यह सुत्त पिछले संगीति सुत्त के साथ मिलकर दीर्घ निकाय का “अंगुत्तर” अंदाज से समापन करते हैं। यह पिछले सुत्त के ही समान है, जो अपनी सूचियों को घटक संख्या के अनुसार एक से दस तक सूचीबद्ध करता है, मानो एक छोटा-सा अंगुत्तरनिकाय ही हो। इसमें पिछले सुत्त के समान बहुत-सी बातें शामिल है, और इसका अंत भी उसी बात पर होता है। फिर भी यह सुत्त पिछले सुत्त से इस मायने में अलग है कि यह अपनी सूचियों को दस विशेष श्रेणियों में रखता है —
चार आर्यसत्य के चार कर्तव्य होते हैं — दुःख को “समझना”, दुःख की उत्पत्ति को “त्यागना”, दुःख की समाप्ति को “सिद्ध करना”, और दुःख समाप्ति के मार्ग की “साधना करना”।
इस सूत्र की दसों श्रेणियाँ इन्हीं चार कर्तव्यों से जुड़ी हुई हैं। जैसे (१) उपकारक धर्म, (२) साधना कर विकसित किए जाने चाहिए ऐसे धर्म, (३) विशिष्टता लाते धर्म, (४) उत्पन्न किए जाने चाहिए ऐसे धर्म, और (५) प्रत्यक्ष रूप से ज्ञात होने चाहिए ऐसे धर्म — सभी “साधना करने” के कर्तव्य के तहत आते हैं। जबकि (६) ऐसे धर्म पूरी तरह उसके अंतिम छोर तक समझे जाने चाहिए, और (७) वे धर्म जो समझने में कठिन हैं — सभी “समझने” के कर्तव्य के तहत आते हैं।
तीसरी ओर, (८) वे धर्म जो त्यागे जाने चाहिए, और (९) वे धर्म जो नुकसान कराते हैं — सभी “त्यागने” के कर्तव्य के तहत आते हैं। और आखिरकार, ऐसे धर्म जिनका साक्षात्कार किया जाना चाहिए, “सिद्ध करने” के कर्तव्य में आता है। हालांकि कई सूचियाँ इस श्रेणी में ऐसी हैं जो केवल मोक्ष, विमुक्ति या समाप्ति तक सीमित नहीं, बल्कि चरणबद्ध प्रक्रियाएँ भी शामिल करती हैं, जो दरअसल “साधना” के तहत आती है।
यह सुत्त पिछले सुत्त से भिन्न भी है, क्योंकि इसमें विनयपिटक से कोई बात शामिल नहीं है। इस सुत्त का विश्लेषण करना कठिन है। इसका संरचित रूप संकेत देता है कि यह किसी एक संकलक [सारिपुत्त भंते] या एक पीढ़ी के संकलकों द्वारा तैयार किया गया हो। हालाँकि इस सूत्र का संकलन भगवान के समय हुआ अथवा उनके परिनिर्वाण के पश्चात, यह ज्ञात नहीं होता, लेकिन इससे हमें प्राचीन भिक्षुसंघ के दृष्टिकोण की एक दिलचस्प झलक मिलती है। उस समय यह सबसे महत्वपूर्ण शिक्षाओं में से एक मानी जाती थीं, जो भिक्षुओं की अपनी साधना के लिए, उपासक वर्ग को धर्म बताने के लिए, और आगामी श्रमण पीढ़ियों को सौंपने के लिए याद रखना आवश्यक माना जाता था। तो आइए, पढ़ते हैं आखिरी लंबा सुत्त।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ चम्पा के गग्गरा पुष्करणी [=कमलपुष्प का तालाब] के किनारे विहार कर रहे थे। वहाँ आयुष्मान सारिपुत्त ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “मित्र भिक्षुओं।”
“मित्र!” भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त को उत्तर दिया। आयुष्मान सारिपुत्त ने कहा:
एक धर्म बहुत उपकारक है, मित्रों। एक धर्म की साधना करनी चाहिए। एक धर्म को पूरी तरह [परिज्ञा तक] समझना चाहिए। एक धर्म को त्यागना चाहिए। एक धर्म हानिकारक है। एक धर्म विशिष्टता लाता है। एक धर्म समझने में कठिन है। एक धर्म को पैदा करना चाहिए। एक धर्म को प्रत्यक्ष जानना चाहिए। एक धर्म का साक्षात्कार करना चाहिए।
• कौन-सा एक धर्म बहुत उपकारक है? कुशल स्वभावों में अप्रमाद [=लापरवाह नहीं होना।] यह एक धर्म बहुत उपकारक है।
• कौन-से एक धर्म की साधना करनी चाहिए? काया के प्रति स्मृति, आनन्द [=या राहत] के साथ। इस एक धर्म की साधना करनी चाहिए।
• कौन-से धर्म को पूरी तरह समझना चाहिए? स्पर्श — आस्रव के साथ, आसक्ति [“उपादान”] पूर्ण। इस एक धर्म को पूरी तरह समझना चाहिए।
• कौन-से एक धर्म को त्यागना चाहिए? ‘मैं हूँ’ अहंभाव। इस एक धर्म को त्यागना चाहिए।
• कौन-सा एक धर्म हानिकारक है? अनुचित चिंतन [=गलत जगह ध्यान देना]। यह एक धर्म हानिकारक है।
• कौन-सा एक धर्म विशिष्टता लाता है? उचित चिंतन [=सही जगह ध्यान देना]। यह एक धर्म विशिष्टता लाता है।
• कौन-सा एक धर्म समझने में कठिन है? निरंतर चेतोसमाधि। 1 यह एक धर्म समझने में कठिन है।
• कौन-से एक धर्म को पैदा करना चाहिए? अटल [“अकुप्प”] ज्ञान। इस एक धर्म को पैदा करना चाहिए।
• कौन-से एक धर्म को प्रत्यक्ष जानना चाहिए? सभी सत्व आहार पर टिके हैं। इस एक धर्म को प्रत्यक्ष जानना चाहिए।
• कौन-से एक धर्म का साक्षात्कार करना चाहिए? अटल [“अकुप्प”] चेतोविमुक्ति। इस एक धर्म का साक्षात्कार करना चाहिए।
ये दस धर्म तथागत द्वारा सम्यक रूप से अभिबोध किए गए हैं, जो वास्तविक, सच्चे, और तथ्यपूर्ण हैं; तथ्यहीन या अन्यथा नहीं।
दो धर्म बहुत उपकारक हैं, मित्रों। दो धर्मों की साधना करनी चाहिए। दो धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए। दो धर्मों को त्यागना चाहिए। दो धर्म हानिकारक हैं। दो धर्म विशिष्टता लाते हैं। दो धर्म समझने में कठिन हैं। दो धर्मों को पैदा करना चाहिए। दो धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए। दो धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
• कौन-से दो धर्म बहुत उपकारक हैं? स्मृति और सचेतता। ये दो धर्म बहुत उपकारक हैं।
• कौन-से दो धर्मों की साधना करनी चाहिए? निश्चलता [“समथ”] और अंतर्दृष्टि [“विपस्सना”]। ये दो धर्मों की साधना करनी चाहिए।
• कौन-से दो धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए? नाम और रूप। इन दो धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए।
• कौन-से दो धर्मों को त्यागना चाहिए? अविद्या और भव-तृष्णा। इन दो धर्मों को त्यागना चाहिए।
• कौन-से दो धर्म हानिकारक हैं? मुंहजोरी [“दोवचस्सता” =ढीठता, नहीं सुनना] और पाप-मित्रता। ये दो धर्म हानिकारक हैं।
• कौन-से दो धर्म विशिष्टता लाते हैं? आज्ञाकारिता [“सोवचस्सता” =विनम्रता, सुन लेना] और कल्याण-मित्रता। ये दो धर्म विशिष्टता लाते हैं।
• कौन-से दो धर्म समझने में कठिन हैं? सत्वों के मलिनता के कारण और परिस्थितियाँ और सत्वों के विशुद्धि के कारण और परिस्थितियाँ। ये दो धर्म समझने में कठिन हैं।
• कौन-से दो धर्मों को पैदा करना चाहिए? दो ज्ञान — क्षय [=आस्रव खत्म होना] ज्ञान और अनुत्पाद [=खत्म होने पर फिर उत्पन्न न होना] ज्ञान। इन दो धर्मों को पैदा करना चाहिए।
• कौन-से दो धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए? दो धातु — रचित [“सङ्खत”] धातु और अरचित [“असङ्खत”] धातु। इन दो धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए।
• कौन-से दो धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए? विद्या और विमुक्ति। इन दो धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
ये बीस धर्म तथागत द्वारा सम्यक रूप से अभिबोध किए गए हैं, जो वास्तविक, सच्चे, और तथ्यपूर्ण हैं; तथ्यहीन या अन्यथा नहीं।
तीन धर्म बहुत उपकारक हैं, मित्रों। तीन धर्मों की साधना करनी चाहिए। तीन धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए। तीन धर्मों को त्यागना चाहिए। तीन धर्म हानिकारक हैं। तीन धर्म विशिष्टता लाते हैं। तीन धर्म समझने में कठिन हैं। तीन धर्मों को पैदा करना चाहिए। तीन धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए। तीन धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
• कौन-से तीन धर्म बहुत उपकारक हैं? सत्पुरुष से संगति, सद्धर्म सुनना, धर्मानुसार धर्म की साधना करना। ये तीन धर्म बहुत उपकारक हैं।
• कौन-से तीन धर्मों की साधना करनी चाहिए? तीन समाधि हैं — [“वितक्क विचार”] विषय और चिंतन के साथ समाधि, विषय-रहित और सीमित-चिंतन के साथ समाधि, विषय-रहित और चिंतन-रहित समाधि। इन तीन धर्मों की साधना करनी चाहिए। 2
• कौन-से तीन धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए? तीन संवेदना हैं — सुखद संवेदना, दुखद संवेदना, न-दुखद न-सुखद संवेदना। इन तीन धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए।
• कौन-से तीन धर्मों को त्यागना चाहिए? तीन तृष्णा हैं — काम तृष्णा, भव तृष्णा, विभव तृष्णा। इन तीन धर्मों को त्यागना चाहिए।
• कौन-से तीन धर्म हानिकारक हैं? तीन अकुशल मूल [=बुराइयों की जड़] हैं — लोभ अकुशल मूल, द्वेष अकुशल मूल, मोह [=भ्रम] अकुशल मूल। ये तीन धर्म हानिकारक हैं।
• कौन-से तीन धर्म विशिष्टता लाते हैं? तीन कुशल मूल [=अच्छाईयों की जड़] हैं — अलोभ कुशल मूल, अद्वेष कुशल मूल, अमोह अकुशल मूल। ये तीन धर्म विशिष्टता लाते हैं।
• कौन-से तीन धर्म समझने में कठिन हैं? तीन निस्सरण [=निकास, निकलने का मार्ग] धातुएँ हैं — कामुकता का निस्सरण निष्काम [=संन्यास], रूप का निस्सरण अरूप, और जो भी बना है, रचित है, आधारपूर्ण सहउत्पन्न है, उसका निस्सरण निरोध। ये तीन धर्म समझने में कठिन हैं।
• कौन-से तीन धर्मों को पैदा करना चाहिए? तीन ज्ञान हैं — अतीत का ज्ञान, भविष्य का ज्ञान, वर्तमान का ज्ञान। इन तीन धर्मों को पैदा करना चाहिए।
• कौन-से तीन धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए? तीन धातु हैं — काम-धातु, रूप-धातु, अरूप-धातु। इन तीन धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए।
• कौन-से तीन धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए? तीन विद्या हैं — पूर्वजन्मों का स्मरणज्ञान विद्या, सत्वों का गतिज्ञान विद्या, आस्रव क्षयज्ञान विद्या। इन तीन धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
ये तीस धर्म तथागत द्वारा सम्यक रूप से अभिबोध किए गए हैं, जो वास्तविक, सच्चे, और तथ्यपूर्ण हैं; तथ्यहीन या अन्यथा नहीं।
चार धर्म बहुत उपकारक हैं, मित्रों। चार धर्मों की साधना करनी चाहिए। चार धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए। चार धर्मों को त्यागना चाहिए। चार धर्म हानिकारक हैं। चार धर्म विशिष्टता लाते हैं। चार धर्म समझने में कठिन हैं। चार धर्मों को पैदा करना चाहिए। चार धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए। चार धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
• कौन-से चार धर्म बहुत उपकारक हैं? चार चक्र हैं — अनुकूल प्रदेश में निवास, सत्पुरुष का आधार, स्वयं का सम्यक निश्चय, पहले पुण्यों का किया होना। ये चार धर्म बहुत उपकारक हैं।
कौन-से चार धर्मों की साधना करनी चाहिए? चार स्मृतिप्रस्थान हैं — यहाँ कोई भिक्षु दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, काया को काया देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। वह दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। वह दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, चित्त को चित्त देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। वह दुनिया के प्रति लालसा या नाराज़ी हटाकर, स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहता है — तत्पर, सचेत और स्मरणशील। इन चार धर्मों की साधना करनी चाहिए।
कौन-से चार धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए? चार आहार हैं — ठोस आहार [“कबळीकार” =निवाले बना-बनाकर खाने योग्य], चाहे स्थूल हो या सूक्ष्म, दूसरा संस्पर्श [=इंद्रियों का उनके विषय से टकराना], तीसरा मनोसंचेतना, और चौथा चैतन्य। इन चार धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए।
कौन-से चार धर्मों को त्यागना चाहिए? चार बाढ़ हैं — कामुकता की बाढ़, भव की बाढ़, दृष्टि की बाढ़, अविद्या की बाढ़। इन चार धर्मों को त्यागना चाहिए।
कौन-से चार धर्म हानिकारक हैं? चार योक [=जुगल, दास चिन्ह] हैं — कामुकता का योक, भव का योक, दृष्टि का योक, अविद्या का योक। ये चार धर्म हानिकारक हैं।
कौन-से चार धर्म विशिष्टता लाते हैं? चार वियोक [=योक हटना, मुक्ति चिन्ह] हैं — कामुकता का योक वियोक होना, भव का योक वियोक होना, दृष्टि का योक वियोक होना, अविद्या का योक वियोक होना। ये चार धर्म विशिष्टता लाते हैं।
कौन-से चार धर्म समझने में कठिन हैं? चार समाधि हैं — हानिकारक समाधि, स्थिर कराती समाधि, विशिष्टता लाती समाधि, भेदन कराती समाधि। ये चार धर्म समझने में कठिन हैं।
कौन-से चार धर्मों को पैदा करना चाहिए? चार ज्ञान हैं — धर्म ज्ञान, अनुमान ज्ञान, पराए चित्त का ज्ञान, पारंपरिक ज्ञान। इन चार धर्मों को पैदा करना चाहिए।
कौन-से चार धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए? चार आर्यसत्य हैं — दुःख आर्यसत्य, दुःख उत्पत्ति आर्यसत्य, दुःख निरोध आर्यसत्य, दुःख निरोधकर्ता मार्ग आर्यसत्य। इन चार धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए।
कौन-से चार धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए? चार श्रामण्यफल हैं — श्रोतापतिफल, सकृदागामिफल, आनागामिफल, अरहतफल। इन चार धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
ये चालीस धर्म तथागत द्वारा सम्यक रूप से अभिबोध किए गए हैं, जो वास्तविक, सच्चे, और तथ्यपूर्ण हैं; तथ्यहीन या अन्यथा नहीं।
पाँच धर्म बहुत उपकारक हैं, मित्रों। पाँच धर्मों की साधना करनी चाहिए। पाँच धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए। पाँच धर्मों को त्यागना चाहिए। पाँच धर्म हानिकारक हैं। पाँच धर्म विशिष्टता लाते हैं। पाँच धर्म समझने में कठिन हैं। पाँच धर्मों को पैदा करना चाहिए। पाँच धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए। पाँच धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
• कौन-से पाँच धर्म बहुत उपकारक हैं? पाँच परिश्रम के अंग हैं — (१) कोई भिक्षु श्रद्धालु होता है। वह तथागत के बोधि पर श्रद्धा करता है, ‘वाकई भगवान ही अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है—विद्या और आचरण से संपन्न, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान!’ (२) वह कम ही बीमार पड़ता है, निरोगी रहता है, पाचनक्रिया सम रहती है — न बहुत शीतल, न बहुत उष्ण, बल्कि मध्यम, प्रयास करने के लिए अनुकूल। (३) वह ढोंगी या पाखंडी नहीं होता। बल्कि वह स्वयं को शास्ता, समझदार, या सब्रह्मचारियों के आगे जैसा यथार्थ में हो, वैसा ही प्रकट करता है। (४) वह ऊर्जा बढ़ाकर विहार करता है। अकुशल स्वभावों को त्यागने और कुशल स्वभावों को धारण करने के लिए निश्चयबद्ध, दृढ़, और पराक्रमी बने रहता है। कुशल धर्मों के प्रति कर्तव्यों से जी नहीं चुराता। (५) वह प्रज्ञावान [=अंतर्ज्ञानी] होता है। वह ऐसे आर्य और भेदक अन्तर्ज्ञान से संपन्न होता है, जो उदय और अस्त होना समझ सके, और दुःखों के सम्यक-अंत की ओर ले जाए। ये पाँच धर्म बहुत उपकारक हैं।
• कौन-से पाँच धर्मों की साधना करनी चाहिए? पाँच सम्यक-समाधि के अंग हैं — प्रफुल्लता से व्याप्त, सुख से व्याप्त, चेतस से व्याप्त, उजाले से व्याप्त, चिंतनशीलता का लक्षण। 3 इन पाँच धर्मों की साधना करनी चाहिए।
• कौन-से पाँच धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए? पाँच उपादान-स्कंध [=आसक्तियों का ढ़ेर] हैं — रूप आसक्ति-ढ़ेर, संवेदना आसक्ति-ढ़ेर, नजरिया आसक्ति-ढ़ेर, रचना आसक्ति-ढ़ेर, चैतन्य आसक्ति-ढ़ेर। इन पाँच धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए।
• कौन-से पाँच धर्मों को त्यागना चाहिए? पाँच नीवरण [=व्यवधान, रुकावट] हैं — कामेच्छा व्यवधान, दुर्भावना व्यवधान, सुस्ती-तंद्रा व्यवधान, बेचैनी-पश्चाताप व्यवधान, अनिश्चितता [=उलझन] व्यवधान। इन पाँच धर्मों को त्यागना चाहिए।
• कौन-से पाँच धर्म हानिकारक हैं? पाँच चेतस के कील हैं — (१) मित्रों, किसी भिक्षु को शास्ता के प्रति शंका होती है, उलझन होती है। न वह दुविधा से छूटा होता है, न ही आश्वस्त। जब ऐसा हो तो उसका चित्त न तत्परता के लिए झुकता है, न संकल्पबद्धता के लिए, न निरंतर लगन के लिए, न प्रयास के लिए। यह प्रथम चेतस कील है। (२) आगे, उसे धर्म के प्रति शंका… (३) आगे, उसे संघ के प्रति शंका… (४) आगे, उसे शिक्षा [=साधना] के प्रति शंका… (५) आगे, वह सब्रह्मचारियों के प्रति कुपित और नाखुश होता है, आहत हृदय का और खिन्न। जब ऐसा हो तो उसका चित्त न तत्परता के लिए झुकता है, न संकल्पबद्धता के लिए, न निरंतर लगन के लिए, न प्रयास के लिए। यह पाँचवा चेतस कील है। 4 ये पाँच धर्म हानिकारक हैं।
• कौन-से पाँच धर्म विशिष्टता लाते हैं? पाँच इंद्रिय हैं — श्रद्धा इंद्रिय, ऊर्जा इंद्रिय, स्मृति इंद्रिय, समाधि इंद्रिय, प्रज्ञा इंद्रिय। ये पाँच धर्म विशिष्टता लाते हैं।
• कौन-से पाँच धर्म समझने में कठिन हैं? पाँच निस्सरण [=बच निकलने के] धातु हैं।
(१) मित्रों, कोई भिक्षु जब कामुकता पर गौर करता है, तो उसका चित्त कामुकता के लिए न उछलता है, न खिलता है, न ठहरता है, न ही आज़ादी महसूस करता है। किन्तु जब वह निष्काम [=संन्यास] पर गौर करता है, तो उसका चित्त निष्काम के लिए उछलता है, खिलता है, ठहरता है, आज़ादी महसूस करता है। उसका चित्त अच्छी अवस्था में है, अच्छे से विकसित, अच्छे से उठा हुआ, अच्छे से विमुक्त; कामुकता से संलग्न नहीं। तब कामुकता के वजह से उपजने वाले जो आस्रव है, बर्बाद करने वाले, तड़पाने वाले, वह उनसे मुक्त होता है, उस वेदना को महसूस नहीं करता। इसे कामुकता से बच निकलना बताया जाता है।
(२) आगे, कोई भिक्षु जब दुर्भावना पर गौर करता है, तो उसका चित्त दुर्भावना के लिए न उछलता है, न खिलता है, न ठहरता है, न ही आज़ादी महसूस करता है। किन्तु जब वह दुर्भावना-रहित पर गौर करता है, तो उसका चित्त दुर्भावना-रहित के लिए उछलता है, खिलता है, ठहरता है, आज़ादी महसूस करता है। उसका चित्त अच्छी अवस्था में है, अच्छे से विकसित, अच्छे से उठा हुआ, अच्छे से विमुक्त; दुर्भावना से संलग्न नहीं। तब दुर्भावना के वजह से उपजने वाले जो आस्रव है, बर्बाद करने वाले, तड़पाने वाले, वह उनसे मुक्त होता है, उस वेदना को महसूस नहीं करता। इसे दुर्भावना से बच निकलना बताया जाता है।
(३) आगे, कोई भिक्षु जब हिंसा पर गौर करता है, तो उसका चित्त हिंसा के लिए न उछलता है, न खिलता है, न ठहरता है, न ही आज़ादी महसूस करता है। किन्तु जब वह अहिंसा पर गौर करता है, तो उसका चित्त अहिंसा के लिए उछलता है, खिलता है, ठहरता है, आज़ादी महसूस करता है। उसका चित्त अच्छी अवस्था में है, अच्छे से विकसित, अच्छे से उठा हुआ, अच्छे से विमुक्त; हिंसा से संलग्न नहीं। तब हिंसा के वजह से उपजने वाले जो आस्रव है, बर्बाद करने वाले, तड़पाने वाले, वह उनसे मुक्त होता है, उस वेदना को महसूस नहीं करता। इसे हिंसा से बच निकलना बताया जाता है।
(४) आगे, कोई भिक्षु जब रूप पर गौर करता है, तो उसका चित्त रूप के लिए न उछलता है, न खिलता है, न ठहरता है, न ही आज़ादी महसूस करता है। किन्तु जब वह अरूप पर गौर करता है, तो उसका चित्त अरूप के लिए उछलता है, खिलता है, ठहरता है, आज़ादी महसूस करता है। उसका चित्त अच्छी अवस्था में है, अच्छे से विकसित, अच्छे से उठा हुआ, अच्छे से विमुक्त; रूप से संलग्न नहीं। तब रूप के वजह से उपजने वाले जो आस्रव है, बर्बाद करने वाले, तड़पाने वाले, वह उनसे मुक्त होता है, उस वेदना को महसूस नहीं करता। इसे रूप से बच निकलना बताया जाता है।
(५) आगे, कोई भिक्षु जब आत्मीयता [“सक्काय”] पर गौर करता है, तो उसका चित्त आत्मीयता के लिए न उछलता है, न खिलता है, न ठहरता है, न ही आज़ादी महसूस करता है। किन्तु जब वह आत्मीयता-निरोध पर गौर करता है, तो उसका चित्त आत्मीयता-निरोध के लिए उछलता है, खिलता है, ठहरता है, आज़ादी महसूस करता है। उसका चित्त अच्छी अवस्था में है, अच्छे से विकसित, अच्छे से उठा हुआ, अच्छे से विमुक्त; आत्मीयता से संलग्न नहीं। तब आत्मीयता के वजह से उपजने वाले जो आस्रव है, बर्बाद करने वाले, तड़पाने वाले, वह उनसे मुक्त होता है, उस वेदना को महसूस नहीं करता। इसे आत्मीयता से बच निकलना बताया जाता है। 5
ये पाँच धर्म समझने में कठिन हैं।
• कौन-से पाँच धर्मों को पैदा करना चाहिए? पाँच ज्ञान से जुड़ी सम्यक-समाधि हैं — (१) ‘यह समाधि अभी वर्तमान में सुखद है, भविष्य में भी सुखद फल देगी!’, ऐसा ज्ञान उसे स्वयं उत्पन्न होता है। (२) ‘यह समाधि आर्य है, निरामिष [=अ-भौतिक, आध्यात्मिक] है!’, ऐसा ज्ञान उसे स्वयं उत्पन्न होता है। (३) ‘यह समाधि नीच लोगों को प्राप्त नहीं होती!’, ऐसा ज्ञान उसे स्वयं उत्पन्न होता है। (४) ‘यह समाधि शांत है, उत्तम है, प्रशांति अर्जित कराती है, एकाग्रता लाती है, मात्र दबावपूर्ण संयम से ही बनी नहीं रहती!’, ऐसा ज्ञान उसे स्वयं उत्पन्न होता है। (५) ‘इस समाधि में स्मृतिमान होकर प्रवेश पाता हूँ, और स्मृतिमान होकर बाहर निकलता हूँ!’, ऐसा ज्ञान उसे स्वयं उत्पन्न होता है। इन पाँच धर्मों को पैदा करना चाहिए।
• कौन-से पाँच धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए? पाँच विमुक्ति आयाम हैं।
(१) मित्रों, भिक्षु को शास्ता या कोई आदरणीय सब्रह्मचारी धर्म बताता है। जैसे-जैसे भिक्षु को शास्ता या कोई आदरणीय सब्रह्मचारी धर्म बताता है, वैसे-वैसे उसे धर्म का अर्थ अनुभव होता है, [साक्षात] धर्म अनुभव होता है। अर्थ अनुभव कर, धर्म अनुभव कर, उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित [=एकाग्र+स्थिर] हो जाता है। यह पहला विमुक्ति आयाम है।
(२) आगे, भिक्षु को न शास्ता, न कोई आदरणीय सब्रह्मचारी ही धर्म बताता है। बल्कि जिस तरह उसने धर्म सुना हो, जिस तरह धर्माभ्यास किया हो, उसे दूसरों को विस्तार से बताता है। जैसे-जैसे… वह दूसरों को विस्तार से बताता है, वैसे-वैसे उसे धर्म का अर्थ अनुभव होता है, धर्म अनुभव होता है। अर्थ अनुभव कर, धर्म अनुभव कर, उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित हो जाता है। यह दूसरा विमुक्ति आयाम है।
(३) आगे, भिक्षु को न शास्ता, न कोई आदरणीय सब्रह्मचारी ही धर्म बताता है, न ही वह… दूसरों को बताता है। बल्कि जिस तरह उसने धर्म सुना हो, जिस तरह धर्माभ्यास किया हो, उसका स्वयं विस्तार से अध्ययन करता है। जैसे-जैसे… वह स्वयं विस्तार से अध्ययन करता है, वैसे-वैसे उसे धर्म का अर्थ अनुभव होता है, धर्म अनुभव होता है। अर्थ अनुभव कर, धर्म अनुभव कर, उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित हो जाता है। यह तीसरा विमुक्ति आयाम है।
(४) आगे, भिक्षु को न शास्ता, न कोई आदरणीय सब्रह्मचारी ही धर्म बताता है, न ही वह… दूसरों को बताता है, न ही स्वयं विस्तार से अध्ययन करता है। बल्कि जिस तरह उसने धर्म सुना हो, जिस तरह धर्माभ्यास किया हो, हृदय से सोच-विचार करता है, चिंतन करता है, मन से जाँच-पड़ताल करता है। जैसे-जैसे… वह हृदय से सोच-विचार करता है, चिंतन करता है, मन से जाँच-पड़ताल करता है, वैसे-वैसे उसे धर्म का अर्थ अनुभव होता है, धर्म अनुभव होता है। अर्थ अनुभव कर, धर्म अनुभव कर, उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित हो जाता है। यह चौथा विमुक्ति आयाम है।
(५) आगे, भिक्षु को न शास्ता, न कोई आदरणीय सब्रह्मचारी ही धर्म बताता है, न ही वह… दूसरों को बताता है, न स्वयं विस्तार से अध्ययन करता है, न ही हृदय से सोच-विचार, चिंतन, मन से जाँच-पड़ताल करता है। बल्कि उसे कोई एक समाधि-निमित्त अच्छे से ग्रहण होता है, अच्छे से ध्यान लगता है, अच्छे से धारण होता है, अन्तर्ज्ञान से अच्छा भेदन होता है। जैसे-जैसे उसे समाधि-निमित्त अच्छे से ग्रहण होता है, अच्छे से ध्यान लगता है, अच्छे से धारण होता है, अन्तर्ज्ञान से अच्छा भेदन होता है, वैसे-वैसे उसे धर्म का अर्थ अनुभव होता है, धर्म अनुभव होता है। अर्थ अनुभव कर, धर्म अनुभव कर, उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित हो जाता है। यह पाँचवा विमुक्ति आयाम है।
इन पाँच धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए।
• कौन-से पाँच धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए? पाँच धर्म स्कंध [=समूह] हैं — शील स्कंध, समाधि स्कंध, प्रज्ञा स्कंध, विमुक्ति स्कंध, विमुक्ति ज्ञान-दर्शन स्कंध। इन पाँच धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
ये पचास धर्म तथागत द्वारा सम्यक रूप से अभिबोध किए गए हैं, जो वास्तविक, सच्चे, और तथ्यपूर्ण हैं; तथ्यहीन या अन्यथा नहीं।
छह धर्म बहुत उपकारक हैं, मित्रों। छह धर्मों की साधना करनी चाहिए। छह धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए। छह धर्मों को त्यागना चाहिए। छह धर्म हानिकारक हैं। छह धर्म विशिष्टता लाते हैं। छह धर्म समझने में कठिन हैं। छह धर्मों को पैदा करना चाहिए। छह धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए। छह धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
• कौन-से छह धर्म बहुत उपकारक हैं? छह स्नेहभाव धर्म हैं।
(१) यहाँ, मित्रों, कोई भिक्षु सब्रह्मचारियों के प्रति सद्भावपूर्ण कायाकर्म में स्थापित होता है, सम्मुख भी, और पीठ पीछे भी। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।
(२) आगे, कोई भिक्षु सब्रह्मचारियों के प्रति सद्भावपूर्ण वाणीकर्म में स्थापित होता है, सम्मुख भी, और पीठ पीछे भी। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।
(३) आगे, कोई भिक्षु सब्रह्मचारियों के प्रति सद्भावपूर्ण मनोकर्म में स्थापित होता है, सम्मुख भी, और पीठ पीछे भी। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।
(४) आगे, कोई भिक्षु धर्मानुसार जो भी धार्मिक लाभ प्राप्त करता है, भले ही पात्र में पड़ी भिक्षा ही क्यों न हो, उसका अकेले उपभोग नहीं करता। बल्कि उसे शीलवान सब्रह्मचारियों के साथ बाँटकर समान उपभोग करता है। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।
(५) आगे, कोई भिक्षु ऐसे शील — जो अखंडित हो, अछिद्रित हो, बेदाग हो, बेधब्बा हो, निष्कलंक हो, विद्वानों द्वारा प्रशंसित हो, छुटकारा दिलाते हो, और समाधि की ओर बढ़ाते हो — ऐसे शीलों में सब्रह्मचारियों के शील-समानता के साथ विहार करता है, सम्मुख भी, और पीठ पीछे भी। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।
(६) आगे, कोई भिक्षु ऐसी दृष्टि — जो आर्य हो, पार कराती हो, साधना करने वाले को सम्यक दुःखों के अंत की ओर ले जाती हो — ऐसी दृष्टि में सब्रह्मचारियों के दृष्टि-समानता के साथ विहार करता है, सम्मुख भी, और पीठ पीछे भी। इस स्नेहभाव धर्म से लाड़-प्यार और आदरभाव जन्मता है, जो साथ जुटाकर सामंजस्यता और साथ लाकर एकता लाती है।
ये छह धर्म बहुत उपकारक हैं।
• कौन-से छह धर्मों की साधना करनी चाहिए? छह अनुस्मृति स्थान [=आलंबन] हैं — बुद्ध की अनुस्मृति, धर्म की अनुस्मृति, संघ की अनुस्मृति, शील की अनुस्मृति, त्याग की अनुस्मृति, देवताओं की अनुस्मृति। 6 इन छह धर्मों की साधना करनी चाहिए।
• कौन-से छह धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए? छह भीतरी आयाम हैं — आँख आयाम, कान आयाम, नाक आयाम, जीभ आयाम, काया आयाम, मन आयाम। इन छह धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए।
• कौन-से छह धर्मों को त्यागना चाहिए? छह तृष्णा वर्ग हैं — रूप तृष्णा, आवाज तृष्णा, गंध तृष्णा, स्वाद तृष्णा, संस्पर्श तृष्णा, स्वभाव तृष्णा। इन छह धर्मों को त्यागना चाहिए।
• कौन-से छह धर्म हानिकारक हैं? छह अनादर हैं — (१) कोई भिक्षु शास्ता के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है। (२) वह धर्म के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है। (३) वह संघ के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है। (४) वह शिक्षा [=सीख] के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है। (५) वह अप्रमाद [=सतर्कता] के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है। (६) वह अतिथि-सत्कार [“पटिसन्थार”] के प्रति बिना आदर और सम्मान के विहार करता है। ये छह धर्म हानिकारक हैं।
• कौन-से छह धर्म विशिष्टता लाते हैं? छह आदर हैं — (१) कोई भिक्षु शास्ता के प्रति आदर और सम्मान के साथ विहार करता है। (२) वह धर्म के प्रति आदर और सम्मान के साथ विहार करता है। (३) वह संघ के प्रति आदर और सम्मान के साथ विहार करता है। (४) वह शिक्षा के प्रति आदर और सम्मान के साथ विहार करता है। (५) वह अप्रमाद के प्रति आदर और सम्मान के साथ विहार करता है। (६) वह अतिथि-सत्कार के प्रति बिना आदर और सम्मान के साथ विहार करता है। 7
• कौन-से छह धर्म समझने में कठिन हैं? छह निस्सरण [=निकास, निकलने का मार्ग] धातुएँ हैं।
(१) यहाँ मित्रों, जो भिक्षु ऐसा कहे, “मैंने सद्भाव [=मेत्ता] चेतोविमुक्ति की साधना किया, उसे विकसित किया, उसमें अभ्यस्त हुआ, उसे आधार बनाया, मजबूत किया, उसमें आदी हुआ, अच्छे से उपक्रम किया, तब भी दुर्भावना मेरे चित्त में कब्ज़ा कर बैठती है।” तो उसे कहे, “ऐसा नहीं है। ऐसा मत कहो। भगवान [की बात] का मिथ्या-वर्णन मत करो। भगवान का मिथ्या-वर्णन करना ठीक नहीं है। भगवान ऐसा नहीं बताते है। यह असंभव है, मित्र, ऐसा नहीं होता कि कोई सद्भाव चेतोविमुक्ति की साधना कर, विकसित कर, उसमें अभ्यस्त हो, उसे आधार बना, मजबूत कर, उसमें आदी हो, अच्छे से उपक्रम करे, तब भी दुर्भावना चित्त में कब्ज़ा कर बैठ जाए, ऐसा होना नामुमकिन है। क्योंकि, मित्र, यह सद्भाव चेतोविमुक्ति ही दुर्भावना से निकलने का मार्ग है।”
(२) आगे, जो भिक्षु ऐसा कहे, “मैंने करुणा चेतोविमुक्ति की साधना किया, उसे विकसित किया, उसमें अभ्यस्त हुआ, उसे आधार बनाया, मजबूत किया, उसमें आदी हुआ, अच्छे से उपक्रम किया, तब भी हिंसा मेरे चित्त में कब्ज़ा कर बैठती है।” तो उसे कहे, “ऐसा नहीं है। ऐसा मत कहो। भगवान का मिथ्या-वर्णन मत करो। भगवान का मिथ्या-वर्णन करना ठीक नहीं है। भगवान ऐसा नहीं बताते है। यह असंभव है, मित्र, ऐसा नहीं होता कि कोई करुणा चेतोविमुक्ति की साधना कर, विकसित कर, उसमें अभ्यस्त हो, उसे आधार बना, मजबूत कर, उसमें आदी हो, अच्छे से उपक्रम करे, तब भी हिंसा चित्त में कब्ज़ा कर बैठ जाए, ऐसा होना नामुमकिन है। क्योंकि, मित्र, यह करुणा चेतोविमुक्ति ही हिंसा से निकलने का मार्ग है।”
(३) आगे, जो भिक्षु ऐसा कहे, “मैंने मुदिता [=सहानुभूतिपूर्ण खुशी] चेतोविमुक्ति की साधना किया, उसे विकसित किया, उसमें अभ्यस्त हुआ, उसे आधार बनाया, मजबूत किया, उसमें आदी हुआ, अच्छे से उपक्रम किया, तब भी नाराजी [“अरति”] मेरे चित्त में कब्ज़ा कर बैठती है।” तो उसे कहे, “ऐसा नहीं है। ऐसा मत कहो। भगवान का मिथ्या-वर्णन मत करो। भगवान का मिथ्या-वर्णन करना ठीक नहीं है। भगवान ऐसा नहीं बताते है। यह असंभव है, मित्र, ऐसा नहीं होता कि कोई मुदिता चेतोविमुक्ति की साधना कर, विकसित कर, उसमें अभ्यस्त हो, उसे आधार बना, मजबूत कर, उसमें आदी हो, अच्छे से उपक्रम करे, तब भी नाराजी चित्त में कब्ज़ा कर बैठ जाए, ऐसा होना नामुमकिन है। क्योंकि, मित्र, यह मुदिता चेतोविमुक्ति ही नाराजी से निकलने का मार्ग है।”
(४) आगे, जो भिक्षु ऐसा कहे, “मैंने तटस्थता [“उपेक्खा”] चेतोविमुक्ति की साधना किया, उसे विकसित किया, उसमें अभ्यस्त हुआ, उसे आधार बनाया, मजबूत किया, उसमें आदी हुआ, अच्छे से उपक्रम किया, तब भी दिलचस्पी [“राग”] मेरे चित्त में कब्ज़ा कर बैठती है।” तो उसे कहे, “ऐसा नहीं है। ऐसा मत कहो। भगवान का मिथ्या-वर्णन मत करो। भगवान का मिथ्या-वर्णन करना ठीक नहीं है। भगवान ऐसा नहीं बताते है। यह असंभव है, मित्र, ऐसा नहीं होता कि कोई तटस्थता चेतोविमुक्ति की साधना कर, विकसित कर, उसमें अभ्यस्त हो, उसे आधार बना, मजबूत कर, उसमें आदी हो, अच्छे से उपक्रम करे, तब भी दिलचस्पी चित्त में कब्ज़ा कर बैठ जाए, ऐसा होना नामुमकिन है। क्योंकि, मित्र, यह तटस्थता चेतोविमुक्ति ही दिलचस्पी से निकलने का मार्ग है।”
(५) आगे, जो भिक्षु ऐसा कहे, “मैंने अनिमित्त [=लक्षणरहित शून्यता] चेतोविमुक्ति की साधना किया, उसे विकसित किया, उसमें अभ्यस्त हुआ, उसे आधार बनाया, मजबूत किया, उसमें आदी हुआ, अच्छे से उपक्रम किया, तब भी मेरा चैतन्य निमित्तों के पीछे जाता है।” तो उसे कहे, “ऐसा नहीं है। ऐसा मत कहो। भगवान का मिथ्या-वर्णन मत करो। भगवान का मिथ्या-वर्णन करना ठीक नहीं है। भगवान ऐसा नहीं बताते है। यह असंभव है, मित्र, ऐसा नहीं होता कि कोई अनिमित्त चेतोविमुक्ति की साधना कर, विकसित कर, उसमें अभ्यस्त हो, उसे आधार बना, मजबूत कर, उसमें आदी हो, अच्छे से उपक्रम करे, तब भी चैतन्य निमित्तों के पीछे जाए, ऐसा होना नामुमकिन है। क्योंकि, मित्र, यह अनिमित्त चेतोविमुक्ति ही सभी निमित्तों से निकलने का मार्ग है।”
(६) आगे, जो भिक्षु ऐसा कहे, “मेरा ‘मैं हूँ’ [“अस्मि” =अहंभाव] चला गया, और ‘मैं यह हूँ’ नहीं देखता हूँ, तब भी उलझन और अनिश्चितता का तीर मेरे चित्त में कब्ज़ा कर बैठता है” तो उसे कहे, “ऐसा नहीं है। ऐसा मत कहो। भगवान का मिथ्या-वर्णन मत करो। भगवान का मिथ्या-वर्णन करना ठीक नहीं है। भगवान ऐसा नहीं बताते है। यह असंभव है, मित्र, ऐसा नहीं होता कि किसी का ‘मैं हूँ’ चला जाए, और ‘मैं यह हूँ’ नहीं देखे, तब भी उलझन और अनिश्चितता का तीर चित्त में कब्ज़ा कर बैठे, ऐसा होना नामुमकिन है। क्योंकि, मित्र, यह ‘मैं हूँ’ अहंभाव को उखाड़ना ही उलझन और अनिश्चितता के तीर से निकलने का मार्ग है।”
ये छह धर्म समझने में कठिन हैं।
• कौन-से छह धर्मों को पैदा करना चाहिए? छह लगातार विहार करना हैं — (१) कोई भिक्षु आँखों से रूप देखकर न अच्छा मन बनाता है, न बुरा मन। बल्कि तटस्थ, स्मरणशील और सचेत विहार करता है। (२) कोई भिक्षु कानों से आवाज सुनकर… (३) नाक से गंध सूँघकर… (४) जीभ से स्वाद चखकर… (५) काया से संस्पर्श महसूस कर… (६) मन से स्वभाव जानकर न अच्छा मन बनाता है, न बुरा मन। बल्कि तटस्थ, स्मरणशील और सचेत विहार करता है। इन छह धर्मों को पैदा करना चाहिए।
• कौन-से छह धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए? छह अनुत्तर हैं — अनुत्तर दर्शन [=देखना], अनुत्तर श्रवण [=सुनना], अनुत्तर लाभ [=प्राप्ति], अनुत्तर शिक्षा [=प्रशिक्षण], अनुत्तर सेवा, अनुत्तर अनुस्मरण [=याद करना]। 8 इन छह धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए।
• कौन-से छह धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए? छह प्रत्यक्ष ज्ञान हैं।
(१) कोई भिक्षु विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है।
(२) वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो।
(३) वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संक्षिप्त [=संकुचित] [^sankh] चित्त पता चलता है कि ‘संक्षिप्त चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ विस्तारित चित्त [“महग्गतं”] [^magh] पता चलता है कि ‘विस्तारित चित्त है।’ अविस्तारित चित्त पता चलता है कि ‘अविस्तारित चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’
(४) वह विविध प्रकार के पूर्वजन्म अनुस्मरण करता है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।
(५) वह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।
(६) वह आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार करता है।
इन छह धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
ये साठ धर्म तथागत द्वारा सम्यक रूप से अभिबोध किए गए हैं, जो वास्तविक, सच्चे, और तथ्यपूर्ण हैं; तथ्यहीन या अन्यथा नहीं।
सात धर्म बहुत उपकारक हैं, मित्रों। सात धर्मों की साधना करनी चाहिए। सात धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए। सात धर्मों को त्यागना चाहिए। सात धर्म हानिकारक हैं। सात धर्म विशिष्टता लाते हैं। सात धर्म समझने में कठिन हैं। सात धर्मों को पैदा करना चाहिए। सात धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए। सात धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
• कौन-से सात धर्म बहुत उपकारक हैं? सात आर्य संपत्ति हैं — श्रद्धा संपत्ति, शील संपत्ति, लज्जा संपत्ति, संकोच संपत्ति, श्रुत [=धर्म सुनना] संपत्ति, त्याग संपत्ति, प्रज्ञा संपत्ति। ये सात धर्म बहुत उपकारक हैं।
• कौन-से सात धर्मों की साधना करनी चाहिए? सात बोधि अंग हैं — स्मृति बोध्यंग, स्वभाव-जाँच बोध्यंग, ऊर्जा बोध्यंग, प्रफुल्लता बोध्यंग, प्रशांति बोध्यंग, समाधि बोध्यंग, तटस्थता बोध्यंग। इन सात धर्मों की साधना करनी चाहिए।
• कौन-से सात धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए? सात चैतन्य स्थल [=अवस्थाएँ] हैं।
(१) ऐसे सत्व होते हैं, मित्रों, जिनकी विविध काया और विविध नजरिए होते हैं। जैसे, मानव, कुछ तरह के देवतागण, और कुछ तरह के निचले लोक। यह पहला चैतन्य स्थल है।
(२) ऐसे सत्व भी होते हैं, जिनकी विविध काया होती हैं, किन्तु एक-जैसा नजरिया होता है। जैसे, प्रथम-ध्यान से उपजे ब्रह्मकायिक देवतागण। यह दूसरा चैतन्य स्थल है।
(३) ऐसे सत्व भी होते हैं, जिनकी एक-जैसी काया और विभिन्न नजरिए होते हैं। जैसे, आभास्वर देवतागण। यह तीसरा चैतन्य स्थल है।
(४) ऐसे सत्व भी होते हैं, जिनकी एक-जैसी काया और एक-जैसा नजरिया होता है। जैसे, शुभ काले देवतागण। यह चौथा चैतन्य स्थल है।
(५) ऐसे सत्व भी होते हैं, जो रूप-नजरिया पूर्णतः लाँघ कर, विरोधी-नजरिए ओझल होने पर, विभिन्न-नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनंत है’ [देखते हुए] अनंत आकाश-आयाम में रहते हैं। यह पाँचवा चैतन्य स्थल है।
(६) ऐसे सत्व भी होते हैं, जो अनंत आकाश-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘चैतन्य अनंत है’ [देखते हुए] अनंत चैतन्य-आयाम में रहते हैं। यह छटवा चैतन्य स्थल है।
(७) ऐसे सत्व भी होते हैं, जो अनंत चैतन्य-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] सूने-आयाम में रहते हैं। यह सातवा चैतन्य स्थल है। 9
इन सात धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए।
• कौन-से सात धर्मों को त्यागना चाहिए? सात अनुशय [=सुप्त अवस्था] हैं — कामराग अनुशय, प्रतिरोध [“पटिघ” =प्रतिकर्षण या चिड़ होना] अनुशय, दृष्टि अनुशय, उलझन अनुशय, अहंभाव [“मान”] अनुशय, भवराग [=अस्तित्व पाने की दिलचस्पी] अनुशय, अविद्या अनुशय। इन सात धर्मों को त्यागना चाहिए।
• कौन-से सात धर्म हानिकारक हैं? सात सद्धर्म नहीं हैं — यहाँ कोई भिक्षु अश्रद्धालु होता है, निर्लज्ज होता है, निःसंकोची होता है, अल्पश्रुत [=धर्म न सुना] होता है, आलसी होता है, मूढ़-स्मृति [=भुलक्कड़] होता है, दुष्प्रज्ञ [=अंतर्ज्ञान नहीं] होता है। ये सात धर्म हानिकारक हैं।
• कौन-से सात धर्म विशिष्टता लाते हैं? सात सद्धर्म हैं — यहाँ कोई भिक्षु श्रद्धालु होता है, शर्मिला होता है, संकोची होता है, बहुश्रुत [=बहुत धर्म सुना] होता है, ऊर्जावान होता है, उपस्थित स्मृतिमान होता है, अंतर्ज्ञानी होता है। ये सात धर्म विशिष्टता लाते हैं।
• कौन-से सात धर्म समझने में कठिन हैं? सात सत्पुरुष धर्म हैं — यहाँ कोई भिक्षु धर्म का जानकार होता है, अर्थ का जानकार होता है, स्वयं का जानकार होता है, मात्रा का जानकार होता है, [उचित] समय का जानकार होता है, परिषदों का जानकार होता है, व्यक्तियों का जानकार होता है। 10 ये सात धर्म समझने में कठिन हैं।
• कौन-से सात धर्मों को पैदा करना चाहिए? सात नजरिए हैं — अनित्य नजरिया, अनात्म नजरिया, असुभ [=अनाकर्षक] नजरिया, आदीनव [=खामी] नजरिया, त्याग नजरिया, विराग नजरिया, निरोध नजरिया। इन सात धर्मों को पैदा करना चाहिए।
• कौन-से सात धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए? सात प्रशंसा के आधार हैं — (१) किसी भिक्षु को शिक्षा अंगीकार करने की तीव्र चाहत होती है, भविष्य में भी शिक्षा अंगीकार करने का प्रेम नहीं छोड़ता। (२) उसे स्वभाव [=धर्म] निरीक्षण करने की तीव्र चाहत होती है, भविष्य में भी स्वभाव निरीक्षण करने का प्रेम नहीं छोड़ता। (३) उसे इच्छाओं को दूर करने की तीव्र चाहत होती है, भविष्य में भी इच्छाओं को दूर करने का प्रेम नहीं छोड़ता। (४) उसे एकांतवास करने की तीव्र चाहत होती है, भविष्य में भी एकांतवास करने का प्रेम नहीं छोड़ता। (५) उसे ऊर्जा जागृत करने [=जोश से जुटने] की तीव्र चाहत होती है, भविष्य में भी ऊर्जा जागृत करने का प्रेम नहीं छोड़ता। (६) उसे स्मृति और सूझ-बूझ की तीव्र चाहत होती है, भविष्य में भी स्मृति और सूझ-बुझ का प्रेम नहीं छोड़ता। (७) उसे दृष्टि का भेदन करने की तीव्र चाहत होती है, भविष्य में भी दृष्टि का भेदन करने का प्रेम नहीं छोड़ता। 11 इन सात धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए।
• कौन-से सात धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए? सात क्षीणास्रव बल हैं।
(१) कोई क्षीणास्रव [=अरहंत] भिक्षु समस्त रचनाओं की अनित्यता को यथास्वरूप सम्यक-प्रज्ञा से स्पष्ट देख लेता है। यह क्षीणास्रव भिक्षु का बल है, जिसके सहारे उसे पता चलता है कि ‘मेरे आस्रव क्षीण हुए!’
(२) आगे, कोई क्षीणास्रव भिक्षु कामुकता को अंगारों के समान यथास्वरूप सम्यक-प्रज्ञा से स्पष्ट देख लेता है। यह क्षीणास्रव भिक्षु का बल है, जिसके सहारे उसे पता चलता है कि ‘मेरे आस्रव क्षीण हुए!’
(३) आगे, किसी क्षीणास्रव भिक्षु का चित्त निर्लिप्त-एकांतवास की ओर मुड़ता है, निर्लिप्त-एकांतवास की ओर घूमता है, निर्लिप्त-एकांतवास की ओर झुकता है, निर्लिप्त-एकांतवास में स्थिर होता है, निष्कामता में रमता है, और आस्रवों के आधारभूत सभी धर्मों को मिटा देता है। यह क्षीणास्रव भिक्षु का बल है, जिसके सहारे उसे पता चलता है कि ‘मेरे आस्रव क्षीण हुए!’
(४) आगे, कोई क्षीणास्रव भिक्षु चार स्मृतिप्रस्थान [=स्मरणशीलता स्थापित करना] विकसित करता है, सुविकसित करता है। यह क्षीणास्रव भिक्षु का बल है, जिसके सहारे उसे पता चलता है कि ‘मेरे आस्रव क्षीण हुए!’
(५) आगे, कोई क्षीणास्रव भिक्षु पाँच इंद्रिय विकसित करता है, सुविकसित करता है। यह क्षीणास्रव भिक्षु का बल है, जिसके सहारे उसे पता चलता है कि ‘मेरे आस्रव क्षीण हुए!’
(६) आगे, कोई क्षीणास्रव भिक्षु सात संबोधि अंग विकसित करता है, सुविकसित करता है। यह क्षीणास्रव भिक्षु का बल है, जिसके सहारे उसे पता चलता है कि ‘मेरे आस्रव क्षीण हुए!’
(७) आगे, कोई क्षीणास्रव भिक्षु आर्य अष्टांगिक मार्ग विकसित करता है, सुविकसित करता है। यह क्षीणास्रव भिक्षु का बल है, जिसके सहारे उसे पता चलता है कि ‘मेरे आस्रव क्षीण हुए!’
इन सात धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
ये सत्तर धर्म तथागत द्वारा सम्यक रूप से अभिबोध किए गए हैं, जो वास्तविक, सच्चे, और तथ्यपूर्ण हैं; तथ्यहीन या अन्यथा नहीं।
आठ धर्म बहुत उपकारक हैं, मित्रों। आठ धर्मों की साधना करनी चाहिए। आठ धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए। आठ धर्मों को त्यागना चाहिए। आठ धर्म हानिकारक हैं। आठ धर्म विशिष्टता लाते हैं। आठ धर्म समझने में कठिन हैं। आठ धर्मों को पैदा करना चाहिए। आठ धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए। आठ धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
• कौन-से आठ धर्म बहुत उपकारक हैं? आठ कारण, आठ परिस्थितियाँ हैं — अब तक न पाए ब्रह्मचर्य के मूल अंतर्ज्ञान को पाने के लिए, और पा चुके [अंतर्ज्ञान] को बढ़ाने, विपुल करने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए। कौन-से आठ?
(१) कोई भिक्षु शास्ता या ऐसे किसी आदरपात्र सब्रह्मचारी का निश्रय लेकर विहार करता है, जिसमें उसे तीव्र लज्जा और संकोच, तथा प्रेम और आदरभाव स्थापित हो। यह पहला कारण, पहली परिस्थिति है — अब तक न पाए ब्रह्मचर्य के मूल अंतर्ज्ञान को पाने के लिए, और पा चुके को बढ़ाने, विपुल करने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए।
(२) जो भिक्षु शास्ता या ऐसे किसी आदरपात्र सब्रह्मचारी का निश्रय लेकर विहार करता है, जिसमें उसे तीव्र लज्जा और संकोच, तथा प्रेम और आदरभाव स्थापित हो, वह समय-समय पर उनके पास जाकर पूछता है, प्रतिप्रश्न करता है, “भंते, ऐसा क्यों है? इसका क्या अर्थ है?” तब वह आयुष्मान ढ़के हुए को खोलता है, उल्टे को सीधा करता है, और अनेक प्रकार से शंकापूर्ण बातों से शंका दूर करता है। यह दूसरा कारण, दूसरी परिस्थिति है — अब तक न पाए ब्रह्मचर्य के मूल अंतर्ज्ञान को पाने के लिए, और पा चुके को बढ़ाने, विपुल करने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए।
(३) वह उस धर्म को सुनकर दो तरह का निर्लिप्त-एकांतवास प्राप्त करता है — काया का निर्लिप्त एकांतवास, और चित्त का निर्लिप्त एकांतवास। यह तीसरा कारण, तीसरी परिस्थिति है — अब तक न पाए ब्रह्मचर्य के मूल अंतर्ज्ञान को पाने के लिए, और पा चुके को बढ़ाने, विपुल करने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए।
(४) आगे, वह भिक्षु शीलवान होता है। वह पातिमोक्ष के अनुसार संयम से विनीत होकर, आर्य आचरण और जीवनशैली से संपन्न होकर रहता है। वह [धर्म-विनय] शिक्षापदों को सीख कर धारण करता है, अल्प पाप में भी ख़तरा देखता है। यह चौथा कारण, चौथी परिस्थिति है — अब तक न पाए ब्रह्मचर्य के मूल अंतर्ज्ञान को पाने के लिए, और पा चुके को बढ़ाने, विपुल करने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए।
(५) आगे, वह भिक्षु बहुत धर्म सुनता है, सुना हुआ धारण करता है, सुना हुआ संचय करता है। ऐसा धर्म, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, और अन्त में कल्याणकारी हो, ऐसे सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ को वह अर्थ और विवरण के साथ बार-बार सुनता है, याद रखता है, चर्चा करता है, संचित करता है, मन से जाँच-पड़ताल करता है, और गहराई से समझकर सम्यकदृष्टि धारण करता है। यह पाँचवा कारण, पाँचवी परिस्थिति है — अब तक न पाए ब्रह्मचर्य के मूल अंतर्ज्ञान को पाने के लिए, और पा चुके को बढ़ाने, विपुल करने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए।
(६) आगे, वह भिक्षु ऊर्जा बढ़ाकर विहार करता है। अकुशल स्वभावों को त्यागने और कुशल स्वभावों को धारण करने के लिए निश्चयबद्ध, दृढ़, और पराक्रमी बने रहता है। कुशल धर्मों के प्रति कर्तव्यों से जी नहीं चुराता। यह छठा कारण, छठी परिस्थिति है — अब तक न पाए ब्रह्मचर्य के मूल अंतर्ज्ञान को पाने के लिए, और पा चुके को बढ़ाने, विपुल करने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए।
(७) आगे, वह भिक्षु स्मृतिमान होता है, याददाश्त में बहुत तेज़। पूर्वकाल में की गई, पूर्वकाल में कही गई बात भी स्मरण रखता है, अनुस्मरण कर पाता है। यह सातवा कारण, सातवी परिस्थिति है — अब तक न पाए ब्रह्मचर्य के मूल अंतर्ज्ञान को पाने के लिए, और पा चुके को बढ़ाने, विपुल करने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए।
(८) आगे, वह भिक्षु पाँच आधार-संग्रहों [“उपादानक्खन्ध”] का उदय-व्यय देखते हुए विहार करता है। यह रूप है, यह रूप की उत्पत्ति है, यह रूप की विलुप्ति है। यह संवेदना है, यह संवेदना की उत्पत्ति है, यह संवेदना की विलुप्ति है। यह नजरिया है, यह नजरिए की उत्पत्ति है, यह नजरिए की विलुप्ति है। यह रचना [=संस्कार] है, यह रचना की उत्पत्ति है, यह रचना की विलुप्ति है। यह चैतन्य है, यह चैतन्य की उत्पत्ति है, यह चैतन्य की विलुप्ति है। यह आठवा कारण, आठवी परिस्थिति है — अब तक न पाए ब्रह्मचर्य के मूल अंतर्ज्ञान को पाने के लिए, और पा चुके को बढ़ाने, विपुल करने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए।
ये आठ धर्म बहुत उपकारक हैं। 12
• कौन-से आठ धर्मों की साधना करनी चाहिए? आर्य अष्टांगिक मार्ग है। जैसे, सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कार्य, सम्यक जीविका, सम्यक मेहनत, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि। इन आठ धर्मों की साधना करनी चाहिए।
• कौन-से आठ धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए? आठ लोकधर्म हैं — लाभ [=प्राप्ति] है, अलाभ [=अप्राप्ति] है। यश है, अपयश है। निंदा है, प्रशंसा है। सुख है, दुःख है। 13 इन आठ धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए।
• कौन-से आठ धर्मों को त्यागना चाहिए? आठ मिथ्यता हैं — मिथ्या दृष्टि, मिथ्या संकल्प, मिथ्या वाणी, मिथ्या कार्य, मिथ्या जीविका, मिथ्या मेहनत, मिथ्या स्मृति, मिथ्या समाधि। इन आठ धर्मों को त्यागना चाहिए।
• कौन-से आठ धर्म हानिकारक हैं? आठ आलस के बहाने हैं।
(१) ऐसा होता है, मित्रों, किसी भिक्षु को कोई काम करना होता है। उसे लगता है, ‘मुझे यह काम करना है। किंतु यह काम करने पर मेरा शरीर थक जाएगा। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का पहला बहाना है।
(२) आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु काम कर लेता है। उसे लगता है, ‘मैंने यह काम किया। किंतु यह काम करने से मेरा शरीर थक गया। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का दूसरा बहाना है।
(३) आगे, ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को यात्रा करनी होती है। उसे लगता है, ‘मुझे यह यात्रा करनी है। किंतु यात्रा करने पर मेरा शरीर थक जाएगा। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का तीसरा बहाना है।
(४) आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु यात्रा कर लेता है। उसे लगता है, ‘मैंने यह यात्रा किया। किंतु यात्रा करने से मेरा शरीर थक गया। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का चौथा बहाना है।
(५) आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु गाँव या नगर में भिक्षाटन करने जाता है, तो उसे अपेक्षाकृत मात्रा से कम भोजन मिलता है। उसे लगता है, ‘आज मुझे अपेक्षाकृत मात्रा से कम भोजन मिला। मेरा शरीर थक हुआ है, काम करने के योग्य नहीं। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का पाँचवा बहाना है।
(६) आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु गाँव या नगर में भिक्षाटन करने जाता है, तो उसे अपेक्षाकृत मात्रा में भोजन मिलता है। उसे लगता है, ‘आज मुझे अपेक्षाकृत मात्रा में भोजन मिला। मेरा शरीर भारी है, काम करने के योग्य नहीं, जैसे दाने से [बोरे के जैसा पेट] भर गया हो। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का छठा बहाना है।
(७) आगे, ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को कोई हल्की बीमारी होती है। उसे लगता है, ‘मुझे हल्की बीमारी हो गई। लेटने की ज़रूरत है। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का सातवा बहाना है।
(८) आगे, ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को बीमारी से उबर कर अधिक समय नहीं होता। उसे लगता है, ‘मुझे बीमारी से उबर कर अधिक समय नहीं हुआ। मेरा शरीर अभी दुर्बल है, काम करने के योग्य नहीं। क्यों न मैं थोड़ा लेट जाऊँ?’ तब वह लेट जाता है, ऊर्जा नहीं जगाता — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह आलस का आठवा बहाना है।
ये आठ धर्म हानिकारक हैं।
• कौन-से आठ धर्म विशिष्टता लाते हैं? ऊर्जा जगाने के आठ बहाने हैं।
(१) ऐसा होता है, मित्रों, किसी भिक्षु को कोई काम करना होता है। उसे लगता है, ‘मुझे यह काम करना है। किंतु काम करते हुए बुद्ध निर्देश पर ध्यान देना सरल नहीं होगा। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह ऊर्जा जगाने का पहला बहाना है।
(२) आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु काम कर लेता है। उसे लगता है, ‘मैंने यह काम किया। किंतु काम करते हुए मैं बुद्ध निर्देश पर ध्यान नहीं दे पाया। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का दूसरा बहाना है।
(३) आगे, ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को यात्रा करनी होती है। उसे लगता है, ‘मुझे यह यात्रा करनी है। किंतु यात्रा करते हुए बुद्ध निर्देश पर ध्यान देना सरल नहीं होगा। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का तीसरा बहाना है।
(४) आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु यात्रा कर लेता है। उसे लगता है, ‘मैंने यह यात्रा किया। किंतु यात्रा करते हुए मैं बुद्ध निर्देश पर ध्यान नहीं दे पाया। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का चौथा बहाना है।
(५) आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु गाँव या नगर में भिक्षाटन करने जाता है, तो उसे अपेक्षाकृत मात्रा से कम भोजन मिलता है। उसे लगता है, ‘आज मुझे अपेक्षाकृत मात्रा से कम भोजन मिला। मेरा शरीर हल्का है, काम करने के योग्य। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का पाँचवा बहाना है।
(६) आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु गाँव या नगर में भिक्षाटन करने जाता है, तो उसे अपेक्षाकृत मात्रा में भोजन मिलता है। उसे लगता है, ‘आज मुझे अपेक्षाकृत मात्रा में भोजन मिला। मेरा शरीर हल्का है, काम करने के योग्य। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का छठा बहाना है।
(७) आगे, ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को कोई हल्की बीमारी होती है। उसे लगता है, ‘मुझे हल्की बीमारी हो गई। संभव है कि यह बीमारी गंभीर हो जाए। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का सातवा बहाना है।
(८) आगे, ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को बीमारी से उबर कर अधिक समय नहीं होता। उसे लगता है, ‘मुझे बीमारी से उबर कर अधिक समय नहीं हुआ। संभव है कि बीमारी फिर लौट आए। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह ऊर्जा जगाने का आठवा बहाना है।
ये आठ धर्म विशिष्टता लाते हैं।
• कौन-से आठ धर्म समझने में कठिन हैं? ब्रह्मचर्य वास करने के नौ गलत-अवसर, गलत-समय हैं।
(१) कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ उत्पन्न होते है। वे ऐसा धर्म बताते है, जो प्रशांति दिलाता, परिनिर्वाण कराता, संबोधि की ओर बढ़ाता, सुगत द्वारा विदित होता है। किन्तु, कोई व्यक्ति नर्क में उत्पन्न होता है। यह ब्रह्मचर्य वास करने का पहला गलत-अवसर, गलत-समय है।
आगे, कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ उत्पन्न होते है। वे ऐसा धर्म बताते है, जो प्रशांति दिलाता, परिनिर्वाण कराता, संबोधि की ओर बढ़ाता, सुगत द्वारा विदित होता है। किन्तु, कोई व्यक्ति (२) पशुयोनि में उत्पन्न… (३) प्रेत लोक में उत्पन्न… (४) दीर्घायु देवताओं के समूह में उत्पन्न… (५) [दूर] सीमान्त इलाकों के अनभिज्ञ बर्बर लोगों में उत्पन्न होता है, जहाँ भिक्षु, भिक्षुणियाँ, उपासक, और उपासिकाएँ नहीं जाते हैं। यह ब्रह्मचर्य वास करने का पाँचवा गलत-अवसर, गलत-समय है।
(६) आगे, कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ उत्पन्न होते है। वे ऐसा धर्म बताते है, जो प्रशांति दिलाता, परिनिर्वाण कराता, संबोधि की ओर बढ़ाता, सुगत द्वारा विदित होता है। और कोई व्यक्ति मध्य के प्रदेशों में जन्म लेता है, किन्तु मिथ्या दृष्टि, विपरीत दृष्टिकोण वाला होता है — ‘दान नहीं है। यज्ञ नहीं है। आहुति नहीं है। सुकृत्य या दुष्कृत्य कर्मों का फ़ल-परिणाम नहीं हैं। लोक नहीं है। परलोक नहीं है। न माता है, न पिता है, न स्वयं से प्रकट होते सत्व हैं। न ही दुनिया में ऐसे श्रमण-ब्राह्मण हैं जो सम्यक-साधना कर सम्यक-प्रगति करते हुए विशिष्ट-ज्ञान का साक्षात्कार कर लोक-परलोक होने की घोषणा करते हैं।’ यह ब्रह्मचर्य वास करने का छठा गलत-अवसर, गलत-समय है।
(७) आगे, कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ उत्पन्न होते है। वे ऐसा धर्म बताते है, जो प्रशांति दिलाता, परिनिर्वाण कराता, संबोधि की ओर बढ़ाता, सुगत द्वारा विदित होता है। और कोई व्यक्ति मध्य के प्रदेशों में जन्म लेता है, किन्तु दुष्प्रज्ञ [=विवेकशून्य], मंदबुद्धि, बहरा-गूँगा होता है, भले-बुरे शब्दों के अर्थ समझने में समर्थ नहीं होता। यह ब्रह्मचर्य वास करने का सातवा गलत-अवसर, गलत-समय है।
(८) आगे, कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ उत्पन्न नहीं होते है। न ही वे ऐसा धर्म बताते है, जो प्रशांति दिलाता, परिनिर्वाण कराता, संबोधि की ओर बढ़ाता, सुगत द्वारा विदित होता है। तब कोई व्यक्ति मध्य के प्रदेशों में जन्म लेता है, और प्रज्ञावान, तीक्ष्ण बुद्धि, और समझदार होता है, भले-बुरे शब्दों के अर्थ समझने में समर्थ। यह ब्रह्मचर्य वास करने का आठवा गलत-अवसर, गलत-समय है।
ये आठ धर्म समझने में कठिन हैं।
• कौन-से आठ धर्मों को पैदा करना चाहिए? महापुरुष के आठ विचार होते हैं — (१) यह धर्म अल्पेच्छुक [=कम इच्छाओं वाले लोगों] का हैं, भव्य इच्छुकों का नहीं। (२) यह धर्म संतुष्ट लोगों का हैं, असंतुष्टों का नहीं। (३) यह धर्म एकांतप्रेमी लोगों का हैं, लोगों में रमनेवालों का नहीं। (४) यह धर्म ऊर्जावान लोगों का हैं, आलसी निठ्ठलों का नहीं। (५) यह धर्म स्मरणशील लोगों का हैं, भुलक्कड़ लोगों का नहीं। (६) यह धर्म समाहित [=स्थिर एकाग्र चित्त] लोगों का हैं, असमाहितों का नहीं। (७) यह धर्म अंतर्ज्ञानी लोगों का हैं, दुर्बुद्धि वालों का नहीं। (८) यह धर्म सुलझन चाहने वाले, सुलझन में रमने वाले लोगों का हैं, उलझन [“पपञ्च” =झमेला] चाहने वाले, उलझनों में रमने वालों का नहीं। इन आठ धर्मों को पैदा करना चाहिए।
• कौन-से आठ धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए? आठ प्रभुत्व आयाम हैं।
(१) भीतर से रूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सीमित, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का पहला आयाम है।
(२) भीतर से रूप-नजरिया एक होकर, बाहरी असीम, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का दूसरा आयाम है।
(३) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सीमित, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का तीसरा आयाम है।
(४) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी असीम, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का चौथा आयाम है।
(५) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी नीले, नीले वर्ण वाले, नीले लक्षणों वाले, नीली आभा [=चमक] वाले रूप देखता है। जैसे, सन [=अलसी] का फूल होता है — नीला, नीले वर्ण वाला, नीले लक्षणों वाला, नीली आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, नीला, नीले वर्ण वाला, नीले लक्षणों वाला, नीली आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी नीले, नीले वर्ण वाले, नीले लक्षणों वाले, नीली आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का पाँचवा आयाम है।
(६) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी पीले, पीले वर्ण वाले, पीले लक्षणों वाले, पीली आभा वाले रूप देखता है। जैसे, कर्णिकार का फूल होता है — पीला, पीले वर्ण वाला, पीले लक्षणों वाला, पीली आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, पीला, पीले वर्ण वाला, पीले लक्षणों वाला, पीली आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी पीले, पीले वर्ण वाले, पीले लक्षणों वाले, पीली आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का छठा आयाम है।
(७) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी लाल, लाल वर्ण वाले, लाल लक्षणों वाले, लाल आभा वाले रूप देखता है। जैसे, बंधुजीवक [=अड़हल?] का फूल होता है — लाल, लाल वर्ण वाला, लाल लक्षणों वाला, लाल आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, लाल, लाल वर्ण वाला, लाल लक्षणों वाला, लाल आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी लाल, लाल वर्ण वाले, लाल लक्षणों वाले, लाल आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का सातवा आयाम है।
(८) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाले, सफ़ेद लक्षणों वाले, सफ़ेद आभा वाले रूप देखता है। जैसे, शुक्र तारा [ग्रह] होता है — सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाला, सफ़ेद लक्षणों वाला, सफ़ेद आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाला, सफ़ेद लक्षणों वाला, सफ़ेद आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाले, सफ़ेद लक्षणों वाले, सफ़ेद आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का आठवा आयाम है।
इन आठ धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए।
• कौन-से आठ धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए? आठ विमोक्ष हैं — रूपवान होकर रूप देखना — पहला विमोक्ष है। भीतर से अरूप नजरिया होना और बाहरी रूप देखना — दूसरा विमोक्ष है। केवल अच्छाई [या सौंदर्य] देखना — तीसरा विमोक्ष है। रूप-नजरिया पूर्णतः लाँघ कर, विरोधी-नजरिए ओझल होने पर, विभिन्न-नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनंत है’ [देखते हुए] अनंत आकाश-आयाम में प्रवेश पाकर रहना — चौथा विमोक्ष है। अनंत आकाश-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘चैतन्य अनंत है’ [देखते हुए] अनंत चैतन्य-आयाम में प्रवेश पाकर रहना — पाँचवा विमोक्ष है। अनंत चैतन्य-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] सूने-आयाम में प्रवेश पाकर रहना — छटवा विमोक्ष है। सुने-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, न-संज्ञा-न-असंज्ञा [=न बोधगम्य, न अबोधगम्य] आयाम में प्रवेश पाकर रहना — सातवा विमोक्ष है। न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, संज्ञा और संवेदना निरोध [अवस्था] में प्रवेश पाकर रहना — आठवा विमोक्ष है। इन आठ धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
ये अस्सी धर्म तथागत द्वारा सम्यक रूप से अभिबोध किए गए हैं, जो वास्तविक, सच्चे, और तथ्यपूर्ण हैं; तथ्यहीन या अन्यथा नहीं।
नौ धर्म बहुत उपकारक हैं, मित्रों। नौ धर्मों की साधना करनी चाहिए। नौ धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए। नौ धर्मों को त्यागना चाहिए। नौ धर्म हानिकारक हैं। नौ धर्म विशिष्टता लाते हैं। नौ धर्म समझने में कठिन हैं। नौ धर्मों को पैदा करना चाहिए। नौ धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए। नौ धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
• कौन-से नौ धर्म बहुत उपकारक हैं? नौ उचित चिंतन [“योनिसो मनसिकार” =सही जगह ध्यान देना, गौर करना] के मूलक धर्म हैं। उचित चिंतन करने से प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित [=एकाग्र+स्थिर] हो जाता है। समाहित चित्त यथास्वरूप जानता और देखता है। यथास्वरूप जानने और देखने से मोहभंग होता है। मोहभंग होने से विराग होता है। विराग होने से विमुक्त होता है। ये नौ धर्म बहुत उपकारक हैं।
• कौन-से नौ धर्मों की साधना करनी चाहिए? नौ परिशुद्धि के परिश्रम अंग हैं — शील विशुद्धि परिशुद्धि का परिश्रम अंग है। चित्त विशुद्धि… दृष्टि विशुद्धि… शंका समाधान विशुद्धि… मार्ग-अमार्ग ज्ञान-दर्शन… साधनामार्ग ज्ञान-दर्शन विशुद्धि… ज्ञान-दर्शन विशुद्धि… प्रज्ञा विशुद्धि… विमुक्ति विशुद्धि परिशुद्धि का परिश्रम अंग है। इन नौ धर्मों की साधना करनी चाहिए। 14
• कौन-से नौ धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए? नौ सत्व-वास हैं।
(१) ऐसे सत्व होते हैं, जिनकी विविध काया और विविध नजरिए होते हैं। जैसे, मानव, कुछ तरह के देवतागण, और कुछ तरह के निचले लोक। यह पहला सत्व-वास है।
(२) ऐसे सत्व होते हैं, जिनकी विविध काया, किन्तु एक-जैसा नजरिया होता है। जैसे, प्रथम-ध्यान से उपजे ब्रह्मकायिक देवतागण। यह दूसरा सत्व-वास है।
(३) ऐसे सत्व होते हैं, जिनकी एक-जैसी काया और विविध नजरिए होते हैं। जैसे, आभास्वर देवतागण। यह तीसरा सत्व-वास है।
(४) ऐसे सत्व होते हैं, जिनकी एक-जैसी काया और एक-जैसा नजरिया होता है। जैसे, शुभ काले देवतागण। यह चौथा सत्व-वास है।
(५) ऐसे सत्व होते हैं, जो असंज्ञी [=अबोधगम्य] असंवेदनशील होते हैं। जैसे, असंज्ञी सत्व देवतागण। यह पाँचवा सत्व-वास है।
(६) ऐसे सत्व होते हैं, जो रूप-नजरिया पूर्णतः लाँघ कर, विरोधी-नजरिए ओझल होने पर, विभिन्न-नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनंत है’ [देखते हुए] अनंत आकाश-आयाम में रहते हैं। यह छठा सत्व-वास है।
(७) ऐसे सत्व होते हैं, जो अनंत आकाश-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘चैतन्य अनंत है’ [देखते हुए] अनंत चैतन्य-आयाम में रहते हैं। यह सातवा सत्व-वास है।
(८) ऐसे सत्व होते हैं, जो अनंत चैतन्य-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] सूने-आयाम में रहते हैं। यह आठवा सत्व-वास है।
(९) ऐसे सत्व होते हैं, जो सूने-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, न-संज्ञा-न-असंज्ञा [=न बोधगम्य न अबोधगम्य] आयाम में रहते हैं। यह नौवा सत्व-वास है।
इन नौ धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए।
• कौन-से नौ धर्मों को त्यागना चाहिए? नौ तृष्णा के मूलक धर्म हैं — तृष्णा के कारण खोज [=परियेसना, कामुक विषयों की खोज] होती है। खोज के कारण प्राप्ति [=लाभ] होती है। प्राप्ति के कारण निश्चय [=विनिच्छय, कामुक निश्चय] होता है। निश्चय के कारण चाहत और दिलचस्पी [=छन्दराग] होती है। चाहत और दिलचस्पी के कारण चिपकाव [=अज्झोसान] होता है। चिपकाव के कारण कंजूसी [=मच्छरिय, मन छोटा होना] होती है। कंजूसी के कारण रक्षा [“आरक्ख”] होती है। और, रक्षा करते हुए विविध पाप अकुशल स्वभाव प्रकट होने लगते हैं — जैसे डंडा या शस्त्र उठाना, झगड़ा, बहस, या विवाद करना, आरोप-प्रत्यारोप करना, फूट डालना और झूठ बोलना। इन नौ धर्मों को त्यागना चाहिए।
• कौन-से नौ धर्म हानिकारक हैं? नौ रोष [“आघात” =बदला लेने की इच्छा] के आधार हैं — “मेरा अनर्थ किया”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरा अनर्थ कर रहा है”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरा अनर्थ करेगा”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरे प्रिय मनपसंद लोगों का अनर्थ किया”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरे प्रिय मनपसंद लोगों का अनर्थ कर रहा है”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरे प्रिय मनपसंद लोगों का अनर्थ करेगा”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरे अप्रिय नापसंद लोगों का भला किया”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरे अप्रिय नापसंद लोगों का भला कर रहा है”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। “मेरे अप्रिय नापसंद लोगों का भला करेगा”, [सोचकर] रोष पकड़ता है। ये नौ धर्म हानिकारक हैं।
• कौन-से नौ धर्म विशिष्टता लाते हैं? नौ रोष हटाने के आधार हैं — “मेरा अनर्थ किया। [लेकिन संसार में] और क्या मिलता है?” [सोचकर] रोष हटाता है। “मेरा अनर्थ कर रहा है। और क्या मिलता है?” [सोचकर] रोष हटाता है। “मेरा अनर्थ करेगा। और क्या मिलता है?” [सोचकर] रोष हटाता है। “मेरे प्रिय मनपसंद लोगों का अनर्थ किया। और क्या मिलता है?"[सोचकर] रोष हटाता है। “मेरे प्रिय मनपसंद लोगों का अनर्थ कर रहा है। और क्या मिलता है?"[सोचकर] रोष हटाता है। “मेरे प्रिय मनपसंद लोगों का अनर्थ करेगा। और क्या मिलता है?"[सोचकर] रोष हटाता है। “मेरे अप्रिय नापसंद लोगों का भला किया। और क्या मिलता है?"[सोचकर] रोष हटाता है। “मेरे अप्रिय नापसंद लोगों का भला कर रहा है। और क्या मिलता है?"[सोचकर] रोष हटाता है। “मेरे अप्रिय नापसंद लोगों का भला करेगा। और क्या मिलता है?"[सोचकर] रोष हटाता है। ये नौ धर्म विशिष्टता लाते हैं।
• कौन-से नौ धर्म समझने में कठिन हैं? नौ विविधताएँ हैं — विविध धातुओं के आधार से विविध स्पर्श उत्पन्न होते हैं। विविध स्पर्शों के आधार से विविध संवेदनाएँ उत्पन्न होती हैं। विविध संवेदनाओं के आधार से विविध नजरिए [=संज्ञा] उत्पन्न होते हैं। विविध नजरियों के आधार से विविध संकल्प उत्पन्न होते हैं। विविध संकल्पों के आधार से विविध चाहत [“छन्द”] होती हैं। विविध चाहत के आधार से विविध तड़प [“परिळाह”] होती हैं। विविध तड़प के आधार से विविध खोज [=परियेसना, कामुक विषयों की खोज] होती हैं। विविध खोज के आधार से विविध प्राप्ति [=लाभ] होती हैं। ये नौ धर्म समझने में कठिन हैं।
• कौन-से नौ धर्मों को पैदा करना चाहिए? नौ नजरिए हैं — अनाकर्षक [“असुभ”] नजरिया, मौत [“मरण”] नजरिया, आहार प्रतिकूल [“आहारे पटिकूल”] नजरिया, सभी लोक के प्रति निरस [“सब्बलोके अनभिरति”] नजरिया, अनित्य नजरिया, अनित्य से दुःख नजरिया, दुःख से अनात्म नजरिया, त्याग [“पहान”] नजरिया, विराग नजरिया। इन नौ धर्मों को पैदा करना चाहिए।
• कौन-से नौ धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए? नौ अनुक्रमपूर्ण विहार हैं।
(१) यहाँ मित्रों, कोई भिक्षु काम से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त — सोच और विचार के साथ, निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले प्रथम-झान में प्रवेश कर रहता है।
(२) आगे, सोच और विचार रुक जाने पर भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर बिना-सोच बिना-विचार, समाधि से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले द्वितीय-झान में प्रवेश कर रहता है।
(३) तब, आगे वह प्रफुल्लता से विरक्ति ले, स्मरणशीलता और सचेतता के साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं — वह उस तृतीय-झान में प्रवेश कर रहता है।
(४) आगे, वह सुख और दर्द दोनों ही हटाकर, खुशी और परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से, अब नसुख-नदर्दवाले, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-झान में प्रवेश कर रहता है।
(५) आगे, वह रूप नजरियों को पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नजरियों के ओझल होने पर, विविध नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनन्त है’ [देखते हुए] ‘अनन्त आकाश-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है।
(६) आगे, वह अनन्त आकाश-आयाम को पूर्णतः लाँघकर, ‘चैतन्य अनन्त है’ [देखते हुए] ‘अनन्त चैतन्य-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है।
(७) आगे, वह अनन्त चैतन्य-आयाम को पूर्णतः लाँघकर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] ‘सूने-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है।
(८) आगे, वह सूने-आयाम को पूर्णतः लाँघकर, ‘न-नजरिया-न-अनजरिया-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है।
(९) आगे, वह न-नजरिया-न-अनजरिया-आयाम को पूर्णतः लाँघकर, नजरिया और संवेदना निरोध में प्रवेश कर रहता है।
इन नौ धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए।
• कौन-से नौ धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए? नौ अनुक्रमपूर्ण निरोध हैं। (१) प्रथम-झान प्रवेशकर्ता के लिए काम-नजरिए निरुद्ध [=रुक] होते हैं। (२) द्वितीय-झान प्रवेशकर्ता के लिए सोच-विचार [“वितक्क विचार”] निरुद्ध होते हैं। (३) तृतीय-झान प्रवेशकर्ता के लिए प्रफुल्लता निरुद्ध होती है। (४) चतुर्थ-झान प्रवेशकर्ता के लिए आश्वास-प्रश्वास [=साँसें] निरुद्ध होती हैं। (५) आकाश-आयाम प्रवेशकर्ता के लिए रूप नजरिए निरुद्ध होते हैं। (६) चैतन्य-आयाम प्रवेशकर्ता के लिए आकाश-आयाम का नजरिया निरुद्ध होता है। (७) शून्य-आयाम प्रवेशकर्ता के लिए चैतन्य-आयाम का नजरिया निरुद्ध होता है। (८) न-नजरिया न अ-नजरिया-आयाम प्रवेशकर्ता के लिए शून्य-आयाम का नजरिया निरुद्ध होता है। (९) नजरिया-संवेदना निरोध प्रवेशकर्ता के लिए नजरिए और संवेदनाएँ निरुद्ध होते हैं। 15 इन नौ धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
ये नब्बे धर्म तथागत द्वारा सम्यक रूप से अभिबोध किए गए हैं, जो वास्तविक, सच्चे, और तथ्यपूर्ण हैं; तथ्यहीन या अन्यथा नहीं।
दस धर्म बहुत उपकारक हैं, मित्रों। दस धर्मों की साधना करनी चाहिए। दस धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए। दस धर्मों को त्यागना चाहिए। दस धर्म हानिकारक हैं। दस धर्म विशिष्टता लाते हैं। दस धर्म समझने में कठिन हैं। दस धर्मों को पैदा करना चाहिए। दस धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए। दस धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
• कौन-से दस धर्म बहुत उपकारक हैं? दस धर्म संरक्षण करते हैं।
(१) कोई भिक्षु शीलवान होता है। वह पातिमोक्ष के अनुसार संयम से विनीत होकर, आर्य आचरण और जीवनशैली से संपन्न होकर रहता है। वह [धर्म-विनय] शिक्षापदों को सीख कर धारण करता है, अल्प पाप में भी ख़तरा देखता है। यह धर्म संरक्षण करता है।
(२) आगे, वह बहुत धर्म सुनता है, सुना हुआ धारण करता है, सुना हुआ संचय करता है। ऐसा धर्म, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, और अन्त में कल्याणकारी हो, ऐसे सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ को वह अर्थ और विवरण के साथ बार-बार सुनता है, याद रखता है, चर्चा करता है, संचित करता है, मन से जाँच-पड़ताल करता है, और गहराई से समझकर सम्यकदृष्टि धारण करता है। यह धर्म संरक्षण करता है।
(३) आगे, उसके कल्याणमित्र होते हैं, भले सहचारी होते हैं, भले साथी होते हैं। यह धर्म संरक्षण करता है।
(४) आगे, वह सहज संवादनीय [“सुवचो” =जिसे बोला जा डाँटा जा सके, विनम्र] होता है। वह सहज-संवादनीय धर्म से संपन्न, क्षमाशील [=सहनशील, धैर्यवान], और अनुशासन [=सूचनाओं] को आदर के साथ ग्रहण करता है। यह धर्म संरक्षण करता है।
(५) आगे, वह सब्रह्मचारियों के लिए जो ऊँच-नीच प्रकार के कर्तव्य होते हैं, उनमें दक्ष होता है, आलस्यरहित होता है, काम के तरीकों में प्रयोगशील होकर कार्य करता या प्रबंध करवाता है। यह धर्म संरक्षण करता है।
(६) आगे, वह धर्मप्रेमी होता है, संवाद करने में प्रिय होता है, ऊँचे धर्म और ऊँचे विनय [“अभिधम्म अभिविनय”] में बहुत हर्षित होता है। यह धर्म संरक्षण करता है।
(७) आगे, वह ऐसे-वैसे चीवर, भिक्षा, निवास, और औषधि भेषज्य आवश्यकताओं में संतुष्ट होता है। यह धर्म संरक्षण करता है।
(८) आगे, वह ऊर्जा बढ़ाकर विहार करता है। अकुशल स्वभावों को त्यागने और कुशल स्वभावों को धारण करने के लिए निश्चयबद्ध, दृढ़, और पराक्रमी बने रहता है। कुशल धर्मों के प्रति कर्तव्यों से जी नहीं चुराता। यह धर्म संरक्षण करता है।
(९) आगे, वह स्मृतिमान होता है, याददाश्त में बहुत तेज़। पूर्वकाल में की गई, पूर्वकाल में कही गई बात भी स्मरण रखता है, अनुस्मरण कर पाता है। यह धर्म संरक्षण करता है।
(१०) आगे, वह प्रज्ञावान होता है। वह ऐसे आर्य और भेदक अन्तर्ज्ञान से संपन्न होता है, जो उदय और अस्त होना समझ सके, और दुःखों के सम्यक-अंत की ओर ले जाए। यह धर्म संरक्षण करता है।
ये दस धर्म बहुत उपकारक हैं।
• कौन-से दस धर्मों की साधना करनी चाहिए? दस समग्रता [“कसिण”] के आयाम हैं — (१) पृथ्वी की समग्रता पहचानता है — ऊपर, नीचे, आड़े-तिरछे, एकमात्र [=दो नहीं], असीम। (२) जल की समग्रता… (३) अग्नि की समग्रता… (४) वायु की समग्रता… (५) नीले की समग्रता… (६) पीले की समग्रता… (७) लाल की समग्रता… (८) सफ़ेद की समग्रता… (९) आकाश की समग्रता… (१०) चैतन्य की समग्रता पहचानता है — ऊपर, नीचे, आड़े-तिरछे, एकमात्र, असीम। इन दस धर्मों की साधना करनी चाहिए।
• कौन-से दस धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए? दस आयाम हैं — आँख आयाम, रूप आयाम, कान आयाम, आवाज आयाम, नाक आयाम, गंध आयाम, जीभ आयाम, रस आयाम, काया आयाम, संस्पर्श आयाम। इन दस धर्मों को पूरी तरह समझना चाहिए।
• कौन-से दस धर्मों को त्यागना चाहिए? दस मिथ्यता हैं — मिथ्या दृष्टि, मिथ्या संकल्प, मिथ्या वाणी, मिथ्या कार्य, मिथ्या जीविका, मिथ्या मेहनत, मिथ्या स्मृति, मिथ्या समाधि, मिथ्या ज्ञान, मिथ्या विमुक्ति। इन दस धर्मों को त्यागना चाहिए।
• कौन-से दस धर्म हानिकारक हैं? दस अकुशल कर्मपथ हैं — जीवहत्या, चोरी, कामुक व्यभिचार, झूठ बोलना, फूट डालने वाली बात करना, कटु बोलना, बकवाद, लालसा, दुर्भावना, मिथ्या दृष्टि। ये दस धर्म हानिकारक हैं।
• कौन-से दस धर्म विशिष्टता लाते हैं? दस कुशल कर्मपथ हैं — जीवहत्या से विरत, चोरी से विरत, कामुक व्यभिचार से विरत, झूठ बोलने से विरत, फूट डालने वाली बात करने से विरत, कटु बोलने से विरत, बकवाद से विरत, लालसा-रहित, दुर्भावना-रहित, सम्यक दृष्टि। ये दस धर्म विशिष्टता लाते हैं।
• कौन-से दस धर्म समझने में कठिन हैं? दस आर्यवास हैं — कोई भिक्षु पाँच अंगों का त्यागी, छह अंगों से संपन्न, एक से रक्षित, चार आधार पर, अपनी मान्यताओं को त्याग चुका, खोज को पूर्णतः त्याग चुका, निर्मल संकल्प वाला, प्रशांत शारीरिक-रचना वाला, सुविमुक्त चित्त वाला, सुविमुक्त प्रज्ञा वाला।
(१) मित्रों, कैसे भिक्षु पाँच अंगों का त्यागी होता है? कोई भिक्षु कामेच्छा का त्यागी होता है, दुर्भावना का त्यागी होता है, सुस्ती और तंद्रा का त्यागी होता है, बेचैनी और पश्चाताप का त्यागी होता है, अनिश्चितता का त्यागी होता है। इस तरह भिक्षु पाँच अंगों का त्यागी होता है।
(२) कैसे भिक्षु छह अंगों से संपन्न होता है? कोई भिक्षु आँखों से रूप देखकर न अच्छा मन बनाता है, न बुरा मन। बल्कि तटस्थ, स्मरणशील और सचेत विहार करता है। कोई भिक्षु कानों से आवाज सुनकर… नाक से गंध सूँघकर… जीभ से स्वाद चखकर… काया से संस्पर्श महसूस कर… मन से स्वभाव जानकर न अच्छा मन बनाता है, न बुरा मन। बल्कि तटस्थ, स्मरणशील और सचेत विहार करता है। इस तरह, भिक्षु छह अंगों से संपन्न होता है।
(३) कैसे भिक्षु एक से रक्षित होता है? कोई भिक्षु स्मृति [=स्मरणशीलता] से रक्षित चित्त से संपन्न होता है। इस तरह, भिक्षु एक से रक्षित होता है।
(४) कैसे भिक्षु चार आधार पर होता है? कोई भिक्षु जाँच-परख कर [कुछ का] उपयोग करता है, जाँच-परख कर [कुछ को] सहता है, जाँच-परख कर [कुछ को] टालता है, जाँच-परख कर [कुछ को] छोड़ देता है। इस तरह, भिक्षु चार आधार पर होता है।
(५) कैसे भिक्षु अपनी मान्यताओं [“पच्चेक सच्च”] को त्यागता है? कोई भिक्षु जनसामान्य श्रमण-ब्राह्मणों की जो जनसामान्य मान्यताएँ होती हैं, उन सभी को हाँकता [=भगाता] है, खत्म करता है, फेंकता है, खंडन करता है, मुक्त करता है, छोड़ता है, जाने देता है। इस तरह, भिक्षु अपनी मान्यताओं को त्यागता है।
(६) कैसे भिक्षु खोज को पूर्णतः त्यागता है? कोई भिक्षु अपनी कामुक खोज का त्याग करता है, अपनी अस्तित्व की खोज का त्याग करता है, अपनी ब्रह्मचर्य की खोज को शांत करता है। इस तरह, भिक्षु खोज को पूर्णतः त्यागता है।
(७) कैसे भिक्षु निर्मल संकल्प वाला होता है? कोई भिक्षु कामुक संकल्पों का त्याग करता है, दुर्भावनाभरे संकल्पों का त्याग करता है, हिंसात्मक संकल्पों का त्याग करता है। इस तरह, भिक्षु निर्मल संकल्प वाला होता है।
(८) कैसे भिक्षु प्रशांत शारीरिक-रचना वाला होता है? कोई भिक्षु सुख और दर्द दोनों ही हटाकर, खुशी और परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से, अब नसुख-नदर्दवाले, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-झान में प्रवेश कर रहता है। इस तरह, भिक्षु प्रशांत शारीरिक-रचना वाला होता है।
(९) कैसे भिक्षु सुविमुक्त चित्त वाला होता है? कोई भिक्षु राग से चित्त को विमुक्त करता है, द्वेष से चित्त को विमुक्त करता है, भ्रम से चित्त को विमुक्त करता है। इस तरह, भिक्षु सुविमुक्त चित्त वाला होता है।
(१०) कैसे भिक्षु सुविमुक्त प्रज्ञा वाला होता है? कोई भिक्षु अंतर्ज्ञान से जानता है, “मेरा राग त्याग दिया गया, जड़ उखाड़ी गयी, शीर्ष काटे ताड़ जैसा बनाया गया, अस्तित्व मिटाया गया, भविष्य में अनुत्पाद स्वभाव का कर दिया गया।” इस तरह, भिक्षु सुविमुक्त प्रज्ञा वाला होता है।
ये दस धर्म समझने में कठिन हैं।
• कौन-से दस धर्मों को पैदा करना चाहिए? दस नजरिए हैं — अनाकर्षक नजरिया, मौत नजरिया, आहार प्रतिकूल नजरिया, सभी लोक के प्रति निरस नजरिया, अनित्य नजरिया, अनित्य से दुःख नजरिया, दुःख से अनात्म नजरिया, त्याग नजरिया, विराग नजरिया, निरोध नजरिया। इन दस धर्मों को पैदा करना चाहिए।
• कौन-से दस धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए? दस जीर्ण करने [=मिटाने] के आधार हैं — (१) सम्यक दृष्टिवान की मिथ्या दृष्टि जीर्ण होती है। और मिथ्या दृष्टि के आधार पर जो अनेक पाप अकुशल धर्म होते हैं, वे भी जीर्ण होते हैं। (२) सम्यक संकल्पवान के मिथ्या संकल्प जीर्ण… (३) सम्यक वाणी वाले की मिथ्या वाणी जीर्ण… (४) सम्यक कार्य वाले के मिथ्या कार्य जीर्ण… (५) सम्यक जीविका वाले की मिथ्या जीविका जीर्ण… (६) सम्यक मेहनती की मिथ्या मेहनत जीर्ण… (७) सम्यक स्मृतिवान की मिथ्या स्मृति जीर्ण… (८) सम्यक समाधिस्त की मिथ्या समाधि जीर्ण… (९) सम्यक ज्ञानी का मिथ्या ज्ञान जीर्ण… (१०) सम्यक विमुक्त की मिथ्या विमुक्ति जीर्ण होती है। और मिथ्या विमुक्ति के आधार पर जो अनेक पाप अकुशल धर्म होते हैं, वे भी जीर्ण होते हैं। इन दस धर्मों को प्रत्यक्ष जानना चाहिए।
• कौन-से दस धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए? दस अशैक्ष्य [=अरहंत] धर्म हैं — अशैक्ष्य सम्यक दृष्टि, अशैक्ष्य सम्यक संकल्प, अशैक्ष्य सम्यक वाणी, अशैक्ष्य सम्यक कार्य, अशैक्ष्य सम्यक जीविका, अशैक्ष्य सम्यक मेहनत, अशैक्ष्य सम्यक स्मृति, अशैक्ष्य सम्यक समाधि, अशैक्ष्य सम्यक ज्ञान, अशैक्ष्य सम्यक विमुक्ति। इन दस धर्मों का साक्षात्कार करना चाहिए।
ये सौ धर्म तथागत द्वारा सम्यक रूप से अभिबोध किए गए हैं, जो वास्तविक, सच्चे, और तथ्यपूर्ण हैं; तथ्यहीन या अन्यथा नहीं।”
आयुष्मान सारिपुत्त ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त की बात का अभिनंदन किया।
“आनन्तरिको चेतोसमाधि”, अर्थात, जो समाधि आर्यफल पाने के तुरंत पश्चात लगती है। इसका उल्लेख सुत्तनिपात २:१ रतनसुत्त और अंगुत्तरनिकाय ९:३७ में उल्लेख किया गया है। ↩︎
रोज़मर्रा की भाषा में वितक्क का अर्थ है, मन में आती कोई बात या कोई विषय। जबकि, विचार का अर्थ है, उसी एक विषय पर लंबी देर तक चिंतन करते रहना। किसी के चंचल मन में लगातार तरह-तरह की बातें या विषय आते रहते हैं, किन्तु मन किसी बात पर टिकता नहीं, रुकता नहीं, बल्कि दौड़ते ही रहता है। दूसरी ओर, किसी के स्थिर मन में यदि एक बात आ जाए, तो मन बड़ी देर तक उसी पर टिके रहता है, और उसका गहरा-गहरा चिंतन होते रहता है। अब, बौद्ध समाधि की भाषा में कहें, तो चित्त को साधना-संबंधी विषय (जैसे अशुभ, आनापान इत्यादि) देना ‘वितक्क’ है, और चित्त को उसी विषय पर लंबी देर तक टिकाए रखना ‘विचार’ है। विषय-चिंतन के साथ समाधि प्रथम ध्यान-अवस्था होती है, विषय-चिंतन रहित समाधि द्वितीय ध्यान-अवस्था होती है। और उन दोनों के बीच विषय-रहित सीमित-चिंतन वाली समाधि होती है। ↩︎
अंगुत्तरनिकाय ५.२८ देखें। ↩︎
अंगुत्तरनिकाय ५.२०५ पढ़ें। साथ ही अंगुत्तरनिकाय १०.१४ और मज्झिमनिकाय १६। ↩︎
अंगुत्तरनिकाय ५.२०० देखें। ↩︎
अंगुत्तरनिकाय ३.७१ देखें। ↩︎
अंगुत्तरनिकाय ६.४० में उल्लेख आता हैं कि इन छह कारणों से बुद्ध शासन चिरस्थायी बने रहता है। ↩︎
अंगुत्तरनिकाय ६.३० देखें। ↩︎
अंगुत्तरनिकाय ७.४४ और दीघनिकाय १५ में इसका उल्लेख देखें। ↩︎
अंगुत्तरनिकाय ७.६८ देखें। ↩︎
अंगुत्तरनिकाय ७.२० देखें। ↩︎
अंगुत्तरनिकाय ८.२ देखें। ↩︎
अंगुत्तरनिकाय ८.६ देखें। ↩︎
इनमें से चार का उल्लेख अंगुत्तरनिकाय ४.१९४ में मिलता है, जबकि अन्य सात का अलग शब्दों में विवरण मज्झिमनिकाय २३ में मिलता है। ↩︎
अंगुत्तरनिकाय ९.६१ देखें। ↩︎
३५०. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा चम्पायं विहरति गग्गराय पोक्खरणिया तीरे महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि। तत्र खो आयस्मा सारिपुत्तो भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘आवुसो भिक्खवे’’ति! ‘‘आवुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स पच्चस्सोसुं। आयस्मा सारिपुत्तो एतदवोच –
‘‘दसुत्तरं पवक्खामि, धम्मं निब्बानपत्तिया।
दुक्खस्सन्तकिरियाय, सब्बगन्थप्पमोचनं’’॥
एको धम्मो
३५१. ‘‘एको, आवुसो, धम्मो बहुकारो, एको धम्मो भावेतब्बो, एको धम्मो परिञ्ञेय्यो, एको धम्मो पहातब्बो, एको धम्मो हानभागियो, एको धम्मो विसेसभागियो, एको धम्मो दुप्पटिविज्झो, एको धम्मो उप्पादेतब्बो, एको धम्मो अभिञ्ञेय्यो, एको धम्मो सच्छिकातब्बो।
(क) ‘‘कतमो एको धम्मो बहुकारो? अप्पमादो कुसलेसु धम्मेसु। अयं एको धम्मो बहुकारो।
(ख) ‘‘कतमो एको धम्मो भावेतब्बो? कायगतासति सातसहगता। अयं एको धम्मो भावेतब्बो।
(ग) ‘‘कतमो एको धम्मो परिञ्ञेय्यो? फस्सो सासवो उपादानियो। अयं एको धम्मो परिञ्ञेय्यो।
(घ) ‘‘कतमो एको धम्मो पहातब्बो? अस्मिमानो। अयं एको धम्मो पहातब्बो।
(ङ) ‘‘कतमो एको धम्मो हानभागियो? अयोनिसो मनसिकारो। अयं एको धम्मो हानभागियो।
(च) ‘‘कतमो एको धम्मो विसेसभागियो? योनिसो मनसिकारो। अयं एको धम्मो विसेसभागियो।
(छ) ‘‘कतमो एको धम्मो दुप्पटिविज्झो? आनन्तरिको चेतोसमाधि। अयं एको धम्मो दुप्पटिविज्झो।
(ज) ‘‘कतमो एको धम्मो उप्पादेतब्बो? अकुप्पं ञाणं। अयं एको धम्मो उप्पादेतब्बो।
(झ) ‘‘कतमो एको धम्मो अभिञ्ञेय्यो? सब्बे सत्ता आहारट्ठितिका। अयं एको धम्मो अभिञ्ञेय्यो।
(ञ) ‘‘कतमो एको धम्मो सच्छिकातब्बो? अकुप्पा चेतोविमुत्ति। अयं एको धम्मो सच्छिकातब्बो।
‘‘इति इमे दस धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञ्ञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा।
द्वे धम्मा
३५२. ‘‘द्वे धम्मा बहुकारा, द्वे धम्मा भावेतब्बा, द्वे धम्मा परिञ्ञेय्या, द्वे धम्मा पहातब्बा, द्वे धम्मा हानभागिया, द्वे धम्मा विसेसभागिया, द्वे धम्मा दुप्पटिविज्झा, द्वे धम्मा उप्पादेतब्बा, द्वे धम्मा अभिञ्ञेय्या, द्वे धम्मा सच्छिकातब्बा।
(क) ‘‘कतमे द्वे धम्मा बहुकारा? सति च सम्पजञ्ञञ्च। इमे द्वे धम्मा बहुकारा।
(ख) ‘‘कतमे द्वे धम्मा भावेतब्बा? समथो च विपस्सना च। इमे द्वे धम्मा भावेतब्बा।
(ग) ‘‘कतमे द्वे धम्मा परिञ्ञेय्या? नामञ्च रूपञ्च। इमे द्वे धम्मा परिञ्ञेय्या।
(घ) ‘‘कतमे द्वे धम्मा पहातब्बा? अविज्जा च भवतण्हा च। इमे द्वे धम्मा पहातब्बा।
(ङ) ‘‘कतमे द्वे धम्मा हानभागिया? दोवचस्सता च पापमित्तता च। इमे द्वे धम्मा हानभागिया।
(च) ‘‘कतमे द्वे धम्मा विसेसभागिया? सोवचस्सता च कल्याणमित्तता च। इमे द्वे धम्मा विसेसभागिया।
(छ) ‘‘कतमे द्वे धम्मा दुप्पटिविज्झा? यो च हेतु यो च पच्चयो सत्तानं संकिलेसाय, यो च हेतु यो च पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया। इमे द्वे धम्मा दुप्पटिविज्झा।
(ज) ‘‘कतमे द्वे धम्मा उप्पादेतब्बा? द्वे ञाणानि – खये ञाणं, अनुप्पादे ञाणं। इमे द्वे धम्मा उप्पादेतब्बा।
(झ) ‘‘कतमे द्वे धम्मा अभिञ्ञेय्या? द्वे धातुयो – सङ्खता च धातु असङ्खता च धातु। इमे द्वे धम्मा अभिञ्ञेय्या।
(ञ) ‘‘कतमे द्वे धम्मा सच्छिकातब्बा? विज्जा च विमुत्ति च। इमे द्वे धम्मा सच्छिकातब्बा।
‘‘इति इमे वीसति धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञ्ञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा।
तयो धम्मा
३५३. ‘‘तयो धम्मा बहुकारा, तयो धम्मा भावेतब्बा…पे॰… तयो धम्मा सच्छिकातब्बा।
(क) ‘‘कतमे तयो धम्मा बहुकारा? सप्पुरिससंसेवो, सद्धम्मस्सवनं, धम्मानुधम्मप्पटिपत्ति। इमे तयो धम्मा बहुकारा।
(ख) ‘‘कतमे तयो धम्मा भावेतब्बा? तयो समाधी – सवितक्को सविचारो समाधि, अवितक्को विचारमत्तो समाधि, अवितक्को अविचारो समाधि। इमे तयो धम्मा भावेतब्बा।
(ग) ‘‘कतमे तयो धम्मा परिञ्ञेय्या? तिस्सो वेदना – सुखा वेदना, दुक्खा वेदना, अदुक्खमसुखा वेदना। इमे तयो धम्मा परिञ्ञेय्या।
(घ) ‘‘कतमे तयो धम्मा पहातब्बा? तिस्सो तण्हा – कामतण्हा, भवतण्हा, विभवतण्हा। इमे तयो धम्मा पहातब्बा।
(ङ) ‘‘कतमे तयो धम्मा हानभागिया? तीणि अकुसलमूलानि – लोभो अकुसलमूलं, दोसो अकुसलमूलं, मोहो अकुसलमूलं। इमे तयो धम्मा हानभागिया।
(च) ‘‘कतमे तयो धम्मा विसेसभागिया? तीणि कुसलमूलानि – अलोभो कुसलमूलं, अदोसो कुसलमूलं, अमोहो कुसलमूलं। इमे तयो धम्मा विसेसभागिया।
(छ) ‘‘कतमे तयो धम्मा दुप्पटिविज्झा? तिस्सो निस्सरणिया धातुयो – कामानमेतं निस्सरणं यदिदं नेक्खम्मं, रूपानमेतं निस्सरणं यदिदं अरूपं, यं खो पन किञ्चि भूतं सङ्खतं पटिच्चसमुप्पन्नं, निरोधो तस्स निस्सरणं। इमे तयो धम्मा दुप्पटिविज्झा।
(ज) ‘‘कतमे तयो धम्मा उप्पादेतब्बा? तीणि ञाणानि – अतीतंसे ञाणं, अनागतंसे ञाणं, पच्चुप्पन्नंसे ञाणं। इमे तयो धम्मा उप्पादेतब्बा।
(झ) ‘‘कतमे तयो धम्मा अभिञ्ञेय्या? तिस्सो धातुयो – कामधातु, रूपधातु, अरूपधातु। इमे तयो धम्मा अभिञ्ञेय्या।
(ञ) ‘‘कतमे तयो धम्मा सच्छिकातब्बा? तिस्सो विज्जा – पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणं विज्जा, सत्तानं चुतूपपाते ञाणं विज्जा, आसवानं खये ञाणं विज्जा। इमे तयो धम्मा सच्छिकातब्बा।
‘‘इति इमे तिंस धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञ्ञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा।
चत्तारो धम्मा
३५४. ‘‘चत्तारो धम्मा बहुकारा, चत्तारो धम्मा भावेतब्बा…पे॰… चत्तारो धम्मा सच्छिकातब्बा।
(क) ‘‘कतमे चत्तारो धम्मा बहुकारा? चत्तारि चक्कानि – पतिरूपदेसवासो, सप्पुरिसूपनिस्सयो [सप्पुरिसुपस्सयो (स्या॰ कं॰)], अत्तसम्मापणिधि, पुब्बे च कतपुञ्ञता। इमे चत्तारो धम्मा बहुकारा।
(ख) ‘‘कतमे चत्तारो धम्मा भावेतब्बा? चत्तारो सतिपट्ठाना – इधावुसो, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। वेदनासु…पे॰… चित्ते… धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। इमे चत्तारो धम्मा भावेतब्बा।
(ग) ‘‘कतमे चत्तारो धम्मा परिञ्ञेय्या? चत्तारो आहारा – कबळीकारो [कवळीकारो (स्या॰ कं॰)] आहारो ओळारिको वा सुखुमो वा, फस्सो दुतियो, मनोसञ्चेतना ततिया, विञ्ञाणं चतुत्थं। इमे चत्तारो धम्मा परिञ्ञेय्या।
(घ) ‘‘कतमे चत्तारो धम्मा पहातब्बा? चत्तारो ओघा – कामोघो, भवोघो, दिट्ठोघो, अविज्जोघो। इमे चत्तारो धम्मा पहातब्बा।
(ङ) ‘‘कतमे चत्तारो धम्मा हानभागिया? चत्तारो योगा – कामयोगो, भवयोगो, दिट्ठियोगो, अविज्जायोगो। इमे चत्तारो धम्मा हानभागिया।
(च) ‘‘कतमे चत्तारो धम्मा विसेसभागिया? चत्तारो विसञ्ञोगा – कामयोगविसंयोगो, भवयोगविसंयोगो, दिट्ठियोगविसंयोगो, अविज्जायोगविसंयोगो। इमे चत्तारो धम्मा विसेसभागिया।
(छ) ‘‘कतमे चत्तारो धम्मा दुप्पटिविज्झा? चत्तारो समाधी – हानभागियो समाधि, ठितिभागियो समाधि, विसेसभागियो समाधि, निब्बेधभागियो समाधि। इमे चत्तारो धम्मा दुप्पटिविज्झा।
(ज) ‘‘कतमे चत्तारो धम्मा उप्पादेतब्बा? चत्तारि ञाणानि – धम्मे ञाणं, अन्वये ञाणं, परिये ञाणं, सम्मुतिया ञाणं। इमे चत्तारो धम्मा उप्पादेतब्बा।
(झ) ‘‘कतमे चत्तारो धम्मा अभिञ्ञेय्या? चत्तारि अरियसच्चानि – दुक्खं अरियसच्चं, दुक्खसमुदयं [दुक्खसमुदयो (स्या॰ कं॰)] अरियसच्चं, दुक्खनिरोधं [दुक्खनिरोधो (स्या॰ कं॰)] अरियसच्चं, दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्चं। इमे चत्तारो धम्मा अभिञ्ञेय्या।
(ञ) ‘‘कतमे चत्तारो धम्मा सच्छिकातब्बा? चत्तारि सामञ्ञफलानि – सोतापत्तिफलं, सकदागामिफलं, अनागामिफलं, अरहत्तफलं। इमे चत्तारो धम्मा सच्छिकातब्बा।
‘‘इति इमे चत्तारीसधम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञ्ञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा।
पञ्च धम्मा
३५५. ‘‘पञ्च धम्मा बहुकारा…पे॰… पञ्च धम्मा सच्छिकातब्बा।
(क) ‘‘कतमे पञ्च धम्मा बहुकारा? पञ्च पधानियङ्गानि – इधावुसो, भिक्खु सद्धो होति, सद्दहति तथागतस्स बोधिं – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ति। अप्पाबाधो होति अप्पातङ्को समवेपाकिनिया गहणिया समन्नागतो नातिसीताय नाच्चुण्हाय मज्झिमाय पधानक्खमाय। असठो होति अमायावी यथाभूतमत्तानं आवीकत्ता सत्थरि वा विञ्ञूसु वा सब्रह्मचारीसु। आरद्धवीरियो विहरति अकुसलानं धम्मानं पहानाय, कुसलानं धम्मानं उपसम्पदाय, थामवा दळ्हपरक्कमो अनिक्खित्तधुरो कुसलेसु धम्मेसु। पञ्ञवा होति उदयत्थगामिनिया पञ्ञाय समन्नागतो अरियाय निब्बेधिकाय सम्मा दुक्खक्खयगामिनिया। इमे पञ्च धम्मा बहुकारा।
(ख) ‘‘कतमे पञ्च धम्मा भावेतब्बा? पञ्चङ्गिको सम्मासमाधि – पीतिफरणता, सुखफरणता, चेतोफरणता, आलोकफरणता, पच्चवेक्खणनिमित्तं [पच्चवेक्खणानिमित्तं (स्या॰ कं॰)]। इमे पञ्च धम्मा भावेतब्बा।
(ग) ‘‘कतमे पञ्च धम्मा परिञ्ञेय्या? पञ्चुपादानक्खन्धा [सेय्यथीदं (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] – रूपुपादानक्खन्धो, वेदनुपादानक्खन्धो, सञ्ञुपादानक्खन्धो, सङ्खारुपादानक्खन्धो विञ्ञाणुपादानक्खन्धो। इमे पञ्च धम्मा परिञ्ञेय्या।
(घ) ‘‘कतमे पञ्च धम्मा पहातब्बा? पञ्च नीवरणानि – कामच्छन्दनीवरणं, ब्यापादनीवरणं, थिनमिद्धनीवरणं, उद्धच्चकुकुच्चनीवरणं, विचिकिच्छानीवरणं। इमे पञ्च धम्मा पहातब्बा।
(ङ) ‘‘कतमे पञ्च धम्मा हानभागिया? पञ्च चेतोखिला – इधावुसो, भिक्खु सत्थरि कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति। यो सो, आवुसो, भिक्खु सत्थरि कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय पधानाय। यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय पधानाय। अयं पठमो चेतोखिलो। पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु धम्मे कङ्खति विचिकिच्छति…पे॰… सङ्घे कङ्खति विचिकिच्छति…पे॰… सिक्खाय कङ्खति विचिकिच्छति…पे॰… सब्रह्मचारीसु कुपितो होति अनत्तमनो आहतचित्तो खिलजातो, यो सो, आवुसो, भिक्खु सब्रह्मचारीसु कुपितो होति अनत्तमनो आहतचित्तो खिलजातो, तस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय पधानाय। यस्स चित्तं न नमति आतप्पाय अनुयोगाय सातच्चाय पधानाय। अयं पञ्चमो चेतोखिलो। इमे पञ्च धम्मा हानभागिया।
(च) ‘‘कतमे पञ्च धम्मा विसेसभागिया? पञ्चिन्द्रियानि – सद्धिन्द्रियं, वीरियिन्द्रियं, सतिन्द्रियं, समाधिन्द्रियं, पञ्ञिन्द्रियं। इमे पञ्च धम्मा विसेसभागिया।
(छ) ‘‘कतमे पञ्च धम्मा दुप्पटिविज्झा? पञ्च निस्सरणिया धातुयो – इधावुसो, भिक्खुनो कामे मनसिकरोतो कामेसु चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्चति। नेक्खम्मं खो पनस्स मनसिकरोतो नेक्खम्मे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति। तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्ठितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं कामेहि। ये च कामपच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विघाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि। न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं कामानं निस्सरणं।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो ब्यापादं मनसिकरोतो ब्यापादे चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्चति। अब्यापादं खो पनस्स मनसिकरोतो अब्यापादे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति। तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्ठितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं ब्यापादेन। ये च ब्यापादपच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विघाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि। न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं ब्यापादस्स निस्सरणं।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो विहेसं मनसिकरोतो विहेसाय चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्चति। अविहेसं खो पनस्स मनसिकरोतो अविहेसाय चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति। तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्ठितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं विहेसाय। ये च विहेसापच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विघाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि। न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं विहेसाय निस्सरणं।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो रूपे मनसिकरोतो रूपेसु चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्चति। अरूपं खो पनस्स मनसिकरोतो अरूपे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति। तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्ठितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं रूपेहि। ये च रूपपच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विघाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि। न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं रूपानं निस्सरणं।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो सक्कायं मनसिकरोतो सक्काये चित्तं न पक्खन्दति न पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्चति। सक्कायनिरोधं खो पनस्स मनसिकरोतो सक्कायनिरोधे चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति। तस्स तं चित्तं सुगतं सुभावितं सुवुट्ठितं सुविमुत्तं विसंयुत्तं सक्कायेन। ये च सक्कायपच्चया उप्पज्जन्ति आसवा विघाता परिळाहा, मुत्तो सो तेहि। न सो तं वेदनं वेदेति। इदमक्खातं सक्कायस्स निस्सरणं। इमे पञ्च धम्मा दुप्पटिविज्झा।
(ज) ‘‘कतमे पञ्च धम्मा उप्पादेतब्बा? पञ्च ञाणिको सम्मासमाधि – ‘अयं समाधि पच्चुप्पन्नसुखो चेव आयतिञ्च सुखविपाको’ति पच्चत्तंयेव ञाणं उप्पज्जति। ‘अयं समाधि अरियो निरामिसो’ति पच्चत्तञ्ञेव ञाणं उप्पज्जति। ‘अयं समाधि अकापुरिससेवितो’ति पच्चत्तंयेव ञाणं उप्पज्जति। ‘अयं समाधि सन्तो पणीतो पटिप्पस्सद्धलद्धो एकोदिभावाधिगतो, न ससङ्खारनिग्गय्हवारितगतो’ति [न च ससङ्खारनिग्गय्ह वारितवतोति (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰), न ससङ्खारनिग्गय्हवारिवावतो (क॰), न ससङ्खारनिग्गय्हवारियाधिगतो (?)] पच्चत्तंयेव ञाणं उप्पज्जति। ‘सो खो पनाहं इमं समाधिं सतोव समापज्जामि सतो वुट्ठहामी’ति पच्चत्तंयेव ञाणं उप्पज्जति। इमे पञ्च धम्मा उप्पादेतब्बा।
(झ) ‘‘कतमे पञ्च धम्मा अभिञ्ञेय्या? पञ्च विमुत्तायतनानि – इधावुसो, भिक्खुनो सत्था धम्मं देसेति अञ्ञतरो वा गरुट्ठानियो सब्रह्मचारी। यथा यथा, आवुसो, भिक्खुनो सत्था धम्मं देसेति, अञ्ञतरो वा गरुट्ठानियो सब्रह्मचारी, तथा तथा सो [भिक्खु (स्या॰ कं॰)] तस्मिं धम्मे अत्थप्पटिसंवेदी च होति धम्मपटिसंवेदी च। तस्स अत्थप्पटिसंवेदिनो धम्मपटिसंवेदिनो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति। इदं पठमं विमुत्तायतनं।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो न हेव खो सत्था धम्मं देसेति, अञ्ञतरो वा गरुट्ठानियो सब्रह्मचारी, अपि च खो यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन परेसं देसेति यथा यथा, आवुसो, भिक्खु यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन परेसं देसेति। तथा तथा सो तस्मिं धम्मे अत्थप्पटिसंवेदी च होति धम्मपटिसंवेदी च। तस्स अत्थप्पटिसंवेदिनो धम्मपटिसंवेदिनो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति। इदं दुतियं विमुत्तायतनं।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो न हेव खो सत्था धम्मं देसेति, अञ्ञतरो वा गरुट्ठानियो सब्रह्मचारी, नापि यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन परेसं देसेति। अपि च खो, यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन सज्झायं करोति। यथा यथा, आवुसो, भिक्खु यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन सज्झायं करोति तथा तथा सो तस्मिं धम्मे अत्थप्पटिसंवेदी च होति धम्मपटिसंवेदी च। तस्स अत्थप्पटिसंवेदिनो धम्मपटिसंवेदिनो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति। इदं ततियं विमुत्तायतनं।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो न हेव खो सत्था धम्मं देसेति, अञ्ञतरो वा गरुट्ठानियो सब्रह्मचारी, नापि यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन परेसं देसेति, नापि यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन सज्झायं करोति। अपि च खो, यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं चेतसा अनुवितक्केति अनुविचारेति मनसानुपेक्खति। यथा यथा, आवुसो, भिक्खु यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं चेतसा अनुवितक्केति अनुविचारेति मनसानुपेक्खति तथा तथा सो तस्मिं धम्मे अत्थप्पटिसंवेदी च होति धम्मपटिसंवेदी च। तस्स अत्थप्पटिसंवेदिनो धम्मपटिसंवेदिनो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति। इदं चतुत्थं विमुत्तायतनं।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो न हेव खो सत्था धम्मं देसेति, अञ्ञतरो वा गरुट्ठानियो सब्रह्मचारी, नापि यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन परेसं देसेति, नापि यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं वित्थारेन सज्झायं करोति, नापि यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं चेतसा अनुवितक्केति अनुविचारेति मनसानुपेक्खति; अपि च ख्वस्स अञ्ञतरं समाधिनिमित्तं सुग्गहितं होति सुमनसिकतं सूपधारितं सुप्पटिविद्धं पञ्ञाय। यथा यथा, आवुसो, भिक्खुनो अञ्ञतरं समाधिनिमित्तं सुग्गहितं होति सुमनसिकतं सूपधारितं सुप्पटिविद्धं पञ्ञाय तथा तथा सो तस्मिं धम्मे अत्थप्पटिसंवेदी च होति धम्मप्पटिसंवेदी च। तस्स अत्थप्पटिसंवेदिनो धम्मप्पटिसंवेदिनो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति। इदं पञ्चमं विमुत्तायतनं। इमे पञ्च धम्मा अभिञ्ञेय्या।
(ञ) ‘‘कतमे पञ्च धम्मा सच्छिकातब्बा? पञ्च धम्मक्खन्धा – सीलक्खन्धो, समाधिक्खन्धो, पञ्ञाक्खन्धो, विमुत्तिक्खन्धो, विमुत्तिञाणदस्सनक्खन्धो। इमे पञ्च धम्मा सच्छिकातब्बा।
‘‘इति इमे पञ्ञास धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञ्ञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा।
छ धम्मा
३५६. ‘‘छ धम्मा बहुकारा…पे॰… छ धम्मा सच्छिकातब्बा।
(क) ‘‘कतमे छ धम्मा बहुकारा? छ सारणीया धम्मा। इधावुसो, भिक्खुनो मेत्तं कायकम्मं पच्चुपट्ठितं होति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च, अयम्पि धम्मो सारणीयो पियकरणो गरुकरणो सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो मेत्तं वचीकम्मं…पे॰… एकीभावाय संवत्तति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो मेत्तं मनोकम्मं…पे॰… एकीभावाय संवत्तति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु ये ते लाभा धम्मिका धम्मलद्धा अन्तमसो पत्तपरियापन्नमत्तम्पि, तथारूपेहि लाभेहि अप्पटिविभत्तभोगी होति सीलवन्तेहि सब्रह्मचारीहि साधारणभोगी, अयम्पि धम्मो सारणीयो…पे॰… एकीभावाय संवत्तति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु, यानि तानि सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि अकम्मासानि भुजिस्सानि विञ्ञुप्पसत्थानि अपरामट्ठानि समाधिसंवत्तनिकानि, तथारूपेसु सीलेसु सीलसामञ्ञगतो विहरति सब्रह्मचारीहि आवि चेव रहो च, अयम्पि धम्मो सारणीयो…पे॰… एकीभावाय संवत्तति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु यायं दिट्ठि अरिया निय्यानिका निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय, तथारूपाय दिट्ठिया दिट्ठि सामञ्ञगतो विहरति सब्रह्मचारीहि आवि चेव रहो च, अयम्पि धम्मो सारणीयो पियकरणो गरुकरणो, सङ्गहाय अविवादाय सामग्गिया एकीभावाय संवत्तति। इमे छ धम्मा बहुकारा।
(ख) ‘‘कतमे छ धम्मा भावेतब्बा? छ अनुस्सतिट्ठानानि – बुद्धानुस्सति, धम्मानुस्सति, सङ्घानुस्सति, सीलानुस्सति, चागानुस्सति, देवतानुस्सति। इमे छ धम्मा भावेतब्बा।
(ग) ‘‘कतमे छ धम्मा परिञ्ञेय्या? छ अज्झत्तिकानि आयतनानि – चक्खायतनं, सोतायतनं, घानायतनं, जिव्हायतनं, कायायतनं, मनायतनं। इमे छ धम्मा परिञ्ञेय्या।
(घ) ‘‘कतमे छ धम्मा पहातब्बा? छ तण्हाकाया – रूपतण्हा, सद्दतण्हा, गन्धतण्हा, रसतण्हा, फोट्ठब्बतण्हा, धम्मतण्हा। इमे छ धम्मा पहातब्बा।
(ङ) ‘‘कतमे छ धम्मा हानभागिया? छ अगारवा – इधावुसो, भिक्खु सत्थरि अगारवो विहरति अप्पतिस्सो। धम्मे…पे॰… सङ्घे… सिक्खाय… अप्पमादे… पटिसन्थारे अगारवो विहरति अप्पतिस्सो। इमे छ धम्मा हानभागिया।
(च) ‘‘कतमे छ धम्मा विसेसभागिया? छ गारवा – इधावुसो, भिक्खु सत्थरि सगारवो विहरति सप्पतिस्सो धम्मे…पे॰… सङ्घे… सिक्खाय… अप्पमादे… पटिसन्थारे सगारवो विहरति सप्पतिस्सो। इमे छ धम्मा विसेसभागिया।
(छ) ‘‘कतमे छ धम्मा दुप्पटिविज्झा? छ निस्सरणिया धातुयो – इधावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘मेत्ता हि खो मे, चेतोविमुत्ति भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, अथ च पन मे ब्यापादो चित्तं परियादाय तिट्ठती’ति। सो ‘मा हेवं’ तिस्स वचनीयो ‘मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि। न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य। अट्ठानमेतं आवुसो अनवकासो यं मेत्ताय चेतोविमुत्तिया भाविताय बहुलीकताय यानीकताय वत्थुकताय अनुट्ठिताय परिचिताय सुसमारद्धाय। अथ च पनस्स ब्यापादो चित्तं परियादाय ठस्सतीति, नेतं ठानं विज्जति। निस्सरणं हेतं, आवुसो, ब्यापादस्स, यदिदं मेत्ताचेतोविमुत्ती’ति।
‘‘इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘करुणा हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा। अथ च पन मे विहेसा चित्तं परियादाय तिट्ठती’ति। सो – ‘मा हेवं’ तिस्स वचनीयो, ‘मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि…पे॰… निस्सरणं हेतं, आवुसो, विहेसाय, यदिदं करुणाचेतोविमुत्ती’ति।
‘‘इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘मुदिता हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता…पे॰… अथ च पन मे अरति चित्तं परियादाय तिट्ठती’ति। सो – ‘मा हेवं’ तिस्स वचनीयो ‘मायस्मा एवं अवच…पे॰… निस्सरणं हेतं, आवुसो अरतिया, यदिदं मुदिताचेतोविमुत्ती’ति।
‘‘इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘उपेक्खा हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता…पे॰… अथ च पन मे रागो चित्तं परियादाय तिट्ठती’ति। सो – ‘मा हेवं’ तिस्स वचनीयो ‘मायस्मा एवं अवच…पे॰… निस्सरणं हेतं, आवुसो, रागस्स यदिदं उपेक्खाचेतोविमुत्ती’ति।
‘‘इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘अनिमित्ता हि खो मे चेतोविमुत्ति भाविता…पे॰… अथ च पन मे निमित्तानुसारि विञ्ञाणं होती’ति। सो – ‘मा हेवं’ तिस्स वचनीयो ‘मायस्मा एवं अवच…पे॰… निस्सरणं हेतं, आवुसो, सब्बनिमित्तानं यदिदं अनिमित्ता चेतोविमुत्ती’ति।
‘‘इध पनावुसो, भिक्खु एवं वदेय्य – ‘अस्मीति खो मे विगतं, अयमहमस्मीति न समनुपस्सामि, अथ च पन मे विचिकिच्छाकथंकथासल्लं चित्तं परियादाय तिट्ठती’ति। सो – ‘मा हेवं’ तिस्स वचनीयो ‘मायस्मा एवं अवच, मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, न हि साधु भगवतो अब्भक्खानं, न हि भगवा एवं वदेय्य। अट्ठानमेतं, आवुसो, अनवकासो यं अस्मीति विगते अयमहमस्मीति असमनुपस्सतो। अथ च पनस्स विचिकिच्छाकथंकथासल्लं चित्तं परियादाय ठस्सति, नेतं ठानं विज्जति। निस्सरणं हेतं, आवुसो, विचिकिच्छाकथंकथासल्लस्स, यदिदं अस्मिमानसमुग्घाटो’ति। इमे छ धम्मा दुप्पटिविज्झा।
(ज) ‘‘कतमे छ धम्मा उप्पादेतब्बा? छ सततविहारा। इधावुसो, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। सोतेन सद्दं सुत्वा…पे॰… घानेन गन्धं घायित्वा… जिव्हाय रसं सायित्वा… कायेन फोट्ठब्बं फुसित्वा… मनसा धम्मं विञ्ञाय नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। इमे छ धम्मा उप्पादेतब्बा।
(झ) ‘‘कतमे छ धम्मा अभिञ्ञेय्या? छ अनुत्तरियानि – दस्सनानुत्तरियं, सवनानुत्तरियं, लाभानुत्तरियं, सिक्खानुत्तरियं, पारिचरियानुत्तरियं, अनुस्सतानुत्तरियं। इमे छ धम्मा अभिञ्ञेय्या।
(ञ) ‘‘कतमे छ धम्मा सच्छिकातब्बा? छ अभिञ्ञा – इधावुसो, भिक्खु अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोति – एकोपि हुत्वा बहुधा होति, बहुधापि हुत्वा एको होति। आविभावं तिरोभावं। तिरोकुट्टं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानो गच्छति सेय्यथापि आकासे। पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करोति सेय्यथापि उदके। उदकेपि अभिज्जमाने गच्छति सेय्यथापि पथवियं। आकासेपि पल्लङ्केन कमति सेय्यथापि पक्खी सकुणो। इमेपि चन्दिमसूरिये एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे पाणिना परामसति परिमज्जति। याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेति।
‘‘दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय उभो सद्दे सुणाति दिब्बे च मानुसे च, ये दूरे सन्तिके च।
‘‘परसत्तानं परपुग्गलानं चेतसा चेतो परिच्च पजानाति [जानाति (स्या॰ कं॰)], सरागं वा चित्तं सरागं चित्तन्ति पजानाति …पे॰… अविमुत्तं वा चित्तं अविमुत्तं चित्तन्ति पजानाति।
‘‘सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं एकम्पि जातिं…पे॰… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति।
‘‘दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति …पे॰…
‘‘आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। इमे छ धम्मा सच्छिकातब्बा।
‘‘इति इमे सट्ठि धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञ्ञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा।
सत्त धम्मा
३५७. ‘‘सत्त धम्मा बहुकारा…पे॰… सत्त धम्मा सच्छिकातब्बा।
(क) ‘‘कतमे सत्त धम्मा बहुकारा? सत्त अरियधनानि – सद्धाधनं, सीलधनं, हिरिधनं, ओत्तप्पधनं, सुतधनं, चागधनं, पञ्ञाधनं। इमे सत्त धम्मा बहुकारा।
(ख) ‘‘कतमे सत्त धम्मा भावेतब्बा? सत्त सम्बोज्झङ्गा – सतिसम्बोज्झङ्गो, धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो, वीरियसम्बोज्झङ्गो, पीतिसम्बोज्झङ्गो, पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गो, समाधिसम्बोज्झङ्गो, उपेक्खासम्बोज्झङ्गो। इमे सत्त धम्मा भावेतब्बा।
(ग) ‘‘कतमे सत्त धम्मा परिञ्ञेय्या? सत्त विञ्ञाणट्ठितियो – सन्तावुसो, सत्ता नानत्तकाया नानत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि मनुस्सा एकच्चे च देवा एकच्चे च विनिपातिका। अयं पठमा विञ्ञाणट्ठिति।
‘‘सन्तावुसो, सत्ता नानत्तकाया एकत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा ब्रह्मकायिका पठमाभिनिब्बत्ता। अयं दुतिया विञ्ञाणट्ठिति।
‘‘सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया नानत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा आभस्सरा। अयं ततिया विञ्ञाणट्ठिति।
‘‘सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया एकत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा सुभकिण्हा। अयं चतुत्थी विञ्ञाणट्ठिति।
‘‘सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा…पे॰… ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनूपगा। अयं पञ्चमी विञ्ञाणट्ठिति।
‘‘सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनूपगा। अयं छट्ठी विञ्ञाणट्ठिति।
‘‘सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनूपगा। अयं सत्तमी विञ्ञाणट्ठिति। इमे सत्त धम्मा परिञ्ञेय्या।
(घ) ‘‘कतमे सत्त धम्मा पहातब्बा? सत्तानुसया – कामरागानुसयो, पटिघानुसयो, दिट्ठानुसयो, विचिकिच्छानुसयो, मानानुसयो, भवरागानुसयो, अविज्जानुसयो। इमे सत्त धम्मा पहातब्बा।
(ङ) ‘‘कतमे सत्त धम्मा हानभागिया? सत्त असद्धम्मा – इधावुसो, भिक्खु अस्सद्धो होति, अहिरिको होति, अनोत्तप्पी होति, अप्पस्सुतो होति, कुसीतो होति, मुट्ठस्सति होति, दुप्पञ्ञो होति। इमे सत्त धम्मा हानभागिया।
(च) ‘‘कतमे सत्त धम्मा विसेसभागिया? सत्त सद्धम्मा – इधावुसो, भिक्खु सद्धो होति, हिरिमा [हिरिको (स्या॰ कं॰)] होति, ओत्तप्पी होति, बहुस्सुतो होति, आरद्धवीरियो होति, उपट्ठितस्सति होति, पञ्ञवा होति। इमे सत्त धम्मा विसेसभागिया।
(छ) ‘‘कतमे सत्त धम्मा दुप्पटिविज्झा? सत्त सप्पुरिसधम्मा – इधावुसो, भिक्खु धम्मञ्ञू च होति अत्थञ्ञू च अत्तञ्ञू च मत्तञ्ञू च कालञ्ञू च परिसञ्ञू च पुग्गलञ्ञू च। इमे सत्त धम्मा दुप्पटिविज्झा।
(ज) ‘‘कतमे सत्त धम्मा उप्पादेतब्बा? सत्त सञ्ञा – अनिच्चसञ्ञा, अनत्तसञ्ञा, असुभसञ्ञा, आदीनवसञ्ञा, पहानसञ्ञा, विरागसञ्ञा, निरोधसञ्ञा। इमे सत्त धम्मा उप्पादेतब्बा।
(झ) ‘‘कतमे सत्त धम्मा अभिञ्ञेय्या? सत्त निद्दसवत्थूनि – इधावुसो, भिक्खु सिक्खासमादाने तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च सिक्खासमादाने अविगतपेमो। धम्मनिसन्तिया तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च धम्मनिसन्तिया अविगतपेमो। इच्छाविनये तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च इच्छाविनये अविगतपेमो। पटिसल्लाने तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च पटिसल्लाने अविगतपेमो। वीरियारम्मे तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च वीरियारम्मे अविगतपेमो। सतिनेपक्के तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च सतिनेपक्के अविगतपेमो। दिट्ठिपटिवेधे तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च दिट्ठिपटिवेधे अविगतपेमो। इमे सत्त धम्मा अभिञ्ञेय्या।
(ञ) ‘‘कतमे सत्त धम्मा सच्छिकातब्बा? सत्त खीणासवबलानि – इधावुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो अनिच्चतो सब्बे सङ्खारा यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय सुदिट्ठा होन्ति। यंपावुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो अनिच्चतो सब्बे सङ्खारा यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय सुदिट्ठा होन्ति, इदम्पि खीणासवस्स भिक्खुनो बलं होति, यं बलं आगम्म खीणासवो भिक्खु आसवानं खयं पटिजानाति – ‘खीणा मे आसवा’ति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो अङ्गारकासूपमा कामा यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय सुदिट्ठा होन्ति। यंपावुसो…पे॰… ‘खीणा मे आसवा’ति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो विवेकनिन्नं चित्तं होति विवेकपोणं विवेकपब्भारं विवेकट्ठं नेक्खम्माभिरतं ब्यन्तीभूतं सब्बसो आसवट्ठानियेहि धम्मेहि। यंपावुसो…पे॰… ‘खीणा मे आसवा’ति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो चत्तारो सतिपट्ठाना भाविता होन्ति सुभाविता। यंपावुसो…पे॰… ‘खीणा मे आसवा’ति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो पञ्चिन्द्रियानि भावितानि होन्ति सुभावितानि। यंपावुसो…पे॰… ‘खीणा मे आसवा’ति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो सत्त बोज्झङ्गा भाविता होन्ति सुभाविता। यंपावुसो…पे॰… ‘खीणा मे आसवा’ति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो भावितो होति सुभावितो। यंपावुसो, खीणासवस्स भिक्खुनो अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो भावितो होति सुभावितो, इदम्पि खीणासवस्स भिक्खुनो बलं होति, यं बलं आगम्म खीणासवो भिक्खु आसवानं खयं पटिजानाति – ‘खीणा मे आसवा’ति। इमे सत्त धम्मा सच्छिकातब्बा।
‘‘इतिमे सत्तति धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञ्ञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा।
पठमभाणवारो निट्ठितो।
अट्ठ धम्मा
३५८. ‘‘अट्ठ धम्मा बहुकारा…पे॰… अट्ठ धम्मा सच्छिकातब्बा।
(क) ‘‘कतमे अट्ठ धम्मा बहुकारा? अट्ठ हेतू अट्ठ पच्चया आदिब्रह्मचरियिकाय पञ्ञाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तन्ति। कतमे अट्ठ? इधावुसो, भिक्खु सत्थारं [सत्थारं वा (स्या॰ क॰)] उपनिस्साय विहरति अञ्ञतरं वा गरुट्ठानियं सब्रह्मचारिं, यत्थस्स तिब्बं हिरोत्तप्पं पच्चुपट्ठितं होति पेमञ्च गारवो च। अयं पठमो हेतु पठमो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पञ्ञाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय। पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति।
‘‘तं खो पन सत्थारं उपनिस्साय विहरति अञ्ञतरं वा गरुट्ठानियं सब्रह्मचारिं, यत्थस्स तिब्बं हिरोत्तप्पं पच्चुपट्ठितं होति पेमञ्च गारवो च। ते कालेन कालं उपसङ्कमित्वा परिपुच्छति परिपञ्हति – ‘इदं, भन्ते, कथं? इमस्स को अत्थो’ति? तस्स ते आयस्मन्तो अविवटञ्चेव विवरन्ति, अनुत्तानीकतञ्च उत्तानी [अनुत्तानिकतञ्च उत्तानिं (क॰)] करोन्ति, अनेकविहितेसु च कङ्खाट्ठानियेसु धम्मेसु कङ्खं पटिविनोदेन्ति। अयं दुतियो हेतु दुतियो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पञ्ञाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय, पटिलद्धाय भिय्योभावाय, वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति।
‘‘तं खो पन धम्मं सुत्वा द्वयेन वूपकासेन सम्पादेति – कायवूपकासेन च चित्तवूपकासेन च। अयं ततियो हेतु ततियो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पञ्ञाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय, पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सीलवा होति, पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति आचारगोचरसम्पन्नो, अणुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्सावी समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु। अयं चतुत्थो हेतु चतुत्थो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पञ्ञाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय, पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु बहुस्सुतो होति सुतधरो सुतसन्निचयो। ये ते धम्मा आदिकल्याणा मज्झेकल्याणा परियोसानकल्याणा सात्था सब्यञ्जना केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं अभिवदन्ति, तथारूपास्स धम्मा बहुस्सुता होन्ति धाता वचसा परिचिता मनसानुपेक्खिता दिट्ठिया सुप्पटिविद्धा। अयं पञ्चमो हेतु पञ्चमो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पञ्ञाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय, पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु आरद्धवीरियो विहरति अकुसलानं धम्मानं पहानाय, कुसलानं धम्मानं उपसम्पदाय, थामवा दळ्हपरक्कमो अनिक्खित्तधुरो कुसलेसु धम्मेसु। अयं छट्ठो हेतु छट्ठो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पञ्ञाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय, पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सतिमा होति परमेन सतिनेपक्केन समन्नागतो। चिरकतम्पि चिरभासितम्पि सरिता अनुस्सरिता। अयं सत्तमो हेतु सत्तमो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पञ्ञाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय, पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु, उदयब्बयानुपस्सी विहरति – ‘इति रूपं इति रूपस्स समुदयो इति रूपस्स अत्थङ्गमो; इति वेदना इति वेदनाय समुदयो इति वेदनाय अत्थङ्गमो; इति सञ्ञा इति सञ्ञाय समुदयो इति सञ्ञाय अत्थङ्गमो; इति सङ्खारा इति सङ्खारानं समुदयो इति सङ्खारानं अत्थङ्गमो; इति विञ्ञाणं इति विञ्ञाणस्स समुदयो इति विञ्ञाणस्स अत्थङ्गमो’ति। अयं अट्ठमो हेतु अट्ठमो पच्चयो आदिब्रह्मचरियिकाय पञ्ञाय अप्पटिलद्धाय पटिलाभाय, पटिलद्धाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तति। इमे अट्ठ धम्मा बहुकारा।
(ख) ‘‘कतमे अट्ठ धम्मा भावेतब्बा? अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि, सम्मासङ्कप्पो, सम्मावाचा, सम्माकम्मन्तो, सम्माआजीवो, सम्मावायामो, सम्मासति, सम्मासमाधि। इमे अट्ठ धम्मा भावेतब्बा।
(ग) ‘‘कतमे अट्ठ धम्मा परिञ्ञेय्या? अट्ठ लोकधम्मा – लाभो च, अलाभो च, यसो च, अयसो च, निन्दा च, पसंसा च, सुखञ्च, दुक्खञ्च। इमे अट्ठ धम्मा परिञ्ञेय्या।
(घ) ‘‘कतमे अट्ठ धम्मा पहातब्बा? अट्ठ मिच्छत्ता – मिच्छादिट्ठि, मिच्छासङ्कप्पो, मिच्छावाचा, मिच्छाकम्मन्तो, मिच्छाआजीवो, मिच्छावायामो, मिच्छासति, मिच्छासमाधि। इमे अट्ठ धम्मा पहातब्बा।
(ङ) ‘‘कतमे अट्ठ धम्मा हानभागिया? अट्ठ कुसीतवत्थूनि। इधावुसो, भिक्खुना कम्मं कातब्बं होति, तस्स एवं होति – ‘कम्मं खो मे कातब्बं भविस्सति, कम्मं खो पन मे करोन्तस्स कायो किलमिस्सति, हन्दाहं निपज्जामी’ति। सो निपज्जति, न वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाय। इदं पठमं कुसीतवत्थु।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना कम्मं कतं होति। तस्स एवं होति – ‘अहं खो कम्मं अकासिं, कम्मं खो पन मे करोन्तस्स कायो किलन्तो, हन्दाहं निपज्जामी’ति। सो निपज्जति, न वीरियं आरभति…पे॰… इदं दुतियं कुसीतवत्थु।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गन्तब्बो होति। तस्स एवं होति – ‘मग्गो खो मे गन्तब्बो भविस्सति, मग्गं खो पन मे गच्छन्तस्स कायो किलमिस्सति, हन्दाहं निपज्जामी’ति। सो निपज्जति, न वीरियं आरभति…पे॰… इदं ततियं कुसीतवत्थु।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गतो होति। तस्स एवं होति – ‘अहं खो मग्गं अगमासिं, मग्गं खो पन मे गच्छन्तस्स कायो किलन्तो, हन्दाहं निपज्जामी’ति। सो निपज्जति, न वीरियं आरभति…पे॰… इदं चतुत्थं कुसीतवत्थु।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो न लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं। तस्स एवं होति – ‘अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो नालत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं, तस्स मे कायो किलन्तो अकम्मञ्ञो, हन्दाहं निपज्जामी’ति…पे॰… इदं पञ्चमं कुसीतवत्थु।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं। तस्स एवं होति – ‘अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो अलत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं, तस्स मे कायो गरुको अकम्मञ्ञो, मासाचितं मञ्ञे, हन्दाहं निपज्जामी’ति। सो निपज्जति…पे॰… इदं छट्ठं कुसीतवत्थु।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो उप्पन्नो होति अप्पमत्तको आबाधो, तस्स एवं होति – ‘उप्पन्नो खो मे अयं अप्पमत्तको आबाधो अत्थि कप्पो निपज्जितुं, हन्दाहं निपज्जामी’ति। सो निपज्जति…पे॰… इदं सत्तमं कुसीतवत्थु।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गिलानावुट्ठितो होति अचिरवुट्ठितो गेलञ्ञा। तस्स एवं होति – ‘अहं खो गिलानावुट्ठितो अचिरवुट्ठितो गेलञ्ञा। तस्स मे कायो दुब्बलो अकम्मञ्ञो, हन्दाहं निपज्जामी’ति। सो निपज्जति…पे॰… इदं अट्ठमं कुसीतवत्थु। इमे अट्ठ धम्मा हानभागिया।
(च) ‘‘कतमे अट्ठ धम्मा विसेसभागिया? अट्ठ आरम्भवत्थूनि। इधावुसो, भिक्खुना कम्मं कातब्बं होति, तस्स एवं होति – ‘कम्मं खो मे कातब्बं भविस्सति, कम्मं खो पन मे करोन्तेन न सुकरं बुद्धानं सासनं मनसिकातुं, हन्दाहं वीरियं आरभामि अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाया’ति। सो वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाय। इदं पठमं आरम्भवत्थु।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना कम्मं कतं होति। तस्स एवं होति – ‘अहं खो कम्मं अकासिं, कम्मं खो पनाहं करोन्तो नासक्खिं बुद्धानं सासनं मनसिकातुं, हन्दाहं वीरियं आरभामि…पे॰… इदं दुतियं आरम्भवत्थु।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गन्तब्बो होति। तस्स एवं होति – ‘मग्गो खो मे गन्तब्बो भविस्सति, मग्गं खो पन मे गच्छन्तेन न सुकरं बुद्धानं सासनं मनसिकातुं, हन्दाहं वीरियं आरभामि…पे॰… इदं ततियं आरम्भवत्थु।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुना मग्गो गतो होति। तस्स एवं होति – ‘अहं खो मग्गं अगमासिं, मग्गं खो पनाहं गच्छन्तो नासक्खिं बुद्धानं सासनं मनसिकातुं, हन्दाहं वीरियं आरभामि…पे॰… इदं चतुत्थं आरम्भवत्थु।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो न लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं। तस्स एवं होति – ‘अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो नालत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं, तस्स मे कायो लहुको कम्मञ्ञो, हन्दाहं वीरियं आरभामि…पे॰… इदं पञ्चमं आरम्भवत्थु।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो लभति लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं। तस्स एवं होति – ‘अहं खो गामं वा निगमं वा पिण्डाय चरन्तो अलत्थं लूखस्स वा पणीतस्स वा भोजनस्स यावदत्थं पारिपूरिं। तस्स मे कायो बलवा कम्मञ्ञो, हन्दाहं वीरियं आरभामि…पे॰… इदं छट्ठं आरम्भवत्थु।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खुनो उप्पन्नो होति अप्पमत्तको आबाधो। तस्स एवं होति – ‘उप्पन्नो खो मे अयं अप्पमत्तको आबाधो ठानं खो पनेतं विज्जति, यं मे आबाधो पवड्ढेय्य, हन्दाहं वीरियं आरभामि…पे॰… इदं सत्तमं आरम्भवत्थु।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु गिलाना वुट्ठितो होति अचिरवुट्ठितो गेलञ्ञा। तस्स एवं होति – ‘अहं खो गिलाना वुट्ठितो अचिरवुट्ठितो गेलञ्ञा, ठानं खो पनेतं विज्जति, यं मे आबाधो पच्चुदावत्तेय्य, हन्दाहं वीरियं आरभामि अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाया’ति। सो वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय असच्छिकतस्स सच्छिकिरियाय। इदं अट्ठमं आरम्भवत्थु। इमे अट्ठ धम्मा विसेसभागिया।
(छ) ‘‘कतमे अट्ठ धम्मा दुप्पटिविज्झा? अट्ठ अक्खणा असमया ब्रह्मचरियवासाय। इधावुसो, तथागतो च लोके उप्पन्नो होति अरहं सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च देसियति ओपसमिको परिनिब्बानिको सम्बोधगामी सुगतप्पवेदितो। अयञ्च पुग्गलो निरयं उपपन्नो होति। अयं पठमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, तथागतो च लोके उप्पन्नो होति अरहं सम्मासम्बुद्धो, धम्मो च देसियति ओपसमिको परिनिब्बानिको सम्बोधगामी सुगतप्पवेदितो, अयञ्च पुग्गलो तिरच्छानयोनिं उपपन्नो होति। अयं दुतियो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।
‘‘पुन चपरं…पे॰… पेत्तिविसयं उपपन्नो होति। अयं ततियो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।
‘‘पुन चपरं…पे॰… अञ्ञतरं दीघायुकं देवनिकायं उपपन्नो होति। अयं चतुत्थो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।
‘‘पुन चपरं…पे॰… पच्चन्तिमेसु जनपदेसु पच्चाजातो होति मिलक्खेसु अविञ्ञातारेसु, यत्थ नत्थि गति भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं। अयं पञ्चमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।
‘‘पुन चपरं…पे॰… अयञ्च पुग्गलो मज्झिमेसु जनपदेसु पच्चाजातो होति, सो च होति मिच्छादिट्ठिको विपरीतदस्सनो – ‘नत्थि दिन्नं, नत्थि यिट्ठं, नत्थि हुतं, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको, नत्थि अयं लोको, नत्थि परो लोको, नत्थि माता, नत्थि पिता, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि लोके समणब्राह्मणा सम्मग्गता सम्मापटिपन्ना ये इमञ्च लोकं परञ्च लोकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेन्ती’ति। अयं छट्ठो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।
‘‘पुन चपरं…पे॰… अयञ्च पुग्गलो मज्झिमेसु जनपदेसु पच्चाजातो होति, सो च होति दुप्पञ्ञो जळो एळमूगो, नप्पटिबलो सुभासितदुब्भासितानमत्थमञ्ञातुं। अयं सत्तमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय।
‘‘पुन चपरं…पे॰… अयञ्च पुग्गलो मज्झिमेसु जनपदेसु पच्चाजातो होति, सो च होति पञ्ञवा अजळो अनेळमूगो, पटिबलो सुभासितदुब्भासितानमत्थमञ्ञातुं। अयं अट्ठमो अक्खणो असमयो ब्रह्मचरियवासाय। इमे अट्ठ धम्मा दुप्पटिविज्झा।
(ज) ‘‘कतमे अट्ठ धम्मा उप्पादेतब्बा? अट्ठ महापुरिसवितक्का – अप्पिच्छस्सायं धम्मो, नायं धम्मो महिच्छस्स। सन्तुट्ठस्सायं धम्मो, नायं धम्मो असन्तुट्ठस्स। पविवित्तस्सायं धम्मो, नायं धम्मो सङ्गणिकारामस्स। आरद्धवीरियस्सायं धम्मो, नायं धम्मो कुसीतस्स। उपट्ठितसतिस्सायं धम्मो, नायं धम्मो मुट्ठस्सतिस्स। समाहितस्सायं धम्मो, नायं धम्मो असमाहितस्स। पञ्ञवतो [पञ्ञावतो (सी॰ पी॰)] अयं धम्मो, नायं धम्मो दुप्पञ्ञस्स। निप्पपञ्चस्सायं धम्मो, नायं धम्मो पपञ्चारामस्साति [निप्पपञ्चारामस्स अयं धम्मो निप्पपञ्चरतिनो, नायं धम्मो पपञ्चारामस्स पपञ्चरतिनोति (सी॰ स्या॰ पी॰) अङ्गुत्तरेपि तथेव दिस्सति। अट्ठकथाटीका पन ओलोकेतब्बा] इमे अट्ठ धम्मा उप्पादेतब्बा।
(झ) ‘‘कतमे अट्ठ धम्मा अभिञ्ञेय्या? अट्ठ अभिभायतनानि – अज्झत्तं रूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति – एवंसञ्ञी होति। इदं पठमं अभिभायतनं।
‘‘अज्झत्तं रूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति – एवंसञ्ञी होति। इदं दुतियं अभिभायतनं।
‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्ञी होति। इदं ततियं अभिभायतनं।
‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्ञी होति। इदं चतुत्थं अभिभायतनं।
‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति नीलानि नीलवण्णानि नीलनिदस्सनानि नीलनिभासानि। सेय्यथापि नाम उमापुप्फं नीलं नीलवण्णं नीलनिदस्सनं नीलनिभासं। सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं नीलं नीलवण्णं नीलनिदस्सनं नीलनिभासं, एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति नीलानि नीलवण्णानि नीलनिदस्सनानि नीलनिभासानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्ञी होति। इदं पञ्चमं अभिभायतनं।
‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति पीतानि पीतवण्णानि पीतनिदस्सनानि पीतनिभासानि। सेय्यथापि नाम कणिकारपुप्फं पीतं पीतवण्णं पीतनिदस्सनं पीतनिभासं। सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं पीतं पीतवण्णं पीतनिदस्सनं पीतनिभासं, एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति पीतानि पीतवण्णानि पीतनिदस्सनानि पीतनिभासानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्ञी होति। इदं छट्ठं अभिभायतनं।
‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति लोहितकानि लोहितकवण्णानि लोहितकनिदस्सनानि लोहितकनिभासानि। सेय्यथापि नाम बन्धुजीवकपुप्फं लोहितकं लोहितकवण्णं लोहितकनिदस्सनं लोहितकनिभासं, सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं लोहितकं लोहितकवण्णं लोहितकनिदस्सनं लोहितकनिभासं, एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति लोहितकानि लोहितकवण्णानि लोहितकनिदस्सनानि लोहितकनिभासानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्ञी होति। इदं सत्तमं अभिभायतनं।
‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति ओदातानि ओदातवण्णानि ओदातनिदस्सनानि ओदातनिभासानि। सेय्यथापि नाम ओसधितारका ओदाता ओदातवण्णा ओदातनिदस्सना ओदातनिभासा, सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं ओदातं ओदातवण्णं ओदातनिदस्सनं ओदातनिभासं, एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति ओदातानि ओदातवण्णानि ओदातनिदस्सनानि ओदातनिभासानि, ‘तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी’ति एवंसञ्ञी होति। इदं अट्ठमं अभिभायतनं। इमे अट्ठ धम्मा अभिञ्ञेय्या।
(ञ) ‘‘कतमे अट्ठ धम्मा सच्छिकातब्बा? अट्ठ विमोक्खा – रूपी रूपानि पस्सति। अयं पठमो विमोक्खो।
‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति। अयं दुतियो विमोक्खो।
‘‘सुभन्तेव अधिमुत्तो होति। अयं ततियो विमोक्खो।
‘‘सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति। अयं चतुत्थो विमोक्खो।
‘‘सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति। अयं पञ्चमो विमोक्खो।
‘‘सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति। अयं छट्ठो विमोक्खो।
‘‘सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति। अयं सत्तमो विमोक्खो।
‘‘सब्बसो नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समतिक्कम्म सञ्ञावेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति। अयं अट्ठमो विमोक्खो। इमे अट्ठ धम्मा सच्छिकातब्बा।
‘‘इति इमे असीति धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञ्ञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा।
नव धम्मा
३५९. ‘‘नव धम्मा बहुकारा…पे॰… नव धम्मा सच्छिकातब्बा।
(क) ‘‘कतमे नव धम्मा बहुकारा? नव योनिसोमनसिकारमूलका धम्मा, योनिसोमनसिकरोतो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति, समाहिते चित्ते यथाभूतं जानाति पस्सति, यथाभूतं जानं पस्सं निब्बिन्दति, निब्बिन्दं विरज्जति, विरागा विमुच्चति। इमे नव धम्मा बहुकारा।
(ख) ‘‘कतमे नव धम्मा भावेतब्बा? नव पारिसुद्धिपधानियङ्गानि – सीलविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्गं, चित्तविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्गं, दिट्ठिविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्गं, कङ्खावितरणविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्गं, मग्गामग्गञाणदस्सन – विसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्गं, पटिपदाञाणदस्सनविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्गं, ञाणदस्सनविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्गं, पञ्ञाविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्गं, विमुत्तिविसुद्धि पारिसुद्धिपधानियङ्गं। इमे नव धम्मा भावेतब्बा।
(ग) ‘‘कतमे नव धम्मा परिञ्ञेय्या? नव सत्तावासा – सन्तावुसो, सत्ता नानत्तकाया नानत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि मनुस्सा एकच्चे च देवा एकच्चे च विनिपातिका। अयं पठमो सत्तावासो।
‘‘सन्तावुसो, सत्ता नानत्तकाया एकत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा ब्रह्मकायिका पठमाभिनिब्बत्ता। अयं दुतियो सत्तावासो।
‘‘सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया नानत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा आभस्सरा। अयं ततियो सत्तावासो।
‘‘सन्तावुसो, सत्ता एकत्तकाया एकत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा सुभकिण्हा। अयं चतुत्थो सत्तावासो।
‘‘सन्तावुसो, सत्ता असञ्ञिनो अप्पटिसंवेदिनो, सेय्यथापि देवा असञ्ञसत्ता। अयं पञ्चमो सत्तावासो।
‘‘सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनूपगा। अयं छट्ठो सत्तावासो।
‘‘सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनूपगा। अयं सत्तमो सत्तावासो।
‘‘सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनूपगा। अयं अट्ठमो सत्तावासो।
‘‘सन्तावुसो, सत्ता सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्ञानासञ्ञायतनूपगा। अयं नवमो सत्तावासो। इमे नव धम्मा परिञ्ञेय्या।
(घ) ‘‘कतमे नव धम्मा पहातब्बा? नव तण्हामूलका धम्मा – तण्हं पटिच्च परियेसना, परियेसनं पटिच्च लाभो, लाभं पटिच्च विनिच्छयो, विनिच्छयं पटिच्च छन्दरागो, छन्दरागं पटिच्च अज्झोसानं, अज्झोसानं पटिच्च परिग्गहो, परिग्गहं पटिच्च मच्छरियं, मच्छरियं पटिच्च आरक्खो, आरक्खाधिकरणं [आरक्खाधिकरणं पटिच्च (स्या॰ पी॰ क॰)] दण्डादानसत्थादानकलहविग्गहविवादतुवंतुवंपेसुञ्ञमुसावादा अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्ति। इमे नव धम्मा पहातब्बा।
(ङ) ‘‘कतमे नव धम्मा हानभागिया? नव आघातवत्थूनि – ‘अनत्थं मे अचरी’ति आघातं बन्धति, ‘अनत्थं मे चरती’ति आघातं बन्धति, ‘अनत्थं मे चरिस्सती’ति आघातं बन्धति; ‘पियस्स मे मनापस्स अनत्थं अचरी’ति आघातं बन्धति…पे॰… ‘अनत्थं चरती’ति आघातं बन्धति…पे॰… ‘अनत्थं चरिस्सती’ति आघातं बन्धति; ‘अप्पियस्स मे अमनापस्स अत्थं अचरी’ति आघातं बन्धति…पे॰… ‘अत्थं चरती’ति आघातं बन्धति…पे॰… ‘अत्थं चरिस्सती’ति आघातं बन्धति। इमे नव धम्मा हानभागिया।
(च) ‘‘कतमे नव धम्मा विसेसभागिया? नव आघातपटिविनया – ‘अनत्थं मे अचरि, तं कुतेत्थ लब्भा’ति आघातं पटिविनेति; ‘अनत्थं मे चरति, तं कुतेत्थ लब्भा’ति आघातं पटिविनेति; ‘अनत्थं मे चरिस्सति, तं कुतेत्थ लब्भा’ति आघातं पटिविनेति; ‘पियस्स मे मनापस्स अनत्थं अचरि…पे॰… अनत्थं चरति…पे॰… अनत्थं चरिस्सति, तं कुतेत्थ लब्भा’ति आघातं पटिविनेति; ‘अप्पियस्स मे अमनापस्स अत्थं अचरि…पे॰… अत्थं चरति…पे॰… अत्थं चरिस्सति, तं कुतेत्थ लब्भा’ति आघातं पटिविनेति। इमे नव धम्मा विसेसभागिया।
(छ) ‘‘कतमे नव धम्मा दुप्पटिविज्झा? नव नानत्ता – धातुनानत्तं पटिच्च उप्पज्जति फस्सनानत्तं, फस्सनानत्तं पटिच्च उप्पज्जति वेदनानानत्तं, वेदनानानत्तं पटिच्च उप्पज्जति सञ्ञानानत्तं, सञ्ञानानत्तं पटिच्च उप्पज्जति सङ्कप्पनानत्तं, सङ्कप्पनानत्तं पटिच्च उप्पज्जति छन्दनानत्तं, छन्दनानत्तं पटिच्च उप्पज्जति परिळाहनानत्तं, परिळाहनानत्तं पटिच्च उप्पज्जति परियेसनानानत्तं, परियेसनानानत्तं पटिच्च उप्पज्जति लाभनानत्तं। इमे नव धम्मा दुप्पटिविज्झा।
(ज) ‘‘कतमे नव धम्मा उप्पादेतब्बा? नव सञ्ञा – असुभसञ्ञा, मरणसञ्ञा, आहारेपटिकूलसञ्ञा, सब्बलोकेअनभिरतिसञ्ञा [अनभिरतसञ्ञा (स्या॰ क॰)], अनिच्चसञ्ञा, अनिच्चे दुक्खसञ्ञा, दुक्खे अनत्तसञ्ञा, पहानसञ्ञा, विरागसञ्ञा। इमे नव धम्मा उप्पादेतब्बा।
(झ) ‘‘कतमे नव धम्मा अभिञ्ञेय्या? नव अनुपुब्बविहारा – इधावुसो, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति। वितक्कविचारानं वूपसमा…पे॰… दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति। पीतिया च विरागा …पे॰… ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति। सुखस्स च पहाना…पे॰… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति। सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा…पे॰… आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति। सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति। सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति। सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति। सब्बसो नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समतिक्कम्म सञ्ञावेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति। इमे नव धम्मा अभिञ्ञेय्या।
(ञ) ‘‘कतमे नव धम्मा सच्छिकातब्बा? नव अनुपुब्बनिरोधा – पठमं झानं समापन्नस्स कामसञ्ञा निरुद्धा होति, दुतियं झानं समापन्नस्स वितक्कविचारा निरुद्धा होन्ति, ततियं झानं समापन्नस्स पीति निरुद्धा होति, चतुत्थं झानं समापन्नस्स अस्सासपस्सास्सा निरुद्धा होन्ति, आकासानञ्चायतनं समापन्नस्स रूपसञ्ञा निरुद्धा होति, विञ्ञाणञ्चायतनं समापन्नस्स आकासानञ्चायतनसञ्ञा निरुद्धा होति, आकिञ्चञ्ञायतनं समापन्नस्स विञ्ञाणञ्चायतनसञ्ञा निरुद्धा होति, नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समापन्नस्स आकिञ्चञ्ञायतनसञ्ञा निरुद्धा होति, सञ्ञावेदयितनिरोधं समापन्नस्स सञ्ञा च वेदना च निरुद्धा होन्ति। इमे नव धम्मा सच्छिकातब्बा।
‘‘इति इमे नवुति धम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञ्ञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा।
दस धम्मा
३६०. ‘‘दस धम्मा बहुकारा…पे॰… दस धम्मा सच्छिकातब्बा।
(क) ‘‘कतमे दस धम्मा बहुकारा? दस नाथकरणाधम्मा – इधावुसो, भिक्खु सीलवा होति, पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति आचारगोचरसम्पन्नो, अणुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्सावी समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु, यंपावुसो, भिक्खु सीलवा होति…पे॰… सिक्खति सिक्खापदेसु। अयम्पि धम्मो नाथकरणो।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु बहुस्सुतो …पे॰… दिट्ठिया सुप्पटिविद्धा, यंपावुसो, भिक्खु बहुस्सुतो…पे॰… अयम्पि धम्मो नाथकरणो।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु कल्याणमित्तो होति कल्याणसहायो कल्याणसम्पवङ्को। यंपावुसो, भिक्खु…पे॰… कल्याणसम्पवङ्को। अयम्पि धम्मो नाथकरणो।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सुवचो होति सोवचस्सकरणेहि धम्मेहि समन्नागतो, खमो पदक्खिणग्गाही अनुसासनिं। यंपावुसो, भिक्खु…पे॰… अनुसासनिं। अयम्पि धम्मो नाथकरणो।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु यानि तानि सब्रह्मचारीनं उच्चावचानि किंकरणीयानि तत्थ दक्खो होति अनलसो तत्रुपायाय वीमंसाय समन्नागतो, अलं कातुं, अलं संविधातुं। यंपावुसो, भिक्खु…पे॰… अलं संविधातुं। अयम्पि धम्मो नाथकरणो।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु धम्मकामो होति पियसमुदाहारो अभिधम्मे अभिविनये उळारपामोज्जो। यंपावुसो, भिक्खु…पे॰… उळारपामोज्जो। अयम्पि धम्मो नाथकरणो।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सन्तुट्ठो होति इतरीतरेहि चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारेहि। यंपावुसो, भिक्खु …पे॰… अयम्पि धम्मो नाथकरणो।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु आरद्धवीरियो विहरति…पे॰… कुसलेसु धम्मेसु। यंपावुसो, भिक्खु…पे॰… अयम्पि धम्मो नाथकरणो।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सतिमा होति, परमेन सतिनेपक्केन समन्नागतो, चिरकतम्पि चिरभासितम्पि सरिता अनुस्सरिता। यंपावुसो, भिक्खु…पे॰… अयम्पि धम्मो नाथकरणो।
‘‘पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु पञ्ञवा होति उदयत्थगामिनिया पञ्ञाय समन्नागतो, अरियाय निब्बेधिकाय सम्मा दुक्खक्खयगामिनिया। यंपावुसो, भिक्खु…पे॰… अयम्पि धम्मो नाथकरणो। इमे दस धम्मा बहुकारा।
(ख) ‘‘कतमे दस धम्मा भावेतब्बा? दस कसिणायतनानि – पथवीकसिणमेको सञ्जानाति उद्धं अधो तिरियं अद्वयं अप्पमाणं। आपोकसिणमेको सञ्जानाति…पे॰… तेजोकसिणमेको सञ्जानाति… वायोकसिणमेको सञ्जानाति… नीलकसिणमेको सञ्जानाति… पीतकसिणमेको सञ्जानाति… लोहितकसिणमेको सञ्जानाति… ओदातकसिणमेको सञ्जानाति… आकासकसिणमेको सञ्जानाति… विञ्ञाणकसिणमेको सञ्जानाति उद्धं अधो तिरियं अद्वयं अप्पमाणं। इमे दस धम्मा भावेतब्बा।
(ग) ‘‘कतमे दस धम्मा परिञ्ञेय्या? दसायतनानि – चक्खायतनं, रूपायतनं, सोतायतनं, सद्दायतनं, घानायतनं, गन्धायतनं, जिव्हायतनं, रसायतनं, कायायतनं, फोट्ठब्बायतनं। इमे दस धम्मा परिञ्ञेय्या।
(घ) ‘‘कतमे दस धम्मा पहातब्बा? दस मिच्छत्ता – मिच्छादिट्ठि, मिच्छासङ्कप्पो, मिच्छावाचा, मिच्छाकम्मन्तो, मिच्छाआजीवो, मिच्छावायामो, मिच्छासति, मिच्छासमाधि, मिच्छाञाणं, मिच्छाविमुत्ति। इमे दस धम्मा पहातब्बा।
(ङ) ‘‘कतमे दस धम्मा हानभागिया? दस अकुसलकम्मपथा – पाणातिपातो, अदिन्नादानं, कामेसुमिच्छाचारो, मुसावादो, पिसुणा वाचा, फरुसा वाचा, सम्फप्पलापो, अभिज्झा, ब्यापादो, मिच्छादिट्ठि। इमे दस धम्मा हानभागिया।
(च) ‘‘कतमे दस धम्मा विसेसभागिया? दस कुसलकम्मपथा – पाणातिपाता वेरमणी, अदिन्नादाना वेरमणी, कामेसुमिच्छाचारा वेरमणी, मुसावादा वेरमणी, पिसुणाय वाचाय वेरमणी, फरुसाय वाचाय वेरमणी, सम्फप्पलापा वेरमणी, अनभिज्झा, अब्यापादो, सम्मादिट्ठि। इमे दस धम्मा विसेसभागिया।
(छ) ‘‘कतमे दस धम्मा दुप्पटिविज्झा? दस अरियवासा – इधावुसो, भिक्खु पञ्चङ्गविप्पहीनो होति, छळङ्गसमन्नागतो, एकारक्खो, चतुरापस्सेनो, पणुन्नपच्चेकसच्चो, समवयसट्ठेसनो, अनाविलसङ्कप्पो, पस्सद्धकायसङ्खारो, सुविमुत्तचित्तो, सुविमुत्तपञ्ञो।
‘‘कथञ्चावुसो, भिक्खु पञ्चङ्गविप्पहीनो होति? इधावुसो, भिक्खुनो कामच्छन्दो पहीनो होति, ब्यापादो पहीनो होति, थिनमिद्धं पहीनं होति, उद्धच्चकुक्कुच्चं पहीनं होति, विचिकिच्छा पहीना होति। एवं खो, आवुसो, भिक्खु पञ्चङ्गविप्पहीनो होति।
‘‘कथञ्चावुसो, भिक्खु छळङ्गसमन्नागतो होति? इधावुसो, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। सोतेन सद्दं सुत्वा…पे॰… घानेन गन्धं घायित्वा… जिव्हाय रसं सायित्वा… कायेन फोट्ठब्बं फुसित्वा… मनसा धम्मं विञ्ञाय नेव सुमनो होति न दुम्मनो, उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। एवं खो, आवुसो, भिक्खु छळङ्गसमन्नागतो होति।
‘‘कथञ्चावुसो, भिक्खु एकारक्खो होति? इधावुसो, भिक्खु सतारक्खेन चेतसा समन्नागतो होति। एवं खो, आवुसो, भिक्खु एकारक्खो होति।
‘‘कथञ्चावुसो, भिक्खु चतुरापस्सेनो होति? इधावुसो, भिक्खु सङ्खायेकं पटिसेवति, सङ्खायेकं अधिवासेति, सङ्खायेकं परिवज्जेति, सङ्खायेकं विनोदेति। एवं खो, आवुसो, भिक्खु चतुरापस्सेनो होति।
‘‘कथञ्चावुसो, भिक्खु पणुन्नपच्चेकसच्चो होति? इधावुसो, भिक्खुनो यानि तानि पुथुसमणब्राह्मणानं पुथुपच्चेकसच्चानि, सब्बानि तानि नुन्नानि होन्ति पणुन्नानि चत्तानि वन्तानि मुत्तानि पहीनानि पटिनिस्सट्ठानि। एवं खो, आवुसो, भिक्खु पणुन्नपच्चेकसच्चो होति।
‘‘कथञ्चावुसो, भिक्खु समवयसट्ठेसनो होति? इधावुसो, भिक्खुनो कामेसना पहीना होति, भवेसना पहीना होति, ब्रह्मचरियेसना पटिप्पस्सद्धा। एवं खो, आवुसो, भिक्खु समवयसट्ठेसनो होति।
‘‘कथञ्चावुसो, भिक्खु अनाविलसङ्कप्पा होति? इधावुसो, भिक्खुनो कामसङ्कप्पो पहीनो होति, ब्यापादसङ्कप्पो पहीनो होति, विहिंसासङ्कप्पो पहीनो होति। एवं खो, आवुसो, भिक्खु अनाविलसङ्कप्पो होति।
‘‘कथञ्चावुसो, भिक्खु पस्सद्धकायसङ्खारो होति? इधावुसो, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति। एवं खो, आवुसो, भिक्खु पस्सद्धकायसङ्खारो होति।
‘‘कथञ्चावुसो, भिक्खु सुविमुत्तचित्तो होति? इधावुसो, भिक्खुनो रागा चित्तं विमुत्तं होति, दोसा चित्तं विमुत्तं होति, मोहा चित्तं विमुत्तं होति। एवं खो, आवुसो, भिक्खु सुविमुत्तचित्तो होति।
‘‘कथञ्चावुसो, भिक्खु सुविमुत्तपञ्ञो होति? इधावुसो, भिक्खु ‘रागो मे पहीनो उच्छिन्नमूलो तालावत्थुकतो अनभावंकतो आयतिं अनुप्पादधम्मो’ति पजानाति। ‘दोसो मे पहीनो…पे॰… आयतिं अनुप्पादधम्मो’ति पजानाति। ‘मोहो मे पहीनो …पे॰… आयतिं अनुप्पादधम्मो’ति पजानाति। एवं खो, आवुसो, भिक्खु सुविमुत्तपञ्ञो होति। इमे दस धम्मा दुप्पटिविज्झा।
(ज) ‘‘कतमे दस धम्मा उप्पादेतब्बा? दस सञ्ञा – असुभसञ्ञा, मरणसञ्ञा, आहारेपटिकूलसञ्ञा, सब्बलोकेअनभिरतिसञ्ञा, अनिच्चसञ्ञा, अनिच्चे दुक्खसञ्ञा, दुक्खे अनत्तसञ्ञा, पहानसञ्ञा, विरागसञ्ञा, निरोधसञ्ञा। इमे दस धम्मा उप्पादेतब्बा।
(झ) ‘‘कतमे दस धम्मा अभिञ्ञेय्या? दस निज्जरवत्थूनि – सम्मादिट्ठिस्स मिच्छादिट्ठि निज्जिण्णा होति। ये च मिच्छादिट्ठिपच्चया अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्ति, ते चस्स निज्जिण्णा होन्ति। सम्मासङ्कप्पस्स मिच्छासङ्कप्पो…पे॰… सम्मावाचस्स मिच्छावाचा… सम्माकम्मन्तस्स मिच्छाकम्मन्तो… सम्माआजीवस्स मिच्छाआजीवो… सम्मावायामस्स मिच्छावायामो… सम्मासतिस्स मिच्छासति… सम्मासमाधिस्स मिच्छासमाधि… सम्माञाणस्स मिच्छाञाणं निज्जिण्णं होति। सम्माविमुत्तिस्स मिच्छाविमुत्ति निज्जिण्णा होति। ये च मिच्छाविमुत्तिपच्चया अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्ति, ते चस्स निज्जिण्णा होन्ति। इमे दस धम्मा अभिञ्ञेय्या।
(ञ) ‘‘कतमे दस धम्मा सच्छिकातब्बा? दस असेक्खा धम्मा – असेक्खा सम्मादिट्ठि, असेक्खो सम्मासङ्कप्पो, असेक्खा सम्मावाचा, असेक्खो सम्माकम्मन्तो, असेक्खो सम्माआजीवो, असेक्खो सम्मावायामो, असेक्खा सम्मासति, असेक्खो सम्मासमाधि, असेक्खं सम्माञाणं, असेक्खा सम्माविमुत्ति। इमे दस धम्मा सच्छिकातब्बा।
‘‘इति इमे सतधम्मा भूता तच्छा तथा अवितथा अनञ्ञथा सम्मा तथागतेन अभिसम्बुद्धा’’ति। इदमवोचायस्मा सारिपुत्तो। अत्तमना ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं अभिनन्दुन्ति।
दसुत्तरसुत्तं निट्ठितं एकादसमं।
पाथिकवग्गो [पाटिकवग्गो (सी॰ स्या॰ पी॰)] निट्ठितो।
तस्सुद्दानं –
पाथिको च [पाटिकञ्च (स्या॰ कं॰)] उदुम्बरं [पाटिकोदुम्बरीचेव (सी॰ पी॰)], चक्कवत्ति अग्गञ्ञकं।
सम्पसादनपासादं [सम्पसादञ्च पासादं (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)], महापुरिसलक्खणं॥
सिङ्गालाटानाटियकं, सङ्गीति च दसुत्तरं।
एकादसहि सुत्तेहि, पाथिकवग्गोति वुच्चति॥
पाथिकवग्गपाळि निट्ठिता।
तीहि वग्गेहि पटिमण्डितो सकलो
दीघनिकायो समत्तो।