‘‘तीणि अनुत्तरियानि – दस्सनानुत्तरियं, पटिपदानुत्तरियं, विमुत्तानुत्तरियं।

‘‘तयो समाधी – सवितक्‍कसविचारो समाधि, अवितक्‍कविचारमत्तो समाधि, अवितक्‍कअविचारो समाधि।

‘‘अपरेपि तयो समाधी – सुञ्‍ञतो समाधि, अनिमित्तो समाधि, अप्पणिहितो समाधि।

‘‘तीणि सोचेय्यानि – कायसोचेय्यं, वचीसोचेय्यं, मनोसोचेय्यं।

‘‘तीणि मोनेय्यानि – कायमोनेय्यं, वचीमोनेय्यं, मनोमोनेय्यं।

‘‘तीणि कोसल्‍लानि – आयकोसल्‍लं, अपायकोसल्‍लं, उपायकोसल्‍लं।

‘‘तयो मदा – आरोग्यमदो, योब्बनमदो, जीवितमदो।

‘‘तीणि आधिपतेय्यानि – अत्ताधिपतेय्यं, लोकाधिपतेय्यं, धम्माधिपतेय्यं।

‘‘तीणि कथावत्थूनि – अतीतं वा अद्धानं आरब्भ कथं कथेय्य – ‘एवं अहोसि अतीतमद्धान’न्ति; अनागतं वा अद्धानं आरब्भ कथं कथेय्य – ‘एवं भविस्सति अनागतमद्धान’न्ति; एतरहि वा पच्‍चुप्पन्‍नं अद्धानं आरब्भ कथं कथेय्य – ‘एवं होति एतरहि पच्‍चुप्पन्‍नं अद्धान’न्ति।

‘‘तिस्सो विज्‍जा – पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणं विज्‍जा, सत्तानं चुतूपपातेञाणं विज्‍जा, आसवानं खयेञाणं विज्‍जा।

‘‘तयो विहारा – दिब्बो विहारो, ब्रह्मा विहारो, अरियो विहारो।

‘‘तीणि पाटिहारियानि – इद्धिपाटिहारियं, आदेसनापाटिहारियं, अनुसासनीपाटिहारियं।

‘‘इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन तयो धम्मा सम्मदक्खाता। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं…पे॰… अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं।

चतुक्‍कं

३०६. ‘‘अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो धम्मा सम्मदक्खाता। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं, न विवदितब्बं…पे॰… अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। कतमे चत्तारो?

‘‘चत्तारो सतिपट्ठाना। इधावुसो, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। वेदनासु वेदनानुपस्सी…पे॰… चित्ते चित्तानुपस्सी…पे॰… धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं।

‘‘चत्तारो सम्मप्पधाना। इधावुसो, भिक्खु अनुप्पन्‍नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं अनुप्पादाय छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति। उप्पन्‍नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं पहानाय छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति। अनुप्पन्‍नानं कुसलानं धम्मानं उप्पादाय छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति। उप्पन्‍नानं कुसलानं धम्मानं ठितिया असम्मोसाय भिय्योभावाय वेपुल्‍लाय भावनाय पारिपूरिया छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति।

‘‘चत्तारो इद्धिपादा। इधावुसो, भिक्खु छन्दसमाधिपधानसङ्खारसमन्‍नागतं इद्धिपादं भावेति। चित्तसमाधिपधानसङ्खारसमन्‍नागतं इद्धिपादं भावेति। वीरियसमाधिपधानसङ्खारसमन्‍नागतं इद्धिपादं भावेति। वीमंसासमाधिपधानसङ्खारसमन्‍नागतं इद्धिपादं भावेति।

‘‘चत्तारि झानानि। इधावुसो, भिक्खु विविच्‍चेव कामेहि विविच्‍च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्‍कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं [पठमज्झानं (स्या॰ कं॰)] उपसम्पज्‍ज विहरति। वितक्‍कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्‍कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं [दुतियज्झानं (स्या॰ कं॰)] उपसम्पज्‍ज विहरति। पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो च सम्पजानो, सुखञ्‍च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति – ‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति ततियं झानं [ततियज्झानं (स्या॰ कं॰)] उपसम्पज्‍ज विहरति। सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं [चतुत्थज्झानं (स्या॰ कं॰)] उपसम्पज्‍ज विहरति।

३०७. ‘‘चतस्सो समाधिभावना। अत्थावुसो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता दिट्ठधम्मसुखविहाराय संवत्तति। अत्थावुसो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता ञाणदस्सनपटिलाभाय संवत्तति। अत्थावुसो समाधिभावना भाविता बहुलीकता सतिसम्पजञ्‍ञाय संवत्तति। अत्थावुसो समाधिभावना भाविता बहुलीकता आसवानं खयाय संवत्तति।

‘‘कतमा चावुसो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता दिट्ठधम्मसुखविहाराय संवत्तति? इधावुसो, भिक्खु विविच्‍चेव कामेहि विविच्‍च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्‍कं…पे॰… चतुत्थं झानं उपसम्पज्‍ज विहरति। अयं, आवुसो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता दिट्ठधम्मसुखविहाराय संवत्तति।

‘‘कतमा चावुसो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता ञाणदस्सनपटिलाभाय संवत्तति? इधावुसो, भिक्खु आलोकसञ्‍ञं मनसि करोति, दिवासञ्‍ञं अधिट्ठाति यथा दिवा तथा रत्तिं, यथा रत्तिं तथा दिवा। इति विवटेन चेतसा अपरियोनद्धेन सप्पभासं चित्तं भावेति। अयं, आवुसो समाधिभावना भाविता बहुलीकता ञाणदस्सनपटिलाभाय संवत्तति।

‘‘कतमा चावुसो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता सतिसम्पजञ्‍ञाय संवत्तति? इधावुसो, भिक्खुनो विदिता वेदना उप्पज्‍जन्ति, विदिता उपट्ठहन्ति, विदिता अब्भत्थं गच्छन्ति। विदिता सञ्‍ञा उप्पज्‍जन्ति, विदिता उपट्ठहन्ति, विदिता अब्भत्थं गच्छन्ति। विदिता वितक्‍का उप्पज्‍जन्ति, विदिता उपट्ठहन्ति, विदिता अब्भत्थं गच्छन्ति। अयं, आवुसो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता सतिसम्पजञ्‍ञाय संवत्तति।

‘‘कतमा चावुसो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता आसवानं खयाय संवत्तति? इधावुसो, भिक्खु पञ्‍चसु उपादानक्खन्धेसु उदयब्बयानुपस्सी विहरति। इति रूपं, इति रूपस्स समुदयो, इति रूपस्स अत्थङ्गमो। इति वेदना…पे॰… इति सञ्‍ञा… इति सङ्खारा… इति विञ्‍ञाणं, इति विञ्‍ञाणस्स समुदयो, इति विञ्‍ञाणस्स अत्थङ्गमो। अयं, आवुसो, समाधिभावना भाविता बहुलीकता आसवानं खयाय संवत्तति।

३०८. ‘‘चतस्सो अप्पमञ्‍ञा। इधावुसो, भिक्खु मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति। तथा दुतियं। तथा ततियं। तथा चतुत्थं। इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्‍जेन [अब्यापज्झेन (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] फरित्वा विहरति। करुणासहगतेन चेतसा…पे॰… मुदितासहगतेन चेतसा…पे॰… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति। तथा दुतियं। तथा ततियं। तथा चतुत्थं। इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्‍जेन फरित्वा विहरति।

‘‘चत्तारो आरुप्पा। [अरूपा (स्या॰ कं॰ पी॰)] इधावुसो, भिक्खु सब्बसो रूपसञ्‍ञानं समतिक्‍कमा पटिघसञ्‍ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्‍ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्‍चायतनं उपसम्पज्‍ज विहरति। सब्बसो आकासानञ्‍चायतनं समतिक्‍कम्म ‘अनन्तं विञ्‍ञाण’न्ति विञ्‍ञाणञ्‍चायतनं उपसम्पज्‍ज विहरति। सब्बसो विञ्‍ञाणञ्‍चायतनं समतिक्‍कम्म ‘नत्थि किञ्‍ची’ति आकिञ्‍चञ्‍ञायतनं उपसम्पज्‍ज विहरति। सब्बसो आकिञ्‍चञ्‍ञायतनं समतिक्‍कम्म नेवसञ्‍ञानासञ्‍ञायतनं उपसम्पज्‍ज विहरति।

‘‘चत्तारि अपस्सेनानि। इधावुसो, भिक्खु सङ्खायेकं पटिसेवति, सङ्खायेकं अधिवासेति, सङ्खायेकं परिवज्‍जेति, सङ्खायेकं विनोदेति।

३०९. ‘‘चत्तारो अरियवंसा। इधावुसो, भिक्खु सन्तुट्ठो होति इतरीतरेन चीवरेन, इतरीतरचीवरसन्तुट्ठिया च वण्णवादी, न च चीवरहेतु अनेसनं अप्पतिरूपं आपज्‍जति; अलद्धा च चीवरं न परितस्सति, लद्धा च चीवरं अगधितो [अगथितो (सी॰ पी॰)] अमुच्छितो अनज्झापन्‍नो आदीनवदस्सावी निस्सरणपञ्‍ञो परिभुञ्‍जति; ताय च पन इतरीतरचीवरसन्तुट्ठिया नेवत्तानुक्‍कंसेति न परं वम्भेति। यो हि तत्थ दक्खो अनलसो सम्पजानो पटिस्सतो, अयं वुच्‍चतावुसो – ‘भिक्खु पोराणे अग्गञ्‍ञे अरियवंसे ठितो’।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सन्तुट्ठो होति इतरीतरेन पिण्डपातेन, इतरीतरपिण्डपातसन्तुट्ठिया च वण्णवादी, न च पिण्डपातहेतु अनेसनं अप्पतिरूपं आपज्‍जति; अलद्धा च पिण्डपातं न परितस्सति, लद्धा च पिण्डपातं अगधितो अमुच्छितो अनज्झापन्‍नो आदीनवदस्सावी निस्सरणपञ्‍ञो परिभुञ्‍जति; ताय च पन इतरीतरपिण्डपातसन्तुट्ठिया नेवत्तानुक्‍कंसेति न परं वम्भेति। यो हि तत्थ दक्खो अनलसो सम्पजानो पटिस्सतो, अयं वुच्‍चतावुसो – ‘भिक्खु पोराणे अग्गञ्‍ञे अरियवंसे ठितो’।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सन्तुट्ठो होति इतरीतरेन सेनासनेन, इतरीतरसेनासनसन्तुट्ठिया च वण्णवादी, न च सेनासनहेतु अनेसनं अप्पतिरूपं आपज्‍जति; अलद्धा च सेनासनं न परितस्सति, लद्धा च सेनासनं अगधितो अमुच्छितो अनज्झापन्‍नो आदीनवदस्सावी निस्सरणपञ्‍ञो परिभुञ्‍जति; ताय च पन इतरीतरसेनासनसन्तुट्ठिया नेवत्तानुक्‍कंसेति न परं वम्भेति। यो हि तत्थ दक्खो अनलसो सम्पजानो पटिस्सतो, अयं वुच्‍चतावुसो – ‘भिक्खु पोराणे अग्गञ्‍ञे अरियवंसे ठितो’।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु पहानारामो होति पहानरतो, भावनारामो होति भावनारतो; ताय च पन पहानारामताय पहानरतिया भावनारामताय भावनारतिया नेवत्तानुक्‍कंसेति न परं वम्भेति। यो हि तत्थ दक्खो अनलसो सम्पजानो पटिस्सतो अयं वुच्‍चतावुसो – ‘भिक्खु पोराणे अग्गञ्‍ञे अरियवंसे ठितो’।

३१०. ‘‘चत्तारि पधानानि। संवरपधानं पहानपधानं भावनापधानं [भावनाप्पधानं (स्या॰)] अनुरक्खणापधानं [अनुरक्खनाप्पधानं (स्या॰)]। कतमञ्‍चावुसो, संवरपधानं? इधावुसो, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्‍जनग्गाही। यत्वाधिकरणमेनं चक्खुन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं, तस्स संवराय पटिपज्‍जति, रक्खति चक्खुन्द्रियं, चक्खुन्द्रिये संवरं आपज्‍जति। सोतेन सद्दं सुत्वा… घानेन गन्धं घायित्वा… जिव्हाय रसं सायित्वा… कायेन फोट्ठब्बं फुसित्वा… मनसा धम्मं विञ्‍ञाय न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्‍जनग्गाही। यत्वाधिकरणमेनं मनिन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं, तस्स संवराय पटिपज्‍जति, रक्खति मनिन्द्रियं, मनिन्द्रिये संवरं आपज्‍जति। इदं वुच्‍चतावुसो, संवरपधानं।

‘‘कतमञ्‍चावुसो, पहानपधानं? इधावुसो, भिक्खु उप्पन्‍नं कामवितक्‍कं नाधिवासेति पजहति विनोदेति ब्यन्तिं करोति [ब्यन्ती करोति (स्या॰ कं॰)] अनभावं गमेति। उप्पन्‍नं ब्यापादवितक्‍कं…पे॰… उप्पन्‍नं विहिंसावितक्‍कं… उप्पन्‍नुप्पन्‍ने पापके अकुसले धम्मे नाधिवासेति पजहति विनोदेति ब्यन्तिं करोति अनभावं गमेति। इदं वुच्‍चतावुसो, पहानपधानं।

‘‘कतमञ्‍चावुसो, भावनापधानं? इधावुसो, भिक्खु सतिसम्बोज्झङ्गं भावेति विवेकनिस्सितं विरागनिस्सितं निरोधनिस्सितं वोस्सग्गपरिणामिं। धम्मविचयसम्बोज्झङ्गं भावेति… वीरियसम्बोज्झङ्गं भावेति… पीतिसम्बोज्झङ्गं भावेति… पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गं भावेति… समाधिसम्बोज्झङ्गं भावेति… उपेक्खासम्बोज्झङ्गं भावेति विवेकनिस्सितं विरागनिस्सितं निरोधनिस्सितं वोस्सग्गपरिणामिं। इदं वुच्‍चतावुसो, भावनापधानं।

‘‘कतमञ्‍चावुसो, अनुरक्खणापधानं? इधावुसो, भिक्खु उप्पन्‍नं भद्रकं [भद्दकं (स्या॰ कं॰ पी॰)] समाधिनिमित्तं अनुरक्खति – अट्ठिकसञ्‍ञं, पुळुवकसञ्‍ञं [पुळवकसञ्‍ञं (सी॰ पी॰)], विनीलकसञ्‍ञं, विच्छिद्दकसञ्‍ञं, उद्धुमातकसञ्‍ञं। इदं वुच्‍चतावुसो, अनुरक्खणापधानं।

‘‘चत्तारि ञाणानि – धम्मे ञाणं, अन्वये ञाणं, परिये [परिच्‍चे (सी॰ क॰), परिच्छेदे (स्या॰ पी॰ क॰) टीका ओलोकेतब्बा] ञाणं, सम्मुतिया ञाणं [सम्मतिञाणं (स्या॰ कं॰)]।

‘‘अपरानिपि चत्तारि ञाणानि – दुक्खे ञाणं, दुक्खसमुदये ञाणं, दुक्खनिरोधे ञाणं, दुक्खनिरोधगामिनिया पटिपदाय ञाणं।

३११. ‘‘चत्तारि सोतापत्तियङ्गानि – सप्पुरिससंसेवो, सद्धम्मस्सवनं, योनिसोमनसिकारो, धम्मानुधम्मप्पटिपत्ति।

‘‘चत्तारि सोतापन्‍नस्स अङ्गानि। इधावुसो, अरियसावको बुद्धे अवेच्‍चप्पसादेन समन्‍नागतो होति – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्‍जाचरणसम्पन्‍नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो, भगवा’ति। धम्मे अवेच्‍चप्पसादेन समन्‍नागतो होति – ‘स्वाक्खातो भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको [ओपनयिको (स्या॰ कं॰)] पच्‍चत्तं वेदितब्बो विञ्‍ञूही’ति। सङ्घे अवेच्‍चप्पसादेन समन्‍नागतो होति – ‘सुप्पटिपन्‍नो भगवतो सावकसङ्घो उजुप्पटिपन्‍नो भगवतो सावकसङ्घो ञायप्पटिपन्‍नो भगवतो सावकसङ्घो सामीचिप्पटिपन्‍नो भगवतो सावकसङ्घो यदिदं चत्तारि पुरिसयुगानि अट्ठ पुरिसपुग्गला, एस भगवतो सावकसङ्घो आहुनेय्यो पाहुनेय्यो दक्खिणेय्यो अञ्‍जलिकरणीयो अनुत्तरं पुञ्‍ञक्खेत्तं लोकस्सा’ति। अरियकन्तेहि सीलेहि समन्‍नागतो होति अखण्डेहि अच्छिद्देहि असबलेहि अकम्मासेहि भुजिस्सेहि विञ्‍ञुप्पसत्थेहि अपरामट्ठेहि समाधिसंवत्तनिकेहि।

‘‘चत्तारि सामञ्‍ञफलानि – सोतापत्तिफलं, सकदागामिफलं, अनागामिफलं, अरहत्तफलं।

‘‘चतस्सो धातुयो – पथवीधातु, आपोधातु, तेजोधातु, वायोधातु।

‘‘चत्तारो आहारा – कबळीकारो आहारो ओळारिको वा सुखुमो वा, फस्सो दुतियो, मनोसञ्‍चेतना ततिया, विञ्‍ञाणं चतुत्थं।

‘‘चतस्सो विञ्‍ञाणट्ठितियो। रूपूपायं वा, आवुसो, विञ्‍ञाणं तिट्ठमानं तिट्ठति रूपारम्मणं [रूपारमणं (?)] रूपप्पतिट्ठं नन्दूपसेचनं वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्‍लं आपज्‍जति; वेदनूपायं वा आवुसो…पे॰… सञ्‍ञूपायं वा, आवुसो…पे॰… सङ्खारूपायं वा, आवुसो, विञ्‍ञाणं तिट्ठमानं तिट्ठति सङ्खारारम्मणं सङ्खारप्पतिट्ठं नन्दूपसेचनं वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्‍लं आपज्‍जति।

‘‘चत्तारि अगतिगमनानि – छन्दागतिं गच्छति, दोसागति गच्छति, मोहागतिं गच्छति, भयागतिं गच्छति।

‘‘चत्तारो तण्हुप्पादा – चीवरहेतु वा, आवुसो, भिक्खुनो तण्हा उप्पज्‍जमाना उप्पज्‍जति; पिण्डपातहेतु वा, आवुसो, भिक्खुनो तण्हा उप्पज्‍जमाना उप्पज्‍जति; सेनासनहेतु वा, आवुसो, भिक्खुनो तण्हा उप्पज्‍जमाना उप्पज्‍जति; इतिभवाभवहेतु वा, आवुसो, भिक्खुनो तण्हा उप्पज्‍जमाना उप्पज्‍जति।

‘‘चतस्सो पटिपदा – दुक्खा पटिपदा दन्धाभिञ्‍ञा, दुक्खा पटिपदा खिप्पाभिञ्‍ञा, सुखा पटिपदा दन्धाभिञ्‍ञा, सुखा पटिपदा खिप्पाभिञ्‍ञा।

‘‘अपरापि चतस्सो पटिपदा – अक्खमा पटिपदा, खमा पटिपदा, दमा पटिपदा, समा पटिपदा।

‘‘चत्तारि धम्मपदानि – अनभिज्झा धम्मपदं, अब्यापादो धम्मपदं, सम्मासति धम्मपदं, सम्मासमाधि धम्मपदं।

‘‘चत्तारि धम्मसमादानानि – अत्थावुसो, धम्मसमादानं पच्‍चुप्पन्‍नदुक्खञ्‍चेव आयतिञ्‍च दुक्खविपाकं। अत्थावुसो, धम्मसमादानं पच्‍चुप्पन्‍नदुक्खं आयतिं सुखविपाकं। अत्थावुसो, धम्मसमादानं पच्‍चुप्पन्‍नसुखं आयतिं दुक्खविपाकं। अत्थावुसो, धम्मसमादानं पच्‍चुप्पन्‍नसुखञ्‍चेव आयतिञ्‍च सुखविपाकं।

‘‘चत्तारो धम्मक्खन्धा – सीलक्खन्धो, समाधिक्खन्धो, पञ्‍ञाक्खन्धो, विमुत्तिक्खन्धो।

‘‘चत्तारि बलानि – वीरियबलं, सतिबलं, समाधिबलं, पञ्‍ञाबलं।

‘‘चत्तारि अधिट्ठानानि – पञ्‍ञाधिट्ठानं, सच्‍चाधिट्ठानं, चागाधिट्ठानं, उपसमाधिट्ठानं।

३१२. ‘‘चत्तारि पञ्हब्याकरणानि – [चत्तारो पञ्हाब्याकरणा (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] एकंसब्याकरणीयो पञ्हो, पटिपुच्छाब्याकरणीयो पञ्हो, विभज्‍जब्याकरणीयो पञ्हो, ठपनीयो पञ्हो।

‘‘चत्तारि कम्मानि – अत्थावुसो, कम्मं कण्हं कण्हविपाकं; अत्थावुसो, कम्मं सुक्‍कं सुक्‍कविपाकं; अत्थावुसो, कम्मं कण्हसुक्‍कं कण्हसुक्‍कविपाकं; अत्थावुसो, कम्मं अकण्हअसुक्‍कं अकण्हअसुक्‍कविपाकं कम्मक्खयाय संवत्तति।

‘‘चत्तारो सच्छिकरणीया धम्मा – पुब्बेनिवासो सतिया सच्छिकरणीयो; सत्तानं चुतूपपातो चक्खुना सच्छिकरणीयो; अट्ठ विमोक्खा कायेन सच्छिकरणीया; आसवानं खयो पञ्‍ञाय सच्छिकरणीयो।

‘‘चत्तारो ओघा – कामोघो, भवोघो, दिट्ठोघो, अविज्‍जोघो।

‘‘चत्तारो योगा – कामयोगो, भवयोगो, दिट्ठियोगो, अविज्‍जायोगो।

‘‘चत्तारो विसञ्‍ञोगा – कामयोगविसञ्‍ञोगो, भवयोगविसञ्‍ञोगो, दिट्ठियोगविसञ्‍ञोगो, अविज्‍जायोगविसञ्‍ञोगो।

‘‘चत्तारो गन्था – अभिज्झा कायगन्थो, ब्यापादो कायगन्थो, सीलब्बतपरामासो कायगन्थो, इदंसच्‍चाभिनिवेसो कायगन्थो।

‘‘चत्तारि उपादानानि – कामुपादानं [कामूपादानं (सी॰ पी॰) एवमितरेसुपि], दिट्ठुपादानं, सीलब्बतुपादानं, अत्तवादुपादानं।

‘‘चतस्सो योनियो – अण्डजयोनि, जलाबुजयोनि, संसेदजयोनि, ओपपातिकयोनि।

‘‘चतस्सो गब्भावक्‍कन्तियो। इधावुसो, एकच्‍चो असम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्‍कमति, असम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति, असम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, अयं पठमा गब्भावक्‍कन्ति। पुन चपरं, आवुसो, इधेकच्‍चो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्‍कमति, असम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति, असम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, अयं दुतिया गब्भावक्‍कन्ति। पुन चपरं, आवुसो, इधेकच्‍चो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्‍कमति, सम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति, असम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, अयं ततिया गब्भावक्‍कन्ति। पुन चपरं, आवुसो, इधेकच्‍चो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्‍कमति, सम्पजानो मातुकुच्छिस्मिं ठाति, सम्पजानो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, अयं चतुत्था गब्भावक्‍कन्ति।

‘‘चत्तारो अत्तभावपटिलाभा। अत्थावुसो, अत्तभावपटिलाभो, यस्मिं अत्तभावपटिलाभे अत्तसञ्‍चेतनायेव कमति, नो परसञ्‍चेतना। अत्थावुसो, अत्तभावपटिलाभो, यस्मिं अत्तभावपटिलाभे परसञ्‍चेतनायेव कमति, नो अत्तसञ्‍चेतना। अत्थावुसो, अत्तभावपटिलाभो, यस्मिं अत्तभावपटिलाभे अत्तसञ्‍चेतना चेव कमति परसञ्‍चेतना च। अत्थावुसो, अत्तभावपटिलाभो, यस्मिं अत्तभावपटिलाभे नेव अत्तसञ्‍चेतना कमति, नो परसञ्‍चेतना।

३१३. ‘‘चतस्सो दक्खिणाविसुद्धियो। अत्थावुसो, दक्खिणा दायकतो विसुज्झति नो पटिग्गाहकतो। अत्थावुसो, दक्खिणा पटिग्गाहकतो विसुज्झति नो दायकतो। अत्थावुसो, दक्खिणा नेव दायकतो विसुज्झति नो पटिग्गाहकतो। अत्थावुसो, दक्खिणा दायकतो चेव विसुज्झति पटिग्गाहकतो च।

‘‘चत्तारि सङ्गहवत्थूनि – दानं, पेय्यवज्‍जं [पियवज्‍जं (स्या॰ कं॰ क॰)], अत्थचरिया, समानत्तता।

‘‘चत्तारो अनरियवोहारा – मुसावादो, पिसुणावाचा, फरुसावाचा, सम्फप्पलापो।

‘‘चत्तारो अरियवोहारा – मुसावादा वेरमणी [वेरमणि (क॰)], पिसुणाय वाचाय वेरमणी, फरुसाय वाचाय वेरमणी, सम्फप्पलापा वेरमणी।

‘‘अपरेपि चत्तारो अनरियवोहारा – अदिट्ठे दिट्ठवादिता, अस्सुते सुतवादिता, अमुते मुतवादिता, अविञ्‍ञाते विञ्‍ञातवादिता।

‘‘अपरेपि चत्तारो अरियवोहारा – अदिट्ठे अदिट्ठवादिता, अस्सुते अस्सुतवादिता, अमुते अमुतवादिता, अविञ्‍ञाते अविञ्‍ञातवादिता।

‘‘अपरेपि चत्तारो अनरियवोहारा – दिट्ठे अदिट्ठवादिता, सुते अस्सुतवादिता, मुते अमुतवादिता, विञ्‍ञाते अविञ्‍ञातवादिता।

‘‘अपरेपि चत्तारो अरियवोहारा – दिट्ठे दिट्ठवादिता, सुते सुतवादिता, मुते मुतवादिता, विञ्‍ञाते विञ्‍ञातवादिता।

३१४. ‘‘चत्तारो पुग्गला। इधावुसो, एकच्‍चो पुग्गलो अत्तन्तपो होति अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो। इधावुसो, एकच्‍चो पुग्गलो परन्तपो होति परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो। इधावुसो, एकच्‍चो पुग्गलो अत्तन्तपो च होति अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो, परन्तपो च परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो। इधावुसो, एकच्‍चो पुग्गलो नेव अत्तन्तपो होति न अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो न परन्तपो न परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो। सो अनत्तन्तपो अपरन्तपो दिट्ठेव धम्मे निच्छातो निब्बुतो सीतीभूतो [सीतिभूतो (क॰)] सुखप्पटिसंवेदी ब्रह्मभूतेन अत्तना विहरति।

‘‘अपरेपि चत्तारो पुग्गला। इधावुसो, एकच्‍चो पुग्गलो अत्तहिताय पटिपन्‍नो होति नो परहिताय। इधावुसो, एकच्‍चो पुग्गलो परहिताय पटिपन्‍नो होति नो अत्तहिताय। इधावुसो, एकच्‍चो पुग्गलो नेव अत्तहिताय पटिपन्‍नो होति नो परहिताय। इधावुसो, एकच्‍चो पुग्गलो अत्तहिताय चेव पटिपन्‍नो होति परहिताय च।

‘‘अपरेपि चत्तारो पुग्गला – तमो तमपरायनो, तमो जोतिपरायनो, जोति तमपरायनो, जोति जोतिपरायनो।

‘‘अपरेपि चत्तारो पुग्गला – समणमचलो, समणपदुमो, समणपुण्डरीको, समणेसु समणसुखुमालो।

‘‘इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं…पे॰… अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं।

पठमभाणवारो निट्ठितो।

पञ्‍चकं

३१५. ‘‘अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन पञ्‍च धम्मा सम्मदक्खाता। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं…पे॰… अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। कतमे पञ्‍च?

‘‘पञ्‍चक्खन्धा। रूपक्खन्धो वेदनाक्खन्धो सञ्‍ञाक्खन्धो सङ्खारक्खन्धो विञ्‍ञाणक्खन्धो।

‘‘पञ्‍चुपादानक्खन्धा। रूपुपादानक्खन्धो [रूपूपादानक्खन्धो (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰) एवमितरेसुपि] वेदनुपादानक्खन्धो सञ्‍ञुपादानक्खन्धो सङ्खारुपादानक्खन्धो विञ्‍ञाणुपादानक्खन्धो।

‘‘पञ्‍च कामगुणा। चक्खुविञ्‍ञेय्या रूपा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसञ्हिता रजनीया, सोतविञ्‍ञेय्या सद्दा… घानविञ्‍ञेय्या गन्धा… जिव्हाविञ्‍ञेय्या रसा… कायविञ्‍ञेय्या फोट्ठब्बा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसञ्हिता रजनीया।

‘‘पञ्‍च गतियो – निरयो, तिरच्छानयोनि, पेत्तिविसयो, मनुस्सा, देवा।

‘‘पञ्‍च मच्छरियानि – आवासमच्छरियं, कुलमच्छरियं, लाभमच्छरियं, वण्णमच्छरियं, धम्ममच्छरियं।

‘‘पञ्‍च नीवरणानि – कामच्छन्दनीवरणं, ब्यापादनीवरणं, थिनमिद्धनीवरणं, उद्धच्‍चकुक्‍कुच्‍चनीवरणं, विचिकिच्छानीवरणं।

‘‘पञ्‍च ओरम्भागियानि सञ्‍ञोजनानि – सक्‍कायदिट्ठि, विचिकिच्छा, सीलब्बतपरामासो, कामच्छन्दो, ब्यापादो।

‘‘पञ्‍च उद्धम्भागियानि सञ्‍ञोजनानि – रूपरागो, अरूपरागो, मानो, उद्धच्‍चं, अविज्‍जा।

‘‘पञ्‍च सिक्खापदानि – पाणातिपाता वेरमणी, अदिन्‍नादाना वेरमणी, कामेसुमिच्छाचारा वेरमणी, मुसावादा वेरमणी, सुरामेरयमज्‍जप्पमादट्ठाना वेरमणी।

३१६. ‘‘पञ्‍च अभब्बट्ठानानि। अभब्बो, आवुसो, खीणासवो भिक्खु सञ्‍चिच्‍च पाणं जीविता वोरोपेतुं। अभब्बो खीणासवो भिक्खु अदिन्‍नं थेय्यसङ्खातं आदियितुं [आदातुं (स्या॰ कं॰ पी॰)]। अभब्बो खीणासवो भिक्खु मेथुनं धम्मं पटिसेवितुं। अभब्बो खीणासवो भिक्खु सम्पजानमुसा भासितुं। अभब्बो खीणासवो भिक्खु सन्‍निधिकारकं कामे परिभुञ्‍जितुं, सेय्यथापि पुब्बे आगारिकभूतो।

‘‘पञ्‍च ब्यसनानि – ञातिब्यसनं, भोगब्यसनं, रोगब्यसनं, सीलब्यसनं, दिट्ठिब्यसनं। नावुसो, सत्ता ञातिब्यसनहेतु वा भोगब्यसनहेतु वा रोगब्यसनहेतु वा कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्‍जन्ति। सीलब्यसनहेतु वा, आवुसो, सत्ता दिट्ठिब्यसनहेतु वा कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्‍जन्ति।

‘‘पञ्‍च सम्पदा – ञातिसम्पदा, भोगसम्पदा, आरोग्यसम्पदा, सीलसम्पदा, दिट्ठिसम्पदा। नावुसो, सत्ता ञातिसम्पदाहेतु वा भोगसम्पदाहेतु वा आरोग्यसम्पदाहेतु वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्‍जन्ति। सीलसम्पदाहेतु वा, आवुसो, सत्ता दिट्ठिसम्पदाहेतु वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्‍जन्ति।

‘‘पञ्‍च आदीनवा दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया। इधावुसो, दुस्सीलो सीलविपन्‍नो पमादाधिकरणं महतिं भोगजानिं निगच्छति, अयं पठमो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया। पुन चपरं, आवुसो, दुस्सीलस्स सीलविपन्‍नस्स पापको कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छति, अयं दुतियो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया। पुन चपरं, आवुसो, दुस्सीलो सीलविपन्‍नो यञ्‍ञदेव परिसं उपसङ्कमति यदि खत्तियपरिसं यदि ब्राह्मणपरिसं यदि गहपतिपरिसं यदि समणपरिसं, अविसारदो उपसङ्कमति मङ्कुभूतो, अयं ततियो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया। पुन चपरं, आवुसो, दुस्सीलो सीलविपन्‍नो सम्मूळ्हो कालं करोति, अयं चतुत्थो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया। पुन चपरं, आवुसो, दुस्सीलो सीलविपन्‍नो कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्‍जति, अयं पञ्‍चमो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया।

‘‘पञ्‍च आनिसंसा सीलवतो सीलसम्पदाय। इधावुसो, सीलवा सीलसम्पन्‍नो अप्पमादाधिकरणं महन्तं भोगक्खन्धं अधिगच्छति, अयं पठमो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय। पुन चपरं, आवुसो, सीलवतो सीलसम्पन्‍नस्स कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छति, अयं दुतियो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय। पुन चपरं, आवुसो, सीलवा सीलसम्पन्‍नो यञ्‍ञदेव परिसं उपसङ्कमति यदि खत्तियपरिसं यदि ब्राह्मणपरिसं यदि गहपतिपरिसं यदि समणपरिसं, विसारदो उपसङ्कमति अमङ्कुभूतो, अयं ततियो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय। पुन चपरं, आवुसो, सीलवा सीलसम्पन्‍नो असम्मूळ्हो कालं करोति, अयं चतुत्थो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय। पुन चपरं, आवुसो, सीलवा सीलसम्पन्‍नो कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्‍जति, अयं पञ्‍चमो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय।

‘‘चोदकेन, आवुसो, भिक्खुना परं चोदेतुकामेन पञ्‍च धम्मे अज्झत्तं उपट्ठपेत्वा परो चोदेतब्बो। कालेन वक्खामि नो अकालेन, भूतेन वक्खामि नो अभूतेन, सण्हेन वक्खामि नो फरुसेन, अत्थसंहितेन वक्खामि नो अनत्थसंहितेन, मेत्तचित्तेन [मेत्ताचित्तेन (कत्थचि)] वक्खामि नो दोसन्तरेनाति। चोदकेन, आवुसो, भिक्खुना परं चोदेतुकामेन इमे पञ्‍च धम्मे अज्झत्तं उपट्ठपेत्वा परो चोदेतब्बो।

३१७. ‘‘पञ्‍च पधानियङ्गानि। इधावुसो, भिक्खु सद्धो होति, सद्दहति तथागतस्स बोधिं – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्‍जाचरणसम्पन्‍नो सुगतो, लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ति। अप्पाबाधो होति अप्पातङ्को, समवेपाकिनिया गहणिया समन्‍नागतो नातिसीताय नाच्‍चुण्हाय मज्झिमाय पधानक्खमाय। असठो होति अमायावी, यथाभूतं अत्तानं आविकत्ता सत्थरि वा विञ्‍ञूसु वा सब्रह्मचारीसु। आरद्धवीरियो विहरति अकुसलानं धम्मानं पहानाय कुसलानं धम्मानं उपसम्पदाय थामवा दळ्हपरक्‍कमो अनिक्खित्तधुरो कुसलेसु धम्मेसु। पञ्‍ञवा होति उदयत्थगामिनिया पञ्‍ञाय समन्‍नागतो अरियाय निब्बेधिकाय सम्मादुक्खक्खयगामिनिया।

३१८. ‘‘पञ्‍च सुद्धावासा – अविहा, अतप्पा, सुदस्सा, सुदस्सी, अकनिट्ठा।

‘‘पञ्‍च अनागामिनो – अन्तरापरिनिब्बायी, उपहच्‍चपरिनिब्बायी, असङ्खारपरिनिब्बायी, ससङ्खारपरिनिब्बायी, उद्धंसोतोअकनिट्ठगामी।

३१९. ‘‘पञ्‍च चेतोखिला। इधावुसो, भिक्खु सत्थरि कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्‍चति न सम्पसीदति। यो सो, आवुसो, भिक्खु सत्थरि कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्‍चति न सम्पसीदति, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय, यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय, अयं पठमो चेतोखिलो। पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु धम्मे कङ्खति विचिकिच्छति…पे॰… सङ्घे कङ्खति विचिकिच्छति… सिक्खाय कङ्खति विचिकिच्छति… सब्रह्मचारीसु कुपितो होति अनत्तमनो आहतचित्तो खिलजातो। यो सो, आवुसो, भिक्खु सब्रह्मचारीसु कुपितो होति अनत्तमनो आहतचित्तो खिलजातो, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय, यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय, अयं पञ्‍चमो चेतोखिलो।

३२०. ‘‘पञ्‍च चेतसोविनिबन्धा। इधावुसो, भिक्खु कामेसु अवीतरागो होति अविगतच्छन्दो अविगतपेमो अविगतपिपासो अविगतपरिळाहो अविगततण्हो। यो सो, आवुसो, भिक्खु कामेसु अवीतरागो होति अविगतच्छन्दो अविगतपेमो अविगतपिपासो अविगतपरिळाहो अविगततण्हो, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय। यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय। अयं पठमो चेतसो विनिबन्धो। पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु काये अवीतरागो होति…पे॰… रूपे अवीतरागो होति…पे॰… पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु यावदत्थं उदरावदेहकं भुञ्‍जित्वा सेय्यसुखं पस्ससुखं मिद्धसुखं अनुयुत्तो विहरति…पे॰… पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु अञ्‍ञतरं देवनिकायं पणिधाय ब्रह्मचरियं चरति – ‘इमिनाहं सीलेन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा देवो वा भविस्सामि देवञ्‍ञतरो वा’ति। यो सो, आवुसो, भिक्खु अञ्‍ञतरं देवनिकायं पणिधाय ब्रह्मचरियं चरति – ‘इमिनाहं सीलेन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा देवो वा भविस्सामि देवञ्‍ञतरो वा’ति, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय। यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्‍चाय पधानाय। अयं पञ्‍चमो चेतसो विनिबन्धो।

‘‘पञ्‍चिन्द्रियानि – चक्खुन्द्रियं, सोतिन्द्रियं, घानिन्द्रियं, जिव्हिन्द्रियं, कायिन्द्रियं।

‘‘अपरानिपि पञ्‍चिन्द्रियानि – सुखिन्द्रियं, दुक्खिन्द्रियं, सोमनस्सिन्द्रियं, दोमनस्सिन्द्रियं, उपेक्खिन्द्रियं।

‘‘अपरानिपि पञ्‍चिन्द्रियानि – सद्धिन्द्रियं, वीरियिन्द्रियं, सतिन्द्रियं, समाधिन्द्रियं, पञ्‍ञिन्द्रियं।

३२१. ‘‘पञ्‍च निस्सरणिया [निस्सारणीया (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰) टीका ओलोकेतब्बा] धातुयो। इधावुसो, भिक्खुनो कामे मनसिकरोतो कामेसु चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्‍चति। नेक्खम्मं खो पनस्स मनसिकरोतो नेक्खम्मे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्‍चति। तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्ठितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं कामेहि। ये च कामपच्‍चया उप्पज्‍जन्ति आसवा विघाता परिळाहा [विघातपरिळाहा (स्या॰ कं॰)], मुत्तो सो तेहि, न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं कामानं निस्सरणं।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो ब्यापादं मनसिकरोतो ब्यापादे चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्‍चति। अब्यापादं खो पनस्स मनसिकरोतो अब्यापादे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्‍चति। तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्ठितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं ब्यापादेन। ये च ब्यापादपच्‍चया उप्पज्‍जन्ति आसवा विघाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि, न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं ब्यापादस्स निस्सरणं।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो विहेसं मनसिकरोतो विहेसाय चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्‍चति। अविहेसं खो पनस्स मनसिकरोतो अविहेसाय चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्‍चति। तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्ठितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं विहेसाय। ये च विहेसापच्‍चया उप्पज्‍जन्ति आसवा विघाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि, न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं विहेसाय निस्सरणं।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो रूपे मनसिकरोतो रूपेसु चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्‍चति। अरूपं खो पनस्स मनसिकरोतो अरूपे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्‍चति। तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्ठितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं रूपेहि। ये च रूपपच्‍चया उप्पज्‍जन्ति आसवा विघाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि, न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं रूपानं निस्सरणं।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो सक्‍कायं मनसिकरोतो सक्‍काये चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्‍चति। सक्‍कायनिरोधं खो पनस्स मनसिकरोतो सक्‍कायनिरोधे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्‍चति। तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्ठितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं सक्‍कायेन। ये च सक्‍कायपच्‍चया उप्पज्‍जन्ति आसवा विघाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि, न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं सक्‍कायस्स निस्सरणं।

३२२. ‘‘पञ्‍च विमुत्तायतनानि। इधावुसो, भिक्खुनो सत्था धम्मं देसेति अञ्‍ञतरो वा गरुट्ठानियो सब्रह्मचारी। यथा यथा, आवुसो, भिक्खुनो सत्था धम्मं देसेति अञ्‍ञतरो वा गरुट्ठानियो सब्रह्मचारी। तथा तथा सो तस्मिं धम्मे अत्थपटिसंवेदी च होति धम्मपटिसंवेदी च। तस्स अत्थपटिसंवेदिनो धम्मपटिसंवेदिनो पामोज्‍जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति। इदं पठमं विमुत्तायतनं।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो न हेव खो सत्था धम्मं देसेति अञ्‍ञतरो वा गरुट्ठानियो सब्रह्मचारी, अपि च खो यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन परेसं देसेति…पे॰… अपि च खो यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन सज्झायं करोति…पे॰… अपि च खो यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं चेतसा अनुवितक्‍केति अनुविचारेति मनसानुपेक्खति…पे॰… अपि च ख्वस्स अञ्‍ञतरं समाधिनिमित्तं सुग्गहितं होति सुमनसिकतं सूपधारितं सुप्पटिविद्धं पञ्‍ञाय। यथा यथा, आवुसो, भिक्खुनो अञ्‍ञतरं समाधिनिमित्तं सुग्गहितं होति सुमनसिकतं सूपधारितं सुप्पटिविद्धं पञ्‍ञाय तथा तथा सो तस्मिं धम्मे अत्थपटिसंवेदी च होति धम्मपटिसंवेदी च। तस्स अत्थपटिसंवेदिनो धम्मपटिसंवेदिनो पामोज्‍जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति। इदं पञ्‍चमं विमुत्तायतनं।

‘‘पञ्‍च विमुत्तिपरिपाचनीया सञ्‍ञा – अनिच्‍चसञ्‍ञा, अनिच्‍चे दुक्खसञ्‍ञा, दुक्खे अनत्तसञ्‍ञा, पहानसञ्‍ञा, विरागसञ्‍ञा।

‘‘इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन पञ्‍च धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं…पे॰… अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं [सङ्गितियपञ्‍चकं निट्ठितं (स्या॰ कं॰)]।

छक्‍कं

३२३. ‘‘अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन छ धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं…पे॰… अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। कतमे छ?

‘‘छ अज्झत्तिकानि आयतनानि – चक्खायतनं, सोतायतनं, घानायतनं, जिव्हायतनं, कायायतनं, मनायतनं।

‘‘छ बाहिरानि आयतनानि – रूपायतनं, सद्दायतनं, गन्धायतनं, रसायतनं, फोट्ठब्बायतनं, धम्मायतनं।

‘‘छ विञ्‍ञाणकाया – चक्खुविञ्‍ञाणं, सोतविञ्‍ञाणं, घानविञ्‍ञाणं, जिव्हाविञ्‍ञाणं, कायविञ्‍ञाणं, मनोविञ्‍ञाणं।

‘‘छ फस्सकाया – चक्खुसम्फस्सो, सोतसम्फस्सो, घानसम्फस्सो, जिव्हासम्फस्सो, कायसम्फस्सो, मनोसम्फस्सो।

‘‘छ वेदनाकाया – चक्खुसम्फस्सजा वेदना, सोतसम्फस्सजा वेदना, घानसम्फस्सजा वेदना, जिव्हासम्फस्सजा वेदना, कायसम्फस्सजा वेदना, मनोसम्फस्सजा वेदना।

‘‘छ सञ्‍ञाकाया – रूपसञ्‍ञा, सद्दसञ्‍ञा, गन्धसञ्‍ञा, रससञ्‍ञा, फोट्ठब्बसञ्‍ञा, धम्मसञ्‍ञा।

‘‘छ सञ्‍चेतनाकाया – रूपसञ्‍चेतना, सद्दसञ्‍चेतना, गन्धसञ्‍चेतना, रससञ्‍चेतना, फोट्ठब्बसञ्‍चेतना, धम्मसञ्‍चेतना।

‘‘छ तण्हाकाया – रूपतण्हा, सद्दतण्हा, गन्धतण्हा, रसतण्हा, फोट्ठब्बतण्हा, धम्मतण्हा।

३२४. ‘‘छ अगारवा। इधावुसो, भिक्खु सत्थरि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो; धम्मे अगारवो विहरति अप्पतिस्सो; सङ्घे अगारवो विहरति अप्पतिस्सो; सिक्खाय अगारवो विहरति अप्पतिस्सो; अप्पमादे अगारवो विहरति अप्पतिस्सो; पटिसन्थारे [पटिसन्धारे (क॰)] अगारवो विहरति अप्पतिस्सो।

‘‘छ गारवा। इधावुसो, भिक्खु सत्थरि सगारवो विहरति सप्पतिस्सो; धम्मे सगारवो विहरति सप्पतिस्सो; सङ्घे सगारवो विहरति सप्पतिस्सो; सिक्खाय सगारवो विहरति सप्पतिस्सो; अप्पमादे सगारवो विहरति सप्पतिस्सो; पटिसन्थारे सगारवो विहरति सप्पतिस्सो।

‘‘छ सोमनस्सूपविचारा। चक्खुना रूपं दिस्वा सोमनस्सट्ठानियं रूपं उपविचरति; सोतेन सद्दं सुत्वा… घानेन गन्धं घायित्वा… जिव्हाय रसं सायित्वा… कायेन फोट्ठब्बं फुसित्वा। मनसा धम्मं विञ्‍ञाय सोमनस्सट्ठानियं धम्मं उपविचरति।

‘‘छ दोमनस्सूपविचारा। चक्खुना रूपं दिस्वा दोमनस्सट्ठानियं रूपं उपविचरति…पे॰… मनसा धम्मं विञ्‍ञाय दोमनस्सट्ठानियं धम्मं उपविचरति।

‘‘छ उपेक्खूपविचारा। चक्खुना रूपं दिस्वा उपेक्खाट्ठानियं [उपेक्खाठानियं (क॰)] रूपं उपविचरति…पे॰… मनसा धम्मं विञ्‍ञाय उपेक्खाट्ठानियं धम्मं उपविचरति।

‘‘छ सारणीया धम्मा। इधावुसो, भिक्खुनो मेत्तं कायकम्मं पच्‍चुपट्ठितं होति सब्रह्मचारीसु आवि [आवी (क॰ सी॰ पी॰ क॰)] चेव रहो च। अयम्पि धम्मो सारणीयो पियकरणो गरुकरणो सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तति।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो मेत्तं वचीकम्मं पच्‍चुपट्ठितं होति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च। अयम्पि धम्मो सारणीयो…पे॰… एकीभावाय संवत्तति।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो मेत्तं मनोकम्मं पच्‍चुपट्ठितं होति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च। अयम्पि धम्मो सारणीयो…पे॰… एकीभावाय संवत्तति।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु ये ते लाभा धम्मिका धम्मलद्धा अन्तमसो पत्तपरियापन्‍नमत्तम्पि, तथारूपेहि लाभेहि अप्पटिविभत्तभोगी होति सीलवन्तेहि सब्रह्मचारीहि साधारणभोगी। अयम्पि धम्मो सारणीयो…पे॰… एकीभावाय संवत्तति।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु यानि तानि सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि अकम्मासानि भुजिस्सानि विञ्‍ञुप्पसत्थानि अपरामट्ठानि समाधिसंवत्तनिकानि, तथारूपेसु सीलेसु सीलसामञ्‍ञगतो विहरति सब्रह्मचारीहि आवि चेव रहो च। अयम्पि धम्मो सारणीयो…पे॰… एकीभावाय संवत्तति।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु यायं दिट्ठि अरिया निय्यानिका निय्याति तक्‍करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय, तथारूपाय दिट्ठिया दिट्ठिसामञ्‍ञगतो विहरति सब्रह्मचारीहि आवि चेव रहो च। अयम्पि धम्मो सारणीयो पियकरणो गरुकरणो सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तति।

३२५. छ विवादमूलानि। इधावुसो, भिक्खु कोधनो होति उपनाही। यो सो, आवुसो, भिक्खु कोधनो होति उपनाही, सो सत्थरिपि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, धम्मेपि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सङ्घेपि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सिक्खायपि न परिपूरकारी [परिपूरीकारी (स्या॰ कं॰)] होति। यो सो, आवुसो, भिक्खु सत्थरि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, धम्मे अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सङ्घे अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सिक्खाय न परिपूरकारी, सो सङ्घे विवादं जनेति। यो होति विवादो बहुजनअहिताय बहुजनअसुखाय अनत्थाय अहिताय दुक्खाय देवमनुस्सानं। एवरूपं चे तुम्हे, आवुसो, विवादमूलं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा समनुपस्सेय्याथ। तत्र तुम्हे, आवुसो, तस्सेव पापकस्स विवादमूलस्स पहानाय वायमेय्याथ। एवरूपं चे तुम्हे, आवुसो, विवादमूलं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा न समनुपस्सेय्याथ। तत्र तुम्हे, आवुसो, तस्सेव पापकस्स विवादमूलस्स आयतिं अनवस्सवाय पटिपज्‍जेय्याथ। एवमेतस्स पापकस्स विवादमूलस्स पहानं होति। एवमेतस्स पापकस्स विवादमूलस्स आयतिं अनवस्सवो होति।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु मक्खी होति पळासी…पे॰… इस्सुकी होति मच्छरी…पे॰… सठो होति मायावी… पापिच्छो होति मिच्छादिट्ठी… सन्दिट्ठिपरामासी होति आधानग्गाही दुप्पटिनिस्सग्गी…पे॰… यो सो, आवुसो, भिक्खु सन्दिट्ठिपरामासी होति आधानग्गाही दुप्पटिनिस्सग्गी, सो सत्थरिपि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, धम्मेपि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सङ्घेपि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सिक्खायपि न परिपूरकारी होति। यो सो, आवुसो, भिक्खु सत्थरि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, धम्मे अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सङ्घे अगारवो विहरति अप्पतिस्सो, सिक्खाय न परिपूरकारी, सो सङ्घे विवादं जनेति। यो होति विवादो बहुजनअहिताय बहुजनअसुखाय अनत्थाय अहिताय दुक्खाय देवमनुस्सानं। एवरूपं चे तुम्हे, आवुसो, विवादमूलं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा समनुपस्सेय्याथ। तत्र तुम्हे, आवुसो, तस्सेव पापकस्स विवादमूलस्स पहानाय वायमेय्याथ। एवरूपं चे तुम्हे, आवुसो, विवादमूलं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा न समनुपस्सेय्याथ। तत्र तुम्हे, आवुसो, तस्सेव पापकस्स विवादमूलस्स आयतिं अनवस्सवाय पटिपज्‍जेय्याथ। एवमेतस्स पापकस्स विवादमूलस्स पहानं होति। एवमेतस्स पापकस्स विवादमूलस्स आयतिं अनवस्सवो होति।

‘‘छ धातुयो – पथवीधातु, आपोधातु, तेजोधातु, वायोधातु, आकासधातु, विञ्‍ञाणधातु।

३२६. ‘‘छ निस्सरणिया धातुयो। इधावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘मेत्ता हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, अथ च पन मे ब्यापादो चित्तं परियादाय तिट्ठती’ति। सो ‘मा हेवं’, तिस्स वचनीयो, ‘मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य। अट्ठानमेतं, आवुसो, अनवकासो, यं मेत्ताय चेतोविमुत्तिया भाविताय बहुलीकताय यानीकताय वत्थुकताय अनुट्ठिताय परिचिताय सुसमारद्धाय। अथ च पनस्स ब्यापादो चित्तं परियादाय ठस्सति, नेतं ठानं विज्‍जति। निस्सरणं हेतं, आवुसो, ब्यापादस्स, यदिदं मेत्ता चेतोविमुत्ती’ति।

‘‘इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘करुणा हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा। अथ च पन मे विहेसा चित्तं परियादाय तिट्ठती’ति, सो ‘मा हेवं’ तिस्स वचनीयो ‘मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य। अट्ठानमेतं आवुसो, अनवकासो, यं करुणाय चेतोविमुत्तिया भाविताय बहुलीकताय यानीकताय वत्थुकताय अनुट्ठिताय परिचिताय सुसमारद्धाय, अथ च पनस्स विहेसा चित्तं परियादाय ठस्सति, नेतं ठानं विज्‍जति। निस्सरणं हेतं, आवुसो, विहेसाय, यदिदं करुणा चेतोविमुत्ती’ति।

‘‘इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘मुदिता हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा। अथ च पन मे अरति चित्तं परियादाय तिट्ठती’ति, सो ‘मा हेवं’ तिस्स वचनीयो ‘‘मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य। अट्ठानमेतं, आवुसो, अनवकासो, यं मुदिताय चेतोविमुत्तिया भाविताय बहुलीकताय यानीकताय वत्थुकताय अनुट्ठिताय परिचिताय सुसमारद्धाय, अथ च पनस्स अरति चित्तं परियादाय ठस्सति, नेतं ठानं विज्‍जति। निस्सरणं हेतं, आवुसो, अरतिया, यदिदं मुदिता चेतोविमुत्ती’ति।

‘‘इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘उपेक्खा हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा। अथ च पन मे रागो चित्तं परियादाय तिट्ठती’ति। सो ‘मा हेवं’ तिस्स वचनीयो ‘मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य। अट्ठानमेतं, आवुसो, अनवकासो, यं उपेक्खाय चेतोविमुत्तिया भाविताय बहुलीकताय यानीकताय वत्थुकताय अनुट्ठिताय परिचिताय सुसमारद्धाय, अथ च पनस्स रागो चित्तं परियादाय ठस्सति नेतं ठानं विज्‍जति। निस्सरणं हेतं, आवुसो, रागस्स, यदिदं उपेक्खा चेतोविमुत्ती’ति।

‘‘इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘अनिमित्ता हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा। अथ च पन मे निमित्तानुसारि विञ्‍ञाणं होती’ति। सो ‘मा हेवं’ तिस्स वचनीयो ‘मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य। अट्ठानमेतं, आवुसो, अनवकासो, यं अनिमित्ताय चेतोविमुत्तिया भाविताय बहुलीकताय यानीकताय वत्थुकताय अनुट्ठिताय परिचिताय सुसमारद्धाय, अथ च पनस्स निमित्तानुसारि विञ्‍ञाणं भविस्सति, नेतं ठानं विज्‍जति। निस्सरणं हेतं, आवुसो, सब्बनिमित्तानं, यदिदं अनिमित्ता चेतोविमुत्ती’ति।

‘‘इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘अस्मीति खो मे विगतं [विघातं (सी॰ पी॰), विगते (स्या॰ क॰)], अयमहमस्मीति न समनुपस्सामि, अथ च पन मे विचिकिच्छाकथङ्कथासल्‍लं चित्तं परियादाय तिट्ठती’ति। सो ‘मा हेवं’ तिस्स वचनीयो ‘मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य। अट्ठानमेतं, आवुसो, अनवकासो, यं अस्मीति विगते [विघाते (सी॰ पी॰)] अयमहमस्मीति असमनुपस्सतो, अथ च पनस्स विचिकिच्छाकथङ्कथासल्‍लं चित्तं परियादाय ठस्सति, नेतं ठानं विज्‍जति। निस्सरणं हेतं, आवुसो, विचिकिच्छाकथङ्कथासल्‍लस्स, यदिदं अस्मिमानसमुग्घातो’ति।

३२७. ‘‘छ अनुत्तरियानि – दस्सनानुत्तरियं, सवनानुत्तरियं, लाभानुत्तरियं, सिक्खानुत्तरियं, पारिचरियानुत्तरियं, अनुस्सतानुत्तरियं।

‘‘छ अनुस्सतिट्ठानानि – बुद्धानुस्सति, धम्मानुस्सति, सङ्घानुस्सति, सीलानुस्सति, चागानुस्सति, देवतानुस्सति।

३२८. ‘‘छ सततविहारा। इधावुसो, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको [उपेक्खको च (स्या॰ क॰)] विहरति सतो सम्पजानो। सोतेन सद्दं सुत्वा…पे॰… मनसा धम्मं विञ्‍ञाय नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो।

३२९. ‘‘छळाभिजातियो। इधावुसो, एकच्‍चो कण्हाभिजातिको समानो कण्हं धम्मं अभिजायति। इध पनावुसो, एकच्‍चो कण्हाभिजातिको समानो सुक्‍कं धम्मं अभिजायति। इध पनावुसो, एकच्‍चो कण्हाभिजातिको समानो अकण्हं असुक्‍कं निब्बानं अभिजायति। इध पनावुसो, एकच्‍चो सुक्‍काभिजातिको समानो सुक्‍कं धम्मं अभिजायति। इध पनावुसो, एकच्‍चो सुक्‍काभिजातिको समानो कण्हं धम्मं अभिजायति। इध पनावुसो, एकच्‍चो सुक्‍काभिजातिको समानो अकण्हं असुक्‍कं निब्बानं अभिजायति।

‘‘छ निब्बेधभागिया सञ्‍ञा [निब्बेधभागियसञ्‍ञा (स्या॰ कं॰)] – अनिच्‍चसञ्‍ञा अनिच्‍चे, दुक्खसञ्‍ञा दुक्खे, अनत्तसञ्‍ञा, पहानसञ्‍ञा, विरागसञ्‍ञा, निरोधसञ्‍ञा।

‘‘इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन छ धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं…पे॰… अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं।

सत्तकं

३३०. ‘‘अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सत्त धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं…पे॰… अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। कतमे सत्त?

‘‘सत्त अरियधनानि – सद्धाधनं, सीलधनं, हिरिधनं, ओत्तप्पधनं, सुतधनं, चागधनं, पञ्‍ञाधनं।

‘‘सत्त बोज्झङ्गा – सतिसम्बोज्झङ्गो, धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो, वीरियसम्बोज्झङ्गो, पीतिसम्बोज्झङ्गो, पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गो, समाधिसम्बोज्झङ्गो, उपेक्खासम्बोज्झङ्गो।

‘‘सत्त समाधिपरिक्खारा – सम्मादिट्ठि, सम्मासङ्कप्पो, सम्मावाचा, सम्माकम्मन्तो, सम्माआजीवो, सम्मावायामो, सम्मासति।

‘‘सत्त असद्धम्मा – इधावुसो, भिक्खु अस्सद्धो होति, अहिरिको होति, अनोत्तप्पी होति, अप्पस्सुतो होति, कुसीतो होति, मुट्ठस्सति होति, दुप्पञ्‍ञो होति।

‘‘सत्त सद्धम्मा – इधावुसो, भिक्खु सद्धो होति, हिरिमा होति, ओत्तप्पी होति, बहुस्सुतो होति, आरद्धवीरियो होति, उपट्ठितस्सति होति, पञ्‍ञवा होति।

‘‘सत्त सप्पुरिसधम्मा – इधावुसो, भिक्खु धम्मञ्‍ञू च होति अत्थञ्‍ञू च अत्तञ्‍ञू च मत्तञ्‍ञू च कालञ्‍ञू च परिसञ्‍ञू च पुग्गलञ्‍ञू च।

३३१. ‘‘सत्त निद्दसवत्थूनि। इधावुसो, भिक्खु सिक्खासमादाने तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्‍च सिक्खासमादाने अविगतपेमो। धम्मनिसन्तिया तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्‍च धम्मनिसन्तिया अविगतपेमो। इच्छाविनये तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्‍च इच्छाविनये अविगतपेमो। पटिसल्‍लाने तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्‍च पटिसल्‍लाने अविगतपेमो। वीरियारम्भे तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्‍च वीरियारम्भे अविगतपेमो। सतिनेपक्‍के तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्‍च सतिनेपक्‍के अविगतपेमो। दिट्ठिपटिवेधे तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्‍च दिट्ठिपटिवेधे अविगतपेमो।

‘‘सत्त सञ्‍ञा – अनिच्‍चसञ्‍ञा, अनत्तसञ्‍ञा, असुभसञ्‍ञा, आदीनवसञ्‍ञा, पहानसञ्‍ञा, विरागसञ्‍ञा, निरोधसञ्‍ञा।

‘‘सत्त बलानि – सद्धाबलं, वीरियबलं, हिरिबलं, ओत्तप्पबलं, सतिबलं, समाधिबलं, पञ्‍ञाबलं।

३३२. ‘‘सत्त विञ्‍ञाणट्ठितियो। सन्तावुसो, सत्ता नानत्तकाया नानत्तसञ्‍ञिनो, सेय्यथापि मनुस्सा एकच्‍चे च देवा एकच्‍चे च विनिपातिका। अयं पठमा विञ्‍ञाणट्ठिति।

‘‘सन्तावुसो, सत्ता नानत्तकाया एकत्तसञ्‍ञिनो सेय्यथापि देवा ब्रह्मकायिका पठमाभिनिब्बत्ता। अयं दुतिया विञ्‍ञाणट्ठिति।

‘‘सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया नानत्तसञ्‍ञिनो सेय्यथापि देवा आभस्सरा। अयं ततिया विञ्‍ञाणट्ठिति।

‘‘सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया एकत्तसञ्‍ञिनो सेय्यथापि देवा सुभकिण्हा। अयं चतुत्थी विञ्‍ञाणट्ठिति।

‘‘सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो रूपसञ्‍ञानं समतिक्‍कमा पटिघसञ्‍ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्‍ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्‍चायतनूपगा। अयं पञ्‍चमी विञ्‍ञाणट्ठिति।

‘‘सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो आकासानञ्‍चायतनं समतिक्‍कम्म ‘अनन्तं विञ्‍ञाण’न्ति विञ्‍ञाणञ्‍चायतनूपगा। अयं छट्ठी विञ्‍ञाणट्ठिति।

‘‘सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो विञ्‍ञाणञ्‍चायतनं समतिक्‍कम्म ‘नत्थि किञ्‍ची’ति आकिञ्‍चञ्‍ञायतनूपगा। अयं सत्तमी विञ्‍ञाणट्ठिति।

‘‘सत्त पुग्गला दक्खिणेय्या – उभतोभागविमुत्तो, पञ्‍ञाविमुत्तो, कायसक्खि, दिट्ठिप्पत्तो, सद्धाविमुत्तो, धम्मानुसारी, सद्धानुसारी।

‘‘सत्त अनुसया – कामरागानुसयो, पटिघानुसयो, दिट्ठानुसयो, विचिकिच्छानुसयो, मानानुसयो, भवरागानुसयो, अविज्‍जानुसयो।

‘‘सत्त सञ्‍ञोजनानि – अनुनयसञ्‍ञोजनं [कामसञ्‍ञोजनं (स्या॰ कं॰)], पटिघसञ्‍ञोजनं, दिट्ठिसञ्‍ञोजनं, विचिकिच्छासञ्‍ञोजनं, मानसञ्‍ञोजनं, भवरागसञ्‍ञोजनं, अविज्‍जासञ्‍ञोजनं।

‘‘सत्त अधिकरणसमथा – उप्पन्‍नुप्पन्‍नानं अधिकरणानं समथाय वूपसमाय सम्मुखाविनयो दातब्बो, सतिविनयो दातब्बो, अमूळ्हविनयो दातब्बो, पटिञ्‍ञाय कारेतब्बं, येभुय्यसिका, तस्सपापियसिका, तिणवत्थारको।

‘‘इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सत्त धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं…पे॰… अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं।

दुतियभाणवारो निट्ठितो।

अट्ठकं

३३३. ‘‘अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन अट्ठ धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं…पे॰… अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। कतमे अट्ठ?

‘‘अट्ठ मिच्छत्ता – मिच्छादिट्ठि, मिच्छासङ्कप्पो, मिच्छावाचा, मिच्छाकम्मन्तो, मिच्छाआजीवो, मिच्छावायामो मिच्छासति, मिच्छासमाधि।

‘‘अट्ठ सम्मत्ता – सम्मादिट्ठि, सम्मासङ्कप्पो, सम्मावाचा, सम्माकम्मन्तो, सम्माआजीवो, सम्मावायामो, सम्मासति, सम्मासमाधि।

‘‘अट्ठ पुग्गला दक्खिणेय्या – सोतापन्‍नो, सोतापत्तिफलसच्छिकिरियाय पटिपन्‍नो; सकदागामी, सकदागामिफलसच्छिकिरियाय पटिपन्‍नो; अनागामी, अनागामिफलसच्छिकिरियाय पटिपन्‍नो; अरहा, अरहत्तफलसच्छिकिरियाय पटिपन्‍नो।

३३४. ‘‘अट्ठ कुसीतवत्थूनि। इधावुसो, भिक्खुना कम्मं कातब्बं होति। तस्स एवं होति – ‘कम्मं खो मे कातब्बं भविस्सति, कम्मं खो पन मे करोन्तस्स कायो किलमिस्सति, हन्दाहं निपज्‍जामी’ति! सो निपज्‍जति न वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाय। इदं पठमं कुसीतवत्थु।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना कम्मं कतं होति। तस्स एवं होति – ‘अहं खो कम्मं अकासिं, कम्मं खो पन मे करोन्तस्स कायो किलन्तो, हन्दाहं निपज्‍जामी’ति! सो निपज्‍जति न वीरियं आरभति…पे॰… इदं दुतियं कुसीतवत्थु।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गन्तब्बो होति। तस्स एवं होति – ‘मग्गो खो मे गन्तब्बो भविस्सति, मग्गं खो पन मे गच्छन्तस्स कायो किलमिस्सति, हन्दाहं निपज्‍जामी’ति! सो निपज्‍जति न वीरियं आरभति… इदं ततियं कुसीतवत्थु।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गतो होति। तस्स एवं होति – ‘अहं खो मग्गं अगमासिं, मग्गं खो पन मे गच्छन्तस्स कायो किलन्तो, हन्दाहं निपज्‍जामी’ति! सो निपज्‍जति न वीरियं आरभति… इदं चतुत्थं कुसीतवत्थु।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो न लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं। तस्स एवं होति – ‘अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो नालत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं, तस्स मे कायो किलन्तो अकम्मञ्‍ञो, हन्दाहं निपज्‍जामी’ति! सो निपज्‍जति न वीरियं आरभति… इदं पञ्‍चमं कुसीतवत्थु।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं। तस्स एवं होति – ‘अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो अलत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं, तस्स मे कायो गरुको अकम्मञ्‍ञो, मासाचितं मञ्‍ञे, हन्दाहं निपज्‍जामी’ति! सो निपज्‍जति न वीरियं आरभति… इदं छट्ठं कुसीतवत्थु।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो उप्पन्‍नो होति अप्पमत्तको आबाधो। तस्स एवं होति – ‘उप्पन्‍नो खो मे अयं अप्पमत्तको आबाधो; अत्थि कप्पो निपज्‍जितुं, हन्दाहं निपज्‍जामी’ति! सो निपज्‍जति न वीरियं आरभति… इदं सत्तमं कुसीतवत्थु।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गिलाना वुट्ठितो [गिलानवुट्ठितो (सद्दनीति) अ॰ नि॰ ६.१६ नकुलपितुसुत्तटीका पस्सितब्बा] होति अचिरवुट्ठितो गेलञ्‍ञा। तस्स एवं होति – ‘अहं खो गिलाना वुट्ठितो अचिरवुट्ठितो गेलञ्‍ञा, तस्स मे कायो दुब्बलो अकम्मञ्‍ञो, हन्दाहं निपज्‍जामी’ति! सो निपज्‍जति न वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाय। इदं अट्ठमं कुसीतवत्थु।

३३५. ‘‘अट्ठ आरम्भवत्थूनि। इधावुसो, भिक्खुना कम्मं कातब्बं होति। तस्स एवं होति – ‘कम्मं खो मे कातब्बं भविस्सति, कम्मं खो पन मे करोन्तेन न सुकरं बुद्धानं सासनं मनसि कातुं, हन्दाहं वीरियं आरभामि अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय, असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाया’ति! सो वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया, अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाय। इदं पठमं आरम्भवत्थु।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना कम्मं कतं होति। तस्स एवं होति – ‘अहं खो कम्मं अकासिं, कम्मं खो पनाहं करोन्तो नासक्खिं बुद्धानं सासनं मनसि कातुं, हन्दाहं वीरियं आरभामि…पे॰… सो वीरियं आरभति… इदं दुतियं आरम्भवत्थु।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गन्तब्बो होति। तस्स एवं होति – ‘मग्गो खो मे गन्तब्बो भविस्सति, मग्गं खो पन मे गच्छन्तेन न सुकरं बुद्धानं सासनं मनसि कातुं। हन्दाहं वीरियं आरभामि…पे॰… सो वीरियं आरभति… इदं ततियं आरम्भवत्थु।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गतो होति। तस्स एवं होति – ‘अहं खो मग्गं अगमासिं, मग्गं खो पनाहं गच्छन्तो नासक्खिं बुद्धानं सासनं मनसि कातुं, हन्दाहं वीरियं आरभामि…पे॰… सो वीरियं आरभति… इदं चतुत्थं आरम्भवत्थु।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो न लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं। तस्स एवं होति – ‘अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो नालत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं, तस्स मे कायो लहुको कम्मञ्‍ञो, हन्दाहं वीरियं आरभामि…पे॰… सो वीरियं आरभति… इदं पञ्‍चमं आरम्भवत्थु।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं। तस्स एवं होति – ‘अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो अलत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं, तस्स मे कायो बलवा कम्मञ्‍ञो, हन्दाहं वीरियं आरभामि…पे॰… सो वीरियं आरभति… इदं छट्ठं आरम्भवत्थु।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो उप्पन्‍नो होति अप्पमत्तको आबाधो। तस्स एवं होति – ‘उप्पन्‍नो खो मे अयं अप्पमत्तको आबाधो, ठानं खो पनेतं विज्‍जति यं मे आबाधो पवड्ढेय्य, हन्दाहं वीरियं आरभामि…पे॰… सो वीरियं आरभति… इदं सत्तमं आरम्भवत्थु।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गिलाना वुट्ठितो होति अचिरवुट्ठितो गेलञ्‍ञा। तस्स एवं होति – ‘अहं खो गिलाना वुट्ठितो अचिरवुट्ठितो गेलञ्‍ञा, ठानं खो पनेतं विज्‍जति यं मे आबाधो पच्‍चुदावत्तेय्य, हन्दाहं वीरियं आरभामि अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाया’’ति! सो वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाय। इदं अट्ठमं आरम्भवत्थु।

३३६. ‘‘अट्ठ दानवत्थूनि। आसज्‍ज दानं देति, भया दानं देति, ‘अदासि मे’ति दानं देति, ‘दस्सति मे’ति दानं देति, ‘साहु दान’न्ति दानं देति, ‘अहं पचामि, इमे न पचन्ति, नारहामि पचन्तो अपचन्तानं दानं न दातु’न्ति दानं देति, ‘इदं मे दानं ददतो कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छती’ति दानं देति। चित्तालङ्कार-चित्तपरिक्खारत्थं दानं देति।

३३७. ‘‘अट्ठ दानूपपत्तियो। इधावुसो, एकच्‍चो दानं देति समणस्स वा ब्राह्मणस्स वा अन्‍नं पानं वत्थं यानं मालागन्धविलेपनं सेय्यावसथपदीपेय्यं। सो यं देति तं पच्‍चासीसति [पच्‍चासिंसति (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)]। सो पस्सति खत्तियमहासालं वा ब्राह्मणमहासालं वा गहपतिमहासालं वा पञ्‍चहि कामगुणेहि समप्पितं समङ्गीभूतं परिचारयमानं। तस्स एवं होति – ‘अहो वताहं कायस्स भेदा परं मरणा खत्तियमहासालानं वा ब्राह्मणमहासालानं वा गहपतिमहासालानं वा सहब्यतं उपपज्‍जेय्य’न्ति! सो तं चित्तं दहति, तं चित्तं अधिट्ठाति, तं चित्तं भावेति, तस्स तं चित्तं हीने विमुत्तं उत्तरि अभावितं तत्रूपपत्तिया संवत्तति। तञ्‍च खो सीलवतो वदामि नो दुस्सीलस्स। इज्झतावुसो, सीलवतो चेतोपणिधि विसुद्धत्ता।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, इधेकच्‍चो दानं देति समणस्स वा ब्राह्मणस्स वा अन्‍नं पानं…पे॰… सेय्यावसथपदीपेय्यं। सो यं देति तं पच्‍चासीसति। तस्स सुतं होति – ‘चातुमहाराजिका [चातुम्महाराजिका (सी॰ स्या॰ पी॰)] देवा दीघायुका वण्णवन्तो सुखबहुला’’ति। तस्स एवं होति – ‘अहो वताहं कायस्स भेदा परं मरणा चातुमहाराजिकानं देवानं सहब्यतं उपपज्‍जेय्य’’न्ति! सो तं चित्तं दहति, तं चित्तं अधिट्ठाति, तं चित्तं भावेति, तस्स तं चित्तं हीने विमुत्तं उत्तरि अभावितं तत्रूपपत्तिया संवत्तति। तञ्‍च खो सीलवतो वदामि नो दुस्सीलस्स। इज्झतावुसो, सीलवतो चेतोपणिधि विसुद्धत्ता।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, इधेकच्‍चो दानं देति समणस्स वा ब्राह्मणस्स वा अन्‍नं पानं…पे॰… सेय्यावसथपदीपेय्यं। सो यं देति तं पच्‍चासीसति। तस्स सुतं होति – ‘तावतिंसा देवा…पे॰… यामा देवा…पे॰… तुसिता देवा …पे॰… निम्मानरती देवा…पे॰… परनिम्मितवसवत्ती देवा दीघायुका वण्णवन्तो सुखबहुला’ति। तस्स एवं होति – ‘अहो वताहं कायस्स भेदा परं मरणा परनिम्मितवसवत्तीनं देवानं सहब्यतं उपपज्‍जेय्य’’न्ति! सो तं चित्तं दहति, तं चित्तं अधिट्ठाति, तं चित्तं भावेति, तस्स तं चित्तं हीने विमुत्तं उत्तरि अभावितं तत्रूपपत्तिया संवत्तति। तञ्‍च खो सीलवतो वदामि नो दुस्सीलस्स। इज्झतावुसो, सीलवतो चेतोपणिधि विसुद्धत्ता।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, इधेकच्‍चो दानं देति समणस्स वा ब्राह्मणस्स वा अन्‍नं पानं वत्थं यानं मालागन्धविलेपनं सेय्यावसथपदीपेय्यं। सो यं देति तं पच्‍चासीसति। तस्स सुतं होति – ‘ब्रह्मकायिका देवा दीघायुका वण्णवन्तो सुखबहुला’ति। तस्स एवं होति – ‘अहो वताहं कायस्स भेदा परं मरणा ब्रह्मकायिकानं देवानं सहब्यतं उपपज्‍जेय्य’न्ति! सो तं चित्तं दहति, तं चित्तं अधिट्ठाति, तं चित्तं भावेति, तस्स तं चित्तं हीने विमुत्तं उत्तरि अभावितं तत्रूपपत्तिया संवत्तति। तञ्‍च खो सीलवतो वदामि नो दुस्सीलस्स; वीतरागस्स नो सरागस्स। इज्झतावुसो, सीलवतो चेतोपणिधि वीतरागत्ता।

‘‘अट्ठ परिसा – खत्तियपरिसा, ब्राह्मणपरिसा, गहपतिपरिसा, समणपरिसा, चातुमहाराजिकपरिसा, तावतिंसपरिसा, मारपरिसा, ब्रह्मपरिसा।

‘‘अट्ठ लोकधम्मा – लाभो च, अलाभो च, यसो च, अयसो च, निन्दा च, पसंसा च, सुखञ्‍च, दुक्खञ्‍च।

३३८. ‘‘अट्ठ अभिभायतनानि। अज्झत्तं रूपसञ्‍ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्‍ञी होति। इदं पठमं अभिभायतनं।

‘‘अज्झत्तं रूपसञ्‍ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति – एवंसञ्‍ञी होति। इदं दुतियं अभिभायतनं।

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्‍ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्‍ञी होति। इदं ततियं अभिभायतनं।

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्‍ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्‍ञी होति। इदं चतुत्थं अभिभायतनं।

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्‍ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति नीलानि नीलवण्णानि नीलनिदस्सनानि नीलनिभासानि। सेय्यथापि नाम उमापुप्फं नीलं नीलवण्णं नीलनिदस्सनं नीलनिभासं, सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं नीलं नीलवण्णं नीलनिदस्सनं नीलनिभासं। एवमेव [एवमेवं (क॰)] अज्झत्तं अरूपसञ्‍ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति नीलानि नीलवण्णानि नीलनिदस्सनानि नीलनिभासानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्‍ञी होति। इदं पञ्‍चमं अभिभायतनं।

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्‍ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति पीतानि पीतवण्णानि पीतनिदस्सनानि पीतनिभासानि। सेय्यथापि नाम कणिकारपुप्फं [कण्णिकारपुप्फं (स्या॰ कं॰)] पीतं पीतवण्णं पीतनिदस्सनं पीतनिभासं, सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं पीतं पीतवण्णं पीतनिदस्सनं पीतनिभासं। एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्‍ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति पीतानि पीतवण्णानि पीतनिदस्सनानि पीतनिभासानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्‍ञी होति। इदं छट्ठं अभिभायतनं।

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्‍ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति लोहितकानि लोहितकवण्णानि लोहितकनिदस्सनानि लोहितकनिभासानि। सेय्यथापि नाम बन्धुजीवकपुप्फं लोहितकं लोहितकवण्णं लोहितकनिदस्सनं लोहितकनिभासं, सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं लोहितकं लोहितकवण्णं लोहितकनिदस्सनं लोहितकनिभासं। एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्‍ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति लोहितकानि लोहितकवण्णानि लोहितकनिदस्सनानि लोहितकनिभासानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्‍ञी होति। इदं सत्तमं अभिभायतनं।

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्‍ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति ओदातानि ओदातवण्णानि ओदातनिदस्सनानि ओदातनिभासानि। सेय्यथापि नाम ओसधितारका ओदाता ओदातवण्णा ओदातनिदस्सना ओदातनिभासा, सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं ओदातं ओदातवण्णं ओदातनिदस्सनं ओदातनिभासं। एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्‍ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति ओदातानि ओदातवण्णानि ओदातनिदस्सनानि ओदातनिभासानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्‍ञी होति। इदं अट्ठमं अभिभायतनं।

३३९. ‘‘अट्ठ विमोक्खा। रूपी रूपानि पस्सति। अयं पठमो विमोक्खो।

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्‍ञी बहिद्धा रूपानि पस्सति। अयं दुतियो विमोक्खो।

‘‘सुभन्तेव अधिमुत्तो होति। अयं ततियो विमोक्खो।

‘‘सब्बसो रूपसञ्‍ञानं समतिक्‍कमा पटिघसञ्‍ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्‍ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्‍चायतनं उपसम्पज्‍ज विहरति। अयं चतुत्थो विमोक्खो।

‘‘सब्बसो आकासानञ्‍चायतनं समतिक्‍कम्म ‘अनन्तं विञ्‍ञाण’न्ति विञ्‍ञाणञ्‍चायतनं उपसम्पज्‍ज विहरति। अयं पञ्‍चमो विमोक्खो।

‘‘सब्बसो विञ्‍ञाणञ्‍चायतनं समतिक्‍कम्म ‘नत्थि किञ्‍ची’ति आकिञ्‍चञ्‍ञायतनं उपसम्पज्‍ज विहरति। अयं छट्ठो विमोक्खो।

‘‘सब्बसो आकिञ्‍चञ्‍ञायतनं समतिक्‍कम्म नेवसञ्‍ञानासञ्‍ञायतनं उपसम्पज्‍ज विहरति। अयं सत्तमो विमोक्खो।

‘‘सब्बसो नेवसञ्‍ञानासञ्‍ञायतनं समतिक्‍कम्म सञ्‍ञावेदयित निरोधं उपसम्पज्‍ज विहरति। अयं अट्ठमो विमोक्खो।

‘‘इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन अट्ठ धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं…पे॰… अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं।

नवकं

३४०. ‘‘अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन नव धम्मा सम्मदक्खाता; तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं…पे॰… अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। कतमे नव?

‘‘नव आघातवत्थूनि। ‘अनत्थं मे अचरी’ति आघातं बन्धति; ‘अनत्थं मे चरती’ति आघातं बन्धति; ‘अनत्थं मे चरिस्सती’ति आघातं बन्धति; ‘पियस्स मे मनापस्स अनत्थं अचरी’ति आघातं बन्धति…पे॰… अनत्थं चरतीति आघातं बन्धति…पे॰… अनत्थं चरिस्सतीति आघातं बन्धति; ‘अप्पियस्स मे अमनापस्स अत्थं अचरी’ति आघातं बन्धति…पे॰… अत्थं चरतीति आघातं बन्धति…पे॰… अत्थं चरिस्सतीति आघातं बन्धति।

‘‘नव आघातपटिविनया। ‘अनत्थं मे अचरि [अचरीति (स्या॰ क॰) एवं ‘‘चरति चरिस्सति’’ पदेसुपि], तं कुतेत्थ लब्भा’ति आघातं पटिविनेति; ‘अनत्थं मे चरति, तं कुतेत्थ लब्भा’ति आघातं पटिविनेति; ‘अनत्थं मे चरिस्सति, तं कुतेत्थ लब्भा’ति आघातं पटिविनेति; ‘पियस्स मे मनापस्स अनत्थं अचरि…पे॰… अनत्थं चरति…पे॰… अनत्थं चरिस्सति, तं कुतेत्थ लब्भा’ति आघातं पटिविनेति; ‘अप्पियस्स मे अमनापस्स अत्थं अचरि…पे॰… अत्थं चरति…पे॰… अत्थं चरिस्सति, तं कुतेत्थ लब्भा’ति आघातं पटिविनेति।

३४१. ‘‘नव सत्तावासा। सन्तावुसो, सत्ता नानत्तकाया नानत्तसञ्‍ञिनो, सेय्यथापि मनुस्सा एकच्‍चे च देवा एकच्‍चे च विनिपातिका। अयं पठमो सत्तावासो।

‘‘सन्तावुसो, सत्ता नानत्तकाया एकत्तसञ्‍ञिनो, सेय्यथापि देवा ब्रह्मकायिका पठमाभिनिब्बत्ता। अयं दुतियो सत्तावासो।

‘‘सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया नानत्तसञ्‍ञिनो, सेय्यथापि देवा आभस्सरा। अयं ततियो सत्तावासो।

‘‘सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया एकत्तसञ्‍ञिनो, सेय्यथापि देवा सुभकिण्हा। अयं चतुत्थो सत्तावासो।

‘‘सन्तावुसो, सत्ता असञ्‍ञिनो अप्पटिसंवेदिनो, सेय्यथापि देवा असञ्‍ञसत्ता [असञ्‍ञिसत्ता (स्या॰ कं॰)]। अयं पञ्‍चमो सत्तावासो।

‘‘सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो रूपसञ्‍ञानं समतिक्‍कमा पटिघसञ्‍ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्‍ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्‍चायतनूपगा। अयं छट्ठो सत्तावासो।

‘‘सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो आकासानञ्‍चायतनं समतिक्‍कम्म ‘अनन्तं विञ्‍ञाण’न्ति विञ्‍ञाणञ्‍चायतनूपगा। अयं सत्तमो सत्तावासो।

‘‘सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो विञ्‍ञाणञ्‍चायतनं समतिक्‍कम्म ‘नत्थि किञ्‍ची’ति आकिञ्‍चाञ्‍ञायतनूपगा। अयं अट्ठमो सत्तावासो।

‘‘सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो आकिञ्‍चञ्‍ञायतनं समतिक्‍कम्म [समतिक्‍कम्म सन्तमेतं पणीतमेतन्ति (स्या॰ कं॰)] नेवसञ्‍ञानासञ्‍ञायतनूपगा। अयं नवमो सत्तावासो।

३४२. ‘‘नव अक्खणा असमया ब्रह्मचरियवासाय। इधावुसो, तथागतो च लोके उप्पन्‍नो होति अरहं सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च देसियति ओपसमिको परिनिब्बानिको सम्बोधगामी सुगतप्पवेदितो। अयञ्‍च पुग्गलो निरयं उपपन्‍नो होति। अयं पठमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, तथागतो च लोके उप्पन्‍नो होति अरहं सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च देसियति ओपसमिको परिनिब्बानिको सम्बोधगामी सुगतप्पवेदितो। अयञ्‍च पुग्गलो तिरच्छानयोनिं उपपन्‍नो होति। अयं दुतियो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।

‘‘पुन चपरं…पे॰… पेत्तिविसयं उपपन्‍नो होति। अयं ततियो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।

‘‘पुन चपरं…पे॰… असुरकायं उपपन्‍नो होति। अयं चतुत्थो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।

‘‘पुन चपरं…पे॰… अञ्‍ञतरं दीघायुकं देवनिकायं उपपन्‍नो होति। अयं पञ्‍चमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।

‘‘पुन चपरं…पे॰… पच्‍चन्तिमेसु जनपदेसु पच्‍चाजातो होति मिलक्खेसु [मिलक्खकेसु (स्या॰ कं॰) मिलक्खूसु (क॰)] अविञ्‍ञातारेसु, यत्थ नत्थि गति भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं। अयं छट्ठो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।

‘‘पुन चपरं…पे॰… मज्झिमेसु जनपदेसु पच्‍चाजातो होति। सो च होति मिच्छादिट्ठिको विपरीतदस्सनो – ‘नत्थि दिन्‍नं, नत्थि यिट्ठं, नत्थि हुतं, नत्थि सुकतदुक्‍कटानं [सुकट दुक्‍कटानं (सी॰ पी॰)] कम्मानं फलं विपाको, नत्थि अयं लोको, नत्थि परो लोको, नत्थि माता, नत्थि पिता, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि लोके समणब्राह्मणा सम्मग्गता सम्मापटिपन्‍ना ये इमञ्‍च लोकं परञ्‍च लोकं सयं अभिञ्‍ञा सच्छिकत्वा पवेदेन्ती’ति। अयं सत्तमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।

‘‘पुन चपरं…पे॰… मज्झिमेसु जनपदेसु पच्‍चाजातो होति। सो च होति दुप्पञ्‍ञो जळो एळमूगो, नप्पटिबलो सुभासितदुब्भासितानमत्थमञ्‍ञातुं। अयं अट्ठमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, तथागतो च लोके न [कत्थचि नकारो न दिस्सति] उप्पन्‍नो होति अरहं सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च न देसियति ओपसमिको परिनिब्बानिको सम्बोधगामी सुगतप्पवेदितो। अयञ्‍च पुग्गलो मज्झिमेसु जनपदेसु पच्‍चाजातो होति, सो च होति पञ्‍ञवा अजळो अनेळमूगो, पटिबलो सुभासित-दुब्भासितानमत्थमञ्‍ञातुं। अयं नवमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।

३४३. ‘‘नव अनुपुब्बविहारा। इधावुसो, भिक्खु विविच्‍चेव कामेहि विविच्‍च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्‍कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्‍ज विहरति। वितक्‍कविचारानं वूपसमा…पे॰… दुतियं झानं उपसम्पज्‍ज विहरति। पीतिया च विरागा…पे॰… ततियं झानं उपसम्पज्‍ज विहरति। सुखस्स च पहाना …पे॰… चतुत्थं झानं उपसम्पज्‍ज विहरति। सब्बसो रूपसञ्‍ञानं समतिक्‍कमा…पे॰… आकासानञ्‍चायतनं उपसम्पज्‍ज विहरति। सब्बसो आकासानञ्‍चायतनं समतिक्‍कम्म ‘अनन्तं विञ्‍ञाण’न्ति विञ्‍ञाणञ्‍चायतनं उपसम्पज्‍ज विहरति। सब्बसो विञ्‍ञाणञ्‍चायतनं समतिक्‍कम्म ‘नत्थि किञ्‍ची’ति आकिञ्‍चञ्‍ञायतनं उपसम्पज्‍ज विहरति। सब्बसो आकिञ्‍चञ्‍ञायतनं समतिक्‍कम्म नेवसञ्‍ञानासञ्‍ञायतनं उपसम्पज्‍ज विहरति। सब्बसो नेवसञ्‍ञानासञ्‍ञायतनं समतिक्‍कम्म सञ्‍ञावेदयितनिरोधं उपसम्पज्‍ज विहरति।

३४४. ‘‘नव अनुपुब्बनिरोधा। पठमं झानं समापन्‍नस्स कामसञ्‍ञा निरुद्धा होति। दुतियं झानं समापन्‍नस्स वितक्‍कविचारा निरुद्धा होन्ति। ततियं झानं समापन्‍नस्स पीति निरुद्धा होति। चतुत्थं झानं समापन्‍नस्स अस्सासपस्सास्सा निरुद्धा होन्ति। आकासानञ्‍चायतनं समापन्‍नस्स रूपसञ्‍ञा निरुद्धा होति। विञ्‍ञाणञ्‍चायतनं समापन्‍नस्स आकासानञ्‍चायतनसञ्‍ञा निरुद्धा होति। आकिञ्‍चञ्‍ञायतनं समापन्‍नस्स विञ्‍ञाणञ्‍चायतनसञ्‍ञा निरुद्धा होति। नेवसञ्‍ञानासञ्‍ञायतनं समापन्‍नस्स आकिञ्‍चञ्‍ञायतनसञ्‍ञा निरुद्धा होति। सञ्‍ञावेदयितनिरोधं समापन्‍नस्स सञ्‍ञा च वेदना च निरुद्धा होन्ति।

‘‘इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन नव धम्मा सम्मदक्खाता। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं…पे॰… अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं।

दसकं

३४५. ‘‘अत्थि खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन दस धम्मा सम्मदक्खाता। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं…पे॰… अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। कतमे दस?

‘‘दस नाथकरणा धम्मा। इधावुसो, भिक्खु सीलवा होति। पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति आचारगोचरसम्पन्‍नो, अणुमत्तेसु वज्‍जेसु भयदस्सावी समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु। यंपावुसो, भिक्खु सीलवा होति, पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति, आचारगोचरसम्पन्‍नो, अणुमत्तेसु वज्‍जेसु भयदस्सावी समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु। अयम्पि धम्मो नाथकरणो।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु बहुस्सुतो होति सुतधरो सुतसन्‍निचयो। ये ते धम्मा आदिकल्याणा मज्झेकल्याणा परियोसानकल्याणा सात्था सब्यञ्‍जना [सात्थं सब्यञ्‍जनं (सी॰ स्या॰ पी॰)] केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं अभिवदन्ति, तथारूपास्स धम्मा बहुस्सुता होन्ति [धता (क॰ सी॰ स्या॰ कं॰)] धाता वचसा परिचिता मनसानुपेक्खिता दिट्ठिया सुप्पटिविद्धा, यंपावुसो, भिक्खु बहुस्सुतो होति…पे॰… दिट्ठिया सुप्पटिविद्धा। अयम्पि धम्मो नाथकरणो।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु कल्याणमित्तो होति कल्याणसहायो कल्याणसम्पवङ्को। यंपावुसो, भिक्खु कल्याणमित्तो होति कल्याणसहायो कल्याणसम्पवङ्को। अयम्पि धम्मो नाथकरणो।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सुवचो होति सोवचस्सकरणेहि धम्मेहि समन्‍नागतो खमो पदक्खिणग्गाही अनुसासनिं। यंपावुसो, भिक्खु सुवचो होति…पे॰… पदक्खिणग्गाही अनुसासनिं। अयम्पि धम्मो नाथकरणो।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु यानि तानि सब्रह्मचारीनं उच्‍चावचानि किंकरणीयानि, तत्थ दक्खो होति अनलसो तत्रुपायाय वीमंसाय समन्‍नागतो, अलं कातुं अलं संविधातुं। यंपावुसो, भिक्खु यानि तानि सब्रह्मचारीनं…पे॰… अलं संविधातुं। अयम्पि धम्मो नाथकरणो।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु धम्मकामो होति पियसमुदाहारो, अभिधम्मे अभिविनये उळारपामोज्‍जो [उळारपामुज्‍जो (सी॰ पी॰), ओळारपामोज्‍जो (स्या॰ कं॰)]। यंपावुसो, भिक्खु धम्मकामो होति…पे॰… उळारपामोज्‍जो [उळारपामुज्‍जो (सी॰ पी॰), ओळारपामोज्‍जो (स्या॰ कं॰)]। अयम्पि धम्मो नाथकरणो।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सन्तुट्ठो होति इतरीतरेहि चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्‍चयभेसज्‍जपरिक्खारेहि। यंपावुसो, भिक्खु सन्तुट्ठो होति…पे॰… परिक्खारेहि। अयम्पि धम्मो नाथकरणो।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु आरद्धवीरियो विहरति अकुसलानं धम्मानं पहानाय कुसलानं धम्मानं उपसम्पदाय, थामवा दळ्हपरक्‍कमो अनिक्खित्तधुरो कुसलेसु धम्मेसु। यंपावुसो, भिक्खु आरद्धवीरियो विहरति…पे॰… अनिक्खित्तधुरो कुसलेसु धम्मेसु। अयम्पि धम्मो नाथकरणो।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सतिमा होति परमेन सतिनेपक्‍केन समन्‍नागतो चिरकतम्पि चिरभासितम्पि सरिता अनुस्सरिता। यंपावुसो, भिक्खु सतिमा होति…पे॰… सरिता अनुस्सरिता। अयम्पि धम्मो नाथकरणो।

‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु पञ्‍ञवा होति, उदयत्थगामिनिया पञ्‍ञाय समन्‍नागतो अरियाय निब्बेधिकाय सम्मादुक्खक्खयगामिनिया। यंपावुसो, भिक्खु पञ्‍ञवा होति…पे॰… सम्मादुक्खक्खयगामिनिया। अयम्पि धम्मो नाथकरणो।

३४६. दस कसिणायतनानि। पथवीकसिणमेको सञ्‍जानाति, उद्धं अधो तिरियं अद्वयं अप्पमाणं। आपोकसिणमेको सञ्‍जानाति…पे॰… तेजोकसिणमेको सञ्‍जानाति… वायोकसिणमेको सञ्‍जानाति… नीलकसिणमेको सञ्‍जानाति… पीतकसिणमेको सञ्‍जानाति… लोहितकसिणमेको सञ्‍जानाति… ओदातकसिणमेको सञ्‍जानाति… आकासकसिणमेको सञ्‍जानाति… विञ्‍ञाणकसिणमेको सञ्‍जानाति, उद्धं अधो तिरियं अद्वयं अप्पमाणं।

३४७. ‘‘दस अकुसलकम्मपथा – पाणातिपातो, अदिन्‍नादानं, कामेसुमिच्छाचारो, मुसावादो, पिसुणा वाचा, फरुसा वाचा, सम्फप्पलापो, अभिज्झा, ब्यापादो, मिच्छादिट्ठि।

‘‘दस कुसलकम्मपथा – पाणातिपाता वेरमणी, अदिन्‍नादाना वेरमणी, कामेसुमिच्छाचारा वेरमणी, मुसावादा वेरमणी, पिसुणाय वाचाय वेरमणी, फरुसाय वाचाय वेरमणी, सम्फप्पलापा वेरमणी, अनभिज्झा, अब्यापादो, सम्मादिट्ठि।

३४८. ‘‘दस अरियवासा। इधावुसो, भिक्खु पञ्‍चङ्गविप्पहीनो होति, छळङ्गसमन्‍नागतो, एकारक्खो, चतुरापस्सेनो, पणुन्‍नपच्‍चेकसच्‍चो, समवयसट्ठेसनो, अनाविलसङ्कप्पो, पस्सद्धकायसङ्खारो, सुविमुत्तचित्तो, सुविमुत्तपञ्‍ञो।

‘‘कथञ्‍चावुसो, भिक्खु पञ्‍चङ्गविप्पहीनो होति? इधावुसो, भिक्खुनो कामच्छन्दो पहीनो होति, ब्यापादो पहीनो होति, थिनमिद्धं पहीनं होति, उद्धच्‍चकुकुच्‍चं पहीनं होति, विचिकिच्छा पहीना होति। एवं खो, आवुसो, भिक्खु पञ्‍चङ्गविप्पहीनो होति।

‘‘कथञ्‍चावुसो, भिक्खु छळङ्गसमन्‍नागतो होति? इधावुसो, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। सोतेन सद्दं सुत्वा…पे॰… मनसा धम्मं विञ्‍ञाय नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। एवं खो, आवुसो, भिक्खु छळङ्गसमन्‍नागतो होति।

‘‘कथञ्‍चावुसो, भिक्खु एकारक्खो होति? इधावुसो, भिक्खु सतारक्खेन चेतसा समन्‍नागतो होति। एवं खो, आवुसो, भिक्खु एकारक्खो होति।

‘‘कथञ्‍चावुसो, भिक्खु चतुरापस्सेनो होति? इधावुसो, भिक्खु सङ्खायेकं पटिसेवति, सङ्खायेकं अधिवासेति, सङ्खायेकं परिवज्‍जेति, सङ्खायेकं विनोदेति। एवं खो, आवुसो, भिक्खु चतुरापस्सेनो होति।

‘‘कथञ्‍चावुसो, भिक्खु पणुन्‍नपच्‍चेकसच्‍चो होति? इधावुसो, भिक्खुनो यानि तानि पुथुसमणब्राह्मणानं पुथुपच्‍चेकसच्‍चानि, सब्बानि तानि नुन्‍नानि होन्ति पणुन्‍नानि चत्तानि वन्तानि मुत्तानि पहीनानि पटिनिस्सट्ठानि। एवं खो, आवुसो, भिक्खु पणुन्‍नपच्‍चेकसच्‍चो होति।

‘‘कथञ्‍चावुसो, भिक्खु समवयसट्ठेसनो होति? इधावुसो, भिक्खुनो कामेसना पहीना होति, भवेसना पहीना होति, ब्रह्मचरियेसना पटिप्पस्सद्धा। एवं खो, आवुसो, भिक्खु समवयसट्ठेसनो होति।

‘‘कथञ्‍चावुसो, भिक्खु अनाविलसङ्कप्पो होति? इधावुसो, भिक्खुनो कामसङ्कप्पो पहीनो होति, ब्यापादसङ्कप्पो पहीनो होति, विहिंसासङ्कप्पो पहीनो होति। एवं खो, आवुसो, भिक्खु अनाविलसङ्कप्पो होति।

‘‘कथञ्‍चावुसो, भिक्खु पस्सद्धकायसङ्खारो होति? इधावुसो, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्‍ज विहरति। एवं खो, आवुसो, भिक्खु पस्सद्धकायसङ्खारो होति।

‘‘कथञ्‍चावुसो, भिक्खु सुविमुत्तचित्तो होति? इधावुसो, भिक्खुनो रागा चित्तं विमुत्तं होति, दोसा चित्तं विमुत्तं होति, मोहा चित्तं विमुत्तं होति। एवं खो, आवुसो, भिक्खु सुविमुत्तचित्तो होति।

‘‘कथञ्‍चावुसो, भिक्खु सुविमुत्तपञ्‍ञो होति? इधावुसो, भिक्खु ‘रागो मे पहीनो उच्छिन्‍नमूलो तालावत्थुकतो अनभावंकतो आयतिं अनुप्पादधम्मो’ति पजानाति। ‘दोसो मे पहीनो उच्छिन्‍नमूलो तालावत्थुकतो अनभावंकतो आयतिं अनुप्पादधम्मो’ति पजानाति। ‘मोहो मे पहीनो उच्छिन्‍नमूलो तालावत्थुकतो अनभावंकतो आयतिं अनुप्पादधम्मो’ति पजानाति। एवं खो, आवुसो, भिक्खु सुविमुत्तपञ्‍ञो होति।

‘‘दस असेक्खा धम्मा – असेक्खा सम्मादिट्ठि, असेक्खो सम्मासङ्कप्पो, असेक्खा सम्मावाचा, असेक्खो सम्माकम्मन्तो, असेक्खो सम्माआजीवो, असेक्खो सम्मावायामो, असेक्खा सम्मासति, असेक्खो सम्मासमाधि, असेक्खं सम्माञाणं, असेक्खा सम्माविमुत्ति।

‘‘इमे खो, आवुसो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन दस धम्मा सम्मदक्खाता। तत्थ सब्बेहेव सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान’’न्ति।

३४९. अथ खो भगवा उट्ठहित्वा आयस्मन्तं सारिपुत्तं आमन्तेसि – ‘साधु साधु, सारिपुत्त, साधु खो त्वं, सारिपुत्त, भिक्खूनं सङ्गीतिपरियायं अभासी’ति। इदमवोचायस्मा सारिपुत्तो, समनुञ्‍ञो सत्था अहोसि। अत्तमना ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं अभिनन्दुन्ति।

सङ्गीतिसुत्तं निट्ठितं दसमं।